(मदीना में उतरी, कुल आयतें 176)
परिचय
उतरने का समय और विषय
इस सूरा में बहुत से व्याख्यान है जो शायद सन् 03 हि० के अन्त से लेकर सन् 04 हि० के अन्त या सन् 05 हि० के आरंभ तक अलग-अलग समय में उतरे हैं। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस जगह से किस जगह तक की आयतें एक व्याख्यान क्रम के रूप में उतरी थीं और उनके उतरने का ठीक समय क्या है, लेकिन कुछ आदेश और घटनाओं की ओर कुछ संकेत ऐसे हैं जिनके उतरने की तारीख़ें हमें रिवायतों (उल्लेखों) से मालूम हो जाती हैं, इसलिए उनकी मदद से हम इन अलग-अलग व्याख्यानों की एक सरसरी-सी हदबन्दी कर सकते हैं जिनमें ये आदेश और ये संकेत आए हुए है।
जैसे हमें मालूम है कि विरासत के बंटवारे और यतीमों (अनाथों) के अधिकारों के बारे में आदेश उहुद की लड़ाई के बाद आए थे, जबकि मुसलमानों के सत्तर आदमी शहीद हो गए इस कारण हम सोच सकते हैं कि शुरू के चार रुकूअ और पाँचवें रुकूअ की पहली तीन आयतें उसी समय में उतरी होंगी। रिवायतों में 'सलाते खौफ़' (ठीक लड़ाई की स्थिति में नमाज़ पढ़ने) का उल्लेख हमें 'ज़ातुर्रिक़ाअ' की लड़ाई में मिलता है जो सन् 04 हि० में हुई। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि इसी के क़रीब के समय में वह भाषण आया होगा जिसमें इस नमाज़ का तरीक़ा बताया गया है । (रुकूअ 15) मदीना से बनी-नज़ीर का निकाला जाना रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में हुआ, इसलिए प्रबल संभावना यह है कि वह भाषण इससे पहले क़रीबी समय ही में उतरा होगा जिसमें यहूदियों को अंतिम चेतावनी दी गई है कि 'ईमान ले आओ, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़कर पीछे फेर दें।'
पानी न मिलने पर 'तयम्मुम' की इजाज़त बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर दी गई थी जो 05 हि० में हुई। इसलिए वह भाषण जिसमें तयम्मुम का उल्लेख है, उसी के निकटवर्ती काल का समझना चाहिए। (रुकूअ 7)
उतरने के कारण और वार्ताएँ
इस तरह कुल मिलाकर सूरा के उतरने का समय मालूम हो जाने के बाद हमें उस समय के इतिहास पर एक नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि सूरा के विषय को समझने में सहायता ली जा सके।
नबी (सल्ल.) के सामने उस समय जो काम था उसे तीन बड़े-बड़े विभागों में बाँटा जा सकता है। एक उस नए संगठित इस्लामी समाज का विकास जिसकी बुनियाद हिजरत के साथ ही मदीना तैयबा और उसके आस-पास के क्षेत्रों में पड़ चुकी थी। दूसरे उस संघर्ष का मुक़ाबला जो अरब के मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों), यहूदी क़बीलों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की सुधार-विरोधी शक्तियों के साथ ज़ोर-शोर से चल रहा था। तीसरे इस्लाम की दावत को इन विरोधी शक्तियों के विरोध के बावजूद फैलाना। अल्लाह की ओर से इस अवसर पर जितने व्याख्यान आए, वे सब इन्हीं तीनों विभागों में बंटे हुए हैं।
इस्लामी समाज को संगठित करने के लिए सूरा बक़रा में जो आदेश दिए गए थे, अब यह समाज उससे अधिक आदेश की माँग कर रहा था। इसलिए सूरा निसा के इन व्याख्यानों में अधिक विस्तार में बताया गया कि मुसलमान अपने सामूहिक जीवन को इस्लामी तरीक़े पर किस तरह ठीक करें। किताबवालों के नैतिक और धार्मिक रवैए पर आलोचना करके मुसलमानों को सावधान किया गया कि अपने से पहले की उम्मतों (समुदायों) के पद-चिन्हों पर चलने से बचें। मुनाफ़िक़ों के तरीक़ों की आलोचना करके सच्ची ईमानदारी के तक़ाज़े स्पष्ट किए गए।
सुधार-विरोधी शक्तियों से जो संघर्ष चल रहा था उसने उहुद की लड़ाई के बाद अधिक गंभीर रूप ले लिया था। इन परिस्थितियों में अल्लाह ने एक ओर उत्साहवर्द्धक भाषणों के द्वारा मुसलमानों को मुक़ाबले के लिए उभारा और दूसरी ओर युद्ध की स्थिति में काम करने के लिए उन्हें विभिन्न आवश्यक आदेश दिए। मुसलमानों को बार-बार लड़ाइयों और झड़पों में जाना पड़ता था, और अक्सर ऐसे रास्तों से गुज़रना होता था जहाँ पानी नहीं मिल सकता था। इजाज़त दी गई कि पानी न मिले तो ग़ुस्ल (स्नान) और ‘वुज़ू’ (नमाज़ से हाथ-पैर और मुँह आदि धोने की प्रक्रिया) दोनों के बजाय ‘तयम्मुम' कर लिया जाए। साथ ही, ऐसी स्थिति में नमाज़ को संक्षिप्त करने की भी इजाज़त दे दी गई और जहाँ ख़तरा सिर पर हो, वहाँ सलाते-खौफ़ (डर की स्थिति में नमाज़) अदा करने का तरीक़ा बताया गया। अरब के अलग-अलग क्षेत्रों में जो मुसलमान विरोधी क़बीलों के बीच में बिखरे हुए थे (उनके बारे में) सविस्तार आदेश दिए गए।
यहूदियों के सख़्त दुश्मनी भरे और साज़िशी रवैये और उनके वादों के बार-बार तोड़ने पर उनकी कड़ी पकड़ की गई और उन्हें स्पष्ट शब्दों में अंतिम चेतावनी दे दी गई।
मुनाफ़िक़ों के अलग-अलग गिरोह अलग-अलग रवैये अपनाए हुए थे। इन सबको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर हर वर्ग के मुनाफ़िक़ों के बारे में बता दिया गया कि उनके साथ यह बर्ताव होना चाहिए।
ऐसे तटस्थ क़बीले, जिनके साथ समझौते हुए थे, उनके साथ जो रवैया मुसलमानों का होना चाहिए था उसको भी स्पष्ट किया गया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि मुसलमान का अपना चरित्र कलंक रहित हो, क्योंकि इस संघर्ष में यह मुट्ठी भर जमाअत अगर जीत सकती थी तो अपने अच्छे चरित्र ही के बल पर जीत सकती थी। इसलिए मुसलमानों को अच्छे से अच्छे चरित्र की शिक्षा दी गई और जो कमज़ोरी भी उनकी जमाअत में ज़ाहिर हुई, उसपर कड़ी पकड़ की गई। इस्लामी सुधार आह्वान को स्पष्ट करने के अलावा यहूदियों, ईसाइयों और मुशरिकों, तीनों गिरोहों के ग़लत धार्मिक विचारों और बुरे चरित्र एवं आचरण पर इस सूरा में आलोचना करके उनको सच्चे दीन (धर्म) की ओर दावत दी गई है।
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وَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تُقۡسِطُواْ فِي ٱلۡيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثۡنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا تَعۡدِلُواْ فَوَٰحِدَةً أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُواْ 2
(3) और अगर तुमको अंदेशा हो कि यतीमों के साथ इनसाफ़ न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हें पसन्द आएँ उनमें से दो-दो, तीन-तीन, चार-चार से निकाह कर लो।1 लेकिन अगर तुम्हें अन्देशा हो कि उनके साथ इनसाफ़ न कर सकोगे तो फिर एक ही पत्नी रखो2 या उन औरतों को अपने दाम्पत्य-जीवन में लाओ जो तुम्हारे क़ब्ज़े में आई हैं,3 बेइनसाफ़ी से बचने के लिए यह ज़्यादा अच्छा है।
1. ध्यान रहे कि यह आयत एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने की इजाज़त देने के लिए नहीं आई थी क्योंकि इसके नाज़िल होने से पहले ही यह अमल जाइज़ था और ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की एक से ज़्यादा बीवियाँ उस समय मौजूद थीं। असल में यह आयत इसलिए उतरी थी कि लड़ाइयों में शहीद होनेवालों के जो बच्चे यतीम रह गए थे उनकी समस्या हल करने के लिए कहा गया कि अगर उन यतीमों के हक़ तुम वैसे अदा नहीं कर सकते तो उन औरतों से निकाह कर लो जिनके साथ यतीम बच्चे हैं।
2. इस बात पर मुस्लिम समुदाय के धर्मशास्त्री (फ़क़ीह) एकमत हैं कि इस आयत के ज़रिए से बहुविवाह को सीमित कर दिया गया है और एक समय में चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को वर्जित कर दिया गया है। इसके साथ यह आयत बहुविवाह को इनसाफ़ की शर्त के साथ जाइज़ करती है। जो आदमी इनसाफ़ की शर्त पूरी नहीं करता मगर एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने की इजाज़त से फ़ायदा उठाता है वह अल्लाह के साथ धोखेबाज़ी करता है। इस्लामी हुकूमत की अदालतों को अधिकार प्राप्त है कि जिस बीवी या जिन बीवियों के साथ वह इनसाफ़ न कर रहा हो उनको इनसाफ़ दिलाएँ। कुछ लोग पश्चिमी देशवालों की धारणाओं से प्रभावित होकर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि क़ुरआन का असल मक़सद बहुविवाह की प्रथा को (जो पश्चिमी दृष्टिकोण से वास्तव में बुरी प्रथा है) मिटा देना था। लेकिन इस तरह की बातें वास्तव में ज़ेहनी ग़ुलामी का नतीजा हैं। बहुविवाह का अपने में एक बुराई होना अमान्य है, क्योंकि कुछ परिस्थितियों में यह चीज़़ एक सांस्कृतिक और नैतिक ज़रूरत बन जाती है। क़ुरआन ने स्पष्ट शब्दों में इसको जाइज़ ठहराया है और सांकेतिक रूप में भी इसकी निन्दा में कोई ऐसा शब्द इस्तेमाल नहीं किया है जिससे मालूम हो कि वास्तव में वह इसे रोकना चाहता था।
3. इससे मुराद लौंडियाँ (दासियाँ हैं, अर्थात् वे औरतें जो युद्ध में बन्दी होकर आई हों और युद्ध-बन्दियों का तबादला और अन्तरण न होने की स्थिति में हुकूमत की ओर से लोगों में बाँट दी गई हो।
وَٱبۡتَلُواْ ٱلۡيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُواْ ٱلنِّكَاحَ فَإِنۡ ءَانَسۡتُم مِّنۡهُمۡ رُشۡدٗا فَٱدۡفَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡۖ وَلَا تَأۡكُلُوهَآ إِسۡرَافٗا وَبِدَارًا أَن يَكۡبَرُواْۚ وَمَن كَانَ غَنِيّٗا فَلۡيَسۡتَعۡفِفۡۖ وَمَن كَانَ فَقِيرٗا فَلۡيَأۡكُلۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ فَإِذَا دَفَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ أَمۡوَٰلَهُمۡ فَأَشۡهِدُواْ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا 5
(6) और यतीमों की आज़माइश करते रहो यहाँ तक कि वे निकाह की उम्र को पहुँच जाएँ।4 फिर अगर तुम उनमें योग्यता पाओ तो उनके माल उनको सौंप दो। ऐसा कभी न करना कि न्याय की सीमा का उल्लंघन करके इस भय से उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ कि वे बड़े होकर अपने हक़ की माँग करेंगे। यतीम का जो सरपरस्त मालदार हो वह परहेज़गारी से काम ले और जो ग़रीब हो वह सामान्य रीति के अनुसार खाए।5 फिर जब उनके माल उन्हें सौंपने लगो तो लोगो को इसपर गवाह बना लो, और हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है।
4. अर्थात् जब वे प्रौढ़ावस्था के निकट पहुँच रहे हों तो देखते रहो कि उनका बौद्धिक विकास कैसा है और उनमें अपने मामलों को ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी में चलाने की योग्यता कहाँ तक पैदा हो रही है।
5. अर्थात् अपना पारिश्रमिक बस उतना ले कि हर निष्पक्ष भला व्यक्ति उसे उचित माने। इसके साथ यह कि जो कुछ भी पारिश्रमिक वह ले चोरी-छिपे न ले, बल्कि खुल्लम-खुल्ला निश्चित करके ले और उसका हिसाब रखे।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِيٓ أَوۡلَٰدِكُمۡۖ لِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۚ فَإِن كُنَّ نِسَآءٗ فَوۡقَ ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَۖ وَإِن كَانَتۡ وَٰحِدَةٗ فَلَهَا ٱلنِّصۡفُۚ وَلِأَبَوَيۡهِ لِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٞۚ فَإِن لَّمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٞ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُۚ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخۡوَةٞ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِي بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍۗ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ لَا تَدۡرُونَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ لَكُمۡ نَفۡعٗاۚ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا 10
(11) तुम्हारी सन्तान के बारे में अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि: मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।7 अगर (मरनेवाले को उत्तराधिकारी) दो से अधिक लड़कियाँ हों तो उन्हें तरके (छोड़ी हुई सम्पत्ति) का दो तिहाई दिया जाए।8 और अगर एक ही लड़की वारिस हो तो आधा तरका उसका है। अगर मरनेवाले के औलाद हो तो उसके माँ-बाप में से हर एक को तरके का छठा हिस्सा मिलना चाहिए।9 और अगर वह निस्सन्तान हो और माँ-बाप ही उसके वारिस हो तो माँ को तीसरा हिस्सा दिया जाए।10 और अगर मरनेवाले के भाई-बहन भी हों तो माँ छठे हिस्से की हक़दार11 होगी। (ये सब हिस्से उस समय निकाले जाएँगे) जबकि वसीयत जो मरनेवाले ने की हो, पूरी कर दी जाए और क़र्ज़ जो उसपर हो चुका दिया जाए।12 तुम नहीं जानते कि तुम्हारे माँ-बाप और तुम्हारी सन्तान में से कौन लाभ की दृष्टि से तुमसे ज़्यादा क़रीब है। ये हिस्से अल्लाह ने निश्चित कर दिए हैं, और अल्लाह यक़ीनन ही सब हक़ीक़तों से वाक़िफ़ और सब मसलहतों का जाननेवाला है।
7. चूँकि 'शरीअत' (धर्म-विधान) ने पारिवारिक जीवन में मर्द पर ज़्यादा आर्थिक ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला है। और औरत को बहुत-सी आर्थिक ज़िम्मेदारियों के बोझ से मुक्त रखा है, अतः इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही था कि मीरास में औरत का हिस्सा मर्द के मुक़ाबले कम रखा जाता।
8. यही आदेश दो लड़कियों का भी है। मतलब यह है कि अगर किसी आदमी का कोई लड़का न हो बल्कि सिर्फ़ लड़कियाँ ही लड़कियाँ हों तो चाहे लड़कियाँ दो हों या दो से ज़्यादा, हर हाल में उसके पूरे तरके का 2/3 भाग उन लड़कियों में तक़सीम होगा, और बाक़ी 1/3 दूसरे वारिसों में। लेकिन अगर मरनेवाले का सिर्फ़ एक लड़का हो तो इसपर सब सहमत हैं कि दूसरे वारिसों के न होने पर वह सारे माल का वारिस होगा, और अगर दूसरे वारिस मौजूद हों तो उनका हिस्सा देने के बाद बाक़ी सब माल उसे मिलेगा।
9. अर्थात् मरनेवाले के औलाद होने की स्थिति में हर हालत में उसके माँ-बाप में से हर एक 1/6 का हक़दार होगा चाहे मरनेवाले की वारिस सिर्फ़ बेटियाँ हो, या सिर्फ़ बेटे हों, या बेटे और बेटियाँ हों, या एक बेटा या एक बेटी रहे बाक़ी 2/3 तो उनमें दूसरे वारिस शरीक होंगे।
10. माँ-बाप के सिवा कोई वारिस न हो तो बाक़ी 2/3 बाप को मिलेगा। वरना 2/3 में बाप और दूसरे वारिस शरीक होंगे।
11. भाई-बहन होने पर माँ का हिस्सा 1/3 के बदले 1/6 कर दिया गया है। इस प्रकार माँ के हिस्से में से जो 1/6: लिया गया है वह बाप के हिस्से में डाला जाएगा क्योंकि इस स्थिति में बाप के दायित्व बढ़ जाते हैं। यह स्पष्ट रहे कि मरनेवाले के माँ-बाप अगर ज़िन्दा हों तो उसके बहन-भाइयों को हिस्सा नहीं पहुँचता।
12. वसीयत का उल्लेख यद्यपि क़र्ज़ से पहले किया गया है लेकिन मुस्लिम समुदाय इसमें एकमत है कि क़र्ज़ का नम्बर वसीयत से पहले है। अर्थात् अगर मरनेवाले के जिम्मे क़र्ज़ हो तो सबसे पहले मरनेवाले के तरके में से वह चुकाया जाएगा, फिर वसीयत पूरी की जाएगी, और इसके बाद विरासत तकसीम होगी।
۞وَلَكُمۡ نِصۡفُ مَا تَرَكَ أَزۡوَٰجُكُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٞ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡنَۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصِينَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۚ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكۡتُمۡ إِن لَّمۡ يَكُن لَّكُمۡ وَلَدٞۚ فَإِن كَانَ لَكُمۡ وَلَدٞ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكۡتُمۚ مِّنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ تُوصُونَ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٖۗ وَإِن كَانَ رَجُلٞ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمۡرَأَةٞ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوۡ أُخۡتٞ فَلِكُلِّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا ٱلسُّدُسُۚ فَإِن كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمۡ شُرَكَآءُ فِي ٱلثُّلُثِۚ مِنۢ بَعۡدِ وَصِيَّةٖ يُوصَىٰ بِهَآ أَوۡ دَيۡنٍ غَيۡرَ مُضَآرّٖۚ وَصِيَّةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٞ 11
(12) और तुम्हारी बीवियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसका आधा हिस्सा तुम्हें मिलेगा अगर वे निस्सन्तान हों, वरना सन्तान होने की स्थिति में तरके का एक चौथाई हिस्सा तुम्हारा है जबकि वसीयत जो उन्होंने की हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो उन्होंने छोड़ा हो चुका दिया जाए। और वे तुम्हारे तरके में से चौथाई की हक़दार होंगी अगर तुम निस्सन्तान हो, वरना तुम्हारे सन्तानवाले होने की स्थिति में उनका हिस्सा आठवाँ होगा13, इसके बाद कि जो वसीयत तुमने की हो वह पूरी कर दी जाए और जो क़र्ज़ तुमने छोड़ा हो वह चुका दिया जाए। और अगर वह मर्द या औरत (जिसका तरका बाँटना है) निस्सन्तान भी हो और उसके माँ-बाप भी ज़िन्दा न हों, मगर उसका एक भाई या एक बहन मौजूद हो तो भाई और बहन हर एक को छठा हिस्सा मिलेगा, और भाई-बहन एक से ज़्यादा हों तो सारे तरके के एक तिहाई में वे सब शरीक14 होंगे, जबकि वसीयत जो की गई हो पूरी कर दी जाए, और क़र्ज़ जो मरनेवाले ने छोड़ा हो अदा कर दिया जाए, शर्त यह है कि वह नुक़सान पहुँचानेवाला न हो।15 यह आदेश है अल्लाह की ओर से और अल्लाह जानता देखता और सहनशील है।
13. अर्थात् चाहे एक बीवी हो या कई बीवियाँ, औलाद होने की हालत में वह 1/8 की और औलाद न होने की हालत में 1/4 की हिस्सेदार होंगी और यह 1/4 या 1/8 सब बीवियों में बराबरी के साथ बाँट दिया जाएगा।
14. इस आयत के सम्बन्ध में टीकाकार एकमत हैं कि इसमें भाई और बहनों से मुराद ऐसे भाई और बहन हैं जो मरनेवाले के साथ सिर्फ़ माँ की ओर से नाता रखते हों और बाप उनका दूसरा हो। रहे सगे भाई-बहन, और वे सौतेले भाई-बहन जो बाप की ओर से मरनेवाले के साथ नाता रखते हों, तो उनके बारे में आदेश इसी सूरा के अन्त में दिया गया है।
15. वसीयत में नुक़सान पहुँचाने का अर्थ यह है कि इस तरह से वसीयत की जाए जिससे हक़दार नातेदारों के हक़ मारे जाते हों। और क़र्ज़ में नुक़सान पहुँचाने का मतलब यह है कि सिर्फ़ हक़दारों को उनके हक़ से वंचित करने के लिए आदमी यों हो अपने ऊपर ऐसे क़र्ज़ स्वीकार करे जो उसने वास्तव में न लिए हों, या और कोई ऐसी चाल चले जिसका मक़सद यह हो कि हक़दार मीरास से वंचित हो जाएँ।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمۡ أُمَّهَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُمۡ وَعَمَّٰتُكُمۡ وَخَٰلَٰتُكُمۡ وَبَنَاتُ ٱلۡأَخِ وَبَنَاتُ ٱلۡأُخۡتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِيٓ أَرۡضَعۡنَكُمۡ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمۡ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِي دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمۡ تَكُونُواْ دَخَلۡتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ وَحَلَٰٓئِلُ أَبۡنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنۡ أَصۡلَٰبِكُمۡ وَأَن تَجۡمَعُواْ بَيۡنَ ٱلۡأُخۡتَيۡنِ إِلَّا مَا قَدۡ سَلَفَۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا 22
(23) तुम्हारे लिए हराम की गई हैं तुम्हारी माएँ21, बेटियाँ22, बहनें23, फूफियाँ, मौसियाँ, भतीजियाँ, भानजियाँ24 और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो, और तुम्हारी दूध में सम्मिलित बहनें25, और तुम्हारी बीवियों की माएँ और तुम्हारी बीवियों की लड़कियाँ जिनका तुम्हारी गोद में पालन-पोषण हुआ है26 — उन बीवियों की लड़कियाँ जिनसे तुम्हारा सहवास हो चुका हो, वरना अगर (सिर्फ़ विवाह हुआ हो और) सहवास न हुआ हो तो (उन्हें छोड़कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है — और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ जो तुम्हारे वीर्य से हों।27 और यह भी तुम्हारे लिए हराम है कि एक साथ इकट्ठा दो बहनों को निकाह में रखो28, मगर जो पहले हो गया सो हो गया, अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला है।29
21. माँ के अर्थ में सगी और सौतेली दोनों प्रकार की माएँ सम्मिलित हैं, इसलिए दोनों हराम हैं। इसी के साथ इस आदेश के अन्दर बाप की माँ और माँ की माँ भी आती हैं।
22. बेटी के आदेश में पोती और नवासी भी शामिल हैं।
23. सगी बहन और माँ शरीक बहन और बाप शरीक बहन तीनों इस आदेश में समान हैं।
24, इन सब रिश्तों में भी सगे और सौतले के बीच कोई अन्तर नहीं।
25. इस बात में पूरा मुस्लिम समुदाय (उम्मत) एकमत है कि एक लड़के या लड़की ने जिस औरत का दूध पिया हो उसके लिए वह स्त्री माँ के आदेश के तहत आती है और उसका पति बाप के आदेश के तहत आता है, और वे सभी रिश्ते जो सगी माँ और बाप के सम्बन्ध से हराम होते हैं, दूध सम्बन्धित माँ और बाप के सम्बन्ध से भी हराम हो जाते हैं। इस बच्चे के लिए दूध सम्बन्धित माँ का सिर्फ़ वही बच्चा हराम या वर्जित नहीं है जिसके साथ उसने दूध पिया हो, बल्कि उसकी सारी औलाद उसके सगे भाई-बहन की तरह है और उनके बच्चे उसके लिए सगे भांजों और भतीजों की तरह हैं।
26. ऐसी लड़की का हराम या वर्जित होना इस शर्त पर निर्भर नहीं करता कि उसका सौतेले बाप के घर में पालन-पोषण हुआ हो। मुस्लिम समुदाय के धर्मशास्त्री इस बात में लगभग एकमत हैं कि सौतेली बेटी आदमी के लिए हर हाल में हराम है चाहे उसका सौतेले बाप के घर में पालन-पोषण हुआ हो या न हुआ हो।
27. बेटे ही की तरह पोते और नवासे की बीवी भी दादा और नाना के लिए हराम है।
28. नबी (सल्ल०) का आदेश है कि ख़ाला (मौसी) और भानजी और फूफी और भतीजी से भी एक साथ निकाह करना हराम है। इस सम्बन्ध में यह सिद्धान्त समझ लेना चाहिए कि ऐसी दो औरतों से एक साथ निकाह करना हर हाल में हराम है जिनमें से कोई एक अगर मर्द होती तो उसका निकाह दूसरी से वर्जित या हराम होता।
29. अर्थात् इस पर पकड़ न होगी, मगर जिस आदमी ने इस्लाम अपनाने से पहले दो बहनों को एक साथ निकाह में रखा हो उसे इस्लाम क़ुबूल करने के बाद एक को रखना और एक को छोड़ देना होगा।
۞وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۖ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡۚ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمۡ أَن تَبۡتَغُواْ بِأَمۡوَٰلِكُم مُّحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَۚ فَمَا ٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهِۦ مِنۡهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا تَرَٰضَيۡتُم بِهِۦ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡفَرِيضَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا 23
(24) और वे औरतें भी तुम्हारे लिए हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों (मुहसनात), अलबत्ता ऐसी औरतों की बात और है जो (युद्ध में) तुम्हारे हाथ आएँ।30 यह अल्लाह का क़ानून है जिसका पालन तुम्हारे लिए अनिवार्य कर दिया गया है। इनके अलावा जितनी औरतें हैं उन्हें अपने मालों के द्वारा हासिल करना तुम्हारे लिए हलाल कर दिया गया है, शर्त यह है कि निकाह के घेरे में लेकर उन्हें सुरक्षित करो, न कि स्वच्छन्द कामतृप्ति करने लगो। फिर जो दाम्पत्य जीवन का आनन्द तुम उनसे लो उसके बदले में उनके मह्र अनिवार्य समझते हुए अदा करो, अलबत्ता मह्र निश्चित हो जाने के बाद आपस की रजामन्दी से तुम्हारे बीच अगर कोई समझौता हो जाए तो इसमें कोई हरज नहीं, अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्त्वदर्शी है।
30. अर्थात् जो औरतें युद्ध में पकड़ी हुई आएँ और उनके ग़ैर-मुस्लिम पति 'दारुल-हरब' (शत्रु के देश) में मौजूद हों वे हराम नहीं है, क्योंकि 'दारुल-हरब' से 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य क्षेत्र) में आने के बाद उनके निकाह टूट गए।
وَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ مِنكُمۡ طَوۡلًا أَن يَنكِحَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِكُمۚ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذۡنِ أَهۡلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِ مُحۡصَنَٰتٍ غَيۡرَ مُسَٰفِحَٰتٖ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخۡدَانٖۚ فَإِذَآ أُحۡصِنَّ فَإِنۡ أَتَيۡنَ بِفَٰحِشَةٖ فَعَلَيۡهِنَّ نِصۡفُ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ مِنَ ٱلۡعَذَابِۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ ٱلۡعَنَتَ مِنكُمۡۚ وَأَن تَصۡبِرُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 24
(25) और जो आदमी तुममें से इतनी सामर्थ्य न रखता हो कि कुलीन मुसलमान औरतों (मुहसनात) से निकाह कर सके उसे चाहिए कि तुम्हारी उन लौडियों (दासियों) में से किसी के साथ विवाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों और ईमानवाली हों। अल्लाह तुम्हारे ईमान को अच्छी तरह जानता है, तुम सब एक ही गिरोह के लोग हो, अत: उनके सरपरस्तों की इजाज़त से उनके साथ निकाह कर लो और सामान्य नियम के अनुसार उनके मह्र अदा कर दो, ताकि वे निकाह की परिधि में सुरक्षित (मुहसनात) होकर रहें स्वछन्द कामतृप्ति न करती फिरें और न चोरी-छिपे नाजाइज़ सम्बन्ध बनाएँ। फिर जब वे विवाह की परिधि में सुरक्षित हो जाएँ और उसके बाद कोई अश्लील कर्म कर बैठे तो उनपर उस सज़ा के मुक़ाबले में आधी सज़ा है जो ख़ानदानी औरतों के लिए निर्धारित है।31 यह सुविधा तुममें से उन लोगों के लिए रखी गई है जिनको निकाह न करने से संयम के भंग हो जाने का भय हो। लेकिन अगर तुम सब्र करो तो यह तुम्हारे लिए अच्छा है, और अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
31. जिस शब्द का अनुवाद कुलीन या सुरक्षित किया है उसके लिए क़ुरआन के इस रुकू (प्रकरण में 'मुहसनात' शब्द दो विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल हुआ है। एक “विवाहिता स्त्रियाँ” जिनको पति का संरक्षण प्राप्त हो। दूसरे “ख़ानदानी औरतें” जिनको ख़ानदान (अथवा कुल) का संरक्षण हासिल हो, यद्यपि वे विवाहिता न हों। आयत 24 में “मुहसनात” शब्द दासी या लौंडी के मुक़ाबले में अविवाहित ख़ानदानी औरतों के लिए इस्तेमाल हुआ है जैसा कि आयत के विषय से स्पष्ट है। इसके विपरीत लौंडियों के लिए “मुहसनात” शब्द पहले अर्थ में इस्तेमाल हुआ है और स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जब उन्हें विवाह का संरक्षण प्राप्त हो जाए (फ-इज़ा उहसिन्न') तब उनके लिए व्यभिचार करने पर उस सज़ा की आधी सज़ा है जो “मुहसनात” (अविवाहित ख़ानदानी औरतों) के लिए है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٖ مِّنكُمۡۚ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا 28
(29) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, आपस में एक दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामन्दी से32। और ख़ुद अपनी हत्या न करो।33 विश्वास करो कि अल्लाह तुमपर दया रखता है।
32. “ग़लत ढंग” से मुराद वे सभी तरीक़े हैं जो हक़ के विरुद्ध हो और धर्म-विधान और नैतिकता की दृष्टि से नाजाइज हो। “आपस की रजामन्दी” से मुराद स्वेच्छापूर्ण और जानी-बूझी रजामन्दी है। किसी दबाव या धोखा धड़ी पर आधारित रज़ामन्दी का नाम रज़ामन्दी नहीं है।
33. यह वाक्य पिछले वाक्य का अनुपूरक भी हो सकता है और ख़ुद एक स्वतन्त्र वाक्य भी। अगर पिछले वाक्य का अनुपूरक समझा जाए तो इसका अर्थ यह है कि दूसरों का माल नाजाइज़ तरीक़े से खाना अपने-आपको विनाश के गड्ढे में डालना है। और अगर इसे स्वतन्त्र वाक्य समझा जाए तो इसके दो अर्थ हैं: एक यह कि दूसरे की हत्या न करो। दूसरे यह कि आत्महत्या न करो।
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ وَبِمَآ أَنفَقُواْ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡۚ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٞ لِّلۡغَيۡبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُۚ وَٱلَّٰتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهۡجُرُوهُنَّ فِي ٱلۡمَضَاجِعِ وَٱضۡرِبُوهُنَّۖ فَإِنۡ أَطَعۡنَكُمۡ فَلَا تَبۡغُواْ عَلَيۡهِنَّ سَبِيلًاۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيّٗا كَبِيرٗا 32
(34) मर्द औरतों के मामलों के ज़िम्मेदार है35, इस आधार पर कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे के मुक़ाबले में आगे रखा है और इस आधार पर कि पुरुष अपने माल ख़र्च करते हैं। अतः जो भली औरतें हैं वे आज्ञाकारी होती है और मर्दों के पीछे अल्लाह की रक्षा और संरक्षण में उनके अधिकारों की रक्षा करती हैं। और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का भय हो उन्हें समझाओ, सोने की जगह (ख़्वाबगाहों) में उनसे अलग रहो और मारो36, फिर अगर वे तुम्हारी बात मानने लगें तो अकारण उनपर हाथ चलाने के लिए बहाने तलाश न करो, यक़ीन रखो कि ऊपर अल्लाह मौजूद है जो बड़ा और सर्वोच्च है।
35. यहाँ 'क़ौवाम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'क़ौवाम' उस व्यक्ति को कहते हैं जो किसी व्यक्ति या संस्था या व्यवस्था के मामलों को ठीक हालत में चलाने और उसको रक्षा और निगहबानी करने और उसको आवश्यकताओं को पूरा करने का ज़िम्मेदार हो।
36. यह अर्थ नहीं है कि तीनों काम एक साथ कर डाले जाएँ, बल्कि अर्थ यह है कि सरकशी की हालत में इन दोनों उपायों को अपनाया जा सकता है। अब रहा इनका व्यवहार में लाना, तो हर हाल में इसमें अपराध और सज़ा के बीच अनुकूलता होनी चाहिए, और जहाँ हलके उपाय से बात बन सकती हो वहाँ कड़े उपाय से काम न लेना चाहिए। नबी (सल्ल०) ने पत्नियों को मारने की जब कभी इजाज़त दी है तो नहीं चाहते हुए दी है और फिर भी इसे नापसन्द ही किया है।
۞وَٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗا وَبِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡجَارِ ذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡجَارِ ٱلۡجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلۡجَنۢبِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخۡتَالٗا فَخُورًا 34
(36) और तुम सब अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को साझी न बनाओ, माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो, नातेदारों और यतीमों और मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार करो, और पड़ोसी नातेदार से, अपरिचित पड़ोसी से पहलू के साथी38 और मुसाफ़िर से, और उन दास-दासियों से जो तुम्हारे अधिकार में हों, एहसान का मामला रखो, यक़ीन जानो अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता जो डींगें मारनेवाला हो और अपनी बड़ाई पर गर्व करे।
38. इससे मुराद पास बैठने वाला दोस्त भी है और ऐसा व्यक्ति भी जिसे कहीं किसी समय आदमी का साथ हो जाए। उदाहरणस्वरूप आप बाज़ार में जा रहे हों और कोई व्यक्ति आपके साथ रास्ता चल रहा हो, या किसी दुकान पर आप सौदा ख़रीद रहे हों और कोई दूसरा ख़रीददार भी आपके पास बैठा हो, या सफ़र में कोई व्यक्ति आपका सहयात्री हो। इस अस्थायी निकटता के कारण भी हर सभ्य और सज्जन व्यक्ति पर एक हक़ आता है जिसका तक़ाज़ा यह है कि वह जितना हो सके उसके साथ अच्छा व्यवहार करे और उसे तकलीफ़ देने से बचे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡرَبُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمۡ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعۡلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغۡتَسِلُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا 41
(43) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब न जाओ।39 नमाज़ उस समय पढ़नी चहिए जब तुम जानो कि क्या कह रहे हो।40 और इसी तरह नापाकी की हालत41 में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक कि नहा-धो न लो, यह और बात है कि रास्ते से गुज़रते42 हो। और अगर कभी ऐसा हो कि तुम बीमार हो, या सफ़र में हो, या तुममें से कोई शौच करके आए, या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो43, और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो और उससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो (हाथ फेर लो)44, बेशक अल्लाह नर्मी से काम लेनेवाला और बख़्शनेवाला है।
39. यह शराब के सम्बन्ध में दूसरा आदेश है। पहला आदेश वह था जो सूरा बक़रा (आयत 219) में गुज़र चुका है।
40 अर्थात् नमाज़ में आदमी को इतना होश रहे कि वह यह जाने कि वह क्या चीज़़ अपने मुख से कह रहा है। ऐसा न हो कि वह खड़ा तो हो नमाज़ पढ़ने और शुरू कर दे कोई ग़ज़ल
41. नापाकी (जनाबत) से मुराद वह नापाकी है जो संभोग से या स्वप्न में वीर्यपात से हो जाती है।
42. धर्मशास्त्रियों और टीकाकारों में से एक गिरोह ने इस आयत का मतलब यह समझा है कि नापाकी की हालत में मसजिद में न जाना चाहिए यह और बात है कि किसी काम के लिए मसजिद में से गुज़रना हो। दूसरे गिरोह की दृष्टि में इससे मुराद सफ़र है। अर्थात् अगर आदमी सफ़र की हालत में हो और नापाक हो जाए तो 'तयम्मुम' किया जा सकता है।
43. इस मामले में मतभेद है कि 'लम्स' अर्थात् छूने से मुराद क्या है। अनेक इमामों का मत है कि इससे मुराद संभोग है और इसी मत को इमाम अबू-हनीफ़ा और उनके साथियों ने ग्रहण किया है। इसके ख़िलाफ़ कुछ दूसरे धर्मशास्त्रियों की दृष्टि में इससे मुराद छूना या हाथ लगाना है और इसी मत को इमाम शाफ़िई (रह०) ने अपनाया है। इमाम मालिक (रह०) का मत है कि अगर औरत या मर्द एक दूसरे को कामवासना के साथ हाथ लगाएँ तो उनका 'वुज़ू' टूट जाएगा, लेकिन अगर बिना कामवासना के एक का शरीर दूसरे से छू जाए तो इसमें कोई हरज नहीं।
44. आदेश का विस्तृत रूप यह है कि अगर आदमी बेवुज़ू है या उसे नहाने की आवश्यकता है और पानी नहीं मिलता तो 'तयम्मुम' करके नमाज़ पढ़ सकता है। अगर बीमार है और नहाने या 'वुज़ू' करने से उसे नुक़सान का अंदेशा है तो पानी मौजूद होते हुए भी 'तयम्मुम' की इजाज़त से फ़ायदा उठा सकता है।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَٱسۡمَعۡ غَيۡرَ مُسۡمَعٖ وَرَٰعِنَا لَيَّۢا بِأَلۡسِنَتِهِمۡ وَطَعۡنٗا فِي ٱلدِّينِۚ وَلَوۡ أَنَّهُمۡ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَا وَٱسۡمَعۡ وَٱنظُرۡنَا لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ وَأَقۡوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَلَا يُؤۡمِنُونَ إِلَّا قَلِيلٗا 44
(46) जो लोग यहूदी बन गए हैं उनमें कुछ लोग हैं जो शब्दों को उनके स्थान से फेर देते हैं,45 और सत्य-धर्म के ख़िलाफ़ चोट करने के लिए अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़कर कहते हैं, “हमने सुना मगर स्वीकार नहीं किया”46 और “सुनिए, आप ऐसे नहीं कि कोई सुनाए”47 और “हमारी रिआयत करें।”48 हालाँकि अगर वे कहते, “हमने सुना और हमने माना” और “सुनिए” और “हमारी ओर ध्यान दें” तो यह उन्हीं के लिए अच्छा था और ज़्यादा सच्चाई का तरीक़ा था। मगर उनपर तो उनकी असत्यवादिता के कारण अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
45. इसके तीन अर्थ हैं: एक यह कि अल्लाह की किताब के शब्दों में परिवर्तन करते हैं। दूसरे यह कि अपने हेर-फेर से किताब की आयतों के अर्थ कुछ से कुछ बना देते हैं। तीसरे यह कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और आपके अनुयायियों के पास आकर उनकी बातें सुनते हैं और वापस जाकर लोगों के सामने ग़लत ढंग से बयान करते हैं, बात कुछ कही जाती है और वे उसे अपनी दुष्टता से कुछ का कुछ बनाकर लोगों में प्रसिद्ध कर देते हैं।
46. अर्थात् जब उन्हें अल्लाह के आदेश सुनाए जाते हैं तो ज़ोर से कहते हैं 'समेअना' (हमने सुन लिया) और धीरे से कहते हैं 'असैना' (हमने स्वीकार नहीं किया) या 'अताना' (हमने स्वीकार किया) का उच्चारण इस ढंग से ज़बान को लचका देकर करते हैं कि 'असैना' (हमने स्वीकार नहीं किया) बन जाता है।
47. अर्थात् बातचीत के बीच जब वे कोई बात मुहम्मद (सल्ल०) से कहना चाहते हैं तो कहते हैं 'इस्मअ' (सुनिए) और फिर साथ ही 'ग़ै-र मुस्मइन' भी कहते हैं जिसके कई अर्थ होते हैं। इसका एक अर्थ यह है कि आप ऐसे आदरणीय है कि आपको कोई बात मरज़ी के ख़िलाफ़ नहीं सुनाई जा सकती। दूसरा अर्थ यह है तुम इस योग्य नहीं हो कि तुम्हें कोई कुछ सुनाए। एक और अर्थ यह है कि ख़ुदा ऐसा करे कि तुम बहरे हो जाओ।
48. इसकी व्याख्या सूरा 2 (अल-बक़रा) फ़ुट नोट नं० 36 में हो चुकी है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡجِبۡتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَٰٓؤُلَآءِ أَهۡدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ سَبِيلًا 49
(51) क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा दिया गया। हैं, और उनका हाल यह है कि निराधार चीज़ों49 और ताग़ूत (फ़सादी) को मानते हैं और अधर्मियों के बारे में कहते हैं कि ईमान लानेवालों से तो यही ज़्यादा सही रास्ते पर हैं51
49. यहाँ 'जिब्त' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'जिब्त' के मूल अर्थ हैं तथ्यहीन, निराधार और व्यर्थ चीज़़। इस्लाम की भाषा में जादू ज्योतिष, शकुन विचार टोने-टोटके और मुहूर्त और सभी अन्धविश्वासपूर्ण और काल्पनिक बातों को 'जिब्त' की संज्ञा दी गई है।
50. व्याख्या के लिए देखें सूरा 2 (अल-बक़रा) फ़ुट नोट नं० 89-90
51. यहाँ अधर्मियों (काफ़िरों) से मुराद अरब के मुशरिक (बहुदेववादी) हैं।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تُؤَدُّواْ ٱلۡأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهۡلِهَا وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ بِٱلۡعَدۡلِۚ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعَۢا بَصِيرٗا 56
(58) मुसलमानो, अल्लाह तुम्हे आदेश देता है कि अमानतों को अमानतवालों को सौंपो और जब लोगों के बीच फ़ैसला करो तो इनसाफ़ के साथ करो53, अल्लाह तुमको निहायत अच्छी नसीहत करता है और यक़ीनन अल्लाह सब कुछ सुनता और देखता है।
53. अर्थात् तुम उन बुराइयों से बचे रहना जिनमें इसराईली पड़ गए हैं। इसराईलियों की बुनियादी ग़लतियों में से एक यह थी कि उन्होंने अपने अवनतिकाल में अमानतें, अर्थात् दायित्व के पद और धार्मिक नेतृत्व और समुदाय की सरदारी के पद ऐसे लोगों को देने शुरू कर दिए जो अयोग्य, अनुदार, दुराचारी, विश्वासघाती और दुष्कर्मी थे। नतीजा यह हुआ कि बुरे लोगों के नेतृत्व में पूरा समुदाय बिगड़ता चला गया। मुसलमानों को समझाया जा रहा है कि तुम ऐसा न करना। इसराईलियों की दूसरी बड़ी कमज़ोरी यह थी कि वे न्याय की चेतना से वंचित हो गए थे। वे निजी और क़ौमी उद्देश्यों के लिए निस्संकोच ईमान से हट जाते थे। खुली हठधर्मी बरत जाते थे। इनसाफ़ के गले पर छुरी फेरने में उन्हें तनिक भी संकोच न होता था। अल्लाह तआला मुसलमानों को ताकीद करता है कि तुम कहीं बेइनसाफ़ न बन जाना। चाहे किसी से दोस्ती हो या दुश्मनी, हर हालत में बात जब कहो इनसाफ़ की कहो और फ़ैसला जब करो न्यायपूर्वक करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِي ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ فَإِن تَنَٰزَعۡتُمۡ فِي شَيۡءٖ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلًا 57
(59) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बात मानो अल्लाह की और बात मानो रसूल की और उन लोगों की जो तुममें से आदेश देने के अधिकारी हों, फिर अगर तुम्हारे बीच किसी मामले में झगड़ा खड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो54 अगर तुम वास्तव में अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो। यही एक सही कार्य प्रणाली है और परिणाम की दृष्टि से भी अच्छा है।
54. यह आयत इस्लाम की पूरी धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक व्यवस्था का आधार और इस्लामी राज्य के संविधान की सर्वप्रथम धारा है। इसमें निम्नलिखित चार सिद्धान्त स्थायी रूप में क़ायम कर दिए गए हैं: (1) इस्लामी व्यवस्था में आदेश देने का असल अधिकारी अल्लाह है। एक मुसलमान सबसे पहले अल्लाह का बन्दा और दास है, बाक़ी जो कुछ भी है उसके बाद है। (2) इस्लामी व्यवस्था का दूसरा आधार रसूल (पैग़म्बर) का आज्ञापालन है। (3) उपर्युक्त दोनों आज्ञापालनों के बाद और उनके अधीन तीसरा आज्ञापालन उन आदेश देनेवाले अधिकारियों (ऊलुल-अम्र) का है जो ख़ुद मुसलमानों में से हों। “ऊलुल-अम्र” के अर्थ में ये सब लोग शामिल हैं जो मुसलमानों के सामूहिक मामलों के कार्यकारी अध्यक्ष हो, चाहे वे धर्मज्ञाता विद्वान (उलमा) हों, या राजनीतिक मार्गदर्शक नेता हों या देश के व्यवस्थापक अधिकारी, या अदालती फ़ैसले करनेवाले जज, या सांस्कृतिक और सामाजिक मामलों में क़बीलों और बस्तियों और मुहल्लों की अध्यक्षता करनेवाले बड़े बुजुर्ग और सरदार। (4) अल्लाह का आदेश और रसूल का तरीक़ा बुनियादी क़ानून और आख़िरी सनद (अंतिम प्रमाण) है। मुसलमानों के बीच या हुकूमत और प्रजा के बीच जिस मामले में भी झगड़ा या विवाद उत्पन्न होगा उसमें फ़ैसले के लिए क़ुरआन और सुन्नत (रसूल के तरीक़े) की तरफ़ रुजू किया जाएगा और जो फ़ैसला वहाँ से हासिल होगा उसके सामने सब स्वीकार के लिए सिर झुका देंगे।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٍ أَن يَقۡتُلَ مُؤۡمِنًا إِلَّا خَطَـٔٗاۚ وَمَن قَتَلَ مُؤۡمِنًا خَطَـٔٗا فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖ وَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُواْۚ فَإِن كَانَ مِن قَوۡمٍ عَدُوّٖ لَّكُمۡ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ وَإِن كَانَ مِن قَوۡمِۭ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَهُم مِّيثَٰقٞ فَدِيَةٞ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ وَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مُّؤۡمِنَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ تَوۡبَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا 90
(92) किसी ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरे ईमानवाले को क़त्ल करे, यह और बात है कि उससे चूक हो जाए। और जो आदमी किसी ईमानवाले को ग़लती से क़त्ल कर दे तो इसके गुनाह का कफ़्फ़ारा यह है कि एक ईमानवाले आदमी को ग़ुलामी से आज़ाद करें64 और जो क़त्ल हुआ उसके वारिसों को इसका ‘ख़ूनबहा’दे65, यह और बात है कि वे ख़ूनबहा को छोड़ दें। लेकिन अगर वह मुसलमान क़त्ल होनेवाला किसी ऐसी क़ौम से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी हो तो इसका कफ़्फ़ारा एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद करना है। और अगर वह किसी ऐसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम का आदमी था जिससे तुम्हारा समझौता हो तो उसके वारिसों को ख़ूनबहा दिया जाएगा और एक ईमानवाला ग़ुलाम आज़ाद करना होगा।66 फिर जो ग़ुलाम न पाए वह लगातार दो मास के रोज़े रखे।67 यह इस गुनाह से तौबा करने का तरीक़ा है68 और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और गहरी समझवाला है।
64. चूँकि मारा जानेवाला आदमी ईमानवाला था इसलिए उसके क़त्ल का कफ़्फ़ारा एक ईमानवाले ग़ुलाम को आज़ाद कर देना ठहराया गया।
65. नबी (सल्ल०) ने 'ख़ून बहा' की मात्रा सौ ऊँट, या दो सौ गायें, या दो हज़ार बकरियाँ नियत की है। अगर दूसरे किसी रूप में कोई आदमी ख़ूनबहा देना चाहे तो उसकी मात्रा इन्हीं चीज़़ों के बाज़ार भाव के लिहाज़ से निश्चित की जाएगी। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) के ज़माने में नक़द ख़ूनबहा देनेवालों के लिए 8 सौ दीनार या 8 हजार दिरहम नियत थे। जब हज़रत उमर (रज़ि०) का समय आया तो उन्होंने कहा कि ऊँट का मूल्य अब चढ़ गया है, अतः अब सोने के सिक्के में एक हज़ार दीनार या चाँदी के सिक्के में 12 हज़ार दिरहम ख़ूनबहा दिलवाया जाएगा। मगर स्पष्ट रहे कि ख़ूनबहा की यह मात्रा जो निर्धारित की गई है जान बूझकर क़त्ल करने की स्थिति के लिए नहीं है, बल्कि भूल से क़त्ल हो जाने की स्थिति में है।
66. इस आयत के आदेशों का सारांश यह है: अगर मारा जानेवाला 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) का रहनेवाला है तो उसके क़ातिल को ख़ूनबहा भी देना होगा और अल्लाह से अपनी ग़लती की माफ़ी माँगने के लिए एक ग़ुलाम भी आज़ाद करना होगा। अगर वह 'दारूल-हरब' अर्थात् युद्धक्षेत्र और दुश्मन के राज्य का निवासी है। तो क़त्ल करनेवाले को सिर्फ़ ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। उसका ख़ूनबहा कुछ नहीं है। अगर वह किसी ऐसे 'दारुल-कुफ़्र' अर्थात् ग़ैर-इस्लामी राज्य का निवासी है जिससे इस्लामी हुकूमत का अनुबन्ध या समझौता है तो क़त्ल करनेवाले को एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा और इसके अलावा ख़ूनबहा भी देना होगा, लेकिन ख़ूनबहा की मात्रा वही होगी जितनी अनुबन्ध करनेवाले राष्ट्र के किसी ग़ैर-मुस्लिम आदमी को क़त्ल कर देने की स्थिति में अनुबन्ध और समझौते के अन्तर्गत देनी चाहिए।
67. अर्थात् रोज़े लगातार रखे जाएँ, बीच में कोई नाग़ा या व्यवधान न हो। अगर कोई आदमी शरीअत में मान्य लाचारी के बिना एक रोज़ा भी बीच में छोड़ दे तो नए सिरे से रोज़ों का सिलसिला शुरू करना पड़ेगा।
68. अर्थात् यह जुर्माना” या दण्ड नहीं बल्कि “तौबा' (ईश्वर की ओर लौट आना) और “कफ़्फ़ारा” (प्रायश्चित) है। 'जुर्माने' में पश्चाताप एवं लज्जा और आत्म-शुद्धि का भाव नहीं होता, बल्कि प्रायः वह अनमने मन से विवशतापूर्वक चुकाया जाता है और क्रोध एवं घृणा और कटुता अपने पीछे छोड़ जाता है। इसके विपरीत अल्लाह चाहता है कि जिस बन्दे से भूलकर ख़ता हुई है वह इबादत और भले कर्म और हक़ की अदायगी के ज़रिये से उसका बुरा प्रभाव अपनी आत्मा पर से धो दे और शरमिन्दगी और पश्चाताप के साथ अल्लाह की ओर रुजू करे, ताकि सिर्फ़ यहाँ नहीं कि यह गुनाह (पाप) माफ़ हो बल्कि भविष्य के लिए उसका मन ऐसी ग़लतियों को दोहराने से बचा रहे।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ وَرَحۡمَتُهُۥ لَهَمَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ أَن يُضِلُّوكَ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡۖ وَمَا يَضُرُّونَكَ مِن شَيۡءٖۚ وَأَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمۡ تَكُن تَعۡلَمُۚ وَكَانَ فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكَ عَظِيمٗا 110
(113) ऐ नबी, अगर अल्लाह का अनुग्रह तुमपर न होता और उसकी दयालुता तुम्हारे साथ न होती तो उनमें से एक गिरोह ने तो तुम्हें भ्रम में डाल देने का फ़ैसला कर ही लिया था, हालाँकि वास्तव में वे ख़ुद अपने सिवा किसी को भ्रम में डाल नहीं रहे थे और तुम्हारा कोई नुक़सान न कर सकते थे।75 अल्लाह ने तुमपर किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) उतारी है और तुमको वह कुछ बताया है जो तुम जानते न थे, और उसका अनुग्रह तुमपर बहुत है।
75. अर्थात् अगर वे झूठे वृत्तान्त और गवाहियाँ प्रस्तुत करके तुम्हें भ्रम में डालने में सफल भी हो जाते और अपने हक़ में इनसाफ़ के ख़िलाफ़ फ़ैसला हासिल कर लेते तो हानि उन्हीं की थी, तुम्हारा कुछ भी न बिगड़ता, क्योंकि अल्लाह की दृष्टि में अपराधी वे होते न कि तुम जो आदमी हाकिम को धोखा देकर अपने हक़ में ग़लत फ़ैसला हासिल करता है वह वास्तव में ख़ुद अपने आपको इस भ्रम में डालता है कि इन उपायों से हक़ उसके साथ हो गया, हालाँकि हक़ीक़त में अल्लाह की नज़र में हक़ जिसका है उसी का रहता है और अदालत व हाकिम की किसी ग़लतफ़हमी के कारण फ़ैसला कर देने से हक़ीक़त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
وَلَأُضِلَّنَّهُمۡ وَلَأُمَنِّيَنَّهُمۡ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُبَتِّكُنَّ ءَاذَانَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ وَلَأٓمُرَنَّهُمۡ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلۡقَ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَّخِذِ ٱلشَّيۡطَٰنَ وَلِيّٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ فَقَدۡ خَسِرَ خُسۡرَانٗا مُّبِينٗا 116
(119) मैं उन्हें बहकाउँगा, मैं उन्हें कामनाओं में उलझाऊँगा मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से जानवरों के कान फाड़ेंगे78 और मैं उन्हें हुक्म दूँगा और वे मेरे हुक्म से ईश्वरीय संरचना में परिवर्तन करेंगे।”79 उस शैतान को जिसने अल्लाह के बदले अपना दोस्त और सरपरस्त बना लिया वह खुले घाटे में पड़ गया।
78. अरबवालों को अन्धविश्वासपूर्ण रीतियों में से एक की ओर इशारा है। उनके यहाँ नियम था कि जब ऊँटनी के पाँच या दस बच्चे पैदा हो जाते तो उसके कान फाड़कर उसे अपने देवता के नाम पर छोड़ देते और उससे काम लेना हराम समझते थे। इसी तरह जिस ऊँट के वीर्य से दस बच्चे हो जाते उसे भी देवता के नाम पर पुण्य कर दिया जाता था और कान चीरना इस बात का चिह्न था कि यह पुण्य किया हुआ जानवर है।
79. ईश्वरीय संरचना में परिवर्तन करने का अर्थ चीज़़ों की जन्मजात बनावट में परिवर्तन करना नहीं, बल्कि वास्तव में इस जगह जिस परिवर्तन को शैतानी काम कहा गया है वह यह है कि इनसान किसी चीज़़ से वह काम ले जिसके लिए अल्लाह ने उसे पैदा नहीं किया है, और किसी चीज़़ से वह काम न ले जिसके लिए अल्लाह ने उसे पैदा किया है। दूसरे शब्दों में वे सभी कर्म जो इनसान अपनी और चीज़़ों की प्रकृति के विरुद्ध करता है, और वे सभी तरीक़े जो वह प्रकृति के उद्देश्य से फेरने के लिए अपनाता है, इस आयत के मुताबिक़ शैतान को पथभ्रष्ट करनेवाली प्रेरणाओं के परिणाम हैं। जैसे गुदा मैथुन (क़ौमे-लूत का अमल), बच्चे पैदा करने पर रोक, संन्यास, ब्रह्मचर्य, मर्दों और औरतों को बाँझ बनाना, मर्दों को हिजड़ा बनाना, औरतों को उन सेवाओं से हटाना जो प्रकृति ने उन्हें सौंपी हैं और उन्हें संस्कृति के उन क्षेत्रों में घसीट लाना जिनके लिए मर्द पैदा किया गया है।
وَيَسۡتَفۡتُونَكَ فِي ٱلنِّسَآءِۖ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِيهِنَّ وَمَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ فِي يَتَٰمَى ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا تُؤۡتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرۡغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَٱلۡمُسۡتَضۡعَفِينَ مِنَ ٱلۡوِلۡدَٰنِ وَأَن تَقُومُواْ لِلۡيَتَٰمَىٰ بِٱلۡقِسۡطِۚ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِهِۦ عَلِيمٗا 124
(127) लोग तुमसे औरतों के विषय में फ़तवा (धर्मादेश) पूछते हैं।80 कहो, अल्लाह तुम्हें उनके मामले में आज्ञा देता है, और साथ ही वे आदेश भी याद दिलाता है जो पहले से तुमको इस किताब में सुनाए जा रहे है। अर्थात् वे आदेश जो उन यतीम लड़कियों के सम्बन्ध में हैं जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते और जिनके निकाह करने से तुम बाज़ रहते हो (या लालच के कारण तुम ख़ुद उनसे निकाह कर लेना चाहते हो)81 और वे आदेश भी जो उन बच्चों के सम्बन्ध में हैं जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते। अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि यतीमों के साथ इनसाफ़ पर क़ायम रहो, और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह के ज्ञान से छिपी न रह जाएगी।
80. यह स्पष्ट नहीं किया कि वे क्या धर्मादेश (फ़तवा) मालूम करना चाहते थे। लेकिन आयत 128 से 130 तक में जो फ़तवा दिया गया है उससे समझ में आ जाता है कि सवाल किस तरह का था।
81. कुरआन के शब्द “तर्ग़बू-न अन तनकिहू-हुन्न” का अर्थ यह भी हो सकता है कि “तुम्हें उनसे विवाह करने की रुचि है” और यह भी हो सकता है कि “तुम उनसे निकाह करना पसन्द नहीं करते।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِي نَزَّلَ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِن قَبۡلُۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلَۢا بَعِيدًا 133
(136) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारी है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह उतार चुका है।85 जिसने अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और आख़िरत के दिन का इनकार किया86 वह गुमराही में भटककर बहुत दूर निकल गया।
85. ईमान लानेवालों से कहना कि ईमान लाओ, ज़ाहिर में विचित्र मालूम होता है। लेकिन वास्तव में यहाँ 'ईमान' शब्द दो विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। ईमान लाने का एक अर्थ यह है कि आदमी इनकार के बदले स्वीकार की नीति अपनाए, न माननेवालों से अलग होकर माननेवालों में शामिल हो जाए। और इसका दूसरा अर्थ यह है कि आदमी जिस चीज़ को माने उसे सच्चे दिल से माने, पूरी गंभीरता और निष्ठा के साथ माने। आयत में सम्बोधन उन सभी मुसलमानों से है जो पहले अर्थ के अनुसार “माननेवालों” में गिने जाते हैं। और उनसे माँग यह की गई है कि दूसरे अर्थ के अनुसार सच्चे ईमानवाले बनें।
86. इनकार (कुफ़्र) करने के भी दो अर्थ हैं। एक यह कि आदमी साफ़-साफ़ इनकार कर दे। दूसरे यह कि ज़बान से तो माने मगर दिल से न माने, या अपने रवैये से साबित कर दे कि वह जिस चीज़़ को मानने का दावा कर रहा है वास्तव में उसे नहीं मानता।
وَقَوۡلِهِمۡ إِنَّا قَتَلۡنَا ٱلۡمَسِيحَ عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ رَسُولَ ٱللَّهِ وَمَا قَتَلُوهُ وَمَا صَلَبُوهُ وَلَٰكِن شُبِّهَ لَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُۚ مَا لَهُم بِهِۦ مِنۡ عِلۡمٍ إِلَّا ٱتِّبَاعَ ٱلظَّنِّۚ وَمَا قَتَلُوهُ يَقِينَۢا 154
(157) और ख़ुद कहा कि हमने मसीह ईसा, मरयम के बेटे, अल्लाह के रसूल का क़त्ल कर दिया है92 — हालाँकि वास्तव में इन्होंने न उसकी हत्या की, न सूली पर चढ़ाया बल्कि मामला इनके लिए संदिग्ध कर दिया गया।93 और जिन लोगों ने इसके विषय में मतभेद किया है वे भी वास्तव में शक में पड़े हुए हैं, उनके पास इस मामले में कोई ज्ञान नहीं है, सिर्फ़ अटकल पर चल रहे हैं। उन्होंने मसीह को, यक़ीनन क़त्ल नहीं किया
92. अर्थात् अपराधवृत्ति का दुस्साहस इतना बढ़ा हुआ था कि रसूल को रसूल जानते थे और फिर उसकी हत्या कर डाली और गर्व से कहा कि हमने अल्लाह के रसूल की हत्या की है। इस अवसर पर अगर सूरा 19 (मरयम) आयत 16-40 को हमारे फ़ुटनोट के साथ पढ़ लिया जाए तो मालूम हो जाएगा कि इसराईली हज़रत ईसा (अलैहि०) को वास्तव में रसूल जानते थे और इसके बावजूद उन्होंने अपने जानते उन्हें सूली पर चढ़ा दिया।
93. यह आयत स्पष्ट करती है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) सूली पर चढ़ाए जाने से पहले ही उठा लिए गए वे और यह कि ईसाइयों और यहूदियों, दोनों का यह विचार था कि मसीह ने सलीब (सूली) पर जान दी, सिर्फ़ भ्रम और ग़लतफ़हमी पर आधारित है। इससे पहले कि यहूदी आपको सूली पर चढ़ाते अल्लाह ने किसी समय उन्हें उठा लिया और बाद में यहूदियों ने जिस व्यक्ति को सूली पर चढ़ाया वह कोई और व्यक्ति था जिसको न जाने किस कारण से इन लोगों ने मरयम का बेटा ईसा समझ लिया।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ وَلَا تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡحَقَّۚ إِنَّمَا ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ رَسُولُ ٱللَّهِ وَكَلِمَتُهُۥٓ أَلۡقَىٰهَآ إِلَىٰ مَرۡيَمَ وَرُوحٞ مِّنۡهُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۖ وَلَا تَقُولُواْ ثَلَٰثَةٌۚ ٱنتَهُواْ خَيۡرٗا لَّكُمۡۚ إِنَّمَا ٱللَّهُ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓ أَن يَكُونَ لَهُۥ وَلَدٞۘ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا 163
(171) ऐ किताबवालो, अपने दीन (धर्म) में हद से आगे न बढ़ो98 और अल्लाह से लगाकर सत्य के सिवा कोई बात न कहो। मसीह मरयम का बेटा ईसा इसके सिवा कुछ न था कि अल्लाह का एक रसूल था और एक आदेश था जो अल्लाह ने मरयम की ओर भेजा99 और एक आत्मा थी अल्लाह की ओर से100 (जिसने मरयम के गर्भ में बच्चे का रूप धारण किया)। अत: तुम अल्लाह और उसके रसूलों को मानो और न कहो कि “तीन” हैं।101 बाज़ आ जाओ, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। अल्लाह तो बस एक ही ईश्वर है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो।102 ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़़ों का वही मालिक है, और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति और उनकी ख़बर रखने के लिए बस वही काफ़ी है।
98. यहाँ किताबवालों से मुराद ईसाई हैं और अत्युक्ति (ग़ूलू) का अर्थ है किसी चीज़़ के समर्थन में सीमा से आगे बढ़ जाना। यहूदियों का अपराध तो यह था कि वे मसीह के इनकार और विरोध में हद से आगे बढ़ गए और ईसाइयों का अपराध यह है कि वे मसीह के प्रति श्रद्धा और प्रेम में सीमा पार कर गए और उनको ईश्वर का पुत्र बल्कि प्रत्यक्षतः ईश्वर ठहरा लिया।
99. मूल ग्रन्थ में “कलिमा” शब्द प्रयुक्त हुआ है, मरयम की ओर कलिमा भेजने का अर्थ यह है कि अल्लाह ने हज़रत मरयम (अलैहि०) के गर्भाशय पर यह आदेश अवतरित किया कि किसी मर्द के वीर्य से सिंचित हुए बिना गर्भ धारण कर ले। ईसाइयों ने पहले शब्द कलिमा को “कलाम” (वाणी) या वाक्शक्ति का पर्याय समझ लिया फिर इस वाणी और वाक्शक्ति का अभिप्राय अल्लाह का निजी वाक्-गुण ठहरा लिया, फिर अनुमान से यह धारणा बनाई कि अल्लाह के इस निजी गुण ने मरयम (अलैहि०) के गर्भ में प्रवेश करके वह शारीरिक रूप धारण किया जो मसीह के रूप में प्रकट हुआ। इस तरह ईसाइयों में मसीह (अलैहि०) के ईश्वरत्व की ग़लत धारणा ने जन्म लिया और इस असत्य कल्पना ने जड़ पकड़ ली कि ईश्वर ने ख़ुद अपने आपको या अपने शाश्वत गुणों में से वाक्शक्ति और वाणी के गुण को मसीह के रूप में प्रकट किया है।
100. यहाँ ख़ुद मसीह को “रूहुम-मिनहु” (अल्लाह की ओर से एक आत्मा) कहा गया है, और सूरा बक़रा आयत 87 में इस बात को इस तरह पेश किया गया है कि “हमने पवित्र आत्मा से मसीह की सहायता की"। दोनों वर्णनों का अर्थ यह है कि अल्लाह ने मसीह (अलैहि०) को वह पवित्र आत्मा प्रदान की थी जो बुराई से अपरिचित थी, सर्वथा सत्यता और सत्यप्रियता थी, और सिर से पैर तक नैतिक श्रेष्ठता का स्वरूप थी। ईसाइयों ने इसमें भी अत्युक्ति से काम लिया 'रूहुम-मिनल्लाह' (अल्लाह की ओर से एक आत्मा) को ख़ुद अल्लाह की आत्मा ठहरा लिया, और 'रूहुल-क़ुदुस' (पवित्र आत्मा) का अर्थ यह लिया कि अल्लाह की अपनी पवित्र आत्मा थी जो मसीह के भीतर प्रविष्ट होकर आत्मसात हो गई थी। इस तरह अल्लाह और मसीह के साथ एक तीसरा ईश्वर “रूहुल-क़ुदुस” (पवित्र आत्मा) को बना डाला गया।
101 अर्थात् तीन ईश्वर होने की धारणा को छोड़ दो चाहे वह किसी रूप में तुम्हारे अन्दर पाई जाती हो। वास्तविकता यह है कि ईसाई एक साथ एकेश्वरवाद को भी मानते हैं और त्रीश्वरवाद को भी। मसीह (अलैहि०) के जो स्पष्ट शब्द इंजीलों में मिलते हैं उनके आधार पर कोई ईसाई इससे इनकार नहीं कर सकता कि ईश्वर बस एक ही ईश्वर है और उसके सिवा कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। उनके लिए यह स्वीकार कर लेने के अलावा कोई उपाय नहीं है कि एकेश्वरवाद मूल धर्म है। मगर इसके बावजूद मसीह के व्यक्तित्व में अत्युक्ति के कारण वे त्रीश्वरवाद को भी मानते हैं और आज तक यह फ़ैसला न कर सके कि इन दो परस्पर विरोधी धारणाओं को एक साथ कैसे निबाहे।
102. यह ईसाइयों की चौथी अत्युक्ति का खण्डन है। ईसाई पुरातन कथन अगर सत्य भी हों तो उनसे (विशेषतः पहली तीन इंजीलों से) ज़्यादा से ज़्यादा बस इतना ही साबित होता है कि मसीह (अलैहि०) ने अल्लाह और बन्दों के सम्बन्ध को बाप और औलाद के सम्बन्ध की उपमा दी थी और 'बाप' शब्द ईश्वर के लिए वे केवल उपलक्ष्य और व्यंजना और शब्दालंकार के रूप में प्रयोग करते थे। यह अकेले मसीह हो की कोई विशेषता नहीं है। बहुत प्राचीन काल से इसराईली ख़ुदा के लिए बाप का शब्द बोलते चले आ रहे थे और इसकी बहुत ज़्यादा मिसालें बाइबल के पुराने धर्मनियम में मौजूद हैं। मसीह ने यह शब्द अपनी जातिवालों के मुहावरों के अनुसार ही प्रयोग किया था और वे ईश्वर को केवल अपना ही नहीं बल्कि सब इनसानों का बाप कहते थे। लेकिन ईसाइयों ने यहाँ फिर अत्युक्ति से काम लिया और मसीह को ईश्वर का इकलौता बेटा घोषित कर दिया।
يَسۡتَفۡتُونَكَ قُلِ ٱللَّهُ يُفۡتِيكُمۡ فِي ٱلۡكَلَٰلَةِۚ إِنِ ٱمۡرُؤٌاْ هَلَكَ لَيۡسَ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَهُۥٓ أُخۡتٞ فَلَهَا نِصۡفُ مَا تَرَكَۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ إِن لَّمۡ يَكُن لَّهَا وَلَدٞۚ فَإِن كَانَتَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَلَهُمَا ٱلثُّلُثَانِ مِمَّا تَرَكَۚ وَإِن كَانُوٓاْ إِخۡوَةٗ رِّجَالٗا وَنِسَآءٗ فَلِلذَّكَرِ مِثۡلُ حَظِّ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۗ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ أَن تَضِلُّواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ 168
(176) ऐ नबी, लोग तुमसे उनके बारे में आदेश मालूम करना चाहते हैं जिनके प्रत्यक्ष वारिस न हों।103 कहो अल्लाह तुम्हें आदेश देता है। अगर कोई आदमी बिना औलाद मर जाए और उसकी एक बहन हो104 तो वह उसके छोड़े हुए माल में से आधा पाएगी, और अगर बहन बिना औलाद मरे तो भाई उसका वारिस होगा।105 अगर मरनेवाले की वारिस दो बहनें हों तो वे तरके में से दो तिहाई की हक़दार होंगी106, और अगर कई भाई-बहनें हों तो औरतों का एकहरा और मर्दों का दोहरा हिस्सा होगा। अल्लाह तुम्हारे लिए आदेशों को स्पष्ट करता है ताकि तुम भटकते न फिरो और अल्लाह को हर चीज़़ का ज्ञान है।
103. यहाँ मूल ग्रन्थ में 'कलाला' शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'कलाला' के अर्थ में मतभेद है। कुछ लोगों के मतानुसार ‘कलाला' वह व्यक्ति है जो निस्सन्तान भी हो और जिसके बाप और दादा भी ज़िन्दा न हों। और कुछ लोगों के विचार में सिर्फ़ निस्सन्तान मरनेवाले को 'कलाला' कहा जाता है। किन्तु आम धर्मविधान व उलमा ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के इस मत को स्वीकार कर लिया है कि यह पहले रूप के ही अर्थ में है। और ख़ुद क़ुरआन से भी इसकी पुष्टि होती है क्योंकि यहाँ 'कलाला' की बहन को आधे तरके का वारिस ठहराया गया है, हालाँकि अगर 'कलाला' का बाप ज़िन्दा हो तो बहन को सिरे से कोई हिस्सा पहुँचता ही नहीं।
104 यहाँ उन भाई-बहनों की मीरास का उल्लेख किया जा रहा है जो मरनेवाले के साथ माँ-बाप दोनों ओर से संगे हो या सिर्फ़ बाप सगा हो। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने एक बार एक भाषण में यही अर्थ बयान किया था और सहाबा में से किसी ने इसके बारे में अपना मतभेद प्रकट नहीं किया, इसलिए यह बात ऐसी है जिसपर सब एकमत हैं।
105. अर्थात् भाई उसके पूरे माल का वारिस होगा अगर कोई और हिस्सेदार न हो। और अगर कोई हिस्सेदार मौजूद हो, जैसे पति, तो उसका हिस्सा अदा करने के बाद बाक़ी तमाम तरका भाई को मिलेगा।
106. यही आदेश दो से ज़्यादा बहनों का भी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا ضَرَبۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلَا تَقُولُواْ لِمَنۡ أَلۡقَىٰٓ إِلَيۡكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسۡتَ مُؤۡمِنٗا تَبۡتَغُونَ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٞۚ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبۡلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَتَبَيَّنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا 169
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम अल्लाह के रास्ते में लड़ने के लिए निकलो तो दोस्त और दुश्मन में अन्तर करो और जो तुम्हें सलाम करे उसे तुरन्त न कह दो कि तुम ईमान नहीं रखते। अगर तुम सांसारिक लाभ चाहते हो तो अल्लाह के पास तुम्हारे लिए बहुत-से हाथ आनेवाले माल हैं। आख़िर इसी हालत में तुम ख़ुद भी तो इससे पहले रह चुके हो, फिर अल्लाह ने तुमपर एहसान किया, अतः जाँच-परख से काम लो69, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
69. इस्लाम के आरम्भिक समय में “अस-सलामु अलैकुम” (तुमपर सलामती हो) के शब्द की हैसियत मुसलमानों के लिए रीति और लक्षण की थी और एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को देखकर यह शब्द इस अर्थ में प्रयोग करता था कि मैं तुम्हारे ही गिरोह का आदमी हूँ, मित्र और हितैषी हूँ, दुश्मन नहीं हूँ। विशेष रूप से उस समय में इस रीति का महत्त्व इस कारण से और भी अधिक था कि उस वक्त अरब के नए मुसलमानों और अधर्मियों के बीच वस्त्र, भाषा और किसी दूसरी चीज़ में कोई स्पष्ट अन्तर न था जिसके कारण एक मुसलमान सरसरी निगाह में दूसरे मुसलमान को पहचान सकता हो। लेकिन लड़ाइयों के अवसर पर एक कठिनाई यह पेश आती थी कि मुसलमान जब किसी दुश्मन गिरोह पर आक्रमण करते और वहाँ कोई मुसलमान इस लपेट में आ जाता तो वह आक्रमण करनेवाले मुसलमानों को यह बताने के लिए कि वह भी उनका सहधर्मी भाई है “अस-सलामु अलैकुम” या “ला इला-ह इल्लल्लाह” (अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं) पुकारता था, मगर मुसलमानों को इसपर यह सन्देह होता था कि यह कोई अधर्मी है जो सिर्फ़ जान बचाने के लिए छल कर रहा है, इसलिए प्रायः वे उसे क़त्ल कर बैठते थे। आयत का मंशा यह है कि जो व्यक्ति अपने आपको मुसलमान के रूप में प्रस्तुत कर रहा है उसके सम्बन्ध में तुम्हें सरसरी तौर पर यह फ़ैसला कर देने का हक़ नहीं है कि वह सिर्फ़ जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है। हो सकता है कि वह सच्चा हो और हो सकता है कि झूठा हो। वास्तविकता तो जाँच ही से मालूम हो सकती है। जाँच-पड़ताल के बिना छोड़ देने में अगर यह संभावना है कि एक अधर्मी झूठ बोलकर जान बचा ले जाए, तो क़त्ल कर देने में इसकी संभावना भी है कि एक ईमानवाला बेगुनाह तुम्हारे हाथ से मारा जाए।