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سُورَةُ البَقَرَةِ

2.सूरा अल-बक़रा

(मदीना में उतरी, आयतें 286)

परिचय

नाम और नाम रखने का कारण

इस सूरा का नाम बक़रा इसलिए है कि इसमें एक जगह ‘बक़रा’ का उल्लेख हुआ है। अरबी भाषा में ‘बक़रा’ का अर्थ होता है - गाय । क़ुरआन मजीद की हर सूरा में इतने व्यापक विषयों का उल्लेख हुआ है कि उनके लिए विषयानुसार व्यापक शीर्षक नहीं दिए जा सकते। इसलिए नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के मार्गदर्शन से क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के लिए विषयानुसार शीर्षक देने के बजाए नाम निश्चित किए हैं, जो केवल पहचान का काम देते हैं। इस सूरा को ‘बक़रा’ कहने का अर्थ यह नहीं है कि इसमें गाय की समस्या पर वार्ता की गई है, बल्कि इसका अर्थ केवल यह है कि 'वह सूरा जिसमें गाय का उल्लेख हुआ है’।

उतरने का समय

इस सूरा का अधिकतर हिस्सा मदीना की हिजरत के बाद मदीना वाली ज़िदंगी के बिल्कुल आरम्भ में उतरा है और बहुत कम हिस्सा ऐसा है जो बाद में उतरा और विषय की अनुकूलता की दृष्टि से इसमें शामिल कर दिया गया।

उतरने का कारण

इस सूरा को समझने के लिए पहले इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए-

1. हिजरत से पहले जब तक मक्का में इस्लाम की दावत दी जाती रही, संबोधन अधिकतर अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) से था, जिनके लिए इस्लाम की आवाज़ एक नई और अनजानी आवाज़ थी। अब हिजरत के बाद वास्ता यहूदियों से पड़ा। ये यहूदी लोग तौहीद (एकेश्वरवाद), रिसालत (ईशदूतत्व), वह्य (प्रकाशना), आख़िरत (परलोक) और फ़रिश्तों को मानते थे और सैद्धांतिक रूप में उनका दीन (धर्म) वही इस्लाम था, जिसकी शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। लेकिन सदियों से होनेवाले निरंतर पतन ने उनको असल धर्म (मूसा-धर्म) से बहुत दूर हटा दिया था। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे, तो अल्लाह ने आपको निर्देश दिया कि उनको असल धर्म की ओर बुलाएँ । अत: इस सूरा बक़रा की आरंभिक 141 आयतें इसी आह्वान पर आधारित हैं।

2. मदीना पहुँचकर इस्लामी आह्वान एक नए चरण में प्रवेश कर चुका था। मक्का में तो मामला केवल धर्म की बुनियादी बातों के प्रचार और धर्म अपनानेवालों के नैतिक प्रशिक्षण तक सीमित था, लेकिन जब हिजरत के बाद मदीने में एक छोटे-से इस्लामी स्टेट की बुनियाद पड़ गई, तो अल्लाह ने सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, क़ानून और राजनीति के बारे में भी मूल निर्देश देने शुरू किए और यह बताया कि इस्लाम की बुनियाद पर यह नई जीवन-व्यवस्था कैसे स्थापित की जाए? यह सूरा आयत 142 से लेकर अंत तक इन्हीं निर्देशों पर आधारित है।

3. हिजरत से पहले लोगों को इस्लाम की ओर स्वयं उन्हीं के घर में (अर्थात् मक्का में) बुलाया जाता रहा और विभिन्न क़बीलों में से जो लोग इस्लाम ग्रहण करते थे, वे अपनी-अपनी जगह रहकर ही धर्म का प्रचार करते और जवाब में अत्याचारों और मुसीबतों को झेलते रहते थे, किन्तु हिजरत के बाद जब ये बिखरे हुए मुसलमान मदीना में जमा होकर एक जत्था बन गए और उन्होंने एक छोटा-सा स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तो स्थिति यह हो गई कि एक ओर एक छोटी-सी बस्ती थी और दूसरी ओर तमाम अरब उसकी जड़ें काट देने पर तुला हुआ था। अब इस मुट्ठी-भर लोगों के गिरोह की सफलता का ही नहीं, बल्कि उसका अस्तित्व और स्थायित्व इस बात पर निर्भर था कि एक तो वह पूरे उत्साह के साथ अपने दृष्टिकोण का प्रचार करके अधिक-से-अधिक लोगों को अपने विचारों का माननेवाला बनाने की कोशिश करे। दूसरे वह विरोधियों का असत्य पर होना इस तरह प्रमाणित और पूरी तरह स्पष्ट कर दे कि किसी भी सोचने-समझनेवाले व्यक्ति को उसमें संदेह न रहे। तीसरे यह कि जिन ख़तरों में वे चारों ओर से घिर गए थे, उनमें वे हताश न हो, बल्कि पूरे धैर्य और जमाव के साथ उन परिस्थितियों का मुक़ाबला करें। चौथे यह कि वे पूरी बहादुरी के साथ हर उस हथियारबन्द अवरोध का सशस्त्र मुक़ाबला करने के लिए तैयार हो जाएँ, जो उनके आह्वान को विफल बनाने के लिए किसी ताक़त की ओर से किया जाए। पाँचवें, उनमें इतना साहस पैदा किया जाए कि अगर अरब के लोग इस नई व्यवस्था को, जो इस्लाम स्थापित करना चाहता है, समझाने-बुझाने से न अपनाएँ, तो उन्हें अज्ञान की दूषित जीवन-व्यवस्था को शक्ति से मिटा देने में भी संकोच न हो। अल्लाह ने इस सूरा में इन पाँचों बातों के बारे में आरंभिक निर्देश दिए हैं।

4. इस्लामी आह्वान के इस चरण में एक नया गिरोह भी ज़ाहिर होना शुरू हो गया था और यह मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का गिरोह था। यद्यपि निफ़ाक़ (कपटाचार) के आरंभिक लक्षण मक्का के आखिरी दिनों में ही ज़ाहिर होने लगे थे, लेकिन वहाँ केवल इस प्रकार के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पाए जाते थे, जो इस्लाम के हक़ (सत्य) होने को तो मानते थे और ईमान का इक़रार भी करते थे, लेकिन इसके लिए [किसी प्रकार की कु़रबानी देने के लिए] तैयार न थे। मदीना पहुँचकर इस प्रकार के मुनाफ़िक़ों के अलावा कुछ और प्रकार के मुनाफ़िक़ भी इस्लामी गिरोह में पाए जाने लगे [इसलिए उनके बारे में भी निर्देशों का आना ज़रूरी हुआ]।

सूरा बक़रा के उतरने के समय इन विभिन्न प्रकार के मुनाफ़िक़ों के प्रादुर्भाव का केवल आरंभ था, इसलिए अल्लाह ने उनकी ओर केवल संक्षिप्त संकेत किए हैं। बाद में जितनी-जितनी उनकी विशेषताएँ और हरकतें सामने आती गईं, उतने ही विस्तार के साथ बाद की सूरतों में हर प्रकार के मुनाफ़िकों के बारे में उनकी श्रेणियों के अनुसार अलग-अलग हिदायतें भेजी गईं।

 

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سُورَةُ البَقَرَةِ
2. अल-बक़रा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम।1
1. ये 'हुरूफ़े-मुक़त्तआत' (विलग-अक्षर) क़ुरआन मजीद की कुछ सूरतों के शुरू में पाए जाते हैं। जिस ज़माने में क़ुरआन उतरा है, उस ज़माने में बात कहने और बयान करने के जो अन्दाज़ और तरीक़े राइज थे उनमें इस तरह के अलग-अलग हरफ़ों का इस्तेमाल आम तौर पर राइज था। तक़रीर करनेवाले और शायर दोनों बयान के इस अन्दाज़ (शैली) से काम लेते थे। चुनाँचे अब भी इस्लाम से पहले के लिट्रेचर के जो नमूने महफ़ूज़ (सुरक्षित) हैं उनमें इसकी मिसालें हमें मिलती हैं। इस आम इस्तेमाल की वजह से ये मुक़त्तआत कोई पहेली न थे जिसको बोलनेवाले के सिवा कोई न समझता हो, बल्कि सुननेवाले आम तौर से जानते थे कि इनसे मुराद क्या है। यही वजह है कि क़ुरआन के ख़िलाफ़ नबी (सल्ल०) के वक़्त के इस्लाम के मुख़ालिफ़ों में से किसी ने भी यह सवाल कभी नहीं किया कि ये बेमानी हर्फ़ कैसे हैं, जो तुम क़ुरआन की कुछ सूरतों की शुरुआत में बोलते हो। और यही वजह है कि सहाबा किराम (रज़ि०) से भी ऐसी कोई रिवायत नहीं मिलती कि उन्होंने नबी (सल्ल०) से इनके मानी पूछे हों। बाद में यह अन्दाज़ अरबी ज़बान में ख़त्म होता चला गया और इस वजह से क़ुरआन के मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) के लिए इनका मतलब समझना मुश्किल हो गया। लेकिन यह ज़ाहिर है कि न तो इन हुरूफ़ (अक्षरों) का मतलब समझने पर क़ुरआन से हिदायत (मार्गदर्शन) हासिल करने का दारोमदार है और न यही बात है कि अगर कोई आदमी इनके मानी न जानेगा तो उसका सीधा रास्ता पाने में कोई कमी रह जाएगी। इसलिए एक आम आदमी के लिए कुछ ज़रूरी नहीं है कि वह इनकी खोज में पड़े।
ذَٰلِكَ ٱلۡكِتَٰبُ لَا رَيۡبَۛ فِيهِۛ هُدٗى لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 1
(2) यह अल्लाह की किताब है, इसमें कोई शक नहीं।2 हिदायत है उन परहेज़गार लोगों के लिए,3
2. इसका एक सीधा-सादा मतलब तो यह है कि “बेशक यह अल्लाह की किताब है”, मगर एक मतलब यह भी हो सकता है कि यह ऐसी किताब है जिसमें शक की कोई बात नहीं है। दुनिया में जितनी भी किताबें फ़ितरत से परे और अक़्ल की पहुँच से आगे की हक़ीक़तों के बारे में बातें करती हैं, वे सब अटकल और गुमान पर मबनी (आधारित) हैं। इसी लिए ख़ुद उनके लिखनेवाले भी अपने बयानों के बारे में शक से पाक नहीं हो सकते चाहे वे कितने ही यक़ीन का इज़हार करें। लेकिन यह ऐसी किताब है जो पूरे तौर पर हक़ीक़त के इल्म पर मबनी है। इसका मुसन्निफ़ (रचयिता) वह है जो तामाम हक़ीक़तों का इल्म रखता है, इसलिए हक़ीक़त में इसमें शक के लिए कोई जगह नहीं। यह दूसरी बात है कि इनसान अपनी नादानी की वजह से इसकी बातों में शक करें।
3. यानी यह किताब है तो सरासर हिदायत और रहनुमाई, मगर इससे फ़ायदा उठाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी में कुछ सिफ़ात (गुण) पाई जाती हों। इनमें से पहली सिफ़त यह है कि आदमी 'परहेज़गार' हो, भलाई और बुराई में फ़र्क़ करता हो, बुराई से बचना चाहता हो, भलाई की तलब रखता हो और उसपर अमल करने का ख़ाहिशमन्द हो। रहे वे लोग जो दुनिया में जानवरों की तरह जीते हों, जिन्हें कभी यह फ़िक्र न होती हो कि जो कुछ वे कर रहे हैं वह सही भी है। या नहीं। बस जिधर दुनिया चल रही हो या जिधर मन की ख़ाहिश धकेल दे या जिधर क़दम उठ जाएँ, उसी तरफ़ चल पड़ते हों, तो ऐसे लोगों के लिए क़ुरआन में कोई रहनुमाई नहीं है।
ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡغَيۡبِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 2
(3) जो ग़ैब (परोक्ष) पर ईमान लाते हैं,4 नमाज़ क़ायम करते हैं,5 जो रोज़ी हमने उनको दी है उसमें से ख़र्च करते हैं,6
4. यह क़ुरआन से फ़ायदा उठाने के लिए दूसरी शर्त है। ‘ग़ैब' (परोक्ष) से मुराद वे हक़ीक़तें हैं, जो इनसान के हवास (ज्ञानेन्द्रियों) से छिपी हुई हैं और कभी सीधे तौर पर आम इनसानों के तजरिबे और देखने में नहीं आतीं, जैसे ख़ुदा की ज़ातो-सिफ़ात (व्यक्तित्व एवं गुण) फ़रिश्ते, वह्य, जन्नत, दोज़ख़ वग़ैरा। इन हक़ीक़तों को बिना देखे मानना और इस भरोसे पर मानना कि नबी उनकी ख़बर दे रहा है, ग़ैब पर ईमान लाना है। आयत का मतलब यह है कि जो आदमी इन महसूस न होनेवाली हक़ीक़तों को मानने के लिए तैयार हो, सिर्फ़ वही क़ुरआन की रहनुमाई से फ़ायदा उठा सकता है। रहा वह आदमी जो मानने के लिए देखने, चखने और सूँघने की शर्त लगाए और जो कहे कि मैं किसी ऐसी चीज़ को नहीं मान सकता जो नापी और तौली न जा सकती हो तो वह इस किताब से हिदायत नहीं पा सकता।
5. यह तीसरी शर्त है। इसका मतलब यह है कि जो लोग सिर्फ़ मानकर बैठ जानेवाले हों वे क़ुरआन से फ़ायदा नहीं उठा सकते। इससे फ़ायदा उठाने के लिए ज़रूरी है कि आदमी ईमान लाने के बाद फ़ौरन ही अमली इताअत (व्यावहारिक रूप से आज्ञापालन) के लिए तैयार हो जाए, और अमली इताअत की सबसे पहली अलामत और हमेशा की अलामत नमाज़ है। ईमान लाने पर कुछ घंटे भी नहीं गुज़रते कि मुअज़्ज़िन (अज़ान देनेवाला) नमाज़ के लिए पुकारता है और उसी वक़्त फ़ैसला हो जाता है कि ईमान का दावा करनेवाला इताअत (आज्ञापालन) के लिए भी तैयार है या नहीं। फिर यह मुअज़्ज़िन रोज़ पाँच वक़्त पुकारता रहता है, और जब भी इनसान उसकी पुकार पर लब्बै-क (मैं हाज़िर हूँ) न कहे उसी वक़्त ज़ाहिर हो जाता है कि ईमान का दावा करनेवाला इताअत से बाहर हो गया है। तो नमाज़ का छोड़ना अस्ल में इताअत का छोड़ना है, और ज़ाहिर बात है कि जो आदमी किसी की हिदायत पर अमल करने के लिए ही तैयार न हो उसके लिए हिदायत देना और न देना यकसाँ है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि 'नमाज़ क़ायम करना' एक जामेअ इस्तिलाह (व्यापक परिभाषा) है, इसका मतलब सिर्फ़ यही नहीं है कि आदमी पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करे, बल्कि इसका मतलब यह है कि इजतिमाई तौर से नमाज़ का बाक़ायदा इन्तिज़ाम किया जाए। अगर किसी बस्ती में एक-एक शख़्स अकेले नमाज़ पढ़ने का पाबन्द हो, लेकिन जमाअत के साथ इस फ़र्ज़ के अदा करने का इन्तिज़ाम न हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ नमाज़ क़ायम की जा रही है।
6. यह क़ुरआन की रहनुमाई से फ़ायदा उठाने के लिए चौथी शर्त है कि आदमी तंगदिल न हो, दौलत का पुजारी न हो, बल्कि उसके माल में ख़ुदा और बन्दों के जो हक़ तय किए जाएँ उन्हें अदा करने के लिए तैयार हो। जिस चीज़ पर ईमान लाया है उसके लिए माल की क़ुर्बानी करने में भी कंजूसी न करे।
وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ وَبِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ ۝ 3
(4) जो किताब तुमपर उतारी गई है (यानी क़ुरआन) और जो किताबें तुमसे पहले उतारी गई थीं उन सबपर ईमान लाते हैं,7 और आख़िरत (परलोक) पर यक़ीन रखते हैं।8
7. यह पाँचवीं शर्त है कि आदमी उन तमाम किताबों को सच्ची माने जो वह्य (प्रकाशना) के ज़रिए से ख़ुदा ने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और उनसे पहले के नबियों पर मुख़्तलिफ़ ज़मानों और देशों में उतारीं। इस शर्त की बुनियाद पर क़ुरआन की हिदायत का दरवाज़ा उन सब लोगों पर बन्द है जो सिरे से इसकी ज़रूरत ही न समझते हों कि इनसान को ख़ुदा की तरफ़ से हिदायत मिलनी चाहिए, या इस ज़रूरत के तो क़ायल हों, मगर इसके लिए वह्य और रिसालत (पैग़म्बरी) की तरफ़ रुजू करना (पलटना) ग़ैर-ज़रूरी समझते हों और ख़ुद कुछ नज़रियात (सिद्धान्त) गढ़कर उन्हीं को ख़ुदा की हिदायत समझ बैठे या आसमानी किताबों को भी मानते हों मगर सिर्फ़ उस किताब या उन किताबों पर ईमान लाएँ जिन्हें उनके बाप-दादा मानते चले आए हैं, रहीं उसी सरचश्मे (स्रोत) से निकली हुई दूसरी हिदायतें, तो वे उनको मानने से इनकार कर दें। ऐसे सब लोगों को अलग करके क़ुरआन अपनी मेहरबानी के सरचश्मे से सिर्फ़ उन लोगों को फ़ायदा पहुँचाता है जो अपने आप को ख़ुदाई हिदायत का मुहताज भी मानते हों और यह भी तस्लीम करते हों कि ख़ुदा की यह हिदायत हर इनसान के पास अलग-अलग नहीं आती, बल्कि नबियों और आसमानी किताबों के ज़रिए से ही लोगों तक पहुँचती है और फिर वे लोग जिन्हें यह हिदायत मिलती है, किसी नस्ली और क़ौमी तास्सुब (पक्षपात) में भी गिरफ़्तार न हों, बल्कि ख़ालिस हक़ को माननेवाले हों, इसलिए हक़ (सत्य) जहाँ-जहाँ जिस शक्ल में भी आया है उसके आगे सर झुका दें।
8. यह छठी और आख़िरी शर्त है। 'आख़िरत' एक जामेअ (व्यापक) लफ़्ज़ है जो बहुत-से अक़ीदों के लिए बोला जाता है। इसमें नीचे लिखे अक़ीदे शामिल हैं— (1) यह कि इनसान इस दुनिया में ग़ैर-ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि अपने तमाम आमाल (कर्मों) के लिए ख़ुदा के सामने जवाबदेह है। (2) यह कि दुनिया का मौजूदा निज़ाम हमेशा रहनेवाला नहीं है, बल्कि एक वक़्त पर, जिसे सिर्फ़ ख़ुदा ही जानता है, इसका ख़ातिमा हो जाएगा। (3) यह कि इस आलम (जगत्) के ख़ातिमे के बाद ख़ुदा एक दूसरा आलम बनाएगा और उसमें सारे इनसानों को, जो दुनिया के शुरू से लेकर क़ियामत तक ज़मीन पर पैदा हुए थे, एक साथ दोबारा पैदा करेगा, और सबको जमा करके उनके आमाल (कर्मों) का हिसाब लेगा, और हर एक को उसके किए का पूरा-पूरा बदला देगा। (4) यह कि ख़ुदा के इस फ़ैसले के मुताबिक़ जो लोग नेक क़रार पाएँगे, वे जन्नत में जाएँगे और जो लोग बुरे ठहरेंगे वे दोज़ख़ में डाले जाएँगे। (5) यह कि कामयाबी और नाकामी का अस्ली मेयार मौजूदा ज़िन्दगी की ख़ुशहाली और बदहाली नहीं है, बल्कि हक़ीक़त में कामयाब इनसान वह है जो ख़ुदा के आख़िरी फ़ैसले में कामयाब ठहरे, और नाकाम वह है जो वहाँ नाकाम हो। अक़ीदों के इस मजमूए (संग्रह) पर जिन लोगों को यक़ीन न हो, वे क़ुरआन से कोई फ़ायदा नहीं उठा सकते; क्योंकि इन बातों का इनकार तो दूर की बात है, अगर किसी के दिल में इनके बारे में शक और शुब्हाे की कैफ़ियत भी हो तो वह उस रास्ते पर नहीं चल सकता जो इनसानी ज़िन्दगी के लिए क़ुरआन ने बताया है।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَىٰ هُدٗى مِّن رَّبِّهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 4
(5) ऐसे लोग अपने रब की तरफ़ से सीधे रास्ते पर हैं और वही कामयाब होनेवाले हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 5
(6) जिन लोगों ने (इन बातों को मानने से) इनकार कर दिया,9 उनके लिए बराबर है, चाहे तुम उन्हें ख़बरदार करो या न करो, बहरहाल कभी भी वे माननेवाले नहीं हैं।
9. यानी वे छः की छः शतें जो ऊपर बयान हुई हैं, पूरी न कीं और इन सबको या इनमें से किसी एक को भी मानने से इनकार कर दिया।
خَتَمَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَعَلَىٰ سَمۡعِهِمۡۖ وَعَلَىٰٓ أَبۡصَٰرِهِمۡ غِشَٰوَةٞۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 6
(7) अल्लाह ने उनके दिलों और उनके कानों पर मुहर लगा दी है।10 और उनकी आँखों पर परदा पड़ गया है। वे सख़्त सज़ा के हक़दार हैं।
10. इसका मतलब यह नहीं है कि अल्लाह ने मुहर लगा दी थी इसलिए उन्होंने मानने से इनकार किया, बल्कि मतलब यह है कि जब उन्होंने उन बुनियादी बातों को रद्द कर दिया, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है और अपने लिए क़ुरआन के बताए हुए रास्ते के ख़िलाफ़ दूसरा रास्ता पसन्द कर लिया, तो ख़ुदा ने उनके दिलों और कानों पर मुहर लगा दी। इस मुहर लगने की कैफ़ियत का तजरिबा हर उस आदमी को होगा जिसे कभी तबलीग़ (प्रचार) करने का इत्तिफ़ाक़ हुआ हो। जब कोई आदमी आपके पेश किए हुए तरीक़े को जाँचने के बाद एक बार रदद् कर देता है, तो उसका ज़ेहन कुछ इस तरह मुख़ालिफ़ सम्त (विपरीत दिशा) में चल पड़ता है कि फिर आपकी कोई बात उसकी समझ में नहीं आती। आपकी दावत के लिए उसके कान बहरे और आपके तरीक़े की ख़ूबियों के लिए उसकी आँखें अन्धी हो जाती हैं, और साफ़ तौर पर महसूस होता है कि हक़ीक़त में उसके दिल पर मुहर लगी हुई है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَمَا هُم بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 7
(8) कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान लाए हैं, हालाँकि हक़ीक़त में वे ईमानवाले नहीं हैं।
يُخَٰدِعُونَ ٱللَّهَ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَمَا يَخۡدَعُونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 8
(9) वे अल्लाह और ईमान लानेवालों के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं, मगर अस्ल में वे ख़ुद अपने आप ही को धोखे में डाल रहे हैं और उन्हें इसका शुऊर नहीं है।11
11. यानी वे अपने आपको इस ग़लतफ़हमी (भ्रम) में डाल रहे हैं कि उनका यह मुनाफ़िक़ाना (पाखण्डपूर्ण) रवैया उनके लिए फ़ायदेमन्द होगा, हालाँकि अस्ल में यह उनको दुनिया में भी नुक़सान पहुँचाएगा आर आख़िरत में भी। दुनिया में एक मुनाफ़िक़ (पाखण्डी) कुछ दिनों के लिए तो लोगों को धोखा दे सकता है, मगर हमेशा उसका घोखा नहीं चल सकता। आख़िर उसकी मुनाफ़क़त का राज़ खुलकर रहता है और फिर समाज में उसकी कोई साख बाक़ी नहीं रहती। रही आख़िरत, तो वहाँ ईमान का ज़बानी दावा कोई कीमत नहीं रखता, अगर अमल उसके ख़िलाफ़ हो।
فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ فَزَادَهُمُ ٱللَّهُ مَرَضٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡذِبُونَ ۝ 9
(10) उनके दिलों में एक बीमारी है जिसे अल्लाह ने और ज़्यादा बढ़ा दिया12 और जो झूठ वे बोलते हैं, उसके बदले में उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
12. बीमारी से मुराद मुनाफ़क़त (पाखण्ड) की बीमारी है और अल्लाह की तरफ़ से इस बीमारी को और बढ़ा देने का मतलब यह है कि वह मुनाफ़िक़ों (पाखण्डियों) को उनके कपट (निफ़ाक़) की सज़ा फ़ौरन नहीं देता, बल्कि उन्हें ढील देता है और इस ढील का नतीजा यह होता है कि मुनाफ़िक़ लोग अपनी चालों को ज़ाहिर में कामयाब होता देखकर और ज़्यादा मुकम्मल मुनाफ़िक़ बनते चले जाते हैं।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ لَا تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ قَالُوٓاْ إِنَّمَا نَحۡنُ مُصۡلِحُونَ ۝ 10
(11) जब कभी उनसे कहा गया कि धरती में बिगाड़ न पैदा करो, तो उन्होंने यही कहा कि हम तो सुधार करनेवाले हैं।
أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلۡمُفۡسِدُونَ وَلَٰكِن لَّا يَشۡعُرُونَ ۝ 11
(12) ख़बरदार! हक़ीक़त में यही लोग बिगाड़ पैदा करनेवाले हैं, मगर इन्हें शुऊर नहीं है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ ءَامِنُواْ كَمَآ ءَامَنَ ٱلنَّاسُ قَالُوٓاْ أَنُؤۡمِنُ كَمَآ ءَامَنَ ٱلسُّفَهَآءُۗ أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلسُّفَهَآءُ وَلَٰكِن لَّا يَعۡلَمُونَ ۝ 12
(13) और जब इनसे कहा गया कि जिस तरह दूसरे लोग ईमान लाए हैं उसी तरह तुम भी ईमान लाओ13 तो इन्होंने यही जवाब दिया, “क्या हम बेवक़ूफों की तरह ईमान लाएँ?14 – ख़बरदार! सच तो यह है कि ये ख़ुद बेवक़ूफ़ हैं, मगर ये जानते नहीं।
13. यानी जिस तरह तुम्हारी क़ौम के दूसरे लोग सच्चाई और सच्चे दिल के साथ मुसलमान हुए हैं, उसी तरह तुम भी अगर इस्लाम क़ुबूल करते हो तो ईमानदारी के साथ सच्चे दिल से क़ुबूल करो।
14. वे अपने नज़दीक उन लोगों को बेवक़ूफ़ समझते थे जो सच्चाई के साथ इस्लाम क़ुबूल करके अपने आपको तकलीफ़ों, परेशानियों और ख़तरों में डाल रहे थे। उनकी राय में यह बिलकुल ही बेवक़ूफ़ी का काम था कि सिर्फ़ हक़ और सच्चाई के लिए पूरे देश की दुश्मनी मोल ले ली जाए। उनके ख़याल में अक़्लमंदी यह थी कि आदमी हक़ और बातिल (नाहक़) की बहस में न पड़े, बल्कि हर मामले में सिर्फ़ अपने फ़ायदे को देखे।
وَإِذَا لَقُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ إِلَىٰ شَيَٰطِينِهِمۡ قَالُوٓاْ إِنَّا مَعَكُمۡ إِنَّمَا نَحۡنُ مُسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 13
(14) जब ईमानवालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए हैं और जब अकेले में अपने शैतानों15 से मिलते हैं तो कहते हैं कि अस्ल में तो हम तुम्हारे साथ हैं और उन लोगों से सिर्फ़ मज़ाक़ कर रहे हैं
15. शैतान अरबी ज़बान में सरकश, नाफ़रमान और पागल, दीवाने को कहते हैं। इनसान और जिन्न दोनों के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है। हालाँकि क़ुरआन में यह लफ़्ज़ ज़्यादा तर जिन्न शैतानों के लिए आया है, लेकिन कुछ जगहों पर शैतान जैसी सिफ़त रखनेवाले इनसानों के लिए भी इस्तेमाल किया गया है, और मौक़ा-महल को देखकर आसानी से मालूम हो जाता है कि कहाँ शैतान से इनसान मुराद हैं और कहाँ जिन्न। इस जगह शैतान का लफ़्ज़ उन बड़े-बड़े सरदारों के लिए इस्तेमाल हुआ है, जो उस वक़्त इस्लाम की मुख़ालफ़त (विरोध) में आगे-आगे थे।
ٱللَّهُ يَسۡتَهۡزِئُ بِهِمۡ وَيَمُدُّهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 14
(15) अल्लाह इनसे मज़ाक़ कर रहा है। वह इनकी रस्सी लम्बी किए जाता है और ये अपनी सरकशी में अन्धों की तरह भटकते चले जाते हैं।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلضَّلَٰلَةَ بِٱلۡهُدَىٰ فَمَا رَبِحَت تِّجَٰرَتُهُمۡ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 15
(16) ये वे लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीद ली है, मगर यह सौदा इनके लिए फ़ायदेमन्द नहीं है और ये हरगिज़ सही रास्ते पर नहीं हैं।
مَثَلُهُمۡ كَمَثَلِ ٱلَّذِي ٱسۡتَوۡقَدَ نَارٗا فَلَمَّآ أَضَآءَتۡ مَا حَوۡلَهُۥ ذَهَبَ ٱللَّهُ بِنُورِهِمۡ وَتَرَكَهُمۡ فِي ظُلُمَٰتٖ لَّا يُبۡصِرُونَ ۝ 16
(17) इनकी मिसाल ऐसी है जैसे एक आदमी ने आग जलाई, और जब उसने सारे माहौल को रौशन कर दिया तो अल्लाह ने इनके देखने की रौशनी छीन ली और इन्हें इस हाल में छोड़ दिया कि अंधेरियों में इन्हें कुछ नज़र नहीं आता।16
16. मतलब यह है कि जब एक अल्लाह के बन्दे ने रौशनी फ़ैलाई और हक़ को बातिल से, सही को ग़लत से, सीधे रास्ते को गुमराहियों से छाँटकर बिलकुल नुमायाँ कर दिया, तो जो लोग गहराई तक देखने की आँखें रखते थे उनपर तो सारी सच्चाइयाँ खुल गईं, मगर ये मुनाफ़िक़ (पाखण्डी) जो अपने मन की बुरी ख़ाहिशों की ग़ुलामी में पड़कर अंधे हो रहे थे, उनको इस रौशनी में कुछ दिखाई न पड़ा। 'अल्लाह ने देखने की रौशनी छीन ली' के लफ़्ज़ों से किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि उनके अंधेरे में भटकने की ज़िम्मेदारी ख़ुद उनपर नहीं है। अल्लाह देखने की ताक़त उसी की छीनता है जो ख़ुद सच्चाई का तालिब (इच्छुक) नहीं होता। ख़ुद हिदायत के बजाय गुमराही को अपने लिए पसन्द करता है। ख़ुद सच्चाई का रौशन चेहरा नहीं देखना चाहता। जब उन्होंने नूरे-हक़ (हक़ की रौशनी) से मुँह फेरकर बातिल के अंधेरे में ही भटकना चाहा, तो अल्लाह ने उन्हें इसी की तौफ़ीक़ दे दी।
صُمُّۢ بُكۡمٌ عُمۡيٞ فَهُمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 17
(18) ये बहरे हैं, गूंगे हैं, अन्धे हैं,17 ये अब न पलटेंगे।
17. हक़ बात सुनने के लिए बहरे, सच बोलने के लिए गूंगे, सच देखने के लिए अंधे।
أَوۡ كَصَيِّبٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فِيهِ ظُلُمَٰتٞ وَرَعۡدٞ وَبَرۡقٞ يَجۡعَلُونَ أَصَٰبِعَهُمۡ فِيٓ ءَاذَانِهِم مِّنَ ٱلصَّوَٰعِقِ حَذَرَ ٱلۡمَوۡتِۚ وَٱللَّهُ مُحِيطُۢ بِٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 18
(19) या फिर इनकी मिसाल यूँ समझो कि आसमान से जोर की बारिश हो रही है और उसके साथ अन्धेरी घटा और कड़क और चमक भी है, ये बिजली के कड़ाके सुनकर अपनी जानों के डर से कानों में उँगलियाँ ठूँसे लेते हैं और अल्लाह हक़ के इन इनकारियों को हर तरफ़ से घेरे में लिए हुए है।18
18. यानी कानों में उँगलियों ठूँसकर वे अपने आपको कुछ देर के लिए इस ग़लतफ़हमी में तो डाल सकते हैं कि तबाही से बच जाएँगे, मगर हक़ीक़त में इस तरह से बच नहीं सकते, क्योंकि अल्लाह अपनी तमाम ताक़तों के साथ उनको अपने घेरे में लिए हुए है।
يَكَادُ ٱلۡبَرۡقُ يَخۡطَفُ أَبۡصَٰرَهُمۡۖ كُلَّمَآ أَضَآءَ لَهُم مَّشَوۡاْ فِيهِ وَإِذَآ أَظۡلَمَ عَلَيۡهِمۡ قَامُواْۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَذَهَبَ بِسَمۡعِهِمۡ وَأَبۡصَٰرِهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 19
(20) चमक से इनकी हालत यह हो रही है कि मानो बहुत जल्द बिजली इनकी आँखों की रौशनी उचक ले जाएगी। जब ज़रा कुछ रौशनी इन्हें महसूस होती है तो उसमें कुछ दूर चल लेते हैं और जब इनपर अन्धेरा छा जाता है तो खड़े हो जाते हैं।19 — अल्लाह चाहता तो इनके सुनने और देखने की ताक़त बिलकुल ही छीन लेता,20 यक़ीनन वह हर चीज़ की क़ुदरत रखता है।
19. पहली मिसाल उन मुनाफ़िक़ों की थी जो दिल में इस्लाम का बिलकुल इनकार करते थे और किसी फ़ायदे और ग़रज़ के लिए 'मुसलमान' बन गए थे। और यह दूसरी मिसाल उनकी है जो शक और शुब्हाे और ईमान की कमज़ोरी में पड़े हुए थे, कुछ हक़ के क़ायल भी थे, मगर ऐसी हक़परस्ती (सत्य को मानने) के कायल न थे कि उसके लिए तकलीफ़ और मुसीबतों को भी सहन कर जाएँ। इस मिसाल में बारिश से मुराद इस्लाम है जो इनसानियत के लिए रहमत बनकर आया। अंधेरी घटा, कड़क और चमक से मुराद मुश्किलों और मुसीबतों का वह हुजूम (भीड़) और वह सख़्त जिद्दो-जुह्द है जो इस्लामी तहरीक (आन्दोलन) के मुक़ाबले में अहले-जाहिलियत (अज्ञानियों) की सख़्त मुख़ालफ़त की वजह से पेश आ रहा था। मिसाल के आख़िरी हिस्से में इन मुनाफ़िक़ों (कपटचारियों) की इस कैफियत का नक़्शा खींचा गया है कि जब मामला ज़रा आसान होता है तो ये चल पड़ते हैं, और जब कठिनाइयों के बादल छाने लगते हैं या ऐसे हुक्म दिए जाते हैं, जिनसे उनके मन की ख़ाहिश और जाहिलियत (अज्ञानता) के तास्सुबों (पक्षपातों) पर चोट पड़ती है, तो ठिठककर खड़े हो जाते हैं।
20. यानी जिस तरह पहली क़िस्म के मुनाफ़िक़ों की आँखों की रौशनी उसने बिल्कुल छीन ली है, उसी तरह अल्लाह इनको भी हक़ के लिए अंधा-बहरा बना सकता था, मगर अल्लाह का यह क़ायदा नहीं है कि जो किसी हद तक देखना और सुनना चाहता हो, उसे उतना भी न देखने-सुनने दे। जिस क़दर हक़ देखने और हक़ सुनने के लिए ये तैयार थे, उसी क़दर सुनने और देखने की ताक़त अल्लाह ने इनके पास रहने दी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 20
(21) लोगो!21 बन्दगी इख़्तियार करो अपने उस रब की जो तुम्हारा और तुमसे पहले जो लोग हो गुज़रे हैं उन सबका पैदा करनेवाला है, तुम्हारे बचने की उम्मीद22 इसी सूरत से हो सकती है।
21. हालाँकि क़ुरआन की दावत तमाम इनसानों के लिए आम है, लेकिन इस दावत से फ़ायदा उठाने या न उठाने का दारोमदार लोगों की अपनी आमादगी पर और उस आमादगी के मुताबिक़ अल्लाह की तौफ़ीक़ पर है। इसलिए पहले इनसानों के बीच फ़र्क़ करके वाज़ेह कर दिया गया कि किस क़िस्म के लोग इस किताब की रहनुमाई से फ़ायदा उठा सकते हैं और किस तरह के नहीं उठा सकते। इसके बाद अब तमाम इनसानों के सामने वह अस्ल बात पेश की जाती है, जिसकी तरफ़ बुलाने के लिए क़ुरआन आया है।
22. यानी दुनिया में ग़लत देखने और ग़लत करने से और आख़िरत में ख़ुदा के अज़ाब से बचने की उम्मीद।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ فِرَٰشٗا وَٱلسَّمَآءَ بِنَآءٗ وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجَ بِهِۦ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ رِزۡقٗا لَّكُمۡۖ فَلَا تَجۡعَلُواْ لِلَّهِ أَندَادٗا وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 21
(22) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन का फ़र्श बिछाया, आसमान की छत बनाई, ऊपर से पानी बरसाया और उसके ज़रिए से हर तरह की पैदावार निकालकर तुम्हारे लिए रोज़ी जुटाई। तो जब तुम यह जानते हो तो दूसरों को अल्लाह के मुक़ाबले में न लाओ।23
23. यानी जब तुम ख़ुद भी इस बात के क़ायल हो और तुम्हें मालूम है कि ये सारे काम अल्लाह ही के हैं, तो फिर तुम्हारी बन्दगी उसी के लिए ख़ास होनी चाहिए। दूसरा कौन इसका हक़दार हो सकता है कि तुम उसकी बन्दगी करो। दूसरों को अल्लाह के मुक़ाबले का ठहराने से मुराद यह है कि बन्दगी और इबादत की मुख़्तलिफ़ क़िस्मों में से किसी भी क़िस्म का रवैया ख़ुदा के सिवा दूसरों के साथ अपनाया जाए। आगे चलकर ख़ुद क़ुरआन ही से तफ़सील (विस्तार) के साथ मालूम हो जाएगा कि इबादत की वे क़िस्में कौन-कौन-सी हैं, जिन्हें सिर्फ़ अल्लाह के लिए ख़ास होना चाहिए और जिनमें दूसरों को शरीक ठहराना वह 'शिर्क' है जिसे रोकने के लिए क़ुरआन आया है।
وَإِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّمَّا نَزَّلۡنَا عَلَىٰ عَبۡدِنَا فَأۡتُواْ بِسُورَةٖ مِّن مِّثۡلِهِۦ وَٱدۡعُواْ شُهَدَآءَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 22
(23) और अगर तुम्हें इस मामले में संदेह है कि यह किताब जो हमने अपने बन्दे पर उतारी है, यह हमारी है या नहीं, तो इस जैसी एक ही सूरा बना लाओ, अपने सारे हिमायतियों को बुला लो, एक अल्लाह को छोड़कर बाक़ी जिसकी चाहो मदद ले लो, अगर तुम सच्चे हो तो यह काम करके दिखाओ।24
24. इससे पहले मक्का में कई बार यह चैलेंज दिया जा चुका था कि अगर तुम इस क़ुरआन को इनसान की तसनीफ़ (रचना) समझते हो, तो इसी तरह कोई कलाम लिख करके दिखाओ। अब मदीना पहुँचकर फिर दोहराया जा रहा है। (देखिए सूरा 10 यूनुस आयत 38; सूरा 11 हूद आयत 13; सूरा 17 बनी-इसराईल आयत 88; सूरा 52 अत-तूर आयत 33-34) ।
فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ وَلَن تَفۡعَلُواْ فَٱتَّقُواْ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي وَقُودُهَا ٱلنَّاسُ وَٱلۡحِجَارَةُۖ أُعِدَّتۡ لِلۡكَٰفِرِينَ ۝ 23
( 24 ) लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, और यक़ीनन कभी नहीं कर सकते, तो डरो उस आग से जिसका ईंधन बनेंगे इनसान और पत्थर,25 जो तैयार की गई है हक़ (सत्य) का इनकार करनेवालों के लिए।
25. इसमें यह लतीफ़ (सूक्ष्म) इशारा है कि वहाँ सिर्फ़ तुम ही दोज़ख़ का ईधन न बनोगे, बल्कि तुम्हारे वे बुत भी वहाँ तुम्हारे साथ ही मौजूद होंगे जिनकी तुम इबादत करते हो और जिनके आगे तुम माथा टेकते हो। उस वक़्त तुम्हें ख़ुद ही मालूम हो जाएगा कि ख़ुदाई (ईश्वरत्व) में ये कितना दख़ल रखते थे।
وَبَشِّرِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ كُلَّمَا رُزِقُواْ مِنۡهَا مِن ثَمَرَةٖ رِّزۡقٗا قَالُواْ هَٰذَا ٱلَّذِي رُزِقۡنَا مِن قَبۡلُۖ وَأُتُواْ بِهِۦ مُتَشَٰبِهٗاۖ وَلَهُمۡ فِيهَآ أَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞۖ وَهُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 24
(25) और ऐ पैग़म्बर! जो लोग इस किताब पर ईमान ले आएँ और (इसके मुताबिक़) अपने अमल (कर्म) ठीक कर लें, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो कि उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, उन बाग़ों के फल देखने में दुनिया के फलों से मिलते-जुलते होंगे। जब कोई फल उन्हें खाने को दिया जाएगा तो वे कहेंगे कि ऐसे ही फल इससे पहले दुनिया में हमको दिए जाते थे।26 उनके लिए वहाँ पाकीज़ा बीवियाँ होंगी27 और वे वहाँ हमेशा रहेंगे।
26. यानी निराले और अजनबी फल न होंगे जिन्हें वे पहचानते न हों। शक्ल में उन्हीं फलों से मिलते-जुलते होंगे जिनसे वे दुनिया में वाक़िफ़ थे। अलबत्ता, मज़े में वे उनसे कहीं ज़्यादा बढ़े हुए होंगे। देखने में जैसे आम, अनार और सन्तरे ही होंगे। जन्नती हर फल को देखकर पहचान लेंगे कि यह आम है और यह अनार है और यह सन्तरा है, मगर मज़े में दुनिया के आमों, अनारों और सन्तरों का उनसे कोई ताल्लुक़ न होगा।
27. अरबी इबारत (वाक्य) में 'अज़वाज' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। यह 'ज़ौज' लफ़्ज़ की जमा (बहुवचन) है, जिसका मतलब है 'जोड़ा' और यह लफ़्ज़ शौहर और बीवी दोनों के लिए इस्तेमाल होता है। शौहर के लिए बीवी 'ज़ौज' है और बीवी के लिए शौहर 'ज़ौज' है। मगर वहाँ ये जोड़े पाकीज़गी की सिफ़त (गुण) के साथ होंगे। अगर दुनिया में कोई मर्द नेक है और उसकी बीवी नेक नहीं है तो आख़िरत में उनका रिश्ता कट जाएगा और नेक मर्द को कोई दूसरी नेक बीवी दे दी जाएगी। अगर यहाँ कोई औरत नेक है और उसका शौहर बुरा है, तो वहाँ उस बुरे शौहर के साथ रहने से छुटकारा पा जाएगी और कोई नेक मर्द उसका शौहर बना दिया जाएगा। और अगर यहाँ कोई शौहर और बीवी दोनों नेक हैं, तो वहाँ उनका यही रिश्ता हमेशा-हमेशा का हो जाएगा।
۞إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَسۡتَحۡيِۦٓ أَن يَضۡرِبَ مَثَلٗا مَّا بَعُوضَةٗ فَمَا فَوۡقَهَاۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۖ وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَيَقُولُونَ مَاذَآ أَرَادَ ٱللَّهُ بِهَٰذَا مَثَلٗاۘ يُضِلُّ بِهِۦ كَثِيرٗا وَيَهۡدِي بِهِۦ كَثِيرٗاۚ وَمَا يُضِلُّ بِهِۦٓ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 25
(26) हाँ, अल्लाह इससे हरगिज़ नहीं शर्माता कि मच्छर या इससे भी मामूली किसी28 चीज़ की मिसालें दे। जो लोग हक़ बात को क़ुबूल करनेवाले हैं, वे इन्हीं मिसालों को देखकर जान लेते हैं कि यह हक़ (सत्य) है जो उनके रब ही की तरफ़ से आया है, और जो माननेवाले नहीं हैं, वे उन्हें सुनकर कहने लगते हैं कि ऐसी मिसालों से अल्लाह को क्या वास्ता? इस तरह अल्लाह एक ही बात से बहुतों को गुमराही में डाल देता है और बहुतों को सीधा रास्ता दिखा देता है।29 और गुमराही में वह उन्हीं को डालता है जो फ़ासिक़ हैं,30
28. यहाँ एक एतिराज़ (आपत्ति) का ज़िक्र किए बिना उसका जवाब दिया गया है। क़ुरआन में कई जगहों पर मक़सद को वाज़ेह करने के लिए मकड़ी, मक्खी, मच्छर वग़ैरा की जो मिसालें दी गई हैं उनपर मुख़ालिफ़ों को एतिराज था कि यह अल्लाह का कैसा कलाम (वाणी) है जिसमें ऐसी मामूली चीज़ों की मिसालें हैं। वे कहते थे कि अगर यह अल्लाह का कलाम (वाणी) होता तो इसमें ये फ़ुज़ूल की बातें न होतीं।
29. यानी जो लोग बात को समझना नहीं चाहते, हक़ की चाहत नहीं रखते, उनकी निगाहें तो सिर्फ़ ज़ाहिरी अलफ़ाज़ (शब्दों) में अटककर रह जाती हैं और वे उन चीज़ों से उलटे नतीजे निकालकर हक़ से और ज़्यादा दूर चले जाते हैं। इसके बरख़िलाफ़ जो ख़ुद हक़ीक़त को पाना चाहते हैं। और सही सूझ-बूझ रखते हैं, उनको इन्हीं बातों में हिकमत के जौहर दिखाई पड़ते हैं और उनका दिल गवाही देता है कि ऐसी हिकमत और सूझ-बूझ से भरी बातें अल्लाह ही की तरफ़ से हो सकती हैं।
30. फ़ासिक़: नाफ़रमान, इताअत (फरमाँबरदारी और बन्दगी) की हद से बाहर निकल जानेवाला।
ٱلَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهۡدَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مِيثَٰقِهِۦ وَيَقۡطَعُونَ مَآ أَمَرَ ٱللَّهُ بِهِۦٓ أَن يُوصَلَ وَيُفۡسِدُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 26
(27) अल्लाह के अह्द (वचन)को मज़बूत बाँध लेने के बाद तोड़ देते हैं31 अल्लाह ने जिसे जोड़ने का हुक्म दिया है उसे काटते हैं,32 और ज़मीन में बिगाड़ पैदा करते है।33 हक़ीक़त में यही लोग घाटा उठानेवाले हैं।
31. बादशाह अपने मुलाज़िमों (कर्मचारियों) और जनता के नाम जो फ़रमान या हिदायतें जारी करता है उनको अरबी मुहावरे में 'अहद' कहा जाता है; क्योंकि उनपर अमल करना और हुक्म को पूरा करना जनता के लिए ज़रूरी होता है। यहाँ 'अहद' का लफ़्ज़ इसी मानी में इस्तेमाल हुआ है। अल्लाह के अह्द से मुराद उसका वह मुस्तक़िल (शाश्वत्) हुक्म है जिसके मुताबिक़ तमाम लोग सिर्फ़ उसी की बन्दगी, फ़रमाँबरदारी और इबादत करने पर लगाए गए हैं। ‘मज़बूत बाँध लेने के बाद’ से इशारा उस तरफ़ है कि आदम की पैदाइश के वक़्त सारे ही इनसानों से इस फ़रमान की पाबन्दी का इक़रार लिया गया था। इस अह्द व क़रार पर क़ुरआन सूरा 7 , अल-आराफ़, आयत 172 में ज़्यादा तफ़सील के साथ रौशनी डाली गई है।
32. यानी जिन राब्तों और ताल्लुक़ के क़ायम रहने और मज़बूती पर इनसान की इज्तिमाई (सामाजिक) और इन्फ़िरादी (वैयक्तिक) कामयाबी का दारोमदार है और जिनको ठीक रखने का अल्लाह ने हुक्म दिया है, उनपर ये लोग कुल्हाड़ी चलाते हैं। इस मुख़्तसर से जुमले में इतनी ज़्यादा वुसअत (व्यापकता) है कि इनसानी समझ और अख़लाक़ की पूरी दुनिया पर जो दो आदमियों के ताल्लुक़ से लेकर आलमगीर बैनल-अक़वामी (विश्वव्यापी अन्तर्राष्ट्रीय) ताल्लुक़ात तक फैली हुई है, सिर्फ़ यही एक जुमला हावी हो जाता है। रिश्तों को काटने से मुराद सिर्फ़ इनसानी ताल्लुक़ात को काटना ही नहीं है, बल्कि ताल्लुक़ात की सही और जाइज़ सूरतों के अलावा जो सूरतें भी इख़्तियार की जाएँगी ये सब इसी के तहत आ जाएँगी, क्योंकि ग़लत और नाजाइज़ तल्लुक़ात का अंजाम वही है जो ताल्लुक़ को काटने का है। यानी इनसानों के बीच के ताल्लुक़ात की ख़राबी और अख़लाक़ और तहज़ीब के निज़ाम (व्यवस्था) की बरबादी।
33. इन तीन जुमलों में फ़िस्क़ और फ़ासिक़ (अवज्ञा और अवज्ञाकारी) का पूरा मतलब बयान कर दिया गया है। अल्लाह और बन्दे के ताल्लुक़ और इनसान और इनसान के ताल्लुक़ को काटने या बिगाड़ने का लाज़िमी नतीजा फ़साद और बिगाड़ है, और जो इस फ़साद (बिगाड़) को पैदा करता है, वही ‘फ़ासिक़' यानी बदकार और नाफ़रमान है।
كَيۡفَ تَكۡفُرُونَ بِٱللَّهِ وَكُنتُمۡ أَمۡوَٰتٗا فَأَحۡيَٰكُمۡۖ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 27
(28) तुम अल्लाह के साथ इनकार का रवैया कैसे अपनाते हो, हालाँकि तुम बेजान थे, उसने तुमको ज़िन्दगी दी, फिर वही तुम्हें मौत देगा, फिर वही तुम्हें दोबारा ज़िन्दगी देगा, फिर उसी की तरफ़ तुम्हें पलटकर जाना है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ لَكُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰٓ إِلَى ٱلسَّمَآءِ فَسَوَّىٰهُنَّ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖۚ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 28
(29 ) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन की सारी चीज़ें पैदा कीं, फिर ऊपर की तरफ़ तवज्जोह की और सात आसमान34 ठीक तौर पर तैयार किए। और वह हर चीज़ का इल्म रखनेवाला है।35
34. सात आसमानों की हक़ीक़त क्या है, इसका तअय्युन (निर्धारण) मुश्किल है। इनसान हर ज़माने में आसमान या दूसरे लफ़्ज़ों में ज़मीन से परे के बारे में अपने मुशाहदों (अवलोकनों) और गुमानों के मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात अपनाता रहा है जो बराबर बदलते रहे हैं। इसलिए उनमें से किसी तसव्वुर को बुनियाद ठहराकर क़ुरआन के इन अलफ़ाज़ का मतलब मुतअय्यन करना सही नहीं होगा। बस मुख़्तसर तौर पर इतना समझ लेना चाहिए कि या तो इससे मुराद यह है कि ज़मीन से परे जो भी कायनात (जगत्) है उसे अल्लाह ने सात मज़बूत तबक़ों में बाँट रखा है या यह कि ज़मीन इस कायनात के जिस हिस्से में वाक़ेअ (स्थित) है, वह सात तबक़ो (वर्गों) पर मुश्तमिल है।
35. इस जुमले में दो अहम हक़ीक़तों के बारे में ख़बरदार किया गया है। एक यह कि तुम उस के मुक़ाबले में इनकार और बग़ावत का रवैया अपनाने की जुरअत (दुस्साहस) कैसे करते हो जो तुम्हारी तमाम हरकतों की ख़बर रखता है। जिससे तुम्हारी कोई हरकत छिपी हुई नहीं रह सकती, दूसरे यह कि जो ख़ुदा तमाम हक़ीक़तों का इल्म (ज्ञान) रखता है, जो हक़ीक़त में इल्म का सरचश्मा है, उससे मुँह मोड़कर सिवाए इसके कि तुम जाहिलियत की अंधेरियों में भटको और क्या नतीजा निकल सकता है। जब उसके सिवा इल्म का कोई सरचश्मा है ही नहीं, जब उसके सिवा और कहीं से रौशनी नहीं मिल सकती, जिसमें तुम अपनी ज़िन्दगी का रास्ता साफ़ देख सको तो आख़िर उससे सरकशी करने में क्या फ़ायदा तुमने देखा है।
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي جَاعِلٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ خَلِيفَةٗۖ قَالُوٓاْ أَتَجۡعَلُ فِيهَا مَن يُفۡسِدُ فِيهَا وَيَسۡفِكُ ٱلدِّمَآءَ وَنَحۡنُ نُسَبِّحُ بِحَمۡدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَۖ قَالَ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 29
(30 ) फिर ज़रा36 उस वक़्त का तसव्वुर करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से37 से कहा था कि “में ज़मीन में एक ख़लीफ़ा38 बनानेवाला हूँ।” उन्होंने कहा, “क्या आप ज़मीन में किसी ऐसे को मुक़र्रर करनेवाले हैं जो उसके इन्तिज़ाम को बिगाड़ देगा और ख़ून-ख़राबा करेगा?39 आपकी तारीफ़ और शुक्र के साथ तसबीह और आपकी पाकी का बयान तो हम कर ही रहे हैं।”40 कहा, “मैं जानता हूँ जो कुछ तुम नहीं जानते।"41
36. ऊपर के रुकू (परिच्छेद) में रब की बन्दगी की दावत इस बुनियाद पर दी गई थी कि वह तुम्हारा पैदा करनेवाला है, पालनहार है, उसी की मुट्ठी में तुम्हारी ज़िन्दगी और मौत है, और जिस दुनिया में तुम रहते हो उसका मालिक इन्तिज़ाम चलानेवाला वही है, इसलिए उसकी बन्दगी के सिवा तुम्हारे लिए और कोई दूसरा तरीक़ा सही नहीं हो सकता। अब इस रुकू (परिच्छेद) में वही दावत इस बुनियाद पर दी जा रही है कि इस दुनिया में ख़ुदा ने तुमको अपना ख़लीफ़ा बनाया है। ख़लीफ़ा होने की हैसियत से तुम्हारा फ़र्ज़ और ज़िम्मेदारी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि उसकी बन्दगी करो, बल्कि यह भी है कि उसकी भेजी हुई हिदायत के मुताबिक़ काम करो। अगर तुमने ऐसा नहीं किया और अपने पैदाइशी दुश्मन शैतान के इशारों पर चले तो बदतरीन बग़ावत के मुजरिम होगे और इसका बहुत बुरा अंजाम देखोगे। इस सिलसिले में इनसान की हक़ीक़त और कायनात (जगत्) में उसकी हैसियत ठीक-ठीक बता दी गई है और इनसानों की तारीख़़ (इतिहास) का वह बाब पेश किया गया है जिसके जानने का कोई दूसरा ज़रिआ इनसान के पास मौजूद नहीं है। इस बाब से जो अहम नतीजे हासिल होते हैं, वे उन नतीजों से बहुत ज़्यादा क़ीमती हैं जो ज़मीन की तहों से बिखरी हुई हड्डियाँ निकालकर और उन्हें अटकल और गुमान से जोड़-जोड़कर आदमी हासिल करने की कोशिश करता है।
37. अरबी में लफ़्ज़ 'मलक' के असली मायने 'पैग़ाम पहुँचानेवाला' है। इसी का लफ़्ज़ी (शाब्दिक) तर्जमा 'फ़रिस्तादा' (भेजा हुआ) या फ़रिश्ता है। ये सिर्फ़ मुजर्रद (एकाकी) क़ुव्वतें नहीं हैं, जो तशख़्ख़ुस (व्यक्तित्व) न रखती हों, बल्कि ये शख़्सियत रखनेवाली हस्तियाँ हैं जिनसे अल्लाह अपनी इस अज़ीमुश्शान सल्तनत के इन्तिज़ाम में काम लेता है। यूँ समझना चाहिए कि ये ख़ुदा की सल्तनत के कारिन्दे (कर्मचारी) हैं जो ख़ुदा के हुक्मों को लागू करते हैं। नासमझ लोग उन्हें ग़लती से ख़ुदाई में हिस्सेदार समझ बैठे। कुछ ने इन्हें ख़ुदा का रिश्तेदार समझा और उनको देवी-देवता बनाकर उनकी इबादत शुरू कर दी।
38. ख़लीफ़ा: वह जो किसी की मिल्कियत में उसके दिए हुए इख़्तियारात को उसके नायब की हैसियत से इस्तेमाल करे। ख़लीफ़ा मालिक नहीं होता, बल्कि अस्ल मालिक का नायब होता है। उसके इख़्तियारात (अधिकार) उसके अपने नहीं होते, बल्कि मालिक के दिए हुए होते हैं। वह अपनी मरज़ी के मुताबिक़ काम करने का हक़ नहीं रखता, बल्कि उसका काम मालिक की मरज़ी को पूरा करना होता है। अगर वह ख़ुद अपने आप को मालिक समझ बैठे और मिले हुए इख़्तियारात को मनमाने तरीक़े से इस्तेमाल करने लगे, या अस्ल मालिक के सिवा किसी और को मालिक मान कर उसकी मरज़ी की पैरवी और उसके हुक्मों को पूरा करने लगे, तो ये सब ग़द्दारी और बग़ावत के काम होंगे।
39. यह फ़रिश्तों का एतिराज़ न था, बल्कि ये समझना चाहते थे। फ़रिश्तों की क्या मजाल कि ख़ुदा के किसी फ़ैसले पर एतिराज़ करें। वे ‘ख़लीफ़ा' लफ़्ज़ से यह तो समझ गए थे कि इस नई मख़लूक़ (प्राणी) को ज़मीन में कुछ इख़्तियार दिए जानेवाले हैं, मगर यह बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि सल्तनते-कायनात (जगत्) के इस निज़ाम में किसी ऐसी मख़लूक़ की गुंजाइश कैसे हो सकती है, जिसे इख़्तियार हासिल हो और अगर किसी को कुछ थोड़े-से इख़्तियार दे दिए जाएँ तो सल्तनत के जिस हिस्से में भी ऐसा किया जाएगा, वहाँ का निज़ाम ख़राबी से कैसे बच पाएगा। इसी बात को वे समझना चाहते थे।
40. इस जुमले (वाक्य) से फ़रिश्तों का मक़सद यह न था कि ख़लीफ़ा उन्हें बनाया जाए, वे इसके हक़दार हैं, बल्कि उनका मतलब यह था कि हुज़ूर के हुक्मों का पालन पूरी तरह हो रहा है, आपके हुक्म के पालन में हम पूरी तरह लगे हुए हैं, आपकी मरज़ी के मुताबिक़ सारे जहान को पाक-साफ़ रखा जाता है और इसके साथ आपकी तारीफ़ और शुक्र और आपकी ‘तस्बीह व तक़्दीस' (महानता एवं पवित्रता का गुणगान) भी हम ख़ादिम बड़े अदब से कर रहे हैं। अब कमी किस चीज़ की है कि उसके लिए एक ख़लीफ़ा की ज़रूरत हो? हम इसका मक़सद नहीं समझ सके। तस्बीह लफ़्ज़ के दो मानी हैं। इसका एक मतलब पाकी बयान करना भी है और दूसरा सरगर्मी के साथ काम और लगन के साथ कोशिश करना भी है। इसी तरह तक़दीस के भी दो मानी हैं, एक पाकी का इज़हार व बयान, दूसरे पाक करना।
41. यह फ़रिश्तों के दूसरे शुब्हाे का जवाब है। यानी कहा कि ख़लीफ़ा मुक़र्रर करने की ज़रूरत और मस्लहत (निहित उद्देश्य) मैं जानता हूँ, तुम इसे नहीं समझ सकते। अपनी जिन ख़िदमतों का ज़िक्र तुम कर रहे हो, वे काफ़ी नहीं हैं, बल्कि इनसे बढ़कर कुछ और मतलूब (अभीष्ट) है इसी लिए धरती में एक ऐसी मख़लूक़ के पैदा करने का इरादा किया गया है जिसे कुछ इख़्तियार दिए जाएँ।
وَعَلَّمَ ءَادَمَ ٱلۡأَسۡمَآءَ كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَهُمۡ عَلَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ فَقَالَ أَنۢبِـُٔونِي بِأَسۡمَآءِ هَٰٓؤُلَآءِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 30
(31) इसके बाद अल्लाह ने आदम को सारी चीज़ों के नाम सिखाए,42 फिर उन्हें फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा, “अगर तुम्हारा ख़याल सही है (कि किसी ख़लीफ़ा के मुक़र्रर करने से इन्तिज़ाम बिगड़ जाएगा) तो ज़रा इन चीज़ों के नाम बताओ।”
42. इनसान के जानने की शक्ल अस्ल में यही है कि वह नामों के ज़रिए से चीज़ों की जानकारी को अपने ज़ेहन में बिठाता है, इसलिए इनसान की तमाम मालूमात अस्ल में चीज़ों के नामों पर मुश्तमिल (आधारित) हैं। आदम को सारे नाम सिखाना मानो उनको सभी चीज़ों की जानकारी देना था।
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ لَا عِلۡمَ لَنَآ إِلَّا مَا عَلَّمۡتَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 31
(32) उन्होंने अर्ज़ किया, “ऐब से पाक तो आप ही की हस्ती है। हम तो बस उतना ही इल्म रखते हैं, जितना आपने हमको दे दिया है।43 हक़ीक़त में सब कुछ जानने और समझनेवाला आपके सिवा कोई नहीं।”
43. ऐसा मालूम होता है कि हर फ़रिश्ते और फ़रिश्तों के हर तबक़े का इल्म (ज्ञान) सिर्फ़ उसी शोबे (विभाग) तक महदूद है जिससे उसका ताल्लुक़ है, जैसे हवा के इन्तिज़ाम में जो फ़रिश्ते लगे हुए हैं वे हवा के बारे में सब कुछ जानते हैं, मगर पानी के बारे में कुछ नहीं जानते। यही हाल दूसरे शोबों के फ़रिश्तों का है। इनसान को इसके बरख़िलाफ़ जामेअ इल्म (व्यापक ज्ञान) दिया गया है। एक-एक शोबे के बारे में, चाहे वह उस शोबे के फ़रिश्तों से कम जानता हो, मगर कुल मिलाकर जो वुसअत इनसान के इल्म को दी गई है, वह फ़रिश्तों को हासिल नहीं।
قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ أَنۢبِئۡهُم بِأَسۡمَآئِهِمۡۖ فَلَمَّآ أَنۢبَأَهُم بِأَسۡمَآئِهِمۡ قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ غَيۡبَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَأَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا كُنتُمۡ تَكۡتُمُونَ ۝ 32
(33) फिर अल्लाह ने आदम से कहा, “तुम इन्हें इन चीज़ों के नाम बताओ।” जब उसने उनको उन सबके नाम बता दिए44 तो अल्लाह ने कहा, ” मैंने तुमसे कहा न था कि मैं आसमानों और ज़मीन की वे सारी हक़ीक़तें जानता हूँ जो तुमसे छिपी हुई हैं। जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो, वह भी मुझे मालूम है और जो कुछ तुम छिपाते हो, उसे भी मैं जानता हूँ।”
44. यह मुज़ाहरा फरिश्तों के पहले शुब्हाे का जवाब था, मानो कि इस तरीक़े से अल्लाह ने उन्हें बता दिया कि मैं आदम को सिर्फ़ इख़्तियार ही नहीं दे रहा हूँ, बल्कि इल्म भी दे रहा हूँ। इस के तक़र्रुर से बिगाड़ का जो अंदेशा तुम्हें हुआ वह इस मामले का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा पहलू सुधार और इस्लाह का भी है और वह बिगाड़ के पहलू से ज़्यादा वज़नी और ज़्यादा क़ीमती है। हकीम (हिकमतवाले) का यह काम नहीं है कि छोटी ख़राबी की वजह से बड़ी अच्छाई को अनदेखा कर दे।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰ وَٱسۡتَكۡبَرَ وَكَانَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 33
(34) फिर जब हमने फ़रिश्तों को हुक्म दिया कि आदम के आगे झुक जाओ, तो सब45 झुक गए मगर इबलीस46 ने इनकार किया। वह अपनी बड़ाई के घमंड में पड़ गया। और नाफ़रमानों में शामिल हो गया।47
45. इसका मतलब यह है कि धरती और उससे ताल्लुक़ रखनेवाली कायनात के सभी तबक़ों में जितने फ़रिश्ते काम में लगे हुए हैं, उन सबको हुक्म दिया गया कि वे अपने आपको इनसान की ख़िदमत में लगा दें। चूँकि इस हिस्से में अल्लाह के हुक्म से इनसान ख़लीफ़ा बनाया जा रहा था, इसलिए फ़रमान जारी हुआ कि सही या ग़लत, जिस काम में भी इनसान अपने उन इख़्तियारों को जो हम उसे दे रहे हैं, इस्तेमाल करना चाहे और हम अपनी मरज़ी और स्कीम के तहत उसे ऐसा कर लेने का मौक़ा दे दें, तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि तुममें से जिस-जिसके दायरा-ए-अमल (कार्य-क्षेत्र) से वह काम ताल्लुक़ रखता हो, वह अपने दायरे की हद तक उसका साथ दे। वह चोरी करना चाहे या नमाज़ पढ़ने का इरादा करे, भलाई करना चाहे, या बुराई करने के लिए जाए दोनों सूरतों में जब तक हम उसे उसकी पसन्द के मुताबिक़ अमल करने की इजाज़त दे रहे हैं, तुम्हें उसके लिए आसानी पैदा करनी होगी। मिसाल के तौर पर इस बात को इस तरह समझिए कि एक हाकिम जब किसी आदमी को अपने देश के किसी सूबे (स्टेट) या ज़िले का ऑफ़िसर मुक़र्रर करता है तो उस इलाक़े में हुकूमत के जितने भी कारिन्दे (कर्मचारी) होते हैं उन सबकी ज़िम्मेदारी होती है कि उसके हुक्मों को मानें और जब तक हाकिम की मरज़ी यह है कि उसे अपने इख़्तियारात के इस्तेमाल का मौक़ा दे, उस वक़्त तक उसका साथ देते रहें, यह देखे बग़ैर कि वह सही काम में उन इख़्तियारात का इस्तेमाल कर रहा है या ग़लत काम में। अलबत्ता जब जिस काम के बारे में भी हाकिम का इशारा हो जाए कि उसे न करने दिया जाए, तो वहीं उस ऑफ़िसर का इख़्तियार खत्म हो जाता है और उसे ऐसा महसूस होने लगता है कि सारे इलाक़े के कारिन्दों ने मानो हड़ताल कर दी है। यहाँ तक कि जिस वक़्त हाकिम की तरफ़ से उस ऑफ़िसर की बरतरफ़ी और गिरफ़्तारी का हुक्म होता है तो वही मातहत और ख़ादिम जो कल तक उसके इशारों पर हरकत कर रहे थे उसके हाथों में हथकड़ियाँ डालकर उसे जेलख़ाने की तरफ़ ले जाते हैं। फ़रिश्तों को आदम के आगे सजदा करने का जो हुक्म दिया गया था, उसकी हैसियत कुछ इसी तरह की थी। मुमकिन है कि सिर्फ़ मातहत हो जाने ही को सजदा करना कहा गया हो, मगर यह भी मुमकिन है कि इस मातहती की निशानी के तौर पर किसी ज़ाहिरी काम का भी हुक्म दिया गया हो, और यही ज़्यादा सही मालूम होता है।
46. इबलीस लफ़्ज़ का मतलब है – 'बेहद नाउम्मीद और मायूस'। इस्लामी इस्तिलाह में यह उस जिन्न का नाम है जिसने अल्लाह के हुक्म की नाफ़रमानी करके आदम और आदम की औलाद के मातहत होने और उसकी फ़रमाँबरदारी से इनकार कर दिया था। और अल्लाह से क़ियामत तक के लिए मुहलत माँगी कि इनसानों को बहकाने और गुमराहियों पर उभारने का उसे मौक़ा दिया जाए। इसी को 'अश्शैतान' भी कहा जाता है। हक़ीक़त में शैतान और इबलीस भी सिर्फ़ किसी एक ताक़त का नाम नहीं है, बल्कि वह भी इनसान की तरह शख़्सियत (व्यक्तित्व) रखनेवाली एक हस्ती है और यह कि किसी को यह ग़लतफ़हमी नहीं होनी चाहिए कि यह फ़रिश्तों में से था। आगे चलकर क़ुरआन ने ख़ुद यह बात बता दी है कि वह जिन्नों में से था, जो फ़रिश्तों से अलग एक मुस्तक़िल (स्थायी) मख़लूक़ है। (देखें, क़ुरआन18:50 )
47. इन अलफ़ाज़ से ऐसा मालूम होता है कि शायद इबलीस सजदे से इनकार करने में अकेला न था, बल्कि जिन्नों का एक गरोह नाफ़रमानी पर आमादा हो गया था और इबलीस का नाम सिर्फ़ इसलिए लिया गया है कि वह उनका सरदार और इस बग़ावत में आग-आगे था। लेकिन इस आयत का दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि 'वह कुफ़्र (नाफ़रमानी) करनेवालों में से था।’ इस सूरत में मतलब यह होगा कि जिन्नों का एक गरोह पहले से ऐसा मौजूद था जो सरकश और नाफ़रमान था और इबलीस का ताल्लुक़ उसी गरोह से था। क़ुरआन में आम तौर से “शयातीन” (शैतानों) का लफ़्ज़ इन्हीं जिन्नों और उनकी नस्ल के लिए इस्तेमाल हुआ है, आर जहाँ शैतानों से इनसान मुराद लेने के लिए कोई इशारा न हो, वहाँ यही जिन्न शैतान मुराद होते हैं।
وَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ ٱسۡكُنۡ أَنتَ وَزَوۡجُكَ ٱلۡجَنَّةَ وَكُلَا مِنۡهَا رَغَدًا حَيۡثُ شِئۡتُمَا وَلَا تَقۡرَبَا هَٰذِهِ ٱلشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 34
(35) फिर हमने आदम से कहा कि “तुम और तुम्हारी बीवी, दोनों जन्नत में रहो और यहाँ जी भरकर जो चाहो खाओ, मगर उस पेड़ का रुख़़ न करना,48 वरना ज़ालिमों49 में गिने जाओगे।”
48. इससे मालूम होता है कि ज़मीन यानी अपने तक़र्रुर (नियुक्ति) की जगह पर ख़लीफ़ा की हैसियत से भेजे जाने से पहले उन दोनों को इम्तिहान की ग़रज़ से जन्नत में रखा गया था, ताकि उनके रुझानों की आज़माइश हो जाए। इस आज़माइश के लिए एक पेड़ को चुन लिया गया और हुक्म दिया गया कि उसके क़रीब न जाना और इसका अंजाम भी बता दिया गया कि ऐसा करोगे तो हमारी निगाह में ज़ालिम ठहरोगे। यह बहस ग़ैर-जरूरी है कि वह पेड़ कौन-सा था और उसमें क्या ख़ास बात थी कि उससे मना किया गया। मना करने की वजह यह न थी कि उस पेड़ की ख़ासियत (गुण) में कोई ख़राबी थी और उससे आदम व हव्वा को नुक़सान पहुँचने का ख़तरा था। अस्ल गरज़ इस बात की आज़माइश थी कि ये शैतान के उकसावों के मुक़ाबले में किस हद तक हुक्म मानने पर क़ायम रहते हैं। इस मक़सद के लिए किसी एक चीज़ को चुन लेना काफ़ी था। इसी लिए अल्लाह ने पेड़ का नाम और उसकी ख़ासियत (विशेषता) का कोई ज़िक्र नहीं किया। इस इम्तिहान के लिए जन्नत ही की जगह सबसे ज़्यादा मुनासिब थी। अस्ल में उसे इम्तिहान की जगह बनाने का मक़सद इस हक़ीक़त को इनसान के दिल-व-दिमाग़ में बिठाना था कि तुम्हारे लिए इनसानियत के मरतबे के लिहाज़ से जन्नत ही सही और मुनासिब जगह है। लेकिन शैतानी उकसाहटों के मुक़ाबले में अगर तुम अल्लाह की फ़रमाँबरदारी के रास्ते से फिर जाओगे तो जिस तरह शुरू में उससे महरूम किए गए थे, उसी तरह आख़िर में भी महरूम ही रहोगे। अपने उस मुनासिब स्थान को, अपनी उस गुमशुदा जन्नत को तुम सिर्फ़ इसी तरह हासिल कर सकते हो कि अपने दुश्मन का कामयाबी से मुक़ाबला करो जो तुम्हें फ़रमाँबरदारी के रास्ते से हटाने की कोशिश करता है।
49. 'ज़ालिम' का लफ़्ज़ निहायत मानाख़ेज़ (अर्थपूर्ण) है। 'ज़ुल्म' अस्ल में हक़ मारने को कहते हैं। ज़ालिम वह है जो किसी का हक़ मारे। जो आदमी ख़ुदा की नाफ़रमानी करता है, वह हक़ीक़त में तीन बड़े बुनियादी हक़ों को मारता है। पहला, ख़ुदा का हक़, क्योंकि वह इसका हक़दार है कि उसका हुक्म माना जाए। दूसरा, उन तमाम चीज़ों के हक़ जिनको उसने इस नाफ़रमानी के काम में इस्तेमाल किया। उसके जिस्मानी आज़ा (अंग), उसकी ज़ेहनी और दिमाग़़ी ताक़तें, उसके साथ रहनेवाले इनसान, वे फ़रिश्ते जो उसके इरादे को पूरा करने का इन्तिज़ाम करते हैं और वे चीज़ें जो इस काम में इस्तेमाल होती हैं। उन सबका उसपर यह हक़ था कि वह सिर्फ़ उनके मालिक ही की मरज़ी के मुताबिक़ उनपर अपने इख़्तियारों को इस्तेमाल करे। मगर जब उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ उसने इख़्तियार को उन पर इस्तेमाल किया तो हक़ीक़त में उन पर ज़ुल्म किया। तीसरा, ख़ुद अपना हक़, क्योंकि उसपर उसका अपना यह हक़ है कि वह उसे तबाही से बचाए। मगर नाफ़रमानी करके जब वह अपने आपको अल्लाह की सज़ा का हक़दार बनाता है तो अस्ल में अपने ऊपर ज़ुल्म करता है। इन्हीं वजहों से क़ुरआन में जगह-जगह गुनाह के लिए ज़ुल्म और गुनाहगार के लिए ज़ालिम की इस्तिलाह (परिभाषा) इस्तेमाल की गई है।
فَأَزَلَّهُمَا ٱلشَّيۡطَٰنُ عَنۡهَا فَأَخۡرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِۖ وَقُلۡنَا ٱهۡبِطُواْ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ وَلَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُسۡتَقَرّٞ وَمَتَٰعٌ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 35
(36) आख़िरकार शैतान ने उन दोनों को उस पेड़ का लालच देकर हमारे हुक्म की पैरवी से हटा दिया और उन्हें उस हालत से निकलवाकर छोड़ा जिसमें वे थे। हमने हुक्म दिया कि “अब तुम सब यहाँ से उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के दुश्मन50 हो और तुम्हें एक ख़ास वक़्त तक ज़मीन में ठहरना और वहीं गुज़र-बसर करना है।”
50. यानी इनसान का दुश्मन शैतान और शैतान का दुश्मन इनसान है। शैतान का, इनसान का दुश्मन होना तो ज़ाहिर है कि वह उसे अल्लाह की फ़रमाँबरदारी के रास्ते से हटाने और तबाही में डालने की कोशिश करता है। रहा इनसान का शैतान का दुश्मन होना, तो हक़ीक़त में इनसानियत तो उससे दुश्मनी ही का तक़ाज़ा करती है, लेकिन मन की ख़ाहिशों के लिए जो तर्ग़ीबात (प्रलोभन) वह पेश करता है, उनसे धोखा खाकर आदमी उसे अपना दोस्त बना लेता है। इस तरह की दोस्ती का मतलब यह नहीं है कि हक़ीक़त में दुश्मनी दोस्ती में बदल गई, बल्कि इसका मतलब यह है कि एक दुश्मन दूसरे दुश्मन से शिकस्त खा गया और उसके जाल में फँस गया।
فَتَلَقَّىٰٓ ءَادَمُ مِن رَّبِّهِۦ كَلِمَٰتٖ فَتَابَ عَلَيۡهِۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 36
(37) उस वक़्त आदम ने अपने रब से कुछ कलिमात (बोल) सीखकर तौबा की,51 जिसको उसके रब ने क़ुबूल कर लिया, क्योंकि वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।52
51. यानी आदम को जब अपने कुसूर का एहसास हुआ और उन्होंने नाफ़रमानी से फिर फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलटना चाहा और उनके दिल में यह खाहिश पैदा हुई कि अपने रब से अपनी ग़लती माफ़ कराएँ, तो उन्हें वे अलफ़ाज़ न मिलते थे जिनके साथ वे अपनी ग़लती को माफ़ करने के लिए दुआ कर सकते। अल्लाह ने उनके हाल पर रहम करके उन्हें वे अलफ़ाज़ बता दिए। 'तौबा' के अस्ल मानी रुजू करना और पलटना है। बन्दे की तरफ़ से तौबा का मतलब यह है कि वह सरकशी से रुक गया, बन्दगी के तरीक़े की तरफ़ पलट आया, और ख़ुदा की तरफ़ से तौबा का मतलब यह है कि वह अपने ग़ुलाम की तरफ़ रहमत के साथ फिर से मुतवज्जेह हो गया। फिर से नज़रे-इनायत (कृपा-दृष्टि) उसकी तरफ़ हो गई।
52. क़ुरआन इस नज़रिए (मत) को ग़लत ठहराता है कि गुनाह के नतीजे ज़रूरी होते हैं और वे इनसान को हर हाल में भुगतने ही होंगे। यह इनसान के अपने गढ़े हुए गुमराहकुन ख़यालों में से एक बड़ा गुमराह करनेवाला नज़रिया है, क्योंकि जो आदमी एक बार गुनाह की ज़िन्दगी में फँस गया, उसको यह नज़रिया हमेशा के लिए मायूस कर देता है। और अगर अपनी ग़लती पर सावधान होने के बाद वह अपने पुराने रवैये की भरपाई और आइन्दा के लिए सुधार करना चाहे तो यह नज़रिया उससे कहता है कि तेरे बचने की अब कोई उम्मीद नहीं है। जो कुछ तू कर चुका है उसके नतीजे हर हाल में तुझे भुगतने ही होंगे। क़ुरआन इसके बरख़िलाफ़ यह बताता है कि भलाई का बदला और बुराई की सज़ा देना बिलकुल अल्लाह के इख़्तियार में है। तुम्हें जिस भलाई पर इनाम मिलता है, वह तुम्हारी भलाई का फ़ितरी नतीजा नहीं है, बल्कि अल्लाह की मेहरबानी है, चाहे दे, चाहे न दे। इसी तरह जिस बुराई पर तुम्हें सज़ा मिलती है, वह भी बुराई का फ़ितरी नतीजा नहीं है कि लाज़िमी तौर से निकलकर ही रहे, बल्कि अल्लाह को इसका पूरा-पूरा इख़्तियार है कि वह चाहे तो माफ़ कर दे और चाहे तो सज़ा दे दे। अलबत्ता अल्लाह की मेहरबानी और उसकी रहमत उसकी हिकमत के साथ होती है। वह क्योंकि हिकमतवाला है, इसलिए अपने इख़्तियारों (अधिकारों) को अंधाधुन्ध इस्तेमाल नहीं करता। जब किसी भलाई पर इनाम देता है तो यह देखकर ऐसा करता है कि बन्दे ने सच्ची नीयत के साथ उसकी ख़ुशी के लिए भलाई की थी। और जिस भलाई को रद्द कर देता है उसे इस वजह से रद्द करता है कि उसकी ज़ाहिरी शक्ल भले काम की-सी थी, मगर अन्दर अपने रब की ख़ुशी हासिल करने का सच्चा ज़ज़्बा न था। इसी तरह वह सज़ा उस क़ुसूर पर देता है, जिसके पीछे बग़ावत का ज़ज़्बा रहा हो। और जिसको करने के बाद शर्मिन्दा होने के बजाय और ज़्यादा जुर्म करने की ख़ाहिश मौजूद हो। और अपनी रहमत से माफ़ी उस क़ुसूर पर देता है जिसके बाद बन्दा अपने किए पर शर्मिन्दा हो और आगे के लिए अपने सुधार के लिए तैयार हो। बड़े से बड़े मुजरिम, सख़्त से सख़्त इनकारी के लिए भी ख़ुदा के यहाँ मायूसी और ना उम्मीदी का कोई मौक़ा नहीं, शर्त यह है कि वह अपनी ग़लती को तस्लीम करे, अपनी नाफ़रमानी पर शर्मिन्दा हो और सरकशी तथा बग़ावत की रविश को छोड़कर हुक्म मानने और उस पर चलने के लिए तैयार हो।
قُلۡنَا ٱهۡبِطُواْ مِنۡهَا جَمِيعٗاۖ فَإِمَّا يَأۡتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدٗى فَمَن تَبِعَ هُدَايَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 37
(38) हमने कहा कि “तुम सब यहाँ से उतर जाओ।53 फिर जो मेरी तरफ़ से कोई हिदायत तुम्हारे पास पहुँचे, तो जो लोग मेरी उस हिदायत की पैरवी करेंगे उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा न होगा,
53. इस बात को दोबारा बयान करना अपने अन्दर मानी रखता है। ऊपर के जुमले में यह बताया गया है कि आदम (अलैहि०) ने तौबा की और अल्लाह ने क़ुबूल कर ली। इसका मतलब यह हुआ कि आदम (अलैहि०) अपनी नाफ़रमानी पर अज़ाब के हक़दार न रहे। गुनाह करने का जो दाग़ उनके दामन पर लग गया था, वह धो डाला गया। न यह दाग़ उनके दामन पर रहा, न उनकी नस्ल के दामन पर और न इसकी ज़रूरत ही पड़ी कि 'मआज़ल्लाह' (अल्लाह की पनाह!)। ख़ुदा को अपना इकलौता भेजकर इनसानों के गुनाहों के कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के लिए उसे सूली पर चढ़वाना पड़ता। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह ने आदम (अलैहि०) की तौबा क़ुबूल करने ही पर बस नहीं किया बल्कि उसके बाद उन्हें पैग़म्बरी भी दी, ताकि वे अपनी नस्ल को सीधा रास्ता बताकर जाएँ। अब जो जन्नत से निकलने का हुक्म फिर दोहराया गया, तो इसका मक़सद यह बताना है कि तौबा क़ुबूल होने का यह तक़ाज़ा न था कि आदम (अलैहि०) को जन्नत ही में रहने दिया जाता और ज़मीन पर न उतारा जाता। ज़मीन उनके लिए अज़ाब की जगह न थी। वे यहाँ सज़ा के तौर पर नहीं उतारे गए, बल्कि उन्हें ज़मीन की ख़िलाफ़त (हुक्मरानी) ही के लिए पैदा किया गया था। जन्नत उनके रहने की असली जगह न थी। वहाँ से निकलने का हुक्म उनके लिए सज़ा की हैसियत न रखता था, अस्ल मक़सद तो उनको ज़मीन ही पर उतारने का था। हाँ, इससे पहले उनको उस इम्तिहान के लिए जन्नत में रखा गया था जिसका ज़िक्र हाशिया नं॰ 48 में किया जा चुका है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 38
(39) और जो उसको क़ुबूल करने से इनकार करेंगे और हमारी आयतों54 को झुठलाएँगे, वे आग में जानेवाले लोग हैं, जहाँ वे हमेशा रहेंगे।"55
54. अरबी में 'आयात' ‘आयत' की जमा (बहुवचन) है। आयत के अस्ल मानी उस निशानी (चिह्न)के हैं जो किसी चीज़ की तरफ़ रहनुमाई करे। क़ुरआन में यह लफ़्ज़ चार अलग-अलग मानी में आया है— कहीं इससे मुराद सिर्फ़ अलामत या निशानी ही है, कहीं कायनात (जगत्) की निशानियों को अल्लाह की आयात कहा गया है, क्योंकि क़ुदरत के जलवों में से हर चीज़ उस हक़ीक़त (सच्चाई) की तरफ़ इशारा कर रही है जो उस ज़ाहिरी परदे के पीछे छिपी हुई है। कहीं उन मोजिज़ों (चमत्कारों) को आयात कहा गया है जो नबी (अलैहि०) लेकर आते थे, क्योंकि ये मोजिज़े अस्ल में इस बात की अलामत होते थे कि ये लोग कायनात के हाकिम के नुमाइन्दे हैं। कहीं अल्लाह की किताब के जुमलों को आयात कहा गया है, क्योंकि वे न सिर्फ़ हक़ और सच्चाई की तरफ़ रहनुमाई करते हैं, बल्कि हक़ीक़त में अल्लाह की तरफ़ से जो किताब भी आती है, उसके सिर्फ़ मज़ामीन (विषयों) ही में नहीं, उसके लफ़्ज़ और अन्दाज़े-बयान और इबादत के तरीक़े तक में उसके जलीलुल्क़द्र मुसन्निफ़ (महिमावान रचयिता की) शख़्सियत की निशानियाँ भी वाज़ेह शक्ल में महसूस होती हैं। — हर जगह इबारत और चल रही बात के मौक़ा व महल से आसानी के साथ मालूम हो जाता है, कि 'आयत' का लफ़्ज़ किस मानी में आया है।
55. यह सारे इनसानों के लिए उनकी ज़िन्दगी की शुरुआत से लेकर क़ियामत (फ़ैसले के दिन) तक के लिए अल्लाह का मुस्तक़िल (स्थायी) फ़रमान है और इसी को इसी सूरा की आयत-27 में अल्लाह का 'अहद' (वचन) कहा गया है। इनसान का काम यह नहीं है कि वह अपने लिए ख़ुद रास्ता तय करे, बल्कि बन्दा और ख़लीफ़ा होने की दोहरी हैसियतों के लिहाज़ से वह इसपर लगाया गया है कि उस रास्ते पर चले जो उसका रब उसके लिए तय करे। और इस रास्ते के मालूम होने की दो ही सूरते हैं। या तो किसी इनसान के पास सीधे तौर पर अल्लाह की तरफ़ से वह्य (प्रकाशना) आए या फिर वह उस इनसान की पैरवी करे जिसके पास अल्लाह की तरफ़ से वह्य आई हो। कोई तीसरी सूरत यह मालूम होने की नहीं है कि हमारे रब (पालनहार) की ख़ुशी किस राह पर चलने में है। इन दो सूरतों के अलावा हर सूरत ग़लत है, बल्कि ग़लत ही नहीं सरासर ख़ुदा से बग़ावत भी है, जिसकी सज़ा जहन्नम (नरक) के सिवा और कुछ नहीं। क़ुरआन मजीद में आदम (अलैहि०) की पैदाइश और इनसानों की शुरुआत का यह किस्सा सात जगहों पर आया है, जिनमें से पहली जगह यह है और बाक़ी जगहें इस तरह हैं – 7:11-25 ; 15:26-14 17:61-65; 18:50; 20:16-124; 88:71-85। बाइबल की किताब पैदाइश में पहले, दूसरे और तीसरे बाब (अध्याय) में भी यह क़िस्सा बयान हुआ है। लेकिन दोनों को मिलाकर देखने से नज़र रखनेवाला हर शख़्स महसूस कर सकता है कि दोनों किताबों में क्या फ़र्क़ है। आदम (अलैहि०) को पैदा करने के वक़्त अल्लाह और फ़रिश्तों की बातचीत का ज़िक्र तलमूद में भी आया है, मगर उसके अन्दर भी उन मानी और मक़सदों की कमी है जो क़ुरआन में बयान किए हुए क़िस्से में पाए जाते हैं, बल्कि तलमूद में यह अजीब बात भी पाई जाती है कि जब फ़रिश्तों ने अल्लाह से पूछा कि इनसानों को आख़िर क्यों पैदा किया जा रहा, तो अल्लाह ने जवाब दिया — ताकि इनमें नेक लोग पैदा हों। बुरे लोगों का ज़िक्र अल्लाह ने नहीं किया, वरना फ़रिश्ते इनसान को पैदा करने की मंज़ूरी न देते। (देखें, Talmudic Miscellany Paul Isaac Harshon, London, 1880, P- 294.5)
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَوۡفُواْ بِعَهۡدِيٓ أُوفِ بِعَهۡدِكُمۡ وَإِيَّٰيَ فَٱرۡهَبُونِ ۝ 39
(40) ऐ बनी-इसराईल!56 ज़रा ख़याल करो मेरी उस नेमत का जो मैंने तुमको दी थी। मेरे साथ तुम्हारा जो अह्द (वचन) था उसे तुम पूरा करो, तो मेरा जो अह्द तुम्हारे साथ था उसे मैं पूरा करूँ, और मुझ ही से तुम डरो।
56. इसराईल के मानी हैं ‘अब्दुल्लाह’ या ‘अल्लाह का बन्दा'। यह हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का लक़ब (उपाधि) था, जो उनको अल्लाह की तरफ़ से दिया गया था। वे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बेटे और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पोते थे। इन्हीं की नस्ल को बनी-इसराईल (इसराईल की औलाद या यहूदी) कहते हैं। पिछले चार रुकूओं (आयात 1-39 तक) में तमहीदी (भूमिका के रूप में) तक़रीर थी जिसका ख़िताब (सम्बोधन) सारे ही इनसानों की तरफ़ आम था। अब यहाँ से चौदहवें रुकू (आयत 40-121) तक लगातार एक तक़रीर उस क़ौम को मुख़ातब करते हुए चलती है, जिसमें कहीं-कहीं ईसाइयों और अरब के मुशरिकों की तरफ़ भी बात का रुख़़ फिर गया है और मौक़े-मौक़े से उन लोगों को भी ख़िताब किया गया है जो पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) की दावत और पैग़ाम पर ईमान लाए थे। इस तक़रीर को पढ़ते हुए नीचे लिखी बातों को ख़ास तौर से सामने रखना चाहिए— इसका पहला मक़सद यह है कि पिछले पैग़म्बरों की उम्मत (समुदाय) में जो थोड़े-बहुत लोग अभी ऐसे बाक़ी हैं, जिनमें भलाई और बेहतरी पाई जाती है, उन्हें उस सच्चाई पर ईमान लाने और उस काम में शामिल होने की दावत दी जाए जिसके साथ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) उठाए गए थे। इसलिए उनको बताया जा रहा है कि क़ुरआन और यह नबी वही पैग़ाम और वही काम लेकर आया है जो इससे पहले तुम्हारे नबी और तुम्हारे पास आनेवाली किताबें लाई थीं। पहले यह चीज़ तुमको दी गई थी, ताकि तुम ख़ुद भी इसपर चलो और दुनिया को भी इसकी तरफ़ बुलाने और इसपर चलाने की कोशिश करो। मगर तुम दुनिया की रहनुमाई तो क्या करते ख़ुद भी उस हिदायत पर क़ायम न रहे और बिगड़ते चले गए। तुम्हारी तारीख़ (इतिहास) और तुम्हारी क़ौम की मौजूदा अख़लाक़ी और दीनी (धार्मिक) हालत ख़ुद तुम्हारे बिगाड़ पर गवाह है। अब अल्लाह ने वही चीज़ देकर अपने एक बन्दे को भेजा है और वही ख़िदमत उसके सिपुर्द की है। यह कोई बेगाना और अजनबी चीज़ नहीं है, तुम्हारी अपनी चीज़ है। इसलिए जानते-बूझते हक़ की मुख़ालफ़त न करो, बल्कि इसे क़ुबूल कर लो। जो काम तुम्हारे करने का था, मगर तुमने न किया, उसे करने के लिए जो दूसरे लोग उठे हैं उनका साथ दो। इसका दूसरा मक़सद आम यहूदियों पर हुज्जत पूरी करना है यानी बात को सुबूतों के साथ इस तरह पहुँचा देना है कि उनके लिए इनकार का कोई बहाना बाक़ी न रहे, और साफ़-साफ़ उनकी दीनी और अख़लाक़ी हालत को खोलकर रख देना है। इनपर साबित किया जा रहा है कि यह वही दीन (धर्म) है जो तुम्हारे नबी और पैग़म्बर लेकर आए थे। दीन की बुनियादी बातों में कोई चीज़ भी ऐसी नहीं जिसमें क़ुरआन की तालीम तौरात की तालीम से अलग हो। उन पर साबित किया जा रहा है कि जो हिदायत तुम्हें दी गई थी उसकी पैरवी करने में और जो रहनुमाई करने का मंसब (पद) तुम्हें दिया गया था उसका हक़ अदा करने में तुम बुरी तरह नाकाम हुए हो। इसके सुबूत में ऐसे वाक़िआत पेश किए गए हैं जिनको वे झुठला नहीं सकते थे। फिर जिस तरह हक़ को हक़ जानने के बावजूद वे उसकी मुख़ालफ़त में साज़िशों , वसवसे डालने और उलटी-सीधी बेकार की बहसों और मक्कारियों से काम ले रहे थे और जिन तरकीबों से वे कोशिश कर रहे थे कि किसी तरह ख़ुदा के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) का मिशन कामयाब न होने पाए उन सब बातों पर से पर्दा उठाया जा रहा है। इससे यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि उनकी ज़ाहिरी मज़हबियत (धार्मिकता) सिर्फ़ एक ढोंग है, जिसके नीचे सच्चाई और हक़परस्ती के बजाय हठधर्मी, जाहिलाना तास्सुब (पक्षपात) और मन की बन्दगी काम कर रही है और हक़ीक़त में वे यह चाहते ही नहीं हैं कि नेकी और भलाई का कोई काम फल-फूल सके। इस तरह हुज्जत पूरी करने का फ़ायदा यह हुआ कि एक तरफ़ ख़ुद उस क़ौम में जो भले लोग मौजूद थे, उनकी आँखें खुल गईं, दूसरी तरफ़ मदीना के लोगों पर और आम तौर से अरब के मुशरिकों पर उन लोगों का जो मज़हबी और अख़लाक़ी असर था, वह ख़त्म हो गया और तीसरी तरफ़ ख़ुद अपने आपको बेनक़ाब देखकर उनकी हिम्मतें इतनी पस्त हो गईं कि वे उस हौसले के साथ कभी मुक़ाबले में खड़े न हो सके, जिसके साथ वह शख़्स खड़ा होता है जिसे अपने हक़ पर होने का यक़ीन होता है। तीसरा, पिछले चार रुकूओं (1 से 39 आयत तक) में सारे इनसानों को आम दावत देते हुए जो कुछ कहा गया था, उसी के सिलसिले में एक ख़ास क़ौम की एक ख़ास मिसाल देकर बताया जा रहा है कि जो क़ौम ख़ुदा की भेजी हुई हिदायत से मुँह मोड़ती है, उसका अंजाम क्या होता है। इस बात को वाज़ेह करने के लिए तमाम कौमों में से बनी-इसराईल का चुनाव करने की वजह यह है कि दुनिया में सिर्फ़ यही एक क़ौम है जो लगातार चार हज़ार साल से दुनिया की तमाम कौमों के सामने इबरत की एक ज़िन्दा मिसाल बनी हुई है। अल्लाह की हिदायत पर चलने और न चलने से जितनी ऊँच-नीच किसी कौम की ज़िन्दगी में पेश आ सकती है वे सब इस क़ौम की इबरतनाक तारीख़ (शिक्षा-प्रद इतिहास) में नज़र आ जाती है। चौथा मक़सद, इससे पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) के माननेवालों को तालीम देना भी है कि वे गिरावट (पतन) के उस गढ़े में गिरने से बचें जिसमें पिछले नबियों की पैरवी करनेवाले गिर गए। यहूदियों की अख़लाक़ी कमज़ोरियों, मज़हबी ग़लतफ़हमियों और अक़ीदे और अमल से ताल्लुक़ रखनेवाली गुमराहियों में से एक-एक की निशानदेही करके इसके मुक़ाबले में दीने-हक़ (सत्य धर्म) के तक़ाज़े और मुतालबे बयान किए गए हैं, ताकि मुसलमान अपना रास्ता साफ़ देख सकें और ग़लत राहों से बचकर चलें। इस सिलसिले में यहूदियों और ईसाइयों की ग़लतियाँ बताते हुए क़ुरआन जो कुछ कहता है उसको पढ़ते वक़्त मुसलमानों को नबी (सल्ल०) की वह हदीस (कथन) याद रखनी चाहिए जिसमें आप (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि तुम भी आख़िरकार पिछली उम्मतों (समुदायों) ही की रविश पर चलकर रहोगे। यहाँ तक कि अगर वे किसी गोह के बिल में घुसे हैं तो तुम भी उसी में घुसोगे। सहाबा (रज़ि०) ने पूछा ऐ अल्लाह के रसूल! यहूदी और ईसाई (पिछली क़ौम से) मुराद हैं? नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया: और कौन? (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान सिर्फ़ इस ग़लत रविश के बारे में बताना न था, बल्कि अल्लाह की दी हुई सूझ-बूझ से आप (सल्ल०) यह जानते थे कि नबियों की उम्मतों (अनुयायियों) में बिगाड़ किन-किन रास्तों से आया और किन-किन शक्लों में ज़ाहिर होता रहा है।
وَءَامِنُواْ بِمَآ أَنزَلۡتُ مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَكُمۡ وَلَا تَكُونُوٓاْ أَوَّلَ كَافِرِۭ بِهِۦۖ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗا وَإِيَّٰيَ فَٱتَّقُونِ ۝ 40
(41) और मैंने जो किताब भेजी है उसपर ईमान लाओ। यह उस किताब की ताईद (समर्थन) में है जो तुम्हारे पास पहले से मौजूद थी, इसलिए सबसे पहले तुम ही इसके इनकार करनेवाले न बन जाओ। थोड़ी क़ीमत पर मेरी आयतों को न बेच डालो57 और मेरे ग़ज़ब (प्रकोप) से बचो।
57. थोड़ी क़ीमत से मुराद दुनिया के वे फ़ायदे हैं, जिनके लिए ये लोग अल्लाह के हुक्मों और उसकी हिदायतों को रद्द कर रहे थे। हक़ को बेच डालने के बदले में चाहे इनसान दुनियाभर की दौलत ले ले, बहरहाल वह थोड़ी क़ीमत ही है, क्योंकि हक़ उससे कहीं बहुत क़ीमती चीज़ है।
وَلَا تَلۡبِسُواْ ٱلۡحَقَّ بِٱلۡبَٰطِلِ وَتَكۡتُمُواْ ٱلۡحَقَّ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 41
(42 ) झूठ का रंग चढ़ाकर हक़ के बारे में शक न पैदा करो और न जानते-बूझते हक़ को छिपाने की कोशिश करो।58
58. इस आयत को समझने के लिए यह बात सामने रहनी चाहिए कि अरब के लोग आम तौर पर अनपढ़ थे और उनके मुक़ाबले में यहूदियों के अन्दर तालीम की चर्चा वैसे भी ज़्यादा थी और निजी तौर से उनके अन्दर ऐसे-ऐसे बड़े आलिम (विद्वान) पाए जाते थे, जो अरब के बाहर तक मशहूर थे। इस वजह से अरबों पर यहूदियों का इल्मी रोब और दबदबा बहुत ज़्यादा था। फिर उनके उलमा और उनके बुज़ुर्गों ने अपने मज़हबी दरबारों की ज़ाहिरी शान जमाकर और अपनी छाड़-फूँक और तावीज़-गंडों का कारोबार चलाकर इस रोब और दबदबे को और भी ज़्यादा गहरा कर दिया और फैला दिया था। ख़ास तौर से मदीना के लोगों पर उनका रोब व दबदबा बहुत ज़्यादा था; क्योंकि उनके आस-पास बड़े-बड़े यहूदी क़बीले आबाद थे। रात-दिन का उनसे मेल-जोल था और इस मेल-जोल में वे उनसे उसी तरह बहुत ज़्यादा मुतास्सिर थे जिस तरह एक अनपढ़ आबादी ज़्यादा पढ़े-लिखे, ज़्यादा मुहज़्जब और ज़्यादा नुमायाँ मज़हबी पहचान रखनेवाले पड़ोसियों से मुतास्सिर (प्रभावित) हुआ करती है। इन हालात में जब नबी (सल्ल०) ने अपने आपको नबी की हैसियत से पेश किया और लोगों को इस्लाम की तरफ़ बुलाना शुरू किया तो क़ुदरती बात थी कि अनपढ़ अरब अहले-किताब यहूदियों से जाकर पूछते कि आप लोग भी एक नबी की पैरवी करनेवाले हैं और एक किताब को मानते हैं, आप हमें बताएँ कि ये साहब जो हमारे अन्दर नबी होने का दावा लेकर उठे हैं, उनके बारे में और उनकी तालीम के बारे में आपकी क्या राय है? चुनाँचे यह सवाल मक्का के लोगों ने भी यहूदियों से कई बार किया और जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे तो यहाँ भी बहुत सारे लोग यहूदी आलिमों के पास जा-जाकर यही बात पूछते थे। मगर उन आलिमों ने कभी लोगों को सही बात नहीं बताई। उनके लिए यह कहना तो मुश्किल था कि वह तौहीद (एकेश्वरवाद) जो मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं ग़लत है या नबियों और आसमानी किताबों और फ़रिश्तों और आख़िरत के बारे में जो कुछ आप (सल्ल०) कह रहे हैं उसमें कोई ग़लती है या वे अख़लाक़ी उसूल जिनकी आप (सल्ल०) शिक्षा दे रहे हैं उनमें से कोई चीज़ ग़लत है, लेकिन वे साफ़-साफ़ उस हक़ीक़त को मानने के लिए तैयार न थे कि जो कुछ आप (सल्ल०) पेश कर रहे हैं वह सही है। वे न सच्चाई को खुले तौर पर नकार सकते थे, न सीधी तरह उसको सच्चाई मान लेने पर आमादा थे। इन दोनों रास्तों के बीच उन्होंने यह तरीक़ा अपनाया था कि हर पूछनेवाले के दिल में नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़, आप (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों के ख़िलाफ़ और आपके मिशन के ख़िलाफ़ कोई न कोई शक और वसवसा पैदा कर देते थे, कोई इलज़ाम आप पर मढ़ देते थे, कोई ऐसा शोशा छोड़ देते थे जिससे लोग शुब्हाे और शक में पड़ जाएँ और तरह-तरह की उलझन में डालनेवाले सवाल छेड़ देते थे, ताकि लोग उनमें ख़ुद भी उलझें और नबी (सल्ल०) और आपकी पैरवी करनेवालों को भी उलझाने की कोशिश करें। उनका यही रवैया था जिसकी वजह से उनसे कहा जा रहा है। कि हक़ पर बातिल के परदे न डालो, अपने झूठे प्रोपगंडे और शरारत भरे शक व शुब्हाे और एतिराज़ों से हक़ को दबाने और छिपाने की कोशिश न करो, और हक़ और बातिल को गड्ड-मड्ड करके दुनिया को धोखा न दो।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱرۡكَعُواْ مَعَ ٱلرَّٰكِعِينَ ۝ 42
(43) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो, और जो लोग मेरे आगे झुक रहे हैं उनके साथ तुम भी झुक जाओ।59
59. नमाज़ और ज़कात हर ज़माने में दीने-इस्लाम के अहम तरीन अरकान (स्तम्भ) रहे हैं। तमाम पैग़म्बरों की तरह बनी-इसराईल के पैग़म्बरों ने भी इसकी सख़्त ताकीद की थी। मगर यहूदी इनसे ग़ाफ़िल हो चुके थे। जमाअत के साथ नमाज़ का निज़ाम (व्यवस्था) उनके यहाँ लगभग बिल्कुल दरहम-बरहम हो चुका था। क़ौम की अकसरियत इन्फ़िरादी नमाज़ को भी छोड़ चुकी थी, और ज़कात देने के बजाएये लोग सूद (ब्याज) खाने लगे थे।
۞أَتَأۡمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلۡبِرِّ وَتَنسَوۡنَ أَنفُسَكُمۡ وَأَنتُمۡ تَتۡلُونَ ٱلۡكِتَٰبَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 43
(44) तुम दूसरों को तो नेकी का रास्ता अपनाने के लिए कहते हो, मगर अपने आपको भूल जाते हो? हालाँकि किताब की तिलावत (पाठ) करते हो! क्या तुम अक़्ल से बिलकुल ही काम नहीं लेते?
وَٱسۡتَعِينُواْ بِٱلصَّبۡرِ وَٱلصَّلَوٰةِۚ وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلَّا عَلَى ٱلۡخَٰشِعِينَ ۝ 44
(45) सब्र और नमाज़60 से मदद लो। बेशक नमाज़ एक बड़ा ही मुश्किल काम है, मगर उन फ़रमाँबरदार बन्दों के लिए मुश्किल नहीं है,
60. यानी अगर तुम्हें नेकी के रास्ते पर चलने में परेशानी महसूस होती है, तो इस परेशानी का इलाज सब्र और नमाज़ है। इन दोनों चीज़ों से तुम्हें वह ताक़त मिलेगी जिससे यह राह आसान हो जाएगी। 'सब्र के लफ़्ज़ी मानी रोकना और बाँधना है और इससे मुराद इरादे की वह मज़बूती, अज़्म (संकल्प) की वह पुख़्तगी और मन की बुरी ख़ाहिशों पर वह कंट्रोल है जिससे एक आदमी मन की बुरी ख़ाहिशों और बाहरी परेशानियों के मुक़ाबले में अपने दिल और ज़मीर (अन्तःकरण) के पसन्द किए हुए रास्ते पर लगातार बढ़ता चला जाए। अल्लाह के इस फ़रमान का मक़सद यह है कि इस अख़लाक़ी सिफ़त को अपने अन्दर परवान चढ़ाओ और इसको बाहर से ताक़त पहुँचाने के लिए नमाज़ की पाबंदी करो।
ٱلَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَٰقُواْ رَبِّهِمۡ وَأَنَّهُمۡ إِلَيۡهِ رَٰجِعُونَ ۝ 45
(46) जो समझते हैं कि आख़िरकार उन्हें अपने रब से मिलना और उसी की तरफ़ पलटकर जाना है।61
61. यानी जो आदमी ख़ुदा का फ़रमाँबरदार न हो और आख़िरत को न मानता हो, उसके लिए तो नमाज़ की पाबन्दी एक ऐसी मुसीबत है जिसे वह कभी गवारा ही नहीं कर सकता, मगर जो ख़ुशी-ख़ुशी और लगाव के साथ ख़ुदा के आगे फ़रमाँबरदारी के लिए सर झुका चुका हो और जिसे यह यक़ीन हो कि कभी मरकर अपने ख़ुदा के सामने जाना भी है, उसके लिए नमाज़ अदा करना नहीं, बल्कि नमाज़ का छोड़ना मुश्किल है।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَنِّي فَضَّلۡتُكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 46
(47) ऐ बनी-इसराईल (इसराईल की औलाद)! याद करो मेरी उस नेमत को जो मैंने तुमको दी थी और इस बात को कि मैंने तुम्हें दुनिया की सारी क़ौमों (जातियों) पर बड़ाई दी थी।62
62. यह उस दौर की तरफ़ इशारा है जबकि तमाम दुनिया की क़ौमों में एक बनी-इसराईल की क़ौम ही ऐसी थी जिसके पास अल्लाह का दिया हुआ इल्मे-हक़ (सत्य-ज्ञान) था और जिसे दुनिया की क़ौमों का इमाम और रहनुमा बना दिया गया था, ताकि वह रब की बन्दगी के रास्ते पर सब क़ौमों को बुलाए और चलाए।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا لَّا تَجۡزِي نَفۡسٌ عَن نَّفۡسٖ شَيۡـٔٗا وَلَا يُقۡبَلُ مِنۡهَا شَفَٰعَةٞ وَلَا يُؤۡخَذُ مِنۡهَا عَدۡلٞ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 47
(48) और डरो उस दिन से जब कोई किसी के कुछ काम न आएगा, न किसी की तरफ़ से सिफ़ारिश क़ुबूल होगी, न किसी को फ़िदया (जुर्माना) लेकर छोड़ा जाएगा, और न मुजरिमों को कहीं से मदद मिल सकेगी।63
63. बनी-इसराईल के बिगाड़ की एक बहुत बड़ी वजह यह थी कि आख़िरत (परलोक) के बारे में उनके अक़ीदे (धारणा) में ख़राबी आ गई थी। वे इस क़िस्म के ग़लत ख़यालों में पड़ गए थे कि हम अज़ीम नबियों की औलाद हैं, बड़े-बड़े वलियों, सुधारकों और ज़ाहिदों (संयम-नियम और जप-तप करनेवाले व्यक्तियों) से ताल्लुक़ रखते हैं। हमारी बख़शिश तो उन्हीं बुज़ुर्गों की मेहरबानी से हो जाएगी। उनका दामन थामने के बाद भला कोई सज़ा कैसे पा सकता है? इन्हीं झूठे भरोसों ने उनको दीन (धर्म) से बेपरवाह और गुनाहों के चक्कर में फँसा दिया था। इसलिए नेमत याद दिलाने के साथ फ़ौरन ही उनकी इन ग़लतफ़हमियों को दूर किया गया है।
وَإِذۡ نَجَّيۡنَٰكُم مِّنۡ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ يَسُومُونَكُمۡ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يُذَبِّحُونَ أَبۡنَآءَكُمۡ وَيَسۡتَحۡيُونَ نِسَآءَكُمۡۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَآءٞ مِّن رَّبِّكُمۡ عَظِيمٞ ۝ 48
(49) याद करो वह वक़्त64, जब हमने तुमको फ़िरऔन के लोगों65 की ग़ुलामी से छुटकारा दिलाया-उन्होंने तुम्हें सख़्त अज़ाब में डाल रखा था, तुम्हारे लड़कों को मार डालते थे और तुम्हारी लड़कियों को ज़िन्दा रहने देते थे। और इस हालत में तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारी बड़ी आज़माइश थी।66
64. यहाँ से बाद के रुकूओं तक लगातार जिन वाक़िआत की तरफ़ इशारे किए गए हैं, वे सब बनी-इसराईल की तारीख़ (इतिहास) के मशहूर तरीन वाक़िआत हैं, जिन्हें उस क़ौम का बच्चा-बच्चा जानता था। इसी लिए तफ़सील बयान करने के बजाय एक-एक वाक़िए की तरफ़ मुख़्तसर इशारा किया गया है। इस तारीख़ी बयान में दरअस्ल यह दिखाना मक़सद है कि एक तरफ़ ये और ये एहसानात हैं जो ख़ुदा ने तुमपर किए, और दूसरी तरफ़ ये और ये करतूत हैं जो इन एहसानों के जवाब में तुम करते रहे।
65. यह अरबी लफ़्ज़ 'आले-फ़िरऔन' का तर्जमा है, इसमें फ़िरऔन के ख़ानदान और मिस्र का हुक्मराँ तबका दोनों शामिल हैं।
66. आज़माइश इस बात की कि इस भट्टी से तुम ख़ालिस सोना बनकर निकलते हो या निरी खोट बनकर रह जाते हो। और आज़माइश इस बात की कि इतनी बड़ी मुसीबत से उस मोजिज़ाना (चमत्कारपूर्ण) तरीक़े से छुटकारा पाने के बाद भी तुम अल्लाह के शुक्रगुज़ार बन्दे बनते हो या नहीं।
وَإِذۡ فَرَقۡنَا بِكُمُ ٱلۡبَحۡرَ فَأَنجَيۡنَٰكُمۡ وَأَغۡرَقۡنَآ ءَالَ فِرۡعَوۡنَ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 49
(50) याद करो वह वक़्त जब हमने समुद्र फाड़कर तुम्हारे लिए रास्ता बनाया, फिर उसमें से तुम्हें बख़ैरियत (सकुशल) गुज़रवा दिया, फिर वहीं तुम्हारी आँखों के सामने फ़िरऔनियों को डुबो दिया।
وَإِذۡ وَٰعَدۡنَا مُوسَىٰٓ أَرۡبَعِينَ لَيۡلَةٗ ثُمَّ ٱتَّخَذۡتُمُ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَنتُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 50
(51) याद करो जब हमने मूसा को चालीस दिन व रात के वादे पर बुलाया67, तो उसके पीछे तुम बछड़े को अपना माबूद (उपास्य)68 बना बैठे। उस वक़्त तुमने बड़ी ज़्यादती की थी,
67. मिस्र से छुटकारा पाने के बाद जब बनी-इसराईल जज़ीरा नुमाए-सीना (सीना प्रायद्वीप) में पहुँच गए,तो हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह ने चालीस दिन व रात के लिए तूर पहाड़ पर बुलाया, ताकि वहाँ उस क़ौम के लिए, जो अब आज़ाद हो चुकी थी, शरीअत के क़ानून और अमली ज़िन्दगी के लिए हिदायत दी जाएँ। (देखिए बाइबल, पुस्तक: निर्गमन, अध्याय 24-31)
68. गाय और बैल की पूजा का रोग बनी-इसराईल की पड़ोसी क़ौमों में हर तरफ़ फैला हुआ था। मिस्र और कनआन में इसका आम रिवाज था। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के बाद बनी- इसराईल जब गिरावट (पतन) के शिकार हुए और धीरे-धीरे क़िब्तियों के ग़ुलाम बन गए तो उन्होंने दूसरे बहुत-से रोगों के अलावा यह एक रोग भी अपने हाकिमों से ले लिया। (बछड़े की पूजा का यह वाक़िआ बाइबल की पुस्तक: निर्गमन, अध्याय-32 में तफ़सील के साथ दर्ज है।)
ثُمَّ عَفَوۡنَا عَنكُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 51
(52) मगर इसपर भी हमने तुम्हें माफ़ कर दिया कि शायद अब तुम शुक्रगुजार बनो।
وَإِذۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡفُرۡقَانَ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 52
(53) याद करो कि (ठीक उस वक़्त जब तुम यह ज़ुल्म कर रहे थे) हमने मूसा को किताब और फ़ुरक़ान (कसौटी) 69 दी, ताकि तुम उसके ज़रिए से सीधा रास्ता पा सको।
69. फ़ुरक़ान से मुराद है वह चीज़ जिसके ज़रिए से हक़ और बातिल का फ़र्क़ नुमायाँ हो। उर्दू-हिन्दी में इसके मतलब के क़रीब लफ़्ज़ 'कसौटी' है। यहाँ फ़ुरक़ान से मुराद दीन का वह इल्म और समझ है जिससे आदमी हक़ और बातिल में फ़र्क़ करता है।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ إِنَّكُمۡ ظَلَمۡتُمۡ أَنفُسَكُم بِٱتِّخَاذِكُمُ ٱلۡعِجۡلَ فَتُوبُوٓاْ إِلَىٰ بَارِئِكُمۡ فَٱقۡتُلُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ عِندَ بَارِئِكُمۡ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 53
(54) याद करो जब मूसा (यह नेमत लिए हुए पलटा तो उस) ने अपनी क़ौम से कहा कि “लोगो! तुमने बछड़े को अपना माबूद (उपास्य) बनाकर अपने ऊपर बड़ा ज़ुल्म किया है, इसलिए तुम लोग अपने पैदा करनेवाले के सामने तौबा करो और अपनी जानों को हलाक करो,70 इसी में तुम्हारे पैदा करनेवाले के नज़दीक तुम्हारी भलाई है।” उस वक़्त तुम्हारे पैदा करनेवाले ने तुम्हारी तौबा क़ुबूल कर ली कि वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
70. यानी अपने उन आदमियों को क़त्ल करो, जिन्होंने बछड़े को माबूद (उपास्य) बनाया और उसकी पूजा की।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نُّؤۡمِنَ لَكَ حَتَّىٰ نَرَى ٱللَّهَ جَهۡرَةٗ فَأَخَذَتۡكُمُ ٱلصَّٰعِقَةُ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 54
(55) याद करो जब तुमने मूसा से कहा था कि हम तुम्हारी बातों पर हरगिज़ यक़ीन न करेंगे, जब तक कि अपनी आँखों से खुले तौर पर ख़ुदा को (तुमसे बातें करते) न देख लें। उस वक़्त तुम्हारे देखते-देखते एक ज़बरदस्त कड़के ने तुमको आ लिया।
ثُمَّ بَعَثۡنَٰكُم مِّنۢ بَعۡدِ مَوۡتِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 55
(56 ) तुम बेजान होकर गिर चुके थे, मगर फिर हमने तुमको जिला उठाया, शायद कि इस एहसान के बाद तुम शुक्रगुज़ार बन जाओ।71
71. यह इशारा जिस वाक़िए की तरफ़ है उसकी तफ़सील यह है कि चालीस रात-दिन के वादे पर जब हज़रत मूसा (अलैहि०) तूर पर तशरीफ़ ले गए थे तो उनको हुक्म हुआ था कि अपने साथ बनी-इसराईल के सत्तर नुमाइन्दे भी साथ लेकर आएँ। फिर जब अल्लाह ने मूसा (अलैहि०) को किताब और फ़ुरक़ान अता की तो उन्होंने उसे उन नुमाइन्दों के सामने पेश किया। इस मौक़े पर क़ुरआन कहता है कि उनमें से शरारत करनेवाले कुछ लोग कहने लगे कि हम सिर्फ़ तुम्हारे कहने पर कैसे मान लें कि ख़ुदा ने तुमसे बातें की हैं। इस पर अल्लाह का ग़ज़ब आया और उन्हें सज़ा दी गई, लेकिन बाइबल कहती है कि— “उन्होंने इसराईल के ख़ुदा को देखा, उसके पाँवों के नीचे नीलम के पत्थर नीलमणि का चबूतरा सा था, जो आसमान की तरह साफ़ स्वच्छ था और उसने बनी-इसराईल के शरीफ़ लोगों पर अपना हाथ न बढ़ाया; अतः उन्होंने ख़ुदा को देखा और खाया और पिया।” (निर्गमन, 24:10, 11) मज़े की बात यह है कि किताब में आगे चलकर लिखा है कि जब हज़रत मूसा (अलैहि०) ने ख़ुदा से अर्ज़ किया कि मुझे अपना जलाल (तेज) दिखा दे तो उसने कहा कि तू मुझे नहीं देख सकता। (देखें निर्गमन, अध्याय 33, आयत 18-23)
وَظَلَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡغَمَامَ وَأَنزَلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰۖ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡۚ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 56
(57) हमने तुमपर बादल की छाया की,72 'मन्न व सलवा' का खाना तुम्हारे लिए जुटाया73 और तुमसे कहा कि जो पाक चीज़ें हमने तुम्हें दी हैं, उन्हें खाओ, (मगर तुम्हारे बाप-दादा ने जो कुछ किया) वह हमपर ज़ुल्म न था, बल्कि उन्होंने आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म किया।
72. यानी जज़ीरा नुमाए-सीना (सीना प्रायद्वीप) में जहाँ धूप से बचने के लिए कोई पनाह लेने की जगह तुम्हें मयस्सर न थी, हमने बादल से तुम्हारे बचाव का इन्तिज़ाम किया। इस मौक़े पर ख़याल रहे कि बनी-इसराईल लाखों की तादाद में मिस्र से निकलकर आए थे और सीना के इलाक़े में मकान की क्या बात, सर छिपाने के लिए उनके पास ख़ेमे तक न थे। उस ज़माने में अगर ख़ुदा की तरफ़ से एक मुद्दत तक आसमान को बादलों से घिरा हुआ न रखा जाता तो यह क़ौम धूप से हलाक हो जाती।
73. 'मन्न' और 'सलवा' खाने की वे क़ुदरती चीज़ें थीं जो उस मुहाजरत (प्रवास) के ज़माने में उन लोगों को चालीस साल तक बराबर मिलती रहीं। मन्न धनिए के बीज जैसी कोई चीज़ थी, जो ओस की तरह गिरती और ज़मीन पर जम जाती थी और सलवा बटेर की क़िस्म के परिन्दे (पक्षी) थे। ख़ुदा की मेहरबानी से उनकी तादाद इतनी ज़्यादा थी कि एक पूरी की पूरी क़ौम सिर्फ़ इन्हीं खानों पर ज़िन्दगी बसर करती रही और उसे भूख और फ़ाक़े की मुसीबत न उठानी पड़ी। हालाँकि आज किसी निहायत ख़ुशहाल और मुहज़्ज़ब देश में भी अगर कुछ लाख मुहाजिर (शरणार्थी) अचानक आ जाएँ तो उनके खाने का इन्तिज़ाम मुश्किल हो जाता है। (मन्न और सलवा की तफ़सीली जानकारी के लिए देखिए बाइबल, पुस्तक निर्गमन-16 : 136; गिनती-11: 7-9 व 31-32 ; यहोशू- 5:11 , 12)
وَإِذۡ قُلۡنَا ٱدۡخُلُواْ هَٰذِهِ ٱلۡقَرۡيَةَ فَكُلُواْ مِنۡهَا حَيۡثُ شِئۡتُمۡ رَغَدٗا وَٱدۡخُلُواْ ٱلۡبَابَ سُجَّدٗا وَقُولُواْ حِطَّةٞ نَّغۡفِرۡ لَكُمۡ خَطَٰيَٰكُمۡۚ وَسَنَزِيدُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 57
(58) फिर याद करो, जब हमने कहा था कि “यह बस्ती74 जो तुम्हारे सामने है, इसमें दाख़िल हो जाओ, इसकी पैदावार जिस तरह चाहो मज़े से खाओ, मगर बस्ती के दरवाज़े में सजदारेज़ होते हुए (झुके-झुके) दाख़िल होना और कहते जाना 'हित्ततुन हित्ततुन’75 हम तुम्हारी ख़ताओं को माफ़ कर देंगे और अच्छे काम करनेवालों पर और ज़्यादा मेहरबानी करेंगे।”
74. अभी तक इसकी खोज नहीं हो सकी है कि इस बस्ती से मुराद कौन-सी बस्ती है। वाक़िआत के जिस सिलसिले में इसका ज़िक्र हो रहा है, वह उस ज़माने से ताल्लुक़ रखता है जबकि बनी-इसराईल अभी जज़ीरा नुमाए-सीना (सीना प्रायद्वीप) ही में थे। इसलिए ज़्यादा मुमकिन यही है कि यह उसी जज़ीरा नुमा का कोई शहर होगा, मगर यह भी मुमकिन है कि इससे मुराद शित्तीम हो, जो यरीहो के सामने यरदन नदी के पूर्वी किनारे पर आबाद था। बाइबल का बयान है कि इस शहर को बनी-इसराईल ने हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़िन्दगी के आख़िरी ज़माने में फ़तह किया और वहाँ बड़ी बदकारियाँ कीं, जिसके नतीजे में ख़ुदा ने उनपर महामारी भेजी और 24 हज़ार आदमी हलाक कर दिए। (गिनती, अध्याय 25, आयत-1-9)
75. यानी हुक्म यह था कि जाबिर (दमनकारी) और ज़ालिम फ़ातिहों (विजेताओं) की तरह अकड़ते हुए न घुसना, बल्कि ख़ुदा से डरनेवालों की तरह मुन्‌कसिराना (विनम्रतापूर्ण) शान के साथ दाख़िल होना, जैसे हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) मक्का की फ़तह के मौक़े पर मक्का में दाख़िल हुए। और ‘हित्ततुन’ के दो मतलब हो सकते हैं— एक यह कि ख़ुदा से अपनी ग़लतियों और भूल-चूक की माफ़ी माँगते हुए जाना। दूसरा यह कि लूटमार और क़त्ले-आम के बजाय बस्ती के रहनेवालों में दरगुज़र और आम माफ़ी का एलान करते जाना।
فَبَدَّلَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ قَوۡلًا غَيۡرَ ٱلَّذِي قِيلَ لَهُمۡ فَأَنزَلۡنَا عَلَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ رِجۡزٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 58
(59) मगर जो बात कही गई थी, ज़ालिमों ने उसे बदलकर कुछ और कर दिया। आख़िरकार हमने ज़ुल्म करनेवालों पर आसमान से अज़ाब उतारा। यह सज़ा थी उन नाफ़रमानियों की जो वे कर रहे थे।
۞وَإِذِ ٱسۡتَسۡقَىٰ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ فَقُلۡنَا ٱضۡرِب بِّعَصَاكَ ٱلۡحَجَرَۖ فَٱنفَجَرَتۡ مِنۡهُ ٱثۡنَتَا عَشۡرَةَ عَيۡنٗاۖ قَدۡ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٖ مَّشۡرَبَهُمۡۖ كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ مِن رِّزۡقِ ٱللَّهِ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 59
(60) याद करो, जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिए पानी की दुआ की तो हमने कहा कि फ़ुलाँ चट्टान पर अपनी लाठी मारो। चुनाँचे उससे बारह चश्मे (स्रोत)76 फूट निकले और हर क़बीले ने जान लिया कि कौन-सी जगह उसके पानी लेने की है। (उस वक़्त यह हिदायत कर दी गई थी कि) अल्लाह की दी हुई रोज़ी खाओ-पियो और ज़मीन में फ़साद (बिगाड़) न फैलाते फिरो।
76. वह चट्टान अब तक जज़ीरा नुमाए-सीना (सीना प्रायद्वीप) में मौजूद है। सैर व तफ़रीह करने वाले लोग (टूरिस्ट) उसे जाकर देखते हैं और चश्मों की दरारें उसमें अब भी पाई जाती हैं।12 चश्मों में यह मस्लहत थी कि बनी-इसराईल के क़बीले भी 12 ही थे। ख़ुदा ने हर एक क़बीले के लिए अलग-अलग चश्मा निकाल दिया, ताकि उनके बीच पानी पर झगड़ा न हो।
وَإِذۡ قُلۡتُمۡ يَٰمُوسَىٰ لَن نَّصۡبِرَ عَلَىٰ طَعَامٖ وَٰحِدٖ فَٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُخۡرِجۡ لَنَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ مِنۢ بَقۡلِهَا وَقِثَّآئِهَا وَفُومِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَاۖ قَالَ أَتَسۡتَبۡدِلُونَ ٱلَّذِي هُوَ أَدۡنَىٰ بِٱلَّذِي هُوَ خَيۡرٌۚ ٱهۡبِطُواْ مِصۡرٗا فَإِنَّ لَكُم مَّا سَأَلۡتُمۡۗ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ وَٱلۡمَسۡكَنَةُ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 60
(61) याद करो, जब तुमने कहा था कि “ऐ मूसा! हम एक ही तरह के खाने पर सब्र नहीं कर सकते। अपने रब से दुआ करो कि हमारे लिए ज़मीन की पैदावार साग, तरकारी, गेहूँ, लहसुन, प्याज़, दाल वग़ैरा पैदा करे।” तो मूसा ने कहा, “क्या एक बेहतर चीज़ की जगह तुम घटिया दरजे की चीज़ें लेना चाहते हो?77 अच्छा, किसी शहरी आबादी में जा रहो, जो कुछ तुम माँगते हो वहाँ मिल जाएगा।” आख़िरकार नौबत यहाँ तक पहुँची कि ज़िल्लत व रुसवाई और गिरावट व बदहाली उनपर छा गई और वे अल्लाह के ग़ज़ब में घिर गए। यह नतीजा था इसका कि वे अल्लाह की आयतों से कुफ़्र करने लगे78 और पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल करने लगे।79 यह नतीजा था उनकी नाफ़रमानियों का और इस बात का कि वे शरीअत की हदों से निकल-निकल जाते थे।
77. मतलब यह नहीं है कि 'मन्न व सलवा' छोड़कर, जो कि बिना मेहनत किए मिल रहा है, तुम वे चीज़ें माँग रहे हो जिनके लिए खेती-बाड़ी करनी पड़ेगी, बल्कि मतलब यह है कि जिस बड़े मक़सद के लिए तुमको यह जो जंगल-जंगल घुमाया जा रहा है, इसके मुक़ाबले में क्या तुमको कामोदहन (इच्छा और सुख) की लज़्ज़त इतनी पसन्द है कि उस मक़सद को छोड़ने के लिए तैयार हो और इन चीज़ों से महरूमी कुछ मुद्दत के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर सकते? [मुक़ाबले (तुलना) के लिए देखिए— गिनती, अध्याय-11, आयत 4-9]
78. आयतों से कुफ़्र करने की मुख़्तलिफ़ शक्लें हैं। मिसाल के तौर पर एक यह कि ख़ुदा की भेजी हुई तालीमात (शिक्षाओं) में से जो बात अपने ख़यालों या ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ पाई उसको मानने से साफ़ इनकार कर दिया। दूसरी यह कि एक बात को यह जानते हुए कि ख़ुदा ने फ़रमाई है पूरी ढिठाई और सरकशी के साथ उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी की और ख़ुदा के हुक्म की कुछ परवाह न की। तीसरी यह कि ख़ुदा के फ़रमान के मानी और मतलब को अच्छी तरह जानने और समझने के बावजूद अपनी ख़ाहिश के मुताबिक़ उसे बदल डाला।
79. बनी-इसराईल ने अपने इस जुर्म को अपनी तारीख़़ (इतिहास) में ख़ुद तफ़सील के साथ बयान किया है। मिसाल के तौर पर हम बाइबल से कुछ वाक़िआत यहाँ दर्ज करते हैं— (1) हज़रत सुलैमान के बाद जब बनी-इसराईल की सल्तनत तक़सीम होकर दो रियासतों (यरूशलम की दौलते-यहूदिया और सीरिया की दौलते-इसराईल) में बँट गई तो उनमें आपसी लड़ाई का सिलसिला शुरू हुआ और नौबत यहाँ तक आई कि यहूदियों की रियासत ने अपने ही भाइयों के ख़िलाफ़ दमिश्क की आरामी सल्तनत से मदद माँगी। इसपर ख़ुदा के हुक्म से हनानी नबी ने यहूदियों के हाकिम आसा को सख़्त तंबीह की। मगर आसा ने इस तंबीह (और चेतावनी) को क़ुबूल करने के बजाय ख़ुदा के पैग़म्बर को जेल भेज दिया। (2 इतिहास, 17:7-10) (2) हज़रत इलियास (एलियाह Elliah) ने जब बअल की पूजा पर यहूदियों को मलामत की और नए सिरे से तौहीद के पैग़ाम को फैलाना शुरू किया तो सामरिया का इसराईली बादशाह अख़ी-अब अपनी मुशरिक बीवी की ख़ातिर हाथ धोकर उनकी जान के पीछे पड़ गया। यहाँ तक कि उन्हें जज़ीरा नुमाए-सीना (सीना प्रायद्वीप) के पहाड़ों में पनाह लेनी पड़ी। इस मौक़े पर जो दुआ हज़रत इलियास ने माँगी है, वह इस तरह है— “बनी-इसराईल ने तेरे अह्द (वचन) को छोड़ दिया--------------तेरे नबियों को तलवार से क़त्ल किया और एक में ही अकेला बचा हूँ, तो वे मेरी जान लेने के दरपे हैं।” (1 राजा,19:1-10) (3) एक और नबी हज़रत मिकायाह को इसी अख़ी-अब ने हक़ बोलने के जुर्म में जेल भेजा और हुक्म दिया कि इस शख़्स को मुसीबत की रोटी खिलाना और मुसीबत का पानी पिलाना। (1 राजा, 22:26, 27) (4) फिर जब यहूदिया की रियासत में खुल्लम-खुल्ला बुतपरस्ती और बदकारी होने लगी और ज़करियाह नबी ने उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो बादशाह यहूदाह यूआस के हुक्म से उन्हें ठीक ‘हैकले-सुलैमानी' (उपासना-गृह) में 'मक़दिस' और 'क़ुरबानगाह' के बीच पत्थर मार-मारकर हलाक कर दिया गया। (2 इतिहास, 24:21) (5) इसके बाद जब सामरिया की इसराईली रियासत आशूरियों के हाथों ख़त्म हो चुकी और यरूशलम की यहूदी रियासत के सर पर तबाही का तूफ़ान तुला खड़ा था तो यरमियाह नबी अपनी क़ौम की गिरावट पर मातम करने लगे और कूचे-कूचे उन्होंने पुकारना शुरू किया कि संभल जाओ, वरना तुम्हारा अंजाम सामरिया से भी बुरा होगा, मगर क़ौम की तरफ़ से जो जवाब मिला वह यह था कि हर तरफ़ से उनपर लानत और फिटकार की बारिश हुई, पीटे गए, क़ैद किए गए, रस्सी से बाँधकर कीचड़ भरे हौज़ में लटका दिए गए, कि भूख और प्यास से वहीं सूख-सूखकर मर जाएँ। और उनपर इलज़ाम लगाया गया कि वे क़ौम के ग़द्दार हैं, बाहरी दुश्मनों से मिले हुए हैं। (यर्मियाह 15/10, 18/20-23 ; 20/1-18, 36-40) (6) एक और नबी हज़रत आमूस के बारे में लिखा है कि जब उन्होंने सामरिया की इसराईली रियासत को उसकी गुमराहियों और बदकारियों पर टोका और इन हरकतों के बुरे अंजाम से ख़बरदार किया तो उन्हें नोटिस दिया गया कि मुल्क से निकल जाओ और बाहर जाकर पैग़म्बरी करो। (आमूस-7/10-13) (7) हज़रत यह्या (यूहन्ना) अलैहिo ने जब इन बदअख़लाकियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई जो यहूदिया के बादशाह हेरोदेस के दरबार में खुल्लम-खुल्ला हो रही थीं तो पहले क़ैद किए गए। फिर बादशाह ने अपनी माशूक़ा (प्रेमिका) की फ़रमाइश पर क़ौम के सबसे भले आदमी का सर कटवाकर एक थाल में रखकर माशूक़ा को पेश कर दिया। (मरकुस-6:17-29) (8) आख़िर में हज़रत ईसा (अलैलि०) पर बनी-इसराईल के उलमा और क़ौम के सरदारों का ग़ुस्सा भड़का, क्योंकि वे उन्हें उनके गुनाहों और उनकी रियाकारियों (पाखण्डों) पर टोकते थे और ईमान और सच्चाई की नसीहत करते थे। इस कुसूर पर उनके ख़िलाफ़ झूठा मुक़द्दमा तैयार किया गया, रूमी अदालत से उनके क़त्ल का फ़ैसला हासिल किया गया और जब रूमी हाकिम पीलैटिस ने यहूदियों से कहा कि आज ईद (त्योहार) के दिन में तुम्हारे लिए यीशू और बरअब्बा डाकू दोनों में किसको रिहा करूँ? तो उनकी पूरी भीड़ ने एक आवाज़ में पुकारकर कहा कि बरअब्बा को छोड़ दे और यीशू को फाँसी पर लटका। (मत्ती-27/20-26) यह है उस क़ौम के जुर्मो की दास्तान का एक निहायत शर्मनाक बाब जिसकी तरफ़ क़ुरआन की इस आयत में मुख़्तसर तौर पर इशारा किया गया है। अब यह ज़ाहिर है कि जिस क़ौम ने अपने फ़ासिक़ और फ़ाजिर (दुराचारी और भ्रष्ट) लोगों को सरदारी और बादशाही के लिए और अपने नेक और भले लोगों को जेल और फाँसी के लिए पसन्द किया हो, अल्लाह उसको अपनी लानत के लिए पसन्द न करता, तो आख़िर और क्या करता?
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 61
(62 ) यक़ीन जानो कि अरबी नबी को माननेवाले हों या यहूदी, ईसाई हों या साबी जो भी अल्लाह और आख़िरी दीन पर ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा, उसका बदला उसके रब के पास है और उसके लिए किसी डर और अफ़सोस का मौक़ा नहीं है।80
80. ऊपर से जो बात चली आ रही है उसके सिलसिले को सामने रखने से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद वाज़ेह हो जाती है कि यहाँ मक़सद ईमान और नेक कामों की तफ़सील बयान करना नहीं है कि किन-किन बातों को आदमी माने और क्या-क्या काम करे तो ख़ुदा के यहाँ इनाम का हक़दार हो। ये चीज़ें अपने-अपने मौक़े पर तफ़सील के साथ आएँगी। यहाँ तो यहूदियों के इस ग़लत। दावे का रद्द करना मक़सद है कि वे सिर्फ़ यहूदी गरोह को नजात और कामयाबी का ठेकेदार समझते थे। वे इस ग़लत ख़याल में पड़े हुए थे कि उनके गरोह से अल्लाह का कोई ख़ास रिश्ता है जो दूसरे इनसानों से नहीं है। इसलिए जो उनके गरोह से ताल्लुक़ रखता है, वह चाहे आमाल (कर्मों) और अक़ीदों (धारणाओं) के लिहाज़ से कैसा ही हो, हर हाल में नजात उसकी क़िस्मत में है और बाक़ी तमाम इनसान जो उनके गरोह से बाहर हैं, वे सब जहन्नम का ईंधन बनने के लिए पैदा हुए हैं। इस ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए कहा जा रहा है कि अल्लाह के यहाँ अस्ल चीज़ तुम्हारी ये गरोहबन्दियाँ नहीं हैं, बल्कि वहाँ जो कुछ देखे जाएँगे वह ईमान और भले काम हैं। जो इनसान भी ये चीज़ लेकर हाज़िर होगा, वह अपने रब से अपना बदला पाएगा। ख़ुदा के यहाँ फ़ैसला आदमी की सिफ़ात पर होगा, न कि तुम्हारी मर्दुमशुमारी के रजिस्टरों पर।
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلَّذِينَ ٱعۡتَدَوۡاْ مِنكُمۡ فِي ٱلسَّبۡتِ فَقُلۡنَا لَهُمۡ كُونُواْ قِرَدَةً خَٰسِـِٔينَ ۝ 62
(65) फिर तुम्हें अपनी क़ौम के उन लोगों का क़िस्सा तो मालूम ही है जिन्होंने सब्त82 का क़ानून तोड़ा था। हमने उन्हें कह दिया कि बन्दर बन जाओ और इस हाल में रहो कि हर तरफ़ से तुमपर धुतकार और फटकार पड़े।83
82. सब्त यानी शनिवार का दिन बनी-इसराईल के लिए यह क़ानून मुक़र्रर् किया गया था कि वे शनिवार को आराम और इबादत के लिए ख़ास कर रखें। इस दिन किसी तरह का दुनियावी काम, यहाँ तक कि खाने-पकाने का काम भी न ख़ुद करें, न अपने नौकरों से लें। इस बारे में यहाँ तक ताकीद के साथ हिदायतें दी गई थीं कि जो आदमी इस पाक दिन की हुरमत (मर्यादा) को तोड़े, उसको क़त्ल कर देना वाजिब है। (देखिए निर्गमन, अध्याय 31, आयत 12-17) लेकिन जब बनी-इसराईल पर अख़लाक़ी और दीनी गिरावट का वह दौर आया तो वे खुल्लम-खुल्ला सब्त के एहतिराम की हद तोड़ने लगे, यहाँ तक कि उनके शहरों में खुलेआम सब्त के दिन कारोबार होने लगा।
83. इस वाक़िए की तफ़सील क़ुरआन की सातवीं सूरा आराफ़, आयत 163-164 में आती है। वे बन्दर किस तौर पर बनाए गए इस बात में उलमा की राएँ अलग-अलग हैं। कुछ यह समझते हैं कि उनकी जिस्मानी बनावट बिगाड़कर बन्दरों जैसी कर दी गई थी और कुछ इसका यह मतलब लेते हैं कि उनमें बन्दरों जैसी सिफ़ात पैदा हो गई थीं, लेकिन क़ुरआन के अलफ़ाज़ और इसके अंदाजे-बयान (वर्णन-शैली) से ऐसा मालूम होता है कि उनकी शक्लों का बिगाड़ा जाना अख़लाक़ी नहीं, बल्कि जिस्मानी था। मैं यह समझता हूँ कि शायद उनके दिमाग़ ठीक उसी हाल पर रहने दिए गए होंगे जिसमें वे पहले थे और जिस्म बिगड़कर बन्दरों जैसे हो गए होंगे।
فَجَعَلۡنَٰهَا نَكَٰلٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهَا وَمَا خَلۡفَهَا وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 63
(66 ) इस तरह हमने उनके अंजाम को उस ज़माने के लोगों और बाद की आनेवाली नस्लों के लिए इबरत (शिक्षा)। और डरनेवालों के लिए नसीहत बनाकर छोड़ा।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦٓ إِنَّ ٱللَّهَ يَأۡمُرُكُمۡ أَن تَذۡبَحُواْ بَقَرَةٗۖ قَالُوٓاْ أَتَتَّخِذُنَا هُزُوٗاۖ قَالَ أَعُوذُ بِٱللَّهِ أَنۡ أَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 64
(67) फिर वह वाक़िआ याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि अल्लाह तुम्हें एक गाय ज़ब्ह करने का हुक्म देता है। कहने लगे, “क्या तुम हमसे मज़ाक़ करते हो?” मूसा ने कहा, “मैं इससे ख़ुदा की पनाह माँगता हूँ कि जाहिलों की-सी बातें करूँ।”
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَۚ قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا فَارِضٞ وَلَا بِكۡرٌ عَوَانُۢ بَيۡنَ ذَٰلِكَۖ فَٱفۡعَلُواْ مَا تُؤۡمَرُونَ ۝ 65
(68) बोले, “अच्छा, अपने रब से दरख़ास्त करो कि वह हमें उस गाय की कुछ तफ़सील बताए।” मूसा ने कहा कि अल्लाह कहता है कि वह ऐसी गाय होनी चाहिए जो न बूढ़ी हो, न बछिया, बल्कि औसत उम्र की हो। इसलिए जो हुक़्म दिया जाता है उसको पूरा करो।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا لَوۡنُهَاۚ قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ صَفۡرَآءُ فَاقِعٞ لَّوۡنُهَا تَسُرُّ ٱلنَّٰظِرِينَ ۝ 66
(69) फिर कहने लगे कि अपने रब से यह और पूछ दो कि उसका रंग कैसा हो। मूसा ने कहा, “वह कहता है पीले रंग की गाय होनी चाहिए जिसका रंग ऐसा शोख़ (चटकीला) हो कि देखनेवालों का जी ख़ुश हो जाए।
قَالُواْ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَ إِنَّ ٱلۡبَقَرَ تَشَٰبَهَ عَلَيۡنَا وَإِنَّآ إِن شَآءَ ٱللَّهُ لَمُهۡتَدُونَ ۝ 67
(70) फिर बोले, “अपने रब से साफ़-साफ़ पूछकर बताओ, कैसी गाय मतलूब (अभीष्ट) है?'' हमें उसे मुतय्यन (निश्चित) करने में शुब्हाा (संदेह) हो गया है। अल्लाह ने चाहा तो हम उसका पता पा लेंगे।
قَالَ إِنَّهُۥ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٞ لَّا ذَلُولٞ تُثِيرُ ٱلۡأَرۡضَ وَلَا تَسۡقِي ٱلۡحَرۡثَ مُسَلَّمَةٞ لَّا شِيَةَ فِيهَاۚ قَالُواْ ٱلۡـَٰٔنَ جِئۡتَ بِٱلۡحَقِّۚ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 68
(71) मूसा ने जवाब दिया, “अल्लाह कहता है कि वह ऐसी गाय है जिससे काम नहीं लिया जाता, न ज़मीन जोतती है, न पानी खींचती है, सही सालिम और बेदाग़ है।” इसपर वे पुकार उठे कि हाँ, अब तुमने ठीक पता बताया है। फिर उन्होंने उसे ज़ब्ह किया, वरना वे ऐसा करते मालूम न होते थे।84
84. चूँकि उन लोगों को अपनी पड़ोसी क़ौमों से गाय की बड़ाई और पाकी और गाय-परस्ती (गाय को पूजने) के मरज़ की छूत लग गई थी, इसलिए उनको हुक़्म दिया गया कि गाय ज़ब्ह करें। उनके ख़ुदा पर ईमान का इम्तिहान ही इसी तरह हो सकता है कि अगर वे हक़ीक़त में ख़ुदा के सिवा किसी को पूजने के लायक़ नहीं समझते तो यह अक़ीदा इख़्तियार करने से पहले जिस बुत को माबूद (पूजनीय) समझते रहे हैं उसे अपने हाथ से तोड़ें। यह इम्तिहान बहुत सख़्त इम्तिहान था। दिलों में पूरी तरह ईमान उतरा हुआ न था, इसलिए उन्होंने टालने की कोशिश की और तफ़सील पूछने लगे, मगर जितनी तफ़सील वे पूछते गए उतने ही घिरते चले गए, यहाँ तक कि आख़िरकार उसी ख़ास क़िस्म की सुनहरी गाय पर, जिसे उस ज़माने में पूजा के लिए ख़ास किया जाता था, मानो उँगली रखकर बता दिया गया कि इसे ज़ब्ह करो। बाइबल में भी इस वाक़िए की तरफ़ इशारा है, मगर वहाँ यह ज़िक्र नहीं है कि बनी-इसराईल ने इस हुक़्म को किस-किस तरह टालने की कोशिश की थी। (देखिए पुस्तक गिनती, 19:1-10)
وَإِذۡ قَتَلۡتُمۡ نَفۡسٗا فَٱدَّٰرَٰٔتُمۡ فِيهَاۖ وَٱللَّهُ مُخۡرِجٞ مَّا كُنتُمۡ تَكۡتُمُونَ ۝ 69
(72) और तुम्हें याद है वह वाक़िआ जब तुमने एक आदमी की जान ली थी, फिर उसके बारे में झगड़ने और एक-दूसरे पर क़त्ल का इलज़ाम थोपने लगे थे, और अल्लाह ने फ़ैसला कर लिया था कि जो कुछ तुम छिपाते हो, उसे खोलकर रख देगा।
فَقُلۡنَا ٱضۡرِبُوهُ بِبَعۡضِهَاۚ كَذَٰلِكَ يُحۡيِ ٱللَّهُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَيُرِيكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 70
(73) उस वक़्त हमने हुक़्म दिया कि मक़तूल (क़त्ल किए गए व्यक्ति) की लाश पर उसके एक हिस्से से चोट लगाओ। देखो, इस तरह अल्लाह मुदों को ज़िन्दगी देता है और तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है, ताकि तुम समझो85
85. इस जगह पर यह बात बिलकुल साफ़ मालूम होती है कि मारे गए आदमी के अन्दर दोबारा इतनी देर के लिए जान डाली गई कि वह क़ातिल का पता बता दे। लेकिन इस मक़सद के लिए जो तदबीर बताई गई थी यानी लाश को उसके एक हिस्से से ज़र्ब (चोट) लगाओ, इसके अलफ़ाज़ में कुछ इबहाम (अस्पष्टता) महसूस होता है। फिर भी उसका सबसे ज़्यादा क़रीबी मतलब वही है जो क़ुरआन के पुराने मुफ़स्सिरों (व्याख्याकारों) ने बयान किया है, यानी यह कि ऊपर जिस गाय के ज़ब्ह करने हुक्म दिया गया था उसी के गोश्त से मारे गए आदमी की लाश पर चोट लगाने का हुक्म दिया गया। इस तरह मानो एक पंथ दो काज हो गए। एक यह कि अल्लाह की क़ुदरत का एक निशान उन्हें दिखाया गया, दूसरा यह कि गाय की अज़मत (महानता) और पाकी और उसके माबूद होने पर भी एक गहरी चोट लगी कि इस माबूद समझी जानेवाली गाय के पास अगर कुछ भी ताक़त होती तो उसे ज़ब्ह करने से एक आफ़त और मुसीबत आ जानी चाहिए थी, न कि उसका ज़ब्ह होना उलटा इस तरह फ़ायदेमन्द साबित हो।
ثُمَّ قَسَتۡ قُلُوبُكُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ فَهِيَ كَٱلۡحِجَارَةِ أَوۡ أَشَدُّ قَسۡوَةٗۚ وَإِنَّ مِنَ ٱلۡحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنۡهُ ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ وَإِنَّ مِنۡهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخۡرُجُ مِنۡهُ ٱلۡمَآءُۚ وَإِنَّ مِنۡهَا لَمَا يَهۡبِطُ مِنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 71
(74) — मगर ऐसी निशानियाँ देखने के बाद भी आख़िरकार तुम्हारे दिल सख़्त हो गए, पत्थरों की तरह सख़्त, बल्कि सख़्ती में कुछ उनसे भी बढ़े हुए, क्योंकि पत्थरों में से तो कोई ऐसा भी होता है जिसमें से चश्मे (सोते) फूट बहते हैं, कोई फटता है और उसमें से पानी निकल आता है, और कोई ख़ुदा के डर से काँपकर गिर भी पड़ता है। अल्लाह तुम्हारे करतूतों से बेख़बर नहीं है।
۞أَفَتَطۡمَعُونَ أَن يُؤۡمِنُواْ لَكُمۡ وَقَدۡ كَانَ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ يَسۡمَعُونَ كَلَٰمَ ٱللَّهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُۥ مِنۢ بَعۡدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 72
(75) ऐ मुसलमानो! अब क्या इन लोगों से तुम यह उम्मीद रखते हो कि ये तुम्हारी दावत पर ईमान ले आएँगे?86 हालाँकि इनमें से एक गरोह का रवैया यह रहा है कि अल्लाह का कलाम (वाणी) सुना और फिर ख़ूब समझ-बूझकर जानते हुए उसमें फेर-बदल किया87
86. यह ख़िताब (सम्बोधन) मदीने के उन नव-मुस्लिमों से है जो क़रीब ही के ज़माने में अरबी पैग़म्बर (यानी हज़रत मुहम्मद सल्ल०) पर ईमान लाए थे। इन लोगों के कान में पहले से ही नुबूवत, किताब, फ़रिश्तों, आख़िरत, शरीअत वग़ैरा की जो बातें पड़ी हुई थीं, वे सब उन्होंने अपने पड़ोसी यहूदियों ही से सुनी थीं, और यह भी उन्होंने यहूदियों ही से सुना था कि दुनिया में एक पैग़म्बर और आनेवाले हैं और यह कि जो लोग उनका साथ देंगे, वे सारी दुनिया पर छा जाएँगे। यही मालूमात थीं जिनकी वजह से मदीने के लोगों ने नबी (सल्ल०) की चर्चा सुनकर आप (सल्ल०) की तरफ़ तवज्जोह की और बड़ी तादाद में आप (सल्ल०) के पैग़ाम को क़ुबूल किया। उन्हें उम्मीद थी कि जो लोग पहले ही से पैग़म्बरों और आसमानी किताबों की पैरवी करते हैं, और जिनकी दी हुई ख़बरों की बदौलत ही हम को इस्लाम की दौलत नसीब हुई है, वे ज़रूर हमारा साथ देंगे, बल्कि इस राह में सब से आगे होंगे। चुनाचे यही उम्मीदें लेकर ये जोशीले नव-मुस्लिम अपने यहूदी दोस्तों और पड़ोसियों के पास जाते थे और उनको इस्लाम की दावत देते थे। फिर जब वे इस दावत का जवाब इनकार से देते तो मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और इस्लाम के दुश्मन इससे यह दलील लेते थे कि मामला कुछ गड़बड़ ही लगता है। वरना अगर यह वाक़ई नबी होते तो आख़िर कैसे मुमकिन था कि अहले-किताब (यहूदियों और ईसाईयों) के आलिम और सरदार और बुज़ुर्ग जानते-बूझते ईमान लाने से मुँह मोड़ते और ख़ाह-मख़ाह अपना अंजाम ख़राब कर लेते। इस वजह से बनी-इसराईल की तारीख़ी दास्तान बयान करने के बाद अब उन सादा-दिल मुसलमानों से कहा जा रहा है कि जिन लोगों की पिछली रिवायात (परम्पराए) ये कुछ रही हैं, उनसे तुम कुछ बहुत ज़्यादा लंबी-चौड़ी उम्मीदें न रखो, वरना जब उनके पत्थर दिलों से तुम्हारी हक़ की दावत टकराकर वापस आएगी तो तुम्हारे दिल टूट जाएँगे। ये लोग तो सदियों के बिगड़े हुए हैं, अल्लाह की जिन आयतों को सुनकर तुम काँपने लगते हो, उन्हीं से खेलते और मज़ाक़ उड़ाते उनकी नस्लें बीत गई हैं। दीने-हक़ (सत्य-धर्म) को बिगाड़ करके ये अपनी ख़ाहिशों के मुताबिक ढाल चुके हैं और इसी बिगड़े दीन (धर्म) से ये नजात (मुक्ति) की उम्मीदें बाँधे बैठे हैं। इनसे यह उम्मीद रखना बेकार है कि सच्चाई की आवाज़ बुलन्द होते ही ये हर तरफ़ से दौड़े चले आएँगे।
87. 'एक गरोह' से मुराद उनके उलमा और शरीअत रखनेवाले लोग हैं। 'अल्लाह के कलाम' से मुराद तौरात, ज़बूर और वे दूसरी किताबें हैं, जो इन लोगों को उनके नबियों के ज़रिए से पहुँचीं। 'बदल डालने' का मतलब यह है कि बात को अस्ल मानी और मतलब से फेरकर अपनी ख़ाहिश के मुताबिक़ कुछ दूसरे मानी पहना देना, जो कहनेवाले की मंशा के ख़िलाफ़ हों। इसी तरह लफ़्ज़ों में फेर-बदल करने को भी 'बदल डालना' कहते हैं। बनी-इसराईल के उलमा ने अल्लाह के कलाम में इन दोनों तरह के फेर-बदल किए हैं।
وَإِذَا لَقُواْ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَا بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ قَالُوٓاْ أَتُحَدِّثُونَهُم بِمَا فَتَحَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ لِيُحَآجُّوكُم بِهِۦ عِندَ رَبِّكُمۡۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 73
(76) ये (अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्ल० पर) ईमान लानेवालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम भी उन्हें मानते हैं और जब आपस में एक-दूसरे से अकेले में बातचीत होती है तो कहते हैं कि बेवक़ूफ़ हो गए हो! इन लोगों को वे बातें बताते हो जो अल्लाह ने तुमपर खोली हैं, ताकि तुम्हारे रब के पास तुम्हारे मुक़ाबले में उन्हें हुज्जत (दलील) में पेश करें?88
88. यानी वे आपस में एक-दूसरे से कहते थे कि तौरात और दूसरी आसमानी किताबों में जो पेशीनगोइयाँ इस नबी के बारे में पाई जाती हैं या जो आयतें और तालीम हमारी इन पाक किताबों में ऐसी मिलती हैं जिनसे हमारे मौजूदा रवैए पर हमारी पकड़ हो सकती है, उन्हें मुसलमानों के सामने बयान न करो, वरना ये तुम्हारे रब के सामने उनको तुम्हारे ख़िलाफ़ दलील बनाकर पेश करेंगे। यह था अल्लाह के बारे में ज़ालिमों के अक़ीदे की ख़राबी का हाल, मानो वे अपने नज़दीक यह समझते थे कि अगर दुनिया में वे अपनी तहरीफ़ात (फेर-बदल) और हक़ पर परदा डालने को छिपा ले गए तो आख़िरत में उनपर मुक़द्दमा न चल सकेगा। इसी लिए बाद में ऊपर से चली आ रही बात को रोककर बीच में एक दूसरी बात कह कर उनको ख़बरदार किया गया है कि क्या तुम अल्लाह को बेख़बर समझते हो?
أَوَلَا يَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 74
(77) — और क्या ये जानते नहीं हैं कि जो कुछ ये छिपाते हैं और जो कुछ ज़ाहिर करते हैं, अल्लाह को सब बातों की ख़बर है?
وَمِنۡهُمۡ أُمِّيُّونَ لَا يَعۡلَمُونَ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّآ أَمَانِيَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَظُنُّونَ ۝ 75
(78) — इनमें एक दूसरा गरोह उम्मियों (अनपढ़ों) का है जो किताब का तो इल्म रखते नहीं, बस अपनी बेबुनियाद उम्मीदों और आरज़ुओं को लिए बैठे हैं और सिर्फ़ वहम व गुमान पर चले जा रहे हैं।89
89. यह उनके आम लोगों का हाल था। ख़ुदा की किताब के इल्म से कोरे थे। कुछ न जानते थे कि अल्लाह ने अपनी किताब में दीन (धर्म) के क्या उसूल बताए हैं, अख़लाक़ और शरीअत के क्या क़ायदे सिखाए हैं और इनसान की कामयाबी और नाकामी की बुनियाद किन चीज़ों पर रखी है। इस इल्म के बग़ैर वे अपने बनाए हुए तसव्वुरात और ख़ाहिशों के मुताबिक़ गढ़ी हुई बातों को दीन (धर्म) समझ बैठे थे और झूठी उम्मीदों पर जी रहे थे।
فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ يَكۡتُبُونَ ٱلۡكِتَٰبَ بِأَيۡدِيهِمۡ ثُمَّ يَقُولُونَ هَٰذَا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ لِيَشۡتَرُواْ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلٗاۖ فَوَيۡلٞ لَّهُم مِّمَّا كَتَبَتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَوَيۡلٞ لَّهُم مِّمَّا يَكۡسِبُونَ ۝ 76
(79) तो हलाकत और तबाही है उन लोगों के लिए जो अपने हाथों से शरअ का नविश्ता (दीन का मसौदा) लिखते हैं, फिर लोगों से कहते हैं कि यह अल्लाह के पास से आया हुआ है, ताकि इसके बदले में थोड़ा-सा फ़ायदा हासिल कर लें।90 उनके हाथों का यह लिखा भी उनके लिए तबाही का सामान है और उनकी यह कमाई भी उनके लिए तबाही का सबब।
90. यह उनके उलमा के बारे में कहा जा रहा है। उन लोगों ने सिर्फ़ इतना ही नहीं किया कि ख़ुदा के कलाम के मानी को अपनी ख़ाहिशों के मुताबिक़ बदला हो, बल्कि यह भी किया कि बाइबल में अपनी तफ़सीरों (टीकाओं) को, अपनी क़ौम की तारीख़ (इतिहास) को, अपने अंधविश्वासों और अटकलों को, अपने ख़याली फ़लसफ़ों (दर्शनों) को और अपनी समझ से गढ़े हुए शरीअत के क़ानूनों को अल्लाह के कलाम (ईशवाणी) के साथ गड्ड-मड्ड कर दिया और ये सारी चीज़ें लोगों के सामने इस हैसियत से पेश कीं मानो ये सब अल्लाह ही की तरफ़ से आई हुई हैं। हर तारीख़़ी (ऐतिहासिक) कहानी, हर मुफ़स्सिर की तफ़सीर, हर फ़लसफ़ी का ख़ुदा के बारे में अक़ीदा, हर फ़क़ीह की क़ानूनी खोज जिसने पाक किताबों के मजमूए (बाइबल) में जगह पा ली, अल्लाह का बोल (Word of God) बनकर रह गया। उस पर ईमान लाना फ़र्ज़ हो गया और उससे फिरने का मतलब दीन से फिर जाना हो गया।
وَقَالُواْ لَن تَمَسَّنَا ٱلنَّارُ إِلَّآ أَيَّامٗا مَّعۡدُودَةٗۚ قُلۡ أَتَّخَذۡتُمۡ عِندَ ٱللَّهِ عَهۡدٗا فَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ عَهۡدَهُۥٓۖ أَمۡ تَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 77
(80) वे कहते हैं कि दोज़ख़ (नरक) की आग हमें हरगिज़ छूनेवाली नहीं,सिवाय इसके कि कुछ दिन की सज़ा मिल जाए तो मिल जाए।91 इनसे पूछो, क्या तुमनें अल्लाह से कोई अह्द (वचन) ले लिया है जिसके ख़िलाफ़ वह नहीं जा सकता? या बात यह है कि तुम अल्लाह के ज़िम्मे डालकर ऐसी बातें कह देते हो जिनके बारे में तुम्हें इल्म नहीं है कि उसने उनका ज़िम्मा लिया है? आख़िर तुम्हें दोज़ख़ की आग क्यों न छुएगी?
91. यह यहूदियों की आम ग़लतफ़हमी का बयान है, जिसमें उनके आम लोग और आलिम सभी गिरफ़्तार थे। वे समझते थे कि हम चाहे जो कुछ भी करें, बहरहाल चूँकि हम यहूदी हैं, इसलिए जहन्नम की आग हम पर हराम है और अगर यह बात मान भी ली जाए कि हमको सज़ा दी जाएगी भी, तो बस कुछ दिन के लिए वहाँ भेजे जाएँगे और फिर सीधे जन्नत की तरफ़ पलटा दिए जाएँगे।
بَلَىٰۚ مَن كَسَبَ سَيِّئَةٗ وَأَحَٰطَتۡ بِهِۦ خَطِيٓـَٔتُهُۥ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 78
(81) जो भी बदी (बुराई) कमाएगा और अपनी ख़ताकारी (पापाचार) के चक्कर में रहेगा, वह दोज़ख़ है और दोज़ख़ ही में वह हमेशा रहेगा।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 79
(82) और जो लोग ईमान लाएँगे और अच्छे अमल (कर्म) करेंगे वही जन्नती हैं और जन्नत में वे हमेशा रहेंगे।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ لَا تَعۡبُدُونَ إِلَّا ٱللَّهَ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَانٗا وَذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَقُولُواْ لِلنَّاسِ حُسۡنٗا وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ ثُمَّ تَوَلَّيۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنكُمۡ وَأَنتُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 80
(83) याद करो, इसराईल की औलाद से हमने पक्का अह्द लिया था कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (बन्दगी) न करना, माँ-बाप के साथ, रिश्तेदारों के साथ, यतीमों और मुहताजों के साथ अच्छा सुलूक करना, लोगों से भली बात कहना, नमाज़ क़ायम करना और ज़कात देना, मगर थोड़े आदमियों के सिवा तुम सब इस अह्द से फिर गए और अब तक फिरे हुए हो।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ لَا تَسۡفِكُونَ دِمَآءَكُمۡ وَلَا تُخۡرِجُونَ أَنفُسَكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ ثُمَّ أَقۡرَرۡتُمۡ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ ۝ 81
(84) फिर जरा याद करो, हमने तुमसे मज़बूत अह्द लिया था कि आपस में एक-दूसरे का ख़ून न बहाना और न एक-दूसरे को घर से बेघर करना। तुमने इसका इक़रार किया था, तुम ख़ुद इसपर गवाह हो।
ثُمَّ أَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تَقۡتُلُونَ أَنفُسَكُمۡ وَتُخۡرِجُونَ فَرِيقٗا مِّنكُم مِّن دِيَٰرِهِمۡ تَظَٰهَرُونَ عَلَيۡهِم بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَإِن يَأۡتُوكُمۡ أُسَٰرَىٰ تُفَٰدُوهُمۡ وَهُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيۡكُمۡ إِخۡرَاجُهُمۡۚ أَفَتُؤۡمِنُونَ بِبَعۡضِ ٱلۡكِتَٰبِ وَتَكۡفُرُونَ بِبَعۡضٖۚ فَمَا جَزَآءُ مَن يَفۡعَلُ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ إِلَّا خِزۡيٞ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يُرَدُّونَ إِلَىٰٓ أَشَدِّ ٱلۡعَذَابِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 82
(85) मगर आज वही तुम हो कि अपने भाई-बन्धुओं को क़त्ल करते हो, अपनी बिरादरी के कुछ लोगों को बेघर कर देते हो, ज़ुल्म व ज़्यादती के साथ उनके ख़िलाफ़ जत्थेबंदियाँ (गरोहबंदियाँ) करते हो, और जब वे लड़ाई में पकड़े हुए तुम्हारे पास आते हैं तो उनकी रिहाई के लिए फ़िदया (जुर्माने) का लेन-देन करते हो, हालाँकि उन्हें उनके घरों से निकालना ही सिरे से तुमपर हराम था। तो क्या तुम किताब के एक हिस्से पर ईमान लाते हो और दूसरे हिस्से का इनकार करते हो?92 फिर तुममें से जो लोग ऐसा करें, उनकी सज़ा इसके सिवा और क्या है कि दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवा और बेइज़्ज़त होकर रहें और आख़िरत (परलोक) में निहायत सख़्त अजाब (यातना) की तरफ़ फेर दिए जाएँ? अल्लाह उन हरकतों से बेख़बर नहीं है जो तुम कर रहे हो।
92. नबी (सल्ल०) के आने से पहले मदीना के आस-पास के यहूदी क़बीलों ने अपने पड़ोसी अरब क़बीलों (औस और ख़ज़रज) से समझौता करके ताल्लुक़ात बना रखे थे। जब एक अरब क़बीला दूसरे क़बीले से जंग कर रहा होता तो दोनों के दोस्त यहूदी क़बीले भी अपने-अपने समझौतेवाले क़बीले का साथ देते और एक-दूसरे के मुक़ाबले में मैदान में आ जाते थे। यह काम साफ़ तौर पर अल्लाह की किताब के ख़िलाफ़ था और वे जानते-बूझते अल्लाह की किताब की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे थे, मगर लड़ाई के बाद जब एक यहूदी क़बीले के जंगी क़ैदी दूसरे यही क़बीले के हाथ आ जाते थे, तो जीतनेवाला क़बीला फ़िदया (अर्थदण्ड) लेकर उन्हें छोड़ता और हारनेवाला क़बीला फिदया देकर उन्हें छुड़ाता था और इस फ़िदये के लेन-देन को जाइज़ ठहराने के लिए अल्लाह की किताब से दलील पेश की जाती थी, मानो वह अल्लाह की किताब की इस इजाज़त को तो सिर-आँखों पर रखते थे कि लड़ाई के क़ैदियों को फ़िदया लेकर छोड़ा जाए, मगर इस हुक्म को ठुकरा देते थे कि आपस में लड़ाई ही न की जाए।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا بِٱلۡأٓخِرَةِۖ فَلَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 83
(86) — ये वे लोग हैं जिन्होंने आख़िरत बेचकर दुनिया की ज़िन्दगी ख़रीद ली है, इसलिए न इनकी सज़ा में कोई कमी होगी और न इन्हें कोई मदद पहुँच सकेगी।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَقَفَّيۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ بِٱلرُّسُلِۖ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ أَفَكُلَّمَا جَآءَكُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُكُمُ ٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡ فَفَرِيقٗا كَذَّبۡتُمۡ وَفَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ ۝ 84
(87) हमने मूसा को किताब दी, उसके बाद पै-दर-पै (लगातार) रसूल भेजे, आख़िर में मरयम के बेटे ईसा को रौशन निशानियाँ देकर भेजा और पाक रूह (पवित्र आत्मा) से उसकी मदद की।93 फिर यह तुम्हारा क्या ढंग है कि जब भी कोई रसूल तुम्हारे (नफ़्स) (मन) की ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ कोई चीज़ लेकर तुम्हारे पास आया तो तुमने उसके मुक़ाबले में सरकशी ही की, किसी को झुठलाया और किसी को क़त्ल कर डाला!
93. ‘रूहे-पाक’ से मुराद वह्य का इल्म है, और जिबरील भी जो वह्य लाते थे और ख़ुद हज़रत मसीह (अलैहि०) की अपनी पाकीज़ा रूह भी, जिसको अल्लाह ने क़ुदसी सिफ़तें रखनेवाला बनाया था। ‘रौशन निशानियों’ से मुराद वे खुली-खुली अलामतें हैं, जिन्हें देखकर हर सच्चाई पसन्द हक़ का तलबागर इनसान यह जान सकता था कि मसीह (अलैहि०) अल्लाह के नबी हैं।
وَقَالُواْ قُلُوبُنَا غُلۡفُۢۚ بَل لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفۡرِهِمۡ فَقَلِيلٗا مَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 85
(88) — वे कहते हैं: हमारे दिल महफ़ूज़ (सुरक्षित) हैं।94 नहीं, अस्ल बात यह है कि उनके इनकार की वजह से उनपर अल्लाह की फिटकार पड़ी है, इसलिए वे कम ही ईमान लाते हैं।
94. यानी हम अपने अक़ीदे और ख़याल में इतने पुख़्ता हैं कि तुम चाहे कुछ भी कहो, हमारे दिलों पर तुम्हारी बात का असर न होगा। यह वही बात है जो तमाम ऐसे हठधर्म लोग कहा करते हैं जिनके दिल व दिमाग़ पर जाहिलाना तास्सुब (पक्षपात) छाया हुआ होता है। वे इसे अक़ीदे की मज़बूती का नाम देकर एक ख़ूबी शुमार करते हैं। हालाँकि इससे बढ़कर आदमी के लिए कोई ऐब नहीं है कि वह अपने बाप-दादाओं से मिले हुए अक़ीदों और ख़यालों पर जम जाने का फ़ैसला कर ले, चाहे उनका ग़लत होना कितनी ही मज़बूत दलीलों से साबित कर दिया जाए।
وَلَمَّا جَآءَهُمۡ كِتَٰبٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٞ لِّمَا مَعَهُمۡ وَكَانُواْ مِن قَبۡلُ يَسۡتَفۡتِحُونَ عَلَى ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَمَّا جَآءَهُم مَّا عَرَفُواْ كَفَرُواْ بِهِۦۚ فَلَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 86
(89) — और अब जो एक किताब अल्लाह की तरफ़ से उनके पास आई है, उसके साथ उनका क्या बर्ताव है? इसके बावजूद कि वह उस किताब की तसदीक़ (पुष्टि) करती है जो उनके पास पहले से मौजूद थी, इसके बावजूद कि उसके आने से पहले वे ख़ुद कुफ़्र (सत्य का इनकार) करनेवालों के मुक़ाबले में जीत और मदद की दुआएँ माँगा करते थे, मगर जब वह चीज़ आ गई, जिसे वे पहचान भी गए, तो उन्होंने उसे मानने से इनकार कर दिया।95 ख़ुदा की लानत इन इनकार करनेवालों पर,
95. अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के आने से पहले यहूदी बेचैनी के साथ उस नबी के इन्तिज़ार में थे जिसके आने की पेशीनगोइयाँ उनके नबियों ने की थीं। वे दुआएँ माँगा करते थे कि जल्दी से यह आए तो कुफ़्र करनेवालों का ग़लबा मिटे और फिर हमारी तरक़्क़ी का दौर शुरू हो। ख़ुद मदीनावाले इस बात के गवाह थे कि नबी (सल्ल०) के आने से पहले यही उनके पड़ोसी यहूदी आनेवाले नबी की उम्मीद पर जिया करते थे और हर वक़्त उनकी ज़बान पर या बोल रहते थे कि “अच्छा, अब तो जिस-जिसका जी चाहे हमपर ज़ुल्म कर ले, जब वह नबी आएगा तो हम इन सब ज़ालिमों को देख लेंगे।” मदीनावाले ये बातें सुने हुए थे, इसी लिए जब उन्हें नबी (सल्ल०) के हालात मालूम हुए तो उन्होंने आपस में कहा कि देखना, कहीं ये यहूदी तुमसे बाज़ी न ले जाएँ। चलो, पहले हम ही इस नबी पर ईमान ले आएँ। मगर उनके लिए यह अजीब माजरा था कि वही यहूदी जो आनेवाले नबी के इन्तिज़ार में घड़ियाँ गिन रहे थे उसके आने पर सबसे बढ़कर उसके मुख़ालिफ़ बन गए। यह जो कहा कि ‘वे इसको पहचान भी गए,’ तो इसके बहुत-से सुबूत उसी जमाने में मिल गए थे। सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द गवाही उम्मुल-मोमिनीन हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) की है, जो ख़ुद एक बड़े यहूदी आलिम की बेटी और एक-दूसरे आलिम की भतीजी थीं। वे कहती हैं कि जब नबी (सल्ल०) मदीना आए तो मेरे बाप और चचा दोनों उनसे मिलने गए। बड़ी देर तक उन्होंने आप (सल्ल०) से बातें की, फिर जब घर वापस आए तो मैंने अपने कानों से उन दोनों को ये बाते करते सुना— चचा : क्या हक़ीक़त में यह वही नबी है, जिसकी ख़बरें हमारी किताबों में दी गई हैं? बाप : ख़ुदा की क़सम, हाँ! चचा : क्या तुमको इसका यक़ीन है? बाप : हाँ। चचा : फिर क्या इरादा है? बाप : जब तक जान में जान है इसकी मुख़ालफ़त करूँगा और इसकी बात चलने न दूँगा। (इब्ने-हिशाम, भाग 2, पृ.165, नया एडिशन)
بِئۡسَمَا ٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡ أَن يَكۡفُرُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بَغۡيًا أَن يُنَزِّلَ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ فَبَآءُو بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٖۚ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 87
(90) कैसा बुरा ज़रिआ है जिससे ये अपने नफ़्स की तसल्ली हासिल करते है96 कि जो हिदायत अल्लाह ने उतारी है उसको क़ुबूल करने से सिर्फ़ इस ज़िद के सबब इनकार कर रहे हैं कि अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल (वह्य और रिसालत) से अपने जिस बन्दे को ख़ुद चाहा, नवाज़ दिया।97 इसलिए अब ये ग़ज़ब पर ग़ज़ब के हक़दार हो गए हैं और ऐसे इनकारियों के लिए सख़्त रुसवाकुन (अपमानजनक) सज़ा मुक़र्रर है।
96. इस आयत का दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है, “ कैसी बुरी चीज़ है, जिसके लिए अपनी जानों को बेच डाला” यानी अपनी कामयाबी, ख़ुशनसीबी और अपनी नजात (मुक्ति) को उन्होंने क़ुरबान कर दिया।
97. ये (यहूदी) चाहते थे कि आनेवाला नबी उनकी अपनी क़ौम में पैदा हो, मगर जब वह एक दूसरी क़ौम में पैदा हुआ, जिसे वे अपने मुक़ाबले में नीचा समझते थे, तो वे उसके इनकार पर उतर आए, मानो उनका मतलब यह था कि अल्लाह उनसे पूछकर पैग़म्बर भेजता। जब उसने उनसे न पूछा और अपनी मेहरबानी से ख़ुद जिसे चाहा पैग़म्बर बना दिया, तो वे बिगड़ बैठे।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ ءَامِنُواْ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ نُؤۡمِنُ بِمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَيَكۡفُرُونَ بِمَا وَرَآءَهُۥ وَهُوَ ٱلۡحَقُّ مُصَدِّقٗا لِّمَا مَعَهُمۡۗ قُلۡ فَلِمَ تَقۡتُلُونَ أَنۢبِيَآءَ ٱللَّهِ مِن قَبۡلُ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 88
(91) जब उनसे कहा जाता है कि जो कुछ अल्लाह ने उतारा है उसपर ईमान लाओ तो वे कहते हैं, ” हम तो सिर्फ़ उस चीज़ पर ईमान लाते हैं जो हमारे यहाँ (यानी इसराईल की नस्ल में) उतरी है।” इस दायरे के बाहर जो कुछ आया है उसे मानने से वे इनकार करते हैं, हालाँकि वह हक़ है और उस तालीम (शिक्षा) की तसदीक़ (पुष्टि) और ताईद (समर्थन) कर रहा है जो उनके यहाँ पहले से मौजूद थी। अच्छा, उनसे कहो, अगर तुम उस तालीम ही पर ईमान रखनेवाले हो जो तुम्हारे पास आई थी, तो उससे पहले अल्लाह के उन पैग़म्बरों को (जो ख़ुद बनी-इसराईल में पैदा हुए थे) क्यों कत्ल करते रहे।
۞وَلَقَدۡ جَآءَكُم مُّوسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ ٱتَّخَذۡتُمُ ٱلۡعِجۡلَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَنتُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 89
(92) तुम्हारे पास मूसा कैसी-कैसी रौशन निशानियों के साथ आया, फिर भी तुम ऐसे ज़ालिम थे कि उसके पीठ मोड़ते ही बछड़े को माबूद (पूज्य) बना बैठे।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ وَرَفَعۡنَا فَوۡقَكُمُ ٱلطُّورَ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱسۡمَعُواْۖ قَالُواْ سَمِعۡنَا وَعَصَيۡنَا وَأُشۡرِبُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡعِجۡلَ بِكُفۡرِهِمۡۚ قُلۡ بِئۡسَمَا يَأۡمُرُكُم بِهِۦٓ إِيمَٰنُكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 90
(93) फिर ज़रा उस मीसाक़ (वचन) को याद करो जो तूर को तुम्हारे ऊपर उठाकर हमने तुमसे लिया था। हमने ताकीद की थी कि जो हिदायतें हम दे रहे हैं उनकी सख़्ती के साथ पाबन्दी करो और कान लगाकर सुनो। तुम्हारे बुज़ुर्गों ने कहा कि हमने सुन लिया, मगर माना नहीं। और उनकी बातिलपरस्ती (असत्यवादिता) का यह हाल था कि उनके दिलों में बछड़ा ही बसा हुआ था। कहो : अगर तुम ईमानवाले हो तो यह अजीब ईमान है, जो ऐसी बुरी हरकतों का तुम्हें हुक्म देता है।
قُلۡ إِن كَانَتۡ لَكُمُ ٱلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ عِندَ ٱللَّهِ خَالِصَةٗ مِّن دُونِ ٱلنَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 91
(94) इनसे कहो कि अगर वाक़ई अल्लाह के नज़दीक आख़िरत का घर तमाम इनसानों को छोड़कर सिर्फ़ तुम्हारे ही लिए ख़ास है तब तो तुम्हें चाहिए कि मौत की तमन्ना करो98, अगर तुम अपने इस ख़याल में सच्चे हो
98. यह एक तारीज़ (व्यंग्य) और निहायत लतीफ़ तारीज़ है उनकी दुनिया-परस्ती पर। जिन लोगा को वाक़ई आख़िरत के घर से कोई लगाव होता है, वे दुनिया पर मरे नहीं जाते और न मौत से डरते हैं, मगर यहूदियों का हाल इसके ख़िलाफ़ था और है।
وَلَن يَتَمَنَّوۡهُ أَبَدَۢا بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 92
(95) – यक़ीन जानो ये कभी इसकी तमन्ना न करेंगे, इसलिए कि अपने हाथों जो कुछ कमाकर इन्होंने वहाँ भेजा है उसका तक़ाज़ा यही है (कि ये वहाँ जाने की तमन्ना न करें), अल्लाह इन ज़ालिमों के हाल को अच्छी तरह जानता है।
وَلَتَجِدَنَّهُمۡ أَحۡرَصَ ٱلنَّاسِ عَلَىٰ حَيَوٰةٖ وَمِنَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۚ يَوَدُّ أَحَدُهُمۡ لَوۡ يُعَمَّرُ أَلۡفَ سَنَةٖ وَمَا هُوَ بِمُزَحۡزِحِهِۦ مِنَ ٱلۡعَذَابِ أَن يُعَمَّرَۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 93
(96) तुम इन्हें सबसे बढ़कर जीने का लालची (लोभी)99 पाओगे, यहाँ तक कि ये इस मामले में मुशरिकों (बहुदेववादियों) से भी बढ़े हुए हैं। इनमें से एक-एक आदमी यह चाहता है कि किसी तरह हज़ार बरस जिए, हालाँकि लम्बी उम्र कभी भी उसे अज़ाब से तो दूर नहीं फेंक सकती। जैसे कुछ आमाल (कर्म) ये कर रहे हैं, अल्लाह तो उन्हें देख ही रहा है।
99. मूल अरबी में ‘अला हयातिन' के अलफ़ाज़ आए हैं, जिनका मतलब है- 'किसी-न-किसी तरह की ज़िन्दगी।’ यानी इन्हें सिर्फ़ इस दुनिया की ज़िन्दगी का लालच है, चाहे वह किसी तरह की ज़िन्दगी हो, इज़्ज़त और शराफ़त की हो या रुसवाई और कमीनेपन की।
قُلۡ مَن كَانَ عَدُوّٗا لِّـجِبۡرِيلَ فَإِنَّهُۥ نَزَّلَهُۥ عَلَىٰ قَلۡبِكَ بِإِذۡنِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَهُدٗى وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 94
(97) इनसे कहो कि जो कोई जिबरील से दुश्मनी रखता हो100 उसे मालूम होना चाहिए कि जिबरील ने अल्लाह ही के हुक्म से यह क़ुरआन तुम्हारे दिल पर उतारा है।101 जो पहले आई किताबों की तसदीक़ (पुष्टि) और ताईद (समर्थन) करता है।102 और ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और कामयाबी की ख़ुशख़बरी बनकर आया है।103
100. यहूदी सिर्फ़ नबी (सल्ल०) को और आप पर ईमान लानेवालों ही को बुरा न कहते थे, बल्कि अल्लाह के पसन्दीदा और चुने हुए फ़रिश्ते जिबरील को भी गालियाँ देते थे और कहते थे कि वह हमारा दुश्मन है, वह रहमत का नहीं, अज़ाब का फ़रिश्ता है।
101. यानी इस तरह से तुम्हारी (यानी यहूदियों की) गालियाँ जिबरील पर नहीं, बल्कि अज़ीम और बरतर ख़ुदा की हस्ती पर पड़ती हैं।
102. मतलब यह है कि ये गालियाँ तुम इसी लिए तो देते हो कि जिबरील यह क़ुरआन लेकर आया है, और हाल यह है कि यह क़ुरआन पूरे तौर पर तौरात की ताईद में है। इसलिए तुम्हारी गालियों में तौरात भी हिस्सेदार हुई।
103. इसमें लतीफ़ (सूक्ष्म) इशारा है इस बात की तरफ़ कि नादानो! अस्ल में तुम्हारी सारी नाराज़ी हिदायत और सीधे रास्ते के ख़िलाफ़ है। तुम लड़ रहे हो उस सही रहनुमाई के ख़िलाफ़, जिसे अगर सीधी तरह मान लो तो तुम्हारे ही लिए कामयाबी की ख़ुशख़बरी हो।
مَن كَانَ عَدُوّٗا لِّلَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَرُسُلِهِۦ وَجِبۡرِيلَ وَمِيكَىٰلَ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَدُوّٞ لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 95
(98) (अगर जिबरील से इनकी दुश्मनी की वजह यही है तो कह दो कि) जो अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिबरील और मीकाईल के दुश्मन हैं, अल्लाह उन इनकार करनेवाले विरोधियों का दुश्मन है।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ وَمَا يَكۡفُرُ بِهَآ إِلَّا ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 96
(99) हमने तुम्हारी तरफ़ ऐसी आयतें उतारी हैं जो साफ़-साफ़ हक़ को ज़ाहिर करनेवाली हैं, और उनकी पैरवी से सिर्फ़ वही लोग इनकार करते हैं जो फ़ासिक़ (नाफ़रमान) हैं।
أَوَكُلَّمَا عَٰهَدُواْ عَهۡدٗا نَّبَذَهُۥ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 97
(100) क्या हमेशा ऐसा ही नहीं होता रहा है कि जब उन्होंने कोई अह्द (वचन) किया तो उनमें से एक-न-एक गरोह ने उसे ज़रूर ही पीठ-पीछे डाल दिया? बल्कि इनमें से ज़्यादा तर ऐसे ही हैं, जो सच्चे दिल से ईमान नहीं लाते।
وَلَمَّا جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُصَدِّقٞ لِّمَا مَعَهُمۡ نَبَذَ فَرِيقٞ مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ كِتَٰبَ ٱللَّهِ وَرَآءَ ظُهُورِهِمۡ كَأَنَّهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 98
(101) और जब इनके पास अल्लाह की तरफ़ से कोई रसूल उस किताब की तसदीक़ (पुष्टि) और ताईद करता हुआ आया, जो इनके पास पहले से मौजूद थी, तो इन अहले-किताब में से एक गरोह ने अल्लाह की किताब को इस तरह पीठ-पीछे डाला कि मानो वे कुछ जानते ही नहीं।
وَٱتَّبَعُواْ مَا تَتۡلُواْ ٱلشَّيَٰطِينُ عَلَىٰ مُلۡكِ سُلَيۡمَٰنَۖ وَمَا كَفَرَ سُلَيۡمَٰنُ وَلَٰكِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ كَفَرُواْ يُعَلِّمُونَ ٱلنَّاسَ ٱلسِّحۡرَ وَمَآ أُنزِلَ عَلَى ٱلۡمَلَكَيۡنِ بِبَابِلَ هَٰرُوتَ وَمَٰرُوتَۚ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنۡ أَحَدٍ حَتَّىٰ يَقُولَآ إِنَّمَا نَحۡنُ فِتۡنَةٞ فَلَا تَكۡفُرۡۖ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنۡهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِۦ بَيۡنَ ٱلۡمَرۡءِ وَزَوۡجِهِۦۚ وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِۦ مِنۡ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمۡ وَلَا يَنفَعُهُمۡۚ وَلَقَدۡ عَلِمُواْ لَمَنِ ٱشۡتَرَىٰهُ مَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖۚ وَلَبِئۡسَ مَا شَرَوۡاْ بِهِۦٓ أَنفُسَهُمۡۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 99
(102) और लगे उन चीज़ों की पैरवी करने जो सुलैमान की सल्तनत का नाम लेकर शैतान पेश किया करते थे।104 हालाँकि सुलैमान ने कभी कुफ़्र (अधर्म एवं इनकार) नहीं किया, कुफ़्र करनेवाले तो वे शैतान थे जो लोगों को जादूगरी की तालीम (शिक्षा) देते थे। वे पीछे पड़े उस चीज़ के जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत और मारूत, पर उतारी गई थी, हालाँकि वे (फ़रिश्ते) जब भी किसी को उसकी तालीम देते थे तो पहले साफ़ तौर पर आगाह कर दिया करते थे कि “देख, हम सिर्फ़ एक आज़माइश है, तू कुफ़्र (अधर्म) में न पड़।"105 फिर भी ये लोग उनसे वह चीज़ सीखते थे जिससे शौहर और बीवी में जुदाई डाल दें।106 ज़ाहिर था कि अल्लाह की मरज़ी के बिना वे इस ज़रिए से किसी को भी नुक़सान न पहुँचा सकते थे, मगर इसके बावजूद वे ऐसी चीज़ सीखते थे जो ख़ुद उनके लिए फ़ायदेमन्द नहीं, बल्कि नुक़सानदेह थी और उन्हें ख़ूब मालूम था कि जो इस चीज़ का ख़रीदार बना, उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। कितना बुरा सामान था जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों को बेच डाला काश, उन्हें मालूम होता!
104. शैतानों से मुराद जिन्न शैतान और इनसानी शैतान दोनों हो सकते हैं और दोनों ही यहाँ मुराद हैं। जब बनी-इसराईल पर अख़लाक़ी और माद्दी (आर्थिक) गिरावट का दौर आया और ग़ुलामी और मुहताजी, रुसवाई और जहालत, ग़रीबी और पस्ती ने उनके अंदर कोई बुलन्द हौसला और ऊँचा इरादा बाक़ी न छोड़ा तो उनका ध्यान जादू-टोने, झाड़-फूँक, तिलिस्म, अमलियात और तावीज़-गंडों की तरफ़ खिंचने लगा। वे ऐसी तदबीर तलाश करने लगे जिनसे किसी मेहनत और जिद्दो-जुह्द के बिना सिर्फ़ फूँकों और मंत्रों के बल पर सारे काम बन जाया करें। उस वक़्त शैतानों ने उनको बहकाना शुरू किया कि सुलैमान (अलैहि०) की शानदार हुकूमत और उनकी हैरतअंगेज़ ताक़तें तो सब कुछ चन्द लकीरों और मंत्रों का नतीजा थीं और वे हम तुम्हें बताए देते हैं। इसलिए ये लोग बग़ैर उम्मीद के मिल जानेवाली नेमत समझकर इन चीज़ों पर टूट पड़े और फिर न अल्लाह की किताब से उनको कोई दिलचस्पी रही और न हक़ की तरफ़ बुलानेवाले की आवाज़ उन्होंने सुनी।
105. इस आयत का मतलब क्या है? इस बारे में उलमा ने बहुत-सी बातें कही हैं, मगर जो कुछ मैंने समझा है वह यह है कि जिस ज़माने में बनी-इसराईल की पूरी क़ौम बाबिल में क़ैदी और ग़ुलाम बनी हुई थी, अल्लाह तआला ने दो फ़रिश्तों को इनसानी शक्ल में उनकी आज़माइश के लिए भेजा होगा। जिस तरह हज़रत लूत (अलैहि०) की क़ौम के पास फ़रिश्ते ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में गए थे, उसी तरह इन इसराईलियों के पास वे पीरों और फ़क़ीरों की शक्ल में गए होंगे। वहाँ एक तरफ़ उन्होंने जादूगरी के बाज़ार में अपनी दुकान लगाई होगी और दूसरी तरफ़ वे हुज्जत पूरी करने के लिए हरेक को ख़बरदार भी कर देते होंगे कि देखो, हम तुम्हारे लिए वे आज़माइश की हैसियत रखते हैं, तुम अपनी आख़िरत ख़राब न करो। मगर इसके बावजूद लोग उनकी पेश की हुई अमलियात (तांत्रिक कार्यो), लकीरों और तावीज़-गंडों पर टूटे पड़ते होंगे। फ़रिश्तों के इनसानी शक्ल में आकर काम करने पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए, वे अल्लाह की हुकूमत के कारिन्दे हैं। उन्हें जो ज़िम्मेदारियाँ सिपुर्द की गई हैं उनको पूरा करने में जिस वक़्त जो सूरत अपनाने की ज़रूरत होती है, वे उसे अपना सकते हैं। हमें क्या ख़बर कि इस वक़्त भी हमारे आस-पास कितने फ़रिश्ते इनसानी शक्ल में आकर काम कर जाते होंगे। रहा फ़रिश्तों का एक ऐसी चीज़ सिखाना जो अपने आप में बुरी थी, तो इसकी मिसाल ऐसी है जैसे पुलिस के बेवर्दी सिपाही किसी घूसख़ोर हाकिम को निशान लगे सिक्के और नोट ले जाकर घूस के तौर पर देते हैं, ताकि उसे ठीक उस वक़्त (रंगे हाथों) पकड़ें जबकि वह जुर्म कर रहा हो और उसके लिए बेगुनाही का बहाना करने की गुंजाइश बाक़ी न रहने दें।
106. मतलब यह है कि इस मंडी में सबसे ज़्यादा जिस चीज़ की माँग थी, वह यह थी कि कोई ऐसा अमल या तावीज़ मिल जाए जिससे एक आदमी दूसरे की बीवी को उससे तोड़कर अपने ऊपर आशिक़ कर ले। अख़लाक़ी गिरावट की यह वह आख़िरी हद थी, जिसमें वे लोग गिरफ़्तार हो चुके थे। पस्त-अख़लाक़ी (नैतिकता की गिरावट) का इससे ज़्यादा नीचा मर्तबा और कोई नहीं हो सकता कि एक क़ौम के लोगों का सबसे ज़्यादा दिलचस्प काम पराई औरतों से आँख लड़ाना हो जाए और किसी शादी-शुदा औरत को उसके शौहर से तोड़कर अपना बना लेने को वे अपनी सबसे बड़ी जीत समझने लगें। शौहर-बीवी का ताल्लुक़ हक़ीक़त में इनसानी तहज़ीब (सभ्यता) की जड़ है। औरत और मर्द के ताल्लुक़ के ठीक होने पर पूरी इनसानी तहज़ीब के ठीक होने और उसकी ख़राबी पर पूरी इनसानी तहज़ीब के ख़राब होने का दारोमदार है। इसलिए वह आदमी बदतरीन फ़सादी है जो उस पेड़ की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाता हो जिसके क़ायम रहने पर ख़ुद उसका और पूरी सोसाइटी के क़ायम रहने का दारोमदार है। हदीस में आता है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि इबलीस अपने मर्कज़ (सेंटर) से धरती के हर कोने में अपने एजेंट भेजा करता है। फिर वे एजेंट वापस आकर अपनी-अपनी कार्रवाइयाँ सुनाते हैं। कोई कहता है मैंने फ़ुलाँ फ़ितना पैदा किया है: कोई कहता है कि मैंने फ़ुलाँ बुराई पैदा की; मगर इबलीस हर एक से कहता जाता है कि तुमने कुछ न किया। फिर एक आता है और बताता है कि मैं एक औरत और उसके शौहर में जुदाई डाल आया हूँ। यह सुनकर इबलीस उसको गले लगा लेता है और कहता है कि तू काम करके आया है। इस हदीस पर विचार करने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि बनी-इसराईल की आज़माइश के लिए जो फ़रिश्ते भेजे गए थे, उन्हें क्यों हुक्म दिया गया कि औरत और मर्द के बीच जुदाई डालने का ‘अमल’ उनके सामने पेश करें। अस्ल में यही एक ऐसी कसौटी थी, जिससे उनकी अख़लाक़ी गिरावट को ठीक-ठीक नापा जा सकता था।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَمَثُوبَةٞ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ خَيۡرٞۚ لَّوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 100
(103) अगर वे ईमान और तक़वा (परहेज़गारी) अपनाते तो अल्लाह के पास उसका जो बदला मिलता, वह उनके लिए ज़्यादा बेहतर था। काश, उन्हें ख़बर होती!
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقُولُواْ رَٰعِنَا وَقُولُواْ ٱنظُرۡنَا وَٱسۡمَعُواْۗ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 101
(104) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो!107 ‘राइना' न कहा करो, बल्कि ‘उनज़ुरना' कहो और ध्यान से बात को सुनो108,, ये इनकार करनेवाले तो दर्दनाक अज़ाब के हक़दार हैं।
107. इस रुकू (परिच्छेद) और इसके बादवाले रुकू में नबी (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को उन शरारतों से ख़बरदार किया गया है जो इस्लाम और इस्लामी जमाअत के ख़िलाफ़ यहूदियों की तरफ़ से की जा रही थीं, उन शक और शुब्हाों के जवाब दिए गए हैं जो ये लोग मुसलमानों के दिलों में पैदा करने की कोशिश करते थे और उन ख़ास-ख़ास पॉइंट्स पर बात की गई है जो मुसलमानों के साथ यहूदियों की बातचीत में छिड़ जाया करते थे। इस मौक़े पर यह बात नज़र में रखनी चाहिए कि जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुँचे और आस-पास के इलाक़ों में इस्लाम की दावत फैलनी शुरू हुई, तो यहूदी जगह-जगह मुसलमानों को मज़हबी बहसों में उलझाने की कोशिश करते थे। बाल की खाल निकालने की अपनी आदत, शक और सन्देह पैदा करने और सवाल में से सवाल निकालने की बीमारी उन सीधे और सच्चे लोगों को भी लगाना चाहते थे और ख़ुद नबी (सल्ल०) की मजलिस में आकर फ़रेब और मक्कारी भरी बातें करके अपनी घटिया दरजे की ज़ेहनियत का सुबूत दिया करते थे।
108. यहूदी जब नबी (सल्ल०) की मजलिस में आते तो अपने सलाम और कलाम (बातचीत) में हर मुमकिन तरीक़े से अपने दिल का बुख़ार निकालने की कोशिश करते थे। ऐसे लफ़्ज़ बोलते जिनके कई मतलब हो सकते। ज़ोर से कुछ कहते और मुँह ही मुँह में कुछ और कह देते और ज़ाहिरी अदब-आदाब बरकरार रखते हुए ख़ुफ़िया तौर पर आपकी तौहीन करने में कोई कसर न उठा रखते थे। क़ुरआन में आगे चलकर इसकी बहुत-सी मिसालें बयान की गई है। यहाँ जिस ख़ास लफ़्ज़ के इस्तेमाल से मुसलमानों को रोका गया है, यह एक ऐसा लफ़्ज़ था, जिसके कई मतलब हो सकते थे। जब नबी (सल्ल०) की बातचीत के दौरान में यहूदियों को कभी यह कहने की ज़रूरत पेश आती कि ठहरिए, ज़रा हमें यह बात समझ लेने दीजिए, तो वे 'राइना' कहते थे। इस लफ़्ज़ का ज़ाहिरी मतलब तो यह था कि ज़रा हमारी रिआयत कीजिए या हमारी बात सुन लीजिए, मगर इसमें कई पहलुओं से बुरे मतलब भी निकलते थे, जैसे इब्रानी में इससे मिलता-जुलता एक लफ़्ज़ था, जिसका मतलब था, 'सुन, तू बहरा हो जाए' और ख़ुद अरबी में इसके एक मानी घमण्डी, जाहिल और बेवक़ूफ़ के भी थे और बातचीत में यह ऐसे मौक़े पर भी बोला जाता था जब यह कहना हो कि तुम हमारी सुनो, तो हम तुम्हारी सुनें और ज़रा ज़बान को लचका देकर ‘राईना' भी बना लिया जाता था, जिसका मतलब होता ‘ऐ हमारे चरवाहे'। इसलिए मुसलमानों को हुक्म दिया गया कि तुम इस लफ़्ज़ के इस्तेमाल से बचो और इसके बदले 'उनज़ुरना' कहा करो। यानी हमारी तरफ़ तवज्जोह कीजिए या ज़रा हमें समझ लेने दीजिए। फिर कहा कि 'ध्यान से बात को सुनो' यानी यहूदियों को तो बार-बार यह कहने की ज़रूरत इसलिए पड़ती है कि वे नबी की बात पर ध्यान नहीं देते और उनकी बातचीत के दौरान वे अपने ही ख़यालों में उलझते रहते हैं, मगर तुम्हें ग़ौर से नबी की बातें सुननी चाहिएँ, ताकि यह कहने की ज़रूरत ही न पड़े।
مَّا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ وَلَا ٱلۡمُشۡرِكِينَ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ خَيۡرٖ مِّن رَّبِّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَخۡتَصُّ بِرَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 102
(105) ये लोग, जिन्होंने हक़ के पैग़ाम को क़ुबूल करने से इनकार कर दिया है, चाहे अहले-किताब में से हों या मुशरिक हों, हरगिज़ यह पसन्द नहीं करते कि तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर कोई भलाई, उतरे, मगर अल्लाह जिसको चाहता है अपनी रहमत के लिए चुन लेता है और वह बड़ा फ़ज़्ल (अनुग्रह) करनेवाला है।
۞مَا نَنسَخۡ مِنۡ ءَايَةٍ أَوۡ نُنسِهَا نَأۡتِ بِخَيۡرٖ مِّنۡهَآ أَوۡ مِثۡلِهَآۗ أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 103
(106) हम अपनी जिस आयत को मंसूख़ (निरस्त) कर देते हैं या भुला देते हैं, उसकी जगह उससे बेहतर लाते हैं या कम-से-कम वैसी ही।109
109. यह एक ख़ास शुब्हाे का जवाब है, जो यहूदी मुसलमानों के दिलों में डालने की कोशिश करते थे। उनका एतिराज़ यह था कि अगर पिछली किताबें भी अल्लाह की तरफ़ से आई थीं और यह क़ुरआन भी अल्लाह की तरफ़ से है, तो उनके कुछ हुक्मों की जगह इसमें दूसरे हुक्म क्यों दे दिए गए हैं? एक ही ख़ुदा की तरफ़ से अलग वक़्तों में अलग हुक्म कैसे हो सकते हैं? फिर तुम्हारा क़ुरआन यह दावा करता है कि यहूदी और ईसाई उस तालीम के एक हिस्से को भूल गए, जो उन्हें दी गई थी। आख़िर यह कैसे हो सकता है कि अल्लाह की दी हुई तालीम हो और वह याददाश्तों से मिट जाए। ये सारी बातें वे तहक़ीक़ के मक़सद से नहीं, बल्कि इसलिए करते थे कि मुसलमानों को इस बात में शक व शुब्हा हो जाए कि क़ुरआन अल्लाह की तरफ़ से आया है। इसके जवाब में अल्लाह कहता है कि मैं मालिक हूँ, मेरे इख़्तियार ग़ैर-महदूद (असीमित) हैं, अपने जिस हुक्म को चाहूँ, रद्द कर दूँ और जिस चीज़ को चाहूँ, याददाश्तों से मिटा दूँ। मगर जिस चीज़ को मैं रद्द करता या मिटाता हूँ, उससे बेहतर चीज़ उसकी जगह पर लाता हूँ या कम-से-कम वह अपने मौक़े पर उतनी ही फ़ायदेमन्द और मुनासिब होती है, जितनी पहली चीज़ अपने मौक़े पर थी।
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 104
(107) क्या तुम जानते ही हो कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है? क्या तुम्हें ख़बर नहीं है कि ज़मीन और आसमानों की फ़रमाँरवाई (शासन) अल्लाह ही के लिए और उसके सिवा कोई तुम्हारी देखभाल और मदद करनेवाला नहीं है?
أَمۡ تُرِيدُونَ أَن تَسۡـَٔلُواْ رَسُولَكُمۡ كَمَا سُئِلَ مُوسَىٰ مِن قَبۡلُۗ وَمَن يَتَبَدَّلِ ٱلۡكُفۡرَ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 105
(108) फिर क्या तुम अपने रसूल से उस तरह के सवाल और मुतालबे (माँग) करना चाहते हो, जैसे इससे पहले मूसा से किए जा चुके हैं।110 हालाँकि जिस आदमी ने ईमान की रविश (नीति) को कुफ़्र की रविश (नीति) से बदल लिया, वह सीधे रास्ते से भटक गया।
110. यहूदी बाल की खाल निकाल-निकाल करके तरह-तरह के सवाल मुसलमानों के सामने रखते थे और उन्हें उकसाते थे कि अपने नबी से यह पूछो और यह पूछो और यह पूछो। इसपर अल्लाह मुसलमानों को ख़बरदार कर रहा है कि इस मामले में यहूदियों का रवैया अपनाने से बचो। इसी चीज़ पर नबी (सल्ल०) ख़ुद भी मुसलमानों को बार-बार ख़बरदार किया करते थे कि बिला वजह के सवाल से और बाल की खाल निकालने से पिछली उम्मतें तबाह हो चुकी हैं, तुम इससे बचो। जिन सवालों को अल्लाह और उसके रसूल ने नहीं छेड़ा, उनकी खोज में न लगो। बस जो हुक्म तुमको दिया जाता है उसकी पैरवी करो और जिन बातों से मना किया जाता है। उनसे रुक जाओ। बेकार की बातें छोड़कर काम की बातों पर ध्यान लगाओ!
وَدَّ كَثِيرٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَوۡ يَرُدُّونَكُم مِّنۢ بَعۡدِ إِيمَٰنِكُمۡ كُفَّارًا حَسَدٗا مِّنۡ عِندِ أَنفُسِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡحَقُّۖ فَٱعۡفُواْ وَٱصۡفَحُواْ حَتَّىٰ يَأۡتِيَ ٱللَّهُ بِأَمۡرِهِۦٓۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 106
(109) अहले-किताब में से अकसर लोग यह चाहते हैं कि किसी तरह तुम्हें ईमान से फेरकर फिर कुफ़्र की तरफ़ पलटा ले जाएँ। हालाँकि हक़ उनपर ज़ाहिर हो चुका है, मगर अपने नफ़्स के हसद (ईष्या) की बिना पर तुम्हारे लिए उनकी यह ख़ाहिश है। इसके जवाब में तुम माफ़ी और दरगुज़र से काम लो।111 यहाँ तक कि अल्लाह ख़ुद ही अपना फ़ैसला लागू कर दे। इत्मीनान रखो कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
111. यानी उनकी दुश्मनी, और जलन को देखकर भड़को नहीं, अपना तवाज़ुन (सन्तुलन) न खो बैठो। इनसे बहसें और मुनाज़रे (शास्त्रार्थ) करने और झगड़ने में अपने क़ीमती वक़्त और अपने वक़ार को बरबाद न करो। सब्र के साथ देखते रहो कि अल्लाह क्या करता है। बेकार की बातों में अपनी ताक़त लगाने के बजाय अल्लाह का ज़िक्र और भलाई के कामों में उन्हें लगाओ कि यह अल्लाह के यहाँ काम आनेवाली चीज़ है, न कि वह।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَۚ وَمَا تُقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُم مِّنۡ خَيۡرٖ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 107
(110) नमाज क़ायम करो और ज़कात दो। तुम अपनी आक़िबत (परलोक) के लिए जो भलाई कमाकर आगे भेजोगे, अल्लाह के पास उसे मौजूद पाओगे। जो कुछ तुम करते हो, वह सब अल्लाह की नज़र में है।
وَقَالُواْ لَن يَدۡخُلَ ٱلۡجَنَّةَ إِلَّا مَن كَانَ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰۗ تِلۡكَ أَمَانِيُّهُمۡۗ قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 108
(111) उनका कहना है कि कोई आदमी जन्नत में न जाएगा, जब तक कि वह यहूदी न हो या (ईसाइयों के ख़याल के मुताबिक़) ईसाई न हो। ये उनकी तमन्नाएँ हैं।112 उनसे कहो, अपनी दलील पेश करो, अगर तुम अपने दावे में सच्चे हो।
112. यानी अस्ल में ये हैं तो उनके दिल की ख़ाहिशें और तमन्नाएँ, मगर वे इन्हें बयान इस तरह कर रहे हैं कि मानो सचमुच यही कुछ होनेवाला है।
بَلَىٰۚ مَنۡ أَسۡلَمَ وَجۡهَهُۥ لِلَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ فَلَهُۥٓ أَجۡرُهُۥ عِندَ رَبِّهِۦ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 109
(112) अस्ल में न तुम्हारी कुछ ख़ुसूसियत है, न किसी और की। हक़ यह है कि जो भी अपनी हस्ती को अल्लाह की फ़रमाँबरदारी में सौंप दे और अमली तौर पर नेक रवैया अपनाए, उसके लिए उसके रब के पास उसका बदला है और ऐसे लोगों के लिए किसी डर या रंज का कोई मौक़ा नहीं
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ لَيۡسَتِ ٱلنَّصَٰرَىٰ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَقَالَتِ ٱلنَّصَٰرَىٰ لَيۡسَتِ ٱلۡيَهُودُ عَلَىٰ شَيۡءٖ وَهُمۡ يَتۡلُونَ ٱلۡكِتَٰبَۗ كَذَٰلِكَ قَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ مِثۡلَ قَوۡلِهِمۡۚ فَٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 110
(113) यहूदी कहते हैं : ईसाइयों के पास कुछ नहीं। ईसाई कहते हैं : यहूदियों के पास कुछ नहीं हालाँकि दोनों ही किताब पढ़ते हैं— और इसी तरह के दावे उन लोगो के भी हैं जिनके पास किताब का इल्म नहीं है।113 ये इख़्तिलाफ़ (मतभेद) जिनमें ये लोग पड़े हुए हैं, इनका फ़ैसला अल्लाह क़ियामत के दिन कर देगा।
113. यानी अरब के मुशरिक (अनेकेश्वरवादी)।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن مَّنَعَ مَسَٰجِدَ ٱللَّهِ أَن يُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ وَسَعَىٰ فِي خَرَابِهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ مَا كَانَ لَهُمۡ أَن يَدۡخُلُوهَآ إِلَّا خَآئِفِينَۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 111
(114) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की इबादतगाहों में उसके नाम की याद से रोके और उनको उजाड़ने पर उतारू हो? ऐसे लोग इस क़ाबिल हैं कि उन इबादतगाहों में क़दम न रखें और अगर वहाँ जाएँ भी तो डरते हुए जाएँ।114 इनके लिए तो दुनिया में रुसवाई (अपमान) है और आख़िरत में बड़ा अज़ाब।
114. यानी बजाय इसके कि इबादतगाहें इस तरह के ज़ालिम लोगों के क़ब्ज़े और इख़्तियार में हों और ये उनके मुतवल्ली (ज़िम्मेदार) हों, होना यह चाहिए कि ख़ुदापरस्त और ख़ुदा से डरनेवाले लोगों के हाथ में इख़्तियार हो और वही इबादतगाहों के ज़िम्मेदार रहें, ताकि ये शरारती लोग अगर वहाँ जाएँ भी, तो उन्हें डर हो कि अगर वे शरारत करेंगे तो सज़ा पाएँगे। — यहाँ एक हल्का-सा इशारा मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के उस ज़ुल्म की तरफ़ भी है कि उन्होंने अपनी क़ौम के उन लोगों को जो इस्लाम ला चुके थे, बैतुल्लाह (अल्लाह के घर) में इबादत करने से रोक दिया था।
وَلِلَّهِ ٱلۡمَشۡرِقُ وَٱلۡمَغۡرِبُۚ فَأَيۡنَمَا تُوَلُّواْ فَثَمَّ وَجۡهُ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 112
(115) पूरब और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। जिस तरफ़ भी तुम रुख़़ करोगे, उसी तरफ़ अल्लाह का रुख़़ है।115 अल्लाह बड़ी समाईवाला (सर्वव्यापी) और सब कुछ जाननेवाला है।116
115. यानी अल्लाह न पूरबी है, न पश्चिमी। वह तमाम सम्तों (दिशाओं) और जगहों का मालिक है, मगर ख़ुद किसी सम्त या किसी एक जगह में रहने का पाबन्द नहीं है, इसलिए उसकी इबादत के लिए किसी सम्त या जगह को मुक़र्रर् करने के मानी ये नहीं हैं कि अल्लाह वहाँ या उस तरफ़ रहता है और न कोई झगड़ने और बहस करने की बात है कि पहले तुम वहाँ या उस तरफ़ इबादत करते थे, अब तुमने इस जगह या सम्त को क्यों बदल दिया।
116. यानी अल्लाह महदूद (सीमित), तंगदिल, तंगनज़र और तंगदस्त नहीं है, जैसा कि तुम लोगों ने अपने ऊपर गुमान करके उसे समझ रखा है, बल्कि उसकी ख़ुदाई भी हर तरफ़ फैली हुई है और उसकी नज़र और मेहरबानी का दायरा भी फैला हुआ है। और वह यह भी जानता है कि उसका कौन-सा बन्दा कहाँ, किस वक़्त, किस इरादे से उसको याद कर रहा है।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱللَّهُ وَلَدٗاۗ سُبۡحَٰنَهُۥۖ بَل لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ۝ 113
(116) उनका कहना है कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। अल्लाह पाक है इन बातों से। सच्ची बात यह है कि ज़मीन और आसमानों में पाई जानेवाली सभी चीज़ों का वह मालिक है, सबके सब उसी के फ़रमाँबरदार हैं।
بَدِيعُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 114
(117) वह आसमानों और ज़मीन का ईजाद करनेवाला (पहली बार पैदा करनेवाला) है और जिस बात का वह फ़ैसला करता है, उसके लिए बस यह हुक्म देता है कि ‘हो जा', और वह हो जाती है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ لَوۡلَا يُكَلِّمُنَا ٱللَّهُ أَوۡ تَأۡتِينَآ ءَايَةٞۗ كَذَٰلِكَ قَالَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِم مِّثۡلَ قَوۡلِهِمۡۘ تَشَٰبَهَتۡ قُلُوبُهُمۡۗ قَدۡ بَيَّنَّا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 115
(118) नादान कहते हैं कि अल्लाह ख़ुद हमसे बात क्यों नहीं करता या कोई निशानी हमारे पास क्यों नहीं आती?117 ऐसी ही बातें इनसे पहले के लोग भी किया करते थे। इन सब (अगले-पिछले गुमराहों) की ज़ेहनियतें (मनोवृत्तियाँ) एक जैसी हैं।118 यक़ीन लानेवालों के लिए तो हम निशानियाँ साफ़-साफ़ ज़ाहिर कर चुके हैं।119
117. उनका मतलब यह था कि ख़ुदा, या तो ख़ुद हमारे सामने आकर कहे कि यह मेरी किताब है। और ये मेरे हुक्म हैं, तुम लोग इनकी पैरवी करो, या फिर हमें कोई ऐसी निशानी दिखाई जाए जिससे हमें यक़ीन आ जाए कि मुहम्मद (सल्ल०) जो कुछ कह रहे हैं, वह ख़ुदा की तरफ़ से है।
118. यानी आज के गुमराहों (पथभ्रष्ट लोगों) ने कोई एतिराज़ और कोई मुतालबा ऐसा नहीं गढ़ा है जो इनसे पहले के गुमराह पेश न कर चुके हों। पुराने ज़माने से आज तक गुमराही का एक ही मिज़ाज (स्वभाव) है और वह बार-बार एक ही तरह के एतिराज़ों और सवालों को दोहराती रहती है।
119. यह बात कि अल्लाह ख़ुद आकर हमसे बात क्यों नहीं करता, इतनी बेहूदा थी कि उसका जवाब देने की ज़रूरत न थी। जवाब सिर्फ़ इस बात का दिया गया है कि हमें निशानी क्यों नहीं दिखाई जाती। और जवाब यह है कि निशानियाँ तो अनगिनत मौजूद हैं, मगर जो मानना चाहता ही न हो, उसे आख़िर कौन-सी निशानी दिखाई जा सकती है।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ بَشِيرٗا وَنَذِيرٗاۖ وَلَا تُسۡـَٔلُ عَنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 116
(119) (इससे बढ़कर निशानी क्या होगी कि) हमने तुमको हक़ के इल्म के साथ ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला बनाकर भेजा।120 अब जो लोग जहन्नम से रिश्ता जोड़ चुके हैं, उनकी तरफ़ से तुम ज़िम्मेदार और जवाबदेह नहीं हो।
120. यानी दूसरी निशानियों का क्या ज़िक्र, सबसे ज़्यादा नुमायाँ निशानी तो मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी शख़्सियत (व्यक्तित्व) है। आप (सल्ल०) को पैग़म्बर बनाए जाने से पहले के हालात और उस क़ौम और मुल्क के हालात, जिसमें आप पैदा हुए, और वे हालात जिनमें आप पले-बढ़े और चालीस साल तक ज़िन्दगी बसर की और फिर वह शानदार कारनामा जो पैग़म्बर होने के बाद की जरूरत नहीं रह जाती। आपने अंजाम दिया, यह सब कुछ एक ऐसी रोशन निशानी है जिसके बाद किसी और निशानी की ज़रूरत नहीं रह जाती।
وَلَن تَرۡضَىٰ عَنكَ ٱلۡيَهُودُ وَلَا ٱلنَّصَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَتَّبِعَ مِلَّتَهُمۡۗ قُلۡ إِنَّ هُدَى ٱللَّهِ هُوَ ٱلۡهُدَىٰۗ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم بَعۡدَ ٱلَّذِي جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 117
(120) यहूदी और ईसाई तुमसे हरगिज़ राज़ी न होंगे, जब तक तुम उनके तरीक़े पर न चलने लगो।121 साफ़ कह दो कि रास्ता बस वही है जो अल्लाह ने बताया है। वरना अगर उस इल्म के बाद, जो तुम्हारे पास आ चुका है, तुमने उनकी ख़ाहिशों की पैरवी की, तो अल्लाह की पकड़ से बचानेवाला कोई दोस्त और मददगार तुम्हारे लिए नहीं है।
121. मतलब यह है कि इन लोगों की नाराज़ी का सबब यह तो है नहीं कि वे हक़ (सत्य) के सच्चे तालिब (इच्छुक) हैं, और तुमने उनके सामने हक़ को वाज़ेह (स्पष्ट) करने में कुछ कमी की है। वे तो इसलिए तुमसे नाराज़ हैं कि तुमने अल्लाह की आयतों और उसके दीन (धर्म) के साथ वह मुनाफ़िक़ाना (कपटपूर्ण) और बाज़ीगराना तरीक़ा क्यों न अपनाया, ख़ुदा की बन्दगी के परदे में वह ख़ुदपरस्ती क्यों न की, दीन (धर्म) के उसूल और हुक्मों को अपने ख़याल, सोच या अपनी ख़ाहिशों के मुताबिक़ ढालने में उस बहादुरी और दिलेरी से क्यों न काम लिया, वह दिखावा क्यों न किया और गेहूँ दिखाकर जौ बेचने के तरीक़े पर क्यों न चले, जो ख़ुद उनका अपना तरीक़ा है। इसलिए इन्हें राजी करने की चिन्ता छोड़ दो, क्योंकि जब तक तुम उनके जैसा रंग-ढंग न अपना लो, दीन (धर्म) के साथ वही मामला न करने लगो, जो ख़ुद ये करते हैं और अक़ीदों और अमल की उन्हीं गुमराहियों में न पड़ जाओ, जिनमें ये पड़े हुए हैं, उस वक़्त तक इनका तुमसे राज़ी होना नामुमकिन है।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَتۡلُونَهُۥ حَقَّ تِلَاوَتِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 118
(121) जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे उसे इस तरह पढ़ते हैं जैसा कि पढ़ने का हक़ है। वे इस (क़ुरआन) पर सच्चे दिल से ईमान लाते हैं।122 और जो इसके साथ इनक़ार का रवैया अपनाएँ, वही अस्ल में नुक़सान उठानेवाले हैं।
122. यह अहले-किताब के नेक लोगों की तरफ़ इशारा है कि ये लोग ईमानदारी और सच्चाई के साथ ख़ुदा की किताब को पढ़ते हैं, इसलिए जो कुछ अल्लाह की किताब के मुताबिक़ हक़ है, उसे हक़ मान लेते हैं।
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتِيَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ وَأَنِّي فَضَّلۡتُكُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 119
(122) ऐ बनी-इसराईल!123 याद करो मेरी वह नेमत जो मैंने तुम्हें दी थी, और यह कि मैंने तुम्हें दुनिया की तमाम क़ौमों पर बड़ाई दी थी।
123. यहाँ से तक़रीर (बात) का एक दूसरा सिलसिला शुरू होता है, जिसे समझने के लिए नीचे लिखी बातों को अच्छी तरह दिमाग में बिठा लेना चाहिए— (1) हज़रत नूह के बाद हज़रत इबराहीम (अलैहिo) पहले नबी हैं जिनको अल्लाह ने इस्लाम का आलमगीर (विश्वव्यापी) पैग़ाम फैलाने के लिए मुक़र्रर् किया था। उन्होंने पहले ख़ुद इराक़ से मिस्र तक और शाम (सीरिया) व फ़िलस्तीन से अरब-रेगिस्तान के मुख़्तलिफ़़ हिस्सों तक बरसों भाग-दौड़ करके अल्लाह की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी (यानी इस्लाम) की तरफ़ लोगों को बुलाया। फिर अपने इस मिशन को फैलाने के लिए मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में ख़लीफ़ा (नायब) मुक़र्रर किए। पूरबी जार्डन में अपने भतीजे हज़रत लूत (अलैहिo) को, शाम व फ़िलस्तीन में अपने बेटे हज़रत इसहाक (अलैहिo) को और अरब के भीतरी हिस्से में अपने बड़े बेटे हज़रत इसमाईल (अलैहिo) को मिशन पर लगाया। फिर अल्लाह के हुक्म से मक्का में वह घर तामीर किया जिसका नाम काबा है और अल्लाह ही के हुक्म से वह इस मिशन का मर्कज़ (केन्द्र) ठहराया गया। (2) हज़रत इबराहीम (अलैहिo) की नस्ल से दो बड़ी शाखाएँ निकलीं — एक, हज़रत इसमाईल (अलैहिo) की औलाद जो अरब में रही। क़ुरैश और अरब के बाद दूसरे क़बीलों का ताल्लुक़ इसी शाखा से था। और जो अरब क़बीले नस्ली तौर पर हज़रत इसमाईल की औलाद न थे, वे भी चूँकि उनके फैलाए हुए मज़हब से कमोबेश मुतास्सिर थे, इसलिए वे अपना सिलसिला उन्हीं से जोड़ते थे। दूसरे हज़रत इसहाक़ (अलैहिo) की औलाद, जिनमें हजरत याक़ूब, यूसुफ़, मूसा, दाऊद, सुलैमान, यह्या, ईसा (अलैहिo) और बहुत-से दूसरे नबी (अलैहिस्सलाम) पैदा हुए। जैसा कि पहले बयान किया जा चुका है कि हज़रत याक़ूब (अलैहिo) का नाम चूँकि इसराईल था, इसलिए यह नस्ल बनी-इसराईल के नाम से मशहूर हुई। उनकी तबलीग़ (प्रचार) से जिन दूसरी क़ौमों ने उनका दीन क़ुबूल किया, वे या तो अपनी पहचान ही को ख़त्म करके उनके अन्दर घुल-मिल गईं या वे नस्ली तौर पर तो उनसे अलग रहीं, मगर मज़हबी तौर पर उनके पैरोकार (अनुयायी) रहीं। इसी शाखा में जब पस्ती और गिरावट का दौर आया, तो पहले यहूदियत पैदा हुई और फिर ईसाइयत ने जन्म लिया। (3) हज़रत इबराहीम (अलैहिo) का अस्ल काम दुनिया को अल्लाह की फ़रमाँबरदारी की तरफ़ बुलाना और अल्लाह की तरफ़ से आई हुई हिदायत के मुताबिक़ इनसानों की इनफ़िरादी और इजतिमाई ज़िन्दगी के निज़ाम को ठीक करना था। वे ख़ुद अल्लाह के फ़रमाँबरदार थे, उसके दिए हुए इल्म (ज्ञान) की पैरवी करते थे, दुनिया में उस इल्म को फैलाते थे और कोशिश करते थे कि सभी इनसान कायनात (जगत्) के मालिक के फ़रमाँबरदार होकर रहें। यही ख़िदमत थी जिसके लिए वे दुनिया के इमाम और पेशवा बनाए गए थे। उनके बाद यह इमामत (नेतृत्व) का मंसब (पद) उनकी नस्ल की उस शाखा को मिला जो हज़रत इसहाक़ (अलैहिo) और हज़रत याक़ूब (अलैहिo) से चली और ‘बनी-इसराईल’ कहलाई। इसी में नबी पैदा होते रहे, इसी को सीधे रास्ते का इल्म (ज्ञान), दिया गया। इसी के सिपुर्द यह ख़िदमत की गई कि इस सीधे रास्ते की तरफ दुनिया की कामों की रहनुमाई करे और यही वह नेमत थी जिसे अल्लाह तआला बार-बार इस नस्ल के लोगों को याद दिला रहा है। इस शाखा ने हज़रत सुलैमान के ज़माने में बैतुल-मक़्दिस को अपना मरकज़ (केन्द्र) बनाया, इसलिए जब तक यह शाखा रहनुमाई के मंसब (पद) पर क़ायम रही, बैतुल-मक़्दिस ही अल्लाह की तरफ़ बुलाने का मरकज़ (केन्द्र) और ख़ुदापरस्तों का क़िबला (उपासना केन्द्र) रहा। (4) क़ुरआन की इस सूरा के पिछले दस रुकूओं में अल्लाह ने बनी-इसराईल को ख़िताब (सम्बोधित) करके उनके जुर्मों के तारीख़ी चार्जशीट (ऐतिहासिक अभियोगपत्र) और उनकी वह मौजूदा हालत जो क़ुरआन के उतरने के वक़्त थी बिना किसी कमी-बेशी के पेश कर दी है और उनको बता दिया है कि तुम हमारी उस नेमत की इन्तिहाई नाक़द्री कर चुके हो जो हमने तुम्हें दी थी। तुमने सिर्फ़ यही नहीं किया कि तुम्हारे ज़िम्मे रहनुमाई का जो काम सिपुर्द किया गया था तुमने उसका हक़ अदा करना छोड़ दिया, बल्कि ख़ुद भी हक़ और सच्चाई से फिर गए, और अब बहुत ही थोड़े भले लोगों के सिवा तुम्हारी पूरी उम्मत (समुदाय) में कोई सलाहियत बाक़ी नहीं रही है। (5) इसके बाद अब उन्हें बताया जा रहा है कि इमामत (रहनुमाई) इबराहीम (अलैहिo) के ख़ूनी रिश्ते (औलाद होने) की मीरास नहीं है, बल्कि यह उस सच्ची बन्दगी और फ़रमाँबरदारी का फल है जिसमें हमारे उस बन्दे ने अपनी हस्ती को गुम कर दिया था, और इसके हक़दार सिर्फ़ वे लोग हैं, जो इबराहीम के तरीक़े पर ख़ुद चलें और दुनिया को इस तरीक़े पर चलाने की ख़िदमत अंजाम दें। चूँकि तुम इस तरीक़े से हट गए हो और इस ख़िदमत की सलाहियत पूरी तरह खो चुके हो, इसलिए तुम्हें रहनुमाई के मंसब (पद) से हटाया जाता है। (6) साथ ही इशारों-इशारों में यह भी बता दिया जाता है कि जो ग़ैर-इसराईली क़ौमें मूसा और ईसा (अलैहिo) के वास्ते से हज़रत इबराहीम (अलैहिo) के साथ अपना ताल्लुक़ जोड़ती हैं, वे भी इबराहीमी तरीक़े से हटी हुई हैं, और अरब के मुशरिक भी, जो इबराहीम और इसमाईल (अलैहिo) से अपने ताल्लुक़ पर फ़ख़्र (गर्व) करते हैं, सिर्फ़ नस्ल और नसब के फ़ख्र को लिए बैठे हैं, वरना इबराहीम व इसमाईल (अलैहिo) के तरीक़े से अब उनको दूर का वास्ता भी नहीं रहा है, इसलिए उनमें से भी कोई इमामत के मंसब का हक़दार नहीं है। (7) फिर यह बात कही जा रही है कि अब हमने इबराहीम की दूसरी शाखा बनी-इसमाईल में वह रसूल पैदा किया है, जिसके लिए इबराहीम और इसमाईल (अलैहिo) ने दुआ की थी। उसका तरीक़ा वही है, जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और दूसरे तमाम नबियों (अलैहिo) का था कि वह और उसके पैरवी करनेवाले तमाम उन पैग़म्बरों की तसदीक़ (पुष्टि) करते हैं, जो ख़ुदा की तरफ़ से आए हैं और उसी रास्ते की तरफ़ दुनिया को बुलाते हैं जिसकी तरफ़ सभी नबी दावत देते चले आए हैं। इसलिए अब इमामत (नेतृत्व) के मंसब के हक़दार सिर्फ़ वे लोग हैं जो इस रसूल की पैरवी करें। (8) इमामत के मंसब की तब्दीली का एलान होने के साथ ही क़ुदरती तौर पर क़िबले की तब्दीली का एलान भी होना ज़रूरी था। जब तक बनी-इसराईल की इमामत का दौर था, बैतुल मक़्दिस दावत का मरकज़ (केन्द्र) रहा और वही हक़ की पैरवी करनेवालों का क़िबला भी रहा ख़ुद नबी (सल्लo) और आपकी पैरवी करनेवाले भी उस वक़्त तक बैतुल-मक़्दिस ही को क़िबला बनाए रहे। मगर बनी-इसराईल इस मंसब (पद) से बाज़ाब्ता (विधिवत रूप से) हटा दिए गए तो बैतुल-मक़्दिस की मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) अपने आप ख़त्म हो गई। इसलिए यह एलान किया गया कि अब वह मक़ाम अल्लाह के दीन (धर्म) का मरकज़ (केन्द्र) है, जहाँ से इस रसूल की दावत सामने आई है। और चूँकि शुरू में इबराहीम (अलैहिo) की दावत का मरकज़ (केन्द्र) भी यही जगह थी, इसलिए अहले-किताब और मुशरिकों, किसी के लिए भी यह तसलीम करने के सिवा चारा नहीं है कि क़िबला होने का ज़्यादा हक़ काबा ही को पहुँचता है। हठधर्मी की बात दूसरी है कि वे हक़ को हक़ जानते हुए भी एतिराज़ किए चले जाएँ। (9) मुहम्मद (सल्लo) के माननेवालों को दुनिया का रहनुमा बनाए जाने और काबा की मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) का एलान करने के बाद ही अल्लाह तआला ने इस सूरा अल-बक़रा के उन्नीसवें रुक (आयत 153) से लेकर सूरा के आख़िर तक लगातार इस उम्मत को वे हिदायतें दी हैं, जिनपर उसे अमल करना चाहिए।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا لَّا تَجۡزِي نَفۡسٌ عَن نَّفۡسٖ شَيۡـٔٗا وَلَا يُقۡبَلُ مِنۡهَا عَدۡلٞ وَلَا تَنفَعُهَا شَفَٰعَةٞ وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 120
(123) और डरो उस दिन से जब कोई किसी के ज़रा काम न आएगा, न किसी से फ़िदया (जुर्माना) क़ुबूल किया जाएगा। कोई सिफ़ारिश ही आदमी को फ़ायदा देगी और न मुजरिमों को कहीं से कोई मदद पहुँच सकेगी।
۞وَإِذِ ٱبۡتَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ رَبُّهُۥ بِكَلِمَٰتٖ فَأَتَمَّهُنَّۖ قَالَ إِنِّي جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ إِمَامٗاۖ قَالَ وَمِن ذُرِّيَّتِيۖ قَالَ لَا يَنَالُ عَهۡدِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 121
(124 ) याद करो कि जब इबराहीम को उसके रब ने कुछ बातों में आज़माया124 और वह उन सब में पूरा उतर गया, तो उसने कहा, “मैं तुझे सब लोगों का पेशवा बनानेवाला हूँ।” इबराहीम ने कहा, “और क्या मेरी औलाद से भी यही वादा है?” उसने जवाब दिया, “मेरा वादा ज़ालिमों के बारे में नहीं है।"125
124. क़ुरआन में मुख़्तलिफ़ जगहों पर उन तमाम सख़्त आज़माइशों की तफ़सील बयान हुई है, जिनसे गुज़रकर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपने आपको इस बात का अहल (योग्य) साबित किया था कि उन्हें तमाम इनसानों का इमाम व रहनुमा बनाया जाए। जिस वक़्त से हक़ उनपर ज़ाहिर हुआ, उस वक़्त से लेकर मरते दम तक उनकी पूरी ज़िन्दगी सरासर क़ुरबानी ही क़ुरबानी थी। दुनिया में जितनी चीज़ें ऐसी हैं जिनसे इनसान मुहब्बत करता है, उनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी, जिसको हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने हक़ की ख़ातिर क़ुरबान न किया हो और दुनिया में जितने ख़तरे ऐसे हैं जिनसे आदमी डरता है उनमें से कोई ख़तरा ऐसा न था जिसे उन्होंने हक़ की राह में न झेला हो।
125. यानी यह वादा तुम्हारी औलाद के सिर्फ़ उस हिस्से से ताल्लुक़ रखता है जो नेक और परहेज़गार हो। उनमें से जो ज़ालिम होंगे, उनके लिए यह वादा नहीं है। इससे यह बात ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है कि गुमराह यहूदी और मुशरिक बनी-इसमाईल से ताल्लुक़ रखनेवाले लोग इस वादे के तहत नहीं आते।
وَإِذۡ جَعَلۡنَا ٱلۡبَيۡتَ مَثَابَةٗ لِّلنَّاسِ وَأَمۡنٗا وَٱتَّخِذُواْ مِن مَّقَامِ إِبۡرَٰهِـۧمَ مُصَلّٗىۖ وَعَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ أَن طَهِّرَا بَيۡتِيَ لِلطَّآئِفِينَ وَٱلۡعَٰكِفِينَ وَٱلرُّكَّعِ ٱلسُّجُودِ ۝ 122
(125) और यह कि हमने इस घर (काबा) को लोगों के लिए मर्कज़ (केन्द्र) और अम्न की जगह क़रार दिया था और लोगों को हुक्म दिया था कि इबराहीम जहाँ इबादत के लिए खड़ा होता है उस जगह को मुस्तक़िल (स्थायी रूप से) नमाज़ की जगह बना लो, और इबराहीम और इसमाईल को ताक़ीद की थी कि मेरे इस घर को तवाफ़ (परिक्रमा) और एतिकाफ़ और रुकू और सजदा करनेवालों के लिए पाक रखो।126
126. पाक रखने से मुराद सिर्फ़ यही नहीं है कि कूड़े-करकट से उसे पाक रखा जाए। ख़ुदा के घर की अस्ल पाकी यह है कि उसमें ख़ुदा के सिवा किसी का नाम बुलन्द न हो। जिसने ख़ुदा के घर में ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे को मालिक, माबूद (उपास्य), जरूरतें पूरी करनेवाला और फ़रियाद सुननेवाले की हैसियत से पुकारा, उसने हक़ीक़त में उसे गन्दा कर दिया। यह आयत एक निहायत लतीफ़ (सूक्ष्म) तरीक़े से क़ुरैश के मुशरिकों के जुर्म की तरफ़ इशारा कर रही है। कि ये ज़ालिम लोग इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) के वारिस होने पर फ़ख्र (गर्व) तो करते हैं, मगर विरासत का हक़ अदा करने के बजाय उलटा उस हक़ को पैरों तले रौंद रहे हैं। इसलिए जो वादा इबराहीम (अलैहि०) से किया गया था, उससे जिस तरह बनी-इसराईल अलग हो गए हैं, उसी तरह ये बनी-इसमाईल के मुशरिक भी उस वादे से अलग हैं।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّ ٱجۡعَلۡ هَٰذَا بَلَدًا ءَامِنٗا وَٱرۡزُقۡ أَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلثَّمَرَٰتِ مَنۡ ءَامَنَ مِنۡهُم بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ قَالَ وَمَن كَفَرَ فَأُمَتِّعُهُۥ قَلِيلٗا ثُمَّ أَضۡطَرُّهُۥٓ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلنَّارِۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 123
(126) और यह कि इबराहीम ने दुआ की, “ऐ मेरे रब! इस शहर को अमन (शान्ति) का शहर बना दे और इसके रहनेवालों में से जो अल्लाह और आख़िरत को मानें, उन्हें हर क़िस्म के फलों की रोज़ी दे।” जवाब में उसके रब ने कहा, “और जो न मानेगा, दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी का सामान तो मैं उसे भी दूँगा,127 मगर आख़िरकार उसे जहन्नम के अज़ाब की तरफ़ घसीटूँगा, और वह बहुत बुरा ठिकाना है।”
127. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब रहनुमाई और इमामत के मंसब के बारे में पूछा था, तो कहा गया था कि इस मंसब का वादा तुम्हारी औलाद के सिर्फ़ ईमानवालों और अच्छे लोगों के लिए है, ज़ालिम लोगों के लिए यह वादा नहीं है। इसके बाद जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) रोज़ी के लिए दुआ करने लगे, तो पिछले हुक्म को नज़र में रखकर उन्होंने सिर्फ़ अपनी मोमिन औलाद ही के लिए दुआ की, मगर अल्लाह ने जवाब में इस ग़लतफ़हमी को फ़ौरन दूर कर दिया और उन्हें बताया कि दुनिया की नेक रहनुमाई और चीज़ है और दुनिया की रोज़ी दूसरी चीज़। दुनिया की नेक रहनुमाई करने का मंसब सिर्फ़ नेक ईमानवालों को मिलेगा, मगर दुनिया की रोज़ी ख़ुदा को माननेवालों और न माननेवालों सबको दी जाएगी। इससे यह बात अपने आप निकल आई कि अगर किसी को दुनिया की रोज़ी बहुत ज़्यादा मिल रही हो तो वह इस पेशवा बनने का हक़दार भी है। ग़लतफ़हमी में न पड़ें कि अल्लाह उससे राज़ी भी है और वही अल्लाह की तरफ़ से दुनिया का पेशवा बनने का हकदार भी है।
وَإِذۡ يَرۡفَعُ إِبۡرَٰهِـۧمُ ٱلۡقَوَاعِدَ مِنَ ٱلۡبَيۡتِ وَإِسۡمَٰعِيلُ رَبَّنَا تَقَبَّلۡ مِنَّآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 124
(127) और याद करो इबराहीम और इसमाईल जब उस घर की दीवारें उठा रहे थे, तो दुआ करते जाते थे, “ऐ हमारे रब! हमसे यह ख़िदमत क़ुबूल कर ले, तू सबकी सुननेवाला और सब कुछ जाननेवाला है।
رَبَّنَا وَٱجۡعَلۡنَا مُسۡلِمَيۡنِ لَكَ وَمِن ذُرِّيَّتِنَآ أُمَّةٗ مُّسۡلِمَةٗ لَّكَ وَأَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبۡ عَلَيۡنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 125
(128) ऐ रब! हम दोनों को अपना मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) बना, हमारी नस्ल से एक ऐसी क़ौम उठा जो तेरी मुस्लिम हो, हमें अपनी इबादत के तरीक़े बता और हमारी कोताहियों को माफ़ कर, तू बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
رَبَّنَا وَٱبۡعَثۡ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡهُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَيُزَكِّيهِمۡۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 126
(129) और ऐ रब! इन लोगों में ख़ुद इन्हीं की क़ौम से एक ऐसा रसूल उठाना, जो इन्हें तेरी आयतें सुनाए, इनको किताब और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) की तालीम दे और इनकी जिन्दगियाँ सँवारे।128 तू बड़ा ज़बरदस्त (प्रभुत्वशाली) और हिकमतवाला (तत्वदशी) है।129
128. ज़िन्दगी सँवारने में ख़याल, अख़लाक़, आदत, रहन-सहन, तहज़ीब, सियासत हर चीज़ को सँवारना शामिल है।
129. इसका मक़सद यह बताना है कि मुहम्मद (सल्ल०) को पैग़म्बर बनाया जाना अस्ल में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की दुआ का जवाब है।
وَمَن يَرۡغَبُ عَن مِّلَّةِ إِبۡرَٰهِـۧمَ إِلَّا مَن سَفِهَ نَفۡسَهُۥۚ وَلَقَدِ ٱصۡطَفَيۡنَٰهُ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَإِنَّهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ لَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 127
(130) अब कौन है, जो इबराहीम के तरीक़े से नफरत करे? जिसने ख़ुद अपने-आपको बेवक़ूफ़ी और जहालत में डाल लिया हो उसके सिवा कौन यह हरकत कर सकता है? इबराहीम तो वह शख़्स है जिसको हमने दुनिया में अपने काम के लिए चुन लिया था और आख़िरत में उसकी गिनती अच्छों में होगी।
إِذۡ قَالَ لَهُۥ رَبُّهُۥٓ أَسۡلِمۡۖ قَالَ أَسۡلَمۡتُ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 128
(131) उसका हाल यह था कि जब उसके रब ने उससे कहा, “मुस्लिम हो जा,” तो उसने कहा कि “मैं कायनात के मालिक का मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हो गया।130
130. मुस्लिम : वह जो फ़रमाँबरदारी में सिर झुका दे, ख़ुदा ही को अपना मालिक, आक़ा, हाकिम और माबूद मान ले, जो अपने आपको पूरी तरह ख़ुदा के सिपुर्द कर दे और इस हिदायत के मुताबिक़ दुनिया में ज़िन्दगी बसर करे, जो ख़ुदा की तरफ़ से आई हो। इस अक़ीदे और इस तर्ज़े-अमल का नाम 'इस्लाम' है और यही तमाम नबियों का दीन थी जो इस कायनात के शुरू ही से दुनिया के मुख़्तलिफ़ मुल्कों और क़ौमों में आए।
وَوَصَّىٰ بِهَآ إِبۡرَٰهِـۧمُ بَنِيهِ وَيَعۡقُوبُ يَٰبَنِيَّ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰ لَكُمُ ٱلدِّينَ فَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 129
(132) इसी तरीक़े पर चलने की हिदायत उसने अपनी औलाद को की थी और इसी की वसीयत याक़ूब अपनी औलाद को कर गया।131 उसने कहा था कि “मेरे बच्चो, अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन (जीवन-विधान)132 पसन्द किया है, इसलिए मरते दम तक मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) ही रहना।”
131. हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का ज़िक्र ख़ास तौर पर इसलिए किया कि बनी-इसराईल सीधे उन्हीं की औलाद थे।
132. दीन (धर्म) यानी ज़िन्दगी गुज़ारने का तरीक़ा, निज़ामे-हयात, वह दस्तूर जिसपर इनसान दुनिया में अपनी सोच और अमल की बुनियाद रखे।
أَمۡ كُنتُمۡ شُهَدَآءَ إِذۡ حَضَرَ يَعۡقُوبَ ٱلۡمَوۡتُ إِذۡ قَالَ لِبَنِيهِ مَا تَعۡبُدُونَ مِنۢ بَعۡدِيۖ قَالُواْ نَعۡبُدُ إِلَٰهَكَ وَإِلَٰهَ ءَابَآئِكَ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗا وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 130
(133) फिर क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब याक़ूब इस दुनिया से रुख़सत (विदा) हो रहा था? उसने मरते वक़्त अपने बेटों से पूछा, “बच्चो! मेरे बाद तुम किसकी बन्दगी करोगे?” उन सबने जवाब दिया, “हम उसी एक ख़ुदा की बन्दगी करेंगे जिसे आपने और आपके बुज़ुर्गों इबराहीम, इसमाईल और इसहाक़ ने ख़ुदा माना है, और हम उसी के मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हैं।"133
133. बाइबल में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की मौत का हाल बड़ी तफ़सील (विस्तार) से लिखा गया है, मगर हैरत है कि इस वसीयत का कोई ज़िक्र नहीं है, अलबत्ता तलमूद में तफ़सील से जो वसीयत दर्ज हुई है, उसका मज़मून (विषय-वस्तु) क़ुरआन के बयान से बहुत मिलता-जुलता है। उसमें हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की ये बातें हमें मिलती हैं– ख़ुदावन्द, अपने ख़ुदा की बन्दगी करते रहना, वह तुम्हें उसी तरह तमाम आफ़तों से बचाएगा, जिस तरह तुम्हारे बाप-दादा को बचाता रहा है ..... अपने बच्चों को ख़ुदा से मुहब्बत करने और उसके हुक्मों पर चलने की तालीम देना, ताकि उनकी ज़िन्दगी की मुहलत लम्बी हो, क्योंकि ख़ुदा उन लोगों की हिफ़ाज़त करता है, जो हक़ के साथ काम करते हैं और उसकी राहों पर ठीक-ठीक चलते हैं।” जवाब में उनके लड़कों ने कहा, “जो कुछ आपने हिदायत की है, हम उसके मुताबिक़ अमल (कर्म) करेंगे। ख़ुदा हमारे साथ हो।” तब याक़ूब (अलैहि०) ने कहा, “अगर तुम ख़ुदा की सीधी राह से दाएँ या बाएँ न मुड़ोगे, तो ख़ुदा ज़रूर तुम्हारे साथ रहेगा।"
تِلۡكَ أُمَّةٞ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 131
(134) वे कुछ लोग थे जो गुज़र गए। जो कुछ उन्होंने कमाया, वह उनके लिए है। और जो कुछ तुम कमाओगे, वह तुम्हारे लिए है। तुमसे यह न पूछा जाएगा कि वे क्या करते थे?134
134. यानी तुम उनकी औलाद ही सही, मगर हक़ीक़त में तुम्हें उनसे कोई वास्ता नहीं। उनका नाम लेने का तुम्हें क्या हक़ है, जबकि तुम उनके तरीक़े से फिर गए। अल्लाह के यहाँ तुमसे यह नहीं पूछा जाएगा कि तुम्हारे बाप-दादा क्या करते थे, बल्कि यह पूछा जाएगा कि तुम ख़ुद क्या करते रहे। और यह जो कहा, “जो कुछ उन्होंने कमाया, वह उनके लिए है और जो कुछ तुम कमाओगे, वह तुम्हारे लिए है”, यह क़ुरआन का ख़ास अन्दाज़े-बयान है। हम जिस चीज़ को अमल (कर्म) कहते हैं, क़ुरआन अपनी ज़बान में उसे कसब या कमाई कहता है। हमारा हर अमल (कर्म) अपना एक अच्छा या बुरा नतीजा रखता है, जो अल्लाह की ख़ुशी या नाराज़ी की सूरत में सामने आएगा। वही नतीजा हमारी कमाई है। चूँकि क़ुरआन की निगाह में अस्ल अहमियत उसी नतीजे की है, इसलिए अकसर वह हमारे कामों को अमल के लफ़्ज़ों से बयान करने के बजाए ‘कसब’ ( कमाई) के लफ़्ज़ से बयान करता है।
وَقَالُواْ كُونُواْ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰ تَهۡتَدُواْۗ قُلۡ بَلۡ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِـۧمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 132
(135) यहूदी कहते हैं: यहूदी हो जाओ तो सीधा रास्ता पा लोगे। ईसाई कहते हैं: ईसाई हो जाओ तो हिदायत मिलेगी। इनसे कहो, “नहीं, बल्कि सबको छोड़कर इबराहीम का तरीक़ा, और इबराहीम मुशरिकों में से न था।"135
135. इस जवाब की बारीकी को समझने के लिए दो बातें निगाह में रखिए— एक यह कि यहूदी मत और ईसाई मत दोनों बाद की पैदावार हैं। यहूदी मत अपने इस नाम और अपनी मज़हबी ख़ुसूसियतों, रस्मो-रिवाज और क़ायदा-क़ानून के साथ तीसरी-चौथी सदी ईसा पूर्व में पैदा हुआ। ईसाई मत जिन अक़ीदों और ख़ास मज़हबी तसव्वुरात (धारणाओं) के मजमूए (संग्रह) का नाम है, वे तो हज़रत मसीह (अलैहि०), के भी एक मुद्दत के बाद वुजूद में आए हैं। अब यह सवाल ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा होता है कि अगर आदमी के हिदायत पर होने का दारोमदार यहूदी मत या ईसाई मत को तस्लीम करने ही पर है, तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और दूसरे नबी और नेक लोग जो इन मज़हबों की पैदाइश से सदियों पहले पैदा हुए थे और जिनको ख़ुद यहूदी और ईसाई भी हिदायत पाया हुआ मानते हैं, वे आख़िर किस चीज़ से हिदायत पाते थे। ज़ाहिर है कि वह यहूदी मज़हब और ईसाई मज़हब न थे, इसलिए यह बात आप-से-आप वाज़ेह हो गई कि इनसान के सही रास्ते पर होने का दारोमदार उन मज़हबी ख़ुसूसियात पर नहीं है, जिनकी वजह से ये ईसाई और यहूदी वग़ैरा मुख़्तलिफ़ फ़िरक़े बने हैं, बल्कि अस्ल में इसका दारोमदार उस आलमगीर (विश्वव्यापी) सीधे रास्ते के अपनाने पर जिससे हर ज़माने में इनसान हिदायत पाते रहे हैं। दूसरे यह कि ख़ुद यहूदियों और ईसाइयों की अपनी पाक किताबें इस बात पर गवाह हैं कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) एक अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की पूजा, बन्दगी, और फ़रमाँबरदारी के क़ायल न थे और उनका मिशन ही यह था कि ख़ुदाई की सिफ़तों और ख़ुसूसियतों में अल्लाह के साथ किसी और को शरीक न ठहराया जाए। इसलिए यह बिलकुल ज़ाहिर है कि यहूदी मज़हब और ईसाई मज़हब दोनों उस सीधे रास्ते से हट गए हैं, जिसपर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) चलते थे, क्योंकि इन दोनों में शिर्क की मिलावट हो गई है।
قُولُوٓاْ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ إِلَىٰٓ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَمَآ أُوتِيَ ٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 133
(136) मुसलमानो! कहो, “हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस हिदायत पर जो हमारी तरफ़ उतरी है और जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक, याक़ूब और याक़ूब की औलाद की तरफ़ उतरी थी और जो मूसा और ईसा और दूसरे तमाम पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गई थी। हम उनके बीच कोई फ़र्क़ नहीं करते136, और हम अल्लाह के मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हैं।”
136. पैग़म्बरों के बीच फ़र्क़ न करने का मतलब यह है कि हम उनके बीच इस लिहाज़ से फ़र्क़ नहीं करते कि फ़ुलाँ हक़ पर था और फ़ुलाँ हक़ पर न था, या यह कि हम फ़ुलाँ को मानते हैं या फ़ुलाँ को नहीं मानते। ज़ाहिर है कि ख़ुदा की तरफ़ से जितने पैग़म्बर भी आए हैं, सब-के-सब एक ही सच्चाई और एक ही सच्ची राह की तरफ़ बुलाने आए हैं, इसलिए जो आदमी सही मानी में हक़ को माननेवाला है, उसके लिए तमाम पैग़म्बरों को हक़ पर माने बग़ैर चारा नहीं। जो लोग किसी पैग़म्बर को मानते और किसी का इनक़ार करते हैं, वे हक़ीक़त में उस पैग़म्बर की भी पैरवी नहीं करते होते हैं, जिसे वे मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अस्ल में उस आलमगीर सीधे और सच्चे रास्ते को नहीं पाया है, जिसे हज़रत मूसा या ईसा (अलैहि०) या किसी दूसरे पैग़म्बर ने पेश किया था, बल्कि वे सिर्फ़ बाप-दादा की अन्धी पैरवी में एक पैग़म्बर को मान रहे हैं। उनका अस्ल मज़हब नस्लपरस्ती का तास्सुब (पक्षपात) और बाप-दादा की अन्धी तक़लीद (अनुकरण) है, न कि किसी पैग़म्बर की पैरवी।
فَإِنۡ ءَامَنُواْ بِمِثۡلِ مَآ ءَامَنتُم بِهِۦ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا هُمۡ فِي شِقَاقٖۖ فَسَيَكۡفِيكَهُمُ ٱللَّهُۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 134
(137) फिर अगर वे उसी तरह ईमान लाएँ, जिस तरह तुम लाए हो, तो सीधी राह पर हैं, और अगर इससे मुँह फेरें, तो खुली बात है कि वे हठधर्मी में पड़ गए हैं। इसलिए इत्मीनान रखो कि उनके मुक़ाबले में अल्लाह तुम्हारी मदद के लिए काफ़ी है। वह सब कुछ सुनता और जानता है।
صِبۡغَةَ ٱللَّهِ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ صِبۡغَةٗۖ وَنَحۡنُ لَهُۥ عَٰبِدُونَ ۝ 135
(138) कहो, “अल्लाह का रंग इख़्तियार करो।137 उसके रंग से अच्छा और किसका रंग होगा? और हम उसी की बन्दगी करनेवाले लोग हैं।”
137. इस आयत के दो तर्जमे हो सकते हैं। एक यह कि “हमने अल्लाह का रंग अपना लिया है”, दूसरा यह कि “अल्लाह का रंग इख़्तियार करो।” ईसाई मत के ज़ाहिर होने से पहले यहूदियों के यहाँ यह रस्म थी कि जो शख़्स उनके मज़हब में दाख़िल होता उसे ग़ुस्ल देते (यानी स्नान कराते) थे और इस ग़ुस्ल का मतलब उनके यहाँ यह था कि मानो उसके गुनाह धुल गए और उसने ज़िन्दगी का एक नया रंग इख़्तियार कर लिया। यही चीज़ बाद में ईसाइयों ने इख़्तियार कर ली। इसका इसतिलाही (पारिभाषिक) नाम उनके यहाँ ‘बपतिस्मा’ है और यह बपतिस्मा न सिर्फ़ उन लोगों को दिया जाता है जो उनके मज़हब में दाख़िल होते हैं, बल्कि बच्चों को भी दिया जाता है। इसी के बारे में क़ुरआन कहता है, इस रस्मी बपतिस्पा में क्या रखा है? अल्लाह के रंग में रंग जाओ, जो किसी पानी से नहीं चढ़ता, बल्कि उसकी बन्दगी का तरीक़ा इख़्तियार करने से चढ़ता है।
قُلۡ أَتُحَآجُّونَنَا فِي ٱللَّهِ وَهُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡ وَلَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُخۡلِصُونَ ۝ 136
(139) ऐ नबी! इनसे कहो, “क्या तुम अल्लाह के बारे में हमसे झगड़ते हो। हालाँकि वही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी।138 हमारे आमाल (कर्म) हमारे लिए हैं, तुम्हारे आमाल (कर्म) तुम्हारे लिए, और हम अल्लाह ही के लिए अपनी बंदगी को ख़ालिस कर चुके हैं।139
138. यानी हम यही तो कहते हैं कि अल्लाह ही हम सबका रब है और उसी की फ़रमाँबरदारी होनी चाहिए। क्या यह भी कोई ऐसी बात है कि इसपर तुम हमसे झगड़ा करो? झगड़े का अगर कोई मौक़ा है भी, तो वह हमारे लिए है न कि तुम्हारे लिए, क्योंकि अल्लाह के सिवा दूसरों को बन्दगी का हक़दार तुम ठहरा रहे हो न कि हम। “अतुहाज्जू न-ना फ़िल्लाहि” का एक तर्जमा यह भी हो सकता है कि “क्या तुम्हारा झगड़ा हमारे साथ अल्लाह के लिए है?” इस सूरत में मतलब यह होगा कि अगर वाक़ई तुम्हारा यह झगड़ा नफ़्सानी (मन की इच्छाओं का) नहीं है, बल्कि ख़ुदा वास्ते का है, तो यह बड़ी आसानी से तय हो सकता है।
139. यानी तुम अपनी करनी के ज़िम्मेदार हो और हम अपनी करनी के। तुमने अगर अपनी बन्दगी को बाँट रखा है और अल्लाह के साथ दूसरों को भी ख़ुदाई में शरीक ठहराकर उनकी पूजा करते और फ़रमाँबरदारी करते हो तो तुम्हें ऐसा करने का इख़्तियार है। इसका अंजाम तुम ख़ुद देख लोगे। हम तुम्हें ज़बरदस्ती इससे रोकना नहीं चाहते। लेकिन हमने अपनी बन्दगी, फ़रमाँबरदारी और इबादत को बिलकुल अल्लाह ही के लिए ख़ालिस कर दिया है। अगर तुम तस्लीम कर लो कि हमें भी ऐसा करने का इख़्तियार है, तो ख़ाह-मख़ाह का यह झगड़ा अपने आप ही ख़त्म हो जाए।
أَمۡ تَقُولُونَ إِنَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطَ كَانُواْ هُودًا أَوۡ نَصَٰرَىٰۗ قُلۡ ءَأَنتُمۡ أَعۡلَمُ أَمِ ٱللَّهُۗ وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَتَمَ شَهَٰدَةً عِندَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 137
(140) या फिर क्या तुम्हारा कहना यह है कि इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और याक़ूब की औलाद सब-के-सब यहूदी थे या ईसाई थे? कहो, “तुम ज़्यादा जानते हो या अल्लाह?"140 उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा, जिसके ज़िम्मे अल्लाह की तरफ़ से एक गवाही हो और वह उसे छुपाए? तुम्हारी हरकतों से अल्लाह बेख़बर तो नहीं है।141
140. यह ख़िताब (सम्बोधन) यहूदियों और ईसाइयों के उन जाहिल लोगों से है जो वाक़ई अपने नज़दीक यह समझते थे कि इतनी कद्र और बड़ाई रखनेवाले ये नबी सब-के-सब यहूदी या ईसाई थे।
141. यह ख़िताब उनके उलमा से है, जो ख़ुद भी इस हक़ीक़त से नावाक़िफ़ न थे कि यहूदी मज़हब और ईसाई मज़हब अपनी मौजूदा ख़ुसूसियतों के साथ बहुत बाद में पैदा हुए हैं। मगर इसके बावजूद वे हक़ को अपने ही फ़िरक़ों (सम्प्रदायों) तक महदूद (सीमित) समझते थे और आम लोगों को इस ग़लतफ़हमी में डाले रखते थे कि नबियों के मुद्दतों बाद जो अक़ीदे, जो तरीक़े और जो नए क़ायदे-क़ानून उनके फ़क़ीहों (धर्म-शास्त्रियों) सूफ़ियों और फ़लसफ़ियों ने गढ़े और बनाए, उन्हीं की पैरवी पर इनसान की कामयाबी और नजात (मोक्ष) का दारोमदार है। उन उलमा से जब पूछा जाता था कि अगर यही बात है, तो हज़रत इबराहीम, इसहाक़, याक़ूब वग़ैरा नबी (अलैहि०) आख़िर तुम्हारे इन गरोहों में से किससे ताल्लुक़ रखते थे, तो वे इसका जवाब देने से बचते थे, क्योंकि उनका इल्म उन्हें यह कहने की तो इजाज़त न देता था कि इन बुज़ुर्गों का ताल्लुक़ हमारे ही गरोह से था। लेकिन अगर वे साफ़ लफ़्ज़ों में यह मान लेते कि ये नबी न यहूदी थे, न ईसाई तो फिर उनकी दलील ही ख़त्म हो जाती।
تِلۡكَ أُمَّةٞ قَدۡ خَلَتۡۖ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَلَكُم مَّا كَسَبۡتُمۡۖ وَلَا تُسۡـَٔلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 138
(141) — वे कुछ लोग थे जो गुज़र चुके। उनकी कमाई उनके लिए थी और तुम्हारी कमाई तुम्हारे लिए। तुमसे उनके आमाल (कर्मो) के बारे में पूछा नहीं जाएगा।”
۞سَيَقُولُ ٱلسُّفَهَآءُ مِنَ ٱلنَّاسِ مَا وَلَّىٰهُمۡ عَن قِبۡلَتِهِمُ ٱلَّتِي كَانُواْ عَلَيۡهَاۚ قُل لِّلَّهِ ٱلۡمَشۡرِقُ وَٱلۡمَغۡرِبُۚ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 139
(142) नादान लोग ज़रूर कहेंगे: इन्हें क्या हुआ कि पहले ये जिस क़िबले (उपासना-दिशा) की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उससे अचानक फिर गए? 142 नबी! इनसे कहो, “पूरब और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। अल्लाह जिसे चाहता है, सीधी राह दिखा देता है।"143
142. नबी (सल्ल०) हिजरत के बाद मदीना तैयबा में सोलह या सत्तरह महीने तक बैतुल-मक़दिस की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ते रहे। फिर काबे की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म आया, जिसकी तफ़सील आगे आती है।
143. यह उन नादानों के एतिराज़ का पहला जवाब है। उनके दिमाग़ तंग थे, नज़र महदूद थी। वे सम्त और जगह के बन्दे बने हुए थे। उनका गुमान यह था कि ख़ुदा किसी ख़ास सम्त में क़ैद है, इसलिए सबसे पहले उनके जाहिलाना एतिराज़ के रद्द में यही कहा गया कि पूरब और पश्चिम सब सम्तें अल्लाह की हैं। किसी सम्त को क़िबला बनाने के मानी ये नहीं हैं कि अल्लाह उसी तरफ़ है। जिन लोगों को अल्लाह ने हिदायत बख़्शी है, वे इस क़िस्म की तंग नज़रियों से बहुत ऊँचे होते हैं और उनके लिए आलमगीर हक़ीक़तों को समझने की राह खुल जाती है। (देखिए हाशिया नम्बर 115-116)
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَٰكُمۡ أُمَّةٗ وَسَطٗا لِّتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِ وَيَكُونَ ٱلرَّسُولُ عَلَيۡكُمۡ شَهِيدٗاۗ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلۡقِبۡلَةَ ٱلَّتِي كُنتَ عَلَيۡهَآ إِلَّا لِنَعۡلَمَ مَن يَتَّبِعُ ٱلرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِۚ وَإِن كَانَتۡ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُضِيعَ إِيمَٰنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 140
(143) और इसी तरह तो हमने तुम्हें एक ‘उम्मे-वसत’ बनाया है ताकि तुम दुनिया के लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो।144 पहले जिस तरफ़ तुम रुख़ करते थे, उसको तो हमने सिर्फ़ यह देखने के लिए क़िबला मुक़र्रर किया था कि कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उलटा फिर जाता है।145 यह मामला है तो बड़ा सख़्त मगर उन लोगों के लिए कुछ भी सख़्त न साबित हुआ, जो अल्लाह की हिदायत से फ़ैज़याब थे। अल्लाह तुम्हारे इस ईमान को हरगिज़ बरबाद न करेगा, यक़ीन जानो कि वह लोगों के हक़ में बहुत मेहरबान और रहम करनेवाला है।
144. यह इस बात का एलान है कि मुहम्मद (सल्लo) को सारी दुनिया की रहनुमाई और पेशवाई की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है। इसी तरह का इशारा दोनों तरफ़ है अल्लाह की उस रहनुमाई की तरफ़ भी, जिससे मुहम्मद (सल्लo) की पैरवी क़ुबूल करनेवालों को सीधी राह मालूम हुई और वे तरक़्क़ी करते-करते इस मरतबे पर पहुँचे कि ‘उम्मते-वसत’ (उच्च और उत्तम समुदाय) क़रार दिए गए और क़िबले की तब्दीली की तरफ़ भी कि नादान इसे सिर्फ़ एक सम्त से दूसरी दिशा की तरफ़ फिरना समझ रहे हैं। हालाँकि अस्ल में बैतुल-मक़्दिस से काबे की तरफ़ क़िबला की दिशा का फिरना यह मानी रखता है कि अल्लाह ने बनी-इसराईल को दुनिया की पेशवाई के मंसब से बाज़ाब्ता हटा दिया और मुहम्मद (सल्लo) की उम्मत को इसपर बिठा दिया। ‘उम्मते-वसत’ (उच्च और उत्तम समुदाय) लफ़्ज़ के अन्दर इतने ज़्यादा मानी पाए जाते हैं कि किसी दूसरे लफ़्ज़ से इसके तर्जमे का हक़ अदा नहीं किया जा सकता। इससे मुराद एक ऐसा आला और बेहतरीन गरोह है, जो अद्ल और इनसाफ़ और मुनासिब और दरम्यानी राह पर चलनेवाला हो, जो दुनिया की क़ौमों के बीच सदर की हैसियत रखता हो। जिसका ताल्लुक़ सबके साथ यकसाँ हक़ और सच्चाई का ताल्लुक़ हो और नामुनासिब और नाहक़ ताल्लुक़ किसी से न हो। फिर यह जो कहा कि तुम्हें ‘उम्मते-वसत’ इसलिए बनाया गया है कि “तुम लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हो”, तो इससे मुराद यह है कि आख़िरत (परलोक) में जब सारे इनसानों का इकट्ठा हिसाब लिया जाएगा, उस वक़्त रसूल हमारे ज़िम्मेदार नुमाइन्दे की हैसियत से तुमपर गवाही देगा कि सही फ़िक्र, अच्छे अमल और इनसाफ़ के निज़ाम (व्यवस्था) की जो तालीम हमने उसे दी थी, वह उसने तुम तक बिना कमी-बेशी के पूरी-की-पूरी पहुँचा दी और अमली तौर पर इसके मुताबिक़ काम करके दिखा दिया। इसके बाद रसूल के क़ायम-मक़ाम (नुमाइन्दे) होने की हैसियत से तुमको आम इनसानों पर गवाह की हैसियत से उठना होगा और यह गवाही देनी होगी कि रसूल ने जो कुछ तुम्हें पहुँचाया था, वह तुमने उन्हें पहुँचाने में और जो कुछ रसूल ने तुम्हें दिखाया था, वह तुमने उन्हें देखाने में अपनी हद तक कोई कोताही नहीं की। इस तरह किसी शख़्स या गरोह का इस दुनिया में ख़ुदा की तरफ़ से गवाही के मंसब पर मुक़र्रर् होना ही हक़ीक़त में उसका इमामत और पेशवाई के मक़ाम पर बिठाया जाना है। इसमें जहाँ बुलन्दी और बड़ाई है, वहीं ज़िम्मेदारी का बहुत बड़ा बोझ भी है। इसके मानी ये हैं कि जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्लo) इस उम्मत के लिए ख़ुदातरसी, सच्चाई, इनसाफ़ और हक़परस्ती की ज़िन्दा गवाही बने, इसी तरह इस उम्मत को भी तमाम दुनिया के लिए भी ज़िन्दा गवाही बनना चाहिए, यहाँ तक कि उसके क़ौल (कथन) और अमल और बरताव, हर चीज़ को देखकर दुनिया को मालूम हो कि ख़ुदातरसी (ईशपरायणता) इसका नाम है, रास्तरवी (सदाचार) यह है, अदालत (न्याय) इसको कहते हैं और हक़परस्ती (सत्यनिष्ठता) ऐसी होती है। फिर इसके मानी ये भी हैं कि जिस तरह ख़ुदा की हिदायत हम तक पहुँचाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्लo) की ज़िम्मेदारी बड़ी सख़्त थी, यहाँ तक कि अगर वह इसमें ज़रा-सी कोताही भी करते तो ख़ुदा के यहाँ पकड़े जाते, उसी तरह दुनिया के आम इनसानों तक इस हिदायत को पहुँचाने की निहायत सख़्त ज़िम्मेदारी हमपर आती है। अगर हम ख़ुदा की अदालत में वाक़ई इस बात की गवाही न दे सकें कि हमने तेरी हिदायत, जो तेरे रसूल (सल्लo) के ज़रिए से हमको पहुँची थी, तेरे बन्दों तक पहुँचा देने में कोई कोताही नहीं की है, तो हम बहुत बुरी तरह पकड़े जाएँगे और पेशवाई का यही फ़ख़्र (गर्व) हमें वहाँ ले डूबेगा। हमारी पेशवाई के दौर में हमारी वाक़ई कोताहियों की वजह से सोच और अमल की जितनी गुमराहियाँ दुनिया में फैली हैं और जितने फ़साद और फ़ितने ख़ुदा की ज़मीन में पैदा हुए हैं इन सबके लिए बुराई के सरदारों और इनसान रूपी शैतानों और जिन्न रूपी शैतानों के साथ-साथ हम भी पकड़े जाएँगे। हम से पूछा जाएगा कि जब दुनिया में बुराई और ज़ुल्म और गुमराही का यह तूफ़ान बरपा था, तो तुम कहाँ मर गए थे?
145. यानी इसका मक़सद यह देखना था कि कौन लोग हैं जो जाहिलियत के तास्सुबात (पक्षपात) और ख़ाक और ख़ून की ग़ुलामी में पड़े हैं और कौन हैं जो इन बन्दिशों से आज़ाद होकर सच्चाइयों को सही समझ पाते हैं। एक तरफ़ अरबवाले अपने वतन और नस्ल के घमण्ड में पड़े हुए थे और अरब के ‘काबा’ को छोड़कर बाहर के बैतुल-मक़्दिस को क़िबला बनाना उनकी इस क़ौम-परस्ती के बुत पर ऐसी चोट थी जिसे वे बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे। दूसरी तरफ़ बनी-इसराईल अपनी नस्लपरस्ती के घमण्ड में फँसे हुए थे और अपने बाप-दादों के क़िबले के सिवा किसी दूसरे क़िबले को बरदाश्त करना उनके लिए मुश्किल था। ज़ाहिर है कि ये बुत जिन लोगों के दिलों में बसे हुए हों, वे उस रास्ते पर कैसे चल सकते थे जिसकी तरफ़ अल्लाह का रसूल उन्हें बुला रहा था। इसलिए अल्लाह ने उन बुतपरस्तों को सच्चे हक़परस्तों से अलग छाँट देने के लिए पहले बैतुल-मक़्दिस को क़िबला मुक़र्रर किया, ताकि जो लोग अरबियत (अरबवालों) के बुत की परस्तिश करते हैं, वे अलग हो जाएँ। फिर इस क़िबले को छोड़कर काबा को क़िबला बनाया ताकि जो इसराईलियत के पुजारी हैं, वे भी अलग हो जाएँ। इस तरह सिर्फ़ वे लोग रसूल के साथ रह गए जो किसी बुत के पुजारी (परस्तार) न थे, सिर्फ़ अल्लाह के पुजारी थे।
قَدۡ نَرَىٰ تَقَلُّبَ وَجۡهِكَ فِي ٱلسَّمَآءِۖ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبۡلَةٗ تَرۡضَىٰهَاۚ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَيَعۡلَمُونَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 141
(144) यह तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना हम देख रहे हैं। लो, हम उसी क़िबले की तरफ़ तुम्हें फेरे देते हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद काबा) की तरफ़ रुख़ फेर दो। अब जहाँ कहीं तुम हो, उसी (मस्जिदे-हराम) की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो।146 ये लोग, जिन्हें किताब दी गई थी, ख़ूब जानते हैं कि (क़िबला बदलने का) यह हुक्म उनके रब ही की तरफ़ से है और बरहक़ है, मगर इसके बावजूद जो कुछ ये कर रहे हैं, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं है।
146. यह है वह अस्ल हुक्म जो क़िबला बदलने के बारे में दिया गया था। यह हुक्म अरबी महीने रजब या शाबान सन् 02 हिo में उतरा। इब्ने-साद की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) अपने एक सहाबी बिश्र-बिन-बराअ-बिन-मारूर के यहाँ दावत पर गए हुए थे, वहाँ ज़ुह्‍र का वक़्त हो गया और आप लोगों को नमाज़ पढ़ाने खड़े हुए। दो रकअतें पढ़ा चुके थे कि तीसरी रकअत में यकायक वह्य के ज़रिए से यह आयत नाज़िल हुई और उसी वक़्त आप और आपकी पैरवी में जमाअत के साथ लोग बैतुल-मक़दिस से काबा के रुख़ फिर गए। इसके बाद मदीना और उसके चारों तरफ़ इसकी आम मुनादी की गई। बरा-बिन-आज़िब कहते हैं कि एक जगह इस मुनादी की आवाज़ इस हालत में पहुँची कि लोग रुकू में थे। हुक्म सुनते ही सब-के-सब उसी हालत में काबा की तरफ़ मुड़ गए। अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) कहते हैं कि क़बीला बनी-सलमा में यह ख़बर दूसरे दिन सुबह की नमाज़ के वक़्त पहुँची। लोग एक रकअत पढ़ चुके थे कि उनके कानों में आवाज़ पड़ी, “ख़बरदार रहो कि क़िबला बदलकर काबे की तरफ़ कर दिया गया।” सुनते ही पूरी जमाअत ने अपना रुख़ बदल दिया। ख़याल रहे कि बैतुल-मक़दिस मदीने से ठीक उत्तर में है और काबा बिलकुल दक्खिन (दक्षिण) में। जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ते हुए क़िबला बदलने में लाज़िमी तौर पर इमाम को चलकर नमाज़ियों (मुक्तदियों) के पीछे आना पड़ा होगा और नमाज़ियों को सिर्फ़ रुख़ ही न बदलना पड़ा। होगा, बल्कि कुछ न कुछ उन्हें भी चलकर अपनी सफ़ें ठीक करनी पड़ी होंगी। इसी लिए कुछ रिवायतों में यही तफ़सील मिलती भी है। और यह जो फ़रमाया कि “हम तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना देख रहे हैं” और यह कि “हम उसी क़िबले की तरफ़ तुम्हें फेरे देते हैं, जिसे तुम पसन्द करते हो” इससे साफ़ मालूम होता है कि क़िबला बदलने का हुक्म आने से पहले नबी (सल्ल०) इसके इन्तिज़ार में थे। आप ख़ुद यह महसूस कर रहे थे कि बनी-इसराईल की पेशवाई का दौर ख़त्म हो चुका है। और इसके साथ बैतुल-मक़दिस की मर्कज़ियत (केन्द्रीय हैसियत) भी ख़त्म हुई। अब अस्ल इबराहीमी मर्कज़ (केन्द्र) की तरफ़ रुख़ करने का वक़्त आ गया है। मस्जिदे-हराम के मानी हैं हुरमत और इज़्ज़तवाली मस्जिद। इससे मुराद वह इबातदगाह है, जिसके बीच में ख़ाना-काबा वाक़ेअ (स्थित) है। काबा की तरफ़ रुख़ करने का मतलब यह नहीं है कि आदमी चाहे दुनिया के किसी कोने में हो, उसे बिलकुल नाक की सीध में काबे की तरफ़ रुख़ करना चाहिए। ज़ाहिर है कि ऐसा करना हर वक़्त, हर शख़्स के लिए हर जगह मुश्किल है। इसी लिए काबे की तरफ़ मुँह करने का हुक्म दिया गया है, न कि काबे की सीध में। क़ुरआन की रूह से हम इस बात के लिए ज़रूर पाबन्द हैं कि जहाँ तक मुमकिन हो काबा की सही सम्त मालूम करें, मगर इस बात के पाबन्द नहीं हैं कि ज़रूर बिलकुल ही सही सम्त मालूम कर लें। जिस सम्त के बारे में हमें इमकानी तहकीक़ से ज़्यादा गुमान हासिल हो जाए कि यह काबा की सम्त है, उधर नमाज़ पढ़ना यक़ीनी तौर पर सही है और अगर कहीं आदमी के लिए क़िबले की सम्त की तहक़ीक़ मुश्किल हो या वह किसी ऐसी हालत में हो कि क़िबले की तरफ़ अपनी सम्त क़ायम न रख सकता हो (जैसे रेल या कश्ती में) तो जिस तरफ़ उसे क़िबले का गुमान हो या जिस तरफ़ रुख़ करना उसके लिए मुमकिन हो उसी तरफ़ वह नमाज़ पढ़ सकता है। अलबत्ता अगर नमाज़ के बीच में क़िबले की सही सम्त मालूम हो जाए या सही सम्त की तरफ़ नमाज़ पढ़ना मुमकिन हो जाए तो नमाज़ की हालत ही में उस तरफ़ फिर जाना चाहिए।
وَلَئِنۡ أَتَيۡتَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ بِكُلِّ ءَايَةٖ مَّا تَبِعُواْ قِبۡلَتَكَۚ وَمَآ أَنتَ بِتَابِعٖ قِبۡلَتَهُمۡۚ وَمَا بَعۡضُهُم بِتَابِعٖ قِبۡلَةَ بَعۡضٖۚ وَلَئِنِ ٱتَّبَعۡتَ أَهۡوَآءَهُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ إِنَّكَ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 142
(145) तुम इन अहले-किताब के पास चाहे कोई निशानी ले आओ, मुमकिन नहीं कि ये तुम्हारे क़िबले की पैरवी करने लगें, और न तुम्हारे लिए यह मुमकिन है कि उनके क़िबले की पैरवी करो, और इनमें से कोई गरोह भी दूसरे के क़िबले की पैरवी के लिए तैयार नहीं है, और अगर तुमने उस इल्म के बाद, जो तुम्हारे पास आ चुका है, उनकी ख़ाहिशों की पैरवी की, तो यक़ीनन तुम्हारी गिनती ज़ालिमों में होगी।147
147. मतलब यह है कि क़िबले के बारे में जो हुज्जत और बहस ये लोग करते हैं, उसका फ़ैसला न तो इस तरह हो सकता है कि दलील से उन्हें मुतमइन कर दिया जाए, क्योंकि ये तास्सुब (पक्षपात) और हठधर्मी में पड़े हुए हैं, और किसी दलील से भी उस क़िबले को छोड़ नहीं सकते, जिसे ये अपनी गरोहबन्दी के तास्सुबात (पक्षपातों) की वजह से पकड़े हुए हैं। और न इसका फ़ैसला इस तरह हो सकता है कि तुम इनके क़िबले को अपना लो, क्योंकि इनका कोई एक क़िबला नहीं है जिसपर ये सारे गरोह एक राय रखते हों और उसे अपना लेने से क़िबले का झगड़ा चुक जाए। मुख़्तलिफ़ गरोहों के मुख़्तलिफ़ क़िबले हैं। एक का क़िबला अपनाकर बस एक ही गरोह को राज़ी कर सकोगे। दूसरों का झगड़ा ज्यों का त्यों बाक़ी रहेगा। और सबसे बड़ी बात यह है कि पैग़म्बर की हैसियत से तुम्हारा यह काम है ही नहीं कि तुम लोगों को राज़ी करते फिरो और उनसे लेन-देन के तरीक़े पर समझौता किया करो। तुम्हारा काम तो यह है कि जो इल्म हमने तुमको दिया है, सबसे बेपरवाह होकर सिर्फ़ उसी पर सख़्ती के साथ डट जाओ। इससे हटकर किसी को राजी करने की फ़िक्र करोगे तो अपनी पैग़म्बरी के मंसब पर ज़ुल्म करोगे और उस नेमत की नाशुक्री करोगे, जो दुनिया का रहनुमा बनाकर हमने तुम्हें बख़्शी है।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡرِفُونَهُۥ كَمَا يَعۡرِفُونَ أَبۡنَآءَهُمۡۖ وَإِنَّ فَرِيقٗا مِّنۡهُمۡ لَيَكۡتُمُونَ ٱلۡحَقَّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 143
(146) जिन लोगों को हमने किताब दी है, वे इस जगह को (जिसे क़िबला बनाया गया है) ऐसा पहचानते हैं, जैसा अपनी औलाद को पहचानते हैं।148 , मगर इनमें से एक गरोह जानते-बूझते हक़ को छिपा रहा है।
148. यह अरब का मुहावरा है, जिस चीज़ को आदमी यक़ीनी तौर पर जानता हो और उसके बारे में किसी तरह का शक और शुब्हाा न रखता हो, उसे यूँ कहते हैं कि वह उस चीज़ को ऐसा पहचानता है, जैसा अपनी औलाद को पहचानता है। यानी जिस तरह उसे अपने बच्चों को पहचानने में कोई शक (संदेह) नहीं होता, उसी तरह वह बिना किसी शक के यक़ीनी तौर पर उस चीज़ को भी जानता है। यहूदियों और ईसाइयों के उलमा हक़ीक़त में यह बात अच्छी तरह जानते थे कि काबा को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तामीर किया था और इसके बरख़िलाफ़ बैतुल-मक़दिस इसके 1300 साल बाद हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के हाथों तामीर हुआ और उन्हीं के ज़माने में क़िबला क़रार पाया। इस तारीख़ी वाक़िए में उनके लिए ज़र्रा बराबर किसी शक की गुंजाइश न थी।
ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 144
(147) यह यक़ीनन एक सच्ची चीज़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से, इसलिए इसके बारे में तुम हरगिज़ किसी शक में न पड़ो।
وَلِكُلّٖ وِجۡهَةٌ هُوَ مُوَلِّيهَاۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ أَيۡنَ مَا تَكُونُواْ يَأۡتِ بِكُمُ ٱللَّهُ جَمِيعًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 145
(148) हर एक के लिए एक रुख़़ है जिसकी तरफ़ वह मुड़ता है। तो तुम भलाइयों की तरफ़ बढ़ने में तेज़ी दिखाओ।149 जहाँ भी तुम होगे, अल्लाह तुम्हें पा लेगा। उसकी क़ुदरत से कोई चीज़ बाहर नहीं।
149. पहले जुमले और दूसरे जुमले के दरमियान एक बारीक ख़ला (रिक्तता) है, जिसे सुननेवाला ख़ुद थोड़े-से ग़ौर-फ़िक्र से भर सकता है। मतलब यह है कि नमाज़ जिसे पढ़नी होगी, उसे बहरहाल किसी-न-किसी सम्त की तरफ़ तो रुख़ करना ही होगा, मगर अस्ल चीज़ वह रुख़ नहीं है, जिस तरफ़ तुम मुड़ते हो, बल्कि अस्ल चीज़ वे भलाइयाँ हैं जिन्हें हासिल करने के लिए तुम नमाज़ पढ़ते हो। इसलिए सम्त और जगह की बहस में पड़ने के बजाय तुम्हें फ़िक्र भलाइयों के हासिल करने ही की होनी चाहिए।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۖ وَإِنَّهُۥ لَلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 146
(149) तुम्हारा गुज़र जिस जगह से भी हो, वहीं से अपना रुख़ (नमाज़ के वक़्त) मस्जिदे हराम (काबा) की तरफ़ फेर दो, क्योंकि यह तुम्हारे रब का बिलकुल बरहक़ फ़ैसला है और अल्लाह तुम लोगों के आमाल (कर्मों) से बेख़बर नहीं है।
وَمِنۡ حَيۡثُ خَرَجۡتَ فَوَلِّ وَجۡهَكَ شَطۡرَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَحَيۡثُ مَا كُنتُمۡ فَوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ شَطۡرَهُۥ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَيۡكُمۡ حُجَّةٌ إِلَّا ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡهُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِي وَلِأُتِمَّ نِعۡمَتِي عَلَيۡكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 147
(150) और जहाँ से भी होकर तुम्हारा गुज़र हो तुम अपना रुख़ मस्जिदे-हराम (काबा) ही की तरफ़ फेरा करो, और जहाँ भी तुम हो, उसी की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ो, ताकि लोगों को तुम्हारे ख़िलाफ़ झगड़ने की कोई दलील न मिले।150- हाँ, उनमें से जो ज़ालिम हैं, वे तो कभी चुप न होंगे। तो उनसे तुम न डरो, बल्कि मुझसे इरो और इसलिए कि मैं तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दूँ।151 और इस उम्मीद152 पर कि मेरे इस हुक्म पर चलने से तुम उसी तरह कामयाबी का रास्ता पाओगे,
150. यानी हमारे इस हुक्म की पूरी पाबन्दी करो। कभी ऐसा न हो कि तुममें से कोई आदमी तय की हुई सम्त के सिवा किसी दूसरी सम्त की तरफ़ नमाज़ पढ़ते देखा जाए। वरना तुम्हारे दुश्मनों को तुमपर यह एतिराज़ करने का मौक़ा मिल जाएगा कि क्या ख़ूब उम्मते-वसत (उत्तम समुदाय) है, कैसे अच्छे हक़परस्ती के गवाह बने हैं, जो यह भी कहते जाते हैं कि यह हुक्म हमारे रब की तरफ़ से आया है और फिर उसकी ख़िलाफ़वर्जी भी किए जाते हैं।
151. नेमत से मुराद वही इमामत (नेतृत्व) और पेशवाई की नेमत है, जो बनी-इसराईल से छीन करके उस उम्मत (समुदाय) को दे दी गई थी। दुनिया में एक उम्मत के सीधे रास्ते पर चलने का यह सबसे बड़ा फल है कि वह अल्लाह के हुक्म से दुनिया की क़ौमों की रहनुमा व पेशवा बनाई जाए और सारे इनसानों को ख़ुदापरस्ती और नेकी के रास्ते पर चलाने की ख़िदमत उसके सिपुर्द की जाए। यह मंसब जिस उम्मत को दिया गया, हक़ीक़त में उसपर अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल और इनाम को मुकम्मल कर दिया। अल्लाह तआला यहाँ यह फ़रमा रहा है कि क़िबला बदलने का यह हुक्म अस्ल में इस मंसब पर तुम्हें विठाए जाने का निशान (प्रतीक) है। तुम्हें इसलिए भी हमारे इस हुक्म की पैरवी करनी चाहिए कि नाशुक्री और नाफ़रमानी करने से कहीं यह मंसब तुमसे छीन न लिया जाए। इसकी पैरवी करोगे तो यह नेमत तुमपर मुकम्मल कर दी जाएगी।
152. यानी इस हुक्म की पैरवी करते हुए यह उम्मीद रखो। बयान करने का यह शाहाना अन्दाज़ है। बादशाह का अपनी बेनियाज़ी (निस्पृहता) की शान के साथ किसी नौकर से यह कह देन कि हमारी तरफ़ से फ़ुलाँ इनाम और मेहरबानी की उम्मीद रखो, इस बात के लिए बिलकुल काफ़ी होता है कि वह नौकर अपने घर में ख़ुशी का जश्न मनाए, उसे मुबारकवादियाँ दी जाने लगें।
ٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَٰبَتۡهُم مُّصِيبَةٞ قَالُوٓاْ إِنَّا لِلَّهِ وَإِنَّآ إِلَيۡهِ رَٰجِعُونَ ۝ 148
(156) इन हालात में जो लोग सब्र से काम लें और जब कोई मुसीबत पड़े तो कहें कि “हम अल्लाह ही के हैं और अल्लाह ही की तरफ़ हमें पलटकर जाना है।”156, उन्हें ख़ुशख़बरी दे दो।
156. कहने से मुराद सिर्फ़ ज़बान से ये बोल अदा कर देना नहीं है, बल्कि दिल से इस बात का क़ायल होना है कि “हम अल्लाह ही के हैं” इसलिए अल्लाह की राह में हमारी जो चीज़ भी क़ुरबान हुई, वह मानो ठीक अपनी जगह ख़र्च हुई, जिसकी चीज़ थी उसी के काम आ गई और यह कि “अल्लाह ही की तरफ़ हमें पलटना है,” यानी बहरहाल हमेशा इस दुनिया में रहना नहीं है। आख़िरकार, देर या सवेर, जाना ख़ुदा ही के पास है। इसलिए क्यों न उसकी राह में जान लड़ाकर उसके सामने हाज़िर हों। यह इससे लाख दरजा बेहतर है कि हम अपने नफ़्स की परवरिश में लगे रहें और इसी हालत में अपनी मौत ही के वक़्त पर किसी बीमारी या हादिसे (दुर्घटना) के शिकार हो जाएँ।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ صَلَوَٰتٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَرَحۡمَةٞۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُهۡتَدُونَ ۝ 149
(157) उनपर उनके रब की तरफ़ से बड़ी इनायतें होंगी, उसकी रहमत (दयालुता) उनपर साया करेगी और ऐसे ही लोग सीधे रास्ते पर चलनेवाले हैं।
۞إِنَّ ٱلصَّفَا وَٱلۡمَرۡوَةَ مِن شَعَآئِرِ ٱللَّهِۖ فَمَنۡ حَجَّ ٱلۡبَيۡتَ أَوِ ٱعۡتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَاۚ وَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَإِنَّ ٱللَّهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ ۝ 150
(158) यक़ीनन सफ़ा और मरवा अल्लाह की निशानियों में से हैं। लिहाज़ा जो शख़्स अल्लाह के घर का हज या उमरा करे157 उसके लिए कोई गुनाह की बात नहीं कि वह इन दोनों पहाड़ियों के बीच सई (तेज़ी से फेरा) कर ले158 और जो अपनी ख़ुशी और मरज़ी से कोई भलाई का काम करेगा,159 अल्लाह को उसका इल्म है और वह उसकी क़द्र करनेवाला है।
56. इशारा है सबा, समूद, मदयन और क़ौमे-लूत के उजड़े इलाक़ों की तरफ़ जिन्हें क़ुरैश के लोग अपने तिजारती सफ़रों में आते-जाते देखा करते थे और जिनको अरब के दूसरे लोग भी अच्छी तरह जानते थे।
158. सफ़ी और मरवा मस्जिदे-हराम के पास दो पहाड़ियाँ हैं, जिनके बीच में दौड़ना उन तरीक़ों में था, जो अल्लाह ने हज के लिए हज़रत इबराहीम को सिखाए थे। बाद में जब मक्का और आस-पास के सभी इलाक़ों में मुशरिकाना जाहिलियत (बहुदेववादी अज्ञानता) फैल गई, तो सफ़ा पर 'इसाफ़' और मरवा पर 'नाइला' के स्थान बना लिए गए और उनके चारों तरफ़ तवाफ़ (परिक्रमा) होने लगा। फिर जब नबी (सल्ल०) के ज़रिए से इस्लाम की रौशनी अरबवालों तक पहुँची, तो मुसलमानों के दिलों में यह सवाल खटकने लगा कि क्या सफ़ा और मरवा की सई हज के असली तरीक़ों में से है या सिर्फ़ शिर्क के ज़माने की पैदावार है और यह कि इस सई से कहीं हम एक मुशरिकाना काम करनेवाले तो नहीं हो जाएँगे। साथ ही हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत से मालूम होता है कि मदीनावालों के दिलों में पहले ही से सफ़ा और मरवा के बीच सई के बारे में कराहत मौजूद थी, क्योंकि वे 'मनात' को माननेवाले थे और इसाफ़ और नाइला को नहीं मानते थे। इन्हीं वजहों से ज़रूरी हुआ कि मस्जिदे-हराम को क़िबला मुक़र्रर करने के मौक़े पर उन ग़लतफ़हमियों को दूर कर दिया जाए जो सफ़ा और मरवा के बारे में पाई जाती थीं और लोगों को बता दिया जाए कि इन दोनों जगहों के बीच सई करना हज के असली तरीक़ों में से है और यह कि इन मक़ामों (स्थानों) का मुक़द्दस (पवित्र एवं पुनीत) होना ख़ुदा की तरफ़ से है, न कि जाहिलियत के ज़माने के लोगों का मनगढ़त।
159. यानी बेहतर तो यह है कि यह काम दिल की लगन के साथ करो, वरना हुक्म को पूरा करने के लिए तो करना ही होगा।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡتُمُونَ مَآ أَنزَلۡنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلۡهُدَىٰ مِنۢ بَعۡدِ مَا بَيَّنَّٰهُ لِلنَّاسِ فِي ٱلۡكِتَٰبِ أُوْلَٰٓئِكَ يَلۡعَنُهُمُ ٱللَّهُ وَيَلۡعَنُهُمُ ٱللَّٰعِنُونَ ۝ 151
(159) जो लोग हमारी उतारी हुई रौशन तालीमात (खुली शिक्षाओं) और हिदायतों को छिपाते हैं, हालाँकि हम उन्हें सारे इनसानों की रहनुमाई के लिए अपनी किताब बयान कर चुके हैं, यक़ीन जानो कि अल्लाह भी उनपर लानत करता है। और सभी लानतवाले भी उनपर लानत करते हैं।160
160. यहूदी उलमा का सबसे बड़ा क़ुसूर यह था कि उन्होंने अल्लाह की किताब के इल्म को फैलाने के बजाय उसको रिब्बियों और मज़हबी पेशावरों के एक महदूद (सीमित) तबक़ों में मुकैयद (बंद) कर रखा था और आम लोग तो दरकिनार ख़ुद यहूदी अवाम तक को इसकी हवा तक न लगने देते थे। फिर जब आम जहालत (सामान्य अज्ञानता) की वजह से उनके अन्दर गुमराहियाँ फैलीं, तो उनके उलमा ने, न सिर्फ़ यह कि इस्लाह की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि वे आम लोगों में अपनी मक़ुबूलियत (लोकप्रियता) को बनाए रखने के लिए हर उस गुमराही और बिदअत को, जिसका रिवाज आम हो जाता, अपने क़ौलो-अमल (कथनी और करनी) से या अपनी चुप्पी से उलटे जाइज़ होने की सनद देने लगे। इसी से बचने की ताक़ीद मुसलमानों को की जा रही है। दुनिया की हिदायत का काम जिस उम्मत के सिपुर्द किया जाए, उसका फ़र्ज़ यह है कि उस हिदायत को ज़्यादा -से-ज़्यादा फैलाए, न यह कि कंजूस के माल की तरह उसे छिपा रखे।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ وَأَصۡلَحُواْ وَبَيَّنُواْ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَتُوبُ عَلَيۡهِمۡ وَأَنَا ٱلتَّوَّابُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 152
(160) अलबत्ता जो इस रवैये को छोड़ दें और अपने रवैये को सुधार लें और जो कुछ छिपाते थे उसे बयान करने लगें, तो उनको मैं माफ़ कर दूँगा, और मैं बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला हूँ।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٌ أُوْلَٰٓئِكَ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةُ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 153
(161) जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) का रवैया161 अपनाया और कुफ़्र की हालत ही में मरे, उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और सारे इनसानों की लानत है।
161. 'कुफ़्र' के असली मानी 'छिपाने’ के हैं। इसी से इनकार का मफ़हूम (भाव) पैदा हुआ और यह लफ़्ज़ 'ईमान' के मुक़ाबले में बोला जाने लगा। ईमान के मानी हैं मानना, क़ुबूल करना, तस्लीम कर लेना। इसके बरख़िलाफ़ कुफ़्र के मानी हैं न मानना, रद्द कर देना, इनकार करना। क़ुरआन के मुताबिक़ कुफ़्र के रवैये की कई शक्लें हैं। एक यह कि इनसान सिरे से ख़ुदा ही को न माने या उसके इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) को तस्लीम न करे और उसको अपना और सारी कायनात (जगत्) का मालिक और माबूद (पूज्य) मानने से इनकार कर दे या उसे अकेला मालिक और माबूद न माने। दूसरे यह कि अल्लाह को तो माने, मगर उसके हुक्मों और उसकी हिदायतों को इल्म और क़ानून का वाहिद (एक मात्र) सरचश्मा मानने से इनकार कर दे। तीसरे यह कि उसूली तौर पर इस बात को भी मान ले कि उसे अल्लाह ही की हिदायत पर चलना चाहिए, मगर अल्लाह अपनी हिदायतों और अपने हुक्मों को पहुँचाने के लिए जिन पैग़म्बरों को ज़रिआ बनाता है, उन्हें तस्लीम न करे। चौथे यह कि पैग़म्बरों के दरमियान फ़र्क़ करे और अपनी पसन्द या अपने तास्सुबात (पक्षपातों) की वजह से उनमें से किसी को माने और किसी को न माने। पाँचवें यह कि पैग़म्बरों ने ख़ुदा की तरफ़ से अक़ीदों, अख़लाक़ और ज़िन्दगी के क़ानूनों के बारे में जो तालीम दी हैं, उनको या उनमें से किसी चीज़ को क़ुबूल न करे। छठे यह कि उसूली तौर पर तो इन सब चीज़ों को मान ले मगर अमली तौर पर अल्लाह के हुक्मों की जान-बूझकर नाफ़रमानी करे और इस नाफ़रमानी पर अड़ा भी रहे और दुनिया की ज़िन्दगी में अपने रवैये की नींव फ़रमाँबरदारी पर नहीं, बल्कि नाफ़रमानी ही पर रखे। सोचने और अमल करने के ये सभी मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) अन्दाज़ अल्लाह के मुक़ाबले में बग़ावत के हैं और इनमें से हर एक रवैये को क़ुरआन कुफ़्र का नाम देता है। इसके अलावा कुछ जगहों पर क़ुरआन में कुफ़्र का लफ़्ज़ नेमत के इनकार के मानी में भी इस्तेमाल हुआ है और शुक्र के मुक़ाबले में बोला गया है। शुक्र के मानी ये हैं कि नेमत जिसने दी है, इनसान उसका एहसानमन्द हो, उसके एहसान की कद्र करे, उसकी दी हुई नेमत को उसी की ख़ुशी के मुताबिक़ इस्तेमाल करे और उसका दिल अपने एहसान करनेवाले के लिए वफ़ादारी के जज़्बे से भरा हुआ हो। इसके मुक़ाबले में कुफ़्र या नेमत का इनकार यह है कि आदमी या तो अपने एहसान करनेवाले का एहसान ही न माने और उसे अपनी सलाहियत या किसी दूसरे की इनायत (देन) या सिफ़ारिश का नतीजा समझे, या उसकी दी हुई नेमत की नाक़्द्री करे और उसे बरबाद कर दे या उसकी नेमत को उसकी ख़ुशी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करे, या उसके एहसानों के बावजूद उसके साथ ग़द्दारी और बेवफ़ाई करे। इस तरह के कुफ़्र को हमारी ज़बान में आम तौर पर एहसान-फ़रामोशी, नमक हरामी, ग़द्दारी और नाशुक्रेपन के लफ़्ज़ों से बयान किया जाता है।
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 154
(162 ) इसी फिटकार की हालत में वे हमेशा रहेंगे, न उनकी सज़ा में कमी होगी और न उन्हें फिर कोई दूसरी मुहलत दी जाएगी।
وَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 155
(163 ) तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है। उस रहमान (कृपाशील) और रहीम (दयावान) के सिवा कोई और ख़ुदा (ईश्वर) नहीं है।
إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱلۡفُلۡكِ ٱلَّتِي تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِمَا يَنفَعُ ٱلنَّاسَ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن مَّآءٖ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَآبَّةٖ وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَٰحِ وَٱلسَّحَابِ ٱلۡمُسَخَّرِ بَيۡنَ ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 156
(164) ( इस हक़ीक़त को पहचानने के लिए अगर कोई निशानी और अलामत चाहिए तो) जो लोग अक़्ल से काम लेते हैं, उनके लिए आसमानों और ज़मीन की बनावट में रात और दिन के मुसलसल एक-दूसरे के बाद आने में, उन नावों में जो इनसान के फ़ायदे की चीज़ें लिए हुए दरियाओं और समन्दरों में चलती-फिरती हैं, बारिश के उस पानी में जिसे अल्लाह ऊपर से बरसाता है, फिर उसके ज़रिए से ज़मीन को ज़िन्दगी देता है और अपने उसी इन्तिज़ाम की बदौलत ज़मीन में हर तरह की जानदार मख़लूक़ को फैलाता है, हवाओं के चलने में और उन बादलों में जो आसमान और ज़मीन के बीच फ़रमाँबरदार बनाकर रखे गए हैं, बेशुमार निशानियाँ हैं।162
162. यानी अगर इनसान कायनात (जगत्) के इस कारख़ाने को, जो रात-दिन उसकी आँखों के सामने चल रहा है, सिर्फ़ जानवरों की तरह न देखे, बल्कि अक़्ल से काम लेकर इस निज़ाम पर ग़ौर करे, और ज़िद या तास्सुब (पक्षपात) से आज़ाद होकर सोचे, तो ये निशानियाँ जो उसके देखने में आ रही हैं, इस नतीजे पर पहुँचाने के लिए बिलकुल काफ़ी हैं कि यह शानदार निज़ाम एक ही क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) हाकिम (ख़ुदा) के हुक्म के तहत है। तमाम इख़्तियार और इक़तिदार बिल्कुल उसी एक के हाथ में है। किसी दूसरे का ख़ुदमुख़ताराना (स्वायत्ततापूर्ण) दख़ल या भागीदारी के लिए इस निज़ाम में ज़र्रा बराबर कोई गुंजाइश नहीं। इसलिए हक़ीक़त में वही एक ख़ुदा सारे जगत् में मौजूद तमाम चीज़ों का ख़ुदा है। उसके सिवा कोई दूसरी हस्ती किसी क़िस्म के इख़्तियार (संप्रभुता) रखती ही नहीं कि ख़ुदाई (ईश्वरत्व) और माबूद होने में उसका कोई हिस्सा हो।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَتَّخِذُ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَندَادٗا يُحِبُّونَهُمۡ كَحُبِّ ٱللَّهِۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَشَدُّ حُبّٗا لِّلَّهِۗ وَلَوۡ يَرَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِذۡ يَرَوۡنَ ٱلۡعَذَابَ أَنَّ ٱلۡقُوَّةَ لِلَّهِ جَمِيعٗا وَأَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعَذَابِ ۝ 157
(165) (लेकिन अल्लाह के एक होने की दलीलें जुटानेवाली इन खुली-खुली निशानियों के होते हुए भी) कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसके बराबर और मद्दे-मुक़ाबिल (प्रतिद्वन्द्वी) ठहराते हैं163, और उनके ऐसे गिर्वीदा (आसक्त) हैं, जैसी अल्लाह के साथ गिर्वीदगी (आसक्ति) होनी चाहिए। हालाँकि ईमान रखनेवाले लोगों को सबसे बढ़कर अल्लाह महबूब (प्रिय) होता है।164 — काश! जो कुछ अज़ाब को सामने देखकर उन्हें सूझनेवाला है, वह आज ही इन ज़ालिमों को सूझ जाए कि सारी ताक़तें और सारे इख़्तियार अल्लाह ही के क़ब्ज़े में हैं और यह कि अल्लाह सज़ा देने में भी बहुत सख़्त है।
163. यानी ख़ुदा होने की जो सिफ़ात (गुण) अल्लाह के लिए ख़ास हैं उनमें से कुछ को दूसरों से जोड़ते हैं और ख़ुदा होने की हैसियत से बन्दों पर अल्लाह तआला के जो हक़ हैं वे सब या उनमें से कुछ हक़ ये लोग उन दूसरे बनावटी माबूदों (पूज्यों) को अदा करते हैं। जैसे तमाम असबाब (संसाधनों) पर हुक्मरानी (शासन), ज़रूरतें पूरी करना, मुश्किलें दूर करना, फ़रियादरसी, पुकार सुनना, दुआएँ सुनना और खुली-छिपी हर चीज़ से वाक़िफ़ होना ये सब अल्लाह की ख़ास सिफ़तें हैं। और यह सिर्फ़ अल्लाह ही का हक़ और अधिकार है कि बन्दे उसी को सबसे बड़ा इख़्तियार वाला (सत्ताधिकारी) मानें, बन्दगी का इक़रार करते हुए उसी के आगे सर झुकाएँ, उसी की तरफ़ अपनी जरूरतों में रुजू करें, उसी को मदद लिए पुकारें, उसी पर भरोसा करें, उसी से उम्मीदें रखें और उसी से खुले और छिपे में डरें। इसी तरह सारे जहान का मालिक और हाकिम होने की हैसियत से यह मंसब (पद) भी अल्लाह ही का है कि अपनी रैयत (जनता) के लिए हलाल व हराम की हदें मुक़र्रर करे, उनकी ज़िम्मेदारियों और हक़ों को तय करे और उनको करने और न करने का हुक्म दे। और उन्हें यह बताए कि उसकी दी हुई ताक़तों और उसके दिए हुए वसाइल (साधनों) को वे किस तरह किन कामों में किन मक़सदों के लिए इस्तेमाल करें और यह सिर्फ़ अल्लाह का हक़ है कि बन्दे उसकी हाकिमियत (सम्प्रभुता) को तस्लीम करें। उसके हुक्म को क़ानून का सरचश्मा (स्रोत) मानें, क्या करना है और क्या नहीं करना है इसका मुख़्तार उसी को समझें। अपनी ज़िन्दगी के मामलों में उसके हुक्म को फ़ैसलाकुन क़रार दें और हिदायत व रहनुमाई के लिए उसी की तरफ़ पलटें। जो शख़्स ख़ुदा की इन सिफ़तों में से किसी सिफ़त (गुण) को भी किसी दूसरे से जोड़ देता है और उसके इन हुक़ूक़ (अधिकारों) में से कोई एक हक़ भी किसी दूसरे को देता है, वह अस्ल में उसे ख़ुदा का मद्दे-मुक़ाबिल और हमसर (समकक्ष और प्रतिद्वन्द्री) बनाता है। इसी तरह जो शख़्स या जो इदारा (संस्था) इन सिफ़तों (गुणों) में से किसी सिफ़त (गुण) का दावेदार हो और इन हक़ों में से किसी हक़ का इनसानों से मुतालबा करता हो, वह भी अस्ल में ख़ुदा का मद्दे-मुक़ाबिल और हमसर बनता है, चाहे ज़बान से ख़ुदा होने का दावा करे या न करे।
164. यानी ईमान का तक़ाज़ा यह है कि आदमी अल्लाह की ख़ुशी को हर दूसरे की ख़ुशी पर तरजीह दे और किसी चीज़ की मुहब्बत भी इनसान के दिल में यह दरजा और मक़ाम हासिल न कर ले कि वह अल्लाह की मुहब्बत पर उसे क़ुरबान न कर सकता हो।
إِذۡ تَبَرَّأَ ٱلَّذِينَ ٱتُّبِعُواْ مِنَ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُواْ وَرَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَ وَتَقَطَّعَتۡ بِهِمُ ٱلۡأَسۡبَابُ ۝ 158
(166) जब वह सज़ा देगा, उस वक़्त कैफ़ियत (दशा) यह होगी कि वही पेशवा और रहनुमा, जिनकी दुनिया में पैरवी की गई थी, अपने पैरवी करनेवालों से बेताल्लुक़ी ज़ाहिर करेंगे, मगर सज़ा पाकर रहेंगे और उनके सारे असबाब और वसाइल (साधनो) का सिलसिला कट जाएगा।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُواْ لَوۡ أَنَّ لَنَا كَرَّةٗ فَنَتَبَرَّأَ مِنۡهُمۡ كَمَا تَبَرَّءُواْ مِنَّاۗ كَذَٰلِكَ يُرِيهِمُ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡ حَسَرَٰتٍ عَلَيۡهِمۡۖ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنَ ٱلنَّارِ ۝ 159
(167) और वे लोग जो दुनिया में उनकी पैरवी करते थे, कहेंगे कि काश! हमको फिर एक मौक़ा दिया जाता तो जिस तरह आज ये हमसे बेज़ारी (विमुखता) ज़ाहिर कर रहे हैं, हम इनसे बेज़ार होकर दिखा देते।165 यूँ अल्लाह उन लोगों के वे काम, जो ये दुनिया में कर रहे हैं, उनके सामने इस तरह लाएगा कि ये हसरतों और शर्मिन्दगियों के साथ हाथ मलते रहेंगे, मगर आग से निकलने की कोई राह न पाएँगे।
165. यहाँ ख़ास तौर पर रास्ता भटकानेवाले पेशवाओं और लीडरों और उनकी पैरवी करनेवाले नादानों के अंजाम का इसलिए ज़िक्र किया गया है कि जिस ग़लतो में पड़कर पिछली क़ौम भटक गईं, उससे मुसलमान होशियार रहें और रहनुमाओं में फ़र्क़ करना सीखें (कि कौन सही है और कौन ग़लत है) और ग़लत रहनुमाई करनेवालों के पीछे चलने से बचें।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ كُلُواْ مِمَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ حَلَٰلٗا طَيِّبٗا وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٌ ۝ 160
(168) लोगो! ज़मीन में जो हलाल और पाक चीज़ें हैं उन्हें खाओ और शैतान के बताए हुए रास्तों पर न चलो।166 वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
166 यानी खाने-पीने के मामले में उन तमाम पाबन्दियों को तोड़ डालो जो अंधविश्वासों और जाहिलाना रस्मों की वजह से लगी हुई हैं।
إِنَّمَا يَأۡمُرُكُم بِٱلسُّوٓءِ وَٱلۡفَحۡشَآءِ وَأَن تَقُولُواْ عَلَى ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 161
(169) तुम्हें बुराई और फ़ुहश (अश्लीलता) का हुक्म देता है और यह सिखाता है कि तुम अल्लाह के नाम पर वे बातें कहो जिनके बारे में तुम नहीं जानते कि वे बातें अल्लाह ने कही हैं।167
167. यानी इन वहमी (भ्रामक) रस्मों और पाबन्दियों के बारे में यह ख़याल कि ये सब मज़हबी बातें हैं जो ख़ुदा की तरफ़ से सिखाई गई हैं, अस्ल में शैतानी चालों का करिश्मा है। इसलिए कि हक़ीक़त में इनके अल्लाह की तरफ़ से होने की कोई दलील मौजूद नहीं है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّبِعُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ بَلۡ نَتَّبِعُ مَآ أَلۡفَيۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 162
(170) उनसे जब कहा जाता है कि अल्लाह ने जो अहकाम (आदेश) उतारे हैं उनकी पैरवी करो, तो जवाब देते हैं कि हम तो उसी तरीक़े की पैरवी करेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।168 अच्छा, अगर उनके बाप-दादा ने अक़्ल से कुछ भी काम न लिया हो और सीधा रास्ता न पाया हो तो क्या फिर भी ये उन्हीं की पैरवी किए चले जाएँगे?
168. यानी इन पाबन्दियों के लिए उनके पास कोई सुबूत और कोई दलील इसके सिवा नहीं है कि वे कहें कि बाप-दादा से यूँ ही होता चला आया है। नादान समझते हैं कि किसी तरीक़े की पैरवी के लिए यह दलील बिलकुल काफ़ी है।
وَمَثَلُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ كَمَثَلِ ٱلَّذِي يَنۡعِقُ بِمَا لَا يَسۡمَعُ إِلَّا دُعَآءٗ وَنِدَآءٗۚ صُمُّۢ بُكۡمٌ عُمۡيٞ فَهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 163
(171) ये लोग जिन्होंने ख़ुदा के बताए हुए तरीक़े पर चलने से इनकार कर दिया है, इनकी हालत बिलकुल ऐसी है जैसे चरवाहा जानवरों को पुकारता है और वे हाँक-पुकार की आवाज़ के सिवा कुछ नहीं सुनते।169 बहरे हैं, गूँगे हैं, अन्धे हैं। इसलिए कोई बात इनकी समझ में नहीं आती।
169. यहाँ जो मिसाल दी गई है उसके दो पहलू हैं। एक यह कि इन लोगों की हालत उन बे-अक़्ल जानवरों की-सी है, जिनके गल्ले (झुण्ड) अपने-अपने चरवाहों के पीछे चले जाते हैं और बिना समझे-बूझे उनकी आवाज़ों पर हरकत करते हैं। और दूसरा पहलू यह है कि उनको बुलाते और दावत देते वक़्त ऐसा महसूस होता है कि मानो जानवरों को पुकारा जा रहा है, जो सिर्फ़ आवाज़ सुनते हैं, मगर कुछ नहीं समझते कि कहनेवाला उनसे क्या कहता है। यहाँ अल्लाह ने ऐसे जामेअ (व्यापक) लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया है कि ये दोनों पहलू इनके तहत आ जाते हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لِلَّهِ إِن كُنتُمۡ إِيَّاهُ تَعۡبُدُونَ ۝ 164
(172) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह ही की बन्दगी करनेवाले हो तो जो पाक चीज़ें हमने तुम्हें दी हैं उन्हें बेझिझक खाओ और अल्लाह का शुक्र अदा करो।170
170. यानी अगर तुम ईमान लाकर सिर्फ़ ख़ुदा के क़ानून की पैरवी करनेवाले बन चुके हो, जैसा कि तुम्हारा दावा है, तो फिर वह सारी छूत-छात और जाहिलियत के ज़माने की वे सारी बन्दिशें और पाबन्दियाँ तोड़ डालो जो पंडितों और पुरोहितों ने, रिब्बियों और पादरियों ने, योगियों और राहिबों (संन्यासियों) ने और तुम्हारे बाप-दादा ने लगाई थीं। जो कुछ ख़ुदा ने हराम किया है उससे तो ज़रूर बचो, मगर जिन चीज़ों को ख़ुदा ने हलाल किया है, उन्हें बिना किसी कराहत (घृणा) और रुकावट के खाओ-पियो। इसी बात की तरफ़ अल्लाह के नबी (सल्ल०) की वह हदीस भी इशारा करती है, जिसमें आपने फ़रमाया, “जिसने वही नमाज़ पढ़ी जो हम पढ़ते हैं और उसी क़िबले की तरफ़ रुख़ किया, जिसकी तरफ़ हम रुख़ करते हैं और हमारे ज़बीहे (ज़बह किए हुए जानवर) को खाया, वह मुसलमान है।” मतलब यह है कि नमाज़ पढ़ने और क़िबले की तरफ़ रुख़ करने के बावजूद एक शख़्स उस वक़्त तक इस्लाम में पूरी तरह दाख़िल नहीं होता, जब तक कि वह खाने-पीने के मामले में पिछली जाहिलियत की पाबन्दियों को तोड़ न दे और उन अंधविश्वासों की बंदिशों से आज़ाद न हो जाए, जो जाहिलियत के ज़माने के लोगों ने लगा रखी थीं; क्योंकि उसका उन पाबन्दियों पर क़ायम रहना इस बात की अलामत है कि अभी तक उसके जिस्म में जाहिलियत का ज़हर मौजूद है।
إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةَ وَٱلدَّمَ وَلَحۡمَ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ بِهِۦ لِغَيۡرِ ٱللَّهِۖ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 165
(173) अल्लाह की तरफ़ से अगर कोई पाबन्दी तुमपर है तो वह यह है कि मुरदार न खाओ, ख़ून से और सुअर के गोश्त से बचो और कोई ऐसी चीज़ न खाओ जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो।171 हाँ, जो आदमी मजबूरी की हालत में हो और वह इनमें से कोई चीज़ खा ले, बिना इसके कि वह क़ानून तोड़ने का इरादा रखता हो या ज़रूरत की हद से आगे बढ़ जाए, तो उसपर गुनाह नहीं, अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।172
171. यह हुक्म उस जानवर के गोश्त पर भी लागू होता है, जिसे ख़ुदा के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो और उस खाने पर भी लागू होता है जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर, मन्नत के तौर पर पकाया जाए। हक़ीक़त तो यह है कि जानवर हो या अनाज या और कोई खाने की चीज़, अस्ल में उसका मालिक अल्लाह तआला ही है और अल्लाह ही ने वह चीज़ हमको दी है। इसलिए नेमत को तस्लीम करने या सदक़ा या मन्नत के तौर पर अगर किसी का नाम इन चीज़ों पर लिया जा सकता है तो वह सिर्फ़ अल्लाह ही का नाम है। अल्लाह के सिवा किसी दूसरे का नाम लेना यह मानी रखता है कि हम ख़ुदा को छोड़कर या ख़ुदा के साथ दूसरे की बालातरी (उच्चता) भी तस्लीम कर रहे हैं और दूसरे को भी नेमतें देनेवाला समझते है।
172. इस आयत में हराम चीज़ के इस्तेमाल करने की इजाज़त तीन शर्तों के साथ दी गई है — • एक यह कि वाक़ई मजबूरी की हालत हो, जैसे भूख या प्यास से जान पर बन गई हो या बीमारी की वजह से जान का ख़तरा हो और इस हालत में कि हराम चीज़ के सिवा और कोई चीज़ मिल न रही हो। • दूसरे यह कि ख़ुदा के क़ानून को तोड़ने की ख़ाहिश दिल में न पाई जाती हो। • तीसरे यह कि ज़रूरत की हद से आगे न बढ़ा जाए। जसे-हराम चीज़ के कुछ लुक़्मे (निवाले) या कुछ बूँदें या कुछ घूँट अगर जान बचा सकते हों तो इनसे ज़्यादा उस चीज़ का इस्तेमाल न होने पाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡتُمُونَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَشۡتَرُونَ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ مَا يَأۡكُلُونَ فِي بُطُونِهِمۡ إِلَّا ٱلنَّارَ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 166
(174) सच तो यह है कि जो लोग उन हुक्मों को छिपाते हैं जो अल्लाह ने अपनी किताब में उतारे हैं और थोड़े-से दुनियवी फ़ायदों पर उन्हें भेंट चढ़ाते हैं, वे अस्ल में अपने पेट आग से भर रहे हैं।173 क़ियामत के दिन अल्लाह हरगिज़ उनसे बात न करेगा, न उन्हें पाकीज़ा ठहराएगा और उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।174
173. मतलब यह है कि आम लोगों में ये जितनी ग़लत अंधविश्वास की बातें फैली हुई हैं और झूठी रस्मों और बेजा पाबन्दियों की जो नई-नई शरीअतें (धार्मिक विधान) बन गई हैं, इन सबकी ज़िम्मेदारी उन उलमा पर है, जिनके पास अल्लाह की किताब का इल्म था, मगर उन्होंने आम लोगों तक इस इल्म को न पहुँचाया। फिर जब लोगों में जहालत की वजह से ग़लत तरीक़े रिवाज पाने लगे, तब उस वक़्त भी वे ज़ालिम मुँह में घुँघनियों भरकर बैठे रहे (यानी चुप्पी साधे रहे), बल्कि उनमें से बहुतों ने अपना फ़ायदा इसी में देखा कि अल्लाह की किताब के हुक्मों पर परदा ही पड़ा रहे।
174. यह अस्ल में उन पेशवाओं के झूठे दावों और उन ग़लतफ़हमियों का रद्द है, जो उन्होंने आम लोगों में अपने बारे में फैला रखी हैं। वे हर मुमकिन तरीक़े से लोगों के दिलों में यह ख़याल बिठाने की कोशिश करते हैं और लोग भी उनके बारे में ऐसा गुमान रखते हैं कि इनकी हस्तियाँ (व्यक्तित्व) बड़ी ही पाकीज़ा और मुक़द्दस (पावन) हैं और जो उनके दामन को थाम लेगा, उसकी सिफ़ारिश करके वे अल्लाह के यहाँ उसे बख़्शवा लेंगे। जवाब में अल्लाह फ़रमाता है कि हम उन्हें हरगिज़ मुँह न लगाएँगे और न उन्हें पाकीज़ा क़रार देंगे।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلضَّلَٰلَةَ بِٱلۡهُدَىٰ وَٱلۡعَذَابَ بِٱلۡمَغۡفِرَةِۚ فَمَآ أَصۡبَرَهُمۡ عَلَى ٱلنَّارِ ۝ 167
(175) ये वे लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदी और मग़फ़िरत (मोक्ष) के बदले अज़ाब मोल ले लिया। कैसा अजीब है इनका हौसला कि जहन्नम का अज़ाब बरदाश्त करने के लिए तैयार हैं!
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ نَزَّلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ ٱخۡتَلَفُواْ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَفِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 168
(176) यह सब कुछ इस वजह से हुआ कि अल्लाह ने तो ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ किताब उतारी थी मगर जिन लोगों ने किताब में इख़्तिलाफ़ निकाले, वे अपने झगड़ों में हक़ से बहुत दूर निकल गए।
۞لَّيۡسَ ٱلۡبِرَّ أَن تُوَلُّواْ وُجُوهَكُمۡ قِبَلَ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلۡكِتَٰبِ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ وَءَاتَى ٱلۡمَالَ عَلَىٰ حُبِّهِۦ ذَوِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِ وَٱلسَّآئِلِينَ وَفِي ٱلرِّقَابِ وَأَقَامَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَى ٱلزَّكَوٰةَ وَٱلۡمُوفُونَ بِعَهۡدِهِمۡ إِذَا عَٰهَدُواْۖ وَٱلصَّٰبِرِينَ فِي ٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَحِينَ ٱلۡبَأۡسِۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ صَدَقُواْۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُتَّقُونَ ۝ 169
(177) नेकी यह नहीं है कि तुमने अपने चेहरे पूरब की तरफ़ कर लिए या पच्छिम की तरफ़175, बल्कि नेकी यह है कि आदमी अल्लाह को और आख़िरी दिन (अंतिम दिवस) और फ़रिश्तों को और अल्लाह की उतारी हुई किताब और उसके पैग़म्बरों को दिल से माने और अल्लाह की मुहब्बत में अपना दिलपसन्द माल रिश्तेदारों और यतीमों पर, ग़रीबों और मुसाफ़िरों पर, मदद के लिए हाथ फैलानेवालों पर और ग़ुलामों की रिहाई पर ख़र्च करे, नमाज़ क़ायम करे और ज़कात दे। और नेक वे लोग हैं कि जब वादा करें तो उसे पूरा करें, और तंगी व मुसीबत के वक़्त में और हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) की लड़ाई में सब्र करें। ये हैं सच्चे लोग और यही लोग परहेज़गार हैं।
175. पूरब और पश्चिम की तरफ़ मुँह करने को तो सिर्फ़ मिसाल के तौर पर बयान किया गया है। अस्ल में यह बात दिल और दिमाग़ में बिठाना है कि मज़हब की कुछ ज़ाहिरी रस्मों को अदा कर देना और सिर्फ़ ज़ाबिते की ख़ानापुरी के तौर पर कुछ तयशुदा मज़हबी कामों को पूरा कर देना और तक़वा (धर्मपरायणता) की कुछ राइज शक्लों को इख़्तियार करके दिखा देना वह हक़ीक़ी नेकी नहीं है जो अल्लाह के यहाँ वज़न और क़ीमत रखती है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِصَاصُ فِي ٱلۡقَتۡلَىۖ ٱلۡحُرُّ بِٱلۡحُرِّ وَٱلۡعَبۡدُ بِٱلۡعَبۡدِ وَٱلۡأُنثَىٰ بِٱلۡأُنثَىٰۚ فَمَنۡ عُفِيَ لَهُۥ مِنۡ أَخِيهِ شَيۡءٞ فَٱتِّبَاعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَأَدَآءٌ إِلَيۡهِ بِإِحۡسَٰنٖۗ ذَٰلِكَ تَخۡفِيفٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَرَحۡمَةٞۗ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 170
(178) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम्हारे लिए क़त्ल के मुक़द्दमों में क़िसास176 का हुक्म लिख दिया गया है। आज़ाद आदमी ने क़त्ल किया हो तो उस आज़ाद आदमी ही से बदला लिया जाए, ग़ुलाम क़ातिल हो तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जाए और औरत ने यह जुर्म किया हो तो उस औरत ही से क़िसास177 लिया जाए। हाँ, अगर किसी क़ातिल के साथ उसका भाई कुछ नर्मी करने के लिए तैयार हो178, तो भले तरीक़े179 के मुताबिक़ ख़ूँबहा (जान के बदले माल लेने) का निपटारा होना चाहिए और क़ातिल के लिए ज़रूरी है कि भले तरीक़े से ख़ून का माली बदला चुका दे। यह तुम्हारे रब की तरफ़ से छूट और रहमत है। इसपर भी जो ज़्यादती करे180, उसके लिए दर्दनाक सजा है।
176. क़िसास यानी ख़ून का बदला, यह कि आदमी के साथ वही किया जाए जो उसने दूसरे आदमी के साथ किया। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि क़ातिल (हत्यारे) ने जिस तरीक़े से किसी का क़त्ल किया हो, उसी तरीक़े से उसको क़त्ल किया जाए, बल्कि मतलब सिर्फ़ यह है कि जान लेने की जो हरकत उसने मक़तूल (मारे गए शख़्स) के साथ की है, वही उसके साथ की जाए।
177. जाहिलियत के ज़माने में लोगों का तरीक़ा यह था कि एक क़ौम या क़बीले के लोग अपने मक़तूल (मारे गए शख़्स) के ख़ून को जितना क़ीमती समझते थे, उतनी ही क़ीमत का ख़ून उस ख़ानदान या क़बीले या क़ौम से लेना चाहते थे, जिसके आदमी ने उसे मारा हो। सिर्फ़ मक़तूल के बदले में क़ातिल (हत्यारे) की जान ले लेने से उनका दिल ठंडा न होता था। वे अपने एक आदमी का बदला बीसियों और सैकड़ों से लेना चाहते थे। उनका कोई इज़्ज़तदार आदमी अगर दूसरे गरोह के किसी छोटे आदमी के हाथों मारा गया हो तो वे असली क़ातिल के क़त्ल को काफ़ी नहीं समझते थे, बल्कि उनकी ख़ाहिश यह होती थी कि क़ातिल के क़बीले का भी कोई वैसा ही इज़्ज़तदार आदमी मारा जाए या उसके कई आदमी उनके मक़तूल के बदले में क़त्ल किए जाएँ। इसके बरख़िलाफ़ अगर मक़तूल उनकी निगाह में कोई मामूली दरजे का शख़्स और क़ातिल कोई ज़्यादा क़द्र और इज़्ज़त रखनेवाला शख़्स होता, तो वे इस बात को पसन्द न करते थे कि मारे गए आदमी के बदले में मारनेवाले की जान ली जाए। और यह हालत कुछ पुरानी जाहिलियत में ही न थी, मौजूदा ज़माने में जिन कामों को इन्तिहाई तहज़ीब-याफ़्ता (सभ्य) समझा जाता है, उनके बाक़ायदा सरकारी एलानों तक में कई बार यह बात बिना किसी शर्म के दुनिया को सुनाई जाती है कि हमारा एक आदमी मारा जाएगा तो हम क़ातिल की क़ौम के पचास आदमियों की जान ले लेंगे। अकसर ये ख़बरें हमारे कान सुनते हैं कि एक शख़्स के क़त्ल पर मग़लूब (पराजित) क़ौम के इतने बन्धक गोली से उड़ाए गए। एक तहज़ीब-याफ़्ता (सभ्य) क़ौम ने इसी बीसवीं सदी में एक आदमी (सरली स्टैक) के क़त्ल का बदला पूरी मिस्री क़ौम से लेकर छोड़ा। दूसरी तरफ़ सिर्फ़ नाम की इन तहज़ीब याफ़्ता क़ौमों की बाक़ायदा अदालतों तक का यह रवैया है कि अगर क़ातिल हाकिम क़ौम का आदमी हो और मारे गए आदमी का ताल्लुक़ महकूम क़ौम (शासित वर्ग) से हो तो उनके जज क़िसास (ख़ून के बदले) का फ़ैसला करने से बचते हैं। यही ख़राबियाँ हैं, जिनके रोकने और दूर करने का हुक्म अल्लाह तआला ने इस आयत में दिया है। वह फ़रमाता है कि मारे गए शख़्स के बदले में क़ातिल और सिर्फ़ क़ातिल ही की जान ली जाए, यह देखे बिना कि क़ातिल कौन है और मक़तूल कौन।
178. 'भाई' का लफ़्ज़ कहकर निहायत लतीफ़ (सूक्ष्म) तरीक़े से नर्मी की सिफ़ारिश भी कर दी है। मतलब यह है कि तुम्हारे और दूसरे शख़्स के बीच बाप मारे का वैर ही सही, मगर है तो वह तुम्हारा इनसानी भाई ही। इसलिए अगर अपने एक ख़ताकार (दोषी) भाई के मुक़ाबले में बदला लेने के ग़ुस्से को पी जाओ तो यह तुम्हारी इनसानियत की शान के ज़्यादा मुताबिक़ है— इस आयत से यह भी मालूम हो गया कि इस्लामी क़ानूने-ताज़ीरात (इस्लामी दण्ड-विधान) में क़त्ल तक का मामला राज़ीनामा के क़ाबिल है। मारे गए शख़्स के वारिसों को यह हक़ पहुँचता है कि क़ातिल को माफ़ कर दें और इस सूरत में अदालत के लिए जाइज़ नहीं कि क़ातिल की जान ही लेने पर अड़ी रहे। अलबत्ता जैसा कि बाद की आयत में कहा गया कि माफ़ी की सूरत में क़ातिल को ‘ख़ूँबहा' (माली हर्जाना) अदा करना होगा।
179. अरबी में अस्ल लफ़्ज़ 'मारूफ़' इस्तेमाल हुआ है और यह लफ़्ज़ क़ुरआन में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है। इससे मुराद वह सही तरीक़ा-ए-कार (कार्यशैली) है, जिससे आम तौर से लोग वाक़िफ़ होते हैं, जिसके बारे में हर वह शख़्स जिसका कोई ज़ाती (निजी) मफ़ाद किसी ख़ास पहलू से जुड़ा हुआ न हो, यह बोल उठे कि बेशक हक़ और इनसाफ़ यही है और यही मुनासिब रवैया है। आम रिवाज (Common Law) को भी इस्लामी इस्तिलाह (परिभाषा) में 'उर्फ़' और 'मारूफ़’ कहा जाता है और वह ऐसे तमाम मामलों में तस्लीम किया जाता है, जिनके बारे में शरीअत ने कोई ख़ास क़ायदा मुक़र्रर न किया हो।
180. मिसाल के तौर पर यह कि मारे गए आदमी का वारिस ख़ूँबहा (माली हर्जाना) वुसूल कर लेने के बाद फिर बदला लेने की कोशिश करे या क़ातिल (हत्यारा) ख़ूँबहा अदा करने में टाल-मटोल करे और मारे गए आदमी के वारिस ने जो एहसान उसके साथ किया है, उसका बदला नाशुक्री की शक्ल में दे।
وَلَكُمۡ فِي ٱلۡقِصَاصِ حَيَوٰةٞ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 171
(179) — अक़्ल और समझ रखनेवालो! तुम्हारे लिए क़िसास (हत्यादण्ड) में ज़िन्दगी है।181 उम्मीद है कि तुम इस क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचोगे।
181. यह एक दूसरी जाहिलियत का रद्द (खंडन) है, जो पहले भी बहुत-से दिमाग़ों में मौजूद था और आज भी बहुत ज़्यादा पाया जाता है। जिस तरह जाहिलियत के ज़माने के लोगों का एक गरोह बदला लेने के पहलू में एक इन्तिहा को चला गया, उसी तरह एक दूसरा गरोह माफ़ कर देने के मामले में दूसरी हद तक चला गया और उसने मौत की सज़ा के ख़िलाफ़ इतना प्रोपगंडा किया है कि बहुत-से लोग इसे एक घिनौनी चीज़ समझने लगे हैं और दुनिया के बहुत-से मुल्कों ने इस सज़ा को बिलकुल ख़त्म कर दिया है। क़ुरआन इसी पर अक़्लवालों को मुख़ातिब (संबोधित) करके ख़बरदार करता है कि क़िसास में समाज की ज़िन्दगी है। जो समाज इनसानी जान का एहतिराम न करनेवालों की जान को एहतिराम के क़ाबिल ठहराता है, वह अस्ल में अपनी आस्तीन में साँप पालता है। तुम एक क़ातिल की जान बचाकर बहुत-से बेगुनाह इनसानों की जानें ख़तरे में डालते हो।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَكُمۡ وَرَفَعۡنَا فَوۡقَكُمُ ٱلطُّورَ خُذُواْ مَآ ءَاتَيۡنَٰكُم بِقُوَّةٖ وَٱذۡكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 172
(63) याद करो वह वक़्त जब हमने तूर को तुमपर उठाकर तुमसे पक्का अह्द (वचन) लिया था और कहा था81 कि “जो किताब हम तुम्हें दे रहे हैं उसे मज़बूती के साथ थामना और जो हुक्म और हिदायतें उसमें लिखी हुई हैं उन्हें याद रखना। इसी ज़रिए से उम्मीद की जा सकती है कि तुम तक़वा (ईश-परायणता और परहेज़गारी) की रविश पर चल सकोगे।”
81. इस वाक़िए को क़ुरआन में मुख़्तलिफ़ जगहों पर जिस अंदाज़ से बयान किया गया है, उससे यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि उस वक़्त बनी-इसराईल में यह एक मशहूर वाक़िआ था, जिसे लोग अच्छी तरह जानते थे। लेकिन अब उसके बारे में तफ़सीली बातें मालूम करना मुश्किल है। बस मुख़्तसर तौर पर इस तरह समझना चाहिए कि पहाड़ के दामन में अह्द लेते वक़्त ऐसी डरावनी हालत पैदा कर दी गई थी कि उनको ऐसा मालूम होता था, मानो पहाड़ उनपर आ पड़ेगा। ऐसा ही कुछ नक़्शा क़ुरआन की सूरा-7 आराफ़ की आयत 171 में खींचा गया है। (देखिए क़ुरआन सूरा-7, आराफ़, हाशिया न॰132 )
ثُمَّ تَوَلَّيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۖ فَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ لَكُنتُم مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 173
(64) मगर इसके बाद तुम अपने अह्द (वचन) से फिर गए, इसपर भी अल्लाह की मेहरबानी और उसकी रहमत ने तुम्हारा साथ न छोड़ा, वरना तुम कभी के तबाह हो चुके होते।
شَهۡرُ رَمَضَانَ ٱلَّذِيٓ أُنزِلَ فِيهِ ٱلۡقُرۡءَانُ هُدٗى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَٰتٖ مِّنَ ٱلۡهُدَىٰ وَٱلۡفُرۡقَانِۚ فَمَن شَهِدَ مِنكُمُ ٱلشَّهۡرَ فَلۡيَصُمۡهُۖ وَمَن كَانَ مَرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۗ يُرِيدُ ٱللَّهُ بِكُمُ ٱلۡيُسۡرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ ٱلۡعُسۡرَ وَلِتُكۡمِلُواْ ٱلۡعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 174
(185) रमज़ान वह महीना है जिसमें क़ुरआन उतारा गया, जो इनसानों के लिए सरासर रहनुमाई है और ऐसी वाज़ेह तालीमात पर मुश्तमिल (आधारित) है जो सीधा रास्ता दिखानेवाली और सच और झूठ का फ़र्क़ खोलकर रख देनेवाली हैं। इसलिए अब से जो शख़्स इस महीने को पाए, उसके लिए ज़रूरी है कि इस पूरे महीने के रोज़े रखे। और जो कोई बीमार हो या सफ़र पर हो, तो वह दूसरे दिनों में रोज़ों की गिनती पूरी करे।186 अल्लाह तुम्हारे साथ नर्मी करना चाहता है, सख़्ती करना नहीं चाहता। इसलिए यह तरीक़ा तुम्हें बताया जा रहा है, ताकि तुम रोज़ों की गिनती पूरी कर सको और जिस सीधे रास्ते पर अल्लाह ने तुम्हें लगाया है, उसपर अल्लाह की बड़ाई का इज़हार व एतिराफ़ करो और शुक्रगुज़ार बनो।187
186. सफ़र की हालत में रोज़ा रखना या न रखना आदमी के अपने इख़्तियार पर छोड़ दिया गया है। नबी (सल्ल०) के साथ जो सहाबा सफ़र में जाया करते थे, उनमें से कोई रोज़ा रखता था और कोई न रखता था और दोनों गरोहों में से कोई दूसरे पर एतिराज़ न करता था। ख़ुद नबी (सल्ल०) ने भी कभी सफ़र में रोज़ा रखा है और कभी नहीं रखा है। एक सफ़र के मौक़े पर एक आदमी बदहाल होकर गिर गया और उसके चारों तरफ़ लोग जमा हो गए। नबी (सल्ल०) ने यह हाल देखकर मालूम किया : “क्या मामला है?” बताया गया कि रोज़े से है। फ़रमाया : “यह नेकी नहीं है।” लड़ाई के मौक़े पर तो आप हुक्म देकर रोज़े से रोक दिया करते थे, ताकि दुश्मन से लड़ने में कमज़ोरी न आने पाए। हज़रत उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि हम नबी (सल्ल०) के साथ दो मर्तबा रमज़ान में जंग पर गए। पहली मर्तबा बद्र की लड़ाई में और आख़िरी मर्तबा फ़तहे-मक्का (मक्का-विजय) के मौक़े पर और दोनों बार हमने रोज़े छोड़ दिए। इब्ने-उमर (रज़ि०) का बयान है कि मक्का की फ़तह के मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया था कि यह जंग का दिन है, तो तुम रोज़ा छोड़ दो। दूसरी रिवायतों में यह है कि “दुश्मन से मुक़ाबला करना है, रोज़े छोड़ दो, ताकि तुम्हें लड़ने की ताक़त हासिल हो।”आम सफ़र के मामले में यह बात कि कितनी दूरी के सफ़र में रोज़ा छोड़ा जा सकता है नबी (सल्ल०) के किसी इरशाद (कथन) से वाज़ेह नहीं होती और सहाबा किराम (रज़ि०) का अमल इस सिलसिले में अलग-अलग है। सही यही मालूम होता है कि जिस दूरी को आम तौर पर सफ़र समझा जाता है और जिस पर मुसफ़िरों जैसी हालत इनसान पर छा जाती है, वह रोज़ा न रखने के लिए काफ़ी है। इस पर सभी एक राय हैं कि जिस दिन आदमी सफ़र की शुरुआत कर रहा हो, उस दिन का रोज़ा न रखने का उसे इख़्तियार है, चाहे तो घर से खाना खाकर चले और चाहे तो घर से निकलते ही खा ले। दोनों अमल सहाबा के यहाँ मिलते हैं। यह बात कि अगर किसी शहर पर दुश्मन का हमला हो, तो क्या सफ़र में न होने और अपनी जगह पर ठहरे रहने के बावजूद जिहाद की ख़ातिर रोज़ा छोड़ सकते हैं? उलमा के बीच इस बारे में अलग-अलग राएँ हैं। कुछ उलमा इसकी इजाज़त नहीं देते। मगर अल्लामा इब्ने-तैमिया ने निहायत मज़बूत दलीलों के साथ फ़तवा दिया था कि ऐसा करना बिलकुल जाइज़ है।
187. यानी अल्लाह ने सिर्फ़ रमज़ान ही के दिनों को रोज़ों के लिए ख़ास नहीं कर दिया है, बल्कि जो लोग रमज़ान में किसी शरई मजबूरी की वजह से रोज़े न रख सकें, उनके लिए अल्लाह ने उन छूटे हुए रोज़ों को दूसरे दिनों में रख लेने का रास्ता भी खोल दिया है, ताकि क़ुरआन की जो नेमत ख़ुदा ने इनसानों को दी है, उसका शुक्र अदा करने के इस क़ीमती मौक़े से लोग महरूम न रहने पाएँ। यहाँ यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि रमज़ान के रोज़ों को सिर्फ़ इबादत और सिर्फ़ तक़वे (ईशपरायणता) की तरबियत ही नहीं ठहराया गया है, बल्कि इन्हें इससे आगे बढ़कर उस अज़ीमुश्शान हिदायत की नेमत पर अल्लाह तआला का शुक्रिया भी ठहराया गया है, जो क़ुरआन की शक्ल में उसने हमें अता की है। हक़ीक़त यह है कि एक समझदार इनसान के लिए किसी नेमत का शुक्र अदा करने और किसी एहसान को तस्लीम करने की बेहतरीन सूरत अगर हो सकती है तो वह सिर्फ़ यही है कि वह अपने आपको उस मक़सद को पूरा करने के लिए ज़्यादा -से-ज़्यादा तैयार करे, जिसके लिए देनेवाले ने वह नेमत दी हो। क़ुरआन हमको इसलिए दिया गया है कि हम अल्लाह तआला की ख़ुशनूदी का रास्ता जानकर ख़ुद उसपर चलें और दुनिया को उसपर चलाएँ। इस मक़सद के लिए हमको तैयार करने का बेहतरीन ज़रिआ रोज़ा है। इसलिए क़ुरआन के उतरने के महीने में हमारी रोज़ेदारी सिर्फ़ इबादत ही नहीं है और सिर्फ़ अख़लाक़ी तरबियत भी नहीं है, बल्कि उसके साथ ख़ुद क़ुरआन की इस नेमत की भी सही और मुनासिब शुक्रगुज़ारी है।
وَإِذَا سَأَلَكَ عِبَادِي عَنِّي فَإِنِّي قَرِيبٌۖ أُجِيبُ دَعۡوَةَ ٱلدَّاعِ إِذَا دَعَانِۖ فَلۡيَسۡتَجِيبُواْ لِي وَلۡيُؤۡمِنُواْ بِي لَعَلَّهُمۡ يَرۡشُدُونَ ۝ 175
(186) और ऐ नबी! मेरे बन्दे अगर तुमसे मेरे बारे में पूछें तो उन्हें बता दो कि मैं उनसे क़रीब ही हूँ। पुकारनेवाला जब मुझे पुकारता है, मैं उसकी पुकार सुनता और जवाब देता हूँ, तो उन्हें चाहिए कि मेरी पुकार पर लब्बैक (हम हाज़िर हैं) कहें और मुझपर ईमान लाएँ।188 यह बात तुम उन्हें सुना दो शायद कि वे सीधा रास्ता पा लें।189
188. यानी हालाँकि तुम मुझे देख नहीं सकते और न अपने हवास (चेतना) से मुझको महसूस कर सकते हो, लेकिन यह ख़याल न करो कि मैं तुमसे दूर हूँ। नहीं, मैं अपने हर बन्दे से इतना क़रीब हूँ कि जब वह चाहे, मुझसे अर्ज़-मारूज़ (प्रार्थना) कर अपनी बात कह-सुन सकता है। यहाँ तक कि दिल ही दिल में वह जो कुछ मुझसे गुज़ारिश करता है, मैं उसे भी सुन लेता हूँ। और सिर्फ़ सुनता ही नहीं, फ़ैसला भी जारी करता हूँ। जिन बेहक़ीक़त (मिथ्या) और बेइख़्तियार हस्तियों को तुमने अपनी नादानी से इलाह (पूज्य) और रब (पालनहार) क़रार दे रखा है उनके पास तो तुम्हें दौड़-दौड़कर जाना पड़ता है और फिर भी न वे तुम्हारी फ़रियाद सुन सकते हैं और न उनमें यह ताक़त है कि तुम्हारी दरख़ास्तों पर कोई फ़ैसला जारी कर सकें। मगर मैं ला-महदूद कायनात (असीम जगत्) का मुकम्मल इख़्तियारवाला हाकिम, तमाम ताक़तों का मालिक, तुमसे इतना क़रीब हूँ कि तुम ख़ुद बिना किसी वास्ते, वसीले और सिफ़ारिश के सीधे तौर पर हर वक़्त और हर जगह मुझ तक अपनी अर्ज़ियाँ पहुँचा सकते हो। इसलिए तुम अपनी इस नादानी को छोड़ दो कि एक-एक बेइख़्तियार बनावटी ख़ुदा के दर पर मारे-मारे फिरते हो। मैं जो दावत तुम्हें दे रहा हूँ, उसपर लपककर मेरा दामन पकड़ लो, मेरी तरफ़ पलटो, मुझपर भरोसा करो और मेरी बन्दगी और फ़रमाँबरदारी में आ जाओ।
189. यानी तुम्हारे ज़रिए से यह सच्चाई मालूम करके उनकी आँखें खुल जाएँ और वे उस सही रवैये की तरफ़ आ जाएँ, जिसमें उनकी अपनी ही भलाई है।
أُحِلَّ لَكُمۡ لَيۡلَةَ ٱلصِّيَامِ ٱلرَّفَثُ إِلَىٰ نِسَآئِكُمۡۚ هُنَّ لِبَاسٞ لَّكُمۡ وَأَنتُمۡ لِبَاسٞ لَّهُنَّۗ عَلِمَ ٱللَّهُ أَنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَخۡتَانُونَ أَنفُسَكُمۡ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡ وَعَفَا عَنكُمۡۖ فَٱلۡـَٰٔنَ بَٰشِرُوهُنَّ وَٱبۡتَغُواْ مَا كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَكُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكُمُ ٱلۡخَيۡطُ ٱلۡأَبۡيَضُ مِنَ ٱلۡخَيۡطِ ٱلۡأَسۡوَدِ مِنَ ٱلۡفَجۡرِۖ ثُمَّ أَتِمُّواْ ٱلصِّيَامَ إِلَى ٱلَّيۡلِۚ وَلَا تُبَٰشِرُوهُنَّ وَأَنتُمۡ عَٰكِفُونَ فِي ٱلۡمَسَٰجِدِۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَقۡرَبُوهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 176
(187) तुम्हारे लिए रोज़ों के ज़माने में रातों को अपनी बीवियों के पास जाना जाइज़ (वैध) कर दिया गया है। वे तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम उनके लिए लिबास हो।190 अल्लाह को मालूम हो गया कि तुम लोग चुपके-चुपके अपने आपसे ख़ियानत (चोरी) कर रहे थे, मगर उसने तुम्हारा क़ुसूर माफ़ कर दिया और तुमसे दरगुज़र (अनदेखा) फ़रमा दिया। अब तुम अपनी बीवियों के साथ रात गुज़ारो और जो लुत्फ़ (आनन्द) अल्लाह ने तुम्हारे लिए जाइज़ कर दिया है, उसे हासिल करो।191 और रातों को खाओ-पियो192 यहाँ तक कि तुमको रात की स्याही की धारी से सुबह की सफ़ेद धारी साफ़ दिखाई दे जाए।193 तब यह सब काम छोड़कर रात तक अपना रोज़ा पूरा करो।194 और जब तुम मस्जिदों में एतिकाफ़ (एकान्तवास) में हो तो बीवियों से मुबाशरत (संभोग) न करो।195 ये अल्लाह की बाँधी हुई हदें हैं, इनके क़रीब न फटकना196 इस तरह अल्लाह अपने अहकाम (आदेश) लोगों के लिए खोल-खोलकर बयान करता है। उम्मीद है कि वे ग़लत रवैये से बचेंगे।
190. यानी जिस तरह लिबास और जिस्म के बीच कोई परदा नहीं रह सकता, बल्कि दोनों का आपसी ताल्लुक़ और मिलन ऐसा होता है जिनके बीच बिलकुल कोई फ़ासला नहीं होता है, उसी तरह तुम्हारा और तुम्हारी बीवियों का ताल्लुक़ भी है।
191. शुरू में हालाँकि इस तरह का कोई साफ़ हुक्म मौजूद नहीं था कि रमज़ान की रातों में कोई शख़्स अपनी बीवी से मुबाशरत (संभोग) न करे, लेकिन लोग अपनी जगह यही समझते थे कि ऐसा करना जाइज़ नहीं है। फिर उसके नाजाइज़ या नापसन्दीदा होने का ख़याल दिल में लिए हुए कभी-कभी अपनी बीवियों के पास चले जाते थे। यह मानो अपने ज़मीर (अंतःकरण) के साथ ख़ियानत करना था और इससे अंदेशा था कि एक मुजरिमाना (अपराधी होने) और गुनाहगारना ज़ेहनियत (मानसिकता) उनके अन्दर परवरिश पाती रहेगी। इसलिए अल्लाह ने पहले इस ख़ियानत पर ख़बरदार किया और फिर कहा कि यह काम तुम्हारे लिए जाइज़ है, इसलिए अब इसे बुरा काम समझते हुए न करो, बल्कि अल्लाह की इजाज़त से फ़ायदा उठाते हुए दिल और मन की पूरी पाकी के साथ करो।
192. इस बारे में भी लोग शुरू में ग़लतफ़हमी में पड़े हुए थे। किसी का ख़याल था कि इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद से खाना-पीना हराम हो जाता है और कोई यह समझता था कि रात को जब तक आदमी जाग रहा हो, खा-पी सकता है। जहाँ सो गया, फिर दोबारा उठकर वह कुछ नहीं खा सकता। रोज़े के बारे में ये हुक्म लोगों ने ख़ुद अपने मन में समझ रखे थे और इसकी वजह से कभी-कभी बड़ी तकलीफ़ें उठाते थे। इस आयत में इन्हीं ग़लतफ़हमियों को दूर किया गया है। इसमें रोज़े की हद फ़ज़र के तुलूअ (उदय) होने से लेकर सूरज के डूबने तक मुक़र्रर कर दी गई और सूरज के डूबने से फ़ज्र के तुलूअ होने तक रात भर खाने-पीने और (शौहर-बीवी को) मुबाशरत (संभोग) के लिए आज़ादी दे दी गई। इसके साथ नबी (सल्ल०) ने सहरी का क़ायदा मुक़र्रर कर दिया, ताकि फ़ज्र के तुलूअ होने से ठीक पहले आदमी अच्छी तरह खा-पी ले।
193. इस्लाम ने अपनी इबादतों के लिए वक़्त का वह पैमाना मुक़र्रर किया है, जिससे दुनिया में हर वक़्त तमद्दुन (सभ्यता) के हर दरजे के लोग हर जगह वक़्त का तअय्युन (निश्चयन) कर सकें। वह घड़ियों के लिहाज़ से वक़्त मुक़र्रर करने के बजाय उन निशानियों के लिहाज़ से वक़्त मुक़र्रर करता है जो दुनिया में साफ़ दिखाई देती हैं। लेकिन नादान लोग वक़्त मुक़र्रर करने के इस तरीक़े पर आम तौर से यह एतिराज़ करते हैं कि दो ध्रुवों (Poles) के क़रीब जहाँ रात और दिन कई-कई महीनों के होते हैं, वहाँ वक़्त के तय करने का यह तरीक़ा कैसे चल सकेगा। हालाँकि यह ऐतिराज़ अस्ल में जुग़राफ़िया के इल्म (भूगोल शास्त्र) की सरसरी जानकारी का नतीजा है। हक़ीक़त में वहाँ न छः महीनों की रात इस मानी में होती है और न छः महीनों का दिन, जिस मानी में हम ख़त्ते-इस्तिवा (भू-मध्य रेखा) के आस-पास रहनेवाले लोग दिन और रात के मानी के लफ़्ज़ का इस्तेमाल करते हैं। चाहे रात का दौर हो या दिन का, बहरहाल सुबह और शाम की निशानियाँ वहाँ पूरी बाक़ायदगी के साथ उफ़ुक़ (क्षितिज) पर नुमायाँ होती हैं और उन्हीं के लिहाज़ से वहाँ के लोग अपने सोने-जागने, काम करने और सैर-सपाटे करने का वक़्त मुक़र्रर करते हैं। जब घड़ियों का रिवाज आम न था, तब भी फ़िनलैण्ड, नार्वे और ग्रीनलैण्ड वग़ैरा मुल्कों के लोग अपने वक़्त मालूम करते ही थे और इसका ज़रिआ यही उफ़ुक़ (क्षितिज) की निशानियाँ थीं। इसलिए जिस तरह दूसरे तमाम मामलों में ये निशानियाँ उनके लिए वक़्त मुक़र्रर करने का काम देती हैं, उसी तरह नमाज़, सेहरी और इफ़्तार के मामले में भी दे सकती हैं।
194. रात तक रोज़ा पूरा करने से मुराद यह है कि जहाँ रात की सरहद शुरू होती है, वहीं तुम्हारे रोज़े की सरहद ख़त्म हो जाए। ज़ाहिर है कि रात की सरहद सूरज डूबने से शुरू होती है, इसलिए सूरज डूबने ही के साथ इफ़्तार कर लेना चाहिए। सेहर (प्रातः बेला) और इफ़्तार की सही निशानी यह है कि जब रात के आख़िरी हिस्से में उफ़ुक़ (क्षितिज) के पूरबी किनारे पर सुबह के उजाले की बारीक-सी धारी उभरकर ऊपर उठने लगे, तो सहरी का वक़्त ख़त्म हो जाता है और जब दिन के आख़िरी हिस्से में पूरब की तरफ़ से रात की स्याही बुलन्द होती नज़र आए, तो इफ़्तार का वक़्त आ जाता है। आजकल लोग सहरी और इफ़्तार दोनों के मामले में बहुत ज़्यादा एहतियात करने की वजह से कुछ ज़्यादा ही सख़्ती बरतने लगे हैं। मगर शरीअत ने इन दोनों वक़्तों की कोई ऐसी हदबन्दी नहीं की है, जिससे चन्द सेकंड या चन्द मिनट इधर-उधर हो जाने से आदमी का रोज़ा ख़राब हो जाता हो। सहर (प्रातः बेला) में रात की स्याही से सुबह की सफ़ेदी का उभर आना अच्छी-ख़ासी गुंजाइश अपने अन्दर रखता है और एक शख़्स के लिए यह बिलकुल सही है कि अगर ठीक फ़ज्र के तुलूअ होने के वक़्त उसकी आँख खुली हो तो वह जल्दी से उठकर कुछ खा-पी ले। हदीस में आता है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर तुममें से कोई शख़्स सहरी खा रहा हो और अज़ान की आवाज़ आ जाए तो फ़ौरन छोड़ न दे, बल्कि अपनी ज़रूरत भर खा-पी ले। इसी तरह इफ़्तार के वक़्त में भी सूरज डूबने के बाद ख़ाह-मख़ाह दिन की रौशनी ख़त्म होने का इन्तिज़ार करते रहने की कोई ज़रूरत नहीं। नबी (सल्ल०) सूरज डूबते ही बिलाल (रज़ि०) को आवाज़ देते थे कि 'लाओ हमारा शरबत।’बिलाल (रज़ि०) अर्ज़ करते कि ऐ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अभी तो दिन चमक रहा है। आप फ़रमाते कि “जब रात की स्याही पूरब से उठने लगे, तो रोज़े का वक़्त ख़त्म हो जाता है।”
195. एतिक़ाफ़ (एकान्तवास) की हालत में होने का मतलब यह है कि आदमी रमज़ान के आख़िरी दस दिन मस्जिद में रहे और वे दस दिन अल्लाह के ज़िक्र और उसकी याद के लिए ख़ास कर दे। इस एतिकाफ़ की हालत में आदमी अपनी इनसानी जरूरतों के लिए मस्जिद से बाहर जा सकता है, मगर लाज़िम है कि वह अपने आपको शहवानी (वासनापूर्ण) लज़्ज़तों से रोके रखे।
196. यह नहीं फ़रमाया कि इन हदों से आगे न बढ़ना, बल्कि यह कहा कि इनके क़रीब न फटकना। इसका मतलब यह है कि जिस जगह से मासियत (गुनाह) की हद शुरू होती है, ठीक उसी जगह के आख़िरी किनारों पर घूमते रहना आदमी के लिए ख़तरनाक है। भलाई और सलामती इसमें है कि आदमी सरहद से दूर ही रहे, ताकि भूले से भी क़दम उसके पार न चला जाए। यही बात उस हदीस में भी आई है जिसमें नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “हर बादशाह की हिमा होती है और अल्लाह की हिमा उसकी वे हदें हैं जो हराम व हलाल का फ़र्क़ करती हैं। तो जो जानवर उसके क़रीब चरता रहेगा तो मुमकिन है कि वह एक दिन उसमें दाख़िल हो जाए।” अस्ल अरबी में 'हिमा' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। 'हिमा' उस चरागाह को कहते हैं। जिसमें आम जनता के दाख़िल होने पर कोई रईस या बादशाह रोक लगा देता है। इस मिसाल को इस्तेमाल करते हुए नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “हर बादशाह की एक हिमा (चरागाह) होती है और अल्लाह की हिमा उसकी वे हदें हैं, जिनसे उसने हलाल व हराम और फ़रमाँबरदारी व नाफ़रमानी का फ़र्क़ क़ायम किया है। जो जानवर हिमा के चारों तरफ़ ही चरता रहेगा, हो सकता है कि एक दिन वह हिमा के अन्दर दाख़िल हो जाए।” अफ़सोस है कि बहुत-से लोग जो शरीअत की रूह से वाक़िफ़ नहीं हैं, हमेशा इजाज़त की आख़िरी हदों तक ही जाने पर ज़िद करते हैं और बहुत-से उलमा और बुज़ुर्ग भी इसी ग़रज़ के लिए सनदें ढूँढ़-ढूँढ़ कर जाइज़ होने की आख़िरी हदें उन्हें बताया करते हैं, ताकि वे उस फ़र्क़ करनेवाली बारीक लाइन पर ही घूमते रहें, जहाँ फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी के बीच सिर्फ़ बाल बराबर फ़ासला रह जाता है। इसी का नतीजा है कि बड़ी तादाद में लोग गुनाह और गुनाह से भी बढ़कर गुमराही में पड़ रहे हैं, क्योंकि इन बारीक सरहदी लाइनों की पहचान और इनके किनारे पहुँचकर अपने आपको क़ाबू में रखना हर एक के बस का काम नहीं है।
وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٰلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَٰطِلِ وَتُدۡلُواْ بِهَآ إِلَى ٱلۡحُكَّامِ لِتَأۡكُلُواْ فَرِيقٗا مِّنۡ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ بِٱلۡإِثۡمِ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 177
(188) और तुम लोग न तो आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत तरीक़े से खाओ और न हाकिमों के आगे उनको इस मक़सद से पेश करो कि तुम्हें दूसरों के माल का को हिस्सा जान-बूझकर ज़ालिमाना (अन्यायपूर्ण) तरीक़े से खाने का मौक़ा मिल जाए।197
197. इस आयत का एक मतलब तो यह है कि हाकिमों को रिश्वत देकर नाजाइज़ फ़ायदे उठाने की कोशिश न करो और दूसरा मतलब यह है कि जब तुम ख़ुद जानते हो कि माल दूसरे आदमी का है, तो सिर्फ़ इसलिए कि उसके पास अपनी मिलकियत का कोई सुबूत नहीं है या इस वजह से कि किसी ऐच-पेंच से तुम उसे खा सकते हो, इसका मुक़द्दमा अदालत में न ले जाओ। हो सकता है कि अदालत का जज मुक़द्दमे की रिपोर्ट के लिहाज़ से वह माल तुमको दिलवा दे, मगर जज का ऐसा फ़ैसला अस्ल में ग़लत बनाई हुई रिपोर्ट से धोखा खा जाने का नतीजा होगा। इसलिए अदालत से उसकी मिलकियत का हक़ पा लेने के बावजूद हक़ीक़त में तुम उसके जाइज़ मालिक न बन जाओगे। अल्लाह की नज़र में वह तुम्हारे लिए हराम ही रहेगा। हदीस में आया है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “मैं बहरहाल एक इनसान ही तो हूँ। हो सकता है कि तुम एक मुक़द्दमा मेरे पास लाओ और तुममें से एक फ़रीक़ (पक्ष) दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा चर्बज़बान (बातूनी) हो और उसकी दलीलें सुनकर मैं उसके हक़ में फ़ैसला कर दूँ। मगर यह समझ लो कि अगर इस तरह अपने किसी भाई के हक़ में से कोई चीज़ तुमने मेरे फ़ैसले के ज़रिए से हासिल की तो अस्ल में दोज़ख़ का एक टुकड़ा हासिल करोगे।”
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡأَهِلَّةِۖ قُلۡ هِيَ مَوَٰقِيتُ لِلنَّاسِ وَٱلۡحَجِّۗ وَلَيۡسَ ٱلۡبِرُّ بِأَن تَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِن ظُهُورِهَا وَلَٰكِنَّ ٱلۡبِرَّ مَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَأۡتُواْ ٱلۡبُيُوتَ مِنۡ أَبۡوَٰبِهَاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 178
(189) लोग तुमसे चाँद की घटती-बढ़ती शक्लों के बारे में पूछते हैं। कहो: यह लोगों के लिए तारीख़ों (तिथियों) के तअय्युन (निर्धारण) की और हज की निशानियाँ है।198 और उनसे यह भी कहो : यह कोई नेकी का काम नहीं है कि तुम अपने घरों में पीछे की तरफ़ से दाख़िल होते हो, नेकी तो अस्ल में यह है कि आदमी अल्लाह की नाराज़ी से बचे। लिहाज़ा तुम अपने घरों में दरवाज़े ही से आया करो। अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो, शायद कि तुम्हें कामयाबी हासिल हो जाए।199
198. चाँद का घटना-बढ़ना एक ऐसा मंज़र है, जिसने हर ज़माने में इनसान के ध्यान को अपनी तरफ़ खींचा है और उसके बारे में तरह-तरह के अंधविश्वास और ख़याल और रस्मो-रिवाज दुनिया की क़ौमों में राइज (प्रचलित) रहे हैं और अब तक पाए जाते हैं। अरबों में भी इस तरह के औहाम (अंधविश्वास) मौजूद थे। चाँद से अच्छे या बुरे शगुन लेना, कुछ तारीख़ों को मुबारक (शुभ) और कुछ को नामुबारक (अशुभ) समझना, किसी तरीख़ को सफ़र के लिए और किसी को काम शुरू करने के लिए और किसी को शादी-ब्याह के लिए मनहूस या मुबारक ख़याल करना और यह समझना कि चाँद निकलने और डूबने और उसकी कमी व वेशी और उसकी हरकत और उसके गहन (चन्द्र-ग्रहण) का कोई असर इनसान की क़िस्मतों पर पड़ता है, ये सब बातें दूसरी जाहिल क़ौमों की तरह अरबवालों में भी पाई जाती थीं और इस सिलसिले में मुख़्तलिफ़ अन्धविश्वासों से भरी रस्में उनमें पाई जाती थीं। इन्हीं चीज़ों की हक़ीक़त नबी (सल्ल०) से मालूम की गई। जवाब में अल्लाह ने बताया कि यह घटता-बढ़ता चाँद तुम्हारे लिए इसके सिवा कुछ नहीं कि एक क़ुदरती जंतरी है, जो आसमान में ज़ाहिर होकर दुनिया भर के लोगों को एक ही वक़्त में उसकी तारीख़ों (तिथियों) का हिसाब बताती रहती है। हज का ज़िक्र ख़ास तौर पर इसलिए किया गया कि अरबों की मज़हबी, तहज़ीबी और मआशी (माली) ज़िन्दगी में इनकी अहमियत सबसे बढ़कर थी। साल के चार महीने हज और उमरे से जुड़े हुए थे। इन महीनों में लड़ाइयाँ बन्द रहतीं। रास्ते महफ़ूज़ रहते और अम्न की वजह से कारोबार तरक़्क़ी पाते थे।
199. जो अंधविश्वास भरी रस्में अरब में पाई जाती थीं, उनमें से एक रस्म यह भी थी कि जब हज के लिए एहराम बाँध लेते तो अपने घरों में दरवाज़े से दाख़िल न होते थे, बल्कि पीछे से दीवार कूदकर या दीवार में खिड़की-सी बनाकर दाख़िल होते थे, इसी तरह वे सफ़र से वापस आकर भी घरों में पीछे से दाख़िल हुआ करते थे। इस आयत में न सिर्फ़ इस रस्म का रद्द किया गया है, बल्कि तमाम अंधविश्वासों पर यह कहकर चोट की गई है कि नेकी अस्ल में अल्लाह से डरने और उसके हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचने का नाम है। उन बेमानी रस्मों का नेकी से कोई वास्ता नहीं, जो सिर्फ़ बाप-दादा की अन्धी पैरवी में अपनाई जा रही हैं, और जिनका इनसान की ख़ुशक़िस्मती और बदक़िस्मती से कोई ताल्लुक़ नहीं है।
وَقَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 179
(190) और तुम अल्लाह की राह में उन लोगों से लड़ो, जो तुमसे लड़ते हैं,200 ज़्यादती न करो कि अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।201
200. यानी जो लोग ख़ुदा के काम में तुम्हारा रास्ता रोकते हैं, और इस वजह से तुम्हारे दुश्मन बन गए हैं कि तुम ख़ुदा की हिदायत के मुताबिक़ ज़िन्दगी के निज़ाम का सुधार करना चाहते हो, और इस सुधार के काम में रुकावट पैदा करने के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती और ज़ुल्म की ताक़त इस्तेमाल कर रहे हैं, उनसे जंग करो। इससे पहले जब तक मुसलमान कमज़ोर और बिखरे हुए थे, उनको सिर्फ़ तबलीग़ (प्रचार) का हुक्म था और दुश्मनों के ज़ुल्मो-सितम पर सब्र करने की हिदायत की जाती थी। अब मदीना में उनकी छोटी-सी शहरी रियासत बन जाने के बाद पहली मरतबा हुक्म दिया जा रहा है कि जो लोग सुधार की इस दावत की राह में हथियारबंद रुकावटें डालते हैं, उनको तलवार का जवाब तलवार से दो। इसके बाद ही बद्र की लड़ाई पेश आई और लड़ाइयों का सिलसिला शुरू हो गया।
201. यानी तुम्हारी जंग न तो अपनी माद्दी अग़राज़ (भौतिक उद्देश्यों) के लिए हो, न उन लोगों पर हाथ उठाओ जो इस सच्चे दीन के रास्ते में रुकावटें नहीं पैदा करते और न लड़ाई में, जाहिलियत के तरीक़े इस्तेमाल करो। औरतों, बच्चों, बूढ़ों और ज़ख़्मियों पर हाथ उठाना, दुश्मन के क़त्ल किए गए लोगों के नाक-कान या जिस्म का कोई हिस्सा काटना, खेतियों और मवेशियों को ख़ाह-मख़ाह बरबाद करना और दूसरे तमाम वहशियाना और ज़ालिमाना काम 'हद से गुज़रने की तारीफ़ (परिभाषा) में आते हैं और हदीस में इन सब कामों से रोका गया है। आयत का मक़सद यह है कि ताक़त का इस्तेमाल वहीं किया जाए, जहाँ वह बिलकुल ज़रूरी हो और उसी हद तक किया जाए, जितनी उसकी ज़रूरत हो।
وَٱقۡتُلُوهُمۡ حَيۡثُ ثَقِفۡتُمُوهُمۡ وَأَخۡرِجُوهُم مِّنۡ حَيۡثُ أَخۡرَجُوكُمۡۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَشَدُّ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۚ وَلَا تُقَٰتِلُوهُمۡ عِندَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِيهِۖ فَإِن قَٰتَلُوكُمۡ فَٱقۡتُلُوهُمۡۗ كَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 180
(191) उनसे लड़ो जहाँ भी तुम्हारी उनसे मुठभेड़ हो जाए और उन्हें निकालो, जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि क़त्ल हालाँकि बुरा है, मगर फ़ितना (उपद्रव) उससे भी ज़्यादाबुरा है।202 और मस्जिदे-हराम (काबा) के क़रीब जब तक वे तुमसे न लड़ें तुम भी न लड़ो, मगर जब वे वहाँ लड़ने से न चूकें तो तुम भी वेझिझक उन्हें मारो कि ऐसे कुफ़्र (अधर्म) करनेवालों की यही सज़ा है।
202. यहाँ 'फ़ितने’ का लफ़्ज़ उसी मानी में इस्तेमाल हुआ है, जिसमें अंग्रेज़ी का लफ़्ज़ पर्सिक्यूशन (Persecution) इस्तेमाल होता है, यानी किसी गरोह या शख़्स को सिर्फ़ इस वजह से ज़ुल्मो-सितम का निशाना बनाना कि उसने मौजूदा वक़्त के राइज़ ख़यालों (विचारों) और नज़रियों (दृष्टिकोणों) की जगह कुछ दूसरे ख़यालों और नज़रियों को हक़ पाकर क़ुबूल कर लिया है और वह तनक़ीदों और बतलीग़ के ज़रिए से उस वक़्त पाए जाने वाले समाज के निज़ाम में सुधार की कोशिश करता है। आयत का मंशा यह है कि बेशक इनसानी ख़ून बहाना बहुत बुरा काम है, लेकिन जब कोई इनसानी गरोह ज़बरदस्ती अपनी सोच और अपने नज़रिए को डरा-धमकाकर दूसरों पर थोपने की कोशिश करे और लोगों को हक़ क़ुबूल करने से ताक़त के ज़रिए से रोके तब्दीली की जाइज़ और मुनासिब कोशिशों का मुक़ाबला दलीलों से करने के बजाय हैवानी (पशुत्व) ताक़त से करने लगे, तो वह क़त्ल के मुक़ाबले में ज़्यादा बड़ी बुराई करता है और ऐसे गरोह को तलवार के ज़ोर से हटा देना बिलकुल जाइज़ है।
فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 181
(192) फिर अगर वे रुक जाएँ, तो जान लो कि अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।203
203. यानी तुम जिस ख़ुदा पर ईमान लाए हो, उसकी सिफ़त (गुण) यह है कि बुरे से बुरे मुजरिम और गुनाहगार को भी माफ़ कर देता है, जबकि वह मुजरिम अपना बाग़ियाना रवैया छोड़ दे। यही सिफ़त तुम अपने अन्दर भी पैदा करो। इसी लिए कहा गया कि 'तुम लोग अल्लाह की ख़ूबियाँ अपने अन्दर पैदा करो' तुम्हारी लड़ाई इन्तिक़ाम की प्यास बुझाने के लिए न हो, बल्कि ख़ुदा के दीन का रास्ता साफ़ करने के लिए हो। जब तक कोई गरोह ख़ुदा के रास्ते में रुकावटें पैदा करे, बस उसी वक़्त तक उससे तुम्हारी लड़ाई भी रहे और जब वह अपना रवैया छोड़ दे तो तुम्हारा हाथ भी फिर उस पर न उठे।
وَقَٰتِلُوهُمۡ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتۡنَةٞ وَيَكُونَ ٱلدِّينُ لِلَّهِۖ فَإِنِ ٱنتَهَوۡاْ فَلَا عُدۡوَٰنَ إِلَّا عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 182
(193) तुम उनसे लड़ते रहो, यहाँ तक कि फ़ितना (उपद्रव) बाक़ी न रहे और दीन अल्लाह के लिए हो जाए।204 फिर अगर वे रुक जाएँ, तो समझ लो कि ज़ालिमों के अलावा और किसी पर हाथ उठाना जाइज़ नहीं।205
204. यहाँ 'फ़ितने' का लफ़्ज़ ऊपर के मानी से कुछ अलग मानी में इस्तेमाल हुआ है। मौक़ा-महल से साफ़ ज़ाहिर है कि इस मक़ाम पर ‘फ़ितने' से मुराद वह हालत है जिसमें दीन (धर्म) अल्लाह के बजाय किसी और के लिए हो और लड़ाई का मक़सद यह है कि यह फ़ितना ख़त्म हो जाए। और दीन सिर्फ़ अल्लाह के लिए हो। फिर जब हम 'दीन' लफ़्ज़ की तहक़ीक़ (पड़ताल) करते हैं तो मालूम होता है कि अरबी ज़बान में दीन के मानी फ़रमाँबरदारी करना है और इस्लामी इस्तिलाह में इससे मुराद ज़िन्दगी गुज़ारने का वह निज़ाम है जो किसी को सबसे बड़ा और सबसे ऊपर मानकर उसके हुक्मों और क़ानूनों की पैरवी में अपनाया जाए। इसलिए 'दीन' लफ़्ज़ के इस मानी से यह बात ख़ुद वाज़ेह हो जाती है कि समाज की वह हालत जिसमें बन्दों पर बन्दों की ख़ुदाई और हुकूमत क़ायम हो और जिसमें अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करना मुमकिन न रहे, फ़ितने की हालत है। और इस्लामी जंग का मक़सद यह है कि इस फ़ितने की जगह ऐसी हालत क़ायम हो जिसमें बन्दे सिर्फ़ ख़ुदा के क़ानून के पाबन्द होकर रहें।
205. रुक जाने से मुराद इनकार करनेवालों का अपने कुफ़्र और शिर्क से रुक जाना नहीं, बल्कि 'फ़ितने' से रुक जाना है। काफ़िर, मुशरिक, दहरिया (नास्तिक) सभी को इख़्तियार है कि अपना जो अक़ीदा रखता है, रखे और जिसकी चाहे इबादत करे या किसी की न करे। इस गुमराही से उसको निकालने के लिए हम उसे समझाएँ-बुझाएँगे और नसीहत करेंगे, मगर उससे लड़ेंगे नहीं। लेकिन उसे यह हक़ हरगिज़ नहीं है कि ख़ुदा की ज़मीन पर ख़ुदा के क़ानून के बजाय अपने झूठे क़ानून जारी करे और ख़ुदा के बन्दों को अल्लाह के अलावा किसी और का बन्दा बनाए। इस फ़ितने को दूर करने के लिए मौक़ा और इमकान के मुताबिक़ तबलीग़ और ताक़त, दोनों से काम लिया जाएगा और ईमानवाला उस वक़्त तक चैन से न बैठेगा, जब तक कुफ़्र (अधर्म) करनेवाले लोग अपने इस फ़ितने से बाज न आ जाएँ। और यह जो फ़रमाया कि “अगर वे बाज़ आ जाएँ, तो ज़ालिमों के सिवा किसी पर हाथ उठाना सही नहीं”, तो इससे यह इशारा निकलता है कि जब बातिल निज़ाम की जगह हक़ का निज़ाम क़ायम हो जाए तो आम लोगों को तो माफ़ कर दिया जाएगा, लेकिन ऐसे लोगों को सज़ा देने में हक़ को माननेवाले बिलकुल सच्चाई पर होंगे जिन्होंने अपनी हुकूमत के ज़माने में हक़ के निज़ाम का रास्ता रोकने के लिए ज़ुल्मो-सितम की हद कर दी हो, हालाँकि इस मामले में भी अच्छे और नेक ईमानवालों को ज़ेब (शोभा) यही देता है कि माफ़ी और दरगुज़र से काम लें और फ़तह हासिल करने के बाद ज़ालिमों से बदला न लें। मगर जिनके जुर्मो की लिस्ट बहुत ही ज़्यादा काली हो उनको सज़ा देना बिलकुल सही है और इस इजाज़त से ख़ुद नबी (सल्ल०) ने फ़ायदा उठाया है, जिनसे बढ़कर माफ़ और दरगुज़र करनेवाला कोई न था। चुनाँचे बद्र की लड़ाई के क़ैदियों में से उक़बा-बिन-अबी-मुऐत और नज़र-बिन-हारिस का क़त्ल और मक्का की फ़तह के बाद नबी (सल्ल०) का 17 आदमियों को आम माफ़ी से अलग रखना और फिर उनमें से चार को मौत की सज़ा देना, इसी इजाज़त की वजह से था।
ٱلشَّهۡرُ ٱلۡحَرَامُ بِٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡحُرُمَٰتُ قِصَاصٞۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَٱعۡتَدُواْ عَلَيۡهِ بِمِثۡلِ مَا ٱعۡتَدَىٰ عَلَيۡكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 183
(194) हराम (प्रतिष्ठित) महीने का बदला हराम महीना ही है और तमाम हुर्मतों (प्रतिष्ठाओं) का लिहाज़ बराबरी के साथ होगा।206 तो जो तुमपर हाथ उठाए, तुम भी उसी तरह उसपर हाथ उठाओ, अलबत्ता अल्लाह से डरते रहो और यह जान रखो कि अल्लाह उन्हीं लोगों के साथ है जो उसकी हदें तोड़ने से बचते हैं।
206. अरबवालों में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के वक़्त से यह क़ायदा (नियम) चला आ रहा था कि अरबी के तीन महीने ज़ीक़ादा, ज़िलहिज्जा और मुहर्रम हज के लिए ख़ास थे और रजब का महीना उमरे के लिए ख़ास किया गया था, और इन चारों महीनों में जंग (युद्ध) क़त्ल और लूट-पाट मना थी, ताकि काबा की ज़ियारत करनेवाले अमन और सुकून के साथ ख़ुदा के घर तक जाएँ और अपने घरों को वापस हो सकें। इस वजह से इन महीनों को मुहतरम (आदरणीय) महीना कहा जाता था, यानी एहतिरामवाले महीने। आयत का मंशा यह है कि मुहतरम (आदरणीय) महीने के एहतिराम का लिहाज़ कुफ़्फ़ार करें, तो मुसलमान भी करें और अगर वे इस हुरमत (प्रतिष्ठा) को नज़रअंदाज़ करके किसी हराम महीने में मुसलमानों पर हाथ उठा दें, तो फिर मुसलमान भी हराम महीने में बदला लेने का हक़ रखते हैं। इस इजाज़त की ज़रूरत ख़ास तौर पर इस वजह से पेश आ गई थी कि अरब के लोगों ने लड़ाई-झगड़ों और लूट-मार की ख़ातिर नसी का क़ायदा बना रखा था, जिसके मुताबिक़ वे अगर किसी से बदला लेने के लिए या लूट-मार करने के लिए लड़ाई छेड़ना चाहते थे तो किसी हराम महीने में उसपर छापा मार देते और फिर उस महीने की जगह किसी दूसरे हलाल महीने को हराम करके मानो इस हुरमत का बदला पूरा कर देते थे। इस वजह से मुसलमानों के सामने यह सवाल पैदा हुआ कि अगर दुश्मन अपने 'नसी' के बहाने को काम में लाकर किसी हराम महीने में जंगी कार्रवाई कर बैठें तो इस सूरत में क्या किया जाए। इसी सवाल का जवाब इस आयत में दिया गया है।
وَأَنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا تُلۡقُواْ بِأَيۡدِيكُمۡ إِلَى ٱلتَّهۡلُكَةِ وَأَحۡسِنُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 184
(195) अल्लाह की राह में ख़र्च करो और अपने हाथों अपने आपको हलाकत में न डालो।207 एहसान का तरीक़ा अपनाओ कि अल्लाह एहसान करनेवालों को पसन्द करता है।208
207. अल्लाह की राह में ख़र्च करने से मुराद अल्लाह के दीन को क़ायम करने की कोशिश में माल-दौलत का क़ुरबान करना है। आयत का मतलब यह है कि अगर तुम ख़ुदा के दीन को सरबुलंद करने के लिए अपना माल ख़र्च न करोगे और उसके मुक़ाबले में अपने ख़ुद के फ़ायदे को अज़ीज़ (प्रिय) रखोगे, तो यह तुम्हारे लिए दुनिया में भी बरबादी की वजह होगा और आख़िरत में भी। दुनिया में तुम इस्लाम के दुश्मनों के हाथों मग़लूब (परास्त) और रुसवा होकर रहोगे और आख़िरत में ख़ुदा तुमसे सख़्त पूछ-गछ करेगा।
208. 'एहसान' का लफ़्ज़ हुस्न से बना है जिसका मतलब है किसी काम को ख़ूबी के साथ करना। अमल का एक दरजा यह है कि आदमी के सिपुर्द जो ख़िदमत हो, उसे बस कर दे और दूसरा दरजा यह है कि उसे ख़ूबी के साथ करे। अपनी पूरी क़ाबिलियत और अपने तमाम वसाइल (संसाधन) उसमें लगा दे और दिलो-जान से उसे पूरा करने की कोशिश करे। पहला दरजा सिर्फ़ फ़रमाँबरदारीं का दरजा है जिसके लिए सिर्फ़ 'तक़वा' और डर काफ़ी हो जाता है और दूसरा दरजा एहसान का दरजा है जिसके लिए मुहब्बत और गहरे दिली लगाव की ज़रूरत होती है।
وَأَتِمُّواْ ٱلۡحَجَّ وَٱلۡعُمۡرَةَ لِلَّهِۚ فَإِنۡ أُحۡصِرۡتُمۡ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۖ وَلَا تَحۡلِقُواْ رُءُوسَكُمۡ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡهَدۡيُ مَحِلَّهُۥۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ بِهِۦٓ أَذٗى مِّن رَّأۡسِهِۦ فَفِدۡيَةٞ مِّن صِيَامٍ أَوۡ صَدَقَةٍ أَوۡ نُسُكٖۚ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَمَن تَمَتَّعَ بِٱلۡعُمۡرَةِ إِلَى ٱلۡحَجِّ فَمَا ٱسۡتَيۡسَرَ مِنَ ٱلۡهَدۡيِۚ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖ فِي ٱلۡحَجِّ وَسَبۡعَةٍ إِذَا رَجَعۡتُمۡۗ تِلۡكَ عَشَرَةٞ كَامِلَةٞۗ ذَٰلِكَ لِمَن لَّمۡ يَكُنۡ أَهۡلُهُۥ حَاضِرِي ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 185
(196) अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए जब हज और उमरे की नीयत करो तो उसे पूरा करो और अगर कहीं घिर जाओ तो जो क़ुरबानी मयस्सर हो, अल्लाह के हुजूर में पेश करो।209 और अपने सर न मूँडो जब तक कि क़ुरबानी अपनी जगह न पहुँच जाए।210 मगर जो शख़्स मरीज़ हो या जिसके सर में कोई तकलीफ़ हो और इस वजह से अपना सर मुँडवा ले तो चाहिए कि फ़िदया (जुर्माने) के तौर पर रोज़े रखे या सदक़ा दे या क़ुरबानी करे।211 फिर अगर तुम्हें अम्न नसीब हो जाए212 (और तुम हज से पहले मक्का पहुँच जाओ) तो जो शख़्स तुममें से हज का वक़्त आने तक उमरे से फ़ायदा उठाए, वह अपनी हैसियत के मुताबिक़ क़ुरबानी दे, और अगर क़ुरबानी मयस्सर न हो तो तीन रोज़े हज के ज़माने में और सात घर पहुँचकर, इस तरह पूरे दस रोज़े रख ले। यह छूट उन लोगों के लिए है जिनके घर-बार मस्जिदे-हराम (काबा) के करीब न हों।213 अल्लाह के इन हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी से बचो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
209. यानी अगर रास्ते में कोई ऐसी वजह पेश आ जाए, जिसकी वजह से आगे जाना नामुमकिन हो और मजबूर होकर रुक जाना पड़े, तो ऊँट, गाय, बकरी में से जो जानवर भी मिल सके, अल्लाह के लिए क़ुरबान कर दो।
210. इस बात में उलमा की राएँ अलग-अलग हैं कि क़ुरबानी के अपनी जगह पहुँच जाने से क्या मुराद है। हनफ़ी फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) के नज़दीक इससे मुराद हरम है, यानी अगर आदमी रास्त में रुक जाने पर मजबूर हो तो अपनी क़ुरबानी का जानवर या उसकी क़ीमत भेज दे ताकि उसकी तरफ़ से हरम की हदों में क़ुरबानी की जाए। और इमाम मालिक और शाफ़िई (रह०) के नज़दीक जहाँ आदमी घिर गया हो, वहीं क़ुरबानी कर देना मुराद है। सिर मूँडने से मुराद हजामत है। मतलब यह है कि जब तक क़ुरबानी न कर लो, हजामत न करवाओ।
211. हदीस से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने ऐसी सूरत में तीन दिन के रोज़े रखने या छह मुहताज को खाना खिलाने या कम-से-कम एक बकरी ज़बह करने का हुक्म दिया है।
212. यानी वह सबब दूर हो जाए, जिसकी वजह से मजबूरन तुम्हें रास्ते में रुक जाना पड़ा था। चूँकि उस ज़माने में हज का रास्ता बन्द होने और हाजियों के रुक जाने की वजह ज़्यादातर इस्लाम के दुश्मन क़बीलों की रुकावट ही थी, इसलिए अल्लाह तआला ने ऊपर की आयत में ‘घिर जाने’ और उसके मुक़ाबले में यहाँ ‘अम्न हासिल हो जाने’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं। लेकिन जिस तरह ‘घिर जाने’ के मानी में दुश्मन की रुकावटों के अलावा वे दूसरी तमाम रुकावटें शामिल हैं, उसी तरह ‘अम्न हासिल हो जाने’ का मतलब भी ‘हर रुकावट वाली चीज़ का दूर हो जाना’ है।
213. अरब के जाहिलियत के ज़माने में यह ख़याल किया जाता था कि एक ही सफ़र में हज और उमरा दोनों अदा करना एक बड़ा गुनाह है। उनकी मनगढ़न्त शरीअत (क़ानून) में उमरे के लिए अलग और हज के लिए अलग सफ़र करना ज़रूरी था। अल्लाह तआला ने इस क़ैद को ख़त्म कर दिया और बाहर से आनेवालों के साथ यह रिआयत की कि वे एक ही सफ़र में उमरा और हज दोनों कर लें। लेकिन, जो लोग मक्का के आस-पास की मीक़ातों की हदों के अन्दर (निर्धारित सीमाओं में) रहते हों, उन्हें इस रिआयत से अलग कर दिया, क्योंकि उनके लिए उमरे का सफ़र अलग और हज का सफ़र अलग करना कुछ मुश्किल नहीं। हज का ज़माना आने तक उमरे का फ़ायदा उठाने से मुराद यह है कि आदमी उमरा करके इहराम खोल ले और उन पाबन्दियों से आज़ाद हो जाए, जो इहराम की हालत में लगाई गई हैं। फिर जब हज के दिन आएँ तो नए सिरे से इहराम बाँध ले।
ٱلۡحَجُّ أَشۡهُرٞ مَّعۡلُومَٰتٞۚ فَمَن فَرَضَ فِيهِنَّ ٱلۡحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوقَ وَلَا جِدَالَ فِي ٱلۡحَجِّۗ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ يَعۡلَمۡهُ ٱللَّهُۗ وَتَزَوَّدُواْ فَإِنَّ خَيۡرَ ٱلزَّادِ ٱلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُونِ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 186
(197) हज के महीने सबको मालूम हैं। जो शख़्स उन मुक़र्रर महीनों में हज का इरादा करे, उसे ख़बरदार रहना चाहिए कि हज के दौरान में उससे कोई शहवानी (कामवासना का) काम214, कोई बुरा काम215, कोई लड़ाई-झगड़े की बात216 न होने पाए, और जो अच्छे काम तुम करोगे, उसे अल्लाह जानता होगा। हज के सफ़र के लिए ज़ादे-राह (रास्ते का खाना और ज़रूरत के सामान) साथ ले जाओ। और सबसे अच्छा ज़ादे-राह परहेज़गारी है। तो ऐ अक़्लवालो! मेरी नाफ़रमानी से बचो।217
214. इहराम की हालत में शौहर और बीवी के बीच न सिर्फ़ जिस्मानी ताल्लुक़ मना है, बल्कि उनके बीच कोई ऐसी बातचीत भी न होनी चाहिए, जिसमें शहवानी (वासनात्मक) ख़ाहिश मौजूद हो।
215. तमाम बुरे काम हालाँकि अपने आप में नाजाइज़ हैं, लेकिन इहराम की हालत में इनका गुनाह बहुत सख़्त है।
216. यहाँ तक कि नौकर को डाँटना तक जाइज़ नहीं।
217. जाहिलियत के ज़माने में हज के लिए रास्ते के लिए खाने-पीने और दीगर ज़रूरत का सामान साथ लेकर निकलने को एक दुनियादारी का काम समझा जाता था और एक मज़हबी आदमी से यह उम्मीद की जाती थी कि वह ख़ुदा के घर की तरफ़ दुनिया का सामान लिए बग़ैर जाएगा। इस आयत में उनके इस ग़लत ख़याल को रद्द किया गया है और उन्हें बताया गया है कि रास्ते का सामान न लेना कोई ख़ूबी नहीं है। अस्ल ख़ूबी अल्लाह का ख़ौफ़ और उसके हुक्मों की ख़िलाफ़वर्जी से बचना और ज़िन्दगी का पाकीज़ा होना है। जो मुसाफ़िर अपने अख़लाक़ दुरुस्त नहीं रखता और अल्लाह से बेख़ौफ़ होकर बुरे काम करता है, वह अगर रास्ते का सामान साथ न लेकर सिर्फ़ ज़ाहिर में फ़क़ीरी की नुमाइश करता है तो इसका कोई फ़ायदा नहीं। ख़ुदा और बन्दों दोनों की निगाह में वह रुसवा होगा और अपने इस मज़हबी काम की भी तौहीन करेगा, जिसके लिए वह सफ़र कर रहा है। लेकिन अगर उसके दिल में ख़ुदा का ख़ौफ़ हो और उसके अख़लाक़ दुरुस्त हों तो ख़ुदा के यहाँ भी उसकी इज़्ज़त होगी और लोग भी उसका एहतिराम करगे, चाहे उसका खाने का बर्तन खाने की चीज़ों से भरा हुआ हो।
لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡۚ فَإِذَآ أَفَضۡتُم مِّنۡ عَرَفَٰتٖ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ عِندَ ٱلۡمَشۡعَرِ ٱلۡحَرَامِۖ وَٱذۡكُرُوهُ كَمَا هَدَىٰكُمۡ وَإِن كُنتُم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمِنَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 187
(198) और अगर हज के (सफ़र) साथ-साथ तुम अपने रब का फ़ज़्ल (यानी रोज़ी-रोज़गार) भी तलाश करते जाओ तो इसमें कोई हरज नहीं।218 फिर जब अरफ़ात से चलो तो मशअरे-हराम (मुज़दलफ़ा) के पास ठहरकर अल्लाह को याद करो और उस तरह याद करो जिसकी हिदायत उसने तुम्हें दी है, वरना इससे पहले तो तुम लोग भटके हुए थे।219
218. यह भी पुराने अरबों का एक जाहिलाना तसव्वुर था कि हज के सफ़र के दौरान में रोज़ी कमाने के लिए काम करने को वे बुरा समझते थे, क्योंकि उनके नज़दीक रोज़ी कमाने का काम दुनियादारी का एक काम था और हज जैसे एक मज़हबी काम के दौरान में उसका करना नापसन्दीदा था। क़ुरआन इस ख़याल को रद्द करता है और उन्हें बताता है कि एक ख़ुदापरस्त आदमी जब ख़ुदा के क़ानून का एहतिराम करते हुए अपनी रोज़ी के लिए जिद्दो-जुह्द करता है, तो अस्ल में अपने रब का फ़ज़्ल (अनुग्रह) तलाश करता है, और कोई गुनाह नहीं अगर वह अपने रब की ख़ुशनूदी के लिए सफ़र करते हुए उसका फ़ज़्ल भी तलाश करता जाए।
219. यानी जाहिलियत के ज़माने में ख़ुदा की इबादत के साथ जिन दूसरे शिर्क और जाहिलियत से भरे कामों की मिलावट होती थी, उन सबको छोड़ दो और अब जो हिदायत अल्लाह ने तुम् बख़्शी है, उसके मुताबिक़ ख़ुलूस के साथ अल्लाह तआला की इबादत करो।
ثُمَّ أَفِيضُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَفَاضَ ٱلنَّاسُ وَٱسۡتَغۡفِرُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 188
(199) फिर जहाँ से और सब लोग पलटते हैं, वहीं से तुम भी पलटो और अल्लाह से माफ़ी चाहो220, यक़ीनन वह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
220. हज़रत इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) के ज़माने से अरबों में हज का जाना-पहचाना तरीक़ा यह था कि 9 ज़िलहिज्जा को मिना से अरफ़ात जाते थे और रात को वहाँ से पलटकर मुज़दलफ़ा में ठहरते थे। मगर बाद के ज़माने में जब धीरे-धीरे क़ुरैश की बरहमनियत (ब्राह्मणवाद) क़ायम हो गई तो उन्होंने कहा: हम हरमवाले (काबेवाले) हैं, हमारे मरतबे से यह बात गिरी हुई है कि हम आम अरबवालों के साथ अरफ़ात तक जाएँ। इसलिए उन्होंने अपने लिए आम लोगों से अलग यह ख़ास तरीक़ा अपनाया कि मुज़दलफ़ा तक जाकर ही पलट आते और आम लोगों को अरफ़ात तक जाने के लिए छोड़ देते थे। फिर यही ख़ुसूसियत बनी-ख़ुज़ाआ, बनी-किनाना और उन दूसरे क़बीलों को भी हासिल हो गई, जिनके साथ क़ुरैश के शादी-ब्याह के रिश्ते थे। आख़िरकार नौबत यहाँ तक पहुँची कि जिन क़बीलों से क़ुरैश का समझौता था, उनकी शान भी आम अरबों से ऊँची हो गई और उन्होंने भी अरफ़ात जाना छोड़ दिया। इसी फ़ख़्र और घमंड का बुत इस आयत में तोड़ा गया है। आयत का ख़ास ख़िताब क़ुरैश और उनके रिश्तेदार और समझौतेवाले साथी क़बीलों की तरफ़ है और आम ख़िताब उन सबकी तरफ़ है, जो आइन्दा कभी इस क़िस्म की ख़ुसूसियत को अपने लिए ख़ास करना चाहें। उनको हुक्म दिया जा रहा है कि और सब लोग जहाँ तक जाते हैं, उन्हीं के साथ जाओ, उन्हीं के साथ ठहरो, उन्हीं के साथ पलटो और अब तक जाहिलियत के फ़ख़्र और घमंड की वजह से इबराहीमी तरीक़े की जो ख़िलाफ़वर्ज़ी तुम करते रहे हो, उस पर अल्लाह से माफ़ी माँगो।
فَإِذَا قَضَيۡتُم مَّنَٰسِكَكُمۡ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَذِكۡرِكُمۡ ءَابَآءَكُمۡ أَوۡ أَشَدَّ ذِكۡرٗاۗ فَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَقُولُ رَبَّنَآ ءَاتِنَا فِي ٱلدُّنۡيَا وَمَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنۡ خَلَٰقٖ ۝ 189
(200) फिर जब अपने हज के अरकान को पूरा कर चुको तो जिस तरह पहले अपने बाप-दादाओं की चर्चा करते थे, उसी तरह अब अल्लाह का ज़िक्र करो, बल्कि उससे भी बढ़कर।221 (मगर अल्लाह को याद करनेवाले लोगों में भी बहुत फ़र्क़ है) उनमें से कोई तो ऐसा है जो कहता है कि ऐ हमारे रब! हमें दुनिया ही में सब कुछ दे दे। ऐसे आदमी के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं।
221 अरबवाले हज पूरा कर लेने के बाद मिना में जलसे (सभाएँ करते थे, जिनमें हर क़बीले के लोग अपने बाप-दादा के कारनामे फ़ख़्र के साथ बयान करते और अपनी बड़ाई की डीगें मारते थे। इसपर कहा जा रहा है कि इन जाहिलाना बातों को छोड़ो। पहले जो वक़्त बेकार की बातों में लगाया करते थे, अब उसे अल्लाह की याद और उसके ‘ज़िक्र' में लगाओ। इस ज़िक्र से मुराद मिना में ठहरने के वक़्त किया जानेवाला ज़िक्र है।
وَمِنۡهُم مَّن يَقُولُ رَبَّنَآ ءَاتِنَا فِي ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٗ وَفِي ٱلۡأٓخِرَةِ حَسَنَةٗ وَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 190
(201) और कोई कहता है कि ऐ हमारे रब! हमें दुनिया में भी भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई दे, और आग के अज़ाब से हमें बचा।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ نَصِيبٞ مِّمَّا كَسَبُواْۚ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 191
(202) ऐसे लोग अपनी कमाई के मुताबिक़ (दोनों जगह) हिस्सा पाएँगे और अल्लाह को हिसाब चुकाते कुछ देर नहीं लगती।
۞وَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن تَعَجَّلَ فِي يَوۡمَيۡنِ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِ وَمَن تَأَخَّرَ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۖ لِمَنِ ٱتَّقَىٰۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُمۡ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 192
(203) ये गिनती के कुछ दिन हैं जो अल्लाह की याद में बसर करने चाहिएँ। फिर जो कोई जल्दी करके दो ही दिन में वापस हो गया तो कोई हरज नहीं, और जो कुछ देर ज़्यादा ठहरकर पलटा तो भी कोई हरज नहीं।222 शर्त यह है कि ये दिन उसने तक़वा (परहेज़गारी) के साथ बसर किए हों— अल्लाह की नाफ़रमानी से बचो और ख़ूब जान रखो कि एक दिन उसके सामने तुम्हारी पेशी होनेवाली है।
222. यानी तशरीक (10 ज़िलहिज्जा से 13 ज़िलहिज्जा) की अवधि तक के दिनों में मिना से मक्के की तरफ़ वापसी, चाहे 12 ज़िलहिज्जा को हो या 13 वीं तारीख़ को, दोनों शक्लों में कोई हरज नहीं। अस्ल अहमियत इसकी नहीं कि तुम ठहरे कितने दिन, बल्कि इसकी है कि जितने दिन भी ठहरे, उनमें अल्लाह के साथ तुम्हारे ताल्लुक़ का क्या हाल रहा, अल्लाह को याद करते रहे या मेला-ठेलों में लगे रहे।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُعۡجِبُكَ قَوۡلُهُۥ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَيُشۡهِدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا فِي قَلۡبِهِۦ وَهُوَ أَلَدُّ ٱلۡخِصَامِ ۝ 193
(204 ) इनसानों में कोई तो ऐसा है जिसकी बातें दुनिया की ज़िन्दगी में तुम्हें बहुत भली मालूम होती हैं और अपनी नेकनीयती पर वह बार-बार ख़ुदा को गवाह ठहराता है223, मगर हक़ीक़त में वह हक़ का बदतरीन दुश्मन224 होता है।
223. यानी कहता है ख़ुदा गवाह है कि मैं सिर्फ़ भलाई चाहता हूँ, अपनी निजी ग़रज़ के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ हक़ और सच्चाई के लिए या लोगों की भलाई के लिए काम कर रहा हूँ।
224. अस्ल अरबी में 'अलद्दुल-ख़िसाम' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, जिसके मानी हैं, “वह दुश्मन जो तमाम दुश्मनों से ज़्यादा टेढ़ा हो।” यानी जो हक़ की मुख़ालफ़त में हर मुमकिन हथकंडे से काम ले। किसी झूठ, किसी बेईमानी, बग़ावत, वादाख़िलाफ़ी और किसी टेढ़ी-से-टेढ़ी चाल को भी इस्तेमाल करने में उसको कोई झिझक न हो।
وَإِذَا تَوَلَّىٰ سَعَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُفۡسِدَ فِيهَا وَيُهۡلِكَ ٱلۡحَرۡثَ وَٱلنَّسۡلَۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡفَسَادَ ۝ 194
(205) जब उसे हुकूमत (सत्ता) मिल जाती है225 तो ज़मीन में उसकी सारी दौड़-धूप इसलिए होती है कि फ़साद (बिगाड़) फैलाए, खेतों को बरबाद करे और इनसानी नस्ल को तबाह करे हालाँकि अल्लाह (जिसे वह गवाह बना रहा था) फ़साद को हरगिज़ पसन्द नहीं करता।
225. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'इज़ा तवल्ला' का इस्तेमाल हुआ है, इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं। एक वह जो हमने तर्जमे में इख़्तियार किया है और दूसरा मतलब यह भी निकलता है कि ये करतूत दिखाता है। मज़े-मज़े की दिल-लुभाने वाली बातें बनाकर “जब वह पलटता है", तो अमली तौर पर यह करतूत दिखाता है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُ ٱتَّقِ ٱللَّهَ أَخَذَتۡهُ ٱلۡعِزَّةُ بِٱلۡإِثۡمِۚ فَحَسۡبُهُۥ جَهَنَّمُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 195
(206) और जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डर, तो अपने वक़ार (प्रतिभा) का ख़याल उसको गुनाह पर जमा देता है। ऐसे आदमी के लिए तो बस जहन्नम ही काफ़ी है और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَشۡرِي نَفۡسَهُ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ رَءُوفُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 196
(207) दूसरी तरफ़ इनसानों ही में कोई ऐसा भी है जो अल्लाह की ख़ुशी की चाह में अपनी जान खपा देता है, और ऐसे बन्दों पर अल्लाह बहुत मेहरबान है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱدۡخُلُواْ فِي ٱلسِّلۡمِ كَآفَّةٗ وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 197
(208) ऐ ईमान लानेवालो! तुम पूरे-के-पूरे इस्लाम (फ़रमाँबरदारी) में आ जाओ226 और शैतान की पैरवी न करो कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
226. यानी किसी तरह की रिआयत व छूट और रिज़र्वेशन के बग़ैर अपनी पूरी ज़िन्दगी को इस्लाम के तहत ले आओ। तुम्हारे ख़यालात, तुम्हारे नज़रिए, तुम्हारे उलूम (ज्ञान-विज्ञान), तुम्हारे तौर-तरीक़े, तुम्हारे मामले और तुम्हारी कोशिश और अमल (कर्म) के रास्ते सब-के-सब बिलकुल इस्लाम के ताबेअ (अधीन) हों। ऐसा न हो कि तुम अपनी ज़िन्दगी को अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर कुछ हिस्सों में इस्लाम की पैरवी करो और कुछ हिस्सों को उसकी पैरवी से अलग कर लो।
فَإِن زَلَلۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡكُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 198
(209) जो साफ़-साफ़ हिदायतें तुम्हारे पास आ चुकी हैं अगर उनको पा लेने के बाद फिर तुम बहके तो ख़ूब जान रखो कि अल्लाह सबपर ग़ालिब और हिकमतवाला और जाननेवाला है।227
227. यानी वह ज़बरदस्त ताक़त भी रखता है और यह भी जानता है कि अपने मुजरिमों को सज़ा किस तरह दे।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن يَأۡتِيَهُمُ ٱللَّهُ فِي ظُلَلٖ مِّنَ ٱلۡغَمَامِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 199
(210) ( इन सारी नसीहतों और हिदायतों के बाद भी लोग सीधे न हों तो) क्या अब के इसके इन्तिज़ार में हैं कि अल्लाह बादलों का छत्र लगाए, फ़रिश्तों का परे (समूह) साथ लिए सामने आ मौजूद हो और फ़ैसला ही कर डाला जाए?228 आख़िरकार सारे मामले पेश तो अल्लाह ही के सामने होनेवाले हैं।
228. ये अलफ़ाज़ ग़ौर करने के क़ाबिल हैं। इनसे एक अहम हक़ीक़त पर रौशनी पड़ती है। इस दुनिया में इनसान की सारी आज़माइश सिर्फ़ इस बात की है कि वह हक़ीक़त को देखे बिना मानता है या नहीं और मानने बाद के इतनी अख़लाक़ी ताक़त रखता है या नहीं कि नाफ़रमानी का इख़्तियार रखने के बावजूद फ़रमाँबरदारी इख़्तियार करे। इसी लिए अल्लाह तआला ने नबियों के भेजे जाने में, किताबों के उतारे जाने में, यहाँ तक कि मोजिज़ों तक में अक़्ल के इम्तिहान और अख़लाक़ी सलाहियत की आज़माइश का ज़रूर लिहाज़ रखा है और कभी हक़ीक़त को इस तरह बेपरदा नहीं कर दिया है कि आदमी के लिए माने बग़ैर चारा न रहे, क्योंकि इसके बाद तो आज़माइश बिलकुल बेमानी हो जाती है और इम्तिहान में कामयाबी और नाकामी का कोई मतलब ही बाक़ी नहीं रहता। इसी वजह से यहाँ कहा जा रहा है कि उस वक़्त का इन्तिज़ार न करो, जब अल्लाह और उसकी सल्तनत के कारकुन (कार्यकर्ता) फ़रिश्ते ख़ुद सामने आ जाएँगे, क्योंकि फिर तो फ़ैसला ही कर डाला जाएगा। ईमान लाने और फ़रमाँबरदारी में सर झुका देने की सारी क़द्र और क़ीमत उसी वक़्त तक है जब तक हक़ीक़त तुम्हारे हवास (इन्द्रियों) से छिपी हुई है और तुम सिर्फ़ दलील से उसको तस्लीम करके अपनी समझदारी का और सिर्फ़ समझाने-बुझाने से उसकी पैरवी और फ़रमाँबरदारी अपना करके अपनी अख़लाक़ी (नैतिक) ताक़त का सुबूत देते हो; वरना जब खुली सच्चाई सामने आ जाए और तुम बेनक़ाब आँखों से देख लो कि यह ख़ुदा अपने तख़्ते-जलाल (महान् सिंहासन) पर बैठा है और यह सारी कायनात (जगत्) की सल्तनत उसके हुक्म पर चल रही है और ये फ़रश्ते ज़मीन व आसमान के इन्तिज़ाम में लगे हुए हैं, और यह तुम्हारी हस्ती उसकी क़ुदरत के क़ब्ज़े में पूरी बेबसी के साथ जकड़ी हुई है, उस वक़्त अगर तुम ईमान लाए और फ़रमाँबरदारी पर आमादा हुए, तो उस ईमान और फ़रमाँबरदारी की क़ीमत ही क्या है? उस वक़्त तो कोई कट्टर-से कट्टर इनकार करनेवाला और बुरे-से-बुरा मुजरिम और नाफ़रमान भी इनकार और नाफ़रमानी की हिम्मत नहीं कर सकता। ईमान लाने और फ़रमाँबरदारी क़ुबूल करने की मुहलत बस उसी वक़्त तक है, जब तक कि परदा उठने की वह घड़ी नहीं आती। जब वह घड़ी आ गई, तो फिर न मुहलत है, न आज़माइश है, बल्कि वह फ़ैसले का वक़्त है।
سَلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ كَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُم مِّنۡ ءَايَةِۭ بَيِّنَةٖۗ وَمَن يُبَدِّلۡ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 200
(211) बनी-इसराईल से पूछो, कैसी खुली-खुली निशानियाँ हमने उन्हें दिखाई हैं (और फिर यह भी उन्हीं से पूछ लो कि) अल्लाह की नेमत पाने के बाद जो क़ौम उसको बदक़िस्मती से बदलती हैं, उसे अल्लाह कैसी सख़्त सज़ा देता है।229
229. इस सवाल के लिए बनी-इसराईल का चुनाव दो वजहों से किया गया है। एक यह कि आसारे-क़दीमा (पुरातत्व) के बेज़बान खंडहरों के मुक़ाबले में एक जीती-जागती क़ौम इबरत और सबक़ हासिल करने का ज़्यादा बेहतर ज़रिआ है। दूसरे यह कि बनी-इसराईल वह क़ौम है, जिसको किताब और नुबूवत (पैग़म्बरी) की मशाल देकर दुनिया की रहनुमाई के मंसब पर मुक़र्रर किया गया था और फिर उसने दुनिया-परस्ती, निफ़ाक़ (कपटाचार) और इल्म व अमल की गुमराहियों में पड़कर इस नेमत से अपने आपको महरूम कर लिया, इसलिए जो गरोह इस क़ौम के बाद इनसानों की रहनुमाई के मंसब पर मुक़र्रर हुआ है, उसको सबसे बेहतर सबक़ अगर किसी के अंजाम से मिल सकता है, तो वह यही क़ौम है।
زُيِّنَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَيَسۡخَرُونَ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۘ وَٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ فَوۡقَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 201
(212) जिन लोगों ने इनकार का रास्ता अपनाया है, उनके लिए दुनिया की ज़िन्दगी बड़ी ही महबूब और मनपसन्द बना दी गई है। ऐसे लोग ईमान का रास्ता अपनानेवालों का मज़ाक़ उड़ाते हैं, मगर क़ियामत के दिन परहेज़गार लोग ही उनके मुक़ाबले में ऊँचे मक़ाम पर होंगे। रही दुनिया की रोज़ी, तो अल्लाह को इख़्तियार है, जिसे चाहे बे-हिसाब दे।
كُتِبَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ إِن تَرَكَ خَيۡرًا ٱلۡوَصِيَّةُ لِلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَ بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 202
(180) तुम्हारे लिए लाज़िम किया गया है कि जब तुममें से किसी की मौत का वक़्त आए और वह अपने पीछे माल छोड़ रहा हो, तो माँ-बाप और रिश्तेदारों के लिए भले तरीक़े से वसीयत करे। यह हक़ है परहेज़गारों (अल्लाह का डर रखनेवालों) पर।182
182. यह हुक्म उस ज़माने में दिया गया था, जबकि विरासत के बँटवारे के बारे में अभी कोई क़ानून मुक़र्रर नहीं हुआ था। उस वक़्त हर शख़्स पर लाज़िम किया गया कि वह अपने वारिसों के हिस्से वसीयत के ज़रिए से मुक़र्रर कर जाए, ताकि उसके मरने के बाद न तो ख़ानदान में झगड़े हों और न किसी हक़दार का हक़ मारा जाए। बाद में जब विरासत के बँटवारे के बारे में अल्लाह तआला ने ख़ुद एक ज़ाबिता बना दिया (जो आगे क़ुरआन की सूरा-4 अन-निसा में आनेवाला है) तो नबी (सल्ल०) ने वसीयत के हुक्म और मीरास के हुक्म को वाज़ेह करते हुए नीचे लिखे ये दो क़ायदे बयान किए— एक यह कि अब कोई शख़्स किसी वारिस के हक़ में वसीयत नहीं कर सकता, यानी जिन रिश्तेदारों के हिस्से क़ुरआन में तय कर दिए गए हैं, उनके हिस्सों में न तो वसीयत के ज़रिए से कोई कमी या बेशी की जा सकती है, न किसी वारिस को मीरास से महरूम किया जा सकता है और न किसी वारिस को उसके क़ानूनी हिस्से के अलावा कोई चीज़ वसीयत के ज़रिए दी जा सकती है। दूसरे यह कि वसीयत कुल जायदाद के सिर्फ़ एक तिहाई हिस्से की हद तक की जा सकती है। इन दो हिदायतों के वाज़ेह कर देने के बाद अब इस आयत का मंशा (मक़सद) यह क़रार पाता है कि आदमी अपना कम-से-कम दो-तिहाई माल (संपत्ति) तो इसलिए छोड़ दे कि उसके मरने के बाद वह क़ायदे के मुताबिक़ उसके वारिसों में तक़सीम (वितरित) हो जाए और ज़्यादा-से-ज़्यादा एक तिहाई माल की हद तक उसे अपने उन ग़ैर-वारिस रिश्तेदारों के हक़ में वसीयत करनी चाहिए, जो उसके अपने घर में या उसके ख़ानदान में मदद के हक़दार हों, या जिन्हें वह ख़ानदान के बाहर मदद का मुहताज पाता हो, या आम लोगों की भलाई के कामों में से जिसकी भी वह मदद करना चाहे। बाद के लोगों ने वसीयत के इस हुक्म को सिर्फ़ एक सिफ़ारिशी हुक्म क़रार दे दिया, यहाँ तक कि वसीयत का तरीक़ा आम तौर से ख़त्म ही होकर रह गया, लेकिन क़ुरआन मजीद में इसे एक 'हक़' क़रार दिया गया है, जो ख़ुदा की तरफ़ से नेक और परहेज़गार लोगों पर लागू होता है। अगर इस हक़ को अदा करना शुरू कर दिया जाए तो बहुत-से वे सवाल ख़ुद ही हल हो जाएँ जो मीरास के बारे में लोगों को उलझन में डालते हैं। मिसाल के तौर पर उन पोतों और नवासों का मामला जिनके माँ-बाप, दादा और नाना की ज़िन्दगी में मर जाते हैं।
فَمَنۢ بَدَّلَهُۥ بَعۡدَ مَا سَمِعَهُۥ فَإِنَّمَآ إِثۡمُهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ يُبَدِّلُونَهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 203
(181) फिर जिन्होंने वसीयत सुनी और बाद में उसे बदल डाला, तो इसका गुनाह उन बदलनेवालों पर होगा। अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।
فَمَنۡ خَافَ مِن مُّوصٖ جَنَفًا أَوۡ إِثۡمٗا فَأَصۡلَحَ بَيۡنَهُمۡ فَلَآ إِثۡمَ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 204
(182) हाँ, जिसको डर हो कि वसीयत करनेवाले ने अनजाने में या जान-बूझकर हक़ मारा है, और फिर मामले से ताल्लुक़ रखनेवालों के बीच वह सुधार करे, तो इसपर कुछ गुनाह नहीं है। अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 205
(183) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुमपर रोज़े फ़र्ज़ (अनिवार्य) कर दिए गए, जिस तरह तुमसे पहले नबियों के माननेवालों पर फ़र्ज़ किए गए थे। इससे उम्मीद है कि तुममें परहेज़गारी की सिफ़त (गुण) पैदा होगी।183
183. इस्लाम के ज़्यादा तर अहकाम (आदेशों) की तरह रोज़े भी ब-तदरीज (चरणबद्ध रूप में) फ़र्ज किए गए हैं। नबी (सल्ल०) ने शुरू में मुसलमानों को हर महीने सिर्फ़ तीन दिन के रोज़े रखने की हिदायत की थी, मगर ये रोज़े फ़र्ज़ न थे। फिर सन् 02 हिo में रमज़ान के रोज़ों का यह हुक्म क़ुरआन में आया, मगर उसमें भी इतनी रिआयत रखी गई कि जो लोग रोज़े बर्दाश्त करने की ताक़त रखते हों और फिर भी रोज़ा न रखें, वे हर रोज़े के बदले एक मुहताज को खाना खिला दिया करें। बाद में दूसरा हुक्म आया और यह आम छूट ख़त्म कर दी गई। लेकिन बीमार और मुसाफ़िर और हामिला (गर्भवती) या दूध पिलानेवाली औरत और ऐसे बूढ़े लोगों के लिए जिनमें रोज़ा रखने की ताक़त न हो, इस छूट और रिआयत को पहले की तरह बाक़ी रहने दिया गया और उन्हें हुक्म दिया गया कि बाद में जब यह मजबूरी बाक़ी न रहे तो क़ज़ा के उतने रोजे रख लें, जितने रमज़ान में उनसे छूट गए हैं।
أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٖ فَعِدَّةٞ مِّنۡ أَيَّامٍ أُخَرَۚ وَعَلَى ٱلَّذِينَ يُطِيقُونَهُۥ فِدۡيَةٞ طَعَامُ مِسۡكِينٖۖ فَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥۚ وَأَن تَصُومُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 206
(184) कुछ मुक़र्रर (निश्चित) दिनों के रोज़े हैं। अगर तुममें से कोई बीमार हो या सफ़र पर हो, तो दूसरे दिनों में इतनी ही गिनती पूरी कर ले। और जो लोग रोज़ा रखने की शक्ति रखते हों, (फिर न रखें) तो वे फ़िदया दें। एक रोज़े का फ़िदया एक मुहताज को खाना खिलाना है, और जो आदमी अपनी ख़ुशी से कुछ ज़्यादा भलाई करे184 तो यह उसी के लिए अच्छा है। लेकिन अगर तुम समझो तो तुम्हारे लिए अच्छा यही है कि रोज़ा रखो!185
184. यानी एक से ज़्यादा आदमियों को खाना खिलाए, या यह कि रोज़ा भी रखे और मुहताज को खाना भी खिलाए।
185. यहाँ तक वह इब्तिदाई हुक्म है, जो रमज़ान के रोज़ों के बारे में सन् 02 हिo में बद्र की लड़ाई से पहले उतरा था। इसके बाद की आयतें इसके एक साल बाद उतरीं और मौज़ू की मुनासबत की वजह से बयान के इसी सिलसिले में शामिल कर दी गईं।
كَانَ ٱلنَّاسُ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ فَبَعَثَ ٱللَّهُ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ وَأَنزَلَ مَعَهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَ ٱلنَّاسِ فِيمَا ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِۚ وَمَا ٱخۡتَلَفَ فِيهِ إِلَّا ٱلَّذِينَ أُوتُوهُ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۖ فَهَدَى ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِمَا ٱخۡتَلَفُواْ فِيهِ مِنَ ٱلۡحَقِّ بِإِذۡنِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٍ ۝ 207
(213 ) शुरू में सब लोग एक ही तरीक़े पर थे। (फिर यह हालत बाक़ी न रही और इख़्तिलाफ़ पैदा हुए) तब अल्लाह ने नबी भेजे जो सीधी राह पर चलने पर ख़ुशख़बरी देनेवाले, टेढ़ी चाल के नतीजों से डरानेवाले थे, और उनके साथ किताबे-बरहक़ (सत्य पर आधारित किताब) उतारी ताकि हक़ के बारे में लोगों के बीच जो इख़्तिलाफ़ (मतभेद पैदा हो गए थे, उनका फ़ैसला करे — (और इन इख़्तिलाफ़ के पैदा होने की वजह यह न थी कि शुरू में लोगों को हक़ बताया नहीं गया था। नहीं, ) इख़्तिलाफ़ उन लोगों ने किया जिन्हें हक़ का इल्म दिया जा चुका था। उन्होंने रौशन हिदायत पा लेने के बाद सिर्फ़ इसलिए हक़ को छोड़कर अलग-अलग तरीक़े निकाले कि वे आपस में ज़्यादती करना चाहते थे230— तो जो लोग नबियों पर ईमान ले आए, उन्हें अल्लाह ने अपनी इजाज़त से उस हक़ का रास्ता दिखा दिया जिसमें लोगों ने इख़्तिलाफ़ किया था। अल्लाह जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है।
230. नावाक़िफ़ लोग जब अपनी अटकल और गुमान की बुनियाद पर ‘मज़हब' (धर्म) का इतिहास तैयार करते हैं, तो कहते हैं कि इनसान ने अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत 'शिर्क' (बहुदेववाद) के अन्धेरों से की; फिर तदरीजी (चरणबद्ध) तरक़्क़ी को तय करने के साथ-साथ यह अंधियारी छंटती गई और रौशनी बढ़ती गई, यहाँ तक कि आदमी तौहीद (एकेश्वरवाद) के मक़ाम पर आ पहुँचा। इसके बरख़िलाफ़ क़ुरआन यह बताता है कि दुनिया में इनसान की ज़िन्दगी की शुरुआत पूरी रौशनी में हुई है। अल्लाह ने सबसे पहले जिस इनसान को पैदा किया था, उसको यह भी बता दिया था कि हक़ीक़त क्या है और तेरे लिए सही रास्ता कौन-सा है। इसके बाद एक मुद्दत तक आदम की नस्ल सीधे रास्ते पर चलती रही और एक उम्मत (समुदाय) बनी रही। फिर लोगों ने नए-नए रास्ते निकाले और अनेक तरीक़े ईजाद कर लिए, इस वजह से नहीं कि उनको हक़ीक़त नहीं बताई गई थी, बल्कि इस वजह से कि हक़ को जानने के बावजूद कुछ लोग अपने जाइज़ हक़ से बढ़कर इमतियाज़ (विशेषाधिकार) और फ़ायदे हासिल करना चाहते थे, और आपस में एक-दूसरे पर ज़ुल्म, सरकशी और ज़्यादती करने के ख़ाहिशमन्द थे। इसी ख़राबी को दूर करने के लिए अल्लाह ने नबियों को भेजना शुरू किया। ये नबी इसलिए नहीं भेजे गए थे कि हर एक अपने नाम से एक नए मज़हब की बुनियाद डाले और अपनी एक नई उम्मत बना लें, बल्कि उनके भेजे जाने का मक़सद यह था कि लोगों के सामने इस खोए हुए हक़ की राह को वाज़ेह करके उन्हें फिर से एक उम्मत बना दें।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَأۡتِكُم مَّثَلُ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۖ مَّسَّتۡهُمُ ٱلۡبَأۡسَآءُ وَٱلضَّرَّآءُ وَزُلۡزِلُواْ حَتَّىٰ يَقُولَ ٱلرَّسُولُ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ مَتَىٰ نَصۡرُ ٱللَّهِۗ أَلَآ إِنَّ نَصۡرَ ٱللَّهِ قَرِيبٞ ۝ 208
(214) फिर क्या231 तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि यूँ ही जन्नत का दाख़िला तुम्हें मिल जाएगा, हालाँकि अभी तुमपर वह सब कुछ नहीं गुज़रा है जो तुमसे पहले ईमान लानेवालों पर गुज़र चुका है? उन लोगों पर सख़्तियाँ गुज़री, मुसीबतें आईं, हिला मारे गए, यहाँ तक कि वक़्त का रसूल और उसके साथी ईमानवाले चीख़ उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी?- (उस वक़्त उन्हें तसल्ली दी गई कि) हाँ, अल्लाह की मदद क़रीब है।
231. ऊपर की आयत और इस आयत के बीच में एक पूरी दास्तान की दास्तान है, जिसे ज़िक्र किए बिना छोड़ दिया गया है, क्योंकि यह आयत ख़ुद उसकी तरफ़ इशारा कर रही है और क़ुरआन की मक्की सूरतों में (जो सूरा बक़रा से पहले उतरी थीं) यह दास्तान तफ़सील के साथ बयान भी हो चुकी है। नबी जब कभी दुनिया में आए, उन्हें और उनपर ईमान लानेवाले लोगों को ख़ुदा के बाग़ी और सरकश (उद्दण्ड) बन्दों से सख़्त मुक़ाबला पेश आया और उन्होंने अपनी जानें जोखिम में डालकर बातिल तरीक़ों के मुक़ाबले में दीने-हक़ (सत्य-धर्म) को क़ायम करने की जिद्दो-जुह्द की। इस दीन (धर्म) का रास्ता कभी फूलों की सेज नहीं रहा कि ‘आमन्ना’ यानी हम ईमान लाए कहा और चैन से लेट गए। इस ‘आमन्ना’ यानी ईमान ले आने का क़ुदरती तक़ाज़ा हर ज़माने में यह रहा है कि आदमी जिस दीन पर ईमान लाया है, उसे क़ायम करने की कोशिश करे और जो ताग़ूत (यानी ख़ुदा के मुक़ाबले में अपना हक़ जतानेवाली ताक़त) उसके रास्ते में रुकावट हो, उसका ज़ोर तोड़ने में अपने जिस्म और जान की सारी ताक़तें लगा दे।
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلۡ مَآ أَنفَقۡتُم مِّنۡ خَيۡرٖ فَلِلۡوَٰلِدَيۡنِ وَٱلۡأَقۡرَبِينَ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِۗ وَمَا تَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٞ ۝ 209
(215) लोग तुमसे पूछते हैं कि हम क्या ख़र्च करें? जवाब दो कि जो माल भी ख़र्च करो अपने माँ-बाप पर, नातेदारों पर, यतीमों और मुहताजों और मुसाफ़िरों पर ख़र्च करो। और जो भलाई भी तुम करोगे, अल्लाह उसे जानता होगा।
كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِتَالُ وَهُوَ كُرۡهٞ لَّكُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تَكۡرَهُواْ شَيۡـٔٗا وَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۖ وَعَسَىٰٓ أَن تُحِبُّواْ شَيۡـٔٗا وَهُوَ شَرّٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 210
(216) जंग का हुक्म दिया गया है और वह तुम्हें नापसन्द है हो सकता है। कि एक चीज़ तुम्हें नापसन्द हो और वही तुम्हारे लिए बेहतर हो और हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें पसन्द हो और वही तुम्हारे लिए बुरी हो। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلشَّهۡرِ ٱلۡحَرَامِ قِتَالٖ فِيهِۖ قُلۡ قِتَالٞ فِيهِ كَبِيرٞۚ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَكُفۡرُۢ بِهِۦ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَإِخۡرَاجُ أَهۡلِهِۦ مِنۡهُ أَكۡبَرُ عِندَ ٱللَّهِۚ وَٱلۡفِتۡنَةُ أَكۡبَرُ مِنَ ٱلۡقَتۡلِۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَٰتِلُونَكُمۡ حَتَّىٰ يَرُدُّوكُمۡ عَن دِينِكُمۡ إِنِ ٱسۡتَطَٰعُواْۚ وَمَن يَرۡتَدِدۡ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَيَمُتۡ وَهُوَ كَافِرٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 211
(217) लोग पूछते हैं : माहे-हराम (प्रतिष्ठित महीने) में लड़ना कैसा है? कहो : इसमें लड़ना बहुत बुरा है, मगर ख़ुदा के रास्ते से लोगों को रोकना और अल्लाह से कुफ़्र (इनकार व नाफ़रमानी) करना और मस्जिदे-हराम (काबा) का रास्ता ख़ुदापरस्तों पर बन्द करना और हरम (मक्का) के रहनेवालों को वहाँ से निकालना अल्लाह के नज़दीक इससे भी ज़्यादा बुरा है, और फ़ितना ख़ून बहाने से भी ज़्यादा सख़्त है।232 वे तो तुमसे लड़े ही जाएँगे, यहाँ तक कि अगर उनका बस चले तो तुम्हें इस दीन से फेर ले जाएँ। (और यह ख़ूब समझ लो कि) तुममें से जो कोई अपने दीन (धर्म) से फिरेगा और कुफ़्र (इनकार) की हालत में जान देगा,, उसके आमाल दुनिया और आख़िरत (लोक-परलोक) दोनों में बर्बाद हो जाएँगे। ऐसे सब लोग जहन्नमी हैं और हमेशा जहन्नम ही में रहेंगे।233
232. इस बात का ताल्लुक़ एक ख़ास वाक़िए (घटना) से है। ‘रजब' के महीने सन् 02 हिजरी में नबी (सल्ल०) ने आठ आदमियों की एक टुकड़ी नख़ला की तरफ़ भेजी थी (जो मक्का और ताइफ़ के बीच एक जगह है) और उसको हिदायत कर दी थी कि क़ुरैश की चलत-फिरत और उनके आइन्दा इरादों के बारे में जानकारी हासिल करे। लड़ाई की कोई इजाज़त नबी (सल्ल०) ने नहीं दी थी, लेकिन इन लोगों को रास्ते में क़ुरैश का एक छोटा-सा तिजारती क़ाफ़िला मिला और उसपर इन्होंने हमला करके एक आदमी को क़त्ल कर दिया और बाक़ी लोगों को उनके माल समेत गिरफ़्तार करके मदीना ले आए। यह कारवाई ऐसे वक़्त हुई जबकि ‘रजब' का महीना ख़त्म और शाबान का महीना शुरू हो रहा था और इस बात में शक था कि हमला रजब (एहतिराम किए जानेवाले महीने) ही में हुआ है या नहीं? लेकिन क़ुरैश ने और चोरी-छिपे मिले हुए यहूदियों और मदीना के मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रोपगंडा करने के लिए इस वाक़िए को ख़ूब उछाला और सख़्त एतिराज़ शुरू कर दिए कि ये लोग चले हैं बड़े अल्लाह वाले बनकर और हाल यह है कि एहतिराम किए जानेवाले महीने तक में ख़ून बहाने से नहीं चूकते। इन्हीं एतिराज़ों का जवाब इस आयत में दिया गया है। जवाब का ख़ुलासा (सार) यह है कि बेशक हराम महीने में लड़ना बड़ी बुरी हरकत है, मगर इस पर एतिराज़ करना उन लोगों के मुँह को तो ज़ेब (शोभा) नहीं देता, जिन्होंने मुसलसल तेरह बरस अपने सैकड़ों भाइयों पर सिर्फ़ इसलिए ज़ुल्म ढाए कि वे एक ख़ुदा पर ईमान लाए थे। फिर उनको यहाँ तक तंग किया कि वे अपना वतन (घरबार) छोड़ने पर मजबूर हो गए। फिर इस पर भी बस न किया, और अपने उन भाइयों के लिए मस्जिदे-हराम (काबा) तक जाने का रास्ता भी बन्द कर दिया; हालाँकि मस्जिदे-हराम किसी की जायदाद नहीं है, जिसका वह मालिक हो और पिछले दो हज़ार बरस में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी को उसकी ज़ियारत से रोका गया हो। अब जिन ज़ालिमों का नामए-आमाल (कर्मपत्र) इन करतूतों से स्याह (काला) है, उनका क्या मुँह है कि एक मामूली-सी सरहदी झड़प पर इस क़द्र जोर-शोर के एतिराज़ करें, हालाँकि इस झड़प में जो कुछ हुआ है, वह नबी (सल्ल०) की इजाज़त के बग़ैर हुआ है और इसकी हैसियत इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि इस्लामी जमाअत के कुछ आदमियों से एक ग़ैर-ज़िम्मेदारी का काम हो गया है। इस मक़ाम पर यह बात भी मालूम रहनी चाहिए कि जब यह टुकड़ी क़ैदी और ग़नीमत के माल लेकर नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई थी तो आप (सल्ल०) ने उसी वक़्त कह दिया था कि मैंने तुमको लड़ने की इजाज़त तो नहीं दी थी। यहाँ तक कि आप (सल्ल०) ने उनके लाए हुए ग़नीमत के माल में से बैतुलमाल (सार्वजनिक कोष) का हिस्सा लेने से भी इनकार कर दिया था। यह इस बात की अलामत थी कि उनकी यह लूट नाजाइज़ है। आम मुसलमानों ने भी इस अमल पर अपने उन आदमियों को सख़्त मलामत की थी और मदीने में कोई ऐसा न था, जिसने इस काम पर उनकी तारीफ़ की हो।
233. मुसलमानों में से कुछ सादा दिल लोग जिनके दिल और दिमाग़ पर नेकी और सुलहपसन्दी का एक ग़लत तसव्वुर छाया हुआ था, वे मक्का के इस्लाम-दुश्मनों और यहूदियों के ऊपर बयान किए हुए एतिराज़ों से मुतास्सिर (प्रभावित) हो गए थे। इस आयत में उन्हें समझाया गया है कि तुम अपनी इन बातों से यह उम्मीद न रखो कि तुम्हारे और उनके बीच सफ़ाई हो जाएगी। उनके एतिराज़ सफ़ाई की ग़रज़ से हैं ही नहीं। वे तो अस्ल में कीचड़ उछालना चाहते हैं। उन्हें यह बात खल रही है कि तुम इस दीन (धर्म) पर ईमान क्यों लाए हो और उसकी तरफ़ दुनिया को दावत क्यों देते हो? इसलिए जब तक वे अपने इनकार पर अड़े हुए हैं और तुम इस दीन पर क़ायम हो, तुम्हारे और उनके बीच सफ़ाई किसी तरह न हो सकेगी। और ऐसे दुश्मनों को तुम मामूली दुश्मन भी न समझो, जो तुम से माल और दौलत या ज़मीन छीनना चाहता है, वह कमतर दरजे का दुश्मन है, मगर जो तुम्हें दीने-हक़ (सत्य-धर्म) से फेरना चाहता है, वह तुम्हारा बदतरीन दुश्मन है; क्योंकि पहला तो सिर्फ़ तुम्हारी दुनिया ही ख़राब करता है, लेकिन यह दूसरा तुम्हें आख़िरत के हमेशा रहनेवाले अज़ाब में धकेल देने पर तुला हुआ है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَجَٰهَدُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ يَرۡجُونَ رَحۡمَتَ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 212
(218) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने ख़ुदा की राह में अपना घर-बार छोड़ा और जिहाद234 किया है, वे अल्लाह की रहमत के जाइज़ उम्मीदवार हैं और अल्लाह इनकी भूल-चूक को माफ़ करनेवाला और अपनी रहमत से उन्हें नवाज़नेवाला है।
234. जिहाद के मानी हैं किसी मक़सद को हासिल करने के लिए अपनी सारी कोशिश कर लेना। इसके मानी सिर्फ़ जंग के नहीं है, जंग के लिए तो 'क़िताल' का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है। 'जिहाद' तो इससे वसीअ (व्यापक) मानी रखता है और इसमें हर क़िस्म की जिद्दो-जुह्द शामिल है। मुजाहिद (जिहाद करनेवाला) वह शख़्स है जो हर वक़्त अपने मक़सद की धुन में लगा हो। दिमाग़ से उसी के लिए तदबीरें सोचे, ज़बान और क़लम से उसी की तबलीग़ (प्रचार) करे, हाथ-पाँव से उसी के लिए दौड़-धूप और मेहनत करे, अपने तमाम मुमकिन वसाइल (संसाधनों) को उसको आगे बढ़ाने में लगा दे और हर उस रुकावट का पूरी ताक़त के साथ मुक़ाबला करे, जो इस राह में पेश आए, यहाँ तक कि जब जान की बाज़ी लगाने की ज़रूरत हो तो इसमें भी न झिझके। इसका नाम है 'जिहाद' और अल्लाह के रास्ते में जिहाद करना यह है कि यह सब कुछ सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए हो और इस मक़सद के लिए किया जाए कि अल्लाह का दीन उसकी ज़मीन पर क़ायम हो और अल्लाह का कलिमा (बोल) सारे कलिमों पर छा जाए। इसके सिवा और कोई मक़सद मुजाहिद के सामने न हो।
كَمَآ أَرۡسَلۡنَا فِيكُمۡ رَسُولٗا مِّنكُمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِنَا وَيُزَكِّيكُمۡ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَيُعَلِّمُكُم مَّا لَمۡ تَكُونُواْ تَعۡلَمُونَ ۝ 213
(151) जिस तरह (तुम्हें इस चीज़ से कामयाबी नसीब हुई कि) मैंने तुम्हारे बीच ख़ुद तुम में से एक रसूल भेजा, जो तुम्हें हमारी आयत सुनाता है, तुम्हारी ज़िन्दगियों को सँवारता है, तुम्हें किताब और हिकमत (तत्वदर्शिता) की तालीम देता है, और तुम्हें वे बातें सिखाता है जो तुम न जानते थे।
فَٱذۡكُرُونِيٓ أَذۡكُرۡكُمۡ وَٱشۡكُرُواْ لِي وَلَا تَكۡفُرُونِ ۝ 214
(152 ) इसलिए तुम मुझे याद रखो, मैं तुम्हें याद रखूगा, और मेरा शुक्र अदा करो, नाशुक्री न करो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱسۡتَعِينُواْ بِٱلصَّبۡرِ وَٱلصَّلَوٰةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 215
(153) ऐ लोगो153 जो ईमान लाए हो, सब्र और नमाज़ से मदद लो। अल्लाह सब्र करनेवालों के साथ है।154
153. इमामत (नेतृत्व) के मंसब पर मुक़र्रर् करने के बाद, अब इस उम्मत (समुदाय) को ज़रूरी हिदायतें दी जा रही हैं। मगर तमाम दूसरी बातों से पहले उन्हें जिस बात पर ख़बरदार किया जा रहा है, वह यह है कि यह कोई फूलों का बिस्तर नहीं है, जिसपर आप लोग लिटाए जा रहे हों। यह तो एक बहुत बड़ी और ख़तरों से भरी हुई ख़िदमत है, जिसका बोझ उठाने के साथ ही तुमपर हर क़िस्म की मुसीबतों की बारिश होगी, सख़्त आज़माइशों में डाले जाओगे, तरह-तरह के नुक़सान उठाने पड़ेंगे और जब सब्रो-सबात (धैर्य एँव स्थिरता) और अज़्मो-इस्तिक़लाल (संकल्प एवं दृढ़ता) के साथ इन तमाम मुश्किलों का मुक़ाबला करते हुए ख़ुदा की राह में बढ़े चले जाओगे, तब तुमपर मेहरबानियों की बारिश होगी।
90. क़ुरआन मजीद चूँकि सिर्फ़ क़ानून की किताब ही नहीं है, बल्कि यह सिखाने, हिदायत देने और उपदेश व नसीहत की किताब है, इसलिए पहले जुमले में जो क़ानूनी उसूल बयान किए गए थे, अब इस दूसरे जुमले में उनकी हिकमत और मस्लिहत समझाई जा रही है। इसमें दो बातें बयान की गई हैं : एक यह कि ऊपर बयान किए गए चारों उसूल की पैरवी करना ईमान का लाज़मी तक़ाज़ा है। मुसलमान होने का दावा और इन उसूलों से मुँह मोड़ना, ये दोनों चीज़ें एक जग जमा नहीं हो सकतीं। दूसरी यह कि इन उसूलों पर अपनी ज़िन्दगी के निज़ाम को तामीर करने ही में मुसलमानों की भलाई भी है। सिर्फ़ यही एक चीज़ उनको दुनिया में सीधे रास्ते पर क़ायम रख सकती है और इसी से उनकी आख़िरत भी संवर सकती है। यह नसीहत ठीक उस तक़रीर के खात्मे पर बयान की गई है जिसमें यहूदियों की अख़लाक़ी व दीनी हालत पर तबसिरा किया जा रहा था। इस तरह एक निहायत लतीफ़ (सूक्ष्म) तरीक़े से मुसलमानों को ख़बरदार किया गया है कि तुमसे पिछली उम्मत दीन के इन बुनियादी उसूलों से मुंह मोड़कर जिस पस्ती में गिर चुकी है उससे सबक़ हासिल करो। जब कोई गरोह ख़ुदा की किताब और उसके रसूल की हिदायत को पीठ पीछे डाल देता है और ऐसे सरदारों और रहनुमाओं के पीछे लग जाता है जो ख़ुदा और रसूल के फ़रमाँबरदार न हों और अपने मजहबी पेशवाओं और सियासी हाकिमों से ख़ुदा की किताब और रसूल की सुन्नत की सनद पूछे बग़ैर उनकी इताअत करने लगता है तो वह उन खराबियों में पड़ने से किसी तरह बच नहीं सकता जिनमें बनी-इसराईल पड़ गए थे।
وَلَا تَقُولُواْ لِمَن يُقۡتَلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَمۡوَٰتُۢۚ بَلۡ أَحۡيَآءٞ وَلَٰكِن لَّا تَشۡعُرُونَ ۝ 216
(154 ) और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँ, उन्हें मुर्दा न कहो, ऐसे लोग तो हक़ीक़त में जिन्दा हैं, मगर तुम्हें उनकी ज़िन्दगी का शुऊर नहीं होता।155
155. मौत का लफ़्ज़ और उसका तसव्वुर इनसान के ज़ोहन पर एक हिम्मत तोड़नेवाला असर डालता है। इसलिए इस बात से मना किया गया कि अल्लाह के रास्ते में शहीद होनेवालों को मुर्दा कहा जाए, क्योंकि इससे जमाअत के लोगों में जिहाद के जज़बे और जान निछावर करने की रूह के ठंडा पड़ जाने का अन्देशा है। इसके बजाय हिदायत की गई कि ईमानवाले अपने ज़ेहन में यह तसव्वुर जमाए रखें कि जो शख़्स ख़ुदा की राह में जान देता है, वह हक़ीक़त में हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी पाता है। यह तसव्वुर हक़ीक़त के मुताबिक़ भी है और इससे बहादुरी की रूह भी ताज़ा होती और ताज़ा रहती है।
وَلَنَبۡلُوَنَّكُم بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلۡخَوۡفِ وَٱلۡجُوعِ وَنَقۡصٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَنفُسِ وَٱلثَّمَرَٰتِۗ وَبَشِّرِ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 217
(155) और हम ज़रूर तुम्हें ख़ैफ़-व-ख़तर, डर, भूख, जान व माल के नुक़सान और आमदनियों के घाटे में डालकर तुम्हारी आज़माइश करेंगे।
وَلَا تَنكِحُواْ ٱلۡمُشۡرِكَٰتِ حَتَّىٰ يُؤۡمِنَّۚ وَلَأَمَةٞ مُّؤۡمِنَةٌ خَيۡرٞ مِّن مُّشۡرِكَةٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَتۡكُمۡۗ وَلَا تُنكِحُواْ ٱلۡمُشۡرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤۡمِنُواْۚ وَلَعَبۡدٞ مُّؤۡمِنٌ خَيۡرٞ مِّن مُّشۡرِكٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكُمۡۗ أُوْلَٰٓئِكَ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلنَّارِۖ وَٱللَّهُ يَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلۡجَنَّةِ وَٱلۡمَغۡفِرَةِ بِإِذۡنِهِۦۖ وَيُبَيِّنُ ءَايَٰتِهِۦ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 218
(221) तुम मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) औरतों से हरगिज़ निकाह न करना, जब तक कि वे ईमान न ले आएँ। एक मोमिन (एकेश्वरवादी) लौंडी शरीफ़ (कुलीन) मुशरिक औरत से बेहतर है, चाहे वह तुम्हें बहुत पसन्द हो। और अपनी औरतों का निकाह मुशरिक मर्दो से कभी न करना, जब तक कि वे ईमान न ले आएँ। एक मोमिन ग़ुलाम (शरीफ़ कुलीन) मुशरिक मर्द से बेहतर है, चाहे वह तुम्हें बहुत पसन्द हो। ये लोग तुम्हें आग की तरफ़ बुलाते हैं237 और अल्लाह अपनी इजाज़त से तुमको जन्नत और मग़फ़िरत की तरफ़ बुलाता है, और वह अपने अहकाम (आदेश) वाज़ेह तौर पर लोगों के सामने बयान करता है, उम्मीद है कि वे सबक़ लेंगे और नसीहत क़ुबूल करेंगे।
237. यह है सबब और मस्लहत (निहित हित) उस हुक्म की जो मुशरिकों के साथ शादी-ब्याह का ताल्लुक़ न रखने के बारे में ऊपर बयान हुआ था। औरत और मर्द के बीच निकाह का ताल्लुक़ सिर्फ़ एक शहवानी (वासनात्मक) ताल्लुक़ नहीं है, बल्कि वह एक गहरा तहज़ीबी (समाजी), अख़लाक़ी और दिली ताल्लुक़ है। मोमिन और मुशरिक के बीच अगर यह दिली ताल्लुक़ हो तो जहाँ इस बात का इमकान (संभावना है कि मोमिन शौहर या बीवी के असर से मुशरिक (बहुदेववादी) शौहर या बीवी पर और उसके ख़ानदान और आनेवाली नस्ल पर इस्लाम के अक़ीदों और ज़िन्दगी के तौर-तरीक़ों की छाप पड़ेगी, वहीं इस बात का भी इमकान है कि मुशरिक शौहर या बीवी के ख़यालों और तौर-तरीक़ों से न सिर्फ़ मोमिन शौहर या बीवी, बल्कि उसका ख़ानदान और दोनों की नस्ल तक मुतास्सिर (प्रभावित) हो जाएगी। और ज़्यादा इमकान इस बात का है कि ऐसे शौहर-बीवी से इस्लाम और कुफ़्र व शिर्क की एक ऐसी मुरक्कब (समिश्रित) और ख़लत-मलत शक्ल उस घर और ख़ानदान में परवरिश पाएगी, जिसको ग़ैर-मुस्लिम चाहे कितना ही पसन्द करें, मगर इस्लाम किसी तरह पसन्द करने के लिए तैयार नहीं है। जो शख़्स सही मानों में मोमिन है, वह सिर्फ़ अपने शहवानी (वासनात्मक) जज़्बे को पूरा करने के लिए कभी यह ख़तरा मोल नहीं ले सकता कि उसके घर और उसके ख़ानदान में काफ़िरों और मुशरिकों जैसे ख़याल और तौर-तरीक़े परवरिश पाएँ और वह ख़ुद भी अनजाने तौर पर अपनी ज़िन्दगी के किसी पहलू में कुफ़्र और शिर्क से मुतास्सिर हो जाए। अगर मान लीजिए कि कोई मोमिन मर्द या औरत किसी मुशरिक औरत या मर्द के इश्क़ में भी मुब्तला हो जाए तब भी उसके ईमान का तक़ाज़ा यही है कि वह अपने ख़ानदान, अपनी नस्ल और ख़ुद अपने दीन व अख़लाक़ पर अपने निजी जज़्बों को क़ुरबान कर दे।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡمَحِيضِۖ قُلۡ هُوَ أَذٗى فَٱعۡتَزِلُواْ ٱلنِّسَآءَ فِي ٱلۡمَحِيضِ وَلَا تَقۡرَبُوهُنَّ حَتَّىٰ يَطۡهُرۡنَۖ فَإِذَا تَطَهَّرۡنَ فَأۡتُوهُنَّ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَكُمُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلتَّوَّٰبِينَ وَيُحِبُّ ٱلۡمُتَطَهِّرِينَ ۝ 219
(222) पूछते हैं : हैज़ (माहवारी) के बारे में क्या हुक्म है? कहो : वह एक गंदगी की हालत है।238 इसमें औरतों से अलग रहो और उनके पास न जाओ जब तक कि वे पाक-साफ़ न हो जाए।239 फिर जब वे पाक हो जाएँ तो उनके पास जाओ, उस तरह जैसा कि अल्लाह ने तुमको हुक्म दिया है।240 अल्लाह उन लोगों को पसन्द करता है जो बुराई से रुके रहें और पाकीज़गी अपनाएँ।
238. अस्ल अरबी में 'अज़ा' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी गन्दगी के भी हैं और बीमारी के भी। माहवारी सिर्फ़ एक गन्दगी ही नहीं है, बल्कि तिब्बी (चिकित्सकीय) पहलू से वह एक ऐसी हालत है, जिसमें औरत तन्दुरुस्ती के मुक़ाबले में बीमारी से ज़्यादा क़रीब होती है।
239. क़ुरआन मजीद इस क़िस्म के मामलों को मिसालों और इशारों में बयान करता है। इसलिए इसने (यानी क़ुरआन मजीद ने) “अलग रहो” और “क़रीब न जाओ” के लफ़्ज़ इस्तेमाल किए हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि माहवारीवाली औरत के साथ एक फ़र्श पर बैठने या एक जगह खाना खाने से भी बचा जाए और उसे बिलकुल अछूत बनाकर रख दिया जाए। जैसा कि कुछ दूसरी क़ौमों का तरीक़ा है। नबी (सल्ल०) ने इस हुक्म की जो वज़ाहत कर दी है उससे मालूम होता है कि इस हालत में सिर्फ़ जिस्मानी ताल्लुक़ (संभोग करने) से बचना चाहिए, बाक़ी तमाम ताल्लुक़ात पहले की तरह ही बाक़ी रखे जाएँ।
240. यहाँ हुक्म से मुराद शरई हुक्म नहीं है, बल्कि वह फ़ितरी हुक्म मुराद है जो इनसान और हैवान सबकी फ़ितरत में रख दिया गया है और जिससे हर जानदार फ़ितरी तौर पर वाक़िफ़ है।
نِسَآؤُكُمۡ حَرۡثٞ لَّكُمۡ فَأۡتُواْ حَرۡثَكُمۡ أَنَّىٰ شِئۡتُمۡۖ وَقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُمۡۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّكُم مُّلَٰقُوهُۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 220
(223) तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं। तुम्हें अधिकार है, जिस तरह चाहो अपनी खेती में जाओ241 मगर अपने मुस्तक़बिल (भविष्य) की फ़िक्र करो242 और अल्लाह की नाराज़ी से बचो, ख़ूब जान लो कि तुम्हें एक दिन उससे मिलना है। और ऐ नबी! जो तुम्हारी हिदायतों को मान लें उन्हें कामयाबी और ख़ुशक़िस्मती की ख़ुशख़बरी सुना दो।
241. यानी फ़ितरी तौर पर अल्लाह ने औरतों को मर्दो के लिए सैरगाह नहीं बनाया है, बल्कि इन दोनों के बीच खेत और किसान का-सा ताल्लुक़ है। खेत में किसान सिर्फ़ सैर करने के लिए नहीं जाता, बल्कि इसलिए जाता है कि उससे पैदावार हासिल करे। इनसानी नस्ल के किसान को भी इनसानियत की इस खेती में इसलिए जाना चाहिए कि वह इससे नस्ल की पैदावार हासिल करे। ख़ुदा की शरीअत को इससे बहस नहीं कि तुम उस खेत में खेती किस तरह करते हो। अलबत्ता उसका मुतालबा तुमसे यह है कि जाओ खेत ही में और इस मक़सद के लिए जाओ कि इससे पैदावार हासिल करनी है।
242. यहाँ जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हुआ है वे बहुत ही जामेअ (व्यापक) लफ़्ज़ हैं। इनसे दो मतलब निकलते हैं और दोनों की बराबर अहमियत है। एक यह कि अपनी नस्ल बाक़ी रखने की कोशिश करो, ताकि तुम्हारे दुनिया छोड़ने से पहले तुम्हारी जगह दूसरे काम करनेवाले पैदा हों। दूसरा यह कि जिस आनेवाली नस्ल को तुम अपनी जगह छोड़नेवाले हो, उसको दीन, अख़लाक़ और आदमियत के जौहरों से सजाने-सँवारने की कोशिश करो। बाद के जुमले में इस बात पर भी ख़बरदार कर दिया गया है कि अगर इन दोनों ज़िम्मेदारियों के अदा करने में तुमने जान-बूझकर कोताही की तो अल्लाह तुमसे पूछ-गछ करेगा।
وَلَا تَجۡعَلُواْ ٱللَّهَ عُرۡضَةٗ لِّأَيۡمَٰنِكُمۡ أَن تَبَرُّواْ وَتَتَّقُواْ وَتُصۡلِحُواْ بَيۡنَ ٱلنَّاسِۚ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 221
(224) अल्लाह के नाम को ऐसी क़समें खाने के लिए इस्तेमाल न करो जिनका मक़सद नेकी और तक़वा (परहेज़गारी) और अल्लाह के बन्दों की भलाई के कामों से रुक जाना हो।243 अल्लाह तुम्हारी सारी बातें सुन रहा है और सब कुछ जानता है।
243. सहीह हदीसों से मालूम होता है कि जिस शख़्स ने किसी बात की क़सम खाई हो और बाद में उसपर वाज़ेह हो जाए कि इस क़सम के तोड़ देने ही में ख़ैर और भलाई है, उसे क़सम तोड़ देनी चाहिए और कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा करना चाहिए। क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा दस मुहताजों को खाना खिलाना या उन्हें कपड़े पहनाना या एक ग़ुलाम आज़ाद करना या तीन दिन के रोज़े रखना है। (देखिए क़ुरआन 5:89)
لَّا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا كَسَبَتۡ قُلُوبُكُمۡۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 222
(225) जो बेमानी क़समें तुम बिना इरादे के खा लिया करते हो, उनपर अल्लाह नहीं पकड़ता244 मगर जो क़समें तुम सच्चे दिल से खाते हो, उनके बारे में वह ज़रूर पूछगा। अल्लाह बहुत माफ़ करनेवाला और सहन करनेवाला है।
244. यानी आदत के तौर पर यूँ ही बे-इरादा जो क़समें ज़बान से निकल जाती हैं, ऐसी क़समों पर न कफ़्फ़ारा है और न उनपर पकड़ होगी।
لِّلَّذِينَ يُؤۡلُونَ مِن نِّسَآئِهِمۡ تَرَبُّصُ أَرۡبَعَةِ أَشۡهُرٖۖ فَإِن فَآءُو فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 223
(226) जो लोग अपनी औरतों से ताल्लुक़ न रखने की क़सम खा बैठते हैं, उनके लिए चार महीने की मुहलत है।245 अगर वे पलट आएँ तो अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।246
245. शरीअत की इस्तिलाह (परिभाषा) में इसको 'ईला' कहते हैं। शौहर और बीवी के बीच ताल्लुक़ात हमेशा ख़ुशगवार तो नहीं रह सकते। बिगाड़ की वजहें तो पैदा होती ही रहती हैं। लेकिन ऐसे बिगाड़ को अल्लाह की शरीअत पसन्द नहीं करती कि दोनों एक-दूसरे के साथ क़ानूनी तौर पर शौहर-बीवी के रिश्ते में तो बंधे रहें, मगर अमली तौर पर एक-दूसरे से इस तरह अलग रहें कि मानो वे शौहर-बीवी नहीं हैं। ऐसे बिगाड़ के लिए अल्लाह ने चार महीने की मुद्दत मुक़र्रर कर दी कि या तो इस बीच में अपने ताल्लुक़ात ठीक कर लो वरना शौहर-बीवी का रिश्ता काट दो, ताकि दोनों एक-दूसरे से आज़ाद होकर जिससे निबाह कर सकें, उसके साथ निकाह कर लें। आयत में चूँकि 'क़सम खा लेने’के अलफ़ाज़़ इस्तेमाल हुए हैं, इसलिए हनफ़ी और शाफ़िई फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने इस आयत का मंशा यह समझा है कि जहाँ शौहर ने बीवी से शौहर-बीवी का ताल्लुक़ न रखने की क़सम खाई हो, सिर्फ़ वहीं यह हुक्म लागू होगा, बाक़ी रहा क़सम खाए बग़ैर ताल्लुक़ तोड़ लेना, तो चाहे कितनी ही लम्बी मुद्दत के लिए हो, इस आयत का हुक्म उस हालत में लागू न होगा। मगर मालिकी फ़ुक़हा की राय यह है कि भले ही क़सम खाई गई हो या न खाई गई हो, दोनों सूरतों में ताल्लुक़ तोड़ने के लिए यही चार महीने की मुद्दत है। एक क़ौल (कथन) इमाम अहमद का भी इसी की ताईद में है। (बिदायतुल-मुज्तहिद, भाग 2, पृ॰ 88, मिस्र, एडिशन 1339 हि०) हज़रत अली, इब्ने-अब्बास हसन बसरी की राय में यह हुक्म सिर्फ़ उस तर्के-ताल्लुक़ (संबंध-विच्छेद) के बारे में है, जो बिगाड़ की वजह से हो। रहा किसी मस्लहत से शौहर का बीवी के साथ जिस्मानी ताल्लुक़ क़ायम न रखना जबकि ताल्लुक़ात ख़ुशगवार हों, तो उसपर यह हुक्म लागू नहीं होता। लेकिन दूसरे फ़ुक़हा की राय में हर वह क़सम जो शौहर और बीवी के बीच जिस्मानी ताल्लुक़ को तोड़ दे 'ईला' है और इसे चार महीने से ज़्यादा क़ायम न रहना चाहिए, चाहे नाराज़ी से हो या रज़ामन्दी से।
246. कुछ फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने इसका मतलब यह लिया है कि अगर वे इस मुद्दत के अन्दर अपनी क़सम तोड़ दें और फिर से शौहर-बीवी का ताल्लुक़ क़ायम कर लें तो उनपर क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) नहीं है। अल्लाह वैसे ही माफ़ कर देगा, लेकिन अकसर फ़ुक़हा की राय यह है कि क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा देना होगा। माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला कहने का मतलब यह नहीं है कि कफ़्फ़ारे से तुम्हें माफ़ कर दिया गया, बल्कि इसका मतलब यह है कि अल्लाह तुम्हारे कफ़्फ़ारे को क़ुबूल कर लेगा और ताल्लुक़ न रखने के दौरान में जो ज़्यादती दोनों ने एक-दूसरे पर की हो, उसे माफ़ कर दिया जाएगा।
وَإِنۡ عَزَمُواْ ٱلطَّلَٰقَ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 224
(227) और अगर उन्होंने तलाक़ ही की ठान ली हो247 तो जाने रहें कि अल्लाह सब कुछ सुनता आर जानता है।248
247. हज़रत उसमान, इब्ने-मसऊद, ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) वग़ैरा के नज़दीक रुजू (पलट आने) का मौक़ा चार महीने के अन्दर ही है। इस मुद्दत का गुज़र जाना ख़ुद इस बात की दलील है कि शौहर ने तलाक़ का इरादा कर लिया है, इसलिए मुद्दत गुज़रते ही तलाक़ ख़ुद-ब-ख़ुद पड़ जाएगी और वह एक तलाक़े-बाइन होगी, यानी इद्दत के दौरान शौहर को रुजू का हक़ न होगा। अलबत्ता अगर वे दोनों चाहें तो दोबारा निकाह कर सकते हैं। हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और इब्ने-उमर (रज़ि०) का भी एक क़ौल इसी मानी में मिलता है और हनफ़ी फ़ुक़हा ने इसी राय को क़ुबूल किया है। सईद-बिन-मुसय्यब, मकहूल, ज़ुहरी वग़ैरा बुज़ुर्ग इस राय से यहाँ तक सहमत हैं कि चार महीने की मुद्दत बीत जाने के बाद अपने आप तलाक़ पड़ जाएगी। मगर उनके नज़दीक तलाक़े-रजई होगी; यानी इद्दत के दौरान में शौहर को रुजू कर लेने का हक़ होगा और रुजू न करे तो इद्दत गुज़र जाने के बाद दोनों अगर चाहें, तो निकाह कर सकेंगे। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत आइशा, अबू-दरदा और मदीना के अकसर फ़ुक़हा की राय यह है कि चार महीने की मुद्दत बीतने के बाद मामला अदालत में पेश होगा और अदालत शौहर को हुक्म देगी कि या तो उस औरत से रुजू करे या उसे तलाक़ दे। हज़रत उमर, हज़रत अली और इब्ने-उमर (रज़ि०) का एक क़ौल इसकी ताईद में भी है और इमाम मालिक व शाफ़िई ने इसी राय को अपनाया है।
248. यानी अगर तुमने बीवी को नामुनासिब बात पर छोड़ा है तो अल्लाह से बेख़ौफ़ न रहो, वह तुम्हारी ज़्यादती से नावाक़िफ़ नहीं है।
وَٱلۡمُطَلَّقَٰتُ يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ ثَلَٰثَةَ قُرُوٓءٖۚ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ أَن يَكۡتُمۡنَ مَا خَلَقَ ٱللَّهُ فِيٓ أَرۡحَامِهِنَّ إِن كُنَّ يُؤۡمِنَّ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۚ وَبُعُولَتُهُنَّ أَحَقُّ بِرَدِّهِنَّ فِي ذَٰلِكَ إِنۡ أَرَادُوٓاْ إِصۡلَٰحٗاۚ وَلَهُنَّ مِثۡلُ ٱلَّذِي عَلَيۡهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ وَلِلرِّجَالِ عَلَيۡهِنَّ دَرَجَةٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ۝ 225
(228) जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, वे तीन बार माहवारी के दिनों के तक अपने आपको रोके रखें, और उनके लिए यह जाइज़ नहीं है कि अल्लाह ने उनके रहम (गर्भाशय) में जो कुछ पैदा किया हो, उसे छिपाएँ। उन्हें हरगिज़ ऐसा न करना चाहिए, अगर वह अल्लाह और आख़िरी दिन पर ईमान रखती हैं। उनके शौहर ताल्लुक़ात ठीक कर लेने पर तैयार हों तो वे इस इद्दत के दौरान में उन्हें फिर अपनी बीवी के रूप में वापस ले लेने के हक़दार हैं।249 औरतों के लिए भी भले (सामान्य) तरीक़े के मुताबिक़ वैसे ही हक़ हैं, जैसे मर्दो के हक़ उनपर हैं, अलबत्ता मर्दो को उनपर एक दरजा हासिल है, और सबपर अल्लाह ग़ालिब इक़तिदार (प्रभुत्व) रखनेवाला, हिकमतवाला और जाननेवाला मौजूद है।
249. इस आयत के हुक्म में फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) अलग-अलग राय रखते हैं। एक जमाअत (गरोह के नज़दीक जब तक औरत तीसरी माहवारी से फ़ारिग़ होकर नहा न ले, उस वक़्त तक 'बाइन’तलाक़ न होगी और शौहर को रुजू का हक़ बाक़ी रहेगा। हज़रत अबू-बक्र, हज़रत उमर, हज़रत अली, हज़रत इब्ने-अब्बास, अबू-मूसा अशअरी, हज़रत इब्ने-मसऊद (रज़ि०) और बड़े-बड़े सहाबा की यही राय है और हनफ़ी फ़ुक़हा ने इसी को क़ुबूल किया है। इसके बरख़िलाफ़ दूसरा गरोह कहता है कि औरत को तीसरी बार माहवारी आते ही शौहर के रुजू करने का हक़ ख़त्म हो जाता है। यह राय हज़रत आइशा (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) की है। और शाफ़िई और मालिकी फ़ुक़हा ने इसी को इख़्तियार किया है। मगर वाज़ेह रहे कि यह हुक्म सिर्फ़ उस सूरत से ताल्लुक़ रखता है, जिसमें शौहर ने औरत को एक या दो तलाक़ें दी हों। तीन तलाक़ें देने की सूरत में शौहर को रुजू का हक़ नहीं है।
ٱلطَّلَٰقُ مَرَّتَانِۖ فَإِمۡسَاكُۢ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ تَسۡرِيحُۢ بِإِحۡسَٰنٖۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمۡ أَن تَأۡخُذُواْ مِمَّآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ شَيۡـًٔا إِلَّآ أَن يَخَافَآ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۖ فَإِنۡ خِفۡتُمۡ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَا فِيمَا ٱفۡتَدَتۡ بِهِۦۗ تِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ فَلَا تَعۡتَدُوهَاۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 226
(229) तलाक़ दो बार है, फिर या तो सीधी तरह औरत को रोक लिया जाए या भले तरीक़े से उसको विदा कर दिया जाए।250 और रुख़़सत (विदा) करते हुए ऐसा करना तुम्हारे लिए जाइज़ नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ वापस ले लो।251 अलबत्ता यह सूरत इससे अलग है कि मियाँ-बीवी को अल्लाह की मुक़र्रर की हदों पर क़ायम न रह सकने का डर हो। ऐसी सूरत में अगर तुम्हें यह डर हो कि वे दोनों अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदों पर क़ायम न रहेंगे, तो उन दोनों के बीच यह मामला हो जाने में कोई हरज नहीं कि औरत अपने शौहर को कुछ मुआवज़ा देकर जुदाई हासिल कर ले।252 ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं, इनसे आगे न बढ़ो। और जो लोग अल्लाह की हदों से आगे बढ़ें वही ज़ालिम हैं।
250. इस छोटी-सी आयत में एक बहुत बड़ी सामाजिक ख़राबी का, जो जाहिलियत के ज़माने में अरब में फैली हुई थी, सुधार किया गया है। अरब में क़ायदा यह था कि एक शख़्स अपनी बीवी को अनगिनत तलाक़ देने का इख़्तियार रखता था। जिस औरत से उसका शौहर बिगड़ जाता, उसको वह बार-बार तलाक़ देकर रुजू करता रहता था, ताकि न तो वह बेचारी उसके साथ बस ही सके और न उससे आज़ाद होकर किसी और से निकाह ही कर सके। क़ुरआन मजीद की यह आयत इसी ज़ुल्म का दरवाज़ा बन्द करती है। इस आयत के मुताबिक़ एक मर्द निकाह के बंधन में बंधी अपनी बीवी पर ज़्यादा-से-ज़्यादा दो ही बार रजई तलाक़ का हक़ इस्तेमाल कर सकता है। जो आदमी अपनी बीवी को दो बार तलाक़ देकर उससे रुजू कर चुका हो, वह अपनी उम्र में जब कभी उसको तीसरी बार तलाक़ देगा, औरत उससे हमेशा के लिए जुदा हो जाएगी। तलाक़ का सही तरीक़ा जो क़ुरआन व हदीस से मालूम होता है, वह यह है कि औरत को पाकी की हालत में एक बार तलाक़ दी जाए। अगर झगड़ा ऐसे ज़माने में हुआ हो, जबकि औरत माहवारी की हालत में हो, तो उसी वक़्त तलाक दे बैठना सही नहीं है, बल्कि माहवारी के ख़त्म होने तक शौहर को इन्तिज़ार करना चाहिए। फिर एक तलाक़ देने के बाद अगर चाहे तो दूसरी पाकी की हालत में दोबारा एक तलाक और दे दे, वरना बेहतर यही है कि पहली तलाक़ पर बस करे। इस सूरत में शौहर को यह हक़ हासिल रहता है कि इद्दत गुज़रने से पहले-पहले जब चाहे, रुजू कर ले और अगर इद्दत गुज़र भी जाए तो दोनों के लिए मौक़ा बाक़ी रहता है कि फिर आपसी रजामंदी से दोबारा निकाह कर लें। लेकिन तीसरी पाकी में तीसरी बार तलाक़ देने के बाद न तो शौहर को रुजू का हक़ बाक़ी रहता है और न इसका ही कोई मौक़ा रहता है कि दोनों का फिर निकाह हो सके। रही यह सूरत कि एक ही वक़्त में तीन तलाक़ें डाली जाएँ, जैसा कि आजकल जाहिलों का आम तरीक़ा है, तो यह शरीअत की निगाह में सख़्त गुनाह है। नबी (सल्ल०) ने इसकी बड़ी निन्दा की है और हज़रत उमर (रज़ि०) से यहाँ तक साबित है कि जो आदमी एक ही वक़्त में अपनी बीवी को तीन तलाक़ें दे देता था, आप उसको दुर्रे लगाते थे। फिर भी गुनाह होने के बावजूद चारों इमामों के नज़दीक तीनों तलाक़ें पड़ जाती हैं और तलाक़े-मुग़ल्लज़ा हो जाती हैं (यानी इसके बाद वे शौहर-बीवी आपस में रुजू या निकाह नहीं कर सकते)।
251. यानी मह्‍र और वह ज़ेवर और कपड़े वग़ैरा जो शौहर अपनी बीवी को दे चुका हो, उनमें से कोई चीज़ भी उसे वापस माँगने का हक़ नहीं है। यह बात वैसे भी इस्लाम के अख़लाक़ी उसूलों के ख़िलाफ़ है कि कोई शख़्स किसी ऐसी चीज़ को, जिसे वह दूसरे शख़्स को तोहफ़े के तौर पर दे चुका हो, वापस माँगे। इस घटिया हरकत को हदीस में उस कुत्ते की हरकत की तरह बताया गया है जो अपनी क़ै (उलटी) को ख़ुद चाट ले। मगर ख़ास तौर पर एक शौहर के लिए यह बड़ी ही शर्मनाक बात है कि वह तलाक़ देकर रुख़सत करते वक़्त अपनी बीवी से वह सब कुछ रखवा लेना चाहे जो उसने कभी उसे ख़ुद दिया था। इसके ख़िलाफ़ इस्लाम ने ये अख़लाक़ सिखाए हैं कि आदमी जिस औरत को तलाक़ दे उसे रुख़सत करते वक़्त कुछ न कुछ देकर रुख़सत करे, जैसा कि आगे आयत241 में कहा गया है।
252. शरीअत की ज़बान में इसे 'ख़ुलअ' कहते हैं यानी एक औरत का अपने शौहर को कुछ दे-दिलाकर उससे तलाक़ ले लेना। इस मामले में अगर औरत और मर्द के बीच घर के घर ही में कोई मामला तय हो जाए, तो जो कुछ तय हुआ हो, वही लागू होगा, लेकिन अगर अदालत में मामला जाए, तो अदालत सिर्फ़ इस बात की जाँच करेगी कि क्या वाक़ई यह औरत उस मर्द से इस हद तक बेज़ार हो चुकी है कि उसके साथ उसका निबाह नहीं हो सकता। इसकी तहक़ीक़ हो जाने के बाद अदालत को इख़्तियार हासिल है कि हालात के लिहाज़ से जो फ़िदया (जुर्माना) चाहे तय करे और उस फ़िदया को क़ुबूल करके शौहर को उसे तलाक़ देना होगा। आम तौर से फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने इस बात को पसन्द नहीं किया है कि जो माल शौहर ने उस औरत की दिया हो, उसकी वापसी से बढ़कर कोई चीज़ उसे दिलवाई जाए। ख़ुलअ की सूरत में जो तलाक़ दी जाती है, वह रजई नहीं, बल्कि बाइना है। चूँकि औरत ने मुआवज़ा देकर मानो उस तलाक़ को ख़रीदा है, इसलिए शौहर को यह हक़ बाक़ी नहीं रहता कि इस तलाक़ से रुजू कर सके। अलबत्ता अगर यही मर्द-औरत फिर एक-दूसरे से राज़ी हो जाएँ और दोबारा निकाह करना चाहें, तो ऐसा करना उनके लिए बिलकुल जाइज़ है। आम उलमा के नज़दीक ख़ुलअ की इद्दत वही है जो तलाक़ की है। मगर अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और इब्ने-माजा वग़ैरा में बहुत-सी रिवायतें ऐसी हैं जिनसे मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने इसकी इद्दत एक ही माहवारी ठहराई थी और इसी के मुताबिक़ हज़रत उसमान (रज़ि०) ने एक मुक़द्दमे का फ़ैसला किया। (इब्ने-कसीर, जिल्द– 1, पृ॰ 276)
فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُۥ مِنۢ بَعۡدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوۡجًا غَيۡرَهُۥۗ فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَآ أَن يَتَرَاجَعَآ إِن ظَنَّآ أَن يُقِيمَا حُدُودَ ٱللَّهِۗ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 227
(230) फिर अगर (दो बार तलाक़ देने के बाद शौहर ने औरत को तीसरी बार) तलाक़ दे दी, तो वह औरत फिर उसके लिए हलाल न होगी, सिवा इसके कि उसका निकाह किसी दूसरे आदमी से हो और वह उसे तलाक़ दे दे।253 तब अगर पहला शौहर और यह औरत दोनों यह समझें कि अल्लाह की मुक़र्रर हदों पर क़ायम रहेंगे, तो उनके लिए एक-दूसरे की तरफ़ रुजू कर लेने में कोई हरज नहीं। ये अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं, जिन्हें वह उन लोगों की हिदायत के लिए वाज़ेह कर रहा है जो (उसकी हदों को तोड़ने का अंजाम) जानते हैं।
253. सही हदीसों से मालूम होता है कि अगर कोई आदमी अपनी तलाक़शुदा बीवी को अपने लिए सिर्फ़ हलाल करने की ख़ातिर किसी साज़िश के तौर पर उसका निकाह कराए और पहले से यह तय कर ले कि वह निकाह के बाद उसे तलाक़ दे देगा, तो यह सरासर एक नाजाइज़ काम है। ऐसा निकाह, निकाह न होगा, बल्कि सिर्फ़ एक बदकारी होगी और ऐसे साज़िशी निकाह व तलाक़ से औरत हरगिज़ अपने पिछले शौहर के लिए हलाल न होगी। हज़रत अली, इब्ने-मसऊद और अबू-हुरैरा और उक़बा-बिन-आमिर (रज़ि०) इन चारों से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने इस तरीक़े से हलाला करने और हलाला करानेवाले पर लानत भेजी है।
وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمۡسِكُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٍ أَوۡ سَرِّحُوهُنَّ بِمَعۡرُوفٖۚ وَلَا تُمۡسِكُوهُنَّ ضِرَارٗا لِّتَعۡتَدُواْۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَقَدۡ ظَلَمَ نَفۡسَهُۥۚ وَلَا تَتَّخِذُوٓاْ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ هُزُوٗاۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمَآ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَٱلۡحِكۡمَةِ يَعِظُكُم بِهِۦۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 228
(231) और जब तुम औरतों को तलाक़ दे दो और उनकी इद्दत पूरी होने को आ जाए, तो या भले तरीक़े से उन्हें रोक लो या भले तरीक़े से विदा कर दो। सिर्फ़ सताने के लिए उन्हें न रोके रखना कि यह ज़्यादती होगी। और जो ऐसा करेगा, वह हक़ीक़त में आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म करेगा।254 अल्लाह की आयतों का खेल न बनाओ। भूल न जाओ कि अल्लाह ने किस बड़ी नेमत से तुम्हें नवाज़ा है। वह तुम्हें नसीहत करता है। जो किताब और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) उसने तुमपर उतारी है, उसके एहतिराम का ख़याल रखो।255 अल्लाह से डरो और ख़ूब जान लो कि अल्लाह को हर बात की ख़बर है।
254. यानी ऐसा करना सही नहीं है कि एक शख़्स अपनी बीवी को तलाक़ दे और इद्दत गुज़रने से पहले सिर्फ़ इसलिए रुजू कर ले कि उसे फिर सताने और परेशान करने का मौक़ा हाथ आ जाए। अल्लाह हिदायत फ़रमाता है कि रुजू करते हो तो इस नीयत से करो कि अब भले तरीक़े से रहना है, वरना बेहतर यह है कि शरीफ़ाना तरीक़े से रुख़सत कर दो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए हाशिया न॰ 250)
255. यानी इस सच्चाई को न भुला दो कि अल्लाह ने तुम्हें किताब और हिकमत (तत्त्वदर्शिता) की तालीम देकर दुनिया की रहनुमाई के अज़ीमुश्शान (महान) मक़ाम पर मुक़र्रर किया है। तुम 'उम्मते-वसत' बनाए गए हो, तुम्हें नेकी और सच्चाई का गवाह बनाकर खड़ा किया गया है। तुम्हारा यह काम नहीं है कि हीले-बहानों से काम लेकर अल्लाह की आयतों का खेल बनाओ, क़ानून के लफ़्ज़ों से क़ानून की रूह के ख़िलाफ़ नाजाइज़ फ़ायदे उठाओ और दुनिया को सीधा रास्ता दिखाने के बजाय ख़ुद अपने घरों में ज़ालिम और बद-राह बनकर रहो।
وَإِذَا طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَبَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا تَعۡضُلُوهُنَّ أَن يَنكِحۡنَ أَزۡوَٰجَهُنَّ إِذَا تَرَٰضَوۡاْ بَيۡنَهُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ ذَٰلِكَ يُوعَظُ بِهِۦ مَن كَانَ مِنكُمۡ يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۗ ذَٰلِكُمۡ أَزۡكَىٰ لَكُمۡ وَأَطۡهَرُۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 229
(232) जब तुम अपनी औरतों को तलाक़ दे चुको और वे अपनी इद्दत (अवधि) पूरी कर लें, तो फिर इसमें रुकावट न बनो कि वे अपने (पसन्द के) शौहरों से निकाह कर लें, जबकि वे भले तरीक़े से आपस में निकाह करने पर राज़ी हों।256 तुम्हें नसीहत की जाती है कि ऐसी हरकत हरगिज़ न करना अगर तुम अल्लाह और आख़िरी दिन पर ईमान लानेवाले हो। तुम्हारे लिए मुहज़्ज़ब और पाकीज़ा तरीक़ा यही है कि इससे बचो। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
256. यानी अगर किसी औरत को उसके शौहर ने तलाक़ दे दी हो और इद्दत के ज़माने के अन्दर उससे रुजू न किया हो। फिर इद्दत गुज़र जाने के बाद वे दोनों आपस में दोबारा निकाह करने पर राजी हों तो औरत के रिश्तेदारों को इसमें रुकावट नहीं बनना चाहिए। इसी के साथ ही इसका यह मतलब भी हो सकता है कि जो आदमी अपनी बीवी को तलाक़ दे चुका हो और औरत इद्दत के बाद उससे आज़ाद होकर कहीं दूसरी जगह अपना निकाह करना चाहती हो तो उस पहले वाले शौहर को ऐसी नीच हरकत न करनी चाहिए कि उसके निकाह में रुकावट बने और कोशिश करता फिरे कि जिस औरत को उसने छोड़ा है, उसे कोई निकाह में लाना क़ुबूल न करे।
۞وَٱلۡوَٰلِدَٰتُ يُرۡضِعۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ حَوۡلَيۡنِ كَامِلَيۡنِۖ لِمَنۡ أَرَادَ أَن يُتِمَّ ٱلرَّضَاعَةَۚ وَعَلَى ٱلۡمَوۡلُودِ لَهُۥ رِزۡقُهُنَّ وَكِسۡوَتُهُنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۚ لَا تُكَلَّفُ نَفۡسٌ إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَا تُضَآرَّ وَٰلِدَةُۢ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوۡلُودٞ لَّهُۥ بِوَلَدِهِۦۚ وَعَلَى ٱلۡوَارِثِ مِثۡلُ ذَٰلِكَۗ فَإِنۡ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٖ مِّنۡهُمَا وَتَشَاوُرٖ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡهِمَاۗ وَإِنۡ أَرَدتُّمۡ أَن تَسۡتَرۡضِعُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِذَا سَلَّمۡتُم مَّآ ءَاتَيۡتُم بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 230
(233) जो बाप चाहते हों कि उनके बच्चे दूध पीने की पूरी मुद्दत तक दूध पिएँ, तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो साल तक दूध पिलाएँ।257 इस सूरत में बच्चे के बाप को भले तरीक़े से उन्हें खाना-कपड़ा देना होगा, मगर किसी पर उसकी वुसअत (सामर्थ्य) से बढ़कर बोझ न डालना चाहिए। न तो माँ को इस वजह से तकलीफ़ में डाला जाए कि बच्चा उसका है, और न बाप ही को इस वजह से तंग किया जाए कि बच्चा उसका है। — दूध पिलानेवाली का यह हक़ जैसा बच्चे के बाप पर है, वैसा ही उसके वारिस पर भी है258 लेकिन अगर दोनों फ़रीक़ (पक्ष) आपस के समझौते और मश्वरे से दूध छुड़ाना चाहें, तो ऐसा करने में कोई हरज नहीं। और अगर तुम्हारा ख़याल अपनी औलाद को किसी दूसरी औरत से दूध पिलवाने का हो तो इसमें भी कोई हरज नहीं, शर्त यह है कि उसका जो कुछ मुआवज़ा तय करो, वह भले तरीक़े से चुका दो। अल्लाह से डरो और जान रखो कि जो कुछ तुम करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
257. यह उस सूरत का हुक्म है जबकि शौहर-बीवी एक-दूसरे से अलग हो चुके हों, चाहे तलाक़ के ज़रिए से या ख़ुलअ या फ़स्ख़ और तफ़रीक़ (निकाह टूटने और अलगाव) के ज़रिए से, और औरत की गोद में दूध-पीता बच्चा हो।
258. यानी अगर बाप मर जाए जो उसकी जगह बच्चे का सरपरस्त हो, उसे यह हक़ अदा करना होगा।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا يَتَرَبَّصۡنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرۡبَعَةَ أَشۡهُرٖ وَعَشۡرٗاۖ فَإِذَا بَلَغۡنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ بِٱلۡمَعۡرُوفِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 231
(234) तुममें से जो लोग मर जाएँ, उनके पीछे अगर उनकी बीवियाँ जिन्दा हों तो वे अपने आपको चार महीने दस दिन रोके रखें।259 फिर जब उनकी इद्दत पूरी हो जाए तो उन्हें इख़्तियार है, अपने बारे में कि भले तरीक़े से जो चाहे करें, तुमपर इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं। अल्लाह तुम सबके कामों की ख़बर रखता है।
259. शौहर की मौत की यह इद्दत उन औरतों के लिए भी है जिनसे उनके शौहरों ने जिस्मानी ताल्लुक़ न बनाए हों। अलबत्ता हामिला (गर्भवती) औरत इससे अलग है। उसके लिए शौहर की मौत की इद्दत बच्चा जनने तक है, चाहे शौहर की मौत के बाद ही बच्चा पैदा हो जाए या इसमें कई महीने लगें। “अपने आपको रोके रखें” से मुराद सिर्फ़ यही नहीं है कि वे इस मुद्दत में निकाह न करें, बल्कि इससे मुराद अपने आपको ज़ीनत (बनाव-शृंगार) से भी रोके रखना है। चुनाँचे हदीसों में वाज़ेह तौर पर ये हुक्म मिलते हैं कि इद्दत के ज़माने में औरत को रंगीन कपड़े और ज़ेवर पहनने से, मेहंदी, सुरमा, ख़ुशबू और ख़िज़ाब लगाने से और बालों को सजाने-सँवारने से परहेज़ करना चाहिए। अलबत्ता इस मामले में उलमा की राएँ अलग-अलग हैं कि क्या उस ज़माने में औरत घर से निकल सकती है या नहीं? हज़रत उमर, उसमान, इब्ने-उमर, ज़ैद-बिन-साबित, इब्ने-मसऊद, उम्मे-सलमा, सईद-बिन-मुसय्यब (रज़ि०), इबराहीम, नख़ई, मुहम्मद-बिन-सीरीन (रह०) ये सब हज़रात और चारों इमाम (रह०) इस बात को मानते हैं कि इद्दत के ज़माने में औरत को उसी घर में रहना चाहिए जहाँ उसके शौहर की मौत हुई हो। दिन के वक़्त किसी ज़रूरत से वह बाहर जा सकती है, मगर क़ियाम उसका उसी घर में होना चाहिए। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत आइशा, इब्ने-अब्बास, हज़रत अली, जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), अता, ताऊस, हसन बसरी, उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) और तमाम अहलुज़्ज़ाहिर इस बात को मानते हैं कि औरत अपनी इद्दत का ज़माना जहाँ चाहे गुज़ार सकती है और उस ज़माने में सफ़र भी कर सकती है।
وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِيمَا عَرَّضۡتُم بِهِۦ مِنۡ خِطۡبَةِ ٱلنِّسَآءِ أَوۡ أَكۡنَنتُمۡ فِيٓ أَنفُسِكُمۡۚ عَلِمَ ٱللَّهُ أَنَّكُمۡ سَتَذۡكُرُونَهُنَّ وَلَٰكِن لَّا تُوَاعِدُوهُنَّ سِرًّا إِلَّآ أَن تَقُولُواْ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗاۚ وَلَا تَعۡزِمُواْ عُقۡدَةَ ٱلنِّكَاحِ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ ٱلۡكِتَٰبُ أَجَلَهُۥۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ فَٱحۡذَرُوهُۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 232
(235) इद्दत के ज़माने में चाहे तुम उन बेवा (विधवा) औरतों के साथ मंगनी का इरादा इशारे के तौर कर दो, चाहे दिल में छिपाए रखो, दोनों हालतों में कोई हरज नहीं। अल्लाह जानता है कि उनका ख़याल तो तुम्हारे दिल में आएगा ही। मगर देखो, खुफ़िया तौर पर समझौता न करना। अगर कोई बात करनी है तो भले तरीक़े से करो और निकाह का नाता जोड़ने का फ़ैसला उस समय तक न करो, जब तक कि इद्दत पूरी न हो जाए। ख़ूब समझ लो कि अल्लाह तुम्हारे दिलों का हाल तक जानता है, इसलिए उससे डरो और ये भी जान लो कि अल्लाह बुर्दबार (सहनशील) है, (छोटी-छोटी बातों को) माफ़ कर देता है।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ إِن طَلَّقۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ مَا لَمۡ تَمَسُّوهُنَّ أَوۡ تَفۡرِضُواْ لَهُنَّ فَرِيضَةٗۚ وَمَتِّعُوهُنَّ عَلَى ٱلۡمُوسِعِ قَدَرُهُۥ وَعَلَى ٱلۡمُقۡتِرِ قَدَرُهُۥ مَتَٰعَۢا بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 233
(236 ) तुमपर कुछ गुनाह नहीं अगर अपनी औरतों को तलाक़ दे दो इससे पहले कि हाथ लगाने की नौबत आए या मह्‍र मुक़र्रर हो। इस सूरत में उन्हें कुछ-न-कुछ देना ज़रूर चाहिए।260 ख़ुशहाल आदमी अपनी ताक़त के मुताबिक़ और ग़रीब आदमी अपनी सकत (सामर्थ्य) के मुताबिक़ भले तरीक़े से दे। यह हक़ है नेक आदमियों पर।
260. इस तरह रिश्ता जोड़ने के बाद तोड़ देने से बहरहाल औरत को कुछ-न-कुछ नुक़सान तो पहुँचता ही है, इसलिए अल्लाह ने हुक्म दिया की अपनी हैसियत के मुताबिक़ उस नुक़सान की भरपाई करो।
وَإِن طَلَّقۡتُمُوهُنَّ مِن قَبۡلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ وَقَدۡ فَرَضۡتُمۡ لَهُنَّ فَرِيضَةٗ فَنِصۡفُ مَا فَرَضۡتُمۡ إِلَّآ أَن يَعۡفُونَ أَوۡ يَعۡفُوَاْ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ عُقۡدَةُ ٱلنِّكَاحِۚ وَأَن تَعۡفُوٓاْ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۚ وَلَا تَنسَوُاْ ٱلۡفَضۡلَ بَيۡنَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 234
(237) और अगर तुमने हाथ लगाने से पहले तलाक़ दी हो, लेकिन मह्‍र मुक़र्रर किया जा चुका हो तो इस सूरत में आधा मह्‍र देना होगा। यह और बात है कि औरत नरमी बरते (और मह्‍र न ले) या वह मर्द, जिसके इख़्तियार में निकाह है, नरमी से काम ले (और पूरा मह्‍र दे दे), और तुम (यानी मर्द) नरमी से काम लो तो यह तक़वा (ईश-परायणता) से ज़्यादा निसबत रखता है। आपस के मामलों में फ़ैयाज़ी (उदारता) को न भूलो।261 तुम्हारे आमाल (कर्मो) को अल्लाह देख रहा है।
261. यानी इनसानी ताल्लुक़ात को बेहतर और ख़ुशगवार बनाने के लिए लोगों का आपस में फ़ैयाज़ी (उदारता और दानशीलता) का बरताव करना ज़रूरी है। अगर हर एक आदमी ठीक-ठीक अपने क़ानूनी हक़ ही पर अड़ा रहे, तो सामाजिक ज़िन्दगी कभी ख़ुशगवार नहीं हो सकती।
حَٰفِظُواْ عَلَى ٱلصَّلَوَٰتِ وَٱلصَّلَوٰةِ ٱلۡوُسۡطَىٰ وَقُومُواْ لِلَّهِ قَٰنِتِينَ ۝ 235
(238) अपनी नमाज़ों की निगरानी262 करो, ख़ास तौर से ऐसी नमाज़ की जो नमाज़ की ख़ूबियों को समेटे हुए हो।263 अल्लाह के आगे इस तरह खड़े हो जैसे फ़रमाँबरदार ग़ुलाम खड़े होते हैं।
262. रहन-सहन और समाज से ताल्लुक़ रखनेवाले क़ानून बयान करने के बाद अल्लाह तआला इस तक़रीर (वार्ता) को नमाज़ की ताकीद पर ख़त्म करता है, क्योंकि नमाज़ ही वह चीज़ है जो इनसान के अन्दर ख़ुदा का डर, नेकी या पाकीज़गी के जज़्बों और अल्लाह के हुक्म की फ़रमाँबरदारी की स्प्रिट पैदा करती है और उसे सच्चाई पर क़ायम रखती है। यह चीज़ न हो तो इनसान कभी अल्लाह के क़ानूनों की पाबन्दी पर अटल (जमा) नहीं रह सकता और आख़िरकार उसी नाफ़रमानी की धारा में बह निकलता है जिस पर यहूदी बह निकले।
263. अस्ल अरबी लफ़्ज़ ‘सलातुल-वुस्ता’ इस्तेमाल हुआ है। क़ुरआन के कुछ मुफ़स्सिरों ने इससे मुराद सुबह की नमाज़ ली है। कुछ ने ज़ुह्‍र, कुछ ने मग़रिब और कुछ ने इशा, लेकिन इनमें से कोई बात भी नबी (सल्ल०) से साबित नहीं है। सिर्फ़ मतलब और मानी निकालनेवालों ने इसका यह मतलब निकाला है। सबसे ज़्यादा क़ौल (कथन) अस्र की नमाज़ के हक़ में मिलते हैं और कहा जाता है कि नबी (सल्ल०) ने इसी नमाज़ को ‘सलातुल-वुस्ता’ ठहराया है। लेकिन जिस वाक़िए से यह नतीजा निकाला जाता है, वह सिर्फ़ यह है कि ‘अहज़ाब की लड़ाई’ के मौक़े पर नबी (सल्ल०) को दुश्मनों के हमलों ने इतना ज़्यादा मशग़ूल रखा कि सूरज डूबने को आ गया और आप अस्र की नमाज़ न पढ़ सके। उस वक़्त आपने फ़रमाया कि “अल्लाह उन लोगों की कब्रें और उनके घर आग से भर दे। उन्होंने हमारी सलातुल-वुस्ता छुड़वाई।” इससे यह समझा गया कि नबी (सल्ल०) ने अस्र की नमाज़ को 'सलातुल-वुस्ता' कहा है, हालाँकि इसका यह मतलब हमारे नज़दीक ज़्यादा ठीक मालूम होता है कि इस मशग़ूलियत ने आला दरजे की नमाज़ हमसे छुड़वा दी, नावक़्त पढ़नी पड़ेगी, जल्दी-जल्दी अदा करनी होगी, ख़ुशू और ख़ुज़ू (विनम्रता और ध्यान) इतमीनान और सुकून के साथ न पढ़ सकेंगे। 'वुस्ता' के मानी बीचवाली चीज़ के भी हैं और ऐसी चीज़ के भी जो आला और ऊँचे दरजे की हो। 'सलातुल-वुस्ता' से मुराद बीच की नमाज़ भी हो सकती है और ऐसी नमाज़ भी जो सही वक़्त पर पूरे लगाव के साथ अल्लाह की तरफ़ पूरा ध्यान लगाकर पढ़ी जाए और जिसमें नमाज़ की तमाम ख़ूबियाँ मौजूद हों। बाद का जुमला (वाक्य) कि “अल्लाह के आगे फ़रमाँबरदार बन्दों की तरह खड़े हो” ख़ुद इसका मतलब बयान कर रहा है।
فَإِنۡ خِفۡتُمۡ فَرِجَالًا أَوۡ رُكۡبَانٗاۖ فَإِذَآ أَمِنتُمۡ فَٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ كَمَا عَلَّمَكُم مَّا لَمۡ تَكُونُواْ تَعۡلَمُونَ ۝ 236
(239) बदअम्नी की हालत हो तो, चाहे पैदल हो या सवार, जिस तरह मुमकिन हो नमाज़ पढ़ो और जब अम्न हासिल हो जाए तो अल्लाह को उस तरीक़े से याद करो जो उसने तुम्हें सिखा दिया है, जिससे तुम पहले नावाक़िफ़ (अनजान) थे।
وَٱلَّذِينَ يُتَوَفَّوۡنَ مِنكُمۡ وَيَذَرُونَ أَزۡوَٰجٗا وَصِيَّةٗ لِّأَزۡوَٰجِهِم مَّتَٰعًا إِلَى ٱلۡحَوۡلِ غَيۡرَ إِخۡرَاجٖۚ فَإِنۡ خَرَجۡنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ فِي مَا فَعَلۡنَ فِيٓ أَنفُسِهِنَّ مِن مَّعۡرُوفٖۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 237
(240) तुममें से264 जिन लोगों की मौत हो जाए और वे अपने पीछे बीवियाँ छोड़ रहे हों, तो उनको चाहिए कि अपनी बीवियों के हक़ में यह वसीयत कर जाएँ कि एक साल तक उनको खाना-कपड़ा दिया जाए और वे घर से न निकाली जाएँ, फिर अगर वे ख़ुद निकल जाएँ तो अपने मामले में भले तरीक़े से वे जो कुछ भी करें, उसकी कोई ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। अल्लाह सबपर ग़ालिब इक़तिदार रखनेवाला और हिकमतवाला और जाननेवाला है।
264. तक़रीर (वार्ता) का सिलसिला ऊपर ख़त्म हो चुका था, यह बात उसके ततिम्मा (पूरक) और ज़मीमा (परिशिष्ट) के तौर पर है।
وَلِلۡمُطَلَّقَٰتِ مَتَٰعُۢ بِٱلۡمَعۡرُوفِۖ حَقًّا عَلَى ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 238
(241) इसी तरह जिन औरतों को तलाक़ दी गई हो, उन्हें भी मुनासिब तौर पर कुछ-न-कुछ देकर विदा किया जाए। यह हक़ है परहेज़गार लोगों पर।
كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 239
(242) इस तरह अल्लाह अपने अहकाम (आदेश) तुम्हें साफ़-साफ़ बताता है। उम्मीद है कि तुम समझ-बूझकर काम करोगे।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ خَرَجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَهُمۡ أُلُوفٌ حَذَرَ ٱلۡمَوۡتِ فَقَالَ لَهُمُ ٱللَّهُ مُوتُواْ ثُمَّ أَحۡيَٰهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 240
(243) तुमने265 उन लोगों की हालत पर भी कुछ ग़ौर किया जो मौत के डर से अपने घर-बार छोड़कर निकले थे और हज़ारों की तादाद में थे? अल्लाह ने उनसे कहा “मर जाओ”। फिर उसने उनको दोबारा ज़िन्दगी बख़्शी।266 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह इनसान पर बड़ा फ़ज़्ल (अनुग्रह) करनेवाला है, मगर ज़्यादातर लोग शुक्र अदा नहीं करते।
265. यहाँ से तक़रीर (वार्ता) का एक दूसरा सिलसिला शुरू होता है, जिसमें मुसलमानों को ख़ुदा की राह में जिहाद और माली क़ुर्बानियाँ करने पर उभारा गया है और उन्हें उन कमज़ोरियों से बचने की हिदायत दी गई है जिनकी वजह से आख़िरकार बनी-इसराईल गिरावट (पतन) से दो-चार हुए। इस मक़ाम को समझने के लिए यह बात सामने रहे कि मुसलमान उस वक़्त मक्के से निकाले जा चुके थे। साल-डेढ़-साल से मदीना में पनाह लिए हुए थे और इस्लाम-दुश्मनों के ज़ुल्म से तंग आकर ख़ुद बार-बार माँग कर चुके थे कि हमें लड़ने की इजाज़त दी जाए। मगर जब उन्हें लड़ाई का हुक्म दे दिया गया तो अब उनमें से कुछ लोग कसमसा रहे थे, जैसा कि आयत 116 में कहा गया है। इसलिए यहाँ बनी-इसराईल के इतिहास के दो अहम वाक़िओं से उन्हें सबक़ लेने की बात कही गई है।
266. यह इशारा बनी-इसराईल के उस वाक़िए की तरफ़ है जब वे मिस्र से निकले थे। सूरा माइदा की आयत नम्बर 20 में अल्लाह तआला ने इसकी तफ़सील बयान की है। ये लोग बहुत बड़ी तादाद में मिस्र से निकले थे। जंगलों और बियाबानों में बेघर फिर रहे थे। ख़ुद एक ठिकाने के लिए परेशान थे। मगर जब अल्लाह की इजाज़त से हज़रत मूसा ने उनको हुक्म दिया कि ज़ालिम कनआनियों को फ़िलस्तीन की धरती से निकाल दो और उस इलाक़े को फ़तह कर लो, तो उन्होंने बुज़दिली दिखाई और आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। आख़िरकार अल्लाह ने उन्हें चालीस साल तक ज़मीन में मारा-मारा फिरने के लिए छोड़ दिया, यहाँ तक कि उनकी एक नस्ल ख़त्म हो गई और दूसरी नस्ल रेगिस्तान की गोद में पलकर उठी, तब अल्लाह तआला ने उन्हें कनआनियों पर ग़लबा अता किया। मालूम होता है कि इसी मामले को मौत और दोबारा ज़िन्दगी के लफ़्ज़ों में बयान किया गया है।
وَقَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 241
(244) मुसलमानो! अल्लाह की राह में जंग करो और ख़ूब जान रखो कि अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।
مَّن ذَا ٱلَّذِي يُقۡرِضُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا فَيُضَٰعِفَهُۥ لَهُۥٓ أَضۡعَافٗا كَثِيرَةٗۚ وَٱللَّهُ يَقۡبِضُ وَيَبۡصُۜطُ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 242
(245) तुममें कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़267 दे, ताकि अल्लाह उसे कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर वापस करे? घटाना भी अल्लाह के इख़्तियार में है और बढ़ाना भी, और उसी की तरफ़ तुम्हें पलटकर जाना है।
267. अस्ल में 'क़र्जे-हसन' इस्तेमाल हुआ है, जिसका तर्जमा है “अच्छा क़र्ज़।” और इससे मुराद ऐसा क़र्ज़ है, जो ख़ालिस नेकी और भलाई के जज़्बे से किसी को दिया जाए। और उसमें देनेवाले के सामने अपनी कोई ग़रज़ न हो। इस तरह जो माल ख़ुदा की राह में ख़र्च किया जाए, उसे अल्लाह तआला अपने ज़िम्मे क़र्ज़ क़रार देता है और वादा करता है कि मैं न सिर्फ़ अस्ल अदा करूँगा, बल्कि इससे कई गुना ज़्यादा दूँगा। अलबत्ता शर्त यह है कि वह हो 'क़र्ज़े- हसन' यानी अपनी किसी निजी ग़रज़ के लिए न दिया जाए, बल्कि सिर्फ़ अल्लाह की ख़ातिर उन कामों में ख़र्च किया जाए जिनको वह पसन्द करता है।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلۡمَلَإِ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰٓ إِذۡ قَالُواْ لِنَبِيّٖ لَّهُمُ ٱبۡعَثۡ لَنَا مَلِكٗا نُّقَٰتِلۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ قَالَ هَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡقِتَالُ أَلَّا تُقَٰتِلُواْۖ قَالُواْ وَمَا لَنَآ أَلَّا نُقَٰتِلَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَقَدۡ أُخۡرِجۡنَا مِن دِيَٰرِنَا وَأَبۡنَآئِنَاۖ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقِتَالُ تَوَلَّوۡاْ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 243
(246) फिर तुमने उस मामले पर भी ग़ौर किया जो मूसा के बाद बनी-इसराईल के सरदारों को पेश आया था? उन्होंने अपने नबी से कहा : हमारे लिए एक बादशाह मुक़र्रर कर दो ताकि हम अल्लाह की राह में जंग करें।268 नबी ने पूछा : कहीं ऐसा तो न होगा कि तुमको लड़ाई का हुक्म दिया जाए और फिर तुम न लड़ो। वे कहने लगे : भला यह कैसे हो सकता है कि हम अल्लाह की राह में न लड़ें, जबकि हमें अपने घरों से निकाल दिया गया है और हमारे बाल-बच्चे हमसे जुदा कर दिए गए हैं, मगर जब उनको जंग का हुक्म दिया गया तो एक छोटी तादाद के सिवा वे सब पीठ फेर गए, और अल्लाह उनमें से एक-एक ज़ालिम को जानता है।
268. यह तक़रीबन एक हज़ार साल क़ब्ल ईसा (ईसा पूर्व) का वाक़िआ है। उस वक़्त बनी-इसराईल पर अमालिक़ा (क़ौम के लोग) हावी हो गए थे और उन्होंने इसराईलियों से फ़िलस्तीन के अकसर इलाक़े छीन लिए थे। शमूएल नबी उस ज़माने में बनी-इसराईल के बीच हुकूमत कर रह थे, मगर वह बहुत बूढ़े हो चुके थे, इसलिए बनी-इसराईल के सरदारों ने यह ज़रूरत महसूस की कि कोई और आदमी उनका हाकिम हो, जिसकी अगुवाई में वे जंग कर सकें। लेकिन उस वक़्त बनी-इसराईल में इस क़द्र जाहिलियत आ चुकी थी और वे ग़ैर-मुस्लिम क़ौमों के तौर-तरीक़ों से इतने मुतास्सिर (प्रभावित) हो चुके थे कि ख़िलाफ़त और बादशाही का फ़र्क़ उनके ज़ेहनों से निकल गया था। इसलिए उन्होंने जो दरख़ास्त की वह ख़लीफ़ा मुक़र्रर करने की नहीं थी, बल्कि एक बादशाह मुक़र्रर करने की थी। इस सिलसिले में बाइबल की किताब शमूएल प्रथम में जो तफ़सील बयान हुई है, इस तरह है– “शमूएल ज़िन्दगी भर इसराईलियों का न्याय करता रहा .... तब सब इसराईली बुज़ुर्ग इकट्ठा होकर रामा में शमूएल के पास जाकर उससे कहने लगे, “सुन, तू तो अब बूढ़ा हो गया और तेरे बेटे तेरी राह पर नहीं चलते, अब हम पर इनसाफ़ करने के लिए सब क़ौमों (जातियों) के रिवाज के मुताबिक़ हमारे लिए एक बादशाह मुक़र्रर कर दे।” ........ यह बात शमूएल को बुरी लगी और शमूएल ने यहोवा (ख़ुदावन्द) से दुआ की और यहोवा ने शमूएल से कहा, “वे लोग जो कुछ तुझसे कहें उसे मान ले; क्योंकि उन्होंने तुमको नहीं, लेकिन मुझी को निकम्मा जाना है कि मैं उनका बादशाह न रहूँ।” .... शमूएल ने उन लोगों को जो उससे बादशाह चाहते थे यहोवा (ख़ुदावन्द) की सब बातें कह सुनाईं। उसने कहा, “जो बादशाह तुमपर हुकूमत करेगा उसकी यह चाल होगी, यानी वह तुम्हारे बेटों को लेकर अपने रथों और घोड़ों के काम पर नौकर रखेगा। और वे उसके रथों के आगे-आगे दौड़ा करेंगे; फिर वह उनको हज़ार-हज़ार के सरदार और पचास-पचास के ऊपर जमादार (प्रधान) बनाएगा, और कितनों, से वह अपने हल जुतवाएगा और अपने खेत कटवाएगा, और अपने लिए लड़ाई के हथियार और रथों के साज़ बनवाएगा। फिर वह तुम्हारी बेटियों को लेकर उनसे गुन्धन (सुगन्ध-द्रव्य) और रसोई और रोटियाँ बनवाएगा। फिर वह तुम्हारे खेतों और दाख (अंगूर) और ज़ैतून की बारियों में से जो अच्छी से अच्छी होंगी, उन्हें लेकर अपने ख़िदमतगारों (कर्मचारियों) को देगा। फिर वह तुम्हारे बीज और दाख (अंगूर) की बारियों का दसवाँ हिस्सा लेकर अपने हाकिमों और ख़िदमतगारों को देगा। फिर वह तुम्हारे ग़ुलामों और लौडियों को, और तुम्हारे अच्छे से अच्छे जवानों को, और तुम्हारे गदहों को भी लेकर अपने काम में लगाएगा। वह तुम्हारी भेड़-बकरियों का भी दसवाँ हिस्सा लेगा; इस तरह तुम उसके ग़ुलाम बन जाओगे। और उस दिन तुम अपने उस चुने हुए बादशाह की वजह से दुहाई दोगे, लेकिन यहोवा उस वक़्त तुम्हारी न सुनेगा।” तो भी उन लोगों ने शमूएल की बात न सुनी; और कहने लगे, “नहीं! हम ज़रूर अपने लिए बादशाह चाहते हैं, जिससे हम भी और सब क़ौमों (जातियों) की तरह हो जाएँ, और हमारा बादशाह हमारा इनसाफ़ करे, और हमारे आगे-आगे चलकर हमारी तरफ़ से जंग किया करे।” .... यहोवा ने शमूएल से कहा, “उनकी बात मानकर उनके लिए बादशाह ठहरा दे।”(1 शमूएल, 7:15; 8: 4-22) “फिर शमूएल लोगों से कहने लगा ..... जब तुमने देखा कि अम्मोनियों (बनी-असून) का बादशाह नाहाश हम पर चढ़ाई करता है, तब हालाँकि तुम्हारा बादशाह था तो भी तुमने मुझसे कहा : हमपर एक बादशाह हुकूमत करेगा। अब उस बादशाह को देखो जिसे तुमने चुन लिया, और जिसके लिए तुमने दुआ की थी। तुमपर एक बादशाह मुक़र्रर कर दिया है यदि तुम यहोवा का ख़ौफ़ मानते, उसकी इबादत (उपासना) करते। और उसकी बात सुनते रहो और यहोवा के हुक्म को टालकर उससे बलवा न करो, और तुम और वह जो तुम पर बादशाह हुआ है, दोनों अपने ख़ुदावन्द (परमेश्वर) यहोवा के पीछे-पीछे चलनेवाले बने रहो, तब तो भला होगा। लेकिन अगर तुम यहोवा की बात न मानो, और यहोवा के हुक्म को टालकर उससे बलवा करो, तो यहोवा का हाथ जैसे तुम्हारे पुरखों (बाप-दादाओं) के ख़िलाफ़ हुआ, वैसे ही तुम्हारे भी ख़िलाफ़ उठेगा।..... तब तुम जान लोगे, और देख भी लोगे कि तुमने बादशाह माँगकर यहोवा की निगाह में बहुत बड़ी बुराई की है। .........फिर यह मुझसे दूर हो कि मैं तुम्हारे लिए दुआ करना छोड़कर यहोवा के ख़िलाफ़ गुनाहगार ठहरूँ, मैं तो तुम्हें अच्छा और सीधा रास्ता दिखाता रहूँगा।” (1 शमूएल, 12:12-23) किताब शमूएल के इन बयानों से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि बादशाही के क़ायम करने का यह मुतालबा अल्लाह और उसके नबी को पसन्द न था। अब रहा यह सवाल कि क़ुरआन मजीद में इस जगह पर बनी-इसराईल के सरदारों के इस मुतालबे की निन्दा क्यों नहीं की गई, तो इसका जवाब यह है कि अल्लाह ने यहाँ इस क़िस्से का ज़िक्र जिस मक़सद के लिए किया है, उससे यह बात कोई ताल्लुक़ नहीं रखती कि उनका मुतालबा सही था या न था। यहाँ तो यह बताना मक़सद है कि बनी-इसराईल कितने बुज़दिल और डरपोक हो गए थे और उनमें कितनी ख़ुदग़रज़ी आ गई थी और उनके अन्दर अख़लाक़ी मज़बूती की कितनी कमी थी, जिसकी वजह से आख़िरकार वे गिर गए, और इस ज़िक्र (उल्लेख) की ग़रज़ यह है कि मुसलमान इससे सबक़ हासिल करें और अपने अंदर ये कमज़ोरियाँ न पलने दें।
وَقَالَ لَهُمۡ نَبِيُّهُمۡ إِنَّ ءَايَةَ مُلۡكِهِۦٓ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلتَّابُوتُ فِيهِ سَكِينَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَبَقِيَّةٞ مِّمَّا تَرَكَ ءَالُ مُوسَىٰ وَءَالُ هَٰرُونَ تَحۡمِلُهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 244
(248) इसके साथ उनके नबी ने उनको यह भी बताया कि “अल्लाह की तरफ़ से उसके बादशाह मुक़र्रर होने की पहचान यह है कि उसके दौर में वह संदूक़ तुम्हें वापस मिल जाएगा, जिसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे लिए दिल के इतमीनान का सामान है, जिसमें मूसा के लोगों और हारून के लोगों की छोड़ी हुई तबुरुकात (बरकतवाली चीज़े) हैं और जिसको इस वक़्त फ़रिश्ते सँभाले हुए है।270 अगर तुम ईमानवाले हो तो यह तुम्हारे लिए बहुत बड़ी निशानी है।
270. बाइबल का बयान इस मामले में क़ुरआन से किसी हद तक मुख़्तलिफ़ है। ताहम इससे अस्ल वाक़िए की तफ़सील पर काफ़ी रौशनी पड़ती है। इससे मालूम होता है कि यह सन्दूक़, जिसे बनी-इसराईल इस्तिलाहन (पारिभाषिक रूप से) ‘अहद का सन्दूक़’ कहते थे, एक लड़ाई के मौक़े पर फ़िलस्ती मुशरिकों (बहुदेववादियों) ने बनी-इसराईल से छीन लिया था, लेकिन ये मुशरिकों के जिस शहर और जिस बस्ती में रखा गया, वहाँ वबाएँ (महामारियाँ) फूट पड़ीं। आख़िरकार उन्होंने ख़ौफ़ के मारे उसे एक बैलगाड़ी पर रखकर गाड़ी को हाँक दिया। ग़ालिबन इसी मामले की तरफ़ क़ुरआन इन अलफ़ाज़ में इशारा करता है कि उस वक़्त वह सन्दूक़ फ़रिश्तों ही का काम था कि वे इसे चलाकर बनी-इसराईल की तरफ़ ले आए। रहा यह इरशाद कि “इस सन्दूक़ में तुम्हारे लिए दिल के सुकून का सामान है,” तो बाइबल के बयान से इसकी हक़ीक़त यह मालूम होती है कि बनी-इसराईल उसको बड़ा बरकतवाला और अपने लिए फ़तह और मदद का निशान समझते थे। जब वह उनके हाथ से निकल गया, तो पूरी क़ौम की हिम्मत टूट गई और हर इसराईली यह ख़याल करने लगा कि ख़ुदा की रहमत हमसे फिर गई है और अब हमारे बुरे दिन आ गए हैं। तो इस सन्दूक़ का वापस आना उस क़ौम के लिए दिल को ताक़त देने का सबब था और यह एक ऐसा ज़रिआ था, जिससे उनकी टूटी हुई हिम्मतें फिर बन सकती थीं। “आले-मूसा (अलैहि०) और आले-हारून (अलैहि०) के छोड़े हुए तबर्रुकात” जो इस सन्दूक़ में रखे हुए थे, उनसे मुराद पत्थर की वे तख़्तियाँ, जो तूरे-सीना पर अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी थीं। उसके अलावा तौरात का वह अस्ल नुस्ख़ा भी उसमें था, जिसे हज़रत मूसा (अलैहि०) ने ख़ुद लिखवाकर बनी-लावी के सिपुर्द किया था। साथ ही एक बोतल में ‘मन्न’ भी भरकर उसमें रख दिया गया था ताकि आनेवाली नस्लें अल्लाह तआला के इस एहसान को याद करें, जो सहरा (रेगिस्तान) में उसने उनके बाप-दादा पर किया था। और शायद हज़रत मूसा (अलैहि०) का वह ‘असा’ भी उसके अन्दर था, जो ख़ुदा के अज़ीमुश्शान मोजिज़ों का मज़हर (प्रदर्शित करनेवाला) बना था।
فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوتُ بِٱلۡجُنُودِ قَالَ إِنَّ ٱللَّهَ مُبۡتَلِيكُم بِنَهَرٖ فَمَن شَرِبَ مِنۡهُ فَلَيۡسَ مِنِّي وَمَن لَّمۡ يَطۡعَمۡهُ فَإِنَّهُۥ مِنِّيٓ إِلَّا مَنِ ٱغۡتَرَفَ غُرۡفَةَۢ بِيَدِهِۦۚ فَشَرِبُواْ مِنۡهُ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۚ فَلَمَّا جَاوَزَهُۥ هُوَ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ قَالُواْ لَا طَاقَةَ لَنَا ٱلۡيَوۡمَ بِجَالُوتَ وَجُنُودِهِۦۚ قَالَ ٱلَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَٰقُواْ ٱللَّهِ كَم مِّن فِئَةٖ قَلِيلَةٍ غَلَبَتۡ فِئَةٗ كَثِيرَةَۢ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ مَعَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 245
(249) फिर जब तालूत फ़ौज लेकर चला तो उसने कहा, “एक नदी पर अल्लाह की तरफ़ से तुम्हारी आज़माइश होनेवाली है। जो उसका पानी पिएगा, वह मेरा साथी नहीं। मेरा साथी सिर्फ़ वह जो उससे प्यास न बुझाए; हाँ, एक-आध चुल्लू कोई पी ले, तो पी ले।” मगर एक छोटे-से गरोह के सिवा उन सबने उस नदी से ख़ूब पानी पिया।271 फिर जब तालूत और उसके साथी मुसलमान नदी पार करके आगे बढ़े तो उन्होंने तालूत से कह दिया कि आज हममें जालूत और उसकी फ़ौजों का मुक़ाबला करने की ताकत नहीं272 लेकिन जो लोग यह समझते थे कि उन्हें एक दिन अल्लाह से मिलना है, उन्होंने कहा, “कई बार ऐसा हुआ है कि एक बहुत छोटा गरोह अल्लाह के हुक्म से एक बड़े गरोह पर छा गया है। अल्लाह सब्र करनेवालों का साथी है।”
271. मुमकिन है इससे मुराद उर्दुन नदी हो या कोई और नदी-नाला। तालूत बनी-इसराईल के लश्कर को लेकर उसके पार उतरना चाहता था, मगर चूँकि उसे मालूम था कि उसकी क़ौम अन्दर से अख़लाक़ी नज़्मो-ज़ब्त (अनुशासन) बहुत कम रह गया है, इसलिए उसने कार-आमद और नाकारा लोगों को अलग-अलग करने के लिए यह आज़माइश की तज़वीज़ रखी। ज़ाहिर है कि जो लोग थोड़ी देर के लिए अपनी प्यास तक ज़ब्त न कर सकें, उनपर क्या भरोसा किया जा सकता है कि उस दुश्मन के मुक़ाबले में पामर्दी दिखाएँगे जिससे पहले ही वह हार मान चुके हैं।
272. शायद ऐसा कहनेवाले वही लोग होंगे जिन्होने नदी पर पहले ही अपनी बेसब्री दिखा दी थी।
وَلَمَّا بَرَزُواْ لِجَالُوتَ وَجُنُودِهِۦ قَالُواْ رَبَّنَآ أَفۡرِغۡ عَلَيۡنَا صَبۡرٗا وَثَبِّتۡ أَقۡدَامَنَا وَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 246
(250) और जब व जालूत और उसकी फ़ौजों के मुक़ाबले पर निकले तो उन्होंने दुआ की, “ऐ हमारे रब! हमपर सब्र की बारिश कर, हमारे क़दम जमा दे और इस कुफ़्र (अधर्म) करनेवाले (दुश्मन) गरोह पर कामयाबी दे।”
فَهَزَمُوهُم بِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَقَتَلَ دَاوُۥدُ جَالُوتَ وَءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَعَلَّمَهُۥ مِمَّا يَشَآءُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّفَسَدَتِ ٱلۡأَرۡضُ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 247
(251) आख़िरकार अल्लाह के हुक्म से उन्होंने काफ़िरों को मार भगाया और दाऊद273 ने जालूत को क़त्ल कर दिया और अल्लाह ने उसे सल्तनत और हिकमत से नवाज़ा और जिन-जिन चीज़ों का चाहा, उसको इल्म दिया। अगर इस तरह अल्लाह इनसानों के एक गरोह का दूसरे गरोह के ज़रिए से न हटाता रहता तो ज़मीन का निज़ाम बिगड़ जाता।274 लेकिन दुनिया के लोगों पर अल्लाह की बड़ी मेहरबानी है (कि वह इस तरह बिगाड़ को दूर करने का इन्तिज़ाम करता रहता है।)
273. दाऊद (अलैहि०) उस वक़्त एक कम उम्र के नौजवान थे। इत्तिफ़ाक़ से तालूत (शाऊल) की फ़ौज में ठीक उस वक़्त पहुँचे जबकि फ़लिश्तियों की फ़ौज का भारी-भरकम पहलवान जालूत (गोलियत) बनी-इसराईल की फ़ौज को मुक़ाबले के लिए ललकार रहा था और इसराईलियों में से किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि उसके मुक़ाबले को निकले। हज़रत दाऊद (अलैहि०) यह रंग देखकर बिना इन्तिज़ार किए उसके मुक़ाबले पर मैदान में जा पहुँचे और उसको क़त्ल कर दिया। इस वाक़िए ने उन्हें तमाम इसराईलियों की आँखों का तारा बना दिया। तालूत (शाऊल) ने अपनी बेटी उनसे ब्याह दी और आख़िरकार वही इसराईलियों के बादशाह हुए। (तफ़सील के लिए देखिए बाइबल, पुस्तक 1, शमूएल प्रथम, अध्याय 17 व 18)
274. यानी अल्लाह ने धरती का इन्तिज़ाम बनाए रखने के लिए यह क़ायदा बना रखा है कि वह इनसानों के अलग-अलग गरोहों को एक ख़ास हद तक तो ज़मीन में ग़लबा और ताक़त हासिल करने देता है, मगर जब कोई गरोह हद से बढ़ने लगता है तो किसी दूसरे गरोह के ज़रिए से उसका ज़ोर तोड़ देता है। अगर कहीं ऐसा होता कि एक क़ौम और एक पार्टी ही की हुकूमत ज़मीन में हमेशा बाक़ी रखी जाती और उसका क़हर (ज़ुल्म) और उसकी नाइनसाफ़ी कभी ख़त्म होनेवाली न होती, तो यक़ीनन अल्लाह की ज़मीन में एक बड़ी तबाही और फ़साद पैदा हो जाता।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۚ وَإِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 248
(252) ये अल्लाह की आयतें हैं जो हम ठीक-ठीक तुमको सुना रहे हैं, और (ऐ मुहम्मद!) तुम यक़ीनन उन लोगों में से हो जो रसूल बनाकर भेजे गए हैं।
۞تِلۡكَ ٱلرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۘ مِّنۡهُم مَّن كَلَّمَ ٱللَّهُۖ وَرَفَعَ بَعۡضَهُمۡ دَرَجَٰتٖۚ وَءَاتَيۡنَا عِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَأَيَّدۡنَٰهُ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِۗ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا ٱقۡتَتَلَ ٱلَّذِينَ مِنۢ بَعۡدِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُ وَلَٰكِنِ ٱخۡتَلَفُواْ فَمِنۡهُم مَّنۡ ءَامَنَ وَمِنۡهُم مَّن كَفَرَۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا ٱقۡتَتَلُواْ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ ۝ 249
(253) ये रसूल (जो हमारी तरफ़ से इनसानों को रास्ता दिखाने के लिए भेजे गए) हमने उनको एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर दरजे अता किए। उनमें कोई ऐसा था जिससे अल्लाह ने ख़ुद बातें कीं, किसी को उसने दूसरी हैसियतों से ऊँचे दरजे दिए, और आख़िर में मरयम के बेटे ईसा को रौशन निशानियाँ अता कीं और रूहे-पाक से उसकी मदद की। अगर अल्लाह चाहता तो मुमकिन न था कि इन रसूलों के बाद जो लोग रौशन निशानियाँ देख चुके थे, वे आपस में लड़ते। मगर (अल्लाह यह नहीं चाहता था कि वह लोगों को जबरन इख़्तिलाफ़ से रोके, इस वजह से) उन्होंने आपस में इख़्तिलाफ़ (मतभेद) किया। फिर कोई ईमान लाया और किसी ने कुफ़्र (अधर्म) का रास्ता अपनाया। हाँ, अल्लाह चाहता तो वे हरगिज़ न लड़ते, मगर अल्लाह जो चाहता, करता है।275
275. मतलब यह है कि रसूलों के ज़रिए से इल्म हासिल हो जाने के बाद जो इख़्तिलाफ़ लोगों के बीच पैदा हुए और इख़्तिलाफ़ों से बढ़कर लड़ाइयों तक जो नौबतें पहुँचीं, तो उसकी वजह यह नहीं थी कि (ख़ुदा की पनाह) अल्लाह बेबस था और उसके पास इन इख़्तिलाफ़ों और लड़ाइयों को रोकने की ताक़त न थी। नहीं, अगर वह चाहता तो किसी की मजाल न थी कि नबियों की दावत से मुँह मोड़ सकता और इनकार और बग़ावत के रास्ते पर चल सकता और उसकी ज़मीन में बिगाड़ पैदा कर सकता। मगर वह यह चाहता ही नहीं था कि इनसानों से इरादे और इख़्तियार की आज़ादी छीन ले और उन्हें एक ख़ास तरीक़े पर चलने को मजबूर कर दे। उसने इम्तिहान की ग़रज़ से उन्हें ज़मीन पर पैदा किया था, इसलिए उसने उनको अक़ीदे और अमल की राहों में चुनाव की आज़ादी दी और नबियों को लोगों पर कोतवाल बनाकर नहीं भेजा कि ज़बरदस्ती उन्हें ईमान व इताअत (आस्था और आज्ञापालन) की तरफ़ खींच लाएँ, बल्कि इसलिए भेजा कि दलीलों और खुली निशानियों के ज़रिए से लोगों को सच्चाई की तरफ़ बुलाने की कोशिश करें। अतः जितने ज़्यादा इख़्तिलाफ़ों और लड़ाइयों के हंगामे हुए, वे सब इस वजह से हुए कि अल्लाह ने लोगों को इरादे की जो आज़ादी अता की थी, उससे काम लेकर लोगों ने ये अलग-अलग राहें अपना लीं, न कि इस वजह से कि अल्लाह उनको सच्चाई पर चलाना चाहता था, मगर (अल्लाह की पनाह) उसे कामयाबी न हुई।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقۡنَٰكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا بَيۡعٞ فِيهِ وَلَا خُلَّةٞ وَلَا شَفَٰعَةٞۗ وَٱلۡكَٰفِرُونَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 250
(254) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जो कुछ माल-दौलत हमने तुमको दिया है, उसमें से ख़र्च करो276 इससे पहले कि वह दिन आए जिसमें न ख़रीद-फ़रोख़्त होगी, न दोस्ती काम आएगी और न सिफ़ारिश चलेगी और ज़ालिम अस्ल में वही हैं जो कुफ़्र (इनकार) की रविश अपनाते हैं।277
276. मुराद अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना है। कहा यह जा रहा है कि जिन लोगों ने ईमान का रास्ता अपनाया है, उन्हें उस मक़सद के लिए जिसपर वे ईमान लाए हैं, माली क़ुर्बानियाँ सहनी चाहिएँ।
277. यहाँ कुफ़्र (अधर्म) की रविश अपनानेवालों से मुराद या तो वे लोग हैं जो ख़ुदा के चलने से इनकार करें और अपने माल को उसकी ख़ुशनूदी से ज़्यादा अज़ीज़ (प्रिय) समझें, या वे लोग हैं जो उस दिन पर अक़ीदा न रखते हों जिसके आने का डर दिलाया गया है। या फिर वे लोग हैं जो इस धोखे में पड़े हों कि आख़िरत में उन्हें किसी-न-किसी तरह नजात ख़रीद लेने का और दोस्ती व सिफ़ारिश से काम निकाल ले जाने का मौक़ा हासिल हो जाएगा।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُۚ لَا تَأۡخُذُهُۥ سِنَةٞ وَلَا نَوۡمٞۚ لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ مَن ذَا ٱلَّذِي يَشۡفَعُ عِندَهُۥٓ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيۡءٖ مِّنۡ عِلۡمِهِۦٓ إِلَّا بِمَا شَآءَۚ وَسِعَ كُرۡسِيُّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۖ وَلَا يَـُٔودُهُۥ حِفۡظُهُمَاۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 251
(255) अल्लाह हमेशा ज़िन्दा रहनेवाली वह हस्ती, जो पूरी कायनात को संभाले है, उसके सिवा कोई ख़ुदा (ईश्वर) नहीं है।278 वह न सोता है और न उसे ऊँघ लगती है।279 ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है, उसी का है।280 कौन है जो उसके सामने उसकी इजाज़त के बिना सिफ़ारिश कर सके?281 जो कुछ बन्दों के सामने है, उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है, उसे भी वह जानता है और उसके इल्म में से कोई चीज़ उनके इल्म की पकड़ में नहीं आ सकती, यह और बात है कि किसी चीज़ का इल्म वह ख़ुद ही उनको देना चाहे।282 उसकी हुकूमत283 आसमानों और ज़मीन पर छाई हुई है और उसकी देखभाल उसके लिए कोई थका देनेवाला काम नहीं है। बस वही एक बुज़ुर्ग और बरतर हस्ती है।284
278. यानी नादान लोगों ने अपनी जगह चाहे कितने ही ख़ुदा और माबूद (उपास्य) बना रखे हों, लेकिन अस्ल बात यह है कि ख़ुदाई (प्रभुता) पूरी की पूरी, किसी दूसरे की साझेदारी के बिन कभी न मिटनेवाली हस्ती की है जो किसी की दी हुई ज़िन्दगी से नहीं, बल्कि आप अपनी ही हयात (जीवन) से ज़िंदा है और जिसके बलबूते ही पर कायनात का यह सारा इन्तिज़ाम क़ायम है। अपनी सल्तनत में ख़ुदाई के तमाम इख़्तियारों और हुक़ूक़ का मालिक वह ख़ुद ही है। कोई दूसरा न उसकी सिफ़ात में उसका साझी है, न उसके इख़्तियारों में और न उसके हक़ और आधिकारों में। इसलिए उसको छोड़कर या उसका साझी ठहराकर ज़मीन या आसमान में जहाँ भी किसी और को माबूद (ख़ुदा) बनाया जा रहा है, एक झूठ गढ़ा जा रहा है और सच्चाई और हक़ीक़त के ख़िलाफ़ जंग की जा रही है।
279. यह उन लोगों के ख़यालों (धारणाओं) का रद्द है जो सारे जहान के ख़ुदा की हस्ती को अपनी नामुकम्मल हस्तियों पर गुमान करते हैं और उसकी तरफ़ वे कमज़ोरिया जोड़ देते हैं जो इनसानों के साथ ख़ास हैं। जैसे बाइबल का यह बयान कि ख़ुदा ने छह दिन में ज़मीन व आसमान को पैदा किया और सातवें दिन आराम किया।
280. यानी वह ज़मीन व आसमान का और हर उस चीज़ का मालिक है जो ज़मीन व आसमान में है। उसकी मिलकियत में, उसकी तदबीर में और उसकी बादशाही और हुक्मरानी में किसी का बिलकुल भी कोई हिस्सा नहीं। इसके बाद कायनात (जगत्) में जिस दूसरी हस्ती के बारे में तुम सोच सकते हो, वह बहरहाल इस कायनात का एक हिस्सा ही होगी, और जो इस कायनात का हिस्सा है, वह अल्लाह की ममलूक (शासित) और ग़ुलाम है, न कि उसका साझी और बराबर।
281. यहाँ उन मुशरिकों (बहुदेववादियों) के ख़यालों का रद्द किया गया है जो बुज़ुर्ग इनसानों या फ़रिश्तों या दूसरी हस्तियों के बारे में यह गुमान रखते हैं कि ख़ुदा के यहाँ उनका बड़ा ज़ोर चलता है। जिस बात पर अड़ बैठें, वह मनवाकर छोड़ते हैं और जो काम चाहें, ख़ुदा से ले सकते हैं। उन्हें बताया जा रहा है कि ज़ोर चलाना तो दूर की बात, कोई बड़े-से-बड़ा पैग़म्बर और कोई क़रीबी-से-क़रीबी फ़रिश्ता भी, आसमानों और ज़मीन के उस बादशाह के दरबार में बिना इजाज़त के ज़बान तक खोलने की हिम्मत नहीं कर सकता।
282. इस हक़ीक़त के ज़ाहिर करने से शिर्क (बहुदेववाद) की बुनियादों पर एक और चोट लगती है। ऊपर के जुमलों में अल्लाह की ग़ैर-महदूद हाकिमियत (सम्प्रभुत्व) और उसके मुतलक़ इख़्तियारात (अबाध अधिकारों) का तसव्वुर पेश करके यह बताया गया था कि उसकी हुकूमत में न तो कोई साझीदार है और न किसी का उसके यहाँ ऐसा ज़ोर चलता है कि वह अपनी सिफ़ारिशों से उसके फ़ैसलों पर असर डाल सके। अब एक दूसरी हैसियत से यह बताया जा रहा है कि कोई दूसरा उसके काम में दख़ल दे भी कैसे सकता है, जबकि किसी दूसरे के पास वह इल्म (ज्ञान) ही नहीं है, जिससे वह कायनात के निज़ाम और उसकी मस्लहतों को समझ सकता हो। इनसान हों या जिन्न या फ़रिश्ते या दूसरी मख़लूक़ (सृष्टि), सबका इल्म अधूरा और महदूद है। किसी की नज़र भी ऐसी नहीं, जो कायनात की तमाम हक़ीक़तों को देख रही हो। फिर अगर किसी छोटे-से-छोटे हिस्से में भी किसी बन्दे की आज़ादाना दख़ल-अन्दाज़ी या अटल सिफ़ारिश चल सके तो कायनात का सारा इन्तिज़ाम छिन्न-भिन्न हो जाए। दुनिया का इन्तिज़ाम तो दूर रहा, बन्दे तो ख़ुद अपनी मस्लहतों (भले-बुरे) को भी समझने के क़ाबिल नहीं हैं। उनकी ज़रूरतों को भी कायनात का पालनहार ख़ुदा ही जानता है। लिहाज़ा उनके लिए इसके सिवा कोई रास्ता नहीं कि उस ख़ुदा की हिदायत और रहनुमाई पर भरोसा करें जो इल्म का असली सरचश्मा है।
283. अस्ल अरबी लफ़्ज़ 'कुर्सी' इस्तेमाल हुआ है, जिसे आम तौर से हुकूमत के लिए मिसाल के तौर पर बोला जाता है। उर्दू और हिन्दी ज़बानों में भी अक्सर कुर्सी का लफ़्ज़ बोलकर हाकिमाना इख़्तियार (शासनाधिकार) मुराद लेते हैं।
284. यह आयत 'आयतुल-कुर्सी' के नाम से मशहूर है और इसमें अल्लाह की ऐसी मुकम्मल मारिफ़त (ख़ास पहचान) बख़्शी गई है जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। इसी वजह से हदीस में इसको क़ुरआन की सबसे अफ़ज़ल (सर्वश्रेष्ठ) आयत बताया गया है। इस जगह पर यह सवाल पैदा होता है कि यहाँ कायनात के पालनहार की ज़ातो-सिफ़ात (गुणों) का ज़िक्र किस मुनासबत (ताल्लुक़) के हुआ है? इसको समझने के लिए एक बार फिर उस तक़रीर पर निगाह डाल लीजिए। जो आयत 243 से चली आ रही है। पहले मुसलमानों को सच्चे दीन को क़ायम करने के रास्ते में जान व माल से जिद्दो-जुद करने पर उभारा गया है और उन कमज़ोरियों से बचने की ताकीद की गई है, जिनमें बनी-इसराईल पड़ गए थे। फिर यह हक़ीक़त समझाई गई है कि फ़तह और क़ामयाबी का दारोमदार तादाद और साज़ो-सामान पर नहीं होता, बल्कि ईमान, सब्र बरदाश्त और इरादे की पुख़्तगी पर है। फिर लड़ाई के साथ अल्लाह की जो हिकमत जुड़ी हुई, उसकी तरफ़ इशारा किया गया है, यानी यह दुनिया का इन्तिज़ाम बाक़ी रखने के लिए हमेशा इनसानों के एक गरोह को दूसरे गरोह के ज़रिए से हटाता रहता है, वरना अगर एक ही गरोह को ग़लबा और हुकूमत का हमेशा का पट्टा मिल जाता, तो दूसरों के लिए जीना दुश्वार हो जाता। फिर इस शक को दूर किया गया है जो न जाननेवाले लोगों के दिलों में अकसर खटकता है कि अगर अल्लाह ने अपने पैग़म्बर इख़्तिलाफ़ों (मतभेदों) को मिटाने और झगड़ों का दरवाज़ा बन्द करने के लिए ही भेजे थे और उनके आने के बाद भी न वे इख़्तिलाफ़ मिटे, न झगड़े ख़त्म हुए, तो क्या अल्लाह ऐसा ही बेबस था कि उसने इन ख़राबियों को दूर करना चाहा और न कर सका। इसका जवाब बता दिया गया कि इख़्तिलाफ़ों को ताक़त से रोक देना और इनसान को एक ख़ास रास्ते पर ज़बरदस्ती चलाना अल्लाह चाहता ही नहीं था, वरना इनसान की क्या मजाल थी कि उसके चाहने के ख़िलाफ़ चलता। फिर एक जुमले में उस अस्ल मज़मून (विषय) की तरफ़ इशारा कर दिया गया जिससे तक़रीर (वार्ता) की शुरुआत हुई थी। इसके बाद अब यह कहा जा रहा है कि इनसानों के अक़ीदे, नज़रिए, मसलक और मज़हब चाहे कितने ही अलग-अलग हों, बहरहाल सच्चाई, जिसपर ज़मीन व आसमान का निज़ाम क़ायम है, यह है जो इस आयत में बयान की गई है। इनसानों की ग़लतफ़हमियों से इस हक़ीक़त में ज़र्रा बराबर कोई फ़र्क़ नहीं आता, मगर अल्लाह यह नहीं चाहता कि उसके मानने पर ज़बरदस्ती लोगों को मजबूर किया जाए। जो उसे मान लेगा, वह ख़ुद ही फ़ायदे में रहेगा और जो उससे मुँह मोड़ेगा, वह आप अपना नुक़सान उठाएगा।
لَآ إِكۡرَاهَ فِي ٱلدِّينِۖ قَد تَّبَيَّنَ ٱلرُّشۡدُ مِنَ ٱلۡغَيِّۚ فَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلطَّٰغُوتِ وَيُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱسۡتَمۡسَكَ بِٱلۡعُرۡوَةِ ٱلۡوُثۡقَىٰ لَا ٱنفِصَامَ لَهَاۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 252
(256) दीन के मामले में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है।285 सही बात ग़लत ख़यालात से अलग छाँटकर रख दी गई है। अब जो कोई ताग़ूत286 का इनकार करके अल्लाह पर ईमान ले आया, उसने एक ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटनेवाला नहीं और अल्लाह (जिसका सहारा उसने लिया है) सब कुछ सुननेवाला और जाननेवाला है।
285. यहाँ 'दीन' से मुराद अल्लाह के बारे में वह अक़ीदा है जो ऊपर आयतुल-कुर्सी में बयान हुआ है और वह ज़िन्दगी का पूरा निज़ाम है, जो इस अक़ीदे (अवधारणा) पर बनता है। आयत का मतलब यह है कि अक़ीदा, अख़लाक़ और अमल के बारे में इस्लाम का यह निज़ाम किसी पर ज़बरदस्ती नहीं ठूँसा जा सकता। यह ऐसी चीज़ ही नहीं है जो किसी के सर ज़बरदस्ती मढ़ी जा सके।
286. 'ताग़ूत' लुग़त (शब्दकोश) के लिहाज़ से हर उस शख़्स को कहा जाएगा, जो अपनी जाइज़ हद से आगे निकल गया हो। क़ुरआन की ज़बान में ताग़ूत से मुराद वह बन्दा है, जो बन्दगी की हद से आगे निकलकर ख़ुद मालिक और ख़ुदा होने का दम भरे और ख़ुदा के बन्दों से अपनी बन्दगी कराए। ख़ुदा के मुक़ाबले में एक बन्दे की सरकशी के तीन दरजे हैं— पहला दरजा यह है कि उसूली तौर पर कोई बन्दा ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी ही को हक़ माने, मगर अमली तौर पर उसके हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करे। इसका नाम “फ़िस्क़” (नाफ़रमानी) है। दूसरा दरजा यह है कि वह उसकी फ़रमाँबरदारी से उसूली तौर पर मुँह फेरकर या तो ख़ुदमुख़्तार बन जाए या उसके सिवा किसी और की बन्दगी करने लगे। यह कुफ़्र है। तीसरा दरजा यह है कि वह मालिक से बाग़ी होकर उसके मुल्क और उसकी रैयत में ख़ुद अपना हुक्म चलाने लगे। इस आख़िरी दर्ज पर जो बन्दा पहुँच जाए, उसी का नाम ताग़ूत है और कोई आदमी सही मानों में अल्लाह की माननेवाला नहीं हो सकता जब तक कि वह उस ताग़ूत का इनकारी न हो।
ٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ يُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَوۡلِيَآؤُهُمُ ٱلطَّٰغُوتُ يُخۡرِجُونَهُم مِّنَ ٱلنُّورِ إِلَى ٱلظُّلُمَٰتِۗ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 253
(257) जो लोग ईमान लाते हैं, उनका हिमायती और मददगार अल्लाह है और वह उनको अंधेरों से रौशनी में निकाल लाता है।287 और जो लोग कुफ़्र का रास्ता अपनाते हैं, उनके हिमायती और मददगार ताग़ूत (बढ़े हुए फ़सादी)288 हैं, और वे उन्हें रौशनी से अंधेरों की तरफ़ खींच ले जाते हैं। ये आग में जानेवाले लोग हैं, जहाँ ये हमेशा रहेंगे।
287. अंधेरों से मुराद जाहिलियत के अंधेरे हैं, जिनमें भटककर इनसान अपनी कामयाबी और भलाई की राह से दूर निकल जाता है और हक़ीक़त के ख़िलाफ़ चलकर अपनी तमाम ताक़तो और कोशिशों को ग़लत रास्तों में लगाने लगता है। और नूर से मुराद हक़ का इल्म (सत्य-ज्ञान) है जिसकी रौशनी में इनसान अपनी और कायनात (जगत्) की हक़ीक़त और अपनी ज़िन्दगी के मक़सद को साफ़-साफ़ देखकर सूझ-बूझ की बुनियाद पर एक सही रास्ते पर चल पड़ता है।
288. 'ताग़ूत' यहाँ ‘तवाग़ीत' के मानी में इस्तेमाल किया गया है, (तवाग़ीत लफ़्ज़ ताग़ूत की जमा यानी बहुवचन) है) यानी ख़ुदा से मुँह मोड़कर इनसान एक ही ताग़ूत के चंगुल में नहीं फँसता, बल्कि बहुत-से ताग़ूत उसपर हावी हो जाते हैं। एक ताग़ूत शैतान है जो उसके सामने नित नई झूठी दिल को लुभानेवाली बातों का सदाबहार सब्ज़बाग़ पेश करता है। दूसरा ताग़ूत आदमी का अपना मन है जो उसे जज़्बो और ख़ाहिशों का ग़ुलाम बनाकर ज़िन्दगी के टेढ़े-सीधे रास्तों में खींचे-खींचे लिए फिरता है। और अनगिनत ताग़ूत बाहर की दुनिया में फैले हुए हैं। बीवी-बच्चे, रिश्ते-नातेदार, बिरादरी, ख़ानदान, दोस्त और आशना (पहचान के लोग), समाज और क़ौम, लीडर और रहनुमा, हुकूमत और हाकिम, ये सब उसके लिए ताग़ूत ही ताग़ूत होते हैं, जिनमें हर एक उससे अपने मक़सद की बन्दगी कराता है, और अनगिनत मालिकों का यह ग़ुलाम सारी उम्र इसी चक्कर में फँसा रहता है कि किस मालिक को ख़ुश करे और किसकी नाराज़ी से बचे।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِي حَآجَّ إِبۡرَٰهِـۧمَ فِي رَبِّهِۦٓ أَنۡ ءَاتَىٰهُ ٱللَّهُ ٱلۡمُلۡكَ إِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّيَ ٱلَّذِي يُحۡيِۦ وَيُمِيتُ قَالَ أَنَا۠ أُحۡيِۦ وَأُمِيتُۖ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَأۡتِي بِٱلشَّمۡسِ مِنَ ٱلۡمَشۡرِقِ فَأۡتِ بِهَا مِنَ ٱلۡمَغۡرِبِ فَبُهِتَ ٱلَّذِي كَفَرَۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 254
(258) क्या289 तुमने उस आदमी के हाल पर ग़ौर नहीं किया जिसने इबराहीम से झगड़ा किया था?290 झगड़ा इस बात पर कि इबराहीम का रब कौन है, और इस वजह से कि उस आदमी को अल्लाह ने हुकूमत दे रखी थी।291 जब इबराहीम ने कहा कि “मेरा रब वह है जिसके इख़्तियार में ज़िन्दगी और मौत है।” तो उसने जवाब दिया, “ज़िन्दगी और मौत मेरे इख़्तियार में है।” इबराहीम ने कहा, “अच्छा, अल्लाह सूरज को पूरब से निकालता है, तू ज़रा उसे पश्चिम से निकाल ला।” यह सुनकर वह हक़ का दुश्मन हक्का- बक्का रह गया,292 मगर अल्लाह ज़ालिमों को सीधा रास्ता नहीं दिखाया करता।
289. ऊपर दावा किया गया था कि ईमानवाले का हिमायती और मददगार अल्लाह होता है और वह उसे अंधेरों से रौशनी में निकाल लाता है, और कुफ़्र (सत्य का इनकार) करनेवालों के मददगार 'ताग़ूत' होते हैं और वे उसे रौशनी से अंधेरों की तरफ़ खींच ले जाते हैं। अब इसी को वाज़ेह करने के लिए तीन वाक़िआत मिसाल के तौर पर पेश किए जा रहे हैं। उनमें से पहली मिसाल एक ऐसे आदमी की है, जिसके सामने वाज़ेह दलीलों के साथ हक़ीक़त पेश की गई और वह उसके सामने लाजवाब भी हो गया। मगर चूँकि उसने ताग़ूत के हाथ में अपनी नकेल दे रखी थी, इसलिए हक़ वाज़ेह होने के बाद भी वह रौशनी में न आया और अंधेरों ही में भटकता रह गया। बाद की दो मिसालें दो ऐसे आदमियों की हैं, जिन्होंने अल्लाह का सहारा पकड़ा था, तो अल्लाह उनको अंधेरों से इस तरह रौशनी में निकाल लाया कि ग़ैब (परोक्ष) के परदे में छिपी हुई हक़ीक़तों तक को उनकी आँखों से दिखा दिया।
290. उस शख़्स से मुराद नमरूद है, जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के देश (इराक़) का बादशाह था। जिस वाक़िए का यहाँ ज़िक्र किया जा रहा है उसकी तरफ़ कोई इशारा बाइबल में नहीं है, मगर तलमूद में यह पूरा वाक़िआ मौजूद है और बड़ी हद तक क़ुरआन के मुताबिक़ है। इसमें बताया गया है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का बाप नमरुद के यहाँ सल्तनत के सबसे बड़े ओहदेदार (Cheif officer of the State) के मंसब पर था। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब खुल्लम-खुल्ला शिर्क (बहुदेववाद) की मुख़ालफ़त और तौहीद की तबलीग़ शुरू की और बुतख़ाने में घुसकर बुतों को तोड़ डाला, तो उनके बाप ने ख़ुद उनका मुक़द्दमा बादशाह के दरबार में पेश किया और फिर वह बातचीत हुई, जो यहाँ बयान की गई है।
291. यानी इस झगड़ने में जो बात निज़ाअ (विवाद) की थी, वह यह थी कि इबराहीम (अलैहि०) अपना रब किसको मानते हैं? और यह झगड़ा इस वजह से पैदा हुआ था कि इस झगड़नेवाले शख़्स यानी नमरूद को ख़ुदा ने हुकूमत दे रखी थी। झगड़ा किस तरह का था इन दो जुमलों में उसकी तरफ़ जो इशारा किया गया है, उसके समझने के लिए नीचे लिखी हक़ीकतों पर निगाह रहनी जरूरी है— (1) पुराने से पुराने ज़माने से लेकर आज तक तमाम मुशरिक (बहुदेववादी) सोसाइटियों की यह आम ख़ुसूसियत रही है कि वे अल्लाह (ईश्वर) को तमाम पालनहारों का पालनहार और ख़ुदाओं का ख़ुदा की हैसयित से तो मानते हैं, मगर सिर्फ़ उसी को रब और अकेला उसी को ख़ुदा और माबूद नहीं मानते। (2) ख़ुदाई को मुशरिकों (बहुदेववादियों) ने हमेशा दो हिस्सों में बाँटा है, एक क़ुदरत से परे (Super Natural) ख़ुदाई जो सिलसिलए-असबाब (कार्य-कारण) पर हुक्मराँ है और जिसकी तरफ़ इनसान अपनी ज़रूरतों और मुश्किलों में मदद के लिए रुजू करता है। इस ख़ुदाई में वे अल्लाह के साथ रूहों, फ़रिश्तों, जिन्नों, सैयारों, और दूसरी बहुत-सी हस्तियों को साझी ठहराते हैं। उनसे दुआएँ माँगते हैं, उनके सामने इबादत की तमाम रस्में अदा करते हैं और उनके थानों (आस्तानों) पर चढ़ावे चढ़ाते हैं। दूसरे सामाजिक और सियासी मामलों की ख़ुदाई (हाकिमियत) जो ज़िन्दगी के क़ानून मुक़र्रर करने का इख़्तियार रखती हो और फ़रमाँबरदारी की हक़दार हो और जिसे दुनिया के मामलों में हुकूमत करने के तमाम इख़्तियार हासिल हों। इस दूसरी क़िस्म की ख़ुदाई को दुनिया के तमाम मुशरिकों ने क़रीब-क़रीब हर ज़माने में अल्लाह तआला से छीनकर के या उसके साथ शाही ख़ानदानों और मज़हबी पुरोहितों और समाज के अगले-पिछले बड़ों में बाँट दिया है। अकसर शाही ख़ानदान (राजघराने) इसी दूसरे मानी में ख़ुदाई के दावेदार हुए हैं और इसे मज़बूत करने के लिए उन्होंने आम तौर से पहले मानी वाले ख़ुदाओं की औलाद होने का दावा किया है और मज़हबी तबक़े इस मामले में उनके साथ साज़िश में शरीक रहे हैं। (3) नमरूद का ख़ुदाई का दावा भी इसी दूसरी क़िस्म का था। वह अल्लाह के वुजूद का इनकारी न था। उसका दावा यह नहीं था कि ज़मीन और आसमान का पैदा करनेवाला और कायनात का निज़ाम संभालनेवाला वह ख़ुद है। उसका कहना यह नहीं था कि दुनिया के असबाब के पूरे सिलसिलों पर उसी की हुकूमत चल रही है, बल्कि उसे दावा इस बात का था कि इस इराक़ देश का और इसके रहनेवालों का अकेला सभी इख़्तियार रखनेवाला हाकिम मैं हूँ। मेरी ज़बान क़ानून है। मेरे ऊपर कोई ऊँची हस्ती नहीं है, जिसके सामने में जवाबदेह हूँ। और इराक़ का हर वह बाशिन्दा बाग़ी और ग़द्दार है जो इस हैसियत से मुझे अपना रब न माने या मेरे सिवा किसी और को रब माने। (4) इबराहीम (अलैहि०) ने जब कहा कि मैं कायनात के सिर्फ़ एक पालनहार ही को ख़ुदा, माबूद और रब मानता हूँ और उसके सिवा न तो किसी को ख़ुदा मानता हूँ और न ही किसी को रब तस्लीम करता हूँ, तो सवाल सिर्फ़ यही पैदा नहीं हुआ कि क़ौमी मज़हब और मज़हबी माबूदों के बारे में उनका यह नया अक़ीदा कहाँ तक सहन करने लायक़ है, बल्कि यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि क़ौमी हुकूमत और उसके मर्कज़ी इक़तिदार (केन्द्रीय सत्ता) पर इस अक़ीदे की जो चोट पड़ती है उसे कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। यही वजह है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) बग़ावत के जुर्म में नमरूद के सामने पेश किए गए।
292. हालाँकि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पहले जुमले ही से यह बात वाज़ेह हो चुकी थी कि रब अल्लाह के सिवा कोई दूसरा नहीं हो सकता, फिर भी नमरूद इसका जवाब ढिठाई से दे गया। लेकिन दूसरे जुमले के बाद उसके लिए कुछ और ढिठाई से कुछ कहना मुश्किल हो गया। वह ख़ुद भी जानता था कि सूरज और चाँद उसी ख़ुदा के फ़रमान के तहत हैं जिसको इबराहीम ने रब माना है, फिर वह कहता तो आख़िर क्या कहता? मगर इस तरह जो हक़ीक़त उसके सामने बेनक़ाब हो रही थी उसको मान लेने का मतलब अपनी बेलगाम फ़रमारवाई (हुकूमत) से दस्तबरदार हो जाना था, जिसके लिए उसके मन का ताग़ूत तैयार न था। इसी लिए वह सिर्फ़ हक्का-बक्का होकर ही रह गया। ख़ुदपरस्ती (आत्म-पूजा) के अंधेरों से निकलकर हक़परस्ती की रौशनी में न आया। अगर इस ताग़ूत के बजाय उसने ख़ुदा को अपना सरपरस्त और मददगार बनाया होता तो उसके लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की इस तबलीग़ (प्रचार) के बाद सीधा रास्ता खुल जाता। तलमूद का बयान है कि इसके बाद उस बादशाह के हुक्म से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) क़ैद कर दिए गए। दस दिन तक वे जेल में रहे, फिर बादशाह की कॉसिल ने उनको जिन्दा जलाने का फ़ैसला किया और उनके आग में फेंके जाने का वह वाकिआ पेश आया, जो क़ुरआन 21:51 ; 29:16 ; 37:83 में बयान हुआ है।
أَوۡ كَٱلَّذِي مَرَّ عَلَىٰ قَرۡيَةٖ وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا قَالَ أَنَّىٰ يُحۡيِۦ هَٰذِهِ ٱللَّهُ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۖ فَأَمَاتَهُ ٱللَّهُ مِاْئَةَ عَامٖ ثُمَّ بَعَثَهُۥۖ قَالَ كَمۡ لَبِثۡتَۖ قَالَ لَبِثۡتُ يَوۡمًا أَوۡ بَعۡضَ يَوۡمٖۖ قَالَ بَل لَّبِثۡتَ مِاْئَةَ عَامٖ فَٱنظُرۡ إِلَىٰ طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمۡ يَتَسَنَّهۡۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰ حِمَارِكَ وَلِنَجۡعَلَكَ ءَايَةٗ لِّلنَّاسِۖ وَٱنظُرۡ إِلَى ٱلۡعِظَامِ كَيۡفَ نُنشِزُهَا ثُمَّ نَكۡسُوهَا لَحۡمٗاۚ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُۥ قَالَ أَعۡلَمُ أَنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 255
(259) या फिर मिसाल के तौर पर उस आदमी को देखो जिसका गुज़र एक ऐसी बस्ती पर हुआ जो अपनी छतों पर औंधी गिरी पड़ी थी।293 उसने कहा, “ यह आबादी जो तबाह हो चुकी है, इसे अल्लाह किस तरह दोबारा ज़िन्दगी देगा?''294 इसपर अल्लाह ने उसकी जान निकाल ली और वह सौ साल तक मुर्दा पड़ा रहा। फिर अल्लाह ने उसे दोबारा ज़िन्दगी दी और उससे पूछा, “बताओ, कितनी मुद्दत तक पड़े रहे हो?” उसने कहा, “एक दिन या कुछ घंटे रहा हूँगा।” कहा, “तुमपर सौ साल इसी हालत में बीत चुके हैं। अब ज़रा अपने खाने और पानी को देखो कि इसमें ज़रा भी तबदीली नहीं आई है। दूसरी तरफ़ ज़रा अपने गधे को भी देखो (कि इसका पंजर तक जर्जर हो रहा है)। और यह हमने इसलिए किया है कि हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी बना देना चाहते हैं।295 फिर देखो कि हड्डियों के इस पंजर को हम किस तरह उठाकर गोश्त और खाल उस पर चढ़ाते है।” इस तरह जब हक़ीक़त उसके सामने बिलकुल वाज़ेह हो गई तो उसने कहा, “मैं जानता हूँ कि अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।”
293. यह एक ग़ैर-ज़रूरी बहस है कि वह शख़्स कौन था और वह बस्ती कौन-सी थी। अस्ल मुद्दा जिसके लिए यहाँ इसका ज़िक्र किया गया है सिर्फ़ यह बताना है कि जिसने अल्लाह को अपना सरपरस्त बनाया था, उसे अल्लाह ने किस तरह रौशनी अता की। आदमी और जगह दोनों के तअय्युन (निश्चित) कर लेने का न हमारे पास कोई ज़रिआ है, न इसका कोई फ़ायदा। अलबत्ता बाद के बयान से ज़ाहिर होता है कि जिसके बारे में यह बात हो रही है, वह ज़रूर कोई नबी होंगे।
294. इस सवाल के यह मानी नहीं हैं कि वे बुज़ुर्ग मरने के बाद की ज़िन्दगी के इनकारी थे या उन्हें इसमें शक था, बल्कि हक़ीक़त में वे सच्चाई को आँखों से देखना चाहते थे, जैसा कि नबियों को दिखाया जाता रहा है।
295. एक ऐसे आदमी का ज़िंदा पलटकर आना, जिसे दुनिया सौ साल पहले मुर्दा समझ चुकी थी, ख़ुद उसको अपने वक़्त के लोगों में एक जीती-जागती निशानी बना देने के लिए काफ़ी था।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِـۧمُ رَبِّ أَرِنِي كَيۡفَ تُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ قَالَ أَوَلَمۡ تُؤۡمِنۖ قَالَ بَلَىٰ وَلَٰكِن لِّيَطۡمَئِنَّ قَلۡبِيۖ قَالَ فَخُذۡ أَرۡبَعَةٗ مِّنَ ٱلطَّيۡرِ فَصُرۡهُنَّ إِلَيۡكَ ثُمَّ ٱجۡعَلۡ عَلَىٰ كُلِّ جَبَلٖ مِّنۡهُنَّ جُزۡءٗا ثُمَّ ٱدۡعُهُنَّ يَأۡتِينَكَ سَعۡيٗاۚ وَٱعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 256
(260) और वह वाक़िआ सामने रहे, जब इबराहीम ने कहा था कि “मेरे मालिक! मुझे दिखा दे, तू मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करता है?” कहा, “क्या तू ईमान नहीं खता?” उसने अर्ज़ किया, “ईमान तो रखता हूँ, मगर दिल का इतमीनान चाहता हूँ।"296 कहा, “अच्छा, तो चार परिन्दे ले और उनको अपने से हिला-मिला ले। फिर उनका एक-एक हिस्सा एक-एक पहाड़ पर रख दे, फिर उनको पुकार, वे तेरे पास दौड़े चले आएँगे। ख़ूब जान ले कि अल्लाह बड़े इक़तिदारवाला और हिकमतवाला है।"297
296. यानी वह इतमीनान जो आँखों के देखने से हासिल होता है।
297. इस वाक़िए और ऊपर के वाक़िए के कुछ लोगों ने अजीब-अजीब मानी बताए हैं, लेकिन नबियों के साथ अल्लाह का जो मामला है उसे अगर अच्छी तरह दिल व दिमाग़ में बिठा लिया जाए तो किसी खींच-तान की ज़रूरत पेश नहीं आ सकती। आम ईमानवालों को इस ज़िन्दगी में जो ख़िदमत अंजाम देनी है, उसके लिए तो सिर्फ़ ग़ैब (परोक्ष) पर ईमान (बे-देखे मानना) काफ़ी है। लेकिन नबियों को जो ख़िदमत अल्लाह ने सिपुर्द की थी, उसके लिए ज़रूरी था कि वे अपनी आँखों से उन हक़ीक़तों को देख लेते जिनपर ईमान लाने की दावत उन्हें दुनिया को देनी थी। उनको दुनिया से पूरे ज़ोर के साथ यह कहना था कि तुम लोग तो अटकलें दौड़ाते हो, मगर हम आँखों देखी बात कह रहे हैं। तुम्हारे पास गुमान है और हमारे पास इल्म है, तुम अंधे हो और हम देखने की क़ुव्वत रखते हैं। इसीलिए नबियों के सामने फ़रिश्ते खुले तौर पर आए हैं, उनको आसमान व ज़मीन की हुकूमत के निज़ाम (शासन-व्यवस्था) का मुशाहदा (अवलोकन) कराया गया है, उनको जन्नत और दोज़ख आँखों से दिखाई गई है और मरने के बाद उठाए जाने का मंज़र उनके सामने ज़ाहिर करके दिखाया गया है। ग़ैब पर ईमान लाने की इस मंज़िल से ये लोग नबी बनाए जाने से पहले गुज़र चुके होते हैं। नबी होने के बाद उनको आँखों देखी गवाही पर ईमान की नेमत दी जाती है और यह नेमत उन्हीं के साथ ख़ास है। (ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए सूरा 11 का हाशिया 17, 18, 19, 34)
مَّثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ أَنۢبَتَتۡ سَبۡعَ سَنَابِلَ فِي كُلِّ سُنۢبُلَةٖ مِّاْئَةُ حَبَّةٖۗ وَٱللَّهُ يُضَٰعِفُ لِمَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 257
(261) जो लोग298 अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते है299, उनके ख़र्च की मिसाल ऐसी है जैसे एक दाना बोया जाए और उससे सात बालें निकलें और हर बाल में सौ दाने हों। इसी तरह अल्लाह जिसके अमल (कर्म) को चाहता है, बढ़ोतरी देता है। वह बड़ा खुले हाथवाला भी है और सब कुछ जाननेवाला भी।300
298. अब फिर बातचीत का सिलसिला उसी मज़मून की तरफ़ पलटता है, जो आयत 244 में छेड़ा गया था। उस तक़रीर (व्याख्यान) की शुरुआत में ईमानवालों को दावत दी गई थी कि जिस बड़े मक़सद पर तुम ईमाम लाए हो, उसके लिए जान व माल की क़ुर्बानियाँ सहन करो, मगर कोई गरोह, जब तक उसका माल से मुताल्लिक़ नज़रिया (आर्थिक दृष्टिकोण), बिलकुल ही न बदल जाए, इस बात पर तैयार नहीं किया जा सकता कि वह अपने ख़ुद के या क़ौम के फ़ायदों से ऊपर उठकर सिर्फ़ एक आला दरजे के अख़लाक़ी मक़सद की ख़ातिर अपना माल बेझिझक ख़र्च करने लगे। माद्दापरस्त (भौतिकवादी) लोग, जो पैसा कमाने के लिए जीते हों और पैसे-पैसे पर जान देते हों और जिनकी निगाह हर वक़्त नफ़ा और नुक़सान के तराज़ू ही पर जमी रहती हो, कभी इस क़ाबिल नहीं हो सकते कि बड़े मक़सद के लिए कुछ कर सकें। वे ज़ाहिर में अख़लाक़ी मक़सद के लिए कुछ ख़र्च करते भी हैं तो पहले अपनी ज़ात या अपनी बिरादरी या अपनी क़ौम के माली फ़ायदों का हिसाब लगा लेते हैं। इस सोच या ज़ेहनियत के साथ उस दीन की राह पर इनसान एक क़दम भी नहीं चल सकता, जिसका मुतालबा यह है कि दुनियवी फ़ायदे और नुक़सान से बेपरवाह होकर सिर्फ़ अल्लाह का कलिमा (बोल) बुलंद करने के लिए अपना वक़्त, अपनी ताक़त और अपनी कमाइयाँ ख़र्च करो। ऐसे रास्ते पर चलने के लिए तो दूसरी ही क़िस्म की अख़लाक़ी ख़ूबियों की ज़रूरत है। इसके लिए नज़र की वुसअत (व्यापकता), हौसले की बुलन्दी, दिल की कुशादगी और सबसे बढ़कर ख़ालिस ख़ुदा को पाने की ज़रूरत है और समाजी ज़िन्दगी के निज़ाम में ऐसे बदलाव की ज़रूरत है कि लोगों के अन्दर दुनिया-परस्ती की सिफ़तों (गुणों) के बजाय ये अख़लाक़ी ख़ूबियाँ पले-बढ़ें। चुनाँचे यहाँ से लगातार तीन रुकूओं (आयत 261 से 281) तक इसी सोच को पैदा करने के लिए हिदायतें दी गई हैं।
299. माल का ख़र्च चाहे अपनी जरूरतों के पूरा करने में हो या अपने बाल-बच्चों का पेट पालने में या अपने रिश्ते-नातेदारों की ख़बरगीरी में या दीन-दुखियों की मदद में या आम लोगों की भलाई के कामों में या दीन को फैलाने और अथक मेहनत के ज़रिए से मक़सद को हासिल करने में, बहरहाल अगर वह अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़ हो और ख़ालिस तौर पर ख़ुदा की ख़ुशनूदी के लिए हो तो इसकी गिनती अल्लाह के रास्ते में होगी।
300. यानी जितने ख़ुलूस और जितने गहरे ज़ज़्बे के साथ इनसान अल्लाह की राह में माल ख़र्च करेगा, उतना ही अल्लाह की तरफ़ से उसका बदला ज़्यादा होगा। जो ख़ुदा एक दाने में इतनी बरकत देता है कि उससे सात सौ दाने उग सकते हैं, उसके लिए कुछ मुश्किल नहीं कि तुम्हारी ख़ैरात को भी बढ़ाए और इसी तरह ख़ुदा एक रुपये के ख़र्च को इतना बढ़ा दे कि उसका बदला सात सौ गुना होकर तुम्हारी तरफ़ पलटे। इस हक़ीक़त को बयान करने के बाद अल्लाह की दो सिफ़तें बयान की गई हैं– एक यह कि वह खुले हाथ का है, उसका हाथ तंग नहीं है कि तुम्हारा अमल हक़ीक़त में जितनी तरक़्क़ी और जितने बदले का हक़दार हो, वह न दे सके। दूसरे यह कि वह ख़बर रखता है, वह बेख़बर नहीं है कि जो कुछ तुम ख़र्च करते हो और जिस ज़ज़्बे से करते हो, उससे वह अनजान रह जाए और तुम्हारा बदला मारा जाए।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ لَا يُتۡبِعُونَ مَآ أَنفَقُواْ مَنّٗا وَلَآ أَذٗى لَّهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 258
(262) जो लोग अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं और ख़र्च करके फिर एहसान नहीं जताते, न दुख देते हैं, उनका बदला उनके रब के पास है, और उनके लिए किसी रंज और ख़ौफ़ का मौक़ा नहीं।301
301. यानी न तो उनके लिए इस बात का कोई ख़तरा है कि उनका बदला बरबाद हो जाएगा और यह नौबत आएगी कि उसे अपने इस ख़र्च पर पछतावा हो।
۞قَوۡلٞ مَّعۡرُوفٞ وَمَغۡفِرَةٌ خَيۡرٞ مِّن صَدَقَةٖ يَتۡبَعُهَآ أَذٗىۗ وَٱللَّهُ غَنِيٌّ حَلِيمٞ ۝ 259
(263) एक मीठा बोल और किसी नागवार बात पर ज़रा-सी आँख बचा जाना उस ख़ैरात से बेहतर है जिसके पीछे दुख हो। अल्लाह बेनियाज़ (निस्पृह) है और बुर्दबारी (सहन करना) उसकी सिफ़त है।302
302. इस एक जुमले में दो बातें कही गई हैं। एक यह कि अल्लाह तुम्हारी ख़ैरात का ज़रूरतमन्द नहीं है। दूसरे यह कि अल्लाह तआला चूँकि ख़ुद सहन करनेवाला है, इसलिए उसे पसन्द भी वही लोग हैं जो छिछोरे और तंगदिल न हों, बल्कि ऊँचे हौसलेवाले और सहन करनेवाले हों। जो ख़ुदा तुम पर ज़िन्दगी के वसाइल (संसाधनों) की बेहिसाब बारिश कर रहा है और तुम्हारी ग़लतियों के बावजूद तुम्हें बार-बार माफ़ करता है वह ऐसे लोगों को कैसे पसन्द कर सकता है जो किसी ग़रीब को एक रोटी खिला दें तो एहसान जता-जता कर उसके इज़्ज़ते-नफ़्स (आत्म सम्मान) को मिट्टी में मिला दें। इसी लिए हदीस में आता है कि अल्लाह तआला उस शख़्स से क़ियामत के दिन न बोलेगा और न उसपर मेहरबानी की नज़र डालेगा, जो अपने दिए पर एहसान जताता हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُبۡطِلُواْ صَدَقَٰتِكُم بِٱلۡمَنِّ وَٱلۡأَذَىٰ كَٱلَّذِي يُنفِقُ مَالَهُۥ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ فَمَثَلُهُۥ كَمَثَلِ صَفۡوَانٍ عَلَيۡهِ تُرَابٞ فَأَصَابَهُۥ وَابِلٞ فَتَرَكَهُۥ صَلۡدٗاۖ لَّا يَقۡدِرُونَ عَلَىٰ شَيۡءٖ مِّمَّا كَسَبُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 260
(264) ऐ ईमान लानेवालो! अपने सदक़ों को एहसान जताकर और दुख देकर उस आदमी की तरह मिट्टी में न मिला दो जो अपना माल सिर्फ़ लोगों के दिखाने को ख़र्च करता है और न अल्लाह पर ईमान रखता है, न आख़िरत पर।303 उसके ख़र्च की मिसाल ऐसी है, जैसे एक चट्टान थी जिस पर मिट्टी की तह जमी हुई थी। उसपर जब ज़ोर की बारिश हुई तो सारी मिट्टी बह गई और साफ़ चट्टान की चट्टान रह गई।304 ऐसे लोग अपनी नज़र में ख़ैरात करके जो नेकी कमाते हैं, उससे कुछ भी उनके हाथ नहीं आता और इनकार करनेवालों को सीधी राह दिखाना अल्लाह का दस्तूर नहीं है।305
303. उसका दिखावा ख़ुद इस बात की दलील है कि वह अल्लाह और आख़िरत पर यक़ीन नहीं रखता। उसका सिर्फ़ लोगों को दिखाने के लिए काम करना खुले तौर पर यह मानी रखता है कि दुनिया ही उसका ख़ुदा है जिससे वह बदला चाहता है। अल्लाह से न उसको बदला मिलने की उम्मीद है और न ही उसे यक़ीन है कि एक दिन आमाल (कर्मों) का हिसाब होगा और बदले दिए जाएँगे।
304. इस मिसाल में बारिश से मुराद ख़ैरात (दान-पुण्य) है। चट्टान से मुराद उस नीयत और उस ज़ज़्बे की ख़राबी है जिसके साथ ख़ैरात की गई है। मिट्टी की हल्की तह से मुराद नेकी की वह ज़ाहिरी शक्ल है जिसके नीचे नीयत की ख़राबी छिपी हुई है। इस वज़ाहत के बाद मिसाल अच्छी तरह समझ में आ सकती है। बारिश का फ़ितरी तक़ाज़ा तो यही है कि उससे नमी हो और खेती पले-बढ़े। लेकिन जब नमी क़ुबूल करनेवाली ज़मीन ऊपर ही ऊपर हो और उस ऊपरी तह के नीचे निरी पत्थर की एक चट्टान रखी हुई हो तो बारिश फ़ायदेमन्द होने के बजाय, उलटी नुक़सानदेह होगी। इसी तरह ख़ैरात भी हालाँकि भलाइयों को बढ़ाने और तरक़्क़ी देने की ताक़त रखती है, मगर उसके फ़ायदेमन्द होने के लिए अच्छी और सच्ची नीयत शर्त है। नीयत नेक न हो तो यह सदक़ा और दान सिर्फ़ माल की बरबादी है और कुछ नहीं। इससे उसके परवान चढ़ने और बढ़ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
305. यहाँ अस्ल अरबी इबारत में लफ़्ज़ 'काफ़िर' इस्तेमाल हुआ है, जिसका हक़ीक़ी मानी है “इनकार करनेवाला” है। लेकिन यहाँ पर यह लफ़्ज़ नाशुक्रे (कृतघ्न) और नेमत का इनकार करनेवाले के मानी में इस्तेमाल हुआ है। जो आदमी ख़ुदा की दी हुई नेमत को उसकी राह में उसकी ख़ुशनूदी के लिए ख़र्च करने के बजाय दुनिया को ख़ुश करने के लिए ख़र्च करता है, या अगर ख़ुदा की राह में कुछ माल देता भी है तो उसके साथ तकलीफ़ भी देता है, वह अस्ल में नाशुक्रा और अपने ख़ुदा का एहसान-फरामोश है। और जबकि वह ख़ुद ही ख़ुदा की रिज़ा (प्रसन्नता) नहीं चाहता है तो अल्लाह को क्या पड़ी है कि उसे ख़ाह-मख़ाह अपनी ख़ुशनूदी का रास्ता दिखाए।
وَمَثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمُ ٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِ ٱللَّهِ وَتَثۡبِيتٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ كَمَثَلِ جَنَّةِۭ بِرَبۡوَةٍ أَصَابَهَا وَابِلٞ فَـَٔاتَتۡ أُكُلَهَا ضِعۡفَيۡنِ فَإِن لَّمۡ يُصِبۡهَا وَابِلٞ فَطَلّٞۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 261
(265) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग अपने माल सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी की चाहत में दिल के पूरे जमाव और क़रार के साथ ख़र्च करते हैं, उनके ख़र्च की मिसाल ऐसी है जैसे किसी ऊँची सतह पर एक बाग़ हो। अगर ज़ोर की बारिश हो जाए तो दोगुना फल लाए और अगर ज़ोर की बारिश न भी हो तो एक हल्की फुहार ही उसके लिए काफ़ी हो जाए।306 तुम जो कुछ करते हो, सब अल्लाह की नज़र में है।
306. 'ज़ोर की बारिश' से मुराद वह ख़ैरात (दान-पुण्य) है, जो भलाई के इन्तिहाई ज़ज़्बे और कमाल दरजे की नेक नीयती के साथ की जाए और 'हलकी फुहार' से मुराद ऐसी ख़ैरात जिसके अन्दर भलाई के जज़्बे का ज़ोर न हो।
أَيَوَدُّ أَحَدُكُمۡ أَن تَكُونَ لَهُۥ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَابٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ لَهُۥ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَأَصَابَهُ ٱلۡكِبَرُ وَلَهُۥ ذُرِّيَّةٞ ضُعَفَآءُ فَأَصَابَهَآ إِعۡصَارٞ فِيهِ نَارٞ فَٱحۡتَرَقَتۡۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ ۝ 262
(266) क्या तुममें से कोई यह पसन्द करता है कि उसके पास एक हरा-भरा बाग हो, नहरों से सींचा हुआ, खजूरों और अंगूरों और हर क़िस्म के फलों से लदा हुआ, और वह ठीक उस वक़्त एक तेज़ बगोले की चपेट में आकर झुलस जाए, जबकि वह ख़ुद बूढ़ा हो और उसके छोटे बच्चे अभी किसी लायक़ न हों?307 इस तरह अल्लाह अपनी बातें तुम्हारे सामने बयान करता है, शायद कि तुम ग़ौर-फ़िक्र (सोच-विचार) करो।
307. यानी अगर तुम यह पसन्द नहीं करते कि तुम्हारी उम्र भर की कमाई एक ऐसे नाज़ुक मौक़े पर तबाह हो जाए, जबकि तुम उससे फ़ायदा उठाने के सबसे ज़्यादा ज़रूरतमंद हो और नए सिरे से कमाई करने का मौक़ा भी बाक़ी न रहा हो, तो यह बात तुम कैसे पसन्द कर रहे हो कि दुनिया में पूरी उम्र काम करने के बाद आख़िरत की ज़िन्दगी में तुम इस तरह क़दम रखो कि वहाँ पहुँचकर यकायक तुम्हें मालूम हो कि ज़िन्दगी भर का तुम्हारा पूरा कारनामा यहाँ कोई क़ीमत नहीं रखता। जो कुछ तुमने दुनिया के लिए कमाया था, वह दुनिया ही में रह गया, आख़िरत के लिए कुछ कमा कर लाए ही नहीं कि यहाँ उसके फल खा सको। वहाँ तुम्हें इसका कोई मौक़ा न मिलेगा कि नए सिरे से अब आख़िरत के लिए कमाई करो। आख़िरत के लिए काम करने का जो कुछ भी मौक़ा है इसी दुनिया में है। यहाँ अगर तुम आख़िरत की फ़िक्र किए बिना सारी उम्र दुनिया ही की धुन में लगे रहे और अपनी तमाम ताक़तें और कोशिशें दुनिया के फ़ायदे तलाश करने ही में खपाते रहे, तो ज़िन्दगी के सूरज के डूबते ही तुम्हारी हालत ठीक उस बूढ़े की तरह हसरत भरी होगी कि जिसकी उम्र भर की कमाई और जिसकी ज़िन्दगी का सहारा एक बाग़ था और वह बाग़ ठीक बुढ़ापे की हालत में उस वक़्त जल गया, जबकि न वह ख़ुद नए सिरे से बाग़ लगा सकता है और न उसकी औलाद ही इस क़ाबिल है कि उसकी मदद कर सके।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنفِقُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا كَسَبۡتُمۡ وَمِمَّآ أَخۡرَجۡنَا لَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِۖ وَلَا تَيَمَّمُواْ ٱلۡخَبِيثَ مِنۡهُ تُنفِقُونَ وَلَسۡتُم بِـَٔاخِذِيهِ إِلَّآ أَن تُغۡمِضُواْ فِيهِۚ وَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ حَمِيدٌ ۝ 263
(267) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! जो माल तुमने कमाए हैं और जो कुछ हमने ज़मीन से तुम्हारे लिए निकाला है, उसमें से बेहतर हिस्सा अल्लाह की राह में ख़र्च करो। ऐसा न हो कि उसकी राह में देने के लिए बुरी-से-बुरी चीज़ छाँटने की कोशिश करने लगो, हालाँकि वही चीज़ अगर कोई तुम्हें दे तो तुम हरगिज़ उसे लेना न चाहोगे, यह और बात है कि उसको क़ुबूल करने में तुम देखी-अनदेखी कर जाओ। तुम्हें जान लेना चाहिए कि अल्लाह बेनियाज़ है और बेहतरीन सिफ़ात (गुणों) वाला है।308
308. ज़ाहिर है कि जो ख़ुद आला दरजे की सिफ़ात (गुण) का मालिक हो, वह बुरी सिफ़ात रखनेवालों को पसन्द नहीं कर सकता। अल्लाह तआला ख़ुद फ़ैयाज़ (दाता) है और अपनी मख़लूक़ पर हर वक़्त बख़शिश और मेहरबानी के दरिया बहा रहा है, किस तरह मुमकिन है कि वह तंगनज़र, कम हौसला और गिरे हुए अख़लाक़ के लोगों से मुहब्बत करे।
ٱلشَّيۡطَٰنُ يَعِدُكُمُ ٱلۡفَقۡرَ وَيَأۡمُرُكُم بِٱلۡفَحۡشَآءِۖ وَٱللَّهُ يَعِدُكُم مَّغۡفِرَةٗ مِّنۡهُ وَفَضۡلٗاۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 264
(268) शैतान तुम्हें ग़रीबी से डराता है और शर्मनाक रवैया अपनाने के लिए उकसाता है, मगर अल्लाह अपनी बख़शिश और मेहरबानी की उम्मीद दिलाता है। अल्लाह बड़ी समाईवाला और सब कुछ जाननेवाला है।
يُؤۡتِي ٱلۡحِكۡمَةَ مَن يَشَآءُۚ وَمَن يُؤۡتَ ٱلۡحِكۡمَةَ فَقَدۡ أُوتِيَ خَيۡرٗا كَثِيرٗاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 265
(269) जिसको चाहता है हिकमत अता करता है, और जिसको हिकमत मिली, उसे हक़ीक़त में बड़ी दौलत मिल गई।309 इन बातों से सिर्फ़ वही लोग सीख लेते हैं जो अक़्लमन्द हैं।
309. हिकमत से मुराद सही सूझ-बूझ और फ़ैसले की सही क़ुव्वत (शक्ति) है। यहाँ इस फ़रमान का मक़सद यह बताना है कि जिस आदमी के पास हिकमत (तत्त्वदर्शिता) की दौलत होगी, वह हरगिज़ शैतान के बताए हुए रास्ते पर न जाएगा, बल्कि उस खुले रास्ते को अपनाएगा जो अल्लाह ने दिखाया है। शैतान के तंगनज़र चेलों की निगाह में यह बड़ी होशियारी और अक़्लमन्दी है कि आदमी अपनी दौलत को सम्भाल-सम्भालकर रखे और हर वक़्त और ज़्यादा कमाने की फ़िक्र ही में लगा रहे। लेकिन जिन लोगों ने अल्लाह से सूझ-बूझ की रौशनी पाई है उनकी नज़र में यह बिलकुल ही बेवक़ूफ़ी है। हिकमत और अक़्लमन्दी उनके नज़दीक यह है कि आदमी जो कुछ कमाए, उसे अपनी दरमियानी ज़रूरतें पूरी करने के बाद दिल खोलकर भलाई के कामों में ख़र्च करे। पहला आदमी मुमकिन है कि दुनिया की इस कुछ दिनों की ज़िन्दगी में दूसरे के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा ख़ुशहाल हो, लेकिन इनसान के लिए दुनिया की यह ज़िन्दगी पूरी ज़िन्दगी नहीं है, बल्कि अस्ल ज़िन्दगी का एक निहायत छोट-सा हिस्सा है। इस छोटे-से हिस्से की ख़ुशहाली के लिए जो आदमी बड़ी और हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी की बदहाली मोल लेता है, वह हक़ीक़त में बड़ा बेवक़ूफ़ है। अक़्लमंद अस्ल में वही है जिसने इस मुख़्तसर (छोटी-सी ज़िन्दगी की मुहलत से फ़ायदा उठाकर थोड़ी पूँजी ही से उस हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी में अपनी ख़ुशहाली का इन्तिज़ाम कर लिया।
وَمَآ أَنفَقۡتُم مِّن نَّفَقَةٍ أَوۡ نَذَرۡتُم مِّن نَّذۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُهُۥۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٍ ۝ 266
(270) तुमने जो कुछ भी ख़र्च किया हो और जो मन्नत भी मानी हो, अल्लाह उसे जानता है, और ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।310
310. ख़र्च चाहे अल्लाह के रास्ते में किया हो या शैतान के रास्ते में और नज़र चाहे अल्लाह के लिए मानी हो या ग़ैरुल्लाह के लिए, दोनों सूरतों में आदमी की नीयत और उसके कर्म से अल्लाह अच्छी तरह वाक़िफ़ है। जिन्होंने उसके लिए ख़र्च किया होगा और उसके लिए नज़र मानी होगी, वे उसका अच्छा बदला पाएँगे और जिन ज़ालिमों ने शैतानी राहों में ख़र्च किया होगा और अल्लाह को छोड़कर दूसरों के लिए नज़्रें मानी होंगी, उनको ख़ुदा की सज़ा से बचाने के लिए कोई मददगार न मिलेगा। 'नज़्र' यह है कि आदमी अपनी किसी मुराद के पूरा होने पर किसी ऐसे ख़र्च या किसी ऐसी ख़िदमत को अपने ऊपर ज़रूरी ठहरा ले, जो उसके ज़िम्मे ज़रूरी न हो। अगर यह मुराद किसी हलाल और जाइज़ बात की हो और अल्लाह से माँगी गई हो और उसके पूरा होने पर अमल करने का जो वादा आदमी ने किया है, वह अल्लाह ही के लिए हो, तो ऐसी नज़र अल्लाह की फ़रमाँबरदारी में है और उसको पूरा करने की वजह से उसे अच्छा बदला मिलेगा। अगर यह हालत न हो तो ऐसी नज़र का मानना बड़ा गुनाह है और उसके पूरा करने से अज़ाब मिलेगा।
إِن تُبۡدُواْ ٱلصَّدَقَٰتِ فَنِعِمَّا هِيَۖ وَإِن تُخۡفُوهَا وَتُؤۡتُوهَا ٱلۡفُقَرَآءَ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ وَيُكَفِّرُ عَنكُم مِّن سَيِّـَٔاتِكُمۡۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 267
(271) अगर अपने सदक़े खुले तौर पर दो तो यह भी अच्छा है, लेकिन अगर छिपाकर मुहताजों को दो तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा है।311 तुम्हारी बहुत-सी बुराइयाँ इस तरीक़े से मिट जाती हैं।312 और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को हर हाल में उसकी ख़बर है।
311. जो सदक़ा फ़र्ज़ हो उसको अलानिया देना बेहतर है और जो सदक़ा फ़र्ज़ न हो उसको छिपाकर देना ज़्यादा बेहतर है। यही उसूल तमाम कामों के लिए है कि फ़र्ज़ों को अलानिया अंजाम देना फ़जीलत (श्रेष्ठता) रखता है और नफ़्ल को छिपाकर करना बेहतर है।
312. यानी छिपाकर नेकियाँ करने से आदमी के दिल और अख़लाक़ का बराबर सुधार होता चला जाता है, उसकी अच्छी सिफ़ात ख़ूब फलती-फूलती हैं और बुरी सिफतें धीरे-धीरे मिट जाती हैं और यही चीज़ उसको अल्लाह के यहाँ इतना पसन्दीदा बना देती है कि जो थोड़े-बहुत गुनाह उसके आमालनामे (कर्म-पत्र) में होते भी हैं, उन्हें उसकी ख़ूबियों पर नज़र करते हुए अल्लाह माफ़ कर देता है।
۞لَّيۡسَ عَلَيۡكَ هُدَىٰهُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يَشَآءُۗ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَلِأَنفُسِكُمۡۚ وَمَا تُنفِقُونَ إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ وَجۡهِ ٱللَّهِۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ يُوَفَّ إِلَيۡكُمۡ وَأَنتُمۡ لَا تُظۡلَمُونَ ۝ 268
(272) (ऐ नबी!) लोगों को रास्ते पर ला देने की ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। हिदायत तो अल्लाह ही जिसे चाहता है देता है, और भलाई के रास्ते में जो माल तुम लोग ख़र्च करते हो वह तुम्हारे अपने लिए भला है। आख़िर तुम इसी लिए तो ख़र्च करते हो कि अल्लाह की ख़ुशी हासिल हो। तो जो कुछ माल तुम भलाई के रास्ते में ख़र्च करोगे, उसका पूरा-पूरा बदला तुम्हें दिया जाएगा और तुम्हारा हक़ हरगिज़ न मारा जाएगा।313
313. शुरू में मुसलमान अपने ग़ैर-मुस्लिम रिश्तेदारों और आम ग़ैर-मुस्लिम ज़रूरतमन्दों की मदद करने में झिझकते थे। उनका ख़याल यह था कि सिर्फ़ मुसलमान ज़रूरतमन्दों की ही मदद करना अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करना है। इस आयत में उनकी यह ग़लतफ़हमी दूर की गई है। अल्लाह के फ़रमान का मतलब यह है कि उन लोगों के दिलों में हिदायत उतार देने की ज़िम्मेदारी तुमपर नहीं है। तुम हक़ बात पहुँचाकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर चुके। अब यह अल्लाह के इख़्तियार में है कि उनको सूझ-बूझ की रौशनी दे या न दे। रहा दुनिया के माल व सामान से उनकी ज़रूरतें पूरी करना, तो इसमें तुम सिर्फ़ इस वजह से न झिझको कि उन्होंने हिदायत क़ुबूल नहीं की है। अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए जिस ज़रूरतमन्द इनसान की भी मदद करोगे, उसका बदला अल्लाह देगा।
ٱلَّذِينَ يَأۡكُلُونَ ٱلرِّبَوٰاْ لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ ٱلَّذِي يَتَخَبَّطُهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مِنَ ٱلۡمَسِّۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡبَيۡعُ مِثۡلُ ٱلرِّبَوٰاْۗ وَأَحَلَّ ٱللَّهُ ٱلۡبَيۡعَ وَحَرَّمَ ٱلرِّبَوٰاْۚ فَمَن جَآءَهُۥ مَوۡعِظَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ فَٱنتَهَىٰ فَلَهُۥ مَا سَلَفَ وَأَمۡرُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَنۡ عَادَ فَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 269
(275) मगर जो लोग सूद (ब्याज़) 315 खाते हैं उनका हाल उस आदमी जैसा होता है जिसे शैतान ने छूकर बावला कर दिया हो।316 और इस हालत में उनके मुब्तला होने की वजह यह है कि वे कहते हैं, “तिजारत भी तो आख़िर सूद ही जैसी चीज़ है।"317 हालाँकि अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया है और सूद को हराम।318 इसलिए जिस आदमी को उसके रब की तरफ़ से यह नसीहत पहुँचे और आगे के लिए वह सूदख़ोरी से रुक जाए, तो जो कुछ वह पहले खा चुका, सो खा चुका, उसका मामला अल्लाह के हवाले है।319 और जो इस हुक्म के बाद फिर इसी हरकत को दोबारा करे वह जहन्नमी है, जहाँ वह हमेशा रहेगा।
315. अस्ल अरबी में 'रिबा' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। अरबी ज़बान में इस के मानी बढ़ोतरी के हैं। अरब के लोग इस लफ़्ज़ को ख़ास तौर से उस ज़्यादा रक़म के लिए इस्तेमाल करते थे जो एक क़र्ज़ देनेवाला अपने क़र्ज़ लेनेवाले से एक तयशुदा दर के हिसाब से अस्ल रक़म के अलावा वुसूल करता है। इसी को हमारी ज़बान में सूद (ब्याज) कहते हैं। क़ुरआन उतरने के वक़्त सूदी मामलों की जो शक्लें राइज़ थीं और जिन्हें अरबवाले 'रिबा' कहते थे, वे ये थीं कि मिसाल के तौर पर एक आदमी दूसरे आदमी के हाथ कोई चीज़ बेचता और क़ीमत अदा करने के लिए एक मुद्दत मुक़र्रर कर देता। अगर वह मुद्दत गुज़र जाती और क़ीमत अदा न होती तो वह और मुहलत देता, लेकिन क़ीमत बढ़ा देता। या मसलन एक आदमी दूसरे आदमी को क़र्ज़ देता और उससे तय कर लेता कि इतनी मुद्दत में इतनी रक़म अस्ल (मूल) से ज़्यादा अदा करनी होगी। या मसलन फिर क़र्ज़ देनेवाले और क़र्ज़ लेनेवाले के बीच एक ख़ास मुद्दत तक के लिए एक दर तय हो जाती थी और अगर इस मुद्दत में अस्ल रक़म बढ़ी हुई रक़म के साथ अदा न होती तो और ज़्यादा मुहलत पहले से ज़्यादा दर पर दी जाती थी, इसी तरह के मामलों के बारे में हुक्म यहाँ बयान किया जा रहा है।
316. अरब के लोग दीवाने आदमी के लिए ‘मजनून' यानी आसेब-ज़दा का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते थे और जब किसी शख़्स के बारे में यह कहना होता कि वह पागल हो गया है, तो यूँ कहते कि उसे जिन्न (भूत-प्रेत या आसेब) लग गया है। इसी मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए क़ुरआन सूद (ब्याज) खानेवाले की मिसाल उस शख़्स से देता है, जिसके हवास गुम हो गए हों। यानी जिस तरह वह शख़्स अक़्ल से कोरा होकर ग़ैर-मोतदिल (असंतुलित) हरकतें करने लगता है, उसी तरह सूद खानेवाला भी रुपये के पीछे दीवाना हो जाता है और अपनी ख़ुदग़र्जी के पागलपन में कुछ परवाह नहीं करता कि उसके सूद खाने से किस-किस तरह इनसानी मुहब्बत, भाईचारा और हमदर्दी की जड़ें कट रही हैं, इनसानी समाज की भलाई और ख़ुशहाली के कामों पर कितना तबाह करनेवाला असर पड़ रहा है और कितने लोगों की बदहाली से वह अपनी ख़ुशहाली का सामान कर रहा है। यह उसकी दीवानगी का हाल इस दुनिया में है और चूँकि आख़िरत में इनसान उसी हालत में उठाया जाएगा, जिस हालत पर उसने दुनिया में जान दी है, इसलिए सूद खानेवाला आदमी क़ियामत के दिन एक बावले और पागल की हालत में उठेगा।
317. यानी उनकी सोच की ख़राबी यह है कि तिजारत में अस्ल लागत पर जो मुनाफ़ा लिया जाता है उसमें और सूद में वे फ़र्क़ नहीं समझते और दोनों को एक ही क़िस्म की चीज़ समझकर यूँ दलील देते हैं कि जब तिजारत में लगे हुए रुपये का मुनाफ़ा जाइज़ है तो क़र्ज़ पर दिए हुए रुपये का मुनाफ़ा क्यों नाजाइज़ हो। इसी तरह की दलीलें आज के दौर के सूद (ब्याज) खानेवाले भी सूद के हक़ में पेश करते हैं। वे कहते हैं कि एक आदमी जिस रुपये से ख़ुद फ़ायदा उठा सकता था उसे वह क़र्ज़ पर दूसरे आदमी के सिपुर्द करता है। वह दूसरा आदमी भी बहरहाल उससे फ़ायदा ही उठाता है। फिर आख़िर क्या वजह है कि क़र्ज़ देनेवाले के रुपये से जो फ़ायदा क़र्ज़ लेनेवाला उठा रहा है उसमें से एक हिस्सा वह क़र्ज़ देनेवाले को न अदा करे? मगर ये लोग इस बात पर ग़ौर नहीं करते कि दुनिया में जितने कारोबार हैं, चाहे वह खेती-बाड़ी के हों, या तिजारत के हों या उद्योग-धंधे के हों और चाहे उन्हें आदमी सिर्फ़ अपनी मेहनत से करता हो या अपनी पूँजी और मेहनत दोनों से , इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसमें आदमी नुक़सान का ख़तरा (Risk) मोल न लेता हो और जिसमें आदमी के लिए ज़रूरी तौर पर एक तयशुदा मुनाफ़े की गारंटी हो। फिर आख़िर पूरी कारोबारी दुनिया में एक क़र्ज़ देनेवाला सरमायादार (पूंजीपति) ही ऐसा क्यों हो जो नुक़सान के खतरे से बचकर एक तयशुदा और लाज़िमी मुनाफ़े का हक़दार क़रार पाए। मुनाफ़ा न देनेवाले कामों के लिए क़र्ज़ लेनेवाले का मामला थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिए और (सूद के) दर की कमी-बेशी के मामले से भी नज़र हटा लीजिए। मामला उसी क़र्ज़ का सही जो फ़ायदा देनेवाले कामों में लगाने के लिए लिया जाए और दर भी थोड़ी ही सही। सवाल यह है कि जो लोग एक कारोबार में अपना वक़्त, अपनी मेहनत, अपनी क़ाबिलियत और अपना माल रात-दिन खपा रहे हैं और जिनकी कोशिशों के बल पर ही वह कारोबार फल-फूल सकता है, उनके लिए तो एक तयशुदा मुनाफ़े की गारंटी न हो, बल्कि नुक़सान का सारा ख़तरा बिलकुल उन्हीं के सर पर हो, मगर जिसने सिर्फ़ अपना रुपया उन्हें क़र्ज़ दे दिया हो वह बिना ख़तरा मोल लिए एक तयशुदा मुनाफ़ा वुसूल करता चला जाए, यह आख़िर किस अक़्ल, किस दलील, इनसाफ़ के किस उसूल और मआशियात (अर्थशास्त्र) के किस उसूल के मुताबिक़ सही है? और यह किस बुनियाद पर सही है कि एक शख़्स एक कारख़ाने को बीस साल के लिए एक रक़म क़र्ज़ दे और आज ही यह तय कर ले कि अगले बीस साल तक वह बराबर पाँच फ़ीसद सालाना के हिसाब से अपना मुनाफ़ा लेने का हक़दार होगा, हालाँकि वह कारख़ाना जो माल तैयार करता है, उसके बारे में किसी को भी नहीं मालूम कि मार्केट में उसकी क़ीमतों के अन्दर अगले बीस साल में कितना उतार-चढ़ाव होगा? और यह कैसे सही है कि एक क़ौम के सारे ही तबक़े एक लड़ाई में ख़तरा, नुक़सान और क़ुर्बानियाँ बरदाश्त करें, मगर सारी क़ौम के अन्दर से सिर्फ़ एक क़र्ज़ देनेवाला सरमायादार ही ऐसा हो जो अपने दिए हुए जंगी क़र्ज़ पर अपनी ही क़ौम से लड़ाई के एक सदी बाद तक सूद (ब्याज) वुसूल करता रहे।
318. तिजारत और सूद का उसूली फ़र्क़ जिसकी बुनियाद पर दोनों की माली और अख़लाक़ी हैसियत एक नहीं हो सकती, वह यह है— (1) तिजारत में बेचनेवाले और ख़रीदनेवाले के बीच मुनाफ़े का बराबरी के साथ लेन-देन होता है, क्योंकि ख़रीदनेवाला उस चीज़ से नफ़ा उठाता है जो उसने बेचनेवाले से ख़रीदी है और बेचनेवाला अपनी उस मेहनत, क़ाबिलियत और वक़्त का मुआवज़ा लेता है जिसको उसने ख़रीदनेवाले के लिए वह चीज़ मुहैया करने में लगाया है। इसके बरख़िलाफ़ सूदी लेन-देन में मुनाफ़े का तबादला बराबरी के साथ नहीं होता। सूद लेनेवाला तो माल की एक तयशुदा मिक़दार (मात्रा) ले लेता है जो उसके लिए यक़ीनी तौर पर नफ़ा देनेवाली होती है, लेकिन उसके मुक़ाबले में सूद देनेवाले को सिर्फ़ मुहलत मिलती है, जिसका नफ़ाबख़्श होना यक़ीनी नहीं। अगर उसने पैसे अपनी निजी ज़रूरतों पर ख़र्च करने के लिए लिए हैं तब तो ज़ाहिर है कि मुहलत उसके लिए बिलकुल ही नफ़ा देनेवाली नहीं है और अगर वह तिजारत या खेती या कारख़ाने वग़ैरा में लगाने के लिए पैसा लेता है, तब भी मुहलत में जिस तरह उसके लिए नफ़ा का इमकान है उसी तरह नुक़सान का भी इमकान है। सूद का मामला या तो एक फ़रीक़ के फ़ायदे और दूसरे के नुक़सान पर होता है या एक के यक़ीनी और तयशुदा फ़ायदे और दूसरे के ग़ैर-यक़ीनी और ग़ैर-तयशुदा फ़ायदे पर। (2) तिजारत में बेचनेवाला ख़रीदनेवाले से चाहे कितना ही ज़्यादा मुनाफ़ा ले, बहरहाल वह जो कुछ लेता है एक ही बार लेता है। लेकिन सूद के मामले में माल देनेवाला अपने माल पर बराबर मुनाफ़ा वुसूल करता रहता है और वक़्त की रफ्तार के साथ-साथ उसका मुनाफ़ा बढ़ता चला जाता है। क़र्ज़ लेनेवाले ने उसके माल से चाहे कितना ही फ़ायदा हासिल किया हो, बहरहाल उसका फ़ायदा एक ख़ास हद तक ही होगा। मगर क़र्ज़ देनेवाला इस फ़ायदे के बदले में जो नफ़ा उठाता है, उसके लिए कोई हद नहीं। हो सकता है कि वह क़र्ज़ लेनेवाले की पूरा कमाई, कमाने के उसके तमाम वसाइल, यहाँ तक कि उसके तन के कपड़े और घर के बरतन तक हज़म (हड़प) कर ले और फिर भी उसका मुतालबा बाक़ी रह जाए। (3) तिजारत में चीज़ और उसकी क़ीमत का तबादला होने के साथ ही मामला ख़त्म हो जाता है। ज़मीन या सामान के किराए और उसके बाद ख़रीदनेवाले को कोई चीज़ बेचनेवाले को वापस देनी नहीं होती। मकान या अस्ल चीज़ जिसके इस्तेमाल का मुआवज़ा दिया जाता है, ख़र्च नहीं होता, बल्कि बाक़ी रहती है और उसी शक्ल में मालिक को वापस दे दी जाती है, लेकिन सूद के मामले में क़र्ज़ लेनेवाला पैसे को ख़र्च कर चुका होता है और फिर उसको वह ख़र्च किया हुआ माल दोबारा पैदा करके बढ़ोतरी के साथ वापस देना होता है। (4) तिजारत, कारख़ाने और खेती में इनसान मेहनत, ज़हानत (बुद्धि) और वक़्त लगाकर उसका फ़ायदा लेता है, मगर सूदी कारोबार में वह सिर्फ़ अपनी ज़रूरत से ज़्यादा अपना माल देकर बिना किसी मेहनत और मशक़्क़त के दूसरों की कमाई में भरपूर शरीक बन जाता है। उसकी हैसियत इस्तिलाही (पारिभाषिक) ‘भागीदार’ (Partner) की नहीं होती जो नफ़ा और नुक़सान दोनों में शरीक होता है और नफ़ा में जिसकी भागीदारी नफ़ा के हिसाब से होती है, बल्कि वह ऐसा भागीदार होता है जो नफ़ा और नुक़सान का लिहाज़ किए बिना और नफ़ा के हिसाब का ख़याल किए बिना अपने तयशुदा मुनाफ़े का दावेदार होता है। इन वजहों से तिजारत की माली हैसियत और सूद की माली हैसियत में इतना भारी फ़र्क़ हो जाता है कि तिजारत इनसानी समाज की तामीर (निर्माण) करनेवाली क़ुव्वत बन जाती है और इसके बरख़िलाफ़ सूद उसके बिगाड़ की वजह बनता है। फिर अख़लाक़ी हैसियत से सूद की यह ख़ास फ़ितरत है कि वह लोगों में कंजूसी, ख़ुदग़र्जी, संगदिली, बेरहमी और दौलतपरस्ती की सिफ़तें पैदा करता है और हमदर्दी और आपस में एक-दूसरे की मदद की रूह को ख़त्म कर देता है। इसी वजह से सूद माली और अख़लाक़ी दोनों हेसियतों से इनसानी समाज को तबाह व बरबाद करनेवाला है।
319. यह नहीं कहा कि जो कुछ उसने खा लिया उसे अल्लाह माफ़ कर देगा, बल्कि कहा यह जा रहा है कि उसका मामला अल्लाह के हवाले है। इस जुमले से मालूम होता है कि “जो खा चुका सो खा चुका”कहने का मतलब यह नहीं है कि जो खा चुका उसे माफ़ कर दिया गया, बल्कि इससे सिर्फ़ क़ानूनी छूट मुराद है। यानी जो सूद पहले खाया जा चुका है उसे वापस देने का क़ानूनी तौर पर मुतालबा नहीं किया जाएगा; क्योंकि अगर उसका मुतालबा किया जाए, तो मुक़द्दमों एक ख़त्म न होनेवाला सिलसिला शुरू हो जाए, मगर अख़लाक़ी हैसियत से माल की नापाकी पहले की तरह बाक़ी रहेगी जो किसी आदमी ने सूदी कारोबार से समेटा हो। अगर वह हक़ीक़त में ख़ुदा से डरनेवाला होगा और उसका माली और अख़लाक़ी नज़रिया वाक़ई इस्लाम अपनाने से बदल चुका होगा, तो वह ख़ुद अपनी उस दौलत को जो हराम तरीक़े से आई थी, अपने ऊपर ख़र्च करने से परहेज़ करेगा और कोशिश करेगा कि जहाँ तक उन हक़दारों का पता चलाया जा सकता है, जिनका माल उसके पास है, उस हद तक उनका माल उन्हें वापस कर दिया जाए और माल के जिस हिस्से के हक़दारों का पता न लगाया जा सके, उसे आम लोगों की भलाई और ख़ुशहाली के कामों पर ख़र्च किया जाए। यही अमल उसे ख़ुदा की सज़ा से बचा सकेगा। रहा वह शख़्स जो पहले कमाए हुए माल से पहले ही की तरह मज़े उठाता रहे तो नामुमकिन नहीं कि वह अपनी इस हरामख़ोरी की सज़ा पाकर रहे।
يَمۡحَقُ ٱللَّهُ ٱلرِّبَوٰاْ وَيُرۡبِي ٱلصَّدَقَٰتِۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ أَثِيمٍ ۝ 270
(276) अल्लाह सूद का मठ मार देता है और ख़ैरात (दान-पुण्य) को बढ़ाता-चढ़ाता है320, और अल्लाह किसी नाशुक्रे, बुरे अमलवाले को पसन्द नहीं करता।321
320. इस आयत में एक ऐसी हक़ीक़त बयान की गई है जो अख़लाक़ी और रूहानी हैसियत से भी सरासर हक़ है और माली और सामाजिक हैसियत से भी। हालाँकि देखने में सूद से दौलत बढ़ती नज़र आती है और सदक़ों से घटती हुई महसूस होती है, लेकिन हक़ीक़त में मामला इसके बरख़िलाफ़ है। ख़ुदा की बनाई हुई फ़ितरत का क़ानून यही है कि सूद अख़लाक़ी और रूहानी, माली और समाजी तरक़्क़ी में न सिर्फ़ रुकावट बनता है, बल्कि बिगाड़ और गिरावट का ज़रिआ बनता है। और उसके बरख़िलाफ़ सदक़ों से (जिसमें क़र्जे-हसन यानी अच्छा क़र्ज़ भी शामिल है, यानी ऐसा क़र्ज़ जो इस नीयत से दिया जाए कि क़र्ज़ लेनेवाला चाहे तो उसे वापस करे और चाहे तो न करे, क़र्ज़ देनेवाले को इसपर कोई एतिराज न होगा) अख़लाक़ व रूहानियत और समाज और माल व दौलत हर चीज़ को तरक़्क़ी नसीब होती है। अख़लाक़्री और रूहानी हैसियत से देखिए— तो यह बात बिलकुल वाज़ेह है कि सूद अस्ल में ख़ुदग़रज़ी, कंजूसी, तंगदिली और संगदिली जैसी बुरी सिफ़तों का नतीजा है। और इन्हीं सिफ़तों को इनसान के अन्दर पैदा करता और उन्हें बढ़ाता भी है। इसके बरख़िलाफ़ सदक़ात नतीजा हैं फ़ैयाज़ी (दानशीलता) हमदर्दी, कुशादा-दिली और दिल की बुलन्दी जैसी ख़ूबियों का और सदक़ों पर अमल करते रहने से यही सिफ़तें इनसान के अन्दर पलती-बढ़ती है। कौन है जो अख़लाक़ी सिफ़तों की इन दोनों क़िस्मों में से पहली क़िस्म को बदतरीन और दूसरे को बेहतरीन न मानता हो? समाजी हैसियत से देखिए तो बेझिझक यह बात हर शख़्स की समझ में आ जाएगी कि जिस समाज में आदमी एक-दूसरे के साथ ख़ुदग़रज़ी का मामला करे, कोई शख़्स अपनी ग़रज़ और अपने निजी फ़ायदे के बग़ैर किसी के काम न आए। एक आदमी की ज़रूरत को दूसरा आदमी अपने लिए फ़ायदा उठाने का मौक़ा समझे और उसका पूरा फ़ायदा उठाए और मालदार तबक़ों का मफ़ाद (हित) आम लोगों के मफ़ाद के बिलकुल उलटा हो जाए, ऐसा समाज कभी मज़बूत नहीं हो सकता। ऐसे समाज के लोगों में आपस की मुहब्बत के बजाय आपसी दुश्मनी, जलन और बेदर्दी व बेताल्लुक़ी पले-बढ़ेगी। उसके लोग हमेशा बिखराव और बेचैनी व परेशानी का शिकार रहेंगे। और अगर दूसरी वजहें भी इस सूरते-हाल के लिए मददगार हो जाएँ तो ऐसे समाज के लोगों का आपस में टकराव हो जाना भी कुछ मुश्किल नहीं है। इसके बरख़िलाफ़ जिस समाज का इजतिमाई निज़ाम आपस की हमदर्दी पर क़ायम हो, जिसके लोग एक-दूसरे के साथ फ़ैयाज़ी (दानशीलता) का मामला करें, जिसमें हर शख़्स दूसरे की ज़रूरत के मौक़े पर कुशादादिली के साथ मदद का हाथ बढ़ाए और जिसमें बा-हैसियत लोग बिना हैसियतवाले लोगों से हमदर्दाना मदद या कम-से-कम इनसाफ़ के साथ मदद का तरीक़ा बरतें, ऐसे समाज में आपस की मुहब्बत, ख़ैरख़ाही और दिलचस्पी पले-बढ़ेगी। इसके लोग एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए और एक-दूसरे के मददगार होंगे। इसमें अन्दरूनी झगड़े और टकराव को राह पाने का मौक़ा न मिल सकेगा। इसमें आपसी मदद और ख़ैरख़ाही की वजह से तरक़्क़ी की रफ़्तार पहली क़िस्म की सोसाइटी के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा तेज़ होगी। अब मआशी (माली) हैसियत से देखिए। मआशियात (अर्थशास्त्र) के नज़रिए से सूदी क़र्ज़ की दो क़िस्में हैं— एक वह क़र्ज़ जो अपनी निजी ज़रूरतों पर ख़र्च करने के लिए मजबूर और ज़रूरतमन्द लोग लेते हैं। दूसरा वह क़र्ज़ जो तिजारत, कल-कारख़ानों और खेती-बाड़ी वग़ैरा के कामों पर लगाने के लिए कारोबारी लोग लेते हैं। इनमें से पहली क़िस्म के क़र्ज़ को तो एक दुनिया जानती है कि इसपर सूद वुसूल करने का तरीक़ा निहायत तबाह करनेवाला है। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है, जिसमें महाजन लोग और महाजनी इदारे इस ज़रिए से ग़रीब मज़दूरों, किसानों और बहुत ही कम रोज़ी कमानेवाले लोगों का ख़ून न चूस रहे हों। सूद की वजह से इस क़िस्म का क़र्ज़ अदा करना उन लोगों के लिए सख़्त मुश्किल, बल्कि कभी-कभी नामुमकिन हो जाता है। फिर एक क़र्ज़ को अदा करने के लिए वे दूसरा और तीसरा क़र्ज़ लेते चले जाते हैं। अस्ल रक़म से कई-कई गुना सूद दे चुकने पर भी अस्ल रक़म ज्यों-की-त्यों बाक़ी रहती है। मेहनतपेशा आदमी की आमदनी का ज़्यादातर हिस्सा क़र्ज़ देनेवाला महाजन ले जाता है और उस ग़रीब की अपनी कमाई में से उसके पास अपना और अपने बच्चों का पेट पालने के लिए भी काफ़ी रुपया नहीं बचता। यह चीज़ धीरे-धीरे अपने असर से मेहनत करनेवालों की दिलचस्पी ख़त्म कर देती है; क्योंकि जब उनकी मेहनत का फल दूसरा ले उड़े तो वे कभी दिल लगाकर मेहनत नहीं कर सकते। फिर सूदी क़र्ज़ के जाल में फँसे हुए लोगों को हर वक़्त की फ़िक़्र और परेशानी इतनी घुला देती है, और तंगदस्ती की वजह से उनके लिए सही खाना और इलाज इतना मुश्किल हो जाता है कि उनकी सेहत कभी दुरुस्त नहीं रह सकती। इस तरह सूदी क़र्ज़ का हासिल यह होता है कि कुछ लोग तो लाखों आदमियों का ख़ून चूस-चूस कर मोटे होते रहते हैं, मगर कुल मिलाकर पूरी क़ौम जितनी दौलत पैदा कर सकती थी उसके मुक़ाबले में दौलत की पैदाइश बहुत घट जाती है। और नतीजा यह होता है कि ख़ुद वे ख़ून चूसनेवाले लोग भी इसके नुक़सानों से नहीं बच सकते; क्योंकि उनकी इस ख़ुदग़र्जी से ग़रीब लोगों को जो तकलीफ़ें पहुँचती हैं उनकी वजह से मालदार लोगों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से और नफ़रत का एक तूफ़ान दिलों में उठता और घुटता रहता है और किसी इंक़िलाबी हंगामे के मौक़े पर जब यह ज्वालामुखी (आतिशफ़िशाँ) फटता है तो उन ज़ालिम मालदारों को अपने माल के साथ अपनी जान और इज़्ज़त तक से हाथ धोना पड़ जाता है। रहा दूसरी क़िस्म का क़र्ज़ जो कारोबार में लगाने के लिए लिया जाता है, तो इसपर एक मुक़रर सूद की दर के लागू होने से जो बेशुमार नुक़सान पहुँचते हैं, उनमें से कुछ सबसे नुमायाँ ये हैं— (1) जो काम मौजूदा वक़्त में राइज (प्रचलित) सूद के दर के बराबर नफ़ा न ला सकते हों, चाहे देश और क़ौम के लिए कितने ही ज़रूरी और फ़ायदेमन्द हों, उनपर लगाने के लिए रुपया नहीं मिलता और देश के तमाम माली वसाइल (संसाधनों) का बहाव ऐसे कामों की तरफ़ हो जाता है, जो बाज़ार की सूद की दर के बराबर या उससे ज़्यादा नफ़ा ला सकते हों, चाहे समाजी हैसियत से उनकी ज़रूरत और उनका फ़ायदा बहुत कम हो या कुछ भी न हो। (2) जिन कामों के लिए सूद पर रुपया मिलता है, चाहे वे तिजारती काम हों, या कल कारख़ानेवाले या खेती-बाड़ी के काम, इन में से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसमें इस बात की गारंटी मौजूद हो कि हमेशा तमाम हालात में उसका मुनाफ़ा एक मुक़र्रर मेयार, मिसाल के तौर पर पाँच, छह या दस फ़ीसद, तक या उससे ऊपर-ऊपर ही रहेगा और कभी उससे नीचे नहीं गिरेगा। इसकी गारंटी होना तो दूर की बात किसी कारोबार में सिरे से इसी बात की कोई गारंटी नहीं है कि इसमें ज़रूर मुनाफ़ा ही होगा, नुक़सान कभी न होगा। इसलिए किसी कारोबार में ऐसे माल का लगना जिसमें माल लगानेवाले को एक मुक़र्रर् दर के मुताबिक़ मुनाफ़ा देने की गारंटी दी गई हो, नुक़सान और ख़तरे के पहलू से कभी ख़ाली नहीं हो सकता। (3) चूँकि रुपये देनेवाला कारोबार के नफ़ा और नुक़सान में शामिल नहीं होता, बल्कि सिर्फ़ मुनाफ़े और वह भी एक मुक़र्रर मुनाफ़े की दर की गारंटी पर रुपया देता है, इस वजह से कारोबार की भलाई और बुराई से उसको किसी क़िस्म की दिलचस्पी नहीं होती। वह इन्तिहाई ख़ुदगर्ज़ी के साथ सिर्फ़ अपने मुनाफ़े पर निगाह रखता है और जब कभी उसे ज़रा-सा अन्देशा हो जाता है कि बाज़ार पर मंदी का हमला होनेवाला है, तो वह सबसे पहले अपना रुपया खींचने की फ़िक्र करता है। इस तरह कभी तो सिर्फ़ उसके ख़ुदगर्ज़ी से भरे अन्देशों ही की वजह से दुनिया पर मंदी का वाक़ई हमला हो जाता है और कभी अगर दूसरी वजहों से मंदी आ गई है तो सरमायादारी (पूँजीपति) की ख़ुदगर्ज़ी उसको बढ़ाकर इन्तिहाई तबाह कर देनेवाली हद तक पहुँचा देती है। सूद के ये तीन नुक़सान तो ऐसे वाज़ेह हैं कि कोई शख़्स जो मईशत के इल्म (अर्थशास्त्र) की थोड़ी-सी भी जानकारी रखता हो, इनका इनकार नहीं कर सकता। इसके बाद यह माने बग़ैर क्या चारा है कि हक़ीक़त में सूद अल्लाह तआला की बनाई हुई फ़ितरत के क़ानून की निगाह से मआशी (आर्थिक) दौलत को बढ़ाता नहीं, घटाता है। अब एक नज़र सदक़ों के मआशी (आर्थिक) असर और नतीजों को भी देख लीजिए। अगर समाज के ख़ुशहाल लोगों के काम करने का तरीक़ा यह हो कि वे अपनी हैसियत के मुताबिक़ पूरी कुशादादिली के साथ अपनी और अपने घरवालों की ज़रूरतों की चीज़ें ख़रीदें, फिर जो रुपया उनके पास उनकी ज़रूरत से ज़्यादा बचे, उसे ग़रीबों में बाँट दें, ताकि वे भी अपनी ज़रूरतों की चीज़ें ख़रीद सकें। फिर इसपर भी जो रुपया बच जाए उसे या तो कारोबारी लोगों को बिना सूद के क़र्ज़ दें, या साझेदारी के उसूल पर उनके साथ नफ़ा और नुक़सान में हिस्सेदार बन जाएँ या हुकूमत के पास जमा कर दें कि वह अवामी ख़िदमतों के लिए उनको इस्तेमाल करे, तो हर शख़्स थोड़े-से ग़ौर और फ़िक्र से अन्दाज़ा कर सकता है कि ऐसे समाज में तिजारत और कल-कारख़ाने और खेती-बाड़ी, हर चीज़ को बे-इन्तिहा तरक़्क़ी हासिल होगी। उसके आम लोगों की ख़ुशहाली का मेयार बुलन्द होता चला जाएगा और उसमें कुल मिलाकर दौलत की पैदावार उस समाज के मुक़ाबले में कई गुना ज़्यादा होगी, जिसके अन्दर सूद का रिवाज हो।
321. ज़ाहिर है कि सूद पर रुपया वही शख़्स चला सकता है जिसको दौलत के बँटवारे में उसकी हक़ीक़ी ज़रूरत से ज़्यादा हिस्सा मिला हो। यह ज़रूरत से ज़्यादा हिस्सा, जो एक शख़्स को मिलता है, क़ुरआन के मुताबिक़ अस्ल में अल्लाह का फ़ज़्ल (कृपा) और मेहरबानी है और अल्लाह की इस देन और मेहरबानी का सही शुक्र यह है कि जिस तरह अल्लाह ने अपने बन्दे पर फ़ज़्ल किया है, उसी तरह बन्दा भी अल्लाह के दूसरे बन्दों के साथ मेहरबानी करे। अगर वह ऐसा नहीं करता, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह के फ़ज़्ल को इस मक़सद के लिए इस्तेमाल करता है कि जो बन्दे दौलत के बँटवारे में अपनी ज़रूरत से कम हिस्सा पा रहे हैं, उनके उस थोड़े-से हिस्से में से भी वे अपनी दौलत के बल पर एक-एक जुज़ (अंश) अपनी तरफ़ खींच ले, तो हक़ीक़त में वह नाशुक्रा भी है और ज़ालिम, नाइनसाफ़ और बदअमल भी।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 271
(277) हाँ, जो लोग ईमान ले आएँ और अच्छे काम करें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें, उनका बदला बेशक उनके रब के पास है और उनके लिए किसी डर और रंज का मौक़ा नहीं।322
322. इस रुकू (आयत 273 से 281) में अल्लाह बार-बार दो क़िस्म के किरदारों को एक-दूसरे के मुक़ाबले में पेश कर रहा है। एक किरदार ख़ुदगरज़, दौलतपरस्त, शाईलॉक क़िस्म के इनसान का है जो ख़ुदा और बन्दे, दोनों के हक़ों और अधिकारों, से बेपरवाह होकर रुपया गिनने और गिन-गिनकर संभालने और हफ़्तों और महीनों के हिसाब से उसको बढ़ाने और उसकी बढ़ोतरी का हिसाब लगाने में लगा हुआ हो। दूसरा किरदार एक ख़ुदा परस्त, फ़ैयाज़ (दानशील) और हमदर्द इनसान का किरदार है, जो ख़ुदा और ख़ुदा के बन्दों, दोनों के हक़ों का ख़याल रखता हो। अपने बाज़ुओं की ताक़त से कमाकर ख़ुद खाए और ख़ुदा के दूसरे बन्दों को खिलाए और दिल खोलकर नेक कामों में ख़र्च करे। पहली क़िस्म का किरदार ख़ुदा को सख़्त नापसन्द है। दुनिया में इस किरदार पर कोई अच्छा समाज नहीं बन सकता और आख़िरत में ऐसे किरदार के लिए ग़म, दुख, परेशानी और मुसीबत के सिवा कुछ नहीं है। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह को दूसरी क़िस्म का किरदार पसन्द है। इसी से दुनिया में अच्छा समाज बनता है और वही आख़िरत में इनसान के लिए कामयाबी और नजात का ज़रिआ बनेगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَذَرُواْ مَا بَقِيَ مِنَ ٱلرِّبَوٰٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 272
(278) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो और जो कुछ तुम्हारा सूद लोगों पर बाक़ी रह गया है, उसे छोड़ दो अगर हक़ीक़त में तुम ईमान लाए हो।
فَإِن لَّمۡ تَفۡعَلُواْ فَأۡذَنُواْ بِحَرۡبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَإِن تُبۡتُمۡ فَلَكُمۡ رُءُوسُ أَمۡوَٰلِكُمۡ لَا تَظۡلِمُونَ وَلَا تُظۡلَمُونَ ۝ 273
(279) लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, तो आगाह हो जाओ कि अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से तुम्हारे ख़िलाफ़ जंग का एलान है।323 अब भी तौबा कर लो (और सूद छोड़ दो) तो अपना अस्ल सरमाया (मूलधन) लेने के तुम हक़दार हो। न तुम ज़ुल्म करो, न तुमपर ज़ुल्म किया जाए।
323. यह आयत मक्का की फ़तह के बाद उतरी थी। चूँकि इसमें सूद के सिलसिले में बात कही गई है, इसलिए मज़मून की मुनासबत (अनुकूलता) की वजह से यहाँ यह दाख़िल कर दी गई। इससे पहले हालाँकि सूद एक नापसन्दीदा चीज़ समझा जाता था, मगर क़ानूनी तौर पर इसे बन्द नहीं किया गया था। इस आयत के उतरने के बाद इस्लामी हुकूमत के दायरे में सूदी कारोबार एक फ़ौजदारी जुर्म बन गया। अरब के जो क़बीले सूद खाते थे, उनको नबी (सल्ल०) ने अफ़सरों के ज़रिए से आगाह करवा दिया कि अगर अब वे इस लेन-देन से न रुके तो उसे ख़िलाफ़ जंग की जाएगी। नजरान के ईसाइयों को जब इस्लामी हुकूमत के तहत अंदरूनी ख़ुदमुख़तारी (स्वायत्तता) दी गई, तो समझोते में यह बात भी वाज़ेह तौर पर लिख दी गई कि अगर तुम सूदी कारोबार करोगे, तो समझौता ख़त्म हो जाएगा और हमारे और तुम्हारे बीच जंग की हालत क़ायम हो जाएगी। आयत के आख़िरी लफ़्ज़ों की बुनियाद पर इब्ने-अब्बास, हसन बसरी, इब्ने-सीरीन और रबीअ-बिन-अनस की राय यह है कि जो शख़्स दारुल-इस्लाम (इस्लामी राज्य) में सूद खाए, उसे तौबा पर मजबूर किया जाए और अगर न माने तो उसे क़त्ल कर दिया जाए। दूसरे फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) की राय में ऐसे शख़्स को क़ैद कर देना काफ़ी है, जब तक वह सूदख़ोरी छोड़ देने का वादा न करे, उसे न छोड़ा जाए।
وَإِن كَانَ ذُو عُسۡرَةٖ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيۡسَرَةٖۚ وَأَن تَصَدَّقُواْ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 274
(280) तुम्हारा क़र्ज़दार तंगी में हो तो हाथ खुलने तक उसे मुहलत दो और अगर ख़ैरात कर दो, तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा बेहतर है, अगर तुम समझो।324
324. इसी आयत से शरीअत में यह हुक्म निकाला गया है कि जो शख़्स क़र्ज़ अदा न कर पा रहा हो और मजबूर हो गया हो, इस्लामी अदालत उसके क़र्ज़ देनेवालों (महाजनों) को मजबूर करेगी कि उसे मुहलत दें और कुछ हालात में अदालत को पूरा क़र्ज़ या क़र्ज़ का एक हिस्सा माफ़ कराने का इख़्तियार भी होगा। हदीस में आता है कि एक शख़्स के कारोबार में घाटा आ गया और उस पर क़र्ज़ों का बोझ बहुत चढ़ गया। मामला नबी (सल्ल०) के पास आया। आपने लोगों से अपील की कि अपने इस भाई की मदद करो। चुनाँचे बहुत-से लोगों ने उसको माली मदद दी, मगर क़र्ज़ों की अदायगी फिर भी पूरी न हो सकी। तब आपने उसके क़र्ज़ देनेवालों से फ़रमाया कि जो कुछ हाज़िर है, बस वही लेकर उसे छोड़ दो, इससे ज़्यादा तुम्हें नहीं दिलाया सकता। फ़ुक़हा ने इसे और खोलकर लिखा है कि एक शख़्स के रहने का मकान,खाने के बर्तन, पहनने के कपड़े और वे औज़ार जिनसे वह अपनी रोज़ी कमाता हो, किसी हालत में क़ुर्क़ नहीं किए जा सकते।
وَٱتَّقُواْ يَوۡمٗا تُرۡجَعُونَ فِيهِ إِلَى ٱللَّهِۖ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 275
(281) उस दिन की रुसवाई और मुसीबत से बचो, जबकि तुम अल्लाह की तरफ़ वापस होगे। वहाँ हर आदमी को अपनी कमाई हुई नेकी या बदी का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा और किसी पर ज़ुल्म हरगिज़ न होगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا تَدَايَنتُم بِدَيۡنٍ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى فَٱكۡتُبُوهُۚ وَلۡيَكۡتُب بَّيۡنَكُمۡ كَاتِبُۢ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَلَا يَأۡبَ كَاتِبٌ أَن يَكۡتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ ٱللَّهُۚ فَلۡيَكۡتُبۡ وَلۡيُمۡلِلِ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥ وَلَا يَبۡخَسۡ مِنۡهُ شَيۡـٔٗاۚ فَإِن كَانَ ٱلَّذِي عَلَيۡهِ ٱلۡحَقُّ سَفِيهًا أَوۡ ضَعِيفًا أَوۡ لَا يَسۡتَطِيعُ أَن يُمِلَّ هُوَ فَلۡيُمۡلِلۡ وَلِيُّهُۥ بِٱلۡعَدۡلِۚ وَٱسۡتَشۡهِدُواْ شَهِيدَيۡنِ مِن رِّجَالِكُمۡۖ فَإِن لَّمۡ يَكُونَا رَجُلَيۡنِ فَرَجُلٞ وَٱمۡرَأَتَانِ مِمَّن تَرۡضَوۡنَ مِنَ ٱلشُّهَدَآءِ أَن تَضِلَّ إِحۡدَىٰهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحۡدَىٰهُمَا ٱلۡأُخۡرَىٰۚ وَلَا يَأۡبَ ٱلشُّهَدَآءُ إِذَا مَا دُعُواْۚ وَلَا تَسۡـَٔمُوٓاْ أَن تَكۡتُبُوهُ صَغِيرًا أَوۡ كَبِيرًا إِلَىٰٓ أَجَلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِ وَأَقۡوَمُ لِلشَّهَٰدَةِ وَأَدۡنَىٰٓ أَلَّا تَرۡتَابُوٓاْ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً حَاضِرَةٗ تُدِيرُونَهَا بَيۡنَكُمۡ فَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَلَّا تَكۡتُبُوهَاۗ وَأَشۡهِدُوٓاْ إِذَا تَبَايَعۡتُمۡۚ وَلَا يُضَآرَّ كَاتِبٞ وَلَا شَهِيدٞۚ وَإِن تَفۡعَلُواْ فَإِنَّهُۥ فُسُوقُۢ بِكُمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ وَيُعَلِّمُكُمُ ٱللَّهُۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 276
(282) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब किसी मुक़र्रर (निश्चित) मुद्दत के लिए तुम आपस में क़र्ज़ का लेन-देन करो325 तो उसे लिख लिया करो।326 दोनों फ़रीकों के बीच इनसाफ़ के साथ एक आदमी दस्तावेज़ लिखे। जिसे अल्लाह ने लिखने-पढ़ने की क़ाबिलियत दी हो, उसे लिखने से इनकार न करना चाहिए। वह लिखे और बोलकर वह आदमी लिखाए जिसपर हक़ आता है (यानी क़र्ज़ लेनेवाला), और उसे अल्लाह, अपने रब से डरना चाहिए कि जो मामला तय हुआ हो उसमें कोई कमी-बेशी न करे। लेकिन अगर क़र्ज़ लेनेवाला ख़ुद नादान या कमज़ोर हो या बोलकर लिखा न सकता हो तो उसका सरपरस्त इनसाफ़ के साथ बोलकर लिखवाए। फिर अपने मर्दों327 में से दो आदमियों की इसपर गवाही करा लो। और अगर दो मर्द न हों तो एक मर्द और दो औरतें हों, ताकि एक भूल जाए तो दूसरी उसे याद दिला दे। ये गवाह ऐसे लोगों में से होने चाहिएँ जिनकी गवाही तुम्हारे बीच क़ुबूल की जाती हो।328 गवाहों को जब गवाह बनने के लिए कहा जाए तो उन्हें इनकार न करना चाहिए। मामला चाहे छोटा हो या बड़ा, मुद्दत तय कर लेने के साथ उसकी दस्तावेज़ लिखवा लेने में सुस्ती न करो। अल्लाह के नज़दीक यह तरीक़ा तुम्हारे लिए ज़्यादा इनसाफ़वाला है। इससे गवाही क़ायम होने में ज़्यादा आसानी होती है और तुम्हारे शक और शुब्हाे में पड़ जाने की गुंजाइश कम रह जाती है। हाँ, जो कारोबारी लेन-देन हाथ-के-हाथ तुम लोग आपस में करते हो, उसको न लिखा जाए तो कोई हरज नहीं।329 मगर कारोबारी मामला तय करते वक़्त गवाह कर लिया करो। लिखनेवाले और गवाह को सताया न जाए।330 ऐसा करोगे तो गुनाह का काम करोगे। अल्लाह के ग़ज़ब से बचो। वह तुमको सही तरीक़ा अपनाने की तालीम देता है, और उसे हर चीज़ का इल्म है।
325. इससे यह हुक्म निकलता है कि क़र्ज़ के मामले में मुद्दत तय हो जानी चाहिए।
326. आम तौर पर दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच क़र्ज़ के मामलों में दस्तावेज़ लिखने और गवाहियों लेने को बुरा और भरोसा न होने की दलील समझा जाता है, लेकिन अल्लाह का कहना यह है कि क़र्ज़ और कारोबारी समझौते को लिख लेना चाहिए और उसपर गवाही भी ले लेनी चाहिए, ताकि लोगों के बीच मामले साफ़ रहें। हदीस में आता है कि तीन क़िस्म के आदमी ऐसे हैं जो अल्लाह से फ़रियाद करते हैं, मगर उनकी फ़रियाद सुनी नहीं जाती – • एक वह शख़्स जिसकी बीवी बदअख़लाक़ और बदचलन हो और वह उसको तलाक़ न दे, • दूसरा वह शख़्स जो यतीम के बालिग़ होने से पहले उसका माल उसके हवाले कर दे, • तीसरा वह शख़्स जो किसी को अपना माल क़र्ज़ के तौर पर दे और किसी को उस पर गवाह न बनाए।
327. यानी मुसलमान मर्दों में से । इससे मालूम हुआ कि जहाँ गवाह बनाना अपने इख़्तियार का काम हो, वहाँ मुसलमान सिर्फ़ मुसलमान ही को अपना गवाह बनाएँ। हाँ, ज़िम्मियों (ग़ैर-मुस्लिम) के गवाह ज़िम्मी भी हो सकते हैं।
328. मतलब यह है कि हर ऐरा-ग़ैरा गवाह होने के लिए मुनासिब नहीं है, बल्कि ऐसे लोगों को गवाह बनाया जाए जो अपने अख़लाक़ और ईमानदारी के लिहाज़ से आम तौर पर लोगों के बीच भरोसेमंद और एतिबार के क़ाबिल समझे जाते हों।
329. मतलब यह है कि हालाँकि रोज़मर्रा के ख़रीदने-बेचने के काम में भी बेचने-ख़रीदने जैसे मामले का लिख लिया जाना बेहतर है, जैसा कि आजकल कैशमेमो लिखने का तरीक़ा राइज है। फिर भी ऐसा करना जरूरी नहीं है। इसी तरह पड़ोसी ताजिर (व्यापारी) एक-दूसरे से रात-दिन जो लेन-देन करते रहते हैं, उसको भी अगर लिखा न जाए तो कोई हरज नहीं।
330. इसका मतलब यह भी है कि किसी शख़्स को दस्तावेज़ लिखने या उसपर गवाह बनने के लिए मजबूर न किया जाए और यह भी कि कोई फ़रीक़ लिखनेवाले को या गवाह को इस वजह से न सताए कि वह उसके मफ़ाद (हित) के ख़िलाफ़ सही गवाही देता है।
۞وَإِن كُنتُمۡ عَلَىٰ سَفَرٖ وَلَمۡ تَجِدُواْ كَاتِبٗا فَرِهَٰنٞ مَّقۡبُوضَةٞۖ فَإِنۡ أَمِنَ بَعۡضُكُم بَعۡضٗا فَلۡيُؤَدِّ ٱلَّذِي ٱؤۡتُمِنَ أَمَٰنَتَهُۥ وَلۡيَتَّقِ ٱللَّهَ رَبَّهُۥۗ وَلَا تَكۡتُمُواْ ٱلشَّهَٰدَةَۚ وَمَن يَكۡتُمۡهَا فَإِنَّهُۥٓ ءَاثِمٞ قَلۡبُهُۥۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 277
(283) अगर तुम सफ़र की हालत में हो और दस्तावेज़ लिखने के लिए कोई लिखनेवाला न मिले तो गिरवी रखकर मामला करो।331 अगर तुममें से कोई शख़्स दूसरे पर भरोसा करके उसके साथ कोई मामला करे, तो जिसपर भरोसा किया गया है उसे चाहिए कि अमानत अदा करे और अपने रब अल्लाह से डरे। और गवाही हरगिज़ न छिपाओ।332 जो गवाही छिपाता है उसका दिल गुनाह में लथ-पथ है, और अल्लाह तुम्हारे कामों से बेख़बर नहीं है।
331. यह मतलब नहीं है कि गिरवी (रेहन) का मामला सिर्फ़ सफ़र ही में हो सकता है, बल्कि ऐसी सूरत चूँकि ज़्यादातर सफ़र में पेश आती है, इसलिए ख़ास तौर पर इसका ज़िक्र (उल्लेख) कर दिया गया है। रेहन (गिरवी) के मामले के लिए यह शर्त भी नहीं है कि जब दस्तावेज़ लिखना मुमकिन न हो, सिर्फ़ उसी सूरत में रेहन का मामला किया जाए। इसके अलावा एक सूरत वह भी हो सकती है कि जब सिर्फ़ दस्तावेज़ लिखने पर कोई क़र्ज़ देने पर तैयार न हो तो क़र्ज़ चाहनेवाला अपनी कोई चीज़ रेहन रखकर रुपया ले ले। लेकिन क़ुरआन मजीद चूँकि अपनी पैरवी करनेवालों को फ़ैयाज़ी (दानशीलता) की तालीम देना चाहता है और यह बात बुलन्द अख़लाक़ से गिरी हुई है कि एक शख़्स माल रखता हो और वह एक ज़रूरतमंद आदमी को उसकी कोई चीज़ गिरवी रखे बिना क़र्ज़ न दे। इसलिए क़ुरआन ने जान-बूझकर इस दूसरी सूरत का ज़िक्र नहीं किया। इस सिलसिले में यह भी मालूम होना चाहिए कि गिरवी के सामान को अपने क़ब्ज़े में लेने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि क़र्ज़ देनेवाले को अपने क़र्ज़ की वापसी का इतमीनान हो जाए, उसे अपने दिए हुए माल के मुआवज़े में गिरवी रखी हुई चीज़ से फ़ायदा उठाने का हक़ और अधिकार नहीं है। अगर कोई आदमी गिरवी रखे हुए मकान में ख़ुद रहता है या उसका किराया खाता है तो अस्ल में सूद खाता है। क़र्ज़ पर सीधे तौर पर सूद लेने और गिरवी रखी हुई चीज़ से फ़ायदा उठाने में उसूली तौर पर कोई फ़र्क़ नहीं है। हाँ, अगर कोई जानवर गिरवी रखा गया हो तो उसका दूध इस्तेमाल किया जा सकता है और उससे सवारी और सामान ढुलाई की ख़िदमत ली जा सकती है, क्योंकि यह अस्ल में उस चारे का मुआवज़ा है जो वह उस गिरवी रखे हुए जानवर को खिलाता है।
332. गवाही देने से बचना या गवाही में सही बात बताने से बचना, दोनों ही गवाही छिपाना है।
لِّلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَإِن تُبۡدُواْ مَا فِيٓ أَنفُسِكُمۡ أَوۡ تُخۡفُوهُ يُحَاسِبۡكُم بِهِ ٱللَّهُۖ فَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 278
(284) आसमानों333 और ज़मीन में जो कुछ है, सब अल्लाह का है।334 तुम अपने दिल की बातें चाहे ज़ाहिर करो या छिपाओ, अल्लाह हर हाल में उनका हिसाब तुमसे ले लेगा।335 फिर उसे इख़्तियार है, जिसे चाहे माफ़ कर दे और जिसे चाहे सज़ा दे। उसे हर चीज़ पर क़ुदरत हासिल है।336
333. यहाँ बात ख़त्म हो रही है, इसलिए जिस तरह सूरा की शुरुआत दीन की बुनियादी तालीमात से की गई थी, उसी तरह सूरा को ख़त्म करते हुए भी उन तमाम उसूली बातों को बयान कर दिया गया है, जिनपर दीने-इस्लाम (इस्लाम-धर्म) की बुनियाद क़ायम है। यहाँ बयान की गई बातों को समझने के लिए इस सूरा के पहले रुकू (शुरू की सात आयतों) को सामने रख लिया जाए तो ज़्यादा फ़ायदेमन्द होगा।
334. यह दीन की सबसे पहली बुनियाद है। अल्लाह का ज़मीन व आसमान का मालिक होना और उन तमाम चीज़ों का, जो आसमान व ज़मीन में हैं, अल्लाह ही की मिलकियत होना, अस्ल में यही वह बुनियादी हक़ीक़त है जिसकी वजह पर इनसान के लिए कोई दूसरा तर्ज़े-अमल (रवैया) इसके सिवा जाइज़ और सही नहीं हो सकता कि वह अल्लाह की फ़रमाँबरदारी के लिए सर झुका दे।
335. इस जुमले में और दो बातें कही गई हैं। एक यह कि हर इनसान अल्लाह के सामने अपनी-अपनी निजी हैसियत से ज़िम्मेदार और जवाबदेह है, दूसरे यह कि ज़मीन व आसमान के जिस बादशाह के सामने इनसान जवाबदेह है, वह खुले-छिपे सबका इल्म रखनेवाला है, यहाँ तक कि दिलों के छिपे हुए इरादे और ख़यालात तक उससे छिपे हुए नहीं हैं।
336. यह बयान उस अल्लाह का है जो तमाम और सारे इख़्तियारों का मालिक है। उसको किसी क़ानून ने बाँध नहीं रखा है कि उसके मुताबिक़ काम करने पर वह मजबूर हो, बल्कि वह सारे इख़्तियारों का मालिक है। सज़ा देने और माफ़ करने के सभी इख़्तियार उसे हासिल हैं।
ءَامَنَ ٱلرَّسُولُ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مِن رَّبِّهِۦ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَۚ كُلٌّ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَمَلَٰٓئِكَتِهِۦ وَكُتُبِهِۦ وَرُسُلِهِۦ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّن رُّسُلِهِۦۚ وَقَالُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ غُفۡرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 279
(285) रसूल उस हिदायत (मार्गदर्शन) पर ईमान लाया है जो उसके रब की तरफ़ से उसपर उतरी है। और जो लोग इस रसूल के माननेवाले हैं, उन्होंने भी इस हिदायत को दिल से मान लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और उनका कहना यह है कि “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते। हमने हुक्म सुना और फ़रमाँबरदार हुए। मालिक! हम तुझसे ग़लतियों पर माफ़ी चाहते हैं और हमें तेरी ही तरफ़ पलटना है।337
337. इस आयत में तफ़सील में जाए बिना इस्लाम के अक़ीदे और इस्लामी तर्ज़े-अमल (कार्य-नीति) का ख़ुलासा (सार) बयान कर दिया गया है और वह यह है— अल्लाह को, उसके फ़रिश्तों को और उसकी किताबों को मानना, उसके तमाम रसूलों को तस्लीम करना बग़ैर इसके कि उनके बीच फ़र्क़ किया जाए (यानी किसी को माना जाए और किसी को न माना जाए) और इस बात को मानना कि आख़िरकार हमें उसके सामने हाज़िर होना है। ये पाँच बातें इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे (मूल धारणाएँ) हैं। इन अक़ीदों को क़ुबूल करने के बाद एक मुसलमान के लिए सही तर्ज़े-अमल यह है कि अल्लाह की तरफ़ से जो हुक्म पहुँचे, उसे वह दिल व जान से क़ुबूल करे। उसकी फ़रमाँबरदारी करे और अपने अच्छे कामों पर घमंड न करे, बल्कि अल्लाह से माफ़ी और दरगुज़र की दरख़ास्त करता रहे।
لَا يُكَلِّفُ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۚ لَهَا مَا كَسَبَتۡ وَعَلَيۡهَا مَا ٱكۡتَسَبَتۡۗ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذۡنَآ إِن نَّسِينَآ أَوۡ أَخۡطَأۡنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تَحۡمِلۡ عَلَيۡنَآ إِصۡرٗا كَمَا حَمَلۡتَهُۥ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِنَاۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلۡنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهِۦۖ وَٱعۡفُ عَنَّا وَٱغۡفِرۡ لَنَا وَٱرۡحَمۡنَآۚ أَنتَ مَوۡلَىٰنَا فَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 280
(286) अल्लाह किसी जान पर उसकी ताक़त से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता।338 हर आदमी ने जो नेकी कमाई है, उसका फल उसी के लिए है और जो बदी समेटी है, उसका वबाल उसी पर है।339 (ईमान लानेवालो! तुम यूँ दुआ किया करो,) ऐ हमारे रब! हमसे भूल-चूक में जो कुसूर हो जाएँ, उनपर पकड़ न कर। मालिक! हमपर वह बोझ न डाल जो तूने हमसे पहले लोगों पर डाले थे।340 पालनहार! जिस बोझ को उठाने की ताक़त हममें नहीं है, वह हम पर न रख341 हमारे साथ नर्मी कर, हमें माफ़ कर दे। हमपर रहम कर, तू हमारा मौला (स्वामी) है, कुफ़्र (अधर्म) करनेवालों के मुक़ाबले में हमारी मदद कर।342
338. अल्लाह के यहाँ इनसान की ज़िम्मेदारी उसकी ताक़त (सामर्थ्य) के लिहाज़ से है। ऐसा हरगिज़ नहीं होगा कि बन्दा एक काम करने की ताक़त न रखता हो और अल्लाह उससे पूछताछ करे कि फ़ुलाँ काम तूने क्यों न किया या एक चीज़ से बचना हक़ीक़त में उसकी ताक़त से बाहर हो और अल्लाह उसपर पकड़ करे कि उससे परहेज़ क्यों न किया। लेकिन यह बात याद रहे कि अपनी ताक़त और सकत का फ़ैसला करनेवाला इनसान ख़ुद नहीं है। इसका फ़ैसला अल्लाह ही कर सकता है कि एक शख़्स हक़ीक़त में किस चीज़ की ताक़त रखता था और किस चीज़ की न रखता था।
339. बदला दिए जाने के बारे में ख़ुदा का जो क़ानून मुक़र्रर है, यह उसका दूसरा बुनियादी नियम है। हर आदमी इनाम उसी ख़िदमत पर पाएगा जो उसने ख़ुद अंजाम दी हो। यह मुमकिन नहीं है कि एक आदमी की ख़िदमतों पर दूसरा इनाम पाए और इसी तरह हर आदमी उसी क़ुसूर में पकड़ा जाएगा जो उसने ख़ुद किया हो। यह नहीं हो सकता कि एक के क़ुसूर में दूसरा पकड़ा जाए। हाँ, यह ज़रूर मुमकिन है कि एक आदमी ने किसी नेक काम की बुनियाद रखी हो और दुनिया में हज़ारों साल तक उस काम का असर बाक़ी रहे और ये सब उसके कारनामों में लिखें जाएँ। और एक-दूसरे शख़्स ने किसी बुराई की बुनियाद रखी हो और सदियों तक दुनिया में उसका असर जारी रहे और उसे पहले ज़ालिम के हिसाब में लिखा जाता रहे, लेकिन यह अच्छा या बुरा जो कुछ भी फल होगा, उसी की कोशिश और उसी की कमाई का नतीजा होगा। बहरहाल, यह मुमकिन नहीं है कि जिस भलाई या जिस बुराई में आदमी की नीयत या कोशिश और काम का कोई हिस्सा न हो, उसकी सज़ा या कोई अच्छा फल मिल जाए। काम का बदला मिलने का यह उसूल ऐसा नहीं है कि करे कोई और भरे कोई और।
340. यानी उन लोगों को जो हमसे पहले गुज़र चुके हैं, तेरी राह में जो आज़माइशें पेश आईं, जिन ज़बरदस्त आज़माइशों से वे गुज़रे, जिन मुश्किलों से उन्हें दो-चार होना पड़ा, उनसे हमें बचा। हालाँकि ख़ुदा की सुन्नत यही रही है कि जिसने भी हक़ और सच्चाई की पैरवी का इरादा किया है, उसे सख़्त आज़माइशों और फ़ितनों से दो-चार होना पड़ा है और जब आज़माइशें पेश आएँ तो ईमानवाले का काम यही है कि पूरे जमाव और मज़बूती से उनका मुक़ाबला करे, लेकिन बहरहाल ईमानवाले को ख़ुदा से दुआ यही करनी चाहिए कि वह उसके लिए हक़परस्ती की राह को आसान कर दे।
341. यानी मुश्किलों का उतना ही बोझ हम पर डाल जिसे हम बरदाश्त कर लें। आज़माइशें बस उतनी ही भेज कि उनमें हम पूरे उतर जाएँ। ऐसा न हो कि हमारी बरदाश्त की ताक़त से बढ़कर सख़्तियाँ हमपर आएँ और हमारे क़दम हक़ के रास्ते से डगमगा जाएँ।
342. इस दुआ की पूरी रूह को समझने के लिए यह बात नज़र में रहनी चाहिए कि ये आयतें हिजरत से क़रीब एक साल पहले मेराज के मौक़े पर उतरी थीं, जबकि मक्का में कुफ़्र व इस्लाम की कशमकश अपनी आख़िरी हद को पहुँच चुकी थी और मुसलमानों पर मुश्किलों और मुसीबतों के पहाड़ टूट रहे थे। और सिर्फ़ मक्का ही नहीं, बल्कि अरब की ज़मीन पर कोई जगह ऐसी नहीं थी जहाँ ख़ुदा के किसी बन्दे ने दीने-हक़ (सत्य-धर्म) की पैरवी इख़्तियार की हो और उसके लिए, ख़ुदा की ज़मीन पर सांस लेना दुश्वार न कर दिया गया हो। इन हालात में मुसलमानों को नसीहत की गई कि अपने मालिक से इस तरह दुआ माँगा करो। ज़ाहिर है कि देनेवाला ख़ुद ही जब माँगने का ढंग बताए तो मिलने का यक़ीन आपसे आप पैदा होता है। इसलिए यह दुआ उस वक़्त मुसलमानों के लिए ग़ैर-मामूली तौर पर दिल की तसल्ली की वजह बनी। इसके अलावा इस दुआ में अलग से यह बात भी मुसलमानों से कह दी गई कि वे अपने जज़बात को किसी नामुनासिब रुख़ पर न बहने दें, बल्कि उन्हें इस दुआ के साँचे में ढाल लें। एक तरफ़ रूह को हिला देनेवाले उन ज़ुल्मों को देखिए— जो सिर्फ़ हक़ के रास्ते पर चलने के ज़ुर्म में उन लोगों पर तोड़े जा रहे थे और दूसरी तरफ़ इस दुआ को देखिए— जिसमें दुश्मनों के ख़िलाफ़ ज़रा भी किसी कड़वाहट का शाइबा (अंश) तक नहीं। एक तरफ़ उन जिस्मानी तकलीफ़ों और माली नुक़सानों को देखिए— जिनमें ये लोग पड़े हुए थे, और दूसरी तरफ़ उस दुआ को देखिए जिसमें दुनिया के किसी फ़ायदे की तलब का मामूली इशारा तक नहीं है; एक तरफ़ इन हकक़परस्तों की इन्तिहाई बदहाली को देखिए और दूसरी तरफ़ उन बुलन्द और पाकीज़ा जज़्बों को देखिए— जिनसे यह दुआ लबरेज़ (परिपूर्ण) है। दोनों में इस फ़र्क़ ही से सही अन्दाज़ा हो सकता है कि उस वक़्त ईमान वालों को किस तरह से अख़लाक़ी और रूहानी तरबियत (ट्रेनिंग) दी जा रही थी।
۞يَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِۖ قُلۡ فِيهِمَآ إِثۡمٞ كَبِيرٞ وَمَنَٰفِعُ لِلنَّاسِ وَإِثۡمُهُمَآ أَكۡبَرُ مِن نَّفۡعِهِمَاۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَۖ قُلِ ٱلۡعَفۡوَۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَتَفَكَّرُونَ ۝ 281
(219) पूछते हैं : शराब और जुए के बारे में क्या हुक्म है? कहो: इन दोनों चीज़ों में बड़ी ख़राबी है; हालाँकि इनमें लोगों के लिए कुछ फ़ायदे भी हैं, मगर इनका गुनाह इनके फ़ायदे से बहुत ज़्यादाहै।235 पूछते हैं : हम अल्लाह के रास्ते में क्या ख़र्च करें? कहो : जो कुछ तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा हो। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए साफ़-साफ़ अहकाम (आदेश) बयान करता है। शायद कि तुम दुनिया और आख़िरत दोनों की फ़िक्र करो।
235. यह शराब और जुए के बारे में पहला हुक्म है जिसमें सिर्फ़ नापसन्दीदगी का इज़हार करके छोड़ दिया गया है, ताकि दिल और दिमाग़ उनके हराम होने को क़ुबूल करने के लिए तैयार हो जाएँ। बाद में शराब पीकर नमाज़ पढ़ने से रोकने के सिलसिले में हुक्म आया। फिर शराब और जुए और इस तरह की तमाम चीज़ों को बिलकुल हराम कर दिया गया। (देखिए क़ुरआन, 4:43, 5:90)
فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۗ وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡيَتَٰمَىٰۖ قُلۡ إِصۡلَاحٞ لَّهُمۡ خَيۡرٞۖ وَإِن تُخَالِطُوهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ ٱلۡمُفۡسِدَ مِنَ ٱلۡمُصۡلِحِۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَأَعۡنَتَكُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 282
(220) पूछते हैं : यतीमों के साथ क्या मामला किया जाए? कहो : जिस तरीक़े के अमल (कर्म) में उनके लिए भलाई हो, वही अपनाना अच्छा है।236 अगर तुम अपना और उनका ख़र्च और रहना-सहना एक साथ रखो, तो इसमें कोई हरज नहीं, आख़िर वे तुम्हारे भाई-बन्धु ही तो हैं। बुराई करनेवाले और भलाई करनेवाले, दोनों का हाल अल्लाह पर ज़ाहिर है। अल्लाह चाहता तो इस मामले में तुमपर सख़्ती करता, मगर वह इख़्तियारवाला होने के साथ-साथ हिकमतवाला भी है।
236. इस आयत के उतरने से पहले क़ुरआन में यतीमों के हक़ और अधिकारों की हिफ़ाज़त के बारे में बार-बार सख़्त हुक्म आ चुके थे और यहाँ तक कह दिया गया था कि “यतीम के माल के पास न फटको” और यह कि “जो लोग यतीमों का माल ज़ुल्म के साथ खाते हैं, वे अपने पेट आग से भरते हैं।” इन सख़्त हुक्मों की वजह से वे लोग, जिनकी देख-रेख में यतीम बच्चे थे, इस क़द्र डर गए थे कि उन्होंने उनका खाना-पीना तक अपने से अलग कर दिया था और इतनी एहतियात बरतने के बाद भी उन्हें डर था कि कहीं यतीमों के माल का कोई हिस्सा उनके माल में न मिल जाए। इसी लिए उन्होंने नबी (सल्ल०) से मालूम किया कि इन बच्चों के साथ हमारे मामले की सही सूरत क्या है।
وَقَالَ لَهُمۡ نَبِيُّهُمۡ إِنَّ ٱللَّهَ قَدۡ بَعَثَ لَكُمۡ طَالُوتَ مَلِكٗاۚ قَالُوٓاْ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُ ٱلۡمُلۡكُ عَلَيۡنَا وَنَحۡنُ أَحَقُّ بِٱلۡمُلۡكِ مِنۡهُ وَلَمۡ يُؤۡتَ سَعَةٗ مِّنَ ٱلۡمَالِۚ قَالَ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰهُ عَلَيۡكُمۡ وَزَادَهُۥ بَسۡطَةٗ فِي ٱلۡعِلۡمِ وَٱلۡجِسۡمِۖ وَٱللَّهُ يُؤۡتِي مُلۡكَهُۥ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 283
(247) उनके नबी ने उनसे कहा कि अल्लाह ने तालूत269 को तुम्हारे लिए बादशाह मुक़र्रर किया है। यह सुनकर वे बोले, “हम पर बादशाह बनने का वह कैसे हक़दार हो गया? उसके मुक़ाबले में बादशाही के हम ज़्यादा हक़दार हैं। वह तो कोई बड़ा मालदार आदमी नहीं है।” नबी ने जवाब दिया, “अल्लाह ने तुम्हारे मुक़ाबले में उसी को चुना है। और उसको दिमाग़़ी और जिस्मानी दोनों तरह की भरपूर सलाहियतें दी हैं और अल्लाह को इख़्तियार है कि अपना मुल्क (राज्य) जिसे चाहे दे, अल्लाह बड़ी समाईवाला है और वह सब कुछ जानता है।”
269. बाइबल में उसका नाम साऊल लिखा है। यह क़बीला बिन-यमीन का एक तीस साल का नौजवान था। “बनी-इसराईल में उससे ख़ूबसूरत कोई शख़्स न था और ऐसा क़द्दावर (लम्बा) था कि लोग उसके कन्धे तक आते थे।” अपने बाप के गुमशुदा गधे ढूँढ़ने निकला था। रास्ते में जब शमूएल नबी की क़ियामगाह के क़रीब पहुँचा, तो अल्लाह ने नबी को इशारा किया कि यह शख़्स है जिसको हमने बनी-इसराईल की बादशाही के लिए चुना है। चुनाँचे शमूएल नबी उसे अपने घर लाए, तेल की कुप्पी लेकर उसके सर पर उड़ेली और उसे चूमा और कहा कि “ख़ुदावन्द ने तुझे मसह किया ताकि तू उसकी मीरास का पेशवा हो।” उसके बाद उन्होंने बनी-इसराईल का आम इजतिमाअ करके उसकी बादशाही का एलान किया। (शमूएल-1, अध्याय 9 और 10) यह बनी-इसराईल में दूसरा शख़्स था जिसको ख़ुदा के हुक्म से ‘मसह’ करके पेशवाई के मंसब पर मुक़र्रर किया गया। इससे पहले हज़रत हारून सरदार काहिन (Chief Priest) की हैसियत से मसह किए गए थे, उसके बाद तीसरे ममसूह या मसीह हज़रत दाऊद (अलैहि०) थे, लेकिन तालूत के मुताल्लिक़ ऐसा कोई बयान क़ुरआन या हदीस में नहीं है कि वह नुबूवत के मंसब पर भी सरफ़राज़ हुआ था। महज़ बादशाही के लिए नामज़द किया जाना इस बात के लिए काफ़ी नहीं हे कि उसे नबी तस्लीम किया जाए।
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلَّذِينَ أُحۡصِرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا يَسۡتَطِيعُونَ ضَرۡبٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ يَحۡسَبُهُمُ ٱلۡجَاهِلُ أَغۡنِيَآءَ مِنَ ٱلتَّعَفُّفِ تَعۡرِفُهُم بِسِيمَٰهُمۡ لَا يَسۡـَٔلُونَ ٱلنَّاسَ إِلۡحَافٗاۗ وَمَا تُنفِقُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٌ ۝ 284
(273) ख़ास तौर पर मदद के हक़दार वे तंगदस्त (निर्धन) हैं जो अल्लाह के काम में ऐसे घिर गए हैं कि अपनी निजी रोज़ी हासिल करने के लिए ज़मीन में कोई दौड़-धूप नहीं कर सकते। उनकी ख़ुद्दारी को देखकर अनजान आदमी समझता है कि ये ख़ुशहाल लोग हैं। तुम उनके चेहरों से उनकी अन्दरूनी हालत पहचान सकते हो, मगर वे ऐसे लोग नहीं हैं कि लोगों के पीछे पड़कर कुछ माँगें। उनकी मदद में जो कुछ माल तुम ख़र्च करोगे वह अल्लाह से छिपा न रहेगा।314
314. इस गरोह से मुराद वे लोग हैं जो ख़ुदा के दीन की ख़िदमत में अपने आपको पूरी तरह लगा देते हैं और सारा वक़्त दीनी ख़िदमतों में लगा देने की वजह से इस क़ाबिल नहीं रहते कि अपनी रोज़ी हासिल करने के लिए कोई जिद्दो-जुद कर सकें। नबी (सल्ल०) के ज़माने में अपनी मरज़ी से दीन की ख़िदमत करनेवालों का एक गरोह था, जो हमेशा इस काम में लगा रहता था। यह गरोह इतिहास में 'असहाबे-सुफ़्फ़ा' (चबूतरेवाले) के नाम से मशहूर है। ये तीन-चार सौ आदमी थे जो अपने-अपने घर-बार छोड़कर मदीना आ गए थे। हर वक़्त नबी (सल्ल०) के साथ रहते थे, हर ख़िदमत के लिए हर वक़्त हाज़िर थे। नबी (सल्ल०) जिस मुहिम पर चाहते, उन्हें भेज देते थे और जब मदीने से बाहर कोई काम न होता, उस वक़्त ये मदीना ही में रहकर दीन का इल्म हासिल करते और ख़ुदा के दूसरे बन्दों को उसकी तालीम देते रहते थे। चूँकि ये लोग पूरा वक़्त देनेवाले कारकुन (कार्य-कर्ता) थे और अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए अपने निजी वसाइल न रखते थे, इसलिए अल्लाह ने आम मुसलमानों को तवज्जोह दिलाई कि ख़ास तौर पर इनकी मदद करना अल्लाह की राह में ख़र्च करने के लिए बेहतरीन मद है।
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ سِرّٗا وَعَلَانِيَةٗ فَلَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ وَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 285
(274) जो लोग अपने माल रात-दिन खुले और छिपे ख़र्च करते हैं उनका बदला उनके रब के पास है और उनके लिए किसी डर और रंज की बात नहीं।