19. मरयम
(मक्का में उतरी-आयतें 98)
परिचय
नाम
इस सूरा का नाम आयत “वज़कुर फ़िल किताबि मर-य-म" से लिया गया है।
उतरने का समय
इस सूरा के उतरने का समय हबशा की हिजरत से पहले का है। विश्वसनीय रिवायतों से मालूम होता है कि मुसलमान मुहाजिर जब नज्जाशी के दरबार में बुलाए गए थे, उस समय हजरत जाफ़र (रज़ि०) ने यही सूरा भरे दरबार में तिलावत की (पढ़ी) थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
यह सूरा उस युग में उतरी थी जब क़ुरैश के सरदार मज़ाक उड़ाने, उपहास करने, लोभ देने, डराने और झूठे आरोपों का प्रचार करके इस्लामी आन्दोलन को दबाने में विफल होकर ज़ुल्मो-सितम, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार इस्तेमाल करने लगे थे। हर क़बीले के लोगों ने अपने-अपने क़बीले के नव-मुस्लिमों को तंग किया और तरह-तरह से सताकर उन्हें इस्लाम छोड़ने पर मजबूर करने की कोशिश की। इस सिलसिले में मुख्य रूप से ग़रीब लोग और वे गुलाम और दास जो क़ुरैशवालों के अधीन बनकर रहते थे, बुरी तरह पीसे गए। ये परिस्थितियाँ जब असहनीय हो गईं तो रजब, 45 आमुल-फ़ील (सन् 05 नब्वी) में नबी (सल्ल०) की अनुमति के साथ अधिकतर मुसलमान मक्का से हबशा हिजरत कर गए। पहले ग्यारह मर्दो और चार औरतों ने हबशा की राह ली। क़ुरैश के लोगों ने समुद्र-तट तक उनका पीछा किया, मगर सौभाग्य से शुऐबा के बन्दरगाह पर उनको ठीक समय पर हबशा के लिए नाव मिल गई और वे गिरफ़्तार होने से बच गए। फिर कुछ महीने के अन्दर कुछ लोगों ने हिजरत की, यहाँ तक कि 53 मर्द, 11 औरतें और 7 ग़ैर-क़ुरैशी मुसलमान हबशा में जमा हो गए और मक्का में नबी (सल्ल०) के साथ सिर्फ़ 40 आदमी रह गए थे।
इस हिजरत से मक्का के घर-घर में कोहराम मच गया, क्योंकि क़ुरैश के छोटे और बड़े परिवारों में से कोई ऐसा न था जिसके युवक इन मुहाजिरों में शामिल न हों। इसी लिए कोई घर न था जो इस घटना से प्रभावित न हुआ हो। कुछ लोग इसकी वजह से इस्लाम विरोध में पहले से अधिक कठोर हो गए और कुछ के दिलों पर इसका प्रभाव ऐसा हुआ कि अन्त में वे मुसलमान होकर रहे । चुनांँचे हज़रत उमर (रज़ि०) के इस्लाम-विरोध पर पहली चोट इसी घटना से लगी थी।
इस हिजरत के बाद क़ुरैश के सरदार सिर जोड़कर बैठे और उन्होंने तय किया कि अब्दुल्लाह-बिन-अबी-रबीआ (अबू जह्ल के माँ जाए भाई) और अम्र-बिन-आस को बहुत-से बहुमूल्य उपहार के साथ हबशा भेजा जाए और ये लोग किसी न किसी तरह नज्जाशी को इस बात पर तैयार करें कि वह मुहाजिरों को मक्का वापस भेज दे। चुनांँचे क़ुरैश के ये दोनों राजनयिक (दूत) मुसलमानों का पीछा करते हुए हबशा पहुँचे। पहले उन्होंने नज्जाशी के दरबारियों में ख़ूब उपहार बाँटकर [सबको अपने मिशन के समर्थन पर] राज़ी कर लिया, फिर नज्जाशी से मिले और उसको मूल्यवान भेंट देने के बाद उन मुहाजिरों की वापसी का निवेदन किया, जिसका उसके दरबारियों ने भरपूर समर्थन किया । मगर नज्जाशी ने बिगड़कर कहा कि “इस तरह तो मैं उन्हें हवाले नहीं करूँगा। जिन लोगों ने दूसरे देश को छोड़कर मेरे देश पर विश्वास किया और यहाँ शरण लेने के लिए आए, उनसे मैं विश्वासघात नहीं कर सकता। पहले मैं उन्हें बुलाकर जाँच करूँगा कि ये लोग उनके बारे में जो कुछ कहते हैं, उसकी वास्तविकता क्या है।” चुनांँचे नज्जाशी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथियों को अपने दरबार में बुला भेजा। नज्जाशी का सन्देश पाकर सब मुहाजिर जमा हुए और उन्होंने आपसी मश्वरे से एक साथ होकर फ़ैसला किया कि नबी (सल्ल०) ने हमें जो शिक्षा दी है, हम तो वही बिना कुछ घटाए-बढ़ाए सामने रख देंगे, भले ही नज्जाशी हमें रखे या निकाल दे। वे दरबार में पहुँचे तो नज्जाशी के सवाल करने पर हज़रत जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने तत्काल एक भाषण देते हुए अरब की अज्ञानता के हालात, मुहम्मद (सल्ल०) का नबी बनाए जाने, इस्लाम की शिक्षाओं और मुसलमानों पर क़ुरैश के अत्याचारों को खोल-खोलकर बयान किया। नज्जाशी ने यह भाषण सुनकर कहा कि तनिक मुझे वह कलाम (वाणी) सुनाओ जो तुम कहते हो कि अल्लाह की ओर से तुम्हारे नबी पर उतरा है। हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने जवाब में सूरा मरयम का वह आरंभिक भाग सुनाया जो हज़रत यह्या और हज़रत ईसा (अलैहि०) से संबंधित है। नज्जाशी उसको सुनता रहा और रोता रहा, यहाँ तक कि उसकी दाढ़ी भीग गई। जब हज़रत जाफ़र (रजि०) ने तिलवात ख़त्म की तो उसने कहा, “निश्चय ही यह कलाम और जो कुछ ईसा लाए थे, दोनों एक ही स्रोत से निकले हैं। अल्लाह की क़सम! मैं तुम्हें उन लोगों के हवाले नहीं करूँगा"।
दूसरे दिन अम्र-बिन-आस ने नजाशी से कहा कि "तनिक इन लोगों को बुलाकर यह तो पूछिए कि मरयम के बेटे ईसा के बारे में उनका अक़ीदा (विश्वास) क्या है? ये लोग उनके बारे में एक बड़ी [भयानक] बात कहते हैं ।” नज्जाशी ने फिर मुहाजिरों को बुला भेजा और जब अम्र-बिन-आस द्वारा किया गया प्रश्न उनके सामने दोहराया तो जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने उठकर बे-झिझक कहा कि “वे अल्लाह के बन्दे और उसके रसूल हैं और उसकी ओर से एक रूह और एक कलिमा हैं जिसे अल्लाह ने कुँवारी मरयम पर डाला।" नज्जाशी ने सुनकर एक तिनका धरती से उठाया और कहा, “अल्लाह की क़सम ! जो कुछ तुमने कहा ईसा उससे इस तिनके के बराबर भी ज़्यादा नहीं थे।" इसके बाद नज्जाशी ने क़ुरैश के भेजे हुए तमाम उपहार यह कहकर वापस कर दिए कि मैं घूस नहीं लेता और मुहाजिरों से कहा तुम बिल्कुल निश्चिन्त होकर रहो।
विषय और वार्ताएँ
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर जब हम इस सूरा को देखते हैं तो उसमें पहली बात उभरकर हमारे सामने यह आती है कि यद्यपि मुसलमान एक उत्पीड़ित शरणार्थी गिरोह के रूप में अपना वतन छोड़कर दूसरे देश में जा रहे थे, मगर इस दशा में भी अल्लाह ने उनको दीन के मामले में तनिक भर भी लचक दिखाने की शिक्षा न दी, बल्कि चलते वक़्त राह में काम आनेवाले सामान के रूप में यह सूरा उनके साथ की ताकि ईसाइयों के देश में ईसा (अलैहि०) की बिल्कुल सही हैसियत प्रस्तुत करें और उनका अल्लाह का बेटा होने से साफ़ साफ़ इंकार कर दें।
आयत 1 से लेकर 40 तक हज़रत यहया और ईसा का क़िस्सा सुनाने के बाद फिर इससे आगे की आयतों में समय के हालात को देखते हुए हज़रत इबाहीम (अलैहि०) का किस्सा सुनाया गया है, क्योंकि ऐसे ही हालात में वे भी अपने बाप और परिवार और देशवालों के अत्याचारों से तंग आकर वतन से निकल खड़े हुए थे। इससे एक ओर मक्का के विधर्मियों को यह शिक्षा दी गई है कि आज हिजरत करनेवाले मुसलमान इबाहीम (अलैहि०) की पोजीशन में हैं और तुम लोग उन ज़ालिमों की स्थिति में हो जिन्होंने उनको घर से निकाला था। दूसरी ओर मुहाजिरों को यह शुभ-सूचना दी गई है कि जिस तरह इब्राहीम (अलैहि०) वतन से निकलकर नष्ट न हुए, बल्कि और अधिक उच्च पद पर आसीन हो गए, ऐसा ही भला अंजाम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।
इसके बाद नबियों का उल्लेख किया गया है, जिसमें यह बताना अभिप्रेत है कि तमाम नबी वही दीन लेकर आए थे जो मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं। मगर नबियों के गुज़र जाने के बाद उनकी उम्मतें बिगड़ती रही है और आज अलग-अलग उम्मतों (समुदायो) में जो गुमराहियाँ पाई जा रही हैं, ये उसी बिगाड़ का फल हैं।
आयत 67 से अन्त तक मक्का के इस्लाम-शत्रुओं की पथभ्रष्टता की कड़ी आलोचना की गई है और कलाम (वाणी) समाप्त करते हुए ईमानवालों को शुभ-सूचना सुनाई गई है कि सत्य के शत्रुओं की सारी कोशिशों के बावजूद अन्तत: तुम लोकप्रिय बनकर रहोगे।
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فَخَرَجَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنَ ٱلۡمِحۡرَابِ فَأَوۡحَىٰٓ إِلَيۡهِمۡ أَن سَبِّحُواْ بُكۡرَةٗ وَعَشِيّٗا 6
(11) चुनाँचे वह मेहराब7 से निकलकर अपनी क़ौम के लोगों के सामने आया और उसने इशारे से उनको हिदायत दी कि सुबह-शाम तसबीह करो।8
7. मेहराब की तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-36 ।
8. इस वाक़िए की जो तफ़सीलात लूक़ा की इंजील में बयान हुई हैं, उन्हें हम यहाँ नक़्ल कर देते हैं, ताकि लोगों के सामने क़ुरआन की रिवायत के साथ मसीही रिवायत भी रहे। बीच में ब्रैकेट की इबारतें हमारी अपनी हैं–
“यहूदिया के बादशाह हीरोदेस के ज़माने में (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-9) अबिय्याह (अबिय्याम) के दल में ज़करिय्याह (ज़करिय्या) नाम का एक काहिन (याजक या पुजारी) था और उसकी बीवी हारून की औलाद में से थी और उसका नाम इलीशिबा (Elizabeth) था। और वे दोनों ख़ुदा के सामने सच्चे और ख़ुदावन्द के सब हुक्मों और क़ानूनों पर बेऐब चलनेवाले थे। उनके औलाद न थी, क्योंकि इलीशिबा बाँझ थी और वे दोनों बूढ़े थे। जब वे ख़ुदा के सामने अपने दल की बारी पर कहानत (पूजा) का काम करता था तो एक दिन ऐसा हुआ कि कहानत के दस्तूर के मुताबिक़ उसके नाम का क़ुरआ (फ़ाल) निकला कि ख़ुदावन्द के मक़दिस में जाकर ख़ुशबू (धूप) जलाए। और लोगों की बड़ी भीड़ ख़ुशबू जलाते वक़्त बाहर दुआ कर रही थी। उस वक़्त ख़ुशबू जलाने के दौरान ख़ुदावन्द का फ़रिश्ता दाहिनी तरफ़ खड़ा हुआ ज़करिय्याह को दिखाई दिया। और ज़करिय्याह फ़रिश्ते को देखकर घबराया और उसपर दहशत छा गई। मगर फ़रिश्ते ने उससे कहा, “ऐ ज़करिय्याह! डर मत, क्योंकि तेरी दुआ सुन ली गई (ज़करिय्या की दुआ का ज़िक्र बाइबल में कहीं नहीं है) और तेरे लिए तेरी बीवी इलीशिबा के बेटा होगा। तू उसका नाम यूहन्ना (यानी यह्या) रखना और तुझे ख़ुशी होगी और बहुत से लोग उसकी पैदाइश की वजह से ख़ुश होंगे, क्योंकि वह ख़ुदावन्द के सामने बुज़ुर्ग होगा (सूरा-3 आले-इमरान में इसके लिए लफ़्ज़ ‘सय्यिदन' इस्तेमाल हुआ है)। और हरगिज़ न मय और न कोई और शराब पिएगा ('तक़िय्या' यानी बड़ा परहेज़गार) और अपनी माँ के पेट ही से रूहुल-क़ुद्स से भर जाएगा (व आतैनाहुल-हुक-म सबिय्या-और हमने बचपन में ही उसको हुक्म से नवाज़ा) और बनी-इसराईल में से बहुतेरे को ख़ुदावन्द की तरफ़ फेरेगा। वह एलिय्याह (यानी इल्यास अलैहि०) की रूह और ताक़त में उसके आगे-आगे चलेगा कि बाप-दादाओं के दिल बाल-बच्चों की तरफ़ और नाफ़रमानों को सच्चे लोगों की सूझ-बूझ पर चलने की तरफ़ फेरे और ख़ुदावन्द के लिए एक क़ाबिल क़ौम तैयार करे।”
"ज़करिय्याह ने फ़रिश्ते से कहा कि मैं इस बात को किस तरह जानूँ? क्योंकि मैं बूढ़ा हूँ और मेरी बीवी भी बूढ़ी है। फ़रिश्ते ने उससे कहा, 'मैं जिबरील हूँ जो ख़ुदा के सामने खड़ा रहता हूँ और इसलिए भेजा गया हूँ कि तुझसे बात करूँ और तुझे इन बातों की ख़ुशख़बरी दूँ। देख, जिस दिन तक ये बातें पूरी न हो लें, उस दिन तक तू मौन रहेगा और बोल न सकेगा; इसलिए कि तूने मेरी बातों का जो अपने वक़्त पर पूरी होगी, यक़ीन न किया।” (यह बयान क़ुरआन से अलग है। क़ुरआन इसे निशानी क़रार देता है और लूक़ा की रिवायत इसे सज़ा कहती है। इसके अलावा क़ुरआन सिर्फ़ तीन दिन की ख़ामोशी का ज़िक्र करता है और लूक़ा कहता है कि उस वक़्त से हज़रत यह्या अलैहि० की पैदाइश तक हज़रत ज़करिय्या अलैहि०, गूँगे रहे।) लोग ज़करिय्या की राह देखते रहे और ताज्जुब करते थे कि इसे मक़दिस में क्यों इतनी देर लगी। जब वह बाहर आया तो उनसे बोल न सका, वे जान गए कि उसने मंदिर में कोई दर्शन पाया है। और वह उनसे इशारे करता था और गूँगा ही रहा।” (बाइबल, लूका,1:5-22)
وَسَلَٰمٌ عَلَيۡهِ يَوۡمَ وُلِدَ وَيَوۡمَ يَمُوتُ وَيَوۡمَ يُبۡعَثُ حَيّٗا 10
(15) सलाम उसपर जिस दिन कि वह पैदा हुआ और जिस दिन वह मरे और जिस दिन वह ज़िन्दा करके उठाया जाए।12
12. [यह्या (अलैहि०) का नाम इंजीलों यानी बाइबल में John (अंग्रेज़ी में) और यूहन्ना (हिन्दी में) प्रयुक्त हुआ है। पाठक इसका ध्यान रखें] हज़रत यह्या (अलैहि०) के जो हालात इंजीलों (यानी बाइबल) में बिखरे हुए हैं, उन्हें इकट्ठा करके हम यहाँ उनकी पाक ज़िन्दगी का एक नक़्शा पेश करते हैं जिससे सूरा-3 आले-इमरान और उन इशारों की वज़ाहत (स्पष्टीकरण) हो जाएगी जो इस सूरा मरयम में मुख़्तसर तौर पर किए गए हैं।
लूक़ा के बयान के मुताबिक़ हज़रत यह्या (अलैहि०), हज़रत ईसा (अलैहि०) से 6 महीने बड़े थे। उनकी माँ और हज़रत ईसा (अलैहि०) की माँ आपस में क़रीबी रिश्तेदार थीं। लगभग 30 साल की उम्र में वे अमली तौर पर पैग़म्बर बनाए गए और यूहन्ना की रिवायत के मुताबिक़ उन्होंने पूर्वी उर्दुन के इलाक़े में अल्लाह की तरफ़ बुलाने का काम शुरू किया। वे कहते थे—
“मैं जंगल में एक पुकारनेवाले का लफ़्ज़ (शब्द) हूँ कि तुम ख़ुदावन्द की राह को सीधा करो।” (यूहन्ना, 1:23)
मरक़ुस का बयान है कि वे लोगों से गुनाहों की तौबा कराते थे और तौबा करनेवालों को बपतिस्मा देते यानी तौबा के बाद ग़ुस्ल (स्नान) कराते थे, ताकि रूह और जिस्म दोनों पाक हो जाएँ। यहूदिया और यरूशलेम के बहुत-से लोग उनको मानने लगे थे और उनके पास जाकर बपतिस्मा लेते थे (मरक़ुस, 1:1-5)। इसी बुनियाद पर उनका नाम यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला (John The Baptist) मशहूर हो गया था। आम तौर पर बनी-इसराईल उनकी पैग़म्बरी को मान चुके थे (मत्ती, 21:26)। मसीह (अलहि०) का कहना था कि “जो औरतों से पैदा हुए हैं। उनमें यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले से बड़ा कोई नहीं हुआ।” (मत्ती, 11:11)
वे ऊँट के बालों की पोशाक पहने और चमड़े का पटका कमर से बाँधे रहते थे और उनका खाना टिड्डियाँ और जंगली शहद था। (मत्ती, 3:1) इस जोगियाना ज़िन्दगी के साथ वे आवाज़ लगाते फिरते थे कि “तौबा करो, क्योंकि आसमान की बादशाही क़रीब आ गई है।” (मत्ती, 3:2) यानी मसीह (अलैहि०) की पैग़म्बरी की दावत की शुरुआत होनेवाली है। इसी बुनियाद पर उनको आम तौर पर हज़रत मसीह का 'अरहास' (पुष्टि करनेवाला) कहा जाता है और यही बात उनके बारे में क़ुरआन में कही गई है कि “अल्लाह की तरफ़ से एक फ़रमान की तस्दीक़ करनेवाला।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-39)
वे लोगों को रोज़े और नमाज़ की नसीहत करते थे (मत्ती, 9:14 ; लूक़ा, 5:33, 11:1) वे लोगों से कहते थे कि “जिसके पास दो कुर्ते हों वह उसको जिसके पास न हो, बाँट दे। और जिसके पास खाना हो वह भी ऐसा ही करे।” टैक्स वुसूल करनेवालों ने पूछा कि “उस्ताद, हम क्या करें?” तो उन्होंने फ़रमाया, “जो तुम्हारे लिए तय है उससे ज़्यादा न लेना।” सिपाहियों ने पूछा, “हमारे लिए क्या हिदायत है?” कहा, “न किसी पर ज़ुल्म करना और न किसी पर झूठा इलज़ाम लगाना और अपनी तन्ख़ाह पर सन्तोष करना।” (लूक़ा, 3:10-14)। बनी-इसराईल के बिगड़े हुए उलमा (विद्वान) फ़रीसी और सदूक़ी उनके पास बपतिस्मा लेने आए तो डाँटकर कहा, “ऐ साँप के बच्चो! तुमको किसने जता दिया कि आनेवाले ग़ज़ब (प्रकोप) से भागो? …..अपने दिलों में यह न सोचो कि अब्राहम हमारा बाप है ........ अब पेड़ों की जड़ों पर कुल्हाड़ा रखा हुआ है तो जो पेड़ अच्छा फल नहीं लाता वह काटा और आग में डाला जाता है।” (मत्ती, 3:7-10)
उनके दौर का यहूदी बादशाह, हेरोदेस अन्तिपास जिसके राज्य में वे हक़ की दावत की ख़िदमत अंजाम देते थे, सर से पाँव तक रोमी (रूमी) तहज़ीब में डूबा हुआ था और उसकी वजह से सारे देश में बुराइयाँ और ख़राबियाँ फैल रही थीं। उसने ख़ुद अपने भाई फ़िलिप्पुस की बीवी हेरोदियास (Herodias) को अपनी पत्नी बना लिया था। हज़रत यह्या (अलैहि०) ने इसपर हेरोदेस (Herod) को मलामत की और उसकी बुरी हरकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इस जुर्म में हीरोदेस (Herod) ने उनको गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया। लेकिन वह उनको एक मुक़द्दस (पुण्य) और सच्चा आदमी समझकर उनका एहतिराम भी करता था और पब्लिक में उनके ग़ैर-मामूली असर से डरता भी था। लेकिन हेरोदियास यह समझती थी कि यूहन्ना (यानी यह्या अलैहि०) जो अख़लाक़ी रूह क़ौम में फूँक रहे हैं, वह लोगों की निगाह में उन जैसी औरतों को रुसवा किए दे रही है। इसलिए वह उनकी जान के पीछे पड़ गई। आख़िरकार हेरोदेस की सालगिरह के जश्न में उसने वह मौक़ा पा लिया जिसकी ताक में वह थी। जश्न के दरबार में उसकी बेटी ख़ूब नाची जिसपर ख़ुश होकर हेरोदेस ने कहा, “माँग क्या माँगती है।” बेटी ने अपनी बदकार माँ से पूछा, “क्या मागूँ?” माँ ने कहा, “यह्या का सर माँग ले।” चुनाँचे उसने हेरोदेस के सामने हाथ बाँधकर अर्ज़ किया कि “मुझे यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का सर एक थाल में रखवाकर अभी माँगवा दीजिए।” हीरोद यह सुनकर बहुत दुखी हुआ, मगर प्रेमिका की बेटी की माँग को कैसे रद्द कर सकता था। उसने फ़ौरन जेल से यूहन्ना (यानी हज़रत यह्या अलैहि०) का सर कटवाकर मँगवाया और एक थाल में रखवाकर नाचनेवाली को पेश कर दिया। (मत्ती, 14:3-12:, मरकुस, 6 :17-28; लूक़ा, 3:19-20)
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مُوسَىٰٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ مُخۡلَصٗا وَكَانَ رَسُولٗا نَّبِيّٗا 46
(51) और ज़िक्र करो इस किताब में मूसा का। वह एक चुना हुआ29 इनसान था और रसूल-नबी30 था।
29. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुख़लस' इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है 'ख़ालिस किया हुआ'। मतलब यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) एक ऐसे शख़्स थे जिनको अल्लाह तआला ने ख़ालिस अपना कर लिया था।
30. ‘रसूल' का मतलब है 'भेजा हुआ'। इस मतलब के लिहाज़ से अरबी ज़बान में पैग़ाम ले जानेवाले, एलची और सफ़ीर (दूत) के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है। और क़ुरआन में यह लफ़्ज़ या तो फ़रिश्तों के लिए इस्तेमाल हुआ है जो अल्लाह तआला की तरफ़ से किसी ख़ास काम पर भेजे जाते हैं, या फिर उन इनसानों को यह नाम दिया गया है जिन्हें अल्लाह तआला ने लोगों की तरफ़ अपना पैग़ाम (सन्देश) पहुँचाने के लिए मुक़र्रर किया।
'नबी' का मतलब क्या है, इस बारे में अहले-लुग़त (कोशकार) की अलग-अलग राय है। कुछ इसको 'नबा' लफ़्ज़ से बना हुआ बताते हैं, जिसका मतलब 'ख़बर' है और इस अस्ल के लिहाज़ से 'नबी' का मतलब है 'ख़बर देनेवाला'। कुछ के नज़दीक यह 'नुबू' से बना है जिसका मतलब है ऊँचाई और बुलन्दी। और इस मानी के लिहाज़ से नबी का मतलब है 'ऊँचे मर्तबेवाला' और 'बड़े ओहदेवाला'। अज़हरी ने किसाई से एक तीसरी बात भी नक़्ल की है और वह यह है कि यह लफ़्ज़ दरअस्ल 'नबई' है जिसका मतलब रास्ता है। और नबियों को नबी इसलिए कहा गया है कि वे अल्लाह की तरफ़ जाने का रास्ता हैं।
लिहाज़ा किसी शख़्स को ‘रसूल-नबी' कहने का मतलब या तो 'ऊँचे दरजे का पैग़म्बर' है, या 'अल्लाह की तरफ़ से ख़बरें देनेवाला पैग़म्बर', या फिर 'वह पैग़म्बर जो अल्लाह का रास्ता बतानेवाला है।'
क़ुरआन मजीद में ये दोनों अलफ़ाज़ आम तौर से एक जैसे मानी में इस्तेमाल हुए हैं। चुनाँचे हम देखते हैं कि एक ही शख़्स को कहीं सिर्फ़ रसूल कहा गया है और कहीं सिर्फ़ नबी और कहीं रसूल और नबी एक साथ। लेकिन कुछ जगहों पर रसूल और नबी के अलफ़ाज़ इस तरह भी इस्तेमाल हुए हैं जिससे ज़ाहिर होता है कि इन दोनों में रुतबे या काम की कैफ़ियत के लिहाज़ से कोई इस्तिलाही (पारिभाषिक) फ़र्क़ है। मसलन सूरा-22 हज्ज, आयत-52 में फ़रमाया, “हमने नहीं भेजा तुमसे पहले कोई रसूल और न नबी मगर ........” ये अलफ़ाज़ साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि रसूल और नबी दो अलग-अलग इस्तिलाहें (पारिभाषिक शब्द) हैं जिनके बीच मानी और मतलब का कोई फ़र्क़ ज़रूर है। इसी बुनियाद पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों में यह बहस चल पड़ी है कि यह फ़र्क़ किस तरह का है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि मज़बूत दलीलों के साथ कोई भी रसूल और नबी की अलग-अलग हैसियतें तय नहीं कर सका है। ज़्यादा से ज़्यादा जो बात यक़ीन के साथ कही जा सकती है वह यह है कि ‘रसूल' का लफ़्ज़ ‘नबी' के मुक़ाबले में ख़ास है। यानी हर रसूल नबी भी होता है, मगर हर नबी रसूल नहीं होता, या दूसरे अलफ़ाज़ में नबियों में से रसूल का लफ़्ज़ उन अज़ीमुश्शान हस्तियों के लिए बोला गया है जिनको आम नबियों के मुक़ाबले में ज़्यादा अहम मंसब सिपुर्द किया गया था। इसी की ताईद उस हदीस से भी होती है जो इमाम अहमद ने हज़रत अबू-उमामा से और हाकिम ने अबू-ज़र (रज़ि०) से नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) से रसूलों की तादाद पूछी गई तो आप (सल्ल०) ने 313 या 315 बताई और नबियों की तादाद पूछी गई तो आप (सल्ल०) ने एक लाख चौबीस हज़ार बताई। हालाँकि इस हदीस की सनदें ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं, मगर कई सनदों से एक बात का नक़्ल होना उसकी कमज़ोरी को बड़ी हद तक दूर कर देता है।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِدۡرِيسَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صِدِّيقٗا نَّبِيّٗا 51
(56) और इस किताब में इदरीस का33 ज़िक्र करो। वह एक सच्चा इनसान और एक नबी था,
33. हज़रत इदरीस (अलहि०) के बारे में अलग-अलग ख़याल है। कुछ के नज़दीक वे बनी-इसराईल में से कोई नबी थे, मगर ज़्यादातर लोगों की राय यह है कि वे हज़रत नूह (अलैहि०) से भी पहले गुज़रे हैं। नबी (सल्ल०) से कोई सहीह हदीस हमें ऐसी नहीं मिली जिससे उनकी शख़्सियत के मुताल्लिक़ सही जानकारी हासिल करने में कोई मदद मिलती हो। अलबत्ता क़ुरआन का एक इशारा इस ख़याल की ताईद करता है कि वे हज़रत नूह (अलैहि०) से पहले के हैं, क्योंकि बादवाली आयत में यह कहा गया है कि ये पैग़म्बर (जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ है) आदम (अलैहि०) की औलाद, नूह (अलैहि०) की औलाद, इबराहीम (अलैहि०) की औलाद और इसराईल की औलाद से हैं। अब यह ज़ाहिर है कि हज़रत यह्या (अलैहि०), ईसा (अलैहि०) और मूसा (अलैहि०) तो बनी-इसराईल में से हैं, हज़रत इसमाईल (अलैहि०) हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) और हज़रत याक़ूब (अलैहि०) इबराहीम (अलैहि०) की औलाद से हैं और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) हज़रत नूह (अलैहि०) की औलाद से। इसके बाद सिर्फ़ हज़रत इदरीस (अलैहि०) ही रह जाते हैं। जिनके बारे में यह समझा जा सकता है कि वे हज़रत आदम (अलैहि०) की औलाद से हैं। तफ़सीर लिखनेवालों का आम ख़याल यह है कि बाइबल में जिन बुज़ुर्ग का नाम हनोक (Enoch) बताया गया है, वही हज़रत इदरीस (अलैहि०) हैं। उनके बारे में बाइबल का बयान वह है—
"और हनोक 65 वर्ष का था जब उससे मतूशेलह पैदा हुआ और मतूशेलह की पैदाइश के बाद हनोक 300 साल तक ख़ुदा के साथ-साथ चलता रहा .... इस प्रकार हनोक की कुल आयु 365 वर्ष हुई। हनोक परमेश्वर के साथ-साथ चलता था; फिर वह गायब हो गया, क्योंकि ख़ुदा ने उसे उठा लिया। (उत्पत्ति, 5:21-24)
तलमूद की इसराईली रिवायतों में उनके हालात ज़्यादा तफ़सील के साथ बताए गए हैं। उनका ख़ुलासा यह है कि हज़रत नूह (अलैहि०) से पहले जब आदम की औलाद में बिगाड़ की शुरुआत हुई तो ख़ुदा के फ़रिश्ते ने हनोक को जो लोगों से अलग-थलग ज़ाहिदाना (संन्यास की) ज़िन्दगी गुज़ारते थे, पुकारा कि “ऐ हनोक, उठो! तन्हाई से निकलो और ज़मीन के वासियों में चल-फिरकर उनको वह रास्ता बताओ जिसपर उनको चलना चाहिए और वे तरीक़े बताओ जिनपर उन्हें अमल करना चाहिए।” यह हुक्म पाकर वे निकले और उन्होंने जगह-जगह लोगों को इकट्ठा करके नसीहतें कीं और इनसानी नस्ल ने उनकी फ़रमाँबरदारी क़ुबूल करके अल्लाह की बन्दगी अपना ली। हनोक 353 साल तक लोगों पर हुकूमत करते रहे। उनकी हुकूमत इनसाफ़ और हक़परस्ती की हुकूमत थी। उनके दौर में ज़मीन पर ख़ुदा की रहमतें बरसती रहीं। (The Talmud Selections, pp. 18-21)
لَّا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوًا إِلَّا سَلَٰمٗاۖ وَلَهُمۡ رِزۡقُهُمۡ فِيهَا بُكۡرَةٗ وَعَشِيّٗا 54
(62) वहाँ वे कोई बेहूदा बात न सुनेंगे जो कुछ भी सुनेंगे ठीक ही सुनेंगे,38 और उनकी रोज़ी उन्हें बराबर सुबह-शाम मिलती रहेगी।
38. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सलाम' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है ऐब और ख़राबी से महफ़ूज़। जन्नत में जो नेमतें इनसान को हासिल होंगी, उनमें से एक बड़ी नेमत यह होगी कि वहाँ कोई बेहूदा और फ़ुज़ूल और गन्दी बात सुनने में न आएगी। वहाँ का पूरा समाज एक सुथरा और संजीदा और पाकीज़ा समाज होगा, जिसका हर शख़्स भली तबीअत का होगा। वहाँ के रहनेवालों को ग़ीबतों (परोक्ष-निन्दा), गालियों, गन्दे गानों और दूसरी बुरी आवाज़ों के सुनने से पूरी नजात मिल जाएगी। वहाँ आदमी जो कुछ भी सुनेगा, भली, मुनासिब और सही बातें ही सुनेगा। इस नेमत की क़द्र वही शख़्स समझ सकता है जो इस दुनिया में वाक़ई एक पाकीज़ा और सुथरा जौक़ (रुचि) रखता हो, क्योंकि वही यह महसूस कर सकता है कि इनसान के लिए एक ऐसी गन्दी सोसाइटी में रहना कितनी बड़ी मुसीबत है, जहाँ किसी वक़्त भी उसके कान झूठ, ग़ीबत, फ़ितना-फसाद, शरारत, गन्दगी और शहवानियत की (वासनात्मक) बातों से बचे हुए न हों।