Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ التَّحۡرِيمِ

66. अत-तहरीम

(मदीना में उतरी, आयतें 12)

परिचय

नाम

पहली आयत के शब्द 'लिमा तुहर्रिमु' (क्यों उस चीज़ को हराम करते हो) से उद्धृत है। इस शीर्षक का अभिप्राय यह है कि यह वह सूरा है जिसमें तहरीम' (किसी चीज़ को अवैध ठहराने) को घटना का उल्लेख हुआ है। इसमें अवैध ठहराने की जिस घटना का उल्लेख किया गया है, उसके सम्बन्ध में हदीसों के उल्लेखों में दो महिलाओं की चर्चा की गई है जो उस समय नबी (सल्ल०) की पत्नियों में से थीं। एक हज़रत सफ़ीया (रज़ि०), दूसरी हज़रत मारिया क़िब्तिया (रज़ि०), [और ये दोनों ही नबी (सल्ल०) के घर में सन् 7 हिजरी में आई हैं। इस] से यह बात लगभग निश्चित हो जाती है कि इस सूरा का अवतरण सन् 7 हिजरी या 8 हिजरी के दौरान में किसी समय हुआ था।

विषय और वार्ता

इस सूरा में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पवित्र पत्नियों  के सम्बन्ध में कुछ घटनाओं की ओर संकेत करते हुए कुछ गम्भीर समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है : एक यह कि हलाल तथा हराम और वैध तथा अवैध की सीमाएँ निर्धारित करने के अधिकार निश्चित रूप से सर्वोच्च अल्लाह के हाथ में हैं और आम लोग तो अलग रहे, पैग़म्बर को भी अपने तौर पर अल्लाह की जाइज़ ठहराई हुई किसी चीज़ को हराम कर लेने का अधिकार नहीं है। दूसरे यह कि मानव-समाज में नबी (सल्ल०) का स्थान बहुत ही गंभीर स्थान है। एक साधारण बात भी जो किसी दूसरे मनुष्य के जीवन में घटित हो तो कुछ अधिक महत्त्व नहीं रखती, लेकिन नबी के जीवन में घटित हो तो उसकी हैसियत क़ानून की हो जाती है। इसलिए अल्लाह की ओर से नबियों के जीवन पर ऐसी कड़ी निगरानी रखी गई है कि उनका कोई छोटे से छोटा क़दम उठाना भी ईश्वरीय इच्छा से हटा हुआ न हो, ताकि इस्लामी क़ानून और उसके सिद्धान्त अपने बिलकुल वास्तविक रूप में अल्लाह के बन्दों तक पहुँच जाएँ। तीसरी बात यह है कि तनिक-सी बात पर जब नबी (सल्ल०) को टोक दिया गया और न केवल उसका सुधार किया गया, बल्कि उसे रिकार्ड पर भी लाया गया, तो यह चीज़ निश्चय ही हमारे दिल में यह इत्मीनान पैदा कर देती है कि नबी (सल्ल०) के पवित्र जीवन में जो कर्म और जो नियम-सम्बन्धी आदेश और निर्देश भी अब हमें मिलते हैं और जिनपर अल्लाह की ओर से कोई पकड़ या संशोधन रिकार्ड पर मौजूद नहीं है, वे सर्वथा विशुद्ध और ठीक हैं और पूर्ण रूप से अल्लाह की इच्छा के अनुकूल हैं। चौथी बात [यह कि अल्लाह ने न केवल यह कि नबी (सल्ल०) को एक साधारण-सी बात पर टोक दिया और ईमानवालों की माताओं को (अर्थात् नबी सल्ल० की पत्नियों को) उनकी कुछ ग़लतियों पर] कड़ाई के साथ सचेत किया, बल्कि [इस पकड़ और चेतावनी को अपनी किताब (क़ुरआन) में सदैव के लिए अंकित भी कर दिया। इसमें निहित उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता है कि अल्लाह इस तरह ईमानवालों को अपने महापुरुषों के आदर-सम्मान की वास्तविक मर्यादाओं एवं सीमाओं से परिचित कराना चाहता है। नबी, नबी है, ख़ुदा नहीं है कि उससे कोई भूल-चूक न हो। नबी इसलिए आदरणीय नहीं हैं कि उनसे भूल-चूक होना असम्भव है, बल्कि वे आदरणीय इसलिए हैं कि वे ईश्वरीय इच्छा के पूर्ण प्रतिनिधि हैं और उनकी छोटी-सी भूल को भी अल्लाह ने सुधारे बिना नहीं छोड़ा है। इसी तरह आदरणीय सहाबा हों या नबी (सल्ल०) की पाक पत्नियाँ, ये सब मनुष्य थे, फ़रिश्ते या परामानव न थे। उनसे भूल-चूक हो सकती थी। उनको जो उच्च पद प्राप्त हुआ, इसलिए हुआ कि अल्लाह के मार्गदर्शन और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के प्रशिक्षण ने उनको मानवता का उत्तम आदर्श बना दिया था। उनका जो कुछ भी सम्मान है, इसी कारण है, न कि इस परिकल्पना के आधार पर कि वे कुछ ऐसी हस्तियाँ थीं जो ग़लतियों से बिलकुल पाक थीं। इसी कारण नबी (सल्ल०) के शुभकाल में सहाबा या आपकी पाक पत्नियों से होने के कारण जब भी कोई भूल-चूक हुई उसपर टोका गया। उनकी कुछ ग़लतियों का सुधार नबी (सल्ल०) ने किया जिसका उल्लेख हदीसों में बहुत-से स्थानों पर हुआ है और कुछ ग़लतियों का उल्लेख क़ुरआन मजीद में करके अल्लाह ने स्वयं उनको सुधारा, ताकि मुसलमान कभी महापुरुषों के आदर की कोई अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा न बना लें। पाँचवीं बात यह है कि अल्लाह का दीन (धर्म) बिलकुल बेलाग है, उसमें हर व्यक्ति के लिए केवल वही कुछ है जिसका वह अपने ईमान और कर्मों की दृष्टि से पात्र है। इस मामले में विशेष रूप से नबी (सल्ल०) की पाक पत्नियों के सामने तीन प्रकार की स्त्रियों को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। एक उदाहरण हज़रत नूह (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) की विधर्मी पत्नियों का है। [जिन के लिए] नबियों की पत्नियाँ होना कुछ काम न आया। दूसरी मिसाल फ़िरऔन की पत्नी की है। चूँकि वे ईमान ले आईं, इसलिए फ़िरऔन जैसे सबसे बड़े विधर्मी की पत्नी होना भी उनके लिए किसी हानि का कारण न बन सका। तीसरा उदाहरण हज़रत मरयम (अलैहि०) का है, जिन्हें महान पद इसलिए मिला कि अल्लाह ने जिस कठिन परीक्षा में उन्हें डालने का निर्णय किया था, उसके लिए वे नतमस्तक हो गईं। इन बातों के अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस सूरा की आयत 3 से हमें मालूम होता है वह यह है कि सर्वोच्च अल्लाह की ओर से नबी (सल्ल०) को केवल वही ज्ञान प्रदान नहीं किया जाता था जो क़ुरआन में अंकित हुआ है, बल्कि आप (सल्ल०) को प्रकाशना के द्वारा दूसरी बातों का ज्ञान भी प्रदान किया जाता था जो क़ुरआन में अंकित नहीं किया गया है।

---------------------

سُورَةُ التَّحۡرِيمِ
66. अत-तहरीम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा ही मेहरबान और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ لِمَ تُحَرِّمُ مَآ أَحَلَّ ٱللَّهُ لَكَۖ تَبۡتَغِي مَرۡضَاتَ أَزۡوَٰجِكَۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ
(1) ऐ नबी, तुम क्यों उस चीज़ को हराम करते हो जिसको अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल किया है?1 (क्या इसलिए कि तुम अपनी बीवियों की प्रसन्नता चाहते हो? 2— अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।
1. यह वास्तव में सवाल नहीं है, बल्कि नापसंदीदगी का प्रदर्शन है, अर्थात् उद्देश्य नबी (सल्ल०) से यह पूछना नहीं है कि आपने यह काम क्यों किया, बल्कि आपको इस बात पर सावधान करना है कि अल्लाह की हलाल ठहराई हुई चीज़ को अपने लिए हराम कर लेने का जो काम आपसे हो गया है वह अल्लाह को नापसंद है। चूँकि आपकी हैसियत एक साधारण आदमी की नहीं, बल्कि अल्लाह के रसूल की थी, और आपके किसी चीज़़ को अपने ऊपर हराम कर लेने से यह ख़तरा पैदा हो सकता था कि मुस्लिम समुदाय भी उस चीज़ को हराम या कम से कम अप्रिय समझने लगे, इसलिए अल्लाह ने आपके इस व्यवहार पर पकड़ की और आपको इस हराम ठहराने के काम से बाज़ रहने का आदेश दिया। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को भी अपने तौर पर किसी चीज़ को हलाल या हराम कर देने का अधिकार न था।
2. इससे मालूम हुआ कि नबी (सल्ल०) ने हराम करने का यह काम ख़ुद अपनी किसी इच्छा के कारण नहीं किया था, बल्कि आपकी बीवियों ने यह चाहा था कि आप ऐसा करें और आपने सिर्फ़ उनको ख़ुश करने के लिए एक हलाल (वैध) चीज़ अपने लिए हराम (अवैध) कर ली थी। हदीस के विश्वसनीय उल्लेखों से मालूम होता है। कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की एक बीवी (हज़रत ज़ैनब रज़ि०) के यहाँ कहीं से शहद आया था जो नबी (सल्ल०) को पसन्द था। इसलिए आप सामान्य रीति के विपरीत उनके यहाँ ज़्यादा देर तक ठहरने लगे थे। इसपर कुछ दूसरी बीवियों को रश्क आया और उन्होंने एका करके आपके मन में उस शहद के प्रति ऐसी घृणा उत्पन्न की जिससे आपने उसको इस्तेमाल न करने की प्रतिज्ञा कर ली।
قَدۡ فَرَضَ ٱللَّهُ لَكُمۡ تَحِلَّةَ أَيۡمَٰنِكُمۡۚ وَٱللَّهُ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 1
(2) अल्लाह ने तुम लोगों के लिए अपनी क़समों की पाबन्दी से निकलने का तरीक़ा निश्चित कर दिया है।3 अल्लाह तुम्हारा संरक्षक है, और वही सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
3. मतलब यह है कि कफ़्फ़ारा अर्थात् प्रायश्चित नियम की पूर्ति करके क़समों की पाबन्दी से निकलने की जो विधि अल्लाह ने सूरा 5 (अल-माइदा), आयत 89 में निर्धारित कर दी है उसका पालन करके आप उस प्रतिज्ञा को भंग कर दें जो आपने एक हलाल चीज़ को अपने ऊपर हराम करने के लिए किया है।
وَإِذۡ أَسَرَّ ٱلنَّبِيُّ إِلَىٰ بَعۡضِ أَزۡوَٰجِهِۦ حَدِيثٗا فَلَمَّا نَبَّأَتۡ بِهِۦ وَأَظۡهَرَهُ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ عَرَّفَ بَعۡضَهُۥ وَأَعۡرَضَ عَنۢ بَعۡضٖۖ فَلَمَّا نَبَّأَهَا بِهِۦ قَالَتۡ مَنۡ أَنۢبَأَكَ هَٰذَاۖ قَالَ نَبَّأَنِيَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 2
(3) (और यह मामला भी ध्यान देने के योग्य है कि) नबी ने एक बात अपनी एक बीवी से रहस्य में कही थी। फिर जब उस बीवी ने (किसी और पर) वह रहस्य प्रकट कर दिया और अल्लाह ने नबी को इस (रहस्योद्घाटन) की सूचना दे दी, तो नबी ने उसपर किसी हद तक (उस बीवी को) ख़बरदार किया और किसी हद तक उसे टाल दिया। फिर जब नबी ने उसे (रहस्योद्घाटन की) यह बात बताई तो उसने पूछा आपको इसकी किसने ख़बर दी? नबी ने “मुझे उसने ख़बर दी जो सब कुछ जानता है और ख़ूब ख़बर रखनेवाला है।4
4. किसी उल्लेख से निश्चित रूप से यह मालूम नहीं होता कि वह रहस्य की बात क्या थी और जिस उद्देश्य के लिए यह आयत उतरी है उसकी दृष्टि से यह प्रश्न सिरे से कोई महत्त्व भी नहीं रखता कि वह रहस्य की बात थी क्या। वास्तविक उद्देश्य जिसके लिए इस मामले को क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को और अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों के सभी उत्तरदायी लोगों की बीवियों को इस बात पर सचेत करना है कि वे रहस्यों की सुरक्षा में बेपरवाई से काम न ले। जो व्यक्ति जितनी बड़ी दायित्वपूर्ण हैसियत रखता हो उसके घर से रहस्योद्घाटन उतना ही ज़्यादा खतरनाक होता है। बात चाहे महत्त्वपूर्ण हो या अमहत्त्वपूर्ण रहस्य की सुरक्षा करने में ढील की आदत पड़ जाए तो अमहत्त्वपूर्ण बातों की तरह किसी समय महत्त्वपूर्ण बात भी खुल सकती है।
إِن تَتُوبَآ إِلَى ٱللَّهِ فَقَدۡ صَغَتۡ قُلُوبُكُمَاۖ وَإِن تَظَٰهَرَا عَلَيۡهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ مَوۡلَىٰهُ وَجِبۡرِيلُ وَصَٰلِحُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ بَعۡدَ ذَٰلِكَ ظَهِيرٌ ۝ 3
(4) अगर तुम दोनों अल्लाह से तौबा करती हो (तो यह तुम्हारे लिए अच्छा है) क्योंकि तुम्हारे दिल सीधी राह से हट गए हैं5, और अगर नबी के मुक़ाबले में तुमने जत्थाबन्दी की तो जान रखो कि अल्लाह उसका संरक्षक है और उसके बाद जिबरील और सभी नेक ईमानवाले और सब फ़रिश्ते उसके साथी और सहायक हैं।6
5. इन दोनों से मुराद हज़रत उमर (रज़ि०) के उल्लेख के अनुसार हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत हफ़सा (रज़ि०) हैं और सीधी राह से हट जाने का अर्थ जो हज़रत उमर (रज़ि०) ने बयान किया है वह यह है कि ये दोनों बीवियाँ नबी (सल्ल०) के साथ कुछ अनुचित निर्भयता से पेश आने लगी थीं, जिसे अल्लाह ने नापसन्द किया और उन्हें सचेत किया।
6. मतलब यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुक़ाबले में जत्थाबन्दी करके तुम अपना ही नुक़सान करोगी, क्योंकि जिसका संरक्षक अल्लाह है और जिबरील और फ़रिश्ते और सभी नेक ईमानवाले जिसके साथ हैं। उसके मुक़ाबले में जत्थाबन्दी करके कोई सफल नहीं हो सकता।
عَسَىٰ رَبُّهُۥٓ إِن طَلَّقَكُنَّ أَن يُبۡدِلَهُۥٓ أَزۡوَٰجًا خَيۡرٗا مِّنكُنَّ مُسۡلِمَٰتٖ مُّؤۡمِنَٰتٖ قَٰنِتَٰتٖ تَٰٓئِبَٰتٍ عَٰبِدَٰتٖ سَٰٓئِحَٰتٖ ثَيِّبَٰتٖ وَأَبۡكَارٗا ۝ 4
(5) असंभव नहीं कि अगर नबी तुम सब बीवियों को तलाक़ दे दे तो अल्लाह उसे ऐसी बीवियाँ तुम्हारे बदले में प्रदान कर दे जो तुमसे अच्छी हों7, सच्ची मुसलमान, ईमानवाली, आज्ञाकारी, तौबा करनेवाली, इबादत करनेवाली और रोज़ेदार, चाहे विवाहिता हों या कुँवारियाँ हों।
7. इससे मालूम हुआ कि क़ुसूर सिर्फ़ हज़रत आइशा (रज़ि०) और हफ़सा (रज़ि०) ही का न था, बल्कि दूसरी पाक बीवियाँ भी कुछ न कुछ दोषी थीं, इसी लिए इन दोनों के बाद इस आयत में बाक़ी सब बीवियों को भी सचेत किया गया। हदीसों से मालूम होता है कि उस ज़माने में नबी (सल्ल०) बीवियों से इतना अप्रसन्न हो गए थे कि एक महीने तक आपने उनसे सम्बन्ध-विच्छेद किए रखा और सहाबा में यह मशहूर हो गया कि आपने उनको तलाक़ दे दी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ وَأَهۡلِيكُمۡ نَارٗا وَقُودُهَا ٱلنَّاسُ وَٱلۡحِجَارَةُ عَلَيۡهَا مَلَٰٓئِكَةٌ غِلَاظٞ شِدَادٞ لَّا يَعۡصُونَ ٱللَّهَ مَآ أَمَرَهُمۡ وَيَفۡعَلُونَ مَا يُؤۡمَرُونَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बचाओ अपने आपको और अपने घरवालों को उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर होंगे8, जिसपर कठोर स्वभाव के सख़्त पकड़ करनेवाले फ़रिश्ते नियुक्त होंगे, जो कभी अल्लाह के आदेश की अवहेलना नहीं करते और जो आदेश भी उन्हें दिया जाता है उसका पालन करते हैं।
8. यह आयत बताती है कि एक व्यक्ति की ज़िम्मेदारी केवल अपने-आप ही को अल्लाह के अज़ाब से बचाने की कोशिश तक सीमित नहीं है, बल्कि उसका काम यह भी है कि प्राकृतिक व्यवस्था ने जिस परिवार की अध्यक्षता का भार उसपर डाला है उसको भी अपने सामर्थ्य की हद तक ऐसी शिक्षा-दीक्षा दे जिससे वे अल्लाह के प्रिय इनसान बनें, और अगर वे जहन्नम के मार्ग पर जा रहे हो तो जहाँ तक उसके बस में हो उनको उससे रोकने का प्रयास करे। जहन्नम का ईंधन पत्थर होंगे से मुराद संभवतः पत्थर का कोयला है। इब्ने-मसऊद (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद (रह०), इमाम मुहम्मद अल-बाक़र (रह०) और सुद्दी (रह०) कहते हैं कि ये गन्धक के पत्थर होंगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَعۡتَذِرُواْ ٱلۡيَوۡمَۖ إِنَّمَا تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 6
(7) (उस समय कहा जाएगा) ऐ इनकार करनेवालो, आज उज़्र पेश न करो, तुम्हें तो वैसा ही बदला दिया जा रहा है जैसा तुम कर्म कर रहे थे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ تُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ تَوۡبَةٗ نَّصُوحًا عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يُكَفِّرَ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيُدۡخِلَكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ يَوۡمَ لَا يُخۡزِي ٱللَّهُ ٱلنَّبِيَّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥۖ نُورُهُمۡ يَسۡعَىٰ بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَبِأَيۡمَٰنِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَآ أَتۡمِمۡ لَنَا نُورَنَا وَٱغۡفِرۡ لَنَآۖ إِنَّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 7
(8) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से तौबा करो, विशुद्ध तौबा, असंभव नहीं कि अल्लाह तुम्हारी बुराइयाँ दूर कर दे और तुम्हें ऐसी जन्नतों में दाख़िल कर दे जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। यह वह दिन होगा जब अल्लाह अपने नबी को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए हैं रुसवा नहीं करेगा।9 उनका प्रकाश उनके आगे-आगे और उनके दाहिनी ओर दौड़ रहा होगा और वे कह रहे होंगे कि ऐ हमारे रब, हमारा प्रकाश हमारे लिए पूर्ण कर दे और हमें माफ़ कर, तुझे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
9. अर्थात् उनके अच्छे कर्मों का बदला नष्ट न करेगा। क़ाफ़िरों (इनकार करनेवालों) और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) को यह कहने का अवसर हरगिज़ न देगा कि इन लोगों ने अल्लाह की उपासना भी की तो इसका क्या बदला पाया। रुसवाई विद्रोहियों और अवज्ञाकारियों के हिस्से में आएगी न कि वफ़ादारों और आज्ञाकारियों के हिस्से में।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ جَٰهِدِ ٱلۡكُفَّارَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱغۡلُظۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 8
(9) ऐ नबी क़ाफ़िरों (इनकार करनेवालों) और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) से जिहाद (संघर्ष) करो और उनके साथ सख़्ती से पेश आओ। उनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱمۡرَأَتَ نُوحٖ وَٱمۡرَأَتَ لُوطٖۖ كَانَتَا تَحۡتَ عَبۡدَيۡنِ مِنۡ عِبَادِنَا صَٰلِحَيۡنِ فَخَانَتَاهُمَا فَلَمۡ يُغۡنِيَا عَنۡهُمَا مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَقِيلَ ٱدۡخُلَا ٱلنَّارَ مَعَ ٱلدَّٰخِلِينَ ۝ 9
(10) अल्लाह इनकार करनेवालों के मामले में नूह और लूत की बीवियों को मिसाल के तौर पर पेश करता है। वे हमारे दो नेक बन्दों के निकाह में थीं, मगर उन्होंने अपने उन शौहरों के साथ विश्वासघात किया10, और वे अल्लाह के मुक़ाबले में उनके कुछ भी न काम आ सके। दोनों से कह दिया गया कि जाओ आग में जाने वालों के साथ तुम भी चली जाओ।
10. यह विश्वासघात इस अर्थ में नहीं है कि उन्होंने व्यभिचार किया था, बल्कि इस अर्थ में कि उन्होंने ईमान की राह में हज़रत नूह (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) का साथ न दिया, बल्कि उनके मुक़ाबले में दौन के दुश्मनों का साथ देती रहीं।
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱمۡرَأَتَ فِرۡعَوۡنَ إِذۡ قَالَتۡ رَبِّ ٱبۡنِ لِي عِندَكَ بَيۡتٗا فِي ٱلۡجَنَّةِ وَنَجِّنِي مِن فِرۡعَوۡنَ وَعَمَلِهِۦ وَنَجِّنِي مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 10
(11) और ईमानवालों के मामले में अल्लाह फ़िरऔन की बीवी की मिसाल पेश करता है कि जबकि उसने प्रार्थना की, “ऐ मेरे रब! मेरे लिए अपने यहाँ जन्नत में एक घर बना दे और मुझे फ़िरऔन और उसके कर्म से बचा ले और मुझे ज़ालिम लोगों से छुटकारा दे।”
وَمَرۡيَمَ ٱبۡنَتَ عِمۡرَٰنَ ٱلَّتِيٓ أَحۡصَنَتۡ فَرۡجَهَا فَنَفَخۡنَا فِيهِ مِن رُّوحِنَا وَصَدَّقَتۡ بِكَلِمَٰتِ رَبِّهَا وَكُتُبِهِۦ وَكَانَتۡ مِنَ ٱلۡقَٰنِتِينَ ۝ 11
(12) और इमरान की बेटी मरयम11 की मिसाल देता है जिसने अपनी शर्मगाह (सतीत्व) की रक्षा की थी12, फिर हमने उसके अन्दर अपनी ओर से रूह (आत्मा) फूँक दी13, और उसने अपने रब के बयानों और उसकी किताबों की पुष्टि की और वह आज्ञाकारी लोगों में से थी।14
11. हो सकता है कि हज़रत मरयम के बाप ही का नाम इमरान हो या उनकी इमरान की बेटी इसलिए कहा गया हो कि वे इमरान के कुटुम्ब से थीं।
12. यह यहूदियों के इस आरोप का खण्डन है कि उनके पेट से हज़रत ईसा (अलैहि०) का जन्म (अल्लाह की पनाह) किसी पाप का परिणाम था। सूरा 4 (अन-निसा), आयत 156 में इन ज़ालिमों के इसी आरोप को बहुत बड़ी तोहमत बताया गया है।
13. अर्थात् बिना इसके कि उनका किसी मर्द से सम्बन्ध होता, उनके गर्भाश्य में अपनी ओर से एक जान डाल दी।
14. जिस उद्देश्य के लिए हज़रत मरयम को यहाँ मिसाल में पेश किया गया है वह यह है कि कुँवारेपन में उनको चमत्कार से गर्भवती करके अल्लाह ने उन्हें एक कठिन परीक्षा में डाल दिया था मगर उन्होंने सब के साथ अल्लाह की इच्छा के आगे सिर झुका दिया।