40. अल-मोमिन
(मक्का में उतरी, आयतें 85)
परिचय
नाम
आयत 28 के वाक्य “व क़ा-ल रजलुम-मोमिनुम-मिन आलि फ़िरऔ-न" ( फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमान रखनेवाला व्यक्ति (अल-मोमिन) बोल उठा) से लिया गया है। अर्थात् वह सूरा जिसमें उस विशेष 'मोमिन' (ईमानमाले) का उल्लेख हुआ है। [इस सूरा का एक नाम ‘ग़ाफ़िर’ भी है, सूरा की आयत 3 में आए शब्द ‘ग़ाफ़िर’ से लिया गया है।]
उतरने का समय
इब्ने-अब्बास और जाबिर-बिन-ज़ैद (रज़ि०) का बयान है कि यह सूरा, सूरा-39 ज़ुमर के बाद उतरी है और इसका जो स्थान क़ुरआन मजीद के वर्तमान क्रम में है, वही क्रम अवतरण के अनुसार भी है।
उतरने की परिस्थितियाँ
जिन परिस्थितियों में यह सूरा उतरी है, उनकी ओर स्पष्ट संकेत इसकी विषय वस्तु में मौजूद है। मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उस समय नबी (सल्ल०) के विरुद्ध दो प्रकार की कार्रवाइयाँ शुरू कर रखी थीं। एक यह कि हर ओर झगड़े और विवाद छेड़कर और नित नए मिथ्यारोपण द्वारा क़ुरआन की शिक्षा और इस्लाम की दावत और स्वयं नबी (सल्ल०) के बारे में अधिक से अधिक सन्देह और बुरे विचार आम लोगों के दिलों में पैदा कर दिए जाएँ। दूसरे यह कि आप (सल्ल०) की हत्या के लिए माहौल तैयार किया जाए। अतएव इस उद्देश्य के लिए वे निरंतर षड्यंत्र रच रहे थे।
विषय और वार्ता
परिस्थितियों के इन दोनों पहलुओं को अभिभाषण के आरंभ ही में स्पष्ट कर दिया गया है और फिर आगे का सम्पूर्ण अभिभाषण इन्हीं दोनों की एक अत्यन्त प्रभावी और शिक्षाप्रद समीक्षा है। हत्या के षड्यंत्र के जवाब में आले-फ़िरऔन में से एक मोमिन व्यक्ति का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है (आयत 23 से लेकर 55 तक)। और इस वृत्तान्त के रूप में तीन गिरोहों को तीन अलग-अलग शिक्षाएँ दी गई हैं-
(1) इस्लाम-विरोधियों को बताया गया है कि जो कुछ तुम मुहम्मद (सल्ल०) के साथ करना चाहते हो, यहांँ कुछ अपनी शक्ति के भरोसे पर फ़िरऔन हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ करना चाहता था, अब क्या ये हरकतें करके तुम भी उसी परिणाम को देखना चाहते हो जिस परिणाम को उसे देखना पड़ा था?
(2) मुहम्मद (सल्ल०) और उनके अनुयायियों को शिक्षा दी गई है कि [इन ज़ालिमों की बड़ी से बड़ी भयावह धमकी] के जवाब में बस अल्लाह की पनाह माँग लो और इसके बाद बिल्कुल निर्भय होकर अपने काम में लग जाओ। इस तरह अल्लाह के भरोसे पर ख़तरों और आशंकाओं से बेपरवाह होकर काम करोगे तो आख़िरकार उसकी मदद आकर रहेगी और आज के फ़िरऔन भी वही कुछ देख लेंगे जो कल के फ़िरऔन देख चुके हैं।
(3) इन दो गिरोहों के अलावा एक तीसरा गिरोह भी समाज में मौजूद था और वह उन लोगों का गिरोह था जो दिलों में जान चुके थे कि सत्य मुहम्मद (सल्ल०) ही के साथ है। मगर यह जान लेने के बावजूद वे चुपचाप सत्य-असत्य के इस संघर्ष का तमाशा देख रहे थे। अल्लाह ने इस अवसर पर उनकी अन्तरात्मा को झिंझोड़ा है और उन्हें बताया है कि जब सत्य के शत्रु खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी आँखों के सामने इतना बड़ा ज़ुल्म भरा क़दम उठाने पर तुल गए हैं, तो अफ़सोस है तुम पर अगर अब भी तुम बैठे तमाशा ही देखते रहो। इस हालत में जिस व्यक्ति की अन्तरात्मा बिल्कुल मर न चुकी हो उसे तो उठकर वह कर्तव्य निभाना चाहिए जो फ़िरऔन के भरे दरबार में उसके अपने दरबारियों में से एक सत्यवादी व्यक्ति ने उस समय निभाया था जब फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को क़त्ल करना चाहा था। अब रहा इस्लाम-विरोधियों का वह तर्क-वितर्क जो सत्य को नीचा दिखाने के लिए मक्का मुअज़्ज़मा में रात-दिन जारी था, तो उसके उत्तर में एक ओर प्रमाणों के द्वारा तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की उन धारणाओं का सत्य होना सिद्ध किया गया है जो मुहम्मद (सल्ल०) और इस्लाम-विरोधियों के बीच झगड़े की असल जड़ थी। दूसरी ओर उन मूल प्रेरक तत्त्वों को स्पष्ट रूप से सामने लाया गया है जिनके कारण क़ुरैश के सरदार इतनी सरगर्मी के साथ नबी (सल्ल०) के विरुद्ध लड़ रहे थे। अतएव आयत 56 में यह बात किसी लाग-लपेट के बिना उनसे साफ़ कह दी गई है कि तुम्हारे इंकार का मूल कारण वह दंभ है, जो तुम्हारे दिलों में भरा हुआ है। तुम समझते हो कि अगर लोग मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी को मान लेंगे तो तुम्हारी बड़ाई कायम न रह सकेगी। इसी सिलसिले में विधर्मियों को बार-बार चेतावनियाँ दी गई हैं कि अगर अल्लाह की आयतों के मुक़ाबले में लड़ने-झगड़ने से बाज़ न आओगे तो उसी परिणाम का सामना करना पड़ेगा, जिसका सामना पिछली जातियों को करना पड़ा है।
---------------------
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَعۡدِهِمۡۖ وَهَمَّتۡ كُلُّ أُمَّةِۭ بِرَسُولِهِمۡ لِيَأۡخُذُوهُۖ وَجَٰدَلُواْ بِٱلۡبَٰطِلِ لِيُدۡحِضُواْ بِهِ ٱلۡحَقَّ فَأَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ عِقَابِ 4
(5) इनसे पहले नूह की क़ौम भी झुठला चुकी है, और उसके बाद बहुत-से दूसरे जत्थों ने भी यह काम किया है। हर क़ौम अपने रसूल पर झपटी ताकि उसे पकड़ ले। उन सबने असत्य के हथियारों से सत्य को नीचा दिखाने की कोशिश की, किन्तु आख़िरकार मैंने उनको पकड़ लिया, फिर देख लो कि मेरी सज़ा कैसी कठोर थी।
ٱلَّذِينَ يَحۡمِلُونَ ٱلۡعَرۡشَ وَمَنۡ حَوۡلَهُۥ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْۖ رَبَّنَا وَسِعۡتَ كُلَّ شَيۡءٖ رَّحۡمَةٗ وَعِلۡمٗا فَٱغۡفِرۡ لِلَّذِينَ تَابُواْ وَٱتَّبَعُواْ سَبِيلَكَ وَقِهِمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ 6
(7) ईश-सिंहासन के उठानेवाले फ़रिश्ते, और वे जो सिंहासन के चारों तरफ़ हाज़िर रहते हैं सब अपने रब की तारीफ़ के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) कर रहे हैं। वे उसपर ईमान रखते हैं और ईमान लानेवालों के हक़ में मग़फ़िरत (मोक्ष) की दुआ करते हैं। वे कहते हैं: “ऐ हमारे रब, तू अपनी दयालुता और अपने ज्ञान के साथ हर चीज़ पर छाया हुआ है, अतः माफ़ कर दे और जहन्नम के अज़ाब से बचा ले उन लोगों को जिन्होंने तौबा की है और तेरा मार्ग ग्रहण कर लिया है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُنَادَوۡنَ لَمَقۡتُ ٱللَّهِ أَكۡبَرُ مِن مَّقۡتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡ إِذۡ تُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلۡإِيمَٰنِ فَتَكۡفُرُونَ 9
(10) जिन लोगों ने इनकार किया है, क़ियामत के दिन उनको पुकारकर कहा जाएगा, “आज तुम्हें जितना ज़्यादा ग़ुस्सा अपने ऊपर आ रहा है, अल्लाह तुमपर उससे ज़्यादा ग़ुस्सा उस समय करता था जब तुम्हें ईमान की ओर बुलाया जाता था और तुम इनकार करते थे।”
قَالُواْ رَبَّنَآ أَمَتَّنَا ٱثۡنَتَيۡنِ وَأَحۡيَيۡتَنَا ٱثۡنَتَيۡنِ فَٱعۡتَرَفۡنَا بِذُنُوبِنَا فَهَلۡ إِلَىٰ خُرُوجٖ مِّن سَبِيلٖ 10
(11) वे कहेंगे, “ऐ हमारे रब, तूने वास्तव में हमें दो बार मौत और दो बार ज़िन्दगी दे दी1 अब हम अपने गुनाहों को क़ुबूल करते हैं, क्या अब यहाँ से निकलने की भी कोई राह है?”
1. दो बार मौत और दो बार ज़िन्दगी से मुराद वही चीज़ है जिसका उल्लेख सूरा 2 (बक़रा) आयत 28 में किया गया है।
هُوَ ٱلَّذِي يُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُنَزِّلُ لَكُم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ رِزۡقٗاۚ وَمَا يَتَذَكَّرُ إِلَّا مَن يُنِيبُ 12
(13) वही है जो तुमको अपनी निशानियाँ दिखाता है और आसमान से तुम्हारे लिए रोज़ी उतरता है2, मगर (इन निशानियों के निरीक्षण से) शिक्षा सिर्फ़ वही व्यक्ति ग्रहण करता है जो अल्लाह की ओर रुजू करनेवाला हो।
2. अर्थात् वर्षा करता है जो रोज़ी का कारण है, गर्मी और ठण्डक उतारता है जिसका रोज़ी की पैदावार में बड़ा हाथ है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانَت تَّأۡتِيهِمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَكَفَرُواْ فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُۚ إِنَّهُۥ قَوِيّٞ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ 21
(22) यह उनका परिणाम इसलिए हुआ कि उनके पास उनके रसूल प्रत्यक्ष प्रमाण3 लेकर आए और उन्होंने मानने से इनकार कर दिया। आख़िरकार अल्लाह ने उनको पकड़ लिया। यक़ीनन वह बड़ी शक्तिवाला और सज़ा देने में बहुत सख़्त है।
3. स्पष्ट प्रमाण 'बैयिनात' से मुराद तीन चीज़़ें हैं। एक ऐसे स्पष्ट लक्षण और निशानियाँ जो अल्लाह की ओर से उनके नियुक्त होने की साक्षी थीं। दूसरे, ऐसे खुले प्रमाण जो उनकी पेश की हुई शिक्षाओं के सत्य होने को सिद्ध कर रहे थे। तीसरे, ज़िन्दगी की समस्याओं और मामलों के सम्बन्ध में ऐसे स्पष्ट आदेश जिन्हें देखकर हर समझदार और सभ्य आदमी यह जान सकता था कि ऐसी पवित्र शिक्षा कोई झूठा स्वार्थी आदमी नहीं दे सकता।
وَقَالَ فِرۡعَوۡنُ ذَرُونِيٓ أَقۡتُلۡ مُوسَىٰ وَلۡيَدۡعُ رَبَّهُۥٓۖ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يُبَدِّلَ دِينَكُمۡ أَوۡ أَن يُظۡهِرَ فِي ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡفَسَادَ 25
(26) एक दिन फ़िरऔन ने अपने दरबारियों से कहा, “छोड़ो मुझे, मैं इस मूसा को क़त्ल किए देता हूँ, और पुकार देखे यह अपने रब को मुझे आशंका है कि यह तुम्हारा धर्म बदल डालेगा, या देश में बिगाड़ पैदा करेगा।"
وَقَالَ رَجُلٞ مُّؤۡمِنٞ مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَكۡتُمُ إِيمَٰنَهُۥٓ أَتَقۡتُلُونَ رَجُلًا أَن يَقُولَ رَبِّيَ ٱللَّهُ وَقَدۡ جَآءَكُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ مِن رَّبِّكُمۡۖ وَإِن يَكُ كَٰذِبٗا فَعَلَيۡهِ كَذِبُهُۥۖ وَإِن يَكُ صَادِقٗا يُصِبۡكُم بَعۡضُ ٱلَّذِي يَعِدُكُمۡۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَنۡ هُوَ مُسۡرِفٞ كَذَّابٞ 27
(28) इस अवसर पर फ़िरऔन के लोगों में से एक ईमान रखनेवाला व्यक्ति, जो अपना ईमान छिपाए हुए था, बोल उठा: “क्या तुम एक व्यक्ति को सिर्फ़ इसलिए क़त्ल कर दोगे कि वह कहता है कि मेरा रब अल्लाह है? जबकि वह तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास स्पष्ट प्रमाण ले आया। अगर वह झूठा है तो उसका झूठ ख़ुद उसी पर पलट पड़ेगा। लेकिन अगर वह सच्चा है तो जिन भयंकर परिणामों से वह तुम्हें डराता है उनमें से कुछ तो तुमपर ज़रूर ही आ जाएँगे। अल्लाह किसी ऐसे व्यक्ति को मार्ग नहीं दिखाता जो मर्यादाओं का उल्लंघन करनेवाला और बड़ा झूठा हो।
يَٰقَوۡمِ لَكُمُ ٱلۡمُلۡكُ ٱلۡيَوۡمَ ظَٰهِرِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَمَن يَنصُرُنَا مِنۢ بَأۡسِ ٱللَّهِ إِن جَآءَنَاۚ قَالَ فِرۡعَوۡنُ مَآ أُرِيكُمۡ إِلَّا مَآ أَرَىٰ وَمَآ أَهۡدِيكُمۡ إِلَّا سَبِيلَ ٱلرَّشَادِ 28
(29) ऐ मेरी क़ौम के लोगो, आज तुम्हें बादशाही प्राप्त है और ज़मीन में तुम प्रभुत्वशाली हो, लेकिन अगर अल्लाह का अज़ाब हमपर आ गया तो फिर कौन है जो हमारी सहायता कर सकेगा?” फ़िरऔन ने कहा, “मैं तो तुम लोगों को वही राय दे रहा हूँ जो मुझे उचित दीख पड़ती है और मैं उसी मार्ग की ओर तुम्हारा पथप्रदर्शन करता हूँ जो ठीक है।"
وَلَقَدۡ جَآءَكُمۡ يُوسُفُ مِن قَبۡلُ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَمَا زِلۡتُمۡ فِي شَكّٖ مِّمَّا جَآءَكُم بِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا هَلَكَ قُلۡتُمۡ لَن يَبۡعَثَ ٱللَّهُ مِنۢ بَعۡدِهِۦ رَسُولٗاۚ كَذَٰلِكَ يُضِلُّ ٱللَّهُ مَنۡ هُوَ مُسۡرِفٞ مُّرۡتَابٌ 33
(34) इससे पहले यूसुफ़ तुम्हारे पास स्पष्ट प्रमाण लेकर आए थे मगर तुम उनकी लाई हुई शिक्षा की ओर से शक ही में पड़े रहे। फिर जब उनका देहान्त हो गया तो तुमने कहा, “अब उनके बाद अल्लाह कोई रसूल हरगिज़ न भेजेगा” इसी तरह4 अल्लाह उन सब लोगों को गुमराही में डाल देता है जो हद से गुज़रनेवाले और शक में पड़े होते हैं
4. प्रत्यक्षतः ऐसा लगता है कि आगे के ये कुछ वाक्य अल्लाह ने फ़िरऔनियों में के ईमानवाले व्यक्ति के कथन पर अभिवृद्धि और व्याख्या के रूप में कहे हैं।
تَدۡعُونَنِي لِأَكۡفُرَ بِٱللَّهِ وَأُشۡرِكَ بِهِۦ مَا لَيۡسَ لِي بِهِۦ عِلۡمٞ وَأَنَا۠ أَدۡعُوكُمۡ إِلَى ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡغَفَّٰرِ 41
(42) तुम मुझे इस बात का आमंत्रण देते हो कि मैं अल्लाह के साथ इनकार की नीति अपनाऊँ और उसके साथ ऐसों को साझी ठहराऊँ जिन्हें मैं नहीं जानता5, हालाँकि मैं तुम्हें उस प्रभुत्वशाली क्षमाशील ईश्वर की ओर बुला रहा हूँ।
5. अर्थात् मुझे नहीं मालूम कि ईश्वरत्व में उनकी कोई साझीदारी है।
لَا جَرَمَ أَنَّمَا تَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِ لَيۡسَ لَهُۥ دَعۡوَةٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَلَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَأَنَّ مَرَدَّنَآ إِلَى ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ هُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ 42
(43) नहीं, सत्य यह है और इसके विपरीत नहीं हो सकता कि जिनकी ओर तुम मुझे बुला रहे हो उनके लिए न दुनिया में कोई आमंत्रण है, न आख़िरत में6, और हम सबको पलटना अल्लाह ही की ओर है, और सीमा का उल्लंघन करनेवाले आग में जानेवाले हैं।
6. इस वाक्य के कई अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि उनको न दुनिया में यह हक़ पहुँचता है और न आख़िरत में कि उनका प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए लोगों को बुलावा दिया जाए। दूसरे यह कि उन्हें तो लोगों ने ज़बरदस्ती ईश बनाया है वरना वे ख़ुद न इस दुनिया में ईश्वरत्व के दावेदार हैं, न आख़िरत में यह दावा लेकर उठेंगे कि हम भी तो ईश्वर थे, तुमने हमें क्यों न माना। तीसरे यह कि उनको पुकारने का कोई लाभ न इस दुनिया में है न आख़िरत में, क्योंकि वे बिलकुल अधिकार नहीं रखते और उन्हें पुकारना निश्चित रूप से व्यर्थ है।
فَوَقَىٰهُ ٱللَّهُ سَيِّـَٔاتِ مَا مَكَرُواْۖ وَحَاقَ بِـَٔالِ فِرۡعَوۡنَ سُوٓءُ ٱلۡعَذَابِ 44
(45) आख़िरकार उन लोगों ने जो बुरी से बुरी चालें उस ईमानवाले के विरुद्ध चलीं, अल्लाह ने उन सबसे उसको बचा लिया7, और फ़िरऔन के साथी ख़ुद अत्यन्त बुरे अजाब के फेर में आ गए।
7. इससे मालूम होता है कि वह व्यक्ति फ़िरऔन के राज्य में इतने महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व का मालिक था कि भरे दरबार में फ़िरऔन के सामने यह सत्य कह जाने के बावजूद खुलेआम उसको सज़ा देने का साहस नहीं किया जा सकता था, इस कारण फ़िरऔन और उसके समर्थकों को उसे तबाह करने के लिए गुप्त उपाय करने पड़े, मगर उन उपायों को भी अल्लाह ने चलने न दिया।
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ تَكُ تَأۡتِيكُمۡ رُسُلُكُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ قَالُواْ بَلَىٰۚ قَالُواْ فَٱدۡعُواْۗ وَمَا دُعَٰٓؤُاْ ٱلۡكَٰفِرِينَ إِلَّا فِي ضَلَٰلٍ 49
(50) वे पूछेंगे, “क्या तुम्हारे पास रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर नहीं आते रहे थे?” वे कहेंगे, “हाँ” जहन्नम के कार्यकर्त्ता बोलेंगे, “फिर तो तुम ही दुआ करो, और इनकार करनेवालों की दुआ अकारथ ही जानेवाली है।”
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ 54
(55) अतः ऐ नबी सब्र से काम लो, अल्लाह का वादा सच्चा है, अपने क़ुसूर की माफ़ी चाहो8 और सुबह और शाम को अपने रब की प्रशंसा के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो।
8. जिस संदर्भ में यह बात कही गई है, उसपर विचार करने से ऐसा लगता है कि इस स्थान पर “क़ुसूर” से मुराद अधैर्यता की वह मनोदशा है जो घोर विरोध के उस वातावरण में, विशेष रूप से अपने साथियों की उत्पीड़ा देख-देखकर, नबी (सल्ल०) के भीतर पैदा हो रही थी। आप चाहते थे कि जल्दी से कोई चमत्कार ऐसा दिखा दिया जाए जिससे इनकार करनेवाले मान जाएँ या अल्लाह की ओर से कोई ऐसी बात शीघ्र ही प्रकट हो जाए जिससे विद्रोह का यह तूफ़ान ठण्डा हो जाए। यह इच्छा अपने में कोई गुनाह न थी जिसपर किसी तौबा या माफ़ी माँगने की आवश्यकता होती, लेकिन जिस उच्च स्थान पर अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को आसीन किया था, और जो भारी साहस एवं निश्चय उस स्थान को अपेक्षित था, उस दृष्टि से यह थोड़ा-सा अधैर्य भी अल्लाह को आपके पद से नीचे की चीज़़ दीख पड़ी, इसलिए कहा गया कि इस दुर्बलता पर अपने रब से माफी माँगो और चट्टान की-सी मज़बूती के साथ अपने स्थान पर जम जाओ जैसा कि तुम जैसे महान पदाधिष्ठित व्यक्ति को होना चाहिए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ بِغَيۡرِ سُلۡطَٰنٍ أَتَىٰهُمۡ إِن فِي صُدُورِهِمۡ إِلَّا كِبۡرٞ مَّا هُم بِبَٰلِغِيهِۚ فَٱسۡتَعِذۡ بِٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ 55
(56) वास्तविकता यह है कि जो लोग किसी सनद और तर्क के बिना, जो उनके पास आया हो, अल्लाह की आयतों में झगड़ रहे हैं उनके मन में अहंकार भरा हुआ है, मगर वे उस बड़ाई को पहुँचनेवाले नहीं है जिसका वे घमण्ड रखते हैं। बस अल्लाह की पनाह माँग लो, वह सब कुछ देखता और सुनता है।
وَقَالَ رَبُّكُمُ ٱدۡعُونِيٓ أَسۡتَجِبۡ لَكُمۡۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَكۡبِرُونَ عَنۡ عِبَادَتِي سَيَدۡخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ 59
(60) तुम्हारा रब कहता है, “मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआएँ कबूल करूँगा9, जो लोग घमण्ड में आकर मेरी बन्दगी से मुँह मोड़ते हैं, ज़रूर वे अपमानित होकर जहन्नम में प्रवेश करेंगे।"10
9. अर्थात् दुआएँ क़ुबूल करने के सारे अधिकार मेरे पास हैं, अतः तुम दूसरों से दुआएँ न माँगो बल्कि मुझसे माँगो।
10. इस आयत में दो बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। एक यह कि दुआ (प्रार्थना) और इबादत (उपासना, बन्दगी) को यहाँ समानार्थक शब्दों के रूप में इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि पहले वाक्य में जिस चीज़ को दुआ को संज्ञा दी गई है उसी को दूसरे वाक्य में 'इबादत' के शब्द से व्यंजित किया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो गई है कि दुआ ठीक इबादत और इबादत की आत्मा है। दूसरे यह कि अल्लाह से दुआ न माँगनेवालों के लिए “घमण्ड में आकर मेरी इबादत से मुँह मोड़ते हैं” के शब्द इस्तेमाल किए गए हैं। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह से दुआ माँगना ठीक बन्दगी का तक़ाज़ा है, और उससे मुँह मोड़ने का अर्थ यह है कि आदमी घमण्ड में पड़ा हुआ है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ يُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡ ثُمَّ لِتَكُونُواْ شُيُوخٗاۚ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ مِن قَبۡلُۖ وَلِتَبۡلُغُوٓاْ أَجَلٗا مُّسَمّٗى وَلَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 66
(67) वही तो है जिसने तुमको मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर ख़ून के लोथड़े से, फिर वह तुम्हें बच्चे के रूप में निकालता है, फिर तुम्हें बढ़ाता है ताकि तुम अपनी पूरी शक्ति (प्रौढ़ता) को पहुँच जाओ, फिर और बढ़ाता है ताकि तुम बुढ़ापे को पहुँचो और तुममें से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है। यह सब कुछ इसलिए किया जाता है ताकि तुम अपने निश्चित समय तक पहुँच जाओ, और इसलिए कि तुम सच्चाई को समझो।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۚ فَإِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعۡضَ ٱلَّذِي نَعِدُهُمۡ أَوۡ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَإِلَيۡنَا يُرۡجَعُونَ 76
(77) अतः ऐ नबी, सब्र से काम लो, अल्लाह का वादा सच्चा है। अब चाहे हम तुम्हारे सामने ही इनको उन बुरे परिणामों का कोई अंश दिखा दें जिनसे हम इन्हें डरा रहे हैं या उससे पहले तुम्हें दुनिया से उठा लें, पलटकर आना तो इन्हें हमारी ही ओर है।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا رُسُلٗا مِّن قَبۡلِكَ مِنۡهُم مَّن قَصَصۡنَا عَلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّن لَّمۡ نَقۡصُصۡ عَلَيۡكَۗ وَمَا كَانَ لِرَسُولٍ أَن يَأۡتِيَ بِـَٔايَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ فَإِذَا جَآءَ أَمۡرُ ٱللَّهِ قُضِيَ بِٱلۡحَقِّ وَخَسِرَ هُنَالِكَ ٱلۡمُبۡطِلُونَ 77
(78) ऐ नबी, तुमसे पहले हम बहुत-से रसूल भेज चुके हैं जिनमें से कुछ के हाल हमने तुमको बताए है और कुछ के नहीं बताए। किसी रसूल की भी यह शक्ति नहीं थी कि अल्लाह की अनुमति के बिना ख़ुद कोई निशानी ले आता। फिर जब अल्लाह का आदेश आ गया तो सत्य के अनुसार फ़ैसला कर दिया गया और उस समय दुराचारी लोग घाटे में पड़ गए।
أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَكۡثَرَ مِنۡهُمۡ وَأَشَدَّ قُوَّةٗ وَءَاثَارٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ 81
(82) फिर क्या ये ज़मीन में चले-फिरे नहीं है कि इनको उन लोगों का परिणाम दिखाई देता जो इनसे पहले गुज़र चुके है? वे इनसे तादाद में ज़्यादा थे, इनसे बढ़कर शक्तिशाली थे, और ज़मीन में इनसे ज़्यादा भव्य स्मृति-चिह्न छोड़ गए हैं। जो कुछ कमाई उन्होंने की थी, आख़िर वह उनके किस काम आई?