30. अर-रूम
(मक्का में उतरी-आयतें 60)
परिचय
नाम
पहली ही आयत के शब्द “ग़ुलि ब-तिर्रूम" (रूमी पराजित हो गए हैं) से लिया गया है।
उतरने का समय
आरंभ ही में कहा गया है कि "क़रीब के भू-भाग में रूमी (रोमवासी) पराजित हो गए हैं।” उस समय अरब से मिले हुए सभी अधिकृत क्षेत्रों पर ईरानियों का प्रभुत्व 615 ई० में पूरा हुआ था : इसलिए पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि यह सूरा उसी साल उतरी थी और यह वही साल था जिसमें हबशा की हिजरत हुई थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जो भविष्यवाणी इस सूरा की आरंभिक आयतों में की गई है वह क़ुरआन मजीद के अल्लाह के कलाम होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने की स्पष्ट और खुली गवाहियों में से एक है । इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि उन ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत विवेचन किया जाए जो इन आयतों से संबंध रखती हैं। नबी (सल्ल०) की नुबूवत से 8 साल पहले की घटना है कि क़ैसरे-रूम (रोम का शासक) मारीस (Maurice) के विरुद्ध विद्रोह हुआ और एक व्यक्ति फ़ोकास (Phocas) ने राजसिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लिया [और क़ैसर को उसके बाल-बच्चों के साथ क़त्ल करा दिया]। इस घटना से ईरान के सम्राट ख़ुसरो परवेज़ को रोम पर हमलावर होने के लिए बड़ा ही अच्छा नैतिक बहाना मिल गया, क्योंकि क़ैसर मॉरीस उसका उपकारकर्ता था। चुनांँचे 603 ई० में उसने रोमी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई कर दी और कुछ साल के भीतर वह फ़ोकास की फ़ौज़ों को बराबर हराता हुआ [बहुत दूर तक अंदर घुस गया] रूम के दरबारियों ने यह देखकर कि फ़ोकास देश को नहीं बचा सकता, अफ़रीक़ा के गर्वनर से मदद मांँगी। उसने अपने बेटे हिरक़्ल (Heraclius) को एक शक्तिशाली बेड़े के साथ क़ुस्तनतीनिया भेज दिया। उसके पहुँचते ही फ़ोकास को पद से हटा दिया गया और उसकी जगह हिरक़्ल कै़सर बनाया गया। यह 610 ई० की घटना है और यह वही साल है जिसमें नबी (सल्ल०) अल्लाह की ओर से नबी बनाए गए।
ख़ुसरो परवेज़ ने फ़ोकास के हटाए और क़त्ल कर दिए जाने के बाद भी लड़ाई जारी रखी, और अब इस लड़ाई को उसने मजूसियों (अग्नि-पूजकों) और ईसाइयों के धर्मयुद्ध का रंग दे दिया [वह जीतता हुआ आगे बढ़ता रहा, यहाँ तक कि] 614 ई० में बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके ईरानियों ने मसीही दुनिया पर क़ियामत ढा दी। इस जीत के बाद एक साल के अन्दर-अन्दर ईरानी फ़ौजें जार्डन, फ़िलस्तीन और सीना प्रायद्वीप के पूरे इलाके़ पर क़ब्ज़ा करके मिस्र की सीमाओं तक पहुँच गईं। यह वह समय था जब मक्का मुअज़्ज़मा में एक ओर उससे कई गुना अधिक ऐतिहासिक महत्त्ववाली लड़ाई [कुफ्र और इस्लाम की लड़ाई] छिड़ गई थी और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि 615 ई० में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को अपना घर-बार छोड़कर हबशा के ईसाई राज्य में (जिससे रोम की शपथ-मित्रता थी) पनाह लेनी पड़ी। उस वक़्त ईसाई रोम पर [अग्निपूजक] ईरान के प्रभुत्व की चर्चा हर ज़बान पर थी। मक्का के मुशरिक इसपर खु़शी मना रहे थे और इसे मुसलमानों [के विरुद्ध उसकी सफलता की एक मिसाल और शगुन ठहरा रहे थे।] इन परिस्थतियों में कु़रआन मजीद की यह सूरा उतरी और इसमें वह भविष्यवाणी की गई [जो इसकी शुरू की आयतों में बयान की गई है।] इसमें एक के बजाय दो भविष्यवाणियाँ थीं- एक यह कि रूमियों को ग़लबा (प्रभुत्व) मिलेगा। दूसरी यह कि मुसलमानों को भी उसी समय में जीत मिलेगी। प्रत्यक्ष में तो दूर-दूर तक कहीं इसकी निशानियाँ मौजूद न थीं कि इनमें से कोई एक भविष्यवाणी भी कुछ वर्ष के भीतर पूरी हो जाएगी। चुनांँचे क़ुरआन की ये आयतें जब उतरीं तो मक्का के विधर्मियों ने इसकी खू़ब हँसी उड़ाई, [लेकिन सात-आठ वर्ष बाद ही परिस्थतियों ने पलटा खाया।] 622 ई० में इधर नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और उधर कै़सर हिरक़्ल [ईरान पर जवाबी हमला करने के लिए] ख़ामोशी के साथ कु़स्तनतीनिया से काला सागर के रास्ते से तराबजू़न की ओर रवाना हुआ और 623 ई० में आरमीनिया से [अपना हमला] शुरू करके दूसरे साल 624 ई० में उसने आज़र बाइजान में घुसकर ज़रतुश्त के जन्म स्थल अरमियाह (Clorumia) को नष्ट कर दिया और ईरानियों के सबसे बड़े अग्निकुंड की ईंट से ईट बजा दी। अल्लाह की कु़दरत का करिश्मा देखिए कि यही वह साल था जिसमें मुसलमानों को बद्र में पहली बार मुशरिकों के मुक़ाबले में निर्णायक विजय मिली। इस तरह वे दोनों भविष्यवाणियाँ जो सूरा रूम में की गई थी, दस साल की अवधि समाप्त होने में पहले एक साथ ही पूरी हो गईं।
विषय और वार्ताएँ
इस सूरा में वार्ता का आरंभ इस बात से किया गया है कि आज रूमी (रोमवासी) परास्त हो गए हैं, मगर कुछ साल न बीतने पाएँगे कि पांँसा पलट जाएगा और जो परास्त है, वह विजयी हो जाएगा। इस भूमिका से यह बात मालूम हुई कि इंसान अपनी बाह्य दृष्टि के कारण वही कुछ देखता है जो बाह्य रूप से उसकी आँखों के सामने होता है, मगर इस बाह्य के परदे की पीछे जो कुछ है, उसकी उसे ख़बर नहीं होती। जब दुनिया के छोटे-छोटे मामलों में [आदमी अपनी ऊपरी नज़र के कारण] ग़लत अन्दाज़े लगा बैठता है, तो फिर समग्र जीवन के मामले में दुनिया को जिंदगी के प्रत्यक्ष पर भरोसा कर बैठना कितनी बड़ी ग़लती है। इस तरह रोम एवं ईरान के मामले से व्याख्यान का रुख़ आख़िरत के विषय की ओर फिर जाता है और लगातार 27 आयतों तक विविध ढंग से यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आख़िरत सम्भव भी है, बुद्धिसंगत भी है और आवश्यक भी है। इस सिलसिले में आख़िरत पर प्रमाण जुटाते हुए सृष्टि की जिन निशानियों को गवाही के रूप में पेश किया गया है, वे ठीक वही निशानियाँ हैं जो तौहीद (एकेश्वरवाद) को प्रमाणित करती हैं। इस लिए आयत 41 के आरंभ में से व्याख्यान का रुख़ तौहीद को साबित करने और शिर्क (बहुदेववाद) को झुठलाने की ओर फिर जाता है और बताया जाता है कि शिर्क जगत् की प्रकृति और मानव की प्रकृति के विरुद्ध है। इसी लिए जहाँ भी इंसान ने इस गुमराही को अपनाया है, वहाँ बिगाड़ पैदा हुआ है। इस मौके़ पर फिर उस बड़े बिगाड़ की ओर, जो उस समय दुनिया के दो बड़े राज्यों के बीच लड़ाई की वजह से पैदा हो गया था, संकेत किया गया है और बताया गया है कि यह बिगाड़ भी शिर्क के नतीजों में से है। अन्त में मिसाल की शक्ल में लोगों को समझाया गया है कि जिस तरह मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन अल्लाह की भेजी हुई बारिश से सहसा जी उठती है, उसी तरह अल्लाह की भेजी हुई वह्य और नुबूवत भी मुर्दा पड़ी हुई मानवता के हक़ में रहमत (दयालुता) की बारिश है। इस मौके़ से फ़ायदा उठाओगे तो यही अरब की सूनी ज़मीन अल्लाह की रहमत से लहलहा उठेगी। लाभ न उठाओगे तो अपनी ही हानि करोगे।
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أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۗ مَّا خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ بِلِقَآيِٕ رَبِّهِمۡ لَكَٰفِرُونَ 7
(8) क्या उन्होंने कभी अपने-आप में सोच-विचार नहीं किया? अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को और उन सभी चीज़़ों को जो उनके बीच हैं सत्यानुकूल और एक नियत समय ही के लिए पैदा किया है। मगर बहुत-से लोग अपने रब के मिलन का इनकार करते हैं।3
3. अर्थात् अगर इनसान ब्रह्माण्ड व्यवस्था को विचारपूर्ण दृष्टि से देखे तो उसे दो तथ्य स्पष्टतः दिखाई देंगे— एक यह कि यह किसी खिलवाड़ करनेवाले का खिलौना नहीं है, बल्कि एक तत्त्वदर्शिता पर आधारित और उद्देश्यपूर्ण व्यवस्था है। दूसरे यह कि यह अनादिकालिक और शाश्वत व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक समय अवश्य ही इसे समाप्त होना है। ये दोनों बातें परलोक (आख़िरत) को सिद्ध करती हैं, मगर लोग ये सब कुछ देखते हुए भी इसका इनकार करते हैं।
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَأَثَارُواْ ٱلۡأَرۡضَ وَعَمَرُوهَآ أَكۡثَرَ مِمَّا عَمَرُوهَا وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ 8
(9) और क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले फिरे नहीं है कि इन्हें उन लोगों का परिणाम दिखाई देता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे ज़्यादा शक्ति रखते थे, उन्होंने ज़मीन को ख़ूब उधेड़ा था और उसे इतना आबाद किया था जितना इन्होंने नहीं किया है। उनके पास उनके रसूल प्रत्यक्ष निशानियाँ लेकर आए। फिर अल्लाह उनपर ज़ुल्म करनेवाला न था, मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।
وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَعَشِيّٗا وَحِينَ تُظۡهِرُونَ 17
(18) आसमानों और ज़मीन में उसी के लिए प्रशंसा है। और (तसबीह करो उसकी) तीसरे पहर और जबकि तुमपर 'ज़ुहर' का समय आता है।6
6. इस आयत में नमाज़ के चार नियत समयों की ओर स्पष्ट संकेत है, फ़ज्र, मग़रिब, अस्र, ज़ुह्र। इसके साथ सूरा 11(हूद) आयत 114, सूरा 17 (बनी-इसराईल) आयत 78 और सूरा 20 (ता० हा०) आयत 130 को पढ़ा जाए तो नमाज़ के पाँचों नियत समयों का आदेश निकल आता है।
ضَرَبَ لَكُم مَّثَلٗا مِّنۡ أَنفُسِكُمۡۖ هَل لَّكُم مِّن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن شُرَكَآءَ فِي مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ فَأَنتُمۡ فِيهِ سَوَآءٞ تَخَافُونَهُمۡ كَخِيفَتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ 27
(28) वह तुम्हें ख़ुद तुम्हारे अपने ही व्यक्तित्व से एक मिसाल देता है। क्या तुम्हारे उन दासों में से जो तुम्हारे स्वामित्व के अधीन हैं कुछ दास ऐसे भी हैं जो हमारे दिए हुए माल और दौलत में तुम्हारे साथ बराबर के साझीदार हों और तुम उनसे उस तरह डरते हो जिस तरह आपस में अपने समकक्ष व्यक्तियों से डरते हो7 — इस तरह हम आयतें खोलकर प्रस्तुत करते हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।
7. यह वही विषय है जिसका उल्लेख क़ुरआन की सूरा 16 (नह्ल) आयत 62 में किया जा चुका है। दोनों जगह तर्कयुक्ति यह है कि जब तुम अपने माल में अपने दासों को साझीदार नहीं बनाते तो तुम्हारी समझ में कैसे यह बात आती है कि ईश्वर अपने ईश्वरत्व में अपने बन्दों को साझीदार बनाएगा?
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗاۚ فِطۡرَتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي فَطَرَ ٱلنَّاسَ عَلَيۡهَاۚ لَا تَبۡدِيلَ لِخَلۡقِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ 29
(30) अतः (ऐ नबी, और नबी के अनुयायियो) एकाग्र होकर अपना रुख़ इस धर्म (दीन) की दिशा में जमा दो, क़ायम हो जाओ उस प्रकृति पर जिसपर अल्लाह तआला ने इनसानों को पैदा किया है, अल्लाह की बनाई हुई संरचना बदली नहीं जा सकती8, यही बिलकुल सीधा और ठीक धर्म है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
8. अर्थात् अल्लाह ने इनसान को अपना बन्दा बनाया है और अपनी ही बन्दगी के लिए पैदा किया है। यह रचना किसी के बदलने से नहीं बदल सकती। न आदमी बन्दा से ग़ैर-बन्दा बन सकता है, न किसी को जो ईश्वर नहीं, ईश्वर बना लेने से वह वास्तव में उसका ईश्वर बन सकता है। इनसान भले ही अपने कितने ही पूज्य बना बैठे, लेकिन यह तथ्य अपनी जगह अटल है कि वह एक ईश्वर के सिवा किसी का बन्दा नहीं है। दूसरा अनुवाद इस आयत का यह भी हो सकता है कि “अल्लाह की निर्मित रचना में परिवर्तन न किया जाए।” अर्थात् अल्लाह ने जिस प्रकृति पर इनसान को पैदा किया है उसको बिगाड़ना और विकृत करना ठीक नहीं है।
فَـَٔاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ 37
(38) अतः (ऐ ईमान लानेवाले) नातेदार को उसका हक़ दे और मुहताज और मुसाफ़िर को (उसका हक़)9। यह तरीक़ा बहुत अच्छा है उन लोगों के लिए जो अल्लाह की प्रसन्नता के इच्छुक हों, और वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।
9. यह नहीं कहा कि नातेदार, मुहताज और मुसाफ़िर को भीख दे। कहा यह गया है कि यह उसका हक़ और अधिकार है जो तुझे देना चाहिए, और हक़ ही समझकर तू उसे दे।
وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن رِّبٗا لِّيَرۡبُوَاْ فِيٓ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ فَلَا يَرۡبُواْ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن زَكَوٰةٖ تُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُضۡعِفُونَ 38
(39) जो ब्याज तुम देते हो ताकि लोगों के मालों में शामिल होकर वह बढ़ जाए, अल्लाह की दृष्टि में वह नहीं बढ़ता,10 और जो ज़कात (दान) तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के इरादे से देते हो, उसी के देनेवाले वास्तव में अपने माल बढ़ाते हैं।
10. क़ुरआन मजीद में यह पहली आयत है जो ब्याज की निन्दा में उतरी। बाद के आदेशों के लिए देखिए कुरआन की सूरा 3 (आले-इमरान) आयत 130, सूरा 2 (अल-बक़रा) आयतें 275 से 281 तक।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ ثُمَّ رَزَقَكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۖ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَفۡعَلُ مِن ذَٰلِكُم مِّن شَيۡءٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ 39
(40) अल्लाह ही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुम्हें आजीविका दी, फिर वह तुम्हें मौत देता है, फिर वह तुम्हें ज़िन्दा करेगा। क्या तुम्हारे ठहराए हुए भागीदारों में कोई ऐसा है जो इनमें से कोई कार्य भी करता हो? पाक है वह और बहुत उच्च और महान है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
ظَهَرَ ٱلۡفَسَادُ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ بِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِي ٱلنَّاسِ لِيُذِيقَهُم بَعۡضَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ 40
(41) थल और जल में बिगाड़ पैदा हो गया है लोगों के अपने हाथों की कमाई से11 ताकि मज़ा चखाए उनको उनके कुछ कर्मों का, शायद कि वे बाज़ आएँ।
11. संकेत उस युद्ध की ओर है जो उस समय दुनिया की दो महा-शक्तियों ईरान और रूस के बीच छिड़ा हुआ था।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَيَبۡسُطُهُۥ فِي ٱلسَّمَآءِ كَيۡفَ يَشَآءُ وَيَجۡعَلُهُۥ كِسَفٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦۖ فَإِذَآ أَصَابَ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ 47
(48) अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है और वे बादल उठाती है फिर वह उन बादलों को आसमान में फैलाता है जिस तरह चाहता है और उन्हें टुकड़ियों में बाँटता है, फिर तू देखता है कि वर्षा की बूँदै बादल में से टपकी चली आती है। यह वर्षा जब वह अपने बन्दों में से जिनपर चाहता है बरसाता है तो अचानक वे ख़ुश और प्रसन्न हो जाते हैं,
وَلَئِنۡ أَرۡسَلۡنَا رِيحٗا فَرَأَوۡهُ مُصۡفَرّٗا لَّظَلُّواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ يَكۡفُرُونَ 50
(51) और अगर हम एक ऐसी हवा भेज दें जिसके प्रभाव से वे अपनी खेती को पीली पड़ी हुई पाएँ तो वे दिखलाते रह जाते हैं।12
12. अर्थात् फिर वे अल्लाह को कोसने लगते हैं और उसपर दोषारोपण करने लगते हैं कि उसने कैसी मुसीबतें हमपर डाल रखी हैं। हालाँकि जब अल्लाह ने उनपर नेमत की वर्षा की थी उस समय उन्होंने शुक्र के बदले कृतघ्नता दिखलाई थी।
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن ضَعۡفٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ ضَعۡفٖ قُوَّةٗ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٖ ضَعۡفٗا وَشَيۡبَةٗۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡقَدِيرُ 53
(54) अल्लाह ही तो है जिसने निर्बलता की हालत से तुम्हारे सृजन का आरंभ किया, फिर उस निर्बलता के बाद तुम्हें शक्ति प्रदान की, फिर उस शक्ति के बाद तुम्हें निर्बल और बूढ़ा कर दिया। वह जो कुछ चाहता है पैदा करता है। और वह सब कुछ जाननेवाला, हर चीज़ की सामर्थ्य रखनेवाला है।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُقۡسِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ مَا لَبِثُواْ غَيۡرَ سَاعَةٖۚ كَذَٰلِكَ كَانُواْ يُؤۡفَكُونَ 54
(55) और जब वह घड़ी14 आ मौजूद होगी तो अपराधी क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हम एक घड़ी-घर से ज़्यादा नहीं ठहरे है, इसी तरह वे दुनिया की ज़िन्दगी में धोखा खाया करते थे।
14. अर्थात् क़ियामत जिसके आने की सूचना दी जा रही है।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ وَلَا يَسۡتَخِفَّنَّكَ ٱلَّذِينَ لَا يُوقِنُونَ 59
(60) अतः (ऐ नबी) सब्र करो, यक़ीनन अल्लाह का वादा सच्चा है, और हरगिज़ हलका न पाएँ तुमको वे लोग जो विश्वास नहीं करते।16
16. अर्थात् दुश्मन तुमको ऐसा कमज़ोर न पाएँ कि उनके शोर-हंगामे से तुम दब जाओ, या उनके आरोप और मिष्यारोपणों के अभियान से तुम आतंकित हो जाओ, या उनकी फबतियों और तानों और परिहास से तुम साहस छोड़ बैठो, या उनकी धमकियों और शक्ति के प्रदर्शनों या ज़ुल्म और अत्याचार से तुम डर जाओ, या उनके दिए हुए लालचों से तुम फिसल जाओ।