42. अश-शूरा
(मक्का में उतरी, आयतें 53)
परिचय
नाम
आयत 38 के वाक्यांश “व अमरुहुम शूरा बैन-हुम' अर्थात् 'वे अपने मामले आपस के परामर्श (अश-शूरा) से चलाते हैं' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द 'शूरा' आया है।
उतरने का समय
इसकी विषय-वस्तु पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा-41 'हा-मीम अस-सजदा' के ठीक बाद उतरी होगी, क्योंकि यह एक तरह से बिल्कुल उसकी अनुपूरक दिखाई देती है। सूरा-41 (हा-मीम अस-सजदा) में क़ुरैश के सरदारों के अंधे-बहरे विरोध पर बड़ी गहरी चोटें की गई थीं। उस चेतावनी के तुरन्त बाद यह सूरा अवतरित की गई, जिसने समझाने-बुझाने का हक़ अदा कर दिया।
विषय और वार्ता
बात इस तरह आरंभ की गई है कि [मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर वह्य (ईश-प्रकाशना) का आना कोई निराली बात नहीं] ऐसी ही वह्य, इसी तरह के आदेश के साथ अल्लाह इससे पहले भी नबियों (उनपर ख़ुदा की दया और कृपा हो) पर निरन्तर भेजता रहा है। इसके बाद बताया गया है कि नबी सिर्फ़ ग़ाफ़िलों को चौंकाने और भटके हुओं को रास्ता बताने आया है। [वह खुदा के पैदा किए हुए लोगों के भाग्यों का मालिक नहीं बनाया गया है।] उसकी बात न माननेवालों की पकड़ करना और उन्हें अज़ाब देना या न देना अल्लाह का अपना काम है। फिर इस विषय के रहस्य को स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह ने सारे इंसानों को जन्म ही से सीधे रास्ते पर चलनेवाला क्यों न बना दिया और यह मतभेद की सामर्थ्य क्यों दे दी, जिसकी वजह से लोग विचार और कर्म के हर उलटे-सीधे रास्ते पर चल पड़ते हैं। इसके बाद यह बताया गया है कि जिस धर्म को मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, वह वास्तव में है क्या? उसका पहला आधार यह है कि अल्लाह चूँकि जगत् और इंसान का पैदा करनेवाला, मालिक और वास्तविक संरक्षक है, इसलिए वही इंसान का शासक भी है और उसी का यह अधिकार है कि इंसान को दीन और शरीअत (धर्म और विधि-विधान अर्थात् धारणा और कर्म की प्रणाली) प्रदान करे। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक प्रभुत्त्व की तरह विधि-विधान सम्बन्धी प्रभुत्व भी अल्लाह के लिए विशिष्ट है। इसी आधार पर अल्लाह तआला ने आदिकालत से इंसान के लिए एक धर्म निर्धारित किया है। वह एक ही धर्म या जो हर युग में तमाम नबियों को दिया जाता रहा। कोई नबी भी अपने किसी अलग धर्म का प्रवर्तक नहीं था। वह धर्म हमेशा इस उद्देश्य के लिए भेजा गया है कि ज़मीन पर वही स्थापित, प्रचलित और लागू हो। पैग़म्बर इस धर्म के सिर्फ़ प्रचार पर नहीं, बल्कि उसे स्थापित करने की सेवा कार्य पर लगाए गए थे। मानव-जाति का मूल धर्म यही था, किन्तु नबियों के बाद हमेशा यही होता रहा कि स्वार्थी लोग उसके अन्दर अपने स्वेच्छाचार, अहंकार और आत्म-प्रदर्शन की भावना के कारण अपने स्वार्थ के लिए साम्प्रदायिकता खड़ी करके नए-नए धर्म निकालते रहे। अब मुहम्मद (सल्ल०) इसलिए भेजे गए है कि कृत्रिम पंथों और कृत्रिम धर्मों और इंसानों के गढ़े हुए धर्मों की जगह वही मूल धर्म लोगों के सामने प्रस्तुत करें और (पूरे जमाव के साथ) उसी को स्थापित करने की कोशिश करें। तुम लोगों को यह एहसास नहीं है कि अल्लाह के दीन को छोड़कर अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों के बनाए हुए दीन (धर्म) और क़ानून को अपनाना अल्लाह के मुक़ाबले में कितना बड़ा दुस्साहास है। अल्लाह के नज़दीक यह सब से बुरा शिर्क और बड़ा संगीन अपराध है, जिसकी कड़ी सज़ा भुगतनी पड़ेगी। इस तरह दीन की एक स्पष्ट धारणा प्रस्तुत करने के बाद फ़रमाया गया है कि तुम लोगों को समझाकर सीधे रास्ते पर लाने के लिए जो बेहतर से बेहतर तरीक़ा सम्भव था, वह प्रयोग में लाया जा चुका। इसपर भी अगर तुम मार्ग न पाओ तो दुनिया में कोई चीज़ तुम्हें सीधे रास्ते पर नहीं ला सकती। इन यथार्थ तथ्यों को बयान करते हुए बीच-बीच में संक्षेप में तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की दलीलें दी गई हैं और दुनियापरस्ती के नतीजों पर सचेत किया गया है। फिर वार्ता को समाप्त करते हुए दो महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) का अपनी समस्याओं और वार्ताओं से बिलकुल अनभिज्ञ रहना और फिर यकायक इन दोनों चीजों को लेकर दुनिया के सामने आ जाना, आप (सल्ल.) के नबी होने का स्पष्ट प्रमाण है। दूसरे यह कि अल्लाह ने यह शिक्षा तमाम नबियों की तरह आप (सल्ल.) को भी तीन तरीक़ों से दी है, एक वह्य (प्रकाशना), दूसरे परदे के पीछे से आवाज़ और तीसरे फ़रिश्तों के द्वारा सन्देश। यह स्पष्ट इसलिए किया गया कि विरोधी लोग यह आरोप न लगा सकें कि नबी (सल्ल०) अल्लाह से उसके सम्मुख होकर बात करने का दावा कर रहे हैं।
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تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِن فَوۡقِهِنَّۚ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ 4
(5) क़रीब है कि आसमान ऊपर से फट2 पड़ें। फ़रिश्ते अपने रब की प्रशंसा के साथ तसबीह (महिमागान) कर रहे हैं और ज़मीनवालों के हक़ में माफ़ी की प्रार्थनाएँ किए जाते हैं। सावधान रहो, वास्तव में अल्लाह बड़ा ही माफ़ करनेवाला और दयावान है।
2. अर्थात् यह कोई साधारण बात तो नहीं है कि अल्लाह के ईश्वरत्व में किसी हैसियत से भी किसी को साझी ठहराया जाए। यह ऐसी ज़्यादती की बात है कि इसपर अगर आसमान फट पड़ें तो कुछ असंभव नहीं है।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهُ حَفِيظٌ عَلَيۡهِمۡ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ 5
(6) जिन लोगों ने उसको छोड़कर अपने कुछ दूसरे संरक्षक3 बना रखे हैं, अल्लाह ही उनपर निगराँ है, तुम उनके हवालेदार नहीं हो।
3. मूल ग्रन्थ में “औलिया” शब्द इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थ अरबी भाषा में बहुत व्यापक है। झूठे उपास्यों के सम्बन्ध में गुमराह लोगों की विभिन्न धारणाएँ और बहुत-सी विभिन्न नीतियों हैं जिनको क़ुरआन में “अल्लाह के सिवा दूसरों को अपना वली बनाने” से अभिहित किया गया है। क़ुरआन की दृष्टि से इनसान उस सत्ता या हस्ती को अपना वली बनाता है : (1) जिसके कहने पर वह चले, जिसके आदेशों पर अमल करे और जिसकी नियत की हुई पद्धतियों, रीतियों और क़ानूनों और व्यवस्थाओं का पालन करे (2) जिसके मार्गदर्शन पर वह भरोसा करे और यह समझे कि वह उसे सही मार्ग बतानेवाला और ग़लती से बचानेवाला है (3) जिसके बारे में वह यह समझे कि मैं दुनिया में चाहे कुछ करता रहूँ, वह मुझे उसके बुरे परिणामों से, और अगर अल्लाह है और आख़िरत भी होनेवाली है, तो उसके अज़ाब से बचा लेगा, और (4) जिसके बारे में वह यह समझे कि वह दुनिया में अलौकिक रीति से उसकी सहायता करता है, आपदाओं और मुसीबतों से उसकी रक्षा करता है, उसे रोज़गार दिलवाता है, संतान देता है, मनोकामनाएँ पूरी करता है, और दूसरों की हर तरह की ज़रूरतें पूरी करता है।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا لِّتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَا وَتُنذِرَ يَوۡمَ ٱلۡجَمۡعِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ فَرِيقٞ فِي ٱلۡجَنَّةِ وَفَرِيقٞ فِي ٱلسَّعِيرِ 6
(7) हाँ, इसी तरह ऐ नबी, यह अरबी क़ुरआन हमने तुम्हारी ओर 'वह्य' किया है ताकि तुम बस्तियों के केन्द्र (मक्का शहर) और उसके चारों ओर रहनेवालों को सचेत कर दो, और इकट्ठा होने के दिन (क़ियामत) से डरा दो जिसके आने में कोई शक नहीं। एक गिरोह को 'जन्नत' में जाना है और दूसरे गिरोह को दोज़ख़ में।
وَمَا ٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِيهِ مِن شَيۡءٖ فَحُكۡمُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبِّي عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ 9
(10) तुम्हारे4 बीच जिस मामले में भी विभेद हो, उसका फ़ैसला करना अल्लाह का काम है। वही अल्लाह मेरा रब है, उसी पर मैंने भरोसा किया, और उसी की ओर मैं रुजू करता हूँ।
4. यहाँ से आयत 12 के अन्त तक पूरा वर्णन यद्यपि अल्लाह की ओर से अवतरित है, लेकिन इसमें वक्ता अल्लाह नहीं है, बल्कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं। मानो प्रतापवान अल्लाह अपने नबी को आदेश दे रहा है, कि तुम यह घोषणा करो। इसका उदाहरण क़ुरआन की सूरा 1 (फ़ातिहा) है जो है तो अल्लाह की वाणी, मगर बन्दे अपनी ओर से उसको प्रार्थना के रूप में अल्लाह के सामने पेश करते हैं।
فَاطِرُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ أَزۡوَٰجٗا يَذۡرَؤُكُمۡ فِيهِۚ لَيۡسَ كَمِثۡلِهِۦ شَيۡءٞۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ 10
(11) आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला, जिसने तुम्हारी अपनी जाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, और इसी तरह जानवरों में भी (उन्हीं के सहजातीय) जोड़े बनाए, और इस तरीक़े से वह तुम्हारी नसलें फैलाता है। संसार की कोई चीज़़ उसके सदृश नहीं वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है,
۞شَرَعَ لَكُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِۦ نُوحٗا وَٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ وَمَا وَصَّيۡنَا بِهِۦٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَىٰٓۖ أَنۡ أَقِيمُواْ ٱلدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُواْ فِيهِۚ كَبُرَ عَلَى ٱلۡمُشۡرِكِينَ مَا تَدۡعُوهُمۡ إِلَيۡهِۚ ٱللَّهُ يَجۡتَبِيٓ إِلَيۡهِ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِيٓ إِلَيۡهِ مَن يُنِيبُ 12
(13) उसने तुम्हारे लिए धर्म की वही पद्धति नियत की है जिसका आदेश उसने नूह को दिया था, और जिसे (ऐ मुहम्मद) अब तुम्हारी और हमने प्रकाशना (वह्य) के द्वारा भेजा है, और जिसका आदेश हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताक़ीद के साथ कि क़ायम करो इस दीन (धर्म) को और इसमें अलग-अलग न हो जाओ यही बात इन बहुदेववादियों को बहुत अप्रिय लगी है जिसकी ओर (ऐ मुहम्मद) तुम उन्हें आमंत्रण दे रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपना कर लेता है, और वह अपनी ओर आने का मार्ग उसी को दिखाता है जो उसकी ओर रुजू करे।
وَمَا تَفَرَّقُوٓاْ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى لَّقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُورِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ 13
(14) लोगों में जो विभेद ज़ाहिर हुआ वह इसके बाद हुआ कि उनके पास ज्ञान आ चुका था, और इस कारण हुआ कि वे परस्पर एक-दूसरे पर ज़्यादती करना चाहते थे। अगर तेरा रब पहले ही यह न कह चुका होता कि एक नियत समय तक फ़ैसला स्थगित रखा जाएगा तो उनका झगड़ा चुका दिया गया होता। और वस्तविकता यह है कि अगलों के बाद जो लोग किताब के उत्तराधिकारी बनाए गए वे उसकी ओर से बड़े विकलताजनक सन्देह में पड़े हुए हैं।5
5. अर्थात् बाद की नस्लों को यह भरोसा नहीं रहा है कि जो किताबें उनको पहुँची हैं वे कहाँ तक अपने वास्तविक रूप में हैं और कहाँ तक उनमें मिलावट हो चुकी है। वे यह भी विश्वास के साथ नहीं जानते कि उनके नबी क्या शिक्षा लाए थे। हर चीज़़ उनके यहाँ संदिग्ध है और ज़ेहनों में उलझन पैदा कर रही है।
ذَٰلِكَ ٱلَّذِي يُبَشِّرُ ٱللَّهُ عِبَادَهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًا إِلَّا ٱلۡمَوَدَّةَ فِي ٱلۡقُرۡبَىٰۗ وَمَن يَقۡتَرِفۡ حَسَنَةٗ نَّزِدۡ لَهُۥ فِيهَا حُسۡنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ شَكُورٌ 14
(23) यह है वह चीज़़ जिसकी ख़ुशख़बरी अल्लाह अपने उन बन्दों को देता है जिन्होंने मान लिया और अच्छे कर्म किए। ऐ नबी, इन लोगों से कह दो कि “मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का उम्मीदवार नहीं हूँ, अलबत्ता समीपता का प्रेम-भाव ज़रूर चाहता हूँ।"9 जो कोई भलाई कमाएगा हम उसके लिए इस भलाई में अच्छाई की बढ़ोत्तरी कर देंगे। यक़ीनन अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और गुणग्राहक है।
9. इस आयत की तीन व्याख्याएँ की गई हैं (1) “मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला नहीं माँगता, मगर यह ज़रूर चाहता हूँ कि तुम लोग (अर्थात् क़ुरैशवाले) कम से कम उस नातेदारी का तो आदर करो जो मेरे और तुम्हारे बीच है। यह कैसा अन्याय है कि सबसे बढ़कर तुम ही मेरी दुश्मनी पर तुल गए हो।” (2) “मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला इसके सिवा नहीं चाहता कि तुम्हारे अन्दर में अल्लाह के सामीप्य की चाहत पैदा हो आए।” (3) तीसरी व्याख्या जिन टीकाकारों ने की है उनमें से कुछ की दृष्टि में नातेदार से मुराद अब्दुल-मुत्तलिब के तमाम वंशज है, और कुछ इसे सिर्फ़ हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनकी सन्तान तक सीमित रखते हैं, लेकिन विभिन्न कारणों से यह टीका किसी तरह भी स्वीकार करने योग्य नहीं हो सकती। एक तो जिस समय मक्का में सूरा शूरा उतरी है उस समय हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) का विवाह तक नहीं हुआ था, औलाद का क्या प्रश्न और अब्दुल-मुत्तलिब के कुल में सब के सब नबी (सल्ल०) का साथ नहीं दे रहे थे, बल्कि उनमें से कुछ खुल्लम-खुल्ला दुश्मनों के साथी थे, और अबू-लहब की शत्रुता को तो सारी दुनिया जानती है। दूसरे नबी (सल्ल०) के रिश्तेदार सिर्फ़ अब्दुल-मुत्तलिब के कुल के लोग ही न थे। आपकी माँ, आपके बाप और आपकी आदरणीया पत्नी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के माध्यम से क़ुरैश के सभी घरानों में आपको रिश्तेदारियाँ थीं। उन सब घरानों में आपके अच्छे समर्थक भी थे और अत्यन्त बुरे दुश्मन भी। तीसरी बात, जो इन सबसे अधिक महत्त्व की है, वह यह है कि एक नबी जिस उच्च स्थान पर खड़ा होकर अल्लाह की ओर बुलाने की पुकार लगाता है उस स्थान से इस महान कार्य पर यह बदला माँगना कि तुम मेरे नातेदारों से प्रेम करो, इतनी गिरी हुई बात है कि कोई सुरुचि रखनेवाला व्यक्ति इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि अल्लाह ने अपने नबी को यह बात सिखाई होगी और नबी ने क़ुरैश के लोगों में खड़े होकर यह बात कही होगी। फिर यह बात और भी बेमौक़ा दिखाई देती है जब हम देखते हैं कि इसका सम्बोधन ईमानवालों से नहीं, बल्कि इनकार करनेवालों से है। ऊपर से सारा अभिभाषण उन्हीं को सम्बोधित करते हुए चला आ रहा है, और आगे भी वार्ता का रुख़ उन्हीं की ओर है। इस वार्त्ताक्रम में विरोधियों से किसी तरह का बदला माँगने का आख़िर सवाल ही कहाँ पैदा होता है। बदला तो उन लोगों से माँगा जाता है जिनकी दृष्टि में उस काम का कोई मूल्य हो जो किसी व्यक्ति ने उनके लिए किया हो।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗاۖ فَإِن يَشَإِ ٱللَّهُ يَخۡتِمۡ عَلَىٰ قَلۡبِكَۗ وَيَمۡحُ ٱللَّهُ ٱلۡبَٰطِلَ وَيُحِقُّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ 15
(24) क्या ये लोग कहते हैं कि इस व्यक्ति ने अल्लाह पर झूठा आरोप गढ़ लिया है? अगर अल्लाह चाहे तो तुम्हारे दिल पर ठप्पा लगा दे।10 वह असत्य को मिटा देता है और सत्य को अपने आदेशों से सत्य कर दिखाता है। वह सीनों के छिपे हुए रहस्य जानता है।
10. मतलब यह है कि ऐ नबी, इन लोगों ने तुम्हें भी अपने ही ढंग का आदमी समझ लिया है। जिस तरह ये ख़ुद अपने स्वार्थों के लिए हर बड़े से बड़ा झूठ बोल जाते हैं, इन्होंने सोचा कि तुम भी उसी तरह अपनी दुकान चमकाने के लिए एक झूठ गढ़ लाए हो। लेकिन यह अल्लाह की कृपा है कि उसने तुम्हारे दिल पर वह ठप्पा नहीं लगाया है जो इनके दिलों पर लगा रखा है।
وَمَآ أَصَٰبَكُم مِّن مُّصِيبَةٖ فَبِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖ 21
(30) तुम लोगों पर जो मुसीबत भी आई है, तुम्हारे अपने हाथों की कमाई से आई है11, और बहुत-से अपराधों को वह वैसे ही माफ़ कर जाता है।
11. इशारा है मक्का के उस अकाल की ओर जो उस समय में पड़ा था।
وَٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِرَبِّهِمۡ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَهُمۡ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ 29
(38) जो अपने रब का आदेश मानते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, अपने मामले आपस के परामर्श से चलाते हैं, हमने जो कुछ भी रोज़ी उन्हें दी है उसमें से ख़र्च करते हैं,
وَجَزَٰٓؤُاْ سَيِّئَةٖ سَيِّئَةٞ مِّثۡلُهَاۖ فَمَنۡ عَفَا وَأَصۡلَحَ فَأَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ 31
(40) — बुराई12 का बदला वैसी ही बुराई है, फिर जो कोई माफ़ कर दे और सुधार करे उसका बदला अल्लाह के ज़िम्मे है, अल्लाह ज़ालिमों को पसन्द नहीं करता।
12. यहाँ से आयत 43 के अन्त तक का बयान इससे पहले गुज़री हुई आयत की व्याख्या है।
وَتَرَىٰهُمۡ يُعۡرَضُونَ عَلَيۡهَا خَٰشِعِينَ مِنَ ٱلذُّلِّ يَنظُرُونَ مِن طَرۡفٍ خَفِيّٖۗ وَقَالَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ ٱلۡخَٰسِرِينَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَأَهۡلِيهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ فِي عَذَابٖ مُّقِيمٖ 36
(45) और तुम देखोगे कि ये जहन्नम के सामने जब लाए जाएँगे तो अपमान के कारण झुके जा रहे होंगे और उसको निगाह बचा-बचाकर कनखियों से देखेंगे। उस समय वे लोग जो ईमान लाए थे कहेंगे कि वास्तव में वास्तविक घाटा उठानेवाले वही हैं जिन्होंने आज क़ियामत के दिन अपने-आपको और अपने सम्बन्धियों को घाटे में डाल दिया। सावधान रहो, ज़ालिम लोग स्थायी अज़ाब में होंगे
ٱسۡتَجِيبُواْ لِرَبِّكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۚ مَا لَكُم مِّن مَّلۡجَإٖ يَوۡمَئِذٖ وَمَا لَكُم مِّن نَّكِيرٖ 38
(47) मान लो अपने रब की बात इससे पहले कि वह दिन आए जिसके टलने का कोई उपाय अल्लाह की ओर से नहीं है। उस दिन तुम्हारे लिए कोई पनाह लेने की जगह न होगी और न कोई तुम्हारी हालत को बदलने की कोशिश करनेवाला होगा।13
13. मूल शब्द हैं “मा लकुम-मिन-नकीर”। इस वाक्य के कई अर्थ और भी हैं। एक यह कि तुम अपनी करतूतों में से किसी का इनका न कर सकोगे। दूसरे यह कि तुम भेस बदलकर कहीं छिप न सकोगे। तीसरे यह कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया जाएगा उसपर तुम कोई विरोध प्रदर्शन और क्रोध प्रदर्शन न कर सकोगे। चौथे यह कि तुम्हारे बस में न होगा कि जिस दशा में तुम ग्रस्त किए गए हो उसे बदल सको।
فَإِنۡ أَعۡرَضُواْ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظًاۖ إِنۡ عَلَيۡكَ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَإِنَّآ إِذَآ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ فَرِحَ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ فَإِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ كَفُورٞ 39
(48) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो ऐ नबी, हमने तुमको इनपर निगहबान बनाकर तो नहीं भेजा है। तुमपर तो सिर्फ़ बात पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है। इनसान का हाल यह है कि जब हम उसे अपनी दयालुता का मज़ा चखाते हैं तो उसपर फूल जाता है, और अगर उसके अपने हाथों का किया-धरा किसी मुसीबत के रूप में उसपर उलट पड़ता है तो बड़ा कृतघ्न बन जाता है।
لِّلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ يَهَبُ لِمَن يَشَآءُ إِنَٰثٗا وَيَهَبُ لِمَن يَشَآءُ ٱلذُّكُورَ 40
(49) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, जो कुछ चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है लड़कियाँ देता है, जिसे चाहता है लड़के देता है,
۞وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُكَلِّمَهُ ٱللَّهُ إِلَّا وَحۡيًا أَوۡ مِن وَرَآيِٕ حِجَابٍ أَوۡ يُرۡسِلَ رَسُولٗا فَيُوحِيَ بِإِذۡنِهِۦ مَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ عَلِيٌّ حَكِيمٞ 42
(51) किसी इनसान का यह मक़ाम नहीं है कि अल्लाह उससे आमने-सामने बात करे। उसकी बात या तो वह्य (संकेत14) के तौर पर होती है, या पर्दे के पीछे से15, या फिर वह कोई सन्देशवाहक (फ़रिश्ता) भेजता है और वह उसके आदेश से जो कुछ वह चाहता है प्रकाशना (व्यक्त) करता है16, सर्वोच्च और तत्त्वदर्शी है।
14. यहाँ वह्य (प्रकाशना) से मुराद है दैवी प्रेरणा, ईश्वरीय संकेत, दिल में कोई बात डाल देना, या स्वप्न में कुछ दिखा देना जैसे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को दिखाया गया।
15. मुराद यह है कि बन्दा एक आवाज़ सुने, मगर बोलनेवाला उसे दिखाई न दे, जिस तरह हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ हुआ कि तूर के दामन में एक पेड़ से अचानक उन्हें आवाज़ आनी शुरू हुई, मगर बोलनेवाला उनकी दृष्टि से ओझल था।
16. यह प्रकाशना के आने की वह शक्ल है जिसके द्वारा सारी आसमानी किताबें नबियों तक पहुँची हैं।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ رُوحٗا مِّنۡ أَمۡرِنَاۚ مَا كُنتَ تَدۡرِي مَا ٱلۡكِتَٰبُ وَلَا ٱلۡإِيمَٰنُ وَلَٰكِن جَعَلۡنَٰهُ نُورٗا نَّهۡدِي بِهِۦ مَن نَّشَآءُ مِنۡ عِبَادِنَاۚ وَإِنَّكَ لَتَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ 43
(52) और इसी प्रकार (ऐ नबी) हमने अपने आदेश से एक 'रूह' (प्राण एवं सारतत्व) तुम्हारी ओर प्रकाशना की है।17 तुम्हें कुछ पता न था कि किताब क्या होती है। और ईमान क्या होता है, मगर उस रूह को हमने एक प्रकाश बना दिया जिससे हम मार्ग दिखाते हैं अपने बन्दों में से जिसे चाहते हैं। यक़ीनन तुम सीधे मार्ग की ओर पथप्रदर्शन कर रहे हो,
17. “इसी प्रकार” से मुराद सिर्फ़ अंतिम तरीक़ा नहीं है, बल्कि वे तीनों तरीक़े हैं जो ऊपर की आयतों में उल्लिखित हुए हैं, और “रूह” (प्राण-तत्त्व) से मुराद वह्य (प्रकाशना), या वह शिक्षा है जो प्रकाशना के द्वारा नबी (सल्ल०) को प्रदान की गई।
فَلِذَٰلِكَ فَٱدۡعُۖ وَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡۖ وَقُلۡ ءَامَنتُ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِن كِتَٰبٖۖ وَأُمِرۡتُ لِأَعۡدِلَ بَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡۖ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡۖ لَا حُجَّةَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ 45
(15) (चूँकि यह हालत पैदा हो चुकी है) इसलिए ऐ नबी अब तुम उसी धर्म की ओर निमंत्रण दो, और जिस तरह तुम्हे आदेश दिया गया है उसी पर मज़बूती से जम जाओ, और इन लोगों की इच्छाओं का अनुपालन न करो, और इनसे कह दो कि “अल्लाह ने जो किताब भी उतारी है मैं उसपर ईमान लाया। मुझे आदेश हुआ है कि मैं तुम्हारे बीच इनसाफ़ करू अल्लाह ही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी। हमारे कर्म हमारे लिए हैं और तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिए हमारे बीच कोई झगड़ा6 नहीं। अल्लाह एक दिन हम सबको इकट्ठा करेगा और उसी की ओर सबको जाना है।
6. अर्थात् उचित प्रमाणों से बात समझाने का जो हक़ था वह हमने अदा कर दिया। अब अकारण तू-तू मैं-मैं करने से क्या लाभ। तुम अगर झगड़ा करो भी तो हम तुमसे झगड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
ٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ وَٱلۡمِيزَانَۗ وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّ ٱلسَّاعَةَ قَرِيبٞ 47
(17) वह अल्लाह ही है जिसने सत्यतापूर्वक यह किताब और तुला7 अवतरित की और तुम्हें क्या ख़बर, शायद कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब ही आ लगी हो।
7. तुला से मुराद अल्लाह की 'शरीअत' (धर्म विधान) है जो तराज़ू की तरह तौलकर सही और ग़लत, सत्य और असत्य, अन्याय और न्याय और औचित्य और अनौचित्य का अन्तर स्पष्ट कर देती है।
يَسۡتَعۡجِلُ بِهَا ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِهَاۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مُشۡفِقُونَ مِنۡهَا وَيَعۡلَمُونَ أَنَّهَا ٱلۡحَقُّۗ أَلَآ إِنَّ ٱلَّذِينَ يُمَارُونَ فِي ٱلسَّاعَةِ لَفِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٍ 48
(18) जो लोग उसके आने पर ईमान नहीं रखते वे तो उसके लिए जल्दी मचाते हैं, मगर जो उसपर ईमान रखते हैं वे उससे डरते हैं और जानते हैं कि यक़ीनन वह आनेवाली है। ख़ूब सुन लो, जो लोग उस घड़ी के आने में शक डालनेवाले वाद-विवाद करते हैं वे गुमराही में बहुत दूर निकल गए हैं।
أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْ شَرَعُواْ لَهُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا لَمۡ يَأۡذَنۢ بِهِ ٱللَّهُۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةُ ٱلۡفَصۡلِ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ 51
(21) क्या ये लोग कुछ ऐसे अल्लाह के साझीदार रखते हैं जिन्होंने इनके लिए धर्म के प्रकार की एक ऐसी पद्धति नियत कर दी है जिसकी अल्लाह ने अनुमति नहीं दी8? अगर फ़ैसले की बात तय न पा गई होती तो इनका झगड़ा चुका दिया गया होता। यक़ीनन इन ज़ालिमों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
8. इस आयत में 'शुरका' (साझीदार) से मुराद विदित है कि वे साझीदार नहीं है जिनसे लोग दुआएँ माँगते हैं, या जिनको चढ़ावे और भेंट चढ़ाते हैं, या जिनके आगे पूजा-पाठ की रीतियाँ निभाते हैं। बल्कि अनिवार्य रूप से उनसे मुराद वे इनसान है जिनको लोगों ने आदेश एवं निर्णय के मामले में साझीदार ठहरा लिया है, जिनके सिखाए हुए विचार एवं धारणाओं और दर्शनों पर लोग ईमान लाते हैं, जिनके दिए हुए मानदण्डों को मानते हैं, जिनके प्रस्तुत किए हुए नैतिक सिद्धान्तों और सभ्यता एवं संस्कृति के आदर्शों को स्वीकार करते हैं, जिनके नियत किए हुए क़ानूनों और तरीक़ों और नियमों को अपनी धार्मिक रीतियों और उपासनाओं में, अपने व्यक्तिगत जीवन में, अपनी सामाजिकता में, अपनी संस्कृति में, अपने कारोबार और लेन-देन में, और अपनी राजनीति और शासन में इस तरह अंगीकार करते हैं कि मानो यही वह 'शरीअत' (धर्म विधान) है, जिसका अनुपालन उनको करना चाहिए।
تَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا كَسَبُواْ وَهُوَ وَاقِعُۢ بِهِمۡۗ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي رَوۡضَاتِ ٱلۡجَنَّاتِۖ لَهُم مَّا يَشَآءُونَ عِندَ رَبِّهِمۡۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡكَبِيرُ 52
(22) तुम देखोगे कि ये ज़ालिम उस समय अपने किए के परिणाम से डर रहे होंगे और वह इनपर आकर रहेगा। इसके विपरीत जो लोग ईमान ले आए हैं और जिन्होंने अच्छे कर्म किए हैं वे जन्नत के बाग़ों में होंगे, जो कुछ भी वे चाहेंगे अपने रब के यहाँ पाएँगे, यही बड़ा अनुग्रह है।