- अल-कह्फ़
(मक्का में उतरी-आयतें 110)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम इसकी नवीं आयत 'अम हसिब-त अन-न असहाब-कह्फ़' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें कह्फ़ का शब्द आया है।
उतरने का समय
यहाँ से उन सूरतों का आरंभ होता है जो मक्की जीवन के तीसरे काल में उतरी हैं। यह काल लगभग 5 नबवी के आरंभ से शुरू होकर क़रीब-क़रीब 10 नबवी तक चलता है। इस युग में क़ुरैश ने नबी (सल्ल०) और आपकी 'तहरीक' (आन्दोलन) और जमाअत को दबाने के लिए उपहास, हँसी, आपत्तियों, आरोप, धमकी, लालच और विरोधीृ-दुष्प्रचार से आगे बढ़कर अन्याय-अत्याचार, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार पूरी कठोरता के साथ प्रयोग में लाए गए।
सूरा कह्फ़ के विषय पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह तीसरे काल के आरंभ में उतरी होगी, जबकि अन्याय एवं अत्याचार और अवरोध ने तेज़ी तो अपना ली थी, मगर अभी हबशा की हिजरत नहीं हुई थी। उस समय जो मुसलमान सताए जा रहे थे उनको कह्फ़वालों का क़िस्सा सुनाया गया, ताकि उनमें साहस पैदा हो और उन्हें मालूम हो कि ईमानवाले अपना ईमान बचाने के लिए इससे पहले क्या कुछ कर चुके है।
विषय और वार्ताएँ
यह सूरा मक्का के मुशरिकों के तीन प्रश्नों के उत्तर में उतरी है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए अहले-किताब के मश्वरे से आपके सामने पेश किए थे-1. असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवाले) कौन थे? 2. ख़िज़्र के क़िस्से की वास्तविकता क्या है ? और 3 ज़ुल-क़रनैन का क्या क़िस्सा है ? ये तीनों क़िस्से यहूदियों और ईसाइयों के इतिहास से सम्बन्धित थे। हिजाज़ में इनकी कोई चर्चा न थी, मगर अल्लाह ने सिर्फ़ यही नहीं कि अपने नबी की ज़बान से इनके प्रश्नों का पूरा उत्तर दिया, बल्कि उनके अपने पूछे हुए तीनों क़िस्सों को पूरी तरह से उस परिस्थिति पर घटित करके दिखा दिया जो उस समय मक्का में कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम के बीच पायी जा रही थी।
- असहाबे-कह्फ़ (ग़ारवालों) के बारे में बताया कि वे उसी तौहीद(एकेश्वरवाद) को अपनाए हुए थे, जिसकी दावत यह क़ुरआन पेश कर रहा है और उनका हाल मक्का के मुट्ठी भर पीड़ित मुसलमानों के हाल से और उनकी क़ौम का रवैया कुरैश के विधर्मियों के रवैये से कुछ अलग न था। फिर इसी क़िस्से से ईमानवालों को यह शिक्षा दी गई कि अगर विधर्मियों का ग़लबा (प्रभुत्त्व) बहुत ज़्यादा हो और एक ईमानवाले व्यक्ति को ज़ालिम समाज में साँस लेने तक की मोहलत न दी जा रही हो, तब भी उसको असत्य के आगे सिर न झुकाना चाहिए |चाहे इसके लिए उसे घर-बार, बाल-बच्चे सब कुछ छोड़ देना पड़े।
- कह्फ़वालों के किस्से से रास्ता निकालकर उस अन्याय एवं अत्याचार पर और अनादर एवं अपमानजनक व्यवहार पर वार्ता शुरू कर दी गई जो मक्का के सरदार मुसलमानों के साथ कर रहे थे। इस सिलसिले में एक ओर नबी (सल्ल०) को आदेश दिया गया कि न इन अत्याचारियों से कोई समझौता करो और न अपने निर्धन साथियों के मुक़ाबले में इन बड़े-बड़े लोगों को कोई महत्त्व दो। दूसरी ओर उन सरदारों को उपदेश दिया गया कि अपने कुछ दिनों की ज़िन्दगी के ऐश पर न फूलो, बल्कि उन भलाइयों की तलब करनेवाले बनो जो सदा-सर्वदा रहनेवाली और स्थायी हैं।
- इसी के वर्णन-क्रम में ख़िज़्र और मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा कुछ इस ढंग से सुनाया गया है कि उसमें विधर्मियों के सवालों का जवाब भी था और ईमानवालों के लिए तसल्ली का सामान भी। इस क़िस्से में वास्तव में जो शिक्षा दी गई है, वह यह है कि अल्लाह की मशीयत (ईश्वरेच्छा) का कारख़ाना जिन मस्लहतों (निहितार्थों) पर चल रहा है, वे चूँकि तुम्हारी नज़र से छिपी हुई हैं, इसलिए तुम बात-बात पर हैरान होते हो कि यह क्यों हुआ? यह क्या हो गया? हालाँकि अगर परदा उठा दिया जाए तो तुम्हें स्वयं मालूम हो जाए कि यहाँ जो कुछ हो रहा है, ठीक हो रहा है।
- इसके बाद ज़ुल-क़रनैन का क़िस्सा बयान होता है और इसमें पूछनेवालों को यह शिक्षा दी जाती है कि तुम तो इतनी मामूली-मामूली-सी सरदारियों पर फूल रहे हो, हालाँकि ज़ुल-क़रनैन इतना बड़ा शासक और ऐसा पराक्रमी विजेता और इतने श्रेष्ठ और प्रचार साधनों का स्वामी होकर भी अपनी वास्तविकता को न भूला था और अपने पैदा करनेवाले के आगे हमेशा सिर झुकाए रखता था।
अन्त में फिर उन्हीं बातों को दोहरा दिया गया है जो आरंभ में आई हैं, अर्थात् यह कि तौहीद और आख़िरत पूर्णत: सत्य हैं और तुम्हारी अपनी भलाई इसी में है कि इन्हें मानो ।
---------------------
نَّحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ نَبَأَهُم بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّهُمۡ فِتۡيَةٌ ءَامَنُواْ بِرَبِّهِمۡ وَزِدۡنَٰهُمۡ هُدٗى 12
(13) हम उनकी वास्तविक कहानी तुम्हें सुनाते हैं। वे कुछ नवयुवक थे जो अपने रब पर ईमान लाए थे और हमने उन्हें मार्गदर्शन की दृष्टि से उन्नति प्रदान की थी।2
2. उल्लेखों से मालूम होता है कि ये नवयुवक आरंभिक युग के मसीह (अलैहि०) के अनुयायियों में से थे और रूम राज्य की प्रजा थे जो उस समय मुशरिक (बहुदेववादी) थी और एकेश्वरवादियों की बड़ी दुश्मन हो रही थी।
۞وَتَرَى ٱلشَّمۡسَ إِذَا طَلَعَت تَّزَٰوَرُ عَن كَهۡفِهِمۡ ذَاتَ ٱلۡيَمِينِ وَإِذَا غَرَبَت تَّقۡرِضُهُمۡ ذَاتَ ٱلشِّمَالِ وَهُمۡ فِي فَجۡوَةٖ مِّنۡهُۚ ذَٰلِكَ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِۗ مَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ وَلِيّٗا مُّرۡشِدٗا 16
(17) तुम उन्हें गुफा में देखते3 तो तुम्हें यों दिखाई देता कि सूरज जब निकलता है तो उनकी गुफा को छोड़कर दाहिनी ओर चढ़ जाता है और जब डूबता है तो उनसे बचकर बाईं ओर उतर जाता है और वे हैं कि गुफा के भीतर एक विस्तृत स्थान में पड़े हैं। यह अल्लाह की निशानियों में से एक है, जिसको अल्लाह मार्ग दिखाए वही मार्ग पानेवाला है और जिसे अल्लाह भटका दे उसके लिए तुम कोई मार्गदर्शक अभिभावक नहीं पा सकते।
3. बीच में यह बात छोड़ दी गई कि इस पारस्परिक प्रस्ताव के अनुसार ये लोग शहर से निकलकर पहाड़ों के मध्य एक गुफा में जा छिपे ताकि पत्थरों से मार डाले जाने या धर्म से फेर दिए जाने से बच जाएँ।
وَكَذَٰلِكَ بَعَثۡنَٰهُمۡ لِيَتَسَآءَلُواْ بَيۡنَهُمۡۚ قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ كَمۡ لَبِثۡتُمۡۖ قَالُواْ لَبِثۡنَا يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۚ قَالُواْ رَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثۡتُمۡ فَٱبۡعَثُوٓاْ أَحَدَكُم بِوَرِقِكُمۡ هَٰذِهِۦٓ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ فَلۡيَنظُرۡ أَيُّهَآ أَزۡكَىٰ طَعَامٗا فَلۡيَأۡتِكُم بِرِزۡقٖ مِّنۡهُ وَلۡيَتَلَطَّفۡ وَلَا يُشۡعِرَنَّ بِكُمۡ أَحَدًا 18
(19) और इसी अनोखे चमत्कार से हमने उन्हें उठा बिठाया4 ताकि तनिक आपस में पूछ-गछ करें। उनमें से एक ने पूछा, “कहो, कितनी देर इस हाल में रहे?” दूसरों ने कहा, “शायद दिनभर या उससे कुछ कम रहे होंगे।” फिर वे बोले, “अल्लाह ही बेहतर जानता है कि हमारा कितना समय इस हालत में बीता। चलो अब अपने में से किसी को चाँदी का यह सिक्का देकर शहर भेजें और वह देखे कि सबसे अच्छा भोजन कहाँ मिलता है। वहाँ से वह कुछ खाने के लिए लाए। और चाहिए कि ज़रा होशियारी से काम करे, ऐसा न हो कि वह किसी को हमारे यहाँ पर होने की सूचना दे बैठे।
4. अर्थात् जैसे अजीब ढंग से वे सुलाए गए थे और दुनिया को उनके हाल से बेख़बर रखा गया था, वैसा ही क़ुदरत का अजीब चमत्कार उनका एक लम्बी अवधि के बाद जागना भी था।
وَكَذَٰلِكَ أَعۡثَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ لِيَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ لَا رَيۡبَ فِيهَآ إِذۡ يَتَنَٰزَعُونَ بَيۡنَهُمۡ أَمۡرَهُمۡۖ فَقَالُواْ ٱبۡنُواْ عَلَيۡهِم بُنۡيَٰنٗاۖ رَّبُّهُمۡ أَعۡلَمُ بِهِمۡۚ قَالَ ٱلَّذِينَ غَلَبُواْ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِمۡ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيۡهِم مَّسۡجِدٗا 20
(21) — इस तरह हमने शहरवालों को उनके हाल की ख़बर कर दी5 ताकि लोग जान लें कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि क़ियामत की घड़ी बेशक आकर रहेगी। (मगर ज़रा सोचो कि जब सोचने की असल बात यह थी) उस समय वे आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि इन (गुफावालों) के साथ क्या किया जाए। कुछ लोगों ने कहा, “इनपर एक दीवार चुन दो, इनका रब ही इनके मामले को बेहतर जानता है6।” मगर जो लोग उनके मामलों पर प्रभावी थे उन्होंने कहा, “हम तो इनपर एक उपासनागृह बनाएँगे।7
5. अर्थात् जब वह व्यक्ति भोजन ख़रीदने के लिए शहर गया तो दुनिया बदल चुकी थी। मूर्तिपूजक रूम को ईसाई हुए एक अवधि बीत चुकी थी। भाषा, सभ्यता, संस्कृति, वेश-भूषा, हर चीज़़ में स्पष्ट अन्तर आ गया था। दौ सौ वर्ष पहले का यह आदमी अपनी सजधज, वस्त्र, भाषा हर चीज़़ से तुरन्त एक तमाशा बन गया और जब उसने पुराने समय का सिक्का भोजन खरीदने के लिए पेश किया तो दुकानदार की आँखें फटी की फटी रह गई। जाँच-पड़ताल की गई तो मालूम हुआ कि यह व्यक्ति तो मसीह के उन अनुयायियों में से है जो दो सौ वर्ष पहले अपना ईमान बचाने के लिए भाग निकले थे। यह ख़बर तुरंत शहर की ईसाई आबादी में फैल गई और अधिकारियों के साथ लोगों की एक भीड़ गुफा पर पहुँच गई। अब जो गुफावालों को मालूम हुआ कि वे दो सौ वर्ष के बाद सोकर उठे हैं तो वे अपने ईसाई भाइयों को सलाम करके लेट गए और उनकी जान निकल गई।
6. वर्णन-शैली से व्यक्त होता है कि यह ईसाइयों के सुचरित्र व्यक्तियों का कथन था। उनकी राय यह थी कि गुफावाले, जिस तरह गुफा में लेटे हुए हैं उसी तरह उन्हें लेटा रहने दो और गुफा के दहाने को बन्द कर दो, उनका रब ही बेहतर जानता है कि ये कौन लोग है, किस श्रेणी के इनसान हैं और किस बदले के अधिकारी हैं।
7. यह इस कारण हुआ कि उस समय ईसाई जन-साधारण में भी शिर्क (बहुदेववाद) के विचार फैल चुके थे। पुरानी मूर्तियों की जगह ये नए पूज्य उन्हें पूजने के लिए मिल गए।
سَيَقُولُونَ ثَلَٰثَةٞ رَّابِعُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ وَيَقُولُونَ خَمۡسَةٞ سَادِسُهُمۡ كَلۡبُهُمۡ رَجۡمَۢا بِٱلۡغَيۡبِۖ وَيَقُولُونَ سَبۡعَةٞ وَثَامِنُهُمۡ كَلۡبُهُمۡۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ بِعِدَّتِهِم مَّا يَعۡلَمُهُمۡ إِلَّا قَلِيلٞۗ فَلَا تُمَارِ فِيهِمۡ إِلَّا مِرَآءٗ ظَٰهِرٗا وَلَا تَسۡتَفۡتِ فِيهِم مِّنۡهُمۡ أَحَدٗا 21
(22) कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे और चौथा उनका कुत्ता था। और कुछ दूसरे कह देंगे कि पाँच थे और छठा उनका कुत्ता था। ये सब बेतुकी हाँकते हैं। कुछ और लोग कहते हैं कि सात थे और आठवाँ उनका कुत्ता था।8 कहो, मेरा रब ही बेहतर जानता है कि वे कितने थे। कम ही लोग उनकी ठीक तादाद जानते हैं। अतः सरसरी बात से बढ़कर उनकी तादाद के मामले में लोगों से वाद-विवाद न करो, और न उनके सम्बन्ध में किसी से कुछ पूछो।9
8. इससे मालूम होता है कि इस घटना के पौने तीन सौ वर्ष के बाद क़ुरआन के अवतरित होने के समय में इसके विवरण के सम्बन्ध में विभिन्न कथाएँ ईसाइयों में फैली हुई थीं और साधारणतया प्रामाणिक ज्ञान लोगों के पास मौजूद न था। फिर भी चूँकि तीसरे कथन का खण्डन अल्लाह ने नहीं किया इसलिए यह अनुमान किया जा सकता है कि ठीक तादाद सात ही थी।
9. अर्थात् असल चीज़़ उनकी तादाद नहीं, बल्कि असल चीज़ वे शिक्षाएँ हैं जो इस घटना से मिलती हैं।
وَلَا تَقُولَنَّ لِشَاْيۡءٍ إِنِّي فَاعِلٞ ذَٰلِكَ غَدًا 22
(23) — और10 देखो, किसी चीज़़ के बारे में कभी यह न कहा करो कि मैं कल यह काम कर दूँगा।
10. यह एक सन्निविष्ट वाक्य है जो पिछली आयत के विषय की अनुकूलता से वार्ता के बीच में कहा गया है। पिछली आयत में कहा गया था कि गुफावालों की तादाद का सच्चा ज्ञान अल्लाह को है और उसकी जाँच-पड़ताल में पड़ना एक अनावश्यक काम है। इस सिलसिले में आगे की बात कहने से पहले सन्निविष्ट वाक्य के रूप में एक और आदेश भी नबी (सल्ल०) और ईमानवालों को दिया गया और वह यह कि कभी दावे से यह न कह देना कि में कल अमुक काम कर दूँगा। तुमको क्या ख़बर कि तुम वह काम कर सकोगे या नहीं।
قُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا لَبِثُواْۖ لَهُۥ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَبۡصِرۡ بِهِۦ وَأَسۡمِعۡۚ مَا لَهُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا يُشۡرِكُ فِي حُكۡمِهِۦٓ أَحَدٗا 25
(26) तुम कहो, अल्लाह उनके ठहरने की अवधि ज़्यादा जानता है11, आसमानों और ज़मीन की सब छिपी बातें उसी को मालूम हैं, क्या ख़ूब है, वह देखनेवाला और सुननेवाला! (ज़मीन और आसमान के सृष्टि प्राणी आदि की) कोई ख़बर लेनेवाला उसके सिवा नहीं, और वह अपनी सत्ता में किसी को साझीदार नहीं बनाता।
11. अर्थात् गुफावालों की तादाद की तरह उनके ठहरने की अवधि के बारे में भी लोगों के बीच मतभेद है मगर तुम्हें उसकी खोज में पड़ने की ज़रूरत नहीं। अल्लाह ही जानता है कि वे कितने समय तक इस हालत में रहे।
وَٱتۡلُ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن كِتَابِ رَبِّكَۖ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦ وَلَن تَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدٗا 26
(27) ऐ नबी, तुम्हारे रब की किताब में से जो कुछ तुमपर प्रकाशना की गई है उसे (ज्यों का त्यों) सुना दो, कोई उसके फ़रमानों को बदल देने का अधिकारी नहीं है, (और अगर तुम किसी के लिए उसमें परिवर्तन करोगे तो) उससे बचकर भागने के लिए कोई पनाह का ठिकाना न पाओगे।
وَٱصۡبِرۡ نَفۡسَكَ مَعَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ وَلَا تَعۡدُ عَيۡنَاكَ عَنۡهُمۡ تُرِيدُ زِينَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَا تُطِعۡ مَنۡ أَغۡفَلۡنَا قَلۡبَهُۥ عَن ذِكۡرِنَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ وَكَانَ أَمۡرُهُۥ فُرُطٗا 27
(28) और अपने दिल को उन लोगों के साथ रहने पर सन्तुष्ट करो जो अपने रब की प्रसन्नता के इच्छुक बनकर सुबह और शाम उसे पुकारते हैं, और उनसे हरगिज़ निगाह न फेरो। क्या तुम दुनिया की शोभा को पसन्द करते हो? किसी ऐसे व्यक्ति का आज्ञापालन न करो12, जिसके दिल को हमने अपनी याद से ग़ाफ़िल कर दिया है और जो अपनी इच्छा पर चलने और मनमानी करने में लग गया है और जिसका कार्यकलाप असन्तुलित है।
12. अर्थात् उसकी बात न मानो, उसके आगे न झुको, उसकी इच्छा पूरी न करो और उसके कहने पर न चलो। यहाँ “इताअत” शब्द इस्तेमाल हुआ है और अपने व्यापक अर्थ में इस्तेमाल हुआ है।
وَقُلِ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَن شَآءَ فَلۡيُؤۡمِن وَمَن شَآءَ فَلۡيَكۡفُرۡۚ إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ نَارًا أَحَاطَ بِهِمۡ سُرَادِقُهَاۚ وَإِن يَسۡتَغِيثُواْ يُغَاثُواْ بِمَآءٖ كَٱلۡمُهۡلِ يَشۡوِي ٱلۡوُجُوهَۚ بِئۡسَ ٱلشَّرَابُ وَسَآءَتۡ مُرۡتَفَقًا 28
(29) स्पष्ट कह दो कि यह सत्य है तुम्हारे रब की ओर से, अब जिसका जी चाहे मान ले और जिसका जी चाहे इनकार कर दे। हमने (इनकार करनेवाले) ज़ालिमों के लिए एक आग तैयार कर रखी है जिसकी लपटें उन्हें घेरे में ले चुकी हैं। वहाँ अगर वे पानी माँगेंगे तो ऐसे पानी से उनका सत्कार किया जाएगा जो तेल की तलछट जैसा होगा और उनका मुँह भून डालेगा, बहुत ही बुरा पेय और बहुत बुरा विश्राम स्थल!
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمُ ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَيَلۡبَسُونَ ثِيَابًا خُضۡرٗا مِّن سُندُسٖ وَإِسۡتَبۡرَقٖ مُّتَّكِـِٔينَ فِيهَا عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِۚ نِعۡمَ ٱلثَّوَابُ وَحَسُنَتۡ مُرۡتَفَقٗا 30
(31) उनके लिए सदाबहार जन्नतें हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, वहाँ वे सोने के कंगनों से आभूषित किए जाएँगे,13 बारीक और गाढ़े रेशमी हरित कपड़े पहनेंगे, और ऊँची मसनदों पर तकिए लगाकर बैठेंगे। बहुत ही अच्छा बदला और उच्च श्रेणी का ठहरने का स्थान!
13. प्राचीन काल में बादशाह सोने के कंगन पहनते थे। जन्नतवालों के वस्त्र के अंतर्गत इस चीज़़ के उल्लेख से यह बताना उद्देश्य है कि वहाँ उनको शाही लिबास पहनाए जाएँगे। सत्य का इनकार करनेवाला और अवज्ञाकारी एक बादशाह वहाँ अपमानित होगा और एक ईमानवाला और सत्कर्मी मज़दूर वहाँ बादशाहों जैसी शानो-शौकत से रहेगा।
وَلَوۡلَآ إِذۡ دَخَلۡتَ جَنَّتَكَ قُلۡتَ مَا شَآءَ ٱللَّهُ لَا قُوَّةَ إِلَّا بِٱللَّهِۚ إِن تَرَنِ أَنَا۠ أَقَلَّ مِنكَ مَالٗا وَوَلَدٗا 38
(39) और जब तू अपने बाग़ में प्रवेश कर रहा था तो उस समय तेरी ज़बान से यह क्यों न निकला कि “जो अल्लाह चाहे, बिना अल्लाह के कोई शक्ति नहीं? 14 अगर तू मुझे धन और सन्तान में अपने से कम पा रहा है
14. ” अर्थात् जो कुछ अल्लाह चाहे वही होगा। मेरा और किसी का कुछ ज़ोर नहीं है। हमारा अगर कुछ बस चल सकता है तो अल्लाह ही की तौफ़ीक और समर्थन से चल सकता है।"
وَوُضِعَ ٱلۡكِتَٰبُ فَتَرَى ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا فِيهِ وَيَقُولُونَ يَٰوَيۡلَتَنَا مَالِ هَٰذَا ٱلۡكِتَٰبِ لَا يُغَادِرُ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةً إِلَّآ أَحۡصَىٰهَاۚ وَوَجَدُواْ مَا عَمِلُواْ حَاضِرٗاۗ وَلَا يَظۡلِمُ رَبُّكَ أَحَدٗا 48
(49) और कर्मपत्र सामने रख दिया जाएगा। उस समय तुम देखोगे कि अपराधी लोग अपनी ज़िन्दगी की किताब में अंकित बातों से डर रहे होंगे और कह रहे होंगे कि “हाय हमारा दुर्भाग्य! यह कैसी किताब है कि हमारी कोई छोटी-बड़ी हरकत ऐसी नहीं रही जो इसमें अंकित न हो गई हो।” जो-जो कुछ उन्होंने किया था वह सब अपने सामने मौजूद पाएँगे, और तेरा रब किसी पर तनिक ज़ुल्म न करेगा।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ كَانَ مِنَ ٱلۡجِنِّ فَفَسَقَ عَنۡ أَمۡرِ رَبِّهِۦٓۗ أَفَتَتَّخِذُونَهُۥ وَذُرِّيَّتَهُۥٓ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِي وَهُمۡ لَكُمۡ عَدُوُّۢۚ بِئۡسَ لِلظَّٰلِمِينَ بَدَلٗا 49
(50) याद करो, जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो तो उन्होंने सजदा किया। मगर इबलीस ने न किया। वह जिन्नों में से था इसलिए अपने रब के आदेश का उल्लंघन किया।15 अब क्या तुम मुझे छोड़कर उसको और उसकी सन्तति को अपना संरक्षक बनाते हो, हालाँकि वे तुम्हारे शत्रु हैं? बड़ा ही बुरा विकल्प है जिसे ज़ालिम लोग अपना रहे हैं।
15. अर्थात् इबलीस फ़रिश्तों में से न था, बल्कि जिन्नों में से था, इसी लिए आदेश का उल्लंघन उसके लिए संभव हुआ। फ़रिश्तों में से होता तो अवज्ञा (नाफ़रमानी) कर ही न सकता। इसके विपरीत जिन्न इनसानों की तरह एक अधिकार प्राप्त स्वतन्त्र प्राणी है जिसे जन्मजात आज्ञाकारी नहीं बनाया गया है, बल्कि इनकार और ईमान, और आज्ञापालन और अवज्ञा दोनों की सामर्थ्य प्रदान की गई है।
۞مَّآ أَشۡهَدتُّهُمۡ خَلۡقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَا خَلۡقَ أَنفُسِهِمۡ وَمَا كُنتُ مُتَّخِذَ ٱلۡمُضِلِّينَ عَضُدٗا 50
(51) मैंने आसमान और ज़मीन पैदा करते समय उनको नहीं बुलाया था और न ख़ुद उनको बनाने में उन्हें शरीक किया था। मेरा काम यह नहीं है कि गुमराह करनेवालों को अपना सहायक बनाया करूँ।16
16. मतलब यह है कि ये शैतान आख़िर तुम्हारे आज्ञापालन और बन्दगी के हक़दार कैसे बन गए? बन्दगी का हक़दार तो सिर्फ़ स्स्रष्टा ही हो सकता है। और इन शैतानों का हाल यह है कि आसमान और ज़मीन के बनाने में सम्मिलित होना तो अलग रहा, ये तो ख़ुद पैदा किए गए हैं।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ فَأَعۡرَضَ عَنۡهَا وَنَسِيَ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُۚ إِنَّا جَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۖ وَإِن تَدۡعُهُمۡ إِلَى ٱلۡهُدَىٰ فَلَن يَهۡتَدُوٓاْ إِذًا أَبَدٗا 56
(57) और उस व्यक्ति से बढ़कर ज़ालिम और कौन है जिसे उसके रब की आयतें सुनाकर नसीहत की जाए और वह उनसे मुँह फेरे और उस बुरे परिणाम को भूल जाए जिसका सामान उसने अपने लिए ख़ुद अपने हाथों किया है? (जिन लोगों ने यह नीति अपनाई है) उनके दिलों पर हमने ग़िलाफ़ चढ़ा दिए हैं जो उन्हें क़ुरआन की बात नहीं समझने देते और उनके कानों में हमने बोझ पैदा कर दिया है। तुम उन्हें मार्ग की ओर कितना ही बुलाओ, वे इस हालत में कभी मार्ग न पाएँगे।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِفَتَىٰهُ لَآ أَبۡرَحُ حَتَّىٰٓ أَبۡلُغَ مَجۡمَعَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ أَوۡ أَمۡضِيَ حُقُبٗا 59
(60) (तनिक इनको वह घटना सुनाओ जो मूसा के साथ घटी थी) जबकि मूसा ने अपने सेवक से कहा था कि “मैं अपनी यात्रा समाप्त न करूँगा जब तक कि दोनों दरियाओं के संगम पर न पहुँच जाऊँ, नहीं तो मैं एक लम्बे समय तक चलता ही रहूँगा।"17
17. किसी प्रामाणिक माध्यम से यह मालूम नहीं हो सका है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह यात्रा किस समय की घटना है और वे दो दरिया कौन-से थे जिनके संगम पर यह घटना घटित हुई। लेकिन वृत्तान्त पर विचार करने से ऐसा लगता है कि यह हज़रत मूसा (अलैहि०) के मिस्र में ठहरने के समय की घटना है जबकि फ़िरऔन से उनका संघर्ष चल रहा था और दो दरियाओं से मुराद नीले पानीवाली नील और सफ़ेद (श्वेत) पानीवाली नील हैं जिनके संगम पर वर्तमान शहर ख़रतूम आबाद है। इस अनुमान के कारणों पर विस्तृत विवेचन हमने तफ़हीमुल-क़ुरआन, भाग 3, सूरा 18 (कह्फ़) की टीका में किया है।
فَٱنطَلَقَا حَتَّىٰٓ إِذَآ أَتَيَآ أَهۡلَ قَرۡيَةٍ ٱسۡتَطۡعَمَآ أَهۡلَهَا فَأَبَوۡاْ أَن يُضَيِّفُوهُمَا فَوَجَدَا فِيهَا جِدَارٗا يُرِيدُ أَن يَنقَضَّ فَأَقَامَهُۥۖ قَالَ لَوۡ شِئۡتَ لَتَّخَذۡتَ عَلَيۡهِ أَجۡرٗا 76
(77) फिर वे आगे चले यहाँ तक कि एक बस्ती में पहुँचे और वहाँ के लोगों से खाना मगर उन्होंने उन दोनों की मेहमाननवाज़ी से इनकार कर दिया। वहाँ उन्होंने एक दीवार देखी जो गिरने ही वाली थी। उस व्यक्ति ने उस दीवार को फिर सीधी खड़ी कर दिया। मूसा ने कहा, “अगर आप चाहते तो इस काम को मज़दूरी ले सकते थे।”
وَأَمَّا ٱلۡجِدَارُ فَكَانَ لِغُلَٰمَيۡنِ يَتِيمَيۡنِ فِي ٱلۡمَدِينَةِ وَكَانَ تَحۡتَهُۥ كَنزٞ لَّهُمَا وَكَانَ أَبُوهُمَا صَٰلِحٗا فَأَرَادَ رَبُّكَ أَن يَبۡلُغَآ أَشُدَّهُمَا وَيَسۡتَخۡرِجَا كَنزَهُمَا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ وَمَا فَعَلۡتُهُۥ عَنۡ أَمۡرِيۚ ذَٰلِكَ تَأۡوِيلُ مَا لَمۡ تَسۡطِع عَّلَيۡهِ صَبۡرٗا 81
(82) और इस दीवार का मामला यह है कि यह दो अनाथ लड़कों की है जो इस शहर में रहते हैं। इस दीवार के नीचे इन बच्चों के लिए एक ख़ज़ाना गड़ा है और इनका बाप एक नेक आदमी था इसलिए तुम्हारे रब ने चाहा कि ये दोनों बच्चे बालिग़ (प्रौढ़) हों और अपना ख़ज़ाना निकाल लें। यह तुम्हारे रब की दयालुता के आधार पर किया गया है, मैंने कुछ अपने अधिकार से नहीं कर दिया है। यह है वास्तविकता उन बातों की जिनपर तुम सब्र से काम न ले सके।"20
20. इस क़िस्से में यह बात तो स्पष्ट है कि हज़रत ख़िज़्र ने जो तीन काम किए थे वे अल्लाह ही के आदेश से थे, मगर यह बात भी स्पष्ट है कि इनमें से पहले दो काम ऐसे थे जिनकी अनुमति अल्लाह की भेजी हुई किसी शरीअत में किसी इनसान को कभी नहीं दी गई। यहाँ तक कि इलहाम (दैवी प्रेरणा) के आधार पर भी किसी इनसान के लिए यह वैध नहीं कि किसी को अपनी नौका को इसलिए ख़राब कर दे कि आगे जाकर कोई अपहरणकर्त्ता उसे छीन लेगा और किसी लड़के को इसलिए क़त्ल कर दे कि बड़ा होकर वह सरकश या सत्य विरोधी होनेवाला है। इसलिए यह मानने के सिवा कोई चारा नहीं है कि हज़रत ख़िज़्र ने यह काम शरीअत के आदेश के आधार पर नहीं, बल्कि ईश्वरीय इच्छा के आदेशों के आधार पर किए थे और ऐसे आदेश के लिए अल्लाह इनसानों के सिवा एक दूसरी क़िस्म की मख़्लूक़ से काम लेता है। जिस तरह का यह क़िस्सा है उसी से यह ज़ाहिर है कि अल्लाह ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को अपने उस बन्दे के पास इसलिए भेजा था कि परदा उठाकर वह एक नज़र उन्हें यह दिखाए कि इस ईश्वरीय इच्छा के कारख़ाने में किन निहित उद्देश्यों के अनुसार काम होता है जिन्हें समझना इनसान के बस में नहीं है। सिर्फ़ इसलिए कि अल्लाह ने हज़रत ख़िज़्र के लिए “बन्दे” (सेवक) का शब्द इस्तेमाल किया है, उनको इनसान ठहराने के लिए काफ़ी नहीं है। क़ुरआन में सूरा 21 (अंबिया) आयत 26, और सूरा 43 (जुख़रुफ़) आयत 19 और कितने ही दूसरे स्थानों पर फ़रिश्तों के लिए भी यह शब्द इस्तेमाल हुआ है।
حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ مَغۡرِبَ ٱلشَّمۡسِ وَجَدَهَا تَغۡرُبُ فِي عَيۡنٍ حَمِئَةٖ وَوَجَدَ عِندَهَا قَوۡمٗاۖ قُلۡنَا يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِمَّآ أَن تُعَذِّبَ وَإِمَّآ أَن تَتَّخِذَ فِيهِمۡ حُسۡنٗا 85
(86) यहाँ तक कि जब वह सूर्यास्त की सीमा तक पहुँचा।21 तो उसने सूरज को एक काले पानी में डूबते22 देखा और वहाँ उसे एक क़ौम मिली। हमने कहा, “ऐ ज़ुल-क़रनैन, तुझे यह सामर्थ्य भी प्राप्त है कि उनको तकलीफ़ पहुँचाए और यह भी कि उनके साथ अच्छी नीति अपनाए।”
21. अर्थात् पश्चिम की अन्तिम सीमा तक।
22. अर्थात् वहाँ सूर्यास्त के समय ऐसा लगता था कि सूरज समुद्र के कुछ कालिमा लिए हुए गदले पानी में डूब रहा है।
قَالُواْ يَٰذَا ٱلۡقَرۡنَيۡنِ إِنَّ يَأۡجُوجَ وَمَأۡجُوجَ مُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَهَلۡ نَجۡعَلُ لَكَ خَرۡجًا عَلَىٰٓ أَن تَجۡعَلَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَهُمۡ سَدّٗا 93
(94) उन लोगों ने कहा कि “ऐ ज़ुल-क़रनैन, याजूज और माजूज24 इस भूभाग में फ़साद फैलाते हैं। तो क्या हम तुझे कोई टैक्स इस काम के लिए दें कि तू हमारे और उनके बीच एक बन्द बना दे?”
24. याजून-माजूज से मुराद एशिया के उत्तरी और पूर्वी क्षेत्र की वे क़ौमें हैं जो प्राचीन काल से सभ्य देशों पर विनाशकारी आक्रमण करती रही हैं और जिनकी बाढ़ समय-समय पर उठकर एशिया और यूरोप, दोनों ओर रुख़ करती रही हैं। हिज़कीएल की पुस्तक (अध्याय 38, 39) में उनका इलाक़ा रूस और तोबल (वर्तमान तोबालस्क) और मेसेक (वर्तमान मास्को) बताया गया है। इसराईली इतिहासकार यूसिफ़ोस की दृष्टि में उनसे मुराद सीथियन जाति है जिसका इलाक़ा काला सागर के उत्तर और पूर्व में स्थित था। जिरोम के कथनानुसार माजूज काकेशिया के उत्तर में कैसपियन सागर के नज़दीक आबाद थे।
ءَاتُونِي زُبَرَ ٱلۡحَدِيدِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا سَاوَىٰ بَيۡنَ ٱلصَّدَفَيۡنِ قَالَ ٱنفُخُواْۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَعَلَهُۥ نَارٗا قَالَ ءَاتُونِيٓ أُفۡرِغۡ عَلَيۡهِ قِطۡرٗا 95
(96) मुझे लोहे की चादरें ला दो।” आख़िर जब दोनों पहाड़ों के बीच के ख़ाली स्थान को उसने पाट दिया तो लोगों से कहा कि अब आग दहकाओ। यहाँ तक कि जब (यह लोहे की दीवार) बिलकुल आग की तरह लाल कर दी तो उसने कहा, “लाओ, अब मैं इसपर पिघला हुआ ताँबा उँडेलूँगा।”
۞وَتَرَكۡنَا بَعۡضَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ يَمُوجُ فِي بَعۡضٖۖ وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَجَمَعۡنَٰهُمۡ جَمۡعٗا 98
(99) और उस दिन25 हम लोगों को छोड़ देंगे कि (समुद्र की लहरों की तरह) एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था हों और नरसिंघा (सूर) फूँका जाएगा और हम सब इनसानों को एक साथ इकट्ठा करेंगे।
25. मुराद है क़ियामत का दिन। ज़ुल-क़रनैन ने जो इशारा क़ियामत के सच्चे वादे की ओर किया था उसकी अनुकूलता से ये आयतें उसके कथन के साथ बढ़ाते हुए बयान की गई हैं।
قُل لَّوۡ كَانَ ٱلۡبَحۡرُ مِدَادٗا لِّكَلِمَٰتِ رَبِّي لَنَفِدَ ٱلۡبَحۡرُ قَبۡلَ أَن تَنفَدَ كَلِمَٰتُ رَبِّي وَلَوۡ جِئۡنَا بِمِثۡلِهِۦ مَدَدٗا 108
(109) ऐ नबी! कहो कि अगर समुद्र मेरे रब की बातें लिखने के लिए रोशनाई बन जाए तो वह ख़त्म हो जाए मगर मेरे रब की बातें ख़त्म न हों, बल्कि अगर उतनी ही रोशनाई हम और ले आएँ तो वह भी काफ़ी न हो सके।26
26. अल्लाह की “बातों” से मुराद उसके कार्य और कुशलताएँ और उसको सामर्थ्य और तत्त्वदर्शिता के चमत्कार हैं।
قُلۡ إِنَّمَآ أَنَا۠ بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ يُوحَىٰٓ إِلَيَّ أَنَّمَآ إِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ فَمَن كَانَ يَرۡجُواْ لِقَآءَ رَبِّهِۦ فَلۡيَعۡمَلۡ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَلَا يُشۡرِكۡ بِعِبَادَةِ رَبِّهِۦٓ أَحَدَۢا 109
(110) ऐ नबी कहो कि मैं तो एक मनुष्य हूँ तुम ही जैसा, मेरी ओर प्रकाशना (वह्य) की जाती है कि तुम्हारा ख़ुदा बस एक ही ख़ुदा है, अतः जो कोई अपने रब से मिलने की उम्मीद रखता हो उसे चाहिए कि नेक कर्म करे और बन्दगी में अपने रब के साथ किसी और को सम्मिलित न करे।