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سُورَةُ طه

20. ता० हा०

(मक्‍का में उतरी-आयतें 135)

परिचय

उतरने का समय

इस सूरा के उतरने का समय सूरा-19 मरयम के समय के निकट ही का है। संभव है कि यह हबशा की ओर हिजरत के समय में या उसके बाद उतरी हो। बहरहाल यह बात निश्चित है कि हज़रत उमर (रजि०) के इस्लाम स्वीकार करने से पहले यह उतर चुकी थी। [क्योकि अपनी बहन फ़तिमा-बिन्ते-ख़त्ताब (रज़ि०) के घर पर यही सूरा ता० हा० पढ़कर वे मुसलमान हुए थे] और यह हबशा की हिजरत से थोड़े समय के बाद ही की घटना है।

विषय और वार्ता

सूरा का आरंभ इस तरह होता है कि ऐ मुहम्मद ! यह क़ुरआन तुमपर कुछ इसलिए नहीं उतारा गया है कि यों ही बैठे-बिठाए तुमको एक मुसीबत में डाल दिया जाए। तुमसे यह माँग नहीं है कि हठधर्म लोगों के दिलों में ईमान पैदा करके दिखाओ। यह तो बस एक नसीहत और याददिहानी है, ताकि जिसके मन में अल्लाह का डर हो वह सुनकर सीधा हो जाए।

इस भूमिका के बाद यकायक हज़रत मूसा (अलैहि०) का किस्सा छेड़ दिया गया है। जिस वातावरण में यह किस्सा सुनाया गया है, उसके हालात से मिल-जुलकर यह मक्कावालों से कुछ और बातें करता नज़र आता है जो उसके शब्दों से नहीं, बल्कि उसके सार-संदर्भ से प्रकट हो रही हैं। इन बातों की व्याख्या से पहले यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि अरब में भारी तादाद में यहूदियों की उपस्थिति और अरबवालों पर यहूदियों की ज्ञानात्मक तथा मानसिक श्रेष्ठता के कारण, साथ ही रूम और हब्शा और ईसाई राज्यों के प्रभाव से भी, अरबों में सामान्य रूप से हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह का नबी माना जाता था। इस वास्तविकता को नज़र में रखने के बाद अब देखिए कि वे बातें क्या हैं जो इस किस्से के संदर्भ से मक्कावालों को जताई गई हैं:

  1. अल्लाह किसी को नुबूवत (किसी सामान्य घोषणा के साथ प्रदान नहीं किया करता। नुबूवत तो जिसको भी दी गई है, कुछ इसी तरह रहस्य में रखकर दी गई है, जैसे हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी गई थी। अब तुम्हें क्यों इस बात पर अचंभा है कि मुहम्मद (सल्ल०) यकायक नबी बनकर तुम्हारे सामने आ गए।
  2. जो बात आज मुहम्मद (सल्ल०) प्रस्तुत कर रहे हैं (यानी तौहीद और आख़िरत) ठीक वही बात नुबूवत के पद पर आसीन करते समय अल्लाह ने मूसा (अलैहि०) को सिखाई थी।
  3. फिर जिस तरह आज मुहम्मद (सल्ल०) को बिना किसी सरो-सामान और सेना के अकेले क़ुरैश के मुक़ाबले में सत्य की दावत का ध्वजावाहक बनाकर खड़ा कर दिया गया है, ठीक उसी तरह मूसा (अलैहि०) भी यकायक इतने बड़े काम पर लगा दिए गए थे कि जाकर फ़िरऔन जैसे सरकश बादशाह को सरकशी से रुक जाने को कहें। कोई फ़ौज उनके साथ नहीं भेजी गई थी।
  4. जो आपत्ति, सन्देह और आरोप, धोखाधड़ी और अत्याचार के हथकंडे मक्कावाले आज मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल कर रहे हैं, उनसे बढ़-चढ़कर वही सब हथियार फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में इस्तेमाल किए थे। फिर देख लो कि किस तरह वह अपनी तमाम चालों में विफल हुआ और अन्तत: कौन प्रभावी होकर रहा । इस सिलसिले में स्वयं मुसलमानों को भी एक निश्शब्द तसल्ली दी गई है कि अपनी बेसरो-सामानी के बावजूद तुम ही प्रभावी रहोगे। इसी के साथ मुसलमानों के सामने मिस्र के जादूगरों का नमूना भी पेश किया गया है कि जब सत्य उनपर खुल गया तो वे बे-धड़क उसपर ईमान ले आए, और फिर फ़िरऔन के प्रतिशोध का डर उन्हें बाल-बराबर भी ईमान के रास्ते से न हटा सका।
  5. अन्त में बनी-इसराईल के इतिहास से एक गवाही पेश करते हुए यह भी बताया गया है कि देवताओं और उपास्यों के गढ़े जाने का आरंभ किस हास्यास्पद ढंग से हुआ करता है और यह कि अल्लाह के नबी इस घिनौनी चीज़ का नामो-निशान तक बाक़ी रखने के कभी पक्षधर नहीं रहे हैं। अत: आज इस शिर्क और बुतपरस्ती का जो विरोध मुहम्मद (सल्ल०) कर रहे हैं, वह नुबूवत के इतिहास में कोई पहली घटना नहीं है।

इस तरह मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा सुनाकर उन तमाम बातों पर रौशनी डाली गई है जो उस समय उनकी और नबी (सल्ल.) के आपसी संघर्ष से ताल्लुक रखती थीं। इसके बाद एक संक्षिप्त उपदेश दिया गया है कि बहरहाल यह क़ुरआन एक उपदेश और याददिहानी है, इसपर कान धरोगे तो अपना ही भला करोगे, न मानोगे तो स्वयं बुरा अंजाम देखोगे।

फिर आदम (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करके यह बात समझाई गई है कि जिस नीति पर तुम लोग जा रहे हो, यह वास्तव में शैतान की पैरवी है। ग़लती और उसपर हठ अपने पाँवों पर आप कुल्हाड़ी मारना है, जिसका नुक़सान आदमी को ख़ुद ही भुगतना पड़ेगा, किसी दूसरे का कुछ न बिगड़ेगा।

अन्त में नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को समझया गया है कि अल्लाह किसी क़ौम को उसके कुफ़्र और इंकार पर तुरन्त नहीं पकड़ता, बल्कि संभलने के लिए काफ़ी मोहलत देता है। इसलिए घबराओ नहीं, सब के साथ इन लोगों की ज़्यादतियों को सहन करते चले जाओ और उपदेश का हक़ अदा करते रहो।

इसी सिलसिले में नमाज़ की ताक़ीद की गई है ताकि ईमानवालों में धैर्य, सहनशीलता, अल्लाह पर भरोसा, उसके फ़ैसले पर इत्मीनान और अपना जाइज़ा लेने के लिए वे गुण पैदा हों जो कि सत्य की ओर आह्वान का काम करने के लिए अपेक्षित हैं।

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سُورَةُ طه
20. ता-हा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
طه
(1) ता-हा,
مَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ لِتَشۡقَىٰٓ ۝ 1
(2) हमने यह क़ुरआन तुमपर इसलिए नहीं उतारा है कि तुम मुसीबत में पड़ जाओ।
إِلَّا تَذۡكِرَةٗ لِّمَن يَخۡشَىٰ ۝ 2
(3) यह तो एक याददिहानी है हर उस शख़्स के लिए जो डरे।1
1. यह जुमला पहले जुमले के मतलब पर ख़ुद रौशनी डालता है। दोनों को मिलाकर पढ़ने से साफ़ मतलब यह समझ में आता है कि क़ुरआन को उतार के हम कोई अनहोना काम तुमसे नहीं लेना चाहते। तुम्हारे सिपुर्द यह काम नहीं किया गया है कि जो लोग नहीं मानना चाहते, उनको मनवाकर छोड़ो और जिनके दिल ईमान के लिए बन्द हो चुके हैं उनके अन्दर ईमान उतारकर ही रहो। यह तो बस एक नसीहत और याददिहानी है और इसलिए भेजी गई है कि जिसके दिल में अल्लाह का कुछ डर हो, वह इसे सुनकर होश में आ जाए। अब अगर कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें अल्लाह का कुछ डर नहीं, और जिन्हें इसकी कुछ परवाह नहीं कि हक़ (सत्य) क्या है और बातिल (असत्य) क्या, उनके पीछे पड़ने की तुम्हें कोई ज़रूरत नहीं।
تَنزِيلٗا مِّمَّنۡ خَلَقَ ٱلۡأَرۡضَ وَٱلسَّمَٰوَٰتِ ٱلۡعُلَى ۝ 3
(4) उतारा गया है उस ज़ात की तरफ़ से जिसने पैदा किया है ज़मीन को और ऊँचे आसमानों को।
ٱلرَّحۡمَٰنُ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ ٱسۡتَوَىٰ ۝ 4
(5) वह रहमान (कायनात के) अर्श (राजसिंहासन) पर जलवाफ़रमा (विराजमान) है।2
2. यानी पैदा करने के बाद कहीं जाकर सो नहीं गया है, बल्कि आप अपनी इस कायनात का सारा इन्तिज़ाम चला रहा है, ख़ुद इस लम्बी-चौड़ी सल्तनत पर हुकूमत कर रहा है। वह पैदा करनेवाला ही नहीं है, अमली तौर से हुक्मराँ भी है।
لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَمَا تَحۡتَ ٱلثَّرَىٰ ۝ 5
(6) मालिक है उन सब चीज़ों का जो आसमानों और ज़मीन में हैं और जो ज़मीन और आसमान के बीच में हैं और जो मिट्टी के नीचे हैं।
وَإِن تَجۡهَرۡ بِٱلۡقَوۡلِ فَإِنَّهُۥ يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ وَأَخۡفَى ۝ 6
(7) तुम चाहे अपनी बात पुकारकर कहो, वह तो चुपके से कही हुई बात, बल्कि उससे ज़्यादा छिपी हुई बात भी जानता है।3
3. यानी कुछ ज़रूरी नहीं है कि जो ज़ुल्मो-सितम तुमपर और तुम्हारे साथियों पर हो रहा है और जिन शरारतों और बुरी हरकतों से तुम्हें नीचा दिखाने की कोशिशें की जा रही हैं, उनपर तुम बुलन्द आवाज़ ही में फ़रियाद करो। अल्लाह को ख़ूब मालूम है कि तुमपर क्या कैफ़ियत गुज़र रही है। वह तुम्हारे दिलों की पुकार तक सुन रहा है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰ ۝ 7
(8) वह अल्लाह है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं। उसके लिए बेहतरीन नाम हैं।4
4. यानी वह बेहतरीन ख़ूबियों का मालिक है।
وَهَلۡ أَتَىٰكَ حَدِيثُ مُوسَىٰٓ ۝ 8
(9) और तुम्हें कुछ मूसा की भी ख़बर पहुँची है?
إِذۡ رَءَا نَارٗا فَقَالَ لِأَهۡلِهِ ٱمۡكُثُوٓاْ إِنِّيٓ ءَانَسۡتُ نَارٗا لَّعَلِّيٓ ءَاتِيكُم مِّنۡهَا بِقَبَسٍ أَوۡ أَجِدُ عَلَى ٱلنَّارِ هُدٗى ۝ 9
(10) जबकि उसने एक आग देखी5 और अपने घरवालों से कहा कि “ज़रा ठहरो, मैंने एक आग देखी है। शायद कि तुम्हारे लिए एक-आध अंगारा ले आऊँ, या इस आग पर मुझे (रास्ते के बारे में) कोई रहनुमाई मिल जाए।”6
5. यह उस वक़्त का क़िस्सा है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) कुछ साल मदयन में जलावतनी की ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद अपनी बीवी को (जिनसे मदयन ही में शादी हुई थी) लेकर मिस्र को तरफ़ वापस जा रहे थे। इससे पहले का उनपर गुज़रा हुआ हाल सूरा-28 क़सस में बयान हुआ है, जिसका ख़ुलासा यह है कि जब हज़रत मूसा (अलैहि०) के हाथों एक मिस्री मारा गया था और इसपर उन्हें अपने पकड़े जाने का डर हो गया था तो उन्होंने मिस्र से भागकर मदयन में पनाह ले ली थी।
6. ऐसा महसूस होता है कि यह रात का वक़्त और जाड़े का ज़माना था। हज़रत मूसा (अलैहि०) जज़ीरा नुमा (प्रायद्वीप) सीना के दक्षिणी इलाक़े से गुज़र रहे थे। दूर से एक आग देखकर उन्होंने समझा कि या तो वहाँ से थोड़ी-सी आग मिल जाएगी, ताकि बाल-बच्चों को रात भर गर्म रखने का बन्दोबस्त हो जाए, या कम-से-कम वहाँ से यह पता चल जाएगा कि आगे रास्ता किधर है। सोचा था दुनिया का रास्ता मिलने का और वहाँ मिल गया आख़िरत का रास्ता।
فَلَمَّآ أَتَىٰهَا نُودِيَ يَٰمُوسَىٰٓ ۝ 10
(11) वहाँ पहुँचा तो पुकारा गया, “ ऐ मूसा!
إِنِّيٓ أَنَا۠ رَبُّكَ فَٱخۡلَعۡ نَعۡلَيۡكَ إِنَّكَ بِٱلۡوَادِ ٱلۡمُقَدَّسِ طُوٗى ۝ 11
(12) मैं ही तेरा रब हूँ, जूतियाँ उतार दे।7 तू मुक़द्दस (पाक) घाटी 'तुवा'8 में है।
7. शायद इसी वाक़िए की वजह से यहूदियों में यह शरई मसला बन गया कि जूते पहने हुए नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है। नबी (सल्ल०) ने इस ग़लतफहमी को दूर करने के लिए फ़रमाया, “यहूदियों के ख़िलाफ़ अमल करो; क्योंकि वे जूते और चमड़े के मोज़े पहनकर नमाज़ नहीं पढ़ते” (हदीस अबू-दाऊद)। इसका यह मतलब नहीं है कि ज़रूर जूते और चमड़े के मोज़े पहनकर ही नमाज़ पढ़नी चाहिए, बल्कि मतलब यह है कि ऐसा करना जाइज़ है, इसलिए दोनों तरह अमल करो। अबू-दाऊद में अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि उन्होंने नबी (सल्ल०) को दोनों तरह नमाज़ पढ़ते देखा है। हदीस की किताब मुसनद अहमद और अबू-दाऊद में अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब तुममें से कोई मस्जिद आए तो जूते को पलटकर देख ले। अगर कोई गन्दगी लगी हो तो ज़मीन से रगड़कर साफ़ कर ले और उन्हीं जूतों को पहने हुए नमाज़ पढ़ ले।” अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत में नबी (सल्ल०) के ये अलफ़ाज़ हैं, “अगर तुममें से किसी ने अपने जूते से गन्दगी को रौंदा हो तो मिट्टी उसको पाक कर देने के लिए काफ़ी है।” और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) की रिवायत में है, “एक जगह गन्दगी लगी हो तो दूसरी जगह जाते-जाते ख़ुद ज़मीन ही उसको पाक कर देगी।” इन बहुत-सी रिवायतों की बुनियाद पर इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम अबू-यूसुफ, इमाम औज़ाई और इसहाक़-बिन-राहवया वग़ैरा फ़क़ीह (इस्लामी धर्मशास्त्री) इस बात को मानते हैं कि जूता हर हाल में ज़मीन की मिट्टी से पाक हो जाता है। एक-एक क़ौल (कथन) इमाम अहमद और इमाम शाफ़िई का भी इसकी ताईद में है। मगर इमाम शाफ़िई का मशहूर क़ौल इसके ख़िलाफ़ है। शायद वे जूता पहनकर नमाज़ पढ़ने को अदब के ख़िलाफ़ समझकर मना करते हैं, अगरचे समझा यही गया है कि उनके नज़दीक जूता मिट्टी पर रगड़ने से पाक नहीं होता। (इस सिलसिले में यह बात ज़िक्र के क़ाबिल है, कि मस्जिदे-नबवी में चटाई तक का फ़र्श न था, बल्कि कंकरियाँ बिछी हुई थीं। लिहाज़ा इन हदीसों को दलील बनाकर अगर कोई शख़्स आज की मस्जिदों के फ़र्श पर जूते ले जाना चाहे तो यह सही न होगा। अलबत्ता घास पर या खुले मैदान में जूते पहने-पहने नमाज़ पढ़ सकते हैं। रहे वे लोग जो मैदान में जनाज़े की नमाज़ पढ़ते वक़्त भी जूते उतारने पर ज़िद करते हैं, वे अस्ल में शरई हुक्मों की जानकारी नहीं रखते)।
8. आम ख़याल यह है कि 'तुवा' उस घाटी का नाम था। मगर क़ुरआन के कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने 'वादिल-मुक़द्दसि-तुवा' का यह मतलब भी बयान किया है कि “वह वादी (घाटी) जो घड़ी भर के लिए मुक़द्दस (पाक) कर दी गई है।”
وَأَنَا ٱخۡتَرۡتُكَ فَٱسۡتَمِعۡ لِمَا يُوحَىٰٓ ۝ 12
(13) और मैंने तुझको चुन लिया है। सुन जो कुछ वह्य किया जाता है।
إِنَّنِيٓ أَنَا ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّآ أَنَا۠ فَٱعۡبُدۡنِي وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِذِكۡرِيٓ ۝ 13
(14) मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, इसलिए तू मेरी बन्दगी कर और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम कर।9
9. यहाँ नमाज़ के अस्ल मक़सद पर रौशनी डाली गई है कि आदमी ख़ुदा से ग़ाफ़िल न हो जाए दुनिया को धोखा देनेवाली ज़ाहिरी चीज़ें उसको हक़ीक़त से बेफ़िक्र न कर दें कि मैं किसी का बन्दा हूँ, आज़ाद और ख़ुदमुख़्तार नहीं हूँ। इस सोच को ताज़ा रखने और ख़ुदा से आदमी को ताल्लुक़ जोड़े रखने का सबसे बड़ा ज़रिआ नमाज़ है जो हर दिन कई बार आदमी को दुनिया के हंगामों से हटाकर ख़ुदा की तरफ़ ले जाती है। कुछ लोगों ने इसका यह मतलब भी लिया है कि 'नमाज़ क़ायम कर, ताकि मैं तुझे याद करूँ,’ जैसा कि दूसरी जगह फ़रमाया, “मुझे याद करो, मैं तुम्हें याद रखूँगा।” (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-152) इस आयत से एक मसला यह भी निकलता है कि जो शख़्स भूल जाए, उसे जब भी याद आए नमाज़ अदा कर लेनी चाहिए। हदीस में हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स किसी वक़्त की नमाज़ भूल गया हो, उसे चाहिए कि जब याद आए अदा कर ले, इसके सिवा उसका कोई कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) नहीं है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद)। इसी मानी में एक रिवायत हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से भी बयान हुई है जिसे मुस्लिम अबू-दाऊद और नसई वग़ैरा ने लिया है। और अबू-क़तादा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) से पूछा गया कि अगर हम नमाज़ के वक़्त सो गए हों तो क्या करें? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नींद में कुछ क़ुसूर नहीं, क़ुसूर तो जागने की हालत में है। तो जब तुममें से कोई शख़्स भूल जाए या सो जाए तो जब जागे या जब याद आए, नमाज़ पढ़ ले।” (हदीस : तिरमिज़ी, नसई, अबू-दाऊद)
إِنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٌ أَكَادُ أُخۡفِيهَا لِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا تَسۡعَىٰ ۝ 14
(15) क़ियामत की घड़ी ज़रूर आनेवाली है। मैं उसका वक़्त छिपाए रखना चाहता हूँ, ताकि हर शख़्स अपनी कोशिश के मुताबिक़ बदला पाए।10
10. तौहीद के बाद दूसरी हक़ीक़त जो हर ज़माने में तमाम नबियों पर ज़ाहिर की गई और जिसको तालीम देने पर वे लगाए गए, आख़िरत है। यहाँ न सिर्फ़ इस हक़ीक़त को बयान किया गया है बल्कि उसके मक़सद पर भी रौशनी डाली गई है। यह घड़ी जिसका इन्तिज़ार है, इसलिए आएगी कि हर शख़्स ने दुनिया में जो कोशिश की है उसका बदला आख़िरत में पाए। उसके वक़्त को छिपाकर भी इसलिए रखा गया है कि आज़माइश का मक़सद पूरा हो सके। जिसे अपने अंजाम की कुछ फ़िक्र हो उसको हर वक़्त इस घड़ी का खटका लगा रहे और यह खटका ग़लत रास्ते पर जाने से उसे बचाता रहे। और जो दुनिया में गुम रहना चाहता हो, वह इस ख़याल में मगन रहे कि क़ियामत अभी कहीं दूर-दूर भी आती नज़र नहीं आती।
فَلَا يَصُدَّنَّكَ عَنۡهَا مَن لَّا يُؤۡمِنُ بِهَا وَٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ فَتَرۡدَىٰ ۝ 15
(16) तो कोई ऐसा शख़्स जो उसपर ईमान न लाता और अपने मन की ख़ाहिश का बन्दा बन गया है, तुझको उस घड़ी की फ़िक्र से-रोक दे, वरना तू हलाकत में पड़ जाएगा
وَمَا تِلۡكَ بِيَمِينِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 16
(17) और ऐ मूसा! यह तेरे हाथ में क्या है?”11
11. यह सवाल जानकारी हासिल करने के लिए न था। यह तो अल्लाह तआला को भी मालूम था कि मूसा (अलैहि०) के हाथ मे लाठी है। पूछने का मक़सद यह था कि लाठी होना हज़रत मूसा (अलैहि०) को अच्छी तरह याद रहे और फिर वे अल्लाह तआला की क़ुदरत का करिश्मा देखें।
قَالَ هِيَ عَصَايَ أَتَوَكَّؤُاْ عَلَيۡهَا وَأَهُشُّ بِهَا عَلَىٰ غَنَمِي وَلِيَ فِيهَا مَـَٔارِبُ أُخۡرَىٰ ۝ 17
(18) मूसा ने जवाब दिया, “यह मेरी लाठी है, इसपर टेक लगाकर चलता हूँ, इससे अपनी बकरियों के लिए पत्ते झाड़ता हूँ, और भी बहुत-से काम हैं जो इससे लेता हूँ।"12
12. हालाँकि जवाब में सिर्फ़ इतना कह देना काफ़ी था कि हुज़ूर, यह लाठी है, मगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इस सवाल का जो लम्बा जवाब दिया वह उनकी उस वक़्त की दिली कैफ़ियत का एक दिलचस्प नक़्शा पेश करता है। क़ायदे की बात है कि जब आदमी को किसी बहुत बड़ी शख़्सियत से बात करने का मौक़ा मिल जाता है तो वह अपनी बात को लम्बा करने की कोशिश करता है, ताकि उसे ज़्यादा-से-ज़्यादा देर तक उसके साथ बात करने की ख़ुशनसीबी हासिल रहे।
قَالَ أَلۡقِهَا يَٰمُوسَىٰ ۝ 18
(19) कहा, “फेंक दे इसको मूसा!”
فَأَلۡقَىٰهَا فَإِذَا هِيَ حَيَّةٞ تَسۡعَىٰ ۝ 19
(20) उसने फेंक दिया और यकायक वह एक साँप थी जो दौड़ रहा था।
قَالَ خُذۡهَا وَلَا تَخَفۡۖ سَنُعِيدُهَا سِيرَتَهَا ٱلۡأُولَىٰ ۝ 20
(21) कहा, “पकड़ ले इसको और डर नहीं, हम इसे फिर वैसा ही कर देंगे जैसी यह थी।
وَٱضۡمُمۡ يَدَكَ إِلَىٰ جَنَاحِكَ تَخۡرُجۡ بَيۡضَآءَ مِنۡ غَيۡرِ سُوٓءٍ ءَايَةً أُخۡرَىٰ ۝ 21
(22) और ज़रा अपना हाथ अपनी बग़ल में दबा, चमकता हुआ निकलेगा बिना किसी तकलीफ़13 के। यह दूसरी निशानी है,
13. यानी रौशन ऐसा होगा कि जैसे सूरज हो, मगर तुम्हें उससे कोई तकलीफ़ न होगी। बाइबल में 'यदे-बैज़ा' का एक और ही मतलब बयान किया गया है जो वहाँ से निकलकर हमारे यहाँ की तफ़सीरों में भी रिवाज पा गया है। वह यह कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जब बग़ल में हाथ डालकर बाहर निकाला तो पूरा हाथ बर्स (सफ़ेद दाग) के रोगी की तरह सफ़ेद था। फिर जब दोबारा उसे बग़ल में रखा तो वह अस्ली हालत पर आ गया। यही मतलब इस मोजिज़े का तलमूद में भी बयान किया गया है और इसकी हिकमत यह बताई गई है कि फ़िरऔन को सफ़ेद दाग़ का रोग था जिसे वह छिपाए हुए था। इसलिए उसके सामने यह मोजिज़ा पेश किया गया कि देख यूँ आनन-फ़ानन बर्स का रोग पैदा भी होता है और दूर भी हो जाता है। लेकिन पहली बात तो यह कि कोई भी एक अच्छा और सुथरा ज़ौक़ (अभिरुचि) इसे पसन्द नहीं करता कि किसी नबी को बर्स का मोजिज़ा देकर एक बादशाह के दरबार में भेजा जाए। दूसरे अगर फ़िरऔन को छिपे तौर पर सफ़ेद दाग की बीमारी थी तो 'यदे-बैज़ा' सिर्फ़ उसके अपने लिए मोजिज़ा हो सकता था, उसके दरबारियों पर इस मोजिज़े का क्या रोब छा सकता था। इसलिए सही बात वही है जो हमने ऊपर बयान की कि उस हाथ में सूरज की-सी चमक पैदा हो जाती थी जिसे देखकर आँखें चकाचौंध हो जातीं। (क़ुरआन के) पुराने तफ़सीर लिखनेवालों में से भी बहुतों ने इसका यही मतलब बयान किया है।
لِنُرِيَكَ مِنۡ ءَايَٰتِنَا ٱلۡكُبۡرَى ۝ 22
(23) इसलिए कि हम तुझे अपनी बड़ी निशानियाँ दिखानेवाले हैं।
ٱذۡهَبۡ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 23
(24) अब तू फ़िरऔन के पास जा, वह सरकश हो गया है।”
قَالَ رَبِّ ٱشۡرَحۡ لِي صَدۡرِي ۝ 24
(25) मूसा ने अर्ज़ किया, “परवरदिगार, मेरा सीना खोल दे,14
14. यानी मेरे दिल में इस बड़े मंसब को संभालने की हिम्मत पैदा कर दे, और मेरा हौसला बढ़ा दे। चूँकि यह एक बहुत बड़ा काम हज़रत मूसा (अलैहि०) के सिपुर्द किया जा रहा था, जिसके लिए बड़े दिल-गुर्दे की ज़रूरत थी। इसलिए उन्होंने दुआ की कि मुझे वह सब्र, वह जमाव, वह बरदाश्त, वह बेख़ौफ़ी और इरादे की वह मज़बूती (अज़्म) दे जो इसके लिए दरकार है।
وَيَسِّرۡ لِيٓ أَمۡرِي ۝ 25
(26) और मेरे काम को मेरे लिए आसान कर दे
وَٱحۡلُلۡ عُقۡدَةٗ مِّن لِّسَانِي ۝ 26
(27) और मेरी ज़बान की गिरह (गुत्थी) सुलझा दे,
يَفۡقَهُواْ قَوۡلِي ۝ 27
(28) ताकि लोग मेरी बात समझ सकें,15
15. बाइबल में इसकी जो तशरीह (व्याख्या) बयान हुई है, वह यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने कहा, “ऐ ख़ुदा, में फ़सीह (वाक्पटु) नहीं हूँ, न पहले ही था और न जब से तूने अपने बन्दे से बात की, बल्कि रुक-रुककर बोलता हूँ और मेरी ज़बान साफ़ नहीं है।” (निष्कासन, 4:10) मगर तलमूद में इसका एक लम्बा-चौड़ा क़िस्सा बयान हुआ है। उसमें यह ज़िक्र है कि बचपन में जब मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन के घर परवरिश पा रहे थे, एक दिन उन्होंने फ़िरऔन के सर का ताज उतारकर अपने सर पर रख लिया। इसपर यह सवाल पैदा हुआ कि इस बच्चे ने यह काम जान-बूझकर किया है या सिर्फ़ एक बचकाना हरकत है। आख़िरकार यह तय किया गया कि बच्चे के सामने सोना और आग दोनों साथ रखे जाएँ। चुनाँचे दोनों चीज़ें लाकर सामने रखी गईं और हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उठाकर आग मुँह में रख ली। इस तरह उनकी जान तो बच गई मगर ज़बान हमेशा के लिए हकलाने लगी। यही क़िस्सा इसराईली रिवायतों से नक़्ल होकर हमारे यहाँ की तफ़सीरों में भी रिवाज पा गया। लेकिन अक़्ल इसे मानने से इनकार करती है। इसलिए कि अगर बच्चे ने आग पर हाथ मारा भी हो तो यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि वह अंगारे को उठाकर मुँह में ले जा सके। बच्चा तो आग की जलन महसूस करते ही हाथ खींच लेता है। मुँह में ले जाने की नौबत ही कहाँ आ सकती है? क़ुरआन के अलफ़ाज़़ से जो बात हमारी समझ में आती है, वह यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने अन्दर तक़रीर करने की सलाहियत न पाते थे और उनको यह डर था कि पैग़म्बरी की ज़िम्मेदारियाँ अदा करने के लिए अगर तक़रीर की कभी ज़रूरत पेश आई (जिसका उन्हें उस वक़्त तक कोई तजरिबा न हुआ था) तो उनके मिज़ाज की झिझक रुकावट बन जाएगी। इसलिए उन्होंने दुआ की कि या अल्लाह! मेरी ज़बान की गिरह खोल दे, ताकि मैं अच्छी तरह अपनी बात लोगों को समझा सकूँ। यही चीज़ थी जिसका फ़िरऔन ने एक बार उनको ताना दिया था कि “यह शख़्स तो अपनी बात भी पूरी तरह बयान नहीं कर सकता।” (क़ुरआन, सूरा-43 ज़ुखरुफ़, आयत-52) और यही कमज़ोरी थी जिसको महसूस करके हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अपने बड़े भाई हज़रत हारून (अलैहि०) को मददगार के तौर पर माँगा। सूरा-28 क़सस, आयत-34 में उनकी यह बात नक़्ल की गई है, “मेरा भाई हारून मुझसे ज़्यादा अच्छी तरह बात कर सकता है, उसको मेरे साथ मददगार के तौर पर भेज।” आगे चलकर मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह कमज़ोरी दूर हो गई थी और वे तक़रीर करने लगे थे। चुनाँचे क़ुरआन में और बाइबल में उनकी बाद के दौर की जो तक़रीरें आई हैं, वे ज़बान और बयान के लिहाज़ से इन्तिहाई ऊँचे दरजे की होने की गवाही देती हैं। यह बात अक़्ल के ख़िलाफ़ है कि अल्लाह तआला किसी हकले या तोतले आदमी को अपना रसूल बनाए। रसूल हमेशा शक्ल-सूरत, शख़्सियत और सलाहियतों के लिहाज से बेहतरीन लोग हुए हैं, जिनका खुला और छिपा हर पहलू दिलों और निगाहों को मुतास्सिर करनेवाला होता था। कोई रसूल ऐसे ऐब के साथ नहीं भेजा गया और नहीं भेजा जा सकता था जिसकी वजह से वह लोगों में मजाक़ बन जाए या नफ़रत की नज़र से देखा जाए।
وَٱجۡعَل لِّي وَزِيرٗا مِّنۡ أَهۡلِي ۝ 28
(29) और मेरे लिए मेरे अपने कुम्बे से एक वज़ीर (मददगार) मुक़र्रर कर दे।
هَٰرُونَ أَخِي ۝ 29
(30) हारून जो मेरा भाई है;16
16. बाइबल की रिवायत के मुताबिक़ हज़रत हारून (अलैहि०) हज़रत मूसा (अलैहि०) से तीन साल बड़े थे। (निष्कासन, 7:7)
ٱشۡدُدۡ بِهِۦٓ أَزۡرِي ۝ 30
(31) उसके ज़रिए से मेरा हाथ मज़बूत कर,
وَأَشۡرِكۡهُ فِيٓ أَمۡرِي ۝ 31
(32) और उसको मेरे काम में शरीक कर दे,
كَيۡ نُسَبِّحَكَ كَثِيرٗا ۝ 32
(33) ताकि हम ख़ूब तेरी पाकी बयान करें
وَنَذۡكُرَكَ كَثِيرًا ۝ 33
(34) और ख़ूब तेरी चर्चा करें।
إِنَّكَ كُنتَ بِنَا بَصِيرٗا ۝ 34
(35) तू हमेशा हमारे हाल पर निगराँ रहा है।”
قَالَ قَدۡ أُوتِيتَ سُؤۡلَكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 35
(36) कहा, “दिया गया जो तूने माँगा, ऐ मूसा!
وَلَقَدۡ مَنَنَّا عَلَيۡكَ مَرَّةً أُخۡرَىٰٓ ۝ 36
(37) हमने फिर एक बार तुझपर एहसान किया।17
17. इसके बाद अल्लाह तआला हज़रत मूसा (अलैहि०) को एक-एक करके वे एहसानात याद दिलाता है जो पैदाइश के वक़्त से लेकर उस वक़्त तक उसने उनपर किए थे। उन वाक़िआत की तफ़सील सूरा-28 क़सस में बयान हुई है। यहाँ सिर्फ़ इशारे किए गए हैं जिनका मक़सद हज़रत मूसा (अलहि०) को यह एहसास दिलाना है कि तुम उसी काम के लिए पैदा किए गए हो और उसी काम के लिए आज तक ख़ास तौर पर सरकारी निगरानी में परवरिश पाते रहे हो जिसपर अब तुम्हें लगाया जा रहा है।
إِذۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰٓ أُمِّكَ مَا يُوحَىٰٓ ۝ 37
(38) याद कर वह वक़्त जबकि हमने तेरी माँ को इशारा किया, ऐसा इशारा जो वह्य के ज़रिए से ही किया जाता है कि
أَنِ ٱقۡذِفِيهِ فِي ٱلتَّابُوتِ فَٱقۡذِفِيهِ فِي ٱلۡيَمِّ فَلۡيُلۡقِهِ ٱلۡيَمُّ بِٱلسَّاحِلِ يَأۡخُذۡهُ عَدُوّٞ لِّي وَعَدُوّٞ لَّهُۥۚ وَأَلۡقَيۡتُ عَلَيۡكَ مَحَبَّةٗ مِّنِّي وَلِتُصۡنَعَ عَلَىٰ عَيۡنِيٓ ۝ 38
(39) इस बच्चे को सन्दूक़ में रख दे और सन्दूक़ को दरिया में छोड़ दे। दरिया इसे किनारे पर फेंक देगा और इसे मेरा दुश्मन और इस बच्चे का दुश्मन उठा लेगा।” “मैने अपनी तरफ़ से तुझपर मुहब्बत डाल दी और ऐसा इन्तिज़ाम कर किया कि तू मेरी निगरानी में पाला जाए।
إِذۡ تَمۡشِيٓ أُخۡتُكَ فَتَقُولُ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ مَن يَكۡفُلُهُۥۖ فَرَجَعۡنَٰكَ إِلَىٰٓ أُمِّكَ كَيۡ تَقَرَّ عَيۡنُهَا وَلَا تَحۡزَنَۚ وَقَتَلۡتَ نَفۡسٗا فَنَجَّيۡنَٰكَ مِنَ ٱلۡغَمِّ وَفَتَنَّٰكَ فُتُونٗاۚ فَلَبِثۡتَ سِنِينَ فِيٓ أَهۡلِ مَدۡيَنَ ثُمَّ جِئۡتَ عَلَىٰ قَدَرٖ يَٰمُوسَىٰ ۝ 39
(40) याद कर जबकि तेरी बहन चल रही थी। फिर जाकर कहती है, “मैं तुम्हें उसका पता दूँ जो इस बच्चे की परवरिश अच्छी तरह करे?” इस तरह हमने तुझे फिर तेरी माँ के पास पहुँचा दिया, ताकि उसकी आँख ठडी रहे और वह दुखी न हो। और (यह भी याद कर कि) तूने एक शख़्स को क़त्ल कर दिया था, हमने तुझे इस फन्दे से निकाला और तुझे अलग-अलग तरह की आज़माइशों से गुज़ारा और तू मदयन के लोगों में कई साल ठहरा रहा। फिर अब ठीक अपने वक़्त पर तू आ गया है, ऐ मूसा!
وَٱصۡطَنَعۡتُكَ لِنَفۡسِي ۝ 40
(41) मैंने तुझको अपने काम का बना लिया है।
ٱذۡهَبۡ أَنتَ وَأَخُوكَ بِـَٔايَٰتِي وَلَا تَنِيَا فِي ذِكۡرِي ۝ 41
(42) जा, तू और तेरा भाई मेरी निशानियों के साथ। और देखो, तुम मेरी याद में कोताही न करना।
ٱذۡهَبَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ إِنَّهُۥ طَغَىٰ ۝ 42
(43) जाओ तुम दोनों फ़िरऔन के पास कि वह सरकश हो गया है।
فَقُولَا لَهُۥ قَوۡلٗا لَّيِّنٗا لَّعَلَّهُۥ يَتَذَكَّرُ أَوۡ يَخۡشَىٰ ۝ 43
(44) उससे नर्मी के साथ बात करना, शायद कि वह नसीहत क़ुबूल करे या डर जाए।"18
18. आदमी के सीधे रास्ते पर आने की दो ही शक्लें हैं। या तो वह समझाने और नसीहत करने से मुत्मइन होकर सही रास्ता अपना लेता है, या बुरे अंजाम से डरकर सीधा हो जाता है।
قَالَا رَبَّنَآ إِنَّنَا نَخَافُ أَن يَفۡرُطَ عَلَيۡنَآ أَوۡ أَن يَطۡغَىٰ ۝ 44
(45) दोनों ने18अ अर्ज़ किया, “परवरदिगार, हमें अन्देशा है कि वह हमपर ज़्यादती करेगा या पिल पड़ेगा।”
18 (अ). मालूम होता है कि यह उस वक़्त की बात है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) मिस्र पहुँच गए। और हज़रत हारून (अलैहि०) अमली तौर से उनके काम में शरीक हो गए। उस वक़्त फ़िरऔन के पास जाने से पहले दोनों ने अल्लाह तआला के सामने यह गुज़ारिश की होगी।
قَالَ لَا تَخَافَآۖ إِنَّنِي مَعَكُمَآ أَسۡمَعُ وَأَرَىٰ ۝ 45
(46) कहा, “डरो मत, मैं तुम्हारे साथ हूँ, सब कुछ सुन रहा हूँ और देख रहा हूँ।
فَأۡتِيَاهُ فَقُولَآ إِنَّا رَسُولَا رَبِّكَ فَأَرۡسِلۡ مَعَنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَا تُعَذِّبۡهُمۡۖ قَدۡ جِئۡنَٰكَ بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكَۖ وَٱلسَّلَٰمُ عَلَىٰ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 46
(47) जाओ उसके पास और कहो कि हम तेरे रब के भेजे हुए हैं, बनी-इसराईल को हमारे साथ जाने के लिए छोड़ दे और उनको तकलीफ़ न दे। हम तेरे पास तेरे रब की निशानी लेकर आए हैं, और सलामती है उसके लिए जो सीधे रास्ते की पैरवी करे।
إِنَّا قَدۡ أُوحِيَ إِلَيۡنَآ أَنَّ ٱلۡعَذَابَ عَلَىٰ مَن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 47
(48) हमको वह्य से बताया गया है कि अज़ाब है उसके लिए जो झुठलाए और मुँह मोड़े।"19
19. इस वाक़िए को बाइबल और तलमूद में जिस तरह बयान किया गया है उसे भी एक नज़र देख लीजिए, ताकि अन्दाज़ा हो कि क़ुरआन मजीद नबियों (अलैहि०) का ज़िक्र किस शान से करता है और बनी-इसराईल की रिवायतों में उनकी कैसी तस्वीर पेश की गई है। बाइबल का बयान है। कि पहली बार जब ख़ुदा ने मूसा से कहा कि “अब में तुझे फ़िरऔन के पास भेजता हूँ कि तू मेरी क़ौम बनी-इसराईल को मिस्र से निकाल लाए” तो हज़रत मूसा ने जवाब में कहा कि “मैं कौन हूँ जो फ़िरऔन के पास जाऊँ और बनी-इसराईल को मिस्र से निकाल लाऊँ।” फिर ख़ुदा ने हज़रत मूसा को बहुत कुछ समझाया, उनकी ढाढ़स बंधाई, मोजिज़े दिए, मगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फिर कहा तो यही कहा कि “ऐ ख़ुदावन्द, मैं तेरी मिन्नत करता हूँ किसी और के हाथ से जिसे तू चाहे, यह पैग़ाम भेज।” (निष्कासन, 4:13) तलमूद की रिवायत इससे भी कुछ क़दम आगे जाती है। उसका बयान यह है कि अल्लाह तआला और हज़रत मूसा (अलैहि०) के बीच सात दिन तक इसी बात पर तकरार होती रही। अल्लाह कहता रहा कि नबी बन, मगर मूसा (अलैहि०) कहते रहे कि मेरी ज़बान ही नहीं खुलती तो मैं नबी कैसे बन जाऊँ। आख़िर अल्लाह ने कहा कि मेरी ख़ुशी यह है कि तू नबी बन। इसपर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने कहा कि लूत (अलैहि०) को बचाने के लिए आपने फ़रिश्ते भेजे। हाजरा जब सारा के घर से निकली तो उसके लिए पाँच फ़रिश्ते भेजे, और अब अपने ख़ास बच्चों (बनी-इसराईल) को मिस्र से निकलवाने के लिए आप मुझे भेज रहे हैं। इसपर ख़ुदा नाराज़ हो गया और उसने रिसालत में उनके साथ हारून को शरीक कर दिया और मूसा की औलाद को महरूम करके कहानत का मंसब हारून की औलाद को दे दिया-ये किताबें हैं जिनके बारे में बेशर्म लोग कहते हैं कि क़ुरआन में इनसे क़िस्से नक़्ल कर लिए गए हैं।
قَالَ فَمَن رَّبُّكُمَا يَٰمُوسَىٰ ۝ 48
(49) फ़िरऔन20 ने कहा, “अच्छा तो फिर तुम दोनों का रब कौन है, ऐ मूसा?"21
20. यहाँ क़िस्से की इन तफ़सीलात को छोड़ दिया गया है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) किस तरह फ़िरऔन के पास पहुँचे और किस तरह अपनी दावत उसके सामने पेश की। ये तफ़सीलात सूरा-7 आराफ़, आयतें—100-108 में गुज़र चुकी हैं और आगे सूरा-26 शुअरा, आयतें—10-33; सूरा-28 क़सस, आयतें—28-40 और सूरा-79 नाज़िआत, आयतें—15-36 में आनेवाली हैं। फ़िरऔन के बारे में ज़रूरी जानकारी के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-85।
21. दोनों भाइयों में से अस्ल दावत देनेवाले चूँकि मूसा (अलहि०) थे, इसलिए फ़िरऔन ने उन्हीं से बात की। और हो सकता है कि बात का रुख़ उनकी तरफ़ रखने से उसका मक़सद यह भी हो कि वह हज़रत हारून की बोलने और तक़रीर करने की सलाहियत को मैदान में आने का मौक़ा न देना चाहता हो और तक़रीर करने के इस पहलू में हज़रत मूसा (अलैहि०) की कमज़ोरी से फ़ायदा उठाना चाहता हो जिसका ज़िक्र इससे पहले गुज़र चुका है। फ़िरऔन के इस सवाल का मंशा यह था कि तुम दोनों किसे रब बना बैठे हो? मिस्र और मिस्रवालों का रब तो मैं हूँ। सूरा-79 नाज़िआत, आयत-24 में उसका यह एलान नक़्ल किया गया है कि “ऐ मिस्रवालो, तुम्हारा रब्बे-आला (सबसे बड़ा रब) मैं हूँ!” सूरा-43 ज़ुख़रुफ़ में वह भरे दरबार से कहता है, “ऐ क़ौम, क्या मिस्र की बादशाही मेरी नहीं है? और ये नहरें मेरे नीचे नहीं बह रही हैं?” (आयत-51) सूरा-28 क़सस में वह अपने दरबारियों के सामने यूँ हुँकारता है, “ऐ क़ौम के सरदारो! मैं नहीं जानता कि मेरे सिवा तुम्हारा कोई और भी इलाह (माबूद) है, ऐ हामान! ज़रा ईंटें पकवा और एक बुलन्द इमारत मेरे लिए तैयार करा; ताकि मैं ज़रा ऊपर चढ़कर देखूँ तो सही कि यह मूसा किसे इलाह बना रहा है।” (आयत-98) सूरा-26 शुअरा में वह हज़रत मूसा (अलैहि०) को डाँटकर कहता है कि “अगर तूने मेरे सिवा किसी को इलाह (माबूद) बनाया तो याद रख कि तुझे जेल भेज दूँगा। (आयत-29) इसका यह मतलब नहीं है कि फ़िरऔन अपनी क़ौम का अकेला माबूद था और वहाँ उसके सिवा किसी की पूजा और इबादत न होती थी। यह बात पहले गुज़र चुकी है कि फ़िरऔन ख़ुद सूरज देवता ('रअ' या 'राअ') के अवतार की हैसियत से बादशाही का हक़ जताता था, और यह बात भी मिस्र के इतिहास से साबित है कि उस क़ौम के धर्म में बहुत-से देवी-देवताओं की पूजा होती थी। इसलिए फ़िरऔन का दावा यह न था कि सिर्फ़ वही एक अकेला माबूद है। जिसकी इबादत की जाए, बल्कि वह अमली तौर पर मिस्र की और नज़रिए के पहलू से अस्ल में सारे ही इनसानों की सियासी ख़ुदाई का दावेदार था और यह मानने के लिए तैयार न था कि उसके ऊपर कोई दूसरी हस्ती हाकिम हो जिसका नुमाइन्दा आकर उसे एक हुक्म दे और उसका हुक्म मानने की माँग उससे करे। कुछ लोगों को उसकी शेख़ी और डींग भरी बातों से यह ग़लतफ़हमी हुई है कि वह अल्लाह तआला के वुजूद को नहीं मानता था और ख़ुद ख़ुदा होने का दावा रखता था। मगर यह बात क़ुरआन से साबित है कि वह इस दुनिया से ऊपर किसी और की हुक्मरानी (सत्ता) को मानता था। सूरा-40 मोमिन, आयतें—28-34 और सूरा-43 ज़ुख़रुफ़ आयत-53 को ग़ौर से देखिए। ये आयतें इस बात की गवाही देती हैं कि अल्लाह तआला और फ़रिश्तों के वुजूद से उसको इनकार न था। अलबत्ता जिस चीज़ को मानने के लिए वह तैयार न था, वह यह थी कि उसकी सियासी ख़ुदाई में अल्लाह का कोई दख़ल हो और अल्लाह का कोई रसूल आकर उसपर हुक्म चलाए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-28 क़सस, हाशिया-53)
قَالَ رَبُّنَا ٱلَّذِيٓ أَعۡطَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ خَلۡقَهُۥ ثُمَّ هَدَىٰ ۝ 49
(50) मूसा ने जवाब दिया, “हमारा रब वह है22 जिसने हर चीज़ को उसकी सही शक्ल दी, फिर उसको रास्ता बताया।"23
22. यानी हम हर मानी में सिर्फ़ उसको रब मानते हैं। परवरदिगार, आक़ा, मालिक, हाकिम, सब कुछ हमारे नज़दीक वही है। किसी मानी में भी उसके सिवा कोई दूसरा रब हमें क़ुबूल नहीं है।
23. यानी दुनिया की हर चीज़ जैसी कुछ भी बनी हुई है, उसी के बनाने से बनी है। हर चीज़ को जो बनावट, जो शक्ल-सूरत जो ताक़त और सलाहियत, और जो ख़ूबी और ख़ासियत मिली हुई है, उसी की दी हुई है। हाथ को दुनिया में अपना काम करने के लिए जिस बनावट की ज़रूरत थी, वह उसको दी और पाँव को जो सबसे ज़्यादा मुनासिब बनावट चाहिए थी, वह उसको दी। इनसान, जानवर, पेड़-पौधे, जमादात (पत्थर, पहाड़, धातु वग़ैरा), हवा, पानी, रौशनी, हरेक चीज़ को उसने वह ख़ास सूरत दी है जो उसे कायनात में अपने हिस्से का काम ठीक-ठीक अंजाम देने के लिए चाहिए है। फिर उसने ऐसा नहीं किया कि हर चीज़ को उसकी ख़ास बनावट देकर यों ही छोड़ दिया हो। बल्कि उसके बाद वही उन सब चीज़ों की रहनुमाई भी करता है। दुनिया की कोई चीज़ ऐसी नहीं है जिसे अपनी बनावट से काम लेने और अपनी पैदाइश के मक़सद को पूरा करने का तरीक़ा उसने न सिखाया हो। कान को सुनना और आँख को देखना उसी ने सिखाया है। मछली को तैरना और चिड़िया को उड़ना उसी की तालीम से आया है। पेड़ को फल-फूल देने और ज़मीन को पेड़-पौधे उगाने की हिदायत उसी ने दी है। कहने का मतलब यह कि वह सारी कायनात (सृष्टि) और उसकी हर चीज़ का सिर्फ़ पैदा करनेवाला ही नहीं, हिदायत देनेवाला और सिखानेवाला भी है। इस बेमिसाल और बहुत-से मानी समेटे हुए इस मुख़्तसर से जुमले में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने सिर्फ़ यही नहीं बताया कि उनका रब कौन है, बल्कि यह भी बता दिया कि वह क्यों रब है। और किसलिए उसके सिवा किसी और को रब नहीं बनाया जा सकता। दावे के साथ उसकी दलील भी इसी छोटे-से जुमले में आ गई है। ज़ाहिर है कि जब फ़िरऔन और उसकी रिआया (जनता) का हर शख़्स अपने ख़ास वुजूद के लिए अल्लाह का एहसानमन्द है, और जब उनमें से कोई एक पल के लिए ज़िन्दा तक नहीं रह सकता जब तक उसका दिल और उसके फेफड़े और उसका मेदा (यकृत) और जिगर अल्लाह की दी हुई हिदायत से अपना काम न किए चले जाएँ तो फ़िरऔन का यह दावा कि वह लोगों का रब है, और लोगों का यह मानना कि वह सचमुच उनका रब है, एक बेवक़ूफ़ी और एक मज़ाक़ के सिवा कुछ नहीं हो सकता। इसके अलावा इसी छोटे-से जुमले में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इशारे में इस बात की दलील भी पेश कर दी कि वे ख़ुदा के पैग़म्बर हैं जिसके मानने से फ़िरऔन को इनकार था। उनकी दलील में यह इशारा पाया जाता है कि ख़ुदा जो पूरी कायनात का रहनुमा है और जो हर चीज़ को उसकी हालत और ज़रूरत के मुताबिक़ हिदायत दे रहा है, उसके आलमगीर हिदायत के मंसब का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि वह इनसान की शुऊरी ज़िन्दगी के लिए भी रहनुमाई का इन्तिज़ाम करे। और इनसान की शुऊरी ज़िन्दगी के लिए रहनुमाई की वह शक्ल मुनासिब नहीं हो सकती जो मछली और मुर्ग़ी की रहनुमाई के लिए मुनासिब है। उसकी सबसे ज़्यादा मुनासिब शक्ल यह है कि एक अक़्ल और समझ रखनेवाला इनसान उसकी तरफ़ से इनसानों को रहनुमाई पर मुक़र्रर हो और वह उनकी अक़्ल और समझ को अपील करके उन्हें सीधा रास्ता बताए।
قَالَ فَمَا بَالُ ٱلۡقُرُونِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 50
(51) फ़िरऔन बोला, “और पहले जो नस्लें गुज़र चुकी हैं, उनकी फिर क्या हालत थी?” 24
24. यानी अगर बात यही है कि जिसने हर चीज़ को उसकी शक्ल और बनावट दी और ज़िन्दगी में काम करने का रास्ता बताया, उसके सिवा कोई दूसरा रब नहीं हैं, तो यह हम सबके बाप-दादा जो सैकड़ों सालों से नस्ल दर नस्ल दूसरे रबों (उपास्यों) की बन्दगी करते चले आ रहे हैं उनकी तुम्हारे नज़दीक क्या पोज़ीशन है? क्या वे सब गुमराह थे? क्या वे सब अज़ाब के हक़दार थे? क्या उन सबकी अक़्लें मारी गई थीं? यह था फ़िरऔन के पास हज़रत मूसा (अलैहि०) की इस दलील का जवाब। हो सकता है कि फ़िरऔन ने यह जवाब नादानी की वजह से दिया हो और यह भी हो सकता है कि उसने शरारत में यह सवाल किया हो। और यह भी मुमकिन है कि इसमें दोनों बातें शामिल हों, यानी वह ख़ुद भी इस बात पर झल्ला गया हो कि इस मज़हब से हमारे तमाम बुज़ुर्ग गुमराह ठहरते हैं, और साथ-साथ उसका मक़सद यह भी हो कि अपने दरबारियों और मिस्र के आम लोगों के दिलों में हज़रत मूसा (अलैहि०) की दावत के ख़िलाफ़ एक तास्सुब (दुराग्रह) भड़का दे। हक़ के रास्ते पर चलनेवालों की तबलीग़ के ख़िलाफ़ यह हथकंडा हमेशा इस्तेमाल किया जाता रहा है और जाहिलों को भड़काने के लिए बड़ा असरदार साबित हुआ है। ख़ास तौर से उस ज़माने में जबकि क़ुरआन की ये आयतें उतरी हैं, मक्का में नबी (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए सबसे ज़्यादा इसी हथकंडे से काम लिया जा रहा था। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में फ़िरऔन की इस मक्कारी का ज़िक्र यहाँ बिलकुल मौक़े के मुताबिक़ था।
قَالَ عِلۡمُهَا عِندَ رَبِّي فِي كِتَٰبٖۖ لَّا يَضِلُّ رَبِّي وَلَا يَنسَى ۝ 51
(52) मूसा ने कहा, “उसका इल्म मेरे रब के पास एक किताब में महफ़ूज़ है। मेरा रब न चूकता है, न भूलता है।"25
25. यह एक बहुत हिकमत से भरा जवाब है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उस वक़्त दिया और इससे तबलीग़ करने की हिकमत का एक बेहतरीन सबक़ मिलता है। फ़िरऔन का मक़सद, जैसा कि ऊपर बयान हुआ है, सुननेवालों के और उनके ज़रिए से पूरी क़ौम के दिलों में तास्सुब की आग भड़काना था। अगर हज़रत मूसा (अलहि०) कहते कि हाँ, वे सब जाहिल और गुमराह थे और सबके सब जहन्नम का इंधन बनेंगे तो चाहे यह सच बोलने का बड़ा ज़बरदस्त नमूना होता; मगर यह जवाब हज़रत मूसा के बजाय फ़िरऔन के मक़सद को ज़्यादा पूरा करता। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इन्तिहाई अक़्लमन्दी के साथ ऐसा जवाब दिया जो अपने आप में सच भी था और साथ-ही-साथ उसने फ़िरऔन के सारे ज़हरीले दाँत भी तोड़ दिए। उन्होंने फ़रमाया कि वे लोग जैसे कुछ भी थे, अपना काम करके ख़ुदा के यहाँ जा चुके हैं। मेरे पास उनके कामों और उनकी नीयतों को जानने का कोई ज़रिआ नहीं है कि उनके बारे में कोई बात कहूँ। उनका पूरा रिकॉर्ड अल्लाह के पास महफ़ूज़ है। उनकी एक-एक हरकत और उसको उन्होंने क्यों अंजाम दिया है, इन सब बातों को ख़ुदा जानता है। न ख़ुदा की निगाह से कोई चीज़ बची रह गई है और न उसकी याददाश्त से कोई चीज़ मिटी है। उनसे जो कुछ भी मामला ख़ुदा को करना है, उसको वही जानता है। मुझे और तुम्हें यह फ़िक्र नहीं होनी चाहिए कि उनका ख़याल या नज़रिया क्या था और उनका अंजाम क्या होगा। हमें तो इसकी फ़िक्र होनी चाहिए कि हमारा नज़रिया और रवैया क्या है और हमें किस अंजाम का सामना करना है।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَسَلَكَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا وَأَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّن نَّبَاتٖ شَتَّىٰ ۝ 52
(53) वही26 जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन का फ़र्श बिछाया, और उसमें तुम्हारे चलने को रास्ते बनाए,और ऊपर से पानी बरसाया; फिर उसके ज़रिए से अलग-अलग तरह की पैदावार निकाली।
26. बयान के अन्दाज़ से साफ़ महसूस होता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) का जवाब 'न भूलता है' पर ख़त्म हो गया, और यहाँ से आयत-55 तक की पूरी बात अल्लाह तआला की तरफ़ से वाज़ेह करने और याददिहानी के तौर पर कही गई है। क़ुरआन में इस तरह की बहुत-सी मिसालें मौजूद हैं कि किसी गुज़रे हुए या आगे होनेवाले वाक़िए को बयान करते हुए जब किसी आदमी की कोई बात नक़्ल की जाती है तो उसके बाद फ़ौरन कुछ जुमले नसीहत करने या बात को समझाने या खोलकर और वाज़ेह करके बयान करने के लिए भी कहे जाते हैं और सिर्फ़ बात के अन्दाज़ से पता चल जाता है कि यह उस शख़्स की बात नहीं है जिसका पहले ज़िक्र हो रहा था, बल्कि यह अल्लाह तआला की अपनी बात है। वाज़ेह रहे कि इस इबारत का ताल्लुक़ सिर्फ़ क़रीब के जुमले 'मेरा रब न चूकता है, न भूलता है' से ही नहीं है, बल्कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की पूरी बात से है जो ‘हमारा रब वह है जिसने हर चीज़ को उसकी शक्ल और बनावट दी' से शुरू हुई है।
كُلُواْ وَٱرۡعَوۡاْ أَنۡعَٰمَكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ ۝ 53
(54) खाओ और अपने जानवरों को भी चराओ। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं अक़्ल रखनेवालों के लिए।27
27. यानी जो लोग अक़्ले-सलीम (सद्बुद्धि) से काम लेकर सच्चाई को जानना चाहते हों, वे इन निशानों की मदद से सही मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता मालूम कर सकते हैं। ये निशान उनको बता देंगे कि इस कायनात (सृष्टि) का एक रब है और रुबूबियत (प्रभुत्व) सारी की सारी उसी की है। किसी दूसरे के लिए यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है।
۞مِنۡهَا خَلَقۡنَٰكُمۡ وَفِيهَا نُعِيدُكُمۡ وَمِنۡهَا نُخۡرِجُكُمۡ تَارَةً أُخۡرَىٰ ۝ 54
(55) इसी ज़मीन से हमने तुमको पैदा किया है; इसी में हम तुम्हें वापस ले जाएँगे और इसी से तुमको दोबारा निकालेंगे।28
28. यानी हर इनसान को लाज़िमी तौर पर तीन मरहलों से गुज़रना है। एक मरहला मौजूदा दुनिया में पैदाइश से लेकर मौत तक का, दूसरा मरहला मौत से क़ियामत तक का और तीसरा क़ियामत के दिन दोबारा ज़िन्दा होने के बाद का मरहला। ये तीनों मरहले इस आयत के मुताबिक़ इसी ज़मीन पर गुज़रनेवाले हैं।
وَلَقَدۡ أَرَيۡنَٰهُ ءَايَٰتِنَا كُلَّهَا فَكَذَّبَ وَأَبَىٰ ۝ 55
(56) हमने फ़िरऔन को अपनी सभी निशानियाँ29 दिखाई, मगर वह झुठलाए चला गया और न माना।
29. यानी बाहरी दुनिया और ख़ुद इनसान के अन्दर की दलीलों की निशानियाँ भी और वे मोजिज़े भी जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को दिए गए थे। क़ुरआन में कई जगहों पर हज़रत मूसा (अलैहि०) की वे तक़रीरें भी मौजूद हैं जो उन्होंने फ़िरऔन को समझाने के लिए की थीं। और उन मोजिज़ों का भी ज़िक्र है जो उसको एक-के-बाद एक दिखाए गए।
قَالَ أَجِئۡتَنَا لِتُخۡرِجَنَا مِنۡ أَرۡضِنَا بِسِحۡرِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 56
(57) कहने लगा, “ऐ मूसा, क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि के ज़ोर से हमको हमारे देश से निकाल बाहर करे?30
30. जादू से मुराद असा (लाठी) और यदे-बैज़ा (चमकता हाथ) का मोजिज़ा है जो सूरा-7 आराफ़ और सूरा-26 शुअरा की तफ़सीलात के मुताबिक़ हज़रत मूसा (अलैहि०) ने पहली मुलाक़ात के वक़्त भरे दरबार में पेश किया था। इस मोजिज़े को देखकर फ़िरऔन पर जो बदहवासी छाई उसका अन्दाज़ा उसके इसी जुमले से किया जा सकता है कि “तू अपने जादू के ज़ोर से हमें हमारे देश से निकाल बाहर करना चाहता है।” दुनिया के इतिहास में न पहले कभी ऐसा हुआ था और न बाद में कभी हुआ कि किसी जादूगर ने अपने जादू के ज़ोर से कोई देश जीत लिया हो। फ़िरऔन के अपने देश में सैकड़ों-हज़ारों जादूगर मौजूद थे जो तमाशे दिखा-दिखाकर इनाम के लिए हाथ फैलाते फिरते थे। इसलिए फ़िरऔन का एक तरफ़ यह कहना कि तू जादूगर है और दूसरी तरफ़ यह ख़तरा ज़ाहिर करना कि तू मेरी सल्तनत छीन लेना चाहता है, खुली हुई घबराहट की निशानी है। अस्ल में वह हज़रत मूसा (अलैहि०) की मुनासिब और दलीलों से भरी तक़रीर सुनकर, और फिर उनके मोजिज़े को देखकर यह समझ गया था कि न सिर्फ़ उसके दरबारी, बल्कि उसकी रिआया के भी आम और ख़ास लोग उससे मुतास्सिर हुए बिना न रह सकेंगे। इसलिए उसने झूठ और फ़रेब और तास्सुबात (दुराग्रह) जैसी भड़कीली बातों से काम निकालने की कोशिश शुरू कर दी। उसने कहा, यह मोजिज़ा नहीं, जादू है और हमारी सल्तनत का हर जादूगर इसी तरह लाठी को साँप बनाकर दिखा सकता है। उसने कहा कि लोगो, ज़रा देखो, यह तुम्हारे बाप-दादा को गुमराह और जहन्नमी ठहराता है। उसने कहा कि लोगो, होशियार हो जाओ; यह पैग़म्बर-वैग़म्बर कुछ नहीं है, इक़तिदार का भूखा है; चाहता है कि यूसुफ़ के ज़माने की तरह फिर बनी-इसराईल यहाँ हुकूमत करने लगे और क़िब्ती क़ौम से हुकूमत छीन ली जाए। इन हथकंडों से वह हक़ की दावत को नीचा दिखाना चाहता था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें,तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—87-89; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-75) इस मक़ाम पर यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि हर ज़माने में हुकूमत में बैठे लोगों ने हक़ की ओर बुलानेवालों को यही इलज़ाम दिया है कि वे अस्ल में हुकूमत के भूखे हैं और सारी बातें इसी मक़सद के लिए कर रहे हैं। इसकी मिसालों के लिए देखें— सूरा-7 आराफ़, आयतें—110, 123; सूरा-10 यूनुस, आयत-78; सूरा-23 मोमिनून, आयत-24।
فَلَنَأۡتِيَنَّكَ بِسِحۡرٖ مِّثۡلِهِۦ فَٱجۡعَلۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكَ مَوۡعِدٗا لَّا نُخۡلِفُهُۥ نَحۡنُ وَلَآ أَنتَ مَكَانٗا سُوٗى ۝ 57
(58) अच्छा, हम भी तेरे मुक़ाबले में वैसा ही जादू लाते हैं। तय कर ले कब और कहाँ मुक़ाबला करना है। न हम इस क़रारदाद (प्रस्ताव) से फिरेंगे, न तू फिरना; खुले मैदान में सामने आ जा।”
قَالَ مَوۡعِدُكُمۡ يَوۡمُ ٱلزِّينَةِ وَأَن يُحۡشَرَ ٱلنَّاسُ ضُحٗى ۝ 58
(59) मूसा ने कहा, “जश्न का दिन तय हुआ, और दिन चढ़े लोग इकट्ठा हों।”31
31. फ़िरऔन का मक़सद यह था कि एक बार जादूगरों से लाठियों और रस्सियों का साँप बनवाकर दिखा दूँ तो मूसा के मोजिज़े का जो असर लोगों के दिलों पर हुआ है, वह दूर हो जाएगा। यह हज़रत मूसा (अलैहि०) की मुँह माँगी मुराद थी। उन्होंने कहा कि अलग कोई दिन और जगह तय करने की क्या ज़रूरत है। जश्न का दिन क़रीब है जिसमें सारे देश के लोग राजधानी में खिंचकर आ जाते हैं। वहीं मेले के मैदान में मुक़ाबला हो जाए, ताकि सारी क़ौम देख ले। और वक़्त भी दिन की पूरी रौशनी का होना चाहिए, ताकि शक-शुब्हे के लिए कोई गुंजाइश न रहे।
فَتَوَلَّىٰ فِرۡعَوۡنُ فَجَمَعَ كَيۡدَهُۥ ثُمَّ أَتَىٰ ۝ 59
(60) फ़िरऔन ने पलटकर अपने सारे हथकंडे जमा किए और मुक़ाबले में आ गया।32
32. फ़िरऔन और उसके दरबारियों की निगाह में इस मुक़ाबले की अहमियत यह थी कि वे इसी के फ़ैसले पर अपनी क़िस्मत के फ़ैसले का दारोमदार समझ रहे थे। सारे देश में आदमी दौड़ा दिए गए कि जहाँ-जहाँ कोई माहिर जादूगर मौजूद हो, उसे ले आएँ। इसी तरह आम लोगों को भी जमा करने के लिए ख़ास तौर पर उभारा गया, ताकि ज़्याद-से-ज़्यादा लोग इकट्ठे हों और अपनी आँखों से जादू के कमाल देखकर मूसा (अलैहि०) की लाठी के रोब से बच जाएँ। खुल्लम-खुल्ला कहा जाने लगा कि हमारे दीन का दारोमदार अब जादूगरों के करतब पर है। वे जीतें तो हमारा दीन बचेगा, वरना मूसा का दीन छाकर रहेगा (देखिए— सूरा-26 शुअरा, आयतें—34-51)। इस मक़ाम पर यह हक़ीक़त भी सामने रहनी चाहिए कि मिस्र के शाही ख़ानदान और अमीर लोगों का मज़हब आम लोगों के मज़हब से काफ़ी अलग था। दोनों के देवता और मन्दिर अलग-अलग थे। मज़हबी काम और रस्में भी एक जैसी न थीं और मौत के बाद आनेवाली ज़िन्दगी के मामले में भी जिसको मिस्र में बहुत बड़ी अहमियत हासिल थी, दोनों के अमली तरीक़े और नज़री अंजाम में बहुत बड़ा फ़र्क़ पाया जाता था। (देखिए—Toynbee की A Study of History , page 31, 32)। इसके अलावा मिस्र में इससे पहले जो मज़हबी इंक़िलाब आए थे, उनकी वजह से वहाँ की आबादी में ऐसे बहुत-से लोग पैदा हो चुके थे जो एक मुशरिकाना मज़हब के मुक़ाबले में एक तौहीदी मज़हब (एकेश्वरवादी धर्म) को तरजीह देते थे या दे सकते थे। मिसाल के तौर पर ख़ुद बनी-इसराईल और उनके मज़हब को माननेवाले लोग आबादी का कम-से-कम दस फ़ीसद हिस्सा थे। इसके अलावा उस मज़हबी इंक़िलाब को अभी पूरे डेढ़ सौ साल भी न बीते थे जो फ़िरऔन अमीनूफ़िस या अख़नातून (1977-1360 ई०पू०) ने हुकूमत के ज़ोर से बरपा किया था, जिसमें तमाम माबूदों को ख़त्म करके सिर्फ़ एक माबूद 'आतून' बाक़ी रखा गया था। हालाँकि इस इंक़िलाब को बाद में हुकूमत ही के ज़ोर से उलट दिया गया, मगर कुछ-न-कुछ तो अपने असरात वह भी छोड़ गया था। इन हालात को निगाह में रखा जाए तो फ़िरऔन की वह घबराहट अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उस मौक़े पर उसके अन्दर पैदा हो गई थी।
قَالَ لَهُم مُّوسَىٰ وَيۡلَكُمۡ لَا تَفۡتَرُواْ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا فَيُسۡحِتَكُم بِعَذَابٖۖ وَقَدۡ خَابَ مَنِ ٱفۡتَرَىٰ ۝ 60
(61) मूसा ने (ठीक मौक़े पर सामनेवाले गरोह को मुख़ातब करके) कहा,33 “शामत के मारो, न झूठे इलज़ाम लगाओ अल्लाह पर,34 वरना वह एक सख़्त अज़ाब से तुम्हारा सत्यानाश कर देगा। झूठ जिसने भी गढ़ा, वह नाकाम हुआ।”
33. यह बात आम लोगों से नहीं कही गई थी जिन्हें अभी हज़रत मूसा (अलैहि०) के बारे में यह फ़ैसला करना था कि वह मोजिज़ा दिखाते हैं या जादू, बल्कि यह बात फ़िरऔन और उसके दरबारियों से कही जा रही थी जो उन्हें जादूगर बता रहे थे।
34. यानी उसके मोजिज़े को जादू और उसके पैग़म्बर को महाझूठा जादूगर न कहो।
فَتَنَٰزَعُوٓاْ أَمۡرَهُم بَيۡنَهُمۡ وَأَسَرُّواْ ٱلنَّجۡوَىٰ ۝ 61
(62) यह सुनकर उनके बीच इख़्तिलाफ़ (मतभेद) हो गया और वे चुपके चुपके आपस में मशवरा करने लगे।35
35. इससे मालूम होता है कि वे लोग अपने दिलों में अपनी कमज़ोरी को ख़ुद महसूस कर रहे थे। उनको मालूम था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जो कुछ दिखाया है, वह जादू नहीं है। वे पहले ही से उस मुक़ाबले में डरते और हिचकिचाते हुए आए थे, और जब बिलकुल मौक़े पर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने ललकार कर उनको ख़बरदार किया तो उनका हौसला एकाएक डगमगा गया। उनका इख़्तिलाफ़ इस बात में हुआ होगा कि क्या इस बड़े त्योहार के मौक़े पर, जबकि पूरे देश से आए हुए आदमी इकट्ठे हैं, खुले मैदान और दिन की पूरी रौशनी में यह मुक़ाबला करना ठीक है या नहीं। अगर यहाँ हम हार गए और सबके सामने जादू और मोजिज़े का फ़र्क़ खुल गया तो फिर बात संभाले न संभल सकेगी।
قَالُوٓاْ إِنۡ هَٰذَٰنِ لَسَٰحِرَٰنِ يُرِيدَانِ أَن يُخۡرِجَاكُم مِّنۡ أَرۡضِكُم بِسِحۡرِهِمَا وَيَذۡهَبَا بِطَرِيقَتِكُمُ ٱلۡمُثۡلَىٰ ۝ 62
(63) आख़िरकार कुछ लोगों ने कहा,36 ये दोनों तो महज़ जादूगर हैं। इनका मक़सद यह है कि अपने जादू के ज़ोर से तुमको तुम्हारी ज़मीन से बेदख़ल कर दें और तुम्हारे मिसाली तरीक़ा-ए-ज़िन्दगी का ख़ातिमा कर दें।37
36. और यह कहनेवाले ज़रूर ही फ़िरऔनी पार्टी के वे सिरफिरे लोग होंगे जो हज़रत मूसा (अलैहि०) की मुख़ालफ़त में हर बाज़ी खेल जाने पर तैयार थे। दुनिया देखे हुए और मामलों को समझ रखनेवाले लोग क़दम आगे बढ़ाते हुए झिझक रहे होंगे। और ये सिरफिरे जोशीले लोग कहते होंगे कि ख़ाह-मख़ाह की दूर-अंदेशियों छोड़ दो और जी कड़ा करके मुक़ाबला कर डालो।
37. यानी उन लोगों का दारोमदार दो बातों पर था। एक यह कि अगर जादूगर भी मूसा (अलैहि०) की तरह लाठियों से साँप बनाकर दिखा देंगे तो मूसा का जादूगर होना आम लोगों के सामने साबित हो जाएगा। दूसरे यह कि वे तास्सुबात (दुराग्रह) की आग भड़काकर हुक्मराँ तबक़े को अंधा जोश दिलाना चाहते थे और इस बात से उन्हें डरा रहे थे कि मूसा के ग़ालिब आ जाने का मतलब तुम्हारे हाथों से देश निकल जाना और तुम्हारी मिसाली (Ideal) तरीक़ा-ए-ज़िन्दगी का ख़त्म हो जाना है। वे देश के बाअसर तबके को डरा रहे थे कि अगर मूसा के हाथ में ताक़त आ गई तो यह तुम्हारी तहज़ीब और यह तुम्हारा आर्ट और यह तुम्हारा ख़ूबसूरत और हसीन तमददुन (सभ्यता) और ये तुम्हारी तफ़रीहें, और ये तुम्हारी औरतों की आज़ादियाँ (जिनके शानदार नमूने हज़रत यूसुफ़ के ज़माने की औरतें पेश कर चुकी थीं) ग़रज़ वह सब कुछ, जिसके बिना ज़िन्दगी का कोई मज़ा नहीं, बर्बाद होकर रह जाएगा। इसके बाद तो निरे 'मुल्लापन' का राज होगा जिसे बरदाश्त करने से मर जाना अच्छा है।
فَأَجۡمِعُواْ كَيۡدَكُمۡ ثُمَّ ٱئۡتُواْ صَفّٗاۚ وَقَدۡ أَفۡلَحَ ٱلۡيَوۡمَ مَنِ ٱسۡتَعۡلَىٰ ۝ 63
(64) अपनी सारी तदबीरें आज इकट्ठी कर लो और एका करके मैदान में आओ।38 बस यह समझ लो कि आज जो ग़ालिब (प्रभावी) रहा, वही जीत गया।”
38. यानी इनके मुक़ाबले में एकजुट हो जाओ। अगर इस वक़्त तुम्हारे बीच आपस ही में फूट पड़ गई और ठीक मुक़ाबले के वक़्त भरी भीड़ के सामने यह हिचकिचाहट और कानाफूसियाँ होने लगीं तो अभी हवा उखड़ जाएगी और लोग समझ लेंगे कि तुम ख़ुद अपने हक़ (सत्य) पर होने का यक़ीन नहीं रखते, बल्कि दिलों में चोर लिए हुए मुक़ाबले पर आए हो।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِمَّآ أَن تُلۡقِيَ وَإِمَّآ أَن نَّكُونَ أَوَّلَ مَنۡ أَلۡقَىٰ ۝ 64
(65) जादूगर बोले,39 “मूसा तुम फेंकते हो या पहले हम फेंकें?”
39. बीच की यह तफ़सील छोड़ गई कि इसपर फ़िरऔन के लोगों में फिर से हौसला और भरोसा पैदा हो गया और मुक़ाबला शुरू करने का फ़ैसला करके जादूगरों को हुक्म दे दिए गए कि मैदान में उतर आएँ।
قَالَ بَلۡ أَلۡقُواْۖ فَإِذَا حِبَالُهُمۡ وَعِصِيُّهُمۡ يُخَيَّلُ إِلَيۡهِ مِن سِحۡرِهِمۡ أَنَّهَا تَسۡعَىٰ ۝ 65
(66) मूसा ने कहा, “नहीं, तुम्हीं फेंको।” यकायक उनकी रस्सियाँ और उनकी लाठियाँ उनके जादू के ज़ोर से मूसा को दौड़ती हुई महसूस होने लगीं,40
40. सूरा-7 आराफ़ में बयान हुआ था कि “जब उन्होंने अपने-अपने अंक्षर फेंके तो लोगों की निगाहों पर जादू कर दिया और उन्हें डरा दिया।” (आयत-116) यहाँ बताया जा रहा है कि यह असर सिर्फ़ आम लोगों पर ही नहीं हुआ था, ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) भी जादू के असर से मुतास्सिर हो गए थे। उनकी सिर्फ़ आँखों ही ने यह महसूस नहीं किया, बल्कि उनके ख़याल पर भी यह असर पड़ा कि लाठियाँ और रस्सियाँ साँप बनकर दौड़ रही हैं।
فَأَوۡجَسَ فِي نَفۡسِهِۦ خِيفَةٗ مُّوسَىٰ ۝ 66
(67) और मूसा अपने दिल में डर गया।41
41. मालूम ऐसा होता है कि ज्यों ही हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से ‘फेंको' का लफ़्ज़ निकला, जादूगरों ने एक साथ अपनी लाठियाँ और रस्सियाँ उनकी तरफ़ फेंक दीं और अचानक उनको यह नज़र आया कि सैकड़ों साँप दौड़ते हुए उनकी तरफ़ चले आ रहे हैं। इस मंज़र से फ़ौरी तौर पर अगर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने एक डर अपने अन्दर महसूस किया हो तो यह कोई अजीब बात नहीं है। इनसान हर हाल में इनसान ही होता है, चाहे वह पैग़म्बर ही क्यों न हो, इनसानियत के तक़ाज़े उससे अलग नहीं हो सकते। इसके अलावा यह भी मुमकिन है कि उस वक़्त हज़रत मूसा (अलैहि०) को यह डर लगा हो कि मोजिज़े से इतना ज़्यादा मिलता-जुलता मंज़र देखकर आम लोग ज़रूर आज़माइश में पड़ जाएँगे। इस मक़ाम पर यह बात ज़िक्र करने के क़ाबिल है कि क़ुरआन यहाँ इस बात की तसदीक़ (पुष्टि) कर रहा है कि आम इनसानों की तरह पैग़म्बर भी जादू से मुतास्सिर हो सकता है। अगरचे जादूगर उसकी पैग़म्बरी छीन लेने, या उसके ऊपर उतरनेवाली वह्य में रुकावट डाल देने, या जादू के असर से उसको गुमराह कर देने की ताक़त नहीं रखता; लेकिन कुछ देर के लिए उसके जिस्म के हिस्सों पर कुछ हद तक असर ज़रूर डाल सकता है। इससे उन लोगों के ख़याल की ग़लती खुल जाती है जो हदीसों में नबी (सल्ल०) पर जादू का असर होने की रिवायतें पढ़कर न सिर्फ़ उन रिवायतों को झुठलाते हैं, बल्कि इससे आगे बढ़कर तमाम हदीसों को भरोसा न करने लायक़ बताने लगते हैं।
قُلۡنَا لَا تَخَفۡ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 67
(68) हमने कहा, “मत डर, तू ही ग़ालिब रहेगा।
وَأَلۡقِ مَا فِي يَمِينِكَ تَلۡقَفۡ مَا صَنَعُوٓاْۖ إِنَّمَا صَنَعُواْ كَيۡدُ سَٰحِرٖۖ وَلَا يُفۡلِحُ ٱلسَّاحِرُ حَيۡثُ أَتَىٰ ۝ 68
(69) फेंक जो कुछ हाथ में है, अभी इनकी सारी बनावटी चीज़ों को निगले जाता है।42 ये जो कुछ बनाकर लाए हैं यह तो जादूगर का धोखा है, और जादूगर कभी कामयाब नहीं हो सकता, चाहे किसी शान से वह आए।”
42. हो सकता है कि मोजिज़े से जो अज़दहा (अजगर) पैदा हुआ था वह उन तमाम लाठियों और रस्सियों ही को निगल गया हो जो साँप बनी दिखाई दे रही थीं। लेकिन जिन अलफ़ाज़ में यहाँ और दूसरी जगहों पर क़ुरआन में इस वाक़िए को बयान किया गया है, उनसे बज़ाहिर गुमान यही होता है कि उसने लाठियों और रस्सियों को नहीं निगला, बल्कि उस जादू के असर को बेअसर कर दिया जिसकी वजह से वे साँप बनी दिखाई दे रही थीं। सूरा-7 आराफ़, आयत-117 और सूरा-26 शुअरा, आयत-45 में अलफ़ाज़ ये हैं, “जो झूठ वे बना रहे थे उसको वह निगले जा रहा था।” और यहाँ अलफ़ाज़ हैं, “वह निगल जाएगा उस चीज़ को जो उन्होंने बना रखी है।” अब यह ज़ाहिर है कि उनका झूठ और उनकी बनावट लाठियाँ और रस्सियाँ न थीं, बल्कि वह जादू था जिसकी बदौलत वे साँप बनी नज़र आ रही थीं। इसलिए हमारा ख़याल यह है कि जिघर-जिधर वह गया, लाठियों और रस्सियों को निगलकर इस तरह पीछे फेंकता चला गया कि हर लाठी, लाठी और हर रस्सी, रस्सी बनकर पड़ी रह गई।
فَأُلۡقِيَ ٱلسَّحَرَةُ سُجَّدٗا قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِرَبِّ هَٰرُونَ وَمُوسَىٰ ۝ 69
(70) आख़िर को यही हुआ कि सारे जादूगर सजदे में गिरा दिए गए43 और पुकार उठे, “मान लिया हमने हारून और मूसा के रब को।"44
43. यानी जब उन्होंने मूसा (अलैहि०) की लाठी का कारनामा देखा तो उन्हें फ़ौरन यक़ीन आ गया कि यह यक़ीनन मोजिज़ा है, उनकी कला की चीज़ हरगिज़ नहीं है। इसलिए वे इस तरह एक साथ और बेइख़्तियार सजदे में गिरे, जैसे किसी ने उठा-उठाकर उनको गिरा दिया हो।
44. इसका मतलब यह है कि वहाँ सबको मालूम था कि यह मुक़ाबला किस बुनियाद पर हो रहा है। पूरी भीड़ में कोई भी इस ग़लतफ़हमी में न था कि मुक़ाबला मूसा और जादूगरों के करतब का हो रहा है और फ़ैसला इस बात का होना है कि किसका करतब ज़बरदस्त है। सब या जानते थे कि एक तरफ़ मूसा (अलैहि०) अपने आपको अल्लाह तआला, ज़मीन-आसमान के पैदा करनेवाले, के पैग़म्बर की हैसियत से पेश कर रहे हैं और अपनी पैग़म्बरी के सुबूत में यह दावा कर रहे हैं कि उनका असा (लाठी) मोजिज़े के तौर पर सचमुच अजगर बन जाता है। और दूसरी तरफ़ जादूगरों को सबके सामने बुलाकर फ़िरऔन यह साबित करना चाहता है कि असा से अजगर बन जाना मोजिज़ा नहीं है, बल्कि महज़ जादू का करतब है। दूसरे अलफ़ाज़ में, वहाँ फ़िरऔन और जादूगर और आम और ख़ास सारे तमाशा देखनेवाले इस मोजिज़े और जादू के फ़र्क़ को जानते थे, और इम्तिहान इस बात का हो रहा था कि मूसा (अलैहि०) जो कुछ दिन रहे हैं यह किसी तरह का जादू है या उस तरह का कोई मोजिज़ा है जो सारे जहानों के रब की क़ुदरत के करिश्मे के सिवा और किसी ताक़त से नहीं दिखाया जा सकता। यही वजह है कि जादूगरों ने अपने जादू को हारते देखकर यह नहीं कहा कि “हमने मान लिया, मूसा हमसे ज़्यादा कमाल दिखा सकता है, बल्कि उन्हें फ़ौरन यक़ीन आ गया कि मूसा (अलैहि०) सचमुच अल्लाह, सारे जहान के रब, के सच्चे पैग़म्बर हैं। और वे पुकार उठे कि हम उस ख़ुदा को मान गए जिसके पैग़म्बर की हैसियत से मूसा और हारून आए हैं। इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि आम भीड़ पर इस हार के क्या असरात पड़े होंगे, और फिर पूरे देश पर इसका कैसा ज़बरदस्त असर हुआ होगा। फ़िरऔन ने देश के सबसे बड़े मर्कज़ी (केन्द्रीय) मेले में यह मुक़ाबला इस उम्मीद पर कराया था कि जब मिस्र के हर कोने से आए हुए लोग अपनी आँखों से देख जाएँगे कि लाठी से साँप बना देना मूसा (अलैहि०) का कोई निराला कमाल नहीं है, हर जादूगर यह करतब दिखा लेता है तो मूसा (अलैहि०) की हवा उखड़ जाएगी। लेकिन उसकी यह तदबीर उसी पर उलट पड़ी और गाँव-गाँव से आए हुए लोगों के सामने ख़ुद जादूगरों ही ने एकजुट होकर इस बात की तसदीक़ कर दी कि मूसा जो कुछ दिखा रहे हैं यह उनकी कला की चीज़ नहीं है, यह सचमुच मोजिज़ा है जो सिर्फ़ ख़ुदा का पैग़म्बर ही दिखा सकता है।
قَالَ ءَامَنتُمۡ لَهُۥ قَبۡلَ أَنۡ ءَاذَنَ لَكُمۡۖ إِنَّهُۥ لَكَبِيرُكُمُ ٱلَّذِي عَلَّمَكُمُ ٱلسِّحۡرَۖ فَلَأُقَطِّعَنَّ أَيۡدِيَكُمۡ وَأَرۡجُلَكُم مِّنۡ خِلَٰفٖ وَلَأُصَلِّبَنَّكُمۡ فِي جُذُوعِ ٱلنَّخۡلِ وَلَتَعۡلَمُنَّ أَيُّنَآ أَشَدُّ عَذَابٗا وَأَبۡقَىٰ ۝ 70
(71) फ़िरऔन ने कहा, “तुम इसपर ईमान ले आए, इससे पहले कि मैं तुम्हें इसकी इजाज़त देता? मालूम हो गया कि यह तुम्हारा गुरु है जिसने तुम्हें जादूगरी सिखाई थी।45 अच्छा, अब मैं तुम्हारे हाथ-पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों (दिशाओं) से कटवाता हूँ।46 और खजूर के तनों पर तुमको सूली देता हूँ।47 फिर तुम्हें पता चल जाएगा कि हम दोनों में से किसका अज़ाब ज़्यादा सख़्त और देर तक रहनेवाला है।"48 (यानी मैं तुम्हें ज़्यादा सख़्त सज़ा दे सकता हूँ या मूसा)।
45. सूरा-7 आराफ़, आयत-128 में अलफ़ाज़ ये हैं, “यह एक साज़िश है जो तुम लोगों ने राजधानी में मिलीभगत करके की है, ताकि मुल्क से उसके मालिकों को बेदख़ल कर दो।” यहाँ इस बात को और ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान किया गया है कि तुम्हारे बीच सिर्फ़ मिलीभगत ही नहीं है, बल्कि मालूम यह होता है कि यह मूसा तुम्हारा सरदार और गुरु है। तुमने मोजिज़े से हार नहीं मानी है, बल्कि अपने उस्ताद से जादू में हार मानी है, और तुम आपस में यह तय करके आए हो कि अपने उस्ताद की बड़ाई साबित करके और उसे उसकी पैग़म्बरी का सुबूत बनाकर यहाँ सियासी इंक़िलाब ले आओ।
46. यानी एक तरफ़ का हाथ और दूसरी तरफ़ का पाँव।
47. सलीब या सूली देने का पुराना तरीक़ा यह था कि एक लम्बा शहतीर-सा लेकर ज़मीन में गाड़ देते थे, या किसी पुराने पेड़ का तना इस मक़सद के लिए इस्तेमाल करते थे और उसके ऊपर के सिरे पर एक तख़्ता आड़ा करके बाँध देते थे। फिर मुजरिम को ऊपर चढ़ाकर और उसके दोनों हाथ फैलाकर आड़े तख़्ते के साथ कील ठोंक देते थे। इस तरह मुजरिम तख़्ते के बल लटका रह जाता था और घंटों सिसक-सिसककर जान दे देता था। सलीब (सूली) दिए हुए यह मुजरिम एक मुद्दत तक यूँ ही लटके रहने दिए जाते थे, ताकि लोग उन्हें देख-देखकर सबक़ हासिल करें।
48. यह हारी हुई बाज़ी जीत लेने के लिए फ़िरऔन का आख़िरी दाँव था। वह चाहता था कि जादूगरों को इन्तिहाई भयानक सज़ा से डराकर उनसे ये क़ुबूल करा ले कि वाक़ई यह उनकी और मूसा (अलैहि०) की मिलीभगत थी और वे उनसे मिलकर हुकूमत के ख़िलाफ़ साज़िश कर चुके थे, मगर जादूगरों के इरादे की मज़बूती और जमाव ने उसका यह दाँव भी उलट दिया। उन्होंने इतनी भयानक सज़ा झेलने के लिए तैयार होकर दुनिया भर को यह यक़ीन दिला दिया कि साज़िश का इलज़ाम सिर्फ़ बिगड़ी हुई बात बनाने के लिए एक बेशर्मी भरी सियासी चाल के तौर पर गढ़ा गया है, और अस्ल हक़ीक़त यही है कि वे सच्चे दिल से इस बात पर ईमान आए है कि मूसा (अलैहि०) अल्लाह के पैग़म्बर हैं।
قَالُواْ لَن نُّؤۡثِرَكَ عَلَىٰ مَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلَّذِي فَطَرَنَاۖ فَٱقۡضِ مَآ أَنتَ قَاضٍۖ إِنَّمَا تَقۡضِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَآ ۝ 71
(72) जादूगरों ने जवाब दिया, “क़सम है उस हस्ती की जिसने हमें पैदा किया है, यह हरगिज़ नहीं हो सकता कि हम रौशन निशानियाँ सामने आ जाने के बाद भी (सच्चाई पर) तुझे तरजीह (प्राथमिकता) दें।49 तू जो कुछ करना चाहे, कर ले तू ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इसी दुनिया की ज़िन्दगी का फ़ैसला कर सकता है।
49. दूसरा तर्जमा इस आयत का यह भी हो सकता है, “यह हरगिज़ नहीं हो सकता कि हम उन खुली निशानियों के मुक़ाबले में जो हमारे सामने आ चुकी हैं, और उस हस्ती के मुक़ाबले में जिसने हमें पैदा किया है, तुझे तरजीह (प्राथमिकता) दें।”
إِنَّآ ءَامَنَّا بِرَبِّنَا لِيَغۡفِرَ لَنَا خَطَٰيَٰنَا وَمَآ أَكۡرَهۡتَنَا عَلَيۡهِ مِنَ ٱلسِّحۡرِۗ وَٱللَّهُ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 72
(73) हम तो अपने रब पर ईमान ले आए, ताकि वह हमारी ग़लतियाँ माफ़ कर दे और उस जादूगरी से, जिसपर हमें मजबूर किया था, माफ़ कर दे। अल्लाह ही अच्छा है और वही बाक़ी रहनेवाला है।
إِنَّهُۥ مَن يَأۡتِ رَبَّهُۥ مُجۡرِمٗا فَإِنَّ لَهُۥ جَهَنَّمَ لَا يَمُوتُ فِيهَا وَلَا يَحۡيَىٰ ۝ 73
(74) हरक़ीक़त यह है50 कि जो मुजरिम बनकर अपने रब के सामने हाज़िर होगा, उसके लिए जहन्नम है, जिसमें वह न जिएगा, न मरेगा।51
50. यह जादूगरों की बात पर अल्लाह तआला का अपना इज़ाफ़ा है। बात का अन्दाज़ ख़ुद बता रहा है कि यह इबारत जादूगरों की बात का हिस्सा नहीं है।
51. यानी मौत और ज़िन्दगी के बीच लटकता रहेगा न मौत आएगी कि उसकी तकलीफ़ और मुसीबत को ख़त्म कर दे और न जीने का ही कोई मज़ा उसे हासिल होगा कि ज़िन्दगी को मौत पर तरजीह दे सके। ज़िन्दगी से उकता गया होगा, मगर मौत नसीब न होगी, मरना चाहेगा, मगर मर न सकेगा। क़ुरआन मजीद में दोज़ख़ के अज़ाबों की जितनी तफ़सीलात दी गई है, उनमें अज़ाब की सबसे ज़्यादा डरावनी सूरत यही है जिसके ख़याल से रूह काँप उठती है।
وَمَن يَأۡتِهِۦ مُؤۡمِنٗا قَدۡ عَمِلَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلدَّرَجَٰتُ ٱلۡعُلَىٰ ۝ 74
(75) और जो उसके सामने मोमिन (ईमानवाले) की हैसियत से हाज़िर होगा, जिसने अच्छे काम किए होंगे, ऐसे सब लोगों के लिए बुलन्द दरजे हैं,
جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ مَن تَزَكَّىٰ ۝ 75
(76) सदाबहार बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी; इनमें वे हमेशा रहेंगे। यह बदला है उस शख़्स का जो पाकीज़गी अपनाए।
وَلَقَدۡ أَوۡحَيۡنَآ إِلَىٰ مُوسَىٰٓ أَنۡ أَسۡرِ بِعِبَادِي فَٱضۡرِبۡ لَهُمۡ طَرِيقٗا فِي ٱلۡبَحۡرِ يَبَسٗا لَّا تَخَٰفُ دَرَكٗا وَلَا تَخۡشَىٰ ۝ 76
(77) हमने52 मूसा पर वह्य की कि अब रातों-रात मेरे बन्दों को लेकर चल पड़, और उनके लिए समुद्र में से सूखी सड़क बना ले,53 तुझे किसी के पीछा करने का ज़रा डर न हो और न (समुद्र के बीच से गुज़रते हुए) डर लगे।
52. बीच में उन हालात की तफ़सील छोड़ दी गई है जो उसके बाद मिस्र में रहने के लम्बे ज़माने में पेश आए। उन तफ़सीलात के लिए देखिए—सूरा-7 आराफ़, आयतें—130-147; सूरा-10 यूनुस, आयतें—83-92; सूरा-10 मोमिन, आयतें—23-50 और सूरा-43 जुख़रुफ़, आयतें–46-56)।
53. इस वाक़िए की तफ़सील यह है कि अल्लाह तआला ने आख़िरकार एक रात तय कर दी जिसमें तमाम इसराईली और ग़ैर-इसराईली मुसलमानों को (जिनके लिए ‘मेरे बन्दों' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है) मिस्र के हर हिस्से से हिजरत के लिए निकल पड़ना था। ये सब लोग एक तयशुदा मक़ाम पर इकट्ठे होकर एक क़ाफ़िले की शक्ल में रवाना हो गए। उस ज़माने में स्वेज़ नहर मौजूद न थी। लाल सागर से रोम सागर (Mediterranean) तक का पूरा इलाक़ा खुला हुआ था। मगर इस इलाक़े के तमाम रास्तों पर फ़ौजी छावनियाँ थीं, जिनसे ख़ैरियत के साथ गुज़रा नहीं जा सकता था। इसलिए, हज़रत मूसा (अलैहि०) ने लाल सागर की तरफ़ जानेवाला रास्ता अपनाया। शायद उनका ख़याल यह था कि समन्दर के किनारे-किनारे चलकर जज़ीरा नुमा (प्रायद्वीप) सीना की तरफ़ निकल जाएँ। लेकिन उधर से फ़िरऔन एक बड़ी फ़ौज लेकर पीछा करता हुआ ठीक उस मौक़े पर आ पहुँचा, जबकि यह क़ाफ़िला अभी समन्दर के किनारे पर ही था। सूरा-26 शुअरा, आयतें—61-68 में बयान हुआ है कि मुहाजिरों का क़ाफ़िला फ़िरऔन की फ़ौज और समन्दर के बीच बिलकुल घिर चुका था। ठीक उस वक़्त अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा को हुक्म दिया कि “अपनी लाठी समन्दर पर मार।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-107; सूरा-26 शुअरा, आयत-63)” फ़ौरन समन्दर फट गया और उसका हर टुकड़ा एक बड़े टीले की तरह खड़ा हो गया।” (सूरा-26 शुअरा, आयत-63) और बीच में सिर्फ़ यही नहीं कि काफ़िले के गुज़रने के लिए रास्ता निकल आया, बल्कि बीच का यह हिस्सा, ऊपर की आयत के मुताबिक़, सूखकर सूखी सड़क की तरह बन गया। यह साफ़ और खुले मोजिज़े का बयान है और इससे उन लोगों के बयान की ग़लती साफ़ सामने आ जाती है जो कहते हैं कि हवा के तूफ़ान या ज्वार-भाटे की वजह से समन्दर हट गया था। इस तरह जो पानी हटता है, वह दोनों तरफ़ टीलों के रूप में खड़ा नहीं हो जाता और बीच का हिस्सा सूखकर सड़क की तरह नहीं बन जाता (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-17)
فَأَتۡبَعَهُمۡ فِرۡعَوۡنُ بِجُنُودِهِۦ فَغَشِيَهُم مِّنَ ٱلۡيَمِّ مَا غَشِيَهُمۡ ۝ 77
(78) पीछे से फ़िरऔन अपने लश्कर लेकर पहुँचा, और फिर समुद्र उनपर छा गया, जैसा कि छा जाने का हक़ था।54
54. सूरा-26 शुअरा में बयान हुआ है कि मुहाजिरों के गुज़रते ही फ़िरऔन अपने लश्कर सहित समन्दर के इस दरमियानी रास्ते में उतर आया (आयतें— 64-66)। यहाँ बयान किया गया है कि समन्दर ने उसको और उसके लश्कर को दबोच लिया। सूरा-2 बक़रा में कहा गया है कि बनी-इसराईल समन्दर के दूसरे किनारे पर से फ़िरऔन और उसके लश्कर को डूबते हुए देख रहे थे (आयत-50) और सूरा-10 यूनुस में बताया गया है कि डूबते वक़्त फ़िरऔन पुकार उठा, “मैं मान गया कि कोई ख़ुदा नहीं है, उस ख़ुदा के सिवा जिसपर बनी-इसराईल ईमान लाए हैं, और मैं भी फ़रमाँबरदारों में से हूँ।” (आयत-90) मगर इस आख़िरी पल के ईमान को क़ुबूल न किया गया और जवाब मिला, “अब ईमान लाता है? और पहले यह हाल था कि नाफ़रमानी करता रहा और बिगाड़ फैलाता चला गया। अच्छा, आज हम तेरी लाश को बचाए लेते हैं, ताकि तू बादवाली नस्लों के लिए इबरत का निशान बना रहे।” (आयतें—91, 92)
وَأَضَلَّ فِرۡعَوۡنُ قَوۡمَهُۥ وَمَا هَدَىٰ ۝ 78
(79) फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को गुमराह ही किया था, कोई सही रहनुमाई नहीं की थी।55
55. बड़े लतीफ़ (सूक्ष्म) अन्दाज़ में मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को ख़बरदार किया जा रहा है कि तुम्हारे सरदार और लीडर भी तुमको उसी रास्ते पर लिए जा रहे हैं जिसपर फ़िरऔन अपनी क़ौम को ले जा रहा था। अब तुम ख़ुद देख लो कि यह कोई सही रहनुमाई न थी। इस क़िस्से को ख़त्म करते हुए मुनासिब मालूम होता है कि बाइबल के बयानों का भी जायज़ा ले लिया जाए, ताकि उन लोगों के झूठ की हक़ीक़त खुल जाए जो कहते हैं कि क़ुरआन में ये क़िस्से बनी-इसराईल से नक़्ल कर लिए गए हैं। बाइबल की किताब निष्कासन (Exodus) में इस क़िस्से की जो तफ़सीलात बयान हुई हैं, उनकी ये बातें ध्यान देने के क़ाबिल हैं – (1) अध्याय-1, आयतें—2-5 में बताया गया है कि असा का मोजिज़ा हज़रत मूसा को दिया गया था। और आयत-17 में उन्हीं को यह हिदायत की गई है कि “तू इस लाठी को अपने हाथ में लिए जा और इसी से इन मोजिज़ों को दिखाना।” मगर आगे जाकर न जाने यह लाठी किस तरह हज़रत हारून के क़ब्ज़े में चली गई और वही उससे मोजिज़े दिखाने लगे। अध्याय-7 से लेकर बाद के अध्यायों में लगातार हमको हज़रत हारून ही लाठी के मोजिज़े दिखाते नज़र आते हैं। (2) अध्याय-5 में फ़िरऔन से हज़रत मूसा (अलैहि०) की पहली मुलाक़ात का हाल बयान किया गया है, और उसमें सिरे से उस बहस का कोई ज़िक्र ही नहीं है जो अल्लाह तआला की तौहीद और उसके रब होने के मसले पर उनके और फ़िरऔन के बीच हुई थी। फ़िरऔन कहता है कि “ख़ुदावन्द कौन है कि मैं उसकी बात मानूँ और बनी-इसराईल को जाने दूँ? मैं ख़ुदावन्द को नहीं जानता।” मगर हज़रत मूसा (अलैहि०) और हारून इसके सिवा कुछ जवाब नहीं देते कि “इबरानियों का ख़ुदा हमसे मिला है।” (अध्याय-5, आयतें—2, 3) (3) जादूगरों से मुक़ाबले की पूरी दास्तान बस इन चन्द जुमलों में समेट दी गई है- "और ख़ुदावन्द ने मूसा और हारून से कहा कि जब फ़िरऔन तुमको कहे कि अपना मोजिज़ा दिखाओ तो हारून से कहना कि अपनी लाठी को लेकर फ़िरऔन के सामने डाल दे, ताकि वह साँप बन जाए। और मूसा और हारून फ़िरऔन के पास गए और उन्होंने ख़ुदावन्द के हुक्म के मुताबिक़ किया और हारून ने अपनी लाठी फ़िरऔन और उसके सेवकों के सामने डाल दी और वह साँप बन गई, तब फ़िरऔन ने भी अक़्लमन्दों और जादूगरों को बुलवाया और मिस्र के जादूगरों ने भी अपने जादू से ऐसा ही किया, क्योंकि उन्होंने भी अपनी-अपनी लाठी सामने डाली और वे साँप बन गई। लेकिन हारून की लाठी उनकी लाठियों को निगल गई।” (अध्याय-7, आयतें— 8-12) इस बयान का मुक़ाबला क़ुरआन के बयान से करके देख लिया जाए कि क़िस्से की सारी रूह यहाँ किस बुरी तरह मिटा दी गई है। सबसे ज़्यादा अजीब बात यह है कि जश्न के दिन खुले मैदान में बाक़ायदा चैलेंज के बाद मुक़ाबला होना, और फिर हार जाने के बाद जादूगरों का ईमान लाना जो क़िस्से की अस्ल जान था, सिरे से यहाँ उसका ज़िक्र ही नहीं है। (4) क़ुरआन कहता है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की माँग बनी-इसराईल की रिहाई और आज़ादी की थी। बाइबल का बयान है कि माँग सिर्फ़ यह थी, “हमको इजाज़त दे कि हम रेगिस्तान की तीन दिन की मंज़िल में जाकर ख़ुदावन्द, अपने ख़ुदा के लिए क़ुरबानी करें।” (अध्याय-5, आयत-3) (5) मिस्र से निकलने और फ़िरऔन के डूबने का तफ़सीली हाल अध्याय-11 से 14 तक बयान किया गया है। इसमें बहुत-सी फ़ायदेमन्द मालूमात और क़ुरआन में बयान की गई मुख़्तसर बातों की तफ़सीलात भी हमें मिलती हैं और उनके साथ कई अजीब बातें भी। मिसाल के तौर पर अध्याय-14 की आयतें—15, 16 में हज़रत मूसा को हुक्म दिया जाता है कि “तू अपनी लाठी (जी हाँ, अब लाठी हज़रत हारून से लेकर फिर मूसा अलैहिo को दे दी गई है) उठाकर अपना हाथ समन्दर के ऊपर बढ़ा और उसे दो हिस्से कर और बनी-इसराईल समन्दर के बीच में से सूखी ज़मीन पर चलकर निकल जाएँगे।” लेकिन आगे चलकर आयतें—21, 22 में कहा जाता है। कि “फिर मूसा ने अपना हाथ समन्दर के ऊपर बढ़ाया और ख़ुदावन्द ने रात भर तेज़ पूर्वी आँधी चलाकर और समन्दर को पीछे हटाकर उसे सूखी ज़मीन बना दिया और पानी दो हिस्से हो गया और बनी-इसराईल समन्दर के बीच में से सूखी ज़मीन पर चलकर निकल गए और उनके दाहिने और बाएँ हाथ पानी दीवार की तरह था।” यह बात समझ में नहीं आई कि क्या यह मोजिज़ा था या क़ुदरती वक़िआ? अगर मोजिज़ा था तो असा की चोट पड़ते ही ज़ाहिर हो गया होगा, जैसा कि क़ुरआन में कहा गया है। और अगर क़ुदरती वक़िआ था तो यह अजीब सूरत है कि पूर्वी आँधी ने समन्दर को पानी को दोनों तरफ़ दीवार की तरह खड़ा कर दिया और बीच में से सूखा रास्ता बना दिया। क्या फ़ितरी तरीक़े से हवा कभी ऐसे करिश्मे दिखाती है। तलमूद का बयान इसके मुक़ाबले बाइबल से अलग और क़ुरआन से ज़्यादा क़रीब है, मगर दोनों का मुक़ाबला करने से साफ़ महसूस हो जाता है कि एक जगह सीधे तौर पर वह्य के इल्म की बुनियाद पर वाक़िआत बयान किए जा रहे हैं, और दूसरी जगह सदियों की एक-दूसरे से सुनी हुई रिवायतों में वाक़िआत की सूरत अच्छी-ख़ासी बिगड़ गई है। देखिए—The Talmud Selections, H. Polano. pp. 150-154
يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ قَدۡ أَنجَيۡنَٰكُم مِّنۡ عَدُوِّكُمۡ وَوَٰعَدۡنَٰكُمۡ جَانِبَ ٱلطُّورِ ٱلۡأَيۡمَنَ وَنَزَّلۡنَا عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَنَّ وَٱلسَّلۡوَىٰ ۝ 79
(80) ऐ बनी-इसराईल56, हमने तुमको तुम्हारे दुश्मन से नजात दी, और तूर के दाहिनी तरफ़57 तुम्हारी हाज़िरी के लिए वक़्त मुक़र्रर किया58 और तुमपर 'मन्न' और 'सलवा' उतारा।59
56. समन्दर को पार करने से लेकर सीना पहाड़ के दामन में पहुँचने तक की दास्तान बीच में छोड़ दी गई है। इसकी तफ़सीलात सूरा-7 आराफ़, आयतें—138-198 में गुज़र चुकी हैं। और वहाँ यह भी गुज़र चुका है कि मिस्र से निकलते ही बनी-इसराईल प्रायद्वीप सीना के एक मन्दिर को देखकर अपने लिए एक बनावटी ख़ुदा माँग बैठे थे। (तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-98)
57. यानी तूर के पूर्वी दामन में।
58. सूरा-2 बक़रा, आयत-51 और सूरा-7 आराफ़, आयत-142 में यह बात बयान की गई है कि अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल को शरीअत का हिदायतनामा देने के लिए चालीस दिन की मुद्दत मुक़र्रर की थी जिसके बाद हज़रत मूसा को पत्थर की तख़्तियों पर लिखे हुए हुक्म अता किए गए।
59. 'मन्न' और 'सलवा' की तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-75; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-119। बाइबल का बयान है कि मिस्र से निकलने के बाद जब बनी-इसराईल सीना के जंगल में एलियम और सीना के बीच से गुज़र रहे थे और खाने के भंडार ख़त्म होकर भूखे रहने नौबत आ गई थी, उस वक़्त 'मन्न' और 'सलवा' का उतरना शुरू हुआ, और फ़िलस्तीन के आबाद इलाक़े में पहुँचने तक पूरे चालीस साल यह सिलसिला जारी रहा। (निर्गमन, अध्याय-16; गिनती, अध्याय-11, आयत-7-9; यशूअ, अध्याय-5, आयत-12) निर्गमन की किताब में 'मन्न' और 'सलवा' की यह कैफ़ियत बयान की गई है— "और यूँ हुआ कि शाम को इतनी बटेरें आईं कि उनकी ख़ेमागाह को ढाँक लिया। और सुबह को ख़ेमागाह के आसपास ओस पड़ी हुई थी और जब वह ओस जो पड़ी थी, सूख गई तो क्या देखते हैं कि वीराने में एक छोटी-छोटी गोल-गोल चीज़, ऐसी छोटी जैसे पाले के दाने होते हैं, ज़मीन पर पड़ी है। बनी-इसराईल उसे देखकर आपस में कहने लगे 'मन्न'? क्योंकि वे नहीं जानते थे कि वह क्या है।” (अध्याय-16, आयत-13-15) “और बनी-इसराईल ने उसका नाम 'मन्न' रखा और वह धनिए के बीज की तरह सफ़ेद और उसका मज़ा शहद के बने हुए पूए की तरह था।” (आयत-31) गिनती में इसकी और ज़्यादा तशरीह यह मिलती है— "लोग इधर-उधर जाकर उसे इकट्ठा करते और उसे चक्की में पीसते या ओखली में कूट लेते थे। फिर उसे हाँडियों में उबालकर रोटियाँ बनाते थे। उसका मज़ा ताज़ा तेल जैसा था। और रात को जब छावनी में ओस पड़ती तो उसके साथ ‘मन्न’ भी गिरता था।” (अध्याय-11, आयतें—8, 9) यह भी एक मोजिज़ा था, क्योंकि 40 साल बाद जब बनी-इसराईल के लिए खाने के क़ुदरती ज़रिए मिल गए तो यह सिलसिला बन्द कर दिया गया। अब न उस इलाक़े में बहुत ज़्यादा बटेरें ही मौजूद हैं, न मन्न ही कहीं पाया जाता है। खोज-बीन करनेवालों ने उन इलाक़ों को छान मारा है, जहाँ बाइबल के बयान के मुताबिक़ बनी-इसराईल 40 साल तक जंगल-जंगल घूमे थे। ‘मन्न’ उनको कहीं न मिला। अलबत्ता कारोबारी लोग ख़रीदारों को बेवक़ूफ़ बनाने के लिए ‘मन्न का हलवा’ ज़रूर बेचते फिरते हैं।
كُلُواْ مِن طَيِّبَٰتِ مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ وَلَا تَطۡغَوۡاْ فِيهِ فَيَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبِيۖ وَمَن يَحۡلِلۡ عَلَيۡهِ غَضَبِي فَقَدۡ هَوَىٰ ۝ 80
(81) खाओ हमारी दी हुई पाक रोज़ी और उसे खाकर सरकशी न करो, वरना तुमपर मेरा ग़ज़ब (प्रकोप) टूट पड़ेगा। और जिसपर मेरा ग़ज़ब टूटा, वह फिर गिरकर ही रहा।
وَإِنِّي لَغَفَّارٞ لِّمَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا ثُمَّ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 81
(82) अलबत्ता जो तौबा कर ले और ईमान ले आए और अच्छे काम करे, फिर सीधा चलता रहे, उसके लिए मैं बहुत माफ़ करनेवाला हूँ।60
60. यानी मग़फिरत और माफ़ी के लिए चार शर्ते हैं। एक तौबा, यानी सरकशी और नाफ़रमानी या शिर्क और कुफ़्र से बाज़ आ जाना। दूसरी ईमान, यानी अल्लाह और रसूल और किताब और आख़िरत को सच्चे दिल से मान लेना। तीसरी 'अच्छे काम', यानी अल्लाह और रसूल की हिदायतों के मुताबिक़ नेक अमल करना। चौथी 'इहतदा', यानी सीधे रास्ते पर मज़बूती के साथ जमे रहना और फिर ग़लत रास्ते पर न जा पड़ना।
۞وَمَآ أَعۡجَلَكَ عَن قَوۡمِكَ يَٰمُوسَىٰ ۝ 82
(83) और61 क्या चीज़ तुम्हें अपनी क़ौम से पहले ले आई,62 मूसा?
61. यहाँ से बयान का सिलसिला उस वाक़िए के साथ जुड़ता है जो अभी ऊपर बयान हुआ है। यानी बनी-इसराईल से यह वादा किया गया था कि तुम तूर के दाहिनी तरफ़ ठहरो, और चालीस दिन की मुद्दत गुज़रने पर तुम्हें हिदायतनामा दिया जाएगा।
62. इस जुमले से मालूम होता है कि क़ौम को रास्ते ही में छोड़कर हज़रत मूसा (अलहि०) अपने रब की मुलाक़ात के शौक़ में आगे चले गए थे। तूर की दाहिनी तरफ़, जहाँ का वादा बनी-इसराईल से किया गया था, अभी क़ाफ़िला पहुँचने भी न पाया था कि हज़रत मूसा (अलैहि०) अकेले रवाना हो गए और हाज़िरी दे दी। उस मौक़े पर जो मामलात ख़ुदा और बन्दे के बीच हुए उनकी तफ़सीलात सूरा-7 आराफ़, आयतें—143-145 में आई हैं। हज़रत मूसा (अलैहि०) का अल्लाह के दीदार (दर्शन) के लिए गुज़ारिश करना और अल्लाह तआला का फ़रमाना कि तू मुझे नहीं देख सकता, फिर अल्लाह का एक पहाड़ पर ज़रा-सा जलवा दिखाकर उसे चूर-चूर कर देना और हज़रत मूसा (अलैहि०) का बेहोश होकर गिर पड़ना, उसके बाद पत्थर की तख़्तियों पर लिखे हुए हुक्मों का दिया जाना, यह सब उसी वक़्त के वाक़िआत हैं। यहाँ उन वाक़िआत का सिर्फ़ वह हिस्सा बयान किया जा रहा है जो बनी-इसराईल की बछड़े की पूजा के बारे में है। उसके बयान का मक़सद मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को यह बताना है कि एक क़ौम में बुतपरस्ती की शुरुआत किस तरह हुआ करती है और अल्लाह के नबी इस फ़ितने को अपनी क़ौम में सर उठाते देखकर कैसे बेताब हो जाया करते हैं।
قَالَ هُمۡ أُوْلَآءِ عَلَىٰٓ أَثَرِي وَعَجِلۡتُ إِلَيۡكَ رَبِّ لِتَرۡضَىٰ ۝ 83
(84) उसने अर्ज़ किया, “वह बस मेरे पीछे आ ही रहे हैं। मैं जल्दी करके तेरे सामने आ गया हूँ, ऐ मेरे रब, ताकि तू मुझसे ख़ुश हो जाए।"
قَالَ فَإِنَّا قَدۡ فَتَنَّا قَوۡمَكَ مِنۢ بَعۡدِكَ وَأَضَلَّهُمُ ٱلسَّامِرِيُّ ۝ 84
(85) कहा, “अच्छा तो सुनो, हमने तुम्हारे पीछे तुम्हारी क़ौम को आज़माइश में डाल दिया और सामिरी63 ने उन्हें गुमराह कर डाला।”
63. यह उस आदमी का नाम नहीं है, बल्कि अस्ल अरबी में जो हर्फ़ ताल्लुक़ जोड़ने के लिए इस्तेमाल हुआ है, उससे साफ़ मालूम होता है कि यह बहरहाल कोई-न-कोई निस्बत ही है; चाहे क़बीले की तरफ़ हो या नस्ल की तरफ़ या जगह की तरफ़। फिर क़ुरआन जिस तर 'अस-सामिरी' कहकर उसका ज़िक्र कर रहा है, उससे यह भी अन्दाज़ा होता है कि उस ज़माने में सामिरी क़बीले या नस्ल या मक़ाम के बहुत-से लोग मौजूद थे जिनमें से एक ख़ास सामिरी वह शख़्स था जिसने बनी-इसराईल में सुनहरे बछड़े की परस्तिश फैलाई। इससे ज़्यादा कोई तशरीह (व्याख्या) क़ुरआन के इस मक़ाम की तफ़सीर के लिए हक़ीक़त में दरकार नहीं है। लेकिन यह मक़ाम उन अहम मक़ामों में से है जहाँ ईसाई मिशनरियों और ख़ास तौर से पश्चिमी मुस्तशरिक़ीन (इस्लाम का अध्ययन करनेवाले पश्चिमी विद्वानों) ने क़ुरआन पर नुक्ताचीनी की हद कर दी है। वे कहते हैं कि यह (अल्लाह की पनाह) क़ुरआन के लेखक की जहालत का खुला सुबूत है, इसलिए कि इसराईल की हुकूमत की राजधानी ‘सामिरिया' इस वाक़िए के कई सदी के बाद 925 ई० पू० के आसपास के ज़माने में बनी। फिर उसके बाद भी कई सदी बाद इसराईलियों और ग़ैर-इसराईलियों की वह मिली-जुली नस्ल पैदा हुई जिसने 'सामिरियों' के नाम से शुहरत पाई। उनका ख़याल यह है कि उन सामिरियों में चूँकि शिर्क भरी दूसरी नई बातों के साथ-साथ सुनहरे बछड़े की पूजा का रिवाज भी था, और यहूदियों के ज़रिए से मुहम्मद (सल्ल०) ने इस बात की सुन-गुन पा ली होगी। इसलिए उन्होंने ले जाकर उसका ताल्लुक़ हज़रत मूसा के ज़माने से जोड़ दिया और यह क़िस्सा गढ़ डाला कि वहाँ सुनहरे बछड़े की पूजा को रिवाज देनेवाला एक सामिरी शख़्स था। इसी तरह की बातें इन लोगों ने हामान के मामले में बनाई हैं जिसे क़ुरआन फ़िरऔन के वज़ीर की हैसियत से पेश करता है और ईसाई मिशनरी और मुस्तशरिक़ीन इसे इख़्सुएरस (ईरान का बादशह) के दरबारी अमीर ‘हामान' से ले जाकर मिला देते हैं और कहते हैं कि यह क़ुरआन के लेखक की जहालत का एक और सुबूत है। शायद इल्म और खोज के इन दावेदारों का गुमान यह है कि पुराने ज़माने में एक नाम का एक ही आदमी या क़बीला या मक़ाम हुआ करता था और एक नाम के दो या दो से ज़्यादा आदमी या क़बीला और मक़ाम होने का बिलकुल कोई इमकान न था। हालाँकि सुमेरी पुराने ज़माने की एक बहुत मशहूर क़ौम थी जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दौर में इराक़ और उसके आस-पास के इलाक़ों पर छाई हुई थी, और इस बात का बहुत इमकान है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के दौर में उस क़ौम के या उसकी किसी शाखा के लोग मिस्र में सामिरी कहलाते हों। ख़ुद उस सामिरिया की अस्ल को भी देख लीजिए जिसकी निस्बत से उत्तरी फ़िलस्तीन के लोग बाद में सामिरी कहलाने लगे। बाइबल का बयान है कि इसराईली हुकूमत के हुक्मराँ उमरी ने 'समर' नाम के एक आदमी से वह पहाड़ खरीदा था जिसपर उसने बाद में अपनी राजधानी बनाई और चूँकि पहाड़ के पिछले मालिक का नाम समर था, इसलिए उस शहर का नाम सामिरिया रखा गया (राजा-1, अध्याय-16, आयत-24)। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि सामिरिया के वुजूद में आने से पहले 'समर' नाम के बहुत से लोग पाए जाते थे और उनसे निस्बत पाकर उनकी नस्ल या क़बीले का नाम सामिरी और मक़ामात का नाम सामिरिया होना कम-से-कम मुमकिन ज़रूर था।
فَرَجَعَ مُوسَىٰٓ إِلَىٰ قَوۡمِهِۦ غَضۡبَٰنَ أَسِفٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَمۡ يَعِدۡكُمۡ رَبُّكُمۡ وَعۡدًا حَسَنًاۚ أَفَطَالَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡعَهۡدُ أَمۡ أَرَدتُّمۡ أَن يَحِلَّ عَلَيۡكُمۡ غَضَبٞ مِّن رَّبِّكُمۡ فَأَخۡلَفۡتُم مَّوۡعِدِي ۝ 85
(86) मूसा सख़्त ग़ुस्से और रंज की हालत में अपनी क़ौम की तरफ़ पलटा। जाकर उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, क्या तुम्हारे रब ने तुमसे अच्छे वादे नहीं किए थे?64 क्या तुम्हें दिन लग गए हैं? 65 या तुम अपने रब का ग़ज़ब ही अपने ऊपर लाना चाहते थे कि तुमने मुझसे वादाख़िलाफ़ी की?66
64. “अच्छा वादा नहीं किया था” भी तर्जमा हो सकता है। ऊपर अस्ल में जो तर्जमा हमने किया। है उसका मतलब यह है कि आज तक तुम्हारे रब ने तुम्हारे साथ जितनी भलाइयों का वादा भी किया है, वे सब तुम्हें हासिल होती रही हैं। तुम्हें मिस्र से सही-सलामत निकाला, ग़ुलामी से नजात दी, तुम्हारे दुश्मन को तहस-नहस किया, तुम्हारे लिए इन वीरानों और पहाड़ी इलाक़ों में साए और खाने का इन्तिज़ाम किया। क्या ये सारे अच्छे वादे पूरे नहीं हुए? दूसरे तर्जमे का मतलब यह होगा कि तुम्हें शरीअत और हिदायतनामा देने का जो वादा किया गया था, क्या तुम्हारे नज़दीक वह किसी ख़ैर और भलाई का वादा न था?
65. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “क्या वादा पूरा होने में बहुत देर लग गई कि तुम बेसब्र हो गए?” पहले तर्जमे का मतलब यह होगा कि तुमपर अल्लाह तआला अभी-अभी जो बड़े-बड़े एहसान कर चुका है, क्या उनको कुछ बहुत ज़्यादा मुद्दत गुज़र गई है कि तुम उन्हें भूल गए? क्या तुम्हारी मुसीबत का ज़माना बीते युग बीत चुके हैं कि तुम बेसुध होकर बहकने लगे। दूसरे तर्जमे का मतलब साफ़ है कि हिदायतनामा देने का जो वादा किया गया था, उसके पूरा होने में कोई देर तो नहीं हुई है जिसको तुम अपने लिए उज़्र और बहाना बना सको।
66. इससे मुराद वह वादा है जो हर क़ौम अपने नबी से करती है— उसकी पैरवी का वादा, उसकी दी हुई हिदायत पर जमे रहने का वादा, अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करने का वादा।
قَالُواْ مَآ أَخۡلَفۡنَا مَوۡعِدَكَ بِمَلۡكِنَا وَلَٰكِنَّا حُمِّلۡنَآ أَوۡزَارٗا مِّن زِينَةِ ٱلۡقَوۡمِ فَقَذَفۡنَٰهَا فَكَذَٰلِكَ أَلۡقَى ٱلسَّامِرِيُّ ۝ 86
(87) उन्होंने जवाब दिया, “हमने आपसे वादाख़िलाफ़ी कुछ अपने इख़्तियार से नहीं की। मामला यह हुआ कि लोगों के ज़ेवरात के बोझ से हम लद गए थे और हमने बस उनको फेंक67 दिया था।” फिर68 इसी तरह सामिरी ने भी कुछ डाला
67. यह उन लोगों का बहाना था जो सामिरी के फ़ितने में मुब्तला हुए। उनका कहना यह था कि हमने ज़ेवरात फेंक दिए थे, न हमारी कोई नीयत बछड़ा बनाने की थी, न हमे मालूम था कि क्या बननेवाला है। उसके बाद जो मामला पेश आया वह था ही कुछ ऐसा कि उसे देखकर हम बेइख़्तियार शिर्क में मुब्तला हो गए। "लोगों के ज़ेवरात के बोझ से हम लद गए थे” इसका सीधा मतलब तो यह है कि हमारे मर्दों और औरतों ने मिस्र की रस्मों के मुताबिक़ जो भारी-भारी ज़ेवरात पहन रखे थे, वे उस जंगल-जंगल भटकने में हमपर बोझ बन गए थे और हम परेशान थे कि इस बोझ को कहाँ तक लादे फिरें। लेकिन बाइबल का बयान है कि ये ज़ेवरात मिस्र से चलते वक़्त हर इसराईली घराने की औरतों और मर्दो ने अपने मिस्री पड़ोसी से माँगे कर ले लिए थे और इस तरह हर एक अपने पड़ोसी को लूटकर रातों-रात 'हिजरत' के लिए चल खड़ा हुआ था। यह 'अख़लाक़ी कारनामा' सिर्फ़ इसी हद तक न था कि हर इसराईली ने अपने तौर पर ख़ुद इसे अंजाम दिया हो, बल्कि यह 'नेकी का काम' अल्लाह के नबी हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनको सिखाया था, और नबी को भी इसकी हिदायत ख़ुद अल्लाह ने दी थी। बाइबल की किताब निर्गमन में कहा गया है— "ख़ुदा ने मूसा से कहा .... जाकर इसराईली बुज़ुर्गों को एक जगह इकट्ठा कर और उनसे कह .... कि तुम जब निकलोगे तो ख़ाली हाथ न निकलोगे, बल्कि तुम्हारी एक-एक औरत अपनी पड़ोसन से और अपने-अपने घर की मेहमान से सोने-चाँदी के ज़ेवर और लिबास माँग लेगी। उनको तुम अपने बेटों और बेटियों को पहनाओगे और मिस्रियों को लूट लोगे।” (अध्याय-3, आयतें—14-22) “और ख़ुदावन्द ने मूसा से कहा .... सो अब तू लोगों के कान में यह बात डाल दे कि उनमें से हर शख़्स अपने पड़ोसी और हर औरत अपनी पड़ोसन से सोने-चाँदी के ज़ेवर ले, और ख़ुदावन्द ने उन लोगों पर मिस्रियों को मेहरबान कर दिया।” (अध्याय-11, आयतें—2, 3) “और बनी-इसराईल ने मूसा के कहने के मुताबिक़ यह भी किया कि मिस्रियों से सोने-चाँदी के ज़ेवर और कपड़े माँग लिए और ख़ुदावन्द ने इन लोगों को मिस्रियों की निगाह में ऐसी इज़्ज़त दी कि जो कुछ इन्होंने माँगा, उन्होंने दिया। सो उन्होंने मिस्रियों को लूट लिया।” (अध्याय-12, आयतें—35, 36) अफ़सोस है कि हमारे तफ़सीर लिखनेवालों ने भी क़ुरआन की इस आयत की तफ़सीर में बनी-इसराईल की इस रिवायत को आँखें बन्द करके नक़्ल कर दिया है और उनकी इस ग़लती से मुसलमानों में भी यह ख़याल फैल गया कि ज़ेवरात का यह बोझ इसी लूट का बोझ था। आयत के दूसरे टुकड़े “और हमने बस उनको फेंक दिया था”का मतलब हमारी समझ में यह आता है कि जब अपने ज़ेवरात को लादे फिरने से लोग तंग आ गए होंगे तो आपसी मशवरे से यह बात तय पाई होगी कि सबके ज़ेवरात एक जगह इकट्ठे किए जाएँ और यह नोट कर लिया जाए, कि किस का कितना सोना और किसकी कितनी चाँदी है, फिर इनको गलाकर ईंटों और छड़ियों की शक्ल में ढाल लिया जाए, ताकि क़ौम के सारे सामान के साथ गधों और बैलों पर उनको लादकर चला जा सके। चुनाँचे इस फ़ैसले के मुताबिक़ हर शख़्स अपने ज़ेवरात ला-लाकर ढेर में फेंकता चला गया होगा।
68. यहाँ से पैराग्राफ़ के आख़िर तक की इबारत पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि क़ौम का जवाब “फेंक दिया था” पर खत्म हो गया है और बाद की यह तफ़सील अल्लाह तआला ख़ुद बता रहा है। इससे वाक़िए की शक्ल यह मालूम होती है कि लोग पेश आनेवाले फ़ितने से बेख़बर, अपने-अपने ज़ेवर ला-लाकर ढेर करते चले गए, और सामिरी भी उनमें शामिल था। बाद में ज़ेवर गलाने का काम सामिरी ने अपने ज़िम्मे ले लिया, और कुछ ऐसी चाल चली कि सोने की ईंटें या छड़ियाँ बनाने के बजाय एक बछड़े की मूरत भट्टी से निकल आई जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। इस तरह सामिरी ने क़ौम को धोखा दिया कि मैं तो सिर्फ़ सोना गलाने का कुसूरवार हूँ, यह तुम्हारा ख़ुदा आप ही इस शक्ल में नमूदार हो गया है।
فَأَخۡرَجَ لَهُمۡ عِجۡلٗا جَسَدٗا لَّهُۥ خُوَارٞ فَقَالُواْ هَٰذَآ إِلَٰهُكُمۡ وَإِلَٰهُ مُوسَىٰ فَنَسِيَ ۝ 87
(88) और उनके लिए एक बछड़े की मूरत बनाकर निकाल लाया जिसमें से बैल की-सी आवाज़ निकलती थी। लोग पुकार उटे, “यही है तुम्हारा ख़ुदा और मूसा का ख़ुदा, मूसा इसे भूल गया।”
أَفَلَا يَرَوۡنَ أَلَّا يَرۡجِعُ إِلَيۡهِمۡ قَوۡلٗا وَلَا يَمۡلِكُ لَهُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا ۝ 88
(89) क्या वे देखते न थे कि न वह उनकी बात का जवाब देता है और न उनके फ़ायदे-नुक़सान का कुछ इख़्तियार रखता है?
وَلَقَدۡ قَالَ لَهُمۡ هَٰرُونُ مِن قَبۡلُ يَٰقَوۡمِ إِنَّمَا فُتِنتُم بِهِۦۖ وَإِنَّ رَبَّكُمُ ٱلرَّحۡمَٰنُ فَٱتَّبِعُونِي وَأَطِيعُوٓاْ أَمۡرِي ۝ 89
(90) हारून (मूसा के आने से पहले ही) उनसे कह चुका था कि “लोगो, तुम इसकी वजह से फ़ितने (आज़माइश) में पड़ गए हो। तुम्हारा रब तो रहमान है तो तुम मेरी पैरवी करो और मेरी बात मानो।”
قَالُواْ لَن نَّبۡرَحَ عَلَيۡهِ عَٰكِفِينَ حَتَّىٰ يَرۡجِعَ إِلَيۡنَا مُوسَىٰ ۝ 90
(91) मगर उन्होंने उससे कह दिया कि “हम तो इसी की परस्तिश करते रहेंगे जब तक कि मूसा हमारे पास वापस न आ जाए।69
67. यह उन लोगों का बहाना था जो सामिरी के फ़ितने में मुब्तला हुए। उनका कहना यह था कि हमने ज़ेवरात फेंक दिए थे, न हमारी कोई नीयत बछड़ा बनाने की थी, न हमे मालूम था कि क्या बननेवाला है। उसके बाद जो मामला पेश आया वह था ही कुछ ऐसा कि उसे देखकर हम बेइख़्तियार शिर्क में मुब्तला हो गए। "लोगों के ज़ेवरात के बोझ से हम लद गए थे” इसका सीधा मतलब तो यह है कि हमारे मर्दों और औरतों ने मिस्र की रस्मों के मुताबिक़ जो भारी-भारी ज़ेवरात पहन रखे थे, वे उस जंगल-जंगल भटकने में हमपर बोझ बन गए थे और हम परेशान थे कि इस बोझ को कहाँ तक लादे फिरें। लेकिन बाइबल का बयान है कि ये ज़ेवरात मिस्र से चलते वक़्त हर इसराईली घराने की औरतों और मर्दो ने अपने मिस्री पड़ोसी से माँगे कर ले लिए थे और इस तरह हर एक अपने पड़ोसी को लूटकर रातों-रात 'हिजरत' के लिए चल खड़ा हुआ था। यह 'अख़लाक़ी कारनामा' सिर्फ़ इसी हद तक न था कि हर इसराईली ने अपने तौर पर ख़ुद इसे अंजाम दिया हो, बल्कि यह 'नेकी का काम' अल्लाह के नबी हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनको सिखाया था, और नबी को भी इसकी हिदायत ख़ुद अल्लाह ने दी थी। बाइबल की किताब निर्गमन में कहा गया है— "ख़ुदा ने मूसा से कहा .... जाकर इसराईली बुज़ुर्गों को एक जगह इकट्ठा कर और उनसे कह .... कि तुम जब निकलोगे तो ख़ाली हाथ न निकलोगे, बल्कि तुम्हारी एक-एक औरत अपनी पड़ोसन से और अपने-अपने घर की मेहमान से सोने-चाँदी के ज़ेवर और लिबास माँग लेगी। उनको तुम अपने बेटों और बेटियों को पहनाओगे और मिस्रियों को लूट लोगे।” (अध्याय-3, आयतें—14-22) “और ख़ुदावन्द ने मूसा से कहा .... सो अब तू लोगों के कान में यह बात डाल दे कि उनमें से हर शख़्स अपने पड़ोसी और हर औरत अपनी पड़ोसन से सोने-चाँदी के ज़ेवर ले, और ख़ुदावन्द ने उन लोगों पर मिस्रियों को मेहरबान कर दिया।” (अध्याय-11, आयतें—2, 3) “और बनी-इसराईल ने मूसा के कहने के मुताबिक़ यह भी किया कि मिस्रियों से सोने-चाँदी के ज़ेवर और कपड़े माँग लिए और ख़ुदावन्द ने इन लोगों को मिस्रियों की निगाह में ऐसी इज़्ज़त दी कि जो कुछ इन्होंने माँगा, उन्होंने दिया। सो उन्होंने मिस्रियों को लूट लिया।” (अध्याय-12, आयतें—35, 36) अफ़सोस है कि हमारे तफ़सीर लिखनेवालों ने भी क़ुरआन की इस आयत की तफ़सीर में बनी-इसराईल की इस रिवायत को आँखें बन्द करके नक़्ल कर दिया है और उनकी इस ग़लती से मुसलमानों में भी यह ख़याल फैल गया कि ज़ेवरात का यह बोझ इसी लूट का बोझ था। आयत के दूसरे टुकड़े “और हमने बस उनको फेंक दिया था”का मतलब हमारी समझ में यह आता है कि जब अपने ज़ेवरात को लादे फिरने से लोग तंग आ गए होंगे तो आपसी मशवरे से यह बात तय पाई होगी कि सबके ज़ेवरात एक जगह इकट्ठे किए जाएँ और यह नोट कर लिया जाए, कि किस का कितना सोना और किसकी कितनी चाँदी है, फिर इनको गलाकर ईंटों और छड़ियों की शक्ल में ढाल लिया जाए, ताकि क़ौम के सारे सामान के साथ गधों और बैलों पर उनको लादकर चला जा सके। चुनाँचे इस फ़ैसले के मुताबिक़ हर शख़्स अपने ज़ेवरात ला-लाकर ढेर में फेंकता चला गया होगा। 69. बाइबल इसके बरख़िलाफ़ हज़रत हारून पर इलज़ाम रखती है कि बछड़ा बनाने और उसे माबूद ठहराने का भारी गुनाह उन्हीं से हुआ था— "और जब लोगों ने देखा कि मूसा ने पहाड़ से उतरने में देर लगाई तो वे हारून के पास इकट्ठे होकर उससे कहने लगे कि 'उठ, हमारे लिए देवता बना दे जो हमारे आगे चले, क्योंकि हम नहीं जानते कि इस मूसा नाम के आदमी को जो हमको मिस्र देश से निकालकर लाया, क्या हो गया।’ हारून ने उनसे कहा, 'तुम्हारी बीवियों, लड़कों और लड़कियों के कानों में जो सोने की बालियाँ हैं, उनको उतारकर मेरे पास ले आओ।' चुनाँचे सब लोग उनके कानों से सोने की बालियाँ उतार-उतारकर हारून के पास ले आए। और उसने उनको उनके हाथों से लेकर एक ढाला हुआ बछड़ा बनाया जिसकी सूरत छेनी से ठीक की। तब वे कहने लगे, ‘ऐ इसराईल, यही तेरा वह देवता है जो तुझको मिस्र देश से निकालकर लाया। यह देखकर हारून ने उसके आगे एक क़ुरबानगाह बनाई और उसने एलान कर दिया कि कल ख़ुदावन्द के लिए ईद होगी।” (निर्गमन, अध्याय-32, आयतें—1-5) बहुत मुमकिन है कि बनी-इसराईल के यहाँ यह ग़लत रिवायत इस वजह से मशहूर हुई हो कि सामिरी का नाम भी हारून ही हो, और बाद के लोगों ने इस हारून को पैग़म्बर हारून (अलैहि०) के साथ ख़ल्त-मल्त कर दिया हो। लेकिन आज ईसाई मिशनरियों और पश्चिमी मुस्तशरिक़ों को ज़िद है कि क़ुरआन यहाँ भी ज़रूर ग़लती पर है। बछड़े को ख़ुदा उनके मुक़द्दस (पाक) नबी ने ही बनाया था और उनके दामन से इस दाग़ को साफ़ करके क़ुरआन ने एक एहसान नहीं, बल्कि उलटा ग़लती की है। यह है उन लोगों की हठधर्मी का हाल! और उनको नज़र नहीं आता कि इसी अध्याय में कुछ लाइनों के बाद आगे चलकर ख़ुद बाइबल अपनी ग़लतबयानी का राज़ किस तरह खोल रही है। इस अध्याय की आख़िरी दस आयतों में बाइबल यह बयान करती है कि हज़रत मूसा ने उसके बाद बनी-लावी को इकट्ठा किया और अल्लाह तआला का यह हुक्म सुनाया कि जिन लोगों ने शिर्क का यह भारी गुनाह किया है, उन्हें क़त्ल किया जाए, और हर एक ईमानवाला ख़ुद अपने हाथ से अपने उस भाई और साथी और पड़ोसी को क़त्ल करे जिसने बछड़े की पूजा का जुर्म किया था। चुनाँचे उस दिन तीन हज़ार आदमी क़त्ल किए गए। अब सवाल यह है कि हज़रत हारून क्यों छोड़ दिए गए? अगर वही इस जुर्म की बुनियाद रखनेवाले थे तो उन्हें इस क़त्ले-आम से किस तरह माफ़ किया जा सकता था? क्या बनी-लावी यह न कहते कि मूसा, हमको तो हुक्म देते हो कि हम अपने गुनाहगार भाइयों, साथियों और पड़ोसियों को अपने हाथों से क़त्ल करें, मगर ख़ुद अपने भाई पर हाथ नहीं उठाते, हालाँकि अस्ल गुनाहगार वही था? आगे चलकर बयान किया जाता है कि मूसा ने ख़ुदावन्द के पास जाकर अर्ज़ किया कि अब बनी-इसराईल का गुनाह माफ़ कर दे, वरना मेरा नाम अपनी किताब में से मिटा दे। इसपर अल्लाह तआला ने जवाब दिया कि “जिसने मेरा गुनाह किया है, मैं उसी का नाम अपनी किताब में से मिटाऊँगा।” लेकिन हम देखते हैं कि हज़रत हारून का नाम न मिटाया गया, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ उनको और उनकी औलाद को बनी-इसराईल में सबसे ऊँचे मंसब, यानी बनी-लावी की सरदारी और मक़दिस की देख-भाल से नवाज़ा गया (गिनती, अध्याय-18, आयतें—1-7)। क्या बाइबल की यह अन्दरूनी गवाही ख़ुद उसके अपने पिछले बयान को रद्द और क़ुरआन के बयान को सही साबित नहीं कर रही है?
قَالَ يَٰهَٰرُونُ مَا مَنَعَكَ إِذۡ رَأَيۡتَهُمۡ ضَلُّوٓاْ ۝ 91
(92) मूसा (क़ौम को डाँटने के बाद हारून की तरफ़ पलटा और) बोला, “हारून, जब तुमने देखा था कि ये लोग गुमराह हो रहे हैं तो किस चीज़ ने तुम्हारा हाथ पकड़ा था कि मेरे तरीक़े पर अमल न करो?
70. हुक्म से मुराद वह हुक्म है जो पहाड़ पर जाते वक़्त और अपनी जगह हज़रत हारून को बनी-इसराईल की सरदारी सौंपते वक़्त हज़रत मूसा (अलहि०) ने दिया था। सूरा-7 आराफ़ में इसे इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है, “और मूसा ने (जाते हुए) अपने भाई हारून से कहा कि तुम मेरी क़ौम में मेरी जानशीनी करो और देखो, सुधार करना, बिगाड़ फेलानेवालों के तरीक़े की पैरवी न करना। (आयत-142)
أَلَّا تَتَّبِعَنِۖ أَفَعَصَيۡتَ أَمۡرِي ۝ 92
(93) क्या तुमने मेरे हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी की,”70
قَالَ يَبۡنَؤُمَّ لَا تَأۡخُذۡ بِلِحۡيَتِي وَلَا بِرَأۡسِيٓۖ إِنِّي خَشِيتُ أَن تَقُولَ فَرَّقۡتَ بَيۡنَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَلَمۡ تَرۡقُبۡ قَوۡلِي ۝ 93
(94) हारून ने जवाब दिया, “ऐ मेरी माँ के बेटे,71 मेरी दाढ़ी न पकड़, न मेरे सर के बाल खींच, मुझे इस बात का डर था कि तू आकर कहेगा कि तुमने बनी-इसराईल में फूट डाल दी और मेरी बात का लिहाज़ न रखा।”72
71. इन आयतों के तर्जमे में हमने इस बात का ध्यान रखा है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) छोटे भाई थे मगर मंसब के लिहाज़ से बड़े थे, और हज़रत हारून बड़े भाई थे मगर मंसब के लिहाज़ से छोटे थे।
72. हज़रत हारून के इस जवाब का यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि क़ौम का इकट्ठा रहना उसके सही रास्ते पर रहने से ज़्यादा अहमियत रखता है, और इत्तिहाद (एकता) चाहे वह शिर्क ही पर क्यों न हो, बिखराव से बेहतर है, चाहे उसकी बुनियाद हक़ और बातिल (असत्य) ही का इख़्तिलाफ़ हो। इस आयत का यह मतलब अगर कोई शख़्स लेगा तो क़ुरआान से हिदायत के बजाय गुमराही ले लेगा। हज़रत हारून की पूरी बात समझने के लिए इस आयत को सूरा-7 आराफ़ की आयत-150 के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिए। वहाँ वे फ़रमाते हैं कि “मेरी माँ के बेटे, इन लोगों ने मुझे दबा लिया और क़रीब था कि मुझे मार डालते। तो तू दुश्मनों को मुझपर हँसने का मौक़ा न दे और इस ज़ालिम गरोह में मुझे मत गिन।” अब इन दोनों आयतों को इकट्ठा करके देखिए तो वाक़िए की अस्ली तस्वीर यह सामने आती है कि हज़रत हारून ने लोगों को इस गुमराही से रोकने की पूरी कोशिश की, मगर उन्होंने हज़रत हारून के ख़िलाफ़ सख़्त फ़साद खड़ा कर दिया और उनको मार डालने पर तुल गए। मजबूरन वे इस अन्देशे से चुप हो गए कि कहीं हज़रत मूसा के आने से पहले यहाँ अपने अन्दर ही लड़ाई न छिड़ जाए, और वे बाद में आकर शिकायत करें कि तुम अगर इस सूरतेहाल से सही तौर पर न निबट सकते थे तो तुमने मामलात को इस हद तक क्यों बिगड़ने दिया, मेरे आने का इन्तिज़ार क्यों न किया। सूरा-7 आराफ़ वाली आयत के आख़िरी जुमले से यह भी ज़ाहिर होता है कि क़ौम में दोनों भाइयों के दुश्मनों की एक तादाद मौजूद थी।
قَالَ فَمَا خَطۡبُكَ يَٰسَٰمِرِيُّ ۝ 94
(95) मूसा ने कहा, “और सामिरी, तेरा क्या मामला है?”
قَالَ بَصُرۡتُ بِمَا لَمۡ يَبۡصُرُواْ بِهِۦ فَقَبَضۡتُ قَبۡضَةٗ مِّنۡ أَثَرِ ٱلرَّسُولِ فَنَبَذۡتُهَا وَكَذَٰلِكَ سَوَّلَتۡ لِي نَفۡسِي ۝ 95
(96) उसने जवाब दिया, “मैंने वह चीज़ देखी जो इन लोगों को नज़र न आई; तो मैंने रसूल के पाँव के निशान से एक मुट्ठी उठा ली और उसको डाल दिया। मेरे नफ़्स (मन) ने मुझे कुछ ऐसा ही सुझाया।"73
73. इस आयत की तफ़सीर में दो गरोहों की तरफ़ से अजीब खींच-तान की गई है। एक गरोह जिसमें पुराने और बहुत पुराने ज़माने के तफ़सीर लिखनेवाले बहुत-से लोग शामिल हैं, इसका यह मतलब बयान करता है कि “सामिरी ने रसूल यानी हज़रत जिबरील को गुज़रते हुए देख लिया था और उनके पैरों के निशान से एक मुट्ठी भर मिट्टी उठा ली थी और यह उसी मिट्टी को करामत थी कि जब उसे बछड़े के बुत पर डाला गया तो उसमें ज़िन्दगी पैदा हो गई और जीते-जागते बछड़े की-सी आवाज़ निकलने लगी।” हालाँकि क़ुरआन यह नहीं कह रहा है कि सचमुच ऐसा हुआ था। वह सिर्फ़ यह कह रहा है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) की पूछ-गछ के जवाब में सामिरी ने यह बात बनाई। फिर हमारी समझ में नहीं आता कि तफ़सीर लिखनेवाले इसको एक सच्चा वाक़िआ और क़ुरआन की बयान की हुई हक़ीक़त कैसे समझ बैठे। दूसरा गरोह सामिरी की कही हुई बात को एक और ही मतलब पहनाता है। उसके मुताबिक़ सामिरी ने अस्ल में यह कहा था कि “मुझे रसूल, यानी हज़रत मूसा में, या उनके दीन में वह कमज़ोरी नज़र आई जो दूसरों को नज़र न आई। इसलिए मैंने एक हद तक तो उसके नक़्शे-क़दम की पैरवी की, मगर बाद में उसे छोड़ दिया। यह मतलब शायद सबसे पहले अबू-मुस्लिम असफ़रहानी को सूझा था। फिर इमाम राज़ी ने इसको अपनी तफ़सीर में नक़्ल करके उसपर अपनी पसन्दीदगी को ज़ाहिर किया, और अब नए ढंग के तफ़सीर लिखनेवाले आम तौर पर इसी को तरजीह दे रहे हैं। लेकिन ये लोग इस बात को भूल जाते हैं कि क़ुरआन मुअम्मों और पहेलियों की ज़बान में नहीं उतरा है, बल्कि साफ़ और आसानी से समझ में आनेवाली अरबी ज़बान में उतरा है, जिसको एक आम अरब अपनी ज़बान के राइज मुहावरे के मुताबिक़ समझ सके। कोई शख़्स जो अरबी ज़बान के राइज मुहावरे और आम बोल-चाल की ज़बान जानता हो, कभी यह नहीं मान सकता कि सामिरी की उस बात को अदा करने के लिए जो उसके मन में थी, वाज़ेह अरबी में वे अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए जाएँगे जो इस आयत में पाए जाते हैं। न एक आम अरब इन अलफ़ाज को सुनकर कभी वह मतलब ले सकता है जो ये लोग बयान कर रहे हैं। लुग़त (शब्दकोश) की किताबों में से किसी लफ़्ज़ के वे बिलकुल मुख़्तलिफ़ मतलब तलाश कर लेना जो मुख़्तलिफ़ मुहावरों में उससे मुराद लिए जाते हों, और उनमें से किसी मतलब को लाकर एक ऐसी इबारत में चस्पाँ कर देना जहाँ एक आम अरब उस लफ़्ज को हरगिज़ उस मानी में इस्तेमाल न करेगा, ज़बान की अच्छी जानकारी रखना तो नहीं हो सकता, अलबत्ता बातें बनाने का करतब ज़रूर माना जा सकता है। इस तरह के करतब उर्दू का लुग़त 'फ़रहंगे-आसिफ़िया' हाथ में लेकर अगर कोई शख़्स ख़ुद इन लोगों की उर्दू इबारतों में, या ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी लेकर इनकी अंग्रेज़ी इबारतों में दिखाने शुरू कर दे तो शायद अपनी बातों के दो-चार ही मतलब सुनकर ये लोग चिल्ला उठें। आम तौर से क़ुरआन में ऐसे मनमाने मतलब उस वक़्त निकाले जाते हैं जबकि एक शख़्स किसी आयत के साफ़ और सीधे मतलब को देखकर अपनी समझ में यह समझता है कि यहाँ तो अल्लाह से बड़ी बेएहतियाती हो गई, लाओ में उनकी बात इस तरह बना दूँ कि उनकी ग़लती का परदा ढक जाए और लोगों को उनपर हँसने का मौक़ा न मिले। सोचने के इस ढंग को छोड़कर जो शख़्स भी बात के इस सिलसिले में इस आयत को पढ़ेगा, वह आसानी के साथ वह समझ लेगा कि सामिरी एक फ़ितना पैदा करनेवाला आदमी या, जिसने ख़ूब सोच-समझकर धोखे-फ़रेब की स्कीम तैयार की थी। उसने सिर्फ़ वही नहीं किया कि सोने का बछड़ा बनाकर उसमें किसी तदबीर से बछड़े की सी आवाज़ पैदा कर दी और सारी क़ौम के जाहिल और नादान लोगों को धोखे में डाल दिया, बल्कि उसपर और ज़्यादा जसारत (दुस्साहस) यह भी की कि ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) के सामने एक धोखे भरी दास्तान गढ़कर रख दी। उसने दावा किया कि मुझे वह कुछ नज़र आया जो दूसरों को नज़र न आता था और साथ-साथ यह कहानी भी गढ़ दी कि रसूल के पैरों की एक मुट्टी भर मिट्टी से यह करामत हुई है। रसूल से मुराद मुमकिन है कि जिबरील ही हों, जैसा कि पहले के तफ़सीर लिखनेवालों ने समझा है, लेकिन अगर यह समझा जाए कि उसने रसूल का लफ़्ज़ ख़ुद हज़रत मूसा (अलहि०) के लिए इस्तेमाल किया था तो यह उसकी एक और मक्कारी थी। वह इस तरह हज़रत मूसा को ज़ेहनी रिश्वत देना चाहता था, ताकि वे उसे अपने नक़्शे-क़दम की मिट्टी का करिश्मा समझकर फूल जाएँ और अपनी कुछ और करामतों का इश्तिहार देने के लिए सामिरी की ख़िदमतें हमेशा के लिए हासिल कर लें। क़ुरआन इस सारे मामले को सामिरी के धोखे और फ़रेब ही की हैसियत से पेश कर रहा है, अपनी तरफ़ से पेश आए वाक़िए के तौर पर बयान नहीं कर रहा है कि उसमें कोई बुराई सामने आती हो और लुग़त की किताबों से मदद लेकर बिला वजह की बात बनानी पड़े, बल्कि बाद के जुमले में हज़रत मूसा ने जिस तरह उसको फटकारा है और उसके लिए सज़ा बताई है उससे साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि उसकी गढ़ी हुई इस धोखे और फ़रेब भरी कहानी को सुनते ही उन्होंने उसके मुँह पर मार दिया।
قَالَ فَٱذۡهَبۡ فَإِنَّ لَكَ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ أَن تَقُولَ لَا مِسَاسَۖ وَإِنَّ لَكَ مَوۡعِدٗا لَّن تُخۡلَفَهُۥۖ وَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ إِلَٰهِكَ ٱلَّذِي ظَلۡتَ عَلَيۡهِ عَاكِفٗاۖ لَّنُحَرِّقَنَّهُۥ ثُمَّ لَنَنسِفَنَّهُۥ فِي ٱلۡيَمِّ نَسۡفًا ۝ 96
(97) मूसा ने कहा, “अच्छा तो जा, अब ज़िन्दगी भर तुझे यही पुकारते रहना है कि मुझे न छूना।74 और तेरे लिए पूछ-गछ का एक वक़्त मुक़र्रर है जो तुझसे हरगिज़ न टलेगा और देख अपने इस ख़ुदा को जिसपर तू रीझा हुआ था, अब हम इसे जला डालेंगे और चूर-चूर करके दरिया में बहा देंगे।
74. यानी सिर्फ़ यही नहीं कि ज़िन्दगी भर के लिए समाज से उसके ताल्लुक़ात तोड़ दिए गए और उसे अछूत बनाकर रख दिया गया, बल्कि यह ज़िम्मेदारी भी उसी पर डाली गई कि हर आदमी को वह ख़ुद अपने अछूतपन से आगाह करे और दूर ही से लोगों को बताता रहे कि मैं अछूत हूँ, मुझे हाथ न लगाना। बाइबल की किताब अहबार में कोढ़ियों की छूत से लोगों को बचाने के लिए जो क़ायदे बयान किए गए हैं उनमें से एक क़ायदा यह भी है— "और जो कोढ़ी उसमें मुब्तला हो, उसके कपड़े फटे और उसके सिर के बाल बिखरे रहें और वह अपने ऊपर के होंठ को ढाँके और चिल्ला-चिल्लाकर कहे— ‘नापाक-नापाक’। जितने दिनों तक वह इस बला में मुब्तला रहे, वह नापाक रहेगा और वह है भी नापाक। इसलिए वह अकेला रहे, उसका मकान फ़ौजी ठिकाने के बाहर हो। (अध्याय-13, आयतें—45, 46) इससे गुमान होता है कि या तो अल्लाह तआला की तरफ़ से अज़ाब के तौर पर उसको कोढ़ के रोग में मुब्तला कर दिया गया होगा, या फिर उसके लिए यह सज़ा तय की गई होगी कि जिस तरह जिस्मानी कोढ़ का रोगी लोगों से अलग कर दिया जाता है, उसी तरह इस अख़लाक़ी कोढ़ के रोगी को भी अलग कर दिया जाए, और यह भी कोढ़ी की तरह पुकार-पुकारकर हर क़रीब आनेवाले को बताता रहे कि में नापाक हैं, मुझे न छूना।
إِنَّمَآ إِلَٰهُكُمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ وَسِعَ كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمٗا ۝ 97
(98) लोगो, तुम्हारा ख़ुदा तो बस एक ही अल्लाह है जिसके सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है, हर चीज़ पर उसका इल्म छाया हुआ है।"
كَذَٰلِكَ نَقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ مَا قَدۡ سَبَقَۚ وَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ مِن لَّدُنَّا ذِكۡرٗا ۝ 98
(99) ऐ नबी!75 इस तरह हम पिछले गुज़रे हुए हालात की ख़बरें तुमको सुनाते हैं,और हमने ख़ास अपने यहाँ से तुमको एक 'ज़िक्र' (नसीहत का सबक़) अता (प्रदान) किया है।76
75. मूसा (अलेहि०) का क़िस्सा ख़त्म करके अब फिर तक़रीर का रुख़ उस मज़मून की तरफ़ मुड़ता है जिससे सूरा की शुरुआत हुई थी। आगे बढ़ने से पहले एक बार पलटकर सूरा की उन इब्तिदाई आयतों को पढ़ लीजिए जिनके बाद यकायक हज़रत मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा शुरू हो गया था। इससे आप की समझ में अच्छी तरह यह बात आ जाएगी कि अस्ल मौज़ू क्या है जिसपर इस सूरा में बात की गई है बीच में हज़रत मूसा (अलैहि०) का क़िस्सा किस लिए बयान हुआ है, और अब क़िस्सा खत्म करके किस तरह तक़रीर अपने मौजू की तरफ़ पलट रही है।
76. यानी यह क़ुरआन जिसके बारे में सूरा के शुरू में कहा गया था कि यह कोई अनहोना काम तुमसे लेने और तुमको बैठे-बिठाए एक मुश्किल में डाल देने के लिए नहीं उतारा गया है, वह तो एक याददिहानी और नसीहत (ज़िक्र) है, हर उस शख़्स के लिए जिसके दिल में ख़ुदा का कुछ डर हो।
مَّنۡ أَعۡرَضَ عَنۡهُ فَإِنَّهُۥ يَحۡمِلُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وِزۡرًا ۝ 99
(100) जो कोई इससे मुँह मोड़ेगा, वह क़ियामत के दिन सख़्त गुनाह का बोझ उठाएगा,
خَٰلِدِينَ فِيهِۖ وَسَآءَ لَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ حِمۡلٗا ۝ 100
(101) और ऐसे सब लोग हमेशा उसके वबाल में गिरफ़्तार रहेंगे, और क़ियामत के दिन उनके लिए (इस जुर्म की ज़िम्मेदारी का बोझ) बड़ा तकलीफ़देह बोझ होगा,77
77. इसमें पहली बात तो यह बताई गई है कि जो शख़्स नसीहत के इस सबक़, यानी क़ुरआन, से मुँह मोड़ेगा और उसकी हिदायत और रहनुमाई क़ुबूल करने से इनकार करेगा, वह अपना ही नुक़सान करेगा, मुहम्मद (सल्ल०) और उनके भेजनेवाले ख़ुदा का कुछ न बिगाड़ेगा। उसकी यह बेवक़ूफ़ी दर अस्ल उसकी ख़ुद अपने साथ दुश्मनी होगी। दूसरी बात यह बताई गई कि कोई शख़्स जिसको क़ुरआन की यह नसीहत पहुँचे और फिर वह उसे क़ुबूल करने से कतराए, आख़िरत में सज़ा पाने से बच नहीं सकता। आयत के अलफ़ाज़ आम हैं। किसी क़ौम, किसी देश, किसी ज़माने के साथ ख़ास नहीं हैं। जब तक यह क़ुरआन दुनिया में मौजूद है, जहाँ-जहाँ जिस-जिस देश और क़ौम के जिस शख़्स को भी यह पहुँचेगा, उसके लिए दो ही रास्ते खुले होंगे, तीसरा कोई रास्ता न होगा। या तो इसको माने और इसकी पैरवी करे या इसको न माने। और इसकी पैरवी से मुँह मोड़ ले। पहला रास्ता अपनानेवाले का अंजाम आगे आ रहा है। और दूसरा रास्ता अपनानेवाले का अंजाम यह है जो इस आयत में बता दिया गया है।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ وَنَحۡشُرُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ يَوۡمَئِذٖ زُرۡقٗا ۝ 101
(102) उस दिन जबकि सूर फूँका जाएगा78 और हम मुजरिमों को इस हाल में घेर लाएँगे कि उनकी आँखें (दहशत के मारे) पथराई हुई होंगी,79
78. सूर यानी नरसिंघा, करना, याबूक। आजकल इसी चीज़ की जगह पर बिगुल या इसी तरह की कोई और चीज़ है जो फ़ौज को इकट्ठा करने या बिखेरने और हिदायतें देने के लिए बजाय जाता है। अल्लाह तआला अपनी कायनात (सृष्टि) के इन्तिज़ाम को समझाने के लिए, अलफ़ाज़ और इस्तिलाहें (किसी चीज़ के लिए बोले जानेवाले ख़ास अलफ़ाज़) इस्तेमाल करता जो ख़ुद इनसानी ज़िन्दगी में उसी से मिलते-जुलते निज़ाम के लिए इस्तेमाल होती हैं। इन अलफ़ाज और इस्तिलाहों के इस्तेमाल का मक़सद हमारे ख़याल को अस्ल चीज़ के क़रीब ले जाना है, न यह कि हम अल्लाह की सल्तनत के निज़ाम की मुख़्तलिफ़् चीज़ों को ठीक उन्हीं महदूद मानी में ले लें, और उन महदूद सूरतों की चीज़ें समझ लें, जैसी कि वे हमारी ज़िन्दगी में पाई जाती हैं। पुराने ज़माने से आज तक लोगों को इकट्ठा करने और अहम बातों का एलान करने के लिए कोई-न-कोई ऐसी चीज़ फुँकी जाती रही है जो सुर या बिगुल से मिलती-जुलती हो। अल्लाह तआला बताता है कि ऐसी ही एक चीज़ क़ियामत के दिन फूँकी जाएगी जिसकी नौईयत हमारे नरसिंधे की-सी होगी। एक बार वह फूँकी जाएगी और सबपर मौत छा जाएगी। दूसरी बार फूँकने पर सब जी उठेंगे और ज़मीन के हर हिस्से से निकल निकलकर हश्र के मैदान की तरफ़ दौड़ने लगेंगे। (और ज़्यादा तफ़सीलात के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, हिस्सा-3; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-106)
79. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'जुरक़ा' इस्तेमाल हुआ है जो 'अज़रक़' का जमा (बहुवचन) है। कुछ लोगों ने इसका मतलब यह लिया है कि वे लोग ख़ुद अज़रक़ (सफ़ेदी लिए हुए नीले रंग के) हो जाएँगे, क्योंकि डर और दहशत के मारे उनका ख़ून सूख जाएगा और उनकी हालत ऐसी हो जाएगी कि मानो उनके जिस्म में ख़ून को एक बूँद तक नहीं है। और कुछ दूसरे लोगों ने इस लफ़्ज़ को 'अज़रक़ुल-ऐन’ (नीली आँखोवाले) के मानी में लिया है और वे इसका मतलब यह लेते हैं कि घबराहट की ज़्यादती से उनके दीदे पथरा जाएँगे। जब किसी शख़्स की आँखें बेनूर हो जाती हैं तो उसकी आँखों का रंग सफ़ेद पड़ जाता है।
يَتَخَٰفَتُونَ بَيۡنَهُمۡ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا عَشۡرٗا ۝ 102
(103) आपस में चुपके- चुपके कहेंगे कि “दुनिया में मुश्किल ही से तुमने कोई दस दिन गुज़ारे होंगे।"80
80. दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि “मौत के बाद से इस वक़्त तक तुमको मुश्किल ही से दस दिन गुज़रे होंगे। क़ुरआन मजीद के दूसरे मक़ामात से मालूम होता है कि क़ियामत के दिन लोग अपनी दुनियावी ज़िन्दगी के बारे में भी ये अन्दाज़े लगाएँगे कि वह बहुत थोड़ी थी, और मौत से लेकर क़ियामत तक जो वक़्त गुज़रा होगा उसके बारे में भी उनके अन्दाज़े कुछ ऐसे ही होंगे। एक जगह कहा गया है, “अल्लाह तआला पूछेगा कि तुम ज़मीन में कितने साल रहे हो? वे जवाब देंगे, एक दिन या दिन का एक हिस्सा रहे होंगे, गिनती करनेवालों से पूछ लीजिए।”(सूरा-23 मोमिनून, आयतें—112, 113)। दूसरी जगह कहा जाता है, “और जिस दिन क़ियामत क़ायम हो जाएगी तो मुजरिम लोग क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हम (मौत की हालत में) एक घड़ी भर से ज़्यादा नहीं पड़े रहे हैं। इसी तरह वे दुनिया में भी धोखे खाते रहते थे। और जिन लोगों को इल्म और ईमान दिया गया था, वे कहेंगे कि अल्लाह की किताब के मुताबिक़ तो तुम उठाए जाने के दिन तक पड़े रहे हो और यह वही उठाए जानेवाला दिन है, मगर तुम जानते न थे।”(सूरा-30 रूम, आयत-55, 56)। इन अलग-अलग साफ़ बयानों से साबित होता है कि दुनिया की ज़िन्दगी और बरज़ख़ की ज़िन्दगी, दोनों ही को वे बहुत थोड़ा समझेंगे। दुनिया की ज़िन्दगी के बारे में वे इसलिए ये बातें करेंगे कि अपनी उम्मीदों के बिलकुल उलट जब उन्हें आख़िरत की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी में आँखें खोलनी पड़ेंगी, और जब वे देखेंगे कि यहाँ के लिए वे कुछ भी तैयारी करके नहीं आए हैं तो इंन्तिहा दरजे की हसरत के साथ वे अपनी दुनियावी ज़िन्दगी की तरफ़ पलटकर देखेंगे और अफ़सोस के साथ हाथ मलेंगे कि चार दिन की मौज-मस्ती और फ़ायदे और लज़्ज़त के लिए हमने हमेशा के लिए अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार ली। मौत के बाद आनेवाली ज़िन्दगी को वे दुनिया में नामुमकिन समझते थे और क़ुरआन की बताई हुई आख़िरत की दुनिया का जुग़राफ़िया (भूगोल) कभी संजीदगी के साथ उनके ज़ेहन में उत्तरा ही न था। यही सोच और ख़यालात लिए हुए दुनिया में होश-हवास की आख़िरी घड़ी उन्होंने ख़त्म की थी। अब जो अचानक वे आँखें मलते हुए दूसरी ज़िन्दगी में जागेंगे और दूसरे ही पल अपने आपको एक बिगुल या नरसिंघे की आवाज़ पर मार्च करते पाएँगे तो वे सख़्त घबराहट के साथ अन्दाज़ा लगाएँगे कि फ़ुलाँ हस्पताल में बेहोश होने या फ़ुलाँ जहाज़ में डूबने या फ़ुलाँ जगह पर हादिसे से दो-चार होने के बाद से इस वक़्त तक आख़िर कितना वक़्त लगा होगा। उनकी खोपड़ी में उस वक़्त यह बात समाएगी ही नहीं कि दुनिया में वे मर चुके थे और अब यह वही दूसरी ज़िन्दगी है जिसे हम बिलकुल बकवास कहकर मज़ाक़ और ठट्ठों में उड़ा दिया करते थे। इसलिए उनमें से हर एक यह समझेगा कि शायद मैं कुछ घंटे या कुछ दिन बेहोश पड़ा रहा हूँ, और अब शायद ऐसे वक़्त मुझे होश आया है या ऐसी जगह इत्तिफ़ाक़ से पहुँच गया है, जहाँ किसी बड़े हादिसे की वजह से लोग एक तरफ़ को भागे जा रहे हैं। नामुमकिन नहीं कि आजकल के मरनेवाले साहब लोग सूर की आवाज़ को कुछ देर तक हवाई हमले का सायरन ही समझते रहें।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَقُولُونَ إِذۡ يَقُولُ أَمۡثَلُهُمۡ طَرِيقَةً إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا يَوۡمٗا ۝ 103
(104) हमें81 ख़ूब मालूम है कि वे क्या बातें कर रहे होंगे। (हम यह भी जानते हैं कि) उस वक़्त इनमें से जो ज़्यादा-से-ज़्यादा एहतियात के साथ अन्दाज़ा लगानेवाला होगा, वह कहेगा कि नहीं, तुम्हारी दुनिया की ज़िन्दगी बस एक दिन की ज़िन्दगी थी।
81. ऊपर से चली आ रही बात से हटकर लोगों के शुब्हों को दूर करने के लिए दरमियान में यह बात कही गई है कि आख़िर उस वक़्त हश्र के मैदान में भागते हुए लोग चुपके-चुपके जो बातें करेंगे, वे आज यहाँ कैसे बयान हो रही हैं।
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلۡجِبَالِ فَقُلۡ يَنسِفُهَا رَبِّي نَسۡفٗا ۝ 104
(105) ये लोग82 तुमसे पूछते हैं कि आख़िर उस दिन ये पहाड़ कहाँ चले जाएँगे? कहो कि मेरा रब इनको धूल बनाकर उड़ा देगा
82. ऊपर से चली आ रही बात से हटकर दरमियान में कही गई बात है जो तक़रीर के बीच में किसी सुननेवाले के सवाल पर कही गई है मालूम होता है कि जिस वक़्त यह सूरत एक इलहामी (अल्लाह की तरफ़ से उतारी हुई) तक़रीर के अन्दाज़ में सुनाई जा रही होगी, उस वक़्त किसी ने मज़ाक़ उड़ाने के लिए यह सवाल उठाया होगा कि क़ियामत का जो नक़्शा आप खींच रहे हैं उससे तो ऐसा मालूम होता है कि दुनिया भर के लोग किसी सपाट मैदान में भागे चले जा रहे होंगे। आख़िर ये बड़े-बड़े पहाड़ उस वक़्त कहाँ चले जाएँगे? इस सवाल का मौक़ा समझने के लिए उस माहौल को निगाह में रखिए जिसमें यह तक़रीर की जा रही थी। मक्का जिस जगह पर है, उसकी हालत एक हौज़ की-सी है जिसके चारों तरफ़ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। पूछनेवाले ने उन्हीं पहाड़ों की तरफ़ इशारा करके यह बात कही होगी और वह्य के इशारे से जवाब फिर उसी वक़्त यह दे दिया गया कि ये पहाड़ कूट-पीटकर इस तरह चूरा-चूरा कर दिए जाएँगे जैसे रेत के ज़र्रे, और उनको धूल की तरह उड़ाकर सारी ज़मीन एक ऐसा सपाट मैदान बना दी जाएगी कि उसमें कोई ऊँच-नीच न रहेगी, कोई गढ़ा या टीला न होगा। उसकी हालत एक ऐसे साफ़ फर्श की-सी होगी जिसमें ज़रा-सा बल और कोई मामूली-सी सलवट तक न हो।
فَيَذَرُهَا قَاعٗا صَفۡصَفٗا ۝ 105
(106) और ज़मीन को ऐसा समतल और चटियल मैदान बना देगा
لَّا تَرَىٰ فِيهَا عِوَجٗا وَلَآ أَمۡتٗا ۝ 106
(107) कि उसमें तुम कोई बल और सलवट न देखोगे।83
83. आख़िरत की दुनिया में ज़मीन की जो नई शक्ल बनेगी, उसे क़ुरआन मजीद में अलग-अलग मौक़ों पर बयान किया गया है सूरा-84 इन्‍शिक़ाक़, आयत-3 में कहा गया, “ज़मीन फैला दी जाएगी।” सूरा-82 इन्‍फ़ितार, आयत-3 में कहा गया, “समन्दर फाड़ दिए जाएँगे” जिसका मतलब शायद यह है कि समन्दरों की तहें फट जाएँगी और सारा पानी ज़मीन के अन्दर उतर जाएगा। सूरा-81 तकवीर, आयत-6 में कहा गया, “समन्दर भर दिए जाएँगे या पाट दिए जाएँगे।” और यहाँ बताया जा रहा है कि पहाड़ों को चूरा-चूरा करके सारी ज़मीन एक सपाट मैदान की तरह कर दी जाएगी। (सूरा-20 ता-हा, आयतें—105-107) इससे जो शक्ल ज़ेहन में बनती है वह यह है कि आख़िरत की दुनिया में यह पूरी ज़मीन समन्दर को पाटकर, पहाड़ों को तोड़कर, ऊँचाई-नीचाई को बराबर करके और जंगलों को साफ़ करके बिलकुल एक गेंद की तरह बना दी जाएगी। यही वह शक्ल है जिसके बारे में सूरा-14 इबराहीम, आयत-48 में फ़रमाया, “वह दिन जबकि ज़मीन बदलकर कुछ-से-कुछ कर दी जाएगी।” और यही ज़मीन की वह शक्ल होगी जिसपर तमाम लोगों की ज़िन्दा करके जमा किया जाएगा और अल्लाह तआला हर शख़्स से उसके कामों का हिसाब लेगा फिर इसकी आख़िरी और दाइमी शक्ल वह बना दी जाएगी जिसको सूरा-39 ज़ुमर, आयत-74 में यों बयान किया गया है, “(परहेज़गार लोग) कहेंगे कि शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमसे अपने वादे पूरे किए और हमको ज़मीन का वारिस बना दिया। हम इस जन्नत में जहाँ चाहें अपनी जगह बना सकते हैं; तो बेहतरीन अज्र (बदला) है अमल करनेवालों के लिए।” इससे मालूम हुआ कि आख़िरकार यह पूरी ज़मीन जन्नत बना दी जाएगी और ख़ुदा के नेक और परहेज़गार बन्दे उसके वारिस होंगे। उस वक़्त पूरी ज़मीन एक देश होगी। पहाड़, समन्दर, नदियाँ, रेगिस्तान जो आज ज़मीन को अनगिनत देशों और वतनों में बाँट रहे हैं, और साथ-साथ इनसानियत को भी बाँटे दे रहे हैं, सिरे से मौजूद ही न होंगे। वाज़ेह रहे कि सहाबा और ताबिईन में से इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) भी यही बात कहते हैं कि जन्नत इसी ज़मीन पर होगी (देखें, आलूसी, हिस्सा-27, पेज-27) और सूरा-53 नज्म, आयतें—14, 15 का मतलब वे यह बयान करते हैं कि इससे मुराद वह जन्नत है जिसमें अब शहीदों की रूहें रखी जाती हैं।)
يَوۡمَئِذٖ يَتَّبِعُونَ ٱلدَّاعِيَ لَا عِوَجَ لَهُۥۖ وَخَشَعَتِ ٱلۡأَصۡوَاتُ لِلرَّحۡمَٰنِ فَلَا تَسۡمَعُ إِلَّا هَمۡسٗا ۝ 107
(108) उस दिन सब लोग पुकारनेवाले की पुकार पर सीधे चले आएँगे, कोई ज़रा अकड़ न दिखा सकेगा। और आवाज़ें रहमान (दयावान ख़ुदा) के आगे दब जाएँगी, एक सरसराहट84 के सिवा तुम कुछ न सुनोगे
84. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'हम्स' इस्तेमाल हुआ है जो क़दमों की आहट, चुपके-चुपके बोलने की आवाज़, ऊँट के चलने की आवाज़ और ऐसी ही हल्की आवाज़ों के लिए बोला जाता है। मुराद यह है कि वहाँ कोई आवाज़, सिवाय चलनेवालों के क़दमों की आहट और चुपके-चुपके बात करनेवालों की खुसर-फुसर के नहीं सुनी जाएगी। एक घबराहट भरा माहौल होगा।
يَوۡمَئِذٖ لَّا تَنفَعُ ٱلشَّفَٰعَةُ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَرَضِيَ لَهُۥ قَوۡلٗا ۝ 108
(109) उस दिन शफ़ाअत (सिफ़ारिश) काम न आएगी, सिवाय यह कि किसी को रहमान इसकी इजाज़त दे और उसकी बात सुनना पसन्द करे।85
85. इस आयत के दो तर्जमे में हो सकते हैं। एक यह जो ऊपर किया गया है दूसरा यह कि “उस दिन सिफ़ारिश काम न आएगी सिवाय यह कि किसी के हक़ में रहमान (अल्लाह) इसकी इजाज़त दे और उसके लिए बात सुनने पर राज़ी हो।” अलफ़ाज़ ऐसे हैं जिनमें दोनों मतलब शामिल हैं। और हक़ीक़त भी यही है कि क़ियामत के दिन किसी को दम मारने तक की हिम्मत न होगी, कहाँ यह कि कोई सिफ़ारिश के लिए ख़ुद अपनी ज़बान खोल सके। सिफ़ारिश वही कर सकेगा जिसे अल्लाह तआला बोलने की इजाज़त दे, और उसी के हक़ में कर सकेगा जिसके लिए अल्लाह के दरबार से सिफ़ारिश करने की इजाज़त मिल जाए। ये दोनों बातें क़ुरआन में कई जगहों पर खोलकर बता दी गई हैं। एक तरफ़ फ़रमाया, “कौन है जो उसकी इजाज़त के बिना उसके सामने सिफ़ारिश कर सके।”(सूरा-2, बक़रा, आयत-255) और “जिस दिन रूह और फ़रिश्ते सब क़तार में खड़े होंगे, कोई न बोलेगा सिवाय उसके जिसे रहमान इजाज़त दे और जो ठीक बात कहे। (सूरा-76 नबा, आयत-35) दूसरी तरफ़ कहा गया, “और वे किसी की सिफ़ारिश नहीं करते सिवाय उस शख़्स के जिसके हक़ में सिफ़ारिश सुनने पर (रहमान) राज़ी हो, और वह उसके ख़ौफ़ से डरे-डरे रहते हैं। (सूरा-21 अम्बिया, आयत-28) और कितने ही फ़रिश्ते आसमानों में हैं जिनकी सिफ़ारिश कुछ भी फ़ायदेमन्द नहीं हो सकती, सिवाय इस सूरत के कि अल्लाह से इजाज़त लेने के बाद की जाए और ऐसे शख़्स के लिए की जाए जिसके लिए यह सिफ़ारिश सुनना चाहे और पसन्द करे। (सूरा-53 नज्म, आयत-26)
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡ وَلَا يُحِيطُونَ بِهِۦ عِلۡمٗا ۝ 109
(110) वह लोगों का अगला-पिछला सब हाल जानता है और दूसरों को उसका पूरा इल्म नहीं है।86
86. यहाँ वजह बताई गई है कि सिफ़ारिश पर यह पाबन्दी क्यों है। फ़रिश्ते हो या पैग़म्बर या वली, किसी को भी यह मालूम नहीं है और नहीं हो सकता कि किसका रिकॉर्ड कैसा है, क़ौन दुनिया में क्या करता रहा है और अल्लाह की अदालत में किस क़िरदार और कैसी-कैसी ज़िम्मेदारियों का बोझ लेकर आया है। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह को हर एक के पिछले कारनामों और करतूतों की भी जानकारी है और वह यह भी जानता है कि अब उसका नज़रिया क्या है। नेक है तो कैसा नेक है और मुजरिम है तो किस दरजे का मुजरिम है। माफ़ी के क़ाबिल है या नहीं। पूरी सज़ा का हक़दार है या उसकी सज़ा में कमी या कुछ रिआयत भी उसके साथ की जा सकती है। ऐसी हालत में यह किस तरह सही हो सकता है कि फ़रिश्तों और पैग़म्बरों और नेक लोगों को सिफ़ारिश की खुली छूट दे दी जाए और हर एक जिसकी तरफ़दारी में जो सिफ़ारिश चाहे कर दे। एक मामूली अफ़सर अपने छोटे-से महकमे में अगर अपने हर दोस्त या रिश्तेदार की सिफ़ारिशें सुनने लगे तो चार दिन में सारे महकमे का सत्यानास करके रख देगा। फिर भला ज़मीन और आसमान के बादशाह से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उसके यहाँ सिफ़ारिशों का बाज़ार गर्म होगा और हर बुज़ुर्ग जा-जाकर जिसको चाहेंगे, माफ करा लाएँगे, हालाँकि उनमें से किसी बुज़ुर्ग को भी यह मालूम नहीं है कि जिन लोगों की सिफ़ारिश वे कर रहे हैं उनके आमालनामे कैसे है। दुनिया में जो अफ़सर ज़िम्मेदारी का कुछ एहसास रखता है, उसका रवैया यह होता है कि अगर उसका कोई दोस्त उसके किसी क़ुसूरवार मातहत की सिफ़ारिश लेकर जाता है तो वह उससे कहता है कि आपको पता नहीं है कि यह आदमी कितना कामचोर, अपने फ़र्ज़ को न पहचाननेवाला, रिश्वतख़ोर और लोगों को तंग करनेवाला है। मैं इसके करतूतों को जानता है, इसलिए आप मेहरबानी करके मुझसे इसकी सिफ़ारिश न करें। छोटी-सी मिसाल को सामने रखकर अन्दाज़ा किया जा सकता है कि इस आयत में सिफ़ारिश के बारे में जो क़ायदा बयान किया गया है वह कितना ज़्यादा सही समझ में आनेवाला और इनसाफ़ के मुताबिक़ है। ख़ुदा के यहाँ सिफ़ारिश का दरवाज़ा बन्द न होगा, नेक बन्दे जो दुनिया में लोगों के साथ हमदर्दी का बरताव करने के आदी थे उन्हें आख़िरत में भी हमदर्दी का हक़ अदा करने का मौक़ा दिया जाएगा, लेकिन वे सिफ़ारिश करने से पहले इजाज़त माँगेंगे, और जिसके लिए अल्लाह तआला उन्हें बोलने की इजाज़त देगा, सिर्फ़ उसी के लिए वे सिफ़ारिश कर सकेंगे। फिर सिफ़ारिश के लिए भी यह शर्त होगी कि वह मुनासिब और हक़ के मुताबिक़ हो, जैसा कि अल्लाह का यह फ़रमान कि ‘बात ठीक कहे’ साफ़ बता रहा है। बेवजह की सिफ़ारिश करने की वहाँ इजाज़त न होगी कि एक आदमी दुनिया में सैकड़ों, हज़ारों लोगों के हक़ मारकर आया हो और कोई बुज़ुर्ग उठकर सिफ़ारिश कर दे कि हुज़ूर इसे इनाम दें, यह मेरा ख़ास आदमी है।
۞وَعَنَتِ ٱلۡوُجُوهُ لِلۡحَيِّ ٱلۡقَيُّومِۖ وَقَدۡ خَابَ مَنۡ حَمَلَ ظُلۡمٗا ۝ 110
(111) लोगों के सर उस हमेशा ज़िन्दा और क़ायम रहनेवाले के आगे झुक जाएँगे। नाकाम होगा जो उस वक़्त किसी के गुनाह का बोझ उठाए हुए हो।
وَمَن يَعۡمَلۡ مِنَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَلَا يَخَافُ ظُلۡمٗا وَلَا هَضۡمٗا ۝ 111
(112) और किसी ज़ुल्म या हक़ मारे जाने का ख़तरा न होगा उस शख़्स को जो अच्छे काम करे और इसके साथ वह ईमानवाला87 भी हो।
87. यानी वहाँ फ़ैसला हर इनसान की सिफ़ात और ख़ूबियों (Merits) की बुनियाद पर होगा। जो शख़्स किसी ज़ुल्म का बोझ उठाए हुए आएगा, चाहे उसने ज़ुल्म अपने ख़ुदा के हक़ों पर किया हो या ख़ुदा के बन्दों के हक़ों पर, या ख़ुद अपने आप पर, बहरहाल यह चीज़ उसे कामयाबी का मुँह न देखने देगी। दूसरी तरफ़ जो लोग ईमान और अच्छे काम (सिर्फ़ अच्छे काम नहीं), बल्कि ईमान के साथ अच्छे काम, और सिर्फ़ ईमान भी नहीं, बल्कि अच्छे कामों के साथ ईमान लिए हुए आएँगे, उनके लिए वहाँ न तो इस बात का कोई डर है कि उनपर ज़ुल्म होगा यानी बेवजह और बेक़ुसूर उनको सज़ा दी जाएगी, और न इसी बात का कोई ख़तरा है कि उनके किए-कराए पर पानी फेर दिया जाएगा और उनके जाइज़ हक़ मार खाए जाएँगे।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا وَصَرَّفۡنَا فِيهِ مِنَ ٱلۡوَعِيدِ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ أَوۡ يُحۡدِثُ لَهُمۡ ذِكۡرٗا ۝ 112
(113) और ऐ नबी, इसी तरह हमने इसे अरबी क़ुरआन बनाकर उतारा है88 और इसमें तरह-तरह से तम्बीहें (चेतावनियाँ) की हैं, शायद कि ये लोग टेढ़े रास्ते पर चलने से बचें या इनमें कुछ होश के आसार इसकी वजह से पैदा हों।89
88. यानी ऐसे ही मज़ामीन (विषयों) और तालीमात और नसीहतों से भरा हुआ। इसका इशारा उन तमाम मज़ामीन की तरफ़ है जो क़ुरआन में बयान हुए हैं, न कि सिर्फ़ क़रीबी मज़मून की तरफ़ जो ऊपरवाली आयत में बयान हुआ है। और बात का यह सिलसिला उन आयतों से जुड़ता है जो क़ुरआन के बारे में सूरा के शुरू में और फिर मूसा (अलैहि०) के क़िस्से के आख़िर में कही गई हैं। मतलब यह है कि वह 'याददिहानी’ जो तुम्हारी तरफ़ भेजी गई है, और वह 'ज़िक्र' जो हमने ख़ास अपने यहाँ से तुमको दिया है, इस शान की 'याददिहानी’ और ‘ज़िक्र’ है।
89. यानी अपनी ग़फ़लत से चौंकें, भूले हुए सबक़ को कुछ याद करें, और उनको कुछ इस बात का एहसास हो कि किन रास्तों में भटके चले जा रहे हैं और इस गुमराही का अंजाम क्या है।
فَتَعَٰلَى ٱللَّهُ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡحَقُّۗ وَلَا تَعۡجَلۡ بِٱلۡقُرۡءَانِ مِن قَبۡلِ أَن يُقۡضَىٰٓ إِلَيۡكَ وَحۡيُهُۥۖ وَقُل رَّبِّ زِدۡنِي عِلۡمٗا ۝ 113
(114) तो बाला और बरतर (उच्च और महान) है अल्लाह, हक़ीक़ी बादशाह।90 और देखो, क़ुरआन पढ़ने में जल्दी न किया करो, जब तक कि तुम्हारी तरफ़ उसकी वह्य मुकम्मल न हो जाए और दुआ करो कि ऐ परवरदिगार। मुझे और ज़्यादा इल्म दे।91
90. इस तरह के जुमले क़ुरआन में आम तौर पर एक तक़रीर को ख़त्म करते हुए कहे जाते हैं, और इनका मक़सद यह होता है कि बात अल्लाह तआला की तारीफ़ और शुक्र बयान करने पर ख़त्म हो। बयान के अन्दाज़ और मौक़ा-महल पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि यहाँ एक तक़रीर ख़त्म हो गई है और “और हमने इससे पहले आदम को एक हुक्म दिया था” (आयत-115) से दूसरी तक़रीर शुरू होती है। ज़्यादा इमकान यह है कि ये दोनों तक़रीरें अलग-अलग वक़्तों में उतरी होंगी और बाद में नबी (सल्ल०) ने अल्लाह के हुक्म से इनको एक सूरा में जमा कर दिया होगा। जमा करने की वजह यह है कि दोनों में जो बात कही गई है उनमें बड़ी मुनासबत है जिसको अभी हम वाज़ेह करेंगे।
91. 'तो बाला व बरतर है अल्लाह-हक़ीक़ी बादशाह' पर तक़रीर खत्म हो चुकी थी। उसके बाद विदा होते हुए फ़रिश्ता अल्लाह तआला के हुक्म से नबी (सल्ल०) को एक बात पर ख़बरदार करता है जो वह्य उतरने के दौरान में उसके देखने में आई। बीच में टोकना मुनासिब न समझा गया, इसलिए पैग़ाम भेजने का अमल पूरा करने के बाद अब वह उसका नोटिस ले रहा है। बात क्या थी जिसपर ख़बरदार किया गया, इसे ख़ुद ख़बरदार करने के अलफ़ाज़ ज़ाहिर कर रहे हैं। नबी (सल्ल०) वह्य का पैग़ाम वुसूल करने के दौरान में उसे याद करने और ज़बान से दोहराने की कोशिश कर रहे होंगे। इस कोशिश की वजह से आप (सल्ल०) का ध्यान बार-बार हट जाता होगा। वह्य को अपनाने के सिलसिले में रुकावट आ रही होगी। पैग़ाम के सुनने पर ध्यान पूरी तरह नहीं लग रहा होगा। इस कैफ़ियत को देखकर यह ज़रूरत महसूस की गई कि आप (सल्ल०) को वह्य का पैग़ाम वुसूल करने का सही तरीक़ा समझाया जाए, और बीच-बीच में याद करने की कोशिश जो आप (सल्ल०) करते हैं उससे मना कर दिया जाए।
وَلَقَدۡ عَهِدۡنَآ إِلَىٰٓ ءَادَمَ مِن قَبۡلُ فَنَسِيَ وَلَمۡ نَجِدۡ لَهُۥ عَزۡمٗا ۝ 114
(115) हमने92 इससे पहले आदम को एक हुक्म दिया था,93 मगर वह भूल गया और हमने उसमें अज़्म (मज़बूत इरादा) न पाया।94
92. जैसा कि अभी बताया जा चुका है, यहाँ से एक अलग तक़रीर शुरू होती है जो शायद ऊपरवाली तक़रीर के बाद किसी वक़्त उतरी है और मज़मून से मेल खाने की वजह से उसके साथ मिलाकर एक ही सूरा में जमा कर दी गई है। मज़मून से मेल खाती बातें कई एक है। मिसाल के तौर पर ये— (1) वह भूला हुआ सबक़ जिसे क़ुरआन याद दिला रहा है वही सबक़ है जो इनसानी नस्ल की उसकी पैदाइश के शुरू में दिया गया था और जिसे याद दिलाते रहने का अल्लाह तआला ने वादा किया था, और जिसे याद दिलाने के लिए क़ुरआन से पहले भी बार-बार ‘ज़िक्र’ (याददिहानियाँ) आते रहे हैं। (2) इनसान उस सबक़ को बार-बार शैतान के बहकाने से भूलता है, और यह कमज़ोरी वह उस वक़्त से बराबर दिखा रहा है जबसे उसकी पैदाइश हुई है सबसे पहली भूल उसके सबसे पहले माँ-बाप (आदम-हव्वा) से हुई थी और उसके बाद से इसका सिलसिला बराबर जारी है, इसी लिए इनसान इसका मुहताज है कि उसको लगातार याददिहानी कराई जाती रहे। (3) यह बात कि इनसान की ख़ुशनसीबी और बदनसीबी का दारोमदार बिलकुल उस बरताव पर है जो अल्लाह तआला के भेजे हुए इस 'ज़िक्र' (याददिहानी) के साथ वह करेगा, उसकी पैदाइश के शुरू ही में साफ़-साफ़ बता दी गई थी। आज यह कोई नई बात नहीं कहीं जा रही है कि उसकी पैरवी करोगे तो गुमराही और बदनसीबी से बचे रहोगे वरना दुनिया और आख़िरत दोनों में मुसीबत में पड़ोगे। (4) एक चीज़ है भूल और अज़्म (संकल्प) की कमी और इरादे की कमज़ोरी, जिसकी वजह से इनसान अपने पैदाइशी दुश्मन (शैतान) के बहकावे में आ जाए और ग़लती कर बैठे। इसकी माफ़ी हो सकती है, बशर्ते कि इनसान ग़लती का एहसास होते ही अपने रवैये की इस्लाह कर ले और नाफ़रमानी छोड़कर फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलट आए दूसरी चीज़ है वह सरकशी और बग़ावत और ख़ूब सोच-समझकर अल्लाह के मुक़ाबले में शैतान की बन्दगी जो फ़िरऔन और सामिरी ने इख़्तियार की इस चीज़ के लिए माफ़ी का कोई इमकान नहीं है। इसका अंजाम वही है जो फ़िरऔन और सामिरी ने देखा, और यह अंजाम हर वह शख़्स देखेगा जो इस डगर पर चलेगा। इससे मालूम होता है कि इस सूरा ता-हा का यह हिस्सा इब्तिदाई ज़माने की वह्यों में से है। इब्तिदाई ज़माने में जबकि नबी (सल्ल०) को अभी वह्य को अपनाने की आदत अच्छी तरह न पड़ी थी, आप (सल्ल०) से कई बार यह काम हो गया है और हर मौक़े पर कोई-न-कोई जुमला इसपर आप (सल्ल०) को ख़बरदार करने के लिए अल्लाह तआला की तरफ़ से इरशाद फ़माया गया है। सूरा-75 क़ियामह के उतरने के मौक़े पर भी यही हुआ था और इसपर बात के सिलसिले को तोड़कर आप (सल्ल०) को टोका गया कि “इसे याद करने की जल्दी में अपनी ज़बान को बार-बार हरकत न दो, इसे याद करा देना और पढ़वा देना हमारे ज़िम्मे है, इसलिए जब हम इसे सुना रहे हों तो ग़ौर से सुनते रहो, फिर इसका मतलब समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है,” (आयतें—16-19)। सूरा-87 आला में भी नबी (सल्ल०) को इत्मीनान दिलाया गया है कि “हम इसे पढ़वा देंगे और आप भूलेंगे नहीं,” (आयत-6)। बाद में जब आप (सल्ल०) की वह्य के पैग़ाम वुसूल करने की अच्छी महारत हासिल हो गई तो इस तरह की कैफ़ियतें आप (सल्ल०) पर तारी होनी बन्द हो गई। इसी वजह से बाद की सूरतों में ऐसी कोई बात हमें नहीं मिलती जिसमें इस पहलू से आप (सल्ल०) को ख़बरदार किया गया हो।
93. हज़रत आदम (अलैहि०) का क़िस्सा इससे पहले सूरा-2 बक़रा; सूरा-7 आराफ़ (दो जगहों पर); सूरा-15 हिज्र; सूरा-17 बनी-इसराईल और सूरा-18 कह्फ़ में गुज़र चुका है। यह सातवाँ मौक़ा है जबकि इसे दोहराया जा रहा है। हर जगह मौक़े के लिहाज़ से बात कही गई है और हर जगह उसी मौक़े के लिहाज़ से क़िस्से की तफ़सीलात अलग-अलग तरीक़े से बयान की गई हैं क़िस्से के जो हिस्से जगह के मौज़ू-ए-बहस (वार्ता-विषय) से मेल खाते हैं उसी जगह बयान हुए हैं, दूसरी जगह वे न मिलेंगे, या बयान का अंदाज ज़रा अलग होगा। पूरे क़िस्से को और उसकी पूरी बात को समझने के लिए उन तमाम मक़ामात पर निगाह डाल लेनी चाहिए। हमने हर जगह उसके एक-दूसरे से ताल्लुक़ और उससे निकलनेवाले नतीजों को अपने हाशियों में बयान कर दिया है।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰ ۝ 115
(116) याद करो वह वक़्त जबकि हमने फ़रिश्तों से कहा था कि आदम को सजदा करो। वे सब तो सजदा कर गए, मगर एक इबलीस था कि इनकार कर बैठा।
فَقُلۡنَا يَٰٓـَٔادَمُ إِنَّ هَٰذَا عَدُوّٞ لَّكَ وَلِزَوۡجِكَ فَلَا يُخۡرِجَنَّكُمَا مِنَ ٱلۡجَنَّةِ فَتَشۡقَىٰٓ ۝ 116
(117) इसपर हमने आदम95 से कहा कि “देखो यह तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का दुश्मन है,96 ऐसा न हो कि यह तुम्हें जन्नत में निकलवा97 दे और तुम मुसीबत में पड़ जाओ।
95. यहाँ वह अस्ल हुक्म बयान नहीं किया गया है जो आदम (अलैहि०) को दिया गया था, यानी वह कि “इस ख़ास पेड़ का फल न खाना।”वह हुक्म दूसरी जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान हो चुका है। इस जगह पर चूँकि बताने की अस्ल चीज़ सिर्फ़ यह है कि इनसान किस तरह अल्लाह की पहले से दी हुई तंबीह (चेतावनी) और नसीहत के बावजूद अपने जाने-बूझे दुश्मन की धोखे और फ़रेब भरी बातों से मुतास्सिर हो जाता है और किस तरह उसकी यही कमज़ोरी उससे वह काम करा लेती है, जो उसके अपने फ़ायदे के ख़िलाफ़ होता है। इसलिए अल्लाह ने अस्ल हुक्म का ज़िक्र करने के बजाय यहाँ उस नसीहत का ज़िक्र किया है जो इस हुक्म के साथ हज़रत आदम (अलैहि०) को की गई थी।
96. दुश्मनी की बात उसी वक़्त सामने आ चुकी थी। आदम (अलैहि०) और हव्वा (अलैहि०) ख़ुद देख चुके थे कि इबलीस ने उनको सजदा करने से इनकार किया है और साफ़-साफ़ यह कहकर किया है कि “मैं इससे बेहतर हूँ। तूने मुझको आग से पैदा किया है और इसको मिट्टी से।”(सूरा-7 आराफ़, आयत-12; सूरा-38 सॉद, आयत-76)। “ज़रा देख तो सही यह है वह हस्ती जिसको तूने मुझपर बड़ाई दी है। अब क्या में उसे सजदा करूँ जिसको तूने मिट्टी से बनाय है?” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—61, 62 )। फिर इतने ही पर उसने बस न किया कि खुल्लम-खुल्ला अपना हसद (ईष्या) ज़ाहिर कर दिया, बल्कि अल्लाह तआला से उसने मुहलत भी माँगी कि मुझे अपनी बड़ाई और उसका नाकारापन साबित करने का मौक़ा दीजिए। में इसे बहकाकर आपको दिखा दूँगा कि कैसा है यह आपका ख़लीफ़ा। सूरा-7 आराफ़; सूरा-15 हिज और सूरा-17 बनी-इसराईल में उसका यह चैलेंज गुज़र चुका है और आगे सूरा-38 सॉद में भी आ रहा है। इसलिए अल्लाह तआला ने जब यह फ़रमाया कि यह तुम्हारा दुश्मन है तो यह महज़ एक रोब के मामले की ख़बर न थी, बल्कि एक ऐसी चीज़ थी जिसे ठीक मौक़े पर मियाँ-बीवी अपनी आँखों देख चुके और अपने कानों सुन चुके थे।
97. इस तरह यह भी दोनों को बता दिया गया कि अगर उसके बहकावे में आकर तुमने हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी की तो जन्नत में न रह सकोगे और वे तमाम नेमतें तुमसे छिन जाएँगी जो तुमको यहाँ हासिल हैं।
إِنَّ لَكَ أَلَّا تَجُوعَ فِيهَا وَلَا تَعۡرَىٰ ۝ 117
(118) यहाँ तो तुम्हें ये सुख और आराम हासिल हैं कि न भूखे-नंगे रहते हो,
وَأَنَّكَ لَا تَظۡمَؤُاْ فِيهَا وَلَا تَضۡحَىٰ ۝ 118
(119) न प्यास और धूप तुम्हें सताती है।"98
98. यह तशरीह (व्याख्या) है उस मुसीबत की जिसमें जन्नत से निकलने के बाद इनसान को मुब्तला हो जाना था। इस मौक़े पर जन्नत की बड़ी और आला दरजे की नेमतों का ज़िक्र करने के बजाय उसकी चार बुनियादी नेमतों का ज़िक्र किया गया यानी यह कि यहाँ तुम्हारे लिए खाना-पानी, कपड़ा और रहने का इन्तिज़ाम सरकारी तौर पर किया जा रहा है। तुमको उनमें से कोई चीज़ भी हासिल करने के लिए मेहनत और कोशिश नहीं करनी पड़ती। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात आदम (अलैहि०) और हव्वा (अलैहि०) पर वाज़ेह हो गई कि अगर वे शैतान के बहकावे में आकर सरकार के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेंगे तो जन्नत से निकलकर उन्हें यहाँ की बड़ी नेमतें तो दूर रहीं, ये बुनियादी सुहूलतें तक हासिल न रहेंगी। वे अपनी बिलकुल इब्तिदाई ज़रूरतों तक के लिए हाथ-पाँव मारने और अपनी जान खपाने पर मजबूर हो जाएँगे। चोटी से एड़ी तक पसीना जब तक न बहाएँगे, एक वक़्त की रोटी तक न पा सकेंगे। रोज़ी की फ़िक्र ही उनके ध्यान और उनके वक़्तों और उनकी क़ुव्वतों का इतना बड़ा हिस्सा खींच ले जाएगी कि किसी ज़्यादा बुलन्द मक़सद के लिए कुछ करने की न फ़ुरसत रहेगी, न ताक़त।
فَوَسۡوَسَ إِلَيۡهِ ٱلشَّيۡطَٰنُ قَالَ يَٰٓـَٔادَمُ هَلۡ أَدُلُّكَ عَلَىٰ شَجَرَةِ ٱلۡخُلۡدِ وَمُلۡكٖ لَّا يَبۡلَىٰ ۝ 119
(120) लेकिन शैतान ने उसको फुसलाया।99 कहने लगा “आदम! बताऊँ तुम्हें वह पेड़ जिससे हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी और कभी न ख़त्म होनेवाली सल्तनत हासिल होती?100
99. यहाँ क़ुरआन साफ़-साफ़ बता रहा है कि आदम और हव्वा में से अस्ल वह शख़्स जिसको शैतान ने वसवसे में डाला आदम (अलैहि०) थे, न कि हज़रत हव्वा। अगरचे सूरा-7 आराफ़ के बयान के मुताबिक़ मुख़ातब दोनों ही थे और बहकाने में दोनों ही आए, लेकिल शैतान के वसवसे डालने का रुख़ अस्ल में हज़रत आदम (अलैहि०) ही की तरफ़ था। इसके बरख़िलाफ़ बाइबल का बयान यह है कि साँप ने पहले औरत से बात की और फिर औरत ने अपने शौहर को बहकाकर पेड़ का फल उसे खिलाया। (उत्पत्ति, अध्याय-3)
100. सूरा-7 आराफ़, आयत-20 में शैतान की बातचीत की और ज़्यादा तफ़सील हमको यह मिलती है, “और उसने कहा कि तुम्हारे रब ने तुमको इस पेड़ से सिर्फ़ इसलिए रोक दिया है कि कहीं तुम दोनों फ़रिश्ते न हो जाओ, या हमेशा जीते न रहो।"
فَأَكَلَا مِنۡهَا فَبَدَتۡ لَهُمَا سَوۡءَٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخۡصِفَانِ عَلَيۡهِمَا مِن وَرَقِ ٱلۡجَنَّةِۚ وَعَصَىٰٓ ءَادَمُ رَبَّهُۥ فَغَوَىٰ ۝ 120
(121) आख़िरकार दोनों (मियाँ-बीवी) उस पेड़ का फल खा गए। नतीजा यह हुआ कि फ़ौरन ही उनकी शर्मगाहें एक-दूसरे के आगे खुल गईं और लगे दोनों अपने आपको जन्नत के पत्तों से ढाँकने लगे।101 आदम ने अपने रब की नाफ़रमानी की और सीधे रास्ते से भटक गया।102
101. दूसरे अलफ़ाज़ में नाफ़रमानी का गुनाह होते ही वे सहूलतें उनसे छीन ली गईं जो सरकारी इन्तिज़ाम से उनको मुहैया की जाती थीं, और इसका सबसे पहला इज़हार लिबास छिन जाने की शक्ल में हुआ। खाना-पानी और ठिकाना छिनने की नौबत तो बाद को ही आनी थी। उसका पता तो भूख-प्यास लगने पर ही चल सकता था, और मकान से निकाले जाने की बारी भी बाद ही में आ सकती थी। मगर पहली चीज़ जिसपर नाफ़रमानी का असर पड़ा, वह सरकारी पोशाक थी जो उसी वक़्त उतरवा ली गई।
102. यहाँ उस इनसानी कमज़ोरी की हक़ीक़त को समझ लेना चाहिए जो आदम (अलैहि०) से ज़ाहिर हुई। अल्लाह तआला को वे अपना पैदा करनेवाला और पालनहार जानते थे और दिल से मानते थे। जन्नत में उनको जो सुहूलतें हासिल थीं, उनका तजरिबा उन्हें ख़ुद हर वक़्त हो रहा था। शैतान के हसद और दुश्मनी का भी उनको सीधे तौर इल्म हो चुका था। अल्लाह तआला ने उनको हुक्म देने के साथ ही बता दिया था कि यह तुम्हारा दुश्मन तुम्हें नाफ़रमानी पर आमादा करने की कोशिश करेगा और उसका तुम्हें यह नुक़सान उठाना पड़ेगा। शैतान उनके सामने चैलेंज दे चुका था कि मैं इसे बहकाऊँगा और इसको जड़ से उखाड़ फेंकूँगा इन सारी बातों के बावजूद जब शैतान ने उनको मेहरबान नसीहत करनेवाले और ख़ैरख़ाह दोस्त के वेश में आकर एक बेहतर हालत (हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी और कभी ख़त्म न होनेवाली सल्तनत) का लालच दिलाया तो वे उसके लालच दिलाने के मुक़ाबले में जम न सके और फिसल गए। हालाँकि अब भी ख़ुदा पर उनके अक़ीदे में फ़र्क़ न आया था और उसके फ़रमान के बारे में ऐसा कोई ख़याल उनके ज़ेहन में नहीं था कि उसपर अमल करना सिरे से ज़रूरी ही नहीं है, बस एक फ़ौरी जज़्बे ने जो शैतान के ललचाने पर उभर आया था, उन्हें ग़फ़लत में डाल दिया और अपने मन पर उनकी पकड़ ढीली होते ही वे फ़रमाँबरदारी के बुलन्द मक़ाम से गुनाहगारी की पस्ती में जा गिरे। यही वह ‘भूल' और 'अज़्म’ की कमी है जिसका ज़िक्र क़िस्से के शुरू में किया गया था, और इसी चीज़ का नतीजा वह नाफ़रमानी और भटकाव है जिसका ज़िक्र इस आयत में किया गया है। यह इनसान की वह कमज़ोरी है जो उसकी पैदाइश के शुरू ही में उससे ज़ाहिर हुई और बाद में कोई ज़माना ऐसा नहीं गुज़रा है जबकि यह कमज़ोरी उसमें न पाई गई हो।
ثُمَّ ٱجۡتَبَٰهُ رَبُّهُۥ فَتَابَ عَلَيۡهِ وَهَدَىٰ ۝ 121
(122) फिर उसके रब ने उसे चुन लिया103 और उसकी तौबा क़ुबूल कर ली और उसे रास्ता दिखाया104
103. यानी शैतान की तरह दरबार से धुत्कारकर निकाल न दिया, फ़माँबरदारी की कोशिश में नाकाम होकर जहाँ वे गिर गए थे, वहीं उन्हें पड़ा नहीं छोड़ दिया, बल्कि उठाकर अपने पास बुला लिया और अपनी ख़िदमत के लिए चुन लिया। एक सुलूक वह है जो इरादे के साथ बग़ावत करनेवाले और अकड़ और हेकड़ी दिखानेवाले नौकर के साथ किया जाता है। उसका हक़दार शैतान था और हर वह बन्दा है जो डटकर अपने रब की नाफ़रमानी करे और सीना ठोंककर उसके सामने खड़ा हो जाए। दूसरा सुलूक वह है जो उस वफ़ादार बन्दे के साथ किया जाता है जो महज़ 'भूल' और 'अज़्म’ की कमी की वजह से क़ुसूर कर गुज़रा हो, और फिर होश आते ही अपने किए पर शर्मिन्दा हो जाए, यह सुलूक हज़रत आदम और हव्वा से किया गया, क्योंकि अपनी ग़लती का एहसास होते ही वे पुकार उठे थे, “ऐ हमारे परबरदिगार! हमने अपने आपपर ज़ुल्म किया, और अगर तू हमें माफ न करे और हमपर रहम न करे तो हम बरबाद हो जाएँगे।” (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-23)
104. यानी सिर्फ़ माफ़ ही न किया, बल्कि आगे के लिए सीधा रास्ता भी बताया और उसपर चलने का तरीक़ा भी सिखाया।
قَالَ ٱهۡبِطَا مِنۡهَا جَمِيعَۢاۖ بَعۡضُكُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوّٞۖ فَإِمَّا يَأۡتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدٗى فَمَنِ ٱتَّبَعَ هُدَايَ فَلَا يَضِلُّ وَلَا يَشۡقَىٰ ۝ 122
(123) और कहा, “तुम दोनों (फ़रीक़ यानी इनसान और शैतान) यहाँ से उतर जाओ। तुम एक-दूसरे के दुश्मन रहोगे। अब अगर मेरी तरफ़ से तुम्हें कोई हिदायत (रहनुमाई) पहुँचे तो जो कोई मेरी उस हिदायत की पैरवी करेगा वह न भटकेगा, न बदहाली व बदनसीबी में मुब्तला होगा।
وَمَنۡ أَعۡرَضَ عَن ذِكۡرِي فَإِنَّ لَهُۥ مَعِيشَةٗ ضَنكٗا وَنَحۡشُرُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَعۡمَىٰ ۝ 123
(124) और जो मेरे 'ज़िक्र' (नसीहत के सबक़) से मुँह मोड़ेगा उसके लिए दुनिया में ज़िन्दगी तंग105 होगी और क़ियामत के दिन हम उसे अंधा उठाएँगे"106
105. दुनिया में तंग ज़िन्दगी होने का मतलब यह नहीं है कि वह तंगदस्त हो जाएगा, बल्कि इसका मतलब यह है कि वहाँ उसे चैन नसीब न होगा। करोड़पति भी होगा तो बेचैन रहेगा। सात देशों का हाकिम भी होगा तो बेकली और बेइत्मीनानी से छुटकारा न पाएगा, उसकी दुनियावी कामयाबियाँ हज़ारों तरह की नाजाइज़ तदबीरों का नतीजा होंगी, जिनकी वजह से अपने ज़मीर (अन्तरात्मा) से लेकर आसपास के पूरे इज्तिमाई माहौल तक हर चीज़ के साथ उसकी लगातार कशमकश जारी रहेगी जो उसे कभी अम्नो-इत्मीनान और सच्ची ख़ुशी से फ़ायदा न उठाने देगी।
106. इस जगह आदम (अलैहि०) का क़िस्सा खत्म हो जाता है। यह क़िस्सा जिस तरीक़े से यहाँ और क़ुरआन की दूसरी जगहों पर बयान हुआ है, उसपर ग़ौर करने से मैं यह समझा हैं (सही बात तो अल्लाह ही जानता है) कि ज़मीन की अस्ल ख़िलाफ़त (शासनाधिकार) वही थी जो आदम (अलैहि०) को शुरू में जन्नत में दी गई थी। यह जन्नत हो सकता है कि आसमानों में हो और हो सकता है कि इसी ज़मीन पर बनाई गई हो। बहरहाल, वहाँ अल्लाह तआला का ख़लीफ़ा इस शान से रखा गया था कि उसके खाने पीने और लिबास और मकान का सारा इन्तिज़ाम सरकार के ज़िम्मे था और ख़िदमत करनेवाले (फ़रिश्ते) उसके हुक्म के ग़ुलाम थे, उसको अपनी निजी ज़रूरतों के लिए बिलकुल भी कोई फ़िक्र न करनी पड़ती थी, ताकि वह ख़िलाफ़त की बहुत बड़ी और बहुत अहम ज़िम्मेदारियाँ अदा करने के लिए तैयार हो सके। मगर इस मंसब पर बाक़ायदा तक़र्रुर होने से पहले इम्तिहान लेना ज़रूरी समझा गया, ताकि उम्मीदवार की सलाहियतों का हाल खुल जाए और यह ज़ाहिर हो जाए कि उसकी कमज़ोरियाँ क्या हैं और ख़ूबियाँ क्या। चुनाँचे इम्तिहान लिया गया और जो बात खुली वह यह थी कि यह उम्मीदवार लालच और लोभ के असर में आकर फिसल जाता है, फ़रमाँबरदारी के इरादे पर मज़बूती से क़ायम नहीं रहता, और उसके इल्म पर भूल हावी हो जाती है। इस इम्तिहान के बाद आदम (अलैहि०) और उनकी औलाद को मुस्तक़िल तौर पर ख़िलाफ़त पर मुक़र्रर करने के बजाय आज़माइशी ख़िलाफ़त दी गई, और आज़माइश के लिए एक मुद्दत (अ-जले मुसम्मा जिसका ख़ातिमा क़ियामत पर होगा) मुक़र्रर कर दी गई। इस आज़माइश के दौर में उम्मीदवारों के लिए रोज़ी-रोटी का सरकारी इन्तिज़ाम ख़त्म कर दिया गया। अब अपनी रोज़ी का इन्तिज़ाम उन्हें ख़ुद करना है। अलबत्ता ज़मीन और उसपर मौजूद अल्लाह की बनाई हुई चीज़ों पर उनके इख़्तियारात बरक़रार है। आज़माइश इस बात की है कि इख़्तियार रखने के बावजूद ये फ़रमाँबरदारी करते हैं या नहीं, और अगर भूल हो जाती है, या लालच के असर में आकर फिसलते हैं तो चेतावनी, नसीहत और तालीम का असर क़ुबूल करके संभलते भी हैं या नहीं। और उनका आख़िरी फ़ैसला क्या होता है, फ़रमाँबरदारी का या नाफ़रमानी का? इस आज़माइशी ख़िलाफ़त के दौरान में हर एक के रवैये का रिकॉर्ड महफ़ूज़ रहेगा और हिसाब के दिन जो लोग कामयाब निकलेंगे, उन्हीं को फिर मुस्तक़िल तौर पर ख़िलाफ़त दी जाएगी और यह ख़िलाफ़त, उस हमेशा की ज़िन्दगी और कभी न ख़त्म होनेवाली सल्तनत के साथ दी जाएगी जिसका लालच देकर शैतान ने अल्लाह के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी कराई थी। उस वक़्त यह पूरी ज़मीन जन्नत बना दी जाएगी और इसके वारिस अल्लाह के वे नेक बन्दे होंगे जिन्होंने आज़माइशी ख़िलाफ़त में फ़रमाँबरदारी पर क़ायम रहकर, या भूल हो जाने के बाद आख़िरकार फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलटकर, अपना लायक़ होना साबित कर दिया होगा। जन्नत की उस ज़िन्दगी को जो लोग सिर्फ़ खाने-पीने और ऐंडने को ज़िन्दगी समझते हैं उनका ख़याल सही नहीं है। वहाँ लगातार तरक़्क़ी होगी, बिना इसके कि उसके लिए किसी तरह की गिरावट का ख़तरा हो। और वहाँ अल्लाह की ख़िलाफ़त के अज़ीमुश्शान काम इनसान अंजाम देगा, बिना इसके कि उसे फिर किसी नाकामी का मुँह देखना पड़े। मगर इन तरक़्क़ियों और उन ख़िदमतों का तसव्वुर करना हमारे लिए उतना ही मुश्किल है जितना एक बच्चे के लिए यह तसव्वुर करना मुश्किल होता है कि बड़ा होकर जब वह शादी करेगा तो शादीशुदा ज़िन्दगी की कैफ़ियतें क्या होंगी। इसी लिए क़ुरआन में जन्नत की ज़िन्दगी की सिर्फ़ उन्हीं लज़्ज़तों का ज़िक्र किया गया जिनका हम इस दुनिया की लज़्ज़तों पर गुमान करके कुछ अन्दाज़ा कर सकते हैं। इस मौक़े पर यह बात दिलचस्यी से ख़ाली न होगी कि आदम (अलैहि०) और हव्वा (अलैहि०) का क़िस्सा जिस तरह बाइबल में बयान हुआ है उसे भी एक नज़र देख लिया जाए। बाइबल का बयान है कि “ख़ुदा ने ज़मीन की मिट्टी से इनसान को बनाया और उसके नथुनों में ज़िन्दगी का दम फूँका तो इनसान जीती जान हुआ और ख़ुदावन्द ख़ुदा ने पूरब की तरफ़ अदन में एक बाग़ लगाया और इनसान को जिसे उसने बनाया था, वहाँ रखा।” “और बाग़ के बीच में एक ज़िन्दगी का पेड़ और अच्छे और बुरे की पहचान का पेड़ भी लगाया।” “और ख़ुदावन्द ख़ुदा ने आदम को हुक्म दिया और कहा कि तू बाग़ के हर पेड़ का फल बेरोक-टोक खा सकता है, लेकिन अच्छे और बुरे की पहचान के पेड़ का फल कभी न खाना; क्योंकि जिस दिन तुने उसमें से खाया तो मरा।” “और ख़ुदावन्द ख़ुदा उस पसली से जो उसने आदम में से निकाली थी, एक औरत बनाकर उसे आदम के पास लाया।” “और आदम और उसकी बीवी दोनों नंगे थे और शरमाते न थे।” “और साँप तमाम जंगली जानवरों से जिनको ख़ुदावन्द ख़ुदा ने बनाया था, चालाक था, और उसने औरत से कहा कि क्या वाक़ई ख़ुदा ने कहा है कि बाग़ के किसी पेड़ का फल तुम न खाना?” “साँप ने औरत से कहा कि तुम हरगिज़ न मरोगे, बल्कि ख़ुदा जानता है जिस दिन तुम उसे खाओगे, तुम्हारी आँखें खुल जाएँगी और तुम ख़ुदा की तरह अच्छे और बुरे के जाननेवाले बन जाओगे।” चुनाँचे औरत ने उसका फल लेकर खाया और अपने शौहर को भी खिलाया। “तब दोनों की आँखें खुल गईं और उनको मालूम हुआ कि वे नंगे हैं और उन्होंने अंजीर के पत्तों को सीकर अपने लिए लुंगियाँ बनाई। और उन्होंने ख़ुदावन्द ख़ुदा की आवाज़ जो ठंडे वक़्त बाग़ में फिरता था, सुनी और आदम और उसकी बीवी ने अपने आपको ख़ुदावन्द ख़ुदा के सामने बाग़ के पेड़ों में छिपाया।” “फिर ख़ुदा ने आदम को पुकारा तू कहाँ है। उसने कहा कि मैं तेरी आवाज़ सुनकर डरा और छिप गया, क्योंकि मैं नंगा था। ख़ुदा ने कहा कि अरे, तुझको यह कैसे मालूम हो गया कि तू नंगा है ज़रूर तूने उस पेड़ का फल खाया होगा जिससे मैने मना किया था। आदम ने कहा कि मुझे हव्वा ने इसका फल खिलाया, और हव्वा ने कहा कि मुझे साँप ने बहकाया था। इसपर ख़ुदा ने साँप से कहा, “इसलिए कि तूने यह किया, तू सब चौपायों और जंगली जानवरों में घिक्कारा हुआ ठहरा। तू अपने पेट के बल चलेगा और उम्र भर धूल चाटेगा और में तेरे और औरत के बीच और तेरी नस्ल और औरत की नस्ल के बीच दुश्मनी डालूँगा वह तेरे सर को कुचलेगा और तू उसकी एड़ी पर काटेगा।” और औरत को यह सज़ा दी कि “मैं तेरे हमल के दर्द (प्रसव-पीड़ा) को बहुत बढ़ाऊँगा। तू दर्द के साथ बच्चा जनेगी और तेरी दिलचस्पी अपने शौहर की तरफ़ होगी और वह तुझपर हुकूमत करेगा और आदम के बारे में वह फ़ैसला सुनाया कि चूँकि तूने अपनी बीवी की बात मानी और मेरे हुक्म के ख़िलाफ़ किया, “इसलिए ज़मीन तेरी वजह से लानती हुई, मेहनत और तकलीफ़ के साथ तू अपनी उम्र भर उसकी पैदावार खाएगा....तू अपने मुँह के पसीने की रोटी खाएगा।” फिर “ख़ुदावन्द ने आदम और उसकी बीवी के लिए चमड़े के कुर्ते बनाकर उनको पहनाए।” “और ख़ुदावन्द ख़ुदा ने कहा : देखो, इनसान अच्छे और बुरे की पहचान में हममें से एक की तरह हो गया। अब कहीं ऐसा न हो कि वह अपना हाथ बढ़ाए और ज़िन्दगी के पेड़ से भी कुछ लेकर खाए और हमेशा जीता रहे। इसलिए ख़ुदावन्द ख़ुदा ने उसको अदन के बाग़ से बाहर कर दिया।" (उत्पत्ति, अध्याय-2, आयतें—7-25, अध्याय-3, आयतें—1-23) बाइबल के इस बयान और क़ुरआन के बयान को ज़रा वे लोग एक-दूसरे के सामने रखकर देखें जो यह कहते हुए नहीं शरमाते कि क़ुरआन में ये क़िस्से बनी-इसराईल से नक़्ल कर लिए गए हैं।
قَالَ رَبِّ لِمَ حَشَرۡتَنِيٓ أَعۡمَىٰ وَقَدۡ كُنتُ بَصِيرٗا ۝ 124
(125) वह कहेगा, “परवरदिगार, दुनिया में तो मैं आँखोंवाला था, यहाँ मुझे अंधा क्यों उठाया?"
قَالَ كَذَٰلِكَ أَتَتۡكَ ءَايَٰتُنَا فَنَسِيتَهَاۖ وَكَذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمَ تُنسَىٰ ۝ 125
(126) अल्लाह तआला कहेगा, “हाँ, इसी तरह तो हमारी आयतों को, जबकि वे तेरे पास आई थीं, तुने भुला दिया था, उसी तरह आज तू भुलाया जा रहा है।"107
107. क़ियामत के दिन नई ज़िन्दगी की शुरुआत से लेकर जहन्नम में दाख़िल होने तक जो अलग-अलग कैफ़ियतें मुजरिमों पर बीतेंगी, उनको क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर जुदा-जुदा बयान किया गया है। एक कैफ़ियत यह है, “तू इस चीज़ से ग़फ़लत में पड़ा हुआ था। अब हमने तेरे आगे से परदा हटा दिया है आज तेरी निगाह बड़ी तेज़ है। यानी तुझे ख़ूब नज़र आ रहा है। (सूरा-50 क़ाफ़, आयत-22) दूसरी कैफ़ियत वह है, “अल्लाह तो उन्हें टाल रहा है उस दिन के लिए जब हाल यह होगा कि आँखें फटी-की फटी रह गई हैं, सर उठाए भागे चले जा रहे हैं, नज़रें ऊपर जमी हैं और दिल हैं कि उड़े जाते हैं।” (सूरा-14 इबराहीम, आयतें—42, 43) । तीसरी कैफ़ियत यह है कि “और क़ियामत के दिन हम उसके लिए एक लिखी हुई दस्तावेज़ निकालेंगे जिसे वह खुली किताब पाएगा। पढ़ अपना आमालनामा, आज अपना हिसाब लगाने के लिए तू ख़ुद ही काफ़ी है।”(सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—13, 14) और इन्हीं कैफ़ियतों में से एक यह भी है जो इस हाशिए से मुताल्लिक़ आयत में बयान हुई है। मालूम ऐसा होता है कि ख़ुदा की क़ुदरत से ये लोग आख़िरत के हौलनाक मंज़रों और अपने बुरे आमाल के नतीजों को तो ख़ूब देखेंगे, लेकिन बस उनकी आँखों की रौशनी यही सब देखने के लिए होगी। बाक़ी दूसरी हैसियतों से उनका हाल अंधे का-सा होगा जिसे अपना रास्ता नज़र न आता हो, जो न लाठी रखता हो कि टटोलकर चल सके, न कोई उसका हाथ पकड़कर चलानेवाला हो, क़दम-क़दम पर ठोकरें खा रहा हो, और उसको कुछ न सूझता हो कि किधर जाए और अपनी ज़रूरतें कहाँ से पूरी करे। इसी कैफ़ियत को इन अलफ़ाज़़ में अदा किया गया है कि “जिस तरह तुने हमारी आयतों को भुला दिया था, उसी तरह आज तू भुलाया जा रहा है। यानी आज कोई परवाह न की जाएगी कि तू कहाँ-कहाँ ठोकरें खाकर गिरता है और कैसी-कैसी महरूमियाँ बरदाश्त कर रहा है। कोई तेरा हाथ न पकड़ेगा. कोई तेरी ज़रूरतें पूरी न करेगा, और तेरा कुछ भी हाल न पूछा जाएगा।
وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي مَنۡ أَسۡرَفَ وَلَمۡ يُؤۡمِنۢ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦۚ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَشَدُّ وَأَبۡقَىٰٓ ۝ 126
(127) इस तरह हम हद से गुज़रनेवाले और अपने रब की आयतें न माननेवाले को (दुनिया में) बदला देते हैं,108 और आख़िरत का अज़ाब ज़्यादा सख़्त और ज़्यादा देर तक रहनेवाला है।
108. इशारा है उस 'तंग ज़िन्दगी की तरफ़ जो अल्लाह के ज़िक्र यानी उसकी किताब और उसके भेजे हुए नसीहत के सबक़ से मुँह मोड़नेवालों को दुनिया में बसर कराई जाती है।
أَفَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلنُّهَىٰ ۝ 127
(128) फिर क्या इन लोगों को109 (इतिहास के इस सबक़ से) कोई रहनुमाई न मिली कि इनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं जिनकी (तबाहशुदा) बस्तियों में आज ये चलते-फिरते हैं? हक़ीक़त में इसमें110 बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ले-सलीम (सद्बुद्धि) रखनेवाले हैं।
109. इशारा है मक्कावालों की तरफ़ जिनसे उस वक़्त बात की जा रही थी।
110. यानी इतिहास के इस सबक़ में, आसारे-क़दीमा (पुरातत्व अवशेषों) के इस मुशाहदे में, इनसानी नस्ल के इस तजरिबे में।
وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَكَانَ لِزَامٗا وَأَجَلٞ مُّسَمّٗى ۝ 128
(129) अगर तेरे रब की तरफ़ से पहले एक बात तय न कर दी गई होती और मुहलत की एक मुद्दत मुक़र्रर न की जा चुकी होती तो ज़रूर इनका भी फ़ैसला चुका दिया जाता।
فَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ قَبۡلَ طُلُوعِ ٱلشَّمۡسِ وَقَبۡلَ غُرُوبِهَاۖ وَمِنۡ ءَانَآيِٕ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡ وَأَطۡرَافَ ٱلنَّهَارِ لَعَلَّكَ تَرۡضَىٰ ۝ 129
(130) इसलिए ऐ नबी जो बातें ये लोग बनाते हैं उनपर सब्र करो, और अपने रब की तारीफ़ बयान करने के साथ उसकी तसबीह करो, सूरज निकलने से पहले और डूबने से पहले, और रात के वक़्तों में भी तसबीह करो और दिन के किनारों पर भी,111 शायद कि तुम राज़ी हो जाओ।112
111. यानी चूँकि अल्लाह तआला उनको अभी हलाक नहीं करना चाहता और उनके लिए मुहलत को एक मुद्दत मुक़र्रर कर चुका है, इसलिए उसकी दी हुई उस मुहलत के दौरान में ये जो कुछ भी तुम्हारे साथ करें, उसको तुम्हें बरदाश्त करना होगा और सब्र के साथ इनकी तमाम कड़वी-कसैली बातें सुनते हुए तबलीग़ और नसीहत का अपना फ़र्ज़ अंजाम देना पड़ेगा। इस बरदाश्त और इस सब्र की ताक़त तुम्हे नमाज़ से मिलेगी जिसको तुम्हें इन वक़्तों में पाबन्दी के साथ अदा करना चाहिए। रब की तारीफ़ बयान करने के साथ उसकी ‘तसबीह' करने से मुराद नमाज़ है, जैसा कि आगे चलकर ख़ुद फ़रमा दिया, “अपने घरवालों को नमाज़ की ताकीद करो और ख़ुद भी उसके पाबन्द रहो।" नमाज़ के वक़्तों की तरफ़ यहाँ भी साफ़ इशारा कर दिया गया। सूरज निकलने से पहले की नमाज़, सूरज डूबने पहले की नमाज़ और रात के में और तहज्जुद की नमाज़। रहे दिन के किनारे तो वे तीन ही हो सकते हैं एक किनारा सुबह है, दूसरा किनारा सूरज ढलने का वक़्त है, और तीसरा किनारा शाम। लिहाज़ा दिन के किनारों से मुराद ज़ुहर और मग़रिब की नमाज़ ही हो सकती है। और तफ़सीलात के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-11 हूद, हाशिया-113; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—91-97; सूरा-30 सूरा-30 रूम, हाशिया-24; मोमिन, हाशिया-74।
112. इसके दो मतलब हो सकते हैं और शायद दोनों ही मुराद भी हैं। एक यह कि तुम अपनी मौजूदा हालत पर राज़ी हो जाओ जिसमें अपने मिशन की तुम्हें तरह-तरह की नागवार बातें सहनी पड़ रही हैं, और अल्लाह के उस फ़ैसले पर राज़ी हो जाओ कि तुमपर नाहक़ ज़ुल्म और ज़्यादतियों करनेवालों को अभी सज़ा नहीं दी जाएगी। वे हक़ की तरफ़ बुलानेवालों को सताते भी रहेंगे और ज़मीन में दनदनाते भी फिरेंगे। दूसरा मतलब है कि तुम ज़रा यह काम करके तो देखो। इसका नतीजा वह कुछ सामने आएगा जिससे तुम्हारा दिल ख़ुश हो। यह दूसरा मतलब क़ुरआन में कई जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से अदा किया गया है। मिसाल के तौर पर सूरा-17 बनी-इसराईल में नमाज़ का हुक्म देने के बाद फ़रमाया “उम्मीद है कि तुम्हारा रब तुम्हें मक़ामे-महमूद पर (प्रशंसित स्थान) पर पहुँचा देगा।”(आयत-79) और सूरा-93 ज़ुहा में फ़रमाया, “तुम्हारे लिए बाद का दौर यक़ीनन पहले से बेहतर है, जल्द ही तुम्हरा रब तुम्हें इतना कुछ देगा कि तुम ख़ुश हो जाओगे।” (आयतें—4, 5))
وَلَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ زَهۡرَةَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا لِنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَرِزۡقُ رَبِّكَ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ ۝ 130
(131) और निगाह उठाकर भी न देखो दुनियवी ज़िन्दगी की उस शानो-शौकत को जो हमने इनमें से अलग-अलग तरह के लोगों को दे रखी है। वह तो हमने इन्हें आज़माइश में डालने के लिए दी है, और तेरे रब की दी हुई हलाल रोज़ी113 ही बेहतर और बाक़ी रहनेवाली है।
113. रिज़्क़ का तर्जमा हमने 'हलाल रोज़ी’ किया है, क्योंकि अल्लाह तआला ने कहीं भी हराम माल को रब का (दिया हुआ) रिज़्क़ नहीं कहा है। मतलब यह है कि तुम्हारा और तुम्हारे साथी ईमानवालों का यह काम नहीं है कि नाफ़रमान और खुले आम बुरे काम करनेवाले नाजाइज़ तरीक़ों से दौलत समेट-समेटकर अपनी ज़िन्दगी में जो ज़ाहिरी चमक-दमक पैदा कर लेते हैं, उसको रश्क की नज़रों से देखो। यह दौलत और शानो-शौकत तुम्हारे लिए रश्क के क़ाबिल नहीं है। जो पाक रोज़ी तुम अपनी मेहनत से कमाते हो वह चाहे कितनी ही थोड़ी हो, सच्चाईपसन्द और ईमानदार आदमियों के लिए वही बेहतर है और उसी में वह भलाई है जो दुनिया से आख़िरत तक बाक़ी रहनेवाली है।
وَأۡمُرۡ أَهۡلَكَ بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱصۡطَبِرۡ عَلَيۡهَاۖ لَا نَسۡـَٔلُكَ رِزۡقٗاۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكَۗ وَٱلۡعَٰقِبَةُ لِلتَّقۡوَىٰ ۝ 131
(132) अपने घरवालों को नमाज़ की ताकीद करो114 और ख़ुद भी इसके पाबन्द रहो। हम तुमसे कोई रोज़ी नहीं चाहते, रोज़ी तो हम ही तुम्हें दे रहे हैं। और अंजाम की भलाई तक़वा (परहेज़गारी) ही के लिए है।115
114. यानी तुम्हारे बाल-बच्चे भी अपनी तंगदस्ती और बदहाली के मुक़ाबले में इन हरामख़ोरों के ऐशो-आराम को देखकर दिल छोटा न करें। उनको नसीहत करो कि नमाज़ पढ़ें। यह चीज़ उनके सोचने के ढंग को बदल देगी। उनके अच्छाई-बुराई के पैमाने को बदल देगी। उनके रुझानों, मैलानात और ख़यालात के मर्कज़ (केन्द्र) को बदल देगी। वे पाक रोज़ी पर सब्र और राज़ी रहनेवाले बन जाएँगे और उस भलाई को जो ईमान और तक़वा (परहेज़गारी) से हासिल होती है, उस ऐश पर तरजीह देने लगेंगे जो नाफ़रमानी, सरकशी और दुनिया-परस्ती से हासिल होता है।
115. यानी हम नमाज़ पढ़ने के लिए तुमसे इसलिए नहीं कहते हैं कि इससे हमारा कोई फ़ायदा है। फ़ायदा तुम्हारा अपना ही है, और वह यह है कि तुममें तक़्वा (परहेज़गारी) पैदा होगा जो दुनिया और आख़िरत दोनों ही में आख़िरी और मुस्तक़िल कामयाबी का ज़रिआ है।
وَقَالُواْ لَوۡلَا يَأۡتِينَا بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّهِۦٓۚ أَوَلَمۡ تَأۡتِهِم بَيِّنَةُ مَا فِي ٱلصُّحُفِ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 132
(133) वे कहते हैं कि यह शख़्स अपने रब की तरफ़ से कोई निशानी (मोजिज़ा) क्यों नहीं लाता? और क्या इनके पास अगले सहीफ़ों (आसमानी किताबों) की तमाम तालीमात (शिक्षाओं) का साफ़-साफ़ बयान नहीं आ गया?116
116. यानी क्या यह कोई कम मोजिज़ा (चमत्कार) है कि उन्हीं में से एक उम्मी (बिना पढ़े-लिखे) शख़्स ने वह किताब पेश की है जिसमें शुरू से अब तक कि तमाम आसमानी किताबों के मज़ामीन (विषयों) और तालीमात का इत्र निकालकर रख दिया गया है इनसान की हिदायत और रहनुमाई के लिए उन किताबों में जो कुछ था, वह सब न सिर्फ़ यह कि इसमें जमा कर दिया गया, बल्कि उसको ऐसा खोलकर वाज़ेह भी कर दिया गया कि रेगिस्तान में रहनेवाले बद्दू (देहाती) तक उसको समझकर फ़ायदा उठा सकते हैं।
وَلَوۡ أَنَّآ أَهۡلَكۡنَٰهُم بِعَذَابٖ مِّن قَبۡلِهِۦ لَقَالُواْ رَبَّنَا لَوۡلَآ أَرۡسَلۡتَ إِلَيۡنَا رَسُولٗا فَنَتَّبِعَ ءَايَٰتِكَ مِن قَبۡلِ أَن نَّذِلَّ وَنَخۡزَىٰ ۝ 133
(134) अगर हम उसके आने से पहले इनको किसी अज़ाब से हलाक कर देते तो फिर यही लोग कहते कि ऐ हमारे परवरदिगार, तूने हमारे पास कोई रसूल क्यों न भेजा कि ज़लील और रुसवा होने से पहले ही हम तेरी आयतों की पैरवी कर लेते?
قُلۡ كُلّٞ مُّتَرَبِّصٞ فَتَرَبَّصُواْۖ فَسَتَعۡلَمُونَ مَنۡ أَصۡحَٰبُ ٱلصِّرَٰطِ ٱلسَّوِيِّ وَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ ۝ 134
(135) ऐे नबी! इनसे कहो, हर एक अपने अंजाम के इन्तिज़ार में है,117 तो अब इन्तिज़ार में रहो, जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि कौन सीधी राह चलनेवाले हैं और कौन रहनुमाई पाए हुए हैं।
117. यानी जब से यह दावत तुम्हारे शहर में उठी है, न सिर्फ़ इस शहर का बल्कि आसपास के इलाक़े का भी हर शख़्स इन्तिज़ार कर रहा है कि इसका अंजाम आख़िरकार क्या होता है।