(90) अल्लाह अद्ल (इनसाफ़) और एहसान और रिश्ते जोड़ने का हुक्म देता है88 और बुराई और बेहयाई और ज़ुल्म व ज़्यादती से मना करता है।89 वह तुम्हें नसीहत करता है, ताकि तुम सबक़ लो।
88. इस छोटे से जुमले में तीन ऐसी चीज़ों का हुक्म दिया गया है जिनपर पूरे इनसानी समाज के दुरुस्त होने का दारोमदार है:
पहली चीज़ अद्ल (इनसाफ़) है जिसका तसव्वुर दो हमेशा रहनेवाली हक़ीक़तों से बना है। एक यह कि लोगों के दरमियान हुक़ूक़ में तवाज़ुन (सन्तुलन) और तनासुब (अनुपात) क़ायम हो। दूसरे यह कि हर एक को उसका हक़ पूरा-पूरा दे दिया जाए। उर्दू और हिन्दी ज़बान में इस मतलब को लफ़्ज़ 'इनसाफ़' और 'न्याय' कहा जाता है, मगर यह लफ़्ज ग़लतफ़हमी पैदा करनेवाला है। इससे ख़ाह-मख़ाह यह ख़याल पैदा होता है कि दो आदमियों के बीच हक़ों का बाँटना आधे-आधे की बुनियाद पर हो और फिर इसी से 'अद्ल' का मतलब बराबर-बराबर बाँटना समझ लिया गया है जो सरासर फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। दर अस्ल अद्ल जिस चीज़ का तक़ाज़ा करता है वह तवाज़ुन और तनासुब (सन्तुलन और अनुपात) है, न कि बराबरी। कुछ हैसियतों से तो अद्ल बेशक समाज के लोगों में बराबरी चाहता है, जैसे शरीअत के हक़ों में, मगर कुछ दूसरी हैसियतों से बराबरी बिलकुल अद्ल के ख़िलाफ़ है, मसलन माँ-बाप और औलाद के बीच समाजी व अख़लाक़ी बराबरी, और आला दरजे के काम करनेवालों और कमतर दरजे के काम करनेवालों के बीच में मुआवज़ों की बराबरी। तो अल्लाह तआला ने जिस चीज़ का हुक्म दिया है वह हक़ों में बराबरी नहीं, बल्कि सन्तुलन और अनुपात है, और इस हुक्म का तक़ाज़ा यह है कि हर शख़्स को उसके अख़लाक़ी, समाजी, मआशी (आर्थिक), क़ानूनी और सियासी व रहन-सहन के हुक़ूक़ पूरी ईमानदारी के साथ अदा किए जाएँ।
दूसरी चीज़ एहसान है जिससे मुराद है अच्छा सुलूक, उदारतापूर्ण व्यवहार, हमदर्दी भरा रवैया, रवादारी, अच्छा अख़लाक़, माफ़ी, एक-दूसरे की रिआयत, एक-दूसरे का ख़याल, दूसरे को उसके हक़ से कुछ ज़्यादा देना और ख़ुद अपने हक़ से कुछ कम पर राज़ी हो जाना। यह अद्ल से कुछ बढ़कर एक चीज़ है जिसकी अहमियत समाजी ज़िन्दगी में अद्ल से भी ज़्यादा है। अद्ल अगर समाज की बुनियाद है तो एहसान उसका जमाल (ख़ूबसूरती) और उसका कमाल (सबसे ऊँचा दरजा) है। अद्ल अगर समाज को नागवारियाँ और तल्ख़ियों से बचाता है तो एहसान उसमें ख़ुशगवारियाँ और मिठास पैदा करता है। कोई समाज सिर्फ़ इस बुनियाद पर खड़ा नहीं रह सकता कि उसका हर फ़र्द (व्यक्ति) हर वक़्त नाप-तौलकर देखता रहे कि उसका क्या हक़ है। और उसे वुसूल करके छोड़े, और दूसरे का कितना हक़ है, उसे बस उतना ही दे दे। ऐसे एक ठंडे और खुर्रे समाज में कशमकश तो न होगी मगर मुहब्बत और शुक्रगुज़ारी और कुशादा-दिली और क़ुरबानी और ख़ुलूस ख़ैर-ख़ाही की क़द्रों (मूल्यों) से वह महरूम रहेगा जो अस्ल ज़िन्दगी में आनन्द और मिठास पैदा करनेवाली और समाजी भलाइयों को बढ़ानेवाली क़द्रे हैं।
तीसरी चीज़ जिसका इस आयत में हुक्म दिया गया है सिला-रहमी (रिश्तों को जोड़ना) है जो रिश्तेदारों के मामले में एहसान की एक ख़ास सूरत तय करती है। इसका मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि आदमी अपने रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव करे और ख़ुशी-ग़मी में उनके साथ शरीक हो और जाइज़ के अन्दर उनका हिमायती और मददगार बने, बल्कि इसका मतलब यह है कि हर हैसियत रखनेवाला शख़्स अपने माल पर सिर्फ़ अपने और अपने बाल-बच्चों ही के हक़ न समझे, बल्कि अपने रिश्तेदारों के हक़ों को भी माने। अल्लाह की शरीअत हर ख़ानदान के ख़ुशहाल लोगों को इस बात का ज़िम्मेदार क़रार देती है कि वे अपने ख़ानदान के लोगों को भूखा-नंगा न छोड़ें। उसकी निगाह में एक समाज की इससे बदतर कोई हालत नहीं है। कि उसके अन्दर एक शख़्स ऐश कर रहा हो और उसी के ख़ानदान में उसके अपने भाई-बन्धु रोटी-कपड़े तक को मुहताज हों। वह ख़ानदान को समाज का एक अहम हिस्सा क़रार देती है। और यह उसूल पेश करती है कि हर ख़ानदान के गरीब लोगों का पहला हक़ अपने ख़ानदान के ख़ुशहाल लोगों पर है, फिर दूसरों पर उनके हक़ आते हैं। और हर ख़ानदान के ख़ुशहाल लोगों पर पहला हक़ उनके अपने ग़रीब रिश्तेदारों का है, फिर दूसरों के हक़ उनपर आते हैं। यही बात है जिसको नबी (सल्ल०) ने अपनी बहुत-सी बातों में साफ़-साफ़ बयान किया है। चुनाँचे कई हदीसों में यह बात साफ़-साफ़ बयान की गई कि आदमी के सबसे पहले हक़दार उसके माँ-बाप, उसके बीवी-बच्चे और उसके भाई-बहन हैं, फिर वे जो उनके बाद ज़्यादा क़रीब हों, और फिर जो उनके बाद ज़्यादा क़रीब हों। और यही उसूल है जिसकी बुनियाद पर हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक यतीम बच्चे के चचेरे भाइयों को मजबूर किया कि वे उसकी परवरिश के ज़िम्मेदार हों और एक-दूसरे यतीम के हक़ में फ़ैसला करते हुए आपने फ़रमाया कि अगर इसका कोई बहुत दूर का रिश्तेदार भी मौजूद होता तो मैं उसपर इसकी परवरिश लाज़िम कर देता।
अन्दाज़ा किया जा सकता है कि जिस समाज की हर इकाई (Unit) इस तरह अपने-अपने लोगों को संभाल ले उसमें मआशी हैसियत से कितनी ख़ुशहाली, सामाजिक हैसियत से कितनी मिठास और अख़लाक़ी हैसियत से कितनी पाकीज़गी व बुलन्दी पैदा हो जाएगी।
89. ऊपर की तीन भलाइयों के मुक़ाबले में अल्लाह तआला तीन बुराइयों से रोकता है जो इनफ़िरादी हैसियत से अफ़राद को, और इज्तिमाई हैसियत से पूरे समाज को ख़राब करनेवाली हैं—
पहली चीज़ ‘फ़ुहशा’ है जिसके तहत तमाम बेहूदा और शर्मनाक काम आ जाते हैं। हर वह बुराई जो अपने आप में नियायत बुरी हो, ‘फ़ुहश’ है। मसलन कंजूसी, ज़िना (व्यभिचार), नंगापन और अश्लीलता, क़ौमे-लूत का अमल (समलैंगिकता), हराम ठहराई गई औरतों से निकाह करना, चोरी, शराब पीना, भीख माँगना, गालियाँ बकना और बदकलामी करना वग़ैरा। इसी तरह खुल्लम-खुल्ला बुरे काम करना और बुराइयों पर उभारनेवाली कहानियाँ और ड्रामे और फ़िल्म, नंगी तस्वीरें, औरतों का बन-संवर कर सबके सामने आना, खुल्लम-खुल्ला मर्दों और औरतों का मिलना-जुलना, और स्टेज पर औरतों का नाचना-थिरकना और अदाओं की नुमाइश करना वग़ैरा।
दूसरी चीज़ ‘मुनकर’ है जिससे मुराद हर वह बुराई है जिसे इनसान आम तौर पर बुरा जानते हैं, हमेशा से बुरा कहते रहे हैं, और अल्लाह की आम शरीअतों ने जिससे मना किया है।
तीसरी चीज़ ‘बग़्य’ है जिसके मानी हैं अपनी हद से आगे बढ़ जाना और दूसरे के हक़ों को छीन लेना, चाहे वे हुक़ूक़ ख़ालिक़ (अल्लाह) के हों या मख़लूक़ (बन्दों) के।