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سُورَةُ الرُّومِ

30. अर-रूम 

(मक्का में उतरी-आयतें 60)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द “ग़ुलि ब-तिर्रूम" (रूमी पराजित हो गए हैं) से लिया गया है।

उतरने का समय

आरंभ ही में कहा गया है कि "क़रीब के भू-भाग में रूमी (रोमवासी) पराजित हो गए हैं।” उस समय अरब से मिले हुए सभी अधिकृत क्षेत्रों पर ईरानियों का प्रभुत्व 615 ई० में पूरा हुआ था : इसलिए पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि यह सूरा उसी साल उतरी थी और यह वही साल था जिसमें हबशा की हिजरत हुई थी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जो भविष्यवाणी इस सूरा की आरंभिक आयतों में की गई है वह क़ुरआन मजीद के अल्लाह के कलाम होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने की स्पष्ट और खुली गवाहियों में से एक है । इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि उन ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत विवेचन किया जाए जो इन आयतों से संबंध रखती हैं। नबी (सल्ल०) की नुबूवत से 8 साल पहले की घटना है कि क़ैसरे-रूम (रोम का शासक) मारीस (Maurice) के विरुद्ध विद्रोह हुआ और एक व्यक्ति फ़ोकास (Phocas) ने राजसिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लिया [और क़ैसर को उसके बाल-बच्चों के साथ क़त्ल करा दिया]। इस घटना से ईरान के सम्राट ख़ुसरो परवेज़ को रोम पर हमलावर होने के लिए बड़ा ही अच्छा नैतिक बहाना मिल गया, क्योंकि क़ैसर मॉरीस उसका उपकारकर्ता था। चुनांँचे 603 ई० में उसने रोमी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई कर दी और कुछ साल के भीतर वह फ़ोकास की फ़ौज़ों को बराबर हराता हुआ [बहुत दूर तक अंदर घुस गया] रूम के दरबारियों ने यह देखकर कि फ़ोकास देश को नहीं बचा सकता, अफ़रीक़ा के गर्वनर से मदद मांँगी। उसने अपने बेटे हिरक़्ल (Heraclius) को एक शक्तिशाली बेड़े के साथ क़ुस्तनतीनिया भेज दिया। उसके पहुँचते ही फ़ोकास को पद से हटा दिया गया और उसकी जगह हिरक़्ल कै़सर बनाया गया। यह 610 ई० की घटना है और यह वही साल है जिसमें नबी (सल्ल०) अल्लाह की ओर से नबी बनाए गए।

ख़ुसरो परवेज़ ने फ़ोकास के हटाए और क़त्ल कर दिए जाने के बाद भी लड़ाई जारी रखी, और अब इस लड़ाई को उसने मजूसियों (अग्नि-पूजकों) और ईसाइयों के धर्मयुद्ध का रंग दे दिया [वह जीतता हुआ आगे बढ़ता रहा, यहाँ तक कि] 614 ई० में बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके ईरानियों ने मसीही दुनिया पर क़ियामत ढा दी। इस जीत के बाद एक साल के अन्दर-अन्दर ईरानी फ़ौजें जार्डन, फ़िलस्तीन और सीना प्रायद्वीप के पूरे इलाके़ पर क़ब्ज़ा करके मिस्र की सीमाओं तक पहुँच गईं। यह वह समय था जब मक्का मुअज़्ज़मा में एक ओर उससे कई गुना अधिक ऐतिहासिक महत्त्ववाली लड़ाई [कुफ्र और इस्लाम की लड़ाई] छिड़ गई थी और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि 615 ई० में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को अपना घर-बार छोड़कर हबशा के ईसाई राज्य में (जिससे रोम की शपथ-मित्रता थी) पनाह लेनी पड़ी। उस वक़्त ईसाई रोम पर [अग्निपूजक] ईरान के प्रभुत्व की चर्चा हर ज़बान पर थी। मक्का के मुशरिक इसपर खु़शी मना रहे थे और इसे मुसलमानों [के विरुद्ध उसकी सफलता की एक मिसाल और शगुन ठहरा रहे थे।] इन परिस्थतियों में कु़रआन मजीद की यह सूरा उतरी और इसमें वह भविष्यवाणी की गई [जो इसकी शुरू की आयतों में बयान की गई है।] इसमें एक के बजाय दो भविष्यवाणियाँ थीं- एक यह कि रूमियों को ग़लबा (प्रभुत्व) मिलेगा। दूसरी यह कि मुसलमानों को भी उसी समय में जीत मिलेगी। प्रत्यक्ष में तो दूर-दूर तक कहीं इसकी निशानियाँ मौजूद न थीं कि इनमें से कोई एक भविष्यवाणी भी कुछ वर्ष के भीतर पूरी हो जाएगी। चुनांँचे क़ुरआन की ये आयतें जब उतरीं तो मक्का के विधर्मियों ने इसकी खू़ब हँसी उड़ाई, [लेकिन सात-आठ वर्ष बाद ही परिस्थतियों ने पलटा खाया।] 622 ई० में इधर नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और उधर कै़सर हिरक़्ल [ईरान पर जवाबी हमला करने के लिए] ख़ामोशी के साथ कु़स्तनतीनिया से काला सागर के रास्ते से तराबजू़न की ओर रवाना हुआ और 623 ई० में आरमीनिया से [अपना हमला] शुरू करके दूसरे साल 624 ई० में उसने आज़र बाइजान में घुसकर ज़रतुश्त के जन्म स्थल अरमियाह (Clorumia) को नष्ट कर दिया और ईरानियों के सबसे बड़े अग्निकुंड की ईंट से ईट बजा दी। अल्लाह की कु़दरत का करिश्मा देखिए कि यही वह साल था जिसमें मुसलमानों को बद्र में पहली बार मुशरिकों के मुक़ाबले में निर्णायक विजय मिली। इस तरह वे दोनों भविष्यवाणियाँ जो सूरा रूम में की गई थी, दस साल की अवधि समाप्त होने में पहले एक साथ ही पूरी हो गईं।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में वार्ता का आरंभ इस बात से किया गया है कि आज रूमी (रोमवासी) परास्त हो गए हैं, मगर कुछ साल न बीतने पाएँगे कि पांँसा पलट जाएगा और जो परास्त है, वह विजयी हो जाएगा। इस भूमिका से यह बात मालूम हुई कि इंसान अपनी बाह्य दृष्टि के कारण वही कुछ देखता है जो बाह्य रूप से उसकी आँखों के सामने होता है, मगर इस बाह्य के परदे की पीछे जो कुछ है, उसकी उसे ख़बर नहीं होती। जब दुनिया के छोटे-छोटे मामलों में [आदमी अपनी ऊपरी नज़र के कारण] ग़लत अन्दाज़े लगा बैठता है, तो फिर समग्र जीवन के मामले में दुनिया को जिंदगी के प्रत्यक्ष पर भरोसा कर बैठना कितनी बड़ी ग़लती है। इस तरह रोम एवं ईरान के मामले से व्याख्यान का रुख़ आख़िरत के विषय की ओर फिर जाता है और लगातार 27 आयतों तक विविध ढंग से यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आख़िरत सम्भव भी है, बुद्धिसंगत भी है और आवश्यक भी है। इस सिलसिले में आख़िरत पर प्रमाण जुटाते हुए सृष्टि की जिन निशानियों को गवाही के रूप में पेश किया गया है, वे ठीक वही निशानियाँ हैं जो तौहीद (एकेश्वरवाद) को प्रमाणित करती हैं। इस लिए आयत 41 के आरंभ में से व्याख्यान का रुख़ तौहीद को साबित करने और शिर्क (बहुदेववाद) को झुठलाने की ओर फिर जाता है और बताया जाता है कि शिर्क जगत् की प्रकृति और मानव की प्रकृति के विरुद्ध है। इसी लिए जहाँ भी इंसान ने इस गुमराही को अपनाया है, वहाँ बिगाड़ पैदा हुआ है। इस मौके़ पर फिर उस बड़े बिगाड़ की ओर, जो उस समय दुनिया के दो बड़े राज्यों के बीच लड़ाई की वजह से पैदा हो गया था, संकेत किया गया है और बताया गया है कि यह बिगाड़ भी शिर्क के नतीजों में से है। अन्त में मिसाल की शक्ल में लोगों को समझाया गया है कि जिस तरह मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन अल्लाह की भेजी हुई बारिश से सहसा जी उठती है, उसी तरह अल्लाह की भेजी हुई वह्य और नुबूवत भी मुर्दा पड़ी हुई मानवता के हक़ में रहमत (दयालुता) की बारिश है। इस मौके़ से फ़ायदा उठाओगे तो यही अरब की सूनी ज़मीन अल्लाह की रहमत से लहलहा उठेगी। लाभ न उठाओगे तो अपनी ही हानि करोगे।

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سُورَةُ الرُّومِ
30. अर-रूम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़० लाम० मीम०।
غُلِبَتِ ٱلرُّومُ ۝ 1
(2) रूमी क़रीब के भूभाग में पराजित हो गए हैं,
فِيٓ أَدۡنَى ٱلۡأَرۡضِ وَهُم مِّنۢ بَعۡدِ غَلَبِهِمۡ سَيَغۡلِبُونَ ۝ 2
(3) और अपनी इस पराजय के बाद कुछ ही वर्षों में वे विजयी हो जाएँगे।1
1. यह इशारा उस लड़ाई की ओर है जो उस समय रूम और ईरान राज्य के बीच हो रही थी। उस समय रूमी बुरी तरह पराजित हो गए थे और कोई सोच नहीं सकता था कि अब ये फिर उठ सकेंगे। मगर अल्लाह तआला ने इस आयत में यह भविष्यवाणी कर दी कि कुछ वर्षों में रूमी फिर विजयी हो जाएँगे।
فِي بِضۡعِ سِنِينَۗ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡرُ مِن قَبۡلُ وَمِنۢ بَعۡدُۚ وَيَوۡمَئِذٖ يَفۡرَحُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 3
(4) अल्लाह ही का अधिकार है पहले भी और बाद में भी। और वह दिन वह होगा जबकि अल्लाह की प्रदान की हुई विजय पर मुसलमान ख़ुशियाँ मनाएँगे2।
2. यह एक दूसरी भविष्यवाणी थी। इसका अर्थ लोगों की समझ में उस समय आया जब बद्र की लड़ाई में इधर मुसलमानों को विजय हुई और रूम और ईरान की लड़ाई में उधर रूमी विजयी हुए।
بِنَصۡرِ ٱللَّهِۚ يَنصُرُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 4
(5) अल्लाह मदद देता है जिसे चाहता है, और वह प्रभुत्वशाली और दयावान् है।
وَعۡدَ ٱللَّهِۖ لَا يُخۡلِفُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 5
(6) यह वादा अल्लाह ने किया है, अल्लाह कभी अपने वादे की अवहेलना नहीं करता, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
يَعۡلَمُونَ ظَٰهِرٗا مِّنَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ عَنِ ٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 6
(7) लोग दुनिया की ज़िन्दगी का बस वाह्य पहलू ही जानते हैं और आख़िरत से वे ख़ुद ही बेख़बर हैं।
أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۗ مَّا خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ بِلِقَآيِٕ رَبِّهِمۡ لَكَٰفِرُونَ ۝ 7
(8) क्या उन्होंने कभी अपने-आप में सोच-विचार नहीं किया? अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को और उन सभी चीज़़ों को जो उनके बीच हैं सत्यानुकूल और एक नियत समय ही के लिए पैदा किया है। मगर बहुत-से लोग अपने रब के मिलन का इनकार करते हैं।3
3. अर्थात् अगर इनसान ब्रह्माण्ड व्यवस्था को विचारपूर्ण दृष्टि से देखे तो उसे दो तथ्य स्पष्टतः दिखाई देंगे— एक यह कि यह किसी खिलवाड़ करनेवाले का खिलौना नहीं है, बल्कि एक तत्त्वदर्शिता पर आधारित और उद्देश्यपूर्ण व्यवस्था है। दूसरे यह कि यह अनादिकालिक और शाश्वत व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक समय अवश्य ही इसे समाप्त होना है। ये दोनों बातें परलोक (आख़िरत) को सिद्ध करती हैं, मगर लोग ये सब कुछ देखते हुए भी इसका इनकार करते हैं।
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَأَثَارُواْ ٱلۡأَرۡضَ وَعَمَرُوهَآ أَكۡثَرَ مِمَّا عَمَرُوهَا وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 8
(9) और क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले फिरे नहीं है कि इन्हें उन लोगों का परिणाम दिखाई देता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं? वे इनसे ज़्यादा शक्ति रखते थे, उन्होंने ज़मीन को ख़ूब उधेड़ा था और उसे इतना आबाद किया था जितना इन्होंने नहीं किया है। उनके पास उनके रसूल प्रत्यक्ष निशानियाँ लेकर आए। फिर अल्लाह उनपर ज़ुल्म करनेवाला न था, मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।
ثُمَّ كَانَ عَٰقِبَةَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ ٱلسُّوٓأَىٰٓ أَن كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ بِهَا يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 9
(10) आख़िरकार जिन लोगों ने बुराइयाँ की थीं उनका परिणाम बहुत बुरा हुआ, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया था और वे उनकी हँसी उड़ाते थे।
ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 10
(11) अल्लाह ही सृष्टि का आरंभ करता है, फिर वही उसको पुनरावृत्ति करेगा, फिर उसी की और तुम पलटाए जाओगे।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُبۡلِسُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 11
(12) और जब वह घड़ी घटित होगी उस दिन अपराधी हक्का-बक्का रह जाएँगे।4
4. मूल में 'मुबलिसून' शब्द का इस्तेमाल हुआ है। 'इबलास' का अर्थ है निराशा और दुख के कारण किसी व्यक्ति का मूक और चकित एवं स्तब्ध होकर रह जाना।
وَلَمۡ يَكُن لَّهُم مِّن شُرَكَآئِهِمۡ شُفَعَٰٓؤُاْ وَكَانُواْ بِشُرَكَآئِهِمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 12
(13) उनके ठहराए हुए भागीदारों में से कोई उनका सिफ़ारिशी न होगा और वे अपने भागीदारों का इनकार करनेवाले हो जाएँगे।5
5. अर्थात् उस समय ये बहुदेववादी ख़ुद इस बात को स्वीकार करेंगे कि हम उनको अल्लाह का साझीदार ठहराने में ग़लती पर थे।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يَوۡمَئِذٖ يَتَفَرَّقُونَ ۝ 13
(14) जिस दिन वह घड़ी घटित होगी, उस दिन (सब इनसान) अलग गिरोहों में बँट जाएँगे।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَهُمۡ فِي رَوۡضَةٖ يُحۡبَرُونَ ۝ 14
(15) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने अच्छे कर्म किए हैं वे एक बाग़ में आनन्द और उल्लास के साथ रखे जाएँगे,
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآيِٕ ٱلۡأٓخِرَةِ فَأُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ ۝ 15
(16) और जिन्होंने इनकार किया है। और हमारी आयतों और आख़िरत के मिलने को झुठलाया है वे अज़ाब में उपस्थित रखे जाएँगे।
فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ حِينَ تُمۡسُونَ وَحِينَ تُصۡبِحُونَ ۝ 16
(17) अत: 'तसबीह' (गुणगान) करो अल्लाह की जबकि तुम शाम करते हो और जब सुबह करते हो।
وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَعَشِيّٗا وَحِينَ تُظۡهِرُونَ ۝ 17
(18) आसमानों और ज़मीन में उसी के लिए प्रशंसा है। और (तसबीह करो उसकी) तीसरे पहर और जबकि तुमपर 'ज़ुहर' का समय आता है।6
6. इस आयत में नमाज़ के चार नियत समयों की ओर स्पष्ट संकेत है, फ़ज्र, मग़रिब, अस्र, ज़ुह्‍र। इसके साथ सूरा 11(हूद) आयत 114, सूरा 17 (बनी-इसराईल) आयत 78 और सूरा 20 (ता० हा०) आयत 130 को पढ़ा जाए तो नमाज़ के पाँचों नियत समयों का आदेश निकल आता है।
يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَيُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ وَكَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ ۝ 18
(19) वह ज़िन्दा को मुर्दे में से निकालता है और मुर्दे को ज़िन्दा में से निकाल लाता है और ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी प्रदान करता है। इसी तरह तुम लोग भी (मौत की दशा से) निकाल लिए जाओगे।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ إِذَآ أَنتُم بَشَرٞ تَنتَشِرُونَ ۝ 19
(20) उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुमको मिट्टी से पैदा किया। फिर यकायक तुम इनसान हो कि (ज़मीन में फैलते चले जा रहे हो।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا لِّتَسۡكُنُوٓاْ إِلَيۡهَا وَجَعَلَ بَيۡنَكُم مَّوَدَّةٗ وَرَحۡمَةًۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 20
(21) और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही सहजाति से बीवियाँ बनाई ताकि तुम उनके पास शान्ति प्राप्त करो और तुम्हारे बीच प्रेम और दयालुता पैदा कर दी। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करते हैं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفُ أَلۡسِنَتِكُمۡ وَأَلۡوَٰنِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡعَٰلِمِينَ ۝ 21
(22) और उसकी निशानियों में से आसमानों और ज़मीन की सृष्टि और तुम्हारी भाषाओं और तुम्हारे रंगों की भिन्नता है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ है बुद्धिमान लोगों के लिए।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ مَنَامُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱبۡتِغَآؤُكُم مِّن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 22
(23) और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात और दिन को सोना और तुम्हारा उसके अनुर (आजीविका) को तलाश करना है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो (ध्यानपूर्वक) सुनते हैं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ يُرِيكُمُ ٱلۡبَرۡقَ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَيُحۡيِۦ بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 23
(24) और उसकी निशानियों में से यह है कि वह तुम्हें बिजली की चमक दिखाता है भय के साथ भी और लोभ के साथ भी। और आसमान से पानी बरसाता है, फिर उसके द्वारा ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी प्रदान करता है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن تَقُومَ ٱلسَّمَآءُ وَٱلۡأَرۡضُ بِأَمۡرِهِۦۚ ثُمَّ إِذَا دَعَاكُمۡ دَعۡوَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ إِذَآ أَنتُمۡ تَخۡرُجُونَ ۝ 24
(25) और उसकी निशानियों में से यह है कि आसमान और ज़मीन उसके आदेश से क़ायम हैं। फिर ज्यों ही कि उसने तुम्हे ज़मीन से पुकारा, बस एक ही पुकार में अचानक तुम निकल आओगे।
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ۝ 25
(26) आसमानों और ज़मीन में जो भी है उसके बन्दे हैं। सब के सब उसी की आज्ञा के अधीन हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ وَهُوَ أَهۡوَنُ عَلَيۡهِۚ وَلَهُ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 26
(27) वही है जो सृष्टि का आरम्भ करता है, फिर वहीं उसकी पुनरावृत्ति करेगा और यह उसके लिए ज़्यादा आसान है। आसमानों और ज़मीन में उसका गुण सर्वोच्च है और वह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
ضَرَبَ لَكُم مَّثَلٗا مِّنۡ أَنفُسِكُمۡۖ هَل لَّكُم مِّن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن شُرَكَآءَ فِي مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ فَأَنتُمۡ فِيهِ سَوَآءٞ تَخَافُونَهُمۡ كَخِيفَتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 27
(28) वह तुम्हें ख़ुद तुम्हारे अपने ही व्यक्तित्व से एक मिसाल देता है। क्या तुम्हारे उन दासों में से जो तुम्हारे स्वामित्व के अधीन हैं कुछ दास ऐसे भी हैं जो हमारे दिए हुए माल और दौलत में तुम्हारे साथ बराबर के साझीदार हों और तुम उनसे उस तरह डरते हो जिस तरह आपस में अपने समकक्ष व्यक्तियों से डरते हो7 — इस तरह हम आयतें खोलकर प्रस्तुत करते हैं उन लोगों के लिए जो बुद्धि से काम लेते हैं।
7. यह वही विषय है जिसका उल्लेख क़ुरआन की सूरा 16 (नह्ल) आयत 62 में किया जा चुका है। दोनों जगह तर्कयुक्ति यह है कि जब तुम अपने माल में अपने दासों को साझीदार नहीं बनाते तो तुम्हारी समझ में कैसे यह बात आती है कि ईश्वर अपने ईश्वरत्व में अपने बन्दों को साझीदार बनाएगा?
بَلِ ٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ فَمَن يَهۡدِي مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 28
(29) मगर ये ज़ालिम बिना समझे-बूझे अपनी कल्पनाओं के पीछे चल पड़े हैं। अब कौन उस व्यक्ति को मार्ग दिखा सकता है जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो, ऐसे लोगों का तो कोई सहायक नहीं हो सकता।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗاۚ فِطۡرَتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي فَطَرَ ٱلنَّاسَ عَلَيۡهَاۚ لَا تَبۡدِيلَ لِخَلۡقِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 29
(30) अतः (ऐ नबी, और नबी के अनुयायियो) एकाग्र होकर अपना रुख़ इस धर्म (दीन) की दिशा में जमा दो, क़ायम हो जाओ उस प्रकृति पर जिसपर अल्लाह तआला ने इनसानों को पैदा किया है, अल्लाह की बनाई हुई संरचना बदली नहीं जा सकती8, यही बिलकुल सीधा और ठीक धर्म है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
8. अर्थात् अल्लाह ने इनसान को अपना बन्दा बनाया है और अपनी ही बन्दगी के लिए पैदा किया है। यह रचना किसी के बदलने से नहीं बदल सकती। न आदमी बन्दा से ग़ैर-बन्दा बन सकता है, न किसी को जो ईश्वर नहीं, ईश्वर बना लेने से वह वास्तव में उसका ईश्वर बन सकता है। इनसान भले ही अपने कितने ही पूज्य बना बैठे, लेकिन यह तथ्य अपनी जगह अटल है कि वह एक ईश्वर के सिवा किसी का बन्दा नहीं है। दूसरा अनुवाद इस आयत का यह भी हो सकता है कि “अल्लाह की निर्मित रचना में परिवर्तन न किया जाए।” अर्थात् अल्लाह ने जिस प्रकृति पर इनसान को पैदा किया है उसको बिगाड़ना और विकृत करना ठीक नहीं है।
۞مُنِيبِينَ إِلَيۡهِ وَٱتَّقُوهُ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 30
(31) (क़ायम हो जाओ इस बात पर) अल्लाह की ओर रुजू करते हुए, और डरो उससे, और नमाज़ क़ायम करो, और न हो जाओ उन बहुदेववादियों में से
مِنَ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗاۖ كُلُّ حِزۡبِۭ بِمَا لَدَيۡهِمۡ فَرِحُونَ ۝ 31
(32) जिन्होंने अपना-अपना धर्म अलग बना लिया है और गिरोहों में बँट गए हैं, हर एक गिरोह के पास जो कुछ है उसी में वह मग्न है।
وَإِذَا مَسَّ ٱلنَّاسَ ضُرّٞ دَعَوۡاْ رَبَّهُم مُّنِيبِينَ إِلَيۡهِ ثُمَّ إِذَآ أَذَاقَهُم مِّنۡهُ رَحۡمَةً إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 32
(33) लोगों का हाल यह है कि जब उन्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो अपने रब की ओर रुजू करके उसे पुकारते हैं, फिर जब वह कुछ अपनी दयालुता का रसास्वादन उन्हें करा देता है तो अचानक उनमें से कुछ लोग शिर्क करने लगते हैं
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 33
(34) ताकि हमारे किए हुए उपकार के प्रति कृतघ्नता का प्रदर्शन करें। अच्छा, मज़े कर लो, जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा।
أَمۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا فَهُوَ يَتَكَلَّمُ بِمَا كَانُواْ بِهِۦ يُشۡرِكُونَ ۝ 34
(35) क्या हमने कोई सनद और प्रमाण उनपर उतारा है जो गवाही देता हो उस बहुदेववाद (शिर्क) की सत्यता पर जो ये अपना रहे हैं?
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ فَرِحُواْ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ إِذَا هُمۡ يَقۡنَطُونَ ۝ 35
(36) जब हम लोगों को दयालुता का रसास्वादन कराते हैं तो वे उसपर फूल जाते हैं। और जब उनकी अपनी की हुई करतूतों से उनपर कोई मुसीबत आती है तो अचानक वे निराश होने लगते हैं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 36
(37) क्या ये लोग देखते नहीं है कि अल्लाह ही रोज़ी कुशादा (विस्तीर्ण) करता है। जिसकी चाहता है, और तंग करता है (जिसकी चाहता है)? यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ है उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
فَـَٔاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 37
(38) अतः (ऐ ईमान लानेवाले) नातेदार को उसका हक़ दे और मुहताज और मुसाफ़िर को (उसका हक़)9। यह तरीक़ा बहुत अच्छा है उन लोगों के लिए जो अल्लाह की प्रसन्नता के इच्छुक हों, और वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।
9. यह नहीं कहा कि नातेदार, मुहताज और मुसाफ़िर को भीख दे। कहा यह गया है कि यह उसका हक़ और अधिकार है जो तुझे देना चाहिए, और हक़ ही समझकर तू उसे दे।
وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن رِّبٗا لِّيَرۡبُوَاْ فِيٓ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ فَلَا يَرۡبُواْ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن زَكَوٰةٖ تُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُضۡعِفُونَ ۝ 38
(39) जो ब्याज तुम देते हो ताकि लोगों के मालों में शामिल होकर वह बढ़ जाए, अल्लाह की दृष्टि में वह नहीं बढ़ता,10 और जो ज़कात (दान) तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के इरादे से देते हो, उसी के देनेवाले वास्तव में अपने माल बढ़ाते हैं।
10. क़ुरआन मजीद में यह पहली आयत है जो ब्याज की निन्दा में उतरी। बाद के आदेशों के लिए देखिए कुरआन की सूरा 3 (आले-इमरान) आयत 130, सूरा 2 (अल-बक़रा) आयतें 275 से 281 तक।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ ثُمَّ رَزَقَكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۖ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَفۡعَلُ مِن ذَٰلِكُم مِّن شَيۡءٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 39
(40) अल्लाह ही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुम्हें आजीविका दी, फिर वह तुम्हें मौत देता है, फिर वह तुम्हें ज़िन्दा करेगा। क्या तुम्हारे ठहराए हुए भागीदारों में कोई ऐसा है जो इनमें से कोई कार्य भी करता हो? पाक है वह और बहुत उच्च और महान है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
ظَهَرَ ٱلۡفَسَادُ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ بِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِي ٱلنَّاسِ لِيُذِيقَهُم بَعۡضَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 40
(41) थल और जल में बिगाड़ पैदा हो गया है लोगों के अपने हाथों की कमाई से11 ताकि मज़ा चखाए उनको उनके कुछ कर्मों का, शायद कि वे बाज़ आएँ।
11. संकेत उस युद्ध की ओर है जो उस समय दुनिया की दो महा-शक्तियों ईरान और रूस के बीच छिड़ा हुआ था।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلُۚ كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّشۡرِكِينَ ۝ 41
(42) (ऐ नबी) उनसे कहो कि ज़मीन में चल-फिरकर देखो पहले गुज़रे हुए लोगों का क्या परिणाम हो चुका है, उनमें से ज़्यादातर बहुदेववादी ही थे।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ ٱلۡقَيِّمِ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۖ يَوۡمَئِذٖ يَصَّدَّعُونَ ۝ 42
(43) अतः (ऐ नबी) अपना रुख़ मज़बूती के साथ जमा दो इस सीधे और ठीक धर्म की दिशा में इसके पहले कि वह दिन आए जिसके टल जाने का कोई उपाय अल्लाह की ओर से नहीं है। उस दिन लोग फटकर एक-दूसरे से अलग हो जाएँगे।
مَن كَفَرَ فَعَلَيۡهِ كُفۡرُهُۥۖ وَمَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِأَنفُسِهِمۡ يَمۡهَدُونَ ۝ 43
(44) जिसने इनकार किया है उसके इनकार का वबाल उसी पर है, और जिन लोगों ने अच्छा कर्म किया है वे अपने ही लिए (सफलता का रास्ता) साफ़ कर रहे हैं
لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 44
(45) ताकि अल्लाह ईमान लानेवालों और अच्छा कर्म करनेवालों को अपने अनुग्रह से बदला दे। यक़ीनन वह इनकार करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن يُرۡسِلَ ٱلرِّيَاحَ مُبَشِّرَٰتٖ وَلِيُذِيقَكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَلِتَجۡرِيَ ٱلۡفُلۡكُ بِأَمۡرِهِۦ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 45
(46) उसकी निशानियों में से यह है कि वह हवाएँ भेजता है ख़ुशख़बरी देने के लिए और तुम्हें अपनी दयालुता से लाभान्वित करने के लिए और इस उद्देश्य के लिए कि नौकाएँ उसके आदेश से चलें और तुम उसका अनुग्रह (आजीविका) तलाश करो और उसके आभारी बनो।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَٱنتَقَمۡنَا مِنَ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْۖ وَكَانَ حَقًّا عَلَيۡنَا نَصۡرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 46
(47) और हमने तुमसे पहले रसूलों को उनकी क़ौम की ओर भेजा और वे उनके पास स्पष्ट निशानियाँ लेकर आए। फिर जिन्होंने अपराध किया उनसे हमने बदला लिया और हमपर यह हक़ था कि हम ईमानवालों की सहायता करें।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَيَبۡسُطُهُۥ فِي ٱلسَّمَآءِ كَيۡفَ يَشَآءُ وَيَجۡعَلُهُۥ كِسَفٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦۖ فَإِذَآ أَصَابَ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 47
(48) अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है और वे बादल उठाती है फिर वह उन बादलों को आसमान में फैलाता है जिस तरह चाहता है और उन्हें टुकड़ियों में बाँटता है, फिर तू देखता है कि वर्षा की बूँदै बादल में से टपकी चली आती है। यह वर्षा जब वह अपने बन्दों में से जिनपर चाहता है बरसाता है तो अचानक वे ख़ुश और प्रसन्न हो जाते हैं,
وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلِ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡهِم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمُبۡلِسِينَ ۝ 48
(49) हालाँकि इसके उतरने से पहले वे निराश हो रहे थे।
فَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ ءَاثَٰرِ رَحۡمَتِ ٱللَّهِ كَيۡفَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 49
(50) देखो अल्लाह की दयालुता के प्रभाव कि मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को किस तरह जिला उठाता है, यक़ीनन वह मुर्दों को ज़िन्दगी प्रदान करनेवाला है और वह हर चीज़ की सामर्थ्य रखता है।
وَلَئِنۡ أَرۡسَلۡنَا رِيحٗا فَرَأَوۡهُ مُصۡفَرّٗا لَّظَلُّواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ يَكۡفُرُونَ ۝ 50
(51) और अगर हम एक ऐसी हवा भेज दें जिसके प्रभाव से वे अपनी खेती को पीली पड़ी हुई पाएँ तो वे दिखलाते रह जाते हैं।12
12. अर्थात् फिर वे अल्लाह को कोसने लगते हैं और उसपर दोषारोपण करने लगते हैं कि उसने कैसी मुसीबतें हमपर डाल रखी हैं। हालाँकि जब अल्लाह ने उनपर नेमत की वर्षा की थी उस समय उन्होंने शुक्र के बदले कृतघ्नता दिखलाई थी।
فَإِنَّكَ لَا تُسۡمِعُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَلَا تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا وَلَّوۡاْ مُدۡبِرِينَ ۝ 51
(52) (ऐ नबी) तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते13, न उन बहरों को अपनी पुकार सुना सकते हो जो पीठ फेरे चले जा रहे हों,
وَمَآ أَنتَ بِهَٰدِ ٱلۡعُمۡيِ عَن ضَلَٰلَتِهِمۡۖ إِن تُسۡمِعُ إِلَّا مَن يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 52
(53) और न तुम अन्धों को उनकी पथभ्रष्टता से निकालकर सन्मार्ग दिखा सकते हो। तुम तो सिर्फ़ उन्हीं को सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान लाते और आज्ञाकारी हो जाते हैं।
13. अर्थात् उन लोगों को जिनको अन्तरात्मा मर चुकी है।
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن ضَعۡفٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ ضَعۡفٖ قُوَّةٗ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٖ ضَعۡفٗا وَشَيۡبَةٗۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡقَدِيرُ ۝ 53
(54) अल्लाह ही तो है जिसने निर्बलता की हालत से तुम्हारे सृजन का आरंभ किया, फिर उस निर्बलता के बाद तुम्हें शक्ति प्रदान की, फिर उस शक्ति के बाद तुम्हें निर्बल और बूढ़ा कर दिया। वह जो कुछ चाहता है पैदा करता है। और वह सब कुछ जाननेवाला, हर चीज़ की सामर्थ्य रखनेवाला है।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُقۡسِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ مَا لَبِثُواْ غَيۡرَ سَاعَةٖۚ كَذَٰلِكَ كَانُواْ يُؤۡفَكُونَ ۝ 54
(55) और जब वह घड़ी14 आ मौजूद होगी तो अपराधी क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हम एक घड़ी-घर से ज़्यादा नहीं ठहरे है, इसी तरह वे दुनिया की ज़िन्दगी में धोखा खाया करते थे।
14. अर्थात् क़ियामत जिसके आने की सूचना दी जा रही है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ وَٱلۡإِيمَٰنَ لَقَدۡ لَبِثۡتُمۡ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡبَعۡثِۖ فَهَٰذَا يَوۡمُ ٱلۡبَعۡثِ وَلَٰكِنَّكُمۡ كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 55
(56) मगर जो ज्ञान और ईमान से सम्पन्न किए गए थे वे कहेंगे कि अल्लाह के लेख्य में जो तुम जी उठने (हश्र) के दिन तक पड़े रहे हो सो यह वही जी उठने (हश्र) का दिन है लेकिन तुम जानते न थे।
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَعۡذِرَتُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 56
(57) अतः वह दिन होगा जिसमें ज़ालिमों को उनका उज़्र (बहाना) कोई लाभ न पहुँचाएगा और न उनसे माफ़ी माँगने के लिए कहा जाएगा।15
15. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है—“न उनसे यह चाहा जाएगा कि अपने रब को राज़ी करो।"
وَلَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَلَئِن جِئۡتَهُم بِـَٔايَةٖ لَّيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُبۡطِلُونَ ۝ 57
(58) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया है। तुम चाहे कोई निशानी ले आओ, जिन लोगों ने मानने से इनकार कर दिया है वे यही कहेंगे कि तुम असत्य पर हो।
كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 58
(59) इस तरह ठप्पा लगा देता है अल्लाह उन लोगों के दिलों पर जो ज्ञान से वंचित हैं।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ وَلَا يَسۡتَخِفَّنَّكَ ٱلَّذِينَ لَا يُوقِنُونَ ۝ 59
(60) अतः (ऐ नबी) सब्र करो, यक़ीनन अल्लाह का वादा सच्चा है, और हरगिज़ हलका न पाएँ तुमको वे लोग जो विश्वास नहीं करते।16
16. अर्थात् दुश्मन तुमको ऐसा कमज़ोर न पाएँ कि उनके शोर-हंगामे से तुम दब जाओ, या उनके आरोप और मिष्यारोपणों के अभियान से तुम आतंकित हो जाओ, या उनकी फबतियों और तानों और परिहास से तुम साहस छोड़ बैठो, या उनकी धमकियों और शक्ति के प्रदर्शनों या ज़ुल्म और अत्याचार से तुम डर जाओ, या उनके दिए हुए लालचों से तुम फिसल जाओ।