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سُورَةُ التَّوۡبَةِ

  1. अत-तौबा

(मदीना में उतरी – आयतें 129)

परिचय

नाम

यह सूरा दो नामों से मशहूर है। एक अत-तौबा, दूसरे अल-बराअत । तौबा इस दृष्टि से कि इसमें एक जगह कुछ ईमानवालों की ग़लतियों की माफ़ी का उल्लेख है और बराअत इस दृष्टि से कि इसके आरंभ में मुशरिकों (बहुदेववादियों) के प्रति उत्तरदायित्व से मुक्ति पाने का एलान है

'बिस्मिल्लाह' न लिखने का कारण

इस सूरा के आरंभ में 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम' नहीं लिखी जाती है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं नहीं लिखवाई थी।

उतरने का समय और सूरा के भाग

यह सूरा तीन व्याख्यानों पर सम्मिलित है-

पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 37 तक चलता है। इसके उतरने का समय ज़ी-क़ादा सन् 09 हि० या उसके लगभग है। नबी (सल्ल.) इस वर्ष हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को 'अमीरुल-हाज्ज' (हाजियों का अमीर) नियुक्त करके मक्का भेज चुके थे कि यह व्याख्यान उतरा और नबी (सल्ल०) ने तुरन्त हज़रत अली (रज़ि०) को उनके पीछे भेजा ताकि हज के अवसर पर तमाम अरब के प्रतिनिधि सम्मेलन में उसे सुनाएँ और उसके मुताबिक़ जो कार्य-नीति तय की गई थी, उसका एलान कर दें।

दूसरा व्याख्यान आयत 38 से आयत 22 तक चलता है और यह रजब सन् 09 हि० या इससे कुछ पहले उतरा, जबकि नबी (सल्ल०) तबूक की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। इसमें ईमानवालों को जिहाद पर उकसाया गया है और मुनाफ़िक़ों और कमज़ोर ईमानवालों की कठोरता के साथ निन्दा की गई है।

तीसरा व्याख्यान आयत 73 से आरंभ होकर सूरा के साथ समाप्त होता है और यह तबूक की लड़ाई से वापसी पर उतरा। इसमें मुनाफ़िक़ों की हरकतों पर चेतावनी, तबूक की लड़ाई से पीछे रह जानेवालों पर डाँट-फटकार और उन सच्चे ईमानवालों पर निन्दा के साथ क्षमा करने का एलान है, जो अपने ईमान में सच्चे तो थे, परन्तु अल्लाह की राह के जिहाद में भाग लेने से रुके रह गए थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस घटनाक्रम से इस सूरा के विषयों का संबंध है, उसकी शुरुआत हुदैबिया के समझौते से होती है। हुदैबिया तक अरब के लगभग एक तिहाई भाग में इस्लाम एक संगठित समाज का दीन (धर्म) और एक पूर्ण सत्ताधिकार प्राप्त राज्य का धर्म बन गया था। हुदैबिया का जब समझौता हुआ तो इस धर्म को यह अवसर भी प्राप्त हो गया कि अपने प्रभावों को कुछ अधिक सुख-शान्ति के वातावरण में चारों ओर फैला सके। इसके बाद घटनाओं की गति ने दो बड़े रास्ते अपनाए जिसके आगे चलकर बड़े महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। इनमें से एक का सम्बन्ध अरब से था और दूसरे का रोमी साम्राज्य से।

अरब पर अधिकार प्राप्ति

अरब में हुदैबिया के बाद प्रचार-प्रसार और शक्ति को दृढ़ बनाने के जो उपाय किए गए उनके कारण दो साल के भीतर ही इस्लाम का प्रभावक्षेत्र इतना व्यापक हो गया कि क़ुरैश के अधिक उत्साही तत्त्वों से रहा न गया और उन्होंने हुदैबिया के समझौते को तोड़ डाला। वे इस बंधन से मुक्त होकर इस्लाम से एक अन्तिम निर्णायक मुक़ाबला करना चाहते थे, लेकिन नबी (सल्ल०) ने उनके इस समझौते को भंग करने के बाद उनको संभलने का कोई अवसर न दिया और अचानक मक्का पर हमला करके रमज़ान सन् 08 हि० में उसे जीत लिया। इसके बाद पुरानी अज्ञानतापूर्ण व्यवस्था की अन्तिम ख़ूनी चाल हुनैन के मैदान में ली गई, लेकिन यह चाल भी विफल रही और हुनैन की पराजय के साथ अरब के भाग का पूर्ण निर्णय हो गया कि उसे अब 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनकर रहना है। इस घटना को हुए पूरा साल भी न हुआ कि अरब का बड़ा भाग इस्लाम के क्षेत्र में सम्मिलित हो गया।

तबूक की लड़ाई

रोमी साम्राज्य के साथ संघर्ष की शुरुआत मक्का-विजय से पहले ही हो चुकी थी। नबी (सल्ल०) ने हुदैबिया के बाद इस्लाम का सन्देश फैलाने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल अरब के विभिन्न भागों में भेजे थे, उनमें से एक उत्तर की ओर शाम (सीरिया) की सीमा से मिले [ईसाई] क़बीलों में [और एक बुसरा के ईसाई सरदार के पास भी गया था, लेकिन इन प्रतिनिधिमंडलों के अधिकतर आदमियों को क़त्ल कर दिया गया।] इन कारणों से नबी (सल्ल.) ने जुमादल-ऊला सन् 08 हि० में तीन हज़ार मुजाहिदीन की एक सेना शाम की सीमा की ओर भेजी, ताकि आगे के लिए यह क्षेत्र मुसलमानों के लिए शान्तिपूर्ण बन जाए। यह छोटी-सी सेना मौता नामी जगह पर शुरहबील की एक लाख सेना से जा टकराई। एक और 33 के इस मुक़ाबले में भी शत्रु मुसलमानों पर विजयी न हो सके। यही चीज़ थी जिसने शाम और उससे मिले क्षेत्रों में रहनेवाले अर्धस्वतंत्र अरबी क़बीलों को, बल्कि इराक़ के क़रीब रहनेवाले नज्दी कबीलों को भी जो किसरा के प्रभाव में थे, इस्लाम की ओर आकर्षित कर दिया और वे हज़ारों की संख्या में मुसलमान हो गए। दूसरे ही साल क़ैसर ने मुसलमानों को मौता की लड़ाई की सजा देने के लिए शाम की सीमा पर सैनिक तैयारियाँ शुरू कर दीं। नबी (सल्ल०) [को इसकी सूचना मिली तो] रजब सन् 09 हि० में तीस हज़ार मुजाहिदों के साथ शाम की ओर रवाना हो गए। तबूक पहुँचकर मालूम हुआ कि क़ैसर ने मुक़ाबले पर आने के बजाय अपनी सेनाएँ सीमा से हटा ली हैं। क़ैसर के यों टाल जाने से जो नैतिक विजय प्राप्त हुई उसको नबी (सल्ल०) ने इस मरहले पर काफ़ी समझा और बजाय इसके कि तबूक से आगे बढ़कर शाम की सीमा में प्रवेश करते, आपने इस बात को प्रमुखता दी कि इस विजय से अति संभव राजनैतिक व सामरिक लाभ प्राप्त कर लें। चुनांँचे आपने तबूक में 20 दिन ठहरकर उन बहुत-से छोटे-छोटे राज्यों को, जो रूमी साम्राज्य और 'दारुल इस्लाम' के बीच स्थित थे और अब तक रोमवासियों के प्रभाव में रहे थे, सैनिक दबाव से इस्लामी राज्य को लगान देनेवाला और अधीन बना लिया। फिर इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि रोमी साम्राज्य से एक लंबे संघर्ष में उलझ जाने से पहले इस्लाम को अरब पर अपनी पकड़ मज़बूत कर लेने का पूरा अवसर मिल गया।

समस्याएँ और वार्ताएँ

इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखने के बाद हम आसानी से उन बड़ी-बड़ी समस्याओं को समझ सकते हैं जो उस समय सामने थीं और जिन्हें सूरा तौबा में लिया गया है :

(1) अब चूँकि अरब का प्रबंध पूर्ण रूप से ईमानवालों के हाथ में आ गया था इसलिए वह नीति खुलकर सामने आ जानी चाहिए थी जो अरब को पूर्ण 'दारुल इस्लाम' बनाने के लिए अपनानी ज़रूरी थी। चुनांँचे वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की गई—

(अ) अरब से शिर्क (बहुदेववाद) को बिलकुल ही मिटा दिया जाए, ताकि इस्लाम का केन्द्र सदा के लिए विशुद्ध इस्लामी केन्द्र हो जाए। इसी उद्देश्य के लिए मुशरिकों (बहुदेववादियो) से छुटकारे और उनके साथ समझौतों के अन्त का एलान किया गया।

(ब) आदेश हुआ कि आगे काबा की देख-रेख भी तौहीद (एकेश्वरवाद) वालों के क़ब्ज़े में रहनी चाहिए और अल्लाह के घर की सीमाओं में शिर्क और अज्ञानता की तमाम रस्में भी बलपूर्वक बन्द कर देनी चाहिएँ, बल्कि अब मुशरिक इस घर के क़रीब फटकने भी न पाएँ ।

(इ) अरब के सांस्कृतिक जीवन में अज्ञानता की रस्मों की जो निशानियाँ अभी तक बाक़ी थीं, उनके उन्मूलन की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया। 'नसी' का नियम उन रस्मों में सबसे अधिक भौंडा नियम था इसलिए उसपर सीधे-सीधे चोट लगाई गई।

(2) अरब में इस्लाम का मिशन पूरा होने के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण जो सामने था, वह यह था कि अरब के बाहर सत्य-धर्म का प्रभाव क्षेत्र व्यापक बनाया जाए। इस सिलसिले में मुसलमानों को आदेश दिया गया कि अरब के बाहर जो लोग सत्य-धर्म का पालन करनेवाले नहीं हैं उनके स्वतंत्र प्रभुत्व को तलवार के बल पर समाप्त कर दो, यहाँ तक कि वह इस्लामी सत्ता के अधीन होकर रहना स्वीकार कर लें। जहाँ तक सत्य-धर्म पर ईमान लाने का संबंध है, उनको अधिकार है कि ईमान लाएँ या न लाएँ।

(3) तीसरी महत्त्वपूर्ण समस्या मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की थी जिनके साथ अब तक सामयिक निहितार्थ की दृष्टि से छोड़ देने और क्षमा कर देने का मामला किया जा रहा था अब आदेश दिया गया कि आगे उनके साथ कोई नर्मी न की जाए और वही कठोर बर्ताव इन छिपे हुए सत्य के इंकारियों के साथ भी हो जो खुले सत्य के इंकारियों के साथ होता है।

(4) सच्चे ईमानवालो में अब तक जो थोड़ी-बहुत इरादे की कमज़ोरी बाक़ी थी उसका इलाज भी अनिवार्य था। इसलिए जिन लोगों ने तबूक के अवसर पर सुस्ती और कमज़ोरी दिखाई थी उनकी घोर निन्दा की गई और आगे के लिए पूरी सफ़ाई के साथ यह बात स्पष्ट कर दी गई कि अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करने की जिद्दोजुहद और कुफ़्र (अधर्म) और इस्लाम का संघर्ष ही वह असली कसौटी है, जिसपर ईमानवालों के ईमान का दावा परखा जाएगा।

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سُورَةُ التَّوۡبَةِ
9. सूरा अत-तौबा
بَرَآءَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ
(1) सम्बन्ध-विच्छेद का एलान है1 अल्लाह और उसके रसूल की ओर से उन मुशरिकों (बहुदेववादियों) को जिनसे तुमने समझौते किए थे2।
1. ये आयतें आयत 37 तक सन् 9 हि० में उस समय उतरी थीं जब नबी (सल्ल०) हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) को हज के लिए भेज चुके थे। उनके पीछे जब ये आयतें उतरीं तो नबी (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०) को भेजा ताकि हाजियों के सामान्य जनसमूह में इन्हें सुनाएँ और निम्नांकित चार बातों की घोषणा कर दें (1) जन्नत (स्वर्ग) में कोई ऐसा व्यक्ति प्रवेश न पा सकेगा जो इस्लाम धर्म को स्वीकार करने से इनकार करे। (2) इस वर्ष के बाद कोई मुशरिक (बहुदेववादी) हज के लिए न आए। (3) काबा की परिक्रमा नंगे होकर करना वर्जित है। (4) जिन लोगों के साथ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का समझौता बाक़ी है अर्थात् जिन्होंने समझौते को भंग नहीं किया है उनके साथ समझौते की अवधि तक इसे निभाया जाएगा। नबी (सल्ल०) के इस आदेश के अनुसार हज़रत अली (रज़ि०) ने यह एलान 10 जिलहिज्जा को किया।
2. सूरा-8 (अनफ़ाल) आयत 58 में गुज़र चुका है कि जब तुम्हें किसी क़ौम से विश्वासघात (प्रतिज्ञा भंग) करने और ग़द्दारी की आशंका हो तो खुल्लम-खुल्ला उसका समझौता एवं संविदा उसकी ओर फेंक दो और उसे सावधान कर दो कि अब हमारा तुम्हारा कोई समझौता बाक़ी नहीं है। इसी नैतिक नियम के अनुसार समझौतों की मनसूख़ी की यह सामान्य घोषणा उन सभी क़बीलों के विरुद्ध की गई जो सन्धि और समझौते के होते हुए हमेशा इस्लाम के विरुद्ध साज़िशें करते रहे थे, और अवसर मिलते ही वचनबद्धता को ताक़ पर रखकर दुश्मनी पर उतर आते थे। इस घोषणा के बाद अरब के मुशरिकों के लिए इसके सिवा और कोई उपाय न रहा कि या तो लड़ने पर तैयार हो जाएँ और इस्लामी ताक़त से टकराकर मिट जाएँ, या देश छोड़कर निकल जाएँ, या फिर इस्लाम क़ुबूल करके अपने आपको और अपने इलाक़े को उस व्यवस्था को सौंप दें जो देश के अधिकांश भाग को पहले ही इस्लामी राज्य के अधीन कर चुकी थी।
فَسِيحُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ غَيۡرُ مُعۡجِزِي ٱللَّهِ وَأَنَّ ٱللَّهَ مُخۡزِي ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 1
(2) अत: तुम लोग देश में चार महीने और चल फिर लो और जान रखो कि तुम अल्लाह को विवश करनेवाले नहीं हो, और यह कि अल्लाह सत्य के इनकार करनेवालों को अपमानित करनेवाला है।
وَأَذَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦٓ إِلَى ٱلنَّاسِ يَوۡمَ ٱلۡحَجِّ ٱلۡأَكۡبَرِ أَنَّ ٱللَّهَ بَرِيٓءٞ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ وَرَسُولُهُۥۚ فَإِن تُبۡتُمۡ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ غَيۡرُ مُعۡجِزِي ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 2
(3) सार्वजनिक सूचना है अल्लाह और उसके रसूल की ओर से बड़े हज के दिन3 सब लोगों के लिए कि अल्लाह मुशरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी से बरी है और उसका रसूल भी। अब अगर तुम तौबा कर लो तो तुम्हारे ही लिए अच्छा है और जो मुँह फेरते हो तो ख़ूब समझ लो कि तुम अल्लाह को विवश करनेवाले नहीं हो। और ऐ नबी, इनकार करनेवालों को कठोर अज़ाब की ख़ुशख़बरी सुना दो,
إِلَّا ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّم مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ثُمَّ لَمۡ يَنقُصُوكُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَمۡ يُظَٰهِرُواْ عَلَيۡكُمۡ أَحَدٗا فَأَتِمُّوٓاْ إِلَيۡهِمۡ عَهۡدَهُمۡ إِلَىٰ مُدَّتِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 3
(4) सिवाय उन शिर्क करनेवालों के जिनसे तुमने सन्धि की फिर उन्होंने अपने प्रण को पूरा करने में तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुद्ध किसी की मदद की, तो ऐसे लोगों के साथ तुम भी सन्धि-अवधि तक वफ़ा करो। क्योंकि अल्लाह डर रखनेवालों ही को पसन्द करता है।
3. बड़ा हज (हज्जे-अकबर) छोटे हज (हज्जे-असग़र) के मुक़ाबले में है। अरबवाले 'उमरा' (काबा के दर्शन) को छोटा हज कहते थे। इसके मुक़ाबले में जो हज ज़िलहिज्जा को निश्चित तारीख़ों में होता है 'हज्जे-अकबर' यानी बड़ा हज कहलाता है।
فَإِذَا ٱنسَلَخَ ٱلۡأَشۡهُرُ ٱلۡحُرُمُ فَٱقۡتُلُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ حَيۡثُ وَجَدتُّمُوهُمۡ وَخُذُوهُمۡ وَٱحۡصُرُوهُمۡ وَٱقۡعُدُواْ لَهُمۡ كُلَّ مَرۡصَدٖۚ فَإِن تَابُواْ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ فَخَلُّواْ سَبِيلَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) अत: जब हराम (वर्जित) महीने4 बीत जाएँ तो मुशरिको (बहुदेववादियों) को क़त्ल करो जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो और हर घात में उनकी ख़बर लेने के लिए बैठो। फिर अगर वे तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो उन्हें छोड़ दो।5 अल्लाह क्षमाशील और दयावान् है।
4. यहाँ हराम महीनों से मुराद वे चार महीने हैं जिनकी मुशरिकों (बहुदेववादियों) को मुहलत दी गई थी, चूँकि इस मुहलत की अवधि में मुसलमानों के लिए जायज़ न था कि मुशरिकों (बहुदेववादियों) पर हमला करते इसलिए इन्हें हराम महीने कहा गया है।
5. अर्थात् सिर्फ़ कुफ़्र और शिर्क (बहुदेववाद) से तौबा कर लेने पर मामला समाप्त नहीं हो जाएगा बल्कि उन्हें नमाज़ क़ायम करनी और ज़कात देनी होगी अन्यथा यह नहीं माना जाएगा कि उन्होंने अधर्म (कुफ़्र) छोड़कर इस्लाम ग्रहण कर लिया है।
وَإِنۡ أَحَدٞ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ٱسۡتَجَارَكَ فَأَجِرۡهُ حَتَّىٰ يَسۡمَعَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ أَبۡلِغۡهُ مَأۡمَنَهُۥۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 5
(6) और अगर मुशरिकों (बहुदेववादियों) में से कोई व्यक्ति शरण माँगकर तुम्हारे पास आना चाहे (ताकि अल्लाह की वाणी सुने) तो उसे शरण दे दो यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले। फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान तक पहुँचा दो। यह इसलिए करना चाहिए कि ये लोग ज्ञान नहीं रखते।
كَيۡفَ يَكُونُ لِلۡمُشۡرِكِينَ عَهۡدٌ عِندَ ٱللَّهِ وَعِندَ رَسُولِهِۦٓ إِلَّا ٱلَّذِينَ عَٰهَدتُّمۡ عِندَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۖ فَمَا ٱسۡتَقَٰمُواْ لَكُمۡ فَٱسۡتَقِيمُواْ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 6
(7) इन मुशरिकों (बहुदेववादियों) के लिए अल्लाह और उसके रसूल के नज़दीक कोई संधि आख़िर कैसे हो सकती है? — सिवाय उन लोगों के जिनसे तुमने प्रतिष्ठित मसजिद के पास समझौता किया था,6 तो जब तक वे तुम्हारे साथ सीधे रहें तुम भी उनके साथ सीधे रहो क्योंकि अल्लाह डर रखनेवालों को पसन्द करता है।
6. अर्थात् बनी-किनाना और बनी-खुज़ाआ और बनी-ज़मरा।
كَيۡفَ وَإِن يَظۡهَرُواْ عَلَيۡكُمۡ لَا يَرۡقُبُواْ فِيكُمۡ إِلّٗا وَلَا ذِمَّةٗۚ يُرۡضُونَكُم بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَتَأۡبَىٰ قُلُوبُهُمۡ وَأَكۡثَرُهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 7
(8) — मगर उनके सिवा दूसरे मुशरिकों (बहुदेववादियों) के साथ कोई समझौता कैसे हो सकता है जबकि उनका हाल यह है कि तुमपर क़ाबू पा जाएँ तो न तुम्हारे मामले में किसी नाते-रिश्ते की परवाह करें न किसी समझौते की ज़िम्मेदारी की? वे अपनी ज़बानों से तुमको राज़ी करने की कोशिश करते हैं मगर दिल उनके इनकार करते हैं और उनमें से ज़्यादातर अवज्ञाकारी हैं।
ٱشۡتَرَوۡاْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلٗا فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِهِۦٓۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 8
(9) उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले थोड़ा-सा मूल्य स्वीकार कर लिया फिर अल्लाह के मार्ग में रोक बनकर खड़े हो गए। बहुत बुरी करतूत थी जो ये करते रहे।
لَا يَرۡقُبُونَ فِي مُؤۡمِنٍ إِلّٗا وَلَا ذِمَّةٗۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُعۡتَدُونَ ۝ 9
(10) किसी ईमानवाले (मोमिन) के मामले में न ये नाते-रिश्ते की परवाह करते हैं और न किसी समझौते की ज़िम्मेदारी की। और ज़्यादती हमेशा इन्हीं की ओर से हुई है।
فَإِن تَابُواْ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِۗ وَنُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 10
(11) अतः अगर ये तौबा कर लें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें तो तुम्हारे धर्म-सम्बन्धी (दीनी) भाई हैं7 और जाननेवालों के लिए हम अपने आदेश स्पष्ट किए देते हैं।
7. अर्थात् नमाज़ और ज़कात के बिना सिर्फ़ तौबा कर लेने से वे तुम्हारे धर्म-सम्बन्धी भाई नहीं बन जाएँगे। हाँ, अगर वे यह शर्त पूरी कर दें तो इसका परिणाम सिर्फ़ यहीं नहीं होगा कि तुम्हारे लिए उनपर हाथ उठाना और उनके जान-माल पर हाथ डालना हराम हो जाएगा, बल्कि अतिरिक्त लाभ यह भी होगा कि इस्लामी समाज में उनको समान अधिकार प्राप्त हो जाएँगे। सामाजिक, सांस्कृतिक और क़ानूनी हैसियत से वे तमाम दूसरे मुसलमानों की तरह होंगे, कोई भेद-भाव उनकी उन्नति की राह में रोक न होगा।
وَإِن نَّكَثُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُم مِّنۢ بَعۡدِ عَهۡدِهِمۡ وَطَعَنُواْ فِي دِينِكُمۡ فَقَٰتِلُوٓاْ أَئِمَّةَ ٱلۡكُفۡرِ إِنَّهُمۡ لَآ أَيۡمَٰنَ لَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَنتَهُونَ ۝ 11
(12) और अगर प्रतिज्ञा करने के बाद वे फिर अपनी क़समों को तोड़ डालें और तुम्हारे धर्म पर हमले करने शुरू कर दें तो कुफ़्र (अधर्म) के ध्वजावाहकों से युद्ध करो, क्योंकि उनकी क़समों का कोई भरोसा नहीं शायद कि (फिर तलवार ही के ज़ोर से) वे बाज़ आएँगे।8
8. यहाँ प्रतिज्ञा करने और क़समें खाने से मुराद मुस्लिम होने की प्रतिज्ञा करना और इस्लाम की वफ़ादारी की क़समें खाना है। मतलब यह है अगर ये लोग मुस्लिम हो जाने के बाद फिर कुफ़्र (अधर्म) की ओर पलट जाएँ तो इनसे युद्ध किया जाए। इसी आदेश के अनुसार हज़रत अबू बक्र (रज़ि०) ने धर्म से फिर जानेवालों के विरुद्ध युद्ध किया।
أَلَا تُقَٰتِلُونَ قَوۡمٗا نَّكَثُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ وَهَمُّواْ بِإِخۡرَاجِ ٱلرَّسُولِ وَهُم بَدَءُوكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٍۚ أَتَخۡشَوۡنَهُمۡۚ فَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَوۡهُ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 12
(13) क्या तुम न लड़ोगे ऐसे लोगों से जो अपनी प्रतिज्ञा भंग करते रहे हैं और जिन्होंने रसूल को देश से निकाल देने का निश्चय किया था और ज़्यादती का आरंभ करनेवाले वही थे? क्या तुम उनसे डरते हो? अगर तुम ईमानवाले हो तो अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि उससे डरो।
قَٰتِلُوهُمۡ يُعَذِّبۡهُمُ ٱللَّهُ بِأَيۡدِيكُمۡ وَيُخۡزِهِمۡ وَيَنصُرۡكُمۡ عَلَيۡهِمۡ وَيَشۡفِ صُدُورَ قَوۡمٖ مُّؤۡمِنِينَ ۝ 13
(14) उनसे लड़ो, अल्लाह तुम्हारे हाथों से उनको सज़ा दिलवाएगा और उन्हें अपमानित करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी मदद करेगा और बहुत-से ईमानवालों के दिल ठंडे करेगा
وَيُذۡهِبۡ غَيۡظَ قُلُوبِهِمۡۗ وَيَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 14
(15) और उनके दिलों की जलन मिटा देगा, और जिसे चाहेगा तौबा का सौभाग्य भी प्रदान करेगा9 अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है।
9. मुसलमान डर रहे थे कि यह घोषणा होते ही अरब के चारों तरफ़ आग भड़क उठेगी और हमें एक विनाशकारी युद्ध का सामना करना पड़ेगा। अल्लाह ने इन आयतों से सांत्वना दी कि तुम्हारी यह आशंका ग़लत है, परिणाम इसके विपरीत होगा।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تُتۡرَكُواْ وَلَمَّا يَعۡلَمِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ مِنكُمۡ وَلَمۡ يَتَّخِذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَا رَسُولِهِۦ وَلَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَلِيجَةٗۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यों ही छोड़ दिए जाओगे हालाँकि अभी अल्लाह ने यह तो देखा ही नहीं कि तुममें से कौन वे लोग हैं जिन्होंने (उसकी राह में) जान-तोड़ संघर्ष किया और अल्लाह और रसूल और ईमानवालों के सिवा किसी को जिगरी दोस्त न बनाया, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
مَا كَانَ لِلۡمُشۡرِكِينَ أَن يَعۡمُرُواْ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ شَٰهِدِينَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِم بِٱلۡكُفۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ وَفِي ٱلنَّارِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 16
(17) मुशरिकों (बहुदेववादियों) का यह काम नहीं है कि वे अल्लाह की मसजिदों के मुजाविर और उसके सेवक बनें जबकि अपने विरुद्ध वे ख़ुद कुफ़्र (अधर्म) की गवाही दे रहे हैं। उनका तो सारा किया-धरा अकारथ गया और जहन्नम में उन्हें हमेशा रहना है।
إِنَّمَا يَعۡمُرُ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَأَقَامَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَى ٱلزَّكَوٰةَ وَلَمۡ يَخۡشَ إِلَّا ٱللَّهَۖ فَعَسَىٰٓ أُوْلَٰٓئِكَ أَن يَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 17
(18) अल्लाह की मसजिदों के आबाद करनेवाले (मुजाविर और सेवक) तो वही लोग हो सकते हैं जो अल्लाह और अन्तिम दिन को मानें, और नमाज़ क़ायम करें, ज़कात दें, और अल्लाह के सिवा किसी से न डरें। उन्हीं से यह उम्मीद है कि सीधी राह चलेंगे।
۞أَجَعَلۡتُمۡ سِقَايَةَ ٱلۡحَآجِّ وَعِمَارَةَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ كَمَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَجَٰهَدَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ لَا يَسۡتَوُۥنَ عِندَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 18
(19) क्या तुम लोगों ने हाजियों को पानी पिलाने और प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) की मुजाविरी करने को उस व्यक्ति के काम के बराबर ठहरा लिया है जो ईमान लाया अल्लाह पर और अन्तिम दिन पर जिसने संघर्ष किया अल्लाह के मार्ग में?10 अल्लाह की नज़र में तो ये दोनों बराबर नहीं हैं और अल्लाह ज़ालिमों को राह पर नहीं लगाया करता।
10. इस आदेश से यह फ़ैसला कर दिया गया कि 'काबा' का सेवा कार्य और प्रबन्ध अधिकार अब मुशरिकों (बहुदेववादियों) के पास नहीं रह सकता। क़ुरैश के मुशरिक सिर्फ़ इस आधार पर इसके अधिकारी नहीं हो सकते हैं कि वे हाजियों को सेवा करते रहे हैं।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَهَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ أَعۡظَمُ دَرَجَةً عِندَ ٱللَّهِۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 19
(20) अल्लाह के यहाँ तो उन्हीं लोगों का पद बड़ा है जो ईमान लाए और जिन्होंने उसके मार्ग में घर-बार छोड़े और जान और माल से संघर्ष किया, वही सफल हैं।
يُبَشِّرُهُمۡ رَبُّهُم بِرَحۡمَةٖ مِّنۡهُ وَرِضۡوَٰنٖ وَجَنَّٰتٖ لَّهُمۡ فِيهَا نَعِيمٞ مُّقِيمٌ ۝ 20
(21) उनका रब उन्हें अपनी दयालुता और प्रसन्नता और ऐसी जन्नतों की ख़ुशख़बरी देता है जहाँ उनके लिए स्थायी आनन्द की सामग्री है।
خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 21
(22) उनमें वे हमेशा रहेंगे। यक़ीनन अल्लाह के पास सेवाओं का बदला देने को बहुत कुछ है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَابَآءَكُمۡ وَإِخۡوَٰنَكُمۡ أَوۡلِيَآءَ إِنِ ٱسۡتَحَبُّواْ ٱلۡكُفۡرَ عَلَى ٱلۡإِيمَٰنِۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 22
(23) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपने बापों और भाइयों को भी अपना साथी न बनाओ अगर वे ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र (अधर्म) को प्राथमिकता दें। तुममें से जो उनको साथी बनाएँगे वही ज़ालिम होंगे।
قُلۡ إِن كَانَ ءَابَآؤُكُمۡ وَأَبۡنَآؤُكُمۡ وَإِخۡوَٰنُكُمۡ وَأَزۡوَٰجُكُمۡ وَعَشِيرَتُكُمۡ وَأَمۡوَٰلٌ ٱقۡتَرَفۡتُمُوهَا وَتِجَٰرَةٞ تَخۡشَوۡنَ كَسَادَهَا وَمَسَٰكِنُ تَرۡضَوۡنَهَآ أَحَبَّ إِلَيۡكُم مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَجِهَادٖ فِي سَبِيلِهِۦ فَتَرَبَّصُواْ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ ٱللَّهُ بِأَمۡرِهِۦۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 23
(24) ऐ नबी कह दो कि अगर तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे, और तुम्हारे भाई और तुम्हारी पत्नियाँ और तुम्हारे नाते-रिश्तेवाले, और तुम्हारे वे माल जो तुमने कमाए हैं और तुम्हारे वे कारोबार जिनके मंदा पड़ जाने का तुमको डर है, और तुम्हारे वे घर जो तुम्हें पसन्द हैं तुमको अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में जिहाद (संघर्ष) करने से ज़्यादा प्रिय हैं तो इन्तिज़ार करो यहाँ तक कि अल्लाह अपना फ़ैसला तुम्हारे सामने ले आए, और अल्लाह अवज्ञाकारियों को मार्ग नहीं दिखाया करता।
لَقَدۡ نَصَرَكُمُ ٱللَّهُ فِي مَوَاطِنَ كَثِيرَةٖ وَيَوۡمَ حُنَيۡنٍ إِذۡ أَعۡجَبَتۡكُمۡ كَثۡرَتُكُمۡ فَلَمۡ تُغۡنِ عَنكُمۡ شَيۡـٔٗا وَضَاقَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ ثُمَّ وَلَّيۡتُم مُّدۡبِرِينَ ۝ 24
(25) अल्लाह इससे पहले बहुत से अवसरों पर तुम्हारी मदद कर चुका है। अभी हुनैन की लड़ाई के दिन (उसकी मदद की हालत तुम देख चुके हो)11 उस दिन तुम्हें ज़्यादा संख्या का गर्व था। मगर वह तुम्हारे कुछ काम न आई और ज़मीन अपनी विशालता के बावजूद तुमपर तंग हो गई और तुम पीठ फेरकर भाग निकले।
11. हुनैन की लड़ाई शव्वाल सन् 8 हि० में इन आयतों के उतरने से केवल बारह-तेरह महीने पहले मक्का और तायफ़ के बीच हुनैन की घाटी में हुई थी। इस लड़ाई में मुसलमानों की ओर से 12 हज़ार सेना थी और दूसरी ओर क़ाफ़िर (अधर्मी) उनसे बहुत कम थे। लेकिन इसके बावजूद हवाज़िन क़बीले के तीर चलानेवालों ने मुसलमानों का मुँह फेर दिया और इस्लामी सेना बुरी तरह तितर-बितर होकर परास्त हो गई। उस समय सिर्फ़ नबी (सल्ल०) और मुट्ठी भर वीर सहाबा थे जिनके क़दम अपनी जगह जमे रहे और उन्हीं के जमे रहने का परिणाम था कि पुनः सेना व्यवस्थित हो सकी और आख़िरकार विजय मुसलमानों को प्राप्त हुई। वरना मक्का की विजय से जो कुछ प्राप्त हुआ था उससे बहुत ज़्यादा हुनैन में खो देना पड़ता।
ثُمَّ أَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَنزَلَ جُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَا وَعَذَّبَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 25
(26) फिर अल्लाह ने अपनी 'सकीनत' (प्रशान्ति) अपने रसूल पर और ईमानवालों पर उतारी और वे सेनाएँ उतारीं जो तुमको दिखाई न देती थीं और सत्य का इनकार करनेवालों को सज़ा दी कि यही बदला है उन लोगों के लिए जो सत्य का इनकार करें।
ثُمَّ يَتُوبُ ٱللَّهُ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 26
(27) फिर (तुम यह भी देख चुके हो कि) इस तरह सज़ा देने के बाद अल्लाह जिसको चाहता है तौबा का सौभाग्य भी प्रदान कर देता है,12 अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।
12. संकेत है इस बात की ओर कि हुनैन की लड़ाई में जो काफ़िर (अधर्मी) परास्त हुए थे वे सब बाद में मुस्लिम हो गए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡمُشۡرِكُونَ نَجَسٞ فَلَا يَقۡرَبُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ بَعۡدَ عَامِهِمۡ هَٰذَاۚ وَإِنۡ خِفۡتُمۡ عَيۡلَةٗ فَسَوۡفَ يُغۡنِيكُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦٓ إِن شَآءَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 27
(28) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, मुशरिक (बहुदेववादी) नापाक हैं, अत: इस वर्ष के बाद ये प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) के पास न फटकने पाएँ13। और अगर तुम्हें तंगदस्ती का डर हो तो असंभव नहीं कि अल्लाह चाहे तो तुम्हें अपने अनुग्रह से धनी कर दे अल्लाह सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है।
13. अर्थात् आगे के लिए उनका हज और उनके लिए जियारत (दर्शन) ही बन्द नहीं बल्कि प्रतिष्ठित मसजिद (काबा) की सीमा में उनका प्रवेश भी वर्जित है।
قَٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ ٱلۡحَقِّ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حَتَّىٰ يُعۡطُواْ ٱلۡجِزۡيَةَ عَن يَدٖ وَهُمۡ صَٰغِرُونَ ۝ 28
(29) युद्ध करो किताबवालों में से उन लोगों के विरुद्ध जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान नहीं लाते और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम ठहराया है उसे हराम नहीं करते और सत्य धर्म को अपना धर्म नहीं बनाते। (उनसे लड़ो) यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या (रक्षा-कर) दें और छोटे बनकर रहें।14
14. अर्थात् लड़ाई का उद्देश्य यह नहीं है कि वे ईमान ले आएँ और सत्य धर्म के अनुयायी बन जाएँ। बल्कि उसका उद्देश्य यह है कि उनका शासन समाप्त हो जाए। वे ज़मीन में शासक और फ़रमान जारी करनेवाले बनकर न रहें, बल्कि ज़मीन की ज़िन्दगी के निज़ाम की बागडोर और शासन और नेतृत्व के अधिकार सत्य धर्म के अनुयायियों के हाथों में हों और किताबवाले उनके अधीन और आज्ञाकारी बनकर रहें। इसके बाद उनमें से जिसका जी चाहे वह ख़ुद अपनी मरज़ी से मुसलमान हो जाए वरना रक्षा कर (जिज़या) देता रहे। जिज़या बदल है उस शरण और सुरक्षा का जो अधीनों (ज़िम्मियों) को इस्लामी हुकूमत में प्रदान की जाती है। इसके अलावा वह चिह्न है इस बात का कि ये लोग अधीन बनकर रहने पर राज़ी हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ عُزَيۡرٌ ٱبۡنُ ٱللَّهِ وَقَالَتِ ٱلنَّصَٰرَى ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ ٱللَّهِۖ ذَٰلِكَ قَوۡلُهُم بِأَفۡوَٰهِهِمۡۖ يُضَٰهِـُٔونَ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَبۡلُۚ قَٰتَلَهُمُ ٱللَّهُۖ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 29
(30) यहूदी कहते हैं कि उज़ैर अल्लाह का बेटा है, और ईसाई कहते हैं कि मसीह अल्लाह का बेटा है। ये असत्य बातें हैं जो वे अपनी ज़बानों से निकालते हैं उन लोगों की देखा-देखी जो इनसे पहले कुफ़्र (अधर्म) में प्रस्त हुए थे। अल्लाह की मार इनपर, ये कहाँ से धोखा खा रहे हैं।
ٱتَّخَذُوٓاْ أَحۡبَارَهُمۡ وَرُهۡبَٰنَهُمۡ أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَمَآ أُمِرُوٓاْ إِلَّا لِيَعۡبُدُوٓاْ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗاۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ سُبۡحَٰنَهُۥ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 30
(31) इन्होंने अपने धर्मज्ञाताओं और दुनिया से विमुख संतों को अल्लाह के सिवा अपना रब बना लिया है15 और उसी तरह मसीह इब्ने-मरयम को भी। हालाँकि उनको एक पूज्य के सिवा किसी की बन्दगी करने का आदेश नहीं दिया गया था, वह जिसके सिवा कोई बन्दगी का अधिकारी नहीं, पाक है वह उन शिर्क (बहुदेववाद) सम्बन्धी बातों से जो ये लोग करते हैं।
15. हदीस में आता है कि हज़रत अदी-बिन-हातिम जो पहले ईसाई थे जब नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित होकर इस्लाम ग्रहण करने का श्रेय प्राप्त किया तो उन्होंने आपसे पूछा कि इस आयत में हमपर अपने धर्मज्ञाताओं और संतों को ख़ुदा बना लेने का जो आरोप लगाया गया है उसकी वास्तविकता क्या है। जवाब में नबी (सल्ल०) ने कहा, “क्या यह सत्य नहीं है कि जो कुछ ये हराम ठहराते हैं उसे तुम हराम मान लेते हो और जो कुछ ये हलाल ठहराते हैं उसे हलाल मान लेते हो?” उन्होंने कहा कि यह तो ज़रूर हम करते हैं। कहा, “बस यही इनको रब बना लेना है।” इससे मालूम हुआ कि अल्लाह की किताब के प्रमाण के बिना जो लोग इनसानी ज़िन्दगी के लिए वैध-अवैध की सीमाएँ निर्धारित करते हैं वे वास्तव में ख़ुदाई (प्रभुता) के पद पर अपने तौर पर स्वयं ही आसीन होते हैं और जो उनके इस विधान रचना का अधिकार स्वीकार करते हैं वे उन्हें ख़ुदा बनाते हैं।
إِنَّمَا ٱلنَّسِيٓءُ زِيَادَةٞ فِي ٱلۡكُفۡرِۖ يُضَلُّ بِهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يُحِلُّونَهُۥ عَامٗا وَيُحَرِّمُونَهُۥ عَامٗا لِّيُوَاطِـُٔواْ عِدَّةَ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُ فَيُحِلُّواْ مَا حَرَّمَ ٱللَّهُۚ زُيِّنَ لَهُمۡ سُوٓءُ أَعۡمَٰلِهِمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 31
(37) महीने का हटाना तो कुछ (अधर्म) में एक और अधर्मयुक्त कर्म है जिससे ये अधर्मी लोग गुमराही में ग्रस्त किए जाते हैं। किसी वर्ष एक महीने को हलाल कर लेते है और किसी वर्ष उसको हराम कर देते हैं, ताकि अल्लाह के हराम किए हुए महीनों की संख्या भी पूरी कर दें और अल्लाह का हराम ठहराया हुआ हलाल भी कर लें।19— उनके बुरे कर्म उनके लिए ख़ुशनुमा बना दिए गए हैं और अल्लाह सत्य का इनकार करनेवालों को राह पर नहीं लगाया करता।
19. अरब में महीने को हटाने की प्रथा दो तरह की थी। एक तो यह कि लड़ने-भिड़ने और लूटपाट करने और ख़ून का बदला लेने के लिए किसी हराम महीने को हलाल (वैध) ठहरा लेते थे और उसके बदले में किसी हलाल महोने को हराम करके महीनों की संख्या पूरी कर देते थे। दूसरे यह कि चन्द्र वर्ष को सौर वर्ष के अनुरूप करने के लिए उसमें लौंद का एक महीना बढ़ा देते थे, ताकि हज हमेशा एक ही मौसम में आता रहे और वे उन कष्टों से बच जाएँ जिनका सामना चन्द्रमा के हिसाब के अनुसार विभिन्न मौसमों में हज के गर्दिश करते रहने से करना पड़ता है। इस तरह 33 वर्ष तक हज अपने वास्तविक समय के विपरीत दूसरी तिथियों में होता रहता था और सिर्फ़ चौंतीसवें वर्ष एक बार वास्तविक ज़िलहिज्जा की 9-10 तारीख़ को अदा होता था। नबी (सल्ल०) ने जिस वर्ष हिज्जतुल-विदाअ (अंतिम हज) अदा किया है उस वर्ष हज अपनी वास्तविक तिथियों में आया था और उसी समय से महीने के हटाने का तरीक़ा वर्जित कर दिया गया।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَا لَكُمۡ إِذَا قِيلَ لَكُمُ ٱنفِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱثَّاقَلۡتُمۡ إِلَى ٱلۡأَرۡضِۚ أَرَضِيتُم بِٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِۚ فَمَا مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا قَلِيلٌ ۝ 32
(38) ऐ लोगो20 जो ईमान लाए हो, तुम्हें क्या हो गया कि जब तुमसे अल्लाह की राह में निकलने के लिए कहा गया तो तुम ज़मीन से चिमटकर रह गए? क्या तुमने आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया की ज़िन्दगी को पसन्द कर लिया? ऐसा है तो तुम्हें मालूम हो कि दुनिया की ज़िन्दगी की यह सब सामग्री परलोक (आख़िरत) में बहुत थोड़ी निकलेगी।
20. यहाँ से आयत न० 72 के अन्त तक की आयतें तबूक की मुहिम की तैयारी के समय में अवतरित हुई हैं।
إِلَّا تَنفِرُواْ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا وَيَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ وَلَا تَضُرُّوهُ شَيۡـٔٗاۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 33
(39) तुम न उठोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सज़ा देगा, और तुम्हारी जगह किसी और गिरोह को उठाएगा, और तुम अल्लाह का कुछ भी न बिगाड़ सकोगे, उसे हर चीज़़ की सामर्थ्य प्राप्त है।
إِلَّا تَنصُرُوهُ فَقَدۡ نَصَرَهُ ٱللَّهُ إِذۡ أَخۡرَجَهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ثَانِيَ ٱثۡنَيۡنِ إِذۡ هُمَا فِي ٱلۡغَارِ إِذۡ يَقُولُ لِصَٰحِبِهِۦ لَا تَحۡزَنۡ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَنَاۖ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَيۡهِ وَأَيَّدَهُۥ بِجُنُودٖ لَّمۡ تَرَوۡهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلسُّفۡلَىٰۗ وَكَلِمَةُ ٱللَّهِ هِيَ ٱلۡعُلۡيَاۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 34
(40) तुमने अगर नबी की मदद न की तो कुछ परवाह नहीं, अल्लाह उसकी मदद उस समय कर चुका है जब अधर्मियों ने उसे निकाल दिया था, जब वह सिर्फ़ दो में का दूसरा था, जब वे दोनों गुफा में थे, जब वह अपने साथी से कह रहा था कि “ग़म न कर, अल्लाह हमारे साथ है।”21 उस समय अल्लाह ने उसपर अपनी ओर से हृदय- शान्ति उतारी और उसकी मदद ऐसी सेनाओं से की जो तुम्हें दिखाई न देती थीं और अधर्मियों का बोल नीचा कर दिया और अल्लाह का बोल तो ऊँचा ही है, अल्लाह प्रभुत्वशाली और गहरी सूझ-बूझवाला है।
21. यह उस अवसर का उल्लेख है जब मक्का के अधर्मियों ने नबी (सल्ल०) की हत्या करने की ठान ली थी और आप ठीक उसी रात को जो हत्या के लिए नियत की गई थी, मक्का से निकलकर सौर नामक गुफा में तीन दिन तक छिपे रहे और फिर मदीना की ओर घर बार छोड़कर चले गए। उस समय गुफा में सिर्फ़ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) आपके साथ थे।
ٱنفِرُواْ خِفَافٗا وَثِقَالٗا وَجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 35
(41) निकलो चाहे हलके हो या बोझल, और संघर्ष (जिहाद) करो अल्लाह के मार्ग में अपने मालों और अपनी जानों के साथ, यह तुम्हारे लिए उत्तम है अगर तुम जानो।
لَوۡ كَانَ عَرَضٗا قَرِيبٗا وَسَفَرٗا قَاصِدٗا لَّٱتَّبَعُوكَ وَلَٰكِنۢ بَعُدَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلشُّقَّةُۚ وَسَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَوِ ٱسۡتَطَعۡنَا لَخَرَجۡنَا مَعَكُمۡ يُهۡلِكُونَ أَنفُسَهُمۡ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 36
(42) ऐ नबी, अगर लाभ सरलता से प्राप्त होनेवाला होता और सफ़र हलका होता तो वे ज़रूर तुम्हारे पीछे चलने को तैयार हो जाते, मगर उनपर तो यह रास्ता बहुत कठिन हो गया।22 अब वे अल्लाह की क़सम खा-खाकर कहेंगे कि अगर हम चल सकते तो यक़ीनन तुम्हारे साथ चलते। वे अपने आपको तबाही में डाल रहे हैं। अल्लाह ख़ूब जानता है कि वे झूठे हैं।
22. अर्थात् यह देखकर कि मुक़ाबला रूम जैसी शक्ति से है और समय भीषण गर्मी का है और देश में अकाल आया है और नए वर्ष की फ़सलें, जिनसे आस लगी हुई थी, कटने के क़रीब हैं, उनको तबूक का सफ़र बहुत हो कठिन लगने लगा।
عَفَا ٱللَّهُ عَنكَ لِمَ أَذِنتَ لَهُمۡ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكَ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْ وَتَعۡلَمَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 37
(43) ऐ नबी, अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, तुमने क्यों उन्हें छूट दे दी? (तुम्हें चाहिए था कि ख़ुद छूट न देते) ताकि तुमपर खुल जाता कि कौन लोग सच्चे हैं और झूठों को भी तुम जान लेते।
لَا يَسۡتَـٔۡذِنُكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ أَن يُجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 38
(44) जो लोग अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं वे तो कभी तुमसे यह माँग न करेंगे कि उन्हें अपनी जान और माल के साथ संघर्ष (जिहाद) करने से माफ़ रखा जाए। अल्लाह धर्मपरायण लोगों को ख़ूब जानता है।
إِنَّمَا يَسۡتَـٔۡذِنُكَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَٱرۡتَابَتۡ قُلُوبُهُمۡ فَهُمۡ فِي رَيۡبِهِمۡ يَتَرَدَّدُونَ ۝ 39
(45) ऐसी माँगें तो सिर्फ़ वहीं लोग करते हैं जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान नहीं रखते, जिनके दिलों में शक है और वे अपने शक ही में दुविधाग्रस्त हो रहे है।
۞وَلَوۡ أَرَادُواْ ٱلۡخُرُوجَ لَأَعَدُّواْ لَهُۥ عُدَّةٗ وَلَٰكِن كَرِهَ ٱللَّهُ ٱنۢبِعَاثَهُمۡ فَثَبَّطَهُمۡ وَقِيلَ ٱقۡعُدُواْ مَعَ ٱلۡقَٰعِدِينَ ۝ 40
(46) अगर वास्तव में उनका इरादा निकलने का होता तो वे इसके लिए कुछ तैयारी करते। लेकिन अल्लाह को उनका उठना पसन्द ही न था इसलिए उसने उन्हें सुस्त कर दिया और कह दिया गया कि बैठ रहो बैठनेवालों के साथ।
لَوۡ خَرَجُواْ فِيكُم مَّا زَادُوكُمۡ إِلَّا خَبَالٗا وَلَأَوۡضَعُواْ خِلَٰلَكُمۡ يَبۡغُونَكُمُ ٱلۡفِتۡنَةَ وَفِيكُمۡ سَمَّٰعُونَ لَهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 41
(47) अगर वे तुम्हारे साथ निकलते तो तुम्हारे अन्दर ख़राबी के सिवा किसी चीज़ की अभिवृद्धि न करते। वे तुम्हारे बीच उपद्रव मचाने के लिए दौड़-धूप करते, और तुम्हारे गिरोह का हाल यह है कि अभी उनमें बहुत से ऐसे लोग पाए जाते हैं जो उनकी बातें कान लगाकर सुनते हैं, अल्लाह इन ज़ालिमों को ख़ूब जानता है।
لَقَدِ ٱبۡتَغَوُاْ ٱلۡفِتۡنَةَ مِن قَبۡلُ وَقَلَّبُواْ لَكَ ٱلۡأُمُورَ حَتَّىٰ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَظَهَرَ أَمۡرُ ٱللَّهِ وَهُمۡ كَٰرِهُونَ ۝ 42
(48) इससे पहले भी उन लोगों ने फ़ितना उठाने की कोशिशें की हैं और तुम्हें नाकाम बनाने के लिए हर तरह के उपायों का उलट-फेर कर चुके हैं यहाँ तक कि उनकी इच्छा के विपरीत सत्य आ गया और अल्लाह का काम होकर रहा।
وَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ ٱئۡذَن لِّي وَلَا تَفۡتِنِّيٓۚ أَلَا فِي ٱلۡفِتۡنَةِ سَقَطُواْۗ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 43
(49) उनमें से कोई है जो कहता है कि “मुझे छुट्टी दे दीजिए और मुझको फ़ितने में न डालिए” — सुन रखो! फ़ितने ही में तो ये लोग पड़े हुए हैं और जहन्नम ने इन अधर्मियों को घेर रखा है।
إِن تُصِبۡكَ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡۖ وَإِن تُصِبۡكَ مُصِيبَةٞ يَقُولُواْ قَدۡ أَخَذۡنَآ أَمۡرَنَا مِن قَبۡلُ وَيَتَوَلَّواْ وَّهُمۡ فَرِحُونَ ۝ 44
(50) तुम्हारा भला होता है तो इन्हें दुख होता है और तुमपर कोई मुसीबत आती है तो ये मुँह फेरकर ख़ुश-ख़ुश पलटते हैं और कहते जाते हैं कि अच्छा हुआ हमने पहले ही अपना मामला ठीक कर लिया था।
قُل لَّن يُصِيبَنَآ إِلَّا مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَنَا هُوَ مَوۡلَىٰنَاۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 45
(51) उनसे कहो, “हमें हरगिज़ कोई (बुराई या भलाई) नहीं पहुँचती मगर वह जो अल्लाह ने हमारे लिए लिख दी है। अल्लाह ही हमारा संरक्षक- मित्र है, और ईमान वालों को उसी पर भरोसा करना चाहिए।"
قُلۡ هَلۡ تَرَبَّصُونَ بِنَآ إِلَّآ إِحۡدَى ٱلۡحُسۡنَيَيۡنِۖ وَنَحۡنُ نَتَرَبَّصُ بِكُمۡ أَن يُصِيبَكُمُ ٱللَّهُ بِعَذَابٖ مِّنۡ عِندِهِۦٓ أَوۡ بِأَيۡدِينَاۖ فَتَرَبَّصُوٓاْ إِنَّا مَعَكُم مُّتَرَبِّصُونَ ۝ 46
(52) उनसे कहो, “तुम हमारे मामले में जिस चीज़ की प्रतीक्षा में हो वह इसके सिवा और क्या23 है कि दो भलाइयों में से एक भलाई है और हम तुम्हारे मामले में जिस चीज़़ के इनतिज़ार में हैं वह यह है कि अल्लाह ख़ुद तुमको सज़ा देता है या हमारे हाथों दिलवाता है? अच्छा तो अब तुम भी इन्तिज़ार करो और हम भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करते हैं।"
23. अर्थात् अल्लाह के मार्ग में शहीद होना या इस्लाम की विजय।
قُلۡ أَنفِقُواْ طَوۡعًا أَوۡ كَرۡهٗا لَّن يُتَقَبَّلَ مِنكُمۡ إِنَّكُمۡ كُنتُمۡ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 47
(53) उनसे कहो, “तुम अपने माल चाहे राज़ी-ख़ुशी ख़र्च करो या अप्रियता के साथ किसी हालत में से क़ुबूल न किए जाएँगे क्योंकि तुम अवज्ञाकारी लोग हो।
وَمَا مَنَعَهُمۡ أَن تُقۡبَلَ مِنۡهُمۡ نَفَقَٰتُهُمۡ إِلَّآ أَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَبِرَسُولِهِۦ وَلَا يَأۡتُونَ ٱلصَّلَوٰةَ إِلَّا وَهُمۡ كُسَالَىٰ وَلَا يُنفِقُونَ إِلَّا وَهُمۡ كَٰرِهُونَ ۝ 48
(54) उनके दिए हुए माल क़ुबूल न होने का कोई कारण इसके सिवा नहीं है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ इनकार की नीति अपनाई है, नमाज़ के लिए आते हैं तो कसमसाते हुए आते हैं और अल्लाह के मार्ग में ख़र्च करते हैं तो अनिच्छापूर्वक ख़र्च करते हैं।
فَلَا تُعۡجِبۡكَ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُمۡۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُعَذِّبَهُم بِهَا فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَتَزۡهَقَ أَنفُسُهُمۡ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 49
(55) इनके माल और दौलत और इनकी औलाद की बहुलता को देखकर धोखा न खाओ, अल्लाह तो यह चाहता है कि इन्हीं चीज़़ों के द्वारा इनको दुनिया की ज़िन्दगी में भी अज़ाब में ग्रस्त करे और ये जान भी दें तो सत्य के इनकार ही की हालत में दें।
وَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنَّهُمۡ لَمِنكُمۡ وَمَا هُم مِّنكُمۡ وَلَٰكِنَّهُمۡ قَوۡمٞ يَفۡرَقُونَ ۝ 50
(56) वे अल्लाह की क़सम खा-खाकर कहते हैं कि हम तुम्ही में से हैं, जबकि ये हरगिज़ तुममें से नहीं हैं। वास्तव में तो वे ऐसे लोग है जो तुमसे डरे हुए हैं।
لَوۡ يَجِدُونَ مَلۡجَـًٔا أَوۡ مَغَٰرَٰتٍ أَوۡ مُدَّخَلٗا لَّوَلَّوۡاْ إِلَيۡهِ وَهُمۡ يَجۡمَحُونَ ۝ 51
(57) अगर वे कोई पनाह की जगह पा लें या कोई गुफा या घुस बैठने की जगह, तो भागकर उसमें जा छिपें।
وَمِنۡهُم مَّن يَلۡمِزُكَ فِي ٱلصَّدَقَٰتِ فَإِنۡ أُعۡطُواْ مِنۡهَا رَضُواْ وَإِن لَّمۡ يُعۡطَوۡاْ مِنۡهَآ إِذَا هُمۡ يَسۡخَطُونَ ۝ 52
(58) ऐ नबी, उनमें से कुछ लोग सदकों24 के वितरण में तुमपर एतिराज़ करते हैं, अगर उस माल में से उन्हें कुछ दे दिया जाए तो प्रसन्न हो जाएँ, और न दिया जाए तो बिगड़ने लगते हैं।
24. अर्थात् ज़कात (दान) के माल।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ رَضُواْ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَقَالُواْ حَسۡبُنَا ٱللَّهُ سَيُؤۡتِينَا ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ وَرَسُولُهُۥٓ إِنَّآ إِلَى ٱللَّهِ رَٰغِبُونَ ۝ 53
(59) क्या अच्छा होता कि अल्लाह और रसूल ने जो कुछ भी उन्हें दिया था उसपर वे राज़ी रहते और कहते कि “अल्लाह हमारे लिए काफ़ी है, वह अपने उदार अनुग्रह से हमें और बहुत कुछ देगा और उसका रसूल भी हमपर कृपा करेगा, हम अल्लाह ही की ओर नज़र जमाए हुए हैं।”
۞إِنَّمَا ٱلصَّدَقَٰتُ لِلۡفُقَرَآءِ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱلۡعَٰمِلِينَ عَلَيۡهَا وَٱلۡمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمۡ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَٱلۡغَٰرِمِينَ وَفِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۖ فَرِيضَةٗ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 54
(60) ये सदक़े तो वास्तव में फ़क़ीरों और मुहताजों के लिए हैं25 और उन लोगों के लिए जो सदक़ों के काम पर नियुक्त हों, और उनके लिए जिनका दिल मोहना (तालीफ़े-क़ल्ब) अभीष्ट हो।26 और यह गरदनों को छुड़ाने27 और क़र्जदारों की मदद करने में और अल्लाह के मार्ग में28 और मुसाफ़िरों की सहायता में29 इस्तेमाल करने के लिए है। यह एक अनिवार्य पालनीय आदेश है अल्लाह की ओर से और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और गहरी सूझ-बूझवाला है।
25. यहाँ फ़कीर शब्द इस्तेमाल हुआ है। फ़क़ीर से मुराद वह व्यक्ति है जो अपनी जीविका के लिए दूसरे की मदद पर निर्भर करता हो। और मिस्कीन (मुहताज) वे हैं जिनकी हालत आम ज़रूरतमंदों की अपेक्षा ज़्यादा कमज़ोर हो।
26. यहाँ 'तालीफ़े-क़ल्ब' के लिए ख़र्च करने का उल्लेख हुआ है। 'तालीफ़े-क़ल्ब' का अर्थ है दिल मोहना। इस आदेश का मक़सद यह है कि जो लोग इस्लाम की दुश्मनी में बहुत आगे हों और माल देकर उनके दुश्मनी के जोश को ठण्डा किया जा सकता हो, या जो लोग अधर्मियों के कैम्प में ऐसे हों कि अगर माल से उन्हें तोड़ा जाए तो टूटकर मुस्लिमों के सहायक बन सकते हों, या जो लोग नए-नए इस्लाम में दाख़िल हुए हैं और उनकी कमज़ोरियों को देखते हुए अंदेशा हो कि अगर माल से उनकी सहायता न की गई तो फिर कुफ़्र की ओर पलट जाएँगे, ऐसे लोगों को स्थायी रूप से वज़ीफ़े या तात्कालिक अनुदान देकर इस्लाम का हामी और मददगार या आज्ञाकारी या कम से कम अहानिकर दुश्मन बना लिया जाए।
27. गरदने छुड़ाने से मुराद ग़ुलामों को आज़ाद कराना है।
28. अल्लाह के मार्ग का शब्द व्यापक है। नेकी के वे सारे काम जिनमें अल्लाह की प्रसन्नता हो, इस शब्द के अर्थ में सम्मिलित हैं। धर्मज्ञाताओं के एक गिरोह ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि इस आदेश के अनुसार दान (ज़कात) का माल हर क़िस्म के नेक काम में लगाया जा सकता है, लेकिन बड़ी अकसरियत इस बात को मानती है कि यहाँ 'अल्लाह के मार्ग में' से मुराद अल्लाह के मार्ग में जिहाद (संघर्ष) है अर्थात् वह प्रयास और जानतोड़ कोशिश जिसका उद्देश्य कुफ़्र की व्यवस्था को मिटाना और उसके स्थान पर इस्लामी व्यवस्था को स्थापित करना हो। इस संघर्ष में जो लोग काम करें उनको सफ़र ख़र्च के लिए सवारी के लिए, अस्त्र-शस्त्र और हथियार और अन्य समाग्री जुटाने के लिए ज़कात (दान) से सहायता की जा सकती है चाहे वे अपनी जगह खाते-पीते लोग हों और अपनी ज़रूरतों के लिए उनको मदद की ज़रूरत न हो।
29. मुसाफिर चाहे अपने घर में धनवान् हो लेकिन सफ़र की हालत में अगर उसे सहायता की आवश्यकता हो जाए तो उसकी सहायता ज़कात के फ़ंड से की जाएगी।
وَمِنۡهُمُ ٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱلنَّبِيَّ وَيَقُولُونَ هُوَ أُذُنٞۚ قُلۡ أُذُنُ خَيۡرٖ لَّكُمۡ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَيُؤۡمِنُ لِلۡمُؤۡمِنِينَ وَرَحۡمَةٞ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ رَسُولَ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 55
(61) उनमें से कुछ लोग है जो अपनी बातों से नबी को दुख देते हैं और कहते हैं कि यह व्यक्ति तो कानों का कच्चा है। कहो, वह तुम्हारी भलाई के लिए ऐसा है, अल्लाह पर ईमान रखता है और ईमानवालों पर विश्वास करता है और सर्वथा दयालुता है उन लोगों के लिए जो तुममें से ईमानवाले हैं, और जो लोग अल्लाह के रसूल को दुख देते हैं उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।"
يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَكُمۡ لِيُرۡضُوكُمۡ وَٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ أَحَقُّ أَن يُرۡضُوهُ إِن كَانُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 56
(62) ये लोग तुम्हारे सामने क़समे खाते हैं ताकि तुम्हें राज़ी करें, हालाँकि अगर ये ईमानवाले हैं तो अल्लाह और रसूल इसके ज़्यादा हक़दार हैं कि ये उनको राज़ी करने की चिन्ता करें।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّهُۥ مَن يُحَادِدِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَأَنَّ لَهُۥ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدٗا فِيهَاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡخِزۡيُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 57
(63) क्या इन्हें मालूम नहीं है कि जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करता है, उसके लिए दोज़ख़ की आग है जिसमें वह हमेशा रहेगा? यह बहुत बड़ी रुसवाई है।
يَحۡذَرُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ أَن تُنَزَّلَ عَلَيۡهِمۡ سُورَةٞ تُنَبِّئُهُم بِمَا فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلِ ٱسۡتَهۡزِءُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ مُخۡرِجٞ مَّا تَحۡذَرُونَ ۝ 58
(64) ये मिथ्याचारी (मुनाफ़िक़) डर रहे हैं कि कहीं मुसलमानों पर कोई ऐसी सूरा अवतरित न हो जाए जो उनके दिलों के भेद खोलकर रख दे। ऐ नबी, उनसे कहो, “और हँसी उड़ाओ, अल्लाह उस चीज़ को खोल देनेवाला है जिसके खुल जाने से तुम डरते हो।”
وَلَئِن سَأَلۡتَهُمۡ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلۡعَبُۚ قُلۡ أَبِٱللَّهِ وَءَايَٰتِهِۦ وَرَسُولِهِۦ كُنتُمۡ تَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 59
(65) अगर उनसे पूछो कि तुम क्या बातें कर रहे थे, तो झट कह देंगे कि हम तो हँसी-मज़ाक़ और दिललगी कर रहे थे।30 उनसे कहो, “क्या तुम्हारी हँसी-दिललगी अल्लाह और उसकी आयतों और उसके रसूल ही के साथ थी?
30. तबूक की मुहिम के समय में मिथ्याचारी (मुनाफ़िक़) बहुधा अपनी बैठकों में बैठकर नबी (सल्ल०) और मुसलमानों का मज़ाक़ उड़ाते थे और अपनी हँसी और मज़ाक़ से उन लोगों की हिम्मतें पस्त करने की कोशिश करते थे जिन्हें वे सच्चे हृदय से जिहाद (सत्य के लिए लड़ने और जान तोड़ कोशिश करने) के लिए तैयार पाते। अतएव रिवायतों में उनके बहुत-से कथनों के उल्लेख हुए हैं। उदाहरणार्थ एक महफ़िल में कुछ मुनाफ़िक़ बैठे गप लड़ा रहे थे। एक ने कहा, “अजी क्या रूमियों को भी तुमने कुछ अरबों की तरह समझ रखा है? कल देख लेना, ये सब सूरमा जो लड़ने के लिए पधारे हैं रस्सियों में बंधे हुए होंगे।” दूसरा बोला “मज़ा हो जो ऊपर से सौ-सौ कोड़े लगाने का आदेश हो जाए।” एक और मुनाफ़िक़ ने नबी (सल्ल०) को युद्ध की तैयारियाँ तेज़ करते देखकर अपने यार-दोस्तों से कहा, “आपको देखिए, आप रूम और सीरिया के क़िलों पर विजय पाने चले हैं।"
لَا تَعۡتَذِرُواْ قَدۡ كَفَرۡتُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡۚ إِن نَّعۡفُ عَن طَآئِفَةٖ مِّنكُمۡ نُعَذِّبۡ طَآئِفَةَۢ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 60
(66) अब बहाने मत गढ़ो। तुमने ईमान लाने के बाद कुफ़्र किया है। अगर हमने तुममें से एक गिरोह को माफ़ कर भी दिया तो दूसरे गिरोह को तो हम ज़रूर सज़ा देंगे क्योंकि वह अपराधी है।"
ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتُ بَعۡضُهُم مِّنۢ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمُنكَرِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَقۡبِضُونَ أَيۡدِيَهُمۡۚ نَسُواْ ٱللَّهَ فَنَسِيَهُمۡۚ إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 61
(67) मिथ्याचारी (मुनाफ़िक़) मर्द और मिथ्याचारिणी औरतें सब एक-दूसरे जैसे हैं। बुराई का आदेश देते है और भलाई से रोकते हैं और अपने हाथ भलाई से रोके रखते हैं। ये अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने भी इन्हें भुला दिया। यक़ीनन ये मिथ्याचारी ही अवज्ञाकारी हैं।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ هِيَ حَسۡبُهُمۡۚ وَلَعَنَهُمُ ٱللَّهُۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 62
(68) इन मिथ्याचारी मर्दों और मिथ्याचारिणी औरतों और अधर्मियों के लिए अल्लाह ने दोज़ख़ की आग का वादा किया है जिसमें वे हमेशा रहेंगे. वही इनके लिए मुनासिब है। इनपर अल्लाह की फिटकार है और इनके लिए क़ायम रहनेवाला अज़ाब है—
كَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنكُمۡ قُوَّةٗ وَأَكۡثَرَ أَمۡوَٰلٗا وَأَوۡلَٰدٗا فَٱسۡتَمۡتَعُواْ بِخَلَٰقِهِمۡ فَٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِخَلَٰقِكُمۡ كَمَا ٱسۡتَمۡتَعَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُم بِخَلَٰقِهِمۡ وَخُضۡتُمۡ كَٱلَّذِي خَاضُوٓاْۚ أُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 63
(69) तुम लोगों के रंग-ढंग वही हैं जो तुम्हारे पहले के लोगों के थे। वे तुमसे ज़्यादा शक्ति संपन्न और तुमसे बढ़कर माल और औलादवाले थे। फिर उन्होंने दुनिया में अपने हिस्से के मज़े लूट लिए और तुमने भी अपने हिस्से के मज़े उसी तरह लूटे जैसे उन्होंने लूटे थे, और वैसे ही वाद-विवादों में तुम भी पड़े जैसे वाद-विवादों में वे पड़े थे, सो उनका अंजाम यह हुआ कि दुनिया और आख़िरत में उनका सब किया-धरा अकारथ हो गया और वही घाटे में हैं।
أَلَمۡ يَأۡتِهِمۡ نَبَأُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَوۡمِ نُوحٖ وَعَادٖ وَثَمُودَ وَقَوۡمِ إِبۡرَٰهِيمَ وَأَصۡحَٰبِ مَدۡيَنَ وَٱلۡمُؤۡتَفِكَٰتِۚ أَتَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 64
(70) — क्या इन लोगों को अपने से पहले लोगों का इतिहास नहीं पहुँचा, नूह की क़ौम आद, समूद, इबराहीम की क़ौम मदयन के लोग और वे बस्तियों जिन्हें उलट दिया गया।31 उनके रसूल उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आए, फिर यह अल्लाह का काम न था कि उनपर ज़ुल्म करता मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म करनेवाले थे।
31. अर्थात् लूत की क़ौम की बस्तियाँ जिन्हें तलपट करके रख दिया गया था।
وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَيُطِيعُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ سَيَرۡحَمُهُمُ ٱللَّهُۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 65
(71) ईमानवाले मर्द और ईमानवाली औरतें, ये सब एक-दूसरे के साथी हैं, भलाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करते हैं। ये वे लोग हैं जिनपर अल्लाह की दयालुता उतर कर रहेगी, यक़ीनन अल्लाह को सबपर प्रभुत्व प्राप्त है और वह तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञ है।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَمَسَٰكِنَ طَيِّبَةٗ فِي جَنَّٰتِ عَدۡنٖۚ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِ أَكۡبَرُۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 66
(72) इन ईमानवाले मर्दों और ईमानवाली औरतों से अल्लाह का वादा है कि उन्हें ऐसे बाग़ देगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें हमेशा रहेंगे उन सदाबहार बाग़ों में उनके लिए पाकीज़ा ठहरने जगहें होंगी, और सबसे बढ़कर यह कि अल्लाह की प्रसन्नता उन्हें प्राप्त होगी। यही बड़ी सफलता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ جَٰهِدِ ٱلۡكُفَّارَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱغۡلُظۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 67
(73) ऐ नबी,32 अधर्मियों (क़ाफ़िरों) और मिथ्याचारियों (मुनाफ़िक़ों) दोनों का पूरी शक्ति से मुक़ाबला करो और उनके साथ कठोरता से निपटो। आख़िरकार इनका ठिकाना जहन्नम है और वह अत्यन्त बुरी ठहरने की जगह है।
32. यहाँ से वे आयतें शुरू होती हैं जो तबूक की मुहिम के बाद उतरी थीं।
يَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ مَا قَالُواْ وَلَقَدۡ قَالُواْ كَلِمَةَ ٱلۡكُفۡرِ وَكَفَرُواْ بَعۡدَ إِسۡلَٰمِهِمۡ وَهَمُّواْ بِمَا لَمۡ يَنَالُواْۚ وَمَا نَقَمُوٓاْ إِلَّآ أَنۡ أَغۡنَىٰهُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ مِن فَضۡلِهِۦۚ فَإِن يَتُوبُواْ يَكُ خَيۡرٗا لَّهُمۡۖ وَإِن يَتَوَلَّوۡاْ يُعَذِّبۡهُمُ ٱللَّهُ عَذَابًا أَلِيمٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَمَا لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 68
(74) ये लोग अल्लाह की क़सम खा-खाकर कहते हैं कि हमने वह बात नहीं कहीं, हालाँकि उन्होंने ज़रूर ही वह कुफ़्र (अधार्मिकता) की बात कही है।33 उन्होने इस्लाम धारण करने के बाद कुफ़्र किया और उन्होंने वह कुछ करने का इरादा किया जिसे कर न सके।34 यह उनका सारा ग़ुस्सा इसी बात पर है ना कि अल्लाह और उसके रसूल ने अपने उदार अनुग्रह से उनको धनी बना दिया है! अब अगर ये अपनी इस नीति से बाज़ आएँ तो इन्हीं के लिए उत्तम है, और अगर ये बाज न आएँ तो अल्लाह उनको बड़ी ही दर्दनाक सज़ा देगा, दुनिया में भी और आख़िरत में भी, और ज़मीन में कोई नहीं जो इनका हिमायती और मददगार हो।
33. वह बात क्या थी जिसकी ओर यहाँ संकेत किया गया है, इसके बारे में कोई निश्चित जानकारी हम तक नहीं पहुँची है, अलबत्ता रिवायतों में बहुत सारी ऐसी अधार्मिकता की बातों का उल्लेख मिलता है जो उस समय में मुनाफ़िक़ों ने की थीं। उदाहरणार्थ एक मुनाफ़िक़ ने एक नवयुवक मुस्लिम से बातचीत करते हुए कहा कि “अगर वास्तव में वह सब कुछ सत्य है जो यह व्यक्ति (अर्थात् नबी सल्ल०) पेश करता है तो हम सब गधों से भी बुरे हैं।” एक और रिवायत में है कि तबूक की यात्रा में एक जगह नबी (सल्ल०) की ऊँटनी गुम हो गई। उस समय मुनाफ़िक़ों के एक गिरोह ने अपनी मजलिस में बैठकर ख़ूब मज़ाक उड़ाया और आपस में कहा कि “ये हज़रत आसमान की ख़बरें तो सुनाते हैं मगर इनको अपनी ऊँटनी की कुछ ख़बर नहीं कि वह इस समय कहाँ है?"
34. यह इशारा है उन साज़िशों की ओर जो मुनाफ़िक़ों ने तबूक की मुहिम के समय में कीं। एक अवसर पर उन्होंने यह योजना बनाई कि रात के समय सफ़र में नबी (सल्ल०) को किसी खड्ड में फेंक दें। उन्होंने आपस में यह भी तय कर लिया था कि अगर तबूक में मुसलमान पराजित हों तो तुरन्त मदीना में अब्दुल्लाह-बिन-उबई के सिर पर राजमुकुट रख दिया जाए।
۞وَمِنۡهُم مَّنۡ عَٰهَدَ ٱللَّهَ لَئِنۡ ءَاتَىٰنَا مِن فَضۡلِهِۦ لَنَصَّدَّقَنَّ وَلَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 69
(75) उनमें से कुछ ऐसे भी है जिन्होंने अल्लाह से वादा किया था कि अगर उसने अपना अनुग्रह हमें प्रदान किया तो हम दान देंगे और अच्छे बनकर रहेंगे।
فَلَمَّآ ءَاتَىٰهُم مِّن فَضۡلِهِۦ بَخِلُواْ بِهِۦ وَتَوَلَّواْ وَّهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 70
(76) मगर जब अल्लाह ने उन्हें अपनी कृपा से धनवान कर दिया तो ये कंजूसी पर उतर आए और अपनी प्रतिज्ञा से ऐसे फिरे कि उन्हें इसकी परवाह तक नहीं है।
فَأَعۡقَبَهُمۡ نِفَاقٗا فِي قُلُوبِهِمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ يَلۡقَوۡنَهُۥ بِمَآ أَخۡلَفُواْ ٱللَّهَ مَا وَعَدُوهُ وَبِمَا كَانُواْ يَكۡذِبُونَ ۝ 71
(77) परिणाम यह हुआ कि उनकी इस वादाख़िलाफ़ी के कारण जो उन्होंने अल्लाह के साथ की, और उस झूठ के कारण जो वे बोलते रहे, अल्लाह ने उनके दिलों में मिथ्याचार (निफ़ाक़) बिठा दिया जो उसके सामने उनके उपस्थित किए जाने के दिन तक उनका पीछा न छोड़ेगा।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ سِرَّهُمۡ وَنَجۡوَىٰهُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 72
(78) क्या ये लोग जानते नहीं कि अल्लाह उनके छिपे भेद और उनकी छिपी कानाफूसियों तक को जानता है और वह सभी परोक्ष की बातों से पूरी तरह परिचित है?
ٱلَّذِينَ يَلۡمِزُونَ ٱلۡمُطَّوِّعِينَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فِي ٱلصَّدَقَٰتِ وَٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهۡدَهُمۡ فَيَسۡخَرُونَ مِنۡهُمۡ سَخِرَ ٱللَّهُ مِنۡهُمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 73
(79) (वह ख़ूब जानता है उन कंजूस धनवानों को जो स्वेच्छापूर्वक देनेवाले ईमान वालों की माली क़ुरबानियों पर बाते छाँटते हैं और उन लोगों की हँसी उड़ाते हैं जिनके पास (अल्लाह के मार्ग में देने के लिए) उसके सिवा कुछ नहीं है जो वे अपने ऊपर मशक़्क़त सहकर देते हैं। अल्लाह इन हँसी उड़ानेवालों की हँसी उड़ाता है और इनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
ٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ أَوۡ لَا تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ إِن تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ سَبۡعِينَ مَرَّةٗ فَلَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 74
(80) ऐ नबी, तुम चाहे ऐसे लोगों के लिए माफ़ी की प्रार्थना करो या न करो, अगर तुम सत्तर बार भी उन्हें माफ़ कर देने की दरख़ास्त करोगे तो अल्लाह उन्हें हरगिज़ माफ़ न करेगा, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ इनकार की नीति अपनाई है, और अल्लाह अवज्ञाकारी (फ़ासिक़) लोगों को छुटकारे की राह नहीं दिखाता।
فَرِحَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ بِمَقۡعَدِهِمۡ خِلَٰفَ رَسُولِ ٱللَّهِ وَكَرِهُوٓاْ أَن يُجَٰهِدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَقَالُواْ لَا تَنفِرُواْ فِي ٱلۡحَرِّۗ قُلۡ نَارُ جَهَنَّمَ أَشَدُّ حَرّٗاۚ لَّوۡ كَانُواْ يَفۡقَهُونَ ۝ 75
(81) जिन लोगों को पीछे रह जाने की इजाज़त दे दी गई थी वे अल्लाह के रसूल का साथ न देने और घर बैठे रहने पर ख़ुश हुए और उन्हें गवारा न हुआ कि अल्लाह के मार्ग में जान और माल से संघर्ष करें। उन्होंने लोगों से कहा कि “इस सख़्त गर्मी में न निकलो।” इनसे कहो कि जहन्नम की आग इससे ज़्यादा गर्म है, कैसा अच्छा होता कि ये इसे जान पाते।
فَلۡيَضۡحَكُواْ قَلِيلٗا وَلۡيَبۡكُواْ كَثِيرٗا جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 76
(82) अब चाहिए कि ये लोग हँसना कम करें और रोएँ ज़्यादा इसलिए कि जो बुराई ये कमाते रहे हैं उसकी मज़दूरी ऐसी ही है (कि उन्हें उसपर रोना चाहिए)।
فَإِن رَّجَعَكَ ٱللَّهُ إِلَىٰ طَآئِفَةٖ مِّنۡهُمۡ فَٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِلۡخُرُوجِ فَقُل لَّن تَخۡرُجُواْ مَعِيَ أَبَدٗا وَلَن تُقَٰتِلُواْ مَعِيَ عَدُوًّاۖ إِنَّكُمۡ رَضِيتُم بِٱلۡقُعُودِ أَوَّلَ مَرَّةٖ فَٱقۡعُدُواْ مَعَ ٱلۡخَٰلِفِينَ ۝ 77
(83) अगर अल्लाह उनके बीच तुम्हें वापस ले जाए और भविष्य में इनमें से कोई गिरोह संघर्ष (जिहाद) के लिए निकलने की तुमसे इजाज़त माँगे तो साफ़ कह देना : “अब तुम मेरे साथ हरगिज़ नहीं चल सकते और न मेरे साथ किसी दुश्मन से लड़ सकते हो, तुमने पहले बैठ रहने को पसन्द किया था तो अब घर बैठनेवालों ही के साथ बैठे रहो।
وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰٓ أَحَدٖ مِّنۡهُم مَّاتَ أَبَدٗا وَلَا تَقُمۡ عَلَىٰ قَبۡرِهِۦٓۖ إِنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَمَاتُواْ وَهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 78
(84) और आगे उनमें से जो कोई मरे उसकी जनाज़े की नमाज़ भी तुम हरगिज़ न पढ़ना और न कभी उसकी क़ब्र पर खड़े होना, क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ इनकार की नीति अपनाई है और वे मरे हैं इस हाल में कि वे अवज्ञाकारी थे।
وَلَا تُعۡجِبۡكَ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَأَوۡلَٰدُهُمۡۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُعَذِّبَهُم بِهَا فِي ٱلدُّنۡيَا وَتَزۡهَقَ أَنفُسُهُمۡ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 79
(85) उनको मालदारी और उनकी औलाद की बहुलता तुमको धोखे में न डाले। अल्लाह ने तो इरादा कर लिया है कि इस माल और औलाद के द्वारा उनको इसी दुनिया में सज़ा दे और उनकी जानें इस हाल में निकलें कि वे अधर्मी हो।
وَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٌ أَنۡ ءَامِنُواْ بِٱللَّهِ وَجَٰهِدُواْ مَعَ رَسُولِهِ ٱسۡتَـٔۡذَنَكَ أُوْلُواْ ٱلطَّوۡلِ مِنۡهُمۡ وَقَالُواْ ذَرۡنَا نَكُن مَّعَ ٱلۡقَٰعِدِينَ ۝ 80
(86) जब कभी कोई सूरा इस विषय की उतरी कि अल्लाह को मानो और उसके रसूल के साथ मिलकर संघर्ष (जिहाद) करो तो तुमने देखा कि जो लोग उनमें से सामर्थ्यवान् थे वही तुमसे प्रार्थना करने लगे कि उन्हें जिहाद में सम्मिलित होने से माफ़ रखा जाए और उन्होंने कहा कि हमें छोड़ दीजिए कि हम बैठनेवालों के साथ रहें।
رَضُواْ بِأَن يَكُونُواْ مَعَ ٱلۡخَوَالِفِ وَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 81
(87) उन लोगों ने घर बैठनेवालियों में शामिल होना पसन्द किया और उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया गया, इसलिए उनकी समझ में अब कुछ नहीं आता।
لَٰكِنِ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ جَٰهَدُواْ بِأَمۡوَٰلِهِمۡ وَأَنفُسِهِمۡۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلۡخَيۡرَٰتُۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 82
(88) इसके विपरीत रसूल ने और उन लोगों ने जो रसूल के साथ ईमान लाए थे अपनी जान और माल से जिहाद किया और अब सारी भलाइयाँ उन्हीं के लिए हैं और वही सफलता प्राप्त करनेवाले हैं।
أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 83
(89) अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं उनमें वे हमेशा रहेंगे। यह है उच्च श्रेणी की सफलता।
وَجَآءَ ٱلۡمُعَذِّرُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ لِيُؤۡذَنَ لَهُمۡ وَقَعَدَ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ سَيُصِيبُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 84
(90) बद्दू अरबों में से भी बहुत-से लोग आए जिन्होंने बहाने किए, ताकि उन्हें भी पीछे रह जाने की अनुमति दी जाए। इस तरह बैठ रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से ईमान का झूठा इक़रार किया था। इन बद्दुओं में से जिन लोगों ने कुफ़्र की नीति अपनाई है जल्द ही उन्हें दर्दनाक सज़ा पहुँचेगी।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلضُّعَفَآءِ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرۡضَىٰ وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ مَا يُنفِقُونَ حَرَجٌ إِذَا نَصَحُواْ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ مَا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ مِن سَبِيلٖۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 85
(91) कमज़ोर, बूढ़े और बीमार लोग और वे लोग जो जिहाद में सम्मिलित होने के लिए पाथेय (राह-ख़र्च) नहीं पाते, अगर पीछे रह जाएँ तो कोई हरज नहीं जब कि वे निष्ठापूर्वक अल्लाह और उसके रसूल के वफ़ादार हों।35 ऐसे कम लोगों पर एतिराज़ की कोई गुंजाइश नहीं है, और अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।
35. इससे मालूम हुआ कि जो लोग देखने में मज़बूर हों उनके लिए भी सिर्फ़ कमज़ोरी और बीमारी या महज़ निर्धनता पूरे तौर पर माफ़ी का कारण नहीं है, बल्कि उनकी ये मजबूरियाँ सिर्फ़ उस रूप में उनके लिए माफ़ी का कारण हो सकती हैं जबकि वे अल्लाह और उसके रसूल के सच्चे वफादार हों, वरना अगर वफ़ादारी न पाई जाती हो तो कोई व्यक्ति सिर्फ़ इसलिए माफ़ नहीं किया जा सकता कि वह कर्तव्य पालन के अवसर पर बीमार या ग़रीब था।
وَلَا عَلَى ٱلَّذِينَ إِذَا مَآ أَتَوۡكَ لِتَحۡمِلَهُمۡ قُلۡتَ لَآ أَجِدُ مَآ أَحۡمِلُكُمۡ عَلَيۡهِ تَوَلَّواْ وَّأَعۡيُنُهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ حَزَنًا أَلَّا يَجِدُواْ مَا يُنفِقُونَ ۝ 86
(92) इसी तरह उन लोगों पर भी कोई एतिराज़ का अवसर नहीं है जिन्होंने ख़ुद आकर तुमसे दरख़ास्त की कि हमारे लिए सवारियाँ जुटाई जाएँ, और जब तुमने कहा कि मैं तुम्हारे लिए सवारियों का प्रबन्ध नहीं कर सकता तो वे विवशता के साथ वापस गए और हाल यह था कि उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे और उन्हें इस बात का बड़ा ग़म था कि उन्हें अपने ख़र्च पर जिहाद में सम्मिलित होने की सामर्थ्य प्राप्त न थी
۞إِنَّمَا ٱلسَّبِيلُ عَلَى ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ وَهُمۡ أَغۡنِيَآءُۚ رَضُواْ بِأَن يَكُونُواْ مَعَ ٱلۡخَوَالِفِ وَطَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 87
(93) अलबत्ता एतिराज़ उन लोगों पर है जो मालदार हैं और फिर भी तुमसे दरख़ास्त करते हैं कि उन्हें जिहाद में सम्मिलित होने से माफ़ रखा जाए। उन्होंने घर बैठनेवालियों में सम्मिलित होना पसन्द किया और अल्लाह ने उनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया, इसलिए अब ये कुछ नहीं जानते (कि अल्लाह के यहाँ इनकी इस नीति का क्या परिणाम निकलनेवाला है)।
يَعۡتَذِرُونَ إِلَيۡكُمۡ إِذَا رَجَعۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡۚ قُل لَّا تَعۡتَذِرُواْ لَن نُّؤۡمِنَ لَكُمۡ قَدۡ نَبَّأَنَا ٱللَّهُ مِنۡ أَخۡبَارِكُمۡۚ وَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 88
(94) तुम जब पलटकर उनके पास पहुँचोगे तो ये तरह-तरह के बहाने पेश करेंगे। मगर तुम साफ़ कह देना कि “बहाने न करो, हम तुम्हारी किसी बात का विश्वास न करेंगे। अल्लाह ने हमको तुम्हारे हालात बता दिए हैं। अब अल्लाह और उसका रसूल तुम्हारे चलन को देखेगा, फिर तुम उसकी ओर पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबका जाननेवाला है और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कुछ करते रहे हो।”
سَيَحۡلِفُونَ بِٱللَّهِ لَكُمۡ إِذَا ٱنقَلَبۡتُمۡ إِلَيۡهِمۡ لِتُعۡرِضُواْ عَنۡهُمۡۖ فَأَعۡرِضُواْ عَنۡهُمۡۖ إِنَّهُمۡ رِجۡسٞۖ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 89
(95) तुम्हारी वापसी पर ये तुम्हारे सामने क़समें खाएँगे ताकि तुम उन्हें छोड़ दो। तो बेशक तुम उन्हें जाने ही दो, क्योंकि ये गन्दगी हैं और इनका वास्तविक ठिकाना जहन्नम है जो इनकी कमाई के बदले में इन्हें प्राप्त होगा।
يَحۡلِفُونَ لَكُمۡ لِتَرۡضَوۡاْ عَنۡهُمۡۖ فَإِن تَرۡضَوۡاْ عَنۡهُمۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يَرۡضَىٰ عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 90
(96) ये तुम्हारे सामने क़समें खाएँगे ताकि तुम इनसे राज़ी हो जाओ। हालाँकि अगर तुम इनसे राज़ी हो भी गए तो अल्लाह हरगिज़ ऐसे अवज्ञाकारी (फ़ासिक़) लोगों से राज़ी न होगा।
ٱلۡأَعۡرَابُ أَشَدُّ كُفۡرٗا وَنِفَاقٗا وَأَجۡدَرُ أَلَّا يَعۡلَمُواْ حُدُودَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 91
(97) ये अरब बद्दू इनकार और मिथ्याचार में ज़्यादा सख़्त है और इनके मामले में इस बात की संभावनाएँ ज़्यादा है कि उस धर्म की मर्यादाओं से बेख़बर रहें जो अल्लाह ने अपने रसूल पर उतारा है।36 अल्लाह सब कुछ जानता है और तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञ है।
36. बद्दू अरबों से मुराद वे देहाती और सहराई (बयाबान में रहनेवाले) अरब हैं जो मदीना के निकटवर्ती इलाक़ों में आबाद थे। ये लोग मदीना में एक मज़बूत और संगठित शक्ति को उठते देखकर पहले तो आतंकित हुए फिर इस्लाम और कुफ़्र के संघर्षों के बीच एक समय तक अवसरवादिता की नीति पर चलते रहे। फिर जब इस्लामी हुकूमत का प्रभुत्व हिजाज़ और नज्द के एक बड़े हिस्से पर छा गया और विरोधी क़बीलों की शक्ति उसके मुक़ाबले में क्षीण होने लगी तो इन लोगों ने समयानुकूल हित इसी में देखा कि इस्लाम में दाख़िल हो जाएँ, लेकिन इनमें कम लोग ऐसे थे जो इस धर्म को सत्य धर्म समझकर सच्चे दिल से ईमान लाए हो और ख़ुलूस के साथ इसकी अपेक्षाओं और तक़ाज़ों को पूरा करने के लिए तैयार हों। उनकी इसी हालत को यहाँ इस तरह बयान किया गया है कि नगर वासियों की अपेक्षा ये देहात और सहरा के लोग ज़्यादा मुनाफ़िक़ाना नीति अपनाए हुए हैं और सत्य का इनकार करने का भाव उनके भीतर अधिक पाया जाता है। फिर इसका कारण भी बता दिया है कि नगर के लोग तो ज्ञानवान और सत्य को अंगीकार किए हुए लोगों की संगत से लाभान्वित होकर कुछ धर्म को और उसकी मर्यादाओं को जान भी लेते हैं, मगर ये बद्दू चूँकि ज़िन्दगी-भर बिलकुल एक आर्थिक पशु की तरह रात-दिन आजीविका के फेर ही में पड़े रहते हैं और पाशविक जीवन की ज़रूरतों से उच्च किसी चीज़ की ओर ध्यान देने का इन्हें अवसर ही नहीं मिलता, इसलिए धर्म और उसकी मर्यादाओं से इनके अपरिचित रहने की संभावनाएँ ज़्यादा हैं। आगे आयत 122 में इनके इस रोग का इलाज पेश किया गया है।
وَمِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مَن يَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ مَغۡرَمٗا وَيَتَرَبَّصُ بِكُمُ ٱلدَّوَآئِرَۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 92
(98) इन बद्दुओं में ऐसे-ऐसे लोग पाए जाते हैं जो अल्लाह के मार्ग में कुछ ख़र्च करते हैं तो उसे अपने ऊपर ज़बरदस्ती का तावान समझते हैं और तुम्हारे हक़ में समय के चक्करों का इन्तिज़ार कर रहे हैं (कि तुम किसी चक्कर में फँसो तो वे अपनी गरदन से इस शासन-व्यवस्था के आज्ञापालन का पट्टा उतार फेंकें जिसमें तुमने उन्हें कस दिया है)। हालाँकि बुराई के चक्कर ने ख़ुद उनको अपनी लपेट में ले रखा है और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَمِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ قُرُبَٰتٍ عِندَ ٱللَّهِ وَصَلَوَٰتِ ٱلرَّسُولِۚ أَلَآ إِنَّهَا قُرۡبَةٞ لَّهُمۡۚ سَيُدۡخِلُهُمُ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 93
(99) और इन्हीं बद्दुओं में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखते हैं और जो कुछ ख़र्च करते हैं उसे अल्लाह के यहाँ निकटता का और रसूल की तरफ़ से रहमत की दुआएँ लेने का साधन बनाते हैं। हाँ! वह ज़रूर उनके लिए निकटता का साधन है और अल्लाह ज़रूर उनको अपनी दयालुता में प्रवेश करेगा, यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلۡأَوَّلُونَ مِنَ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ وَٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُم بِإِحۡسَٰنٖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي تَحۡتَهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 94
(100) वे घर-बार छोड़नेवाले (मुहाजिर) और उनके सहायक (अनसार) जो सबसे पहले ईमान के बुलावे को स्वीकार करने में अग्रसर रहे और वे भी जो बाद में सत्यनिष्ठा के साथ उनके पीछे आए, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राज़ी हुए, अल्लाह ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वे उनमें हमेशा रहेंगे, यही उच्च श्रेणी की सफलता है।
وَمِمَّنۡ حَوۡلَكُم مِّنَ ٱلۡأَعۡرَابِ مُنَٰفِقُونَۖ وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡمَدِينَةِ مَرَدُواْ عَلَى ٱلنِّفَاقِ لَا تَعۡلَمُهُمۡۖ نَحۡنُ نَعۡلَمُهُمۡۚ سَنُعَذِّبُهُم مَّرَّتَيۡنِ ثُمَّ يُرَدُّونَ إِلَىٰ عَذَابٍ عَظِيمٖ ۝ 95
(101) तुम्हारे आस-पास जो बददू रहते है उनमें बहुत-से मिथ्याचारी (मुनाफ़िक़) हैं और इसी तरह ख़ुद मदीना के निवासियों में भी मिथ्याचारी मौजूद हैं जो मिथ्याचार में माहिर हो गए हैं। तुम उन्हें नहीं जानते, हम उनको जानते हैं। क़रीब है वह समय जब हम उनको दोहरी सज़ा देंगे, फिर वे ज़्यादा बड़ी सज़ा के लिए वापस लाए जाएँगे।
وَءَاخَرُونَ ٱعۡتَرَفُواْ بِذُنُوبِهِمۡ خَلَطُواْ عَمَلٗا صَٰلِحٗا وَءَاخَرَ سَيِّئًا عَسَى ٱللَّهُ أَن يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 96
(102) कुछ और लोग हैं जिन्होंने अपने क़ुसूर मान लिए है। उनका कर्म मिला-जुला है कुछ भला है और कुछ बुरा। बहुत संभव है कि अल्लाह उनसे दया का व्यवहार करे, क्योंकि वह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।
ٱلتَّٰٓئِبُونَ ٱلۡعَٰبِدُونَ ٱلۡحَٰمِدُونَ ٱلسَّٰٓئِحُونَ ٱلرَّٰكِعُونَ ٱلسَّٰجِدُونَ ٱلۡأٓمِرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَٱلنَّاهُونَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَٱلۡحَٰفِظُونَ لِحُدُودِ ٱللَّهِۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 97
(112) अल्लाह की ओर बार-बार पलटनेवाले,39 उसकी बन्दगी करनेवाले, उसकी तारीफ़ के गुन गानेवाले, उसके लिए ज़मीन में चक्कर लगानेवाले,40 उसके आगे झुकने और सज़दे करनेवाले, भलाई का आदेश देनेवाले बुराई से रोकनेवाले और अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करनेवाले, (इस शान के होते हैं वे ईमानवाले जो अल्लाह से सौदे का यह मामला तय करते हैं) और ऐ नबी इन ईमानवालों को ख़ुशख़बरी दे दो।
39. यहाँ मूल में शब्द “अत्ताइबून” इस्तेमाल हुआ है, जिसका शाब्दिक अनुवाद “तौबा करनेवाले” है; लेकिन बोल के जिस अंदाज़ में यह शब्द इस्तेमाल किया गया है उससे साफ़ ज़ाहिर है कि तौबा करना ईमानवालों के स्थायी गुणों में से है। इसलिए इसका सही अर्थ यह है कि वे एक ही बार तौबा नहीं करते बल्कि हमेशा तौबा करते रहते हैं। और तौबा का वास्तविक अर्थ रुजू करना या पलटना है। अतः इस शब्द के वास्तविक मर्म को स्पष्ट करने के लिए हमने इसका तशरीही तर्जमा (भावानुवाद) इस तरह किया है: “वे अल्लाह की ओर बार-बार पलटते हैं।"
40. दूसरा अनुवाद यह भी हो सकता है कि रोज़े रखनेवाले।
مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن يَسۡتَغۡفِرُواْ لِلۡمُشۡرِكِينَ وَلَوۡ كَانُوٓاْ أُوْلِي قُرۡبَىٰ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمۡ أَنَّهُمۡ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 98
(113) नबी को और उन लोगों को जो ईमान लाए हैं, शोभा नहीं देता कि मुशरिकों के लिए माफ़ी की दुआ करें चाहे वे उनके नातेदार ही क्यों न हों, जबकि उनपर यह बात खुल चुकी है कि वे जहन्नम के योग्य हैं।
وَمَا كَانَ ٱسۡتِغۡفَارُ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ إِلَّا عَن مَّوۡعِدَةٖ وَعَدَهَآ إِيَّاهُ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥٓ أَنَّهُۥ عَدُوّٞ لِّلَّهِ تَبَرَّأَ مِنۡهُۚ إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَأَوَّٰهٌ حَلِيمٞ ۝ 99
(114) इबराहीम ने अपने बाप के लिए जो माफ़ी की दुआ की थी वह तो उस वादे की वजह से थी जो उसने अपने बाप से किया था, मगर जब उसपर यह बात खुल गई कि उसका बाप अल्लाह का दुश्मन है तो वह उससे बेज़ार हो गया, सत्य यह है कि इबराहीम बड़ा कोमल हृदयवाला और अल्लाह से डरनेवाला और सहनशील व्यक्ति था।
وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِلَّ قَوۡمَۢا بَعۡدَ إِذۡ هَدَىٰهُمۡ حَتَّىٰ يُبَيِّنَ لَهُم مَّا يَتَّقُونَۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 100
(115) अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि लोगों को मार्ग पर लाने के बाद फिर गुमराही में डाल दे जब तक कि उन्हें साफ़-साफ़ बता न दे कि उन्हें किन चीज़़ों से बचना चाहिए। वास्तव में अल्लाह को हर चीज़़ का ज्ञान है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۚ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 101
(116) और यह भी सत्य है कि अल्लाह ही के अधिकार में ज़मीन और आसमानों का राज्य है, उसी के अधिकार में ज़िन्दगी और मौत है, और तुम्हारा कोई समर्थक और मददगार ऐसा नहीं है जो तुम्हें उससे बचा सके।
لَّقَد تَّابَ ٱللَّهُ عَلَى ٱلنَّبِيِّ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ وَٱلۡأَنصَارِ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ ٱلۡعُسۡرَةِ مِنۢ بَعۡدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٖ مِّنۡهُمۡ ثُمَّ تَابَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّهُۥ بِهِمۡ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 102
(117) अल्लाह ने माफ़ कर दिया नबी को और उन घर-बार छोड़नेवालों (मुहाजिरों) और उनकी मदद करनेवालों (अनसार) को जिन्होंने बड़ी तंगी के समय में नबी का साथ दिया। अगरचे उनमें से कुछ लोगों के दिल कुटिलता की ओर झुक चले थे,41 (मगर जब उन्होंने इस कुटिलता का अनुसरण न किया बल्कि नबी का साथ दिया तो) अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया, बेशक उसका मामला इन लोगों के साथ नर्मी और दया का है।
41. अर्थात् कुछ ख़ुलूसवाले सहाबा भी उस कठिन समय में युद्ध पर जाने से किसी न किसी हद तक जी चुराने लगे थे, मगर चूँकि उनके दिलों में ईमान था और वे सच्चे दिल से सत्य धर्म से प्रेम करते थे इसलिए आख़िरकार उन्होंने अपनी इस कमज़ोरी पर काबू पा लिया।
وَعَلَى ٱلثَّلَٰثَةِ ٱلَّذِينَ خُلِّفُواْ حَتَّىٰٓ إِذَا ضَاقَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَرۡضُ بِمَا رَحُبَتۡ وَضَاقَتۡ عَلَيۡهِمۡ أَنفُسُهُمۡ وَظَنُّوٓاْ أَن لَّا مَلۡجَأَ مِنَ ٱللَّهِ إِلَّآ إِلَيۡهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيۡهِمۡ لِيَتُوبُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 103
(118) और उन तीनों को भी उसने माफ़ किया जिनके मामले को स्थगित कर दिया गया था। जब ज़मीन अपनी सारी वुसअत (फैलाव) के बावजूद उनपर तंग हो गई और उनकी अपनी जानें भी उनपर बोझ होने लगीं और उन्होंने जान लिया कि अल्लाह से बचने के लिए कोई शरण लेने की जगह ख़ुद अल्लाह ही की दयालुता की छाया के सिवा नहीं है तो अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनकी ओर पलटा ताकि वे उसकी ओर पलट आएँ, यक़ीनन ही वह बड़ा माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।42
42. ये तीनों साहब काब-बिन-मालिक (रज़ि०), हिलाल-बिन-उमैया (रज़ि०) और मुरारा-बिन-रुबैअ (रज़ि०) थे। तीनों सच्चे ईमानवाले थे, इससे पहले बार-बार अपने ख़ुलूस का सुबूत दे चुके थे, क़ुरबानियाँ दे चुके थे, मगर इन सेवाओं के बावजूद तबूक की मुहिम के नाजुक मौक़े पर जबकि सभी युद्ध के योग्य ईमानवालों को युद्ध के लिए निकल आने का आदेश दिया गया था, इन महानुभावों ने जो सुस्ती दिखाई उसपर सख़्त पकड़ की गई। नबी (सल्ल०) ने तबूक से लौटकर मुसलमानों को आदेश दे दिया कि कोई उनसे सलाम और बातचीत न करे। 40 दिन के बाद उनकी बीवियों को भी उनसे अलग रहने की ताकीद कर दी गई। वास्तव में मदीना की बस्ती में उनका वही हाल हो गया था जिसका चित्रण इस आयत में प्रस्तुत किया गया है। आख़िरकार जब उनके बहिष्कार को 50 दिन हो गए तब माफ़ी का यह आदेश उतरा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَكُونُواْ مَعَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 104
(119) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो और सच्चे लोगों का साथ दो।
مَا كَانَ لِأَهۡلِ ٱلۡمَدِينَةِ وَمَنۡ حَوۡلَهُم مِّنَ ٱلۡأَعۡرَابِ أَن يَتَخَلَّفُواْ عَن رَّسُولِ ٱللَّهِ وَلَا يَرۡغَبُواْ بِأَنفُسِهِمۡ عَن نَّفۡسِهِۦۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ لَا يُصِيبُهُمۡ ظَمَأٞ وَلَا نَصَبٞ وَلَا مَخۡمَصَةٞ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَطَـُٔونَ مَوۡطِئٗا يَغِيظُ ٱلۡكُفَّارَ وَلَا يَنَالُونَ مِنۡ عَدُوّٖ نَّيۡلًا إِلَّا كُتِبَ لَهُم بِهِۦ عَمَلٞ صَٰلِحٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 105
(120) मदीना के निवासियों और आस-पास के बद्दुओं को यह हरगिज़ मुनासिब न था कि अल्लाह के रसूल को छोड़कर घर बैठ रहते और उसकी ओर से बेपरवाह होकर अपनी-अपनी जान (नफ़्स) की चिन्ता में लग जाते। इसलिए कि ऐसा कभी न होगा कि अल्लाह के मार्ग में, भूख-प्यास और शारीरिक मशक़्क़त की कोई तक़लीफ़ वे झेलें, और सत्य का इनकार करनेवालों को जो मार्ग अप्रिय है उसपर कोई क़दम वे उठाएँ, और किसी दुश्मन से (सत्य की दुश्मनी का) कोई बदला वे लें, और उसके बदले उनके हक़ में एक अच्छा कर्म न लिखा जाए। यक़ीनन अल्लाह के यहाँ उत्तमकारों का पारिश्रमिक मारा नहीं जाता।
وَلَا يُنفِقُونَ نَفَقَةٗ صَغِيرَةٗ وَلَا كَبِيرَةٗ وَلَا يَقۡطَعُونَ وَادِيًا إِلَّا كُتِبَ لَهُمۡ لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 106
(121) इसी तरह यह भी कभी न होगा कि वे (अल्लाह के मार्ग में) थोड़ा या बहुत कोई ख़र्च उठाएँ और (जिहाद के प्रयास में) कोई घाटी वे पार करें और उनके हक़ में उसे लिख न लिया जाए, ताकि अल्लाह उनके इस अच्छे कारनामे का बदला उन्हें प्रदान करे।
۞وَمَا كَانَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لِيَنفِرُواْ كَآفَّةٗۚ فَلَوۡلَا نَفَرَ مِن كُلِّ فِرۡقَةٖ مِّنۡهُمۡ طَآئِفَةٞ لِّيَتَفَقَّهُواْ فِي ٱلدِّينِ وَلِيُنذِرُواْ قَوۡمَهُمۡ إِذَا رَجَعُوٓاْ إِلَيۡهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَحۡذَرُونَ ۝ 107
(122) और यह कुछ ज़ूरूरी न था कि ईमानवाले सारे के सारे ही निकल खड़े होते, मगर ऐसा क्यों न हुआ कि उनकी आबादी के हर हिस्से में से कुछ लोग निकलकर आते और दीन (धर्म) की समझ पैदा करते और वापस जाकर अपने इलाक़े के निवासियों को सावधान करते, ताकि वे (मुस्लिमों से भिन्न रीति से) परहेज़ करते।43
43. मुराद यह है कि तमाम बद्दुओं का मदीना आ जाना कुछ ज़रूरी न था। हर बस्ती और इलाक़े के लोगों में से अगर कुछ लोग मदीना में आकर दीन (धर्म) का ज्ञान प्राप्त करते और वापस जाकर अपने इलाक़े के लोगों को धर्म (दीन) की शिक्षा देते तो बद्दुओं में वह जहालत बाक़ी न रहती जिसके कारण वे मिथ्याचार (मुनाफ़क़त) के रोग में ग्रस्त हैं और इस्लाम क़ुबूल कर लेने के बावजूद मुसलमान होने का हक़ अदा नहीं करते।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ يَلُونَكُم مِّنَ ٱلۡكُفَّارِ وَلۡيَجِدُواْ فِيكُمۡ غِلۡظَةٗۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 108
(123) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, युद्ध करो उन सत्य का इनकार करनेवालों से जो तुम्हारे पास हैं।44 और चाहिए कि वे तुम्हारे अन्दर सख़्ती पाएँ45 और जान लो कि अल्लाह डर रखनेवालों के साथ है।
44. संदर्भ पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ इनकार करनेवालों से मुराद वे मुनाफ़िक़ लोग हैं जिनका सत्य को स्वीकार न करना पूरी तरह ज़ाहिर हो चुका था और जिनके इस्लामी समाज में मिले-जुले रहने से भारी नुक़सान पहुँच रहा था।
45. अर्थात् अब वह नर्म व्यवहार खत्म हो जाना चाहिए जो अब तक उनके साथ होता रहा है।
وَإِذَا مَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ فَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ أَيُّكُمۡ زَادَتۡهُ هَٰذِهِۦٓ إِيمَٰنٗاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَزَادَتۡهُمۡ إِيمَٰنٗا وَهُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 109
(124) जब कोई नई सूरा उतरती है तो उनमें से कुछ लोग (मज़ाक़ के तौर पर मुसलमानों से) पूछते हैं कि 'कहो, तुममें से किसके ईमान में इससे इज़ाफ़ा हुआ ?” जो लोग ईमान लाए हैं उनके ईमान में तो वास्तव में (हर उतरनेवाली सूरा ने) इज़ाफ़ा ही किया है और वे इससे ख़ुश हैं,
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ فَزَادَتۡهُمۡ رِجۡسًا إِلَىٰ رِجۡسِهِمۡ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 110
(125) अलबत्ता जिन लोगों के दिलों को (निफ़ाक़ का) रोग लगा हुआ था उनकी पिछली गन्दगी पर (हर नई सूरा ने) एक और गन्दगी का इज़ाफ़ा कर दिया और वे मरते दम तक कुफ़्र ही में पड़े रहे।
أَوَلَا يَرَوۡنَ أَنَّهُمۡ يُفۡتَنُونَ فِي كُلِّ عَامٖ مَّرَّةً أَوۡ مَرَّتَيۡنِ ثُمَّ لَا يَتُوبُونَ وَلَا هُمۡ يَذَّكَّرُونَ ۝ 111
(126) क्या ये लोग देखते नहीं कि हर साल एक-दो बार ये आज़माइश में डाले जाते हैं?46 मगर इसपर भी न तौबा करते हैं न कोई शिक्षा ग्रहण करते हैं।
46. अर्थात् कोई साल ऐसा नहीं गुज़र रहा है जबकि एक-दो बार ऐसी स्थितियाँ पेश न आती हों जिनमें उनके ईमान का दावा आज़माइश की कसौटी पर कसा न जाता हो और उसकी खोट का भेद खुल न जाता हो।
وَإِذَا مَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ نَّظَرَ بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٍ هَلۡ يَرَىٰكُم مِّنۡ أَحَدٖ ثُمَّ ٱنصَرَفُواْۚ صَرَفَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُم بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 112
(127) जब कोई सूरा उतरती है तो ये लोग आँखों ही आँखों में एक दूसरे से बातें करते हैं कि कहीं कोई तुमको देख तो नहीं रहा हूँ, फिर चुपके से निकल भागते हैं। अल्लाह ने इनके दिल फेर दिए है क्योंकि ये नासमझ लोग है।
لَقَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ عَزِيزٌ عَلَيۡهِ مَا عَنِتُّمۡ حَرِيصٌ عَلَيۡكُم بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 113
(128) देखो, तुम लोगों के पास एक रसूल आया है जो ख़ुद तुम ही में से है, तुम्हारा नुक़सान में पड़ना उसके लिए असह्य है, तुम्हारी कामयाबी की वह लालसा रखता है, ईमान लानेवालों के लिए वह बड़ा मेहरबान और रहमदिल है।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُلۡ حَسۡبِيَ ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَهُوَ رَبُّ ٱلۡعَرۡشِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 114
(129) — अब अगर ये लोग तुमसे मुँह फेरते हैं तो ऐ नबी, इनसे कह दो कि “मेरे लिए अल्लाह बस करता है, कोई पूज्य नहीं मगर वह, उसी पर मैंने भरोसा किया और वह मालिक है महान राजसिंहासन का।"
يُرِيدُونَ أَن يُطۡفِـُٔواْ نُورَ ٱللَّهِ بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَيَأۡبَى ٱللَّهُ إِلَّآ أَن يُتِمَّ نُورَهُۥ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 115
(32) ये लोग चाहते हैं कि अल्लाह की रौशनी को अपनी फूँकों से बुझा दें। मगर अल्लाह अपनी रौशनी पूर्ण किए बिना माननेवाला नहीं है चाहे अधर्मियों को यह कितना ही अप्रिय हो।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُشۡرِكُونَ ۝ 116
(33) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को मार्गदर्शन और सत्य-धर्म के साथ भेजा है ताकि उसे दीन (धर्म) की पूरी जिंस (पूरे आकार-प्रकार) पर प्रभावी कर दें16 चाहे मुशरिकों (बहुदेववादियों) को यह कितना ही अप्रिय हो।
16. यहाँ धर्म के लिए “अद्दीन” शब्द इस्तेमाल हुआ है। इसका अनुवाद हमने “दीन की जिन्स” के शब्दों में किया है। दीन शब्द अरबी भाषा में उस ज़िन्दगी के निज़ाम या जीवन-प्रणाली के लिए इस्तेमाल होता है जिसके स्थापित करनेवाले को सनद (प्रमाण) और आज्ञापालन योग्य स्वीकार करके उसका अनुसरण किया जाए। अतः रसूल के भेजे जाने का उद्देश्य इस आयत में यह बताया गया है कि जिस मार्गदर्शन और सत्य धर्म को वह अल्लाह की ओर से लाया है उसे धर्म (दीन) का आकार-प्रकार रखनेवाले सभी तरीक़ों और व्यवस्थाओं पर प्रभावी कर दे। रसूल कभी इस उद्देश्य से नहीं भेजा गया कि जो ज़िन्दगी के निज़ाम वह लेकर आया है वह किसी दूसरी जीवन-व्यवस्था के अधीन और उसके वशीभूत होकर और उसकी दी हुई छूटों और गुंजाइशों में सिमटकर रहे, बल्कि वह आसमान और ज़मीन के बादशाह का प्रतिनिधि बनकर आता है और अपने बादशाह को सत्य शासन व्यवस्था को विजयी देखना चाहता है। अगर कोई दूसरी जीवन-व्यवस्था दुनिया में रहे भी तो उसे ईश्वरीय शासन व्यवस्था की दी हुई गुंजाइशों में सिमटकर रहना चाहिए, जैसा कि रक्षा कर (जिज़या) अदा करने की स्थिति में अधीनस्थों की जीवन-व्यवस्था रहती है, न यह कि अधर्मी प्रभावी हों और सत्य-धर्म के माननेवाले अधीनस्थ बनकर रहें।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلۡأَحۡبَارِ وَٱلرُّهۡبَانِ لَيَأۡكُلُونَ أَمۡوَٰلَ ٱلنَّاسِ بِٱلۡبَٰطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۗ وَٱلَّذِينَ يَكۡنِزُونَ ٱلذَّهَبَ وَٱلۡفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 117
(34) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इन किताब वालों के ज़्यादातर धर्मज्ञाता (उलमा) और दुनिया से विमुख संतों का हाल यह है कि वे लोगों के माल ग़लत तरीकों से खाते हैं और उन्हें अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं। दर्दनाक सज़ा को ख़ुशख़बरी दो उनको जो सोने और चाँदी जमा करके रखते हैं और उन्हें अल्लाह के रास्ते में ख़र्च नहीं करते।
يَوۡمَ يُحۡمَىٰ عَلَيۡهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكۡوَىٰ بِهَا جِبَاهُهُمۡ وَجُنُوبُهُمۡ وَظُهُورُهُمۡۖ هَٰذَا مَا كَنَزۡتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡ فَذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَكۡنِزُونَ ۝ 118
(35) एक दिन आएगा कि इसी सोने-चाँदी पर जहन्नम की आग दहकाई जाएगी और फिर इसी से उनके ललाटों और पहलुओं और पीठों को दाग़ा जाएगा। यह है वह ख़ज़ाना जो तुमने अपने लिए जमा किया था, लो अब अपनी समेटी हुई दौलत का मज़ा चखो।
إِنَّ عِدَّةَ ٱلشُّهُورِ عِندَ ٱللَّهِ ٱثۡنَا عَشَرَ شَهۡرٗا فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ يَوۡمَ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ مِنۡهَآ أَرۡبَعَةٌ حُرُمٞۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُۚ فَلَا تَظۡلِمُواْ فِيهِنَّ أَنفُسَكُمۡۚ وَقَٰتِلُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ كَآفَّةٗ كَمَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ كَآفَّةٗۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 119
(36) वास्तविकता यह है कि महीनों की संख्या जब से अल्लाह ने आसमान और ज़मीन की रचना की है, अल्लाह के लेख्य में बारह ही है और उनमें से चार महीने आदर के (हराम) है।17 यही ठीक नियम है अतः इन चार महीनों में अपने ऊपर ज़ुल्म न करो और मुशरिकों (बहुदेववादियों) से सब मिलकर लड़ो जिस तरह वे सब मिलकर तुमसे लड़ते हैं और जान लो कि अल्लाह डर रखनेवालों ही के साथ है।18
17. चार हराम महीनों से मुराद है ज़ीक़ादा, ज़ीलहिज्जा और मुहर्रम हज के लिए और रजब का महीना उमरे के लिए।
18. अर्थात् अगर मुशरिक (बहुदेववादी) इन महीनों में भी लड़ने से बाज़ न आएँ तो जिस तरह वे एक होकर तुमसे लड़ते हैं तुम भी एक होकर उनसे लड़ो। सूरा-2 (बक़रा) आयत 194 इस आयत की व्याख्या करती है।
خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡ صَدَقَةٗ تُطَهِّرُهُمۡ وَتُزَكِّيهِم بِهَا وَصَلِّ عَلَيۡهِمۡۖ إِنَّ صَلَوٰتَكَ سَكَنٞ لَّهُمۡۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 120
(103) ऐ नबी, तुम उनके मालों में से सदक़ा लेकर उन्हें पाक करो और (नेकी की राह में उन्हें बढ़ाओ और उनके हक़ में रहमत की दुआ करो क्योंकि तुम्हारी दुआ उनके लिए शान्ति और सुकून का कारण होगी, अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
أَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ يَقۡبَلُ ٱلتَّوۡبَةَ عَنۡ عِبَادِهِۦ وَيَأۡخُذُ ٱلصَّدَقَٰتِ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 121
(104) क्या इन लोगों को मालूम नहीं है कि वह अल्लाह ही है जो अपने बन्दों की तौबा क़ुबूल करता है और उनके सदक़ों (दान) को स्वीकृति प्रदान करता है, और यह कि अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है?
وَقُلِ ٱعۡمَلُواْ فَسَيَرَى ٱللَّهُ عَمَلَكُمۡ وَرَسُولُهُۥ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۖ وَسَتُرَدُّونَ إِلَىٰ عَٰلِمِ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 122
(105) और ऐ नबी, इन लोगों से कह दो कि तुम कर्म करो, अल्लाह और उसका रसूल और ईमानवाले सब देखेंगे कि तुम्हारी नीति अब क्या रहती है, फिर तुम उसकी ओर पलटाए जाओगे जो खुले और छिपे सबको जानता है, और वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
وَءَاخَرُونَ مُرۡجَوۡنَ لِأَمۡرِ ٱللَّهِ إِمَّا يُعَذِّبُهُمۡ وَإِمَّا يَتُوبُ عَلَيۡهِمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 123
(106) कुछ दूसरे लोग हैं जिनका मामला अभी अल्लाह के हुक्म पर ठहरा हुआ है, चाहे उन्हें सज़ा दे और चाहे नए सिरे से उनपर मेहरबान हो जाए। अल्लाह सब कुछ जानता है और तत्त्वदर्शी एवं सर्वज्ञ है।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مَسۡجِدٗا ضِرَارٗا وَكُفۡرٗا وَتَفۡرِيقَۢا بَيۡنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَإِرۡصَادٗا لِّمَنۡ حَارَبَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ مِن قَبۡلُۚ وَلَيَحۡلِفُنَّ إِنۡ أَرَدۡنَآ إِلَّا ٱلۡحُسۡنَىٰۖ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 124
(107) कुछ और लोग हैं जिन्होंने एक मसजिद बनाई इस उद्देश्य के लिए कि (सत्य-सन्देश को) हानि पहुँचाएँ, और (अल्लाह की बन्दगी करने के बजाय) इनकार करें, और ईमान वालों में फूट डालें, और इस दिखावे की इबादतगाह को) उस व्यक्ति के लिए घात स्थल बनाएँ जो इससे पहले अल्लाह और उसके रसूल के विरुद्ध लड़ चुका है। वे ज़रूर क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हमारा इरादा तो भलाई के सिवा किसी दूसरी चीज़़ का न था। मगर अल्लाह गवाह है कि वे बिलकुल झूठे हैं।
لَا تَقُمۡ فِيهِ أَبَدٗاۚ لَّمَسۡجِدٌ أُسِّسَ عَلَى ٱلتَّقۡوَىٰ مِنۡ أَوَّلِ يَوۡمٍ أَحَقُّ أَن تَقُومَ فِيهِۚ فِيهِ رِجَالٞ يُحِبُّونَ أَن يَتَطَهَّرُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُطَّهِّرِينَ ۝ 125
(108) तुम हरगिज़ उस मकान में खड़े न होना। जो मसजिद पहले दिन से तक़वा पर क़ायम की गई थी वही इसके लिए ज़्यादा मुनासिब है कि तुम उसमें (इबादत के लिए) खड़े हो, उसमें ऐसे लोग हैं जो पाक रहना पसन्द करते हैं और अल्लाह को पाकीज़गी अपनानेवाले ही पसन्द हैं।37
37. मदीना में उस समय दो मसजिदें थीं। एक मसजिदे-क़ुबा जो शहर के किनारे में थी, दूसरी मसजिदे-नबवी जो शहर के अन्दर थी। इन दोनों मसजिदों की मौजूदगी में एक तीसरी मसजिद बनाने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मगर मुनाफ़िक़ों ने यह बहाना बनाया कि बारिश में और जाड़े की रातों में जनसाधारण को और विशेष रूप से बूढ़ों और मज़बूरों को जो इन दोनों मसजिदों से दूर रहते हैं, पाँचों वक्त हाज़िरी देनी मुश्किल होती है। अतः हम सिर्फ़ नमाज़ियों की आसानी के लिए यह एक नई मसजिद निर्मित करना चाहते हैं। इस तरह उन्होंने उसके निर्माण की अनुमति प्राप्त की और उसे अपनी साज़िशों का अड्डा बना लिया। वे चाहते थे कि नबी (सल्ल०) को धोखा देकर आपसे उसका उद्घाटन कराएँ मगर अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को उनके इरादों से पहले ही ख़बरदार कर दिया और तबूक से वापस आकर आपने इस 'मसजिदे-ज़िरार' (हानिकारक मसजिद) को ढा दिया।
أَفَمَنۡ أَسَّسَ بُنۡيَٰنَهُۥ عَلَىٰ تَقۡوَىٰ مِنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٍ خَيۡرٌ أَم مَّنۡ أَسَّسَ بُنۡيَٰنَهُۥ عَلَىٰ شَفَا جُرُفٍ هَارٖ فَٱنۡهَارَ بِهِۦ فِي نَارِ جَهَنَّمَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 126
(109) फिर तुम्हारा क्या ख़याल है कि अच्छा इनसान वह है जिसने अपनी इमारत की बुनियाद अल्लाह के डर और उसकी प्रसन्नता को चाहत पर रखी हो या वह जिसने अपनी इमारत एक घाटी के खोखले अस्थिर कगार पर उठाई और वह उसे लेकर सीधी जहन्नम की आग में गिरी? ऐसे ज़ालिम लोगों को अल्लाह कभी सीधा मार्ग नहीं दिखाता।
لَا يَزَالُ بُنۡيَٰنُهُمُ ٱلَّذِي بَنَوۡاْ رِيبَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡ إِلَّآ أَن تَقَطَّعَ قُلُوبُهُمۡۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 127
(110) यह इमारत जो इन्होंने बनाई है, हमेशा इनके दिलों में अविश्वास की जड़ बनी रहेगी (जिसके निकलने का अब कोई उपाय नहीं) सिवाय इसके कि इनके दिल ही टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ। अल्लाह बड़ा है जाननेवाला और तत्वदर्शी है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱشۡتَرَىٰ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَنفُسَهُمۡ وَأَمۡوَٰلَهُم بِأَنَّ لَهُمُ ٱلۡجَنَّةَۚ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيَقۡتُلُونَ وَيُقۡتَلُونَۖ وَعۡدًا عَلَيۡهِ حَقّٗا فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَٱلۡإِنجِيلِ وَٱلۡقُرۡءَانِۚ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ مِنَ ٱللَّهِۚ فَٱسۡتَبۡشِرُواْ بِبَيۡعِكُمُ ٱلَّذِي بَايَعۡتُم بِهِۦۚ وَذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 128
(111) वास्तविकता यह है कि अल्लाह ने ईमानवालों से उनकी जान और उनके माल जनत (स्वर्ग) के बदले ख़रीद लिए हैं।38 वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते और मारते और मरते हैं। उनसे (जन्नत का वादा) अल्लाह के ज़िम्मे एक पक्का वादा है तौरात और इंजील और क़ुरआन में और कौन है जो अल्लाह से बढ़कर अपने वादे को पूरा करनेवाला हो? अतः ख़ुशियाँ मनाओ अपने उस सौदे पर जो तुमने अल्लाह से चुका लिया है, यही सबसे बड़ी सफलता है।
38. यहाँ ईमान के उस मामले को जो अल्लाह और बन्दे के बीच होता है “सौदा करने” से अभिव्यंजित किया गया है। इसका अर्थ यह है कि ईमान वास्तव में एक अनुबन्ध (इक़रारनामा) है जिसके अन्तर्गत बन्दा अपनी जान और अपना माल अल्लाह के हाथ बेच देता है और उसके बदले में अल्लाह की ओर से इस वादे को क़ुबूल कर लेता है कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में वह उसे जन्नत प्रदान करेगा।