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سُورَةُ الإِخۡلَاصِ

112. अल-इख़्लास

(मक्का में उतरी—आयतें 4)

परिचय

नाम

'अल-इख़्लास' इस सूरा का केवल नाम ही नहीं, बल्कि इसके विषय का शीर्षक भी है, क्योंकि इसमें विशुद्ध एकेश्वरवाद (तौहीद) का वर्णन किया गया। क़ुरआन मजीद की दूसरी सूरतों में तो सामान्य रूप से किसी ऐसे शब्द को उनका नाम क़रार दिया गया है जो उनमें आया हुआ हो, लेकिन इस सूरा में शब्द ' इख़्लास' कहीं नहीं आया है। इसको यह नाम इसके अर्थ की दृष्टि से दिया गया है।

उतरने का समय

इसके मक्की और मदनी होने में मतभेद है, और यह मतभेद उन रिवायतों के आधार पर है जो इसके उतरने के कारण के बारे में बयान की गई हैं। जैसे अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से रिवायत है कि क़ुरैश के लोगों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहा कि अपने रब का वंश हमें बताइए। इसपर यह सूरा उतरी (हदीस तबरानी)। [इसी विषय की रिवायतें उबई-बिन-काब से मुस्नदे-अहमद और तिर्मिज़ी आदि में और हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह से तबरानी और बैहक़ी आदि में आई हैं। बाद में क़ुरैश ही की तरह यहूदियों और ईसाइयों ने भी नबी (सल्ल०) से ऐसे ही प्रश्न किए थे।] इक्रिमा ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से रिवायत की है कि यहूदियों का एक गिरोह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुआ और उन्होंने कहा, "ऐ मुहम्मद! हमें बताइए कि आपका वह रब कैसा है जिसने आपको भेजा है?" इसपर अल्लाह ने यह सूरा उतारी। (हदीस इब्ने-अबी-हातिम, इब्ने-अदी, बैहक़ी)

ज़ह्हाक, क्रतादा और मुक़ातिल का बयान है कि यहूदियों के कुछ उलमा नबी (सल्ल०) के पास आए और उन्होंने कहा, "ऐ मुहम्मद! अपने रब का स्वरूप हमें बताइए, शायद कि हम आपपर ईमान ले आएँ। अल्लाह ने अपनी विशेषता तौरात में उतारी है। आप बताइए कि वह किस चीज़ से बना है? किस जिंस (जाति) से है? सोने से बना है या तांबे से या पीतल से, या लोहे से या चाँदी से? और क्या वह खाता और पीता है? और किससे उसने सृष्टि की यह मीरास पाई है और उसके बाद कौन उसका वारिस होगा?" इसपर अल्लाह ने यह सूरा उतारी [(टीका सूरा इख़्लास, इब्ने तैमिया)]। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की एक रिवायत है कि नजरान के ईसाइयों का एक प्रतिनिधि मण्डल सात पादरियों के साथ नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुआ और उसने नबी (सल्ल॰) से कहा, "हमें बताइए, आपका रब कैसा है? किस चीज़ से बना है?" आपने फ़रमाया, "मेरा रब किसी चीज़ से नहीं बना है, वह तमाम चीज़ों से अलग है।" इसपर अल्लाह ने यह सूरा उतारी। इन रिवायतों से मालूम होता है कि अलग-अलग मौक़ों पर अलग-अलग लोगों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) से उस उपास्य के स्वरूप और रूप-रंग के बारे में पूछा था जिसकी बन्दगी और इबादत की ओर आप लोगों को दावत दे रहे थे, और हर मौक़े पर आपने अल्लाह के आदेश से उनके उत्तर में यही सूरा सुनाई थी। सबसे पहले यह प्रश्न मक्का में क़ुरैश के मुशरिकों ने आपसे किया और उसके उत्तर में यह सूरा उतरी। इसके बाद मदीना तय्यिबा में कभी यहूदियों ने, कभी ईसाइयों ने और कभी अरब के दूसरे लोगों ने नबी (सल्ल०) से इसी प्रकार प्रश्न किए और हर बार अल्लाह की ओर से इशारा हुआ कि उत्तर में यही सूरा उनको सुना दें। [जिसे रिवायत करनेवालों ने इस तरह बयान किया है कि इसपर अल्लाह तआला ने यह सूरा उतारी और यह उनके बयान का आम तरीक़ा था।] अतएव सही बात यह है कि यह सूरा वास्तव में मक्की है, बल्कि इसके विषय पर विचार करने से मालूम होता है कि यह मक्का के भी आरंभिक काल में उतरी है जब अल्लाह तआला की ज़ात और गुणों के बयान में क़ुरआन की विस्तृत आयतें अभी नहीं उतरी थीं।

विषय और वार्ता

उतरने के कारण के बारे में जो रिवायतें ऊपर लिखी गई हैं उनपर दृष्टि डालने से मालूम हो जाता है कि जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत लेकर उठे थे उस वक़्त दुनिया के धार्मिक विचार क्या थे। बुतपरस्त मुशरिक उन ख़ुदाओं को पूज रहे थे जो लकड़ी, पत्थर, सोने, चाँदी आदि अलग-अलग चीज़ों के बने हुए थे, रूप-रंग और शरीर रखते थे। देवियों और देवताओं की विधिवत नस्ल चलती थी। कोई देवी बिना पति के न थी और कोई देवता बिना पत्नी का न था। मुशरिकों की एक बड़ी संख्या इस बात को मानती थी कि अल्लाह मानव रूप में प्रकट होता है और कुछ लोग उसके अवतार होते हैं। ईसाई यद्यपि एक ख़ुदा को मानने के दावेदार थे, मगर उनका ख़ुदा भी कम से कम एक बेटा तो रखता ही था, और बाप-बेटे के साथ खुदाई में रूहुल-क़ुद्स (पवित्र आत्मा) को भी हिस्सेदार होने का श्रेय प्राप्त था, यहाँ तक कि ख़ुदा की माँ भी होती थी और उसकी सास भी। यहूदी भी एक ख़ुदा को मानने का दावा करते थे, मगर उनका ख़ुदा भी भौतिक शारीरिकता और दूसरे मानवीय गुणों से ख़ाली न था। वह टहलता था। मानव रूप में प्रकट होता था अपने किसी बन्दे से कुश्ती भी लड़ लेता था और एक बेटे (उज़ैर) का बाप भी था। इन धार्मिक गिरोहों के अलावा मजूसी अग्नि-पूजक थे और साबिई सितारा-पूजक इस दशा में जब एक ख़ुदा, जिसका कोई शरीक नहीं, को मानने की दावत लोगों को दी गई तो उनके मन में इस प्रश्न का पैदा होना एक आवश्यक बात थी कि वह रब है किस प्रकार का जिसे तमाम रबों और उपास्यों को छोड़कर अकेला एक ही रब और उपास्य मान लेने की दावत दी जा रही है।

महानता एवं महत्ता

यही कारण है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दृष्टि में इस सूरा की बड़ी महत्ता और महानता थी। आप अलग-अलग ढंगों से मुसलमानों को इसका महत्त्व महसूस कराते थे, ताकि वे अधिक से अधिक इसको पढ़ें और आम लोगों में इसे फैलाएँ, क्योंकि यह इस्लाम के प्रथम मौलिक अक़ीदे (तौहीद) को चार ऐसे छोटे-छोटे वाक्यों में बयान कर देती है जो तुरन्त इंसान के मन में बैठ जाते हैं और आसानी से ज़बानों पर चढ़ जाते हैं। हदीसों में बहुत अधिक ये रिवायतें बयान हुई हैं कि नबी (सल्ल०) ने अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग ढंग से लोगों को बताया कि यह सूरा एक तिहाई क़ुरआन के बराबर है (हदीस बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसाई, तिर्मिज़ी) । टीकाकारों ने नबी (सल्ल०) के इस कथन की बहुत-सी वजहें बयान की हैं। मगर हमारे नज़दीक सीधी और साफ़ बात यह है कि क़ुरआन मजीद जिस दीन को पेश करता है उसकी बुनियाद तीन अक़ीदे हैं : एक तौहीद (एकेश्वरवाद), दूसरे रिसालत (पैग़म्बरी), तीसरे आख़िरत (परलोकवाद)। यह सूरा चूँकि विशुद्ध तौहीद को बयान करती है इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इसको एक तिहाई क़ुरआन के बराबर क़रार दिया।

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سُورَةُ الإِخۡلَاصِ
112. अल-इख़्लास
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قُلۡ هُوَ ٱللَّهُ أَحَدٌ
(1) कहो,1 वह अल्लाह है,2 यकता।3
1. इस हुक्म के सुननेवाले सबसे पहले तो नबी (सल्ल०) हैं, क्योंकि आप ही से यह सवाल किया गया था कि आप (सल्ल०) का रब कौन और कैसा है, और आप (सल्ल०) ही को हुक्म दिया गया कि इस सवाल के जवाब में आप यह कहें। लेकिन नबी (सल्ल०) के बाद हर मोमिन से यह बात कही गई है। उसे भी वही बात कहनी चाहिए जिसके कहने का हुक्म नबी (सल्ल०) को दिया गया था।
2. यानी मेरे जिस रब को तुम जानना चाहते हो वह कोई और नहीं, बल्कि अल्लाह है। यह उन सवाल करनेवालों की बात का पहला जवाब है, और इसका मतलब यह है कि मैं कोई नया रब लेकर नहीं आ गया हूँ जिसकी इबादत, दूसरे सब माबूदों को छोड़कर, मैं तुमसे करवाना चाहता हूँ, बल्कि वह वही हस्ती है जिसको तुम अल्लाह के नाम से जानते हो। ‘अल्लाह’ अरबों के लिए कोई अजनबी लफ़्ज़ न था। पुराने ज़माने से वे कायनात के पैदा करनेवाले के लिए यही लफ़्ज़ इस्तेमाल कर रहे थे और अपने दूसरे माबूदों में से किसी पर भी इस लफ़्ज़ को चस्पाँ नहीं करते थे। दूसरे माबूदों के लिए उनके यहाँ ‘इलाह’ का लफ़्ज़ राइज था। फिर अल्लाह के बारे में उनके जो अक़ीदे थे उनका इज़हार उस मौक़े पर ख़ूब खुलकर हो गया था जब अबरहा ने मक्का पर चढ़ाई की थी। उस वक़्त काबा में 360 इलाहों के बुत मौजूद थे, मगर मुशरिकों ने उन सबको छोड़कर सिर्फ़ अल्लाह से दुआएँ माँगी थीं कि वह इस बला से उनको बचाए। मानो वे अपने दिलों में अच्छी तरह जानते थे कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह इस नाज़ुक वक़्त में उनकी मदद नहीं कर सकता। काबा को भी वह इन इलाहों के ताल्लुक़ से बैतुल-आलिहा (इलाहों का घर) नहीं, बल्कि अल्लाह के ताल्लुक़ से ‘बैतुल्लाह’ (अल्लाह का घर) कहते थे। क़ुरआन में जगह-जगह यह बताया गया है कि अल्लाह तआला के बारे में अरब के मुशरिकों का अक़ीदा क्या था। मिसाल के तौर पर सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-87 में है— “अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है तो ये ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने।” सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—61 से 63 में है— “अगर तुम इनसे पूछो कि आसमानों और ज़मीन को किसने पैदा किया है और चाँद और सूरज को किसने सधा रखा है, तो ये ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने ...... और अगर तुम इनसे पूछो कि किसने आसमान से पानी बरसाया और उसके ज़रिए से मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को जिला उठाया, तो ये ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने।” सूरा-23 मोमिनून, आयतें—84 से 89 में है— “इनसे कहो, बताओ अगर तुम जानते हो कि यह ज़मीन और इसकी सारी आबादी किसकी है? ये ज़रूर कहेंगे अल्लाह की ..... इनसे पूछो कि सातों आसमानों और अर्शे-अज़ीम (महान अर्श) का मालिक कौन है? ये ज़रूर कहेंगे अल्लाह ...... इनसे कहो, बताओ अगर तुम जानते हो कि हर चीज़ पर इक़तिदार (सत्ता) किसका है? और वह कौन है जो पनाह देता है और उसके मुक़ाबले में कोई पनाह नहीं दे सकता? ये ज़रूर जवाब देंगे कि यह बात तो अल्लाह ही के लिए है।” सूरा-10 यूनुस, आयत-31 में है— “इनसे पूछो, कौन तुमको आसमान और ज़मीन से रोज़ी देता है? ये सुनने और देखने की क़ुव्वतें (जो तुम्हें हासिल हैं) किसके इख़्तियार में हैं? और कौन ज़िन्दा को मुर्दा से और मुर्दा को ज़िन्दा से निकालता है? और कौन इस कायनात के निज़ाम को चला रहा है? ये ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह।” इसी सूरा-10 यूनुस, आयतें—23, 24 में एक और जगह है— “जब तुम लोग कश्तियों पर सवार होकर मुवाफ़िक़ (अनुकूल) हवा के साथ ख़ुशी-ख़ुशी सफ़र कर रहे होते हो और फिर यकायक मुख़ालिफ़ (विपरीत) हवा का ज़ोर होता है और हर तरफ़ से मौजों के थपेड़े लगते हैं और मुसाफ़िर समझ लेते हैं कि तूफ़ान में घिर गए, उस वक़्त सब अपने दीन को अल्लाह ही के लिए ख़ालिस करके उससे दुआएँ माँगते हैं कि अगर तूने हमें इस बला से नजात दे दी तो हम शुक्रगुज़ार बन्दे बनेंगे। मगर जब वह उनको बचा लेता है तो फिर वही लोग हक़ (सच्चाई) से मुँह फेरकर ज़मीन में बग़ावत करने लगते हैं।” यही बात सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-67 में यूँ दोहराई गई है— “जब समुद्र में तुमपर कोई मुसीबत आती है तो उस एक के सिवा दूसरे जिन-जिनको तुम पुकारा करते हो वे सब गुम हो जाते हैं, मगर जब वह तुमको बचाकर ख़ुश्की (ज़मीन) पर पहुँचा देता है तो तुम उससे मुँह मोड़ जाते हो।” इन आयतों को निगाह में रखकर देखिए कि जब लोगों ने पूछा कि तुम्हारा वह रब कौन है और कैसा है जिसकी बन्दगी और इबादत की तरफ़ तुम हमें बुलाते हो, तो उन्हें जवाब दिया गया, ‘हुवल्लाहु’ (वह अल्लाह है)। इस जवाब से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि जिसे तुम अपना और सारी कायनात का पैदा करनेवाला, मालिक, रोज़ी देनेवाला और चलानेवाला और इन्तिज़ाम करनेवाला मानते हो, और सख़्त वक़्त आने पर जिसे दूसरे सब माबूदों को छोड़कर मदद के लिए पुकारते हो, वही मेरा रब है और उसी की बन्दगी की तरफ़ मैं तुम्हें बुलाता हूँ। इस जवाब में अल्लाह तआला की इन्तिहाई दर्जे की तमाम ख़ूबियाँ आप-से-आप आ जाती हैं। इसलिए यह बात सिरे से सोचने के लायक़ ही नहीं है कि कायनात को पैदा करनेवाला, उसका इन्तिज़ाम और उसके मामलों की तदबीर करनेवाला, उसमें पाए जानेवाले तमाम जानदारों को रोज़ी देनेवाला और मुसीबत के वक़्त अपने बन्दों की मदद करनेवाला ज़िन्दा न हो, सुनता और देखता न हो, सब कुछ कर सकने (सर्वशक्तिमान) की ताक़त न रखता हो, सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला न हो, रहमकरनेवाला और मेहरबानी करनेवाला न हो, और सबपर ग़ालिब (हावी) न हो।
3. अरबी ग्रामर (व्याकरण) के मुताबिक़ आलिमों ने ‘हुवल्लाहु अहद’ की कई तरकीबें बयान की हैं, मगर हमारे नज़दीक उनमें से जो तरकीब इस मक़ाम के साथ पूरी तरह मेल खाती है वह यह है कि ‘हु-व’ मुब्तदा (जिसके बारे में ख़बर दी जाए) है, ‘अल्लाहु’ उसकी ख़बर है, और ‘अहद’ उसकी दूसरी ख़बर। इस तरकीब के लिहाज़ से इस जुमले का मतलब यह है कि “वह (जिसके बारे में तुम लोग सवाल कर रहे हो) अल्लाह है, यकता है।” दूसरा मतलब यह भी हो सकता है, और ज़बान के लिहाज़ से ग़लत नहीं है कि, “वह अल्लाह एक है।” यहाँ सबसे पहले यह बात समझ लेनी चाहिए कि इस जुमले में अल्लाह तआला के लिए ‘अहद’ जिस तरह इस्तेमाल किया गया है वह अरबी ज़बान में ग़ैर-मामूली इस्तेमाल है। आम तौर से इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल इस तरह होता है, जैसे ‘यौमुल-अहद’ यानी ‘हफ़्ते का पहला दिन,’ और ‘फ़ब-असू अहदकुम’ यानी ‘अपने किसी आदमी को भेजो,’ या आम इनकार के लिए इस्तेमाल होता है, जैसे ‘मा जाअनी अ-हदुन’ यानी ‘मेरे पास कोई नहीं आया,’ या आम बात बयान करने के लिए सवालिया जुमले में बोला जाता है, जैसे ‘हल इन्द-क अ-हदुन’ यानी ‘क्या तुम्हारे पास कोई है?’ या इसी आम होने के पहलू के साथ शर्तिया जुमले में बोला जाता है, जैसे ‘इन जाअ-क अ-हदुन’ यानी ‘अगर तुम्हारे पास कोई आए’। या गिनती में बोला जाता है, जैसे ‘अ-हदुन, इस्नानुन, अह-द अश-र’ यानी ‘एक, दो, ग्यारह’। इन इस्तेमालों के सिवा क़ुरआन उतरने से पहले की अरबी ज़बान में इस बात की कोई मिसाल नहीं मिलती कि सिर्फ़ लफ़्ज़ ‘अहद’ सिफ़त (गुण) के तौर पर किसी शख़्स या चीज़ के लिए बोला गया हो, और क़ुरआन के उतरने के बाद यह लफ़्ज़ सिर्फ़ अल्लाह तआला की ज़ात के लिए इस्तेमाल किया गया है, दूसरे किसी के लिए लिए कभी इस्तेमाल नहीं किया गया। इस ग़ैर-मामूली अन्दाज़े-बयान से ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर होता है कि यकता और निराला होना अल्लाह की ख़ास सिफ़त (गुण) है, तमाम मौजूद चीज़ों में से कोई दूसरा यह सिफ़त नहीं रखता। वह एक है, उसके जैसा कोई दूसरा नहीं है। फिर जो सवालात मुशरिकों और अहले-किताब ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से आप (सल्ल०) के रब के बारे में किए थे उनको निगाह में रखते हुए देखिए कि ‘हुवल्लाहु’ कहने के बाद ‘अहद’ कहकर उनका जवाब किस तरह दिया गया है— सबसे पहले, इसका मतलब यह है कि वही अकेला रब है, किसी दूसरे का रब होने में कोई हिस्सा नहीं है, और चूँकि इलाह (माबूद) वही हो सकता है जो रब (मालिक और परवरदिगार) हो, इसलिए इलाह होने में भी कोई उसका शरीक नहीं। दूसरे, इसका मतलब यह भी है कि वही अकेला कायनात का पैदा करनेवाला है, पैदा करने के इस काम में कोई उसका शरीक नहीं है। वही अकेला इस कायनात का मालिक है, कायनात के निज़ाम की तदबीर और इन्तिज़ाम करनेवाला है, अपने पैदा किए हुओं को रोज़ी पहुँचाता है, और आड़े वक़्त में मदद करनेवाला, फ़रियाद सुननेवाला है। ख़ुदाई के इन कामों में, जिनको तुम ख़ुद मानते हो कि ये अल्लाह के काम हैं, किसी दूसरे का बिलकुल भी कोई हिस्सा नहीं है। तीसरे, चूँकि उन्होंने यह भी पूछा था कि वह किस चीज़ से बना है? उसका नसब क्या है? वह किस जिंस से है? किससे उसने विरासत पाई है? और उसके बाद कौन उसका वारिस होगा? इसलिए उनके इन सारे सवालों का जवाब भी अल्लाह तआला के लिए सिर्फ़ ‘अहद’ बोलकर दे दिया गया है। इसका मतलब यह है (1) वही एक ख़ुदा हमेशा से है और हमेशा रहेगा, न उससे पहले कोई ख़ुदा था, न उसके बाद कोई ख़ुदा होगा। (2) ख़ुदाओं की कोई जिंस (जाति) नहीं है जिसका वह फ़र्द (सदस्य) हो, बल्कि वह अकेला ख़ुदा है और कोई उसका हमजिंस (सहजाति) नहीं। (3) उसका वुजूद सिर्फ़ वाहिद (एक) नहीं, बल्कि ‘अहद’ है जिसमें किसी हैसियत से भी एक से ज़्यादा होने का कोई हलका-सा इमकान नहीं है। वह चीज़ों (पदार्थों) से बना वुजूद नहीं है जो जाँचने और बाँटने के क़ाबिल हो, जो कोई शक्ल-सूरत रखता हो, जो किसी जगह में रहता हो या कोई चीज़ उसके अन्दर जगह पाती हो। जिसका कोई रंग हो, जिसके कुछ जिसमानी हिस्से हों, जिसकी कोई सम्त (दिशा) और जिहत (आयाम) हो, और जिसके अन्दर किसी तरह का बदलाव होता हो। तमाम तरह की कसरतों (अधिकताओं और अनेकताओं) से बिलकुल पाक-साफ़ वह एक ही ज़ात है जो हर लिहाज़ से ‘अहद’ है। (यहाँ यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अरबी ज़बान में ‘वाहिद’ का लफ़्ज़ बिलकुल उसी तरह इस्तेमाल होता है जिस तरह हम उर्दू (या हिन्दी) में ‘एक’ लफ़्ज़ का इस्तेमाल करते हैं। बड़ी-से-बड़ी तादादवाले किसी संग्रह को भी कुल मिलाकर ‘वाहिद’ या एक कहा जाता है, जैसे एक आदमी, एक क़ौम, एक देश, एक दुनिया, यहाँ तक कि एक कायनात। और किसी संग्रह के हर हिस्से को अलग-अलग भी एक ही कहा जाता है। लेकिन ‘अहद’ का लफ़्ज़ अल्लाह तआला के सिवा किसी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता। इसी लिए क़ुरआन मजीद में जहाँ भी अल्लाह तआला के लिए ‘वाहिद’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है वहाँ इलाहे-वाहिद, एक ही माबूद, या ‘अल्लाहुल-वाहिदुल-क़ह्हार’, अकेला अल्लाह जो सबको अपने अधीन करके रखनेवाला है, कहा गया है, सिर्फ़ ‘वाहिद’ कहीं नहीं कहा गया, क्योंकि यह लफ़्ज़ उन चीज़ों के लिए भी इस्तेमाल होता है जो अपनी ज़ात में तरह-तरह की अनेकताएँ रखती हैं। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह तआला के लिए और सिर्फ़ अल्लाह ही के लिए ‘अहद’ का लफ़्ज़ पूरे तौर पर इस्तेमाल किया गया है। क्योंकि वुजूद में सिर्फ़ वही एक हस्ती ऐसी है जिसमें किसी हैसियत से भी कोई अनेकता नहीं है, जिसका एक होना हर लिहाज़ से मुकम्मल है)।
ٱللَّهُ ٱلصَّمَدُ ۝ 1
(2) अल्लाह सबसे बेनियाज़ है और सब उसके मुहताज हैं।4
4. अस्ल में लफ़्ज़ ‘समद’ इस्तेमाल किया गया है जिसका माद्दा (मूल धातु) ‘सॉद’ (स) ‘मीम’ (म) ‘दाल’ (द) है। अरबी ज़बान में इस माद्दे से जो अलफ़ाज़ निकले हैं उनपर एक निगाह डालने से मालूम हो जाता है कि उसके अन्दर कितने ज़्यादा मतलब समाए हुए हैं— • अस-सम्दु : इरादा करना, बुलन्द मक़ाम जो बड़ी मोटाई रखता हो, ऊँची जगह, वह आदमी जिसे जंग में भूख-प्यास न लगती हो, वह सरदार जिसकी तरफ़ ज़रूरतों में रुजू किया जाता हो। • अस-स-मदु : हर चीज़ का बुलन्द हिस्सा, वह शख़्स जिससे बढ़कर कोई दूसरा शख़्स न हो, वह सरदार जिसका हुक्म माना जाता हो और उसके बिना किसी मामले का फ़ैसला न किया जाता हो, वह सरदार जिसकी तरफ़ ज़रूरतमन्द लोग रुजू करते हों, हमेशा रहनेवाला, बुलन्द दर्जेवाला, ठोस जिसमें कोई ख़ोल या झोल न हो और जिससे न कोई चीज़ निकलती हो न उसमें दाख़िल हो सकती हो, वह आदमी जिसे जंग में भूख-प्यास न लगती हो। • अल-मुसमदु : ठोस चीज़ जिसमें किसी तरह का खोखलापन न हो। • अल-मुसम्मदु : मक़सूद (अभीष्ट), जिसकी तरफ़ जाने का इरादा किया जाए, सख़्त चीज़ जिसमें कोई कमज़ोरी न हो। • बैतुम-मुसम्मदुन : वह घर जिसकी तरफ़ ज़रूरतों में रुजू किया जाता हो। • बिनाउम-मुसमदुन : बुलन्द इमारत। • स-म-दहू व स-म-द इलैहि सम्दा : उस शख़्स की तरफ़ जाने का इरादा किया। • अस-म-द इलैहिल-अम-र : उसके सिपुर्द मामला कर दिया, उसके आगे मामला पेश कर दिया, उसके ऊपर मामले में भरोसा किया। (सिहाह, क़ामूस, लिसानुल-अरब)। इन मानी की बिना पर ‘अल्लाहुस-समद’ में लफ़्ज़ ‘अस-समद’ की जो तफ़सीरें सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन और बाद के आलिमों से नक़्ल हैं उन्हें हम नीचे दर्ज करते हैं— • हज़रत अली (रज़ि०), इकरिमा और कअ्बे-अहबार : “समद वह है जिससे ऊपर कोई न हो।” • हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और अबू-वाइल शक़ीक़-बिन-सलमा : “वह सरदार जिसकी सरदारी मुकम्मल हो और इन्तिहा को पहुँची हुई हो।” • इब्ने-अब्बास का दूसरा क़ौल : “समद वह है जिसकी तरफ़ लोग बला या मुसीबत के उतरने पर मदद के लिए रुजू करें।” उनका एक और क़ौल : “वह सरदार जो अपनी सरदारी में, अपनी इज़्ज़त में, अपनी बड़ाई में, अपनी नर्म मिज़ाजी और उदारता में, अपने इल्म में और अपनी हिकमत में कामिल (पूर्ण) हो।” • हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) : “वह जो सबसे बेनियाज़ हो और सब उसके मुहताज हों।” • इकरिमा के दूसरे क़ौल : “वह जिसमें से कोई चीज़ कभी न निकली हो न निकलती हो।” “जो न खाता हो न पीता हो।” इसी के जैसे मतलब वाले अक़वाल शअ्बी और मुहम्मद-बिन-कअ्ब अल-क़ुर्जी से भी नक़्ल हुए हैं। • सुद्दी : “दरकार चीज़ें हासिल करने के लिए लोग जिसकी तरफ़ बढ़ें और मुसीबतों में मदद लेने के लिए जिसकी तरफ़ रुजू करें।” • सईद-बिन-जुबैर : “वह जो अपनी तमाम सिफ़ात (गुणों) और आमाल में मुकम्मल हो।” • रबीअ-बिन-अनस : “वह जिसपर कोई आफ़त न आती हो।” • मुक़ातिल-बिन-हय्यान : “वह जो बेऐब हो।” • इब्ने-कैसान: “वह जिसकी सिफ़त (गुण) किसी और में न हो।” • हसन बसरी और क़तादा : “जो बाक़ी रहनेवाला और कभी न मिटनेवाला हो।” इसी से मिलते-जुलते अक़वाल (कथन) मुजाहिद, मामर और मुर्रतुल-हमदानी से भी नक़्ल हुए हैं। • मुर्रतुल-हमदानी का एक और क़ौल यह है कि, “वह जो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ जो चाहे फ़ैसला करे और जो चाहे काम करे, उसके हुक्म और फ़ैसले पर दोबारा नज़र डालनेवाला कोई न हो।” • इबराहीम नख़ई : “वह जिसकी तरफ़ लोग अपनी ज़रूरतों के लिए रुजू करें।” • अबू-बक्र अल-अंबारी : “अरबी ज़बान जाननेवालों के बीच इसमें कोई इख़्तिलाफ़ नहीं है कि ‘समद’ उस सरदार को कहते हैं जिससे ऊपर कोई और सरदार न हो, और जिसकी तरफ़ लोग अपनी ज़रूरतों और अपने मामलों में रुजू करें।” इसी के क़रीब अज़-ज़जाज का क़ौल है। वे कहते हैं कि “समद वह है जिसपर सरदारी ख़त्म हो गई हो और हर एक अपनी ज़रूरतों के लिए जिसकी तरफ़ रुजू करे।” अब ग़ौर कीजिए कि पहले जुमले में ‘अल्लाहु अहद’ क्यों कहा गया, और इस जुमले में ‘अल्लाहुस-समद’ कहने की क्या वजह है। लफ़्ज़ ‘अहद’ के बारे में हम बयान कर चुके हैं कि वह सिर्फ़ अल्लाह तआला के लिए ख़ास है, किसी और के लिए सिरे से वह इस्तेमाल ही नहीं होता, इसलिए उसे ‘अ-हदुन’ यानी नकरा (जातिवाचक संज्ञा) के रूप में इस्तेमाल किया गया है। लेकिन ‘समद’ का लफ़्ज़ चूँकि मख़लूक़ात (अल्लाह के पैदा किए हुओं) के लिए भी इस्तेमाल होता है, इसलिए ‘अल्लहु स-मदुन’ कहने के बजाय ‘अल्लाहुस-समद’ कहा गया जिसका मतलब यह है कि अस्ली और हक़ीक़ी ‘समद’ अल्लाह तआला ही है। मख़लूक़ (इनसान) अगर किसी हैसियत से समद हो भी तो दूसरी हैसियत से वह समद नहीं है, क्योंकि मिट जानेवाला है, अमिट नहीं है, जाँचने और बँट जाने के क़ाबिल है, कई चीज़ों से मिलकर बना है, किसी वक़्त उसके अंग बिखर सकते हैं, कुछ जानदार उसके मुहताज हैं तो कुछ का वह ख़ुद मुहताज है, उसका सरदार बनना एक ऐसी चीज़ है जो उसके साथ जोड़ी गई है न कि यह कि वह ख़ुद-ब-ख़ुद पूरे तौर पर सरदार है, किसी के मुक़ाबले में वह बढ़कर है तो उसके मुक़ाबले में कोई और बढ़कर है, कुछ जानदारों की कुछ ज़रूरतों को वह पूरा कर सकता है मगर सबकी तमाम ज़रूरतों को पूरा करना किसी इनसान के बस में नहीं है। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह तआला का समद होना हर हैसियत से मुकम्मल है। सारी दुनिया उसकी मुहताज है और वह किसी का मुहताज नहीं। दुनिया की हर चीज़ अपने वुजूद और बाक़ी रहने (स्थायित्व) और अपनी ज़रूरतों के लिए चाहे-अनचाहे उसी की तरफ़ रुजू करती है और सबकी तमाम ज़रूरतें पूरी करनेवाला वही है। वह अमिट है। रोज़ी देता है, लेता नहीं है। वह अपने आपमें मुकम्मल है, कई चीज़ों से मिलकर नहीं बना है कि वह जाँचे जाने और बँट जाने के क़ाबिल हो। सारी कायनात पर उसकी सरदारी क़ायम है और वह सबसे बढ़कर है। इसलिए वह ‘समद’ नहीं बल्कि ‘अस-समद’ है, यानी एक ही ऐसी हस्ती जो हक़ीक़त में समद होने की तमाम सिफ़ात (गुण) अपने अन्दर रखती है। फिर चूँकि वह ‘अस-समद’ है इसलिए लाज़िम आता है कि वह यकता और निराला हो, क्योंकि ऐसी हस्ती एक ही हो सकती है जो किसी की ज़रूरतमन्द न हो और सब जिसके मुहताज हों। दो या ज़्यादा हस्तियाँ सबसे बेनियाज़ और सबकी ज़रूरत पूरी करनेवाली नहीं हो सकतीं। साथ ही उसके अस-समद होने से यह भी लाज़िम आता है कि वही एक माबूद हो, क्योंकि इनसान इबादत उसी की करता है जिसका वह मुहताज हो। और इससे यह भी लाज़िम आता है कि उसके सिवा कोई माबूद न हो, क्योंकि जो ज़रूरत पूरी करने की ताक़त और इख़्तियार ही न रखता हो उसकी बन्दगी और इबादत कोई होशमन्द आदमी नहीं कर सकता।
لَمۡ يَلِدۡ وَلَمۡ يُولَدۡ ۝ 2
(3) न उसकी कोई औलाद है और न वह किसी की औलाद।5
5. मुशरिकों ने हर ज़माने में ख़ुदाई का यह तसव्वुर (धारणा) अपनाया है कि इनसानों की तरह ख़ुदाओं की भी कोई जाति है जिसके बहुत-से लोग हैं, और उनमें शादी-ब्याह और नस्ल का सिलसिला चलता है। इस जहालत-भरे तसव्वुर से उन्होंने सारे जहान के रब अल्लाह को भी पाक और परे नहीं समझा और उसके लिए भी औलाद ठहरा दी। चुनाँचे अरबवालों का यह अक़ीदा क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है कि वे फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियाँ ठहराते थे। नबियों (अलैहि०) की उम्मतें भी इस जहालत से महफ़ूज़ न रह सकीं। उनके यहाँ भी किसी बुज़ुर्ग इनसान को अल्लाह तआला का बेटा ठहराने का अक़ीदा पैदा हो गया। इन अलग-अलग अंधविश्वासों में दो तरह के ख़यालात हमेशा गड्ड-मड्ड होते रहे हैं। कुछ लोगों ने यह समझा कि जिनको वे अल्लाह तआला की औलाद ठहरा रहे हैं वह उस पाक ज़ात की नसबी (वंशीय) औलाद है। और कुछ ने यह दावा किया कि जिसको वे अल्लाह का बेटा कह रहे हैं उसे अल्लाह ने अपना मुँहबोला बेटा बनाया है। अगरचे उनमें से किसी की यह जुरअत नहीं हुई कि, अल्लाह की पनाह, किसी को अल्लाह का बाप क़रार दें, लेकिन ज़ाहिर है कि जब किसी हस्ती के बारे में यह ख़याल किया जाए वह बच्चे पैदा करने और अपनी नस्ल को चलाने से पाक नहीं है और उसके बारे में यह ख़याल किया जाए कि वह भी इनसान की तरह उस क़िस्म की कोई हस्ती है जिसके यहाँ औलाद पैदा होती है, और जिसको बे-औलाद होने की हालत में किसी को बेटा बनाने की ज़रूरत पेश आती है, तो फिर इनसानी ज़ेहन इस गुमान से बचा नहीं रह सकता कि उसे भी किसी की औलाद समझे। यही वजह है कि जो सवालात अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछे गए थे उनमें एक सवाल यह था कि अल्लाह का नसब क्या है? और दूसरा यह कि किससे उसने दुनिया की विरासत पाई है और कौन उसके बाद वारिस होगा? जहालत-भरी इन मनगढ़ंत बातों का अगर जाइज़ा (आकलन) लिया जाए तो मालूम हो जाता है कि अक़ली तौर पर इनको मान लेने से कुछ और चीज़ों को भी मान लेना लाज़िम आता है— अव्वल यह कि ख़ुदा एक न हो, बल्कि ख़ुदाओं की कोई जाति हो, और उसके लोग ख़ुदाई की सिफ़ात (गुणों), कामों और इख़्तियारों में शरीक हों। यह बात ख़ुदा की सिर्फ़ नसबी औलाद मान लेने ही से लाज़िम नहीं आती, बल्कि किसी को मुँह बोला बेटा मान लेने से भी लाज़िम आती है, क्योंकि किसी का मुँह बोला बेटा ज़रूर ही उसकी जाति ही का हो सकता है, और जब, अल्लाह की पनाह, वह ख़ुदा का हमजिंस (सहजाति) है तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि वह ख़ुदा के जैसी सिफ़ात (गुण) भी रखता है। दूसरे यह कि औलाद का तसव्वुर इसके बिना नहीं किया जा सकता कि नर-मादा का मिलन हो और कोई माद्दा (प्रजनन-तत्त्व) बाप और माँ के जिस्म से निकलकर बच्चे का रूप ले ले। इसलिए अल्लाह के लिए औलाद मान लेने से लाज़िम आता है कि, अल्लाह की पनाह, वह एक माद्दी (भौतिक) और जिसमानी (शारीरिक) वुजूद हो, उसकी हमजिंस कोई उसकी बीवी भी हो, और उसके जिस्म से कोई माद्दा भी निकले। तीसरे यह कि नस्ल चलने का सिलसिला जहाँ भी है उसकी वजह यह है कि लोग मिट जानेवाले होते हैं और उनकी जाति के बाक़ी रहने के लिए ज़रूरी होता है कि उनसे औलाद पैदा हो जिससे उनकी नस्ल चले। इसलिए अल्लाह के लिए औलाद मानने से यह भी लाज़िम आता है कि वह अपने-आपमें, अल्लाह की पनाह, मिट जानेवाला हो और बाक़ी रहनेवाली चीज़ ख़ुदाओं की नस्ल हो, न कि ख़ुदा की ज़ात। साथ ही इससे यह भी लाज़िम आता है कि तमाम मिट जानेवाले लोगों की तरह (हम अल्लाह की पनाह चाहते हैं) ख़ुदा की भी कोई शुरुआत और इन्तिहा हो। क्योंकि नस्ल चलने पर जिन जातियों और चीज़ों के बाक़ी रहने का दारोमदार होता है उनके लोग हमेशा रहनेवाले और अमिट नहीं होते। चौथे यह कि किसी को मुँह बोला बेटा बनाने का मक़सद यह होता है कि एक बेऔलाद शख़्स अपनी ज़िन्दगी में किसी मददगार का, और अपनी मौत के बाद किसी वारिस का ज़रूरतमन्द होता है। लिहाज़ा अल्लाह तआला के लिए यह मान लेना कि उसने किसी को बेटा बनाया है, उस पाक ज़ात से यक़ीनन वही सब कमज़ोरियाँ जोड़ना है जो मिट जानेवाले लोगों में पाई जाती हैं। इन तमाम मनगढ़ंत बातों की जड़ अगरचे अल्लाह तआला को ‘अहद’ और ‘अस-समद’ कहने से ही कट जाती है, लेकिन उसके बाद यह कहने से कि, “न उसकी कोई औलाद है और न वह किसी की औलाद,” इस मामले में किसी शक-शुब्हे की गुंजाइश भी बाक़ी नहीं रहती। फिर चूँकि अल्लाह तआला के हक़ में ये ख़यालात शिर्क की बड़ी वजहों में से हैं, इसलिए अल्लाह तआला ने सिर्फ़ सूरा-112 इख़लास ही में उनको साफ़-साफ़ और पूरे तौर पर रद्द करने पर बस नहीं किया, बल्कि जगह-जगह इस मज़मून को अलग-अलग तरीक़ों से बयान किया है ताकि लोग हक़ीक़त को पूरी तरह समझ लें। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी आयतें देखिए— “अल्लाह तो बस एक ही ख़ुदा है। वह पाक है इससे कि कोई उसका बेटा हो। जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है, सब उसकी मिलकियत है।” (सूरा-4 निसा, आयत-171) “ख़ूब सुन रखो, ये लोग अस्ल में अपनी मनगढ़ंत से यह बात कहते हैं कि अल्लाह औलाद रखता है। सच तो यह है कि ये बिलकुल झूठे हैं।” (सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—151, 152) “इन्होंने अल्लाह और फ़रिश्तों के बीच नसब का रिश्ता बना रखा है, हालाँकि फ़रिश्ते ख़ूब जानते हैं कि ये लोग (मुजरिमों की हैसियत से) पेश किए जानेवाले हैं।” (सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-158) “लोगों ने उसके बन्दों में से कुछ को उसका हिस्सा (अंश) बना डाला। हक़ीक़त यह है कि इनसान खुला एहसान भूल जानेवाला है।” (सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-15) “और लोगों ने जिन्नों को अल्लाह का शरीक ठहरा दिया, हालाँकि वह उनका पैदा करनेवाला है। और उन्होंने बिना जाने-बूझे उसके लिए बेटे और बेटियाँ गढ़ लीं, हालाँकि वह पाक और बहुत ऊपर है उन बातों से जो वे कहते हैं। वह तो आसमानों और ज़मीन का ईजाद करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है जबकि कोई उसकी बीवी ही नहीं है। उसने हर चीज़ को पैदा किया है।” (सूरा-6 अनआम, आयतें—100, 101) “और इन लोगों ने कहा कि रहमान (अल्लाह) ने किसी को बेटा बनाया है। पाक है वह। बल्कि (जिनको ये उसकी औलाद कहते हैं) वे तो बन्दे हैं जिन्हें इज़्ज़त दी गई है।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-26) “लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है, सुब्हानल्लाह! वह तो बेनियाज़ है। असमानों में जो कुछ है और ज़मीन में जो कुछ है सब उसकी मिलकियत है। तुम्हारे पास इस बात की आख़िर क्या दलील है? क्या तुम अल्लाह के बारे में वे बातें कहते हो जिन्हें तुम नहीं जानते?” (सूरा-10 यूनुस, आयत-68)। “और (ऐ नबी) कहो, तारीफ़ है उस अल्लाह के लिए जिसने न किसी को बेटा बनाया, न कोई बादशाही में उसका शरीक है, और न वह बेबस है कि कोई उसका मददगार हो।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-111) “अल्लाह ने किसी को बेटा नहीं बनाया है, और कोई दूसरा ख़ुदा उसके साथ नहीं है।” (सूरा-23 मोमिनून, आयत-91)। इन आयतों में हर पहलू से उन लोगों के अक़ीदे को रद्द किया गया है जो अल्लाह के लिए नसबी (वंशीय) औलाद या मुँह बोला बेटा बनाई हुई औलाद ठहराते हैं, और उसके ग़लत होने की दलीलें भी दे दी गई हैं। ये और इसी मज़मून की दूसरी बहुत-सी आयतें जो क़ुरआन मजीद में हैं, सूरा इख़लास की बेहतरीन तफ़सीर करती हैं।
وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ كُفُوًا أَحَدُۢ ۝ 3
(4) और कोई उसके बराबर का नहीं है।6
6. अस्ल में लफ़्ज़ ‘कुफ़ू’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है मिसाल, मिलता-जुलता, उसके जैसा, हम-रुत्बा, बराबर। निकाह के मामले में ‘कुफ़ू’ का लफ़्ज़ हमारी ज़बान (उर्दू) में भी इस्तेमाल होता है और इसका मक़सद यह होता है कि लड़का और लड़की समाजी हैसियत से बराबर के जोड़ हों। इसलिए इस आयत का मतलब यह है कि सारी कायनात में कोई नहीं है, न कभी था, न कभी हो सकता है, जो अल्लाह के जैसा, या उसके हम-मर्तबा हो, या जो अपनी सिफ़ात (गुणों), कामों और इख़्तियारों में उससे किसी दर्जे में भी मिलता-जुलता हो।