Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الفَلَقِ

मुअव्विज़तैन

113. अल-फ़लक़

114. अन-नास

परिचय

नाम

यद्यपि क़ुरआन मजीद की ये अन्तिम दोनों सूरतें अपने आप में अलग-अलग हैं और क़ुरआन में अलग नामों से लिखी हुई हैं, लेकिन उनके बीच आपस में इतना गहरा सम्बन्ध है और उनके विषय एक-दूसरे से इतनी गहरी अनुकूलता रखते हैं कि उनका एक (संयुक्त) नाम 'मुअव्विज़तैन' (पनाह माँगनेवाली दो सूरतें) रखा गया है। इमाम बैहक़ी ने 'दलाइले-नुबूवत' में लिखा है कि ये उतरी भी एक साथ ही हैं। इसी कारण दोनों का संयुक्त नाम 'मुअव्विजतैन' रख दिया गया है। हम यहाँ दोनों की भूमिका लिख रहे हैं, क्योंकि इनसे सम्बन्धित विषय और वार्ताएं बिलकुल समान हैं। अलबत्ता आगे इनका अनुवाद और व्याख्या अलग-अलग की जाएगी।

उतरने का समय

हज़रत हसन बसरी, इक्रिमा, अता और जाबिर-बिन-जैद (रह०) कहते हैं कि ये सूरतें मक्की हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) और [क़तादा (रह०) कहते हैं कि ये मदनी हैं लेकिन] इनका विषय साफ़ बता रहा है कि यह शुरू में मक्का में उस वक़्त उतरी होंगी जब वहाँ नबी (सल्ल०) का विरोध ख़ूब ज़ोर पकड़ चुका था।

विषय और वार्ता

मक्का में ये दोनों सूरतें जिन परिस्थितियों में उतरी थीं वे ये थीं कि इस्लाम की दावत शुरू होते ही ऐसा महसूस होने लगा था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने मानो भिड़ों के छत्ते में हाथ डाल दिया है। ज्यों-ज्यों आपकी दावत फैलती गई, क़ुरैश के इस्लाम विरोधियों का विरोध भी तेज़ होता गया। जब तक उन्हें यह उम्मीद रही कि शायद वे किसी तरह की सौदेबाज़ी करके, या बहला-फुसलाकर आपको इस काम से रोक देंगे, उस वक़्त तक तो फिर भी दुश्मनी की तेज़ी में कुछ कमी रही, लेकिन जब नबी (सल्ल०) ने उनको इस ओर से बिलकुल निराश कर दिया तो दुश्मनों की दुश्मनी अपनी हद को पहुँच गई, ख़ास तौर पर जिन ख़ानदानों के लोगों (मर्दों या औरतों, लड़कों या लड़कियों) ने इस्लाम अपना लिया था, उन ख़ानदानों के दिलों में तो नबी (सल्ल॰) के ख़िलाफ़ हर वक़्त ग़ुस्से की भट्ठियाँ सुलगती रहती थीं, घर-घर आपको कोसा जा रहा था, खुफ़िया मश्‍वरे किए जा रहे थे कि किसी वक़्त रात को छिपकर आपको क़त्ल कर दिया जाए। आपके ख़िलाफ़ जादू-टोने किए जा रहे थे, ताकि आपका या तो देहांत हो जाए या आप सख़्त बीमार पड़ जाएँ या मानसिक रोगी हो जाएँ। जिन्न और इंसान दोनों तरह के शैतान हर ओर फैल गए थे, ताकि आम लोगों के दिलों में आपके ख़िलाफ़ और आपके लाए हुए धर्म और क़ुरआन के ख़िलाफ़ कोई न कोई वस्वसा (भ्रम, सन्देह) डाल दें जिससे लोग बदगुमान होकर आपसे दूर भागने लगें। बहुत से लोगों के दिलों में द्वेष की आग भी जल रही थी, क्योंकि वे अपने सिवा या अपने क़बीले के किसी आदमी के सिवा दूसरे किसी आदमी का चिराग़ जलते न देख सकते थे। इन परिस्थितियों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को [अल्लाह की पनाह माँगने का निर्देश दिया गया है जो इन दोनों सूरतों में उल्लिखित है।] यह उसी तरह की बात है जैसी हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उस वक़्त कही थी जब फ़िरऔन ने भरे दरबार में उनके क़त्ल का इरादा ज़ाहिर किया था कि–

“मैंने अपने और तुम्हारे रब की पनाह ले ली है हर उस घमंडी के मुक़ाबले में जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता।” (सूरा-40 अल-मोमिन, आयत 27)

“और मैंने अपने और तुम्हारे रब की पनाह ले ली है इस बात से कि तुम मुझ पर हमलावर हो।” (सूरा-44 अद-दुख़ान, आयत 20) दोनों मौक़ों पर अल्लाह के इन महान पैग़म्बरों का मुक़ाबला बड़ी बे-सरो-सामानी की हालत में बड़े सरो-सामान और साधनों के मालिक और ताक़त और शान रखनेवालों से था। दोनों मौक़ों पर वे ताक़तवर दुश्मनों के आगे अपनी सत्य की दावत पर डट गए। उन्होंने दुश्मनों की धमकियों और ख़तरनाक उपायों और दुश्मनी की चालों को यह कहकर नज़र-अंदाज़ कर दिया कि तुम्हारे मुक़ाबले में हमने सृष्टि के रब की पनाह ले ली है।

सूरा फ़ातिहा और इन सूरतों की अनुकूलता

आख़िरी चीज़ जो इन दो सूरतों के बारे में विचार करने की है वह क़ुरआन के आरंभ और अंत की अनुकूलता है। क़ुरआन का आरम्भ सूरा फ़ातिहा से होता है और अंत मुअव्विज़तैन (पनाह माँगनेवाली दो सूरतों) पर। अब ज़रा दोनों पर एक दृष्टि डालिए। आरम्भ में अल्लाह की जो अखिल जगत् का प्रभु है, अत्यंत करुणामय, दयावान और बदला दिए जाने के दिन का मालिक है, प्रशंसा और स्तुति करके बन्दा प्रार्थना करता है कि आप ही की मैं बन्दगी करता हूँ और आप ही से मदद चाहता हूँ, और सबसे बड़ी मदद मुझे जो चाहिए वह यह है कि मुझे सीधा रास्ता बताइए। उत्तर में अल्लाह की ओर से सीधा रास्ता दिखाने के लिए उसे पूरा क़ुरआन दिया जाता है और उसका अन्त इस बात पर किया जाता है कि बन्दा अल्लाह तआला से, जो सुबह का रब, लोगों का रब, लोगों का बादशाह और लोगों का उपास्य है, प्रार्थना करता है कि मैं हर मख़लूक़ (सृष्ट प्राणी) के हर फ़ितने और बुराई से बचे रहने के लिए आप ही की शरण लेता हूँ, और मुख्य रूप से शैतानों के वस्वसों (बुरे विचारों) से चाहे वे जिन्न हों या इनसान, आपकी शरण लेता हूँ, क्योंकि सीधे रास्ते की पैरवी में वही सबसे अधिक रुकावट बनते हैं। उस आरंभ के साथ यह अन्त जो अनुकूलता रखता है वह किसी दृष्टिवान से छिपी नहीं रह सकती।

 ---------------------

سُورَةُ الفَلَقِ
113. अल-फ़लक़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قُلۡ أَعُوذُ بِرَبِّ ٱلۡفَلَقِ
(1) कहो,1 मैं पनाह माँगता हूँ2 सुबह के रब की,3
1. चूँकि ‘क़ुल’ (कहो) का लफ़्ज़ उस पैग़ाम का एक हिस्सा है जो पैग़म्बरी की तबलीग़ के लिए नबी (सल्ल०) पर वह्य के ज़रिए से उतरा है, इसलिए अगरचे यह बात सबसे पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही से कही गई है, मगर आप (सल्ल०) के बाद हर ईमानवाले से भी यह कहा गया है।
2. पनाह माँगने के अमल में लाज़िमन तीन चीज़ें शामिल होती हैं। एक अपने-आपमें ख़ुद पनाह माँगना। दूसरे पनाह माँगनेवाला। तीसरा वह जिसकी पनाह माँगी जाए। पनाह माँगने से मुराद किसी चीज़ से डर महसूस करके अपने-आपको उससे बचाने के लिए किसी दूसरे की हिफ़ाज़त में जाना, या उसकी आड़ लेना, या उससे लिपट जाना या उसके साए में चला जाना है। पहनाह माँगनेवाला बहरहाल वही शख़्स होता है जो महसूस करता है कि जिस चीज़ से वह डर रहा है उसका मुक़ाबला वह ख़ुद नहीं कर सकेगा, बल्कि वह इसका ज़रूरतमन्द है कि उससे बचने के लिए दूसरे की पनाह ले। फिर जिसकी पनाह माँगी जाती है वह ज़रूर ही कोई ऐसा शख़्स या वुजूद होता है जिसके बारे में पनाह लेनेवाला यह समझता है कि उस डरावनी चीज़ से वही उसको बचा सकता है। अब पनाह की एक क़िस्म तो वह है जो फ़ितरी क़ानूनों के मुताबिक़ दुनिया के अन्दर किसी महसूस होनेवाली माद्दी (भौतिक) चीज़ या किसी शख़्स या ताक़त से हासिल की जाती है। मसलन दुश्मन के हमले से बचने के लिए किसी क़िले में पनाह लेना, या गोलियों की बौछार से बचने के लिए खाई या किसी दमदमे (अस्थायी क़िला) या किसी दीवार की आड़ लेना, या किसी ताक़तवर ज़ालिम से बचने के लिए किसी इनसान या क़ौम या हुकूमत के पास पनाह लेना, या धूप से बचने के लिए किसी पेड़ या इमारत के साए में पनाह लेना। इसके बरख़िलाफ़ दूसरी क़िस्म वह है जिसमें हर तरह के ख़तरों और हर तरह के माद्दी (भौतिक), अख़लाक़ी या रूहानी नुक़सानों और नुक़सान पहुँचानेवाली चीज़ों से किसी फ़ितरत के क़ानूनों (प्राकृतिक नियमों) से परे किसी हस्ती की पनाह इस अक़ीदे की बुनियाद पर माँगी जाती है कि वह हस्ती इस दुनिया पर हुकूमत कर रही है और ग़ैर-महसूस तरीक़े से वह उस शख़्स की ज़रूर हिफ़ाज़त कर सकती है जो उसकी पनाह ढूँढ़ रहा है। पनाह की यह दूसरी क़िस्म ही न सिर्फ़ सूरा-113 फ़लक़ और सूरा-114 नास में मुराद है, बल्कि क़ुरआन और हदीस में जहाँ भी अल्लाह तआला की पनाह माँगने का ज़िक्र किया गया है उससे मुराद यही ख़ास क़िस्म की पनाह है। और तौहीद के अक़ीदे के लिए एक ज़रूरी शर्त है कि इस तरह की पनाह अल्लाह के सिवा किसी से न माँगी जाए। अरब के मुशरिक लोग इस तरह की हिफ़ाज़त अल्लाह के सिवा दूसरी हस्तियों, मसलन जिन्नों या देवियों और देवताओं से माँगते थे और आज भी माँगते हैं। माद्दापरस्त (भौतिकवादी) लोग इसके लिए भी माद्दी (भौतिक) ज़रिओं और वसाइल ही की तरफ़ जाते हैं, क्योंकि वे किसी ऐसी ताक़त को नहीं मानते जो फ़ितरत के क़ानूनों से परे है। मगर ईमानवाला ऐसी तमाम आफ़तों और बलाओं के मुक़ाबले में, जिनको दूर करने पर वह अपने-आपको क़ादिर (समर्थ) नहीं समझता, सिर्फ़ अल्लाह की तरफ़ रुजू करता और उसी की पनाह माँगता है। मिसाल के तौर पर मुशरिकों के बारे में क़ुरआन में बयान किया गया है, “और यह कि इनसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे।” (सूरा-72 जिन्न, आयत-6) और इसकी तशरीह करते हुए हम सूरा-72 जिन्न, हाशिया-7 में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की यह रिवायत नक़्ल कर चुके हैं कि अरब के मुशरिकों को जब रात किसी सुनसान घाटी में गुज़ारनी पड़ती तो वे पुकारकर कहते, “हम इस घाटी के रब (यानी उस जिन्न की जो इस घाटी पर हुक्मराँ है या इस घाटी का मालिक है) पनाह माँगते हैं।” इसके बरख़िलाफ़ फ़िरऔन के बारे में कहा गया है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की पेश की हुई बड़ी-बड़ी निशानियों को देखकर, “वह अपने बल-बूते पर अकड़ गया।” (सूरा-51 ज़ारियात, आयत-39)। लेकिन ख़ुदापरस्तों का रवैया क़ुरआन में यह बताया गया है कि जिस चीज़ का भी वे डर महसूस करते हैं, चाहे वह माद्दी (भौतिक) हो या अख़लाक़ी या रूहानी, उसकी बुराई से बचने के लिए वे अल्लाह की पनाह माँगते हैं। चुनाँचे हज़रत मरयम (अलैहि०) के बारे में बयान हुआ है कि जब अचानक तन्हाई में अल्लाह का फ़रिश्ता एक मर्द की शक्ल में उनके सामने आया (जबकि वह न जानती थीं कि यह फ़रिश्ता है) तो उन्होंने कहा, “अगर तू अल्लाह से डरनेवाला आदमी है तो मैं तुझसे रहमान (अल्लाह) की पनाह माँगती हूँ।” (सूरा-19 मरयम, आयत-18)। हज़रत नूह (अलैहि०) ने जब अल्लाह तआला से एक बेजा दुआ की और जवाब में अल्लाह की तरफ़ से उनपर डाँट पड़ी तो उन्होंने फ़ौरन अर्ज़ किया, “मेरे रब मैं तेरी पनाह माँगता हूँ इस बात से कि मैं तुझसे ऐसी चीज़ की दरख़ास्त करूँ जिसका मुझे इल्म नहीं है।” (सूरा-11 हूद, आयत-47)। हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जब बनी-इसराईल को गाय ज़ब्ह करने का हुक्म दिया और उन्होंने कहा कि आप हमसे मज़ाक़ करते हैं तो उन्होंने जवाब में फ़रमाया, “मैं अल्लाह की पनाह माँगता हूँ इस बात से कि जाहिलों की-सी बातें करूँ।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-67) यही शान उन तमाम तअव्वुज़ात (पनाह माँगनेवाली दुआओं) की है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से हदीस की किताबों में नक़्ल हुई हैं। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) की नीचे लिखी दुआओं को देखिए— हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) अपनी दुआओं में यह फ़रमाया करते थे— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिन शर्रि मा अमिल्तु व मिन् शर्रि मा लम आमल।” “ऐ अल्लाह मैं तेरी पनाह माँगता हूँ उन कामों की बुराई से जो मैंने किए और उन कामों की बुराई से जो मैंने नहीं किए।” (यानी अगर मैंने कोई ग़लत काम किया है तो उसके बुरे नतीजे से पनाह माँगता हूँ और अगर कोई काम जो करना चाहिए था मैंने नहीं किया तो उसके नुक़सान से भी पनाह माँगता हूँ, या इस बात से पनाह माँगता हूँ कि जो काम न करना चाहिए वह मैं कभी कर गुज़रूँ)। (हदीस : मुस्लिम) इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दुआओं में से एक यह भी थी— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिन् ज़वालि निअ्मति-क व-तहव्वुलि आफ़ीतिक। व फ़ज-अति निक़्मति-क व जमीइ स-ख़तिक।” “ऐ अल्लाह मैं तेरी पनाह माँगता हूँ इससे कि तेरी जो नेमत मुझे हासिल है वह छिन जाए, और तुझसे जो आफ़ियत (कुशलता) मुझे नसीब है वह नसीब न रहे, और तेरा ग़ज़ब यकायक टूट पड़े, और पनाह माँगता हूँ तेरी हर तरह की नाराज़ी से।” (हदीस : मुस्लिम)। ज़ैद-बिन-अरक़म (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) फ़रमाया करते थे— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिन् इल्मिल-लायन्‌फ़उ वमिन् क़ल्बिल-लायख़्शउ वमिन् नफ़सिल-लातश्बउ वमिन् दअ्वतिल-लायुस्तजाब।” “ऐ ख़ुदा मैं तेरी पनाह माँगता हूँ उस इल्म से जो फ़ायदेमन्द न हो, उस दिल से जो तुझसे न डरे, उस नफ़्स (मन) से जो कभी सैर (सन्तुष्ट) न हो, और उस दुआ से जो क़ुबूल न की जाए।” (हदीस : मुस्लिम)। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाते थे— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिनल-जूइ फ़-इन्नहू बिअ्सज़्ज़जीउ व अऊज़ुबि-क मिनल-ख़ियानति फ़-इन्नहू बिअ्सतिल-बितानह्।” “ऐ ख़ुदा मैं तेरी पनाह माँगता हूँ भूख से क्योंकि वह बहुत बुरी चीज़ है जिसके साथ कोई रात गुज़ारे, और तेरी पनाह माँगता हूँ ख़ियानत से क्योंकि वह बहुत बड़ी अन्दरूनी ख़राबी है।” (हदीस : मुस्लिम)। हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाया करते थे— “अल्लाहुम-म अऊज़ुबि-क मिनल-बर्सि वल-जुनूनि वल-जुज़ामि वसय्यिइल-अस्क़ाम।” “ऐ अल्लाह! मैं तेरी पनाह माँगता हूँ कोढ़ और जुनून और जुज़ाम (सफ़ेद दाग़) और तमाम बुरी बीमारियों से।” (हदीस : अबू-दाऊद)। हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) इन कलिमात के साथ दुआ माँगा करते थे— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिन् फ़ित्नतिन्नारि वमिन् शर्रिल-ग़िना वल-फ़क़्र।” “ऐ अल्लाह! मैं तेरी पनाह माँगता हूँ आग के फ़ितने से और मालदारी और ग़रीबी की बुराई से।” (हदीस : मुस्लिम)। क़ुतबा-बिन-मालिक (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) फ़रमाया करते थे— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिम-मुन्‌करातिल-अख़लाक़ि वल-आमालि वल- अहवाइ।” “ऐ अल्लाह! मैं बुरे अख़लाक़ और बुरे आमाल और बुरी ख़ाहिशों से तेरी पनाह माँगता हूँ।” (हदीस : तिरमिज़ी)। शकल-बिन-हुमैद (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया कि मुझे कोई दुआ बताइए। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिन् शर्रि सम्ई वमिन् शर्रि ब-सरी वमिन् शर्रि लिसानी वमिन् शर्रि क़ल्बी वमिन् शर्रि मनिय्यी।” “ऐ अल्लाह! मैं पनाह माँगता हूँ अपनी सुनने की ताक़त की बुराई से, और अपनी देखने की ताक़त की बुराई से, और अपनी ज़बान की बुराई से, और अपनी शहवत (कामुकता) की बुराई से।” (हदीस : तिरमिज़ी, अबू-दाऊद)। अनस-बिन-मालिक की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाया करते— “अल्लाहुम-म इन्नी अऊज़ुबि-क मिनल् अज्ज़ि वल-कस्लि वल-जुबुनि वल-ह-रमि वल-बुख़्लि व अऊज़ुबि-क मिन् अज़ाबिल-क़ब्रि वमिन् फ़ित्नतिल-महया वल-ममाति (व फ़ी रिवायतिल-मुस्लिम) व ज़-लइद-दैनि व ग़-ल-बतिर्रिजाल।” “ऐ ख़ुदा! मैं तेरी पनाह माँगता हूँ कमज़ोरी और सुस्ती और बुज़दिली और बुढ़ापे और कंजूसी से, और तेरी पनाह माँगता हूँ क़ब्र के अज़ाब और ज़िन्दगी और मौत के फ़ितने से (और मुस्लिम की एक रिवायत में यह भी है) और क़र्ज़ के बोझ से और इस बात से कि लोग मुझपर हावी हों।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। ख़ौला-बिन्ते-हुकैम सुलैमिय्या (रज़ि०) कहती हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि जो शख़्स किसी नई मंज़िल पर उतरे और यह अलफ़ाज़ कहे— “अऊज़ु बि-कलिमातिल्लाहित-ताम्माति मिन् शर्रि मा ख़-लक़ लम य-ज़ुर्रुहू शैउन हत्ता यर तहि-ल मिन ज़ालिकल-मंज़िल।” “मैं अल्लाह के बे-ऐब कलिमात की पनाह माँगता हूँ पैदा की हुई चीज़ों की बुराई से।” तो उसे कोई चीज़ नुक़सान न पहुँचाएगी यहाँ तक कि वह उस मंज़िल से चला जाए। (हदीस : मुस्लिम)। ये नबी (सल्ल०) की कुछ दुआएँ नमूने के तौर पर हमने हदीस की किताबों से नक़्ल की हैं जिनसे मालूम होता है कि ईमानवाले का काम हर ख़तरे और बुराई से अल्लाह की पनाह माँगना है न कि किसी और की पनाह, और न उसका यह काम है कि अल्लाह से बेपरवाह होकर वह अपने आपपर भरोसा करे।
3. अस्ल में लफ़्ज़ ‘रब्बुल-फ़-लक़’ इस्तेमाल हुआ है। ‘फ़-लक़’ का अस्ल मतलब फाड़ना है। क़ुरआन के आलिमों में ज़्यादातर लोगों ने इससे मुराद रात के अंधेरे को फाड़कर सुबह की सफ़ेदी निकालना लिया है, क्योंकि अरबी ज़बान में ‘फ़-लक़ुस-सुब्हि’ का लफ़्ज़ पौ फटने के मानी में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होता है, और क़ुरआन में भी अल्लाह तआला के लिए ‘फ़ालिक़ुल-इस्बाह’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, यानी “वह जो राते के अंधेरे को फाड़कर सुबह निकालता है।” (सूरा-6 अनआम, आयत-96)। ‘फ़-लक़’ का दूसरा मतलब ‘ख़ल्क़’ का भी लिया गया है, क्योंकि दुनिया में जितनी चीज़ें भी पैदा होती हैं वे किसी-न-किसी चीज़ को फाड़कर निकलती हैं। तमाम पेड़-पौधे बीज और ज़मीन को फाड़कर अपनी कोंपल निकालते हैं। तमाम जानदार या तो माँ के पेट से निकलते हैं या अण्डा तोड़कर निकलते हैं, या किसी और छिपाए रखनेवाली चीज़ को चीरकर बाहर आते हैं। तमाम चश्मे (स्रोत) पहाड़ या ज़मीन को फाड़कर निकलते हैं। दिन रात का परदा चाकर करके ज़ाहिर होता है। बारिश की बूँदें बादलों को चीरकर ज़मीन पर गिरती हैं। ग़रज़ दुनिया में पाई जानेवाली चीज़ों में से हर चीज़ किसी न किसी तरह के फटने के अमल के नतीजे में वुजूद में आती है, यहाँ तक कि ज़मीन और सारे आसमान भी पहले एक ढेर थे, जिसको फाड़कर उन्हें अलग-अलग किया गया, “ये (आसमान और ज़मीन) आपस में मिले हुए थे, फिर हमने इन दोनों को अलग कर दिया।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-30)। इसलिए इस मतलब के लिहाज़ से ‘फ़-लक़’ का लफ़्ज़ तमाम पैदा होनेवाली चीज़ों के लिए आम है। अब अगर पहला मतलब लिया जाए तो आयत का मतलब यह होगा कि मैं पौ फटने के मालिक की पनाह लेता हूँ। और दूसरा मानी लिया जाए तो मतलब होगा मैं तमाम पैदा हो चुकी चीज़ों (सृष्टि) के रब की पनाह लेता हूँ। इस जगह अल्लाह तआला के लिए ‘अल्लाह’ के बजाय उसका सिफ़ाती (गुणवाचक) नाम ‘रब’ इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि पनाह माँगने के साथ अल्लाह तआला के ‘रब’ यानी मालिक और परवरदिगार और सरपरस्त होने की सिफ़त (गुण) ज़्यादा मेल खाती है। फिर ‘रब्बुल-फ़-लक़’ से मुराद अगर सुबह होने का रब हो तो उसकी पनाह लेने का मतलब होगा कि जो रब अंधेरे को छाँटकर रौशन सुबह निकालता है मैं उसकी पनाह लेता हूँ, ताकि वह आफ़तों की भीड़ को छाँटकर मेरे लिए आफ़ियत (अम्न-सुकून) पैदा कर दे, और अगर इससे मुराद ख़ल्क़ (सृष्टि) का रब हो तो इसका मतलब यह होगा कि मैं सारी ख़ल्क़ (सृष्टि) के मालिक की पनाह लेता हूँ, ताकि वह अपने पैदा किए हुओं की बुराई से मुझे बचाए।
وَمِن شَرِّ غَاسِقٍ إِذَا وَقَبَ ۝ 1
(3) और रात के अंधेरे से जबकि वह छा जाए,5
5. अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों के ‘शर’ (बुराई) से अल्लाह की पनाह माँगने के बाद अब कुछ ख़ास-ख़ास चीज़ों के शर से ख़ास तौर से पनाह माँगने की नसीहत की जा रही है। आयत में ‘ग़ासिक़िन इज़ा व-क़ब’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। ‘ग़ासिक़’ लफ़्ज़ का मतलब ‘अंधेरा’ है। चुनाँचे क़ुरआन में एक जगह कहा गया है, “नमाज़ क़ायम करो सूरज ढलने के वक़्त से रात के अंधेरे (ग़-सक़िल-लैलि) तक।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-78)। और ‘व-क़ब’ का मतलब दाख़िल होना या छा जाना है। रात के अंधेरे के शर से ख़ास तौर पर इसलिए पनाह माँगने की नसीहत की गई है कि अकसर जुर्म और ज़ुल्म रात ही के वक़्त होते हैं। घातक जानवर भी रात ही को निकलते हैं। और अरब में लूटमार और लाक़ानूनियत (अराजकता) का जो हाल इन आयतों के उतरने के वक़्त था उसमें तो रात बड़ी ख़ौफ़नाक चीज़ थी, उसके अंधेरे में छापामार निकलते थे और बस्तियों पर लूटमार के लिए टूट पड़ते थे। जो लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की जान के पीछे पड़े थे वे भी रात ही के वक़्त आप (सल्ल०) को क़त्ल कर देने की तरकीबें सोचा करते थे, ताकि क़ातिल का पता न चल सके। इसलिए उन तमाम बुराइयों और आफ़तों से अल्लाह की पनाह माँगने का हुक्म दिया गया जो रात के वक़्त आती हैं। यहाँ अंधेरी रात के शर (बुराई) से पौ फटने के रब की पनाह माँगने का जो बात है वह किसी समझदार आदमी से छिपी नहीं रह सकती। इस आयत की तफ़सीर में एक उलझन यह पेश आती है कि कई हदीसों में हज़रत आइशा (रज़ि०) की यह रिवायत आई है कि रात को चाँद निकला हुआ था। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मेरा हाथ पकड़कर उसकी तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया कि “अल्लाह की पनाह माँगो, यह ‘अल-ग़ासिक़ इज़ा वक़ब’ है।” (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी, नसई इब्ने-जरीर, इब्नुल-मुंज़िर, हाकिम, इब्ने-मरदुवैह)। इसका मतलब बयान करने में कुछ लोगों ने कहा है कि ‘इज़ा व-क़ब’ का मतलब यहाँ ‘इज़ा ख़-सफ़’ है, यानी जबकि उसे ग्रहण लग जाए, या चाँद ग्रहण उसको ढाँक ले। लेकिन किसी रिवायत में भी यह नहीं आया है कि जिस वक़्त नबी (सल्ल०) ने चाँद की तरफ़ इशारा करके यह बात कही थी उस वक़्त वह ग्रहण में था। और अरबी लुग़त (शब्दकोश) में भी ‘इज़ा व-क़ब’ का मतलब ‘इज़ा ख़-सफ़’ किसी तरह नहीं हो सकता। हमारे नज़दीक इस हदीस का सही मतलब यह है कि चाँद निकलने का वक़्त चूँकि रात ही को होता है, दिन को अगर चाँद आसमान पर होता भी है तो रौशन नहीं होता, इसलिए नबी (सल्ल०) की बात का मतलब यह है कि इसके (यानी चाँद के) आने के वक़्त यानी रात से अल्लाह की पनाह माँगो, क्योंकि चाँद की रौशनी बचाव करनेवाले के लिए उतनी मददगार नहीं होती जितनी हमला करनेवाले के लिए होती है, और जुर्म का शिकार होनेवाले के लिए उतनी मददगार नहीं होती जितनी मुजरिम के लिए हुआ करती है। इसी बुनियाद पर हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया है, “जब सूरज डूब जाए तो शैतान हर तरफ़ फैल जाते हैं, लिहाज़ा अपने बच्चों को घरों में समेट लो और अपने जानवरों को बाँध रखो जब तक रात का अंधेरा ख़त्म न हो जाए।”
وَمِن شَرِّ ٱلنَّفَّٰثَٰتِ فِي ٱلۡعُقَدِ ۝ 2
(4) और ग्रहों में फूँकनेवालों (या वालियों) की बुराई से,6
6. अस्ल अलफ़ाज़ हैं ‘नफ़्फ़ासाति फ़िल उ-क़दि’। ‘उक़द’ जमा (बहुवचन) है ‘उक़्दह’ का जिसका मतलब ‘गाँठ’ है। मसलन जैसे धागे या रस्सी में डाली जाती है। ‘नफ़्स’ का मतलब ‘फूँकना’ है। ‘नफ़्फ़ासात’ जमा (बहुवचन) है ‘नफ़्फ़ासा’ का जिसको अगर ‘अल्लामा’ (बहुत ज़्यादा इल्मवाला) की तरह समझा जाए तो मुराद बहुत फूँकनेवाले मुराद होंगे, और अगर इसे मुअन्नस (स्त्रीवाचक संज्ञा) समझा जाए तो मुराद बहुत फूँकनेवाली औरतें भी हो सकती हैं। और नुफ़ूस और जमाअतें भी, क्योंकि अरबी में नफ़्स और जमाअत दोनों मुअन्नस (स्त्रीलिंग) हैं। गाँठों में फूँकने का लफ़्ज़ अकसर, बल्कि क़ुरआन के तमाम आलिमों के नज़दीक जादू के लिए आया है, क्योंकि जादूगर किसी डोर या धागे में गाँठ बाँधते और उसपर फूँकते जाते हैं। इसलिए आयत का मतलब यह है कि मैं सुबह निकलने (पौ फटने) के रब की पनाह माँगता हूँ जादूगरों या जादूगरनियों की बुराई से। इस मानी की ताईद वे रिवायतें भी करती हैं जिनमें बताया गया है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर जब जादू हुआ था तो जिबरील (अलैहि०) ने आकर नबी (सल्ल०) को मुअव्विज़तैन पढ़ने की हिदायत की थी, और मुअव्विज़तैन में यही एक जुमला है जो सीधे तौर पर जादू से ताल्लुक़ रखता है। अबू-मुस्लिम असफ़हानी और ज़मख़शरी ने ‘नफ़्फ़ासाति फ़िल उ-क़दि’ का एक और मतलब भी बयान किया है, और वह यह है कि इससे मुराद औरतों की मक्कारी, और मर्दों के इरादों, रायों और ख़यालात पर उनका असर पड़ जाना है और इसको जादूगरी से मिसाल दी गई है, क्योंकि औरतों की मुहब्बत में मुबतला होकर आदमी का वह हाल हो जाता है गोया उसपर जादू कर दिया गया है। यह तफ़सीर अगरचे दिलचस्प है, लेकिन उस तफ़सीर के ख़िलाफ़ है जो पहले के तफ़सीर लिखनेवालों से चली आती है। और उन हालात से भी यह मेल नहीं रखती जिनमें मुअव्विज़तैन उतरी हैं, जैसा कि हम परिचय में बयान कर चुके हैं। जादू के बारे में यह जान लेना चाहिए कि इसमें चूँकि दूसरे शख़्स पर बुरा असर डालने के लिए शैतानों या बदरूहों या सितारों की मदद माँगी जाती है इसलिए क़ुरआन में इसे कुफ़्र (अधर्म) कहा गया है, “सुलैमान ने कुफ़्र नहीं किया था, बल्कि शैतानों ने कुफ़्र किया था, वे लोगों को जादू सिखाते थे।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-102)। लेकिन अगर उसमें कोई कुफ़्र की बात या शिर्क का कोई अमल न भी हो तो सब आलिमों के नज़दीक वह हराम है और नबी (सल्ल०) ने उसे सात ऐसे बड़े गुनाहों में से बताया है जो इनसान की आख़िरत को बरबाद कर देनेवाले हैं। बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “सात बरबाद करनेवाली चीज़ों से बचो।” लोगों ने पूछा, “वे क्या हैं ऐ अल्लाह के रसूल?” फ़रमाया, “अल्लाह के साथ किसी को शरीक करना, जादू, किसी ऐसी जान को नाहक़ क़त्ल करना जिसे अल्लाह ने हराम किया है, सूद (ब्याज) खाना, यतीम का माल खाना, जिहाद में दुश्मन के मुक़ाबले से पीठकर भाग निकलना, और भोली-भाली पाकदामन औरतों पर ज़िना (बदकारी) का लाँछन लगाना।”
وَمِن شَرِّ حَاسِدٍ إِذَا حَسَدَ ۝ 3
(5) और हसद करनेवाले की बुराई से जबकि वह हसद करे।7
7. ‘हसद’ का मतलब यह है कि किसी शख़्स को अल्लाह ने जो नेमत या फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) या ख़ूबी दी हो उसपर कोई दूसरा शख़्स जले और यह चाहे कि वह उससे छिनकर हसद करनेवाले को मिल जाए या कम-से-कम यह कि उससे ज़रूर छिन जाए। अलबत्ता हसद के मतलब में यह बात नहीं आती कि कोई शख़्स यह चाहे कि जो मेहरबानी उसपर हुई है वह मुझे भी मिल जाए। यहाँ हसद करनेवाले के शर से अल्लाह तआला की पनाह उस हालत में माँगी गई है जबकि वह हसद करे, यानी अपने दिल की आग बुझाने के लिए ज़बान या अमल से कोई कार्रवाई करे। क्योंकि जब तक वह कोई क़दम नहीं उठाता उस वक़्त तक उसका जलना अपने-आपमें ख़ुद चाहे बुरा सही, मगर उस शख़्स के लिए जिससे हसद किया गया है, ऐसा ‘शर’ नहीं बनता कि उससे पनाह माँगी जाए। फिर जब ऐसी बुराई किसी हसद करनेवाले से ज़ाहिर हो तो उससे बचने के लिए सबसे पहली तदबीर यह है कि अल्लाह की पनाह माँगी जाए। इसके साथ हसद करनेवाले की बुराई से पनाह पाने के लिए कुछ चीज़ें और भी मददगार होती हैं। एक यह कि इनसान अल्लाह पर भरोसा करे और यक़ीन रखे कि जब तक अल्लाह न चाहे कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। दूसरे यह कि हसद करनेवाले की बातों पर सब्र करे, बेसब्र होकर ऐसी बातें या कार्रवाइयाँ न करने लगे जिनसे वह ख़ुद भी अख़लाक़ी तौर पर हसद करनेवाले ही की जगह पर आ जाए। तीसरे यह कि हसद करनेवाला चाहे अल्लाह से निडर और अल्लाह के बन्दों से बेशर्म होकर कैसी ही बेहूदा हरकतें करता रहे, जिससे हसद किया जा रहा हो वह हमेशा तक़वा (नेकी) पर क़ायम रहे। चौथे यह कि अपने दिल को उसकी फ़िक्र से बिलकुल ख़ाली कर दे और उसको नज़र-अन्दाज़ कर दे मानो वह है ही नहीं। क्योंकि उसकी फ़िक्र में पड़ना हसद करनेवाले से हार जाने की निशानी होता है। पाँचवें यह कि हसद करनेवाले के साथ बुराई से पेश आना तो दूर की बात, जब कभी ऐसा मौक़ा आए कि वह उसके साथ भलाई और एहसान का बरताव कर सकता हो तो ज़रूर ऐसा ही करे, इससे परे कि हसद करनेवाले के दिल की जलन उसके इस रवैये से मिटती है या नहीं। छटे यह कि जिससे हसद किया जा रहा हो वह तौहीद के अक़ीदे को ठीक-ठीक समझकर उसपर जमा रहे, क्योंकि जिस दिल में तौहीद बसी हुई हो उसमें अल्लाह के डर के साथ किसी और का डर जगह ही नहीं पा सकता।
مِن شَرِّ مَا خَلَقَ ۝ 4
(2) हर उस चीज़ की बुराई से जो उसने पैदा की है,4
4. दूसरे अलफ़ाज़ में तमाम पैदा हो चुकी चीज़ों की बुराई से मैं उसकी पनाह माँगता हूँ। इस जुमले में कुछ बातें ग़ौर करनेवाली हैं— पहली यह कि बुराई को पैदा करने को अल्लाह की तरफ़ नहीं जोड़ा गया, बल्कि पैदा हो चुकी चीज़ों की पैदाइश का ताल्लुक़ अल्लाह तआला से और बुराई का ताल्लुक़ पैदा हो चुकी चीज़ों से जोड़ा गया है। यानी यह नहीं फ़रमाया कि उन बुराइयों से पनाह माँगता हूँ जो अल्लाह ने पैदा की हैं, बल्कि यह कहा कि उन चीज़ों की बुराई से पनाह माँगता हूँ जो उसने पैदा की हैं। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह तआला ने किसी मख़लूक़ (जानदार-बेजान चीज़) को बुराई के लिए पैदा नहीं किया है, बल्कि उसका हर काम भलाई और किसी मस्लहत ही के लिए होता है, अलबत्ता जानदारों के अन्दर जो सिफ़ात उसने इसलिए पैदा कर दी हैं कि उनको पैदा करने की मस्लहत पूरी हो, उनसे कभी-कभी और कई तरह के जानदारों से अकसर बुराई पैदा होती है। दूसरी यह कि अगर सिर्फ़ इसी एक जुमले पर बस किया जाता और बाद के जुमलों में ख़ास-ख़ास क़िस्म की चीज़ों की बुराई से अलग-अलग अल्लाह की पनाह माँगने का न भी ज़िक्र किया जाता तो यह जुमला मक़सद पूरा करने के लिए काफ़ी था, क्योंकि इसमें सारी ही पैदा हो चुकी चीज़ों की बुराई से अल्लाह की पनाह माँग ली गई है। इस आम अन्दाज़ से पनाह माँगने के बाद ख़ास बुराइयों से पनाह माँगने का ज़िक्र ख़ुद-ब-ख़ुद यह मानी देता है कि वैसे तो मैं अल्लाह की पैदा की हुई हर चीज़ की बुराई से अल्लाह की पनाह माँगता हूँ, लेकिन ख़ास तौर पर वे कुछ बुराइयाँ जिनका ज़िक्र सूरा-13 फ़लक़ की बाक़ी आयतों और सूरा-114 नास में किया गया है, ऐसी हैं जिनसे अल्लाह की पनाह पाने का मैं मुहताज हूँ। तीसरी यह कि अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों से पनाह हासिल करने के लिए सबसे ज़्यादा मुनासिब और सबसे ज़्यादा असर करनेवाली दुआ अगर कोई हो सकती है तो वह यह है कि उनके पैदा करनेवाले की पनाह माँगी जाए, क्योंकि वह बहरहाल अपनी पैदा की हुई चीज़ों पर पूरा ज़ोर रखता है, और उनकी ऐसी ख़राबियों को भी जानता है जिन्हें हम जानते हैं और ऐसी बुराइयों को भी जानता है जिन्हें हम नहीं जानते। लिहाज़ा उसकी पनाह गोया उस सबसे बड़े हाकिम की पनाह है जिसके मुक़ाबले की ताक़त किसी मख़लूक़ में नहीं है, और उसकी पनाह माँगकर हम हर चीज़ की बुराई से अपना बचाव कर सकते हैं, चाहे वह हमें मालूम हो या न हो। इसके अलावा इसमें दुनिया ही की नहीं आख़िरत की भी हर ख़राबी से पनाह माँगना शामिल है। चौथी यह कि ‘शर’ (बुराई) का लफ़्ज़ का नुक़सान, तकलीफ़ और दुख के लिए भी इस्तेमाल होता है, और उन ज़रिओं के लिए भी जो नुक़सान, तकलीफ़ और दुख की वजह बनते हैं। मसलन बीमारी, भूख, किसी हादिसे या जंग में ज़ख़्मी होना, आग से जल जाना, साँप-बिच्छू वग़ैरा से डसा जाना, औलाद की मौत के दुख में मुब्तला होना, और ऐसे ही दूसरे ‘शर’ पहले मानी में ‘शर’ (बुराई) हैं, क्योंकि ये अपने-आपमें ख़ुद तकलीफ़ और नुक़सान हैं। इसके बरख़िलाफ़ मिसाल के तौर पर कुफ़्र (अधर्म), शिर्क और हर तरह के गुनाह और ज़ुल्म दूसरे मानी में ‘शर’ हैं, क्योंकि उनका अंजाम नुक़सान और तकलीफ़ है, अगरचे बज़ाहिर इनसे उस वक़्त कोई तकलीफ़ नहीं पहुँचती हो, बल्कि कुछ गुनाहों से लज़्ज़त मिलती या फ़ायदा हासिल होता हो। इसलिए ‘शर’ से पनाह माँगने में ये दोनों मतलब शामिल हैं। पाँचवीं यह कि ‘शर’ (बुराई) से पनाह माँगने में दो मतलब और भी शामिल हैं। एक यह कि जो ‘शर’ वाक़े (घटित) हो चुका है, बन्दा अपने ख़ुदा से दुआ माँग रहा है कि वह उसे दूर कर दे। दूसरे यह कि जो ‘शर’ वाक़े नहीं हुआ है, बन्दा यह दुआ माँग रहा है कि ख़ुदा मुझे उस ‘शर’ से बचाए रखे।