(21) इस तरह हमने शहरवालों को उनकी हालत की ख़बर पहुँचा दी,17 ताकि लोग जान लें कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि क़ियामत की घड़ी बेशक आकर रहेगी।18 (मगर ज़रा सोचो कि जब सोचने की अस्ल बात यह थी) उस वक़्त वे आपस में इस बात पर झगड़ रहे थे कि इन (कह्फ़वालों) के साथ क्या किया जाए। कुछ लोगों ने कहा, “इनपर एक दीवार चुन दो, इनका रब ही इनके मामले को बेहतर जानता है।"19 मगर जो लोग उनके मामलों पर ग़ालिब थे,20 उन्होंने कहा, “हम तो इनपर एक इबादतगाह (उपासना-गृह) बनाएँगे।"21
17. यानी जब वह शख़्स खाना ख़रीदने के लिए शहर गया तो दुनिया बदल चुकी थी। बुतपरस्त रोम (रूम) को ईसाई हुए एक मुद्दत गुज़र चुकी थी। ज़बान, तहज़ीब, रहन-सहन, लिबास हर चीज़ में नुमायाँ फ़र्क़ आ गया था। दो सौ साल पहले का यह आदमी अपनी सज- धज, लिबास, ज़बान हर चीज़ के एतिबार से फ़ौरन एक तमाशा बन गया। और जब उसने क़ैसर डिसियस के वक़्त का सिक्का खाना ख़रीदने के लिए पेश किया तो दुकानदार की आँखें फटी-की-फटी रह गईं। सुरयानी रिवायत के मुताबिक़ दुकानदार को उसपर शक यह हुआ कि शायद वह किसी पुराने ज़माने का गड़ा हुआ ख़ज़ाना निकाल लाया है। चुनाँचे उसने आसपास के लोगों का इस तरफ़ ध्यान दिलाया और आख़िरकार उस शख़्स को अफ़सरों के सामने पेश किया गया। वहाँ जाकर यह मामला खुला कि यह शख़्स तो मसीह (अलैहि०) की पैरवी करनेवाले उन लोगों में से है जो दो सौ साल पहले अपना ईमान बचाने के लिए भाग निकले थे। यह ख़बर देखते-ही देखते शहर की ईसाई आबादी में फैल गई और हुकूमत के अफ़सरों के साथ लोगों की एक भीड़ गुफा के सामने पहुँच गई। अब जो असहाबे-कह्फ़ को यह पता चला कि वे दो सौ साल बाद सोकर उठे हैं तो वे अपने ईसाई भाइयों को सलाम करके लेट गए और उनकी रूह निकल गई।
18. सुरयानी रिवायत के मुताबिक़ उस ज़माने में वहाँ क़ियामत और आख़िरत की दुनिया के बारे में ज़ोर-शोर से बहस छिड़ी हुई थी; हालाँकि रोमी सल्तनत के असर से आम लोग मसीहियत क़ुबूल कर चुके थे, जिसके बुनियादी अक़ीदों में आख़िरत का अकीदा भी शामिल था। लेकिन अभी तक रोम में पाए जानेवाले शिर्क, बुतपरस्ती और यूनानी फ़लसफे (दर्शन) के असरात काफ़ी ताक़तवर थे, जिनकी बदौलत बहुत-से लोग आख़िरत से इनकार या कम-से-कम उसके होने में शक करते थे। फिर इस शक और इनकार को सबसे ज़्यादा जो चीज़ ताक़त पहुँचा रही थी, वह यह थी कि इफ़िसुस में यहूदियों की बड़ी आबादी थी, और उनमें से एक फ़िरका (सम्प्रदाय, जिसे सदूक़ी कहा जाता था) आख़िरत का खुल्लम-खुल्ला इनकार करता था। यह गरोह अल्लाह की किताब (यानी तौरात) से आख़िरत के इनकार पर दलील लाता था और मसीही आलिमों (विद्वानों) के पास उसके मुक़ाबले में मज़बूत दलीलें मौजूद न थीं। मत्ती, मर्क़ुस, लूक़ा, तीनों इंजीलों में सदूक़ियों और मसीह (अलैहि०) के उस मुनाज़रे (बहस-मुबाहसे) का ज़िक्र हमें मिलता है जो आख़िरत के मसले पर हुआ था, मगर तीनों ने मसीह (अलैहि०) की तरफ़ से ऐसा कमज़ोर जवाब नक़्ल किया है जिसकी कमज़ोरी को ख़ुद मसीहियत के आलिम (विद्वान) भी मानते हैं। (देखिए— मत्ती, अध्याय-22, आयत– 23-33; मर्क़ुस, अध्याय-12, आयत-18 से 27; लूक़ा, अध्याय-20, आयत-27 से 40) इसी वजह से आख़िरत का इनकार करनेवालों का पलड़ा भारी हो रहा था और आख़िरत पर ईमान रखनेवाले भी शक और उलझन में गिरफ़्तार होते जा रहे थे। ठीक उस वक़्त असहाबे-कहफ़ के (सालों बाद सोकर) उठने का यह वाक़िआ पेश आया और उसने मौत के बाद जी उठने का एक ऐसा सुबूत जुटा दिया जिसका इनकार मुमकिन नहीं।
19. बयान के अन्दाज़ से ज़ाहिर होता है कि यह बात नेक और भले ईसाइयों ने कही थी। उनकी राय यह थी कि असहाबे-कह्फ़ जिस तरह गुफा में लेटे हुए हैं, उसी तरह उन्हें लेटा रहने दो और गुफा के मुँह को चुन दो। इनका रब ही बेहतर जानता है कि ये कौन लोग हैं? किस मर्तबे के हैं और किस बदले के हक़दार हैं?
20. इससे मुराद रोमी सल्तनत के ज़िम्मेदार और मसीही कलीसा के मज़हबी पेशवा हैं, जिनके मुक़ाबले में सही अक़ीदा रखनेवाले ईसाइयों की बात न चलती थी। पाँचवीं सदी के बीच तक पहुँचते-पहुँचते आम ईसाइयों में और ख़ास तौर से रोमन कैथोलिक कलीसा में शिर्क, बुज़ुर्गों की पूजा और क़ब्र-परस्ती का पूरा ज़ोर हो चुका था। बुज़ुर्गों के आस्ताने (क़ब्रें) पूजे जा रहे थे और मसीह (अलैहि०), मरयम (अलैहि०) और हवारियों (साथियों) के बुत गिरजाघरों में रखे जा रहे थे। असहाबे-कह्फ़ के उठने से कुछ ही साल पहले 431 ई० में पूरी ईसाई दुनिया के मज़हबी पेशवाओं की एक कौंसिल का इजलास इसी इफ़िसुस के मक़ाम पर हो चुका था, जिसमें मसीह (अलैहि०) के 'ख़ुदा' होने और हज़रत मरयम (अलैहि०) के 'ख़ुदा की माँ' होने का अक़ीदा चर्च का सरकारी अक़ीदा ठहराया गया था। इस तारीख़ (इतिहास) को निगाह में रखने से साफ़ मालूम हो जाता है कि “जो लोग उनके मामलों पर ग़ालिब थे” से मुराद वे लोग हैं जो मसीह (अलैहि०) के सच्चे पैरोकारों के मुक़ाबले में उस वक़्त आम ईसाई लोगों के रहनुमा और ज़िम्मेदार बने हुए थे और मज़हबी और सियासी मामलों की बागडोर जिनके हाथों में थी। यही लोग अस्ल में शिर्क के अलमबरदार थे और इन्होंने ही फ़ैसला किया कि असहाबे-कह्फ़ का मक़बरा बनाकर उसको इबादतगाह बनाया जाए।
21. मुसलमानों में से कुछ लोगों ने क़ुरआन मजीद की इस आयत का बिलकुल उलटा मतलब लिया है। वे इसे दलील बनाकर नेक बुज़ुर्गों की क़ब्रों पर इमारतें और सजदागाह बनाने को जाइज़ ठहराते हैं। हालाँकि यहाँ क़ुरआन उनकी इस गुमराही की तरफ़ इशारा कर रहा है कि जो निशानी उन ज़ालिमों को मौत के बाद उठने और आख़िरत के मुमकिन होने का यक़ीन दिलाने के लिए दिखाई गई थी, उसे उन्होंने शिर्क करने के लिए ख़ुदा का दिया हुआ एक मौक़ा समझा और सोचा कि चलो, कुछ और बुज़ुर्ग पूजा-पाठ के लिए हाथ आ गए। फिर आख़िर इस आयत को नेक बुजुगों की कब्रों पर सजदागाह बनाने के लिए कैसे दलील बनाया जा सकता है, जबकि नबी (सल्ल०) के ये फ़रमान इससे मना करने के बारे में मौजूद हैं–
"अल्लाह ने लानत की है क़ब्रों की ज़ियारत करनेवाली औरतों पर, और क़ब्रों पर सजदागाह बनाने और चराग़ रौशन करनेवालों पर। (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, नसई, इबने-माजा)
“ख़बरदार रहो, तुमसे पहले लोग अपने नबियों की क़ब्रों को इबादतगाह बना लेते थे, मैं तुम्हें इस हरकत से मना करता हूँ। (हदीस : मुस्लिम)
"अल्लाह ने लानत की यहूदियों और ईसाइयों पर। उन्होंने अपने नबियों की क़ब्रों को इबादतगाह बना लिया।”(हदीस : अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई)
“उन लोगों का हाल यह था कि अगर उनमें कोई नेक आदमी होता तो उसके मरने के बाद उसकी क़ब्र पर सजदागाह बनाते और उसकी तस्वीरें तैयार करते थे। ये क़ियामत के दिन सबसे बुरे लोग होंगे।” (हदीस : अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई)
नबी (सल्ल०) की इन खुली हिदायतों की मौजूदगी में कौन ख़ुदा-परस्त आदमी यह हिम्मत कर सकता है कि क़ुरआन मजीद में ईसाई पादरियों और रोम के हाकिमों के गुमराही भरे जिस काम का एक क़िस्से के तौर पर ज़िक्र किया गया है, उसको ठीक वही काम करने के लिए दलील और बुनियाद ठहराए?
इस मौक़े पर यह ज़िक्र कर देना भी फ़ायदे से ख़ाली नहीं कि 1884 ई० में रेवरेंड टी॰ अरंडेल (R.T.Arundel) ने ‘एशिया-ए-कोचक की खोजों' (Discoveries in Asia Minor) के नाम से अपने जो तजरिबात शाया (प्रकाशित) किए थे, उनमें वह बताता है कि पुराने शहर इफ़िसुस के खंडहरों से मिली हुई एक पहाड़ी पर उसने हज़रत मरयम और 'सात लड़कों' (यानी असहाबे-कहफ़) के मक़बरों के निशान पाए हैं।