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إِنَّ ٱلَّذِينَ يُبَايِعُونَكَ إِنَّمَا يُبَايِعُونَ ٱللَّهَ يَدُ ٱللَّهِ فَوۡقَ أَيۡدِيهِمۡۚ فَمَن نَّكَثَ فَإِنَّمَا يَنكُثُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِمَا عَٰهَدَ عَلَيۡهُ ٱللَّهَ فَسَيُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا

48. अल-फ़त्‌ह

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के वाक्यांश ‘इन्ना फ़तह्‌ना ल-क फ़तहम-मुबीना' (हमने तुमको स्पष्ट विजय प्रदान कर दी) से लिया गया है। यह केवल इस सूरा का नाम ही नहीं है, बल्कि विषय की दृष्टि से भी इसका शीर्षक है, क्योंकि इसमें उस महान विजय पर वार्ता की गई है जो हुदैबिया के समझौते के रूप में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को प्रदान की थी।

उतरने का समय

उल्लेखों (हदीस के बहुत-से कथनों) में इसपर मतैक्य है कि यह ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० में उस समय उतरी थी, जब आप (सल्ल०), मक्का के इस्लाम-विरोधियों से हुदैबिया के समझौते के बाद, मदीना मुनव्वरा की ओर वापस जा रहे थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 जिन घटनाओं के सिलसिले में यह सूरा उतरी, उनकी शुरुआत इस तरह होती है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वप्न में देखा कि आप (सल्ल०) अपने साथियों के साथ मक्का मुअज़्ज़मा गए हैं और वहाँ उमरा किया है। पैग़म्बर का सपना, विदित है कि मात्र सपना और ख़याल नहीं हो सकता था, वह कई प्रकार की प्रकाशनाओं में से एक प्रकाशना है। इसलिए वास्तव में यह [सपना] अल्लाह की ओर से एक संकेत था, जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल०) के लिए ज़रूरी था। [अतः आप (सल्ल०) ने] बे-झिझक अपना सपना सहाबा किराम (रज़ि०) को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। 1400 सहाबी नबी (सल्ल०) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० के आरंभ में यह मुबारक क़ाफ़िला [उमरा के लिए] मदीना से रवाना हुआ। क़ुरैश के लोगों को नबी (सल्ल०) के इस आगमन ने बड़ी उलझन में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों साल से अरब में हज और ज़ियारत (दर्शन) के लिए मुह्तरम (आदर करने योग्य) समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बाँधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो, उसे रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। क़ुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि अगर हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर हमला करके इसे मक्का मुअज़्ज़मा में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा, लेकिन अगर हम मुहम्मद (सल्ल०) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं, तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्तत: बड़े सोच-विचार के बाद उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात ही उनपर प्रभावी रहा और उन्होंने अपनी नाक की ख़ातिर यह फ़ैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को अपने शहर में दाख़िल नहीं होने देना है। जब आप (सल्ल०) उसफ़ान के स्थान पर पहुंँचे तो [आप (सल्ल०) के मुख़बिर ने] आकर आप (सल्ल०) को ख़बर दी कि क़ुरैश के लोग पूरी तैयारी के साथ ज़ी-तुवा के स्थान पर पहुंँच गए हैं और ख़ालिद-बिन-वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल-ग़मीम की ओर भेज दिया है ताकि वे आप (सल्ल०) का रास्ता रोकें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह ख़बर पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक बड़े ही दुर्गम रास्ते से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुंँच गए, जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। [अब कुरैश ने आप (सल्ल०) के पास दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप (सल्ल०) मक्का में प्रवेश करने के इरादे से बाज़ आ जाएँ, मगर वे अपने इस दूतीय प्रयास में विफल रहे।] अन्तत: नबी (सल्ल०) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रज़ि०) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके ज़रिये से क़ुरैश के सरदारों को यह सन्देश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं, बल्कि ज़ियारत (दर्शन) के लिए हदी (क़ुर्बानी) के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुर्बानी करके वापस चले जाएंँगे। किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रज़ि०) को मक्का ही में रोक लिया। इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रज़ि०) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब और अधिक सहन करने का कोई अवसर नहीं था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात् प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यही वह बैअत है जो ‘बैअते-रिज़वान' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। बाद में मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रज़ि०) के क़त्ल की ख़बर ग़लत थी। हज़रत उसमान (रज़ि०) स्वयं भी वापस आ गए और क़ुरैश की ओर से सुहैल-बिन-अम्र के नेतृत्त्व में एक प्रतिनिधि मंडल भी समझौते की बात-चीत करने के लिए नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गया। लम्बी बातचीत के बाद जिन शर्तों पर संधिपत्र लिखा गया, वे ये थीं—

(1) दस साल तक दोनों पक्षों के बीच युद्ध बन्द रहेगा और एक-दूसरे के विरुद्ध ख़ुफ़िया या खुल्लम-खुल्ला कोई कार्रवाई न की जाएगी।

(2) इस बीच क़ुरैश का जो आदमी अपने वली (अभिभावक) की अनुमति के बिना भागकर मुहम्मद के पास जाएगा, उसे आप (सल्ल०) वापस कर देंगे और आप (सल्ल०) के साथियों में से जो आदमी क़ुरैश के पास चला जाएगा, उसे वे वापस न करेंगे।

(3) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों फ़रीक़ों में से किसी एक के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होकर इस समझौते में शामिल होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।

(4) मुहम्मद (सल्ल०) इस साल वापस जाएँगे और अगले साल वे उमरे के लिए आकर तीन दिन मक्का में ठहर सकते हैं, बशर्ते कि परतलों (यानी पट्टों) में सिर्फ़ एक-एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ। इन तीन दिनों में मक्कावाले उनके लिए शहर ख़ाली कर देंगे, (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए,) मगर वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी आदमी को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा। जिस समय इस संधि की शर्ते तय हो रही थीं, मुसलमानों की पूरी सेना बहुत बेचैन थी। कोई आदमी भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था, जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल०) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर दबकर ये अपमानजनक शर्तें क्यों स्वीकार कर लें। ठीक उस समय जब समझौता-नामा लिखा जा रहा था, सुहैल-बिन-अम्र के अपने (बेटे) अबू-जन्दल, जो मुसलमान हो चुके थे और मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उनको क़ैद कर रखा था, किसी न किसी तरह भागकर नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गए। उनके पाँवों में बेड़ियाँ थीं और शरीर पर मार के निशान थे। उन्होंने नबी (सल्ल०) से फ़रियाद की कि मुझे इस अनुचित क़ैद से मुक्ति दिलाई जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) के लिए यह हालत देखकर अपने को नियंत्रित रखना कठिन हो गया, मगर सुहैल-बिन-अम्र ने कहा कि समझौता-नामा चाहे पूरा लिखा न गया हो, शर्ते तो हमारे और आपके बीच तय हो चुकी हैं, इसलिए इस लड़के को हमारे हवाले किया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसका तर्क मान लिया और अबू-जन्दल ज़ालिमों के हवाले कर दिए गए। [इस घटना ने मुसलमानों को और अधिक बेचैन और दुखी कर दिया।] समझौते से निवृत्त होकर नबी (सल्ल०) ने सहाबा से कहा कि अब यहीं क़ुर्बानी करके सर मुंडा लो और एहराम समाप्त कर दो, मगर कोई अपनी जगह से न हिला। नबी (सल्ल०) ने तीन बार हुक्म दिया, मगर सहाबा पर उस समय दुख और शोक और दिल के टूट जाने का एहसास ऐसा छा गया था कि वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। [फिर जब उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के मश्‍वरे के अनुसार नबी (सल्ल०) ने स्वयं आगे बढ़कर अपना ऊँट ज़िब्ह किया और सिर मुंडा लिया, तब] आप (सल्ल०) को देखकर लोगों ने भी क़ुर्बानियाँ कर ली, सिर मुंडा लिए या बाल कटवा लिए और एहराम से निकल आए। इसके बाद जब यह क़ाफ़िला हुदैबिया के समझौते को अपनी पराजय और अपना अपमान समझता हुआ मदीना की ओर वापस जा रहा था, उस समय ज़जनान के स्थान पर (या कुछ लोगों के अनुसार कुराउल-ग़मीम के स्थान पर) यह सूरा उतरी। इसमें मुसलमानों को बताया गया कि यह समझौता जिसे वे पराजय समझ रहे हैं, वास्तव में महान विजय है। इसके उतरने के बाद नबी (सल्ल.) ने मुसलमानों को जमा किया और फ़रमाया, "आज मुहम्मद पर वह चीज़ उतरी है, जो मेरे लिए दुनिया और दुनिया की सब चीज़ों से अधिक मूल्यवान है।" फिर यह सूरा आप (सल्ल०) ने पढ़कर सुनाई और विशेष रूप से हज़रत उमर (रज़ि०) को बुलाकर इसे सुनाया, क्योंकि वे सबसे अधिक दुखी थे। यद्यपि ईमानवाले तो अल्लाह का यह कथन सुनकर हो सन्तुष्ट हो गए थे, मगर कुछ अधिक समय न बीता था कि इस सुलह के फ़ायदे एक-एक करके सामने आते गए, यहाँ तक कि किसी को भी इस बात में सन्देह न रहा कि वास्तव में यह समझौता एक शानदार विजय थी।

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إِنَّ ٱلَّذِينَ يُبَايِعُونَكَ إِنَّمَا يُبَايِعُونَ ٱللَّهَ يَدُ ٱللَّهِ فَوۡقَ أَيۡدِيهِمۡۚ فَمَن نَّكَثَ فَإِنَّمَا يَنكُثُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِمَا عَٰهَدَ عَلَيۡهُ ٱللَّهَ فَسَيُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 1
(10) ऐ नबी, जो लोग तुमसे बैअत कर रहे थे6 वे वास्तव में अल्लाह से बैअत कर रहे थे। उनके हाथ पर अल्लाह का हाथ था7। अब जो इस प्रतिज्ञा (अहृद) को भंग करेगा उसके प्रतिज्ञा भंग करने का वबाल उसके अपने ही ऊपर होगा, और जो उस प्रतिज्ञा को पूरा करेगा जो उसने अल्लाह से की है, अल्लाह जल्द ही उसको बड़ा बदला प्रदान करेगा।
6. इशारा है उस 'बैअत' की ओर जो मक्का में हज़रत उसमान (रज़ि०) के शहीद हो जाने की ख़बर सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने आदरणीय सहाबा किराम से हुदैबिया के स्थान पर ली थी। यह 'बैअत' इस बात पर ली गई थी कि हज़रत उसमान (रज़ि०) के शहीद होने का मामला अगर सत्य सिद्ध हुआ तो मुसलमान यहाँ और इसी समय क़ुरैश से निपट लेंगे भले ही परिणामस्वरूप वे सब कट ही क्यों न मरें।
7. अर्थात् जिस हाथ पर लोग उस समय 'बैअत' कर रहे थे वह सिर्फ़ एक रसूल का हाथ नहीं, बल्कि अल्लाह के प्रतिनिधि का हाथ था और यह 'बैअत' रसूल के माध्यम से वास्तव में अल्लाह के साथ हो रही थी।
سَيَقُولُ لَكَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ شَغَلَتۡنَآ أَمۡوَٰلُنَا وَأَهۡلُونَا فَٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَاۚ يَقُولُونَ بِأَلۡسِنَتِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ لَكُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ بِكُمۡ ضَرًّا أَوۡ أَرَادَ بِكُمۡ نَفۡعَۢاۚ بَلۡ كَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرَۢا ۝ 2
(11) ऐ नबी, अरब बद्दुओं में से जो लोग पीछे छोड़ दिए गए थे8 अब वे आकर ज़रूर तुमसे कहेंगे कि “हमें अपने मालों और बाल-बच्चों की चिन्ता ने व्यस्त कर रखा था, आप हमारे लिए माफ़ी की दुआ करें।” ये लोग अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो इनके दिलों में नहीं होतीं। इनसे कहना, “अच्छा, यही बात है तो कौन तुम्हारे मामले में अल्लाह के फ़ैसले को रोक देने का कुछ भी अधिकार रखता है अगर वह तुम्हें कोई हानि पहुँचाना चाहे या लाभ पहुँचाना चाहे? तुम्हारे कर्मों की तो अल्लाह ही ख़बर रखता है।”
8. यह मदीना के आस-पास के उन लोगों का उल्लेख है जिन्हें 'उमरे' की तैयारी करते समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने साथ चलने का आमंत्रण दिया था, मगर वे ईमान का दावा रखने के बावजूद सिर्फ़ इसलिए अपने घरों से न निकले थे कि उन्हें अपनी जान प्यारी थी। वे समझ रहे थे कि इस अवसर पर क़ुरैश के ठीक घर में 'उमरे' के लिए जाना मौत के मुँह में जाना है।
بَلۡ ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَنقَلِبَ ٱلرَّسُولُ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِلَىٰٓ أَهۡلِيهِمۡ أَبَدٗا وَزُيِّنَ ذَٰلِكَ فِي قُلُوبِكُمۡ وَظَنَنتُمۡ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِ وَكُنتُمۡ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 3
(12) (मगर सत्य बात वह नहीं है जो तुम कह रहे हो) बल्कि तुमने यों समझा कि रसूल और ईमानवाले अपने घरवालों में हरगिज़ पलटकर न आ सकेंगे और यह ख़याल तुम्हारे दिलों को बहुत भला लगा और तुमने बहुत बुरे गुमान किए और तुम बड़े ही बदक़िस्मत लोग हो।"
وَمَن لَّمۡ يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ فَإِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ سَعِيرٗا ۝ 4
(13) अल्लाह और उसके रसूल पर जो लोग ईमान न रखते हों ऐसे इनकार करनेवालों के लिए हमने भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 5
(14) आसमानों और ज़मीन के राज का मालिक अल्लाह ही है, जिसे चाहे माफ़ करे और जिसे चाहे सज़ा दे और वह बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
سَيَقُولُ ٱلۡمُخَلَّفُونَ إِذَا ٱنطَلَقۡتُمۡ إِلَىٰ مَغَانِمَ لِتَأۡخُذُوهَا ذَرُونَا نَتَّبِعۡكُمۡۖ يُرِيدُونَ أَن يُبَدِّلُواْ كَلَٰمَ ٱللَّهِۚ قُل لَّن تَتَّبِعُونَا كَذَٰلِكُمۡ قَالَ ٱللَّهُ مِن قَبۡلُۖ فَسَيَقُولُونَ بَلۡ تَحۡسُدُونَنَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَفۡقَهُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 6
(15) जब तुम ग़नीमत का माल हासिल करने के लिए जाने लगोगे तो ये पीछे छोड़े जानेवाले लोग तुमसे ज़रूर कहेंगे कि हमें भी अपने साथ चलने दो।9 ये चाहते हैं कि अल्लाह के फ़रमान को बदल दें। इनसे साफ़-साफ़ कह देना कि “तुम कदापि हमारे साथ नहीं चल सकते, अल्लाह पहले ही यह कह चुका है।” ये कहेंगे कि “नहीं, बल्कि तुम लोग हमसे ईर्ष्या कर रहे हो।” (हालाँकि बात ईर्ष्या की नहीं है) बल्कि ये लोग सही बात को कम ही समझते हैं।
9. अर्थात् जल्द ही वह समय आनेवाला है जब यहाँ लोग, जो आज ख़तरे के अभियान (मुहिम) पर तुम्हारे साथ जाने से जी चुरा गए थे, तुम्हें एक ऐसे अभियान पर जाते हुए देखेंगे जिसमें इनको सहज विजय और 'ग़नीमत' के बहुत-से माल की प्राप्ति की संभावना दिखाई देगी। उस समय ये ख़ुद दौड़े-दौड़े आएँगे और कहेंगे कि हमें भी अपने साथ ले चलो।
قُل لِّلۡمُخَلَّفِينَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ سَتُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ قَوۡمٍ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ تُقَٰتِلُونَهُمۡ أَوۡ يُسۡلِمُونَۖ فَإِن تُطِيعُواْ يُؤۡتِكُمُ ٱللَّهُ أَجۡرًا حَسَنٗاۖ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ كَمَا تَوَلَّيۡتُم مِّن قَبۡلُ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 7
(16) इन पीछे छोड़े जानेवाले अरब बद्दुओं से कहना कि “जल्द ही तुम्हें ऐसे लोगों से लड़ने के लिए बुलाया जाएगा जो बड़े बलशाली हैं। तुमको उनसे युद्ध करना होगा या वे आज्ञाकारी हो जाएँगे। उस समय अगर तुमने जिहाद के आदेश का पालन किया तो अल्लाह तुम्हें अच्छा बदला देगा, और अगर तुम फिर उसी तरह मुँह मोड़ गए जिस तरह पहले मोड़ चुके हो तो अल्लाह तुमको दर्दनाक अज़ाब देगा।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞۗ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَمَن يَتَوَلَّ يُعَذِّبۡهُ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 8
(17) हाँ, अगर अन्धा और लंगड़ा और बीमार जिहाद के लिए न आए तो कोई हरज नहीं। जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करेगा अल्लाह उसे उन जन्नतों में प्रवेश कराएगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, और जो मुँह फेरेगा उसे वह दर्दनाक अज़ाब देगा।"
۞لَّقَدۡ رَضِيَ ٱللَّهُ عَنِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ يُبَايِعُونَكَ تَحۡتَ ٱلشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَثَٰبَهُمۡ فَتۡحٗا قَرِيبٗا ۝ 9
(18) अल्लाह ईमानवालों से ख़ुश हो गया जब वे पेड़ के नीचे तुमसे बैअत कर रहे थे। उनके दिलों का हाल उसको मालूम था इसलिए उसने उनपर सकीनत (शान्ति) उतारी10, उनको इनाम में क़रीब को विजय प्रदान की,
10. यहाँ 'सकीनत' से मुराद दिल की वह हालत है जिसके कारण एक व्यक्ति किसी महान उद्देश्य के लिए ठण्डे दिल से पूरी शान्ति और इतमीनान के साथ अपने आपको ख़तरे के मुँह में झोंक देता है और किसी डर या घबराहट के बिना फ़ैसला कर लेता है कि यह काम हर हाल में करने का है चाहे अंजाम कुछ भी हो।
وَمَغَانِمَ كَثِيرَةٗ يَأۡخُذُونَهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 10
(19) और बहुत-सा ग़नीमत का माल उन्हें प्रदान कर दिया जिसे वे (जल्द ही) प्राप्त करेंगे।11 अल्लाह प्रभुत्त्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
11. यह इशारा है ख़ैबर की विजय और उसके ग़नीमत के मालों की ओर।
وَعَدَكُمُ ٱللَّهُ مَغَانِمَ كَثِيرَةٗ تَأۡخُذُونَهَا فَعَجَّلَ لَكُمۡ هَٰذِهِۦ وَكَفَّ أَيۡدِيَ ٱلنَّاسِ عَنكُمۡ وَلِتَكُونَ ءَايَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَيَهۡدِيَكُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 11
(20) अल्लाह तुमसे बहुत-सी ग़नीमतों का वादा करता है जिन्हें तुम प्राप्त करोंगे।12 तात्कालिक रूप में तो यह विजय उसने तुम्हें प्रदान कर दी13 और लोगों के हाथ तुम्हारे विरुद्ध उठने से रोक दिए14, ताकि यह ईमानवालों के लिए एक निशानी बन जाए और अल्लाह तुम्हें सीधा मार्ग दिखाए।
12. इससे मुराद वे दूसरी विजय है जो ख़ैबर के बाद मुसलमानों को निरन्तर प्राप्त होती चली गई।
13. इससे मुराद है हुदैबिया की सुलह जिसको सूरा के आरंभ में स्पष्ट विजय घोषित किया गया है।
14. अर्थात् क़ुरैश के काफ़िरों को यह हिम्मत उसने न दी कि वे हुदैबिया के स्थान पर तुमसे लड़ जाते, हालाँकि सारी दीख पड़नेवाली परिस्थितियों की दृष्टि से वे बहुत ज़्यादा अच्छी स्थिति में थे, और लड़ाई के दृष्टिकोण से तुम्हारा पल्ला उनके मुक़ाबले में बहुत कमज़ोर दिखाई पड़ता था।
وَأُخۡرَىٰ لَمۡ تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهَا قَدۡ أَحَاطَ ٱللَّهُ بِهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٗا ۝ 12
(21) इसके अलावा दूसरी और ग़नीमतों का भी वह तुमसे वादा करता है जिनपर तुम अभी काबू नहीं पा सके हो और अल्लाह ने उनको घेर रखा है15, अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
15. ज़्यादा संभावना इस बात की है कि यह इशारा मक्का की विजय की ओर है। अर्थात् अभी तो मक्का तुम्हारे काबू में नहीं आया है, लेकिन अल्लाह ने उसे घेरे में ले लिया है और हुदैबिया की इस विजय के परिणामस्वरूप वह भी तुम्हारे अधिकार में आ जाएगा।
وَلَوۡ قَٰتَلَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوَلَّوُاْ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يَجِدُونَ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 13
(22) ये काफ़िर लोग अगर इस समय तुमसे लड़ गए होते तो यक़ीनन पीठ फेरते और कोई संरक्षक और सहायक न पाते।
سُنَّةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلُۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗا ۝ 14
(23) यह अल्लाह की रीति (सुन्नत) है जो पहले से चली आ रही है। और तुम अल्लाह की रीति में कोई परिवर्तन न पाओगे।
وَهُوَ ٱلَّذِي كَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ عَنۡهُم بِبَطۡنِ مَكَّةَ مِنۢ بَعۡدِ أَنۡ أَظۡفَرَكُمۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا ۝ 15
(24) वही है जिसने मक्का की घाटी में उनके हाथ तुमसे और तुम्हारे हाथ उनसे रोक दिए, हालाँकि वह उनपर तुम्हें क़ाबू दे चुका था और जो कुछ तुम कर रहे थे अल्लाह उसे देख रहा था।
هُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡهَدۡيَ مَعۡكُوفًا أَن يَبۡلُغَ مَحِلَّهُۥۚ وَلَوۡلَا رِجَالٞ مُّؤۡمِنُونَ وَنِسَآءٞ مُّؤۡمِنَٰتٞ لَّمۡ تَعۡلَمُوهُمۡ أَن تَطَـُٔوهُمۡ فَتُصِيبَكُم مِّنۡهُم مَّعَرَّةُۢ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ لِّيُدۡخِلَ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ لَوۡ تَزَيَّلُواْ لَعَذَّبۡنَا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 16
(25) वही लोग तो हैं जिन्होंने इनकार किया और तुमको प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) से रोका और क़ुरबानी के ऊँटों को उनकी क़ुरबानी की जगह न पहुँचने दिया। अगर (मक्का में) ऐसे ईमानवाले मर्द और ईमानवाली औरतें मौजूद न होतीं जिन्हें तुम नहीं जानते, और यह आशंका न होती कि बेख़बरी में तुम उन्हें कुचल दोगे और इससे तुम दोषी ठहरोगे तो युद्ध न रोका जाता। रोका वह इसलिए गया) ताकि अल्लाह अपनी दयालुता में जिसे चाहे दाख़िल कर ले। वे ईमानवाले (मोमिन) अलग हो गए होते तो (मक्कावालों में से) जो काफ़िर थे उनको हम ज़रूर कठोर सज़ा देते।16
16. यह थी वह मसलहत जिसके कारण अल्लाह ने हुदैबिया में युद्ध न होने दिया। मक्का में उस समय बहुत से मुसलमान ऐसे मौजूद थे जिन्होंने या तो अपना ईमान छिपा रखा था, या जिनका ईमान मालूम था, मगर वे अपनी विवशता के कारण 'हिजरत' न कर सकते थे और ज़ुल्म और अत्याचार का शिकार हो रहे थे। इस हालत में अगर युद्ध हो जाता और मुसलमान क़ाफ़िरों को रौंदते हुए मक्का में प्रवेश करते तो क़ाफ़िरों के साथ-साथ ये मुसलमान भी बेख़बरी में मुसलमानों के हाथों से मारे जाते। दूसरा पहलू इस मसलहत का यह था कि अल्लाह क़ुरैश को एक रक्तपातयुक्त युद्ध में परास्त कराकर मक्का को विजय कराना न चाहता था, बल्कि उसके समक्ष यह था कि दो वर्ष के भीतर हर ओर से घेरकर उन्हें इस तरह बेबस कर दे कि वे किसी प्रतिरोध के बिना परास्त हो जाएँ, और पूरा का पूरा क़बीला इस्लाम क़ुबूल करके अल्लाह की दयालुता में दाख़िल हो जाए, जैसा कि मक्का की विजय के अवसर पर हुआ।
إِذۡ جَعَلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡحَمِيَّةَ حَمِيَّةَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَلۡزَمَهُمۡ كَلِمَةَ ٱلتَّقۡوَىٰ وَكَانُوٓاْ أَحَقَّ بِهَا وَأَهۡلَهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 17
(26) (यही कारण है कि) जब उन काफ़िरों ने अपने दिलों में अज्ञान का पक्षपात बिठा लिया तो अल्लाह ने अपने रसूल और ईमान वालों पर 'सकीनत' (शान्ति) उतारी17 और ईमानवालों को परहेज़गारी (तक़वा) की बात का पाबन्द रखा कि वही उसके ज़्यादा हक़दार और उसके योग्य थे। अल्लाह हर चीज़़ का ज्ञान रखता है।
17. यहाँ 'सकीनत' से मुराद धैर्य (सब्र) और गंभीरता (वक़ार) है, जिसके साथ नबी (सल्ल०) और मुसलमानों ने क़ाफ़िरों के इस अज्ञानपूर्ण पक्षपात का मुक़ाबला किया। वे उनको इस हठधर्मी और खुली हुई ज़्यादती पर उत्तेजित होकर आपे से बाहर न हुए, और उनके जवाब में कोई बात उन्होंने ऐसी न की जो हक़ की सीमा से बाहर और सच्चाई के विरुद्ध होती या जिससे मामला पूरी तरह से सुलझने के बदले और ज़्यादा बिगड़ जाता।
لَّقَدۡ صَدَقَ ٱللَّهُ رَسُولَهُ ٱلرُّءۡيَا بِٱلۡحَقِّۖ لَتَدۡخُلُنَّ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ مُحَلِّقِينَ رُءُوسَكُمۡ وَمُقَصِّرِينَ لَا تَخَافُونَۖ فَعَلِمَ مَا لَمۡ تَعۡلَمُواْ فَجَعَلَ مِن دُونِ ذَٰلِكَ فَتۡحٗا قَرِيبًا ۝ 18
(27) वास्तव में अल्लाह ने अपने रसूल को सच्चा ख़ाब (सपना) दिखाया था जो ठीक-ठीक सत्य के अनुसार था।18 अगर अल्लाह ने चाहा तो तुम ज़रूर प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) में पूरे अम्न (शान्ति) के साथ प्रवेश करोगे19 अपने सिर मुंडवाओगे और बाल कटवाओगे, और तुम्हें कोई डर न होगा। वह उस बात को जानता था जिसे तुम न जानते थे, इसलिए वह ख़ाब पूरा होने से पहले उसने यह क़रीब की विजय तुम्हें प्रदान कर दी।
18. यह उस सवाल का जवाब है जो बार-बार मुसलमानों के दिलों में खटक रहा था। वे कहते थे कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तो ख़ाब में यह देखा था कि आपने प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) में प्रवेश किया है और अल्लाह के घर (काबा) का तवाफ़ (परिक्रमा) किया है, फिर यह क्या हुआ कि हम 'उमरा' किए बिना वापस जा रहे हैं।
19. यह वादा अगले वर्ष ज़ीक़ादा सन् 7 हि० में पूरा हुआ। इतिहास में यह उमरा 'उमरतुल क़ज़ाअ' के नाम से प्रसिद्ध है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 19
(28) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्य धर्म के साथ भेजा है, ताकि उसको पूरे के पूरे धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे और इस हक़ीक़त पर अल्लाह की गवाही काफ़ी है।20
20. इस जगह यह बात कहने का कारण यह है कि हुदैबिया में जब सन्धि-पत्र लिखा जाने लगा था उस वक्त मक्का के क़ाफ़िरों ने नबी (सल्ल०) के शुभ नाम के साथ रसूलुल्लाह (अल्लाह का रसूल) का शब्द लिखने पर आपत्ति व्यक्त की थी। इसपर कहा गया है कि रसूल का रसूल होना तो एक वास्तविकता है जिसमें किसी के मानने या न मानने से कोई अन्तर नहीं आता। इसको यदि कुछ लोग नहीं मानते तो न मानें। इसके सत्य होने पर सिर्फ़ अल्लाह की गवाही काफ़ी है।
مُّحَمَّدٞ رَّسُولُ ٱللَّهِۚ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ أَشِدَّآءُ عَلَى ٱلۡكُفَّارِ رُحَمَآءُ بَيۡنَهُمۡۖ تَرَىٰهُمۡ رُكَّعٗا سُجَّدٗا يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗاۖ سِيمَاهُمۡ فِي وُجُوهِهِم مِّنۡ أَثَرِ ٱلسُّجُودِۚ ذَٰلِكَ مَثَلُهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِۚ وَمَثَلُهُمۡ فِي ٱلۡإِنجِيلِ كَزَرۡعٍ أَخۡرَجَ شَطۡـَٔهُۥ فَـَٔازَرَهُۥ فَٱسۡتَغۡلَظَ فَٱسۡتَوَىٰ عَلَىٰ سُوقِهِۦ يُعۡجِبُ ٱلزُّرَّاعَ لِيَغِيظَ بِهِمُ ٱلۡكُفَّارَۗ وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِنۡهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمَۢا ۝ 20
(29) मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं, और जो लोग उनके साथ हैं वे काफ़िरों के मुक़ाबले में कठोर21 और आपस में दयालु हैं।22 तुम जब देखोगे उन्हें 'स्कूअ' और सजदों और अल्लाह के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की तलब में व्यस्त पाओगे। सजदों के प्रभाव उनके चेहरों पर मौजूद हैं जिनसे वे अलग पहचाने जाते हैं।22 यह है उनकी विशेषता तौरात में और इंज़ील में उनकी मिसाल दी गई है कि मानो एक खेती है जिसने पहले कोंपल निकाली, फिर उसको मज़बूत किया, फिर वह गदराई, फिर अपने तने पर खड़ी हो गई। खेती करनेवालों को वह ख़ुश करती है ताकि 'काफ़िर' उनके फलने-फूलने पर जलें। इस गिरोह के लोग जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने अच्छे कर्म किए हैं अल्लाह ने उनसे माफ़ी और बड़े बदले का वादा किया है।
21. अरबी भाषा में कहते हैं-"फ़ुलानुन शदीदुन अलैहि” अमुक व्यक्ति उसपर सख़्त है, अर्थात् उसको दबाना या क़ाबू में करना और अपने मतलब पर लाना उसके लिए कठिन है। आदरणीय सहाबा (रज़ि०) के क़ाफ़िरों पर सख़्त (कठोर) होने का अर्थ यह है कि वे मोम की नाक नहीं हैं कि उन्हें क़ाफ़िर जिधर चाहें मोड़ दें। वे नर्म चारा नहीं हैं कि क़ाफ़िर उन्हें आसानी के साथ चबा जाएँ। उन्हें किसी डर-ख़ौफ़ से दबाया नहीं जा सकता। उन्हें किसी प्रलोभन से ख़रीदा नहीं जा सकता। क़ाफ़िरों में यह शक्ति नहीं है कि उन्हें उस महान् उद्देश्य से हटा दें जिसके लिए वे सिर-धड़ की बाज़ी लगाकर मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए उठे हैं।
22. अर्थात् उनकी सख़्ती जो कुछ भी है दीन के दुश्मनों के लिए है। ईमानवालों के लिए नहीं है। ईमानवालों के मुक़ाबले में वे नर्म हैं, दयालु और ममतामय हैं, सहानुभूति रखनेवाले और संवेदनशील है। सिद्धान्त और उद्देश्य की एकता ने उनके अन्दर एक-दूसरे के लिए प्रेम और समरसता और एकात्मता पैदा कर दी है।
23. इससे मुराद पेशानी का वह गट्टा नहीं है जो सजदे करने के कारण कुछ नमाज़ियों के चेहरे पर पड़ जाता है, बल्कि इससे मुराद ईश-भय, उदारता, सज्जनता और सुशीलता के वे लक्षण हैं जो अल्लाह के आगे झुकने के कारण स्वभावतः आदमी के चेहरे पर स्पष्ट हो जाते हैं। अल्लाह के कहने का मक़सद यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) के ये साथी तो ऐसे हैं कि इनको देखते ही एक आदमी एक निगाह में यह मालूम कर सकता है कि ये लोगों में सबसे अच्छे हैं, क्योंकि ईशपरायणता (ख़ुदापरस्ती) का नूर इनके चेहरों पर चमक रहा है।
سُورَةُ الفَتۡحِ
48. अल-फ़त्ह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
إِنَّا فَتَحۡنَا لَكَ فَتۡحٗا مُّبِينٗا
(1) ऐ नबी, हमने तुमको खुली विजय प्रदान कर दी1
1. हुदैबिया के समझौते के बाद जब विजय की यह ख़ुशख़बरी दी गई तो लोग हैरान थे कि आख़िर इस सुलह (समझौते को विजय कैसे कहा जा सकता है जिसमें देखने में तो हमने वे सभी शर्तें मान लीं जो दुश्मन (अधर्मी) हमसे मनवाना चाहते थे, लेकिन थोड़ी ही मुद्दत के बाद यह मालूम हो गया कि यह सुलह वास्तव में एक बड़ी विजय थी।
لِّيَغۡفِرَ لَكَ ٱللَّهُ مَا تَقَدَّمَ مِن ذَنۢبِكَ وَمَا تَأَخَّرَ وَيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَيَهۡدِيَكَ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 21
(2) ताकि अल्लाह तुम्हारी अगली-पिछली हर कोताही को माफ़ करे2 और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दे और तुम्हें सीधा मार्ग दिखाए3
2. जिस मौक़ा और हालत में यह वाक्य कहा गया है उसे नज़र में रखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ जिन कोताहियों को माफ़ करने का ज़िक्र है उनसे मुराद वे ख़ामियाँ हैं जो इस्लाम की कामयाबी और सरबुलन्दी के लिए काम करते हुए उस प्रयास और चेष्टा में रह गई थीं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नेतृत्व में पिछले 26 वर्ष से मुसलमान कर रहे थे। ये ख़ामियाँ किसी इनसान को मालूम नहीं हैं, बल्कि इनसानी अक़्ल तो उस कोशिश में कोई कमी खोजने में बिलकुल असमर्थ है, मगर अल्लाह की निगाह में पूर्णता (कमाल) का जो उच्चतम आदर्श (मेयार) है उसके लिहाज़ से उसमें कुछ ऐसी ख़ामियाँ थीं जिनके कारण मुसलमानों को इतनी जल्दी अरब के बहुदेववादियों (मुशरिकों) पर निर्णायक विजय प्राप्त न हो सकती थी। अल्लाह के कथन का अर्थ यह है कि उन ख़ामियों के साथ अगर तुम कोशिश करते रहते तो अरब के वशीभूत होने में अभी बहुत लम्बे समय की ज़रूरत थी, मगर हमने उन सारी कमज़ोरियों और कोताहियों को माफ़ करके सिर्फ़ अपनी मेहरबानी से उनकी क्षतिपूर्ति कर दी और हुदैबिया के स्थान पर तुम्हारे लिए विजय का द्वार खोल दिया जो नियम के अनुसार तुम्हारी अपनी कोशिशों से प्राप्त न हो सकती थी।
3. इस जगह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सीधा मार्ग दिखाने का अर्थ आपको विजय और सफलता का मार्ग दिखाना है।
وَيَنصُرَكَ ٱللَّهُ نَصۡرًا عَزِيزًا ۝ 22
(3) और तुमको बड़ी सहायता प्रदान करे।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِيمَٰنٗا مَّعَ إِيمَٰنِهِمۡۗ وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 23
(4) वही है जिसने ईमानवालों के दिलो में 'सकीनत' (शान्ति) उतारी4 ताकि अपने ईमान के साथ वे एक और ईमान बढ़ा लें। ज़मीन और आसमानों की सब सेनाएँ अल्लाह के अधिकार में हैं और वह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
4. 'सकीनत' से मुराद शान्ति और मन का परितोष (इतमीनान) है। मतलब यह है कि हुदैबिया की सुलह के अवसर पर जितनी उत्तेजनाजनक परिस्थितियाँ सामने आईं उन सबमें मुसलमानों का धैर्य (सब्र) से काम लेना और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नेतृत्व पर पूरा भरोसा रखते हुए उनसे कुशलतापूर्वक गुज़र जाना अल्लाह के अनुग्रह का फल था वर्ना उस समय एक तनिक-सी भूल भी सारा काम बिगाड़ देती।
لِّيُدۡخِلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَيُكَفِّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عِندَ ٱللَّهِ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 24
(5) (उसने यह काम इसलिए किया है ताकि ईमानवाले मर्दों और ईमानवाली औरतों को हमेशा रहने के लिए ऐसी जन्नतों में प्रवेश कराए जिनके नीचे नहरे बह रही होंगी और उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दे। अल्लाह की दृष्टि में यह बड़ी सफलता है
وَيُعَذِّبَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ وَٱلۡمُشۡرِكَٰتِ ٱلظَّآنِّينَ بِٱللَّهِ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۖ وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَلَعَنَهُمۡ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرٗا ۝ 25
(6) और उन मुनाफ़िक़ (मिथ्याचारी) मर्दों और औरतों और बहुदेववादी मर्दों और औरतों को सज़ा दे जो अल्लाह के सम्बन्ध में बुरे गुमान रखते हैं। बुराई के फेर में वे ख़ुद ही आ गए, अल्लाह का प्रकोप उनपर हुआ और उसने उनपर लानत की और उनके लिए जहन्नम तैयार कर दिया जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।
وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا ۝ 26
(7) आसमानों और ज़मीन की सेनाएँ अल्लाह ही के अधिकार में हैं और वह प्रभुत्वशाली और तत्त्वदर्शी है।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ شَٰهِدٗا وَمُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 27
(8) ऐ नबी, हमने तुमको गवाही देनेवाला5, ख़ुशख़बरी देनेवाला और सावधान कर देनेवाला बनाकर भेजा है
5. शाह वलीयुल्लाह साहब ने 'शाहिद' (गवाही देनेवाला) का अनुवाद “इज़हारे-हक़ कुनिन्दा” किया है, अर्थात् सत्य की गवाही देनेवाला।
لِّتُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتُعَزِّرُوهُ وَتُوَقِّرُوهُۚ وَتُسَبِّحُوهُ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلًا ۝ 28
(9) ताकि ऐ लोगो, तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसका (अर्थात् रसूल का) साथ दो, उसका आदर और सम्मान करो और सुबह और शाम अल्लाह की तसबीह (गुणगान करते रहो।