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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن

55. अर-रहमान

(मक्का में उतरी, आयतें 78)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जो शब्द ‘अर-रहमान' (कृपाशील) से आरम्भ होती है। यह नाम इस सूरा की विषय-वस्तु से भी गहरा सम्बन्ध रखता है, बयोंकि इसमें शुरू से आख़िर तक अल्लाह की दयालुता के गुणसूचक प्रतीकों और परिणामों का उल्लेख किया गया है।

उतरने का समय

विद्वान टीकाकार आम तौर से इस सूरा को मक्की कहते हैं। यद्यपि कुछ उल्लेखों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), इक्रिमा (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) से यह कथन उद्धृत है कि यह सूरा मदनी है, लेकिन एक तो इन्हीं महानुभावों से कुछ दूसरे उल्लेखों में इसके विपरीत भी उदधृत है। दूसरे इसकी विषय-वस्तु मदनी सूरतों की अपेक्षा मक्की सूरतों से अधिक मिलती-जुलती है, बल्कि अपनी विषय वस्तु की दृष्टि से यह मक्का के भी आरम्भिक काल की मालूम होती है। और साथ ही कई विश्वसनीय उल्लेखों से इसका प्रमाण मिलता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा में ही हिजरत से कई साल पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

क़ुरआन मजीद की एकमात्र यही सूरा है जिसमें इंसान के साथ, ज़मीन के दूसरे स्वतन्त्र प्राणी, जिन्नों को भी सीधे तौर पर सम्बोधित किया गया है। यद्यपि क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ऐसे विवरण मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इंसानों की तरह जिन्न भी एक स्वतन्त्र और उत्तरदायी प्राणी हैं और उनमें भी इंसानों ही की तरह काफ़िर (इंकारी) और मोमिन (ईमानवाले) और आज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी पाए जाते हैं और उनमें भी ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो नबियों और आसमानी किताबों (ईश्वरीय ग्रन्थों) पर ईमान लाए हैं, लेकिन यह सूरा निश्चित रूप से इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन की दावत (आह्‍वान) जिन्नों और इंसानों दोनों के लिए है और नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी केवल ईसानों तक ही सीमित नहीं है। सूरा के आरम्भ में तो सम्बोधन इंसानों से ही है, क्योंकि ज़मीन में खिलाफ़त (आधिपत्य) उन्हीं को प्राप्त है, अल्लाह के रसूल उन्हीं में से आए हैं और अल्लाह की किताबें उन्हीं की भाषाओं में उतारी गई हैं। लेकिन आगे चलकर आयत 13 से इंसान और जिन्न दोनों को समान रूप से सम्बोधित किया गया है और एक ही दावत (आमंत्रण) दोनों के सामने पेश की गई है। सूरा की वार्ताएँ छोटे-छोटे वाक्यों में एक विशेष क्रम से पेश हुई हैं।

आयत 1 से 4 तक यह विषय वर्णन किया गया है कि इस क़ुरआन की शिक्षा अल्लाह की ओर से है और यह ठीक उसकी रहमत (दयालुता) का तक़ाज़ा है कि वह इस शिक्षा से तमाम इंसानों के मार्गदर्शन का प्रबंध करे। आयत 5-6 में बताया गया है कि जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था अल्लाह के शासन के अन्तर्गत चल रही है और जमीन एवं आसमान की हर चीज़ उसके आदेश के अधीन है। आयत 7 से 9 में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि अल्लाह ने जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं प्रणाली को ठीक-ठीक सन्तुलन के साथ न्याय पर क़ायम किया है और इस व्यवस्था की प्रकृति यह चाहती है कि इसमें रहनेवाले अपने अधिकार की सीमाओं में भी न्याय ही पर क़ायम रहें और सन्तुलन न बिगाड़ें। आयत 10 से 25 तक अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कार और कौशल को बयान करने के साथ-साथ उसकी उन नेमतों की ओर इशारे किए गए हैं जिनसे इंसान और जिन्न लाभ उठा रहे हैं। आयत 26 से 30 तक इंसान और जिन्न दोनों को यह हक़ीक़त याद दिलाई गई है कि इस जगत् में एक अल्लाह के सिवा कोई अक्षय और अमर नहीं है, और छोटे से बड़े तक कोई अस्तित्त्ववान ऐसा नहीं जो अपने अस्तित्त्व और अस्तित्त्वगत आवश्यकताओं के लिए अल्लाह का मुहताज न हो। आयत 31 से 36 तक इन दोनों गिरोहों को सचेत किया गया है कि शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब तुमसे कड़ी पूछ-गच्छ की जाएगी। इस पूछ-गछ से बचकर तुम कहीं नहीं जा सकते। आयत 37-38 में बताया गया है कि यह कड़ी पूछ-गच्छ क़ियामत के दिन होनेवाली है। आयत 39 से 45 तक अपराधी इंसानों और जिन्नों का अंजाम बताया गया है और आयत 46 से सूरा के अन्त तक विस्तारपूर्वक उन इनामों का उल्लेख हुआ है जो आख़िरत में नेक इंसानों और जिन्नों को प्रदान किए जाएंगे।

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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن
55. अर-रहमान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
ٱلرَّحۡمَٰنُ
(1) बड़े ही मेहरबान (अल्लाह) ने
عَلَّمَ ٱلۡقُرۡءَانَ ۝ 1
(2) इस क़ुरआन की शिक्षा दी है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ ۝ 2
(3) उसी ने इनसान को पैदा किया
عَلَّمَهُ ٱلۡبَيَانَ ۝ 3
(4) और उसे बोलना सिखाया।
ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ بِحُسۡبَانٖ ۝ 4
(5) सूरज और चाँद एक हिसाब के पाबन्द हैं
وَٱلنَّجۡمُ وَٱلشَّجَرُ يَسۡجُدَانِ ۝ 5
(6) और तारे और पेड़ सब सजदे में हैं।1
1. अर्थात् आज्ञा के अधीन हैं, अल्लाह के आदेश का बाल बराबर उल्लंघन नहीं कर सकते।
وَٱلسَّمَآءَ رَفَعَهَا وَوَضَعَ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 6
(7) आसमान को उसने ऊँचा किया और तुला स्थापित कर दी।2
2. लगभग सभी टीकाकारों ने यहाँ तुला (तराज़ू) का अर्थ न्याय लिया है, और तुला स्थापित करने का मतलब यह बयान किया है कि अल्लाह ने विश्व की इस पूरी व्यवस्था को न्याय पर स्थापित किया है।
أَلَّا تَطۡغَوۡاْ فِي ٱلۡمِيزَانِ ۝ 7
(8) इसका तक़ाज़ा यह है कि तुम तुला में विघ्न उत्पन्न न करो,
وَأَقِيمُواْ ٱلۡوَزۡنَ بِٱلۡقِسۡطِ وَلَا تُخۡسِرُواْ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 8
(9) इनसाफ़ के साथ ठीक-ठीक तौलो और तराज़ू में डंडी न मारो।3
3. अर्थात् चूँकि तुम एक संतुलित जगत् में रहते हो जिसकी सारी व्यवस्था न्याय पर स्थापित की गई है, इसलिए तुम्हें भी न्याय पर क़ायम होना चाहिए। जिस क्षेत्र में तुम्हें अधिकार दिया गया है उसमें अगर तुम बेइनसाफ़ी करोगे तो यह ब्रह्माण्ड की मूल प्रकृति से तुम्हारा विद्रोह होगा।
وَٱلۡأَرۡضَ وَضَعَهَا لِلۡأَنَامِ ۝ 9
(10) ज़मीन को उसने सब ख़िलक़त (कृति) के लिए बनाया।
فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَٱلنَّخۡلُ ذَاتُ ٱلۡأَكۡمَامِ ۝ 10
(11) उसमें हर तरह के बहुत-से मज़ेदार फल हैं। खजूर के पेड़ हैं जिनके फल आवरणों में लिपटे हुए हैं।
وَٱلۡحَبُّ ذُو ٱلۡعَصۡفِ وَٱلرَّيۡحَانُ ۝ 11
(12) तरह-तरह के अनाज हैं जिनमें भूसा भी होता है और दाना भी
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 12
(13) अतः ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की किन-किन नेमतों4 को झुठलाओगे?
4. यहाँ मूल शब्द 'आला' प्रयुक्त हुआ है जिसे आगे की आयतों में बार-बार दोहराया गया है और हमने विभिन्न जगहों पर उसका अर्थ विभिन्न शब्दों में व्यक्त किया है। उसका अर्थ नेमतें भी हैं, सामर्थ्य की परिपूर्णताएँ भी, और प्रशंस्य गुण भी। हर जगह उसका वह अर्थ लिया जाएगा जो संदर्भ के अनुकूल हो।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ كَٱلۡفَخَّارِ ۝ 13
(14) इनसान को उसने ठीकरी जैसे सूखे सड़े गारे से बनाया
وَخَلَقَ ٱلۡجَآنَّ مِن مَّارِجٖ مِّن نَّارٖ ۝ 14
(15) और जिन को आग की लपट से पैदा किया
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 15
(16) अत: ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की किन-किन सामर्थ्यों को झुठलाओगे?
رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ وَرَبُّ ٱلۡمَغۡرِبَيۡنِ ۝ 16
(17) दोनों पूर्व और दोनों पश्चिम,5 सबका मालिक और पालनहार वही है।
5. दो पूर्व और दो पश्चिम से मुराद जाड़े के छोटे से छोटे दिन और गरमी के बड़े से बड़े दिन के पूर्व और पश्चिम भी हो सकते हैं, और ज़मीन के दोनों गोलार्द्धों के पूर्व और पश्चिम भी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 17
(18) अतः ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को झुठलाओगे?
مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ يَلۡتَقِيَانِ ۝ 18
(19) दोनों समुद्रों को उसने छोड़ दिया कि परस्पर मिल जाएँ,
بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٞ لَّا يَبۡغِيَانِ ۝ 19
(20) फिर भी उनके बीच एक परदा पड़ा है जिसको वे पार नहीं करते।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 20
(21) अत: ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन चमत्कारों को झुठलाओगे?
يَخۡرُجُ مِنۡهُمَا ٱللُّؤۡلُؤُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 21
(22) इन समुद्रों से मोती और मूँगे निकलते हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 22
(23) अत: ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?
وَلَهُ ٱلۡجَوَارِ ٱلۡمُنشَـَٔاتُ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 23
(24) और ये जहाज़ उसी के हैं जो समुद्र में पहाड़ों की तरह ऊँचे उठे हुए हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 24
(25) अतः ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब के किन-किन उपकारों को झुठलाओगे?
كُلُّ مَنۡ عَلَيۡهَا فَانٖ ۝ 25
(26) हर चीज़ जो इस ज़मीन में है नाशवान है
وَيَبۡقَىٰ وَجۡهُ رَبِّكَ ذُو ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 26
(27) और सिर्फ़ तेरे रब का प्रतापवान एवं उदार स्वरूप ही बाक़ी रहनेवाला है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 27
(28) अत: ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?
يَسۡـَٔلُهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ كُلَّ يَوۡمٍ هُوَ فِي شَأۡنٖ ۝ 28
(29) ज़मीन और आसमानों में जो भी हैं सब अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की उसी से माँग कर रहे हैं। नित वह नई शान में है।6
6. अर्थात् हर समय इस विश्व के कारख़ाने में उसकी क्रियाशीलता का एक अनन्त सिलसिला जारी है और वह अगणित चीज़़ें नए से नए ढंग और रूप और गुणों के साथ पैदा कर रहा है। उसकी दुनिया कभी एक हाल पर नहीं रहती। हर क्षण उसकी दशाएँ बदलती रहती हैं और उसका स्रष्टा हर बार उसे एक नए रूप से क्रमबद्ध करता है जो पिछले सभी रूपों से भिन्न होती है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 29
(30) अतः ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब के किन-किन प्रशंस्य गुणों को झुठलाओगे?
سَنَفۡرُغُ لَكُمۡ أَيُّهَ ٱلثَّقَلَانِ ۝ 30
(31) ऐ ज़मीन के बोझो,7 जल्द ही हम तुमसे पूछगछ के लिए निवृत्त हुए जाते है8
7. मूल शब्द 'स-क़-लान' इस्तेमाल हुआ है। 'सक़ल' उस बोझ को कहते हैं जो सवारी पर लदा हुआ हो। 'स-क़-लान' का शाब्दिक अनुवाद होगा “दो लदे हुए बोझ।” इस जगह यह शब्द जिन्न और इनसान के लिए इस्तेमाल किया गया है क्योंकि ये दोनों ज़मीन पर लदे हुए हैं, और चूँकि सम्बोधन उन जिन्नों और इनसानों से हो रहा है जो अपने रब के आज्ञापालन और बन्दगी से हटे हुए हैं, इसलिए उनको “ऐ ज़मीन के बोझो” कहकर सम्बोधित किया गया है, मानो स्रष्टा अपनी सृष्टि के इन दोनों नालायक़ गिरोहों से कह रहा है कि ऐ वे लोगो जो मेरी ज़मीन पर भार बने हुए हो, जल्द ही मैं तुम्हारी ख़बर लेने के लिए निवृत्त हुआ जाता हूँ।
8. इसका अर्थ यह नहीं है कि इस समय अल्लाह ऐसा व्यस्त है कि उसे इन अवज्ञाकारियों से पूछगछ करने की फ़ुरसत नहीं मिलती। बल्कि इसका अर्थ वास्तव में यह है कि अल्लाह ने एक विशेष कार्यक्रम निश्चित कर रखा है जिसके अनुसार अभी इनसानों और जिन्नों से अन्तिम पूछगछ करने का समय नहीं आया है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 31
(32) (फिर देख लेंगे कि) तुम अपने रब के किन-किन उपकारों को झुठलाते हो।
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ إِنِ ٱسۡتَطَعۡتُمۡ أَن تَنفُذُواْ مِنۡ أَقۡطَارِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ فَٱنفُذُواْۚ لَا تَنفُذُونَ إِلَّا بِسُلۡطَٰنٖ ۝ 32
(33) ऐ जिन और इनसान के गिरोह, अगर तुम ज़मीन और आसमानों की सीमाओं से निकलकर भाग सकते हो तो भाग देखो। नहीं भाग सकते। इसके लिए बड़ा ज़ोर चाहिए।9
9. ज़मीन और आसमानों से अभिप्रेत है ब्रह्माण्ड या दूसरे शब्दों में ईश्वर का प्रभुत्व-क्षेत्र और सृष्टि। आयत का अर्थ यह है कि ईश्वर की पकड़ से बच निकलना तुम्हारे बस में नहीं है। जिस पूछगछ की तुम्हें ख़बर दी जा रही है उसका समय आने पर तुम चाहे किसी जगह भी हो, हर हाल में पकड़ लाए जाओगे। उससे बचने के लिए तुम्हें ख़ुदा की ख़ुदाई से भाग निकलना होगा और इसका बलबूता तुममें नहीं है। अगर ऐसा घमण्ड तुम अपने दिल में रखते हो तो अपना ज़ोर लगाकर देख लो।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 33
(34) अपने रब की किन-किन सामर्थ्यों को तुम झुठलाओगे?
يُرۡسَلُ عَلَيۡكُمَا شُوَاظٞ مِّن نَّارٖ وَنُحَاسٞ فَلَا تَنتَصِرَانِ ۝ 34
(35) (भागने की कोशिश करोगे तो) तुमपर आग का शोला और धुआँ छोड़ दिया जाएगा जिसका तुम मुक़ाबला न कर सकोगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 35
(36) ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की किन-किन सामर्थ्यों का इनकार करोगे?
فَإِذَا ٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ وَرۡدَةٗ كَٱلدِّهَانِ ۝ 36
(37) फिर (क्या बनेगी उस समय) जब आसमान फटेगा10 और लाल चमड़े की तरह लाल हो जाएगा?
10. आसमान के फटने से मुराद है आसमानों के बन्धन का खुल जाना, जगत-व्यवस्था का छिन्न-भिन्न हो जाना, तारों और नक्षत्रों का बिखर जाना।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 37
(38) ऐ जिन्न और इनसान (उस समय) तुम अपने रब की किन-किन सामर्थ्यों को झुठलाओगे?
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُسۡـَٔلُ عَن ذَنۢبِهِۦٓ إِنسٞ وَلَا جَآنّٞ ۝ 38
(39) उस दिन किसी इनसान और किसी जिन्न से उसका गुनाह पूछने की ज़रूरत न होगी,
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 39
(40) फिर (देख लिया जाएगा कि) तुम दोनों गिरोह अपने रब के किन-किन उपकारों का इनकार करते हो।
يُعۡرَفُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ بِسِيمَٰهُمۡ فَيُؤۡخَذُ بِٱلنَّوَٰصِي وَٱلۡأَقۡدَامِ ۝ 40
(41) अपराधी वहाँ अपने चेहरों से पहचान लिए जाएँगे और उन्हें माथे के बाल और पाँव पकड़-पकड़कर घसीटा जाएगा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 41
(42) (उस समय) तुम अपने रब की किन-किन सामर्थ्यों को झुठलाओगे?
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي يُكَذِّبُ بِهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 42
(43) (उस समय कहा जाएगा) यह वही जहन्नम है जिसको अपराधी झूठ ठहराया करते थे।
يَطُوفُونَ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَ حَمِيمٍ ءَانٖ ۝ 43
(44) उसी जहन्नम और खौलते हुए पानी के बीच वे चक्कर काटते रहेंगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 44
(45) फिर अपने रब की किन-किन सामर्थ्यो को तुम झुठलाओगे?
وَلِمَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ جَنَّتَانِ ۝ 45
(46) और हर उस व्यक्ति के लिए जो अपने रब के सामने पेश होने का डर रखता हो,11 दो बाग़ हैं।
11. अर्थात् जिसने दुनिया में अल्लाह से डरते हुए ज़िन्दगी बिताई हो और यह समझते हुए काम किया हो कि एक दिन मुझे अपने रब के सामने खड़ा होना और अपने कर्मों का हिसाब देना है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 46
(47 ) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
ذَوَاتَآ أَفۡنَانٖ ۝ 47
(48) हरी-भरी डालियों से भरपूर।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 48
(49) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ تَجۡرِيَانِ ۝ 49
(50) दोनों बाग़ों में दो स्रोत प्रवाहित।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 50
(51) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا مِن كُلِّ فَٰكِهَةٖ زَوۡجَانِ ۝ 51
(52) दोनों बाग़ों में हर फल की दो किस्में12
12. इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि दोनों बाग़ों के फलों की शान निराली होगी। एक बाग़ में जाएगा तो एक शान के फल उसकी डालियों में लदे हुए होंगे। दूसरे बाग़ में जाएगा तो उसके फलों की शान कुछ और ही होगी। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि उनमें से हर बाग़ में एक क़िस्म के फल जाने-पहचाने होंगे जिनसे वह दुनिया में भी परिचित था, भले ही मज़े में वे दुनिया के फलों से कितने ही बढ़कर हों, और दूसरी क़िस्म के फल अपूर्व होंगे जो दुनिया में कभी उसके सपने और कल्पना में भी न आए थे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 52
(53) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ فُرُشِۭ بَطَآئِنُهَا مِنۡ إِسۡتَبۡرَقٖۚ وَجَنَى ٱلۡجَنَّتَيۡنِ دَانٖ ۝ 53
(54) जन्नती लोग ऐसे बिछौनों पर तकिए लगाकर बैठेंगे जिसके अस्तर दबीज़ (गाढ़े) रेशम के होंगे और बाग़ों की डालियाँ फलों से झुकी पड़ रही होंगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 54
(55) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 55
(58) इन नेमतों के बीच शरमीली निगाहोंवालियाँ होंगी13 जिन्हें इन जन्नतवालों से पहले कभी किसी इनसान या जिन्न ने न छुआ होगा।14
13. यह औरत का वास्तविक गुण है कि वह बेशर्म और बेबाक न हो, बल्कि निगाह में लज्जा रखती हो। इसी लिए अल्लाह ने जन्नत की नेमतों के बीच औरतों का ज़िक्र करते हुए सबसे पहले उनकी सुन्दरता की नहीं, बल्कि उनकी लज्जा और सतीत्व की प्रशंसा की है। सुन्दर औरतें तो सह-क्लबों और फ़िल्मी रंगशालाओं में भी इकट्ठी हो जाती हैं, और सौन्दर्य के मुक़ाबलों (प्रतियोगिताओ) में तो छाँट-छाँटकर एक से एक सुन्दर औरत लाई जाती है, मगर बुरी अभिरुचिवाला और बदकिरदार आदमी ही उनमें दिलचस्पी ले सकता है। किसी शरीफ़ आदमी को वह सौन्दर्य आकर्षित नहीं कर सकता जो प्रत्येक बुरी दृष्टि को नज़ारे के लिए आमंत्रित करे और हर गोद की शोभा बनने के लिए तैयार हो।
14. इससे मालूम हुआ कि जन्नत में नेक इनसानों की तरह नेक जिन्न भी प्रवेश करेंगे। इनसानों के लिए इनसान औरतें होंगी और जिन्नों के लिए जिन्न औरतें और अल्लाह की सामर्थ्य से वे सब कुँवारी बना दी जाएँगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 56
(57) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
كَأَنَّهُنَّ ٱلۡيَاقُوتُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 57
(58) ऐसी सुन्दर जैसे हीरे और मोती।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 58
(59) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
هَلۡ جَزَآءُ ٱلۡإِحۡسَٰنِ إِلَّا ٱلۡإِحۡسَٰنُ ۝ 59
(60) नेकी का बदला नेकी के सिवा और क्या हो सकता है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 60
(61) फिर ऐ जिन्न और इनसान, अपने रब के किन-किन प्रशंस्य गुणों का तुम इनकार करोगे?
وَمِن دُونِهِمَا جَنَّتَانِ ۝ 61
(62) और उन दो बाग़ों के अलावा दो बाग़ और होंगे।15
15. संभवतः पहले दो बाग़ निवासस्थान होंगे और दूसरे दो बाग़ विहार-स्थल।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 62
(63) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُدۡهَآمَّتَانِ ۝ 63
(64) घने हरे-भरे बाग़
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 64
(65) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ نَضَّاخَتَانِ ۝ 65
(66) दोनों बाग़ों में दो स्रोत फ़व्वारों की तरह उबलते हुए।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 66
(67) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا فَٰكِهَةٞ وَنَخۡلٞ وَرُمَّانٞ ۝ 67
(68) उनमें भरपूर फल और खजूरें और अनार।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 68
(69) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ خَيۡرَٰتٌ حِسَانٞ ۝ 69
(70) उन नेमतों के बीच सुचरिता और सुन्दर बीवियाँ
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 70
(71) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
حُورٞ مَّقۡصُورَٰتٞ فِي ٱلۡخِيَامِ ۝ 71
(72) ख़ेमों में ठहराई हुई अप्सराएँ (परम रूपवती स्त्रियाँ)।16
16. ख़ेमों से मुराद संभवत: उस तरह के ख़ेमे हैं जैसे अमीरों और रईसों के लिए विहार-स्थलों पर लगाए जाते हैं। उन विहार-स्थलों पर जगह-जगह ख़ेमे लगे होंगे जिनमें दूरे (अप्सराएँ) उनके लिए आनन्द एवं स्वाद को सामग्री जुटाएँगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 72
(73) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झूठलाओगे?
لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 73
(74) इन जन्नतवालों से पूर्व भी किसी इनसान या जिन्न ने उनको न छुआ होगा?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 74
(75) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ رَفۡرَفٍ خُضۡرٖ وَعَبۡقَرِيٍّ حِسَانٖ ۝ 75
(76) वे जन्नतवाले हरे क़ालीनों और उत्कृष्ट एवं अपूर्व बिछौनों पर तकिए लगाकर बैठेंगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 76
(77) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
تَبَٰرَكَ ٱسۡمُ رَبِّكَ ذِي ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 77
(78) बड़ी बरकतवाला है तेरे प्रतापवान एवं उदार रब का नाम।