46. अल-अहक़ाफ़
(मक्का में उतरी, आयतें 35)
परिचय
नाम
आयत 21 के वाक्यांश 'इज़ अन-ज़-र क़ौमहू बिल अहक़ाफ़ि' (जबकि उसने अहक़ाफ़ में अपनी क़ौम को सावधान किया था) से लिया गया है।
उतरने का समय
एक ऐतिहासिक घटना के अनुसार जिसका उल्लेख आयत 29 से 32 में हुआ है कि यह सूरा सन् 10 नबवी के अन्त में या सन् 11 नबवी के आरंभ में उतरी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सन् 10 नबवी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पवित्र जीवन में अत्यन्त कठिनाई का वर्ष था। तीन वर्ष से क़ुरैश के सभी क़बीलों ने मिलकर बनी-हाशिम और मुसलमानों का पूर्ण सामाजिक बहिष्कार कर रखा था और नबी (सल्ल०) अपने घराने और अपने साथियों के साथ अबू-तालिब की घाटी में घिरकर रह गए थे। क़ुरैश के लोगों ने हर ओर से इस मुहल्ले की नाकाबन्दी कर रखी थी, जिससे गुज़रकर किसी प्रकार की रसद अन्दर न पहुँच सकती थी। लगातार तीन वर्ष के इस सामाजिक बहिष्कार ने मुसलमानों और बनी-हाशिम की कमर तोड़कर रख दी थी और उनपर ऐसे-ऐसे कठिन समय बीत गए थे, जिनमें अकसर घास और पत्ते खाने की नौबत आ जाती थी। किसी तरह यह घेराव इस वर्ष टूटा ही था कि नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब का, जो दस साल से आप के लिए ढाल बने हुए थे, देहान्त हो गया और इस घटना को घटित हुए मुश्किल से एक महीना हुआ था कि आप (सल्ल०) की जीवन संगिनी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) का भी देहान्त हो गया, जो नुबूवत के आरम्भ से लेकर उस समय तक आप (सल्ल०) के लिए शान्ति और सांत्वना का कारण बनी रही थीं। इन लगातार आघातों और कष्टों के कारण से नबी (सल्ल०) इस साल को 'आमुल हुज़्न' (रंज और दुख का साल) कहा करते थे। हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) और अबू-तालिब के इन्तिक़ाल के बाद मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में और अधिक दुस्साहसी हो गए। पहले से अधिक आप (सल्ल०) को तंग करने लगे, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) का घर से बाहर निकलना भी कठिन हो गया। आख़िरकार आप (सल्ल०) इस इरादे से ताइफ़ गए कि बनी-सक़ीफ़ को इस्लाम की ओर बुलाएँ और अगर वे इस्लाम स्वीकार न करें तो उन्हें कम से कम इस बात पर तैयार करें कि वे आप (सल्ल०) को अपने यहाँ चैन से बैठकर काम करने का मौक़ा दे दें। मगर [वहाँ के बड़े लोगों ने] न सिर्फ़ यह कि आप (सल्ल०) की कोई बात न मानी, बल्कि आप (सल्ल०) को नोटिस दे दिया कि उनके शहर से निकल जाएँ। विवश होकर आप (सल्ल०) को ताइफ़ छोड़ देना पड़ा। जब आप (सल्ल०) वहाँ से निकलने लगे तो सक़ीफ़ के सरदारों ने अपने यहाँ के लफँगों को आप (सल्ल०) के पीछे लगा दिया। वे रास्ते के दोनों और आप (सल्ल०) पर व्यंग्य करते, गालियाँ देते और पत्थर मारते चले गए, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) घावों से चूर हो गए और आप (सल्ल०) की जूतियाँ ख़ून से भर गई। इसी हालत में आप (सल्ल०) ताइफ़ से बाहर एक बाग़ की दीवार की छाया में बैठ गए और अपने रब से [दुआ करने में लग गए।] टूटा दिल लेकर और दुखी होकर पलटे। जब आप क़र्नुल-मनाज़िल के क़रीब पहुँचे तो ऐसा महसूस हुआ कि आसमान पर एक बादल-सा छाया हुआ है। नज़र उठाकर देखा तो जिबरील (फ़रिश्ते) सामने थे। उन्होंने पुकारकर कहा, "आपकी क़ौम ने जो कुछ आपको उत्तर दिया है, अल्लाह ने उसे सुन लिया। अब यह पहाड़ों का प्रबंधक फ़रिश्ता अल्लाह ने भेजा है, आप जो आदेश देना चाहें, इसे दे सकते हैं।" फिर पहाड़ों के फ़रिश्ते ने आप (सल्ल०) को सलाम करके निवेदन किया, "आप कहें तो दोनों ओर से पहाड़ इन लोग पर उलट दूँ।" आप (सल्ल०) ने उत्तर दिया, "नहीं, बल्कि मैं आशा रखता हूँ कि अल्लाह उनकी नस्ल से ऐसे लोगों पैदा करेगा जो एक अल्लाह की, जिसका कोई साझीदार नहीं, बन्दगी करेंगे।" (हदीस : बुख़ारी)
इसके बाद आप (सल्ल०) कुछ दिन नख़ला नामक जगह पर जाकर ठहर गए। इन्हीं दिनों में एक रात को आप (सल्ल०) नमाज़ में क़ुरआन मजीद पढ़ रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ। उन्होंने क़ुरआन सुना, ईमान लाए, वापस जाकर अपनी क़ौम में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया और अल्लाह ने अपने नबी (सल्ल०) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई कि इंसान चाहे आपकी दावत से भाग रहे हों, मगर बहुत-से जिन्न उसके आसक्त हो गए हैं और वे उसे अपनी जाति में फैला रहे हैं।
विषय और वार्ता
सूरा का विषय इस्लाम-विरोधियों को उनकी गुमराहियों के नतीजों से सचेत करना है जिनमें वे न केवल पड़े हुए थे, बल्कि बड़ी हठधर्मी और गर्व व अहंकार के साथ उनपर जमे हुए थे। उनकी दृष्टि में दुनिया की हैसियत केवल एक निरुद्देश्य खिलौने की थी और उसके अन्दर अपने आपको वे अनुत्तरदायी प्राणी समझ रहे थे। तौहीद की दावत (एकेश्वरवाद का बुलावा) उनके विचार में असत्य था। वे क़ुरआन के बारे में यह मानने को तैयार न थे कि यह जगत्-स्वामी की वाणी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम के सत्य न होने का एक बड़ा प्रमाण यह था कि सिर्फ़ कुछ नौवजवान, कुछ ग़रीब लोग और कुछ ग़ुलाम ही उसपर ईमान लाए हैं। वे क़ियामत और मरने के बाद की ज़िंदगी और प्रतिदान और दण्ड की बातों को मनगढ़ंत कहानी समझते थे। इस सूरा में संक्षेप में इन्हीं गुमराहियों में से एक-एक का तर्कयुक्त खंडन किया गया है और इस्लाम विरोधियों को सचेत किया गया है कि तुम अगर क़ुरआन की दावत को रद्द कर दोगे, तो ख़ुद अपना ही अंजाम ख़राब करोगे।
(व्याख्या के लिए देखिए : सूरा-39, अज़-ज़ुमर, टिप्पणी-1; सूरा-45, अल-जासिया, टिप्पणी-1; सूरा-32, अस-सजदा, टिप्पणी-1)
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قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كَانَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَكَفَرۡتُم بِهِۦ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ مِثۡلِهِۦ فَـَٔامَنَ وَٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ 4
(10) ऐ नबी, इनसे कहो, “कभी तुमने सोचा भी कि अगर यह वाणी अल्लाह हो की ओर से हुई और तुमने इसका इनकार कर दिया (तो तुम्हारा क्या परिणाम होगा)? और इस जैसी एक वाणी पर तो इसराईल की सन्तान का एक गवाह गवाही भी दे चुका है। वह ईमान ले आया और तुम अपने घमण्ड में पड़े रहे।5 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह मार्ग नहीं दिखाया करता।”
5. यहाँ गवाह से मुराद कोई ख़ास व्यक्ति नहीं, बल्कि इसराईलियों का एक साधारण व्यक्ति है। ईश्वरीय कथन का मक़सद यह है कि कुरआन मजीद जो शिक्षा तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहा है यह कोई अनोखी चीज़ नहीं है जो दुनिया में पहली बार तुम्हारे हो सामने पेश की गई हो और तुम यह विवशता प्रकट करो कि हम ये निराली बातें कैसे मान लें जो मानव जाति के सामने कभी आईं ही न थीं। इससे पहले यही शिक्षाएँ इसी तरह 'वह्य' (प्रकाशना) के द्वारा इसराईलियों के सामने तौरात और अन्य आसमानी किताबों के रूप में आ चुकी हैं, और उनका एक सामान्य आदमी इनको मान चुका है।
وَٱلَّذِي قَالَ لِوَٰلِدَيۡهِ أُفّٖ لَّكُمَآ أَتَعِدَانِنِيٓ أَنۡ أُخۡرَجَ وَقَدۡ خَلَتِ ٱلۡقُرُونُ مِن قَبۡلِي وَهُمَا يَسۡتَغِيثَانِ ٱللَّهَ وَيۡلَكَ ءَامِنۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ فَيَقُولُ مَا هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ 11
(17) और जिस व्यक्ति ने अपने माँ-बाप से कहा: “उफ़, तंग कर दिया तुमने, क्या तुम मुझे इससे डराते हो कि मैं मरने के बाद फिर क़ब्र से निकाला जाऊँगा? हालाँकि मुझसे पहले बहुत-सी नस्लें गुज़र चुकी हैं (उनमें से तो कोई उठकर न आया)।” माँ और बाप अल्लाह की दुहाई देकर कहते हैं, “अरे बदनसीब, मान जा, अल्लाह का वादा सच्चा है।” मगर वह कहता है, “ये सब अगले समयों की पुरातन कहानियाँ हैं।”
فَلَمَّا رَأَوۡهُ عَارِضٗا مُّسۡتَقۡبِلَ أَوۡدِيَتِهِمۡ قَالُواْ هَٰذَا عَارِضٞ مُّمۡطِرُنَاۚ بَلۡ هُوَ مَا ٱسۡتَعۡجَلۡتُم بِهِۦۖ رِيحٞ فِيهَا عَذَابٌ أَلِيمٞ 18
(24) फिर जब उन्होंने उस अज़ाब को अपनी घाटियों की ओर आते देखा तो कहने लगे, “यह बादल है जो हमें सिचित कर देगा"-"नहीं,8 बल्कि यह वही चीज़़ हैं जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे। यह हवा का तूफ़ान है जिसमें दर्दनाक अज़ाब चला आ रहा है,
8. यहाँ इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है कि उनको यह जवाब किसने दिया। वर्णन शैली से स्वतः प्रकट होता है कि यह वह जवाब था जो यथार्थ परिस्थिति ने व्यवहारतः उनको दिया। वे समझते थे कि यह बादल है जो उनकी घाटियों को सिंचित करने आया है, और वास्तव में था वह हवा का तूफ़ान जो उन्हें तबाह और बरबाद करने के लिए बढ़ा चला आ रहा था।
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰهُمۡ فِيمَآ إِن مَّكَّنَّٰكُمۡ فِيهِ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ سَمۡعٗا وَأَبۡصَٰرٗا وَأَفۡـِٔدَةٗ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُمۡ سَمۡعُهُمۡ وَلَآ أَبۡصَٰرُهُمۡ وَلَآ أَفۡـِٔدَتُهُم مِّن شَيۡءٍ إِذۡ كَانُواْ يَجۡحَدُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ 20
(26) उनको हमने वह कुछ दिया था जो तुम लोगों को नहीं दिया है। उनको हमने कान, आँखें और दिल, सब कुछ दे रखे थे, मगर न वे कान उनके किसी काम आए, न आँखें, न दिल, क्योंकि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करते थे, और उसी चीज़़ के फेर में वे आ गए जिसकी वे हँसी उड़ाते थे।
فَلَوۡلَا نَصَرَهُمُ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ قُرۡبَانًا ءَالِهَةَۢۖ بَلۡ ضَلُّواْ عَنۡهُمۡۚ وَذَٰلِكَ إِفۡكُهُمۡ وَمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ 22
(28) फिर क्यों न उन हस्तियों ने उनकी सहायता की जिन्हें अल्लाह को छोड़कर उन्होंने अल्लाह से निकट होने का माध्यम समझते हुए उपास्य बना लिया था?9 बल्कि वे तो उनसे खोए गए, और यह था उनके झूठ और उन बनावटी धारणाओं का परिणाम जो उन्होंने गढ़ रखी थीं।
9. अर्थात् उन हस्तियों के साथ श्रद्धा का आरंभ तो उन्होंने इस भावना से किया था कि ये अल्लाह के मक़बूल और चहेते बन्दे हैं इनके माध्यम से अल्लाह के यहाँ हमारी पहुँच होगी। मगर बढ़ते-बढ़ते उन्होंने ख़ुद उन्हीं हस्तियों को आराध्य बना लिया, उन्हीं को सहायता के लिए पुकारने लगे, और उन्हीं से दुआएँ माँगने लगे, और उन्हीं के सम्बन्ध में यह समझ लिया कि वे स्वयं ही आधिकारिक हैं, यही हमारी फ़रियाद सुनेंगे और कठिनाइयों को दूर करेंगे। इस गुमराही से उनको निकालने के लिए अल्लाह ने अपनी आयतें अपने रसूलों के द्वारा भेजकर तरह-तरह से उनको समझाने की कोशिश की, मगर वे अपने इन झूठे ख़ुदाओं की बन्दगी पर अड़े रहे और आग्रह करते चले गए कि हम अल्लाह की जगह इन्हीं का दामन थामे रहेंगे। अब बताओ, उन बहुदेववादियों पर जब उनकी गुमराही के कारण अल्लाह का अज़ाब आया तो उनके वे फ़रियाद सुननेवाले और कष्ट दूर करनेवाले पूज्य कहाँ मर रहे थे? क्यों न उस बुरे समय में वे उनकी सहायता को आए।
وَإِذۡ صَرَفۡنَآ إِلَيۡكَ نَفَرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ يَسۡتَمِعُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوٓاْ أَنصِتُواْۖ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوۡاْ إِلَىٰ قَوۡمِهِم مُّنذِرِينَ 23
(29) (और वह घटना भी उल्लेखनीय है) जब हम जिन्नों के एक गिरोह को तुम्हारी ओर ले आए थे ताकि क़ुरआन सुनें।10 जब वे उस जगह पहुँचे (जहाँ तुम क़ुरआन पढ़ रहे थे) तो उन्होंने आपस में कहा, चुप हो जाओ। फिर जब वह पढ़ा जा चुका तो वे सावधान करनेवाले बनकर अपनी क़ौम की ओर पलटे।
10. यह उल्लेख उस घटना का है जो तायफ़ की यात्रा से मक्का लौटते हुए रास्ते में घटित हुई थी। नमाज़ में आप (सल्ल०) क़ुरआन का पाठ कर रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ, और वह आपका क़ुरआन पाठ (क़िरअत) सुनने के लिए ठहर गया। इस सम्बन्ध में सभी उल्लेख (रिवायतें) इस बात पर एकमत हैं कि इस अवसर पर जिन्न नबी (सल्ल०) के सामने नहीं आए थे, न आपने उनके आगमन को महसूस किया था, बल्कि बाद में अल्लाह ने 'वह्य' (प्रकाशना) के द्वारा आपको उनके आने और क़ुरआन सुनने की ख़बर दी।
قَالُواْ يَٰقَوۡمَنَآ إِنَّا سَمِعۡنَا كِتَٰبًا أُنزِلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ وَإِلَىٰ طَرِيقٖ مُّسۡتَقِيمٖ 24
(30) उन्होंने जाकर कहा, “ऐ हमारी क़ौम के लोगो, हमने एक किताब सुनी है जो मूसा के बाद उतारी गई है, पुष्टि करनेवाली है अपने से पहले आई हुई किताबों की, पथप्रदर्शन करती है सत्य और सीधे मार्ग की ओर।11
11. इससे मालूम हुआ कि ये जिन्न पहले से हज़रत मूसा (अलैहि०) और आसमानी किताबों पर ईमान लाए हुए थे। क़ुरआन सुनने के बाद उन्होंने महसूस किया कि यह वही शिक्षा है जो पिछले नबी देते चले आ रहे हैं, इसलिए वे इस किताब, और इसके लानेवाले रसूल (सल्ल०) पर भी ईमान ले आए।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَلَا تَمۡلِكُونَ لِي مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِۚ كَفَىٰ بِهِۦ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۖ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ 33
(8) क्या उनका कहना यह है कि रसूल ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है? इनसे कहो, “अगर मैंने इसे ख़ुद गढ़ लिया है तो तुम मुझे अल्लाह की पकड़ से कुछ भी न बचा सकोगे, जो बातें तुम बनाते हो अल्लाह उनको ख़ूब जानता है, मेरे और तुम्हारे बीच वही गवाही देने के लिए काफ़ी है, और वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।3
3. यहाँ यह वाक्य दो अर्थ दे रहा है। एक यह कि वास्तव में यह अल्लाह की दयालुता और उसकी क्षमा ही है जिसके कारण वे लोग ज़मीन में साँस ले रहे हैं जिन्हें अल्लाह की वाणी को मनगढ़न्त ठहराने में कोई झिझक नहीं, वरना कोई दयाहीन और कड़ी पकड़ करनेवाला ईश्वर इस जगत् का स्वामी होता तो ऐसे दुस्साहस करनेवालों को एक साँस के बाद दूसरी साँस लेना नसीब न होता। दूसरा अर्थ इस वाक्य का यह है कि ऐ ज़ालिमो, अब भी इस हठधर्मी से बाज़ आ जाओ तो ईश दयालुता का द्वार तुम्हारे लिए खुला हुआ है, और जो कुछ तुमने अब तक किया है माफ़ हो सकता है।