(275) मगर जो लोग सूद (ब्याज़) 315 खाते हैं उनका हाल उस आदमी जैसा होता है जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो।316 और इस हालत में उनके मुब्तला होने की वजह यह है कि वे कहते हैं, “तिजारत भी तो आख़िर सूद ही जैसी चीज़ है।"317 हालाँकि अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया है और सूद को हराम।318 इसलिए जिस आदमी को उसके रब की तरफ़ से यह नसीहत पहुँचे और आगे के लिए वह सूदख़ोरी से रुक जाए, तो जो कुछ वह पहले खा चुका, सो खा चुका, उसका मामला अल्लाह के हवाले है।319 और जो इस हुक्म के बाद फिर इसी हरकत को दोबारा करे वह जहन्नमी है, जहाँ वह हमेशा रहेगा।
315. अस्ल अरबी में 'रिबा' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। अरबी ज़बान में इस के मानी बढ़ोतरी के हैं। अरब के लोग इस लफ़्ज़ को ख़ास तौर से उस ज़्यादा रक़म के लिए इस्तेमाल करते थे जो एक क़र्ज़ देनेवाला अपने क़र्ज़ लेनेवाले से एक तयशुदा दर के हिसाब से अस्ल रक़म के अलावा वुसूल करता है। इसी को हमारी ज़बान में सूद (ब्याज) कहते हैं। क़ुरआन उतरने के वक़्त सूदी मामलों की जो शक्लें राइज़ थीं और जिन्हें अरबवाले 'रिबा' कहते थे, वे ये थीं कि मिसाल के तौर पर एक आदमी दूसरे आदमी के हाथ कोई चीज़ बेचता और क़ीमत अदा करने के लिए एक मुद्दत मुक़र्रर कर देता। अगर वह मुद्दत गुज़र जाती और क़ीमत अदा न होती तो वह और मुहलत देता, लेकिन क़ीमत बढ़ा देता। या मसलन एक आदमी दूसरे आदमी को क़र्ज़ देता और उससे तय कर लेता कि इतनी मुद्दत में इतनी रक़म अस्ल (मूल) से ज़्यादा अदा करनी होगी। या मसलन फिर क़र्ज़ देनेवाले और क़र्ज़ लेनेवाले के बीच एक ख़ास मुद्दत तक के लिए एक दर तय हो जाती थी और अगर इस मुद्दत में अस्ल रक़म बढ़ी हुई रक़म के साथ अदा न होती तो और ज़्यादा मुहलत पहले से ज़्यादा दर पर दी जाती थी, इसी तरह के मामलों के बारे में हुक्म यहाँ बयान किया जा रहा है।
316. अरब के लोग दीवाने आदमी के लिए ‘मजनून' यानी आसेब-ज़दा का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते थे और जब किसी शख़्स के बारे में यह कहना होता कि वह पागल हो गया है, तो यूँ कहते कि उसे जिन्न (भूत-प्रेत या आसेब) लग गया है। इसी मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए क़ुरआन सूद (ब्याज) खानेवाले की मिसाल उस शख़्स से देता है, जिसके हवास गुम हो गए हों। यानी जिस तरह वह शख़्स अक़्ल से कोरा होकर ग़ैर-मोतदिल (असंतुलित) हरकतें करने लगता है, उसी तरह सूद खानेवाला भी रुपये के पीछे दीवाना हो जाता है और अपनी ख़ुदग़र्जी के पागलपन में कुछ परवाह नहीं करता कि उसके सूद खाने से किस-किस तरह इनसानी मुहब्बत, भाईचारा और हमदर्दी की जड़ें कट रही हैं, इनसानी समाज की भलाई और ख़ुशहाली के कामों पर कितना तबाह करनेवाला असर पड़ रहा है और कितने लोगों की बदहाली से वह अपनी ख़ुशहाली का सामान कर रहा है। यह उसकी दीवानगी का हाल इस दुनिया में है और चूँकि आख़िरत में इनसान उसी हालत में उठाया जाएगा, जिस हालत पर उसने दुनिया में जान दी है, इसलिए सूद खानेवाला आदमी क़ियामत के दिन एक बावले और पागल की हालत में उठेगा।
317. यानी उनकी सोच की ख़राबी यह है कि तिजारत में अस्ल लागत पर जो मुनाफ़ा लिया जाता है उसमें और सूद में वे फ़र्क़ नहीं समझते और दोनों को एक ही क़िस्म की चीज़ समझकर यूँ दलील देते हैं कि जब तिजारत में लगे हुए रुपये का मुनाफ़ा जाइज़ है तो क़र्ज़ पर दिए हुए रुपये का मुनाफ़ा क्यों नाजाइज़ हो। इसी तरह की दलीलें आज के दौर के सूद (ब्याज) खानेवाले भी सूद के हक़ में पेश करते हैं। वे कहते हैं कि एक आदमी जिस रुपये से ख़ुद फ़ायदा उठा सकता था उसे वह क़र्ज़ पर दूसरे आदमी के सिपुर्द करता है। वह दूसरा आदमी भी बहरहाल उससे फ़ायदा ही उठाता है। फिर आख़िर क्या वजह है कि क़र्ज़ देनेवाले के रुपये से जो फ़ायदा क़र्ज़ लेनेवाला उठा रहा है उसमें से एक हिस्सा वह क़र्ज़ देनेवाले को न अदा करे? मगर ये लोग इस बात पर ग़ौर नहीं करते कि दुनिया में जितने कारोबार हैं, चाहे वह खेती-बाड़ी के हों, या तिजारत के हों या उद्योग-धंधे के हों और चाहे उन्हें आदमी सिर्फ़ अपनी मेहनत से करता हो या अपनी पूँजी और मेहनत दोनों से , इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें आदमी नुक़सान का ख़तरा (Risk) मोल न लेता हो और जिसमें आदमी के लिए ज़रूरी तौर पर एक तयशुदा मुनाफ़े की गारंटी हो। फिर आख़िर पूरी कारोबारी दुनिया में एक क़र्ज़ देनेवाला सरमायादार (पूंजीपति) ही ऐसा क्यों हो जो नुक़सान के खतरे से बचकर एक तयशुदा और लाज़िमी मुनाफ़े का हक़दार क़रार पाए। मुनाफ़ा न देनेवाले कामों के लिए क़र्ज़ लेनेवाले का मामला थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिए और (सूद के) दर की कमी-बेशी के मामले से भी नज़र हटा लीजिए। मामला उसी क़र्ज़ का सही जो फ़ायदा देनेवाले कामों में लगाने के लिए लिया जाए और दर भी थोड़ी ही सही। सवाल यह है कि जो लोग एक कारोबार में अपना वक़्त, अपनी मेहनत, अपनी क़ाबिलियत और अपना माल रात-दिन खपा रहे हैं और जिनकी कोशिशों के बल पर ही वह कारोबार फल-फूल सकता है, उनके लिए तो एक तयशुदा मुनाफ़े की गारंटी न हो, बल्कि नुक़सान का सारा ख़तरा बिलकुल उन्हीं के सर पर हो, मगर जिसने सिर्फ़ अपना रुपया उन्हें क़र्ज़ दे दिया हो वह बिना ख़तरा मोल लिए एक तयशुदा मुनाफ़ा वुसूल करता चला जाए, यह आख़िर किस अक़्ल, किस दलील, इनसाफ़ के किस उसूल और मआशियात (अर्थशास्त्र) के किस उसूल के मुताबिक़ सही है? और यह किस बुनियाद पर सही है कि एक शख़्स एक कारख़ाने को बीस साल के लिए एक रक़म क़र्ज़ दे और आज ही यह तय कर ले कि अगले बीस साल तक वह बराबर पाँच फ़ीसद सालाना के हिसाब से अपना मुनाफ़ा लेने का हक़दार होगा, हालाँकि वह कारख़ाना जो माल तैयार करता है, उसके बारे में किसी को भी नहीं मालूम कि मार्केट में उसकी क़ीमतों के अन्दर अगले बीस साल में कितना उतार-चढ़ाव होगा? और यह कैसे सही है कि एक क़ौम के सारे ही तबक़े एक लड़ाई में ख़तरा, नुक़सान और क़ुर्बानियाँ बरदाश्त करें, मगर सारी क़ौम के अन्दर से सिर्फ़ एक क़र्ज़ देनेवाला सरमायादार ही ऐसा हो जो अपने दिए हुए जंगी क़र्ज़ पर अपनी ही क़ौम से लड़ाई के एक सदी बाद तक सूद (ब्याज) वुसूल करता रहे।
318. तिजारत और सूद का उसूली फ़र्क़ जिसकी बुनियाद पर दोनों की माली और अख़लाक़ी हैसियत एक नहीं हो सकती, वह यह है—
(1) तिजारत में बेचनेवाले और ख़रीदनेवाले के बीच मुनाफ़े का बराबरी के साथ लेन-देन होता है, क्योंकि ख़रीदनेवाला उस चीज़ से नफ़ा उठाता है जो उसने बेचनेवाले से ख़रीदी है और बेचनेवाला अपनी उस मेहनत, क़ाबिलियत और वक़्त का मुआवज़ा लेता है जिसको उसने ख़रीदनेवाले के लिए वह चीज़ मुहैया करने में लगाया है। इसके बरख़िलाफ़ सूदी लेन-देन में मुनाफ़े का तबादला बराबरी के साथ नहीं होता। सूद लेनेवाला तो माल की एक तयशुदा मिक़दार (मात्रा) ले लेता है जो उसके लिए यक़ीनी तौर पर नफ़ा देनेवाली होती है, लेकिन उसके मुक़ाबले में सूद देनेवाले को सिर्फ़ मुहलत मिलती है, जिसका नफ़ाबख़्श होना यक़ीनी नहीं। अगर उसने पैसे अपनी निजी ज़रूरतों पर ख़र्च करने के लिए लिए हैं तब तो ज़ाहिर है कि मुहलत उसके लिए बिलकुल ही नफ़ा देनेवाली नहीं है और अगर वह तिजारत या खेती या कारख़ाने वग़ैरा में लगाने के लिए पैसा लेता है, तब भी मुहलत में जिस तरह उसके लिए नफ़ा का इमकान है उसी तरह नुक़सान का भी इमकान है। सूद का मामला या तो एक फ़रीक़ के फ़ायदे और दूसरे के नुक़सान पर होता है या एक के यक़ीनी और तयशुदा फ़ायदे और दूसरे के ग़ैर-यक़ीनी और ग़ैर-तयशुदा फ़ायदे पर।
(2) तिजारत में बेचनेवाला ख़रीदनेवाले से चाहे कितना ही ज़्यादा मुनाफ़ा ले, बहरहाल वह जो कुछ लेता है एक ही बार लेता है। लेकिन सूद के मामले में माल देनेवाला अपने माल पर बराबर मुनाफ़ा वुसूल करता रहता है और वक़्त की रफ्तार के साथ-साथ उसका मुनाफ़ा बढ़ता चला जाता है। क़र्ज़ लेनेवाले ने उसके माल से चाहे कितना ही फ़ायदा हासिल किया हो, बहरहाल उसका फ़ायदा एक ख़ास हद तक ही होगा। मगर क़र्ज़ देनेवाला इस फ़ायदे के बदले में जो नफ़ा उठाता है, उसके लिए कोई हद नहीं। हो सकता है कि वह क़र्ज़ लेनेवाले की पूरा कमाई, कमाने के उसके तमाम वसाइल, यहाँ तक कि उसके तन के कपड़े और घर के बरतन तक हज़म (हड़प) कर ले और फिर भी उसका मुतालबा बाक़ी रह जाए।
(3) तिजारत में चीज़ और उसकी क़ीमत का तबादला होने के साथ ही मामला ख़त्म हो जाता है। ज़मीन या सामान के किराए और उसके बाद ख़रीदनेवाले को कोई चीज़ बेचनेवाले को वापस देनी नहीं होती। मकान या अस्ल चीज़ जिसके इस्तेमाल का मुआवज़ा दिया जाता है, ख़र्च नहीं होता, बल्कि बाक़ी रहती है और उसी शक्ल में मालिक को वापस दे दी जाती है, लेकिन सूद के मामले में क़र्ज़ लेनेवाला पैसे को ख़र्च कर चुका होता है और फिर उसको वह ख़र्च किया हुआ माल दोबारा पैदा करके बढ़ोतरी के साथ वापस देना होता है।
(4) तिजारत, कारख़ाने और खेती में इनसान मेहनत, ज़हानत (बुद्धि) और वक़्त लगाकर उसका फ़ायदा लेता है, मगर सूदी कारोबार में वह सिर्फ़ अपनी ज़रूरत से ज़्यादा अपना माल देकर बिना किसी मेहनत और मशक़्क़त के दूसरों की कमाई में भरपूर शरीक बन जाता है। उसकी हैसियत इस्तिलाही (पारिभाषिक) ‘भागीदार’ (Partner) की नहीं होती जो नफ़ा और नुक़सान दोनों में शरीक होता है और नफ़ा में जिसकी भागीदारी नफ़ा के हिसाब से होती है, बल्कि वह ऐसा भागीदार होता है जो नफ़ा और नुक़सान का लिहाज़ किए बिना और नफ़ा के हिसाब का ख़याल किए बिना अपने तयशुदा मुनाफ़े का दावेदार होता है।
इन वजहों से तिजारत की माली हैसियत और सूद की माली हैसियत में इतना भारी फ़र्क़ हो जाता है कि तिजारत इनसानी समाज की तामीर (निर्माण) करनेवाली क़ुव्वत बन जाती है और इसके बरख़िलाफ़ सूद उसके बिगाड़ की वजह बनता है। फिर अख़लाक़ी हैसियत से सूद की यह ख़ास फ़ितरत है कि वह लोगों में कंजूसी, ख़ुदग़र्जी, संगदिली, बेरहमी और दौलतपरस्ती की सिफ़तें पैदा करता है और हमदर्दी और आपस में एक-दूसरे की मदद की रूह को ख़त्म कर देता है। इसी वजह से सूद माली और अख़लाक़ी दोनों हेसियतों से इनसानी समाज को तबाह व बरबाद करनेवाला है।
319. यह नहीं कहा कि जो कुछ उसने खा लिया उसे अल्लाह माफ़ कर देगा, बल्कि कहा यह जा रहा है कि उसका मामला अल्लाह के हवाले है। इस जुमले से मालूम होता है कि “जो खा चुका सो खा चुका”कहने का मतलब यह नहीं है कि जो खा चुका उसे माफ़ कर दिया गया, बल्कि इससे सिर्फ़ क़ानूनी छूट मुराद है। यानी जो सूद पहले खाया जा चुका है उसे वापस देने का क़ानूनी तौर पर मुतालबा नहीं किया जाएगा; क्योंकि अगर उसका मुतालबा किया जाए, तो मुक़द्दमों एक ख़त्म न होनेवाला सिलसिला शुरू हो जाए, मगर अख़लाक़ी हैसियत से माल की नापाकी पहले की तरह बाक़ी रहेगी जो किसी आदमी ने सूदी कारोबार से समेटा हो। अगर वह हक़ीक़त में ख़ुदा से डरनेवाला होगा और उसका माली और अख़लाक़ी नज़रिया वाक़ई इस्लाम अपनाने से बदल चुका होगा, तो वह ख़ुद अपनी उस दौलत को जो हराम तरीक़े से आई थी, अपने ऊपर ख़र्च करने से परहेज़ करेगा और कोशिश करेगा कि जहाँ तक उन हक़दारों का पता चलाया जा सकता है, जिनका माल उसके पास है, उस हद तक उनका माल उन्हें वापस कर दिया जाए और माल के जिस हिस्से के हक़दारों का पता न लगाया जा सके, उसे आम लोगों की भलाई और ख़ुशहाली के कामों पर ख़र्च किया जाए। यही अमल उसे ख़ुदा की सज़ा से बचा सकेगा। रहा वह शख़्स जो पहले कमाए हुए माल से पहले ही की तरह मज़े उठाता रहे तो नामुमकिन नहीं कि वह अपनी इस हरामख़ोरी की सज़ा पाकर रहे।