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سُورَةُ النُّورِ

24. अन-नूर

(मदीना में उतरी-आयतें 64)

परिचय

नाम

आयत 35 'अल्लाहु नूरुस्समावाति वल अरज़ि' (अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है) से लिया गया है।

उतरने का समय

इसपर सभी सहमत हैं कि यह सूरा बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के बाद उतरी है, लेकिन इस बारे में मतभेद है कि क्या यह लड़ाई सन् 05 हि० में अहज़ाब की लड़ाई से पहले हुई थी या सन् 15 हि० में अहज़ाब की लड़ाई के बाद। वास्तविक घटना क्या है, इसकी जाँच शरीअत के उस निहित हित [को समझने के लिए भी ज़रूरी है जो परदे के आदेशों में पाया जाता है, क्योंकि ये] आदेश क़ुरआन की दो ही सूरतों में आए हैं, एक यह सूरा-24, दूसरी सूरा-33 अहज़ाब, जो अहज़ाब को लड़ाई के अवसर पर उतरी है और इसमें सभी सहमत हैं। इस उद्देश्य से जब हम संबंधित रिवायतों की छानबीन करते हैं तो सही बात यही मालूम होती है कि यह सूरा सन् 06 हि० के उत्तरार्द्ध में सूरा अहज़ाब के कई महीने बाद उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिन परिस्थतियों में यह सूरा उतरी है, वे संक्षेप में ये हैं-

बद्र की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के बाद अरब में इस्लामी आंदोलन का जो उत्थान शुरू हुआ था, वह ख़न्दक (खाई) की लड़ाई तक पहुँचते-पहुँचते इस हद तक पहुंँच चुका था कि मुशरिक (बहुदेववादी) यहूदी, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और इन्तिज़ार करनेवाले, सभी यह महसूस करने लगे थे कि इस नई उभरती ताकत को मात्र हथियार और सेनाओं के बल पर पराजित नहीं किया जा सकता। [इसलिए अब उन्होंने एक नया उपाय सोचा और अपनी इस्लाम दुश्मन] गतिविधियों का रुख़ जंगी कार्रवाइयों से हटाकर नीचतापूर्ण हमलों और आन्तिरिक षड्‍यंत्रों की ओर फेर दिया। यह नया उपाय पहली बार ज़ी-क़ादा 05 हि० में सामने आया, जब कि नबी (सल्ल0) ने अरब से लेपालक की अज्ञानतापूर्ण रीति का अन्त करने के लिए ख़ुद अपने मुँह बोले बेटे (ज़ैद-बिन-हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु) की तलाक़शुदा बीवी (जैनब-बिन्ते-जहश रज़ि०) से निकाह किया। इस अवसर पर मदीना के मुनाफ़िक़ दुष्प्रचार का भारी तूफ़ान लेकर उठ खड़े हुए और बाहर से यहूदियों और मुशरिकों ने भी उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलाकर आरोप गढ़ने शुरू कर दिए। इन बेशर्म झूठ गढ़नेवालों ने नबी (सल्ल०) पर निकृष्ट झूठे नैतिक आरोप लगाए ।

दूसरा आक्रमण बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर किया गया। [जब एक मुहाजिर और एक अंसारी के मामूली से झगड़े को मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने एक बड़ा भारी फ़ितना बना देना चाहा। इस घटना का विवरण आगे सूरा-63 अल-मुनाफ़िकून के परिचय में आ रहा है। यह आक्रमण] पहले से भी अधिक भयानक था।

वह घटना अभी ताज़ा ही थी कि उसी सफ़र में उसने एक और भयानक फ़ितना उठा दिया। यह हज़रत आइशा (रज़ि०) को आरोपित करने का फ़ितना था। इस घटना को स्वयं उन्हीं के मुख से सुनिए, वे फ़रमाती हैं कि-

"बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर मैं नबी (सल्ल०) के साथ थी।। वापसी पर, जब हम मदीना के क़रीब थे, एक मंज़िल (पड़ाव) पर रात के समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पड़ाव किया और अभी रात का कुछ हिस्सा बाक़ी था कि कूच की तैयारियांँ शुरू हो गई। मैं उठकर अपनी ज़रूरत पूरी करने निकली और जब पलटने लगी तो पड़ाव के क़रीब पहुँचकर मुझे लगा कि मेरे गले का हार टूटकर कहीं गिर पड़ा है। मैं उसे खोजने में लग गई और इतने में क़ाफ़िला रवाना हो गया।

क़ायदा यह था कि मैं कूच के समय अपने हौदे में बैठ जाती थी और चार आदमी उसे उठाकर ऊँट पर रख देते थे। हम औरतें उस वक़्त खाने-पीने की चीज़ों की कमी की वजह से बहुत हलकी-फुलकी थीं। मेरा हौदा उठाते समय लोगों को यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं उसमें नहीं हूँ। वे बेख़बरी में ख़ाली हौदा ऊँट पर रखकर रवाना हो गए।

मैं जब हार लेकर पलटी तो वहाँ कोई न था। आख़िर अपनी चादर ओढ़कर वही लेट गई और दिल में सोच लिया कि आगे जाकर जब ये लोग मुझे न पाएँगे तो स्वयं ही ढूँढते हुए आ जाएँगे। इसी हालत में मुझको नींद आ गई। सुबह के वक़्त सफ़वान-बिन-मुअत्तल सुलमी (रज़ि०) उस जगह से गुज़रे जहाँ मैं सो रही थी और मुझे देखते ही पहचान लिया, क्योंकि परदे का आदेश आने से पहले वे मुझे कई बार देख चुके थे। (यह साहब बद्री सहाबियों में से थे । इनको सुबह देर तक सोने की आदत थी, इसलिए ये भी फ़ौजी पड़ाव पर कहीं पड़े सोते रह गए थे और अब उठकर मदीना जा रहे थे।)

मुझे देखकर उन्होंने ऊँट रोक लिया और सहसा उनके मुख से निकला, "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन (निस्सन्देह हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर हमें पलटना है।) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पत्नी यहीं रह गईं।" इस आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने उठकर तुरन्त अपने मुँह पर चादर डाल ली। उन्होंने मुझसे कोई बात न की, लाकर अपना ऊँट मेरे पास बिठा दिया और अलग हटकर खड़े हो गए। मैं ऊँट पर सवार हो गई और वे नकेल पकड़कर रवाना हो गए। दोपहर के क़रीब हमने सेना को पा लिया, जबकि वह अभी एक जगह जाकर ठहरी ही थी और लश्करवालों को अभी यह पता न चला था कि मैं पीछे छूट गई हूँ। इसपर लांछन लगानेवालों ने लांछन लगा दिए और उनमें सब से आगे-आगे अब्दुल्लाह-बिन-उबई था।

“मगर मैं इससे बे-ख़बर थी कि मुझपर क्या बातें बन रही हैं। मदीना पहुँचकर मैं बीमार हो गई और एक माह के क़रीब पलंग पर पड़ी रही। शहर में इस लांछन की ख़बरें उड़ रही थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के कानों तक भी बात पहुँच चुकी थी, मगर मुझे कुछ पता न था। अलबत्ता जो चीज़ मुझे खटकती थी, वह यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह ध्यान मेरी ओर न था जो बीमारी के ज़माने हुआ करता था। आख़िर आप (सल्ल०) से इजाज़त लेकर मैं अपनी माँ के घर चली गई, ताकि वे मेरी देखभाल अच्छी तरह कर सकें ।

“एक दिन रात के समय ज़रूरत पूरी करने के लिए मैं मदीने के बाहर गई। उस वक़्त तक हमारे घरों में शौचालय न थे और हम लोग जंगल ही जाया करते थे। मेरे साथ मिस्तह-बिन-उसासा को माँ भी थीं। [उनकी ज़बानी मालूम हुआ कि] लांछन लगानेवाले झूठे लोग मेरे बारे में क्या बातें उड़ा रहे हैं? यह दास्तान सुनकर मेरा ख़ून सूख गया। वह ज़रूरत भी मैं भूल गई जिसके लिए आई थी। सीधे घर गई और रात रो-रोकर काटी।"

आगे चलकर हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्त०) ने ख़ुतबे (अभिभाषण) में फ़रमाया, “मुसलमानो ! कौन है जो उस व्यक्ति के हमलों से मेरी इज़्ज़त बचाए जिसने मेरे घरवालो पर आरोप रखकर मुझे बहुत ज़्यादा दुख पहुँचाया है। अल्लाह की क़सम ! मैंने न तो अपनी बीवी ही में कोई बुराई देखी है और न उस व्यक्ति में जिसके साथ तोहमत लगाई जाती है। वह तो कभी मेरी अनुपस्थति में मेरे घर आया भी नहीं।"

इस पर उसैद-बिन-हुज़ैर (रजि०) औस के सरदार (कुछ रिवायतों में साद-बिन-मुआज़ रज़ि०) ने उठकर कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल ! अगर वह हमारे क़बीले का आदमी है तो हम उसकी गरदन मार दें और अगर हमारे भाई खज़रजियों में से है तो आप हुक्म दें, हम उसे पूरा करने के लिए हाज़िर हैं।"

यह सुनते ही साद बिन उबादा, खज़रज के सरदार उठ खड़े हुए और कहने लगे, “झूठ कहते हो, तुम हरगिज़ उसे नहीं मार सकते।" उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) ने जवाब में कहा, “तुम मुनाफ़िक़ हो, इसलिए मुनाफ़िक़ों का पक्ष लेते हो।" इस पर मस्जिदे-नबवी में एक हंगामा खड़ा हो गया, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मिम्बर पर तशरीफ़ रखते थे। क़रीब था कि औस और खज़रज मस्जिद ही में लड़ पड़ते, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको ठंडा किया और फिर मिम्बर पर से उतर आए।

इन विवेचनों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने यह शोशा छोड़कर एक ही समय में कई शिकार करने की कोशिश की।

एक ओर उसने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) की इज़्ज़त पर हमला किया। दूसरी ओर उसने इस्लामी आन्दोलन की श्रेष्ठतम नैतिक प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने की कोशिश की। तीसरी ओर उसने यह एक ऐसी चिंगारी फेंकी थी कि अगर इस्लाम अपने अनुपालकों के जीवन की काया न पलट चुका होता तो मुहाजिरीन, अंसार और ख़ुद अंसार के भी दोनों क़बीले (औस और खज़रज) आपस में लड़ मरते।

विषय और वार्ताएँ

ये थीं वे परिस्थितियाँ, जिनमें पहले हमले के मौक़े पर सूरा-33 (अहज़ाब) की आयतें 28 से लेकर 73 तक उतरीं और दूसरे हमले के मौक़े पर यह सूरा नूर उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर इन दोनों सूरतों का क्रमवार अध्ययन किया जाए तो वह हिकमत (तत्वदर्शिता) अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उनके आदेशों में निहित है। मुनाफ़िक़ मुसलमानों को उस मैदान में परास्त करना चाहते थे, जो उनकी श्रेष्ठता का असल क्षेत्र था। अल्लाह ने बजाय इसके कि मुसलमानों को जवाबी हमले करने पर उकसाता, पूरा ध्यान उनपर यह शिक्षा देने पर लगाया कि तुम्हारे मुक़ाबले के नैतिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ अवरोध मौजूद हैं उनको हटाओ और उस मोर्चे को और अधिक मज़बूत करो। [ज़ैनब (रज़ि०) के निकाह के मौके पर] जब मुनाफ़िक़ो और काफ़िरों (दुश्मनों) ने तूफ़ान उठाया था, उस वक़्त सामाजिक सुधार के संबंध में वे आदेश दिए गए थे जिनका उल्लेख सूरा-33 अहज़ाब में किया गया है। फिर जब लांछन की घटना से मदीना के समाज में एक हलचल पैदा हुई तो यह सूरा नूर नैतिकता, सामाजिकता और क़ानून के ऐसे आदेशों के साथ उतारी गई जिनका उद्देश्य यह था कि एक तो मुस्लिम समाज को बुराइयों के पैदा होने और उनके फैलाव से सुरक्षित रखा जाए और अगर वे पैदा ही हो जाएँ तो उनकी भरपूर रोकथाम की जाए।

इन आदेशों और निर्देशों को उसी क्रम के साथ ध्यान से पढ़िए जिसके साथ वे इस सूरा में उतरे हैं, तो अन्दाज़ा होगा कि क़ुरआन ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर पर मानव-जीवन के सुधार और निर्माण के लिए किस तरह क़ानूनी, नैतिक और सामाजिक उपायों को एक साथ प्रस्तावित करता है। इन आदेशों और निर्देशों के साथ-साथ मुनाफ़िक़ों और ईमानवालों की वे खुली-खुली निशानियाँ भी बयान कर दी गईं जिनसे हर मुसलमान यह जान सके कि समाज में निष्ठावान ईमानवाले कौन लोग और मुनाफ़िक़ कौन हैं ? दूसरी ओर मुसलमानों के सामूहिक अनुशासन को और कस दिया गया। इस पूरी वार्ता में प्रमुख चीज़ देखने की यह है कि पूरी सूरा नूर उस कटुता से ख़ाली है जो अश्लील और घृणित हमलों के जवाब में पैदा हुआ करती है। इतनी अधिक उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियों में कैसे ठंडे तरीक़े से क़ानून बनाए जा रहे हैं, सुधारवादी आदेश दिए जा रहे हैं, सूझ-बूझ भरे निरदेश दिए जा रहे हैं और शिक्षा और उपदेश देने का हक़ अदा किया जा रहा है। इससे केवल यही शिक्षा नहीं मिलती कि हमें फ़ितनों के मुक़ाबले में तीव्र से तीव्र उत्तेजना के अवसरों पर भी किस तरह ठंडे चिन्तन, विशाल हृदयता और विवेक से काम लेना चाहिए, बल्कि इससे इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि यह कलाम (वाणी) मुहम्मद (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ नहीं है, किसी ऐसी हस्ती ही का उतारा हुआ है जो बहुत उच्च स्थान से मानवीय परिस्थतियों और दशाओं को देख रही है और अपने आप में उन परिस्थतियों और दशाओं से अप्रभावित होकर विशुद्ध निर्देश और मार्गदर्शन के पद का हक़ अदा कर रही है। अगर यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी लिखी होती तो आपकी अति उच्चता और श्रेष्ठता के बावजूद उसमें उस स्वाभाविक कटुता का कुछ न कुछ प्रभाव तो ज़रूर पाया जाता जो स्वयं अपनी प्रतिष्ठा पर निकृष्ट हमलों को सुनकर एक सज्जन पुरुष की भावनाओं में अनिवार्य रूप से पैदा हो जाया करती है।

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سُورَةُ النُّورِ
24. अन-नूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
سُورَةٌ أَنزَلۡنَٰهَا وَفَرَضۡنَٰهَا وَأَنزَلۡنَا فِيهَآ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لَّعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ
(1) यह एक सूरा है जिसको हमने उतारा है, और इसे हमने अनिवार्य किया है1 और इससे हमने साफ़-साफ़ आदेश अवतरित किए है शायद कि तुम शिक्षा ग्रहण करो।
1. अर्थात् जो बातें इस सूरा में कही गई हैं वे “सिफ़ारिशें” नहीं हैं कि आपका मन चाहे तो मानें वरना जो कुछ चाहे करते रहे, बल्कि ये निश्चित आदेश हैं जिनका पालन करना अनिवार्य है। अगर ईमानवाले हो तो इनका पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है।
ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِي فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٖۖ وَلَا تَأۡخُذۡكُم بِهِمَا رَأۡفَةٞ فِي دِينِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ وَلۡيَشۡهَدۡ عَذَابَهُمَا طَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) व्यभिचारिणी औरत और व्यभिचारी मर्द दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो।2 और उनपर तरस खाने की भावना अल्लाह के धर्म के विषय में तुमको न सताए अगर तुम अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हो और उनको सज़ा देते समय ईमानवालों का एक गिरोह उपस्थि रहे।3
2. व्यभिचार के सम्बन्ध में आरम्भिक आदेश सूरा 4 (निसा) आयत 15 में आ चुका है। अब उसकी यह निश्चित रूप से सज़ा नियत कर दी गई। यह सज़ा उस रूप में है जबकि व्यभिचारी मर्द अविवाहित या व्यभिचारिणी औरत अविवाहिता हो। पवित्र क़ुरआन में भी इसकी ओर संकेत मौजूद है, जैसा कि सूरा 4 (निसा) आयत 25 से मालूम होता है। और बहुत-सी हदोसों, नबी (सल्ल०) और खुलफ़ाए राशिदीन की व्यावहारिक रीति और मुस्लिम समुदाय के 'इजमा' (मतैक्य) से भी यह सिद्ध है कि विवाहित होने की स्थिति में व्यभिचार की सज़ा 'रज्म' (पथराव करके मार डालना) है।
3. अर्थात् सज़ा सबके सामने दी जाए ताकि अपराधी को दुर्गति हो, दूसरे लोगों को शिक्षा मिले और यह पाप मुस्लिम समाज में फैलने न पाए।
ٱلزَّانِي لَا يَنكِحُ إِلَّا زَانِيَةً أَوۡ مُشۡرِكَةٗ وَٱلزَّانِيَةُ لَا يَنكِحُهَآ إِلَّا زَانٍ أَوۡ مُشۡرِكٞۚ وَحُرِّمَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 2
(3) व्यभिचारी विवाह न करे मगर व्यभिचारिणी के साथ या बहुदेववादी औरत के साथ। और व्यभिचारिणी के साथ विवाह न करे मगर व्यभिचारी या बहुदेववादी और यह हराम कर दिया गया है ईमान वालों पर।4
4. अर्थात् तौबा न करनेवाले व्यभिचारी के लिए अगर उचित है तो व्यभिचारिणी ही उचित है, या फिर मुशरिक (बहुदेववादी) औरत किसी ईमानवाली औरत के लिए वह उचित नहीं है, और हराम है ईमानवालों के लिए कि वे जानते-बूझते अपनी लड़कियाँ ऐसे दुराचारियों को दें इसी तरह व्यभिचारिणी (जो तौबा न करे) स्त्रियों के लिए यदि उचित हैं तो उन्हीं जैसे व्यभिचारी या मुशरिक (बहुदेववादी)। किसी ईमानवाले नेक व्यक्ति के लिए वे योग्य नहीं हैं, और हराम है ईमानवालों के लिए कि जिन औरतों की बदचलनी का हाल उन्हें मालूम हो उनसे वे जानते बूझते विवाह करें। यह आदेश सिर्फ़ उन्हीं मर्दों और औरतों पर चरितार्थ होता है जो अपनी बुरी नीति पर जमे हों। जो लोग तौबा करके अपना सुधार कर लें उनपर यह लागू नहीं होता, क्योंकि तौबा और सुधार के बाद ‘व्यभिचारी’ होने का अवगुण उसके साथ लगा नहीं रहता।
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ثُمَّ لَمۡ يَأۡتُواْ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَ فَٱجۡلِدُوهُمۡ ثَمَٰنِينَ جَلۡدَةٗ وَلَا تَقۡبَلُواْ لَهُمۡ شَهَٰدَةً أَبَدٗاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 3
(4) और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत (मिथ्यारोप) लगाएँ,5 फिर चार गवाह लेकर न आएँ, उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी स्वीकार न करो, और वे ख़ुद ही गुनहगार हैं,
5. अर्थात् व्यभिचार का आरोप, और यही आदेश पाकदामन पुरुषों पर भी व्यभिचार का आरोप लगाने का है। 'शरीअत' की परिभाषा में इस कलंकारोपण को “क़ज़्फ़” कहा जाता है।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधार कर लें अल्लाह अवश्य (उनके लिए) क्षमाशील और दयावान है।6
6. इस बात पर शास्त्रवेत्ताओं (फ़क़ीहों) का मतैक्य है कि तौबा से क़ज़्फ़ की सज़ा ख़त्म नहीं होती, इसपर भी इत्तिफ़ाक़ है कि तौबा करनेवाला 'फ़ासिक़' (अवज्ञाकारी) नहीं रहेगा और अल्लाह उसे माफ़ कर देगा। अलबत्ता इसमें मतभेद है कि क्या तौबा कर लेने के बाद उसकी गवाही स्वीकार की जाएगी या नहीं। हनफ़िया इस बात को मानते हैं कि उसकी गवाही स्वीकार न की जाएगी। इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) उसकी गवाही को स्वीकार करने के योग्य समझते हैं।
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ أَزۡوَٰجَهُمۡ وَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ شُهَدَآءُ إِلَّآ أَنفُسُهُمۡ فَشَهَٰدَةُ أَحَدِهِمۡ أَرۡبَعُ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 5
(6) और जो लोग अपनी बीवियों पर दोषारोपण करें7 और उनके पास ख़ुद उनके अपने सिवा दूसरे कोई गवाह न हों तो उनमें से एक व्यक्ति की गवाही (यह है कि वह) चार बार अल्लाह की क़सम खाकर गवाही दे कि वह (अपने आरोप में) सच्चा है
7. अर्थात् व्यभिचार का आरोप लगाएँ।
وَٱلۡخَٰمِسَةُ أَنَّ لَعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 6
(7) और पाँचवीं बार कहे कि उसपर अल्लाह की फिटकार हो अगर वह (अपने आरोप में) झूठा हो।
وَيَدۡرَؤُاْ عَنۡهَا ٱلۡعَذَابَ أَن تَشۡهَدَ أَرۡبَعَ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 7
(8) और औरत से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खाकर गवाही दे कि यह व्यक्ति (अपने आरोप में) झूठा है और
وَٱلۡخَٰمِسَةَ أَنَّ غَضَبَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَآ إِن كَانَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 8
(9) पाँचवीं बार कहे कि उस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब टूटे अगर वह (अपने आरोप में) सच्चा हो8।
8. शरीअत की परिभाषा में इसको 'लिआन' कहते हैं। यह लिआन घर बैठे नहीं हो सकता, बल्कि अदालत में होना चाहिए। लिआन की माँग मर्द की ओर से भी हो सकती है और औरत की ओर से भी इलज़ाम लगाने के बाद लिआन से अगर मर्द पहलू बचाए, या औरत क़सम खाने से बचे तो इसकी सज़ा हनफ़िया के मतानुसार क़ैद है जब तक अपराधी लिआन न करे। और दोनों तरफ़ से लिआन हो जाने के बाद औरत और मर्द एक-दूसरे के लिए हराम हो जाते हैं।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٌ حَكِيمٌ ۝ 9
(10) तुम लोगों पर अल्लाह की उदार कृपा और उसकी दया न होती और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा तौबा क़ुबूल करनेवाला और तत्त्वदर्शी है तो (बीवियों पर आरोप का मामला तुम्हें बड़ी जटिलता में डाल देता)।
إِنَّ ٱلَّذِينَ جَآءُو بِٱلۡإِفۡكِ عُصۡبَةٞ مِّنكُمۡۚ لَا تَحۡسَبُوهُ شَرّٗا لَّكُمۖ بَلۡ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُم مَّا ٱكۡتَسَبَ مِنَ ٱلۡإِثۡمِۚ وَٱلَّذِي تَوَلَّىٰ كِبۡرَهُۥ مِنۡهُمۡ لَهُۥ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 10
(11) जो लोग यह कलंक गढ़ लाए हैं वे तुम्हारे ही अन्दर का एक टोला है।9 इस घटना को अपने लिए बुराई न समझो बल्कि यह भी तुम्हारे लिए भलाई ही है।10 जिसने उसमें जितना हिस्सा लिया उसने उतना ही गुनाह समेटा और जिस व्यक्ति ने उसकी ज़िम्मेदारी का बड़ा हिस्सा अपने सिर लिया11 उसके लिए तो बड़ा अज़ाब है।
9. यहाँ से आयत 26 तक उस मामले पर वार्तालाप किया गया है जो इतिहास में 'इफ़्क' की घटना के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें मुनाफ़िक़ों ने हज़रत आइशा (रज़ि०) पर, अल्लाह की पनाह, व्यभिचार का मिथ्यारोपण किया था और इसकी इतनी चर्चा की थी कि कुछ मुसलमान भी इसमें पड़ गए थे।
10. अर्थ यह है कि घबराओ नहीं, मुनाफ़िक़ों (कपटचारियों) ने अपनी समझ से तो यह बड़े ज़ोर का वार तुमपर किया है मगर अल्लाह ने चाहा तो यह उन्हीं पर उलटा पड़ेगा और तुम्हारे लिए हितकर सिद्ध होगा।
11. अर्थात् अब्दुल्लाह बिन उबई जो इस आरोप का वास्तविक रचयिता और उपद्रव का वास्तविक प्रवर्तक था।
لَّوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ ظَنَّ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بِأَنفُسِهِمۡ خَيۡرٗا وَقَالُواْ هَٰذَآ إِفۡكٞ مُّبِينٞ ۝ 11
(12) जिस समय तुम लोगों ने उसे सुना था उसी समय क्यों न ईमानवाले मर्दों और ईमानवाली औरतों ने अपने आपसे अच्छा गुमान किया12 और क्यों न कह दिया कि यह स्पष्ट मिथ्यारोपण है?
12. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि अपने लोगों, या अपने समुदाय और अपने समाज के लोगों से अच्छा गुमान क्यों न किया। आयत के शब्द दोनों अर्थों को व्याप्त हैं। लेकिन जो अनुवाद हमने किया है वह ज़्यादा अर्थपूर्ण है। इसका मतलब यह है कि तुममें से हर एक ने क्यों न सोचा कि अगर उसके सामने वह परिस्थिति होती जो हज़रत आइशा (रज़ि०) को पेश आई थी तो क्या वह व्यभिचार कर सकता था?
لَّوۡلَا جَآءُو عَلَيۡهِ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَۚ فَإِذۡ لَمۡ يَأۡتُواْ بِٱلشُّهَدَآءِ فَأُوْلَٰٓئِكَ عِندَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 12
(13) वे लोग (अपने आरोप के प्रमाण में) चार गवाह क्यों न लाए? अब जबकि वे गवाह नहीं लाए हैं, अल्लाह की दृष्टि में वही झूठे हैं।13
13. यहाँ किसी को यह भ्रम न हो कि यहाँ इलज़ाम के ग़लत होने का प्रमाण और आधार केवल गवाहों के न होने को ठहराया जा रहा है, और मुसलमानों से कहा जा रहा है कि तुम भी सिर्फ़ इस कारण से इसको स्पष्ट रूप से झूठा आरोप घोषित करो कि इलज़ाम लगानेवाले चार गवाह नहीं लाए हैं। यह भ्रम इस घटना को निगाह में न रखने के कारण पैदा होता है जो वास्तव में वहाँ घटित हुई थी। इलज़ाम लगानेवालों ने इलज़ाम इसलिए नहीं लगया था कि उन्होंने या उनमें से किसी व्यक्ति ने अल्लाह की पनाह अपनी आँखों से वह बात देखी थी, जो वे मुख से निकाल रहे थे, बल्कि सिर्फ़ इस आधार पर इतना बड़ा इलज़ाम रच डाला था कि संयोग से हज़रत आइशा (रज़ि०) क़ाफ़िले से पीछे रह गई थीं और हज़रत सफ़वान बाद में उनको अपने ऊँट पर सवार करके काफ़िले में ले आए थे। कोई बुद्धिमान आदमी भी इस अवसर पर यह कल्पना नहीं कर सकता था कि हज़रत आइशा (रज़ि०) का इस तरह पीछे रह जाना अल्लाह की पनाह किसी साज़-बाज़ का नतीजा था। साज़-बाज करनेवाले इस ढंग से तो साज़-बाज़ नहीं किया करते कि सेना नायक की पत्नी चुपके से क़ाफ़िले के पीछे एक व्यक्ति के साथ रह जाए और फिर वही व्यक्ति उसको अपने ऊँट पर बिठाकर दिन-दहाड़े ठीक दोपहर के समय लिए हुए खुले तौर पर सेना के पड़ाव पर पहुँचे। यह हालत ख़ुद ही इन दोनों की निर्दोषता सिद्ध कर रही थी। इस हालत में अगर इलज़ाम लगाया जा सकता था तो सिर्फ़ इस आधार पर ही लगाया जा सकता था कि कहनेवालों ने अपनी आँखों से कोई मामला देखा हो। वरना क़रीने (परिस्थितियाँ) जिनपर ज़ालिमों ने इलज़ाम की आधारशिला रखी थी, किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं रखते थे।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ لَمَسَّكُمۡ فِي مَآ أَفَضۡتُمۡ فِيهِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 13
(14) अगर तुम लोगों पर दुनिया और आख़िरत में अल्लाह की उदार कृपा और दयालुता न होती तो जिन बातों में तुम पड़ गए थे उनके बदले में बड़ा अज़ाब तुम्हें आ लेता।
إِذۡ تَلَقَّوۡنَهُۥ بِأَلۡسِنَتِكُمۡ وَتَقُولُونَ بِأَفۡوَاهِكُم مَّا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ وَتَحۡسَبُونَهُۥ هَيِّنٗا وَهُوَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمٞ ۝ 14
(15) (तनिक सोचो तो, उस समय तुम कैसी भारी ग़लती कर रहे थे) जबकि तुम्हारी एक ज़बान से दूसरी ज़बान इस झूठ को लेती चली जा रही थी और तुम अपने मुँह से वह कुछ कहे जा रहे थे जिसके सम्बन्ध में तुम्हें कोई ज्ञान न था। तुम उसे एक साधारण बात समझ रहे थे, हालाँकि अल्लाह की दृष्टि में यह बड़ी बात थी।
وَلَوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ قُلۡتُم مَّا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّتَكَلَّمَ بِهَٰذَا سُبۡحَٰنَكَ هَٰذَا بُهۡتَٰنٌ عَظِيمٞ ۝ 15
(16) क्यों न इसे सुनते ही तुमने कह दिया कि 'हमें ऐसी बात कहना शोभा नहीं देता, पाक है अल्लाह, यह तो एक बड़ा मिथ्यारोप है।”
يَعِظُكُمُ ٱللَّهُ أَن تَعُودُواْ لِمِثۡلِهِۦٓ أَبَدًا إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 16
(17) अल्लाह तुम्हें नसीहत करता है कि आगे कभी ऐसी हरकत न करना अगर तुम ईमानवाले हो।
وَيُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 17
(18) अल्लाह तुम्हें स्पष्टत: आदेश देता है और वह सर्वज्ञ एवं तत्वदर्शी है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ ٱلۡفَٰحِشَةُ فِي ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 18
(19) जो लोग चाहते हैं कि ईमान लानेवालों के गिरोह में अश्लीलता फैले वे दुनिया और आख़िरत में दुखद सज़ा के भागी है, अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 19
(20) अगर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दयालुता तुमपर न होती और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा करुणामय और दयावान् है, (तो यह चीज़़ जो अभी तुम्हारे बीच फैलाई गई थी बहुत ही बुरे परिणाम दिखा देती।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ وَمَن يَتَّبِعۡ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَإِنَّهُۥ يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۚ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ مَا زَكَىٰ مِنكُم مِّنۡ أَحَدٍ أَبَدٗا وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُزَكِّي مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 20
(21) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, शैतान के पदचिह्नों पर न चलो उसका अनुसरण कोई करेगा तो वह तो उसे अश्लीलता और बुराई ही का आदेश देगा। अगर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दयालुता तुमपर न होती तो तुममें से कोई व्यक्ति पाक न हो सकता। मगर अल्लाह ही जिसे चाहता है पाक कर देता है, और अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।
وَلَا يَأۡتَلِ أُوْلُواْ ٱلۡفَضۡلِ مِنكُمۡ وَٱلسَّعَةِ أَن يُؤۡتُوٓاْ أُوْلِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَلۡيَعۡفُواْ وَلۡيَصۡفَحُوٓاْۗ أَلَا تُحِبُّونَ أَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 21
(22) तुममें से जो लोग वैभववान और सामर्थ्यवान है वे इस बात की क़सम न खा बैठें कि अपने नातेदार, मुहताज और अल्लाह की राह में घरबार छोड़नेवाले लोगों की मदद न करेंगे। उन्हें माफ़ कर देना चाहिए और दरगुज़र करना चाहिए। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें माफ़ करे? और अल्लाह का गुण यह है कि वह क्षमाशील और दयावान है।14
14. यह आयत इस मामले में उतरी है कि इलज़ाम लगानेवालों में जो कुछ भोले-भाले मुसलमान शामिल हो गए। थे, उनमें से एक हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) के निकट के नातेदार भी थे जिनपर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) हमेशा उपकार करते रहते थे। इस दुखद घटना के बाद हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने क़सम खा ली कि अब उनके साथ कोई एहसान का मामला न करेंगे। अल्लाह ने इस बात को पसन्द न किया कि सिद्दीक़ अकबर जैसा व्यक्ति माफ़ी और दरगुज़र से काम न ले।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡغَٰفِلَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ لُعِنُواْ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 22
(23) जो लोग पाकदामन, बेख़बर, ईमानवाली औरतों पर झूठा कलंक लगाते हैं उनपर दुनिया और आख़िरत में फिटकार पड़ी और उनके लिए बड़ा अज़ाब है।
يَوۡمَ تَشۡهَدُ عَلَيۡهِمۡ أَلۡسِنَتُهُمۡ وَأَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 23
(24) वे उस दिन को भूल न जाएँ जबकि उनकी अपनी ज़बानें और उनके अपने हाथ-पाँव उनकी करतूतों की गवाही देंगे।
يَوۡمَئِذٖ يُوَفِّيهِمُ ٱللَّهُ دِينَهُمُ ٱلۡحَقَّ وَيَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ ٱلۡمُبِينُ ۝ 24
(25) उस दिन अल्लाह वह बदला उन्हें भरपूर दे देगा जिसके वे योग्य हैं और उन्हें मालूम हो जाएगा कि अल्लाह ही सत्य है सच को सच कर दिखानेवाला।
ٱلۡخَبِيثَٰتُ لِلۡخَبِيثِينَ وَٱلۡخَبِيثُونَ لِلۡخَبِيثَٰتِۖ وَٱلطَّيِّبَٰتُ لِلطَّيِّبِينَ وَٱلطَّيِّبُونَ لِلطَّيِّبَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ مُبَرَّءُونَ مِمَّا يَقُولُونَۖ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 25
(26) नापाक औरतें नापाक मर्दों के लिए हैं और नापाक मर्द नापाक औरतों के लिए। पाक औरतें पाक मर्दों के लिए हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए। उनका दामन पाक है उन बातों से जो बनानेवाले बनाते हैं, उनके लिए क्षमा है और सम्मानित आजीविका।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ بُيُوتِكُمۡ حَتَّىٰ تَسۡتَأۡنِسُواْ وَتُسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَهۡلِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 26
(27) ऐ लोगो15 जो ईमान लाए हो, अपने घरों के सिवा दूसरे घरों में प्रवेश न किया करो जब तक कि घरवालों की स्वीकृति न ले लो और घरवालों पर सलाम न भेज लो, यह रीति तुम्हारे लिए अच्छी है। आशा है कि तुम इसका ध्यान रखोगे।
15. सूरा के शुरू में जो आदेश दिए गए थे वे इसलिए थे कि समाज में बुराई उभर आए तो उसका निवारण कैसे किया जाए। अब वे आदेश दिए जा रहे हैं जिनका उद्देश्य यह है कि समाज में सिरे से बुराइयों के जन्म ही को रोक दिया जाए और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का सुधार करके उन कारणों का निवारण कर दिया जाए जिनसे इस तरह की ख़राबियाँ पैदा होती हैं।
فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فِيهَآ أَحَدٗا فَلَا تَدۡخُلُوهَا حَتَّىٰ يُؤۡذَنَ لَكُمۡۖ وَإِن قِيلَ لَكُمُ ٱرۡجِعُواْ فَٱرۡجِعُواْۖ هُوَ أَزۡكَىٰ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 27
(28) फिर यदि वहाँ किसी को न पाओ तो प्रवेश न करो जब तक कि तुमको इजाज़त न मिले,16 और अगर तुमसे कहा जाए कि वापस चले जाओं तो वापस हो जाओ, यह तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है17 और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
16. अर्थात् किसी के ख़ाली घर में प्रवेश करना जाइज़ नहीं, यह और बात है कि घर के मालिक ने आदमी को ख़ुद इस बात की इजाज़त दी हो। उदाहरणार्थ, उसने आपसे कह दिया हो कि अगर मैं मौजूद न हूँ तो आप मेरे कमरे में बैठ जाइएगा, या वह किसी और स्थान पर हो और आपकी सूचना मिलने पर वह कहला भेजे कि आप पधारिए मैं अभी आता हूँ।
17. अर्थात् इसपर बुरा न मानना चाहिए। एक आदमी को हक़ है कि वह किसी से न मिलना चाहे तो इनकार कर दे, या किसी व्यस्तता के कारण मुलाक़ात न कर पा रहा हो तो अपनी असमर्थता प्रकट कर दे।
لَّيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ مَسۡكُونَةٖ فِيهَا مَتَٰعٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 28
(29) अलबत्ता तुम्हारे लिए उसमें कोई हरज नहीं है कि ऐसे घरों में प्रवेश करो जो किसी के रहने की जगह न हों और जिनमें तुम्हारे लाभ (या काम) की कोई चीज़ हो।18 तुम जो कुछ ज़ाहिर करते हो और जो कुछ छिपाते हो, सबकी अल्लाह को ख़बर है।
18. इससे मुराद है होटल, सराय मेहमानख़ाने, दुकाने, मुसाफ़िरख़ाने आदि जहाँ लोगों के लिए प्रवेश की आम इजाज़त हो।
قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ ذَٰلِكَ أَزۡكَىٰ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ ۝ 29
(30) ऐ नबी, ईमानवाले पुरुषों से कहो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें,19 और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें, यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीका है, जो कुछ वे करते हैं अल्लाह को उसकी ख़बर रहती है।
19. मूल ग्रन्थ में 'ग़ज़्ज़े-बसर' का आदेश दिया गया है जिसका अनुवाद साधारणतया 'निगाह नीची करना या रखना' किया जाता है। लेकिन वास्तव में इस आदेश का अर्थ हर समय नीचे ही देखते रहना नहीं है, बल्कि पूरी तरह निगाह भरकर न देखना, और निगाहों को देखने के लिए बिलकुल आज़ाद न छोड़ देना है। यह अर्थ 'निगाह बचाने' से ठोक व्यक्त होता है, अर्थात् जिस चीज़़ को देखना उचित न हो उससे निगाह हटा ली जाए, चाहे इसके लिए आदमी निगाह नीची करे या किसी और तरफ़ उसे बचा ले जाए और यह बात वार्ता के आगे और पीछे के अंशों से भी मालूम होती है कि यह पाबन्दी जिस चीज़ पर लगाई गई है वह है मर्दों का औरतों को देखना या दूसरे लोगों के गुप्तांगों पर निगाह डालना, या अश्लील दृश्यों पर निगाह जमाना।
وَقُل لِّلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآئِهِنَّ أَوۡ ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآئِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ أَخَوَٰتِهِنَّ أَوۡ نِسَآئِهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّٰبِعِينَ غَيۡرِ أُوْلِي ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ عَلَىٰ عَوۡرَٰتِ ٱلنِّسَآءِۖ وَلَا يَضۡرِبۡنَ بِأَرۡجُلِهِنَّ لِيُعۡلَمَ مَا يُخۡفِينَ مِن زِينَتِهِنَّۚ وَتُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ جَمِيعًا أَيُّهَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 30
(31) और ऐ नबी, ईमानवाली औरतों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें, 20 और अपना बनाव-श्रृंगार न दिखाएँ सिवाय उसके जो ख़ुद ही ज़ाहिर हो जाए, और अपने सीनों (वक्षस्थलों) पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें। वे अपना बनाव-श्रृंगार न ज़ाहिर करें मगर इन लोगों के सामने पति बाप, पतियों के बाप21 अपने बेटे, पतियों के बेटे,22 भाई,23 भाइयों के बेटे, बहनों के बेटे,24 अपने मेलजोल की औरतें25 अपने लौडीग़ुलाम के अधीन मर्द जो किसी और तरह का प्रयोजन (गर्ज़) न रखते हो, और वे बच्चे26 जो औरतों की छिपी बातो से अभी परिचित न हुए हों। वे अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपना जो श्रृंगार उन्होंने छिपा रखा हो वह लोगों को मालूम हो जाए। ऐ ईमानवालो, तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, आशा है कि सफलता प्राप्त करोगे।
20. यह बात ध्यान में रहे कि अल्लाह की शरीअत औरतों से सिर्फ़ उतनी ही अपेक्षा नहीं करती जो मर्दों से उसने की है, अर्थात् निगाह बचाना और गुप्तांगों की रक्षा करना, बल्कि वह उनसे कुछ और भी अपेक्षाएँ करती है जो उसने मर्दों से नहीं की हैं। इससे स्पष्ट है कि इस मामले में औरत और मर्द समान नहीं हैं।
21. बाप के अर्थ में दादा परदादा, और नाना, परनाना भी शामिल हैं। अतः एक औरत अपनी ददिहाल और ननिहाल और अपने पति को ददिहाल और ननिहाल के उन सब बुज़ुर्गों के सामने उसी तरह आ सकती है जिस तरह अपने बाप और ससुर के सामने आ सकती है।
22. बेटों में पोते, परपोते और नाती-परनाती सब सम्मिलित हैं। और इस मामले में सगे सौतेले का कोई अन्तर नहीं है। अपने सौतेले बच्चों की औलाद के सामने भी औरत उसी तरह आज़ादी के साथ अपनी सज्जा ज़ाहिर कर सकती है जैसे ख़ुद अपनी सन्तान और सन्तान की सन्तान के सामने कर सकती है।
23. 'भाइयों' में सगे और सौतेले और माँ-जाये भाई सब शामिल हैं।
24. भाई-बहनों से मुराद तीनों तरह के भाई-बहन हैं और उनके बेटे, पोते और नाती सब उनकी औलाद के अन्तर्गत आते हैं।
25. इससे स्वतः यह विदित होता है कि आवारा और कुचरित्र औरतों के सामने शिष्ट मुस्लिम औरत को अपने बनाव-श्रृंगार का प्रदर्शन न करना चाहिए।
26. अर्थात् अधीन होने के कारण उनके सम्बन्ध में यह शक करने की गुंजाइश न हो कि वे उस घर की औरतों के मामले में कोई अनुचित इच्छा करने का साहस कर सकेंगे।
وَأَنكِحُواْ ٱلۡأَيَٰمَىٰ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰلِحِينَ مِنۡ عِبَادِكُمۡ وَإِمَآئِكُمۡۚ إِن يَكُونُواْ فُقَرَآءَ يُغۡنِهِمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 31
(32) तुममें से जो लोग बेजोड़े के (अविवाहित) हों, और तुम्हारे लौंडी-ग़ुलामों में से जो नेक हों, उनके निकाह कर दो। अगर वे ग़रीब हो तो अल्लाह अपने अनुग्रह से उनको धनी कर देगा, अल्लाह बड़ी समाईवाला और सर्वज्ञ है।
وَلۡيَسۡتَعۡفِفِ ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ نِكَاحًا حَتَّىٰ يُغۡنِيَهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱلَّذِينَ يَبۡتَغُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِمَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَكَاتِبُوهُمۡ إِنۡ عَلِمۡتُمۡ فِيهِمۡ خَيۡرٗاۖ وَءَاتُوهُم مِّن مَّالِ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ ءَاتَىٰكُمۡۚ وَلَا تُكۡرِهُواْ فَتَيَٰتِكُمۡ عَلَى ٱلۡبِغَآءِ إِنۡ أَرَدۡنَ تَحَصُّنٗا لِّتَبۡتَغُواْ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَن يُكۡرِههُّنَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ مِنۢ بَعۡدِ إِكۡرَٰهِهِنَّ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 32
(33) और जो निकाह का अवसर न पाएँ उन्हें चाहिए कि पाकदामनी अपनाएँ, यहाँ तक कि अल्लाह अपने अनुग्रह से उन्हें धनी कर दे। और जिन लोगों पर तुम्हें स्वामित्व का अधिकार प्राप्त हो उनमें से जो लिखा-पढ़ी की याचना करें उनसे लिखा-पढ़ी कर लो27 अगर तुम्हें मालूम हो कि उनमें भलाई है, 28 और उनको उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है।29 और अपनी लौडियों को अपने दुनिया के लाभों के लिए वेश्यावृत्ति पर विवश न करो30 जबकि वे ख़ुद पाकदामन रहना चाहती हों,31 और जो कोई उनको विवश करे तो इस बल प्रयोग के बाद अल्लाह उनके लिए क्षमाशील और दयावान् है।
27. लिखा-पढ़ी का अर्थ यह है कि कोई ग़ुलाम या लौंडी अपनी आज़ादी के लिए अपने स्वामी को बदले में अदा करने का प्रस्ताव रखे और जब स्वामी उसे स्वीकार कर ले तो दोनों के बीच शर्तों की लिखा-पढ़ी हो जाए।
28. भलाई से मुराद दो चीज़़ें हैं: एक यह कि ग़ुलाम में लिखित माल अदा करने की योग्यता हो। दूसरे यह कि उसमें इतनी दियानतदारी और सत्यवादिता मौजूद हो कि उसके वचन पर भरोसा करके समझौता किया जा सके।
29. सामान्य आदेश है। मालिक भी कुछ न कुछ धनराशि माफ़ कर दें। मुसलमान भी उनकी सहायता करें। बैतुलमाल (राजकोष) से भी उनकी सहायता की जाए।
30. अज्ञानकाल में अरबवाले अपनी लौडियों से वेश्यावृत्ति का पेशा कराते थे और उनकी कमाई खाते थे, इस्लाम ने इस पेशे को वर्जित कर दिया।
31. अर्थ यह है कि अगर लौंडी ख़ुद अपनी इच्छा से व्यभिचार करती है तो वह अपने अपराध की ख़ुद ज़िम्मेदार है। क़ानून उसके अपराध पर उसी को पकड़ेगा, लेकिन अगर उसका मालिक वेश्यावृत्ति पर उसे बाध्य करे तो ज़िम्मेदारी मालिक की है और वही पकड़ा जाएगा।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖ وَمَثَلٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 33
(34) हमने स्पष्टत: पथ-प्रदर्शन करनेवाली आयतें तुम्हारे पास भेज दी हैं, और उन क़ौमों के शिक्षाप्रद उदाहरण भी हम तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत कर चुके हैं जो तुमसे पहले हो गुज़री हैं और वे उपदेश हमने दे दिए है जो डरनेवालों के लिए होते हैं।
۞ٱللَّهُ نُورُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ مَثَلُ نُورِهِۦ كَمِشۡكَوٰةٖ فِيهَا مِصۡبَاحٌۖ ٱلۡمِصۡبَاحُ فِي زُجَاجَةٍۖ ٱلزُّجَاجَةُ كَأَنَّهَا كَوۡكَبٞ دُرِّيّٞ يُوقَدُ مِن شَجَرَةٖ مُّبَٰرَكَةٖ زَيۡتُونَةٖ لَّا شَرۡقِيَّةٖ وَلَا غَرۡبِيَّةٖ يَكَادُ زَيۡتُهَا يُضِيٓءُ وَلَوۡ لَمۡ تَمۡسَسۡهُ نَارٞۚ نُّورٌ عَلَىٰ نُورٖۚ يَهۡدِي ٱللَّهُ لِنُورِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَ لِلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 34
(35) अल्लाह आसमानों और ज़मीन का प्रकाश (नूर) है।32 (ब्रह्माण्ड में) उसके प्रकाश की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक़ (आला) में चिराग़ रखा हुआ हो, चिराग़ एक फ़ानूस में हो, फ़ानूस का हाल यह हो कि जैसे मोती की तरह चमकता हुआ तारा, और वह चिराग़ ज़ैतून के एक ऐसे बरकतवाले पेड़ के तेल से रौशन किया जाता हो जो न पूर्वी हो न पश्चिमी, जिसका तेल आप ही आप भड़का पड़ता हो चाहे आग उसको न लगे, (इस तरह) प्रकाश पर प्रकाश (बढ़ने के सभी साधन एकत्र हो गए हों33)। अल्लाह अपने प्रकाश की ओर जिसका चाहता है पथ-प्रदर्शन करता है, वह लोगों को मिसालों से बात समझाता है, वह हर चीज़ से ख़ूब परिचित है।
32. अर्थात् ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी प्रकटन है उसी के प्रकाश (नूर) के कारण है।
33. इस मिसाल में 'चिराग़' से अल्लाह की सत्ता की और 'ताक़' से विश्व की उपमा दी गई है, और फ़ानूस से मुराद वह परदा है जिसमें ईश्वर ने अपने आपको लोगों की निगाहों से छिपा रखा है। मानो यह परदा वास्तव में अप्रकटता का नहीं, प्रकटन की अतिशयता का परदा है, लोगों की निगाह उसे देखने में इसलिए असमर्थ है कि प्रकाश इतना तीव्र, व्यापक और घेरे हुए है जिसे सीमित नेत्र ज्योतियाँ पकड़ नहीं सकतीं। रही यह बात की “चिराग़ ज़ैतून के एक ऐसे पेड़ के तेल से रौशन किया जाता हो जो न पूर्वी हो न पश्चिमी", तो यह केवल चिराग़ को प्रकाश-पूर्णता और उसके आधिक्य की कल्पना कराने के लिए है। क्योंकि प्राचीन समय में ज़्यादा से ज़्यादा प्रकाश ज़ैतून के तेल के चिराग़ों से प्राप्त किया जाता था, और उनमें सबसे ज़्यादा प्रकाशवाला चिराग़ वह होता था जो ऊँची और खुली जगह के पेड़ से निकाले हुए तेल का हो और यह जो कहा कि “उसका तेल आप से आप भड़का पड़ता हो चाहे आग उसको न लगे", इससे भी चिराग़ के प्रकाश के ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ होने की कल्पना कराना उद्देश्य है।
فِي بُيُوتٍ أَذِنَ ٱللَّهُ أَن تُرۡفَعَ وَيُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ يُسَبِّحُ لَهُۥ فِيهَا بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ ۝ 35
(36) (उसके प्रकाश की ओर पथ-प्रदर्श पानेवाले) उन घरों में पाए जाते हैं जिन्हें ऊँचा करने का, और जिनमें अपने नाम की याद की अल्लाह ने इजाज़त दी है। उनमें ऐसे लोग सुबह और शाम उसकी तसबीह करते हैं
رِجَالٞ لَّا تُلۡهِيهِمۡ تِجَٰرَةٞ وَلَا بَيۡعٌ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَإِقَامِ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءِ ٱلزَّكَوٰةِ يَخَافُونَ يَوۡمٗا تَتَقَلَّبُ فِيهِ ٱلۡقُلُوبُ وَٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 36
(37) जिन्हें व्यापार और क्रय-विक्रय अल्लाह की याद से और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात (दान) देने से ग़ाफ़िल नहीं करता। वे उस दिन से डरते रहते हैं जिसमें दिल उलटने और आँखें पथरा जाने की नौबत आ जाएगी,
لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَيَزِيدَهُم مِّن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 37
(38) (और वे यह सब कुछ इसलिए करते हैं) ताकि अल्लाह उनके अच्छे से अच्छे कर्मों का बदला उनको दे और उन्हें और ज़्यादा अपने अनुग्रह से प्रदान करे, अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब देता है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَعۡمَٰلُهُمۡ كَسَرَابِۭ بِقِيعَةٖ يَحۡسَبُهُ ٱلظَّمۡـَٔانُ مَآءً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَهُۥ لَمۡ يَجِدۡهُ شَيۡـٔٗا وَوَجَدَ ٱللَّهَ عِندَهُۥ فَوَفَّىٰهُ حِسَابَهُۥۗ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 38
(39) (इसके विपरीत) जिन्होंने इनकार किया उनके कर्मों की मिसाल ऐसी है जैसे चटियल मैदान में मरीचिका, कि प्यासा उसको पानी समझे हुए था, मगर जब वहाँ पहुँचा तो कुछ न पाया, बल्कि वहाँ उसने अल्लाह को मौजूद पाया, जिसने उसका पूरा-पूरा हिसाब चुका दिया, और अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती।
أَوۡ كَظُلُمَٰتٖ فِي بَحۡرٖ لُّجِّيّٖ يَغۡشَىٰهُ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ سَحَابٞۚ ظُلُمَٰتُۢ بَعۡضُهَا فَوۡقَ بَعۡضٍ إِذَآ أَخۡرَجَ يَدَهُۥ لَمۡ يَكَدۡ يَرَىٰهَاۗ وَمَن لَّمۡ يَجۡعَلِ ٱللَّهُ لَهُۥ نُورٗا فَمَا لَهُۥ مِن نُّورٍ ۝ 39
(40) या फिर उसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक गहरे समुद्र में अंधकार, कि ऊपर एक मौज छाई हुई है, उसपर एक और मौज, और उसके ऊपर बादल, अन्धकार पर अन्धकार छाया हुआ है, आदमी अपना हाथ निकाले तो उसे भी न देखने पाए। जिसे अल्लाह प्रकाश (नूर) न प्रदान करे उसके लिए फिर कोई प्रकाश नहीं।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلطَّيۡرُ صَٰٓفَّٰتٖۖ كُلّٞ قَدۡ عَلِمَ صَلَاتَهُۥ وَتَسۡبِيحَهُۥۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 40
(41) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह की तसबीह कर रहे हैं वे सब जो आसमानों और जमीन में हैं और वे पक्षी जो पंख फैलाए उड़ रहे हैं? हर एक अपनी नमाज़ और तसबीह का तरीक़ा जानता है, और ये सब जो कुछ करते हैं अल्लाह उसे जानता होता है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 41
(42) आसमानों और ज़मीन का राज्य अल्लाह ही के लिए है और उसी की ओर सबको पलटना है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُزۡجِي سَحَابٗا ثُمَّ يُؤَلِّفُ بَيۡنَهُۥ ثُمَّ يَجۡعَلُهُۥ رُكَامٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦ وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن جِبَالٖ فِيهَا مِنۢ بَرَدٖ فَيُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ وَيَصۡرِفُهُۥ عَن مَّن يَشَآءُۖ يَكَادُ سَنَا بَرۡقِهِۦ يَذۡهَبُ بِٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 42
(43) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह बादल को धीरे-धीरे चलाता है, फिर उसके टुकड़ों को परस्पर जोड़ता है, फिर उसे समेटकर एक घना बादल बना देता है, फिर तुम देखते हो कि उसके ख़ोल में से वर्षा की बूँदें टपकती चली आती हैं। और वह आसमान से, उन पहाड़ों की बदौलत जो उसमें ऊँचे उठे हुए हैं,34ओले बरसाता है, फिर जिसे चाहता है उनको हानि पहुँचाता है और जिसे चाहता है उनसे बचा लेता है। उसकी बिजली की चमक निगाहों को चका-चौंध किए देती है।
34. इससे मुराद ठंड से जमे हुए बादल भी हो सकते हैं जिन्हें लक्षण के रूप में आसमान के पहाड़ कहा गया हो, और ज़मीन के पहाड़ भी हो सकते हैं जो आसमान में ऊँचाई तक उठे हुए हैं, जिनकी चोटियों पर जमी हुई बर्फ़ के प्रभाव से बहुधा ऐसा होता है कि हवा इतनी ठण्डी हो जाती है कि बादल जमने लगते हैं और ओलों के रूप में वर्षा होने लगती है।
يُقَلِّبُ ٱللَّهُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 43
(44) रात और दिन का उलट-फेर वही कर रहा है। इसमें एक शिक्षा है आँखोंवालों के लिए।
وَٱللَّهُ خَلَقَ كُلَّ دَآبَّةٖ مِّن مَّآءٖۖ فَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ بَطۡنِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ رِجۡلَيۡنِ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰٓ أَرۡبَعٖۚ يَخۡلُقُ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 44
(45) और अल्लाह ने हर जीवधारी को एक तरह के पानी से पैदा किया। कोई पेट के बल चल रहा है तो कोई दो टाँगों पर और कोई चार टाँगों पर। जो कुछ वह चाहता है पैदा करता है। उसे हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
لَّقَدۡ أَنزَلۡنَآ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖۚ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 45
(46) हमने स्पष्ट रूप से सत्य को बतानेवाली आयतें उतार दी हैं, आगे सीधे मार्ग की ओर पथ-प्रदर्शन अल्लाह ही जिसे चाहता है प्रदान करता है।
وَيَقُولُونَ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلرَّسُولِ وَأَطَعۡنَا ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 46
(47) ये लोग कहते हैं कि हम ईमान लाए अल्लाह और रसूल पर और हमने आज्ञापालन स्वीकार किया, मगर इसके बाद इनमें से एक गिरोह (आज्ञापालन से) मुँह मोड़ जाता है। ऐसे लोग हरगिज़ ईमानवाले नहीं हैं।
وَإِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 47
(48) जब उनको बुलाया जाता है अल्लाह और रसूल की ओर, ताकि रसूल उनके आपस के मुक़द्दमे का फ़ैसला करे तो उनमें से एक फ़रीक़ कतरा जाता है।
وَإِن يَكُن لَّهُمُ ٱلۡحَقُّ يَأۡتُوٓاْ إِلَيۡهِ مُذۡعِنِينَ ۝ 48
(49) अलबत्ता अगर हक़ उनके पक्ष में हो तो रसूल के पास बड़े आज्ञाकारी बनकर आ जाते हैं।
أَفِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَمِ ٱرۡتَابُوٓاْ أَمۡ يَخَافُونَ أَن يَحِيفَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَرَسُولُهُۥۚ بَلۡ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 49
(50) क्या इनके दिलों को (कपट का) रोग लगा हुआ हैं? या ये शक में पड़े हुए हैं? या इनको यह शक है कि अल्लाह और उसका रसूल इनपर ज़ुल्म करेगा? वास्तविकता यह है कि ज़ालिम तो ये लोग ख़ुद है।
إِنَّمَا كَانَ قَوۡلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ أَن يَقُولُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 50
(51) ईमान लानेवालों का काम तो यह है कि जब वे अल्लाह और रसूल की ओर बुलाए जाएँ ताकि रसूल उनके मुक़द्दमे का फ़ैसला करे तो वे कहें कि हमने सुना और आज्ञा का पालन किया।
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَخۡشَ ٱللَّهَ وَيَتَّقۡهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 51
(52) ऐसे ही लोग सफलता प्राप्त करनेवाले हैं, और सफल वही हैं जो अल्लाह और रसूल की आज्ञा का पालन करें और अल्लाह से डरें और उसकी अवज्ञा से बचें।
۞وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِنۡ أَمَرۡتَهُمۡ لَيَخۡرُجُنَّۖ قُل لَّا تُقۡسِمُواْۖ طَاعَةٞ مَّعۡرُوفَةٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 52
(53) ये (मुनाफ़िक़) अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहते हैं कि “आप हुक्म दे तो हम घरों से निकल खड़े हों।” उनसे कहो, “क़समें न खाओ, तुम्हारे आज्ञापालन का हाल मालूम है। तुम्हारी करतूतों से अल्लाह बेख़बर नहीं है"।
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡهِ مَا حُمِّلَ وَعَلَيۡكُم مَّا حُمِّلۡتُمۡۖ وَإِن تُطِيعُوهُ تَهۡتَدُواْۚ وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 53
(54) कहो, 'अल्लाह के आज्ञाकारी बनो और रसूल के आदेशाधीन बनकर रहो, लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो ख़ूब समझ लो कि रसूल पर जिस कर्त्तव्य का भार रखा गया है उसका ज़िम्मेदार वह है और तुमपर जिस कर्त्तव्य का बोझ डाला गया है उसके ज़िम्मेदार तुम। उसकी आज्ञा का पालन करोगे तो ख़ुद ही मार्ग पाओगे वरना रसूल की ज़िम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि स्पष्ट रूप से आदेश पहुँचा दे।"
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ كَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَهُمُ ٱلَّذِي ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّهُم مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنٗاۚ يَعۡبُدُونَنِي لَا يُشۡرِكُونَ بِي شَيۡـٔٗاۚ وَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 54
(55) अल्लाह ने वादा किया है तुममें से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएँ और अच्छे कर्म करें कि वह उनको उसी तरह ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाएगा जिस तरह उनसे पहले गुज़रे हुए लोगों को बना चुका है, उनके लिए उनके उस धर्म को मज़बूत बुनियादों पर स्थापित कर देगा जिसे अल्लाह ने उनके हक़ में पसन्द किया है, और उनकी (वर्तमान) भय की दशा को निश्चिन्तता से बदल देगा, बस वे मेरी बन्दगी करें और मेरे साथ किसी को साझी न करें।35 और जो इसके बाद कुफ़्र करे36 तो ऐसे ही लोग अवज्ञाकारी हैं।
35. कुछ लोग इसका यह अर्थ समझ बैठे हैं कि जिसको भी दुनिया में हुकूमत हासिल है उसे ख़िलाफ़त हासिल है। हालाँकि आयत में यह कहा गया है कि जो ईमानवाले होंगे अल्लाह उनको ख़िलाफ़त प्रदान करेगा।
36. इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि ख़िलाफ़त पाकर कृतघ्न हो जाए, और यह भी हो सकता है कि मुनाफ़क़त (कपटाचार) की नीति पर उतर आए कि देखने में तो ईमानवाला हो और वास्तव में ईमान से वंचित।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 55
(56) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो, और रसूल की आज्ञा का पालन करो, उम्मीद है कि तुमपर दया की जाएगी।
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 56
(57) जो लोग इनकार कर रहे हैं उनके बारे मे इस भ्रम में न रहो कि वे ज़मीन में अल्लाह को विवश कर देंगे। उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِيَسۡتَـٔۡذِنكُمُ ٱلَّذِينَ مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَبۡلُغُواْ ٱلۡحُلُمَ مِنكُمۡ ثَلَٰثَ مَرَّٰتٖۚ مِّن قَبۡلِ صَلَوٰةِ ٱلۡفَجۡرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ ٱلظَّهِيرَةِ وَمِنۢ بَعۡدِ صَلَوٰةِ ٱلۡعِشَآءِۚ ثَلَٰثُ عَوۡرَٰتٖ لَّكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ وَلَا عَلَيۡهِمۡ جُنَاحُۢ بَعۡدَهُنَّۚ طَوَّٰفُونَ عَلَيۡكُم بَعۡضُكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 57
(58) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ज़रूरी है कि तुम्हारे लौंडी-ग़ुलाम और तुम्हारे वे बच्चे जो अभी बुद्धिमता को नहीं पहुँचे हैं, तीन समयों में इजाज़त लेकर तुम्हारे पास आया करें— सुबह की नमाज़ से पहले, और दोपहर को जबकि तुम कपड़े उतारकर रख देते हो, और इशा (रात्रि) की नमाज़ के बाद। ये तीन समय तुम्हारे लिए परदे के समय हैं। इनके बाद वे बिना इजाज़त के आएँ तो न तुमपर कोई गुनाह है न उनपर, तुम्हें एक-दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपने कथनों का स्पष्टीकरण करता है, और वह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
وَإِذَا بَلَغَ ٱلۡأَطۡفَٰلُ مِنكُمُ ٱلۡحُلُمَ فَلۡيَسۡتَـٔۡذِنُواْ كَمَا ٱسۡتَـٔۡذَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 58
(59) और जब तुम्हारे बच्चे बुद्धिमत्ता की आयु को पहुँच जाएँ वो चाहिए कि उसी तरह इजाज़त लेकर आया करें जिस तरह उनके बड़े इजाज़त लेते रहे है, इस तरह अल्लाह अपनी आयतें तुम्हारे सामने खोलता है और वह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
وَٱلۡقَوَٰعِدُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا يَرۡجُونَ نِكَاحٗا فَلَيۡسَ عَلَيۡهِنَّ جُنَاحٌ أَن يَضَعۡنَ ثِيَابَهُنَّ غَيۡرَ مُتَبَرِّجَٰتِۭ بِزِينَةٖۖ وَأَن يَسۡتَعۡفِفۡنَ خَيۡرٞ لَّهُنَّۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 59
(60) और जो औरतें जवानी को पार कर चुकी हों, विवाह की चाहत न रखती हो, वे अगर अपनी चादरें उतारकर रख दें तो उनपर कोई गुनाह नहीं, शर्त यह है कि बनाव-श्रृंगार का प्रदर्शन करनेवाली न हों। इसपर भी वे हयादारी ही बरतें तो उनके लिए अच्छा है, और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞ وَلَا عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَن تَأۡكُلُواْ مِنۢ بُيُوتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ ءَابَآئِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أُمَّهَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ إِخۡوَٰنِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخَوَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَعۡمَٰمِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ عَمَّٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخۡوَٰلِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ خَٰلَٰتِكُمۡ أَوۡ مَا مَلَكۡتُم مَّفَاتِحَهُۥٓ أَوۡ صَدِيقِكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَأۡكُلُواْ جَمِيعًا أَوۡ أَشۡتَاتٗاۚ فَإِذَا دَخَلۡتُم بُيُوتٗا فَسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ تَحِيَّةٗ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُبَٰرَكَةٗ طَيِّبَةٗۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 60
(61) कोई हरज की बात नहीं अगर कोई अन्धा, या लंगड़ा, या बीमार (किसी के घर से खा ले) और न तुम्हारे लिए इसमें कोई हरज है कि अपने घरों से खाओ या अपने बाप-दादा के घरों से, या अपनी माँ, नानी के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपनी बहनों के घरों से, या अपने चचाओं के घरों से या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामाओं के घरों से, या अपनी ख़ालाओं के घरों से, या उनके घरों से जिनकी कुंजियाँ तुम्हें सौंपी गई हों, या अपने दोस्तों के घरों से। इसमें भी कोई हरज नहीं कि तुम लोग मिलकर खाओ या अलग-अलग। अलबत्ता जब घरों में प्रवेश किया करो तो अपने लोगों को सलाम किया करो, अच्छी दुआ अल्लाह की ओर से नियत की हुई बड़ी बरकतवाली और पाक इस तरह अल्लाह तुम्हारे सामने आयतें बयान करता है। आशा है कि तुम समझ-बूझ से काम लोगे।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَإِذَا كَانُواْ مَعَهُۥ عَلَىٰٓ أَمۡرٖ جَامِعٖ لَّمۡ يَذۡهَبُواْ حَتَّىٰ يَسۡتَـٔۡذِنُوهُۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ فَإِذَا ٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِبَعۡضِ شَأۡنِهِمۡ فَأۡذَن لِّمَن شِئۡتَ مِنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمُ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 61
(62) ईमानवाले तो वास्तव में वही हैं जो अल्लाह और उसके रसूल को दिल से मानें और जब किसी सामूहिक काम के अवसर पर रसूल के साथ हों तो उससे इजाज़त लिए बिना न जाएँ। ऐ नबी, जो लोग तुमसे इजाज़त माँगते हैं वही अल्लाह और रसूल के माननेवाले हैं, अतः जब वे अपने किसी काम से इजाज़त माँगें तो जिसे तुम चाहो इजाज़त दे दिया करो और ऐसे लोगों के लिए अल्लाह से माफ़ी की दुआ किया करो, अल्लाह यक़ीनन क्षमाशील और दयावान् है।
لَّا تَجۡعَلُواْ دُعَآءَ ٱلرَّسُولِ بَيۡنَكُمۡ كَدُعَآءِ بَعۡضِكُم بَعۡضٗاۚ قَدۡ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ يَتَسَلَّلُونَ مِنكُمۡ لِوَاذٗاۚ فَلۡيَحۡذَرِ ٱلَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنۡ أَمۡرِهِۦٓ أَن تُصِيبَهُمۡ فِتۡنَةٌ أَوۡ يُصِيبَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 62
(63) मुसलमानो अपने बीच रसूल के बुलाने को आपस में एक-दूसरे जैसा बुलाना न समझ बैठो। अल्लाह उन लोगों को ख़ूब जानता है जो तुममें ऐसे हैं कि एक-दूसरे की आड़ लेते हुए चुपके से सटक जाते हैं। रसूल के आदेश का उल्लंघन करनेवालों को डरना चाहिए कि वे किसी आज़माइश में न पड़ जाएँ या उनपर दुखद यातना न आ जाए।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قَدۡ يَعۡلَمُ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ وَيَوۡمَ يُرۡجَعُونَ إِلَيۡهِ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 63
(64) सावधान रहो, आसमान और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है। तुम जिस नीति पर भी हो अल्लाह उसको जानता है। जिस दिन लोग उसकी ओर पलटाए जाएँगे वह उन्हें बता देगा कि वे क्या कुछ करके आए हैं। वह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।