2.सूरा अल-बक़रा
(मदीना में उतरी, आयतें 286)
परिचय
नाम और नाम रखने का कारण
इस सूरा का नाम बक़रा इसलिए है कि इसमें एक जगह ‘बक़रा’ का उल्लेख हुआ है। अरबी भाषा में ‘बक़रा’ का अर्थ होता है - गाय । क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने व्यापक विषयों का उल्लेख हुआ है कि उनके लिए विषयानुसार व्यापक शीर्षक नहीं दिए जा सकते। इसलिए नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के मार्गदर्शन से क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के लिए विषयानुसार शीर्षक देने के बजाए नाम निश्चित किए हैं, जो केवल पहचान का काम देते हैं। इस सूरा को ‘बक़रा’ कहने का अर्थ यह नहीं है कि इसमें गाय की समस्या पर वार्ता की गई है, बल्कि इसका अर्थ केवल यह है कि 'वह सूरा जिसमें गाय का उल्लेख हुआ है’।
उतरने का समय
इस सूरा का अधिकतर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदीना वाली ज़िदंगी के बिल्कुल आरम्भ में उतरा है और बहुत कम हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और विषय की अनुकूलता की दृष्टि से इसमें शामिल कर दिया गया।
उतरने का कारण
इस सूरा को समझने के लिए पहले इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए-
1. हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, संबोधन अधिकतर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिए इस्लाम की आवाज़ एक नई और अनजानी आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता यहूदियों से पड़ा। ये यहूदी लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वह्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों को मानते थे और सैद्धांतिक रूप में उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था, जिसकी शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों से होनेवाले निरंतर पतन ने उनको असल धर्म (मूसा-धर्म) से बहुत दूर हटा दिया था। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे, तो अल्लाह ने आपको निर्देश दिया कि उनको असल धर्म की ओर बुलाएँ । अत: इस सूरा बक़रा की आरंभिक 141 आयतें इसी आह्वान पर आधारित हैं।
2. मदीना पहुँचकर इस्लामी आह्वान एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था। मक्का में तो मामला केवल धर्म की बुनियादी बातों के प्रचार और धर्म अपनानेवालों के नैतिक प्रशिक्षण तक सीमित था, लेकिन जब हिजरत के बाद मदीने में एक छोटे-से इस्लामी स्टेट की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, क़ानून और राजनीति के बारे में भी मूल निर्देश देने शुरू किए और यह बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर यह नई जीवन-व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? यह सूरा आयत 142 से लेकर अंत तक इन्हीं निर्देशों पर आधारित है।
3. हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की ओर स्वयं उन्हीं के घर में (अर्थात् मक्का में) बुलाया जाता रहा और विभिन्न क़बीलों में से जो लोग इस्लाम ग्रहण करते थे, वे अपनी-अपनी जगह रहकर ही धर्म का प्रचार करते और जवाब में अत्याचारों और मुसीबतों को झेलते रहते थे, किन्तु हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटा-सा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो स्थिति यह हो गई कि एक ओर एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी ओर तमाम अरब उसकी जड़ें काट देने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी-भर लोगों के गिरोह की सफलता का ही नहीं, बल्कि उसका अस्तित्व और स्थायित्व इस बात पर निर्भर था कि एक तो वह पूरे उत्साह के साथ अपने दृष्टिकोण का प्रचार करके अधिक-से-अधिक लोगों को अपने विचारों का माननेवाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वह विरोधियों का असत्य पर होना इस तरह प्रमाणित और पूरी तरह स्पष्ट कर दे कि किसी भी सोचने-समझनेवाले व्यक्ति को उसमें संदेह न रहे। तीसरे यह कि जिन ख़तरों में वे चारों ओर से घिर गए थे, उनमें वे हताश न हो, बल्कि पूरे धैर्य और जमाव के साथ उन परिस्थितियों का मुक़ाबला करें। चौथे यह कि वे पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबन्द अवरोध का सशस्त्र मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो जाएँ, जो उनके आह्वान को विफल बनाने के लिए किसी ताक़त की ओर से किया जाए। पाँचवें, उनमें इतना साहस पैदा किया जाए कि अगर अरब के लोग इस नई व्यवस्था को, जो इस्लाम स्थापित करना चाहता है, समझाने-बुझाने से न अपनाएँ, तो उन्हें अज्ञान की दूषित जीवन-व्यवस्था को शक्ति से मिटा देने में भी संकोच न हो। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में आरंभिक निर्देश दिए हैं।
4. इस्लामी आह्वान के इस चरण में एक नया गिरोह भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का गिरोह था। यद्यपि निफ़ाक़ (कपटाचार) के आरंभिक लक्षण मक्का के आखिरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, लेकिन वहाँ केवल इस प्रकार के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पाए जाते थे, जो इस्लाम के हक़ (सत्य) होने को तो मानते थे और ईमान का इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिए [किसी प्रकार की कु़रबानी देने के लिए] तैयार न थे। मदीना पहुँचकर इस प्रकार के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और प्रकार के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी गिरोह में पाए जाने लगे [इसलिए उनके बारे में भी निर्देशों का आना ज़रूरी हुआ]।
सूरा बक़रा के उतरने के समय इन विभिन्न प्रकार के मुनाफ़िक़ों के प्रादुर्भाव का केवल आरंभ था, इसलिए अल्लाह ने उनकी ओर केवल संक्षिप्त संकेत किए हैं। बाद में जितनी-जितनी उनकी विशेषताएँ और हरकतें सामने आती गईं, उतने ही विस्तार के साथ बाद की सूरतों में हर प्रकार के मुनाफ़िकों के बारे में उनकी श्रेणियों के अनुसार अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।
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ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡغَيۡبِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ 2
(3) जो ग़ैब2 पर ईमान लाते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं,3 जो रोज़ी हमने उनको दी है, उसमें से ख़र्च करते हैं,
2. ग़ैब से मुराद वे तथ्य और वास्तविकताएँ है जो मानवीय ज्ञानेन्द्रियों से छिपी हुई है और कभी प्रत्यक्षतः आम लोगों के अनुभव और निरीक्षण में नहीं आतीं। जैसे ख़ुदा की हस्ती और उसके गुण, फ़रिश्ते, वह्य (प्रकाशना Revelation), स्वर्ग, नरक आदि।
3. नमाज़ क़ायम करने का अर्थ केवल यहीं नहीं है कि आदमी पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करें, बल्कि इसका अर्थ यह है कि सामूहिक रूप से नमाज़ की व्यवस्था नियमित रीति से हो। यदि किसी बस्ती में एक-एक व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से नमाज़ का पाबन्द हो, लेकिन सामूहिक रूप से (जमाअत के साथ) इस फ़र्ज़ को पूरा करने की व्यवस्था न हो, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ नमाज़ क़ायम की जा रही है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَسۡتَحۡيِۦٓ أَن يَضۡرِبَ مَثَلٗا مَّا بَعُوضَةٗ فَمَا فَوۡقَهَاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَيَقُولُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۘ يُضِلُّ بِهِۦ كَثِيرٗا وَيَهۡدِي بِهِۦ كَثِيرٗاۚ وَمَا يُضِلُّ بِهِۦٓ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقِينَ 25
(26) हाँ, अल्लाह इससे बिलकुल नहीं शर्माता कि मच्छर या उससे भी तुच्छ किसी चीज़़ की मिसालें दे11। जो लोग सत्य को स्वीकार करनेवाले हैं, वे इन्हीं मिसालों को देखकर जान लेते हैं। कि यह सत्य है जो उनके रब ही की ओर से आया है, और जो माननेवाले नहीं हैं, वे इन्हें सुनकर कहने लगते हैं कि ऐसी मिसालों से अल्लाह का क्या सम्बन्ध? इस प्रकार अल्लाह एक ही बात से बहुतों को गुमराही में डाल देता है और बहुतों को सीधा मार्ग दिखा देता है। और उससे गुमराही में वह उन्हीं को डालता है जो फ़ासिक़ (अवज्ञाकारी)12 है,
11. यहाँ एक एतिराज़ का उल्लेख किए बिना उसका उत्तर दिया गया है। क़ुरआन में विभिन्न स्थानों पर आशय स्पष्ट करने के लिए मकड़ी, मक्खी, मच्छर आदि की जो मिसालें दी गई हैं, उनपर विरोधियों को आपत्ति थी कि यह कैसी ईश वाणी है जिसमें ऐसी तुच्छ चीज़़ों की मिसालें दी गई हैं।
12. 'फ़ासिक़' का अर्थ है अवज्ञाकारी, आज्ञापालन की सीमा से निकल जानेवाला।
ٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ 26
(27) अल्लाह की प्रतिज्ञा को मज़बूत बाँध लेने के बाद तोड़ देते हैं।13 अल्लाह ने जिसे जोड़ने का आदेश दिया है, उसे काटते है14, और धरती में बिगाड़ पैदा करते हैं। वास्तव में यहीं लोग घाटे में हैं।
13. बादशाह अपने सेवकों और प्रजा के नाम जो हुक्म (आदेश) जारी करता है, उनको अरबी भाषा में 'अहद' (प्रतिज्ञा) की संज्ञा दी जाती है। अल्लाह की प्रतिज्ञा से मुराद उसका वह स्थायी आदेश है जिसकी दृष्टि से सम्पूर्ण मानव-जाति केवल उसी की बन्दगी, आज्ञापालन और उपासना करने को निर्दिष्ट है। “मजबूत बांध लेने के बाद” से संकेत इस ओर है कि आदम के पैदा किए जाने के समय सम्पूर्ण मानव जाति से इस आदेश के पालन करने का प्रण लिया गया था जैसा कि सूरा 7 आराफ़, आयत 172 में इसका उल्लेख मिलता है।
14. अर्थात् जिन पारस्परिक सम्पर्कों की स्थापना और सुदृढ़ता पर मानव का सामाजिक और वैयक्तिक कल्याण निर्भर करता है, और जिन्हें ठीक रखने का अल्लाह ने हुक्म दिया है, उनपर ये लोग कुल्हाड़ी चलाते हैं।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نَّصۡبِرَ عَلَىٰ طَعَامٖ وَٰحِدٖ فَٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُخۡرِجۡ لَنَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ مِنۢ بَقۡلِهَا وَقِثَّآئِهَا وَفُومِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَاۖ قَالَ أَتَسۡتَبۡدِلُونَ ٱلَّذِي هُوَ أَدۡنَىٰ بِٱلَّذِي هُوَ خَيۡرٌۚ ٱهۡبِطُواْ مِصۡرٗا فَإِنَّ لَكُم مَّا سَأَلۡتُمۡۗ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ وَٱلۡمَسۡكَنَةُ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ 60
(61) याद करो, जब तुमने कहा था कि “ऐ मूसा, हम एक ही प्रकार के खाने पर सन्तोष नहीं कर सकते। अपने रब से प्रार्थना करो कि हमारे लिए धरती की पैदावार, साग, तरकारी, गेहूँ, लहसुन, प्याज़, दाल आदि पैदा करे।” तो मूसा ने कहा “क्या एक उत्तम चीज़़ को छोड़कर तुम घटिया दर्जे की चीज़़ें लेना चाहते हो? अच्छा, किसी शहरी आबादी में जा रहो। जो कुछ तुम माँगते हो, वहाँ मिल जाएगा।” आख़िरकार इस दशा को पहुँच गए कि अपमान एवं अपयश और गिरावट एवं बदहाली उनपर थोप दी गई और वे अल्लाह के अज़ाब में घिर गए। यह नतीजा था इसका कि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करने लगे थे और पैग़म्बरों की अकारण हत्या करने लगे थे। यह नतीजा था उनको नाफ़रमानियों का और इस बात का कि वे धार्मिक मर्यादाओं से निकल-निकल जाते थे।
قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا ذَلُولٞ تُثِيرُ ٱلۡأَرۡضَ وَلَا تَسۡقِي ٱلۡحَرۡثَ مُسَلَّمَةٞ لَّا شِيَةَ فِيهَاۚ قَالُواْ ٱلۡـَٰٔنَ جِئۡتَ بِٱلۡحَقِّۚ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُواْ يَفۡعَلُونَ 70
(71) मूसा ने जवाब दिया: “अल्लाह कहता है कि वह ऐसी गाय है जिससे सेवा कार्य नहीं लिया जाता, न ज़मीन जोतती है न पानी खींचती है, भली-चंगी और बेदाग़ है। इसपर वे पुकार उठे कि हाँ, अब तुमने ठीक पता बताया है। फिर उन्होंने उसे ज़बह किया, वरना वे ऐसा करते मालूम न होते थे।28
28. चूँकि इसराईल के वंशजों को मिस्र-निवासियों और अपनी पड़ोसी क़ौमों से गाय की महानता, पवित्रता और गौ-पूजा के रोग की छूत लग गई थी और इसी कारण उन्होंने मिस्र से निकलते ही बछड़े को पूज्य बना लिया था, इसलिए उन्हें आदेश दिया गया कि गाय ज़बह करें। उन्होंने टालने की कोशिश की और विवरण पूछने लगे। मगर जितना जितना विस्तार में जाते गए उतने ही घिरते चले गए, यहाँ तक कि अन्त में उसी विशेष प्रकार की सुनहरी गाय पर, जिसे उस समय पूजा के लिए ख़ास किया जाता था, मानो उँगली रखकर बता दिया गया कि इसे ज़बह करो।
۞أَفَتَطۡمَعُونَ أَن يُؤۡمِنُواْ لَكُمۡ وَقَدۡ كَانَ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَسۡمَعُونَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُۥ مِنۢ بَعۡدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ 74
(75) ऐ मुसलमानो, अब क्या इन लोगों से तुम वह उम्मीद रखते हो कि वे तुम्हारे आमंत्रण (दावत) को मान लेंगे29? जबकि इनमें से एक गिरोह की नीति यह रही है कि उसने अल्लाह की वाणी सुनी और फिर ख़ूब समझ-बूझकर, जानते हुए उसमें रद्दोबदल किया।
29. यह सम्बोधन मदीना के उन नए मुसलमानों से है जो निकट समय ही में अरबी नबी (सल्ल०) के अनुयायी हुए थे। इन लोगों के कान में पहले से नुबूवत (पैग़म्बरी), किताब, फ़रिश्तों, आख़िरत (परलोक), शरीअत (धर्म-विधान) आदि की जो बातें पड़ी हुई थीं, वे सब इन्होंने अपने पड़ोसी यहूदियों ही से सुनी थीं। इसलिए अब उन्हें यह आशा थी कि जो लोग पहले ही से नबियों और आसमानी किताबों के माननेवाले हैं और जिनकी दी हुई ख़बरों के कारण ही हमको ईमान की नेमत प्राप्त हुई है, वे अवश्य ही हमारा साथ देंगे, बल्कि इस रास्ते में आगे-आगे रहेंगे।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَقَفَّيۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ بِٱلرُّسُلِۖ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ أَفَكُلَّمَا جَآءَكُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُكُمُ ٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡ فَفَرِيقٗا كَذَّبۡتُمۡ وَفَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ 86
(87) हमने मूसा को किताब दी, उसके बाद लगातार रसूल भेजे, अन्त में मरयम के बेटे ईसा को स्पष्ट निशानियाँ देकर भेजा और पवित्र आत्मा30 से उसकी सहायता की। फिर यह तुम्हारा क्या ढंग है कि जब भी कोई रसूल (पैग़म्बर) तुम्हारी अपनी इच्छाओं के ख़िलाफ़ कोई चीज़़ लेकर तुम्हारे पास आया, तो तुमने उसके मुक़ाबले में सरकशी ही की, किसी को झुठलाया और किसी की हत्या कर डाली!
30. “पवित्र आत्मा” से मुराद वह्य (प्रकाशना) का ज्ञान भी है, और जिबरील नामक फ़रिश्ते भी जो प्रकाशना (revelation) का ज्ञान लाते थे। और ख़ुद हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) की अपनी पवित्र आत्मा भी, जिसको अल्लाह ने पवित्र गुणों से सुशोभित किया था।
بِئۡسَمَا ٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡ أَن يَكۡفُرُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بَغۡيًا أَن يُنَزِّلَ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ فَبَآءُو بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٖۚ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٞ مُّهِينٞ 89
(90) कैसा बुरा साधन है जिससे ये अपने जी की तसल्ली हासिल करते हैं32 कि जो आदेश अल्लाह ने भेजा है उसे स्वीकार करने से केवल इस हठ के कारण इनकार कर रहे हैं कि अल्लाह ने अपने उदार दान (प्रकाशना और पैग़म्बरी) से अपने जिस बन्दे को ख़ुद चाहा, नवाज़ दिया।33 अतः अब ये प्रकोप पर प्रकोप के अधिकारी हो गए हैं और ऐसे इनकार करनेवालों के लिए घोर अपमानजनक सज़ा निश्चित है।
32. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि “कैसी बुरी चीज़़ है, जिसके लिए इन्होंने अपनी जानों को बेच डाला।" अर्थात् अपनी भलाई व कल्याण और अपनी मुक्ति को भेंट चढ़ा दिया।
33. ये लोग चाहते थे कि आनेवाला नबी इनकी अपनी क़ौम में पैदा हो। मगर जब वह एक दूसरी क़ौम में पैदा हुआ, जिसे वे अपने मुक़ाबले में नीचा समझते थे, तो वे उसके इनकार पर उतर आए। मानो उनका मतलब यह था कि अल्लाह उनसे पूछकर नबी भेजता।
وَٱتَّبَعُواْ مَا تَتۡلُواْ ٱلشَّيَٰطِينُ عَلَىٰ مُلۡكِ سُلَيۡمَٰنَۖ وَمَا كَفَرَ سُلَيۡمَٰنُ وَلَٰكِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ كَفَرُواْ يُعَلِّمُونَ ٱلنَّاسَ ٱلسِّحۡرَ وَمَآ أُنزِلَ عَلَى ٱلۡمَلَكَيۡنِ بِبَابِلَ هَٰرُوتَ وَمَٰرُوتَۚ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنۡ أَحَدٍ حَتَّىٰ يَقُولَآ إِنَّمَا نَحۡنُ فِتۡنَةٞ فَلَا تَكۡفُرۡۖ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنۡهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِۦ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَزَوۡجِهِۦۚ وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِۦ مِنۡ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡۚ وَلَقَدۡ عَلِمُواْ لَمَنِ ٱشۡتَرَىٰهُ مَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖۚ وَلَبِئۡسَ مَا شَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ 101
(102) और लगे उन चीज़़ों का अनुसरण करने जो शैतान, सुलैमान के राज्य का नाम लेकर पेश किया करते थे, हालाँकि सुलैमान ने कभी 'कुफ़्र' नहीं किया, कुफ़्र में तो वे शैतान पड़े थे जो लोगों को जादूगरी की शिक्षा देते थे। वे पीछे पड़े उस चीज़़ के जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत और मारूत पर उतारी गई थी, हालाँकि वे (फ़रिश्ते) जब भी किसी को उसकी शिक्षा देते थे, तो पहले स्पष्ट रूप से सावधान कर दिया करते थे कि “देख, हम केवल एक आज़माइश हैं, तू कुफ़्र में न पड़।35 फिर भी ये लोग उनसे वही चीज़़ सीखते थे जिससे पति और पत्नी में जुदाई डाल दें। यह खुली हुई बात थी कि अल्लाह की इजाज़त के बिना वे इसके द्वारा किसी को भी नुकसान नहीं पहुँचा सकते थे, किन्तु फिर भी वे ऐसी चीज़़ सीखते थे जो ख़ुद उनके लिए लाभकारी नहीं, बल्कि हानिकारक थी और वे ख़ूब जानते थे कि जो इस चीज़़ का खरीदार बना उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। कितना बुरा उपभोग्य था जिसका उन्होंने अपनी जानों के बदले सौदा किया, क्या ही अच्छा होता यदि वे जानते होते!
35. इस आयत की व्याख्या में कई बातें कही जाती हैं, मगर जो कुछ मैंने समझा है वह यह है कि जिस ज़माने में इसराईली वंशज की पूरी क़ौम बाबिल में बन्दी और दास बनी हुई थी, अल्लाह ने दो फ़रिश्तों को इनसानों शक्ल में उनकी आज़माइश के लिए भेजा होगा। जिस तरह लूत (अलैहि०) की क़ौमवालों के पास फ़रिश्ते सुन्दर लड़कों के रूप में गए थे, उसी तरह इन इसराईलियों के पास वे पीरों और सन्तों के रूप में गए होंगे। वहाँ एक ओर उन्होंने जादूगरी के बाज़ार में अपनी दुकान लगाई होगी और दूसरी ओर वे हर एक को सावधान भी कर देते रहे होंगे कि वे कल कोई इलज़ाम न दे सकें। फ़रिश्ते कहते रहे होंगे कि हम तुम्हारे लिए आज़माइश हैं, तुम अपना पारलौकिक जीवन न बिगाड़ो। मगर इसके बावजूद लोग उनके द्वारा प्रस्तुत की हुई तांत्रिक उपकृतियों और जन्त्रों और तावीज़ों पर टूटे पड़ते होंगे।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَٰكُمۡ أُمَّةٗ وَسَطٗا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيۡكُمۡ شَهِيدٗاۗ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلۡقِبۡلَةَ ٱلَّتِي كُنتَ عَلَيۡهَآ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يَتَّبِعُ ٱلرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِۚ وَإِن كَانَتۡ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِيعَ إِيمَٰنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ 142
(143) और इसी तरह तो हमने तुम मुसलमानों को एक “उत्तम समुदाय”44 बनाया है ताकि तुम दुनिया के लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।45 पहले जिस ओर तुम रुख़ करते थे, उसको तो हमने सिर्फ़ यह देखने के लिए क़िबला ठहराया था कि कौन रसूल का अनुसरण करता है और कौन उलटा फिर जाता है। यह मामला था तो बड़ा भारी, मगर उन लोगों के लिए कुछ भी भारी सिद्ध न हुआ जिन्हें अल्लाह का मार्गदर्शन प्राप्त था। अल्लाह तुम्हारे इस ईमान (आस्था) को हरगिज़ अकारथ न करेगा, यक़ीन जानो कि वह लोगों के लिए अत्यन्त करुणामय और दयावान् है।
44. यहाँ “उम्मते-वसत” शब्द प्रयुक्त हुआ है। इससे मुराद एक ऐसा उच्च और उत्तम गिरोह है जो न्याय और इनसाफ़ और उचित एवं मध्यमार्ग का अनुगामी हो, जिसे संसार की जातियों के बीच प्रधानता प्राप्त हो, जिसका सम्बन्ध सबके साथ समान सच्चाई और सत्यता का हो और अनुचित और ग़लत सम्बन्ध किसी से न हो।
45. इससे मुराद यह है कि आख़िरत में जब पूरी मानवता का इकट्ठा हिसाब लिया जाएगा, उस समय अल्लाह के उत्तरदायी प्रतिनिधि के रूप में रसूल तुमपर गवाही देगा कि सत्य धारणा और अच्छे कर्म और न्याय प्रणाली की जो शिक्षा हमने उसे दी थी, वह उसने तुमको बिना किसी कमी-बेशी के पूरी की पूरी पहुँचा दी और व्यवहारतः उसके अनुसार काम करके दिखा दिया। इसके बाद रसूल के क़ायम मुक़ाम होने की हैसियत से तुम्हें जन-सामान्य पर गवाह बनकर उठना होगा और यह गवाही देनी होगी कि रसूल ने जो कुछ तुम्हें पहुँचाया था, वह तुमने उन्हें पहुँचाने में, और जो कुछ रसूल ने तुम्हें काम करके दिखाया था तुमने वह काम करके दिखाने में अपनी हद तक कोई कोताही नहीं की।
قَدۡ نَرَىٰ تَقَلُّبَ وَجۡهِكَ فِي ٱلسَّمَآءِۖ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبۡلَةٗ تَرۡضَىٰهَاۚ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ 143
(144) ऐ नबी, यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की ओर उठना हम देख रहे हैं। लो, हम उसी क़िबले की ओर तुम्हें फेरे देते हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) की ओर रुख़ फेर दो। अब जहाँ कहीं तुम हो, उसी की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।46 ये लोग जिन्हें किताब दी गई थी ख़ूब जानते हैं कि (क़िबला बदलने का) यह आदेश उनके रब ही की ओर से है और सत्य पर आधारित है, मगर इसके बावजूद ये जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है
46. यह है वह मूल आदेश, जो क़िबला बदलने के बारे में दिया गया था। यह हुक्म रजब या शाबान सन् 2 हिजरी में अवतरित हुआ। नबी (सल्ल०) एक सहाबी के यहाँ दावत पर गए हुए थे। वहाँ ज़ुह्र की नमाज़ का समय आ गया और आप लोगों को नमाज़ पढ़ाने खड़े हुए। दो 'रकअतें' पढ़ा चुके थे कि तौसरी 'रकअत' में सहसा प्रकाशना के द्वारा यह आयत उत्तरी और उसी समय आप और आपके अनुसरण में जमाअत के सभी लोग 'बैतुल-मक़दिस' से काबे की दिशा की ओर फिर गए। इसके बाद मदीना और मदीना के चारों तरफ़ सामान्य रूप से इसकी घोषणा करा दी गई। और यह जो कहा कि “हम तुम्हारे मुँह का बार-बार आकाश की ओर उठना देख रहे हैं” और यह कि “हम उस दिशा की ओर तुम्हें फेरे देते हैं, जिसे तुम पसन्द करते हो", इससे साफ़ मालूम होता है कि क़िबला बदलने का आदेश आने से पहले नबी (सल्ल०) इसके इन्तिज़ार में थे।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَيۡكُمۡ حُجَّةٌ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِي وَلِأُتِمَّ نِعۡمَتِي عَلَيۡكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ 149
(150) और जहाँ से भी होकर जाओ, अपना रुख़ प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) ही की ओर फेरा करो, और जहाँ भी तुम हो, उसी की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ो ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ झगड़ने की कोई दलील न मिले48 – हाँ, जो उनमें से ज़ालिम हैं, वे तो कभी चुप न होंगे। तो उनसे तुम न डरो, बल्कि मुझसे डरो,और49 इसलिए कि मेरी नेमत तुमपर पूरी हो और इस आशा में कि मेरे इस आदेश के अनुपालन से तुम उसी तरह कामयाबी का मार्ग पाओगे,
48. अर्थात् किसी को यह कहने का अवसर न मिले कि ये अच्छे ईमानवाले हैं जो अपने ख़ुदा के स्पष्ट आदेश का उल्लंघन करते हैं।
49. इस वाक्य का सम्बन्ध इस वर्णन से है कि “उसी की ओर मुँह करके नमाज़ पढ़ो, ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ झगड़ने की कोई दलील न मिले।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٌ أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةُ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ 160
(161) जिन लोगों ने कुफ़्र (न मानने) की नीति51 अपनाई और कुफ़्र ही की हालत में मेरे, उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे इनसानों की फटकार है
51. यहाँ 'कुफ़्र' शब्द प्रयुक्त हुआ है। “कुफ़्र” शब्द ईमान के मुक़ाबले में बोला जाता है। ईमान का अर्थ है मानना, क़ुबूल करना, स्वीकार करना। इसके विपरीत 'कुफ़्र' का अर्थ ह— न मानना, रद्द कर देना, इनकार करना। क़ुरआन की दृष्टि में कुफ़्र की नीति के विभिन्न रूप हैं : एक यह कि इनसान सिरे से अल्लाह ही को न माने, या उसके सम्प्रभुत्व को स्वीकार न करे और उसको अपना और सारे जगत् का स्वामी और पूज्य मानने से इनकार कर दे, या उसे अकेला मालिक और पूज्य न माने। दूसरे यह कि अल्लाह को तो माने मगर उसके आदेश और उसके निर्देश को ज्ञान और क़ानून का एकमात्र स्रोत स्वीकार करने से इनकार कर दे। तीसरे यह कि सैद्धान्तिक रूप से इस बात को भी माने कि उसे अल्लाह के आदेश पर चलना चाहिए, मगर अल्लाह अपने आदेश और निर्देश के लिए जिन पैग़म्बरों को माध्यम बनाता है, उन्हें स्वीकार न करे। चौथे यह कि पैग़म्बरों के बीच अन्तर करे और अपनी पसन्द या अपने पक्षपात के कारण उनमें से किसी को माने और किसी को न माने। पाँचवें यह कि पैग़म्बरों ने अल्लाह की ओर से धारणा, नैतिक व्यवहार और जीवन के क़ानून के लिए जो शिक्षाएँ प्रस्तुत की हैं उनको, या उनमें से किसी चीज़ को मानने से इनकार कर दे। छठे यह कि धारणात्मक रूप से तो इन सब चीज़़ों को मान से लेकिन व्यवहारतः ईश्वरीय आदेशों की जानते-बूझते अवहेलना करता रहे और इस अवहेलना पर आग्रह करे और सांसारिक जीवन में अपनी नीति की नींव, फ़रमाँबरदारी पर नहीं बल्कि नाफ़रमानी ही पर रखे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِصَاصُ فِي ٱلۡقَتۡلَىۖ ٱلۡحُرُّ بِٱلۡحُرِّ وَٱلۡعَبۡدُ بِٱلۡعَبۡدِ وَٱلۡأُنثَىٰ بِٱلۡأُنثَىٰۚ فَمَنۡ عُفِيَ لَهُۥ مِنۡ أَخِيهِ شَيۡءٞ فَٱتِّبَاعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَأَدَآءٌ إِلَيۡهِ بِإِحۡسَٰنٖۗ ذَٰلِكَ تَخۡفِيفٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَرَحۡمَةٞۗ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ 175
(178) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम्हारे लिए क़त्ल के मुक़द्दमों में क़िसास का आदेश लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने क़त्ल किया तो उस आज़ाद आदमी से ही बदला लिया जाए, ग़ुलाम क़ातिल हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए, और औरत ने यह अपराध किया हो तो उस औरत ही से क़िसास लिया जाए। हाँ, अगर किसी क़ातिल के साथ उसका भाई कुछ नरमी करने के लिए तैयार हो, तो सामान्य नियम के अनुसार ख़ून के माली बदले का निपटारा होना चाहिए और क़ातिल के लिए आवश्यक है कि भले तरीक़े से ख़ूनबहा चुका दे।53 यह तुम्हारे रब की ओर से छूट और दयालुता है। इसपर भी जो ज़्यादती करे,54 उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
53. इससे मालूम हुआ कि इस्लामी दण्ड विधान में क़त्ल का मामला राज़ीनामे के योग्य है। क़त्ल किए गए व्यक्ति के वारिसों को यह अधिकार प्राप्त है कि क़ातिल का मृत्युदण्ड क्षमा कर दें और इस रूप में न्यायालय के लिए वैध नहीं कि हत्यारे की जान ही लेने पर आग्रह करे। अलबत्ता क्षमा की हालत में क़ातिल को ख़ूनबहा देना होगा।
54. मिसाल के तौर पर यह कि क़त्ल किए गए व्यक्ति का वारिस ख़ूनबहा प्राप्त करने के बाद फिर बदला लेने की कोशिश करे, या क़ातिल ख़ूनबहा देने में टालमटोल करे और क़त्ल किए गए व्यक्ति के वारिस ने जो उपकार उसपर किया है, उसका बदला अकृतज्ञता के रूप में दे।
أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۚ وَعَلَى ٱلَّذِينَ يُطِيقُونَهُۥ فِدۡيَةٞ طَعَامُ مِسۡكِينٖۖ فَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥۚ وَأَن تَصُومُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ 181
(184) कुछ निश्चित दिनों के रोज़े हैं। अगर तुममें से कोई बीमार हो, या सफ़र पर हो तो दूसरे दिनों में इतनी ही गिनती पूरी कर से और जिन लोगों को रोज़े रखने की सामर्थ्य प्राप्त हो (फिर न रखें) तो वे फ़िदया दें। एक रोज़े का प्रतिदान एक मुहताज को खाना खिलाना है, और जो अपनी ख़ुशी से कुछ ज़्यादा भलाई करे, तो यह उसी के लिए अच्छा है। लेकिन अगर तुम समझो, तो तुम्हारे लिए अच्छा यही है कि रोज़ा रखो।56
56. इस्लाम के अधिकतर आदेशों को तरह रोज़े की अनिवार्यता भी क्रमशः लागू की गई है। नबी (सल्ल०) ने आरंभ में मुसलमानों को हर महीने तीन दिन के रोज़े रखने का आदेश दिया था, मगर ये रोज़े अनिवार्य न थे। फिर सन् 2 हिजरी में रमजान के रोज़े का यह आदेश क़ुरआन में उतरा, मगर इसमें भी इतनी छूट रखी गई कि जिन लोगों को रोज़ों को सहन करने की शक्ति प्राप्त हो और फिर भी रोज़ा न रखें वे हर एक रोज़ा के बदले एक मुहताज को खाना खिला दिया करें। आगे चलकर दूसरा आदेश उतरा जो आगे आ रहा है।
وَأَتِمُّواْ ٱلۡحَجَّ وَٱلۡعُمۡرَةَ لِلَّهِۚ فَإِنۡ أُحۡصِرۡتُمۡ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۖ وَلَا تَحۡلِقُواْ رُءُوسَكُمۡ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡهَدۡيُ مَحِلَّهُۥۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ بِهِۦٓ أَذٗى مِّن رَّأۡسِهِۦ فَفِدۡيَةٞ مِّن صِيَامٍ أَوۡ صَدَقَةٍ أَوۡ نُسُكٖۚ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَمَن تَمَتَّعَ بِٱلۡعُمۡرَةِ إِلَى ٱلۡحَجِّ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۚ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖ فِي ٱلۡحَجِّ وَسَبۡعَةٍ إِذَا رَجَعۡتُمۡۗ تِلۡكَ عَشَرَةٞ كَامِلَةٞۗ ذَٰلِكَ لِمَن لَّمۡ يَكُنۡ أَهۡلُهُۥ حَاضِرِي ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 193
(196) अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए जब 'हज' और 'उमरा' का निश्चय करो, तो उसे पूरा करो, और अगर कहीं घिर जाओ तो जो क़ुरबानी उपलब्ध हो, अल्लाह की सेवा में भेंट करो61 और अपने सिर न मूँडो जब तक कि क़ुरबानी अपने स्थान पर न पहुँच जाए। मगर जो व्यक्ति बीमार हो या जिसके सिर में कोई तकलीफ़ हो और इस कारण अपना सिर मुंडवा ले, तो उसे चाहिए कि प्रतिदान (सदक़ा) के रूप में रोज़े रखे या दान करे या क़ुरबानी करे।62 फिर अगर तुम्हें अम्न नसीब हो जाए63 (और तुम हज से पहले मक्का पहुँच जाओ), तो जो व्यक्ति तुममें से हज का समय आने तक उमरा से फ़ायदा उठाए, वह सामर्थ्य के अनुसार क़ुरबानी दे और अगर क़ुरबानी उपलब्ध न हो, तो तीन रोज़े हज के समय में और सात घर पहुँचकर, इस तरह पूरे दस रोज़े रख ले। यह छूट उन लोगों के लिए है जिनके घरबार प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) के निकट न हो। अल्लाह के इन आदेशों के उल्लंघन से बचो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
61. अर्थात् अगर रास्ते में कोई ऐसा कारण सामने आ जाए, जिसकी वजह से आगे जाना असंभव हो और विवश होकर रुक जाना पड़े, तो ऊँट, गाय, बकरी में से जो जानवर भी उपलब्ध हो, अल्लाह के लिए क़ुरबान कर दो।
62. 'हदीस' से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने इस स्थिति में तीन दिन के रोज़े रखने या छः मुहताजों को खाना खिलाने या कम से कम एक बकरी ज़बह करने का आदेश दिया है।
63. अर्थात् वह कारण बाक़ी न रहे, जिसकी वजह से विवश होकर तुम्हें रास्ते में रुक जाना पड़ा था।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَأۡتِكُم مَّثَلُ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۖ مَّسَّتۡهُمُ ٱلۡبَأۡسَآءُ وَٱلضَّرَّآءُ وَزُلۡزِلُواْ حَتَّىٰ يَقُولَ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ مَتَىٰ نَصۡرُ ٱللَّهِۗ أَلَآ إِنَّ نَصۡرَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ 211
(214) फिर क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यों ही जन्नत में दाख़िला तुम्हें मिल जाएगा, हालाँकि अभी तुमपर वह सब कुछ नहीं बीता है, जो तुमसे पहले ईमानवालों पर बीत चुका है?69 उन लोगों पर कठिनाइयाँ आईं, मुसीबतें आईं, हिला मारे गए, यहाँ तक कि समय का रसूल और उसके साथी ईमानवाले चिल्ला उठे कि अल्लाह की सहायता कब आएगी? – (उस समय उन्हें तसल्ली दी गई कि) हाँ, अल्लाह की मदद क़रीब है।
69. अर्थात् नबी तो दुनिया में जब भी आए हैं उन्हें और उनपर ईमान लानेवालों को अल्लाह के विद्रोही और सरकश बन्दों से कठिन मुक़ाबला करना पड़ा है और उन्होंने अपनी जानें जोखिम में डालकर असत्य प्रणालियों के मुक़ाबले में सत्य धर्म को स्थापित करने का प्रयास किया है, तब कहीं वे जन्नत (स्वर्ग) के अधिकारी हुए। अल्लाह की जन्नत इतनी सस्ती नहीं है कि तुम अल्लाह और उसके धर्म के लिए कोई तकलीफ़ न उठाओ और वह तुम्हें मिल जाए।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِۖ قُلۡ فِيهِمَآ إِثۡمٞ كَبِيرٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَإِثۡمُهُمَآ أَكۡبَرُ مِن نَّفۡعِهِمَاۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلِ ٱلۡعَفۡوَۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ 216
(219) पूछते हैं: शराब और जुए के बारे में क्या हुक्म है? कहो इन दोनों चीज़़ों में बड़ी ख़राबी है। यद्यपि इनमें लोगों के लिए कुछ लाभ भी हैं, मगर इनका गुनाह उनके फ़ायदे से बहुत ज़्यादा है।72 पूछते हैं: हम अल्लाह के रास्ते में क्या ख़र्च करें? कहो: जो कुछ तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा हो। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए साफ़-साफ़ आदेश बयान करता है, शायद कि तुम दुनिया और आख़िरत दोनों की चिन्ता करो।
72. यह शराब और जुए के सम्बन्ध में पहला हुक्म है, जिसमें सिर्फ़ इनके नापसन्द होने की बात कहकर छोड़ दिया गया है, आगे सूरा 4 निसा, आयत 43 और सूरा 5 माइदा, आयत 90 में बाद के आदेश आ रहे हैं।
73. इस आयत से आजकल अजीब-अजीब अर्थ निकाले जा रहे हैं। हालाँकि आयत के शब्दों से साफ़ ज़ाहिर है कि लोग अपने माल के मालिक थे। प्रश्न कर रहे थे कि हम ईश्वर की प्रसन्नता के लिए क्या ख़र्च करें? कहा गया कि पहले उससे अपनी ज़रूरतें पूरी करो। फिर जो अधिक बचे उसे अल्लाह की राह में ख़र्च करो। यह अपनी मरज़ी से किया गया ख़र्च है जो बन्दा अपने रब के मार्ग में अपनी ख़ुशी से करता है।
نِسَآؤُكُمۡ حَرۡثٞ لَّكُمۡ فَأۡتُواْ حَرۡثَكُمۡ أَنَّىٰ شِئۡتُمۡۖ وَقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُم مُّلَٰقُوهُۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ 220
(223) तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं। तुम्हे अधिकार है, जिस तरह चाहो, अपनी खेती में जाओ, मगर अपने भविष्य की चिन्ता करो और अल्लाह की अप्रसन्नता से बचो।75 ख़ूब जान लो कि तुम्हें एक दिन उससे मिलना है। और ऐ नबी, जो तुम्हारे आदेशों को माने लें उन्हें (सफलता और सौभाग्य की) ख़ुशख़बरी सुना दो।
75. ये सारगर्भित शब्द हैं, जिनसे दो अर्थ निकलते हैं और दोनों का समान रूप से महत्त्व है। एक यह कि अपनी नस्ल को बाक़ी रखने की कोशिश करो ताकि तुम्हारे संसार छोड़ने से पहले तुम्हारी जगह दूसरे कार्य करनेवाले पैदा हों। दूसरे यह कि जिस आनेवाली नस्ल को तुम अपनी जगह छोड़नेवाले हो, उसको धर्म (दीन), नैतिकता और मानवता के गुणों से सुसज्जित करने का प्रयास करो।
وَٱلۡمُطَلَّقَٰتُ يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ ثَلَٰثَةَ قُرُوٓءٖۚ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ أَن يَكۡتُمۡنَ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِيٓ أَرۡحَامِهِنَّ إِن كُنَّ يُؤۡمِنَّ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ وَبُعُولَتُهُنَّ أَحَقُّ بِرَدِّهِنَّ فِي ذَٰلِكَ إِنۡ أَرَادُوٓاْ إِصۡلَٰحٗاۚ وَلَهُنَّ مِثۡلُ ٱلَّذِي عَلَيۡهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ وَلِلرِّجَالِ عَلَيۡهِنَّ دَرَجَةٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ 224
(228) जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, वे तीन बार मासिक धर्म होने तक अपने आपको रोके रखें, और उनके लिए यह जायज़ नहीं कि अल्लाह ने उनके गर्भाशय में जो सृजन किया हो, उसे छिपाएँ। उन्हें हरगिज़ ऐसा न करना चाहिए, अगर वे अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखती हैं। उनके पति सम्बन्धों को ठीक रखने के लिए तैयार हों, तो वे इस इद्दत की अवधि में उन्हें फिर पत्नी के रूप में वापस ले लेने के अधिकारी हैं।78 औरतों के लिए भी सामान्य नियम के अनुसार वैसे ही अधिकार है, जैसे मर्दों के अधिकार उनपर हैं। अलबत्ता मर्दों को उनपर एक दर्जा प्राप्त है। और सबपर अल्लाह प्रभावकारी प्रभुत्व रखनेवाला और तत्त्वदर्शी और ज्ञाता मौजूद है।
78. यह हुक्म सिर्फ़ उस हालत में है जब कि पति ने औरत को एक या दो तलाक़ें दी हों। इस हालत में 'तलाक़ रजई' होती है और 'इद्दत' के बीच पति रुजू कर सकता है। अर्थात् उसे अपने दाम्पत्य जीवन में वापस ले सकता है।
ٱلطَّلَٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَٰنٖۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَأۡخُذُواْ مِمَّآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ شَيۡـًٔا إِلَّآ أَن يَخَافَآ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَا فِيمَا ٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَعۡتَدُوهَاۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ 225
(229) तलाक़ दो बार है। फिर या तो सीधी तरह औरत को रोक लिया जाए या भले तरीक़े से उसको विदा कर दिया जाए।79 और विदा करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिए जाइज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो। अलबत्ता यह अपवाद है कि पति-पत्नी को अल्लाह की निर्धारित सीमाओं पर क़ायम न रह सकने की आशंका हो। ऐसी दशा में अगर तुम्हें यह भय हो कि वे दोनों अल्लाह की सीमाओं पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के बीच यह मामला हो जाने में कोई हरज नहीं कि पत्नी अपने पति को कुछ मुआवज़ा देकर जुदाई हासिल कर ले।80 ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएँ हैं, इनका उल्लंघन न करो और जो लोग अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करें, वही ज़ालिम है।
79. इस आयत के अनुसार एक मर्द निकाह के एक रिश्ते में अपनी पत्नी पर ज़्यादा से ज़्यादा दो ही बार 'तलाक़ रजई' का हक़ इस्तेमाल कर सकता है। जो व्यक्ति अपनी पत्नी को दो बार तलाक़ देकर उससे रुजू कर चुका हो, वह अपने जीवन में जब कभी उसको तीसरी बार तलाक़ देगा, औरत उससे हमेशा के लिए जुदा हो जाएगी।
80. धर्म-संहिता (शरीअत) की शब्दवाली में इसे “ख़ुल-अ” कहते हैं, अर्थात् एक स्त्री का अपने पति को कुछ दे-दिलाकर उससे तलाक़ हासिल करना। इस स्थिति में पुरुष के लिए जायज़ होगा कि अपना दिया हुआ माल या उसका कोई हिस्सा, जिसपर भी परस्पर समझौता हुआ हो, औरत से वापस ले ले। लेकिन अगर मर्द ने ख़ुद ही औरत को तलाक़ दी हो तो वह उससे अपना दिया हुआ कोई माल वापस नहीं ले सकता।
۞وَٱلۡوَٰلِدَٰتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ لَا تُكَلَّفُ نَفۡسٌ إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَا تُضَآرَّ وَٰلِدَةُۢ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوۡلُودٞ لَّهُۥ بِوَلَدِهِۦۚ وَعَلَى ٱلۡوَارِثِ مِثۡلُ ذَٰلِكَۗ فَإِنۡ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٖ مِّنۡهُمَا وَتَشَاوُرٖ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَاۗ وَإِنۡ أَرَدتُّمۡ أَن تَسۡتَرۡضِعُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا سَلَّمۡتُم مَّآ ءَاتَيۡتُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ 229
(233) जो बाप चाहते हों कि उनके बच्चे दूध पीने की पूरी अवधि तक दूध पिएँ, तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष तक दूध पिलाएँ।82 इस स्थिति में बच्चे के बाप को सामान्य रीति से उन्हें खाना कपड़ा देना होगा। मगर किसी पर उसकी समाई से बढ़कर बोझ न डालना चाहिए। न तो माँ को इस कारण से तकलीफ़ में डाला जाए कि बच्चा उसका है, और न बाप ही को इस कारण से तंग किया जाए कि बच्चा उसका है—दूध पिलानेवाली का यह अधिकार जैसा बच्चे के बाप पर है, वैसा ही उसके वारिस पर भी है—लेकिन अगर दोनों पक्षवाले आपस के समझौते और मशवरे से दूध छुड़ाना चाहें, तो ऐसा करने में कोई हरज नहीं। और यदि तुम्हारा विचार अपने बच्चों को किसी दूसरी औरत से दूध पिलवाने का हो, तो इसमें भी कोई हरज नहीं, शर्त यह है कि इसका जो कुछ मुआवज़ा तय करो, वह सामान्य रीति से चुका दो। अल्लाह से डरो और जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
82. यह आदेश उस स्थिति के लिए है जबकि पति-पत्नी एक-दूसरे से अलग हो चुके हों, चाहे तलाक़ के ख़ुल'अ या फ़स्ख़ (निकाह तोड़ देने) और जुदाई डाल देने के द्वारा, और औरत की गोद में दूध पीता बच्चा हो।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَعَشۡرٗاۖ فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ 230
(234) तुममें से जो लोग मर जाएँ, उनके पीछे अगर उनकी पत्नियाँ ज़िन्दा हों, तो वे अपने आपको चार महीने, दस दिन रोके रखें।83 फिर जब उनकी अवधि (इद्दत) पूरी हो जाए, तो उन्हें अधिकार है, अपने विषय में सामान्य रीति से जो चाहें, करें। तुमपर इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। अल्लाह तुम सबके आमाल की ख़बर रखता है।
83. यह मौत के बाद की 'इद्दत' उन औरतों के लिए भी है जिनसे उनके पतियों ने संभोग न किया हो। अलबत्ता गर्भवती का मामला इससे अलग है। उसकी मौत के बाद की 'इद्दत' बच्चा पैदा होने तक है, चाहे बच्चा पति के देहान्त के बाद ही हो जाए या इसमें कई महीने लगें। “अपने आपको रोके रखें” से मुराद सिर्फ़ दूसरा निकाह करने से रुकना ही नहीं है, बल्कि इससे मुराद अपने आपको बनाव-सिंगार से रोके रखना भी है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُۚ لَا تَأۡخُذُهُۥ سِنَةٞ وَلَا نَوۡمٞۚ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ مَن ذَا ٱلَّذِي يَشۡفَعُ عِندَهُۥٓ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيۡءٖ مِّنۡ عِلۡمِهِۦٓ إِلَّا بِمَا شَآءَۚ وَسِعَ كُرۡسِيُّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۖ وَلَا يَـُٔودُهُۥ حِفۡظُهُمَاۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ 251
(255) अल्लाह वह जीवन्त शाश्वत सत्ता जो सम्पूर्ण जगत् को संभाले हुए है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। यह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है ज़मीन और आसमानों में जो कुछ हैं, उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है, उसे भी वह जानता है और उसके ज्ञान में से कोई चीज़़ उनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती यह और बात है कि किसी चीज़़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका राज्य88 आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है और उनकी देख-रेख उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।
88. मूल में “कुर्सी” शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसे साधारणतया शासन एवं राज्य सत्ता के अर्थों में लाक्षणिक रूप से बोला जाता है। उर्दू (तथा हिन्दी) भाषा में भी अकसर कुर्सी शब्द बोलने का मतलब शासनाधिकार होता है। इसी शब्द के कारण यह आयत “आयतुल-कुर्सी” के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अल्लाह की ऐसी पहचान करा दी गई है, जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। इसी लिए 'हदीस' में इसको क़ुरआन की सर्वश्रेष्ठ आयत कहा गया है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِي حَآجَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ فِي رَبِّهِۦٓ أَنۡ ءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ إِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّيَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ قَالَ أَنَا۠ أُحۡيِۦ وَأُمِيتُۖ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَأۡتِي بِٱلشَّمۡسِ مِنَ ٱلۡمَشۡرِقِ فَأۡتِ بِهَا مِنَ ٱلۡمَغۡرِبِ فَبُهِتَ ٱلَّذِي كَفَرَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ 254
(258) क्या तुमने उस आदमी के हाल पर विचार नहीं किया, जिसने इबराहीम से झगड़ा किया था?92 झगड़ा इस बात पर कि इबराहीम का रब कौन है, और इस कारण कि उस व्यक्ति को अल्लाह ने हुकूमत दे रखी थी। जब इबराहीम ने कहा कि “मेरा रब वह है, जिसके अधिकार में ज़िन्दगी और मौत है", तो उसने जवाब दिया: “जिन्दगी और मौत मेरे अधिकार में है।” इबराहीम: ने कहा: “अच्छा, अल्लाह सूरज को पूरब से निकालता है, तू तनिक उसे पच्छिम से निकाल ला।” यह सुनकर वह सत्य-विरोधी चकित रह गया, मगर अल्लाह ज़ालिमों को सीधा रास्ता नहीं दिखाया करता।
92. उस आदमी से मुराद नमरूद है, जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के वतन (इराक़) का बादशाह था।
أَيَوَدُّ أَحَدُكُمۡ أَن تَكُونَ لَهُۥ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَابٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ لَهُۥ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَأَصَابَهُ ٱلۡكِبَرُ وَلَهُۥ ذُرِّيَّةٞ ضُعَفَآءُ فَأَصَابَهَآ إِعۡصَارٞ فِيهِ نَارٞ فَٱحۡتَرَقَتۡۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ 262
(266) क्या तुममें से कोई यह पसंद करता है कि उसके पास एक हरा-भरा बाग़ हो, नहरों से सिंचित खजूरो और अंगूरों और हर क़िस्म के फलों से लदा हो, और वह ठीक उस समय एक तेज़ बगूले के आघात में आकर झुलस जाए, जबकि वह ख़ुद बूढ़ा हो और उसके छोटे बच्चे अभी किसी योग्य न हों?95 इस तरह अल्लाह अपनी बातें तुम्हारे सामने बयान करता है, शायद कि तुम सोच-विचार करो।
95. अर्थात् अगर तुम यह पसन्द नहीं करते कि तुम्हारी जीवन भर की कमाई एक ऐसे नाज़ुक मौक़े पर तबाह हो जाए जब कि तुम उससे लाभ उठाने के सबसे ज़्यादा ज़रूरतमन्द हो और नए सिरे से कमाई करने का अवसर भी बाक़ी न रहा हो, तो यह बात तुम कैसे पसन्द कर रहे हो कि दुनिया में जीवन भर कार्य करने के बाद आख़िरत की ज़िन्दगी में तुम इस तरह क़दम रखो कि वहाँ पहुँचकर अचानक तुम्हें मालूम हो कि जीवन के तुम्हारे सारे किए-धरे का यहाँ कोई मूल्य नहीं, जो कुछ तुमने दुनिया के लिए कमाया था, वह दुनिया ही में रह गया, आख़िरत के लिए कुछ कमाकर लाए ही नहीं कि यहाँ उसके फल खा सको।
ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ 271
(275) मगर जो लोग ब्याज (सूद) खाते हैं, उनका हाल उस आदमी जैसा होता है जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो।97 और इस हालत में उनके फँस जाने का कारण यह है कि वे कहते हैं: “व्यापार भी तो आख़िर ब्याज ही जैसी चीज़़ है"98, जबकि अल्लाह ने व्यापार को हलाल किया है और ब्याज को हराम अतः जिस आदमी को उसके रब की ओर से यह नसीहत पहुँचे और आगे के लिए वह ब्याज खाने से बाज़ आ जाए, तो जो कुछ वह पहले खा चुका, सो खा चुका, उसका मामला अल्लाह के हवाले है99। और जो इस आदेश के बाद फिर इस कर्म को दोबारा करे, वह जहन्नमी है, जहाँ वह हमेशा रहेगा।
97. अरब के लोग दीवाने आदमी को “मजनून” (अर्थात् प्रेतग्रस्त) की संज्ञा देते थे, और किसी आदमी के बारे में यह कहना होता कि वह पागल हो गया है, तो यों कहते कि उसे जिन्न लग गया है। इसी मुहावरे का प्रयोग करते हुए क़ुरआन ब्याज खानेवाले को उस आदमी के जैसा क़रार देता है जो विक्षिप्त हो गया हो।
98. अर्थात् उनकी धारणा की ख़राबी यह है कि वे व्यापार में मूल लागत पर जो लाभ लिया जाता है उसे और ब्याज को एक ही तरह की चीज़़ समझते हैं, और उनमें कोई अन्तर नहीं करते और तर्क और दलील यों प्रस्तुत करते हैं कि जब व्यापार में लगे रुपये का लाभ लेना जायज़ है, तो क़र्ज़ के तौर पर दिए गए रुपये का लाभ क्यों नाजायज़ होगा।
99. यह नहीं कहा कि जो कुछ उसने खा लिया उसे अल्लाह माफ़ कर देगा, बल्कि कहा यह जा रहा है कि उसका मामला अल्लाह के हवाले है। इस वाक्य से मालूम होता है कि “जो खा चुका सो खा चुका” कहने का मतलब यह नहीं है कि जो खा चुका उसे माफ़ कर दिया गया, बल्कि इससे मुराद सिर्फ़ क़ानूनी छूट है। अर्थात् जो ब्याज पहले खाया जा चुका है उसे वापस लेने को क़ानूनी तौर पर माँग नहीं की जाएगी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا تَدَايَنتُم بِدَيۡنٍ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى فَٱكۡتُبُوهُۚ وَلۡيَكۡتُب بَّيۡنَكُمۡ كَاتِبُۢ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَلَا يَأۡبَ كَاتِبٌ أَن يَكۡتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ ٱللَّهُۚ فَلۡيَكۡتُبۡ وَلۡيُمۡلِلِ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥ وَلَا يَبۡخَسۡ مِنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ فَإِن كَانَ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ سَفِيهًا أَوۡ ضَعِيفًا أَوۡ لَا يَسۡتَطِيعُ أَن يُمِلَّ هُوَ فَلۡيُمۡلِلۡ وَلِيُّهُۥ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَٱسۡتَشۡهِدُواْ شَهِيدَيۡنِ مِن رِّجَالِكُمۡۖ فَإِن لَّمۡ يَكُونَا رَجُلَيۡنِ فَرَجُلٞ وَٱمۡرَأَتَانِ مِمَّن تَرۡضَوۡنَ مِنَ ٱلشُّهَدَآءِ أَن تَضِلَّ إِحۡدَىٰهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحۡدَىٰهُمَا ٱلۡأُخۡرَىٰۚ وَلَا يَأۡبَ ٱلشُّهَدَآءُ إِذَا مَا دُعُواْۚ وَلَا تَسۡـَٔمُوٓاْ أَن تَكۡتُبُوهُ صَغِيرًا أَوۡ كَبِيرًا إِلَىٰٓ أَجَلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِ وَأَقۡوَمُ لِلشَّهَٰدَةِ وَأَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَرۡتَابُوٓاْ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً حَاضِرَةٗ تُدِيرُونَهَا بَيۡنَكُمۡ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَلَّا تَكۡتُبُوهَاۗ وَأَشۡهِدُوٓاْ إِذَا تَبَايَعۡتُمۡۚ وَلَا يُضَآرَّ كَاتِبٞ وَلَا شَهِيدٞۚ وَإِن تَفۡعَلُواْ فَإِنَّهُۥ فُسُوقُۢ بِكُمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱللَّهُۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ 278
(282) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब किसी निर्धारित समय के लिए तुम आपस में क़र्ज़ का लेन-देन करो102, तो उसे लिख लिया करो। दोनों पक्षों के बीच इनसाफ़ के साथ एक आदमी दस्तावेज़ लिखे। जिसे अल्लाह ने लिखने-पढ़ने की क़ाबिलियत दी हो, उसे लिखने से इनकार नहीं करना चाहिए। वह लिखे और बोलकर वह आदमी लिखाए जिसपर हक़ आता है (अर्थात् क़र्ज़ लेनेवाला), और उसे अल्लाह, अपने रब से डरना चाहिए कि जो मामला तय पाया हो उसमें कोई कभी-बेशी न करे। लेकिन अगर क़र्ज़ लेनेवाला ख़ुद नादान या कमज़ोर हो, या बोलकर लिखा न सकता हो, तो उसका सरपरस्त इनसाफ़ के साथ बोलकर लिखाए। फिर अपने मर्दों में से दो आदमियों की इसपर गवाही करा लो और अगर दो मर्द न हो तो एक मर्द और दो औरतें हो ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे। ये गवाह ऐसे लोगों में से होने चाहिएँ, जिनकी गवाही तुम्हारे बीच स्वीकार की जाती हो। गवाहों को जब गवाह बनने के लिए कहा जाए, तो उन्हें इनकार न करना चाहिए। मामला चाहे छोटा हो या बड़ा, अवधि के निर्धारण के साथ उसकी दस्तावेज लिखवा लेने में सुस्ती न करो। अल्लाह के नज़दीक यह तरीक़ा तुम्हारे लिए ज़्यादा न्यायसंगत है इससे गवाही क़ायम होने में ज़्यादा आसानी होती है, और सन्देहों में तुम्हारे पड़ने की संभावना कम रह जाती है, हाँ जो व्यापारिक लेन-देन हाथ के हाथ तुम लोग आपस में करते हो, उसको न लिखा जाए तो कोई हरज नहीं, मगर व्यापारिक मामले तय करते समय गवाह कर लिया करो। लिखनेवाले और गवाह को सताया न जाए। ऐसा करोगे, तो गुनाह का काम करोगे। अल्लाह के ग़ज़ब से बचो। वह तुम्हें सही कार्य-नीति की तालीम देता है और उसे हर चीज़ का ज्ञान है।
102. इससे यह हुक्म निकलता है कि क़र्ज़ के मामले में अवधि या मुद्दत का निर्धारण होना चाहिए।
۞وَإِن كُنتُمۡ عَلَىٰ سَفَرٖ وَلَمۡ تَجِدُواْ كَاتِبٗا فَرِهَٰنٞ مَّقۡبُوضَةٞۖ فَإِنۡ أَمِنَ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا فَلۡيُؤَدِّ ٱلَّذِي ٱؤۡتُمِنَ أَمَٰنَتَهُۥ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥۗ وَلَا تَكۡتُمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَۚ وَمَن يَكۡتُمۡهَا فَإِنَّهُۥٓ ءَاثِمٞ قَلۡبُهُۥۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ 279
(283) अगर तुम किसी सफ़र में हो और दस्तावेज़ लिखने के लिए कोई लिखनेवाला न मिले, तो गिरवी (बन्धक) रखकर मामला करो।103 अगर तुममे से कोई आदमी दूसरे पर भरोसा करके उसके साथ कोई मामला करे, तो जिसपर भरोसा किया गया है, उसे चाहिए कि अमानत अदा करे और अल्लाह, अपने रब से डरे। और गवाही हरगिज़ न छिपाओ। जो गवाही छिपाता है, उसका दिल गुनाह में लथपथ है। और अल्लाह तुम्हारे कामों से बेख़बर नहीं है।
103. गिरवी या बन्धक हाथ में रखने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि क़र्ज़ देनेवाले को अपने क़र्ज़ की वापसी का इतमीनान हो जाए। मगर उसे अपने दिए हुए माल के बदले में गिरवी (रेहन) रखी हुई चीज़़ से लाभ उठाने का हक़ नहीं है, क्योंकि यह ब्याज है। हाँ, अगर कोई जानवर रेहन लिया गया हो तो उसका दूध इस्तेमाल किया जा सकता है, और उससे सवारी और बोझ ढोने का काम लिया जा सकता है, क्योंकि वास्तव में यह उस चारे का बदला है जो बन्धक लेनेवाला उस जानवर को खिलाता है।
لَا يُكَلِّفُ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَعَلَيۡهَا مَا ٱكۡتَسَبَتۡۗ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذۡنَآ إِن نَّسِينَآ أَوۡ أَخۡطَأۡنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تَحۡمِلۡ عَلَيۡنَآ إِصۡرٗا كَمَا حَمَلۡتَهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلۡنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهِۦۖ وَٱعۡفُ عَنَّا وَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَآۚ أَنتَ مَوۡلَىٰنَا فَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ 282
(286) अल्लाह किसी जान पर उसकी सहन-शक्ति से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता। हर आदमी ने जो कमाई की है, उसका फल उसी के लिए है और जो बुराई समेटी है, उसका वबाल उसी पर है। (ईमान लानेवालो, तुम इस तरह दुआ किया करो) ऐ हमारे रब, हमसे भूलचूक में जो ख़ताएँ हो जाएँ, उनपर पकड़ न कर, मालिक हमपर वह बोझ न डाल जो तूने हमसे पहले लोगों पर डाले थे। रब, जिस बोझ को उठाने की ताक़त हममें नहीं है, वह हमपर न रख। हमारे साथ नरमी कर, हमें माफ़ कर दे, हमपर दया कर, तू हमारा स्वामी है, इनकार करनेवालों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर।