65. अत-तलाक़
(मदीना में उतरी, आयतें 12)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम ही 'अत-तलाक़' नहीं है, बल्कि यह इसकी विषय-वस्तु का शीर्षक भी है, क्योंकि इसमें तलाक़ ही के नियमों का उल्लेख हुआ है।
उतरने का समय
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने स्पष्टत: कहा है और सूरा के विषय के आन्तरिक साक्ष्य से भी यही स्पष्ट होता है कि यह अनिवार्यत: सूरा-2 (बक़रा) की उन आयतों के बाद उतरी है जिनमें तलाक़ के नियम-सम्बन्धी आदेश पहली बार दिए गए थे। उल्लेखों से मालूम होता है कि जब सूरा बक़रा के आदेशों को समझने में लोग ग़लतियाँ करने लगे और व्यवहारतः भी उनसे ग़लतियाँ होने लगीं, तब अल्लाह ने उनके सुधार के लिए ये नियम-सम्बन्धी आदेश अवतरित किए।
विषय और वार्ता
इस सूरा के आदेशों एवं निर्देशों को समझने के लिए आवश्यक है कि उन निर्देशों को पुन: मन में ताज़ा कर लिया जाए जो तलाक़ और इद्दत के सम्बन्ध में इससे पहले सूरा-2 (बक़रा), आयत-28, 229, 230, 234; सूरा-33 (अहज़ाब), आयत 49 में वर्णित हो चुके हैं। इन आयतों में जो नियम निर्धारित किए गए थे, वे ये थे—
(1) एक पुरुष अपनी पत्नी को अधिक-से-अधिक तीन तलाक़ दे सकता है।
(2) एक या दो तलाक़ देने की स्थिति में इद्दत के अन्दर पति को रुजूअ (अर्थात् बिना निकाह के पुनः दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने) का अधिकार होता है और इद्दत का समय समाप्त होने के बाद वही पुरुष और स्त्री पुनः निकाह करना चाहें तो कर सकते हैं। इसके लिए हलाला की कोई शर्त नहीं है। किन्तु यदि पुरुष तीन तलाक़ दे दे तो इद्दत के भीतर रुजूअ करने का अधिकार समाप्त हो जाता है और पुनः निकाह भी उस समय तक नहीं हो सकता, जब तक स्त्री का विवाह किसी और पुरुष से न हो जाए और वह (पुरुष) अपनी मरज़ी से उसको तलाक़ न दे दे।
(3) वह स्त्री जिसका पति से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित हो चुका हो और जो रजस्वला हो उसकी इद्दत यह है कि उसे तलाक़ के बाद तीन बार हैज़ (मासिक धर्म) आ जाए। एक तलाक़ या दो तलाक़ की स्थिति में इस इद्दत का अर्थ यह है कि स्त्री का अभी तक उस व्यक्ति (पति) से पत्नीत्व का सम्बन्ध पूर्णत: समाप्त नहीं हुआ है और वह इद्दत के भीतर उससे रुजूअ (पुनर्मिलन) कर सकता है। किन्तु यदि पुरुष तीन तलाक दे चुका हो तो यह इद्दत रुजूअ की गुंजाइश के लिए नहीं है, बल्कि केवल इसलिए है कि इसके समाप्त होने से पूर्व स्त्री किसी और व्यक्ति से निकाह नहीं कर सकती।
(4) वह स्त्री जिसका पति से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित न हुआ हो, जिसके हाथ लगाने से पहले ही तलाक़ दे दी जाए, उसके लिए कोई इद्दत नहीं है। वह चाहे तो तलाक़ के बाद तुरन्त निकाह कर सकती है।
(5) जिस स्त्री का पति मर जाए उसकी इद्दत 4 महीने 10 दिन है। अब यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सूरा तलाक़ इन नियमों में से किसी नियम को निरस्त करने या उसमें संशोधन करने के लिए नहीं उतरी है, बल्कि दो उद्देश्य के लिए उतरी है। एक यह कि पुरुष को तलाक़ का जो अधिकार दिया गया है, उसे व्यवहार में लाने के लिए ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण तरीक़े बताए जाएँ जिनसे यथासम्भव विलगाव की नौबत न आने पाए, क्योंकि ईश्वरीय धर्म-विधान में तलाक़ की गुंजाइश केवल एक अवश्यम्भावी आवश्यकता के रूप में रखी गई है, अन्यथा अल्लाह को यह बात अत्यन्त अप्रिय है कि एक स्त्री और पुरुष के बीच में जो दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित हो चुका है, वह फिर कभी टूट जाए। नबी (सल्ल०) का कथन है कि "अल्लाह ने किसी ऐसी चीज़ को वैध नहीं किया है जो तलाक़ से बढ़कर उसे अप्रिय हो" (हदीस : अबू दाऊद)। दूसरा उद्देश्य यह है कि सूरा-2 (बक़रा) के नियम-सम्बन्धी आदेशों एवं निर्देशों के बाद इस सम्बन्ध में जो प्रश्न ऐसे रह गए थे जिनका उत्तर नहीं दिया गया था उनका उत्तर देकर इस्लाम के पारिवारिक क़ानून के इस विभाग को पूर्ण कर दिया जाए।
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يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَطَلِّقُوهُنَّ لِعِدَّتِهِنَّ وَأَحۡصُواْ ٱلۡعِدَّةَۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ رَبَّكُمۡۖ لَا تُخۡرِجُوهُنَّ مِنۢ بُيُوتِهِنَّ وَلَا يَخۡرُجۡنَ إِلَّآ أَن يَأۡتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَقَدۡ ظَلَمَ نَفۡسَهُۥۚ لَا تَدۡرِي لَعَلَّ ٱللَّهَ يُحۡدِثُ بَعۡدَ ذَٰلِكَ أَمۡرٗا
(1) ऐ नबी, जब तुम लोग औरतों को तलाक़ दो तो उन्हें उनकी 'इद्दत' (अवधि) के लिए 'तलाक़ दिया करो1 और इद्दत के समय की ठीक-ठीक गिनती करो, और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है।2 (इद्दत के समय में) न तुम उन्हें उनके घरों से निकालो, और न वे ख़ुद निकलें3, सिवाय इसके कि वे कोई स्पष्ट बुराई कर बैठें।4 ये अल्लाह की नियत की हुई सीमाएँ हैं, और जो कोई अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करेगा वह अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेगा। तुम नहीं जानते, शायद इसके बाद अल्लाह (मेल-मिलाप की) कोई सूरत पैदा कर दे।
1. 'इद्दत' (अवधि) के लिए तलाक़ देने के दो अर्थ हैं। और मुराद यहाँ दोनों ही हैं। एक यह कि मासिक धर्म (हैज़) की हालत में औरत को तलाक़ न दो, बल्कि उस समय तलाक़ दो जिससे उसकी इद्दत शुरू हो सके। दूसरे यह कि इद्दत के अन्दर रुजू को गुंजाइश रखते हुए तलाक़ दो, इस तरह तलाक़ न दे बैठो जिससे रुजू का अवसर ही बाक़ी न रहे। इस आदेश की जो व्याख्या हदीसों में मिलती है उसके अनुसार तलाक़ का नियम यह है कि मासिक धर्म (हैज़) के समय में तलाक़ न दी जाए बल्कि उस 'तुहर' (अर्थात् पाकी) की हालत में दी जाए जिसमें शौहर ने बीवी से संभोग न किया हो, या फिर उस हालत में दी जाए, जबकि औरत का गर्भवती होना मालूम हो। और एक ही समय में तीन तलाक़ न दे डाली जाएँ।
2. अर्थात् तलाक़ को खेल न समझ बैठो कि तलाक़ का महत्त्वपूर्ण मामला पेश आने के बाद यह भी याद न रखा जाए कि कब तलाक़ दी गई है, कब इद्दत शुरू हुई और कब उसको समाप्त होना है। जब तलाक़ दी जाए तो उसके समय और तिथि को याद रखना चाहिए, और यह भी याद रखना चाहिए कि किस हालत में औरत को तलाक़ दी गई है।
3. अर्थात् न मर्द क्रोध में आकर औरत को घर से निकाल दे और न औरत ख़ुद ही बिगड़कर घर छोड़ दे। इद्दत तक घर उसका है। उसी घर में दोनों को रहना चाहिए, ताकि अगर आपस में मेल-मिलाप की कोई राह निकल सकती हो तो उससे फ़ायदा उठाया जा सके। दोनों एक घर में मौजूद रहेंगे तो तीन महीने तक या तीन हैज़ (मसिक धर्म) आने तक, या गर्भ की दशा में बच्चा पैदा होने तक इसके अवसर बार-बार आ सकते हैं।
4. अर्थात् व्यभिचार करें या 'इद्दत' की अवधि में लड़ती-झगड़ती और अपशब्द बकती हों।
فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمۡسِكُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ فَارِقُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٖ وَأَشۡهِدُواْ ذَوَيۡ عَدۡلٖ مِّنكُمۡ وَأَقِيمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَ لِلَّهِۚ ذَٰلِكُمۡ يُوعَظُ بِهِۦ مَن كَانَ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ وَمَن يَتَّقِ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّهُۥ مَخۡرَجٗا 1
(2) फिर जब वे अपनी (इद्दत की) अवधि के अन्त पर पहुँचें तो या तो उन्हें भले तरीक़े से (अपने निकाह में) रोक रखो, या भले तरीक़े पर उनसे अलग हो जाओ। और दो ऐसे आदमियों को गवाह बना लो जो तुममें से इनसाफ़ करनेवाले हों5 और (ऐ गवाह बननेवालो) गवाही ठीक-ठीक अल्लाह के लिए अदा करो। ये बातें हैं जिनकी तुम लोगों को नसीहत की जाती है, हर उस व्यक्ति को जो अल्लाह और आख़िरत (परलोक) के दिन पर ईमान पर रखता हो।6 जो कोई अल्लाह से डरते हुए काम करेगा अल्लाह उसके लिए कठिनाइयों से निकलने का कोई मार्ग पैदा कर देगा
5. इससे मुराद तलाक़ पर भी गवाह बनाना है और रुजू पर भी।
6. ये शब्द ख़ुद बता रहे हैं कि ऊपर जो आदेश दिए गए हैं उनकी हैसियत नसीहत की है न कि क़ानून की। आदमी ऊपर बताए हुए तरीक़े के विरुद्ध तलाक़ दे बैठे, 'इद्दत' की गणना सुरक्षित न रखे, बीवी को बिना उचित कारण के घर से निकाल दे, इद्दत के समाप्त होने पर रुजू करे तो औरत को सताने के लिए करे और विदा करे तो लड़ाई-झगड़े के साथ करे, और तलाक़, रुजू, विच्छेद, किसी चीज़़ पर भी गवाह न बनाए, तो इससे तलाक़ और रुजू और विच्छेद के क़ानूनी परिणामों में कोई अन्तर न पड़ेगा। अलबत्ता अल्लाह की नसीहत के विरुद्ध चलना इस बात का प्रमाण होगा कि उसके दिल में अल्लाह और अन्तिम दिन पर सही ईमान मौजूद नहीं है जिसके कारण उसने वह ढंग अपनाया जो एक सच्चे ईमानवाले व्यक्ति को न अपनाना चाहिए।
وَٱلَّٰٓـِٔي يَئِسۡنَ مِنَ ٱلۡمَحِيضِ مِن نِّسَآئِكُمۡ إِنِ ٱرۡتَبۡتُمۡ فَعِدَّتُهُنَّ ثَلَٰثَةُ أَشۡهُرٖ وَٱلَّٰٓـِٔي لَمۡ يَحِضۡنَۚ وَأُوْلَٰتُ ٱلۡأَحۡمَالِ أَجَلُهُنَّ أَن يَضَعۡنَ حَمۡلَهُنَّۚ وَمَن يَتَّقِ ٱللَّهَ يَجۡعَل لَّهُۥ مِنۡ أَمۡرِهِۦ يُسۡرٗا 3
(4) और तुम्हारी औरतों में से जो मासिक धर्म से निराश हो चुकी हों उनके मामले में अगर तुम लोगों को कोई शक हो रहा है तो (तुम्हें मालूम हो कि) उनकी इद्दत तीन महीने है।7 और यही हुक्म उनका है जिन्हें अभी हैज़ न आया हो। और गर्भवती औरतों की इद्दत की सीमा उनके बच्चा पैदा हो जाने तक है।8 जो व्यक्ति अल्लाह से डरे उसके मामले में वह आसानी पैदा कर देता है।
7. हैज़ (मासिक धर्म) चाहे अल्पायु के कारण न आया हो, या इस कारण कि कुछ औरतों को बहुत देर में हैज़ आना शुरू होता है और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी औरत को उम्र भर नहीं आता, अतः तमाम हालतों में ऐसी औरत की इद्दत वही है जो हैज़ से निराश औरत की इद्दत है, अर्थात् तलाक़ के समय से तीन महीने।
8. अर्थात् औरत का शिशु प्रसव चाहे शौहर की मौत के तुरन्त बाद हो जाए या 4 महीने 10 दिन से ज़्यादा समय लगे, हर हाल में बच्चा पैदा होते ही वह इद्दत से बाहर हो जाएगी।
رَّسُولٗا يَتۡلُواْ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ مُبَيِّنَٰتٖ لِّيُخۡرِجَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَيَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ قَدۡ أَحۡسَنَ ٱللَّهُ لَهُۥ رِزۡقًا 10
(11) एक ऐसा रसूल10 जो तुमको अल्लाह की साफ़-साफ़ हिदायत देनेवाली आयते सुनाता है ताकि ईमान लानेवालों और अच्छे कर्म करनेवालों को अंधेरों से निकालकर प्रकाश में ले आए। जो कोई अल्लाह पर ईमान लाए और अच्छा कर्म करे, अल्लाह उसे ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। ये लोग उनमें हमेशा-हमेशा रहेंगे। अल्लाह ने ऐसे व्यक्ति के लिए उत्तम रोज़ी रखी है।
10. टीकाकारों में से कुछ ने नसीहत का मतलब क़ुरआन समझा है और रसूल का मतलब मुहम्मद (सल्ल०)। और कुछ कहते हैं कि नसीहत का मतलब ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) ही हैं, अर्थात् आपका व्यक्तित्व सर्वथा नसीहत था। हमारी दृष्टि में यही दूसरी व्याख्या ज़्यादा सही है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖ وَمِنَ ٱلۡأَرۡضِ مِثۡلَهُنَّۖ يَتَنَزَّلُ ٱلۡأَمۡرُ بَيۡنَهُنَّ لِتَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ وَأَنَّ ٱللَّهَ قَدۡ أَحَاطَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عِلۡمَۢا 11
(12) अल्लाह वह है जिसने सात आसमान बनाए और ज़मीन की क़िस्म से भी उन्हीं के सदृश।11 उनके बीच आदेश उतरता रहता है। (यह बात तुम्हें इसलिए बताई जा रही है) ताकि तुम जान लो कि अल्लाह को हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है, और यह कि अल्लाह का ज्ञान हर चीज़़ को अपने घेरे में लिए हुए है।
11. “उन्हीं के सदृश” का अर्थ यह नहीं है कि जितने आसमान बनाए उतनी ही ज़मीनें भी बनाईं, बल्कि अर्थ यह है कि जैसे कई एक आसमान उसने बनाए हैं वैसी ही कई ज़मीने भी बनाई हैं। और ज़मीन की क़िस्म से का अर्थ यह है कि जिस तरह यह ज़मीन जिसपर इनसान रहते हैं, अपने रहनेवालों के लिए बिछौना और पालना बनी हुई है उसी तरह अल्लाह ने ब्रह्माण्ड में और ज़मीनें भी बना रखी हैं जो अपनी-अपनी आबादियों के लिए बिछौना और पालना हैं। दूसरे शब्दों में आसमान में ये जो अगणित तारे और ग्रह दिखाई देते हैं, ये सब वीरान पड़े हुए नहीं हैं, बल्कि ज़मीन की तरह उनमें भी बहुत से ऐसे हैं जिनमें दुनियाएँ आबाद हैं।