28. अल-क़सस
(मक्का में उतरी-आयतें 88)
परिचय
नाम
आयत 25 के इस वाक्य से लिया गया है, "व क़स-स अलैहिल क़-स-स" (और अपना सारा वृत्तांत, अल-क़सस, सुनाया) अर्थात् वह सूरा जिसमें 'अल-क़सस' का शब्द आया है।
उतरने का समय
सूरा-27 नम्ल के परिचय में इब्ने-अब्बास और जाबिर-बिन-ज़ैद (रज़ि०) का यह कथन हम नक़्ल कर चुके हैं कि सूरा-26 शुअरा, सूरा-27 नम्ल और सूरा-28 क़सस क्रमश: उतरी हैं। भाषा, वर्णन-शैली और विषय-वस्तुओं से भी यही महसूस होता है कि इन तीनों सूरतों के उतरने का समय क़रीब-क़रीब एक ही हैं। और इस लिहाज़ से भी इन तीनों में क़रीबी ताल्लुक़ है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के किस्से के अलग-अलग हिस्से जो इनमें बयान हुए हैं, वे आपस में मिलकर एक पूरा क़िस्सा बन जाते हैं।
विषय और वार्ताएँ
इसका विषय उन सन्देहों और आपत्तियों को दूर करना है जो नबी (सल्ल०) की रिसालत पर की जा रही थीं और बहानों को रद्द करना है जो आपपर ईमान न लाने के लिए पेश किए जा रहे थे। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले हज़रत मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा बयान किया गया है जो उतरने के समय की परिस्थितियों से मिलकर अपने आप कुछ सच्चाइयाँ सुननेवालों के मन में बिठा देता है। एक यह कि अल्लाह जो कुछ करना चाहता है, उसके लिए वह ग़ैर-महसूस तरीक़े से साधन जुटा देता है। जिस बच्चे के हाथों अन्तत: फ़िरऔन का तख़्ता पलटना था, उसे अल्लाह ने स्वयं फ़िरऔन ही के घर में उसके अपने हाथों परवरिश करा दिया। दूसरे यह कि नुबूवत किसी आदमी को किसी बड़े जश्न और ज़मीन-आसमान से किसी भारी एलान के साथ नहीं दी जाती। तुमको आश्चर्य है कि मुहम्मद (सल्ल०) को चुपके से यह नुबूवत कहाँ से मिल गई और बैठे-बिठाए ये नबी कैसे बन गए। मगर जिन मूसा (अलैहि०) का तुम स्वयं हवाला देते हो कि “क्यों न दिया गया जो मूसा को दिया गया था" (आयत 48), उन्हें भी इसी तरह राह चलते नुबूवत मिल गई थी। तीसरे यह कि जिस बन्दे से अल्लाह कोई काम लेना चाहता है, कोई ताक़त प्रत्यक्ष में उसके पास नहीं होती, मगर बड़े-बड़े लाव-लश्कर और संसाधनोंवाले अन्तत: उसके मुक़ाबले में धरे के धरे रह जाते हैं। जो तुलनात्मक अन्तर तुम अपने और मुहम्मद के बीच पा रहे हो, उससे बहुत ज्यादा अन्तर मूसा और फ़िरऔन की शक्ति के बीच था, मगर देख लो कि आखिर कौन जीता और कौन हारा। चौथे यह कि तुम लोग बार-बार मूसा का हवाला देते हो कि "मुहम्मद को वह कुछ क्यों न दिया गया जो मूसा को दिया गया था" अर्थात् (चमत्कारी) लाठी और चमकता हाथ और दूसरे खुले-खुले मोजिज़े (चमत्कार)। मगर तुम्हें कुछ मालूम भी है कि जिन लोगों को वे मोजिज़े दिखाए गए थे वे उन्हें देखकर भी ईमान न लाए, क्योंकि वे सत्य के विरुद्ध हठधर्मी और वैमनस्य में पड़े हुए थे। इसी रोग में आज तुम पड़े हुए हो। क्या तुम इसी तरह के मोजिज़े देखकर ईमान ले आओगे? फिर तुम्हें कुछ यह भी ख़बर है कि जिन लोगों ने वे मोजिज़े देखकर सत्य का इंकार किया था उनका अंजाम क्या हुआ? अन्तत: अल्लाह ने उन्हें तबाह करके छोड़ा। अब क्या तुम भी हठधर्मी के साथ मोजिज़ा माँगकर अपनी शामत बुलाना चाहते हो? ये वे बातें हैं जो किसी स्पष्टीकरण के रूप में बिना, आपसे आप हर उस आदमी के मन में उतर जाती थीं जो मक्का के अधर्मपूर्ण माहौल में इस क़िस्से को सुनता था, क्योंकि उस समय मुहम्मद (सल्ल०) और मक्का के विधर्मियों के बीच वैसा ही एक संघर्ष चल रहा था जैसा इससे पहले फ़िरऔन और हज़रत मूसा (अलैहि०) के दर्मियान बरपा हो चुका था। इसके बाद आयत-43 से मूल विषय पर प्रत्यक्ष रूप से वार्ता शुरू होती है। पहले इस बात को मुहम्मद (सल्ल०) को नुबूवत का एक सुबूत क़रार दिया जाता है कि आप उम्मी (अनपढ़) होने के बावजूद दो हज़ार वर्ष पहले गुज़री हुई एक ऐतिहासिक घटना को इस विस्तार के साथ हू-ब-हू सुना रहे हैं। फिर आप के नबी बनाए जाने को उन लोगों के हक़ में अल्लाह की एक रहमत (अनुकम्पा) क़रार दिया जाता है कि वे भुलावे में पड़े हुए थे और अल्लाह ने उनके मार्गदर्शन के लिए यह प्रबन्ध किया। फिर उनकी इस आपत्ति का उत्तर दिया जाता है, “यह नबी वह मोजिज़े क्यों न लाया जो इससे पहले मूसा लाये थे?" इनसे कहा जाता है कि मूसा ही को तुमने कब माना है कि अब इस नबी से मोजिज़े की माँग करते हो। आख़िर में मक्का के विधर्मियों की उस मूल आपत्ति को लिया जाता है जो नबी (सल्ल०) की बात न मानने के लिए वे पेश करते थे। उनका कहना यह था कि अगर हम अरबवालों के शिर्क के धर्म को छोड़कर तौहीद (एकेश्वरवाद) के इस नये दीन को अपना लें तो यकायक इस देश से हमारी धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक चौधराहट समाप्त हो जाएगी। यह चूंकि क़ुरैश के सरदारों के सत्य-विरोध का मूल प्रेरक था इसलिए अल्लाह ने इसपर सूरा के अन्त तक सविस्तार वार्ता की है।
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وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ أُمِّ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَرۡضِعِيهِۖ فَإِذَا خِفۡتِ عَلَيۡهِ فَأَلۡقِيهِ فِي ٱلۡيَمِّ وَلَا تَخَافِي وَلَا تَحۡزَنِيٓۖ إِنَّا رَآدُّوهُ إِلَيۡكِ وَجَاعِلُوهُ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ 6
(7) हमने मूसा की माँ को इशारा किया1 कि “इसको दूध पिला, फिर जब तुझे उसकी जान का ख़तरा हो तो उसे दरिया में डाल दे और कुछ डर और चिन्ता न कर हम उसे तेरे ही पास ले आएँगे और उसे पैग़म्बरों में शामिल करेंगे।"
1. बीच में यह नहीं बताया कि इन्हीं परिस्थितियों में एक इसराईली घर में वह बच्चा पैदा हो गया जिसको दुनिया ने मूसा (अलैहिस्सलाम) के नाम से जाना।
وَقَالَتِ ٱمۡرَأَتُ فِرۡعَوۡنَ قُرَّتُ عَيۡنٖ لِّي وَلَكَۖ لَا تَقۡتُلُوهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ 8
(9) फ़िरऔन की बीवी ने (उससे) कहा, “यह मेरे और तेरे लिए आँखों की ठण्डक है, इसे क़त्ल न करो, आश्चर्य नहीं कि यह हमारे लिए लाभदायक सिद्ध हो या हम इसे बेटा ही बना ले।” और वे (परिणाम से) बेख़बर थे।
وَدَخَلَ ٱلۡمَدِينَةَ عَلَىٰ حِينِ غَفۡلَةٖ مِّنۡ أَهۡلِهَا فَوَجَدَ فِيهَا رَجُلَيۡنِ يَقۡتَتِلَانِ هَٰذَا مِن شِيعَتِهِۦ وَهَٰذَا مِنۡ عَدُوِّهِۦۖ فَٱسۡتَغَٰثَهُ ٱلَّذِي مِن شِيعَتِهِۦ عَلَى ٱلَّذِي مِنۡ عَدُوِّهِۦ فَوَكَزَهُۥ مُوسَىٰ فَقَضَىٰ عَلَيۡهِۖ قَالَ هَٰذَا مِنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِۖ إِنَّهُۥ عَدُوّٞ مُّضِلّٞ مُّبِينٞ 14
(15) (एक दिन) वह शहर में ऐसे समय दाख़िल हुआ जबकि शहरवाले ग़फ़लत में थे। वहाँ उसने देखा कि दो आदमी लड़ रहे हैं। एक उसकी अपनी कौम का था और दूसरा उसकी दुश्मन क़ौम से सम्बन्ध रखता था। उसकी क़ौम के आदमी ने दुश्मन क़ौम के व्यक्ति के विरुद्ध उसे सहायता के लिए पुकारा। मूसा ने उसको एक घूँसा मारा और उसका काम तमाम कर दिया। (यह हरकत हो जाते ही) 'मूसा ने कहा, “यह शैतान की कार्यवाई है, वह बड़ा दुश्मन और खुला पथभ्रष्ट करनेवाला है।”
قَالَ رَبِّ إِنِّي ظَلَمۡتُ نَفۡسِي فَٱغۡفِرۡ لِي فَغَفَرَ لَهُۥٓۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ 15
(16) फिर वह कहने लगा, “ऐ मेरे रब, मैंने अपने आपपर ज़ुल्म कर डाला, मुझे माफ़ कर दे।” अतएव अल्लाह ने उसे माफ़ कर दिया2, वह माफ़ करनेवाला, अत्यन्त दयावान् है।
2. यहाँ अरबी में जो शब्द इस्तेमाल हुआ है उसका अर्थ माफ़ करना भी है, और छिपाना भी हज़रत मूसा (अलैहि०) की दुआ का अर्थ यह था कि मेरे इस पाप को (जिसे तू जानता है कि मैंने जान-बूझकर नहीं किया है) माफ़ भी कर दे और इसका परदा भी ढाँक दे ताकि दुश्मनों को इसका पता न चले।
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ فَلَنۡ أَكُونَ ظَهِيرٗا لِّلۡمُجۡرِمِينَ 16
(17) मूसा ने प्रतिज्ञा की कि “ऐ मेरे रब, यह उपकार जो तूने मुझपर किया है3 इसके बाद अब मैं कभी अपराधियों का सहायक न बनूँगा।"
3. अर्थात् मेरा यह कर्म छिपा रह गया, और दुश्मन क़ौम के किसी व्यक्ति ने मुझको नहीं देखा, और मुझे बच निकलने का अवसर मिल गया।
فَلَمَّآ أَنۡ أَرَادَ أَن يَبۡطِشَ بِٱلَّذِي هُوَ عَدُوّٞ لَّهُمَا قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ أَتُرِيدُ أَن تَقۡتُلَنِي كَمَا قَتَلۡتَ نَفۡسَۢا بِٱلۡأَمۡسِۖ إِن تُرِيدُ إِلَّآ أَن تَكُونَ جَبَّارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا تُرِيدُ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡمُصۡلِحِينَ 18
(19) फिर जब मूसा ने इरादा किया कि दुश्मन क़ौम के आदमी पर हमला करे तो वह पुकार उठा,4 “ऐ मूसा, क्या आज तू मुझे उसी तरह क़त्ल करने लगा है जिस तरह कल एक व्यक्ति को क़त्ल कर चुका है? तू इस देश में बहुत ही निर्दयी अत्याचारी बनकर रहना चाहता है, सुधार करना नहीं चाहता।”
4. यह पुकारनेवाला वही इसराईली था जिसकी सहायता के लिए हज़रत मूसा (अलैहि०) आगे बढ़े थे। उसको डाँटने के बाद जब आप मिस्री को मारने के लिए चले तो इसराईली ने समझा कि ये मुझे मारने आ रहे हैं, इसलिए उसने चीख़ना शुरू कर दिया और अपनी मूर्खता से क़त्ल का भेद खोल दिया।
وَجَآءَ رَجُلٞ مِّنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ ٱلۡمَلَأَ يَأۡتَمِرُونَ بِكَ لِيَقۡتُلُوكَ فَٱخۡرُجۡ إِنِّي لَكَ مِنَ ٱلنَّٰصِحِينَ 19
(20) इसके बाद एक आदमी शहर के परले सिरे से दौड़ता हुआ आया और बोला,5 “मूसा, सरदारों में तेरे क़त्ल के लिए मशवरे हो रहे हैं, यहाँ से निकल जा, मैं तेरा हितैषी हूँ।”
5. अर्थात् इस दूसरे झगड़ो में जब क़त्ल का रहस्य प्रकट हो गया और उस मिस्री ने जाकर ख़बर कर दी तब यह घटना घटित हुई।
وَلَمَّا وَرَدَ مَآءَ مَدۡيَنَ وَجَدَ عَلَيۡهِ أُمَّةٗ مِّنَ ٱلنَّاسِ يَسۡقُونَ وَوَجَدَ مِن دُونِهِمُ ٱمۡرَأَتَيۡنِ تَذُودَانِۖ قَالَ مَا خَطۡبُكُمَاۖ قَالَتَا لَا نَسۡقِي حَتَّىٰ يُصۡدِرَ ٱلرِّعَآءُۖ وَأَبُونَا شَيۡخٞ كَبِيرٞ 22
(23) और जब वह मदयन के कुएँ पर पहुँचा तो उसने देखा कि बहुत से लोग अपने जानवरों को पानी पिला रहे हैं और उनसे अलग एक ओर दो औरतें अपने जानवरों को रोक रही हैं। मूसा ने उन औरतों से पूछा, “तुम्हें क्या परेशानी है?” उन्होंने कहा, “हम अपने जानवरों को पानी नहीं पिला सकतीं जब तक ये चरवाहे अपने जानवर न निकाल ले जाएँ, और हमारे बाप एक बहुत बूढ़े आदमी हैं।”
فَجَآءَتۡهُ إِحۡدَىٰهُمَا تَمۡشِي عَلَى ٱسۡتِحۡيَآءٖ قَالَتۡ إِنَّ أَبِي يَدۡعُوكَ لِيَجۡزِيَكَ أَجۡرَ مَا سَقَيۡتَ لَنَاۚ فَلَمَّا جَآءَهُۥ وَقَصَّ عَلَيۡهِ ٱلۡقَصَصَ قَالَ لَا تَخَفۡۖ نَجَوۡتَ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ 24
(25) (कुछ देर न हुई थी कि) उन दोनों औरतों में से एक शर्म व लज्जा के साथ चलती हुई उसके पास आई और कहने लगी, “मेरे बाप आपको बुला रहे हैं ताकि आपने हमारे लिए जानवरों को जो पानी पिलाया है उसका बदला आपको दें।” मूसा जब उसके पास पहुँचा और अपना सारा क़िस्सा उसे सुनाया तो उसने कहा, “कुछ भय न करो, अब तुम ज़ालिम लोगों से बच निकले हो।"
قَالَ إِنِّيٓ أُرِيدُ أَنۡ أُنكِحَكَ إِحۡدَى ٱبۡنَتَيَّ هَٰتَيۡنِ عَلَىٰٓ أَن تَأۡجُرَنِي ثَمَٰنِيَ حِجَجٖۖ فَإِنۡ أَتۡمَمۡتَ عَشۡرٗا فَمِنۡ عِندِكَۖ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أَشُقَّ عَلَيۡكَۚ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ 26
(27) उसके बाप ने (मूसा से) कहा, “मैं चाहता हूँ कि अपनी इन दो बेटियों में से एक की शादी तुम्हारे साथ कर दूँ, शर्त यह है कि तुम आठ साल तक मेरे यहाँ नौकरी करो, और अगर दस साल पूरे कर दो तो यह तुम्हारी इच्छा है। मैं तुमपर सख़्ती नहीं करना चाहता। तुम अगर अल्लाह ने चाहा तो मुझे नेक आदमी पाओगे।”
۞فَلَمَّا قَضَىٰ مُوسَى ٱلۡأَجَلَ وَسَارَ بِأَهۡلِهِۦٓ ءَانَسَ مِن جَانِبِ ٱلطُّورِ نَارٗاۖ قَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِخَبَرٍ أَوۡ جَذۡوَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ لَعَلَّكُمۡ تَصۡطَلُونَ 28
(29) जब मूसा ने अवधि पूरी कर दी और वह अपने बाल-बच्चों को लेकर चला तो तूर की ओर उसको एक आग दिखाई दी। उसने अपने घरवालों से कहा, “ठहरो, मैंने एक आग देखी है, शायद मैं वहाँ से कोई ख़बर ले आऊँ या उस आग से कोई अंगारा ही उठा लाऊँ जिससे तुम ताप सको।”
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ مِن شَٰطِيِٕ ٱلۡوَادِ ٱلۡأَيۡمَنِ فِي ٱلۡبُقۡعَةِ ٱلۡمُبَٰرَكَةِ مِنَ ٱلشَّجَرَةِ أَن يَٰمُوسَىٰٓ إِنِّيٓ أَنَا ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ 29
(30) वहाँ पहुँचा तो घाटी के दाहिने किनारे पर7 शुभ क्षेत्र में एक पेड़ से पुकारा गया कि “ऐ मूसा, मैं ही अल्लाह हूँ, सारे जहानवालों का मालिक।”
7. अर्थात् उस किनारे पर जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के दाहिने हाथ की ओर था।
ٱسۡلُكۡ يَدَكَ فِي جَيۡبِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٖ وَٱضۡمُمۡ إِلَيۡكَ جَنَاحَكَ مِنَ ٱلرَّهۡبِۖ فَذَٰنِكَ بُرۡهَٰنَانِ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ 31
(32) अपना हाथ गरेबान में डाल, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी तकलीफ़ के और भय से बचने के लिए अपनी भुजा भींच ले।8 ये दो खुली निशानियाँ हैं तेरे रब की ओर से फ़िरऔन और उसके दरबारियों के सामने प्रस्तुत करने के लिए, वे बड़े अवज्ञाकारी लोग हैं।”
8. अर्थात् जब कभी कोई ख़तरनाक अवसर ऐसा आए जिससे तुम्हारे दिल में डर पैदा हो तो अपनी भुजा भींच लिया करो, इससे तुम्हारा दिल मज़बूत हो जाएगा और आतंक और भय की कोई दशा तुम्हारे अन्दर बाक़ी न रहेगी।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ مَا عَلِمۡتُ لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرِي فَأَوۡقِدۡ لِي يَٰهَٰمَٰنُ عَلَى ٱلطِّينِ فَٱجۡعَل لِّي صَرۡحٗا لَّعَلِّيٓ أَطَّلِعُ إِلَىٰٓ إِلَٰهِ مُوسَىٰ وَإِنِّي لَأَظُنُّهُۥ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ 37
(38) और फ़िरऔन ने कहा, “ऐ दरबारवालो, मैं तो अपने सिवा तुम्हारे किसी रब को नहीं जानता। हामान, तनिक ईंटें पकवाकर मेरे लिए एक ऊँचा भवन तो बनवा, शायद कि उसपर चढ़कर मैं मूसा के रब को देख सकूँ मैं तो इसे झूठा समझता हूँ।”
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَهۡلَكۡنَا ٱلۡقُرُونَ ٱلۡأُولَىٰ بَصَآئِرَ لِلنَّاسِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ 42
(43) पिछली नस्लों को विनष्ट करने के बाद हमने मूसा को किताब प्रदान की, लोगों के लिए अन्तर्दृष्टियों की सामग्री बनाकर, मार्गदर्शन और दयालुता बनाकर, ताकि शायद लोग शिक्षा ग्रहण करें।
وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ ٱلۡغَرۡبِيِّ إِذۡ قَضَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَى ٱلۡأَمۡرَ وَمَا كُنتَ مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ 43
(44) (ऐ नबी) तुम उस समय पश्चिमी भाग में मौजूद न थे9 जब हमने मूसा को यह शरीअत का आदेश प्रदान किया, और न तुम साक्षियों में सम्मिलित थे,
9. पश्चिमी भाग से मुराद तूरे-सीना (सीनीन) है जो हिजाज़ से पश्चिम की ओर स्थित है।
وَمَا كُنتَ بِجَانِبِ ٱلطُّورِ إِذۡ نَادَيۡنَا وَلَٰكِن رَّحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أَتَىٰهُم مِّن نَّذِيرٖ مِّن قَبۡلِكَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ 45
(46) और तुम तूर के दामन में भी उस समय मौजूद न थे जब हमने (मूसा को पहली बार) पुकारा था, मगर यह तुम्हारे रब की दयालुता है (कि तुमको ये जानकारियाँ दी जा रही हैं), ताकि तुम उन लोगों को सचेत करो जिनके पास तुमसे पहले कोई सचेत करनेवाला नहीं आया, शायद कि वे होश में आएँ।
فَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ مِنۡ عِندِنَا قَالُواْ لَوۡلَآ أُوتِيَ مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ مُوسَىٰٓۚ أَوَلَمۡ يَكۡفُرُواْ بِمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ مِن قَبۡلُۖ قَالُواْ سِحۡرَانِ تَظَٰهَرَا وَقَالُوٓاْ إِنَّا بِكُلّٖ كَٰفِرُونَ 47
(48) मगर जब हमारे यहाँ से सत्य उनके पास आ गया तो वे कहने लगे, “क्यों न दिया गया इसको वही कुछ जो मूसा को दिया गया था?” क्या ये लोग उसका इनकार नहीं कर चुके हैं जो इससे पहले मूसा को दिया गया था?10 इन्होंने कहा, “दोनों जादू11 हैं जो एक-दूसरे की सहायता करते हैं।” और कहा, “हम किसी को नहीं मानते।”
10. अर्थात् मक्का के अधर्मियों ने मूसा ही को कब माना था कि अब ये कहते हैं कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को वे चमत्कार क्यों न दिए गए जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को दिए गए थे।
11. अर्थात् क़ुरआन और तौरात दोनों।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِهِۦ هُم بِهِۦ يُؤۡمِنُونَ 51
(52) जिन लोगों को इससे पहले हमने किताब दी थी वे इस (क़ुरआन) पर ईमान लाते हैं।12
12. इससे मुराद यह नहीं है कि सभी किताबवाले (यहूदी और ईसाई) इसपर ईमान लाते हैं। बल्कि यह इशारा वास्तव में उस घटना की ओर है जो इस सूरा के अवतरण के समय में घटित हुई थी, और इससे मक़सद मक्कावालों को शर्म दिलाना है कि तुम अपने घर आई हुई प्रिय वस्तु को ठुकरा रहे हो हालाँकि दूर-दूर के लोग उसकी ख़बर सुनकर आ रहे हैं और उसके मूल्य को पहचानकर उससे लाभ उठा रहे हैं। वह घटना जिसकी ओर यह इशारा है, यह थी कि हबश से 20 के लगभग ईसाई अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास आए और क़ुरआन आपसे सुनकर ईमान ले आए।
أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡتَوۡنَ أَجۡرَهُم مَّرَّتَيۡنِ بِمَا صَبَرُواْ وَيَدۡرَءُونَ بِٱلۡحَسَنَةِ ٱلسَّيِّئَةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ 53
(54) ये वे लोग हैं जिन्हें उनका बदला दो बार दिया जाएगा13 उस धैर्य और जमाव के कारण जो उन्होंने दिखाया। वे बुराई को भलाई से दूर करते हैं और जो कुछ रोज़ी हमने उन्हें दी है उसमें से ख़र्च करते हैं।
13. अर्थात् एक बदला पिछली किताबों पर ईमान लाने का और दूसरा बदला क़ुरआन पर ईमान लाने का।
وَإِذَا سَمِعُواْ ٱللَّغۡوَ أَعۡرَضُواْ عَنۡهُ وَقَالُواْ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡ لَا نَبۡتَغِي ٱلۡجَٰهِلِينَ 54
(55) और जब उन्होंने व्यर्थ एवं अशिष्ट बात सुनी तो यह कहकर उससे किनारा खींच लिया कि “हमारे कर्म हमारे लिए और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए तुमको सलाम है, हम अज्ञानियों का-सा तरीक़ा अपनाना नहीं चाहते।”14
14. जब ये लोग ईमान ले आए तो अबू जहल ने इनको गालियाँ दीं। इसी बात का उल्लेख यहाँ हो रहा है।
وَقَالُوٓاْ إِن نَّتَّبِعِ ٱلۡهُدَىٰ مَعَكَ نُتَخَطَّفۡ مِنۡ أَرۡضِنَآۚ أَوَلَمۡ نُمَكِّن لَّهُمۡ حَرَمًا ءَامِنٗا يُجۡبَىٰٓ إِلَيۡهِ ثَمَرَٰتُ كُلِّ شَيۡءٖ رِّزۡقٗا مِّن لَّدُنَّا وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ 56
(57) वे कहते हैं, “अगर हम तुम्हारे साथ इस मार्गदर्शन का अनुसरण कर लें तो अपनी ज़मीन से उचक लिए जाएँगे।15 क्या यह सत्य नहीं है कि हमने एक शान्तिपूर्ण 'हरम' को इनके लिए निवास स्थान बना दिया जिसकी ओर हर तरह के फल खिंचे चले आते हैं हमारी ओर से रोज़ी के रूप में? मगर इनमें से ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।16
15. यह वह बात है जो क़ुरैश के अधर्मी इस्लाम स्वीकार न करने के लिए उज़्र के रूप में पेश करते थे। उनका मतलब यह था कि आज तो हम सम्पूर्ण अरब के बहुदेववादियों के धर्मगुरु बने हुए हैं, लेकिन अगर हम ही मुहम्मद (सल्ल०) की बात मान लें तो सारा अरब हमारा दुश्मन हो जाएगा।
16. यह अल्लाह की ओर से उनके उज़्र का पहला जवाब है। इसका अर्थ यह है कि यह 'हरम' (प्रतिष्ठित स्थान) जिसको अमन-शांति और जिसकी केन्द्रीयता के कारण आज तुम इस योग्य हुए हो कि दुनिया भर का व्यापार का माल इस ऊसर घाटी में खिंचा चला आ रहा है, क्या इसको यह अमन और यह केन्द्रीयता का स्थान तुम्हारे किसी उपाय ने दिया है?
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةِۭ بَطِرَتۡ مَعِيشَتَهَاۖ فَتِلۡكَ مَسَٰكِنُهُمۡ لَمۡ تُسۡكَن مِّنۢ بَعۡدِهِمۡ إِلَّا قَلِيلٗاۖ وَكُنَّا نَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثِينَ 57
(58) और कितनी ही ऐसी बस्तियाँ हम तबाह कर चुके हैं जिनके लोग अपने जीवन-व्यापार पर इतरा गए थे। सो देख लो, वे उनके निवास स्थान पड़े हुए हैं जिनमें उनके बाद कम ही कोई बसा है, आख़िरकार हम ही वारिस होकर रहे।17
17. यह उनके उज़्र का दूसरा जवाब है। इसका अर्थ यह है कि जिस माल और दौलत और सम्पन्नता पर तुम इतराए हुए हो, और जिसके खो जाने की आशंका से असत्य पर जमना और सत्य से मुँह मोड़ना चाहते हो, यही चीज़़ कभी आद और समूद और दूसरी क़ौमों को भी प्राप्त थी। फिर क्या यह चीज़ उनको तबाही से बचा सकी?
وَمَا كَانَ رَبُّكَ مُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ حَتَّىٰ يَبۡعَثَ فِيٓ أُمِّهَا رَسُولٗا يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۚ وَمَا كُنَّا مُهۡلِكِي ٱلۡقُرَىٰٓ إِلَّا وَأَهۡلُهَا ظَٰلِمُونَ 58
(59) और तेरा रब बस्तियों को विनष्ट करनेवाला न था जब तक कि उनके केन्द्र में एक रसूल न भेज देता जो उनको हमारी आयतें सुनाता और हम बस्तियों को विनष्ट करनेवाले न थे जबतक कि उनके रहनेवाले ज़ालिम न हो जाते।18
18. यह उनके उज़्र का तीसरा जवाब है। पहले जो क़ौमें तबाह हुईं उनके लोग ज़ालिम हो चुके थे, मगर अल्लाह ने उनको तबाह करने से पहले अपने रसूल भेजकर उन्हें सावधान किया, और जब उनके सचेत करने पर भी वे अपनी टेढ़ी चाल से बाज़ न आए तो उन्हें विनष्ट कर दिया। यह मामला है जिसका सामना अब तुम्हें करना होगा।
قَالَ ٱلَّذِينَ حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ رَبَّنَا هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَغۡوَيۡنَآ أَغۡوَيۡنَٰهُمۡ كَمَا غَوَيۡنَاۖ تَبَرَّأۡنَآ إِلَيۡكَۖ مَا كَانُوٓاْ إِيَّانَا يَعۡبُدُونَ 62
(63) यह बात जिनपर चस्पाँ होगी वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब, बेशक यही लोग हैं जिनको हमने पथभ्रष्ट किया था। इन्हें हमने उसी तरह पथभ्रष्ट किया जैसे हम ख़ुद पथभ्रष्ट हुए।19 हम आपके सामने अपने बरी होने का इज़हार करते हैं। ये हमारी तो बन्दगी नहीं करते थे।"20
19. इससे मुराद जिन्न और इनसान में के वे शैतान हैं जिनको दुनिया में अल्लाह का साझीदार बनाया गया था, जिनकी बात के मुक़ाबले में अल्लाह और उसके रसूलों की बात को रद्द किया गया था, और जिनके भरोसे पर सीधे मार्ग को छोड़कर ज़िन्दगी के ग़लत रास्ते अपनाए गए थे। ऐसे लोगों को चाहे किसी ने 'इलाह' (पूज्य) और 'रब' (प्रभु) कहा हो या न कहा हो, हर हाल में जब उनकी पैरवी और आज्ञापालन उस तरह किया गया जैसा अल्लाह का होना चाहिए तो अवश्य ही उन्हें ईश्वरत्व में सम्मिलित किया गया।
20. अर्थात् ये हमारे नहीं, बल्कि अपने ही मन के दास बने हुए थे।
۞إِنَّ قَٰرُونَ كَانَ مِن قَوۡمِ مُوسَىٰ فَبَغَىٰ عَلَيۡهِمۡۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ مِنَ ٱلۡكُنُوزِ مَآ إِنَّ مَفَاتِحَهُۥ لَتَنُوٓأُ بِٱلۡعُصۡبَةِ أُوْلِي ٱلۡقُوَّةِ إِذۡ قَالَ لَهُۥ قَوۡمُهُۥ لَا تَفۡرَحۡۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡفَرِحِينَ 75
(76) यह एक तथ्य है कि क़ारून मूसा की क़ौम का एक व्यक्ति था, फिर वह अपनी कौम के विरुद्ध सरकश हो गया। और हमने उसको इतने ख़ज़ाने दे रखे थे कि उनकी कुंजियाँ बलवान आदमियों का एक दल मुश्किल से उठा सकता था। एक बार जब उसकी क़ौम के लोगों ने उससे कहा, “फूल न जा, अल्लाह फूलनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَٱبۡتَغِ فِيمَآ ءَاتَىٰكَ ٱللَّهُ ٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَۖ وَلَا تَنسَ نَصِيبَكَ مِنَ ٱلدُّنۡيَاۖ وَأَحۡسِن كَمَآ أَحۡسَنَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ وَلَا تَبۡغِ ٱلۡفَسَادَ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ 76
(77) जो माल अल्लाह ने तुझे दिया है उससे आख़िरत का घर बनाने की चिन्ता कर और दुनिया में से भी अपना हिस्सा न भूल। उपकार कर जिस तरह अल्लाह ने तेरे साथ उपकार किया है, और ज़मीन में बिगाड़ पैदा करने की कोशिश न कर, अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवालों को पसन्द नहीं करता।”
قَالَ إِنَّمَآ أُوتِيتُهُۥ عَلَىٰ عِلۡمٍ عِندِيٓۚ أَوَلَمۡ يَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ قَدۡ أَهۡلَكَ مِن قَبۡلِهِۦ مِنَ ٱلۡقُرُونِ مَنۡ هُوَ أَشَدُّ مِنۡهُ قُوَّةٗ وَأَكۡثَرُ جَمۡعٗاۚ وَلَا يُسۡـَٔلُ عَن ذُنُوبِهِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ 77
(78) तो उसने कहा, “वह सब कुछ तो मुझे उस ज्ञान के कारण दिया गया है जो मुझको प्राप्त है। “क्या उसको यह ज्ञान न था कि अल्लाह उससे पहले बहुत से ऐसे लोगों को विनष्ट कर चुका है जो उससे ज़्यादा शक्ति और जत्था रखते थे? अपराधियों से तो उनके गुनाह नहीं पूछे जाते।21
21. अर्थात् अपराधी तो यही दावा किया करते हैं कि हम बड़े अच्छे लोग हैं। वे कब माना करते हैं कि उनके अन्दर कोई बुराई है। मगर उनकी सज़ा उनको अपनी स्वीकृति पर निर्भर नहीं करती। उन्हें जब पकड़ा जाता है तो उनसे पूछकर नहीं पकड़ा जाता कि बताओ तुम्हारे गुनाह क्या हैं?
فَخَرَجَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ فِي زِينَتِهِۦۖ قَالَ ٱلَّذِينَ يُرِيدُونَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا يَٰلَيۡتَ لَنَا مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ قَٰرُونُ إِنَّهُۥ لَذُو حَظٍّ عَظِيمٖ 78
(79) एक दिन वह अपनी क़ौम के सामने अपने पूरे ठाठ में निकला। जो लोग दुनिया की ज़िन्दगी के इच्छुक थे, वे उसे देखकर कहने लगे, “क्या अच्छी बात होती कि हमें भी वही कुछ मिलता जो क़ारून को दिया गया है, यह तो बड़ा भाग्यवान है।”
وَأَصۡبَحَ ٱلَّذِينَ تَمَنَّوۡاْ مَكَانَهُۥ بِٱلۡأَمۡسِ يَقُولُونَ وَيۡكَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦ وَيَقۡدِرُۖ لَوۡلَآ أَن مَّنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا لَخَسَفَ بِنَاۖ وَيۡكَأَنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلۡكَٰفِرُونَ 81
(82) अब वही लोग जो कल उसके स्थान की कामना कर रहे थे कहने लगे, “अफ़सोस, हम भूल गए थे कि अल्लाह अपने बन्दों में से जिसकी रोज़ी चाहता है, कुशादा करता है और जिसे चाहता है नपी-तुली देता है। अगर अल्लाह ने हमपर उपकार न किया होता तो हमें भी ज़मीन में धँसा देता। अफ़सोस, हमको याद न रहा कि इनकार करनेवाले सफल नहीं हुआ करते।"
إِنَّ ٱلَّذِي فَرَضَ عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ لَرَآدُّكَ إِلَىٰ مَعَادٖۚ قُل رَّبِّيٓ أَعۡلَمُ مَن جَآءَ بِٱلۡهُدَىٰ وَمَنۡ هُوَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ 84
(85) ऐ नबी, विश्वास रखो कि जिसने यह क़ुरआन तुमपर अनिवार्य किया है23 वह तुम्हें एक उत्तम परिणाम को पहुँचानेवाला है। इन लोगों से कह दो कि “मेरा रब ख़ूब जानता है कि मार्गदर्शन लेकर कौन आया है और स्पष्ट पथभ्रष्टता में कौन ग्रस्त है।”
23. अर्थात् इस क़ुरआन को लोगों तक पहुँचाने और इसकी शिक्षा देने और इसके दिखाए हुए मार्ग के अनुसार दुनिया का सुधार करने की ज़िम्मेदारी तुमपर डाली है।