58. अल-मुजादला
(मदीना में उतरी, आयतें 22)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम 'अल-मुजादला' भी है और 'अल-मुजादिला' भी। यह नाम पहली ही आयत के शब्द 'तुजादिलु-क' (तुमसे तकरार कर रही है) से लिया गया है।
उतरने का समय
सूरा-33 (अहज़ाब) में अल्लाह ने मुँहबोले बेटे के सगा बेटा होने को नकारते हुए केवल यह कहकर छोड़ दिया था कि "और अल्लाह ने तुम्हारी उन बीवियों (पत्नियों) को, जिनसे तुम 'ज़िहार' करते हो, तुम्हारी माएँ नहीं बना दिया है।" (ज़िहार से अभिप्रेत है पत्नी को माँ की उपमा देना।) मगर उसमें यह नहीं बताया गया था कि ज़िहार करना कोई पाप या अपराध है और न यह बताया गया था कि इस कर्म के विषय में शरीअत का क्या आदेश है। इसके विपरीत इस सूरा में ज़िहार का पूरा क़ानून बयान कर दिया गया है। इससे मालूम होता है कि ये विस्तृत आदेश उस संक्षिप्त आदेश के बाद उतरे हैं। [इस तथ्य के अन्तर्गत यह ] बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इस सूरा के उतरने का समय अहज़ाब के अभियान (शव्वाल, 05 हिजरी) के बाद का है।
विषय और वार्ता
इस सूरा में मुसलमानों को उन विभिन्न समस्याओं के बारे में आदेश दिए गए हैं जो समस्याएँ उस समय पैदा हो गई थीं। सूरा के आरंभ से आयत 6 तक ज़िहार' के बारे में शरीअत के आदेश बयान किए गए हैं और उसके साथ मुसलमानों को अत्यन्त कड़ाई के साथ सावधान किया गया है कि इस्लाम के बाद भी अज्ञानकाल के तरीक़ों पर जमे रहना और अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाओं को तोड़ना निश्चित रूप से ईमान के विपरीत कर्म है, जिसकी सज़ा दुनिया में भी अपमान और अपयश है और आख़िरत में भी उसपर कड़ी पूछ-गच्छ होनी है। आयत 7 से 10 तक में मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की इस नीति पर पकड़ गई है कि वे आपस में गुप्त कानाफूसियाँ करके तरह-तरह की शरारतों की योजनाएँ बनाते थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यहूदियों की तरह ऐसे ढंग से सलाम करते थे, जिससे दुआ के बजाय बद-दुआ का पहलू निकलता था। इस संबंध में मुसलमानों को तसल्ली दी गई है कि मुनाफ़िक़ों की ये कानाफूसियाँ तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकर्ती, इसलिए तुम अल्लाह के भरोसे पर अपना काम करते रहो, और इसके साथ उनको यह नैतिक शिक्षा भी दी गई है कि सच्चे ईमानवालों का काम पाप और अत्याचार एवं अन्याय और रसूल की अवज्ञा के लिए कानाफूसियाँ करना नहीं है, वे अगर आपस में बैठकर एकान्त में कोई बात करें भी तो वह भलाई और ईशपरायणता (तक़वा) की बात होनी चाहिए। आयत 11 से 13 तक में मुसलमानों को सभा-सम्बन्धी कुछ नियम सिखाए गए हैं और कुछ ऐसे सामाजिक दोषों को दूर करने के लिए निर्देश दिए गए हैं जो पहले भी लोगों में पाए जाते थे और आज भी पाए जाते हैं। आयत 14 से सूरा के अन्त तक मुस्लिम समाज के लोगों को, जिनमें सच्चे ईमानवाले और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और दुविधाग्रस्त सब मिले-जुले थे, बिल्कुल दो-टूक तरीक़े से बताया गया है कि धर्म में आदमी के निष्ठावान होने की कसौटी क्या है। एक प्रकार के मुसलमान वे हैं जो इस्लाम के दुश्मनों से दोस्ती रखते हैं, अपने हित के लिए दीन से विद्रोह करने में वे कोई संकोच नहीं करते। दूसरे प्रकार के मुसलमान वे हैं जो अल्लाह के दीन (ईश्वरीय धर्म) के मामले में किसी और का ध्यान रखना तो अलग रहा स्वयं अपने बाप, भाई, सन्तान और परिवार तक की वे परवाह नहीं करते। अल्लाह ने इन आयतों में स्पष्ट रूप से कह दिया है कि पहले प्रकार के लोग चाहे कितनी ही क़समें खा-खाकर अपने मुसलमान होने का विश्वास दिलाएँ, वास्तव में वे शैतान के दल के लोग हैं और अल्लाह के दल में सम्मिलित होने का सौभाग्य केवल दूसरे प्रकार के मुसलमानों को प्राप्त है।
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قَدۡ سَمِعَ ٱللَّهُ قَوۡلَ ٱلَّتِي تُجَٰدِلُكَ فِي زَوۡجِهَا وَتَشۡتَكِيٓ إِلَى ٱللَّهِ وَٱللَّهُ يَسۡمَعُ تَحَاوُرَكُمَآۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٌ
(1) अल्लाह1 ने सुन ली उस औरत की बात जो अपने शौहर (पति) के मामले में तुमसे तकरार कर रही है और अल्लाह से फ़रियाद किए जाती है। अल्लाह तुम दोनों की बातचीत सुन रहा है, वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।
1. ये आयतें एक औरत ख़ौला-बिन्ते-सालबा के मामले में अवतरित हुई थीं जिनसे उनके शौहर ने 'ज़िहार' किया था और वे नबी (सल्ल०) से पूछने आई थीं कि इस्लाम में इसके बारे में क्या आदेश है। उस समय तक चूँकि अल्लाह की ओर से इस मामले में कोई आदेश नहीं आया था इसलिए नबी (सल्ल०) ने कहा कि मेरा विचार है कि तुम अपने शौहर पर हराम हो गई हो। इसपर वे फ़रियाद करने लगीं कि मेरी और मेरे बच्चों को ज़िन्दगी तबाह हो जाएगी। इसी दशा में जबकि वे रो-रोकर नबी (सल्ल०) से निवेदन कर रही थीं कि कोई उपाय ऐसा बताइए जिससे मेरा घर बिगड़ने से बच जाए, अल्लाह की ओर से 'वह्य' (प्रकाशना) उतरी और इस समस्या के सम्बन्ध में आदेश बयान किया गया।
ٱلَّذِينَ يُظَٰهِرُونَ مِنكُم مِّن نِّسَآئِهِم مَّا هُنَّ أُمَّهَٰتِهِمۡۖ إِنۡ أُمَّهَٰتُهُمۡ إِلَّا ٱلَّٰٓـِٔي وَلَدۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَيَقُولُونَ مُنكَرٗا مِّنَ ٱلۡقَوۡلِ وَزُورٗاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٞ 1
(2) तुममें से जो लोग अपनी बीवियों से 'ज़िहार' करते हैं2 उनकी बीवियाँ उनकी माएँ नहीं हैं, उनकी माएँ तो वही हैं जिन्होंने उनको जन्म दिया है। ये लोग एक अत्यन्त3 अप्रिय और झूठी बात कहते हैं, और वास्तविकता यह है कि अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और क्षमाशील है।
2. अरब में अधिकतर ऐसा होता था कि शौहर और बीवी में लड़ाई होती तो शौहर गुस्से में आकर कहता कि “तू मेरे ऊपर ऐसी है जैसे मेरी माँ की पीठ।” इसका वास्तविक अर्थ यह होता था कि “तुझसे संभोग करना मेरे लिए ऐसा है जैसे अपनी माँ से संभोग करूँ।” इस ज़माने में भी बहुत-से नादान लोग बीवी से लड़-झगड़कर उसकी उपमा माँ, बहन, बेटी से दे बैठते हैं जिसका स्पष्ट अर्थ यह होता है कि आदमी मानो अब उसे बीवी नहीं, बल्कि उन औरतों की तरह समझता है जो उसके लिए हराम हैं। इसी कर्म का नाम ज़िहार है। अज्ञानकाल में अरबों के यहाँ यह तलाक़, बल्कि उससे भी बढ़कर सम्बन्ध-विच्छेद की घोषणा समझी जाती थी।
3. अर्थात् यह हरकत तो ऐसी है कि इसपर आदमी को बहुत ही कठोर सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन यह अल्लाह की दया है कि उसने पहले तो ज़िहार के मामले में जाहिलियत के क़ानून को निरस्त करके तुम्हारे घरेलू जीवन को तबाही से बचा लिया, दूसरे इस कर्म के करनेवालों के लिए वह सज़ा निर्धारित की जो इस अपराध की हलकी से हलकी सज़ा हो सकती थी।
وَٱلَّذِينَ يُظَٰهِرُونَ مِن نِّسَآئِهِمۡ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا قَالُواْ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مِّن قَبۡلِ أَن يَتَمَآسَّاۚ ذَٰلِكُمۡ تُوعَظُونَ بِهِۦۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ 2
(3) जो लोग अपनी बीवियों से 'ज़िहार' करें फिर अपनी उस बात से रुजू करें जो उन्होंने कही थी4, तो इससे पहले कि दोनों एक दूसरे को हाथ लगाएँ, एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। इससे तुमको नसीहत की जाती है, और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।5
4. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कि उस बात का निवारण करना चाहें जो उन्होंने कही थी। दूसरे यह कि उस चीज़ को अपने लिए हलाल (वैध) करना चाहें जिसे यह बात कहकर उन्होंने हराम करना चाहा था।
5. अर्थात् अगर आदमी घर में चुपके से बीवी के साथ 'ज़िहार' कर बैठे और फिर कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित दण्ड) अदा किए बिना शौहर बीवी में पहले जैसा दाम्पत्य सम्बन्ध चलते रहें, तो भले ही दुनिया में किसी को भी इसकी ख़बर न हो, अल्लाह को तो हर हाल में इसकी ख़बर होगी हो, अल्लाह की पकड़ से बच निकलना उनके लिए किसी तरह संभव नहीं है।
فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ مِن قَبۡلِ أَن يَتَمَآسَّاۖ فَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ فَإِطۡعَامُ سِتِّينَ مِسۡكِينٗاۚ ذَٰلِكَ لِتُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۗ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٌ 3
(4) और जो व्यक्ति ग़ुलाम न पाए वह दो महीने के लगातार रोज़े रखे इससे पहले कि दोनों एक दूसरे को हाथ लगाएँ।6 और जिसे इसकी भी सामर्थ्य न हो वह साठ मुहताजों को खाना खिलाए।7 यह आदेश इसलिए दिया जा रहा है कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ।8 ये अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाएँ हैं, और कुछ करनेवालों के लिए दर्दनाक सज़ा है।
6. अर्थात् लगातार दो महीने के रोज़े रखे जाएँ। बीच में कोई रोज़ा न छूटे।
7. अर्थात् दो वक़्त का पेट भर भोजन दे, चाहे पका हुआ हो या ख़ुराक के सामान के रूप में, चाहे 60 आदमियों को एक दिन खिला दिया जाए या एक आदमी को 60 दिन खिलाया जाए।
8. यहाँ “ईमान लाने” से मुराद सच्चे और निष्ठावान ईमानवाले व्यक्ति जैसी नीति अपनानी है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ مَا يَكُونُ مِن نَّجۡوَىٰ ثَلَٰثَةٍ إِلَّا هُوَ رَابِعُهُمۡ وَلَا خَمۡسَةٍ إِلَّا هُوَ سَادِسُهُمۡ وَلَآ أَدۡنَىٰ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡثَرَ إِلَّا هُوَ مَعَهُمۡ أَيۡنَ مَا كَانُواْۖ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُواْ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ 6
(7) क्या तुमको ख़बर नहीं है9 कि ज़मीन और आसमानों की हर चीज़़ का अल्लाह को ज्ञान है? कभी ऐसा नहीं होता कि तीन आदमियों में कोई गुप्त बातचीत हो और उनके बीच चौथा अल्लाह न हो, या पाँच आदमियों में गुप्त बातचीत हो और उनमें छठा अल्लाह न हो। गुप्त बात करनेवाले चाहे इससे कम हों या ज़्यादा, जहाँ कहीं भी वे हों, अल्लाह उनके साथ होता है। फिर क़ियामत के दिन वह उनको बता देगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है। अल्लाह हर चीज़ का ज्ञान रखता है।
9. यहाँ से आयत 10 तक लगातार मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की उस नीति पर पकड़ की गई है जो उन्होंने उस समय मुस्लिम समाज में अपना रखी थी। वे ऊपर से तो मुसलमानों के गिरोह में सम्मिलित थे, मगर अन्दर ही अन्दर उन्होंने ईमानवालों से अलग अपना एक जत्था बना रखा था। मुसलमान जब भी उन्हें देखते, यही देखते कि वे आपस में सिर जोड़े खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। इन्हीं गुप्त वार्ताओं में वे मुसलमानों में फूट डालने और फ़ितने पैदा करने और आतंकित करने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाते और नई-नई अफ़वाहें गढ़ते थे।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ نُهُواْ عَنِ ٱلنَّجۡوَىٰ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا نُهُواْ عَنۡهُ وَيَتَنَٰجَوۡنَ بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَمَعۡصِيَتِ ٱلرَّسُولِۖ وَإِذَا جَآءُوكَ حَيَّوۡكَ بِمَا لَمۡ يُحَيِّكَ بِهِ ٱللَّهُ وَيَقُولُونَ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ لَوۡلَا يُعَذِّبُنَا ٱللَّهُ بِمَا نَقُولُۚ حَسۡبُهُمۡ جَهَنَّمُ يَصۡلَوۡنَهَاۖ فَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ 7
(8) क्या तुमने देखा नहीं उन लोगों को जिन्हें गुप्त बातचीत करने से रोक दिया गया था फिर भी वे वही हरकत किए जाते हैं जिससे उन्हें रोका गया था? ये लोग छिप-छिपकर आपस में गुनाह और ज़्यादती और रसूल की अवज्ञा की बातें करते हैं, और जब तुम्हारे पास आते हैं तो तुम्हें उस तरीक़े से सलाम करते है जिस तरह अल्लाह ने तुमको सलाम नहीं किया है10 और अपने दिलों में कहते हैं कि हमारी इन बातों पर अल्लाह हमें अज़ाब क्यों नहीं देता? उनके लिए जहन्नम ही काफ़ी है। उसी का वे ईंधन बनेंगे। बड़ा ही बुरा परिणाम है उनका।
10. यह यहूदियों और मुशरिकों (बहुदेववादियों) दोनों ही की नीति थी। अनेक उल्लेखों (रिवायतों) में यह बात आई है कि कुछ यहूदी नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने “अस्सामु अलैक या अबुल क़ासिम” (ऐ क़ासिम के बाप तुम्हें मौत आए) कहा। अर्थात् “अस्साम अलैक” को कुछ इस ढंग से उच्चारित किया कि सुननेवाला समझे कि 'सलाम' कहा है, मगर वास्तव में उन्होंने 'साम' कहा था जिसका अर्थ है मौत।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا تَنَٰجَيۡتُمۡ فَلَا تَتَنَٰجَوۡاْ بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَمَعۡصِيَتِ ٱلرَّسُولِ وَتَنَٰجَوۡاْ بِٱلۡبِرِّ وَٱلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ 8
(9) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम आपस में गुप्त बात करो तो गुनाह और ज़्यादती और रसूल की अवज्ञा की बातें नहीं, बल्कि नेकी और परहेज़गारी की बातें करो और उस अल्लाह से डरते रहो जिसके पास तुम्हें में पेश होना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قِيلَ لَكُمۡ تَفَسَّحُواْ فِي ٱلۡمَجَٰلِسِ فَٱفۡسَحُواْ يَفۡسَحِ ٱللَّهُ لَكُمۡۖ وَإِذَا قِيلَ ٱنشُزُواْ فَٱنشُزُواْ يَرۡفَعِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ دَرَجَٰتٖۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ 10
(11) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुमसे कहा जाए कि अपनी मजलिसों में कुशादगी पैदा करो तो जगह कुशादा कर दिया करो, अल्लाह तुम्हें कुशादगी प्रदान करेगा।11 और जब तुमसे कहा जाए कि उठ जाओ तो उठ जाया करो।12 तुममें जो लोग ईमान रखनेवाले और जिनको ज्ञान प्रदान किया गया है, अल्लाह उनको ऊँचे दर्जे प्रदान करेगा, और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
11. अल्लाह और उसके रसूल ने मुस्लिमों को जो शिष्ट नियम सिखाए उनमें एक बात यह भी है कि जब किसी मजलिस में पहले कुछ लोग बैठे हों और बाद में और कुछ लोग आएँ, तो यह सभ्यता पहले बैठे हुए लोगों में होनी चाहिए कि ख़ुद नए आनेवालों को जगह दें और यथासंभव कुछ सिकुड़ और सिमटकर उनके लिए कुशादगी पैदा करें और इतनी शिष्टता बाद के आनेवालों में होनी चाहिए कि वे ज़बरदस्ती उनके अन्दर न घुसें और कोई व्यक्ति किसी को उठाकर उसकी जगह बैठने की कोशिश न करे।
12. अर्थात् जब मजलिस ख़त्म करने के लिए कहा जाए तो उठ जाना चाहिए, जमकर बैठ जाना चाहिए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نَٰجَيۡتُمُ ٱلرَّسُولَ فَقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيۡ نَجۡوَىٰكُمۡ صَدَقَةٗۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لَّكُمۡ وَأَطۡهَرُۚ فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ 11
(12) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम रसूल से तनहाई में बात करो तो बात करने से पहले कुछ सदक़ा (दान) दो13, यह तुम्हारे लिए अच्छा और ज़्यादा पाकीज़ा है। अलबत्ता अगर तुम सदक़ा देने के लिए कुछ न पाओ तो अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
13. हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) इस आदेश का कारण यह बताते हैं कि लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से बहुत अधिक और अनावश्यक रूप से तनहाई में मिलने के लिए निवेदन करने लगे थे।
ءَأَشۡفَقۡتُمۡ أَن تُقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيۡ نَجۡوَىٰكُمۡ صَدَقَٰتٖۚ فَإِذۡ لَمۡ تَفۡعَلُواْ وَتَابَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ 12
(13) क्या तुम डर गए इस बात से कि तनहाई में बातचीत करने से पहले तुम्हें सदक़े देने होंगे? अच्छा, अगर तुम ऐसा न करो—और अल्लाह ने तुमको इससे माफ़ कर दिया—तो नमाज़ क़ायम करते रहो, 'ज़कात' देते रहो और अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करते रहो। तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।14
14. यह दूसरा आदेश ऊपर के आदेश के थोड़े समय बाद ही अवतरित हो गया और इसने सदक़े के आदेश को मंसूख़ (रद्द) कर दिया। इसमें मतभेद है कि सदक़े का यह आदेश कितनी देर रहा। क़तादह कहते हैं कि एक दिन से भी कम समय तक बाक़ी रहा फिर मंसूख़ कर दिया गया। मुक़ातिल-बिन-हैयान कहते हैं कि दस दिन तक रहा। यह अधिक से अधिक इस आदेश के बाक़ी रहने की अवधि है जो किसी रिवायत (उल्लेख) में बयान हुई है।
لَّا تَجِدُ قَوۡمٗا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ يُوَآدُّونَ مَنۡ حَآدَّ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَوۡ كَانُوٓاْ ءَابَآءَهُمۡ أَوۡ أَبۡنَآءَهُمۡ أَوۡ إِخۡوَٰنَهُمۡ أَوۡ عَشِيرَتَهُمۡۚ أُوْلَٰٓئِكَ كَتَبَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡإِيمَٰنَ وَأَيَّدَهُم بِرُوحٖ مِّنۡهُۖ وَيُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ رَضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ أُوْلَٰٓئِكَ حِزۡبُ ٱللَّهِۚ أَلَآ إِنَّ حِزۡبَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ 21
(22) तुम कभी यह न पाओगे कि जो लोग अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखनेवाले हैं वे उन लोगों से प्रेम करते हों जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का विरोध किया है, चाहे वे उनके बाप हों, या उनके बेटे, या उनके भाई या उनके घरानेवाले। ये वे लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान अंकित कर दिया हैं और अपनी ओर से एक आत्मा प्रदान करके उनको शक्ति दी है। वह उनको ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उनमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राज़ी हुए। वे अल्लाह की पार्टी के लोग हैं। सावधान रहो, अल्लाह की पार्टीवाले ही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।