33. अल-अहज़ाब
(मदीना में उतरी, आयतें 73)
परिचय
नाम
आयत 20 के वाक्य “यहसबूनल अहज़ा-ब लम यज़-हबू” [ये समझ रहे हैं कि आक्रमणकारी गिरोह (अल-अहज़ाब) अभी गए नहीं हैं से लिया गया है।
उतरने का समय
[यह सूरा मदीना में उतरी है। इस सूरा के विषय का संबंध तीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं से है-
एक, अहज़ाब का युद्ध, जो शव्वाल सन् 05 हिजरी में हुआ,
दूसरा, बनी-क़ुरैज़ा का युद्ध जो ज़ी-कादा सन् 05 हिजरी में हुआ,
तीसरा, हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) का निकाह जो इसी साल ज़ी-क़ादा में हुआ।
इन ऐतिहासिक घटनाओं से सूरा के उतरने का समय सही-सही निश्चित हो जाता है, [और यही घटनाएँ इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी हैं।]
सामाजिक सुधार
उहुद और अहज़ाब के युद्ध के बीच के दो वर्ष का समय यद्यपि ऐसे हंगामों का था जिनके कारण नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (रज़ि०) को एक दिन के लिए भी सुख-शान्ति प्राप्त न हुई। लेकिन इस पूरी अवधि में नए मुस्लिम समाज का निर्माण और ज़िन्दगी के हर पहलू में सुधार का काम बराबर चलता रहा। यही समय था जिसमें मुसलमानों के निकाह और तलाक़ के क़ानून लगभग पूरे हो गए। विरासत का क़ानून बना, शराब और जुए को हराम किया गया, [परदे के आदेश आने शुरू हुए] और अर्थव्यवस्था तथा सामाजिकता और समाज के दूसरे बहुत-से पहलुओं में नए क़ानून लागू किए गए।
विषय और वार्ता
यह पूरी सूरा एक व्याख्यान नहीं है जो एक ही समय में उतरा हो, बल्कि यह अनेक आदेश, फ़रमान और व्याख्यानों पर सम्मिलित है। इसके निम्नलिखित अंश स्पष्ट रूप से अलग-अलग दिखाई देते हैं-
- आयत नम्बर 1 से 8 तक का भाग अहज़ाब अभियान से कुछ पहले का अवतरित मालूम होता है। इसके अवतरण के समय हज़रत ज़ैद (रज़ि०), हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे चुके थे। नबी (सल्ल०) इस ज़रूरत को महसूस कर रहे थे कि मुँह बोले बेटे के विषय में अज्ञानकाल की धारणाओं [को मिटाने के लिए हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से स्वयं निकाह कर लें] लेकिन सेक साथ ही इस कारण बहुत संकोच में थे कि यदि [मैंने ऐसा] किया तो इस्लाम के विरुद्ध हँगामा उठाने के लिए मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और यहूद और बहुदेववादियों को एक भारी शोशा हाथ आ जाएगा।
- आयत 9 से लेकर 27 तक में अहज़ाब और बनी-क़ुरैज़ा के अभियान की समीक्षा की गई है। यह इस बात का स्पष्ट लक्षण है कि ये आयतें इन अभियानों के पश्चात् अवतरित हुईं हैं।
- आयत 28 के आरंभ से आयत 35 तक का अभिभाषण दो विषयों पर आधारित है। पहले भाग में नबी (सल्ल.) की पत्नियों को जो उस तंगी और निर्धनता के समय में अधीर हो रही थीं, अल्लाह ने नोटिस दिया है कि संसार और उसकी सजावट और अल्लाह के रसूल और परलोक में से किसी को चुन लो। दूसरे भाग में सामाजिक सुधार [के पहले क़दम के रूप में] आपकी धर्म-पत्नियों को आदेश दिया गया है कि अज्ञानकाल की सज-धज से बचें, प्रतिष्ठापूर्वक अपने घरों में बैठें और अन्य पुरुषों के साथ बातचीत में बहुत सतर्कता से काम लें। ये परदे के आदेशों का आरंभ था।
- आयत 36 से 48 तक का विषय हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के साथ नबी (सल्ल०) के विवाह से सम्बन्ध रखता है। इसमें उन सभी आक्षेपों का उत्तर दिया गया है, जो विधर्मियों की ओर से किए जा रहे थे।
- आयत 49 में तलाक़ के क़ानून की एक धारा वर्णित हुई है। यह एक अकेली आयत है जो सम्भवतः इन्हीं घटनाओं के सिलसिले में किसी अवसर पर अवतरित हुई थी।
- आयत 50 से 52 तक में नबी (सल्ल०) के लिए विवाह का विशिष्ट विधान प्रस्तुत किया गया है।
- आयत 53 से 55 तक में सामाजिक सुधार का दूसरा क़दम उठाया गया है। यह निम्नलिखित आदेशों पर आधारित है : नबी (सल्ल०) के घरों में पराए पुरुषों के आने-जाने पर प्रतिबंध, मिलने-जुलने और भोज-निमंत्रण का नियम, नबी (सल्ल०) की पत्नियों के विषय में यह आदेश कि वे मुसलमानों के लिए माँ की तरह हराम (प्रतिष्ठित) हैं।
- आयत 56 और 57 में उन निराधार कानाफूसियों पर सख़्त चेतावनी दी गई है जो नबी (सल्ल०) के विवाह और पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में की जा रही थीं।
- आयत 59 में सामाजिक सुधार का तीसरा क़दम उठाया गया है। इसमें समस्त मुस्लिम स्त्रियों को यह आदेश दिया गया है कि जब घरों से बाहर निकलें तो चादरों से अपने आपको ढाँककर और घूँघट काढ़कर निकलें—इसके पश्चात् सूरा के अन्त तक अफ़वाह उड़ाने के उस अभियान (Whispering Campaign) पर बड़ी भर्त्सना की गई है, जो मुनाफ़िक़ों और मूर्खों और नीच प्रकृति के लोगों ने उस समय छेड़ रखा था।
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مَّا جَعَلَ ٱللَّهُ لِرَجُلٖ مِّن قَلۡبَيۡنِ فِي جَوۡفِهِۦۚ وَمَا جَعَلَ أَزۡوَٰجَكُمُ ٱلَّٰٓـِٔي تُظَٰهِرُونَ مِنۡهُنَّ أُمَّهَٰتِكُمۡۚ وَمَا جَعَلَ أَدۡعِيَآءَكُمۡ أَبۡنَآءَكُمۡۚ ذَٰلِكُمۡ قَوۡلُكُم بِأَفۡوَٰهِكُمۡۖ وَٱللَّهُ يَقُولُ ٱلۡحَقَّ وَهُوَ يَهۡدِي ٱلسَّبِيلَ 3
(4) अल्लाह ने किसी व्यक्ति के धड़ में दो दिल नहीं रखे, न उसने तुम लोगों की उन पत्नियों को जिनसे तुम 'ज़िहार’1 करते हो तुम्हारी माँ बना दिया है, और न उसने तुम्हारे मुँहबोले बेटों को तुम्हारा वास्तविक बेटा बनाया है। ये तो वे बातें हैं जो तुम लोग अपने मुँह से निकाल देते हो, मगर अल्लाह वह बात कहता है जो तथ्य पर आधारित है और वही सही तरीक़े की तरफ़ राह दिखाता है।
1. 'ज़िहार' से मुराद है पत्नी को माँ की उपमा देना।
ٱدۡعُوهُمۡ لِأٓبَآئِهِمۡ هُوَ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِۚ فَإِن لَّمۡ تَعۡلَمُوٓاْ ءَابَآءَهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَمَوَٰلِيكُمۡۚ وَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٞ فِيمَآ أَخۡطَأۡتُم بِهِۦ وَلَٰكِن مَّا تَعَمَّدَتۡ قُلُوبُكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا 4
(5) मुँहबोले बेटों को उनके बापों के सम्बन्ध से पुकारो, यह अल्लाह की दृष्टि में ज़्यादा न्यायसंगत बात है। और अगर तुम्हें मालूम न हो कि उनके बाप कौन हैं तो वे धर्म के नाते से तुम्हारे भाई और साथी हैं। अनजाने में जो बात तुम कहो उसके लिए तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है, लेकिन उस बात पर ज़रूर पकड़ है जिसका तुम दिल से इरादा करो। अल्लाह माफ़ करनेवाला और दयावान् है।
ٱلنَّبِيُّ أَوۡلَىٰ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَأَزۡوَٰجُهُۥٓ أُمَّهَٰتُهُمۡۗ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ إِلَّآ أَن تَفۡعَلُوٓاْ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِكُم مَّعۡرُوفٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا 5
(6) निस्सन्देह नबी को तो ईमानवालों के लिए उनके अपने ख़ुद की अपेक्षा प्राथमिकता प्राप्त है और नबी की पत्नियाँ उनकी माएँ है, मगर अल्लाह की किताब के अनुसार सामान्य ईमानवाले और 'हिजरत' करनेवालों की अपेक्षा नातेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार है, अलबता अपने साथियों के साथ तुम कोई भलाई (करना चाहो तो) कर सकते हो। यह आदेश अल्लाह की किताब में लिखा हुआ है।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مِيثَٰقَهُمۡ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٖ وَإِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۖ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا 6
(7) और (ऐ नबी) याद रखो उस प्रतिज्ञा को जो हमने सब पैग़म्बरों से ली है, तुमसे भी और नूह और इबराहीम और मूमा और परमय के बेटे ईसा से भी। सबसे हम दृढ़ वचन2 ले चुके हैं।
2. इस आयत में अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को यह बात याद दिलाता है कि सारे नबियों की तरह आपसे भी अल्लाह एक दृढ़ प्रतिज्ञा ले चुका है जिसकी आपको दृढ़तापूर्वक पाबन्दी करनी चाहिए। ऊपर से जो वार्ता का सिलसिला चला आ रहा है उसपर विचार करने से साफ़ मालूम हो जाता है कि इससे मुराद यह प्रतिज्ञा है कि पैग़म्बर अल्लाह तआला के प्रत्येक आदेश का स्वयं पालन करेगा और दूसरों से कराएगा, अल्लाह की बातों को बिना किसी कमी के पहुँचाएगा और उन्हें व्यावहारिक रूप से लागू करने के प्रयास में कोई कोताही न दिखाएगा। क़ुरआन मजीद में इस प्रतिज्ञा का उल्लेख विभिन्न स्थानों पर किया गया है। उदाहरणार्थ, सूरा 2 (अल-बक़रा) आयत 83, सूरा 3 ( आले-इमरान) आयत 187, सूरा 5 (अल-माइदा) आयत 7 सूरा 7 (अल-आराफ़) आयतें 169-171, सूरा 42 (अश-शूरा) आयत 13।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَآءَتۡكُمۡ جُنُودٞ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا وَجُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا 8
(9) ऐ लोगो3 जो ईमान लाए हो, याद करो अल्लाह के उपकार को जो (अभी-अभी) उसने तुमपर किया है।
3. यहाँ से आयत 27 तक अहज़ाब और बनी-कुरैज़ा के युद्ध का उल्लेख किया गया है।
إِذۡ جَآءُوكُم مِّن فَوۡقِكُمۡ وَمِنۡ أَسۡفَلَ مِنكُمۡ وَإِذۡ زَاغَتِ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَبَلَغَتِ ٱلۡقُلُوبُ ٱلۡحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِٱللَّهِ ٱلظُّنُونَا۠ 9
(10) जब सेनाएँ तुमपर चढ़ आईं तो हमने उनपर एक प्रचण्ड आँधी भेज दी और ऐसी सेनाएँ भेजी जो तुमको दिखाई न देती थीं।4 अल्लाह वह सब कुछ देख रहा था जो तुम लोग उस समय कर रहे थे। जब दुश्मन ऊपर से और नीचे से तुमपर चढ़ आए, जब डर के कारण आँखें पथरा गई, कलेजे मुँह को आ गए, और तुम लोग अल्लाह के बारे में तरह-तरह के गुमान करने लगे,
وَإِذۡ قَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ يَٰٓأَهۡلَ يَثۡرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمۡ فَٱرۡجِعُواْۚ وَيَسۡتَـٔۡذِنُ فَرِيقٞ مِّنۡهُمُ ٱلنَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوۡرَةٞ وَمَا هِيَ بِعَوۡرَةٍۖ إِن يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارٗا 12
(13) जब उनमें से एक गिरोह ने कहा कि “ऐ यसरिब के लोगो, तुम्हारे लिए अब ठहरने का कोई मौक़ा नहीं है, पलट चलो।” जब उनके कुछ लोग यह कहकर नबी से रुख़सत माँग रहे थे “हमारे घर ख़तरे में हैं।” हालाँकि वे ख़तरे में न थे, वास्तव में वे (युद्ध के मोर्चे से) भागना चाहते थे।
أَشِحَّةً عَلَيۡكُمۡۖ فَإِذَا جَآءَ ٱلۡخَوۡفُ رَأَيۡتَهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ تَدُورُ أَعۡيُنُهُمۡ كَٱلَّذِي يُغۡشَىٰ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَإِذَا ذَهَبَ ٱلۡخَوۡفُ سَلَقُوكُم بِأَلۡسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى ٱلۡخَيۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يُؤۡمِنُواْ فَأَحۡبَطَ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا 18
(19) जो तुम्हारा साथ देने में बड़े ही कंजूस हैं। ख़तरे का समय आ जाए तो इस तरह दीदे फिरा-फिराकर तुम्हारी ओर देखते हैं जैसे किसी मरनेवाले पर बेहोशी छा रही हो, मगर जब ख़तरा गुज़र जाता है तो यही लोग लाभों के लोभी बनकर कैंची की तरह चलती हुई ज़बानें लिए तुम्हारे स्वागत को आ जाते हैं। ये लोग हरगिज़ ईमान नहीं लाए, इसलिए अल्लाह ने इनके सारे कर्म नष्ट कर दिए। और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान इसी है।
لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِي رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَ وَذَكَرَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا 20
(21) वास्तव में तुम लोगों के लिए अल्लाह के रसूल में एक उत्तम आदर्श था5, प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह और अन्तिम दिन की आशा रखता हो और अल्लाह को ज़्यादा याद करे।
5. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि 'उत्तम आदर्श है।’
وَرَدَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِغَيۡظِهِمۡ لَمۡ يَنَالُواْ خَيۡرٗاۚ وَكَفَى ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلۡقِتَالَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزٗا 24
(25) अल्लाह ने इनकार करनेवालों का मुँह फेर दिया, वे कोई लाभ प्राप्त किए बिना अपने दिल की जलन लिए यों ही पलट गए, और ईमानवालों की ओर से अल्लाह ही लड़ने के लिए काफ़ी हो गया, अल्लाह बड़ी शक्तिवाला और प्रभुत्वशाली है।
وَأَنزَلَ ٱلَّذِينَ ظَٰهَرُوهُم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن صَيَاصِيهِمۡ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَ فَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ وَتَأۡسِرُونَ فَرِيقٗا 25
(26) फिर किताबवालों में से जिन लोगों ने इन आक्रमणकारियों का साथ दिया था,6 अल्लाह उनकी गढ़ियों से उन्हें उतार लाया और उनके दिलों में उसने ऐसा रोब डाल दिया कि आज उनमें से एक गिरोह को तुम क़त्ल कर रहे हो और दूसरे गिरोह को बन्दी बना रहे हो।
6. अर्थात् बनी-क़ुरैज़ा के यहूदी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ إِن كُنتُنَّ تُرِدۡنَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيۡنَ أُمَتِّعۡكُنَّ وَأُسَرِّحۡكُنَّ سَرَاحٗا جَمِيلٗا 27
(28) ऐ नबी, अपनी पत्नियों से कहो अगर तुम दुनिया और उसकी शोभा चाहती हो तो आओ, मैं तुम्हे कुछ दे-दिलाकर भले तरीक़े से विदा कर दूँ।7
7. यह आयत उस समय उतरी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के यहाँ फ़ाक़ों पर फ़ाक़े हो रहे थे और आपकी पत्नियाँ बहुत परेशान थीं।
يَٰنِسَآءَ ٱلنَّبِيِّ مَن يَأۡتِ مِنكُنَّ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖ يُضَٰعَفۡ لَهَا ٱلۡعَذَابُ ضِعۡفَيۡنِۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا 29
(30) नबी की पत्नियो, तुममें से जो कोई प्रत्यक्ष अश्लील कर्म करेगी उसे दोहरा अज़ाब दिया जाएगा8, अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।
8. इसका अर्थ यह नहीं कि नबी (सल्ल०) की पाक पत्नियों से (अल्लाह की पनाह) किसी अश्लील कर्म का संदेह या ख़तरा था। बल्कि उनको यह एहसास दिलाना अभीष्ट था कि तुम सारी उम्मत की माएँ हो, इसलिए अपने प्रतिष्ठित स्थान से गिरा हुआ कोई काम न करना।
وَقَرۡنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجۡنَ تَبَرُّجَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ ٱلۡأُولَىٰۖ وَأَقِمۡنَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتِينَ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِعۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُذۡهِبَ عَنكُمُ ٱلرِّجۡسَ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِ وَيُطَهِّرَكُمۡ تَطۡهِيرٗا 32
(33) अपने घरों में टिककर रहो और विगत अज्ञान-काल की सी सज-धज न दिखाती फिरो। नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करो। अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम नबी के घरवालों से गन्दगी को दूर करे और तुम्हें पूर्ण रूप से पाक कर दे।
وَٱذۡكُرۡنَ مَا يُتۡلَىٰ فِي بُيُوتِكُنَّ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ وَٱلۡحِكۡمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ لَطِيفًا خَبِيرًا 33
(34) याद रखो, अल्लाह की आयतों और तत्त्वदर्शिता की उन बातों को जो तुम्हारे घरों में सुनाई जाती हैं। निस्संदेह अल्लाह सूक्ष्मदर्शी9 और ख़बर रखनेवाला है।
9. अर्थात् छिपी से छिपी बात तक को जाननेवाला।
إِنَّ ٱلۡمُسۡلِمِينَ وَٱلۡمُسۡلِمَٰتِ وَٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡقَٰنِتَٰتِ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلصَّٰدِقَٰتِ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰبِرَٰتِ وَٱلۡخَٰشِعِينَ وَٱلۡخَٰشِعَٰتِ وَٱلۡمُتَصَدِّقِينَ وَٱلۡمُتَصَدِّقَٰتِ وَٱلصَّٰٓئِمِينَ وَٱلصَّٰٓئِمَٰتِ وَٱلۡحَٰفِظِينَ فُرُوجَهُمۡ وَٱلۡحَٰفِظَٰتِ وَٱلذَّٰكِرِينَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱلذَّٰكِرَٰتِ أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمٗا 34
(35) निश्चय ही जो मर्द और जो औरतें मुस्लिम हैं, मोमिन हैं आज्ञाकारी हैं, सत्यवादी हैं, धैर्यवान हैं, अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं, सदक़ा (दान) देनेवाले हैं, रोज़े (व्रत) रखनेवाले हैं, अपनी शर्मगाहों (गुप्तांगों) की रक्षा करनेवाले हैं, और अल्लाह को ज़्यादा याद करनेवाले हैं, अल्लाह ने उनके लिए क्षमादान और बड़ा बदला तैयार कर रखा है।
وَإِذۡ تَقُولُ لِلَّذِيٓ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَأَنۡعَمۡتَ عَلَيۡهِ أَمۡسِكۡ عَلَيۡكَ زَوۡجَكَ وَٱتَّقِ ٱللَّهَ وَتُخۡفِي فِي نَفۡسِكَ مَا ٱللَّهُ مُبۡدِيهِ وَتَخۡشَى ٱلنَّاسَ وَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَىٰهُۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيۡدٞ مِّنۡهَا وَطَرٗا زَوَّجۡنَٰكَهَا لِكَيۡ لَا يَكُونَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ حَرَجٞ فِيٓ أَزۡوَٰجِ أَدۡعِيَآئِهِمۡ إِذَا قَضَوۡاْ مِنۡهُنَّ وَطَرٗاۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولٗا 36
(37) ऐ नबी, याद करो वह अवसर जब तुम उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने और तुमने उपकार किया था कि “अपनी पत्नी को न छोड़ और अल्लाह से डर।”10 उस समय तुम अपने दिल में वह बात छिपाए हुए थे जिसे अल्लाह खोलना चाहता था, तुम लोगों से डर रहे थे, हालाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़ रखता है कि तुम उससे डरो।11 फिर जब जैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका12 तो हमने उस (तलाक़ पाई हुई औरत) का तुमसे निकाह कर दिया, ताकि ईमानवालों पर अपने मुँहबोले बेटों की पत्नियों के मामले में कोई तंगी न रहे जबकि वे उनसे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुके हों। और अल्लाह का आदेश तो कार्यान्वित होना ही चाहिए था।
10. उस व्यक्ति से मुराद है हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आज़ाद किए हुए ग़ुलाम और आपके मुँहबोले बेटे थे और उनकी पत्नी से मुराद हैं हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) जो नबी (सल्ल०) की फूफीज़ाद बहन थीं और आपने उनका विवाह हज़रत ज़ैद (रज़ि०) से कर दिया था। मगर दोनों का निबाह नहीं हो रहा था और हज़रत ज़ैद (रज़ि०) उनको तलाक़ देने पर आमादा हो रहे थे।
11. अर्थात् अल्लाह की मरज़ी यह थी कि जब हज़रत जैद (रज़ि०) हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे दें तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ख़ुद उनसे विवाह करके अरब की उस प्राचीन रीति को तोड़ दें जिसके अनुसार मुँह बोले बेटे को वास्तविक बेटा समझा जाता था। लेकिन नबी (सल्ल०) इस आशंका से कि इसपर अरबवाले कड़ी आलोचनाएँ करने लगेंगे इस आज़माइश में पड़ने से बचना चाहते थे, इसी लिए आपने कोशिश की कि ज़ैद (रज़ि०) अपनी पत्नी को तलाक़ न दें।
12. अर्थात् तलाक़ देने की इच्छा जो उन्हें थी उसे उन्होंने पूरा कर दिया और अपनी तलाक़ पाई हुई पत्नी से उनका कोई नाता बाक़ी न रहा।
مَّا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَآ أَحَدٖ مِّن رِّجَالِكُمۡ وَلَٰكِن رَّسُولَ ٱللَّهِ وَخَاتَمَ ٱلنَّبِيِّـۧنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا 39
(40) (लोगो) मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं, मगर वे अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक (आख़िरी नबी) है, और अल्लाह हर चीज़़ का ज्ञान रखनेवाला है।13
13. इस एक वाक्य में उन सभी आक्षेपों की जड़ काट दी गई है जो विरोधी नबी (सल्ल०) के इस निकाह पर कर रहे थे। उनका प्रथम आक्षेप यह था कि आपने अपनी बहू से निकाह किया है। इसके जवाब में कहा गया है कि मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं।” अर्थात् वह बेटा था कब कि उसकी छोड़ी हुई पत्नी से निकाह करना हराम होता? दूसरा आक्षेप यह था कि अगर मुँहबोला बेटा वास्तविक बेटा नहीं है तब भी उसको छोड़ी हुई औरत से निकाह कर लेना कुछ ज़रूरी तो न था। इसके जवाब में कहा गया “मगर वे अल्लाह के रसूल हैं", अर्थात् रसूल होने की हैसियत से उनके लिए यह अनिवार्य था कि जिस हलाल चीज़ को तुम्हारी प्रथाओं ने अकारण हराम कर रखा है उसके बारे में सभी पक्षपातों को समाप्त कर दें और उसकी वैधता के विषय में किसी सन्देह को गुंजाइश बाक़ी न रहने दें। फिर अतिरिक्त ताक़ीद के लिए कहा, “और वे नबियों के समापक हैं", अर्थात् उनके बाद कोई रसूल तो अलग रहा कोई नबी तक आनेवाला नहीं है कि अगर क़ानून और समाज का कोई सुधार उनके समय में व्यवहार में आने से रह जाए तो बाद का आनेवाला नबी यह कमी पूरी कर दे, अतः यह और भी ज़रूरी हो गया था कि अज्ञानता की इस प्रथा का अन्त वे ख़ुद ही करके जाएँ। इसके बाद और ज़्यादा ज़ोर देते हुए कहा गया कि “अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखनेवाला है।” अर्थात् अल्लाह को मालूम है कि इस समय मुहम्मद (सल्ल०) के हाथों इस अज्ञानता की प्रथा को समाप्त करा देना क्यों ज़रूरी था और ऐसा न करने में क्या ख़राबी थी।
وَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَدَعۡ أَذَىٰهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا 47
(48) और हरगिज़ न दबो इनकार करनेवालों और कपटाचारियों से, कोई परवाह न करो उनके दुख पहुँचाने की14 और भरोसा कर लो अल्लाह पर, अल्लाह ही इसके लिए काफ़ी है कि आदमी अपने मामले उसे सौंप दे।
14. अर्थात् उन आलोचनाओं की जो ये लोग इस निकाह पर कर रहे हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِنَّآ أَحۡلَلۡنَا لَكَ أَزۡوَٰجَكَ ٱلَّٰتِيٓ ءَاتَيۡتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَ مِمَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّٰتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَٰلَٰتِكَ ٱلَّٰتِي هَاجَرۡنَ مَعَكَ وَٱمۡرَأَةٗ مُّؤۡمِنَةً إِن وَهَبَتۡ نَفۡسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنۡ أَرَادَ ٱلنَّبِيُّ أَن يَسۡتَنكِحَهَا خَالِصَةٗ لَّكَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۗ قَدۡ عَلِمۡنَا مَا فَرَضۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ لِكَيۡلَا يَكُونَ عَلَيۡكَ حَرَجٞۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 49
(50) ऐ नबी, हमने तुम्हारे लिए हलाल कर दीं तुम्हारी वे पत्नियाँ जिनके 'मह्र' तुमने अदा किए हैं,15 और वे औरतें जो अल्लाह की प्रदान की हुई दासियों में से तुम्हारी मिलकियत में आएँ, और तुम्हारी वे चचाज़ाद और फूफीज़ाद और मामूज़ाद और ख़ालाज़ाद बहनें जिन्होंने तुम्हारे साथ 'हिजरत' की है और वह ईमानवाली औरत जिसने अपने आपको नबी के लिए हिबा किया हो अगर नबी उसे निकाह में लेना चाहे।16 यह छूट सिर्फ़ तुम्हारे लिए है, दूसरे ईमानवालों के लिए नहीं है। हमको मालूम है कि सामान्य ईमानों के लिए उनकी पत्नियों और दासियों के बारे में हमने क्या सीमाएँ निर्धारित की हैं। (तुम्हें उन सीमाओं से हमने इसलिए मुक्त किया है) ताकि तुम्हारे ऊपर कोई तंगी न रहे, और अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील और दयावान् है।
15. यह वास्तव में जवाब है उन लोगों के आक्षेप का जो कहते थे कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दूसरे लोगों के लिए तो एक समय में चार से ज़्यादा पत्नियाँ रखना वर्जित ठहरा देते हैं, मगर ख़ुद उन्होंने ये पाँचवीं पत्नों कैसे कर ली? विदित रहे कि उस समय नबी (सल्ल०) के घर में चार पलियाँ, हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत सौदा (रज़ि०), हज़रत हफ़सा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) पहले से मौजूद थीं।
16. अर्थात् इन पाँच पत्नियों के अलावा और भी उन विभिन्न प्रकार की महिलाओं से विवाह करने की नबी (सल्ल०) को अनुमति प्रदान की गई जिनका इस आयत में उल्लेख है।
۞تُرۡجِي مَن تَشَآءُ مِنۡهُنَّ وَتُـٔۡوِيٓ إِلَيۡكَ مَن تَشَآءُۖ وَمَنِ ٱبۡتَغَيۡتَ مِمَّنۡ عَزَلۡتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكَۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن تَقَرَّ أَعۡيُنُهُنَّ وَلَا يَحۡزَنَّ وَيَرۡضَيۡنَ بِمَآ ءَاتَيۡتَهُنَّ كُلُّهُنَّۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمٗا 50
(51) तुमको अधिकार दिया जाता है कि अपनी पात्नियों में से जिसे चाहो अपने से अलग रखो, जिसे चाहो अपने साथ रखो और जिसे चाहो अलग रखने के बाद अपने पास बुला लो। इस मामले में तुमपर कोई दोष नहीं है। इस तरह ज़्यादा उम्मीद है कि उनकी आँखें ठण्डी रहेंगी और वे शोकाकुल न होंगी, और जो कुछ भी तुम उनको दोगे उसपर वे सब राज़ी रहेंगी। अल्लाह जानता है जो कुछ तुम लोगों के दिलों में है, और अल्लाह सर्वज्ञ और सहनशील है।
لَّا يَحِلُّ لَكَ ٱلنِّسَآءُ مِنۢ بَعۡدُ وَلَآ أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ حُسۡنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ رَّقِيبٗا 51
(52) इसके बाद तुम्हारे लिए दूसरी औरतें हलाल नहीं हैं, और न इसकी इजाज़त है कि इनकी जगह और पत्नियाँ ले आओ चाहे उनकी सुन्दरता तुम्हें कितनी ही पसन्द हो17, अलबत्ता दासियों की तुम्हें अनुमति है।18 अल्लाह हर चीज़़ पर निगाह रखता है।
17. इस कथन के दो अर्थ हैं। एक यह कि जो औरतें ऊपर आयत नं० 50 में नबी (सल्ल०) के लिए हलाल निर्धारित की गई हैं उनके सिवा दूसरों कोई औरत अब आपके लिए हलाल नहीं है। दूसरा यह कि जब आपको पाक पत्नियाँ इस बात के लिए राज़ी हो गई हैं कि तंगी और कठिनाई में आपका साथ दें और परलोक (आख़िरत) के लिए दुनिया को तज दें, और इसपर भी प्रसन्न हैं कि आप (सल्ल०) जो व्यवहार भी उनके साथ चाहें करें, तो अब आपके लिए यह हलाल नहीं है कि उनमें से किसी को तलाक़ देकर उसकी जगह कोई और पत्नी ले आएँ।
18. यह आयत इस बात को स्पष्ट कर रही है कि उन पत्नियों के अलावा जिनसे विवाह किया है, अधिकृत स्त्रियों (दासियों) से भी संभोग की अनुमति है और उनके लिए संख्या का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी विषय का स्पष्टीकरण सूरा 4 (निसा) आयत 3, सूरा 23 (मोमिनून) आयत 6 और सूरा 70 (मआरिज) आयत 30 में भी किया गया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتَ ٱلنَّبِيِّ إِلَّآ أَن يُؤۡذَنَ لَكُمۡ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيۡرَ نَٰظِرِينَ إِنَىٰهُ وَلَٰكِنۡ إِذَا دُعِيتُمۡ فَٱدۡخُلُواْ فَإِذَا طَعِمۡتُمۡ فَٱنتَشِرُواْ وَلَا مُسۡتَـٔۡنِسِينَ لِحَدِيثٍۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ يُؤۡذِي ٱلنَّبِيَّ فَيَسۡتَحۡيِۦ مِنكُمۡۖ وَٱللَّهُ لَا يَسۡتَحۡيِۦ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ وَإِذَا سَأَلۡتُمُوهُنَّ مَتَٰعٗا فَسۡـَٔلُوهُنَّ مِن وَرَآءِ حِجَابٖۚ ذَٰلِكُمۡ أَطۡهَرُ لِقُلُوبِكُمۡ وَقُلُوبِهِنَّۚ وَمَا كَانَ لَكُمۡ أَن تُؤۡذُواْ رَسُولَ ٱللَّهِ وَلَآ أَن تَنكِحُوٓاْ أَزۡوَٰجَهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦٓ أَبَدًاۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمًا 52
(53) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, नबी के घरों में बिना अनुमति के न चले आया करो। न खाने का समय ताकते रहो। हाँ, अगर तुम्हें खाने पर बुलाया जाए तो ज़रूर आओ। मगर जब खाना खा लो तो तितर-बितर हो जाओ, बातें करने में न लगे रहो। तुम्हारी ये हरकतें नबी को तकलीफ़ देती हैं, मगर वे लज्जावश कुछ नहीं कहते। और अल्लाह हक़ बात कहने में लज्जा नहीं करता। नबी की पत्नियों से अगर तुम्हें कुछ माँगना हो तो परदे के पीछे से माँगा करो, यह तुम्हारे और उनके दिलों की पवित्रता के लिए ज़्यादा उचित तरीक़ा है। तुम्हारे लिए यह हरगिज़ जाइज़ नहीं कि अल्लाह के रसूल को तकलीफ़ दो, और न यह जाइज़ है कि उनके बाद उनकी पत्नियों से निकाह करो, यह अल्लाह की दृष्टि में बहुत बड़ा गुनाह है।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡهِنَّ فِيٓ ءَابَآئِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآئِهِنَّ وَلَآ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ أَخَوَٰتِهِنَّ وَلَا نِسَآئِهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّۗ وَٱتَّقِينَ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا 54
(55) नबी की पत्नियों के लिए इसमें कोई दोष नहीं है कि उनके बाप, उनके बेटे, उनके भाई, उनके भतीजे उनके भानजे उनके मेलजोल की स्त्रियाँ और उनके अधिकृत (दास) घरों में आएँ। (ऐ औरतो) तुम्हें अल्लाह की नाफ़रमानी से बचना चाहिए। अल्लाह हर चीज़़ पर निगाह रखता है।
إِنَّ ٱللَّهَ وَمَلَٰٓئِكَتَهُۥ يُصَلُّونَ عَلَى ٱلنَّبِيِّۚ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ صَلُّواْ عَلَيۡهِ وَسَلِّمُواْ تَسۡلِيمًا 55
(56) अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी पर 'दुरूद' भेजते हैं। ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम भी उनपर दुरूद और सलाम भेजो।19
19. अल्लाह की ओर से अपने नबी पर 'सलात' (दुरूद) का मतलब यह है कि वह आपपर अत्यन्त दयावान् है, आपकी प्रशंसा करता है, आपके काम में बरकत देता है, आपका नाम ऊँचा करता है और आपपर अपनी दयालुताओं की वर्षा करता है। फ़रिश्तों की ओर से आप (सल्ल०) पर 'सलात' का अर्थ यह है कि वे आपसे अत्यधिक प्रेम रखते हैं और आपके लिए अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह आपको ज़्यादा से ज़्यादा उच्च पद प्रदान करे। ईमानवालों की ओर से आपपर 'सलात' का अर्थ यह है कि वे भी आपके हक़ में अल्लाह से दुआ करें कि वह आपपर अपनी रहमतें उतारे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡهِنَّ مِن جَلَٰبِيبِهِنَّۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يُعۡرَفۡنَ فَلَا يُؤۡذَيۡنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 58
(59) ऐ नबी, अपनी पत्नियों और बेटियों और ईमानवालों की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें।20 यह ज़्यादा उचित तरीक़ा है ताकि वे पहचान ली जाएँ और न सताई जाएँ।21 अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयावान् है।
20. अर्थात् चादर ओढ़कर ऊपर से घूँघट डाल लिया करें। दूसरे शब्दों में मुँह खोले न फिरें।
21. “पहचान ली जाएँ” से मुराद यह है कि उनको इस सादा और लज्जानुकूल वस्त्र में देखकर हर देखनेवाला जान ले कि वे शरीफ़ और पवित्र औरतें हैं, आवारा और खिलाड़ी नहीं है कि कोई दुष्चरित्र इनसान उनसे अपनी मनोकामना पूरी करने को उम्मीद कर सके। “न सताई जाएँ” से मुराद यह है कि उनको न छेड़ा जाए, उनके लिए कोई बाधा न उत्पन्न की जाए।
۞لَّئِن لَّمۡ يَنتَهِ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡمُرۡجِفُونَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لَنُغۡرِيَنَّكَ بِهِمۡ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُونَكَ فِيهَآ إِلَّا قَلِيلٗا 59
(60) अगर मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और वे लोग जिनके दिलों में ख़राबी है, और वे जो मदीना में उत्तेजनाजनक अफ़वाहें फैलानेवाले हैं, अपनी करतूतों से बाज़ न आए तो हम उनके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए तुम्हें उठा खड़ा करेंगे, फिर वे इस शहर में मुश्किल ही से तुम्हारे साथ रह सकेंगे।
إِنَّا عَرَضۡنَا ٱلۡأَمَانَةَ عَلَى ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡجِبَالِ فَأَبَيۡنَ أَن يَحۡمِلۡنَهَا وَأَشۡفَقۡنَ مِنۡهَا وَحَمَلَهَا ٱلۡإِنسَٰنُۖ إِنَّهُۥ كَانَ ظَلُومٗا جَهُولٗا 71
(72) हमने इस अमानत22 को आसमानों और ज़मीन और पहाड़ों के सामने प्रस्तुत किया तो वे उसे उठाने के लिए तैयार न हुए और उससे डर गए, मगर इनसान ने उसे उठा लिया, बेशक वह बड़ा ज़ालिम और जाहिल है।23
22. अमानत से मुराद है उन ज़िम्मेदारियों का भार जो अल्लाह तआला ने अपनी ज़मीन में अधिकार और बुद्धि देकर इनसान पर डाला है।
23. अर्थात् इस अमानत के बोझ का धारक होकर भी अपने दायित्व को महसूस नहीं करता और ख़ियानत करके अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करता है।