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سُورَةُ الوَاقِعَةِ

56. अल-वाक़िआ

(मक्का में उतरी, आयतें 96)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-वाक़िआ' (वह होनेवाली घटना) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने सूरतों के उतरने का जो क्रम बयान किया है, उसमें वे कहते हैं कि पहले सूरा-20 ता-हा उतरी, फिर अल-वाक़िआ और उसके बाद सूरा-26 शुअरा [अल-इतक़ान लिस-सुयूती] । यही क्रम इक्रिमा ने भी बयान किया है, (बैहक़ी, दलाइलुन्नुबुव्वत)। इसकी पुष्टि उस क़िस्से से भी होती है जो हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बारे में इब्‍ने-हिशाम ने इब्‍ने-इस्हाक़ से उद्धृत किया है। उसमें यह उल्लेख हुआ है कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बहन के घर में दाख़िल हुए तो सूरा-20 ता-हा पढ़ी जा रही थी और जब उन्होंने कहा था कि अच्छा, मुझे वह सहीफ़ा (लिखित पृष्ठ) दिखाओ जिसे तुमने छिपा लिया है तो बहन ने कहा, "आप अपने शिर्क के कारण नापाक हैं और इस सहीफ़े को सिर्फ़ पाक व्यक्ति ही हाथ लगा सकता है।" अतएव हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर स्‍नान किया और फिर उस सहीफ़े को लेकर पढ़ा। इससे मालूम हुआ कि उस समय सूरा-56 अल-वाक़िआ उतर चुकी थी, क्योंकि इसी में आयत "इसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता" (आयत-79) आई है। और यह ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि०) हबशा की हिजरत के बाद सन् 05 नबवी में ईमान लाए हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय आख़िरत (परलोक), तौहीद (एकेश्वरवाद) और क़ुरआन के सम्बन्ध में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों का खंडन है। सबसे अधिक जिस चीज़ को वे अविश्वसनीय ठहराते थे, वह [क़ियामत और आख़िरत थी। उनका कहना] यह था कि ये सब काल्पनिक बातें हैं जिनका वास्तविक लोक में घटित होना असम्भव है। इसके जवाब में कहा गया कि जब वह घटना घटित होगी तो उस समय कोई यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटित नहीं हुई है, न किसी में यह शक्ति होगी कि उसे आते-आते रोक दे या घटना को असत्य कर दिखाए। उस समय निश्चित रूप से तमाम इंसान तीन वर्गों में बँट जाएँगे। एक आगेवाले, दूसरे आम नेक लोग, तीसरे वे लोग जो आख़िरत के इंकारी रहे और मरते दम तक कुफ़्र (इंकार), शिर्क और बड़े-बड़े गुनाहों पर जमे रहे। इन तीनों वर्गों के लोगों के साथ जो व्यवहार होगा उसे आयत 7 से 56 तक में सविस्तार बयान किया गया है। इसके बाद आयत 57 से 74 तक इस्लाम के उन दोनों बुनियादी अक़ीदों (आधारभूत अवधारणाओं) की सत्यता पर निरन्तर प्रमाण दिए गए हैं, जिनको मानने से विरोधी इंकार कर रहे थे अर्थात् तौहीद और आख़िरत। फिर आयत 75 से 82 तक क़ुरआन के सम्बन्ध में उनके सन्देहों का खंडन किया गया है और क़ुरआन की सत्यता पर दो संक्षिप्त वाक्यों में यह अतुल्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि इसपर कोई विचार करे तो इसमें ठीक वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था पाएगा, जैसी जगत् के तारों और नक्षत्रों की व्यवस्था सुदृढ़ है और यही इस बात का प्रमाण है कि इसका रचयिता वही है जिसने सृष्टि की यह व्यवस्था बनाई है। फिर इस्लाम-विरोधियों से कहा गया है कि यह किताब उस नियति-पत्र में अंकित है जो मख़लूक (सृष्ट प्राणियों) की पहुँच से परे है। तुम समझते हो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) के पास शैतान लाते हैं, हालाँकि 'लौहे-महफूज़' (सुरक्षित पट्टिका) से मुहम्मद (सल्ल०) तक जिस माध्यम से यह पहुँचती है, उसमें पवित्र आत्मा फ़रिश्तों के सिवा किसी को तनिक भी हस्तक्षेप करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं है। अंत में इंसान को बताया गया है कि तू अपनी स्वच्छन्दता के घमंड में कितना ही आधारभूत तथ्यों की ओर से अंधा हो जाए, मगर मौत का समय तेरी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। [तेरे रिश्ते-नातेदार] तेरी आँखों के सामने मरते हैं और तू देखता रह जाता है। अगर कोई सर्वोच्च सत्ता तेरे ऊपर शासन नहीं कर रही है और तेरा यह दंभ उचित है कि संसार में बस तू ही तू है, कोई ख़ुदा नहीं है, तो किसी मरनेवाले की निकलती हुई जान को पलटा क्यों नहीं लाता? जिस तरह तू इस मामले में बेबस है, उसी तरह ख़ुदा की पूछ-गच्छ और उसके इनाम और सज़ा को भी रोक देना तेरे बस में नहीं है। तू चाहे माने या न माने, मौत के बाद हर मरनेवाला अपना अंजाम देखकर रहेगा।

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سُورَةُ الوَاقِعَةِ
56. अल-वाक़िआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
إِذَا وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ
(1) जब वह होनेवाली घटना घटित हो जाएगी
لَيۡسَ لِوَقۡعَتِهَا كَاذِبَةٌ ۝ 1
(2) तो कोई उसके घटित होने को झुठलानेवाला न होगा।
خَافِضَةٞ رَّافِعَةٌ ۝ 2
(3) वह तलपट कर देनेवाली आफ़त होगी,
إِذَا رُجَّتِ ٱلۡأَرۡضُ رَجّٗا ۝ 3
(4) ज़मीन उस समय एकाएक हिला डाली जाएगी1
1. अर्थात् वह कोई स्थानीय भूकम्प न होगा, बल्कि सारी ज़मीन एक साथ हिला डाली जाएगी।
وَمَآءٖ مَّسۡكُوبٖ ۝ 4
(31) और हर पल बहता पानी,
وَفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ ۝ 5
لَّا مَقۡطُوعَةٖ وَلَا مَمۡنُوعَةٖ ۝ 6
(32, 33) और कभी समाप्त न होनेवाले और बेरोक-टोक मिलनेवाले ढेर सारे फलों,
وَفُرُشٖ مَّرۡفُوعَةٍ ۝ 7
(34) और ऊँची बैठकों में होंगे
إِنَّآ أَنشَأۡنَٰهُنَّ إِنشَآءٗ ۝ 8
(35) उनकी बीवियों को हम विशेष रूप से नए सिरे से पैदा करेंगे
فَجَعَلۡنَٰهُنَّ أَبۡكَارًا ۝ 9
(36) और उन्हें कुँवारियाँ बना देंगे
عُرُبًا أَتۡرَابٗا ۝ 10
(37) अपने शौहरों की आशिक़ और उम्र में बराबर
لِّأَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 11
(38) यह कुछ दाएँ बाज़ूवालों के लिए है।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 12
(39) वे अगलों में से भी बहुत-बहुत होंगे
وَثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 13
(40) और पिछलों में से भी बहुत।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ ۝ 14
(41) और बाएँ बाज़ूवाले बाएँ बाज़ूवालों (के दुर्भाग्य) का क्या पूछना
فِي سَمُومٖ وَحَمِيمٖ ۝ 15
(42) वे लू की लपट
وَظِلّٖ مِّن يَحۡمُومٖ ۝ 16
(43) और खौलते हुए पानी और काले धुएँ की छाया में होंगे
لَّا بَارِدٖ وَلَا كَرِيمٍ ۝ 17
(44) जो न शीतल होगा न सुखदायक।
إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُتۡرَفِينَ ۝ 18
(45) ये वे लोग होंगे जो इस परिणाम को पहुँचने से पहले सुखी-सम्पन्न थे
وَكَانُواْ يُصِرُّونَ عَلَى ٱلۡحِنثِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 19
(46) और महापाप पर आग्रह करते थे।
وَكَانُواْ يَقُولُونَ أَئِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 20
(47) कहते थे, “क्या जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पंजर रह जाएँगे तो फिर उठा खड़े किए जाएँगे?
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 21
(48) और क्या हमारे बाप-दादा भी उठाए जाएँगे जो पहले गुज़र चुके हैं?
قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَوَّلِينَ وَٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 22
(49) ऐ नबी, इन लोगों से कहो, यक़ीनन अगले और पिछले सब
لَمَجۡمُوعُونَ إِلَىٰ مِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 23
(50) एक दिन ज़रूर इकट्ठे किए जानेवाले हैं जिसका समय नियत किया जा चुका है।
ثُمَّ إِنَّكُمۡ أَيُّهَا ٱلضَّآلُّونَ ٱلۡمُكَذِّبُونَ ۝ 24
(51) फिर ऐ गुमराहो और झुठलानेवालो,
لَأٓكِلُونَ مِن شَجَرٖ مِّن زَقُّومٖ ۝ 25
(52) तुम जक़्क़ूम (थूहड़) के पेड़ का भोजन करनेवाले हो।
فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 26
(53) उसी से तुम पेट भरोगे
فَشَٰرِبُونَ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 27
(54) और ऊपर से खौलता हुआ पानी
فَشَٰرِبُونَ شُرۡبَ ٱلۡهِيمِ ۝ 28
(55) तैंस लगे हुए ऊँट की तरह पिओगे।
هَٰذَا نُزُلُهُمۡ يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 29
(56) यह है उन (बाएँ बाज़ूवालों) के अतिथि सत्कार की सामग्री बदला दिए जाने के दिन।
نَحۡنُ خَلَقۡنَٰكُمۡ فَلَوۡلَا تُصَدِّقُونَ ۝ 30
(57) हमने तुम्हें पैदा किया है फिर क्यों तसदीक़ नहीं करते?4
4. अर्थात् इस बात की तसदीक़ (पुष्टि) कि हम ही तुम्हारे रब और पूज्य हैं, और हम तुम्हें दोबारा भी पैदा कर सकते हैं।
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تُمۡنُونَ ۝ 31
(58) कभी तुमने विचार किया, यह वीर्य जो तुम डालते हो,
ءَأَنتُمۡ تَخۡلُقُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 32
(59) इससे बच्चा तुम बनाते हो या उसके बनानेवाले हम हैं?
نَحۡنُ قَدَّرۡنَا بَيۡنَكُمُ ٱلۡمَوۡتَ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 33
(60) हमने तुम्हारे बीच मौत को बाँटा है, और हमारे बस से यह बाहर नहीं है
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ أَمۡثَٰلَكُمۡ وَنُنشِئَكُمۡ فِي مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 34
(61) कि हम तुम्हारे रूप बदल दें और किसी ऐसे रूप में तुम्हें पैदा कर दे जिसको तुम नहीं जानते
إِنَّهُۥ لَقُرۡءَانٞ كَرِيمٞ ۝ 35
(77) कि यह एक उच्च कोटि का क़ुरआन8 है,
8. तारों और उपग्रहों की स्थितियों से मुराद उनके स्थान, उनकी मंज़िलें और उनके भ्रमण-कक्ष हैं। और क़ुरआन के उच्च कोटि की किताब होने पर उनकी क़सम खाने का अर्थ यह है कि ऊपरी लोक में आकाशीय पिण्डों की व्यवस्था जैसी सुदृढ़ और मज़बूत है वैसी ही मज़बूत और सुदृढ़ यह वाणी भी है। जिस ईश्वर ने वह व्यवस्था बनाई है उसी ईश्वर ने यह वाणी भी उतारी है।
فِي كِتَٰبٖ مَّكۡنُونٖ ۝ 36
(78) एक सुरक्षित किताब में अंकित
لَّا يَمَسُّهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُطَهَّرُونَ ۝ 37
(79) जिसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता।9
9. अर्थात् यह पाक फ़रिश्तों के द्वारा आया है। शैतानों का इसमें कोई दख़ल नहीं है।
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 38
(80) यह सारे जहान के रब का उतारा हुआ है।
أَفَبِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَنتُم مُّدۡهِنُونَ ۝ 39
(81) फिर क्या इस वाणी की तुम उपेक्षा करते हो,
وَتَجۡعَلُونَ رِزۡقَكُمۡ أَنَّكُمۡ تُكَذِّبُونَ ۝ 40
(82) और इस नेमत में अपना हिस्सा तुमने यह रखा है कि इसे झुठलाते हो?
فَلَوۡلَآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلۡحُلۡقُومَ ۝ 41
(83) अब अगर तुम किसी के अधीन नहीं हो और अपने इस विचार में सच्चे हो, तो जब मरनेवाले की जान हलक़ तक पहुँच चुकी होती है
وَأَنتُمۡ حِينَئِذٖ تَنظُرُونَ ۝ 42
(84) और तुम आँखो देख रहे होते हो कि वह मर रहा है,
وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُبۡصِرُونَ ۝ 43
فَلَوۡلَآ إِن كُنتُمۡ غَيۡرَ مَدِينِينَ ۝ 44
تَرۡجِعُونَهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 45
(85, 86, 87) उस समय उसकी निकलती हुई जान को वापस क्यों नहीं ले आते? उस समय तुम्हारी अपेक्षा हम उसके ज़्यादा नज़दीक होते हैं मगर तुमको दिखाई नहीं देते।
فَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 46
(88) फिर वह मरनेवाला अगर क़रीबवालों में से हो,
فَرَوۡحٞ وَرَيۡحَانٞ وَجَنَّتُ نَعِيمٖ ۝ 47
(89) तो उसके लिए सुख और उत्तम आजीविका और नेमत भरी जन्नत है।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 48
(90) और अगर वह दाएँ पक्षवालों में से हो,
فَسَلَٰمٞ لَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 49
(91) तो उसका स्वागत यों होता है कि सलाम है तुझे, तू दाएँ पक्षवालों में से है।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 50
(92) और अगर वह झुठलानेवाले गुमराह लोगों में से हो,
فَنُزُلٞ مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 51
(93) तो उसके सत्कार के लिए खौलता हुआ पानी है
وَتَصۡلِيَةُ جَحِيمٍ ۝ 52
(94) और जहन्नम में झोंका जाना।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ حَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 53
(95) यह सब कुछ परम सत्य है,
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 54
(96) अत: ऐ नबी, अपने महान रब के नाम की तसबीह (गुणगान) करो।10
10. इसी आदेश के अनुसार नबी (सल्ल०) ने आदेश दिया कि रुकू में 'सुबहा-न रब्बियल अज़ीम' (पाक है मेरा रब जो महान है) कहा जाए।
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُولَىٰ فَلَوۡلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 55
(62) अपनी पहली पैदाइश को तो तुम जानते ही हो, फिर क्यों शिक्षा ग्रहण नहीं करते?
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَحۡرُثُونَ ۝ 56
(63) कभी तुमने सोचा, यह बीज जो तुम बोते हो,
ءَأَنتُمۡ تَزۡرَعُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلزَّٰرِعُونَ ۝ 57
(64) इनसे खेतियाँ तुम उगाते हो या उनके उगानेवाले हम हैं?
لَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَٰهُ حُطَٰمٗا فَظَلۡتُمۡ تَفَكَّهُونَ ۝ 58
(65) हम चाहें तो इन खेतियों को भुस बनाकर रख दें और तुम तरह-तरह की बातें बनाते रह जाओ
إِنَّا لَمُغۡرَمُونَ ۝ 59
(66) कि हमपर तो उलटा डाँड़ पड़ गया,
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 60
(67) बल्कि हमारे तो नसीब ही फूटे हुए हैं।
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلۡمَآءَ ٱلَّذِي تَشۡرَبُونَ ۝ 61
(68) कभी तुमने आँखें खोलकर देखा, यह पानी जो तुम पीते हो,
ءَأَنتُمۡ أَنزَلۡتُمُوهُ مِنَ ٱلۡمُزۡنِ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنزِلُونَ ۝ 62
(69) इसे तुमने बादल से बरसाया है या इसके बरसानेवाले हम है?
لَوۡ نَشَآءُ جَعَلۡنَٰهُ أُجَاجٗا فَلَوۡلَا تَشۡكُرُونَ ۝ 63
(70) हम चाहें तो इसे अत्यन्त खारा बनाकर रख दें। फिर क्यों तुम कृतज्ञता नहीं दिखाते?
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي تُورُونَ ۝ 64
(71) कभी तुमने विचार किया यह आग जो तुम सुलगाते हो
ءَأَنتُمۡ أَنشَأۡتُمۡ شَجَرَتَهَآ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنشِـُٔونَ ۝ 65
(72) इसका पेड़ तुमने पैदा किया है, या इसके पैदा करनेवाले हम है?5
5. अर्थात् जिन पेड़ों की लकड़ियों से तुम आग जलाते हो उनको तुमने पैदा किया है या हमने?
نَحۡنُ جَعَلۡنَٰهَا تَذۡكِرَةٗ وَمَتَٰعٗا لِّلۡمُقۡوِينَ ۝ 66
(73) हमने उसको याद दिलाने का साधन और ज़रूरतमन्दों के लिए जीवन-सामग्री बनाया है।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 67
(74) अत: ऐ नबी, अपने महान रब के नाम की तसबीह करो।6
6. अर्थात् उसका शुभ नाम लेकर यह घोषित करो कि वह उन सभी दोषों और दुर्बलताओं से मुक्त है जो क़ाफ़िर और मुशरिक (बहुदेववादी) लोग उससे जोड़ते हैं और जो कुफ़्र और 'शिर्क' (बहुदेववाद) की हर धारणा और आख़िरत (परलोक) का इनकार करनेवालों के प्रत्येक तर्क में निहित हैं।
۞فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَوَٰقِعِ ٱلنُّجُومِ ۝ 68
(75) अत: नहीं7, मैं क़सम खाता हूँ तारों की स्थितियों की,
7. अर्थात् बात वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो। यहाँ क़ुरआन के अल्लाह की ओर से होने पर क़सम खाने से पहले 'ला' (नहीं) शब्द का इस्तेमाल ख़ुद यह व्यक्त कर रहा है कि लोग इस पवित्र ग्रन्थ के सम्बन्ध में कुछ बातें बना रहे थे जिनका खण्डन करने के लिए यह क़सम खाई जा रही है।
وَإِنَّهُۥ لَقَسَمٞ لَّوۡ تَعۡلَمُونَ عَظِيمٌ ۝ 69
(76) और अगर तुम समझो तो यह बहुत बड़ी क़सम है,
وَبُسَّتِ ٱلۡجِبَالُ بَسّٗا ۝ 70
(5) और पहाड़ इस तरह चूरा-चूरा कर दिए जाएँगे
فَكَانَتۡ هَبَآءٗ مُّنۢبَثّٗا ۝ 71
(6) कि बिखरे हुए ग़ुबार बनकर रह जाएँगे।
وَكُنتُمۡ أَزۡوَٰجٗا ثَلَٰثَةٗ ۝ 72
(7) तुम लोग उस समय तीन गिरोहों में बँट जाओगे
فَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 73
(8) दाएँ बाज़ूवाले, तो दाएँ बाज़ूवालों (के सौभाग्य) का क्या कहना।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 74
(9) और बाएँ बाज़ूवाले, तो बाएँ बाज़ूवालों (के दुर्भाग्य) का क्या ठिकाना।
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلسَّٰبِقُونَ ۝ 75
(10) और आगेवाले तो फिर आगेवाले ही हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡمُقَرَّبُونَ ۝ 76
(11) वही तो निकटवर्ती लोग हैं।
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 77
(12) नेमत भरी जन्नतों में रहेंगे।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 78
(13) अगलों में से बहुत होंगे
وَقَلِيلٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 79
(14) और पिछलों में से कम।
عَلَىٰ سُرُرٖ مَّوۡضُونَةٖ ۝ 80
(15) जड़ित एवं विभूषित तख़्तों पर
مُّتَّكِـِٔينَ عَلَيۡهَا مُتَقَٰبِلِينَ ۝ 81
(16) तकिए लगाए आमने-सामने बैठेंगे।
يَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ ۝ 82
بِأَكۡوَابٖ وَأَبَارِيقَ وَكَأۡسٖ مِّن مَّعِينٖ ۝ 83
(17,18) उनकी मजलिसों में सार्वकालिक किशोर2 प्रवाहित स्रोत की शराब से भरे प्याले और कंटर और सागर लिए दौड़ते फिरते होंगे
2. इससे मुराद हैं ऐसे लड़के जो हमेशा लड़के ही रहेंगे, उनकी उम्र हमेशा एक ही हालत पर ठहरी रहेगी।
لَّا يُصَدَّعُونَ عَنۡهَا وَلَا يُنزِفُونَ ۝ 84
(19) जिसे पीकर न उनका सिर चकराएगा न उनकी बुद्धि में विकार आएगा।
وَفَٰكِهَةٖ مِّمَّا يَتَخَيَّرُونَ ۝ 85
(20) और वे उनके सामने तरह-तरह के स्वादिष्ट फल पेश करेंगे कि जिसे चाहें चुन लें,
وَلَحۡمِ طَيۡرٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 86
(21) और पक्षियों के मांस पेश करेंगे कि जिस पक्षी का चाहे प्रयोग करें।
وَحُورٌ عِينٞ ۝ 87
(22) और उनके लिए सुन्दर आँखोंवाली अप्सराएँ हूरें होंगी,
كَأَمۡثَٰلِ ٱللُّؤۡلُوِٕ ٱلۡمَكۡنُونِ ۝ 88
(23) ऐसी सुन्दर जैसे छुपाकर रखे हुए मोती।
جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 89
(24) यह सब कुछ उन कर्मों के बदले के रूप में उन्हें मिलेगा जो वे दुनिया में करते रहे थे।
لَا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا تَأۡثِيمًا ۝ 90
(25) वहाँ वे कोई बकवास या गुनाह की बात न सुनेंगे।
إِلَّا قِيلٗا سَلَٰمٗا سَلَٰمٗا ۝ 91
(26) जो बात भी होगी ठीक-ठीक होगी।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ ۝ 92
(27) और दाएँ बाज़ूवाले, दाएँ बाज़ूवालों के सौभाग्य) का क्या कहना।
فِي سِدۡرٖ مَّخۡضُودٖ ۝ 93
(28) वे काँटे रहित बेरियाँ3,
3. अर्थात् ऐसी बेरियाँ जिनके पेड़ों में काँटे न होंगे। बेर जितने उच्चकोटि के होते हैं, उनके पेड़ों में काँटे उतने ही कम होते हैं। इसी लिए जन्नत के बेरों का यह गुण बताया गया है कि उनके पेड़ बिलकुल ही काँटों से ख़ाली होंगे, अर्थात् ऐसे उत्तम प्रकार के होंगे जो दुनिया में नहीं पाए जाते।
وَطَلۡحٖ مَّنضُودٖ ۝ 94
(29) और ऊपर-तले चढ़े हुए केलों
وَظِلّٖ مَّمۡدُودٖ ۝ 95
(30) और दूर तक फैली हुई छाँव