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نَزَّلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَأَنزَلَ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ

  1. आले इमरान

मदीना में उतरी आयते 200

परिचय

नाम

इस सूरा में एक स्थान पर 'आले इमरान' (इमरान के घरवालों) का उल्लेख हुआ है। उसी को पहचान के रूप में इसका यह नाम रख दिया गया है।

उतरने का समय और विषय

इसमें चार व्याख्यान हैं:

पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 32 तक है और वह शायद बद्र की लड़ाई के बाद क़रीबी समय ही में उतरा है। दूसरा व्याख्यान आयत 33, “अल्लाह ने आदम और और इबराहीम की संतान और इमरान की संतान को तमाम दुनियावालों पर प्राथमिकता देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था" से शुरू होता है और आयत 63 पर ख़त्म होता है। यह सन् 09 हिजरी में नजरान प्रतिनिधिमंडल के आगमन के अवसर पर उतरा। तीसरा व्याख्यान आयत 64 से आरंभ होता है और आयत 120 तक चलता है और इसका समय पहले व्याख्यान के समय से मिला हुआ लगता है। चौथा व्याख्यान आयत 121 से आरंभ होकर सूरा के अंत तक चलता है। यह उहुद की लड़ाई के बाद उतरा है।

सम्बोधन और वार्ताएँ

इन विभिन्न व्याख्यानों को मिलाकर जो चीज़ क्रमागत विषय बनाती है, वह उद्देश्य, अभिप्राय और केन्द्रीय विषय की एकरूपता है। सूरा का सम्बोधन मुख्य रूप से दो गिरोहों की ओर है : एक अहले-किताब (यहूदी और ईसाई), दूसरे वे लोग जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाए थे।

पहले गिरोह को उसी ढंग से और आगे की बात पहुँचाई गई है, जिसका सिलसिला सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू किया गया था। दूसरे गिरोह को, जो अब सर्वोत्तम गिरोह होने की हैसियत से सत्य का ध्वजावाहक और दुनिया के सुधार का ज़िम्मेदार बनाया जा चुका है, उसी सिलसिले में कुछ और आदेश दिए गए हैं जो सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू हुआ था। उन्हें पिछले समुदायों के धार्मिक और नैतिक पतन का शिक्षाप्रद दृश्य दिखाकर सचेत किया गया है कि उनके पद-चिह्नों पर चलने से बचें। उन्हें बताया गया है कि एक सुधारक जमाअत होने की हैसियत से वे किस तरह काम करें।

उतरने का कारण

इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है : (1) सूरा-2 (अल-बकरा) में इस सत्य-धर्म पर ईमान लानेवालों को जिन आज़माइशों, मुसीबतों और कठिनाइयों से समय से पहले सचेत कर दिया गया था, वे पूरी तीव्रता के साथ सामने आ चुकी थीं। बद्र की लड़ाई में यद्यपि ईमानवालो को विजय मिली थी, लेकिन यह लड़ाई मानो भिड़ों के छत्ते में पत्थर मारने जैसी थी [चुनांचे इसके बाद हर ओर तूफ़ान के लक्षण दिखाई देने लगे और मुसलमान नित्य- भय और अनवरत अशांति से दोचार हो गए] (2) हिजरत के बाद नबी (सल्ल.) ने मदीना के आस-पास के यहूदी कबीलों के साथ जो समझौते किए थे, उन लोगों ने उन समझौतों का कुछ भी सम्मान न किया। [और बराबर उनका उल्लंघन करने लगे।] अन्तत: जब उनकी शरारतें और वादाख़िलाफ़ियाँ असह्य हो गई तो नबी (सल्ल.) ने बद्र के कुछ महीने बाद बनी-क़ैनुकाअ पर, जो इन यहूदी क़बीलों में सबसे अधिक उद्दण्ड थे, हमला कर दिया और उन्हें मदीना के आस-पास से निकाल बाहर किया, लेकिन इससे दूसरे यहूदी क़बीलों की दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। उन्होंने मदीना के मुनाफ़िक़ मुसलमानों और हिजाज़ के मुशरिक क़बीलों के साथ साँठ-गांठ करके इस्लाम और मुसलमानों के लिए हर ओर संकट ही संकट पैदा कर दिए। (3) बद्र की पराजय के बाद कुरैश के दिलों में अपने आप ही प्रतिशोध की आग भड़क रही थी कि उसपर यहूदियों ने और तेल छिड़क दिया। परिणाम यह हुआ कि एक ही साल बाद मक्का से तीन हज़ार की भारी सेना मदीना पर हमलावर हो गई और उहुद के दामन में वह लड़ाई हुई जो उहुद की लड़ाई के नाम से मशहूर है। (4) उहुद की लड़ाई में मुसलमानों की जो पराजय हुई, उसमें यद्यपि मुनाफ़िक़ों की चालों की एक बड़ी भूमिका थी, लेकिन उसके साथ मुसलमानों की अपनी कमज़ोरियों की भूमिका भी कुछ कम न थी, इसलिए यह ज़रूरत पेश आई कि लड़ाई के बाद उस लड़ाई की पूरी दास्तान की एक विस्तृत समीक्षा की जाए और इसमें इस्लामी दृष्टिकोण से जो कमज़ोरियाँ मुसलमानों के भीतर पाई गई थीं, उनमें से एक-एक की निशानदेही करके उसके सुधार के बारे में आदेश दिए जाएँ। इस संबंध में यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि इस लड़ाई पर क़ुरआन की समीक्षा उन सभी समीक्षाओं से कितनी भिन्न है जो दुनिया के सेनानायक अपनी लड़ाइयों के बाद किया करते हैं।

 

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نَزَّلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَأَنزَلَ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ ۝ 1
(3) ऐ नबी, उसने तुमपर यह किताब उतारी, जो सत्य लेकर आई हैं और उन किताबों की पुष्टि कर रही है जो पहले से आई हुई थीं। इससे पहले वह इनसानों के मार्गदर्शन के लिए तौरात और इंजील उतार चुका है,
مِن قَبۡلُ هُدٗى لِّلنَّاسِ وَأَنزَلَ ٱلۡفُرۡقَانَۗ إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 2
(4) और उसने वह कसौटी उतारी है (जो सत्य और असत्य का अन्तर दिखानेवाली है)। अब जो लोग अल्लाह के आदेशों को स्वीकार करने से इनकार करें, उनको निश्चय ही सख़्त सज़ा मिलेगी। अल्लाह अपार शक्तिवाला है और बुराई का बदला देनेवाला है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَخۡفَىٰ عَلَيۡهِ شَيۡءٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 3
(5) धरती और आकाश की कोई चीज़़ अल्लाह से छिपी नहीं।
هُوَ ٱلَّذِي يُصَوِّرُكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ كَيۡفَ يَشَآءُۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 4
(6) वही तो है जो तुम्हारे माओं के पेट में तुम्हारे रूप जैसा चाहता है, बनाता है। उस ज़बरदस्त, गहरी समझवाले के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۡهُ ءَايَٰتٞ مُّحۡكَمَٰتٌ هُنَّ أُمُّ ٱلۡكِتَٰبِ وَأُخَرُ مُتَشَٰبِهَٰتٞۖ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمۡ زَيۡغٞ فَيَتَّبِعُونَ مَا تَشَٰبَهَ مِنۡهُ ٱبۡتِغَآءَ ٱلۡفِتۡنَةِ وَٱبۡتِغَآءَ تَأۡوِيلِهِۦۖ وَمَا يَعۡلَمُ تَأۡوِيلَهُۥٓ إِلَّا ٱللَّهُۗ وَٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ يَقُولُونَ ءَامَنَّا بِهِۦ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ رَبِّنَاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 5
(7) ऐ नबी, वही ख़ुदा है, जिसने यह किताब तुमपर उतारी है। इस किताब में दो प्रकार की आयतें हैं एक अटल1, जो किताब का मूल आधार है और दूसरी उपलक्षित2। जिन लोगों के दिलों में टेढ़ है, वे फ़ितने (गुमराही) की तलाश में सदैव उपलक्षित ही के पीछे पड़े रहते है और उनको (मनमाना) अर्थ पहनाने का प्रयास किया करते हैं, जबकि उनका वास्तविक अर्थ अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। इसके विपरीत जो लोग ज्ञान में पक्के हैं, वे कहते हैं कि “हमारा इनपर ईमान है, ये सब हमारे रब ही की ओर से हैं।"3 और सत्य यह है कि किसी चीज़़ से उचित शिक्षा केवल बुद्धिमान लोग ही प्राप्त करते हैं।
1. “अटल आयतों” से अभिप्रेत वे आयते हैं जिनकी भाषा बिलकुल स्पष्ट है और जिनका अर्थ निर्धारित करने में किसी संदिग्धता की गुंजाइश नहीं है। ये आयतें “पुस्तक का मूल आधार” हैं अर्थात् क़ुरआन जिस उद्देश्य के लिए उतरा है, उस उद्देश्य को ये आयतें पूरा करती हैं। उन्हीं में इस्लाम की ओर संसार को बुलाया गया है, उन्हीं में शिक्षाप्रद और उपदेश की बातें कही गई हैं, उन्हीं में गुमराहियों का खण्डन और सत्य मार्ग को स्पष्ट किया गया है, उन्हीं में धर्म के मौलिक और आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख हुआ है, उन्हीं में धारणाओं, उपासनाओं, नैतिकता, अनिवार्य कर्मों और हुक्म देने और रोकने के आदेश बयान हुए हैं।
2. उपलक्षित, अर्थात् वे आयतें जिनके अर्थ में संदिग्धता की गुंजाइश है। यह ज़ाहिर है कि इनसान के लिए जीवन का कोई मार्ग प्रस्तावित नहीं किया जा सकता जब तक परोक्ष सम्बन्धी तथ्यों के सम्बन्ध में कम से कम ज़रूरी जानकारी मनुष्य को न दी जाए। और यह भी ज़ाहिर है कि जो चीज़़ें इनसान की ज्ञानेन्द्रियों से परे की हैं, जिनको उसने न कभी देखा, न छुआ, न चखा, उनके लिए इनसानी ज़बान में न ऐसे शब्द मिल सकते हैं जो उन्हीं के लिए निर्मित किए गए हों और न ऐसी जानी-समझी वर्णनशैलियाँ मिल सकती हैं जिनसे प्रत्येक सुननेवाले के मन में उनका सही चित्र खिंच जाए। अनिवार्यतः यह ज़रूरी है कि इस प्रकार के विषयों के बयान के लिए शब्द और वर्णनशैलियों वे अपनाई जाएँ जो वास्तविक तथ्य के निकटतम सादृश्य रखनेवाली अनुभूत चीज़़ों के लिए इनसानी ज़बान में पाई जाती है। अतएव इन तथ्यों के बयान के अन्दर क़ुरआन में ऐसी ही भाषा प्रयोग में लाई गई है। और उपलक्षित से अभिप्रेत वे आयतें हैं, जिनमें यह भाषा प्रयुक्त हुई है।
3. यहाँ किसी को यह संदेह न हो कि जब लोग उपलक्षित का सही अर्थ जानते ही नहीं, तो उनको मानें कैसे। वास्तविकता यह है कि एक योग्य व्यक्ति को क़ुरआन के ईशवाणी होने का विश्वास अटल आयतों के अध्ययन से प्राप्त होता है, न कि उपलक्षित आयतों के अर्थ निरूपण से जब अटल आयतों में सोच-विचार करने से उसको यह विश्वास हो जाता है कि यह किताब वास्तव में अल्लाह ही की किताब है, तो फिर उपलक्षित आयतों से उसके मन में कोई संशय (शक) उत्पन्न नहीं होता।
رَبَّنَا لَا تُزِغۡ قُلُوبَنَا بَعۡدَ إِذۡ هَدَيۡتَنَا وَهَبۡ لَنَا مِن لَّدُنكَ رَحۡمَةًۚ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡوَهَّابُ ۝ 6
(8) वे अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि “पालनहार, जब तू हमें सीधे रास्ते पर लगा चुका है, तो फिर कहीं हमारे दिलों में टेढ़ न पैदा कर देना। हमें अपने दयानिधि से दयालुता प्रदान कर कि तू ही वास्तविक दाता है।
رَبَّنَآ إِنَّكَ جَامِعُ ٱلنَّاسِ لِيَوۡمٖ لَّا رَيۡبَ فِيهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 7
(9) पालनहार, तू निश्चय ही सब लोगों को एक दिन इकट्ठा करनेवाला है, जिसके आने में कोई सन्देह नहीं तू हरगिज़ अपने वादे से टलनेवाला नहीं है।"
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ وَقُودُ ٱلنَّارِ ۝ 8
(10) जिन लोगों ने इनकार की नीति अपनाई है, उन्हें अल्लाह के मुक़ाबले में न उनका धन कुछ काम देगा, न सन्तान। वे नरक (जहन्नम) का ईंधन बनकर रहेंगे।
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 9
(11) उनका अंजाम वैसा ही होगा, जैसा फ़िरऔन के साथियों और उनसे पहले के अवज्ञाकारियों का हो चुका है कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया, नतीजा यह हुआ कि अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया और सत्य यह है कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ سَتُغۡلَبُونَ وَتُحۡشَرُونَ إِلَىٰ جَهَنَّمَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 10
(12) अत: ऐ नबी, जिन लोगों ने तुम्हारे पैग़ाम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, उनसे कह दो कि निकट है वह समय, जब तुम परास्त हो जाओगे और जहन्नम की ओर हाँके जाओगे, और जहन्नम बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
قَدۡ كَانَ لَكُمۡ ءَايَةٞ فِي فِئَتَيۡنِ ٱلۡتَقَتَاۖ فِئَةٞ تُقَٰتِلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَأُخۡرَىٰ كَافِرَةٞ يَرَوۡنَهُم مِّثۡلَيۡهِمۡ رَأۡيَ ٱلۡعَيۡنِۚ وَٱللَّهُ يُؤَيِّدُ بِنَصۡرِهِۦ مَن يَشَآءُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 11
(13) तुम्हारे लिए उन दो गिरोहों में एक शिक्षाप्रद निशानी थी जो (बद्र की लड़ाई में) एक-दूसरे के मुक़ाबिल हुए। एक गिरोह अल्लाह के मार्ग में लड़ रहा था और दूसरा गिरोह विधर्मी था। देखनेवाले आँखों से देख रहे थे कि विधर्मी गिरोह ईमानवाले गिरोह से दो गुना है।4 किन्तु (नतीजे ने साबित कर दिया कि) अल्लाह अपनी विजय और सहायता से जिसको चाहता है, मदद देता है। नज़र रखनेवालों के लिए इसमें बड़ी शिक्षा निहित है।
4. यद्यपि वास्तविक अन्तर तीन गुना था, किन्तु सरसरी निगाह से देखनेवाला भी यह महसूस किए बिना तो नहीं रह सकता था कि अधर्मियों की सेना मुसलमानों से दो गुनी है।
زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ ٱلشَّهَوَٰتِ مِنَ ٱلنِّسَآءِ وَٱلۡبَنِينَ وَٱلۡقَنَٰطِيرِ ٱلۡمُقَنطَرَةِ مِنَ ٱلذَّهَبِ وَٱلۡفِضَّةِ وَٱلۡخَيۡلِ ٱلۡمُسَوَّمَةِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ وَٱلۡحَرۡثِۗ ذَٰلِكَ مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلۡمَـَٔابِ ۝ 12
(14) लोगों के लिए मनपसन्द चीज़़ें स्त्रियाँ, सन्तान, सोने-चाँदी के ढेर, चुने घोड़े, चौपाए और खेती की ज़मीनें—बड़ी लुभावनी बना दी गई हैं, किन्तु ये सब दुनिया के कुछ दिनों के जीवन की सामग्री हैं। वास्तव में जो अच्छा ठिकाना है, वह तो अल्लाह के पास है।
۞قُلۡ أَؤُنَبِّئُكُم بِخَيۡرٖ مِّن ذَٰلِكُمۡۖ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَأَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 13
(15) कहो: मैं तुम्हें बताऊँ कि इनसे अधिक अच्छी चीज़़ क्या है? जो लोग धर्मपरायणता (तक़वा) की नीति अपनाएँ, उनके लिए उनके रब के पास बाग़ हैं, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, जहाँ उन्हें हमेशा का जीवन प्राप्त होगा, पाकीज़ा पत्नियाँ उनकी संगिनी होंगी और अल्लाह की प्रसन्नता उन्हें प्राप्त होगी। अल्लाह अपने बन्दों के रवैये पर गहरी नज़र रखता है।
ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ إِنَّنَآ ءَامَنَّا فَٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 14
(16) ये वे लोग हैं, जो कहते हैं कि “मालिक, हम ईमान लाए, हमारी ख़ताओं को माफ़ कर और हमें जहन्नम की आग से बचा ले।”
ٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡمُنفِقِينَ وَٱلۡمُسۡتَغۡفِرِينَ بِٱلۡأَسۡحَارِ ۝ 15
(17) ये लोग धैर्य से काम लेनेवाले है, सत्यवान है, आज्ञाकारी और दानशील हैं और रात की अन्तिम घड़ियों में अल्लाह से क्षमा की प्रार्थनाएँ किया करते हैं।
شَهِدَ ٱللَّهُ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَأُوْلُواْ ٱلۡعِلۡمِ قَآئِمَۢا بِٱلۡقِسۡطِۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 16
(18) अल्लाह ने ख़ुद इस बात की गवाही दी है कि उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है और फ़रिश्ते और सब ज्ञानवान भी सच्चाई और न्याय के साथ इसपर गवाह हैं कि उस बलशाली गहरी समझवाले के सिवा वास्तव में कोई ख़ुदा नहीं है।
إِنَّ ٱلدِّينَ عِندَ ٱللَّهِ ٱلۡإِسۡلَٰمُۗ وَمَا ٱخۡتَلَفَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 17
(19) अल्लाह के निकट दीन (धर्म) केवल इस्लाम है। इस दीन से हटकर जो विभिन्न मार्ग उन लोगों ने ग्रहण किए, जिन्हें किताब दी गई थी, उनकी इस कार्य नीति का कोई कारण इसके सिवा न था कि उन्होंने ज्ञान आ जाने के बाद आपस में एक-दूसरे पर ज़्यादती करने के लिए ऐसा किया, और जो कोई अल्लाह के आदेश और मार्गदर्शन के अनुपालन से इनकार कर दे, अल्लाह को उससे हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
فَإِنۡ حَآجُّوكَ فَقُلۡ أَسۡلَمۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّهِ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِۗ وَقُل لِّلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡأُمِّيِّـۧنَ ءَأَسۡلَمۡتُمۡۚ فَإِنۡ أَسۡلَمُواْ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 18
(20) अब यदि ऐ नबी, ये लोग तुमसे झगड़ा करें तो उनसे कहो: “मैंने और मेरे अनुयायियों ने तो अल्लाह के आगे अपने आपको समर्पित कर दिया है।” फिर किताबवालों और जो किताब नहीं रखते दोनों से पूछो “क्या तुमने भी उसके आज्ञापालन और बन्दगी को स्वीकार किया?” यदि किया तो वे सीधा मार्ग पा गए, और यदि इससे मुख मोड़ा तो तुमपर केवल सन्देश पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी। आगे, अल्लाह स्वयं अपने बन्दों के मामलों को देखनेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَيَقۡتُلُونَ ٱلَّذِينَ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡقِسۡطِ مِنَ ٱلنَّاسِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 19
(21) जो लोग अल्लाह के आदेश और मार्गदर्शन को मानने से इनकार करते हैं और उसके पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल करते हैं और ऐसे लोगों की जान लेने को उतारू हो जाते हैं जो ख़ुदा की मख़लूक़ में से न्याय और सच्चाई का हुक्म देने के लिए उठें, उनको दर्दनाक सज़ा की ख़ुशख़बरी सुना दो।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 20
(22) ये वे लोग हैं जिनके कर्म दुनिया और आख़िरत दोनों में अकारथ गए, और उनका सहायक कोई नहीं है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ كِتَٰبِ ٱللَّهِ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ وَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 21
(23) तुमने देखा नहीं कि जिन लोगों को किताब के ज्ञान में से कुछ अंश मिला है, उनकी दशा क्या है? उन्हें जब अल्लाह की किताब की ओर बुलाया जाता है ताकि वह उनके बीच फ़ैसला करे, तो उनमें से एक गिरोह उससे पहलू बचाता है और उस फ़ैसले की ओर आने से मुँह फेर जाता है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَن تَمَسَّنَا ٱلنَّارُ إِلَّآ أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۖ وَغَرَّهُمۡ فِي دِينِهِم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 22
(24) उनकी यह नीति इस कारण से है कि वे कहते हैं, “जहन्नम की आग तो हमें छुएगी तक नहीं और यदि जहन्नम की सज़ा हमको मिलेगी भी तो बस कुछ दिन।” उनकी मनगढ़ंत धारणाओं ने उनको अपने दीन के विषय में बड़े भ्रम में डाल रखा है।
فَكَيۡفَ إِذَا جَمَعۡنَٰهُمۡ لِيَوۡمٖ لَّا رَيۡبَ فِيهِ وَوُفِّيَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 23
(25) मगर क्या बनेगी उनपर जब हम उन्हें उस दिन इकट्ठा करेंगे जिसका आना निश्चित है? उस दिन हर व्यक्ति को उसकी कमाई का बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और किसी के साथ अन्याय न होगा।
قُلِ ٱللَّهُمَّ مَٰلِكَ ٱلۡمُلۡكِ تُؤۡتِي ٱلۡمُلۡكَ مَن تَشَآءُ وَتَنزِعُ ٱلۡمُلۡكَ مِمَّن تَشَآءُ وَتُعِزُّ مَن تَشَآءُ وَتُذِلُّ مَن تَشَآءُۖ بِيَدِكَ ٱلۡخَيۡرُۖ إِنَّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 24
(26) कहो, ऐ अल्लाह, राज्य के स्वामी, तू जिसे चाहे राज्य दे और जिससे चाहे छीन ले जिसे चाहे सम्मान प्रदान करे और जिसको चाहे अपमानित कर दे। भलाई तेरे अधिकार में है। यक़ीनन तुझे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है
تُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَتُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِۖ وَتُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَتُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّۖ وَتَرۡزُقُ مَن تَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 25
(27) रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में निर्जीव में से जीवधारी को निकालता है और जीवधारी में से निर्जीव को। और जिसे चाहता है, बेहिसाब रोज़ी देता है।
لَّا يَتَّخِذِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَلَيۡسَ مِنَ ٱللَّهِ فِي شَيۡءٍ إِلَّآ أَن تَتَّقُواْ مِنۡهُمۡ تُقَىٰةٗۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 26
(28) ईमानवाले, ईमानवालों को छोड़कर इनकार करनेवालों (विधर्मियों) को अपना साथी और यार-मददगार हरगिज़ न बनाएँ। जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं। हाँ, यह माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिए ऊपरी तौर से ऐसी नीति अपना लो।5 किन्तु अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और तुम्हें उसी की ओर पलटकर जाना है।6
5. अर्थात अगर कोई ईमानवाला व्यक्ति किसी इस्लाम-विरोधी दल के चंगुल में फँस गया हो और उसे उनके ज़ुल्म और अत्याचार का भय हो, तो उसको इजाज़त है कि अपने ईमान को छिपाए रखे और अधर्मियों के साथ ऊपरी तौर पर इस तरह रहे कि मानो उन्हीं में का एक आदमी है। या अगर उसका मुसलमान होना ज़ाहिर हो गया हो तो अपनी जान की रक्षा के लिए वह अधर्मियों के साथ मित्रता की नीति का प्रदर्शन कर सकता है, यहाँ तक कि अत्यधिक भय की हालत में जिस व्यक्ति को सहन की शक्ति न हो उसको धर्मविरोधी बात तक कह जाने की छूट है।
6. अर्थात् अपनी जान की रक्षा के लिए तुम इस सीमा तक तो डर के कारण वास्तविकता को छिपा सकते हो कि इस्लाम के मिशन और इस्लामी जमाअत के हितों और किसी मुसलमान की जान और धन को हानि पहुँचाए बिना अपनी जान और माल की सुरक्षा कर लो। लेकिन सावधान, अधर्म और अधर्मियों की कोई ऐसी सेवा तुम्हारे हाथों नहीं होनी चाहिए जिससे इस्लाम के मुक़ाबले में अधर्म को उन्नति प्राप्त होने और मुसलमानों पर अधर्मियों के विजयी होने की संभावना हो।
قُلۡ إِن تُخۡفُواْ مَا فِي صُدُورِكُمۡ أَوۡ تُبۡدُوهُ يَعۡلَمۡهُ ٱللَّهُۗ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 27
(29) ऐ नबी, लोगों को ख़बरदार कर दो कि तुम्हारे दिलों में जो कुछ है, उसे चाहे तुम छिपाओ या प्रकट करो, अल्लाह हर हाल में उसे जानता है, आकाशों और धरती की कोई चीज़़ उसके ज्ञान से बाहर नहीं है। और उसका प्रभुत्व हर चीज़़ पर छाया रहता है।
يَوۡمَ تَجِدُ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ مِنۡ خَيۡرٖ مُّحۡضَرٗا وَمَا عَمِلَتۡ مِن سُوٓءٖ تَوَدُّ لَوۡ أَنَّ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَهُۥٓ أَمَدَۢا بَعِيدٗاۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَٱللَّهُ رَءُوفُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 28
(30) वह दिन आनेवाला है जब हर व्यक्ति अपने किए का फल मौजूद पाएगा चाहे उसने भलाई की हो या बुराई उस दिन आदमी यह तमन्ना करेगा कि क्या ही अच्छा होता कि अभी यह दिन उससे बहुत दूर होता! अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है और वह अपने बन्दों का अत्यन्त हितैषी है।
قُلۡ إِن كُنتُمۡ تُحِبُّونَ ٱللَّهَ فَٱتَّبِعُونِي يُحۡبِبۡكُمُ ٱللَّهُ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 29
(31) ऐ नबी, लोगों से कह दो कि “यदि तुम वास्तव में अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे प्रेम करेगा और तुम्हारी ख़ताओं को माफ़ कर देगा। वह बड़ा क्षमाशील और दयावान् है।”
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 30
(32) उनसे कहो कि “अल्लाह और रसूल का आज्ञापालन करो।” फिर यदि वे तुम्हारी यह बात न मानें, तो निश्चय ही यह संभव नहीं है कि अल्लाह ऐसे लोगों से प्रेम करे, जो उसके और उसके रसूल के आज्ञापालन से इनकार करते हो।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰٓ ءَادَمَ وَنُوحٗا وَءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ وَءَالَ عِمۡرَٰنَ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 31
(33) अल्लाह ने आदम और नूह और इबराहीम की सन्तान और इमरान की सन्तान7 को सम्पूर्ण संसारवालों के मुक़ाबले में प्रधानता देकर (अपने सन्देशवाहन के लिए) चुना था।
7. इमरान हज़रत मूसा (अलैहि०) और हारून (अलैहि०) के बाप का नाम था, जिसे बाइबल में “अमराम” लिखा गया है।
ذُرِّيَّةَۢ بَعۡضُهَا مِنۢ بَعۡضٖۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 32
(34) ये एक सिलसिले के लोग थे, जो एक-दूसरे की नस्ल से पैदा हुए थे अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
إِذۡ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ عِمۡرَٰنَ رَبِّ إِنِّي نَذَرۡتُ لَكَ مَا فِي بَطۡنِي مُحَرَّرٗا فَتَقَبَّلۡ مِنِّيٓۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 33
(35) (वह उस समय सुन रहा था) जब इमरान की स्त्री8 कह रही थी, “मेरे पालनहार, मैं इस बच्चे को जो मेरे पेट में है तुझे भेंटस्वरूप अर्पित करती हूँ वह तेरे ही कार्य के लिए अर्पित होगा। मेरी इस भेंट को स्वीकार कर तू सुनने और जाननेवाला है।”
8. अगर इमरान की स्त्री से मुराद “इमरान की पत्नी” समझा जाए तो इसका अर्थ यह होगा कि ये वे इमरान नहीं हैं जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है, बल्कि ये हज़रत मरयम के बाप थे, जिनका नाम शायद इमरान होगा और अगर इमरान की स्त्री से मुराद इमरान के कुटुम्ब की स्त्री है तो इसका अर्थ यह होगा कि हज़रत मरयम की माँ इस क़बीले से थीं।
فَلَمَّا وَضَعَتۡهَا قَالَتۡ رَبِّ إِنِّي وَضَعۡتُهَآ أُنثَىٰ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا وَضَعَتۡ وَلَيۡسَ ٱلذَّكَرُ كَٱلۡأُنثَىٰۖ وَإِنِّي سَمَّيۡتُهَا مَرۡيَمَ وَإِنِّيٓ أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ ۝ 34
(36) फिर जब वह बच्ची उसके यहाँ पैदा हुई तो उसने कहा, “मेरे मालिक मेरे यहाँ तो लड़की पैदा हो गई है हालाँकि जो कुछ उसने जना था, अल्लाह को उसकी ख़बर थी और लड़का, लड़की की तरह नहीं होता। ख़ैर, मैंने उसका नाम मरयम रख दिया है और मैं उसे और उसकी भावी सन्तान को तिरस्कृत (मरदूद) शैतान के फ़ितने से तेरी शरण में देती हूँ।”
فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُولٍ حَسَنٖ وَأَنۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنٗا وَكَفَّلَهَا زَكَرِيَّاۖ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيۡهَا زَكَرِيَّا ٱلۡمِحۡرَابَ وَجَدَ عِندَهَا رِزۡقٗاۖ قَالَ يَٰمَرۡيَمُ أَنَّىٰ لَكِ هَٰذَاۖ قَالَتۡ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٍ ۝ 35
(37) अन्ततः उसके रब ने उस लड़की को ख़ुशी से स्वीकार कर लिया, उसे बड़ी अच्छी लड़की बनाकर उठाया, और ज़करिया को उसका सरपरस्त बना दिया। ज़करिया जब कभी उसके पास मेहराब (इबादतगाह) में जाता तो उसके पास कुछ न कुछ खाने-पीने की चीज़़ पाता। पूछता मरयम यह तेरे पास कहाँ से आया? वह उत्तर देती अल्लाह के पास से आया है, अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब रोज़ी देता है।
هُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهُۥۖ قَالَ رَبِّ هَبۡ لِي مِن لَّدُنكَ ذُرِّيَّةٗ طَيِّبَةًۖ إِنَّكَ سَمِيعُ ٱلدُّعَآءِ ۝ 36
(38) यह हाल देखकर ज़करिया ने अपने रब को पुकारा, “पालनहार, अपनी सामर्थ्य से मुझे नेक संतान दे। तू ही प्रार्थना सुननेवाला है।”
فَنَادَتۡهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُوَ قَآئِمٞ يُصَلِّي فِي ٱلۡمِحۡرَابِ أَنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحۡيَىٰ مُصَدِّقَۢا بِكَلِمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَسَيِّدٗا وَحَصُورٗا وَنَبِيّٗا مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 37
(39) उत्तर में फ़रिश्तों ने आवाज़ दी, जब कि वह मेहराब (इबादतगाह) में खड़ा उपासना कर रहा था कि “अल्लाह तुझे यह्या की ख़ुशख़बरी देता है। वह अल्लाह की ओर से एक आदेश9 की पुष्टि करनेवाला बनकर आएगा। उसमें सरदारी और बुज़ुर्गी की शान होगी। पूर्ण संयत होगा। नबी बनाया जाएगा और अच्छों में उसकी गिनती होगी।”
9. अल्लाह के “आदेश” से मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) हैं। चूँकि उनका जन्म अल्लाह के एक असाधारण आदेश से चमत्कार के रूप में हुआ था, इसलिए उनको क़ुरआन मजीद में “कलिमतुम-मिनल्लाह” (अल्लाह की ओर से एक आदेश) कहा गया है।
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَقَدۡ بَلَغَنِيَ ٱلۡكِبَرُ وَٱمۡرَأَتِي عَاقِرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكَ ٱللَّهُ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ ۝ 38
(40) ज़करिया ने कहा, “पालनहार, भला मेरे यहाँ लड़का कहाँ से होगा? मैं तो बहुत बूढ़ा हो चुका हूँ और मेरी पत्नी बाँझ है।” उत्तर मिला, “ऐसा ही होगा10, अल्लाह जो चाहता है करता है।”
10. अर्थात् तेरे बुढ़ापे और तेरी पत्नी के बाँझपन के बावजूद अल्लाह तुझे बेटा देगा।
قَالَ رَبِّ ٱجۡعَل لِّيٓ ءَايَةٗۖ قَالَ ءَايَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ ٱلنَّاسَ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٍ إِلَّا رَمۡزٗاۗ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ كَثِيرٗا وَسَبِّحۡ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ ۝ 39
(41) निवेदन किया, “मालिक, फिर कोई निशानी मेरे लिए नियत कर दे।” कहा, “निशानी यह है कि तुम तीन दिन तक लोगों से इशारे के सिवा कोई बातचीत न करोगे (या न कर सकोगे) इस बीच अपने रब को बहुत याद करना और सुबह और शाम उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहना।"
وَإِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰكِ وَطَهَّرَكِ وَٱصۡطَفَىٰكِ عَلَىٰ نِسَآءِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 40
(42) फिर वह समय आया जब मरयम से फ़रिश्तों ने आकर कहा, “ऐ मरयम, अल्लाह ने तुझे चुना और पवित्रता प्रदान की और सारे संसार की स्त्रियों में तुझे आगे रखकर अपनी सेवा के लिए चुन लिया।
يَٰمَرۡيَمُ ٱقۡنُتِي لِرَبِّكِ وَٱسۡجُدِي وَٱرۡكَعِي مَعَ ٱلرَّٰكِعِينَ ۝ 41
(43) ऐ मरयम अपने रब की आज्ञाकारी बनकर रह। उसके आगे सजदा कर, और जो बन्दे उसके आगे झुकनेवाले हैं उनके साथ तू भी झुक जा।"
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۚ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يُلۡقُونَ أَقۡلَٰمَهُمۡ أَيُّهُمۡ يَكۡفُلُ مَرۡيَمَ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 42
(44) ऐ नबी, ये छिपी ख़बरें है जो हम तुमको प्रकाशना के द्वारा बता रहे हैं, अन्यथा तुम उस समय वहाँ मौजूद न थे जब हैकल (उपासनागृह) के सेवक यह फ़ैसला करने के लिए कि मरयम का सरपरस्त कौन हो, अपनी-अपनी क़लम फेंक रहे थे11, और न तुम उस समय उपस्थित थे जब उनके बीच झगड़ा खड़ा हो गया था।
11. अर्थात् परची डाल रहे थे।
إِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٖ مِّنۡهُ ٱسۡمُهُ ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ وَجِيهٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 43
(45) और जब फ़रिश्तों ने कहा, “ऐ मरयम, अल्लाह तुझे अपने एक आदेश की ख़ुशख़बरी देता है। उसका नाम मसीह मरयम का बेटा ईसा होगा, दुनिया और आख़िरत में प्रतिष्ठित होगा, अल्लाह के निकटवर्ती बन्दों में गिना जाएगा,
وَيُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗا وَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 44
(46) लोगों से पालने में भी बात करेगा और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी, और वह एक नेक व्यक्ति होगा।”
قَالَتۡ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي وَلَدٞ وَلَمۡ يَمۡسَسۡنِي بَشَرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكِ ٱللَّهُ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ إِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 45
(47) यह सुनकर मरयम बोली, “पालनहार, मेरे यहाँ बच्चा कहाँ से होगा, मुझे तो किसी मर्द ने हाथ तक नहीं लगाया।” उत्तर मिला “ऐसा ही होगा12, अल्लाह जो चाहता है पैदा करता है। वह जब किसी काम के करने का फ़ैसला करता है तो बस कहता है कि हो जा और वह हो जाता है।”
12. अर्थात् इसके बावजूद कि किसी मर्द ने तुझे हाथ नहीं लगाया, तेरे यहाँ बच्चा पैदा होगा।
وَيُعَلِّمُهُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ ۝ 46
(48) (फ़रिश्तों ने फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा) “और अल्लाह उसे किताब और गहरी समझ की शिक्षा देगा, तौरात और इंजील का ज्ञान देगा
وَرَسُولًا إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنِّي قَدۡ جِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ أَنِّيٓ أَخۡلُقُ لَكُم مِّنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ فَأَنفُخُ فِيهِ فَيَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ وَأُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُنَبِّئُكُم بِمَا تَأۡكُلُونَ وَمَا تَدَّخِرُونَ فِي بُيُوتِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 47
(49) और इसराईल की संतान की ओर अपना रसूल (सन्देश वाहक) नियुक्त करेगा।” (और जब वह रसूल के रूप में इसराईलियों के पास आया तो उसने कहा) “मैं तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ। मैं तुम्हारे सामने मिट्टी से पक्षी के रूप की एक आकृति बनाता हूँ और उसमें फूँक मारता हूँ, वह अल्लाह के आदेश से पक्षी बन जाती है। मैं अल्लाह के हुक्म से जन्मान्ध और कोढ़ी को अच्छा करता हूँ और उसकी अनुज्ञा से मुर्दे को जीवित करता हूँ। मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम क्या खाते हो और क्या अपने घरों में इकट्ठा करके रखते हो। इसमें तुम्हारे लिए काफ़ी निशानी है अगर तुम ईमानवाले हो।
وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيَّ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي حُرِّمَ عَلَيۡكُمۡۚ وَجِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 48
(50) और मैं उस शिक्षा और पथ-प्रदर्शन की पुष्टि करनेवाला बनकर आया हूँ जो तौरात में से इस समय मेरे ज़माने में मौजूद है और इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ उन चीज़़ों को वैध (हलाल) कर हूँ जो तुम्हारे लिए अवैध (हराम) कर दी गई हैं।13 देखो, मैं तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ, अत: अल्लाह से डरो और मेरा कहना मानो।
13. अर्थात् तुम्हारे आज्ञानियों के अन्धविश्वास, तुम्हारे धर्मविधिज्ञों की क़ानून के सम्बन्ध में बाल की खाल निकालने की प्रवृति, संन्यास को पसन्द करनेवाले तुम्हारे लोगों की हिंसाएँ और ग़ैर-मुस्लिम जातियों के प्रभुत्व और सत्ताधिकार के कारण तुम्हारे यहाँ मूल ईश्वर रचित धर्म विधान या धर्मशास्त्र में जिन पाबन्दियों की अभिवृद्धि हो गई है, मैं उनको मंसूख (निरस्त) करूँगा और तुम्हारे लिए वही चीज़़ें हलाल और वही हराम ठहराऊँगा जिन्हें अल्लाह ने हलाल या हराम किया है।
إِنَّ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 49
(51) अल्लाह मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी, अत: तुम उसी की बन्दगी अपनाओ, यही सीधा मार्ग है।"
۞فَلَمَّآ أَحَسَّ عِيسَىٰ مِنۡهُمُ ٱلۡكُفۡرَ قَالَ مَنۡ أَنصَارِيٓ إِلَى ٱللَّهِۖ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ نَحۡنُ أَنصَارُ ٱللَّهِ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ ۝ 50
(52) जब ईसा ने महसूस किया कि इसराईल की संतान अधर्म और इनकार पर आमादा है तो उसने कहा, “कौन अल्लाह के मार्ग में मेरा सहायक होता है?” हवारियों14 (साथियों) ने उत्तर दिया, “हम अल्लाह के सहायक हैं15, हम अल्लाह पर ईमान लाए, गवाह रहो कि हम मुस्लिम (अल्लाह के आज्ञाकारी) है।
14. “हवारी” का लगभग वही अर्थ है जो हमारे यहाँ 'अनसार' (सहायक और साथी) का अर्थ है।
15. अर्थात् अल्लाह के काम में आपके सहायक हैं।
رَبَّنَآ ءَامَنَّا بِمَآ أَنزَلۡتَ وَٱتَّبَعۡنَا ٱلرَّسُولَ فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 51
(53) मालिक जो आदेश तूने उतारा है हमने उसे मान लिया और रसूल का अनुसरण स्वीकार किया हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले।"
وَمَكَرُواْ وَمَكَرَ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 52
(54) फिर इसराईली (मसीह के विरुद्ध) गुप्त उपाय करने लगे। उत्तर में अल्लाह ने भी अपना गुप्त उपाय किया और ऐसे उपायों में अल्लाह सबसे बढ़कर है।
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَىٰٓ إِنِّي مُتَوَفِّيكَ وَرَافِعُكَ إِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَجَاعِلُ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوكَ فَوۡقَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ ثُمَّ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 53
(55) (वह अल्लाह का छिपा उपाय ही था) जब उसने कहा कि “ऐ ईसा, अब मैं तुझे वापस ले लूँगा16 और तुझको अपनी ओर उठा लूँगा और जिन्होंने तेरा इनकार किया है उनसे (अर्थात् उनकी संगत से और उनके गन्दे वातावरण में उनके साथ रहने से) तुझे पाक कर दूँगा और तेरे अनुयायियों को क़ियामत तक उन लोगों के ऊपर रखूँगा जिन्होंने तेरा इनकार किया है। फिर तुम सबको अन्त में मेरे पास आना है, उस समय मैं उन बातों का निर्णय कर दूँगा, जिनमें तुम्हारे बीच मतभेद हुआ है।
16. मूल ग्रन्थ में “मुतवफ़्फ़ी-क” शब्द इस्तेमाल हुआ है। “तवफ़्फ़ी” का मूल अर्थ है लेना और वसूल करना। “प्राण खींच लेना” इस शब्द का उपलक्षात्मक प्रयोग, है न कि वास्तविक शाब्दिक अर्थ।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَأُعَذِّبُهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 54
(56) जिन लोगों ने अधर्म और इनकार की नीति अपनाई है उन्हें दुनिया और आख़िरत दोनों में सख़्त सज़ा दूँगा और वे कोई सहायक न पाएँगे।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُوَفِّيهِمۡ أُجُورَهُمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 55
(57) और जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म की नीति अपनाई है उन्हें उनका बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और ख़ूब जान लो कि) ज़ालिमों से अल्लाह हरगिज प्रेम नहीं करता।"
ذَٰلِكَ نَتۡلُوهُ عَلَيۡكَ مِنَ ٱلۡأٓيَٰتِ وَٱلذِّكۡرِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 56
(58) ऐ नबी, ये आयतें और तत्त्वज्ञान से भरे हुए वर्णन हैं जो हम तुम्हें सुना रहे हैं।
إِنَّ مَثَلَ عِيسَىٰ عِندَ ٱللَّهِ كَمَثَلِ ءَادَمَۖ خَلَقَهُۥ مِن تُرَابٖ ثُمَّ قَالَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 57
(59) अल्लाह के नज़दीक ईसा की मिसाल आदम जैसी है कि अल्लाह ने उसे मिट्टी से पैदा किया और आदेश दिया कि हो जा और वह हो गया।17
17. अर्थात् अगर केवल बिना बाप के पैदा होना ही किसी को ईश्वर या ईश्वर का पुत्र बनाने के लिए पर्याप्त प्रमाण हो तो फिर ईसाइयों को आदम के बारे में इससे कहीं बढ़कर ऐसी धारणा ग्रहण करनी चाहिए थी, क्योंकि मसीह (अलैहि०) तो केवल बिना बाप ही के पैदा हुए थे, मगर आदम माँ और बाप दोनों के बिना पैदा हुए।
ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 58
(60) यह मूल तथ्य है जो तुम्हारे रब की ओर से बताया जा रहा है, और तुम उन लोगों में सम्मिलित न हो जो इसमें संदेह करते हैं।
فَمَنۡ حَآجَّكَ فِيهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ فَقُلۡ تَعَالَوۡاْ نَدۡعُ أَبۡنَآءَنَا وَأَبۡنَآءَكُمۡ وَنِسَآءَنَا وَنِسَآءَكُمۡ وَأَنفُسَنَا وَأَنفُسَكُمۡ ثُمَّ نَبۡتَهِلۡ فَنَجۡعَل لَّعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَى ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 59
(61) यह ज्ञान आ जाने के बाद अब जो कोई इस विषय में तुमसे झगड़ा करे तो ऐ नबी, उससे कहो कि “आओ हम और तुम स्वयं भी आ जाएँ और अपने-अपने बाल-बच्चों को भी ले आएँ और अल्लाह से प्रार्थना करें कि जो झूठा हो उसपर अल्लाह की लानत हो।”
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡقَصَصُ ٱلۡحَقُّۚ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّا ٱللَّهُۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 60
(62) ये बिलकुल सत्य घटनाएँ हैं, और सत्य यह है कि अल्लाह के सिवा कोई रब नहीं है, और वह अल्लाह ही की सत्ता है जिसकी शक्ति सबसे बढ़कर है और जिसकी तत्त्वदर्शिता सारे विश्व में क्रियाशील है।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 61
(63) अतः यदि ये लोग (इस शर्त पर मुक़ाबले में आने से) मुँह मोड़ें तो (इनका फ़सादी होना स्पष्ट हो जाएगा) और अल्लाह तो फ़सादियों के हाल से परिचित ही है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ كَلِمَةٖ سَوَآءِۭ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ أَلَّا نَعۡبُدَ إِلَّا ٱللَّهَ وَلَا نُشۡرِكَ بِهِۦ شَيۡـٔٗا وَلَا يَتَّخِذَ بَعۡضُنَا بَعۡضًا أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُولُواْ ٱشۡهَدُواْ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ ۝ 62
(64) ऐ नबी कहो, 'ऐ किताबवालो, आओ एक ऐसी बात की ओर जो हमारे और तुम्हारे बीच समान है। यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को साझी न ठहराएँ, और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न बना ले।” इस दावत (आमंत्रण) को स्वीकार करने से अगर वे मुँह मोड़ें तो साफ़ कह दो कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (केवल अल्लाह की बन्दगी और आज्ञापालन करनेवाले) हैं।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تُحَآجُّونَ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمَآ أُنزِلَتِ ٱلتَّوۡرَىٰةُ وَٱلۡإِنجِيلُ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 63
(65) ऐ किताबवालो, तुम इबराहीम के (दीन के) बारे में क्यों झगड़ा करते हो? तौरात और इंजील तो इबराहीम के बाद ही उतरी हैं। फिर क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ حَٰجَجۡتُمۡ فِيمَا لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ فَلِمَ تُحَآجُّونَ فِيمَا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 64
(66) — तुम लोग जिन चीज़़ों का ज्ञान रखते हो उनमें तो अच्छी तरह वाद-विवाद कर चुके अब उन मामलों में क्यों वाद-विवाद करने चले हो जिनका तुम्हारे पास कुछ भी ज्ञान नहीं। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
مَا كَانَ إِبۡرَٰهِيمُ يَهُودِيّٗا وَلَا نَصۡرَانِيّٗا وَلَٰكِن كَانَ حَنِيفٗا مُّسۡلِمٗا وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 65
(67) इबराहीम न यहूदी था न ईसाई, बल्कि वह तो एक एकाग्रचित मुस्लिम था18 और वह हरगिज़ मुशरिकों (बहुदेववादियों) में से न था।
18. असल में “हनीफ़” शब्द इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद ऐसा व्यक्ति है जो हर ओर से अपना मुख फेरकर एक विशेष मार्ग पर चले। इसी अर्थ को हमने “एकाग्रचित मुस्लिम” से व्यक्त किया है।
إِنَّ أَوۡلَى ٱلنَّاسِ بِإِبۡرَٰهِيمَ لَلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ وَهَٰذَا ٱلنَّبِيُّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۗ وَٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 66
(68) इबराहीम से सम्बन्ध रखने का सबसे अधिक अधिकार किसी को पहुँचता है तो उन लोगों को पहुँचता है जिन्होंने उसका अनुसरण किया और अब यह नबी (सन्देशवाहक) और इसके माननेवाले इस सम्बन्ध के अधिक अधिकारी हैं। अल्लाह केवल उन्हीं का समर्थक और सहायक है जो ईमानवाले हैं।
وَدَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَوۡ يُضِلُّونَكُمۡ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 67
(69) (ऐ ईमान लानेवालो) किताबवालों में से एक गिरोह चाहता है कि किसी तरह तुम्हें सीधे मार्ग से हटा दें, हालाँकि वास्तव में वे अपने सिवा किसी को गुमराही में नहीं डाल रहे हैं किन्तु वे इसे जान नहीं पा रहे हैं।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ ۝ 68
(70) ऐ किताबवालो, क्यों अल्लाह की आयतों का इनकार करते हो जबकि तुम स्वयं उनका निरीक्षण कर रहे हो?19
19. दूसरा अनुवाद इस वाक्य का यह भी हो सकता है कि “तुम स्वयं भी गवाही देते हो।” दोनों रूपों में मूल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वास्तव में नबी (सल्ल०) का पवित्र जीवन, और आदरणीय सहाबा (रज़ि०) के अर्थ जीवन पर आपकी शिक्षा और प्रशिक्षण के आश्चर्यजनक प्रभाव, और वे उच्चतम विषय-वस्तुएँ जो क़ुरआन में प्रस्तुत की जा रही थीं, ये सारी चीज़़ें अल्लाह की ऐसी स्पष्ट निशानियाँ थीं कि जो व्यक्ति नबियों के वृत्तांत और आसमानी किताबों से परिचित हो उसके लिए इन निशानियों को देखकर नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी में सन्देह करना बहुत ही मुश्किल था।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَلۡبِسُونَ ٱلۡحَقَّ بِٱلۡبَٰطِلِ وَتَكۡتُمُونَ ٱلۡحَقَّ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 69
(71) ऐ किताबवालो, क्यों सत्य पर असत्य का रंग चढ़ाकर संदिग्ध बनाते हो? क्यों जानते-बूझते सत्य को छुपाते हो?
وَقَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامِنُواْ بِٱلَّذِيٓ أُنزِلَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَجۡهَ ٱلنَّهَارِ وَٱكۡفُرُوٓاْ ءَاخِرَهُۥ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 70
(72) किताबवालों में से एक गिरोह कहता है कि इस नबी के माननेवालों पर जो कुछ उतरा है। उसपर सुबह को ईमान लाओ और शाम को उससे इनकार कर दो, शायद इस उपाय से ये लोग अपने ईमान से फिर जाएँ।
وَلَا تُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّا لِمَن تَبِعَ دِينَكُمۡ قُلۡ إِنَّ ٱلۡهُدَىٰ هُدَى ٱللَّهِ أَن يُؤۡتَىٰٓ أَحَدٞ مِّثۡلَ مَآ أُوتِيتُمۡ أَوۡ يُحَآجُّوكُمۡ عِندَ رَبِّكُمۡۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 71
(73) यह भी ये लोग आपस में कहते हैं कि अपने धर्मवालों के सिवा किसी की बात न मानो। ऐ नबी, उनसे कह दो कि “वास्तव में मार्गदर्शन तो अल्लाह ही का मार्गदर्शन है और यह उसी की देन है कि किसी को वही कुछ दे दिया जाए जो कभी तुमको दिया गया था, या यह कि दूसरों को तुम्हारे रब की सेवा में पेश करने के लिए तुम्हारे विरुद्ध ठोस प्रमाण मिल जाए।” ऐ नबी, इनसे कहो कि “श्रेष्ठता और बड़ाई अल्लाह के हाथ में है, जिसे चाहे प्रदान करे। वह व्यापक दृष्टिवाला है20 और सब कुछ जानता है,
20. यहाँ “वासे-अ” शब्द प्रयुक्त हुआ है जो साधारणतया क़ुरआन में तीन मौक़ों पर आया करता है। एक वह मौक़ा जहाँ इनसानों के किसी गिरोह के संकुचित विचार एवं दृष्टिकोण का उल्लेख होता है और उसे इस तथ्य के प्रति सावधान करने की आवश्यकता होती है कि अल्लाह तुम्हारी तरह तंगनज़र नहीं है। दूसरा वह अवसर जहाँ किसी की कंजूसी और तंगदिली और साहस की कमी पर भर्त्सना करते हुए यह बताना होता है कि अल्लाह का हाथ खुला हुआ है, वह तुम्हारी तरह कंजूस नहीं है। और तीसरा वह मौक़ा जहाँ लोग अपनी संकुचित कल्पना के कारण अल्लाह की ओर किसी प्रकार की सीमितता जोड़ते हैं और उन्हें यह बताना होता है कि अल्लाह असीम है।
يَخۡتَصُّ بِرَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 72
(74) अपनी दयालुता के लिए जिसको चाहता है ख़ास कर लेता है और उसकी उदारता एवं अनुकंपा बहुत बड़ी है।
۞وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مَنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِقِنطَارٖ يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِدِينَارٖ لَّا يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ إِلَّا مَا دُمۡتَ عَلَيۡهِ قَآئِمٗاۗ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَيۡسَ عَلَيۡنَا فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ سَبِيلٞ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 73
(75) किताबवालों में कोई तो ऐसा है कि अगर तुम उसके भरोसे पर माल और दौलत का एक ढेर भी दे दो तो वह तुम्हारा माल तुम्हें अदा कर देगा, और किसी का हाल यह है कि अगर तुम एक दीनार के मामले में भी उसपर भरोसा करो तो वह अदा न करेगा, यह और बात है कि तुम उसके सिर पर सवार हो जाओ। उनकी इस नैतिक दशा का कारण यह है कि वे कहते हैं, “उम्मियों (ग़ैर-यहूदी लोगों) के मामले में हमारी कोई पकड़ नहीं होने की है।” और यह बात वे निरा झूठ गढ़कर अल्लाह से जोड़ते हैं, हालाँकि उन्हें मालूम है (कि अल्लाह ने ऐसी कोई बात नहीं कही है)।
بَلَىٰۚ مَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ وَٱتَّقَىٰ فَإِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 74
(76) आख़िर क्यों उनसे पूछ न होगी? जो भी अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करेगा और बुराई से बचकर रहेगा वह अल्लाह का प्रिय बनेगा, क्योंकि परहेज़गार लोग अल्लाह को पसन्द है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَشۡتَرُونَ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ وَأَيۡمَٰنِهِمۡ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ لَا خَلَٰقَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيۡهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 75
(77) रहे वे लोग जो अल्लाह की प्रतिज्ञा और अपनी क़समों को थोड़े मूल्य पर बेच डालते हैं, तो उनके लिए परलोक में कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह क़ियामत के दिन न उनसे बात करेगा, न उनकी ओर देखेगा और न उन्हें पाक (शुद्ध) करेगा, बल्कि उनके लिए तो बड़ी दर्दनाक सज़ा है।
وَإِنَّ مِنۡهُمۡ لَفَرِيقٗا يَلۡوُۥنَ أَلۡسِنَتَهُم بِٱلۡكِتَٰبِ لِتَحۡسَبُوهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمَا هُوَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَمَا هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 76
(78) उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो किताब पढ़ते हुए इस प्रकार ज़बान का उलट-फेर करते हैं कि तुम समझो जो कुछ वे पढ़ रहे हैं वह किताब ही का अंश है, जबकि वह किताब का अंश नहीं होता। वे कहते हैं कि ये जो कुछ हम पढ़ रहे हैं यह अल्लाह की ओर से है, हालाँकि वह अल्लाह की ओर से नहीं होता, वे जान-बूझकर झूठ बात अल्लाह से जोड़ देते हैं।
مَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُؤۡتِيَهُ ٱللَّهُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَ ثُمَّ يَقُولَ لِلنَّاسِ كُونُواْ عِبَادٗا لِّي مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِن كُونُواْ رَبَّٰنِيِّـۧنَ بِمَا كُنتُمۡ تُعَلِّمُونَ ٱلۡكِتَٰبَ وَبِمَا كُنتُمۡ تَدۡرُسُونَ ۝ 77
(79) किसी इनसान का यह काम नहीं कि अल्लाह तो उसको किताब और निर्णय-शक्ति और पैग़म्बरी प्रदान करे और वह लोगों से कहे कि अल्लाह को छोड़कर तुम मेरे बन्दे बन जाओ। वह तो यही कहेगा कि सच्चे 'रब्बानी' (प्रभुसेवक) बनो जैसा कि उस किताब की शिक्षा का तक़ाज़ा है जिसे तुम पढ़ते और पढ़ाते हो।
وَلَا يَأۡمُرَكُمۡ أَن تَتَّخِذُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ أَرۡبَابًاۚ أَيَأۡمُرُكُم بِٱلۡكُفۡرِ بَعۡدَ إِذۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 78
(80) वह तुमसे हरगिज यह न कहेगा कि फ़रिश्तों को या पैग़म्बरों को अपना रब बना लो। क्या यह संभव है कि एक नबी तुम्हें कुफ़्र (अधर्म और इनकार) का आदेश दे जबकि तुम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो?
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ لَمَآ ءَاتَيۡتُكُم مِّن كِتَٰبٖ وَحِكۡمَةٖ ثُمَّ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مُّصَدِّقٞ لِّمَا مَعَكُمۡ لَتُؤۡمِنُنَّ بِهِۦ وَلَتَنصُرُنَّهُۥۚ قَالَ ءَأَقۡرَرۡتُمۡ وَأَخَذۡتُمۡ عَلَىٰ ذَٰلِكُمۡ إِصۡرِيۖ قَالُوٓاْ أَقۡرَرۡنَاۚ قَالَ فَٱشۡهَدُواْ وَأَنَا۠ مَعَكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 79
(81) याद करो, अल्लाह ने पैग़म्बरों से वचन लिया था कि “आज मैने तुम्हें किताब और गहरी समझ और बुद्धिमत्ता प्रदान की है, कल अगर कोई दूसरा रसूल तुम्हारे पास उसी शिक्षा की पुष्टि करता हुआ आए जो पहले से तुम्हारे पास मौजूद है, तो तुम्हें उसको मानना होगा और उसकी सहायता करनी होगी।21 यह कहकर अल्लाह ने पूछा, “क्या तुम इसका इक़रार करते हो और इसपर मेरी ओर से प्रतिज्ञा की भारी ज़िम्मेदारी उठाते हो?” उन्होंने कहा, “हाँ, हम इक़रार करते है।” अल्लाह ने कहा, “अच्छा तो गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाह हूँ,
21. अर्थात् हर पैग़म्बर से इस बात की प्रतिज्ञा कराई जाती रही है। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) से पहले हर नबी से यही प्रतिज्ञा कराई जाती रही है और इसी लिए हर नबी ने अपने समुदाय को बाद के आनेवाले नबी की सूचना दी है और उसका साथ देने की ताकीद की है। लेकिन न क़ुरआन में न हदीस में, कहीं भी इस बात का पता नहीं चलता कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) से कोई ऐसी प्रतिज्ञा कराई गई हो या आपने अपने समुदाय को किसी बाद के आनेवाले नबी की ख़बर देकर उसपर ईमान लाने का आदेश दिया हो। बल्कि क़ुरआन में स्पष्टतः नबी (सल्ल०) को “ख़ातमुन्नबीईन” (नबियों का समापक) कहा गया है (33 : 40), और बहुत-सी “हदीसों में नबी (सल्ल०) ने कहा है कि आपके बाद कोई नबी आनेवाला नहीं है।
فَمَن تَوَلَّىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 80
(82) इसके बाद जो अपनी प्रतिज्ञा से फिर जाए वही अवज्ञाकारी है।"
أَفَغَيۡرَ دِينِ ٱللَّهِ يَبۡغُونَ وَلَهُۥٓ أَسۡلَمَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ طَوۡعٗا وَكَرۡهٗا وَإِلَيۡهِ يُرۡجَعُونَ ۝ 81
(83) अब क्या ये लोग अल्लाह के आज्ञापालन का तरीक़ा (अल्लाह का दीन) छोड़कर कोई और तरीक़ा चाहते हैं, हालाँकि आकाशों और धरती की सारी चीज़़ें चाहे अनचाहे अल्लाह की आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं और उसी को ओर सबको पलटना है?
قُلۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 82
(84) ऐ नबी कहो कि “हम अल्लाह को मानते हैं, उस शिक्षा को मानते हैं जो हमपर उतारी गई है, उन शिक्षाओं को भी मानते हैं जो इबराहीम, इस्माईल, इसहाक़, याक़ूब और याक़ूब की सन्तान पर उतरी थीं, और उन आदेशों को भी मानते हैं जो मूसा और ईसा और दूसरे पैग़म्बरों को उनके रब की ओर से दी गई। हम उनके बीच अन्तर नहीं करते और हम अल्लाह के आज्ञाकारी (मुस्लिम) हैं।”
وَمَن يَبۡتَغِ غَيۡرَ ٱلۡإِسۡلَٰمِ دِينٗا فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡهُ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 83
(85) इस आज्ञापालन (इस्लाम) के सिवा जो व्यक्ति कोई और तरीक़ा अपनाना चाहे उसका वह तरीक़ा हरगिज़ स्वीकार न किया जाएगा और परलोक में वह असफल रहेगा।
كَيۡفَ يَهۡدِي ٱللَّهُ قَوۡمٗا كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ وَشَهِدُوٓاْ أَنَّ ٱلرَّسُولَ حَقّٞ وَجَآءَهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 84
(86) कैसे हो सकता है कि अल्लाह उन लोगों को मार्ग पर चलाए जिन्होंने ईमान (आस्था) जैसी नेमत पा लेने के बाद फिर कुफ़्र (अधर्म और इनकार) की नीति अपनाई हालाँकि वे ख़ुद इस बात पर गवाही दे चुके हैं कि यह रसूल सत्य पर है और उनके पास स्पष्ट निशानियाँ भी आ चुकी हैं। अल्लाह ज़ालिमों को तो मार्ग नहीं दिखाया करता।
سُورَةُ آلِ عِمۡرَانَ
3. सूरा आले-इमरान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम०
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُ ۝ 85
(2) अल्लाह, वह जीवन्त नित्य सत्ता, जो जगत-व्यवस्था को सँभाले हुए है, वास्तव में उसके सिवा कोई ईश प्रभु नहीं है।
كُلُّ ٱلطَّعَامِ كَانَ حِلّٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِلَّا مَا حَرَّمَ إِسۡرَٰٓءِيلُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ مِن قَبۡلِ أَن تُنَزَّلَ ٱلتَّوۡرَىٰةُۚ قُلۡ فَأۡتُواْ بِٱلتَّوۡرَىٰةِ فَٱتۡلُوهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 86
(93) खाने की ये सारी चीज़़ें (जो मुहम्मद के धर्मविधान में हलाल है) इसराईलियों के लिए भी हलाल (वैध) थीं23, अलबत्ता कुछ चीज़़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले इसराईल (हज़रत याक़ूब अलै०) ने स्वयं अपने लिए हराम (अवैध) कर लिया था उनसे कहो, अगर तुम (अपनी आपत्ति में) सच्चे हो तो लाओ तौरात और प्रस्तुत करो उसका कोई अंश
23. क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की शिक्षाओं पर जब यहूदियों के उलमा कोई सैद्धान्तिक आपत्ति न उठा सके (क्योंकि धर्म की आधारशिला जिन चीज़़ों पर है उनमें विगत नबियों और हज़रत मुहम्मद सल्ल० की शिक्षा में तनिक भी अन्तर न था तो उन्होंने फ़िक़ही (कर्मकाण्ड सम्बन्धी) चीज़़ों पर आपत्तियाँ करनी शुरू कीं। इस सिलसिले में उनकी पहली आपत्ति यह थी कि आपने खाने-पीने की कुछ ऐसी चीज़़ों को हलाल (वैध) ठहराया है जो पिछले नबियों के समय से हराम (अवैध) चली आ रही हैं। इसी आपत्ति का यहाँ उत्तर दिया जा रहा है। इसी प्रकार उनकी एक आपत्ति यह भी थी कि 'बैतुल-मक़दिस' को छोड़कर 'काबा' को क़िबला (उपासना-दिशा) क्यों बनाया गया। आगे की आयतें इसी आपत्ति के उत्तर में हैं।
فَمَنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 87
(94) — इसके बाद भी जो लोग अपनी झूठी गढ़ी हुई बातें अल्लाह से जोड़ते रहें वही वास्तव में अत्याचारी हैं।
قُلۡ صَدَقَ ٱللَّهُۗ فَٱتَّبِعُواْ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 88
(95) कहो, अल्लाह ने जो कुछ कहा है सच कहा है, तुमको एकाग्रचित्त होकर इबराहीम के तरीक़े का अनुपालन करना चाहिए, और इबराहीम मुशरिकों (बहुदेववादियों) में से न था।
إِنَّ أَوَّلَ بَيۡتٖ وُضِعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِي بِبَكَّةَ مُبَارَكٗا وَهُدٗى لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 89
(96) निस्संदेह सबसे पहला उपासनागृह (इबादतगाह) जो इनसानों के लिए निर्मित हुआ वह वही है जो मक्का में स्थित है। उसको भलाई और बरकत दी गई थी और सारे संसारवालों के लिए मार्गदर्शन-केन्द्र बनाया गया था।
فِيهِ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ مَّقَامُ إِبۡرَٰهِيمَۖ وَمَن دَخَلَهُۥ كَانَ ءَامِنٗاۗ وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ مَنِ ٱسۡتَطَاعَ إِلَيۡهِ سَبِيلٗاۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 90
(97) उसमें खुली निशानियाँ24 हैं, इबराहीम का उपासना- स्थल है, और उसका हाल यह है कि जिसने उसमें प्रवेश किया सुरक्षित हो गया। लोगों पर अल्लाह का यह हक़ है कि जिसको इस घर तक पहुँचने की सामर्थ्य प्राप्त हो वह इसका हज करे, और जो कोई इस आदेश के अनुपालन से इनकार करे तो उसे मालूम हो जाना चाहिए कि अल्लाह संसार के सारे लोगों से बेपरवाह (निरपेक्ष) है।
24. अर्थात् इस घर में स्पष्ट ऐसे लक्षण पाए जाते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि यह अल्लाह के यहाँ स्वीकृत हुआ है। और इसे अल्लाह ने अपने घर के रूप में पसन्द कर लिया है। चटियल मैदान में बनाया गया और फिर अल्लाह ने इसके निकटवर्ती इलाक़े में रहनेवालों को रोज़ी पहुँचाने का अच्छे से अच्छा प्रबन्ध कर दिया। ढाई हज़ार वर्ष तक अज्ञान के कारण सारा अरब अत्यन्त अशान्त दशा में ग्रस्त रहा, मगर इस बिगाड़ और फ़साद से भरे हुए भूभाग में काबा और काबा के आस-पास का क्षेत्र ही ऐसा था जिसमें शान्ति बनी रही। बल्कि इसी काबा की यह बरकत थी कि साल में चार महीने के लिए पूरे देश की शान्ति और निश्चिन्तता प्राप्त हो जाती थी। फिर अभी अर्ध शताब्दी पहले ही सब देख चुके थे कि अबरहा ने जब 'काबा' को ढाने के लिए मक्का पर आक्रमण किया तो उसकी सेना किस प्रकार ईश्वरीय प्रकोप का भाजन बनी। इस घटना से उस समय अरब का बच्चा-बच्चा परिचित था और इसके आँखों देखे गवाह इन आयतों के उतरने के समय मौजूद थे।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَٱللَّهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا تَعۡمَلُونَ ۝ 91
(98) कहो, ऐ किताबवालो, तुम क्यों अल्लाह की बातें मानने से इनकार करते हो? जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह सब देख रहा है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ تَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَأَنتُمۡ شُهَدَآءُۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 92
(99) कहो, ऐ किताबवालो, यह तुम्हारी क्या नीति है कि जो अल्लाह की बात मानता है उसे भी तुम अल्लाह के मार्ग से रोकते हो और चाहते हो कि वह टेढ़ी राह चले, जबकि तुम स्वयं (उसके सीधे मार्ग पर होने के) गवाह हो। तुम्हारी करतूतों से अल्लाह बेख़बर नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تُطِيعُواْ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ يَرُدُّوكُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 93
(100) ऐ ईमान लानेवालो, अगर तुमने इन किताबवालों में से एक गिरोह की बात मानी तो ये तुम्हें ईमान से फिर इनकार की ओर फेर ले जाएँगे
وَكَيۡفَ تَكۡفُرُونَ وَأَنتُمۡ تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ وَفِيكُمۡ رَسُولُهُۥۗ وَمَن يَعۡتَصِم بِٱللَّهِ فَقَدۡ هُدِيَ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 94
(101) तुम्हारे लिए अधर्म की ओर जाने का अब क्या अवसर बाक़ी है जबकि तुमको अल्लाह की आयतें सुनाई जा रही हैं और तुम्हारे बीच उसका रसूल मौजूद है? जो अल्लाह का दामन मज़बूती के साथ थामेगा वह अवश्य ही सीधा मार्ग पा लेगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ حَقَّ تُقَاتِهِۦ وَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 95
(102) ऐ ईमान लानेवालो, अल्लाह से डरो जैसा कि उससे डरने का हक़ है। तुमको मौत न आए किन्तु इस हाल में कि तुम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हो।
وَٱعۡتَصِمُواْ بِحَبۡلِ ٱللَّهِ جَمِيعٗا وَلَا تَفَرَّقُواْۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ كُنتُمۡ أَعۡدَآءٗ فَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِكُمۡ فَأَصۡبَحۡتُم بِنِعۡمَتِهِۦٓ إِخۡوَٰنٗا وَكُنتُمۡ عَلَىٰ شَفَا حُفۡرَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ فَأَنقَذَكُم مِّنۡهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 96
(103) सब मिलकर अल्लाह की रस्सी25 को मज़बूती से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो। अल्लाह के उस एहसान को याद रखो जो उसकी ओर से तुमपर हुआ है। तुम एक-दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे दिल जोड़ दिए और उसके अनुग्रह एवं कृपा से तुम भाई-भाई बन गए। तुम आग से भरे हुए एक गढ़े के किनारे खड़े थे, अल्लाह ने तुमको उससे बचा लिया। इस प्रकार अल्लाह अपनी निशानियाँ तुम्हारे सामने स्पष्ट करता है शायद कि इन लक्षणों से तुम्हें अपने कल्याण का सीधा मार्ग दिखाई दे जाए।
25. अल्लाह की रस्सी से मुराद उसका धर्म है, और इसको रस्सी की संज्ञा इसलिए दी गई है कि यही वह सूत्र है जो एक ओर ईमानवालों का सम्बन्ध अल्लाह से जोड़ता है और दूसरी ओर तमाम ईमानवालों को परस्पर मिलाकर एक जमाअत बनाता है।
وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٞ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 97
(104) तुममें कुछ लोग तो ऐसे अवश्य ही रहने चाहिएँ जो नेकी की ओर बुलाएँ, भलाई का आदेश दें, और बुराइयों से रोकते रहें। जो लोग ये काम करेंगे वही सफल होंगे।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ تَفَرَّقُواْ وَٱخۡتَلَفُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 98
(105) कहीं तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो गिरोहों में बँट गए और खुले-खुले स्पष्ट मार्गदर्शन पाने के बाद फिर विभेदों में पड़ गए। जिन्होंने यह नीति अपनाई वे उस दिन सख़्त सज़ा पाएँगे
يَوۡمَ تَبۡيَضُّ وُجُوهٞ وَتَسۡوَدُّ وُجُوهٞۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱسۡوَدَّتۡ وُجُوهُهُمۡ أَكَفَرۡتُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 99
(106) जबकि कुछ लोग उज्ज्वल चेहरेवाले होंगे और कुछ लोगों का मुँह काला होगा, जिनका मुँह काला होगा, (उनसे कहा जाएगा कि) ईमान की नेमत पाने के बाद भी तुमने अधर्म की नीति अपनाई? अच्छा तो अब इस अकृतज्ञता के बदले में यातना (अज़ाब) का मज़ा चखो।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱبۡيَضَّتۡ وُجُوهُهُمۡ فَفِي رَحۡمَةِ ٱللَّهِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 100
(107) रहे वे लोग जिनके चेहरे उज्ज्वल होंगे, तो उनको अल्लाह की दयालुता की छाया में जगह मिलेगी और हमेशा वे इसी दशा में रहेंगे।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۗ وَمَا ٱللَّهُ يُرِيدُ ظُلۡمٗا لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 101
(108) ये अल्लाह के कथन हैं जो हम तुम्हें ठीक-ठीक सुना रहे हैं, क्योंकि अल्लाह संसारवालों पर ज़ुल्म करने का कोई इरादा नहीं रखता।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 102
(109) धरती और आकाश की सारी चीज़़ों का मालिक अल्लाह है और सारे मामले अल्लाह ही के सामने पेश होते हैं।
كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِۗ وَلَوۡ ءَامَنَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۚ مِّنۡهُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 103
(110) अब संसार में वह उत्तम गिरोह तुम हो जिसे इनसानों के मार्गदर्शन और सुधार के लिए मैदान में लाया गया है। तुम नेकी का आदेश देते हो, बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो। ये किताबवाले26 ईमान लाते तो इन्हीं के हक़ में अच्छा था। यद्यपि इनमें कुछ लोग ईमानवाले भी पाए जाते हैं किन्तु इनके अधिकतर व्यक्ति अवज्ञाकारी हैं।
26. यहाँ किताबवालों से मुराद यहूदी हैं।
لَن يَضُرُّوكُمۡ إِلَّآ أَذٗىۖ وَإِن يُقَٰتِلُوكُمۡ يُوَلُّوكُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 104
(111) ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, ज़्यादा से ज़्यादा बस कुछ सता सकते हैं। अगर ये तुमसे लड़ें तो मुक़ाबले में पीठ दिखाएँगे फिर ऐसे विवश होंगे कि कहीं से इनको मदद न मिलेगी।
ضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ أَيۡنَ مَا ثُقِفُوٓاْ إِلَّا بِحَبۡلٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَحَبۡلٖ مِّنَ ٱلنَّاسِ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَسۡكَنَةُۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 105
(112) वे जहाँ भी पाए गए इनपर अपमान की मार ही पड़ी, कहीं अल्लाह के ज़िम्मे या इनसानों के ज़िम्मे में शरण मिल गई तो यह और बात है।27 ये अल्लाह के प्रकोप में घिर चुके हैं, इनपर मुहताजी और पराजय थोप दो गई है, और यह सब कुछ इस कारण से हुआ है कि ये अल्लाह की आयतों का इनकार करते रहे और इन्होंने पैग़म्बरों की अकारण हत्या की यह इनकी अवज्ञाओं और ज़्यादतियों का अंजाम है।
27. अर्थात् संसार में अगर कहीं उनको थोड़ा-बहुत अमन और चैन प्राप्त हुआ भी है तो वह उनके अपने बलबूते पर स्थापित किया हुआ अमन-चैन नहीं है, बल्कि दूसरों की तरफ़दारी और कृपा का परिणाम है। कहीं किसी मुस्लिम हुकूमत ने उनको अल्लाह के नाम पर शरण दे दी और कहीं किसी ग़ैर-मुस्लिम हुकूमत ने अपने तौर पर उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया। इसी तरह प्रायः उन्हें संसार में कहीं ज़ोर पकड़ने का मौक़ा भी मिल गया है, लेकिन वह भी अपने बाहुबल से नहीं, बल्कि केवल किसी पड़ोसी के बल पर। यही हैसियत उस यहूदी रियासत की है जो इसराईल के नाम से केवल अमेरिका, ब्रिटेन और रूस की सहायता से स्थापित हुई।
۞لَيۡسُواْ سَوَآءٗۗ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ أُمَّةٞ قَآئِمَةٞ يَتۡلُونَ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ ءَانَآءَ ٱلَّيۡلِ وَهُمۡ يَسۡجُدُونَ ۝ 106
(113) किन्तु सभी किताब वाले समान नहीं है। उनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सीधे रास्ते पर क़ायम हैं, रातों को अल्लाह की आयतें पढ़ते हैं और उसके आगे सजदा करते हैं,
يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 107
(114) अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं, नेकी का आदेश देते हैं, बुराइयों से रोकते हैं और भलाई के कामों में सरगर्म रहते हैं। ये नेक लोग है,
وَمَا يَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَلَن يُكۡفَرُوهُۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 108
(115) और जो नेकी भी ये करेंगे उसकी उपेक्षा (नाक़द्री) न की जाएगी, अल्लाह परहेज़गारों से भली-भाँति परिचित है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 109
(116) रहे वे लोग जिन्होंने इनकार की नीति अपनाई तो अल्लाह के मुक़ाबले में उनको न उनका धन कुछ काम देगा न सन्तान, वे तो आग में जानेवाले लोग है और आग ही में हमेशा रहेंगे।
مَثَلُ مَا يُنفِقُونَ فِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَثَلِ رِيحٖ فِيهَا صِرٌّ أَصَابَتۡ حَرۡثَ قَوۡمٖ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَأَهۡلَكَتۡهُۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِنۡ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 110
(117) जो कुछ वे अपने इस सांसारिक जीवन में ख़र्च करते रहे हैं उसकी मिसाल उस हवा जैसी है जिसमें पाला हो और वह उन लोगों की खेती पर चले जिन्होंने अपने ऊपर स्वयं अत्याचार किया है और उसे तबाह करके रख दे। अल्लाह ने उनपर अत्याचार नहीं किया, वास्तव में ये स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ بِطَانَةٗ مِّن دُونِكُمۡ لَا يَأۡلُونَكُمۡ خَبَالٗا وَدُّواْ مَا عَنِتُّمۡ قَدۡ بَدَتِ ٱلۡبَغۡضَآءُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَمَا تُخۡفِي صُدُورُهُمۡ أَكۡبَرُۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 111
(118) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपने दल के लोगों के सिवा दूसरों को अपना भेदी न बनाओ। वे तुम्हारी ख़राबी के किसी अवसर से लाभ उठाने से नहीं चूकते। तुम्हें जिस चीज़ से हानि पहुँचे वही उनको प्रिय है। उनके मन का द्वेष उनके मुँह से निकला पड़ता है और जो कुछ वे अपने सीनों में छिपाए हुए हैं वह इससे बढ़कर है। हमने तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायतें दे दी हैं, अगर तुम बुद्धिमान हो (तो उनसे सम्बन्ध रखने में सावधानी बरतोगे)।
هَٰٓأَنتُمۡ أُوْلَآءِ تُحِبُّونَهُمۡ وَلَا يُحِبُّونَكُمۡ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ كُلِّهِۦ وَإِذَا لَقُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ عَضُّواْ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَنَامِلَ مِنَ ٱلۡغَيۡظِۚ قُلۡ مُوتُواْ بِغَيۡظِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 112
(119) तुम उनसे प्रेम करते हो किन्तु वे तुमसे प्रेम नहीं करते हालाँकि तुम समस्त आसमानी किताबों को मानते हो। जब वे तुमसे मिलते हैं तो कहते हैं कि हमने भी (तुम्हारे रसूल और तुम्हारी किताब को) मान लिया है, किन्तु जब अलग होते हैं तो तुम्हारे विरुद्ध उनके क्रोध एवं प्रकोप का यह हाल होता है कि अपनी उँगलियाँ चबाने लगते है — उनसे कह दो कि अपने क्रोध में आप जल मरो, अल्लाह दिलों के छिपे हुए भेद तक जानता है
إِن تَمۡسَسۡكُمۡ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡ وَإِن تُصِبۡكُمۡ سَيِّئَةٞ يَفۡرَحُواْ بِهَاۖ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ لَا يَضُرُّكُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـًٔاۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 113
(120)—तुम्हारा भला होता है तो उनको बुरा मालूम होता है, और तुमपर कोई मुसीबत आती है तो ये प्रसन्न होते हैं। किन्तु उनका कोई उपाय तुम्हारे विरुद्ध सफल नहीं हो सकता शर्त यह है कि तुम धैर्य से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो। जो कुछ ये कर रहे है अल्लाह उसपर हावी (व्याप्त) है।
وَإِذۡ غَدَوۡتَ مِنۡ أَهۡلِكَ تُبَوِّئُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مَقَٰعِدَ لِلۡقِتَالِۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 114
(121) (ऐ पैग़म्बर मुसलमानों के सामने उस अवसर की चर्चा करो) जब तुम सुबह सवेरे अपने घर से निकले थे और (उहुद के मैदान में) मुसलमानों को जंग के लिए जगह-जगह नियुक्त कर रहे थे। अल्लाह सारी बातें सुनता है और वह बहुत ही ख़बर रखनेवाला है।
إِذۡ هَمَّت طَّآئِفَتَانِ مِنكُمۡ أَن تَفۡشَلَا وَٱللَّهُ وَلِيُّهُمَاۗ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 115
(122) याद करो जब तुममें से दो गिरोह कायरता दिखाने पर आमादा हो गए थे, हालाँकि अल्लाह उनकी मदद पर मौजूद था और ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।
وَلَقَدۡ نَصَرَكُمُ ٱللَّهُ بِبَدۡرٖ وَأَنتُمۡ أَذِلَّةٞۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 116
(123) आख़िर इससे पहले बद्र की लड़ाई में अल्लाह तुम्हारी मदद कर चुका था हालाँकि उस समय तुम बहुत कमज़ोर थे। अतः तुमको चाहिए कि अल्लाह की अकृतज्ञता (नाशुक्री) से बचो, उम्मीद है कि अब तुम कृतज्ञ (शुक्रगुज़ार) बनोगे।
إِذۡ تَقُولُ لِلۡمُؤۡمِنِينَ أَلَن يَكۡفِيَكُمۡ أَن يُمِدَّكُمۡ رَبُّكُم بِثَلَٰثَةِ ءَالَٰفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُنزَلِينَ ۝ 117
(124) ऐ नबी, याद करो जब तुम ईमानवालों से कह रह थे, 'क्या तुम्हारे लिए यह बात काफ़ी नहीं कि अल्लाह तीन हज़ार फ़रिश्ते उतारकर तुम्हारी सहायता करे?”
بَلَىٰٓۚ إِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ وَيَأۡتُوكُم مِّن فَوۡرِهِمۡ هَٰذَا يُمۡدِدۡكُمۡ رَبُّكُم بِخَمۡسَةِ ءَالَٰفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُسَوِّمِينَ ۝ 118
(125) — निस्संदेह, अगर तुम धैर्य से काम लो और अल्लाह से डरते हुए काम करो तो जिस क्षण शत्रु तुम्हारे ऊपर चढ़कर आएँगे उसी क्षण तुम्हारा रब (तीन हज़ार नहीं) पाँच हज़ार निशानवाले फ़रिश्तों से तुम्हारी सहायता करेगा।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ لَكُمۡ وَلِتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُكُم بِهِۦۗ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 119
(126) यह बात अल्लाह ने तुम्हें इसलिए बता दी है कि तुम प्रसन्न हो जाओ और तुम्हारे दिल सन्तुष्ट हो जाएँ। विजय और सहायता जो कुछ भी है अल्लाह की ओर से है जो बड़ी शक्तिवाला और सूझ-बूझवाला है।
لِيَقۡطَعَ طَرَفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَوۡ يَكۡبِتَهُمۡ فَيَنقَلِبُواْ خَآئِبِينَ ۝ 120
(127) (और यह सहायता वह तुम्हारी इसलिए करेगा) ताकि कुफ़्र (इनकार) की राह पर चलनेवालों की एक भुजा काट दे, या उनको ऐसी अपमानजनक पराजय दे कि वे असफलता के साथ परास्त हो जाएँ।
لَيۡسَ لَكَ مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٌ أَوۡ يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡ أَوۡ يُعَذِّبَهُمۡ فَإِنَّهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 121
(128) (ऐ पैग़म्बर) निर्णय के अधिकारों में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह को अधिकार है चाहे उन्हें माफ़ करे, चाहे सज़ा दे क्योंकि वे अत्याचारी हैं।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 122
(129) धरती और आकाशों में जो कुछ है उसका मालिक अल्लाह है, जिसको चाहे माफ़ कर दे और जिसको चाहे यातना दे, वह क्षमाशील और दयावान28 है।
28. उहुद की लड़ाई में जब नबी (सल्ल०) घायल हुए तो आपके मुख से अधर्मियों के लिए बद्दुआ के शब्द निकल गए और आपने कहा कि “वह क़ौम कैसे सफल हो सकती है जो अपने नबी को ज़ख्मी करे।” ये आयतें इसी के बारे में उतरी हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُواْ ٱلرِّبَوٰٓاْ أَضۡعَٰفٗا مُّضَٰعَفَةٗۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 123
(130) ऐ ईमान लानेवालो, यह बढ़ता और चढ़ता ब्याज खाना छोड़ दो और अल्लाह से डरो, आशा है कि सफल होगे।
وَٱتَّقُواْ ٱلنَّارَ ٱلَّتِيٓ أُعِدَّتۡ لِلۡكَٰفِرِينَ ۝ 124
(131) उस आग से बचो जो अधर्मियों के लिए जुटाई गई है,
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 125
(132) अल्लाह और रसूल का आदेश मानो, आशा है कि तुमपर दया की जाएगी।
۞وَسَارِعُوٓاْ إِلَىٰ مَغۡفِرَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ وَجَنَّةٍ عَرۡضُهَا ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ أُعِدَّتۡ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 126
(133) दौड़कर चलो उस मार्ग पर जो तुम्हारे रब की बख़शिश (क्षमादान) और उस जन्नत (स्वर्ग) की ओर जाता है जिसका विस्तार धरती और आकाशों जैसा है, और वह ईश्वर से उन डरनेवाले लोगों के लिए तैयार की गई है
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ فِي ٱلسَّرَّآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَٱلۡكَٰظِمِينَ ٱلۡغَيۡظَ وَٱلۡعَافِينَ عَنِ ٱلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 127
(134) जो प्रत्येक दशा में अपने माल ख़र्च करते हैं चाहे बुरे हाल में हों या अच्छे हाल में, जो ग़ुस्से को पी जाते हैं और दूसरों के क़ुसूर को माफ़ कर देते हैं—ऐसे नेक लोग अल्लाह को बहुत प्रिय हैं
وَٱلَّذِينَ إِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةً أَوۡ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ ذَكَرُواْ ٱللَّهَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ لِذُنُوبِهِمۡ وَمَن يَغۡفِرُ ٱلذُّنُوبَ إِلَّا ٱللَّهُ وَلَمۡ يُصِرُّواْ عَلَىٰ مَا فَعَلُواْ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 128
(135) — और जिनका हाल यह है कि यदि कभी कोई अश्लील कार्य उनसे हो जाता है या किसी गुनाह में पड़कर वे अपने ऊपर ज़ुल्म कर बैठते हैं तो तत्काल अल्लाह उन्हें याद आ जाता है और उससे वे अपने क़ुसूरों की क्षमा चाहते हैं — क्योंकि अल्लाह के सिवा और कौन है जो गुनाह माफ़ कर सकता हो —और वे कभी जानते-बूझते अपने किए पर आग्रह नहीं करते।
أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُم مَّغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَجَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَنِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 129
(136) ऐसे लोगों का बदला उनके रब के पास यह है कि वह उनको माफ़ कर देगा और ऐसे बाग़ों में उन्हें दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वहाँ वे हमेशा रहेंगे। कैसा अच्छा बदला है अच्छे कर्म करनेवालों के लिए!
قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِكُمۡ سُنَنٞ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 130
(137) तुमसे पहले बहुत-से युग बीत चुके है, धरती में चल-फिर कर देख लो कि उन लोगों का क्या अंजाम हुआ जिन्होंने (अल्लाह के आदेशों को) झुठलाया।
هَٰذَا بَيَانٞ لِّلنَّاسِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٞ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 131
(138) यह लोगों के लिए एक स्पष्ट और खुली चेतावनी है और जो अल्लाह से डरते हों उनके लिए मार्गदर्शन और उपदेश।
وَلَا تَهِنُواْ وَلَا تَحۡزَنُواْ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 132
(139) हताश न हो, दुखी न हो, तुम ही छाकर रहोगे अगर तुम ईमानवाले हो।
إِن يَمۡسَسۡكُمۡ قَرۡحٞ فَقَدۡ مَسَّ ٱلۡقَوۡمَ قَرۡحٞ مِّثۡلُهُۥۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيۡنَ ٱلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَتَّخِذَ مِنكُمۡ شُهَدَآءَۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 133
(140) इस समय अगर तुम्हें चोट लगी है तो इससे पहले ऐसी ही चोट तुम्हारे विरोधी वर्ग को भी लग चुकी है।29 ये तो समय के उतार-चढ़ाव है जिन्हें हम लोगों के बीच गर्दिश देते रहते हैं। तुमपर यह समय इसलिए लाया गया कि अल्लाह देखना चाहता था कि तुममें सच्चे ईमानवाले कौन हैं, और उन लोगों को छाँट लेना चाहता था जो वास्तव में (सच्चाई के) गवाह हों30 – क्योंकि अत्याचारी अल्लाह को प्रिय नहीं
29. संकेत है बद्र की लड़ाई की ओर। और कहने का मतलब यह है कि जब उस चोट को खाकर अधर्मियों ने साहस न छोड़ा तो उहुद की लड़ाई में यह चोट खाकर तुम क्यों हताश हो?
30. मूल शब्द है “व यत्तख़ि-ज़ मिनकुम शुहदा-अ” इसका एक अर्थ तो यह है कि तुममें से कुछ शहीद लेना चाहता था, अर्थात् कुछ लोगों को शहादत (वीरगति) का श्रेय प्रदान करना चाहता था और दूसरा अर्थ यह है। कि ईमानवालों और मुनाफ़िक़ों के उस मिले-जुले गिरोह में से, जिस रूप में तुम इस समय हो, उन लोगों को अलग छाँट लेना चाहता था जो वास्तव में “शुहदा-अ अलन्नास” (लोगों पर गवाह) हैं, अर्थात् उस प्रतिष्ठित पद के योग्य है जिसपर हमने मुस्लिम समुदाय को आसीन होने की प्रतिष्ठा प्रदान की है।
وَلِيُمَحِّصَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَمۡحَقَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 134
(141) — और वह इस परीक्षा के द्वारा ईमानवालों को अलग छाँटकर इनकार करनेवालों का दमन कर देना चाहता था।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَعۡلَمِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ مِنكُمۡ وَيَعۡلَمَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 135
(142) क्या तुमने यह समझ रखा है कि यों ही जन्नत में चले जाओगे हालाँकि अभी अल्लाह ने यह तो देखा ही नहीं कि तुममें कौन वे लोग हैं जो उसके मार्ग में जाने लड़ानेवाले और उसके लिए धैर्य से काम लेनेवाले हैं।
وَلَقَدۡ كُنتُمۡ تَمَنَّوۡنَ ٱلۡمَوۡتَ مِن قَبۡلِ أَن تَلۡقَوۡهُ فَقَدۡ رَأَيۡتُمُوهُ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 136
(143) तुम तो मौत की तमन्नाएँ कर रहे थे। मगर यह उस समय की बात थी जब मौत सामने न आई थी, लो अब वह तुम्हारे सामने आ गई और तुमने उसे आँखों से देख लिया।
وَمَا مُحَمَّدٌ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُۚ أَفَإِيْن مَّاتَ أَوۡ قُتِلَ ٱنقَلَبۡتُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡۚ وَمَن يَنقَلِبۡ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ فَلَن يَضُرَّ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ وَسَيَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 137
(144) मुहम्मद इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल है उनसे पहले और रसूल भी गुज़र चुके हैं, फिर क्या अगर उनकी मृत्यु हो जाए या उनकी हत्या कर दी जाए तो तुम लोग उलटे पाँव फिर जाओगे? याद रखो! जो उलटा फिरेगा वह अल्लाह का कुछ नुक़सान न करेगा, अलबत्ता जो अल्लाह के शुक्रगुज़ार बन्दे बनकर रहेंगे उन्हें वह इसकी मज़दूरी देगा।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تَمُوتَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِ كِتَٰبٗا مُّؤَجَّلٗاۗ وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلۡأٓخِرَةِ نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَاۚ وَسَنَجۡزِي ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 138
(145) कोई प्राणी अल्लाह की अनुमति के बिना नहीं मर सकता। मौत का समय तो लिखा हुआ है, जो व्यक्ति दुनिया में बदला पाने के इरादे से कार्य करेगा उसको हम दुनिया ही में से देंगे और जो आख़िरत के बदले के इरादे से कार्य करेगा वह आख़िरत का बदला पाएगा और शुक्र करनेवालों को हम उनका बदला अवश्य प्रदान करेंगे।
وَكَأَيِّن مِّن نَّبِيّٖ قَٰتَلَ مَعَهُۥ رِبِّيُّونَ كَثِيرٞ فَمَا وَهَنُواْ لِمَآ أَصَابَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا ٱسۡتَكَانُواْۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 139
(146) इससे पहले कितने ही नबी ऐसे हुए है जिसके साथ मिलकर बहुत-से ख़ुदापरस्तों ने युद्ध किया। अल्लाह के मार्ग में जो मुसीबतें उनपर पड़ीं उनसे वे हताश नहीं हुए, उन्होंने कमज़ोरी नहीं दिखाई, वे (असत्य के आगे नतमस्तक नहीं हुए। ऐसे ही धैर्यवानों को अल्लाह पसन्द करता है।
وَمَا كَانَ قَوۡلَهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَإِسۡرَافَنَا فِيٓ أَمۡرِنَا وَثَبِّتۡ أَقۡدَامَنَا وَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 140
(147) उनकी प्रार्थना बस यह थी कि “ऐ हमारे रब हमारी ग़लतियों और कोताहियों को क्षमा कर हमारे कार्य में तेरी सीमाओं से जो ज़्यादती हो गई हो उसे क्षमा कर दे हमारे क़दम जमा दे और अधर्मियों के मुक़ाबले में हमारी सहायता कर।”
فَـَٔاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا وَحُسۡنَ ثَوَابِ ٱلۡأٓخِرَةِۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 141
(148) आख़िरकार अल्लाह ने उनको इस दुनिया का बदला भी दिया और इससे उत्तम आख़िरत का बदला भी प्रदान किया। अल्लाह को ऐसे ही सत्कर्मी पसन्द हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تُطِيعُواْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَرُدُّوكُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 142
(149) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम उन लोगों के इशारों पर चलोगे जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) का मार्ग अपनाया है तो वे तुमको उलटा फेर ले जाएँगे और तुम असफल हो जाओगे।
بَلِ ٱللَّهُ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلنَّٰصِرِينَ ۝ 143
(150) (उनकी बातें असत्य है) वास्तविकता यह है कि अल्लाह तुम्हारा समर्थक और सहायक है। और वह सबसे अच्छा सहायक है।
سَنُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ بِمَآ أَشۡرَكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗاۖ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 144
(151) जल्द ही वह समय आनेवाला है जब हम सत्य का इनकार करनेवालों के दिलों में धाक बिठा देंगे, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह के साथ उनको ख़ुदाई में साझी ठहराया है जिनके साझी होने पर अल्लाह ने कोई सनद (प्रमाण) नहीं उतारी। उनका अन्तिम ठिकाना जहन्नम है और बहुत ही बुरी है वह ठहरने की जगह जो उन अत्याचारियों को मिलेगी।
وَلَقَدۡ صَدَقَكُمُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥٓ إِذۡ تَحُسُّونَهُم بِإِذۡنِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا فَشِلۡتُمۡ وَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَعَصَيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَآ أَرَىٰكُم مَّا تُحِبُّونَۚ مِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلدُّنۡيَا وَمِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۚ ثُمَّ صَرَفَكُمۡ عَنۡهُمۡ لِيَبۡتَلِيَكُمۡۖ وَلَقَدۡ عَفَا عَنكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 145
(152) अल्लाह ने (समर्थन और सहायता का) जो वादा तुमसे किया था वह तो उसने पूरा कर दिया। आरंभ में उसकी अनुमति से तुम ही उनको क़त्ल कर रहे थे। किन्तु जब तुमने कमज़ोरी दिखाई और अपने काम में परस्पर विभेद किया, और जैसे ही वह चीज़़ अल्लाह ने तुम्हें दिखाई, जिसके मोह में तुम गिरफ़्तार थे (अर्थात् युद्ध-क्षेत्र में प्राप्त शत्रु का माल) तुम अपने नायक के आदेश का उल्लंघन कर बैठे — इसलिए कि तुममें कुछ लोग दुनिया के इच्छुक थे और कुछ आख़िरत की इच्छा रखते थे — तब अल्लाह ने तुम्हें अधर्मियों के मुक़ाबले में परास्त कर दिया ताकि तुम्हारी परीक्षा करे। और सत्य यह है कि अल्लाह ने फिर भी तुम्हें क्षमा ही कर दिया क्योंकि ईमानवालों पर अल्लाह की बड़ी कृपा-दृष्टि है।
۞إِذۡ تُصۡعِدُونَ وَلَا تَلۡوُۥنَ عَلَىٰٓ أَحَدٖ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ فِيٓ أُخۡرَىٰكُمۡ فَأَثَٰبَكُمۡ غَمَّۢا بِغَمّٖ لِّكَيۡلَا تَحۡزَنُواْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا مَآ أَصَٰبَكُمۡۗ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 146
(153) याद करो जब तुम भागे चले जा रहे थे, किसी की ओर पलटकर देखने तक का होश तुम्हें न था, और रसूल तुम्हारे पीछे तुमको पुकार रहा था।31 उस समय तुम्हारी इस नीति का बदला अल्लाह ने तुम्हें यह दिया कि तुमको रंज पर रंज दिए ताकि आगे के लिए तुम्हें यह शिक्षा मिले कि जो कुछ तुम्हारे हाथ से जाए या जो मुसीबत तुमपर उतरे उसपर शोकाकुल न हो। अल्लाह तुम्हारे सब कर्मों को जानता है।
31. उहुद की लड़ाई में जब मुसलमानों पर अचानक दो तरफ़ से एक साथ हमला हुआ और उनकी पंक्तियाँ अस्त-व्यस्त हो गईं तो कुछ लोग मदीना की ओर भाग निकले और कुछ उहुद पर्वत पर चढ़ गए, मगर नबी (सल्ल०) एक इंच अपनी जगह से न हटे। दुश्मनों की चारों ओर भीड़ थी, दस-बारह आदमियों की मुट्ठी भर जमाअत पास रह गई थी, मगर अल्लाह के रसूल इस नाज़ुक मौक़े पर भी पहाड़ की तरह अपनी जगह जमे हुए थे और भागनेवालों को पुकार रहे थे “इलै-य इबादल्लाह, इलै-य इबादल्लाह", “अल्लाह के बन्दो मेरी तरफ़ आओ, अल्लाह के बन्दो मेरी तरफ़ आओ।"
ثُمَّ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنۢ بَعۡدِ ٱلۡغَمِّ أَمَنَةٗ نُّعَاسٗا يَغۡشَىٰ طَآئِفَةٗ مِّنكُمۡۖ وَطَآئِفَةٞ قَدۡ أَهَمَّتۡهُمۡ أَنفُسُهُمۡ يَظُنُّونَ بِٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ ظَنَّ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِۖ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ مِن شَيۡءٖۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَمۡرَ كُلَّهُۥ لِلَّهِۗ يُخۡفُونَ فِيٓ أَنفُسِهِم مَّا لَا يُبۡدُونَ لَكَۖ يَقُولُونَ لَوۡ كَانَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٞ مَّا قُتِلۡنَا هَٰهُنَاۗ قُل لَّوۡ كُنتُمۡ فِي بُيُوتِكُمۡ لَبَرَزَ ٱلَّذِينَ كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَتۡلُ إِلَىٰ مَضَاجِعِهِمۡۖ وَلِيَبۡتَلِيَ ٱللَّهُ مَا فِي صُدُورِكُمۡ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 147
(154) इस ग़म के बाद फिर अल्लाह ने तुममें से कुछ लोगों पर ऐसी इतमीनान की-सी हालत पैदा कर दी कि वे ऊँघने लगे।32 मगर एक दूसरा गिरोह, जिसके लिए सारा महत्त्व बस अपने हित का था, अल्लाह के बारे में तरह-तरह के अज्ञानपूर्ण गुमान करने लगा जो बिलकुल सत्य के विपरीत थे। ये लोग अब कहते हैं कि “इस काम के चलाने में हमारा भी कोई हिस्सा है?” इनसे कहो, “(किसी का कोई हिस्सा नहीं) इस काम के सारे अधिकार अल्लाह के हाथ में हैं।” वास्तव में ये लोग अपने दिलों में जो बात छिपाए हुए हैं उसे तुमपर ज़ाहिर नहीं करते उनका असल मक़सद यह है कि “अगर (नेतृत्व के अधिकार में हमारा कुछ हिस्सा होता तो यहाँ हम मारे न जाते।” इनसे कह दो कि “अगर तुम अपने घरों में भी होते तो जिन लोगों की मौत लिखी हुई थी वे ख़ुद अपने मारे जाने की जगहों की ओर निकल आते।” और यह मामला जो पेश आया, यह तो इसलिए था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में छिपा हुआ है अल्लाह उसे जाँच ले और जो खोट तुम्हारे दिलों में है उसे छाँट दे, अल्लाह दिलों का हाल भली-भाँति जानता है।
32. यह एक विचित्र अनुभव था जो उस समय इस्लामी सेना के कुछ लोगों को हुआ। हज़रत अबू-तलहा (रज़ि०) जो इस लड़ाई में शरीक थे ख़ुद बयान करते हैं कि इस हालत में हमपर ऊँघ ऐसी छाई जा रही थी कि तलवारें हाथ से छूटी पड़ती थीं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَلَّوۡاْ مِنكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِ إِنَّمَا ٱسۡتَزَلَّهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ بِبَعۡضِ مَا كَسَبُواْۖ وَلَقَدۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 148
(155) तुममें से जो लोग मुक़ाबले के दिन पीठ फेर गए थे उनके इस फिसलने का कारण यह था कि उनकी कुछ कमज़ोरियों के कारण शैतान ने उनके क़दम डगमगा दिए थे। अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया, अल्लाह बड़ा क्षमा करनेवाला और सहनशील है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَقَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ إِذَا ضَرَبُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ كَانُواْ غُزّٗى لَّوۡ كَانُواْ عِندَنَا مَا مَاتُواْ وَمَا قُتِلُواْ لِيَجۡعَلَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ حَسۡرَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 149
(156) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अधर्मियों की-सी बातें न करो जिनके सगे-सम्बन्धी अगर कभी सफ़र पर जाते हैं या युद्ध में सम्मिलित होते हैं (और वहाँ किसी घटना में घिर जाते हैं) तो वे कहते है कि यदि वे हमारे पास होते तो न मारे जाते और न क़त्ल होते। अल्लाह इस प्रकार की बातों को उनके दिलों में पछतावा और सन्ताप का कारण बना देता है, अन्यथा वास्तव में मारने और जिलानेवाला तो अल्लाह ही है और तुम्हारे सभी कर्मों को वही देखता है।
وَلَئِن قُتِلۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوۡ مُتُّمۡ لَمَغۡفِرَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَحۡمَةٌ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 150
(157) अगर तुम अल्लाह के मार्ग में मारे जाओ या मर जाओ तो अल्लाह की जो दयालुता और क्षमादान तुम्हारे हिस्से में आएगा वह उन सारी चीज़़ों से उत्तम है जिन्हें ये लोग इकट्ठा कर रहे हैं।
وَلَئِن مُّتُّمۡ أَوۡ قُتِلۡتُمۡ لَإِلَى ٱللَّهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 151
(158) और चाहे तुम मरो या मारे जाओ प्रत्येक दशा में तुम सबको सिमटकर जाना अल्लाह ही की ओर है।
فَبِمَا رَحۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ وَشَاوِرۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِۖ فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَوَكِّلِينَ ۝ 152
(159) (ऐ पैग़म्बर) यह अल्लाह की बड़ी दयालुता है कि तुम इन लोगों के लिए बहुत नर्म स्वभाव के हो। अन्यथा यदि कहीं तुम क्रूर स्वभाव और कठोर हृदय के होते तो ये सब तुम्हारे आस-पास से छंट जाते। इनके क़ुसूर माफ़ कर दो, इनके लिए मग़फ़िरत की दुआ करो और धर्म के कार्य में इनको भी परामर्श में सम्मिलित रखो, फिर जब तुम्हारा संकल्प किसी सम्मति पर सुदृढ़ हो जाए तो अल्लाह पर भरोसा करो, अल्लाह को वे लोग प्रिय हैं जो उसी के भरोसे पर काम करते हैं।
إِن يَنصُرۡكُمُ ٱللَّهُ فَلَا غَالِبَ لَكُمۡۖ وَإِن يَخۡذُلۡكُمۡ فَمَن ذَا ٱلَّذِي يَنصُرُكُم مِّنۢ بَعۡدِهِۦۗ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 153
(160) अल्लाह तुम्हारी सहायता पर हो, तो कोई शक्ति तुमपर प्रभावी होनेवाली नहीं, और वह तुम्हें छोड़ दे, तो इसके बाद कौन है जो तुम्हारी मदद कर सकता हो? अतः जो सच्चे ईमानवाले है उनको अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।
وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَغُلَّۚ وَمَن يَغۡلُلۡ يَأۡتِ بِمَا غَلَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 154
(161) किसी नबी का यह काम नहीं हो सकता कि वह ख़ियानत कर जाए―और जो कोई ख़ियानत करे तो वह अपनी ख़ियानत सहित क़ियामत के दिन हाज़िर हो जाएगा, फिर प्रत्येक जीव को उसकी कमाई का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा, और किसी पर कुछ ज़ुल्म न होगा।
أَفَمَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِ كَمَنۢ بَآءَ بِسَخَطٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 155
(162) भला यह कैसे हो सकता है कि जो व्यक्ति हमेशा अल्लाह की इच्छा पर चलनेवाला हो वह उस व्यक्ति के जैसा काम करे जो अल्लाह के प्रकोप में घिर गया हो और जिसका अन्तिम ठिकाना जहन्नम हो जो बहुत ही बुरा ठिकाना है?
هُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 156
(163) अल्लाह के निकट दोनों प्रकार के आदमियों में बहुत दर्ज़ो का अन्तर है और अल्लाह सबके कर्मों पर नज़र रखता है।
لَقَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ بَعَثَ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 157
(164) वास्तव में ईमानवालों पर तो अल्लाह ने यह बहुत बड़ा उपकार किया है कि उनके बीच ख़ुद उन्हीं में से एक ऐसा पैग़म्बर उठाया जो उसकी आयतें उन्हें सुनाता है, उनके जीवन को सँवारता है और उनको किताब और गहरी समझ की शिक्षा देता है, हालाँकि इससे पहले यही लोग खुली गुमराहियों में पड़े हुए थे।
أَوَلَمَّآ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَدۡ أَصَبۡتُم مِّثۡلَيۡهَا قُلۡتُمۡ أَنَّىٰ هَٰذَاۖ قُلۡ هُوَ مِنۡ عِندِ أَنفُسِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 158
(165) और यह तुम्हारा क्या हाल है कि जब तुमपर मुसीबत आ पड़ी तो तुम कहने लगे यह कहाँ से आई? हालाँकि (बद्र की लड़ाई में) इससे दो गुनी मुसीबत तुम्हारे हाथों (विरोधी गिरोह पर पड़ चुकी है। ऐ नबी, इनसे कहो, यह मुसीबत तुम्हारी अपनी लाई हुई है, अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
وَمَآ أَصَٰبَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِ فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيَعۡلَمَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 159
(166) जो हानि लड़ाई के दिन तुम्हें पहुँची वह अल्लाह की अनुमति से थी और इसलिए थी कि अल्लाह देख ले कि तुममें से ईमानवाले कौन हैं।
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ نَافَقُواْۚ وَقِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ قَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوِ ٱدۡفَعُواْۖ قَالُواْ لَوۡ نَعۡلَمُ قِتَالٗا لَّٱتَّبَعۡنَٰكُمۡۗ هُمۡ لِلۡكُفۡرِ يَوۡمَئِذٍ أَقۡرَبُ مِنۡهُمۡ لِلۡإِيمَٰنِۚ يَقُولُونَ بِأَفۡوَٰهِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يَكۡتُمُونَ ۝ 160
(167) और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) कौन। वे मुनाफ़िक़ कि जब उनसे कहा गया, “आओ अल्लाह के रास्ते में लड़ो या कम से कम (अपने नगर की रक्षा ही करो” तो कहने लगे, “अगर हम जानते कि आज लड़ाई होगी तो हम अवश्य तुम्हारे साथ चलते।” यह बात जब वे कह रहे थे उस समय वे ईमान की अपेक्षा अधर्म के अधिक निकट थे। वे अपने मुँह से वे बातें कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं होतीं, और जो कुछ वे दिलों में छिपाते है अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
ٱلَّذِينَ قَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ وَقَعَدُواْ لَوۡ أَطَاعُونَا مَا قُتِلُواْۗ قُلۡ فَٱدۡرَءُواْ عَنۡ أَنفُسِكُمُ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 161
(168) ये वही लोग हैं जो ख़ुद तो बैठे रहे और उनके जो भाई-बन्धु लड़ने गए और मारे गए उनके बारे में उन्होंने कह दिया कि अगर वे हमारी बात मान लेते तो न मारे जाते। उनसे कहो कि अगर तुम अपने इस कथन में सच्चे हो तो स्वयं तुम्हारी मौत जब आए उसे टालकर दिखा देना।
فَٱنقَلَبُواْ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ لَّمۡ يَمۡسَسۡهُمۡ سُوٓءٞ وَٱتَّبَعُواْ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَظِيمٍ ۝ 162
(174) आख़िरकार वे अल्लाह की नेमत और उदार कृपा के साथ पलट आए, उनको किसी प्रकार को तकलीफ भी न पहुँची और अल्लाह की इच्छा पर चलने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त हो गया, अल्लाह बड़ा अनुग्रह करनेवाला है।34
34. उहुद से पलटते हुए अबू-सूफ़ूयान मुसलमानों को चुनौती दे गया था कि अगले वर्ष बद्र में हमारा तुम्हारा फिर मुक़ाबला होगा। मगर जब वादे का समय आया तो उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। अतः उसने पहलू बचाने के लिए गुप्त रूप से एक आदमी को मदीना भेजा, जिसने मदीना पहुँचकर मुसलमानों में ये ख़बरें मशहूर करनी शुरू कीं कि इस साल क़ुरैश ने बड़ी ज़बरदस्त तैयारी की है और ऐसी भारी सेना एकत्र कर रहे हैं जिसका मुक़ाबला सारे अरब में कोई न कर सकेगा। मुसलमान इस प्रोपगण्डे से कुछ प्रभावित हो गए थे, मगर जब अल्लाह के रसूल ने भरे जनसमूह में एलान कर दिया कि अगर कोई न जाएगा तो मैं अकेला जाऊँगा तो 1500 फ़िदाकार (प्राणोत्सर्जक) आपके साथ चलने के लिए खड़े हो गए और आप उन्हीं को लेकर बद्र में तशरीफ ले गए। अबू-सुफ़ियान मुक़ाबले पर न आया और मुसलमानों ने आठ दिन तक बद्र में ठहरकर तिजारती कारोबार से ख़ूब आर्थिक लाभ उठाया।
إِنَّمَا ذَٰلِكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ يُخَوِّفُ أَوۡلِيَآءَهُۥ فَلَا تَخَافُوهُمۡ وَخَافُونِ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 163
(175) अब तुम्हें मालूम हो गया कि वह वास्तव में शैतान था जो अपने दोस्तों से अकारण डरा रहा था। अतः आगे तुम इनसानों से न डरना, मुझसे डरना अगर तुम वास्तव में ईमानवाले हो।
وَلَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِۚ إِنَّهُمۡ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ يُرِيدُ ٱللَّهُ أَلَّا يَجۡعَلَ لَهُمۡ حَظّٗا فِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 164
(176) (ऐ पैग़म्बर), जो लोग आज कुफ़्र (इनकार और अधर्म) के मार्ग में बड़ी दौड़-धूप कर रहे हैं उनकी सरगर्मियों से तुम दुखी न हो, ये अल्लाह का कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे। अल्लाह का इरादा यह है कि उनके लिए परलोक में कोई हिस्सा न रखे और आख़िरकार उनको सख़्त सज़ा मिलनेवाली है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلۡكُفۡرَ بِٱلۡإِيمَٰنِ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 165
(177) जो लोग ईमान को छोड़कर कुफ़्र के खरीदार बने हैं वे निश्चय ही अल्लाह की कोई हानि नहीं कर रहे हैं, उनके लिए दुखद यातना तैयार है
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّمَا نُمۡلِي لَهُمۡ خَيۡرٞ لِّأَنفُسِهِمۡۚ إِنَّمَا نُمۡلِي لَهُمۡ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِثۡمٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 166
(178) यह ढील जो हम उन्हें दिए जाते हैं इसको ये अधर्मी अपने लिए अच्छा न समझे, हम तो इन्हें इसलिए ढील दे रहे हैं कि ये अच्छी तरह गुनाहों का बोझ समेट लें, फिर उनके लिए अत्यन्त अपमानजनक सज़ा है।
مَّا كَانَ ٱللَّهُ لِيَذَرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَىٰ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ حَتَّىٰ يَمِيزَ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُطۡلِعَكُمۡ عَلَى ٱلۡغَيۡبِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَجۡتَبِي مِن رُّسُلِهِۦ مَن يَشَآءُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَلَكُمۡ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 167
(179) अल्लाह ईमानवालों को इस दशा में हरगिज़ न रहने देगा जिसमें तुम लोग इस समय पाए जाते हो। वह पाक लोगों को नापाक लोगों से अलग करके रहेगा। किन्तु अल्लाह का तरीक़ा यह नहीं है कि तुम लोगों पर परोक्ष (ग़ैब) को प्रकट कर दे।35 (परोक्ष की बातें बताने के लिए तो) अल्लाह अपने रसूलों में से जिसे चाहता है चुन लेता है। अतः (परोक्ष की बातों के बारे में) अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान रखो। यदि तुम ईमान और परहेज़गारी की नीति अपनाओगे तो तुमको बड़ा प्रतिदान मिलेगा।
35. अर्थात् तुम्हें यह बता दे कि तुममें से कौन ईमानवाला है और कौन कपटाचारी।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ هُوَ خَيۡرٗا لَّهُمۖ بَلۡ هُوَ شَرّٞ لَّهُمۡۖ سَيُطَوَّقُونَ مَا بَخِلُواْ بِهِۦ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 168
(180) जिन लोगों को अल्लाह ने अपनी उदार अनुकंपा से दिया है और फिर वे कंजूसी से काम लेते हैं वे यह न समझें कि यह कंजूसी उनके लिए अच्छी है। नहीं, यह उनके लिए बहुत ही बुरी है। जो कुछ वे अपनी कंजूसी से इकट्ठा कर रहे हैं वही क़ियामत के दिन उनके गले का तौक़ बन जाएगा। धरती और आकाशों की मीरास अल्लाह ही के लिए है और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसे जानता है।
لَّقَدۡ سَمِعَ ٱللَّهُ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ فَقِيرٞ وَنَحۡنُ أَغۡنِيَآءُۘ سَنَكۡتُبُ مَا قَالُواْ وَقَتۡلَهُمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَنَقُولُ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 169
(181) अल्लाह ने उन लोगों की बात सुनी जो कहते हैं कि अल्लाह निर्धन है और हम धनी36 हैं। उनकी ये बातें भी हम लिख लेंगे, और इससे पहले जो वे पैग़म्बरों की अकारण हत्या करते रहे हैं वह भी उनकी कर्मपत्री में अंकित है। (जब फ़ैसले का समय आएगा उस समय हम उनसे कहेंगे कि लो, अब नरक यातना का मज़ा चखो,
36. यह यहूदियों का कथन था। क़ुरआन मजीद में जब यह आयत आई कि “कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे” तो इसकी हँसी उड़ाते हुए यहूदियों ने कहना शुरू किया कि जी हाँ, अल्लाह दरिद्र हो गया है। अब वह बन्दों से क़र्ज़ माँग रहा है।
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّامٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 170
(182) यह तुम्हारे अपने हाथों की कमाई है, अल्लाह अपने बन्दों के लिए ज़ालिम नहीं है।
ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ عَهِدَ إِلَيۡنَآ أَلَّا نُؤۡمِنَ لِرَسُولٍ حَتَّىٰ يَأۡتِيَنَا بِقُرۡبَانٖ تَأۡكُلُهُ ٱلنَّارُۗ قُلۡ قَدۡ جَآءَكُمۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِي بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَبِٱلَّذِي قُلۡتُمۡ فَلِمَ قَتَلۡتُمُوهُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 171
(183) जो लोग कहते है, “अल्लाह ने हमको आदेश दे रखा है कि हम किसी को रसूल स्वीकार न करें जब तक वह हमारे सामने ऐसी क़ुरबानी न करे जिसे (परोक्ष से आकर) आग खा ले” उनसे कहो तुम्हारे पास मुझसे पहले बहुत से रसूल आ चुके है जो बहुत-सी स्पष्ट निशानियाँ लाए थे और वह निशानी भी लाए थे जिसकी बात तुम करते हो, फिर यदि (ईमान लाने के लिए) यह शर्त रखने में तुम सच्चे हो तो उन रसूलों की तुमने हत्या क्यों की?”
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقَدۡ كُذِّبَ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَ جَآءُو بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُنِيرِ ۝ 172
(184) अब ऐ नबी! अगर ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं तो बहुत-से रसूल तुमसे पहले झुठलाए जा चुके हैं, जो खुली-खुली निशानियाँ और सही और प्रकाशदायक किताबें लाए थे।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَإِنَّمَا تُوَفَّوۡنَ أُجُورَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ فَمَن زُحۡزِحَ عَنِ ٱلنَّارِ وَأُدۡخِلَ ٱلۡجَنَّةَ فَقَدۡ فَازَۗ وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا مَتَٰعُ ٱلۡغُرُورِ ۝ 173
(185) आख़िरकार प्रत्येक व्यक्ति को मरना है और तुम सब अपना पूरा-पूरा बदला क़ियामत के दिन पानेवाले हो। कामयाब वास्तव में वह है जो वहाँ जहन्नम की आग से बच जाए और जन्नत में पहुँचा दिया जाए। रहा यह संसार, तो यह केवल एक बाह्य धोखे की चीज़ है।
۞لَتُبۡلَوُنَّ فِيٓ أَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡ وَلَتَسۡمَعُنَّ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمِنَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ أَذٗى كَثِيرٗاۚ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ذَٰلِكَ مِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 174
(186) मुसलमानो, तुम धन और प्राण दोनों की परीक्षा में अवश्य ही डाले जाओगे, और तुम किताबवालों और मुशरिकों (बहुदेववादियों) से बहुत-सी कष्टदायक बातें सुनोगे। अगर इन सब स्थितियों में तुम धैर्य और धर्मपरायणता की नीति पर जमे रहो तो यह बड़े साहस का काम है।
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَتُبَيِّنُنَّهُۥ لِلنَّاسِ وَلَا تَكۡتُمُونَهُۥ فَنَبَذُوهُ وَرَآءَ ظُهُورِهِمۡ وَٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلٗاۖ فَبِئۡسَ مَا يَشۡتَرُونَ ۝ 175
(187) इन किताबवालों को वह वचन भी याद दिलाओ जो अल्लाह ने उनसे लिया था कि तुम्हें किताब की शिक्षाओं को लोगों में फैलाना होगा, उन्हें गुप्त रखना नहीं होगा। किन्तु उन्होंने किताब को पीठ पीछे डाल दिया और थोड़े मूल्य पर उसे बेच डाला। कितना बुरा कारोबार है जो ये कर रहे हैं।
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡرَحُونَ بِمَآ أَتَواْ وَّيُحِبُّونَ أَن يُحۡمَدُواْ بِمَا لَمۡ يَفۡعَلُواْ فَلَا تَحۡسَبَنَّهُم بِمَفَازَةٖ مِّنَ ٱلۡعَذَابِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 176
(188) तुम उन लोगों को यातना से सुरक्षित न समझो जो अपनी करतूतों पर ख़ुश हैं और चाहते हैं कि ऐसे कामों की सराहना उन्हें प्राप्त हो जो वास्तव में उन्होंने नहीं किए हैं। निश्चय ही उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 177
(189) धरती और आकाश का मालिक अल्लाह है और उसकी क़ुदरत सबपर हावी है।
إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 178
(190) धरती और आकाशों की रचना में और रात और दिन के बारी-बारी से आने में उन बुद्धिमानों के लिए बहुत निशानियाँ हैं
ٱلَّذِينَ يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِهِمۡ وَيَتَفَكَّرُونَ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبَّنَا مَا خَلَقۡتَ هَٰذَا بَٰطِلٗا سُبۡحَٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 179
(191) जो उठते-बैठते और लेटते, हर हाल में अल्लाह को याद करते है और आकाश और धरती की संरचना में सोच-विचार करते हैं। वे बेइख़्तियार बोल उठते हैं) “हमारे रब, ये सब कुछ तूने व्यर्थ और बेमक़सद नहीं बनाया है, तू पाक है इससे कि निरर्थक कार्य करे। अतः ऐ रब, हमें नरक की यातना से बचा ले,
رَبَّنَآ إِنَّكَ مَن تُدۡخِلِ ٱلنَّارَ فَقَدۡ أَخۡزَيۡتَهُۥۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 180
(192) तूने जिसे नरक में डाला उसे वास्तव में बड़ी अपमान-दशा और दुर्गति में डाल दिया, और फिर ऐसे ज़ालिमों का कोई सहायक न होगा।
رَّبَّنَآ إِنَّنَا سَمِعۡنَا مُنَادِيٗا يُنَادِي لِلۡإِيمَٰنِ أَنۡ ءَامِنُواْ بِرَبِّكُمۡ فَـَٔامَنَّاۚ رَبَّنَا فَٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَكَفِّرۡ عَنَّا سَيِّـَٔاتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ ٱلۡأَبۡرَارِ ۝ 181
(193) हमारे मालिक, हमने एक पुकारनेवाले को सुना जो ईमान (आस्था) की ओर बुलाता था और कहता था कि अपने रब को मानो हमने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया, अत: ऐ हमारे मालिक, जो अपराध हमसे हुए हैं उनको क्षमा कर दे, जो बुराइयाँ हममें हैं उन्हें दूर कर दे और हमारा अन्त नेक लोगों के साथ कर।
رَبَّنَا وَءَاتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَىٰ رُسُلِكَ وَلَا تُخۡزِنَا يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ إِنَّكَ لَا تُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 182
(194) हमारे रब, जो वादे तूने अपने रसूलों के माध्यम से किए हैं उनको हमारे साथ पूरा कर और क़ियामत के दिन हमें रुसवाई में न डाल, बेशक तू अपने वादे के ख़िलाफ़ करनेवाला नहीं है।"
فَٱسۡتَجَابَ لَهُمۡ رَبُّهُمۡ أَنِّي لَآ أُضِيعُ عَمَلَ عَٰمِلٖ مِّنكُم مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰۖ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۖ فَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَأُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأُوذُواْ فِي سَبِيلِي وَقَٰتَلُواْ وَقُتِلُواْ لَأُكَفِّرَنَّ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ ثَوَابٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلثَّوَابِ ۝ 183
(195) जवाब में उनके रब ने कहा, “मैं तुममें से किसी का कर्म अकारथ करनेवाला नहीं हूँ। चाहे मर्द हो या औरत, तुम सब एक-दूसरे के सहजाति हो। अतः जिन लोगों ने मेरे लिए अपने वतन छोड़े और मेरे रास्ते में अपने घरों से निकाले गए और सताए गए और मेरे लिए लड़े और मारे गए उनके सब गुनाह मैं माफ़ कर दूँगा और उन्हें ऐसे बाग़ों में प्रवेश करूँगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। यह उनका बदला है अल्लाह के यहाँ और अच्छा बदला अल्लाह ही के पास है।"
لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 184
(196) ऐ नबी, संसार के देशों में अल्लाह के नाफ़रमान लोगों की चलत-फिरत तुम्हें किसी धोखे में न डाले।
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ ثُمَّ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 185
(197) यह केवल थोड़े दिनों के जीवन का थोड़ा-सा आनन्द है, फिर ये सब जहन्नम में जाएँगे जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।
لَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا نُزُلٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۗ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لِّلۡأَبۡرَارِ ۝ 186
(198) इसके विपरीत जो लोग अपने रब से डरते हुए ज़िन्दगी गुज़ारते हैं उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती है, उन बाग़ों में वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह की ओर से आतिथ्य सामग्री है उनके लिए, और जो कुछ अल्लाह के पास है नेक लोगों के लिए वही सबसे अच्छा है।
وَإِنَّ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَمَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِمۡ خَٰشِعِينَ لِلَّهِ لَا يَشۡتَرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 187
(199) किताबवालों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह को मानते हैं, इस किताब पर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी ओर भेजी गई है और उस किताब पर भी ईमान लाते हैं जो इससे पहले ख़ुद उनकी ओर भेजी गई थी, अल्लाह के आगे झुके हुए हैं, और अल्लाह की आयतों को थोड़े-से मूल्य पर बेच नहीं देते। उनका बदला उनके रब के पास है और अल्लाह हिसाब चुकाने में देर नहीं लगाता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱصۡبِرُواْ وَصَابِرُواْ وَرَابِطُواْ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 188
(200) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, धैर्य से काम लो, असत्यवादियों के मुक़ाबले में जमे रहो, सत्य की सेवा के लिए कमर कसे रहो और अल्लाह से डरते रहो, उम्मीद है कि कामयाबी पाओगे।
أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُمۡ أَنَّ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةَ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 189
(87) उनके अत्याचार का उचित बदला यही है कि उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे इनसानों की फिटकार है,
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 190
(88) इसी दशा में वे सदैव रहेंगे, न उनकी सज़ा में कमी होगी और न उन्हें मोहलत दी जाएगी।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 191
(89) हाँ, वे लोग बच जाएँगे जो इसके बाद तौबा करके अपनी नीति में सुधार लाएँ, अल्लाह क्षमाशील और दया करनेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّن تُقۡبَلَ تَوۡبَتُهُمۡ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلضَّآلُّونَ ۝ 192
(90) किन्तु जिन लोगों ने ईमान लाने के बाद कुफ़्र (इनकार) इख़्तियार किया, फिर अपने कुफ़्र में बढ़ते22 चले गए उनकी तौबा हरगिज़ स्वीकार न की जाएगी, ऐसे लोग तो पक्के गुमराह हैं।
22. अर्थात् केवल इनकार ही पर बस न किया बल्कि व्यवहारतः विरोध किया और बाधाएँ खड़ी कीं, लोगों को अल्लाह के मार्ग से रोकने की कोशिश में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया, सन्देह उत्पन्न किए, बदगुमानियाँ फैलाईं, दिलों में वसवसे (भ्रम) डाले, और बुरे से बुरे षड्यंत्र रचे और छिपे प्रयास किए ताकि नबी का मिशन किसी प्रकार सफल न होने पाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٞ فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡ أَحَدِهِم مِّلۡءُ ٱلۡأَرۡضِ ذَهَبٗا وَلَوِ ٱفۡتَدَىٰ بِهِۦٓۗ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 193
(91) विश्वास रखो, जिन लोगों ने कुफ़्र किया और कुफ़्र ही की दशा में मरे उनमें से कोई अगर अपने को सज़ा से बचाने के लिए धरती भरकर भी सोना बदले में दे तो उसे स्वीकार न किया जाएगा। ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है और वे अपना कोई सहायक न पाएँगे।
۞لَن تَنَالُواْ ٱلۡبِرَّ حَتَّىٰ تُنفِقُواْ مِمَّا تُحِبُّونَۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٞ ۝ 194
(92) तुम नेकी को पहुँच नहीं सकते जब तक कि अपनी वे चीज़़ें (अल्लाह के मार्ग में) ख़र्च न करो जो तुम्हें प्रिय है, और जो कुछ तुम ख़र्च करोगे अल्लाह उससे बेख़बर न होगा।
وَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَمۡوَٰتَۢاۚ بَلۡ أَحۡيَآءٌ عِندَ رَبِّهِمۡ يُرۡزَقُونَ ۝ 195
(169) जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे गए हैं उन्हें मुर्दा न समझो, वे तो वास्तव में जीवित हैं, अपने रब के पास रोज़ी पा रहे हैं
فَرِحِينَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ وَيَسۡتَبۡشِرُونَ بِٱلَّذِينَ لَمۡ يَلۡحَقُواْ بِهِم مِّنۡ خَلۡفِهِمۡ أَلَّا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 196
(170) जो कुछ अल्लाह ने अपनी उदार कृपा से उन्हें दिया है। उसपर प्रसन्न और आनन्दित हैं, और सन्तुष्ट हैं कि जो ईमानवाले उनके पीछे संसार में रह गए हैं। और अभी वहाँ नहीं पहुँचे हैं उनके लिए भी किसी डर और रंज का अवसर नहीं है।
۞يَسۡتَبۡشِرُونَ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 197
(171) वे अल्लाह के इनाम और उसकी उदार कृपा पर आनन्दित और प्रसन्न है और उनको मालूम हो चुका है कि अल्लाह ईमानवालों का बदला नष्ट नहीं करता।
ٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡقَرۡحُۚ لِلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ مِنۡهُمۡ وَٱتَّقَوۡاْ أَجۡرٌ عَظِيمٌ ۝ 198
(172) (ऐसे ईमानवालों के बदले को) जिन्होंने ज़ख्म खाने के बाद भी अल्लाह और रसूल की पुकार को स्वीकार किया33— उनमें जो लोग नेक और परहेज़गार हैं उनके लिए बड़ा बदला है
33. उहुद की लड़ाई से पलटकर जब मुशरिक (बहुदेववादी) कई मंज़िल दूर चले गए तो उन्हें होश आया और उन्होंने आपस में कहा कि यह हमने क्या किया कि मुहम्मद की ताक़त को तोड़ देने का जो बहुमूल्य अवसर मिला था उसे खोकर चले आए। अतएव एक जगह ठहरकर उन्होंने आपस में परामर्श किया कि मदीना पर तुरन्त दूसरा आक्रमण कर दिया जाए। लेकिन फिर साहस न हो सका और मक्का वापस चले गए। इधर नबी (सल्ल०) को भी यह आशंका थी कि ये लोग कहीं फिर न पलट आएँ। इसलिए उहुद की लड़ाई के दूसरे ही दिन आपने मुसलमानों को एकत्र करके कहा कि अधर्मियों का पीछा करने के लिए चलना चाहिए। यह यद्यपि बहुत ही नाज़ुक मौक़ा था, मगर फिर भी जो सच्चे ईमानवाले थे वे प्राण निछावर करने के लिए तैयार हो गए और नबी (सल्ल०) के साथ हमराउल असद तक गए जो मदीना से 8 मील की दूरी पर स्थित है। इस आयत का संकेत इन्हीं बलिहारी लोगों की ओर है।
ٱلَّذِينَ قَالَ لَهُمُ ٱلنَّاسُ إِنَّ ٱلنَّاسَ قَدۡ جَمَعُواْ لَكُمۡ فَٱخۡشَوۡهُمۡ فَزَادَهُمۡ إِيمَٰنٗا وَقَالُواْ حَسۡبُنَا ٱللَّهُ وَنِعۡمَ ٱلۡوَكِيلُ ۝ 199
(173) — जिनसे लोगों ने कहा कि “तुम्हारे विरुद्ध बड़ी सेनाएँ एकत्र हुई हैं, उनसे डरो", तो यह सुनकर उनका ईमान और बढ़ गया और उन्होंने उत्तर दिया कि “हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वहीं सबसे अच्छा कार्य साधक है।”