43. अज़-ज़ुख़रुफ़
(मक्का में उतरी, आयतें 89)
परिचय
नाम
आयत 35 के शब्द ‘वज़्ज़ुख़रुफ़न ' (चाँदी और सोने के) से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह वह सूरा हैं जिसमें शब्द ‘ज़ुख़रुफ़' आया है।
उतरने का समय
इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा भी उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-40 अल-मोमिन, सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा और सूरा-42 अश-शूरा उतरीं। [यह वह समय था,] जब मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।
विषय और वार्ता
इस सूरा में पूरे ज़ोर के साथ क़ुरैश और अरबवालों को उन अज्ञानतापूर्ण धारणाओं और अंधविश्वासों की आलोचना की गई है, जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे, और अत्यन्त दृढ़ और दिल में घर करनेवाले तरीक़े से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है। वार्ता का आरंभ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का उतरना रोक दिया जाए, मगर अल्लाह ने कभी दुष्टताओं की वजह से नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को तबाह कर दिया है जो उसके मार्गदर्शन का रास्ता रोककर खड़े हुए थे। यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे ये लोग सीने से लगाए हुए हैं और वे प्रमाण क्या हैं जिनके बल-बूते पर ये मुहम्मद (सल्ल०) का मुक़ाबला कर रहे हैं। ये स्वयं मानते हैं कि ज़मीन और आसमान का और इनका अपना और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला [भी और इनको रोज़ी देनेवाला भी] अल्लाह ही है। फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में साझी करने पर हठ किए चले जा रहे हैं। बन्दों को अल्लाह की सन्तान कहते हैं और [फ़रिश्तों के बारे में] कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आख़िर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते औरतें हैं ? इन अज्ञानतापूर्ण बातों पर टोका जाता है तो तक़दीर का बहाना बनाते हैं और कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन बुतों की पूजा कर सकते थे, हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे काम जो दुनिया में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं। [अपने शिर्क का एक तर्क यह भी] देते हैं कि बाप-दादा से यह काम यों ही होता चला आ रहा है। मानो इनके नज़दीक किसी धर्म के सत्य होने के लिए यह पर्याप्त प्रमाण है, हालाँकि इबराहीम (अलैहि०) ने जिनकी सन्तान होने पर ही इनका सारा गर्व और इनकी विशिष्टता निर्भर करती है, ऐसे अंधे अनुसरण को रद्द कर दिया था, जिसका साथ कोई बुद्धिसंगत प्रमाण न देता हो। फिर अगर इन लोगों को पूर्वजों का अनुसरण ही करना था, तो इसके लिए भी अपने सबसे बड़े पूर्वज इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर इन्होंने अपने सबसे बड़े अज्ञानी पूर्वजों का चुनाव किया। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी स्वीकार करने में इन्हें संकोच है तो इस कारण कि उनके पास माल-दौलत और राज्य और सत्ता तो है ही नहीं। कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे यहाँ किसी को नबी बनाना चाहता तो हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के बड़े आदमियों में से किसी को बनाता। इसी कारण फ़िरऔन ने भी हज़रत मूसा (अलैहि०) को तुच्छ जाना था और कहा था कि आसमान का बादशाह अगर मुझ ज़मीन के बादशाह के पास कोई दूत भेजता तो उसे सोने के कंगन पहनाकर और फ़रिश्तों की एक फ़ौज उसकी अरदली में देकर भेजता। यह फ़क़ीर कहाँ से आ खड़ा हुआ। आख़िर में साफ़-साफ़ कहा गया है कि न अल्लाह की कोई सन्तान है, न आसमान और ज़मीन के प्रभु अलग-अलग हैं और न अल्लाह के यहाँ कोई ऐसा सिफ़ारिशी है जो जान बूझकर गुमराही अपनानेवालों को उसकी सज़ा से बचा सके।
---------------------
إِنَّا جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 2
(3) कि हमने इसे अरबी भाषा का क़ुरआन बनाया है ताकि तुम लोग इसे समझो।1
1. क़ुरआन मजीद की क़सम जिस बात पर खाई गई है वह यह है कि इस किताब के रचयिता “हम” हैं न कि मुहम्मद (सल्ल०)। और क़सम खाने के लिए क़ुरआन के जिस गुण को चुना गया है वह यह है कि “यह स्पष्ट किताब है। इस गुण के साथ क़ुरआन के ईश वाणी होने पर ख़ुद क़ुरआन की क़सम खाना आप से आप यह अर्थ दे रहा है कि लोगो, यह खुली किताब तुम्हारे सामने मौजूद है, इसे आँखें खोलकर देखो, इसके विषयों, इसकी शिक्षा, इसकी भाषा, सारी चीज़़ें इस सच्चाई की स्पष्ट गवाही दे रही हैं कि इसका रचयिता जगत् के स्रष्टा के सिवा कोई दूसरा हो नहीं सकता।
وَإِنَّهُۥ فِيٓ أُمِّ ٱلۡكِتَٰبِ لَدَيۡنَا لَعَلِيٌّ حَكِيمٌ 3
(4) और वास्तव में यह मूल किताब2 में अंकित है. हमारे यहाँ बड़ी उच्च कोटि की और तत्वदर्शिता से परिपूर्ण किताब।
2. मूल किताब (उम्मुल किताब) से मुराद है “असल किताब” अर्थात वह किताब जिससे तमाम नबियों पर अवतरित होनेवाली किताबें उद्धृत हैं। इसी के लिए क़ुरआन की सूरा 85 (बुरूज) में 'लौहे-महफ़ूज़' (सुरक्षित पट्टिका) के शब्द इस्तेमाल किए गए हैं, अर्थात् ऐसी पट्टिका जिसका लिखा मिट नहीं सकता और जो हर प्रकार के हस्तक्षेप से सुरक्षित है।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ 9
(10) वही ना जिसने तुम्हारे लिए इस ज़मीन को गहवारा बनाया और इसमें तुम्हारे लिए रास्ते बन दिए3 ताकि तुम अपनी अभीष्ट मंज़िल की राह पा सको।
3. पहाड़ों के बीच-बीच में दर्रे, और फिर पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में नदियाँ वे प्राकृतिक मार्ग हैं जो अल्लाह ने धरती की पीठ पर बना दिए हैं। इनसान उन्ही की सहायता से भूमण्डल पर फैला है। फिर अल्लाह ने और ज़्यादा अनुग्रह यह किया कि सारी ज़मीन को एक समान बनाकर नहीं रख दिया, बल्कि उसमें तरह-तरह के ऐसे विशिष्ट चिह्न स्थापित कर दिए जिनकी सहायता से इनसान विभिन्न क्षेत्रों को पहचानता है और एक क्षेत्र और दूसरे क्षेत्र का अन्तर महसूस करता है।
وَقَالُواْ لَوۡ شَآءَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَا عَبَدۡنَٰهُمۗ مَّا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ 19
(20) ये कहते हैं, “अगर करुणामय ईश्वर चाहता (कि हम उनकी पूजा न करें) तो हम कभी उनको न पूजते।”4 ये इस मामले की वास्तविकता को बिलकुल नहीं जानते, सिर्फ़ तीर-तुक्के लड़ाते हैं।
4. यह अपनी गुमराही पर तक़दीर से उनका तर्क था जो हमेशा से कार्य-भ्रष्ट लोगों को नीति रही है।
وَجَعَلَهَا كَلِمَةَۢ بَاقِيَةٗ فِي عَقِبِهِۦ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ 27
(28) और इबराहीम यही शब्द अपने पीछे अपनी औलाद में छोड़ गया ताकि वे उसकी ओर रुजू करें।5
5. अर्थात् जब भी सन्मार्ग से तनिक पग हटे तो यह वचन उनके पथप्रदर्शन के लिए मौजूद रहे और वे उसी की ओर पलट आएँ। इस घटना का जिस उद्देश्य से यहाँ उल्लेख किया गया है वह यह है कि क़ुरैश के काफ़िरों (इनकार करनेवालों) को इस बात पर शर्म दिलाई जाए कि तुमने पूर्वजों का अनुगमन ग्रहण भी किया तो इसके लिए अपने उत्तम पूर्वज इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर अपने निकटतम पूर्वजों को चुना।
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنَ ٱلۡقَرۡيَتَيۡنِ عَظِيمٍ 30
(31) कहते हैं, यह क़ुरआन दोनों शहरों के बड़े आदमियों में से किसी पर क्यों न अवतरित किया गया?6
6. दोनों शहरों से मुराद मक्का और तायफ़ हैं। इनकार करनेवालों का यह कहना था कि अगर वास्तव में अल्लाह को कोई रसूल भेजना होता और वह उसपर अपनी किताब उतारने का इरादा करता तो हमारे इन केन्द्रीय नगरों में से किसी बड़े आदमी को इस उद्देश्य के लिए चुनता।
أَهُمۡ يَقۡسِمُونَ رَحۡمَتَ رَبِّكَۚ نَحۡنُ قَسَمۡنَا بَيۡنَهُم مَّعِيشَتَهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَرَفَعۡنَا بَعۡضَهُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَتَّخِذَ بَعۡضُهُم بَعۡضٗا سُخۡرِيّٗاۗ وَرَحۡمَتُ رَبِّكَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ 31
(32) क्या तेरे रब की दयालुता ये लोग बाँटते हैं? दुनिया की ज़िन्दगी में इनके जीवन-यापन के साधन तो हमने इनके बीच बाँटे हैं, और इनमें से कुछ लोगों को कुछ दूसरे लोगों पर हमने कई दर्जे उच्चता दी है ताकि ये एक दूसरे से सेवा कार्य लें और तेरे रब की दयालुता (अर्थात् पैग़म्बरी) उस धन से ज़्यादा मूल्यवान है जो (इनके धनवान) समेट रहे हैं।
وَإِنَّهُۥ لَذِكۡرٞ لَّكَ وَلِقَوۡمِكَۖ وَسَوۡفَ تُسۡـَٔلُونَ 43
(44) वास्तविकता यह है कि यह किताब तुम्हारे लिए और तुम्हारी क़ौम के लिए एक बड़ा श्रेय (सम्मान) है और जल्द ही तुम लोगों को इसकी जवाबदेही करनी होगी।7
7. अर्थात इससे बढ़कर किसी व्यक्ति का कोई सौभाग्य नहीं हो सकता कि सारे इनसानों में से उसको अल्लाह अपनी किताब अवतरित करने के लिए चुने और किसी क़ौम के हक़ में भी इससे बड़े किसी सौभाग्य की कल्पना नहीं की जा सकती कि दुनिया की दूसरी सब क़ौमों को छोड़कर अल्लाह उसके यहाँ अपना नबी पैदा करे और उसकी भाषा में अपनी किताब अवतरित करे और उसे दुनिया में ईश्वरीय सन्देश की वाहिका बनकर उठने का अवसर दे। इस महान श्रेय का एहसास अगर क़ुरैश और अरबवालों को नहीं है और वे इसका निरादर करना चाहते हैं तो एक समय आएगा जब उन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
وَسۡـَٔلۡ مَنۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رُّسُلِنَآ أَجَعَلۡنَا مِن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ءَالِهَةٗ يُعۡبَدُونَ 44
(45) तुमसे पहले हमने जितने रसूल भेजे थे उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने करुणामय ईश्वर के सिवा कुछ दूसरे उपास्य भी ठहराए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?8
8. रसूलों से पूछने का अर्थ उनकी लाई हुई किताबों से मालूम करना है।
وَنَادَىٰ فِرۡعَوۡنُ فِي قَوۡمِهِۦ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَيۡسَ لِي مُلۡكُ مِصۡرَ وَهَٰذِهِ ٱلۡأَنۡهَٰرُ تَجۡرِي مِن تَحۡتِيٓۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ 50
(51) एक दिन फ़िरऔन ने अपनी क़ौम के बीच पुकारकर कहा, “लोगो, क्या मिस्र का राज्य मेरा नहीं है, और ये नहरें मेरे नीचे नहीं बह रही हैं? क्या तुम लोगों को दिखाई नहीं देता?
فَٱسۡتَخَفَّ قَوۡمَهُۥ فَأَطَاعُوهُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ 53
(54) उसने अपनी क़ौम को हलका समझा और उन्होंने उसकी बात मानी, वास्तव में वे वे ही अवज्ञाकारी लोग।9
9. इस छोटे से वाक्य में एक बहुत बड़ी हक़ीक़त बयान की गई है। जब कोई व्यक्ति किसी देश में अपनी निरंकुशता चलाने को कोशिश करता है और इसके लिए खुल्लम-खुल्ला हर तरह की चालें चलता है, हर फ़रेब और धोखाधड़ी से काम लेता है, खुले बाज़ार में अन्तरात्मा की ख़रीद-बिक्री का कारोबार चलाता है और जो बिकते नहीं उन्हें निर्दयता के साथ कुचलता और रौंदता है, तो चाहे ज़बान से वह यह बात न कहे मगर अपने व्यवहार से साफ़ ज़ाहिर कर देता है कि वह वास्तव में उस देश के निवासियों को बुद्धि और नैतिकता और पौरुष को दृष्टि से हलका समझता है, और उसने उनके बारे में यह राय क़ायम की है कि मैं इन मूर्खों, आत्माहीन और कायर लोगों को जिधर चाहूँ हाँककर ले जा सकता हूँ। फिर जब उसके ये उपाय सफल हो जाते हैं और देशवासी उसके हाथ-बँधा ग़ुलाम बन जाते हैं तो वह अपने व्यवहार से सिद्ध कर देते हैं कि उस दुष्ट ने जो कुछ उन्हें समझा था, वास्तव में वे वही कुछ हैं और उनके इस हीन दशा में ग्रस्त होने का मूल कारण यह होता है कि वे मूलतः “अवज्ञाकारी” होते हैं।
وَقَالُوٓاْ ءَأَٰلِهَتُنَا خَيۡرٌ أَمۡ هُوَۚ مَا ضَرَبُوهُ لَكَ إِلَّا جَدَلَۢاۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٌ خَصِمُونَ 57
(58) और लगे कहने कि हमारे पूज्य अच्छे हैं या वह?10 यह मिसाल वे तुम्हारे सामने सिर्फ़ कुतर्क के लिए लाए हैं, वास्तविकता यह है कि ये हैं ही झगड़ालू लोग।
10. इससे पहले आयत 45 में यह बात गुज़र चुकी है कि “तुमसे पहले जो रसूल हो गुज़रे हैं उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने करुणामय ईश्वर के सिवा कुछ दूसरे उपास्य भी ठहराए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?” यह भाषण जब मक्कावालों के सामने हो रहा था तो एक व्यक्ति ने आपत्ति की कि क्यों साहब, ईसाई मरयम (अलैहि०) के बेटे को ईश-पुत्र ठहराकर उसकी पूजा करते हैं या नहीं? फिर हमारे आराध्य क्या बुरे हैं? यह मिसाल पेश होते ही सत्य का इनकार करनेवालों के जन समूह में एक ज़ोर का क़हक़हा बुलंद हुआ और नारे लगने शुरू हो गए कि इसका क्या जवाब है?
وَإِنَّهُۥ لَعِلۡمٞ لِّلسَّاعَةِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ بِهَا وَٱتَّبِعُونِۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ 60
(61) और वह (अर्थात् मरयम का बेटा) वास्तव में क़ियामत की एक निशानी है, अत: तुम उसमें शक न करो11 और मेरी बात मान लो, यही सीधा मार्ग है,
11. यह अनुवाद भी हो सकता है कि “वह क़ियामत के ज्ञान का एक माध्यम है।” यहाँ यह सवाल पैदा होता है। कि उन्हें क़ियामत की निशानी या क़ियामत के ज्ञान का माध्यम किस अर्थ में कहा गया है? बहुत-से टीकाकार कहते हैं कि इससे मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) का पुनः अवतरण है जिसकी सूचना बहुत-सी हदीसों में दी गई है। लेकिन बाद का वर्णन यह अर्थ लेने में बाधक है। उनका दोबारा आना तो क़ियामत के ज्ञान का माध्यम सिर्फ़ उन लोगों के लिए बन सकता है जो उस समय मौजूद होंगे या उसके बाद पैदा हों। मक्का के अधर्मियों के लिए आख़िर वह कैसे ज्ञान-साधन ठहराया जा सकता था कि उनको सम्बोधित करके यह कहना सही होता कि “अतः तुम इसमें सन्देह न करो?” अतः हमारी दृष्टि में ठीक व्याख्या वही है जो कुछ दूसरे टीकाकारों ने की है कि यहाँ हज़रत ईसा (अलैहि०) के बे-बाप पैदा होने और उनके मिट्टी से पक्षी बनाने और मुर्दे जिलाने को क़ियामत की संभावना का एक प्रमाण ठहराया गया है, और अल्लाह के कहने का मक़सद यह है कि जो ईश्वर बाप के बिना बच्चा पैदा कर सकता है, और जिस ईश्वर का एक दास मिट्टी के पुतले में प्राण डाल सकता और मुर्दों को जीवित कर सकता है उसके लिए आख़िर तुम इस बात को क्यों असंभव समझते हो कि वह तुम्हें और सारे इनसानों को मरने के बाद दोबारा जीवित कर दे।
وَلَمَّا جَآءَ عِيسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالَ قَدۡ جِئۡتُكُم بِٱلۡحِكۡمَةِ وَلِأُبَيِّنَ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي تَخۡتَلِفُونَ فِيهِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ 62
(63) और जब ईसा स्पष्ट निशानियाँ लिए हुए आया था तो उसने कहा था कि “मैं तुम लोगों के पास तत्त्वदर्शिता लेकर आया हूँ, और इसलिए आया हूँ कि तुमपर कुछ उन बातों की वास्तविकता स्पष्ट कर दूँ जिनके सम्बन्ध में तुम विभेद कर रहे हो, अत: तुम अल्लाह से डरो और मेरी बात मानो।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ 63
(64) सत्य यह है कि अल्लाह ही मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। उसी की तुम बन्दगी करो यही सीधा मार्ग है।”12
12. अर्थात् ईसाई चाहे कुछ करते और कहते रहें ईसा (अलैहि०) ने ख़ुद कभी यह नहीं कहा था कि मैं ईश्वर हूँ या ईश्वर का पुत्र हूँ और तुम मेरी उपासना करो, बल्कि उनका निमंत्रण वही था जो दूसरे सारे नबियों का निमंत्रण था और अब जिसकी ओर मुहम्मद (सल्ल०) तुमको बुला रहे हैं।
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمٍ أَلِيمٍ 64
(65) मगर (उसकी इस स्पष्ट शिक्षा के बावजूद) गिरोहों ने परस्पर विभेद किया13, अतः तबाही है उन लोगों के लिए जिन्होंने ज़ुल्म किया एक दुखद दिन के अज़ाब से।
13. अर्थात् एक गिरोह ने उनका इनकार किया तो विरोध में इस सीमा तक पहुँच गया कि उनपर नाजाइज़ जन्म का मिथ्यारोपण किया। दूसरे गिरोह ने उन्हें माना तो श्रद्धा में बेधड़क अतिशयोक्ति से काम लेकर उनको ईश-पुत्र बना बैठा और फिर एक इनसान के ईश्वर होने की समस्या उसके लिए ऐसी गुत्थी बनी जिसे सुलझाते- सुलझाते उसमें अगणित सम्प्रदाय बन गए।
وَنَادَوۡاْ يَٰمَٰلِكُ لِيَقۡضِ عَلَيۡنَا رَبُّكَۖ قَالَ إِنَّكُم مَّٰكِثُونَ 76
(77) वे पुकारेंगे, “ऐ मालिक14, तेरा रब हमारा काम ही तमाम कर दे तो अच्छा है।” वह जवाब देगा, “तुम यों ही पड़े रहोगे।
14. मालिक से मुराद है जहन्नम का दरोग़ा जैसा कि बयान से ख़ुद व्यक्त हो रहा है।
لَقَدۡ جِئۡنَٰكُم بِٱلۡحَقِّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَكُمۡ لِلۡحَقِّ كَٰرِهُونَ 77
(78) हम तुम्हारे पास हक़ (सत्य) लेकर आए थे मगर तुममें से ज़्यादातर को हक़ ही अप्रिय था।"15
15. जहन्नम के दरोग़ा का यह क़ौल कि “हम तुम्हारे पास हक़ लेकर आए थे ऐसा ही है जैसे राज्य का कोई अफ़सर सरकार की ओर से बोलते हुए “हम” का शब्द इस्तेमाल करता है और उसका मतलब यह होता है कि हमारी हुकूमत ने यह काम किया, या यह आदेश दिया।
وَلَا يَمۡلِكُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَن شَهِدَ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ 85
(86) उसको छोड़कर ये लोग जिन्हें पुकारते हैं उन्हें किसी सिफ़ारिश का अधिकार प्राप्त नहीं, सिवाय इसके कि कोई ज्ञान के आधार पर हक़ की गवाही दे।17
17. अर्थात् अगर कोई व्यक्ति यह कहता है कि उसने जिन विभूतियों को उपास्य बना रखा है वे अनिवार्यतः सिफ़ारिश के अधिकार रखती हैं और उन्हें अल्लाह के यहाँ ऐसा ज़ोर हासिल है कि जिसे चाहें मुक्त करा लें तो वह बताए कि क्या वह ज्ञान के आधार पर इस बात की सच्ची गवाही दे सकता है?
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَهُمۡ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ 86
(87) और अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है तो ये ख़ुद कहेंगे कि अल्लाह ने।18 फिर कहाँ से ये धोखा खा रहे हैं।
18. इस आयत के दो अर्थ हैं। एक यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि स्वयं इनको किसने पैदा किया है तो कहेंगे अल्लाह ने। दूसरे यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि तुम्हारे इन इष्ट देवों का स्रष्टा कौन है? तो ये कहेंगे, अल्लाह।
وَقِيلِهِۦ يَٰرَبِّ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ لَّا يُؤۡمِنُونَ 87
(88) क़सम है रसूल के इस कथन की कि ऐ रब, ये वे लोग हैं जो मानते नहीं।19
19. अर्थ यह है कि सौगन्ध है रसूल के इस कथन की कि “ऐ रब! ये वे लोग हैं जो मानते नहीं” कैसा अजीब है इन लोगों का आत्म भ्रम कि स्वयं स्वीकार करते हैं कि इनका और इनके उपास्यों का स्रष्टा अल्लाह ही है और फिर भी स्रष्टा को छोड़कर पैदा किए हुए की उपासना पर आग्रह किए जाते हैं।