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سُورَةُ الحَجِّ

  1. अल-हज

(मक्का में उतरी-आयतें 78)

परिचय

नाम

इस सूरा की सत्ताइसवीं आयत "व अज़्ज़िनु फ़िन्‍नासि बिल हज्जि” अर्थात् "लोगों में हज के लिए सामान्य घोषणा कर दो" से लिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा में मक्की और मदनी सूरतों की विशेषताएँ मिली-जुली पाई जाती हैं। इसी कारण टीकाकारों में इस बात पर मतभेद हो गया है कि यह मक्की है या मदनी, लेकिन हमारे नज़दीक इसके विषय और वर्णन-शैली का यह रंग इस कारण है कि इसका एक भाग मक्की काल के अन्त में और दूसरा भाग मदनी काल के आरंभ में उतरा है। इसलिए दोनों कालों की विशेषताएँ इसमें इकट्ठा हो गई हैं।

आरंभिक भाग का विषय और वर्णन-शैली स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यह मक्का में उतरा है और अधिक संभावना यह है कि मक्की ज़िन्दगी के अन्तिम चरण में हिजरत से कुछ पहले उतरा हो। यह भाग आयत 24 "व हुदू इलत्तय्यिबि मिनल कौलि व हुदू इला सिरातिल हमीद” अर्थात् "उनको पाक बात स्वीकार करने की हिदायत दी गई और उन्हें प्रशंसनीय गुणों से विभूषित ईश्वर का मार्ग दिखाया गया" पर समाप्त होता है।

इसके बाद “इन्नल्लज़ी-न क-फ़-रू व यसुद्दू-न अन सबील्लिाहि" अर्थात् “जिन लोगों ने कुफ़्र (इंकार) किया और जो (आज) अल्लाह के मार्ग से रोक रहे हैं" से यकायक विषय का रंग बदल जाता है और साफ़ महसूस होता है कि यहाँ से आख़िर तक का भाग मदीना तैयबा में उतरा है। असंभव नहीं कि यह हिजरत के बाद पहले ही साल ज़िल-हिज्जा में उतरा हो, क्योंकि आयत 25 से 41 तक का विषय इसी बात का पता देता है और आयत 39-40 के उतरने का कारण भी इसकी पुष्टि करता है। उस समय मुहाजिरीन अभी ताज़ा-ताज़ा ही अपने घर-बार छोड़कर मदीने में आए थे। हज के ज़माने में उनको अपना शहर और हज का इज्तिमाअ (सम्मेलन) याद आ रहा होगा और यह बात बुरी तरह खल रही होगी कि क़ुरैश के मुशरिकों ने उनपर मस्जिदे-हराम का रास्ता तक बन्द कर दिया है। उस समय वे इस बात का भी इन्तिज़ार कर रहे होंगे कि जिन ज़ालिमों ने उनको घरों से निकाला, मस्जिदे-हराम की ज़ियारत (दर्शन) से वंचित किया और अल्लाह का रास्ता अपनाने पर उनका जीना तक दूभर कर दिया, उनके विरुद्ध जंग लड़ने की अनुमति मिल जाए। यह ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर था इन आयतों के उतरने का। इनमें पहले तो हज का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि यह मस्जिदे-हराम (प्रतिष्ठित मस्जिद अर्थात् काबा) इसलिए बनाई गई थी और यह हज का तरीक़ा इसलिए शुरू किया गया था कि दुनिया में एक अल्लाह की बन्दगी की जाए, मगर आज वहाँ शिर्क हो रहा है और एक अल्लाह की बन्दगी करनेवालों के लिए उसके रास्ते बन्द कर दिए गए हैं। इसके बाद मुसलमानों को अनुमति दे दी गई है कि वे इन ज़ालिमों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ें और उन्हें बे-दख़ल करके देश में वह कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित करें जिसमें बुराइयाँ दबें और नेकियाँ फैलें। इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, उर्वह-बिन-ज़ुबैर, ज़ैद-बिन-असलम, मुक़ातिल-बिन-हय्यान, क़तादा और दूसरे बड़े टीकाकारों का बयान है कि यह पहली आयत है जिसमें मुसलमानों को युद्ध की अनुमति दी गई और हदीस और सीरत की रिवायतों से प्रमाणित है कि इस अनुमति के बाद तुरन्त ही क़ुरैश के विरुद्ध व्यावहारिक गतिविधियाँ शुरू कर दी गईं और पहली मुहिम सफ़र 02 हि० में लाल सागर के तट की ओर रवाना हुई जो वद्दान की लड़ाई या अबवा की लड़ाई के नाम से मशहूर है।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में तीन गिरोहों को संबोधित किया गया है-मक्का के मुशरिक, दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान और सच्चे ईमानवाले लोग। मुशरिकों से सम्बोधन मक्का के आरंभ में किया गया और मदीना में उसका क्रम पूर्ण हुआ। इस सम्बोधन में उनको पूरा बल देकर सचेत किया गया है कि तुमने ज़िद और हठधर्मी के साथ अपने निराधार अज्ञानतापूर्ण विचारों पर आग्रह किया, अल्लाह को छोड़कर उन उपास्यों पर भरोसा किया जिनके पास कोई शक्ति नहीं और अल्लाह के रसूल को झुठला दिया। अब तुम्हारा अंजाम वही कुछ होकर रहेगा जो तुमसे पहले इस नीति पर चलनेवालों का हो चुका है। नबी को झुठलाकर और अपनी क़ौम के सबसे अच्छे तत्त्वों को अत्याचार का निशाना बनाकर तुमने अपना ही कुछ बिगाड़ा है। इसके नतीजे में अल्लाह का जो प्रकोप तुमपर उतरेगा, उससे तुम्हारे बनावटी उपास्य तुम्हें न बचा सकेंगे। इस चेतावनी और डरावे के साथ समझाने-बुझाने का पहलू बिल्कुल खाली नहीं छोड़ दिया गया है। पूरी सूरा में जगह-जगह याददिहानी और उपदेश भी है और शिर्क के विरुद्ध और तौहीद और आखिरत के पक्ष में प्रभावी तर्क भी प्रस्तुत किए गए है। दुविधा और संकोच में पड़े मुसलमान, जो अल्लाह की बन्दगी तो क़ुबूल कर चुके थे मगर इस राह में कोई ख़तरा उठाने को तैयार नहीं थे, उनको सम्बोधित करते हुए कड़ी डाँट-फटकार की गई है। उनसे कहा गया कि यह आखिर कैसा ईमान है कि राहत, ख़ुशी, ऐश मिले तो अल्लाह तुम्हारा प्रभु और तुम उसके बन्दे, मगर जहाँ अल्लाह की राह में विपदा आई और कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ीं, फिर न अल्लाह तुम्हारा प्रभु रहा और न तुम उसके बन्दे रहे, हालाँकि तुम अपनी इस नीति से किसी ऐसी विपत्ति और हानि और कष्ट को नहीं टाल सकते जो अल्लाह ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया हो। ईमानवालों से सम्बोधन दो तरीक़ों से किया गया है। एक सम्बोधन ऐसा है जिसमें वे स्वयं भी सम्बोधित हैं और अरब के आम लोग भी, दूसरे सम्बोधन में ईमानवाले सम्बोधित हैं।

पहले सम्बोधन में मक्का के मुशरिकों की इस नीति पर पकड़ की गई है कि उन्होंने मुसलमानों के लिए मस्जिदे-हराम (अर्थात काबा) का रास्ता बन्द कर दिया है, हालाँकि मस्जिदे-हराम (अर्थात् काबा) उनकी निजी सम्पत्ति नहीं है और वे किसी को हज से रोकने का अधिकार नहीं रखते। यह आपत्ति न केवल यह कि अपने आपमें सही थी, बल्कि राजनैतिक दृष्टि से यह क़ुरैश के विरुद्ध एक बहुत बड़ा हथियार भी था। इससे अरब के तमाम दूसरे क़बीलों के मन में यह प्रश्न पैदा कर दिया गया कि कुरैश हरम के मुजाविर हैं या मालिक? अगर आज अपनी निजी दुश्मनी के आधार पर वे गिरोह को हज से रोक देते और उसको सहन कर लिया जाता है, तो असंभव नहीं कि कल जिससे भी उनके सम्बन्ध बिगड़ें, उसको वे हरम की सीमाओं में प्रवेश करने से रोक दें और उसका उमरा और हज बन्द कर दें। इस सिलसिले में मस्जिदे-हराम का इतिहास बताते हुए एक ओर यह कहा गया है कि इबाहीम (अलैहि०) ने जब अल्लाह के आदेश से उसका निर्माण किया था तो सब लोगों का हज के लिए आम आह्वान किया था और वहाँ पहले दिन से स्थानीय निवासियों और बाहर से आनेवालों के अधिकार समान मान लिए गए थे। दूसरी ओर यह बताया गया कि यह घर शिर्क के लिए नहीं, बल्कि एक अल्लाह की बन्दगी के लिए बनाया गया था। अब यह क्या ग़ज़ब है कि वहाँ एक खुदा की बन्दगी पर तो रोक हो और बुतों की पूजा के लिए हो पूरी आज़ादी।

दूसरे सम्बोधन में मुसलमानों को कुरैश के ज़ुल्म का उत्तर ताक़त से देने की अनुमति दी गई है और साथ-साथ उनको यह भी बताया गया है कि जब तुम्हें सत्ता मिले तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए और अपने राज्य में तुमको किस उद्देश्य के लिए काम करना चाहिए। यह विषय सूरा के मध्य में भी है और अन्त में भी। अन्त में ईमानवालों के गिरोह के लिए "मुस्लिम” (आज्ञाकारी) के नाम विधिवत घोषणा करते हुए यह कहा गया है कि इब्राहीम के वास्तविक उत्तराधिकारी तो तुम लोग हो, तुम्हें इस सेवा के लिए चुन लिया गया है कि दुनिया में लोगों के सम्मुख सत्य की गवाही देने के पथ पर खड़े हो जाओ। अब तुम्हें नमाज़ क़ायम करके, ज़कात और ख़ैरात अदा करके अपने जीवन को श्रेष्ठ आदर्श जीवन बनाना चाहिए और अल्लाह के भरोसे पर अल्लाह के कलिमे को उच्च रखने के लिए 'जिहाद' करना चाहिए।

इस अवसर पर सूरा 2 (अल-बक़रा) और सूरा 8 (अल-अनफ़ाल) की भूमिकाओं पर भी दृष्टि डाल ली जाए तो समझने में अधिक आसानी होगी।

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سُورَةُ الحَجِّ
22. अल-हज
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمۡۚ إِنَّ زَلۡزَلَةَ ٱلسَّاعَةِ شَيۡءٌ عَظِيمٞ
(1) लोगो, अपने रब के गज़ब से बचो, हक़ीक़त यह है क़ियामत का ज़लज़ला बड़ी (भयानक) चीज़ है।1
1. यह ज़लज़ला (भूकम्प) क़ियामत की शुरुआती कैफ़ियतों में से है और बहुत मुमकिन यह है कि इसका वक़्त वह होगा जबकि ज़मीन यकायक उलटी फिरनी शुरू हो जाएगी और सूरज पूरब के बजाय पश्चिम से निकलेगा। यही बात क़ुरआन के पुराने तफ़सीर लिखनेवालों में से अलक़मा और शाबी ने बयान की है कि “यह उस वक़्त होगा जबकि सूरज पश्चिम से निकलेगा।” और यही बात उस लम्बी हदीस से मालूम होती है जो इब्ने-जरीर, तबरानी और इब्ने-अबी-हातिम वग़ैरा ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत से नक़्ल की है। उसमें नबी (सल्ल०) ने बताया है कि सूर फूँके जाने के तीन मौक़े हैं। एक 'नफ़ख़ि फ़-ज़अ, दूसरा 'नफ़ख़ि सअक़' और तीसरा 'नफ़ख़ि क़ियामि-लिरब्बिल-आलमीन'। यानी पहला सूर आम घबराहट पैदा करेगा, दूसरा सूर फूँके जाने पर सब मरकर गिर जाएँगे और तीसरा सूर फूँके जाने पर सब लोग ज़िन्दा होकर ख़ुदा के सामने पेश हो जाएँगे। फिर पहले सूर की तफ़सीली कैफ़ियत बयान करते हुए आप (सल्ल०) बताते हैं कि उस वक़्त ज़मीन की हालत उस नाव की-सी होगी जो मौजों के थपेड़े खाकर डगमगा रही हो, या उस लटकी हुई लालटेन की-सी होगी जिसको हवा के झोंके बुरी तरह झिंझोड़ रहे हों। उस वक़्त ज़मीन की आबादी पर जो कुछ गुज़रेगी उसका नक़्शा क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर खींचा गया है। जैसे— “फिर जब एक बार सूर में फूँक मार दी जाएगी और ज़मीन और पहाड़ों को उठाकर एक ही चोट में चूरा-चूरा कर दिया जाएगा, उस दिन वह होनेवाला वाक़िआ पेश आ जाएगा।" (सूरा-69 हाक्का, आयतें—13-15) “जबकि ज़मीन पूरी शिद्दत (तीव्रता) के साथ हिला डाली जाएगी, और ज़मीन अपने अन्दर के सारे बोझ निकालकर बाहर डाल देगी, और इनसान कहेगा कि यह इसको क्या हो रहा है।" (सूरा-99 जिलजाल, आयतें—1-3) “जिस दिन हिला मारेगा ज़लज़ले का झटका और उसके बाद पीछे एक और झटका पड़ेगा, कुछ दिल होंगे जो उस दिन ख़ौफ़ से काँप रहे होंगे, निगाहें उनकी डरी हुई होंगी।" (सूरा-79 नाज़िआत, आयतें—6-9) “ज़मीन उस दिन यकबारगी हिला डाली जाएगी और पहाड़ इस तरह चूरा-चूरा कर दिए जाएँगे कि बिखरी हुई धूल बनकर रह जाएँगे।” (सूरा-56 वाक़िआ, आयतें—4-6) “अगर तुम मानने से इनकार करोगे तो कैसे बचोगे उस दिन से जो बच्चों को बूढ़ा कर देगा, और जिसकी सख़्ती से आसमान फटा जा रहा होगा।” (सूरा-73 मुज़्ज़म्मिल, आयतें—17-18) हालाँकि कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने इस ज़लज़ले का वक़्त वह बताया है जबकि मुर्दे ज़िन्दा होकर अपने रब के सामने पेश होंगे, और इसकी ताईद में कई हदीसें भी बयान की हैं, लेकिन क़ुरआन का बयान इन रिवायतों को क़ुबूल करने की इजाज़त नहीं देता है। क़ुरआन इसका वक़्त वह बता रहा है जबकि माएँ अपने बच्चों को दूध पिलाते-पिलाते छोड़कर भाग खड़ी होंगी, और हामिलाओं के हमल गिर जाएँगे। अब यह ज़ाहिर है कि आख़िरत की ज़िन्दगी में न कोई औरत अपने बच्चे को दूध पिला रही होगी और न किसी हामिला के हमल गिरने का कोई मौक़ा होगा, क्योंकि क़ुरआन के साफ़-साफ़ बयानों के मुताबिक़ वहाँ सब रिश्ते कट चुके होंगे और हर शख़्स अपनी इनफ़िरादी हैसियत से ख़ुदा के सामने हिसाब देने के लिए खड़ा होगा। इसलिए उसी रिवायत को तरजीह दी जाएगी जो हमने पहले नक़्ल की है। हालाँकि उसकी सनद कमज़ोर है, मगर क़ुरआन से मेल खाना उसकी कमज़ोरी को दूर कर देता है। और ये दूसरी रिवायतें अगरचे सनद के एतिबार से ज़्यादा मजबूत हैं, लेकिन क़ुरआन के ज़ाहिर बयान से मेल न खाना इनको कमज़ोर कर देता है।
يَوۡمَ تَرَوۡنَهَا تَذۡهَلُ كُلُّ مُرۡضِعَةٍ عَمَّآ أَرۡضَعَتۡ وَتَضَعُ كُلُّ ذَاتِ حَمۡلٍ حَمۡلَهَا وَتَرَى ٱلنَّاسَ سُكَٰرَىٰ وَمَا هُم بِسُكَٰرَىٰ وَلَٰكِنَّ عَذَابَ ٱللَّهِ شَدِيدٞ ۝ 1
(2) जिस दिन तुम उसे देखोगे, हाल यह होगा कि हर दूध पिलानेवाली अपने दूध पीते बच्चे से ग़ाफ़िल हो जाएगी,2 हर हामिला (गर्भवती) का हमल (गर्भ) गिर जाएगा, और लोग तुमको मदहोश नज़र आएँगे; हालाँकि वे नशे में न होंगे. बल्कि अल्लाह का अज़ाब ही कुछ ऐसा सख़्त होगा3
2. आयत में अरबी लफ़्ज़ ‘मुरज़िअ’ के बजाय ‘मुरज़ि-आ’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है अरबी ज़बान के लिहाज़ से दोनों में फ़र्क़ यह है कि 'मुरज़िअ’ उस औरत को कहते हैं जो दूध पिलानेवाली हो, और 'मुरज़ि-आ' उस हालत में बोलते हैं जबकि वह अमली तौर से दूध पिला रही हो और बच्चा उसकी छाती मुँह में लिए हुए हो। तो यहाँ नक़्शा यह खींचा गया है कि जब वह क़ियामत का ज़लज़ला आएगा तो माएँ अपने बच्चों को दूध पिलाते-पिलाते छोड़कर भाग निकलेंगी और किसी माँ को यह होश न रहेगा कि उसके लाडले पर क्या बीती।
3. याद रहे कि यहाँ बात का अस्ल मक़सद क़ियामत का हाल बयान करना नहीं है, बल्कि ख़ुदा के अज़ाब से डराकर उन बातों से बचने की ताकीद करना है जो उसके ग़ज़ब का सबब होती हैं। लिहाज़ा क़ियामत का थोड़ा-सा हाल बयान करने के बाद आगे अस्ल मक़सद पर बात शुरू होती है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَيَتَّبِعُ كُلَّ شَيۡطَٰنٖ مَّرِيدٖ ۝ 2
(3) कुछ लोग ऐसे हैं जो इल्म के बिना अल्लाह के बारे में बहसे करते हैं4 और हर सरकश शैतान की पैरवी करने लगते हैं;
4. आगे की तक़रीर से मालूम होता है कि यहाँ अल्लाह तआला के बारे में उनके जिस झगड़े पर बात की जा रही है, वह अल्लाह की हस्ती और उसके वुजूद के बारे में नहीं, बल्कि उसके हक़ों और अधिकारों और उसकी भेजी हुई तालीमात के बारे में था। नबी (सल्ल०) उनसे तौहीद और आख़िरत मनवाना चाहते थे, और इसी पर वे आप (सल्ल०) से झगड़ा करते थे। इन दोनों अक़ीदों पर झगड़ा आख़िरकार जिस चीज़ पर जाकर ठहरता था वह यही थी कि ख़ुदा क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता, और यह कि कायनात में क्या ख़ुदाई सिर्फ़ एक ही ख़ुदा की है या कुछ दूसरी हस्तियों की भी।
كُتِبَ عَلَيۡهِ أَنَّهُۥ مَن تَوَلَّاهُ فَأَنَّهُۥ يُضِلُّهُۥ وَيَهۡدِيهِ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 3
(4) हालाँकि उसके तो नसीब ही में यह लिखा है कि जो उसको दोस्त बनाएगा उसे वह गुमराह करके छोड़ेगा और जहन्नम के अज़ाब का रास्ता दिखाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِن كُنتُمۡ فِي رَيۡبٖ مِّنَ ٱلۡبَعۡثِ فَإِنَّا خَلَقۡنَٰكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ مِن نُّطۡفَةٖ ثُمَّ مِنۡ عَلَقَةٖ ثُمَّ مِن مُّضۡغَةٖ مُّخَلَّقَةٖ وَغَيۡرِ مُخَلَّقَةٖ لِّنُبَيِّنَ لَكُمۡۚ وَنُقِرُّ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ مَا نَشَآءُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ نُخۡرِجُكُمۡ طِفۡلٗا ثُمَّ لِتَبۡلُغُوٓاْ أَشُدَّكُمۡۖ وَمِنكُم مَّن يُتَوَفَّىٰ وَمِنكُم مَّن يُرَدُّ إِلَىٰٓ أَرۡذَلِ ٱلۡعُمُرِ لِكَيۡلَا يَعۡلَمَ مِنۢ بَعۡدِ عِلۡمٖ شَيۡـٔٗاۚ وَتَرَى ٱلۡأَرۡضَ هَامِدَةٗ فَإِذَآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهَا ٱلۡمَآءَ ٱهۡتَزَّتۡ وَرَبَتۡ وَأَنۢبَتَتۡ مِن كُلِّ زَوۡجِۭ بَهِيجٖ ۝ 4
(5) लोगो, अगर तुम्हें मरने के बाद की ज़िन्दगी के बारे में कुछ शक है तो तुम्हें मालूम हो कि हमने तुमको मिट्टी से पैदा किया है; फिर नुतफ़े (वीर्य की बूँद) से,5 फिर ख़ून के लोथड़े से, फिर गोश्त की बोटी से जो शक्लवाली भी होती है और बे-शक्ल भी।6 (यह हम इसलिए बता रहे हैं) ताकि तुमपर हक़ीक़त खोल दें। हम जिस (नुत्फ़े) को चाहते हैं एक ख़ास वक़्त तक रहमों (गर्भाशयों) में ठहराए रखते हैं। फिर तुमको एक बच्चे की सूरत में निकाल लाते हैं (फिर तुम्हें पालते हैं), ताकि तुम अपनी पूरी जवानी को पहुँचो। और तुममें से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है और कोई बहुत बुरी उम्र की तरफ़ फेर दिया जाता है, ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ न जाने।7 और तुम देखते हो कि ज़मीन सूखी पड़ी है, फिर जहाँ हमने उसपर मेंह बरसाया कि यकायक वह फबक उठी और फूल गई और उसने हर तरह की ख़ुशनुमा नबातात (वनस्पतियाँ) उगलनी शुरू कर दीं।
5. इसका मतलब या तो यह है कि हर इनसान उन माद्दों (तत्त्वों) से पैदा किया जाता है जो सब-के-सब ज़मीन से हासिल होते हैं और इस पैदाइश की शुरुआत नुत्फ़े (वीर्य की बूँद) से होती है। या यह कि इनसानी नस्ल की शुरुआत आदम (अलैहि०) से की गई जो सीधे तौर पर मिट्टी से बनाए गए थे, और फिर आगे इनसानी नस्ल का सिलसिला नुत्फ़े से चला, जैसा कि सूरा-32 सजदा में कहा गया, “इनसान की पैदाइश गारे से की और फिर उसकी नस्ल एक ऐसे सत से चलाई जो हक़ीर पानी की तरह का है।” (आयतें—7, 8)
6. यह इशारा है उन अलग-अलग हालतों की तरफ़ जिनसे माँ के पेट में बच्चा गुज़रता है। उनकी वे तफ़सीलात बयान नहीं की गई जो आजकल सिर्फ़ ताक़तवर ख़ुर्दबीनों (सूक्ष्मदर्शी यंत्रों) ही से नज़र आ सकती हैं, बल्कि उन बड़ी-बड़ी नुमायाँ तब्दीलियों का ज़िक्र किया गया है जिनसे उस ज़माने के आम अरब-देहाती भी यानी ठहरने के बाद शुरू में जमे हुए ख़ून का एक लोथड़ा-सा होता है, फिर वह गोश्त की एक बोटी में तब्दील हो जाता है जिसमें पहले शक्ल-सूरत कुछ नहीं होती और आगे चलकर इनसानी शक्ल नुमायाँ होती चली जाती है। हमल गिरने की अलग-अलग हालतों में चूँकि इनसान की पैदाइश के ये सारे मरहले लोगों के देखने में आते थे, इसलिए इन्हीं की तरफ़ इशारा किया गया है। इसको समझने के लिए इल्मुल-जनीन (भ्रूण विज्ञान) की जानकारी की तहक़ीक़ात की न उस वक़्त ज़रूरत थी, न आज है।
7. यानी बुढ़ापे की वह हालत जिसमें आदमी को अपने तन-बदन का होश भी नहीं रहता। वही शख़्स जो दूसरों को अक़्ल बताता था, बूढ़ा होकर उस हालत को पहुँच जाता है जो बच्चे की हालत जैसी होती है। जिस इल्म और जानकारी और और दुनिया देखे होने पर उसको नाज़ था, वह ऐसी बे-ख़बरी में तब्दील हो जाती है कि बच्चे तक उसकी बातों पर हँसने लगते हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّهُۥ يُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَأَنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 5
(6) यह सब कुछ इस वजह से है कि अल्लाह ही हक़ (सत्य) है,8 और वह मुर्दों को ज़िन्दा करता है, और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है,
8. बात के इस सिलसिले में यह जुमला तीन मानी दे रहा है। एक यह कि अल्लाह ही सच्चा है और तुम्हारा यह गुमान बिलकुल ग़लत है कि मौत के बाद दोबारा ज़िन्दगी का कोई इमकान नहीं। दूसरा यह कि अल्लाह का वुजूद सिर्फ़ एक ख़याली और फ़र्ज़ी वुजूद नहीं है, जिसे कुछ अक़्ली मुश्किलें दूर करने के लिए मान लिया गया हो। वह निरा फ़लसफ़ियों (दार्शनिकों) के ख़याल की उपज, वाजिबुल-वुजूद (ख़ुद का पैदा किया हुआ) और इल्लतुल-इलल (पहली वजह, First Cause) ही नहीं है, बल्कि वह हक़ीक़ी सब कुछ करने का अधिकारी है जो हर पल अपनी क़ुदरत, अपने इरादे, अपने इल्म और अपनी हिकमत से पूरी कायनात और उसकी एक-एक चीज़ की तदबीर कर रहा है। तीसरा यह कि वह खिलंडरा नहीं है कि सिर्फ़ दिल बहलाने के लिए खिलौने बनाए और फिर यूँ ही तोड़-फोड़कर मिट्टी में मिला दे। वह हक़ (सत्य) है, उसके सब काम संजीदा और बा-मक़सद और हिकमत से भरे हैं।
وَأَنَّ ٱلسَّاعَةَ ءَاتِيَةٞ لَّا رَيۡبَ فِيهَا وَأَنَّ ٱللَّهَ يَبۡعَثُ مَن فِي ٱلۡقُبُورِ ۝ 6
(7) और यह (इस बात की दलील है) कि क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं, और अल्लाह ज़रूर उन लोगों को उठाएगा जो कब्रों में जा चुके हैं।9
9. इन आयतों में इनसान की पैदाइश की अलग-अलग हालतों, ज़मीन पर बारिश के असरात और पेड़-पौधों की पैदावार को पाँच हक़ीक़तों की निशानदेही करनेवाली दलीलें ठहराया गया है— (1) यह कि अल्लाह ही हक़ है, (2) यह कि वह मुर्दों को ज़िन्दा करता है, (3) यह कि वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है, (4) यह कि क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी, और (5) यह कि अल्लाह ज़रूर उन सब लोगों को ज़िन्दा करके उठाएगा जो मर चुके हैं। अब देखिए कि ये निशानियाँ उन पाँचों हदक़ीक़तों की किस तरह निशानदेही करती हैं। कायनात के पूरे निज़ाम (व्यवस्था) को छोड़कर आदमी सिर्फ़ अपनी ही पैदाइश पर ग़ौर करे तो मालूम हो जाएगा कि एक-एक इनसान के वुजूद में अल्लाह की हक़ीक़ी और वाक़ई तदबीर हर वक़्त अमली तौर पर काम कर रही है और हर एक के वुजूद और पलने-बढ़ने का एक-एक मरहला उसके इरादी फ़ैसले पर ही तय होता है। कहनेवाले कहते हैं कि यह सब कुछ एक लगे-बंधे क़ानून पर हो रहा है जिसको एक अंधी-बहरी बे-इल्म और बे-इरादा फ़ितरत चला रही है, लेकिन वे आँखें खोलकर देखें तो उन्हें नज़र आए कि एक-एक इनसान जिस तरह वुजूद में आता है और फिर जिस तरह वह वुजूद के अलग-अलग मरहलों से गुज़रता है उसमें एक हिकमतवाली और क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) हस्ती का इरादी फ़ैसला किस शान से काम कर रहा है। आदमी जो खाना खाता है उसमें कहीं इनसानी बीज मौजूद नहीं होता, न उसमें कोई चीज़ ऐसी होती है जो इनसानी जान की ख़ासियतें पैदा करती हो। यह खाना जिस्म में जाकर कहीं बाल, कहीं गोश्त और कहीं हड्डी बनता है, और एक ख़ास जगह पर पहुँचकर यही उस नुत्फ़े में तब्दील हो जाता है जिसके अन्दर इनसान बनने की सलाहियत रखनेवाले बीज मौजूद होते हैं। इन बीजों (शुक्राणुओं) की ज़्यादती का हाल यह होता है कि एक वक़्त में मर्द से जितना नुत्फ़ा (वीर्य) निकलता है उसके अन्दर कई करोड़ बीज पाए जाते हैं और उनमें से हर एक बैज़ा-ए-उनसा (औरत के अंडाणु) से मिलकर इनसान बन जाने की सलाहियत रखता है। मगर यह किसी हिकमत और क़ुदरतवाले और हर चीज़ की ताक़त रखनेवाले हाकिम का फ़ैसला है जो इन अनगिनत उम्मीदवारों में से किसी एक को किसी ख़ास वक़्त पर छाँटकर औरत के अंडाणु से मिलने का मौक़ा देता है और इस तरह हमल (गर्भ) टहरता है फिर हमल ठहरने के वक़्त मर्द के बीज (Sperm) और औरत के अंडाणु कोशों (Egg Cells) के मिलने से जो चीज़ शुरू में बनती है वह इतनी छोटी होती है कि सूक्ष्मदर्शी (Microscope) के बिना नहीं देखी जा सकती। यह हक़ीर-सी चीज़ 9 महीने और कुछ दिन में पेट के अन्दर परवरिश पाकर जिन अनगिनत मरहलों से गुज़रती हुई एक जीते-जागते इनसान की शक्ल इख़्तियार करती है उनमें से हर मरहले पर ग़ौर करो तो तुम्हारा दिल गवाही देगा कि यहाँ हर पल एक हिकमतवाली और निहायत सरगम हस्ती का इरादी फ़ैसला काम करता रहा है। वही फ़ैसला करता है कि किसे तकमील (पूर्णता) को पहुँचाना है और किसे ख़ून के लोथड़े, या गोश्त की बोटी, या अधूरे बच्चे की शक्ल में गिरा देना है वही फ़ैसला करता है कि किसको ज़िन्दा निकालना है और किसको मुर्दा। किसको मामूली इनसान की सूरत और शक्ल में निकालना है और किसे अनगिनत ग़ैर-मामूली सूरतों में से कोई सूरत दे देनी है। किसको सही सलामत निकालना है और किसे अंधा, बहरा, गूँगा या टुंडा या लुंजा बनाकर फेंक देना है। किसको ख़ूबसूरत बनाना है और किसे बदसूरत। किसको मर्द बनाना है और किसको औरत। किसको आला दरजे की क़ुव्वतें और सलाहियतें देकर भेजना है और किसे नासमझ और कम दिमाग़ बनाकर पैदा करना है। यह पैदाइश और शक्ल देने का अमल जो हर दिन करोड़ों औरतों के पेटों में हो रहा है, इसके दौरान में किसी वक़्त किसी मरहले पर भी एक ख़ुदा के सिवा दुनिया की कोई ताक़त ज़र्रा बराबर अपना असर नहीं डाल सकती, बल्कि किसी को यह भी मालूम नहीं होता कि किस पेट में क्या चीज़ बन रही है और क्या बनकर निकलनेवाली है। हालाँकि इनसानी आबादियों की क़िस्मत के कम-से-कम 90 फीसद फ़ैसले इन्हीं मरहलों में हो जाते हैं। और वहीं लोगों ही के नहीं, क़ौमों के, बल्कि पूरी इनसानी नस्ल के मुस्तक़बिल (भविष्य) की शक्ल बनाई और बिगाड़ी जाती है। इसके बाद जो बच्चे दुनिया में आते हैं, उनमें से हर एक के बारे में यह फ़ैसला कौन करता है कि किसे ज़िन्दगी की पहली साँस लेते ही ख़त्म हो जाना है, किसे बढ़कर जवान होना है और किसको क़ियामत के बोरिये समेटने हैं? यहाँ भी एक पूरी तरह हावी इरादा काम करता नज़र आता है और ग़ौर किया जाए तो महसूस होता है कि उसकी कारफ़रमाई किसी आलमगीर तदबीर और हिकमत के साथ हो रही है जिसके मुताबिक़ वह लोगों ही की नहीं, क़ौमों और देशों की क़िस्मत के भी फ़ैसले कर रहा है यह सब कुछ देखकर भी अगर किसी को इस बात में शक है कि अल्लाह 'हक़' है और सिर्फ़ अल्लाह ही 'हक़' है तो बेशक वह अक़्ल का अंधा है। दूसरी बात जो पेश की गई निशानियों से साबित होती है वह यह है कि “अल्लाह मुर्दों को ज़िन्दा करता है।” लोगों को तो यह सुनकर अचम्भा होता है कि अल्लाह किसी वक़्त मुर्दो को ज़िन्दा करेगा, मगर वे आँखें खोलकर देखें तो उन्हें दिखाई दे कि वह तो हर वक़्त मुर्दे जिला रहा है। जिन चीज़ों से आपका जिस्म बना है और जिन ग़िज़ाओं (खाद्य पदार्थों) से वह पलता-बढ़ता है उनकी जाँच करके देख लीजिए कोयला, लोहा, चूना, कुछ नमकीन चीज़ें, कुछ हवाएँ, और ऐसी ही कुछ चीज़ें और हैं। इनमें से किसी चीज़ में भी ज़िन्दगी और इनसान होने की ख़ासियतें मौजूद नहीं हैं। मगर इन्हीं मुर्दा बेजान चीज़ों को जमा करके आपको जीता-जागता बारूद बना दिया गया है। फिर इन्हीं माद्दों की ग़िज़ा आपके जिस्म में जाती है और वहाँ इससे मर्दों में वे बीज और औरतों में वे अंडाणु कोशिकाएँ बनती हैं जिनके मिलने से आप ही जैसे जीते-जागते इनसान हर दिन बन-बनकर निकल रहे हैं। इसके बाद ज़रा अपने आसपास की ज़मीन पर निगाह डालिए। अनगिनत अलग-अलग चीज़ों के बीज ये जिनको हवाओं और परिन्दों ने जगह-जगह फैला दिया था, और अनगिनत अलग-अलग चीज़ों की जड़ें थीं जो जगह-जगह मिट्टी में दबी पड़ी थीं, उनमें कहीं भी पेड़-पौधेवाली ज़िन्दगी का कोई निशान मौजूद न था। आपके आसपास की सूखी ज़मीन उन लाखों मुर्दो की क़ब्र बनी हुई थी। मगर ज्यों ही कि पानी का एक छींटा पड़ा, हर तरफ़ ज़िन्दगी लहलहाने लगी, हर मुर्दा जड़ अपनी क़ब्र से जी उठी, और हर बेजान बीज ने एक ज़िन्दा पीधे का रूप ले लिया। यह मौत के बाद दोबारा ज़िन्दगी मिलने का अमल हर बरसात में आपकी आँखों के सामने होता है। तीसरी चीज़ जो इन मुशाहदों (अवलोकनों) से साबित होती है वह यह है कि “अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।” सारी कायनात (सृष्टि) को छोड़कर सिर्फ़ अपनी इसी ज़मीन को ले लीजिए, और ज़मीन की भी तमाम हक़ीक़तों और वाक़िआत को छोड़कर सिर्फ़ इनसान और पेड़-पौधों ही की ज़िन्दगी पर नज़र डालकर देख लीजिए। यहाँ उसकी क़ुदरत के जो करिश्मे आपको नज़र आते हैं, क्या उन्हें देखकर कोई अक़्ल रखनेवाला आदमी यह बात कह सकता है कि ख़ुदा बस यही कुछ कर सकता है जो आज हम उसे करते हुए देख रहे हैं और कल अगर वह कुछ और करना चाहे तो नहीं कर सकता? ख़ुदा तो ख़ैर बहुत बुलन्द और बड़ी हस्ती है, इनसान के बारे में पिछली सदी तक लोगों के ये अन्दाज़े थे कि वह सिर्फ़ ज़मीन ही पर चलनेवाली गाड़ियों बना सकता है, हवा पर उड़नेवाली गाड़ियाँ बनाना इसके बस में नहीं है। मगर आज के हवाई जहाज़ों ने बता दिया कि इनसान के 'इमकानात (सम्भावनाओं)’ की हदें। तय करने में उनके अन्दाज़े कितने ग़लत थे। अब अगर कोई शख़्स ख़ुदा के लिए उसके सिर्फ़ आज के काम देखकर इमकानात की कुछ हदें तय कर देता है और कहता है कि जो कुछ वह कर रहा है उसके सिवा वह कुछ नहीं कर सकता तो वह सिर्फ़ अपने ही ज़ेहन की तंगी का सुबूत देता है, अल्लाह की क़ुदरत बहरहाल उसकी बाँधी हुई हदों में बन्द नहीं हो सकती। चौथी और पाँचवीं बात, यानी यह कि “क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी”और यह कि “अल्लाह ज़रूर उन सब लोगों को ज़िन्दा करके उठाएगा जो मर चुके हैं,” उन तीन इबतिदाई बातों का अक़्ली नतीजा है जो ऊपर बयान हुई हैं अल्लाह के कामों को उसकी क़ुदरत के पहलू से देखिए तो दिल गवाही देगा कि वह जब चाहे क़ियामत ला सकता है और जब चाहे उन सब मरनेवालों को फिर से ज़िन्दा कर सकता है, जिनको पहले उस वक़्त वुजूद में लाया था, जबकि उनका कोई वुजूद ही नहीं था, और अगर उसके कामों को उसकी हिकमत के पहलू से देखिए तो अक़्ल गवाही देगी कि ये दोनों काम भी वह ज़रूर करके रहेगा; क्योंकि इनके बिना हिकमत के तक़ाज़े पूरे नहीं होते और एक हिकमतवाली हस्ती से यह नामुमकिन है कि वह उन तक़ाज़ों को पूरा न करे। जो थोड़ी-सी हिकमत और समझदारी इनसान को हासिल है, उसका यह नतीजा हम देखते हैं कि आदमी अपना माल या जायदाद या कारोबार जिसके सिपुर्द भी करता है उससे किसी-न-किसी वक़्त हिसाब ज़रूर लेता है। यानी अमानत और हिसाब लेने के बीच एक लाज़िमी अक़्ली राबिता है जिसको इनसान की महदूद हिकमत किसी हाल में नज़र अन्दाज़ नहीं करती। फिर इसी हिकमत की बुनियाद पर आदमी जान-बूझकर और अनजाने में किए गए कामों में फ़र्क़ करता है, इरादे के साथ किए गए कामों के साथ अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी का तसव्वुर (धारणा) जोड़ता है, कामों में अच्छे और बुरे का फ़र्क़ करता है, अच्छे कामों का नतीजा तारीफ़ और इनाम की शक्ल में देखना चाहता है, और बुरे कामों पर सज़ा का तक़ाज़ा करता है, यहाँ तक कि ख़ुद एक अदालती निज़ाम इस मक़सद के लिए वुजूद में लाता है। यह हिकमत जिस पैदा करनेवाले ने इनसान में पैदा की है, क्या यह समझा जा सकता है कि वह ख़ुद इस हिकमत से ख़ाली होगा? क्या माना जा सकता है कि अपनी इतनी बड़ी दुनिया, इतने सरो-सामान और इतने ज़्यादा इख़्तियारात के साथ इनसान के सिपुर्द करके वह भूल गया है? उसका हिसाब वह कभी न लेगा? क्या किसी सही दिमाग़ आदमी की अक़्ल यह गवाही दे सकती है कि इनसान के जो बुरे काम सज़ा से बच निकले हैं, या जिन बुराइयों की मुनासिब सज़ा उसे नहीं मिल सकी है उनकी पूछ-गछ के लिए कभी अदालत क़ायम न होगी, और जो भलाइयाँ अपने इनसाफ़ के मुताबिक़ इनाम से महरूम रह गई हैं वे हमेशा महरूम ही रहेंगी? अगर ऐसा नहीं है तो क़ियामत और मरने के बाद की ज़िन्दगी हिकमतवाले ख़ुदा की हिकमत का एक लाज़िमी तक़ाज़ा है जिसका पूरा होना नहीं, बल्कि न पूरा होना सरासर अक़्ल के खिलाफ़ बात है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَلَا هُدٗى وَلَا كِتَٰبٖ مُّنِيرٖ ۝ 7
(8) कुछ और लोग ऐसे हैं जो किसी इल्म10 और हिदायत11 और रौशनी देनेवाली किताब12 के बिना, गरदन अकडाए हुए,13 ख़ुदा के बारे में झगड़ते हैं;
10. यानी वह निजी जानकारी जो सीधे तौर पर मुशाहिदे और तरजरिबे से हासिल हुई हो।
11. यानी वह जानकारी जो किसी दलील से हासिल हुई हो या किसी इल्म रखनेवाले की रहनुमाई से।
12. यानी वह जानकारी जो ख़ुदा की उतारी हुई किताब से हासिल हुई हो।
13. इसमें तीन कैफ़ियतें शामिल हैं— जाहिलाना ज़िद और हठधर्मी, घमंड और गुरूरे-नफ़्स (अहंकार) और किसी समझानेवाले की बात की तरफ़ ध्यान न देना।
ثَانِيَ عِطۡفِهِۦ لِيُضِلَّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۖ لَهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَنُذِيقُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 8
(9) ताकि लोगों को अल्लाह के रास्ते से भटका दें।14 ऐसे शख़्स के लिए दुनिया में रुसवाई है और क़ियामत के दिन उसको हम आग के अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
14. पहले उन लोगों का ज़िक्र था जो ख़ुद गुमराह हैं। और इस आयत में उन लोगों का ज़िक्र है जो ख़ुद ही गुमराह नहीं हैं, बल्कि दूसरों को भी गुमराह करने पर तुले रहते हैं।
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ يَدَاكَ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 9
(10)—यह है तेरा वह मुस्तक़बिल (भविष्य) जो तेरे अपने हाथों ने तेरे लिए तैयार किया है वरना अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करनेवाला नहीं है।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَعۡبُدُ ٱللَّهَ عَلَىٰ حَرۡفٖۖ فَإِنۡ أَصَابَهُۥ خَيۡرٌ ٱطۡمَأَنَّ بِهِۦۖ وَإِنۡ أَصَابَتۡهُ فِتۡنَةٌ ٱنقَلَبَ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ خَسِرَ ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 10
(11) और लोगों में कोई ऐसा जो किनारे पर रहकर अल्लाह की बन्दगी करता है,15 अगर फ़ायदा हुआ तो मुत्मइन हो गया और जो कोई मुसीबत आ गई तो उलटा फिर गया।16 उसकी दुनिया भी गई और आख़िरत भी। यह है खुला घाटा।17
15. और इस्लाम की सरहद पर खड़ा होकर बन्दगी करता है। जैसे एक शक और उलझन में पड़ा आदमी किसी फ़ौज के किनारे पर खड़ा हो, अगर जीत होती देखे तो साथ आ मिले और हार होती देखे तो चुपके से सटक जाए।
16. इससे मुराद हैं वे कच्चे किरदार के, ढुलमुल अक़ीदेवाले और अपने मन के दास लोग जो इस्लाम क़ुबूल तो करते हैं, मगर फ़ायदे की शर्त के साथ। उनका ईमान इस शर्त के साथ होता है कि उनकी मुरादें पूरी होती रहें, हर तरह चैन-ही-चैन नसीब हो, न ख़ुदा का दीन उनसे किसी क़ुरबानी की माँग करे, और न दुनिया में उनकी कोई ख़ाहिश और आरज़ू पूरी होने से रह जाए। यह हो तो ख़ुदा से वे राज़ी हैं और उसका दीन उनके नज़दीक बहुत अच्छा है। लेकिन जहाँ कोई आफ़त आई, या ख़ुदा की राह में किसी मुसीबत, मेहनत और नुक़सान से वास्ता पेश आ गया, या कोई तमन्ना पूरी होने से रह गई, फिर उनको ख़ुदा की ख़ुदाई और रसूल की रिसालत और दीन के सच्चे होने, किसी चीज़ पर भी इत्मीनान नहीं रहता। फिर वे हर उस आस्ताने पर झुकने के लिए तैयार हो जाते हैं जहाँ से उनको फ़ायदे की उम्मीद और नुक़सान से बच जाने का भरोसा हो।
17. यह एक बहुत बड़ी हक़ीक़त है जो कुछ लफ़्ज़ों में बयान कर दी गई है। शक और शुब्हे में पड़े मुसलमान का हाल हक़ीक़त में सबसे बदतर होता है। ख़ुदा का इनकारी अपने रब से बे-परवाह आख़िरत से बे-परवाह और अल्लाह के क़ानूनों की पाबन्दियों से आज़ाद होकर जब यकसूई के साथ दुनियवी फ़ायदों के पीछे पड़ जाता है तो चाहे वह अपनी आख़िरत खो दे, मगर दुनिया तो कुछ-न-कुछ बना ही लेता है। और ईमानवाला जब पूरे सब्र, जमाव और मज़बूत इरादे के साथ ख़ुदा के दीन की पैरवी करता है तो अगरचे दुनिया की कामयाबी भी आख़िरकार उसके क़दम चूमकर रहती है, फिर भी अगर दुनिया बिलकुल ही उसके हाथ से जाती रहे, आख़िरत में बहरहाल उसकी कामयाबी और नजात यक़ीनी है। लेकिन ये शक व शुब्हे में पड़ा मुसलमान न अपनी दुनिया ही बना सकता है और न आख़िरत ही में उसके लिए कामयाबी का कोई इमकान है। दुनिया की तरफ़ लपकता है तो कुछ-न-कुछ ख़ुदा और आख़िरत के होने का गुमान जो उसके दिलो-दिमाग़ के किसी कोने में रह गया है, और कुछ-न-कुछ अख़लाक़ी हदों का लिहाज़ जो इस्लाम से ताल्लुक़ ने पैदा कर दिया है, उसका दामन खींचता रहता है, और ख़ालिस दुनिया-तलबी के लिए जिस यकसूई और जमाव की ज़रूरत है, वह ख़ुदा के इनकारी की तरह उसे नहीं मिल पाती। आख़िरत का ख़याल करता है तो दुनिया के फ़ायदों का लालच और नुक़सानों का डर, और ख़ाहिशों पर पाबन्दियाँ क़ुबूल करने से तबीअत का इनकार उस तरफ़ जाने नहीं देता, बल्कि दुनिया-परस्ती उसके अक़ीदे और अमल को इतना कुछ बिगाड़ देती है कि आख़िरत में उसका अज़ाब से बचना मुमकिन नहीं रहता । इस तरह वह दुनिया भी खोता है और आख़िरत भी।
يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَضُرُّهُۥ وَمَا لَا يَنفَعُهُۥۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلضَّلَٰلُ ٱلۡبَعِيدُ ۝ 11
(12) फिर वह अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारता है जो न उसको नुक़सान पहुँचा सकते हैं, न फ़ायदा; यह है गुमराही की इन्तिहा।
يَدۡعُواْ لَمَن ضَرُّهُۥٓ أَقۡرَبُ مِن نَّفۡعِهِۦۚ لَبِئۡسَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَلَبِئۡسَ ٱلۡعَشِيرُ ۝ 12
(13) वह उनको पुकारता है जिनका नुक़सान उनके फ़ायदे से ज़्यादा क़रीब है18, बहुत ही बुरा है उसका सरपरस्त और बहुत ही बुरा है उसका साथी।19
18. पहली आयत में इस बात को साफ़ तौर से नकार दिया गया है कि अल्लाह से हटकर जिनको माबूद बना लिया गया है वे किसी तरह का फ़ायदा और नुक़सान पहुँचा सकते हैं; क्योंकि हक़ीक़त के पहलू से वे किसी फ़ायदे और नुक़सान की क़ुदरत नहीं रखते। दूसरी आयत में बताया गया है कि उनको फ़ायदा मिले न मिले, लेकिन उनको नुक़सान तो पहुँचकर रहेगा, क्योंकि उनसे दुआएँ माँगकर और उनके आगे अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए हाथ फैलाकर वह अपना ईमान तो यक़ीनन फ़ौरन खो देता है। रही यह बात कि वह फ़ायदा उसे हासिल हो जिसकी उम्मीद पर उसने उन्हें पुकारा था तो हक़ीक़त से अलग हटकर, ज़ाहिर के लिहाज़ से भी वह ख़ुद मानेगा कि उसका हासिल न तो यक़ीनी है और न हासिल के क़रीब। हो सकता है कि अल्लाह उसको और ज़्यादा फ़ितने में डालने के लिए किसी आस्ताने पर उसकी मुराद पूरी कर दे, और हो सकता है कि उस आस्ताने पर वह अपना ईमान भी भेंट चढ़ा आए और अपनी मुराद भी न पाए।
19. यानी जिसने भी उसको इस रास्ते पर डाला, चाहे वह कोई इनसान हो या शैतान, वह सबसे बुरा काम बनानेवाला और सरपरस्त और सबसे बुरा दोस्त और साथी है।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يُرِيدُ ۝ 13
(14) (इसके बरख़िलाफ़) अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक काम किए,20 यक़ीनन ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।21
20. यानी जिनका हाल उस मतलबपरस्त, शक और शुब्हे में पड़े और बे-यक़ीन मुसलमान का-सा नहीं है, बल्कि जो ठंडे दिल से ख़ूब सोच समझकर ख़ुदा और रसूल और आख़िरत को मानने का फ़ैसला करते हैं, फिर पूरी मज़बूती के साथ सच के रास्ते पर चलते रहते हैं, चाहे अच्छे हालात से सामना हो या बुरे हालात से, चाहे मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़ें या इनामों की बारिशें होने लगें।
21. यानी अल्लाह के इख़्तियारात लामहदूद (असीम) हैं। दुनिया में आख़िरत में या दोनों जगह, वह जिसको जो कुछ चाहता है देता है और जिससे जो कुछ चाहता है, रोक लेता है। वह देना चाहे तो कोई रोकनेवाला नहीं, न देना चाहे तो कोई दिलवानेवाला नहीं।
مَن كَانَ يَظُنُّ أَن لَّن يَنصُرَهُ ٱللَّهُ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ فَلۡيَمۡدُدۡ بِسَبَبٍ إِلَى ٱلسَّمَآءِ ثُمَّ لۡيَقۡطَعۡ فَلۡيَنظُرۡ هَلۡ يُذۡهِبَنَّ كَيۡدُهُۥ مَا يَغِيظُ ۝ 14
(15) जो शख़्स यह गुमान रखता हो कि अल्लाह दुनिया और आख़िरत में उसकी कोई मदद न करेगा, उसे चाहिए कि एक रस्सी के ज़रिए से आसमान तक पहुँचकर छेद करे, फिर देख ले कि क्या उसकी तदबीर किसी ऐसी चीज़ को रद्द कर सकती है जो उसको नागवार है।22
22. इस आयत की तफ़सीर में बहुत इख़तिलाफ़ हुए हैं। अलग-अलग तफ़सीर लिखनेवालों के बयान किए हुए मतलबों का ख़ुलासा यह है— (1) जिसका यह ख़याल हो कि अल्लाह उसकी (यानी मुहम्मद सल्ल० की) मदद न करेगा, वह छत से रस्सी बाँधकर ख़ुदकुशी कर ले। (2) जिसका यह ख़याल हो कि अल्लाह उसकी (यानी मुहम्मद सल्ल० की) मदद न करेगा, वह किसी रस्सी के ज़रिए से आसमान पर जाए और मदद बन्द कराने की कोशिश कर देखे। (3) जिसका यह ख़याल हो कि अल्लाह उसकी (यानी मुहम्मद सल्ल० की) मदद न करेगा, वह आसमान पर जाकर वह्य का सिलसिला काट देने की कोशिश कर देखे। (4) जिसका यह ख़याल हो कि अल्लाह उसकी (यानी मुहम्मद सल्ल० की) मदद न करेगा, वह आसमान पर जाकर उसकी रोज़ी बन्द कराने की कोशिश कर देखे। (5) जिसका यह ख़याल हो कि अल्लाह उसकी (यानी ख़ुद इस तरह का ख़याल करनेवाले की) मदद न करेगा, वह अपने घर की छत से रस्सी लटकाए और ख़ुदकुशी कर ले। (6) जिसका यह ख़याल हो कि अल्लाह उसकी (यानी ख़ुद इस तरह का ख़याल करनेवाले की) मदद न करेगा, वह आसमान तक पहुँचकर मदद लाने की कोशिश कर देखे। इनमें से पहले चार मतलब तो बिलकुल ही मौक़ा-महल से हटकर हैं। और आख़िरी दो मतलब अगरचे मौक़ा-महल से ज़्यादा क़रीब हैं, लेकिन कलाम के ठीक मक़सद तक नहीं पहुँचते तक़रीर के सिलसिले को निगाह में रखा जाए तो साफ़ मालूम होता है कि यह गुमान करनेवाला शख़्स वही है जो किनारे पर खड़ा होकर बन्दगी करता है, जब तक हालात अच्छे रहते हैं, मुत्मइन रहता है और जब कोई आफ़त या मुसीबत आती है, या किसी ऐसी हालत से दोचार होता है जो उसे नागवार है तो ख़ुदा से फिर जाता है और एक-एक आस्ताने पर माथा रगड़ने लगता है। इस शख़्स की यह कैफ़ियत क्यों है? इसलिए कि वह अल्लाह के फ़ैसले पर राज़ी नहीं है और यह समझता है कि क़िस्मत के बनाव-बिगाड़ के ये रिश्ते अल्लाह के सिवा किसी और के हाथ में भी हैं, और अल्लाह से मायूस होकर दूसरे आस्तानों से उम्मीदें लगाता है इस वजह से कहा जा रहा है कि जिस शख़्स के ये ख़यालात हों वह अपना सारा ज़ोर लगाकर देख ले, यहाँ तक कि अगर आसमान को फाड़कर थिगली (पैवन्द) लगा सकता हो तो यह भी करके देख ले कि क्या उसकी कोई तदबीर अल्लाह की तक़दीर के किसी ऐसे फ़ैसले को बदल सकती है जो उसको नागवार है। आसमान पर पहुँचने और चीरा लगाने से मुराद है वह बड़ी कोशिश जिसका इनसान तसव्वुर कर सकता हो। इन अलफ़ाज़ का कोई लफ़्ज़ी मतलब मुराद नहीं है।
وَكَذَٰلِكَ أَنزَلۡنَٰهُ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ وَأَنَّ ٱللَّهَ يَهۡدِي مَن يُرِيدُ ۝ 15
(16)—ऐसी ही खुली-खुली बातों के साथ हमने इस क़ुरआन को उतारा है, और हिदायत अल्लाह जिसे चाहता है, देता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـِٔينَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ وَٱلۡمَجُوسَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 16
(17) जो लोग ईमान लाए23 और जो यहूदी हुए24 और साबिई25 और नसारा26 और मजूस,27 और जिन लोगों ने शिर्क किया,28 इन सबके बीच अल्लाह क़ियामत के दिन फ़ैसला कर देगा,29 हर चीज़ अल्लाह की नज़र में है।
23. यानी 'मुसलमान' जिन्होंने अपने-अपने ज़माने में ख़ुदा के तमाम नबियों और उसकी किताबों को माना, और मुहम्मद (सल्ल०) के ज़माने में जिन्होंने पिछले नबियों के साथ आप (सल्ल०) पर भी ईमान लाना क़ुबूल किया। उनमें सच्चे ईमानवाले भी शामिल थे और वे भी थे जो माननेवालों में शामिल तो हो जाते थे, मगर 'किनारे' पर रहकर बन्दगी करते थे और मानने और न मानने के बीच शक व शुब्हे में थे।
24. तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-72 ।
25. 'साबिई' के नाम से पुराने ज़माने में दो गरोह मशहूर थे। एक हज़रत यह्या (अलैहि०) की पैरवी करनेवाले जो इराक़ के ऊपरी हिस्से (यानी अल-जज़ीरा) के इलाक़े में अच्छी ख़ासी तादाद में पाए जाते थे, और हज़रत यह्या की पैरवी में बपतिस्मा के तरीक़े पर अमल करते थे। दूसरे सितारों की पूजा करनेवाले लोग जो अपने दीन को हज़रत शीस (अलैहि०) और हज़रत इदरीस (अलैहि०) की तरफ़ जोड़ते थे और माद्दी चीज़ों पर सैयारों (ग्रहों) की और सैयारों पर फ़रिश्तों की हुकूमत को मानते थे। उनका मर्कज़ हर्रान था और इराक़ के कई हिस्सों में उनकी शाखाएँ फैली हुई थीं। यह दूसरा गरोह अपने फ़लसफ़े, साइंस और दवा-इलाज के कमालात की वजह से ज़्यादा मशहूर हुआ है। लेकिन ज़्यादा इमकान इस बात का है कि यहाँ पहला गरोह मुराद है; क्योंकि दूसरा गरोह शायद क़ुरआन उतरने के ज़माने में इस नाम से जाना भी न जाता था।
26. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-5 माइदा, हाशिया-36।
27. यानी आग की पूजा करनेवाले ईरानी लोग जो रौशनी और अंधेरे के दो ख़ुदा मानते थे और अपने आपको ज़रदुश्त की पैरवी करनेवाला कहते थे उनके मज़हब और अख़लाक़ को मज़दक की गुमराहियों ने बुरी तरह बिगाड़कर रख दिया था, यहाँ तक कि सगी बहन से निकाह तक उनमें रिवाज पा गया था।
28. यानी अरब और दूसरे देशों के मुशरिक लोग जो ऊपर बयान किए गए गरोहों की तरह किसी ख़ास नाम से जाने न जाते थे। क़ुरआन मजीद उनको दूसरे गरोहों से अलग करने के लिए 'मुशरिकीन' और 'और वे लोग जिन्होंने शिर्क किया के ख़ास नामों से याद करता है, अगरचे ईमानवालों के सिवा बाक़ी सबके ही अक़ीदों और आमाल में शिर्क दाख़िल हो चुका था।
29. यानी ख़ुदा के बारे में अलग-अलग इनसानी गरोहों के बीच जो झगड़ा है उसका फ़ैसला इस दुनिया में नहीं होगा, बल्कि क़ियामत के दिन होगा। वहीं इस बात का दो टूक फ़ैसला कर दिया जाएगा कि उनमें से कौन हक़ पर है और कौन बातिल (असत्य) पर। हालाँकि एक मानी के लिहाज़ से यह फ़ैसला इस दुनिया में भी ख़ुदा की किताबें करती रही हैं, लेकिन यहाँ फ़ैसले का लफ़्ज़ 'झगड़ा चुकाने’ और दोनों गरोहों के बीच इनसाफ़ करने के मानी में इस्तेमाल हुआ है, जबकि एक के हक़ में और दूसरे के ख़िलाफ़ बाक़ायदा डिग्री दे दी जाए।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يَسۡجُدُۤ لَهُۥۤ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ وَٱلنُّجُومُ وَٱلۡجِبَالُ وَٱلشَّجَرُ وَٱلدَّوَآبُّ وَكَثِيرٞ مِّنَ ٱلنَّاسِۖ وَكَثِيرٌ حَقَّ عَلَيۡهِ ٱلۡعَذَابُۗ وَمَن يُهِنِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن مُّكۡرِمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ۩ ۝ 17
(18) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सजदे में पड़े हैं30 वे सब जो आसमानों में हैं31 और जो ज़मीन में हैं, सूरज और चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और जानवर और बहुत-से इनसान32 और बहुत-से वे लोग भी जो अज़ाब के हक़दार हो चुके हैं?33 और जिसे अल्लाह बेइज़्ज़त और रुसवा कर दे उसे फिर कोई इज़्ज़त देनेवाला नहीं है34। अल्लाह करता है जो कुछ चाहता है।35
30. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-13 रअद, हाशिए—24, 25; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—41,42।
31. यानी फ़रिश्ते, वे चीज़ें जो आसमान में हैं और वे सारी चीज़ें जो ज़मीन के अलावा दूसरी दुनियाओं में हैं, चाहे ये इनसान की तरह अक़्ल और इख़्तियार रखनेवाले हों या हैवान, पेड़-पौधे, जमादात (जड़ वस्तुएँ) और हवा और रौशनी की तरह बे-अक़्ल और वे-इख़्तियार।
32. यानी वे जो सिर्फ़ मजबूरी ही में नहीं, बल्कि अपने इरादे और मरज़ी से भी उसको सजदा करते हैं। उनके मुक़ाबले में दूसरा इनसानी गरोह जिसका बाद के जुमले में ज़िक्र आ रहा है, वह है जो अपने इरादे से ख़ुदा के आगे झुकने से इनकार करता है, मगर दूसरी बे-इख़्तियार चीज़ों की तरह वह भी फ़ितरत के क़ानून की गिरि़फ़्त से आज़ाद नहीं है और सबके साथ मजबूरन सजदा करनेवालों में शामिल है। उसके अज़ाब का हक़दार होने की वजह वही है कि वह अपने अधिकार की हद तक बग़ावत का रवैया अपनाता है।
33. मतलब यह है कि अगरचे इन अलग-अलग गरोहों के झगड़े का फ़ैसला तो क़ियामत ही के दिन चुकाया जाएगा, लेकिन कोई आँखें रखता हो तो वह आज भी देख सकता है कि हक़ पर कौन है और आख़िरी फ़ैसला किसके हक़ में होना चाहिए पूरी कायनात का निज़ाम इस बात पर गवाह है कि ज़मीन से आसमानों तक एक ही ख़ुदा की ख़ुदाई पूरे ज़ोर और पूरी हमागीरी (व्यापकता) के साथ चल रही है। ज़मीन के एक ज़र्रे से लेकर आसमान के बड़े-बड़े सैयारों तक सब एक क़ानून में जकड़े हुए हैं जिससे बाल बराबर भी हरकत करने का किसी को इख़्तियार नहीं है। ईमानवाला तो ख़ैर दिल से उसके आगे सर झुकाता है, मगर वह नास्तिक जो उसके वुजूद तक का इनकार कर रहा है और वह मुशरिक जो एक-एक बे-इख़्तियार हस्ती के आगे झुक रहा है वह भी उसके हुक्म की पैरवी पर उसी तरह मजबूर है जिस तरह हवा और पानी। किसी फ़रिश्ते, किसी जिन्न, किसी नबी और वली और किसी देवी-देवता के पास ख़ुदाई की सिफ़ात और अधिकारों का मामूली-सा निशान तक नहीं है कि उसको ख़ुदा या माबूद होने का मकाम दिया जा सके, या तमाम जहान के ख़ुदा का हमजिंस या उसके बराबर ठहराया जा सके। कोई ऐसा क़ानून जिसका कोई हाकिम न हो, कोई ऐसी फ़ितरत जिसे कोई बनानेवाला न हो और कोई ऐसा निज़ाम जिसका कोई चलानेवाला न हो, इन सबके लिए यह मुमकिन ही नहीं है कि इतनी बड़ी कायनात को वुजूद में लाया जा सके और बाक़ायदगी के साथ ख़ुद ही चलता रहे और क़ुदरत और हिकमत के वे हैरतअंगेज़ करिश्मे दिखा सके जो इस कायनात के कोने-कोने में हर तरफ़ नज़र आ रहे हैं। कायनात की यह खुली किताब सामने होते हुए भी जो शख़्स नबियों की बात नहीं मानता और अलग-अलग मनगढ़न्त अक़ीदे अपनाकर ख़ुदा के बारे में अकड़ता है, उसका बातिल (असत्य) पर होना आज भी उसी तरह साबित है जिस तरह क़ियामत के दिन साबित होगा।
34. यहाँ रुसवाई और इज़्ज़त से मुराद हक़ का इनकार और उसकी पैरवी है; क्योंकि उसका लाज़िमी नतीजा रुसवाई और इज़्ज़त ही की शक्ल में ज़ाहिर होना है। जो शख़्स खुली-खुली और रौशन हक़ीक़तों को आँखें खोलकर न देखे और समझानेवाले की बात भी सुनकर न दे, वह ख़ुद ही ज़िल्लत और रुसवाई को अपने ऊपर दावत देता है, और अल्लाह वही चीज़ उसके नसीब में लिख देता है जो उसने ख़ुद माँगी है। फिर जब अल्लाह ही ने उसको हक़ की पैरवी की इज़्ज़त न दी तो अब कौन है जो उसको इस इज़्ज़त से नवाज़ दे।
35. यहाँ तिलावत का सजदा करना वाजिब (ज़रूरी) है, और सूरा हज के इस सजदे के बारे में उलमा एक राय हैं। तिलावत के सजदे की हिकमत और उसके अहकाम के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-157।
۞هَٰذَانِ خَصۡمَانِ ٱخۡتَصَمُواْ فِي رَبِّهِمۡۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ قُطِّعَتۡ لَهُمۡ ثِيَابٞ مِّن نَّارٖ يُصَبُّ مِن فَوۡقِ رُءُوسِهِمُ ٱلۡحَمِيمُ ۝ 18
(19) ये दो फ़रीक़ हैं जिनके बीच अपने रब के मामले में झगड़ा है।36 इनमें से वे लोग जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) किया, उनके लिए आग के लिबास काटे जा चुके हैं37
36. यहाँ ख़ुदा के बारे में झगड़ा करनेवाले तमाम गरोहों को उनकी तादाद ज़्यादा होने के बावजूद दो गरोहों में बाँट दिया गया है। एक गरोह वह जो नबियों की बात मानकर ख़ुदा की सही बन्दगी अपनाता है। दूसरा वह जो उनकी बात नहीं मानता और कुफ़्र(इनकार) की राह अपनाता है, चाहे उसके अन्दर आपस में कितने ही इख़्तिलाफ़ात हों और उसके कुफ़्र ने कितने ही अलग-अलग सूरतें अपना रखी हों।
37. मुस्तक़बिल (भविष्य) में जिस चीज़ का पेश आना बिलकुल क़तई और यक़ीनी हो उसको ज़ोर देने के लिए इस तरह बयान किया जाता है मानो वह पेश आ चुकी है। आग के कपड़ों से मुराद शायद वही चीज़ है जिसे सूरा-14 इबराहीम, आयत-50 में उनके कपड़े तारकोल के होंगे' कहा गया है। तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-58।
يُصۡهَرُ بِهِۦ مَا فِي بُطُونِهِمۡ وَٱلۡجُلُودُ ۝ 19
(20) उनके सिरों पर खौलता हुआ पानी डाला जाएगा जिससे उनकी खालें ही नहीं, पेट के अन्दर के हिस्से तक गल जाएँगे,
وَلَهُم مَّقَٰمِعُ مِنۡ حَدِيدٖ ۝ 20
(21) और उनकी ख़बर लेने के लिए लोहे के गुर्ज़ (गदाएँ) होंगे।
كُلَّمَآ أَرَادُوٓاْ أَن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا مِنۡ غَمٍّ أُعِيدُواْ فِيهَا وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 21
(22) जब कभी वे घबराकर जहन्नम से निकलने की कोशिश करेंगे, फिर उसी में धकेल दिए जाएँगे कि चखो अब जलने की सज़ा का मज़ा।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ يُحَلَّوۡنَ فِيهَا مِنۡ أَسَاوِرَ مِن ذَهَبٖ وَلُؤۡلُؤٗاۖ وَلِبَاسُهُمۡ فِيهَا حَرِيرٞ ۝ 22
(23 ) (दूसरी तरफ़) जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने भले काम किए उनको अल्लाह ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। वहाँ वे सोने के कंगनों और मोतियों से सजाए जाएँगे38 और उनके लिबास रेशम के होंगे।
38. इसका मक़सद यह तसव्वुर दिलाना है कि उनको शाही लिबास पहनाए जाएँगे क़ुरआन के उतरने के ज़माने में बादशाह और बड़े-बड़े रईस लोग सोने और जवाहरात के ज़ेवर पहनते थे, और ख़ुद हमारे ज़माने में भी हिन्दुस्तान के राजा-नवाब ऐसे ज़ेवर पहनते रहे हैं।
وَهُدُوٓاْ إِلَى ٱلطَّيِّبِ مِنَ ٱلۡقَوۡلِ وَهُدُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡحَمِيدِ ۝ 23
(24) उनको पाकीज़ा बात क़ुबूल करने की हिदायत दी गई39 और उन्हें तारीफ़ के क़ाबिल ख़ूबियों के मालिक अल्लाह का रास्ता दिखाया गया।40
39. हालाँकि पाकीज़ा बात के अलफ़ाज आम है, मगर मुराद है वह कलिमए-तय्यिबा और सही अक़ीदा जिसको क़ुबूल करने की वजह से वे मोमिन (ईमानवाले) हुए।
40. जैसा कि परिचय में बयान किया गया है, हमारे नज़दीक यहाँ सूरा का वह हिस्सा ख़त्म हो जाता है जो मक्की दौर में उतरा था। इस हिस्से का मज़मून (विषय) और अन्दाज़े-बयान वही है जो मक्की सूरतों का हुआ करता है, और इसमें कोई अलामत भी ऐसी नहीं है जिसकी वजह से यह शक किया जा सके कि शायद यह पूरा हिस्सा, या इसका कोई हिस्सा मदीना में उतरा हो। सिर्फ़ आयत “हाज़ानि ख़स्मानिख़-त-समू फ़ी रब्बिहिम”(ये दोनों फ़रीक़ हैं जिनके बीच अपने रब के मामले में झगड़ा है) के बारे में कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने यह कहा है कि यह आयत मदीना में उतरी है। लेकिन इस बात की बुनियाद सिर्फ़ यह है कि उनके नजदीक़ उन दो फ़रीक़ों (पक्षों) से मुराद बद्र की जंग के दोनों फ़रीक़ हैं, और यह कोई मज़बूत बुनियाद नहीं है। यहाँ मौक़ा-महल में कहीं कोई ऐसी चीज़ नहीं पाई जाती जो इस इशारे को इस जंग के दोनों फ़रीक़ों तरफ़ फेरती हो। अलफ़ाज़ आम हैं और इबारत का मौक़ा-महल कि इससे मुराद कुफ़्र और ईमान के उस आम झगड़े के फ़रीक़ हैं जो शुरू से चला आ रहा है बता रहा है और क़ियामत तक चलता रहेगा। बद्र की जंग के दोनों गरोहों से इसका ताल्लुक़ होता तो इसकी जगह सूरा-8 अनफ़ाल में थी, न कि इस सूरा में और बात के इस सिलसिले में तफ़सीर का यह तरीक़ा अगर सही मान लिया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि क़ुरआन की आयतें बिलकुल बिखरे रूप में उतरीं और फिर उनको बिना किसी जोड़ और मेल के बस यूँ ही जहाँ चाहा लगा दिया गया; हालाँकि क़ुरआन का नज़्मे-कलाम (क्रमबद्धता) ख़ुद इस नज़रिए का सबसे बड़ा रद्द है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ ٱلَّذِي جَعَلۡنَٰهُ لِلنَّاسِ سَوَآءً ٱلۡعَٰكِفُ فِيهِ وَٱلۡبَادِۚ وَمَن يُرِدۡ فِيهِ بِإِلۡحَادِۭ بِظُلۡمٖ نُّذِقۡهُ مِنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 24
(25) जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया41 और जो (आज) अल्लाह के रास्ते से रोक रहे हैं और उस मस्जिदे-हराम की ज़ियारत में रुकावट हैं42 जिसे हमने सब लोगों के लिए बनाया है जिसमें मनामी बाशिन्दों और बाहर से आनेवालों के हक़ बराबर हैं43 (उनका रवैया यक़ीनन सज़ा का हक़दार है)। इस (मस्जिदे-हराम) में जो भी सच्चाई से हटकर ज़ुल्म का तरीक़ अपनाएगा"44 उसे हम दर्दनाक अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
41. यानी मुहम्मद (सल्ल०) की दावत को मानने से इनकार कर दिया। आगे का मज़मून साफ़ बता रहा है कि इनसे मुराद मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ हैं।
42. यानी मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को हज और उमरा नहीं करने देते।
43. यानी जो किसी शख़्स या ख़ानदान या क़बीले की जायदाद नहीं है, बल्कि सबके लिए है और जिसकी ज़ियारत से रोकने का किसी को हक़ नहीं है। यहाँ फ़िक़ही नज़रिए से दो सवाल पैदा होते हैं जिनके बारे में इस्लामी फ़क़ीहों (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के बीच इख़्तिलाफ़ पैदा हुए हैं— एक यह कि 'मस्जिदे-हराम' से मुराद क्या है? सिर्फ़ मस्जिद या पूरा हरमे-मक्का? दूसरा यह कि उसमें 'आकिफ़' (रहनेवाले) और 'बाद' (बाहर से आनेवाले) के हुक़ूक़ बराबर होने का क्या मतलब है? एक गरोह कहता है कि इससे मुराद सिर्फ़ मस्जिद है, न कि पूरा हरम; जैसा कि क़ुरआन के ज़ाहिर अलफ़ाज़़ से मालूम होता है। और उसमें हक़ों के बराबर होने से मुराद इबादत के हक़ में बराबरी है, जैसा कि नबी (सल्ल०) के इस इरशाद से मालूम होता है कि “ऐ अब्दे-मनाफ़ की औलाद, तुममें से जो कोई लोगों के मामलों पर किसी इक़तिदार का मालिक हो, उसे चाहिए कि किसी शख़्स को रात और दिन के किसी वक़्त में भी काबा का तवाफ़ (परिक्रमा) करने या नमाज़ पढ़ने से मना न करे। इस राय को माननेवाले कहते हैं कि मस्जिदे-हराम से पूरा हरम मुराद लेना और फिर वहाँ तमाम हैसियतों से मक़ामी बाशिन्दों और बाहर से आनेवालों के हक़ों को बराबर ठहरा देना ग़लत है, क्योंकि मक्का के मकानों और ज़मीनों पर लोगों की मिलकियत और विरासत के हक़ और ख़रीदने-बेचने और किराया वग़ैरा पर देने के हक़ इस्लाम से पहले मौजूद थे और इस्लाम के बाद भी मौजूद रहे, यहाँ तक कि हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में सफ़वान-बिन-उमैया का मकान मक्का में जेल की तामीर (निर्माण) के लिए चार हज़ार दिरहम में ख़रीदा गया। लिहाज़ा यह बराबरी सिर्फ़ इबादत ही के मामले में है, न कि किसी और चीज़ में यह इमाम शाफ़िई (रह०) और उनके हमख़याल लोगों का कहना है। दूसरा गरोह कहता है कि मस्जिदे-हराम से मुराद पूरा मक्का है। इसकी पहली दलील यह है कि ख़ुद इस आयत में जिस चीज़ पर मक्का के मुशरिकों को मलामत की गई है वह मुसलमानों के हज में रुकावट बनना है, और उनके इस अमल को यह कहकर रद्द किया गया है कि वहाँ सबके हक़ बराबर है। अब यह ज़ाहिर है कि हज सिर्फ़ मस्जिद ही में नहीं होता बल्कि सफ़ा-मरवा से लेकर मिना, मुज़दलफ़ा, अरफ़ात, वे मक़ामात हैं जहाँ हज की रस्में अदा होती हैं। फिर क़ुरआन में एक जगह नहीं, कई जगहों पर मस्जिदे-हराम बोलकर पूरा हरम मुराद लिया गया है। जैसे फ़रमाया, “मस्जिदे-हराम से रोकना और उसके रहनेवालों को वहाँ से निकालना अल्लाह के नज़दीक हराम महीने में जंग करने से बड़ा गुनाह है।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-217) ज़ाहिर है कि यहाँ मस्जिद से नमाज़ पढ़नेवालों को निकालना नहीं, बल्कि मक्का से मुसलमान बाशिन्दों को निकालना मुराद है। दूसरी जगह फ़रमाया, “यह रिआयत उसके लिए है जिसके घरवाले मस्जिदे-हराम के रहनेवाले न हों। (सूरा-2 बक़रा, आयत-196) यहाँ भी मस्जिदे-हराम से मुराद पूरा हरमे-मक्का है, न कि सिर्फ़ मस्जिद। इसलिए 'मस्जिदे-हराम' में बराबरी को सिर्फ़ मस्जिद में बराबरी तक महदूद नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि यह हरमे-मक्का में बराबरी है। फिर यह गरोह कहता है कि यह बराबरी सिर्फ़ इबादत और इज़्ज़त और एहतिराम ही में नहीं है, बल्कि हरमे मक्का में तमाम हक़ों के एतिबार से है। यह सरज़मीन ख़ुदा की तरफ़ से सबके लिए वक़्फ़ है, इसलिए इसपर और इसकी इमारतों पर किसी के मालिकाना हक़ नहीं हैं। हर शख़्स हर जगह ठहर सकता है, कोई किसी को नहीं रोक सकता और न किसी बैठे हुए को उठा सकता है। इसके सुबूत में ये लोग बहुत-सी हदीसें और सहाबा के वाक़िआत पेश करते हैं। मिसाल के तौर पर— अब्दुल्लाह-बिन-उमर की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मक्का मुसाफ़िरों के उतरने की जगह है, न इसकी ज़मीनें बेची जाएँ और न इसके मकान किराए पर चढ़ाए जाएँ।" (आलूसी रूहुल-मआनी, हिस्सा-17, पेज-138) इबराहीम नख़ई की मुरसल रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मक्का को अल्लाह ने हरम ठहरा दिया है, इसकी ज़मीन को बेचना और इसके मकानों का किराया वुसूल करना हलाल नहीं है।” (वाज़ेह रहे कि इबराहीम नख़ई की मुरसल हदीसें मरफ़ूअ के हुक्म में हैं; क्योंकि उनका यह क़ायदा मशहूर है और सब लोग इससे वाक़िफ़ हैं कि जब वे मुरसल रिवायत करते हैं तो दरअस्ल अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) के वास्ते से रिवायत करते हैं) मुजाहिद ने भी लगभग इन्हीं अलफ़ाज़ में एक रिवायत नक़्ल की है। अल्‌क़मा-बिन-नज़ला की रिवायत है कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और अबू-बक्र (रज़ि०), उमर (रज़ि०) और उसमान (रज़ि०) के ज़माने में मक्का की ज़मीनें सवाइब (बंजर ज़मीनें या आम लोगों के लिए वक़्फ़) समझी जाती थीं जिसको ज़रूरत होती वह रहता था और जब ज़रूरत न रहती दूसरे को ठहरा देता था।" अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने हुक्म दे दिया था कि हज के ज़माने में मक्का का कोई शख़्स अपना दरवाज़ा बन्द न करे, बल्कि मुजाहिद की रिवायत तो यह है कि हज़रत उमर (सल्ल०) ने मक्कावालों को अपने मकानों के सेहन खुले छोड़ देने का हुक्म दे रखा था और वे उनपर दरवाज़े लगाने से मना करते थे, ताकि आनेवाला जहाँ चाहे ठहरे। यही रियायत अता की है और ये कहते हैं कि सिर्फ़ सुहैल-बिन-अम्र को हज़रत उमर (रज़ि०) ने सेहन पर दरवाज़े लगाने की इजाज़त दी थी, क्योंकि उनको तिजारती कारोबार के सिलसिले में अपने ऊँट वहाँ बन्द करने होते थे। अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) का कहना कि जो शख़्स मक्का के मकानों का किराया वुसूल करता है वह अपना पेट आग से भरता है। अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का कहना कि अल्लाह ने पूरे हरमे-मक्का को मस्जिद बना दिया है, जहाँ सबके हक़ बराबर हैं। मक्कावालों को बाहरवालों से किराया वुसूल करने का हक़ नहीं है। उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ का फ़रमान मक्का के अमीर (प्रमुख) के नाम है कि मक्का के मकानों पर किराया न लिया जाए; क्योंकि यह हराम है। इन रिवायतों की बुनियाद पर बहुत-से ताबिईन इस तरफ़ गए हैं और फ़क़ीहों में से इमाम मालिक, इमाम अबू-हनीफ़ा, सुफ़ियान सौरी, इमाम अहमद-बिन-हंबल, और इसहाक़-बिन-राहवैह की भी यही राय है कि मक्का की ज़मीन का बेचना, और कम-से-कम हज के ज़माने में मक्का के मकानों का किराया जाइज़ नहीं। अलबत्ता ज़्यादातर फक़ीहों ने मक्का के मकानों पर लोगों की मिलकियत मानी है और उनकी इमारत की हैसियत से, न कि ज़मीन की हैसियत से, बेचने को भी जाइज़ ठहराया है। यही मसलक अल्लाह की किताब (क़ुरआन) और अल्लाह के रसूल की सुन्नत और ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन से ज़्यादा क़रीब मालूम होता है, क्योंकि अल्लाह तआला ने तमाम दुनिया के मुसलमानों पर हज इसलिए फ़र्ज़ नहीं किया है कि यह मक्कावालों के लिए आमदनी का ज़रिआ बने और जो मुसलमान फ़र्ज़ के एहसास से मजबूर होकर वहाँ जाएँ उन्हें वहाँ के ज़मीन-मालिक और मकान-मालिक ख़ूब किराया वुसूल कर-करके लूटें। यह एक वक़्फ़ जायदाद है तमाम ईमानवालों के लिए। उसकी ज़मीन किसी की मिलकियत नहीं है। हर ज़ियारत करनेवाले को हक़ है जहाँ जगह पाए, ठहर जाए।
44. इससे हर वह काम मुराद है जो सच्चाई से हटा हुआ हो और ज़ुल्म कहलाता हो, न कि कोई ख़ास काम। इस तरह के काम अगरचे हर हाल में गुनाह हैं, मगर हरम में उनका करना ज़्यादा सख़्त गुनाह है। आलिमों ने बे-ज़रूरत क़सम खाने तक को हरम में दीन के ख़िलाफ़ कामों में रखा है और इस आयत के तहत माना है। इन आम गुनाहों के सिवा हरम की हुरमत (प्रतिष्ठा) के बारे में जो ख़ास हुक्म हैं उनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी कहाँ ज़्यादा इस हुक्म के तहत आती है। जैसे— हरम के बाहर जिस शख़्स ने किसी को क़त्ल किया हो, या कोई और ऐसा ज़ुर्म किया हो जिसपर हद (सज़ा) लाज़िम आती हो, और फिर वह हरम में पनाह ले ले तो जब तक वह वहाँ रहे उसपर हाथ न डाला जाएगा। हरम की यह हैसियत हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ज़माने से चली आती है, और मक्का की फ़तह के दिन सिर्फ़ कुछ देर के लिए उठाई गई, फिर हमेशा के लिए क़ायम हो गई। क़ुरआन का इरशाद है, “जो उसमें दाख़िल हो गया वह अम्न में आ गया।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-97) हज़रत उमर (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और अदुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का यह कहना भरोसेमन्द रिवायतों में आया है कि अगर हम अपने बाप के क़ातिल को भी वहाँ पाएँ तो उसे हाथ न लगाएँ। (अल-आलूसी की तफ़सीर; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-97) इसी लिए ज़्यादातर ताबिईन और हनफ़ी, हंबली और अहले-हदीस इस बात को मानते हैं कि हरम के बाहर किए हुए जुर्म का क़िसास (ख़ून का बदला) हरम में नहीं लिया जा सकता। (इब्ने-कसीर की तफ़सीर; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-97 और हदीस तिरमिज़ी) वहाँ जंग और ख़ून-ख़राबा हराम है। मक्का की फ़तह के दूसरे दिन जो तक़रीर नबी (सल्ल०) ने की थी उसमें आप (सल्ल०) ने एलान फ़रमा दिया था कि “लोगो, अल्लाह ने मक्का को दुनिया की शुरुआत ही से हराम (प्रतिष्ठित) किया है और यह क़ियामत तक के लिए अल्लाह के हराम करने से हराम है। किसी शख़्स के लिए जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता हो, जाइज़ नहीं है कि यहाँ कोई ख़ून बहाए।” फिर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “अगर मेरी इस जंग को दलील बनाकर कोई शख़्स अपने लिए यहाँ ख़ून-ख़राबे को जाइज़ ठहराए तो उससे कहो कि अल्लाह ने अपने रसूल के लिए इसको जाइज़ किया था, न कि तुम्हारे लिए। और मेरे लिए भी यह सिर्फ़ एक दिन की एक घड़ी के लिए हलाल किया गया था, फिर आज उसका हराम होना उसी तरह क़ायम हो गया, जैसा कल था।” वहाँ के क़ुदरती पेड़ों को नहीं काटा जा सकता, न अपने-आप उगनेवाली घास उखाड़ी जा सकती है, न परिन्दों और दूसरे जानवरों का शिकार किया जा सकता है, और न शिकार के मक़सद से वहाँ के जानवर को भगाया जा सकता है, ताकि हरम के बाहर उसका शिकार किया जाए। इससे सिर्फ़ साँप-बिच्छू और दूसरे तकलीफ़ पहुँचानेवाले जानवर अलग हैं, ख़ुद उग आनेवाली घास से ढेर की गई और सूखी घास अलग की गई है इन बातों के बारे में सही हदीसों में साफ़-साफ़ अहकाम आए हैं। वहाँ की गिरी-पड़ी चीज़ उठाना मना है, जैसा कि अबू-दाऊद में आया है कि “बेशक नबी (सल्ल० ) ने हाजियों की गिरी-पड़ी चीज़ उठाने से मना कर दिया था।" वहाँ जो शख़्स भी हज या उमरे की नीयत से आए यह इहराम के बिना दाख़िल नहीं हो सकता। अलबत्ता इसमें उलमा की राय अलग-अलग है कि दूसरे किसी मक़सद से दाख़िल होनेवाले के लिए भी इहराम बाँधकर जाना ज़रूरी है या नहीं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की राय यह है कि किसी हाल में बिना इहराम के दाख़िल नहीं हो सकते। इमाम अहमद (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) का भी एक-एक क़ौल (कथन) इसी बात की ताईद करता है। दूसरा ख़याल यह कि सिर्फ़ वे लोग इहराम की क़ैद से आज़ाद हैं जिनको बार-बार अपने काम लिए वहाँ जाना-आना पड़ता हो। बाक़ी सबको इहराम बाँधकर जाना चाहिए। यह इमाम अहमद (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) का दूसरा क़ौल (कथन) है तीसरा ख़याल यह कि जो शख़्स मीक़ातों की हदों में रहता हो वह मक्का में बिना इहराम दाख़िल हो सकता है, मगर जो मीक़ात की हदों से बाहर का रहनेवाला हो वह बिना इहराम नहीं जा सकता। यह इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का क़ौल है।
وَإِذۡ بَوَّأۡنَا لِإِبۡرَٰهِيمَ مَكَانَ ٱلۡبَيۡتِ أَن لَّا تُشۡرِكۡ بِي شَيۡـٔٗا وَطَهِّرۡ بَيۡتِيَ لِلطَّآئِفِينَ وَٱلۡقَآئِمِينَ وَٱلرُّكَّعِ ٱلسُّجُودِ ۝ 25
(26) याद करो वह वक़्त जबकि हमने इबराहीम के लिए इस घर (काबा) की जगह की थी (इस हिदायत के साथ) कि “मेरे साथ किसी चीज़ को शरीक न करो, और मेरे घर को तवाफ़ (परिक्रमा) करनेवालों और क़ियाम और रुकू और सजदे करनेवालों लिए पाक रखो,45
45. क़ुरआन के कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने “पाक रखो”पर उस फ़रमान को ख़त्म कर दिया जो इबराहीम (अलैहि०) को दिया गया था और “हज के लिए आम एलान कर दो”का ख़िताब नबी (सल्ल०) की तरफ़ माना है। लेकिन बात का अन्दाज़ बता रहा है कि यह ख़िताब भी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ही की तरफ़ है और उसी हुक्म का एक हिस्सा है जो उनको काबा के बनाने के वक़्त दिया गया था। इसके अलावा बात का मक़सद भी यहाँ यही बताना है कि पहले दिन ही से यह घर एक ख़ुदा की बन्दगी के लिए बनाया गया था और तमाम ख़ुदापरस्तों को यहाँ हज के लिए आने का आम एलान था।
وَأَذِّن فِي ٱلنَّاسِ بِٱلۡحَجِّ يَأۡتُوكَ رِجَالٗا وَعَلَىٰ كُلِّ ضَامِرٖ يَأۡتِينَ مِن كُلِّ فَجٍّ عَمِيقٖ ۝ 26
(27) और लोगों में हज के लिए आम एलान करा दो कि वे तुम्हारे हर दूर-दराज़ जगह से पैदल और ऊँटों46 पर सवार आएँ;47
46. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'जामिर' इस्तेमाल हुआ है जो ख़ास तौर पर दुबले ऊँटों के लिए बोलते है। इसका मक़सद उन मुसाफिरों की तस्वीर खींचना है जो दूर-दराज़ की जगहों से चले आ रहे हों और रास्ते में उनके ऊँट चारा-पानी न मिलने की वजह से दुबले गए हों।
47. यहाँ वह हुक्म ख़त्म होता है जो इब्तिदा में इबराहीम (अलैहि०) को दिया गया और आगे की बात इसपर तशरीह के तौर पर कही गई है। हमारी इस राय की वजह है कि इस कलाम का ख़ातिमा “इस पुराने घर का तवाफ़ करें” पर हुआ जो ज़ाहिर है काबा की तामीर के वक़्त न कहा गया होगा (हज़रत इबराहीम के ज़रिए काबे की तामीर के बारे में और तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयतें—125-129; सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—96, 97; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—35-11)।
لِّيَشۡهَدُواْ مَنَٰفِعَ لَهُمۡ وَيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ فِيٓ أَيَّامٖ مَّعۡلُومَٰتٍ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۖ فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡبَآئِسَ ٱلۡفَقِيرَ ۝ 27
(28) ताकि फ़ायदे देखें जो यहाँ उनके लिए रखे गए हैं48 और कुछ मुक़र्रर दिनों में उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उन्हें दिए हैं49। ख़ुद भी खाएँ और तंगदस्त मुहताज को भी दें,50
48. इससे मुराद सिर्फ़ दीनी फ़ायदे ही नहीं हैं, बल्कि दुनियावी फ़ायदे भी हैं। यह इसी ख़ाना काबा और इसके हज की बरकत थी कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ज़माने से लेकर नबी (सल्ल०) के ज़माने तक ढाई हज़ार साल की मुद्दत में अरबों को एक मर्कज़े-वहदत (एकता-केन्द्र) हासिल रहा जिसने उनकी अरबियत (अरब होने) को क़बाइलियत (क़बाइली होने) में बिलकुल गुम हो जाने से बचाए रखा। उसके मर्कज़ (केन्द्र) से जुड़े होने और हज़ के लिए हर साल देश के तमाम हिस्सों से आते रहने की वजह से उनकी ज़बान एक रही, उनकी तहज़ीब एक रही, उनके अन्दर अरब होने का एहसास बाक़ी रहा और उनको ख़यालात, मालूमात और रहन-सहन के तरीक़ों के फैलाने के मौक़े मिलते रहे। फिर यह भी इसी हज की बरकत थी कि अरब की इस आम बद-अम्नी में कम-से-कम चार महीने ऐसे अम्न के मिल जाते थे जिनमें देश के हर हिस्से का आदमी सफ़र कर सकता था और तिजारती क़ाफ़िले भी ख़ैरियत के साथ गुज़र सकते थे। इसलिए अरब की मआशी (आर्थिक) ज़िन्दगी के लिए भी हज एक रहमत था। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—80, 81; सूरा-5 माइदा, हाशिया-113। इस्लाम के बाद हज के दीनी फ़ायदों के साथ उसके दुनियावी फ़ायदे भी कई गुने ज़्यादा हो गए। पहले वह सिर्फ़ अरब के लिए रहमत था। अब वह सारी दुनिया के अहले-तौहीद (एकेश्वरवादियों) के लिए रहमत हो गया।
49. जानवरों से मुराद मवेशी जानवर हैं, यानी ऊँट, गाय, भेड़, बकरी, जैसा कि सूरा-6 अनआम, आयतें—142-144 में साफ़-साफ़ बयान हुआ है। उनपर अल्लाह का नाम लेने से मुराद अल्लाह के नाम पर और उसका नाम लेकर उन्हें ज़बह करना है, जैसा कि बाद का जुमला ख़ुद बता रहा है। क़ुरआन मजीद में क़ुरबानी के लिए आम तौर पर जानवर पर अल्लाह का नाम लेने के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, और हर जगह इससे मुराद अल्लाह के नाम पर जानवर को ज़बह करना ही है। इस तरह मानो इस हक़ीक़त पर ख़बरदार किया गया है कि अल्लाह का नाम लिए बिना, या अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर जानवर को ज़ब्ह करना ग़ैर-मुस्लिमों और मुशरिकों का तरीक़ा है। मुसलमान जब कभी जानवर को ज़बह करेगा, अल्लाह का नाम लेकर करेगा और जब कभी क़ुरबानी करेगा अल्लाह के लिए करेगा। 'अय्यामिम-मालूमात' (कुछ मुक़र्रर दिनों) से मुराद कौन-से दिन हैं? इसमें उलमा के बीच रायें अलग-अलग हैं। एक क़ौल यह है कि इनसे मुराद अरबी महीने ज़िलहिज्जा के पहले दस दिन हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), हसन बसरी, इबराहीम नख़ई, क़तादा और कई दूसरे सहाबा और ताबिईन से यह बात बयान हुई है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) भी इसी तरफ़ गए हैं। इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद (रह०) का भी एक क़ौल इसी की ताईद में है। दूसरा क़ौल यह है कि इससे मुराद क़ुरबानी का दिन (यानी 10 ज़िलहिज्जा) और इसके बाद के तीन दिन हैं। इसकी ताईद में इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), इबराहीम नख़ई, हसन बसरी और अता के क़ौल पेश किए जाते हैं, और इमाम शाफ़िई (रह०) और अहमद (रह०) से भी एक-एक क़ौल इसके हक़ में मिलता है। तीसरा क़ौल यह है कि इससे मुराद तीन दिन हैं, क़ुरबानी का दिन और दो दिन उसके बाद इसकी ताईद में हज़रत उमर (रज़ि०), अली (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), अबू-हुरैरा (रज़ि०) सईद-बिन-मुसय्यब (रज़ि०) और सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) के क़ौल मिलते हैं। फ़ुक़हा में से सुफ़ियान सौरी (रह०), इमाम मालिक (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) और इमाम मुहम्मद (रह०) ने यही क़ौल अपनाया है और हनफ़ी और मालिकी मसलक में इसी पर फ़तवा है। बाक़ी कुछ शाज़ (इक्का-दुक्का) क़ौल भी हैं। मिसाल के तौर पर किसी ने इन क़ुरबानी के दिनों को खींचकर मुहर्रम की पहली तारीख़ तक पहुँचा दिया है, किसी ने सिर्फ़ क़ुरबानी के दिन तक इसे महदूद कर दिया है, और किसी ने क़ुरबानी के दिन के बाद सिर्फ़ एक दिन और क़ुरबानी का माना है लेकिन ये कमज़ोर क़ौल हैं जिनकी दलील मज़बूत नहीं है।
50. कुछ लोगों ने इस बात का यह मतलब लिया है कि खाना और खिलाना दोनों वाजिब हैं; क्योंकि यह बात हुक्म के अन्दाज़ में कही गई है दूसरा गरोह इस तरफ़ गया है कि खाना मुस्तहब है और खिलाना वाजिब। यह राय इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम मालिक (रह०) की है। तीसरा गरोह कहता है कि खाना और खिलाना दोनों मुस्तहब हैं। खाना इसलिए मुस्तहब है कि जाहिलियत के ज़माने में लोग अपनी क़ुरबानी का गोश्त ख़ुद खाना मना समझते थे, और खिलाना इसलिए पसन्दीदा कि इसमें ग़रीबों की मदद है। यह इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का क़ौल है। इब्ने-जरीर ने हसन बसरी, अता, मुजाहिद और इबराहीम नख़ई के ये क़ौल नक़्ल किए हैं में कि “फ़कुलू मिन्हा (उसमें से खाओ) हुक्म देने के अन्दाज़ से खाने का वाजिब होना साबित नहीं होता। यह बात वैसी ही है जैसे फ़रमाया गया, “जब तुम इहराम की हालत से निकल आओ तो फिर शिकार करो।”(सूरा-5 माइदा, आयत-2) और “फिर जब नमाज़ खत्म हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ।”(सूरा-62 जुमुआ, आवत-10)। इसका यह मतलब नहीं है कि इहराम से निकलकर शिकार करना और जुमे की नमाज़ के बाद ज़मीन में फैल जाना वाजिब है, बल्कि मतलब यह है कि फिर ऐसा करने में कोई चीज़ रुकावट नहीं है। इसी तरह यहाँ भी चूँकि लोग अपनी क़ुरबानी का गोश्त ख़ुद खाने को मना समझते थे, इसलिए कहा गया कि नहीं, उसे खाओ, यानी इसकी कोई मनाही नहीं है। तंगदस्त फ़क़ीर को खिलाने के बारे में जो कहा गया है इसका मतलब यह नहीं है कि ग़नी (मालदार) को नहीं खिलाया जा सकता। दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदार, चाहे मुहताज न हों, फिर भी उन्हें क़ुरबानी के गोश्त में से देना जाइज़ है। यह बात सहाबा किराम (रज़ि०) के अमल से साबित है। अलक़मा का बयान है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने मेरे हाथ क़ुरबानी के जानवर भेजे और हिदायत की कि क़ुरबानी के दिन इन्हें ज़ब्ह करना, ख़ुद भी खाना, मिसकीनों को भी देना और मेरे भाई के घर भी भेजना। इब्ने-उमर (रज़ि०) का भी यही कहना है कि एक हिस्सा खाओ, एक हिस्सा पड़ोसियों को दो और एक हिस्सा मिसकीनों में बाँटो।
ثُمَّ لۡيَقۡضُواْ تَفَثَهُمۡ وَلۡيُوفُواْ نُذُورَهُمۡ وَلۡيَطَّوَّفُواْ بِٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ ۝ 28
(29) फिर अपना मैल-कुचैल दूर करें51 और अपनी नज़्रें (मन्नतें) पूरी करें52 और इस पुराने (प्राचीन) घर का तवाफ़ करें53
51. यानी क़ुरबानी के दिन (10 ज़िलहिज्जा) को क़ुरबानी से निबटकर इहराम खोल दें, हजामत कराएँ, नहाएँ-धोएँ और ये पाबन्दियाँ ख़त्म कर दें जो इहराम की हालत में लागू हो गई थीं। अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तफ़स' इस्तेमाल किया गया है। लुग़त में तफ़स के अस्ल मानी उस ग़ुबार और मैल-कुचल के हैं जो सफ़र में आदमी पर चढ़ जाता है। मगर हज के सिलसिले में जब मैल-कुचल दूर करने का ज़िक्र किया गया है तो इसका मतलब वही लिया जाएगा जो ऊपर बयान हुआ है, क्योंकि हाजी जब तक हज की रस्मों और क़ुरबानी से फ़ारिग़ न हो जाए, वह न बाल कटवा सकता है, न नाख़ुन कटवा सकता है, और न जिस्म की दूसरी सफ़ाई कर सकता है (इस सिलसिले में यह बात जान लेनी चाहिए कि क़ुरबानी से निबटने के बाद दूसरी तमाम पाबन्दियाँ तो ख़त्म हो जाती हैं, मगर बीवी के पास जाना उस वक़्त तक जाइज़ नहीं होता जब तक आदमी तवाफ़े-इफ़ाज़ा यानी तवाफ़े-ज़ियारत न कर ले)।
52. यानी जो नज़्र भी किसी ने इस मौक़े के लिए मानी हो।
53. काबा के लिए 'बैतुल-अतीक़' (पुराना या प्राचीन घर) का लफ़्ज़ अपने अन्दर बड़े मानी रखता है। अतीक़ अरबी ज़बान में तीन मानी के लिए इस्तेमाल होता है। एक पुराना, दूसरे आज़ाद जिसपर किसी की मिलकियत न हो, तीसरे इज़्ज़त और एहतिराम के क़ाबिल। ये तीनों ही मानी इस पाक घर पर बिलकुल फिट बैठते हैं। तवाफ़ से मुराद तवाफ़े-इफ़राज़ा यानी तवाफ़े-ज़ियारत है जो यौमुन-नहर (क़ुरबानी के दिन) को क़ुरबानी करने और इहराम खोल देने के बाद किया जाता है। यह हज के अरकान में से है। और चूँकि मैल-कुचैल दूर करने के हुक्म के फ़ौरन बाद इसका ज़िक्र किया गया है, इसलिए यह कहना इस बात की दलील है कि यह तवाफ़ क़ुरबानी करने और इहराम खोलकर नहा-धो लेने के बाद किया जाना चाहिए।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ حُرُمَٰتِ ٱللَّهِ فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُۥ عِندَ رَبِّهِۦۗ وَأُحِلَّتۡ لَكُمُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡۖ فَٱجۡتَنِبُواْ ٱلرِّجۡسَ مِنَ ٱلۡأَوۡثَٰنِ وَٱجۡتَنِبُواْ قَوۡلَ ٱلزُّورِ ۝ 29
(30) यह था (काबा की तामीर का मक़सद), और जो कोई अल्लाह की क़ायम की हुई पाबन्दियों का एहतिराम करे तो यह उसके रब के नज़दीक ख़ुद उसी के लिए बेहतर है।54 और तुम्हारे लिए मवेशी जानवर हलाल किए गए,55 सिवाय उन चीज़ों के जो तुम्हें बताई जा चुकी हैं।56 तो बुतों की गन्दगी से बचो,57 झूठी बातों से परहेज़ करो,58
54. बज़ाहिर यह एक आम नसीहत है जो अल्लाह की क़ायम की हुई तमाम पाबन्दियों का एहतिराम करने के लिए की गई है, मगर बयान के इस सिलसिले में वे पाबन्दियों पहले दरजे में मुराद हैं जो मस्जिदे-हराम और हज, उमरे और हरमे-मक्का के मामले में क़ायम की गई हैं। साथ ही इसमें एक हलका इशारा इस तरफ़ भी है कि क़ुरैश ने हरम से मुसलमानों को निकालकर और उनपर हज का रास्ता बन्द करके और हज की रस्मों में मुशरिकाना और जाहिलाना रस्में मिलाकर और बैतुल्लाह में शिर्क की गन्दगी दाख़िल करके उन बहुत सी पाबन्दियों को तोड़ डाला है जो इबराहीम (अलहि०) के वक़्त से क़ायम कर दी गई थीं।
55. इस मौक़े पर मवेशी जानवरों के हलाल (जाइज़) होने का ज़िक्र करने का मक़सद दो ग़लत-फ़हमियों को दूर करना है। एक यह कि क़ुरैश और अरब के मुशरिक लोग बहीरा, साइबा, वसीला और हाम को भी अल्लाह की क़ायम की हुई पाबन्दियों में गिनते थे। इसलिए कहा गया कि ये उसकी क़ायम की हुई पाबन्दियाँ नहीं हैं, बल्कि उसने तमाम मवेशी जानवर हलाल किए हैं। दूसरे यह कि इहराम की हालत में जिस तरह शिकार हराम है, उस तरह कहीं यह न समझ लिया जाए कि मवेशी जानवरों को ज़बह करना और उनको खाना भी हराम है इसलिए बताया गया कि ये अल्लाह की क़ायम की हुई पाबन्दियों में से नहीं है।
56. इशारा है उस हुक्म की तरफ़ जो सूरा-6 अनआम और सूरा-16 नह्ल में आया है कि “अल्लाह ने जिन चीज़ों को हराम किया है वे हैं मुरदार, और बहाया हुआ ख़ून, और सूअर का गोश्त और वे जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़बह किया जाए।” (सूरा-6 अनआम, आयत-145; सूरा-16 नह्ल, आयत-115)
57. यानी बुतों की पूजा से इस तरह बचो जैसे गन्दगी से आदमी घिन खाता है और दूर हटता है। मानो कि वे गन्दगी से भरे हुए हैं और क़रीब जाते ही आदमी उनसे गन्दा और नापाक हो जागगा।
58. हालाँकि अलफ़ाज़ आम हैं, और उनसे हर झूठ, बोहतान और झूठी गवाही का हराम होना साबित होता है, मगर बात के इस सिलसिले में ख़ास तौर पर इशारा उन ग़लत अक़ीदों और हुक्मों और रस्मों और वहमों की तरफ़ है जिनपर कुफ़्र और शिर्क की बुनियाद है। अल्लाह के साथ दूसरों को शरीक ठहराना और उसकी हस्ती सिफ़ात, अधिकारों और हक़ों में उसके बन्दों को हिस्सेदार बनाना वह सबसे बड़ा झूठ है जिससे यहाँ मना किया गया है और फिर वह झूठ भी सीधे तौर पर इस हुक्म की चपेट में है जिसकी वजह से अरब के मुशरिक लोग बहीरा, साइबा और हाम वग़ैरा को हराम ठहराते थे, जैसा कि सूरा-16 नह्ल में कहा गया, “और यह जो तुम्हारी ज़बानें झूठे हुक्म लगाया करती हैं कि यह हलाल है और वह हराम तो इस तरह के हुक्म लगाकर अल्लाह पर झूठ न बाँधो।”(आयत-116) इसके साथ झूठी क़सम और झूठी गवाही भी इसी हुक्म के तहत आती है, जैसा कि सही हदीसों में नबी (सल्ल०) से रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “झूठी गवाही अल्लाह के साथ शिर्क के बराबर रखी गई है।”और फिर आप (सल्ल०) ने सुबूत में यही आयत पेश की। इस्लामी क़ानून में वह जुर्म सज़ा के क़बिल है। इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम मुहम्मद (रह०) का फ़तवा यह है कि जो शख़्स अदालत में झूठा गवाह साबित हो जाए, उसकी सब तरफ़ चर्चा की जाए और लम्बी क़ैद की सज़ा दी जाए। यही हज़रत उमर (रज़ि०) का क़ौल है और अमल भी। मकहूल की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “उसकी पीठ पर कोड़े मारे जाएँ, उसका सर मुंडा जाए और मुँह काला किया जाए और लम्बी क़ैद की सज़ा दी जाए।”अब्दुल्लाह-बिन-आमिर अपने बाप से रिवायत करते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) की अदालत में एक शख़्स की झूठी गवाही साबित हो गई तो उन्होंने उसको एक दिन सबके सामने खड़ा रखकर एलान कराया कि यह फ़ुलाँ का बेटा फ़ुलाँ झूठा गवाह है, इसे पहचान लो, फिर उसको क़ैद कर दिया मौजूदा ज़माने में ऐसे शख़्स का नाम अख़बारों में निकाल देना चर्चा करने के मक़सद को पूरा कर सकता है
حُنَفَآءَ لِلَّهِ غَيۡرَ مُشۡرِكِينَ بِهِۦۚ وَمَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَكَأَنَّمَا خَرَّ مِنَ ٱلسَّمَآءِ فَتَخۡطَفُهُ ٱلطَّيۡرُ أَوۡ تَهۡوِي بِهِ ٱلرِّيحُ فِي مَكَانٖ سَحِيقٖ ۝ 30
(31) यकसू होकर अल्लाह के बन्दे बनो। उसके साथ किसी को शरीक न करो। और जो कोई अल्लाह के साथ शिर्क करे तो मानो वह आसमान से गिर गया। अब या तो उसे परिन्दे उचक ले जाएँगे या हवा उसको ऐसी जगह ले जाकर फेंक देगी जहाँ उसके चीथड़े उड़ जाएँगे।59
59. इस मिसाल में आसमान से मुराद है इनसान की फ़ितरी हालत जिसमें वह एक ख़ुदा के सिवा किसी का बन्दा नहीं होता और तौहीद के सिवा उसकी फ़ितरत किसी और मज़हब को नहीं जानती। अगर इनसान नबियों की दी हुई रहनुमाई क़ुबूल कर ले तो वह इसी फ़ितरी हालत पर इल्म और सूझ-बूझ के साथ क़ायम हो जाता है, और आगे उसकी उड़ान और ज़्यादा बुलन्दियों ही की तरफ़ होती है, न कि पस्तियों की तरफ। लेकिन शिर्क (और सिर्फ़ शिर्क ही नहीं, नास्तिकता भी) अपनाते ही वह अपनी फ़ितरत के आसमान से यकायक गिर पड़ता है और फिर उसको दो सूरतों में से ज़रूर ही एक सूरत का सामना करना पड़ता है। एक यह कि शैतान और गुमराह करनेवाले इनसान जिनको इस मिसाल में शिकारी परिन्दे कहा गया है, उसकी तरफ़ झपटते हैं और हर एक उसे उचक ले जाने की कोशिश करता है। दूसरी यह कि उसकी अपनी मन की ख़ाहिशें और उसके अपने जज़बात और ख़यालात जिनकी मिसाल हवा से दी गई है, उसे उड़ाए-उड़ाए लिए फिरते हैं और आख़िरकार उसको किसी गहरे खड्ड में ले जाकर फेंक देते हैं। अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सहीक़’इस्तेमाल हुआ है 'सहीक़' का लफ़्ज़ 'सहक़' से निकला है जिसका अस्ल मतलब पीसना है। किसी जगह को सही उस सूरत में कहेंगे जबकि वह इतनी गहरी हो कि जो चीज़ उसमें गिरे वह चूर-चूर हो जाए। यहाँ ख़यालात और अख़लाक़ की पस्ती की मिसाल उस गहरे खड्ड से दी गई है जिसमें गिरकर आदमी के पुर्ज़े उड़ जाएँ।
ذَٰلِكَۖ وَمَن يُعَظِّمۡ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ فَإِنَّهَا مِن تَقۡوَى ٱلۡقُلُوبِ ۝ 31
(32) यह है अस्ल मामला (इसे समझ लो), और जो अल्लाह के मुक़र्रर किए 'शआइर' (निशानियों)60 का एहतिराम करे तो यह दिलों के तक़वा (परहेज़गारी) से है।61
60. यानी ख़ुदापरस्ती की निशानियाँ, चाहे वे आमाल (कर्म) हों जैसे नमाज़ रोज़ा, हज वग़ैरा, या चीज़ें हों जैसे मस्जिद और क़ुरबानी के ऊँट वग़ैरा। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-5 माइदा, हाशिया-5।
61. यानी यह एहतिराम दिल के तक़वा (परहेज़गारी) का नतीजा है और इस बात की निशानी है कि आदमी के दिल में कुछ-न-कुछ ख़ुदा का डर है, तभी तो वह उसकी निशानियों का एहतिराम कर रहा है। दूसरे लफ़्ज़ों में, अगर कोई शख़्स जान-बूझकर अल्लाह की निशानियों की तौहीन करे तो यह इस बात का खुला सुबूत है कि उसका दिल ख़ुदा के डर से ख़ाली हो चुका है, या तो वह ख़ुदा को सिरे से मानता ही नहीं, या मानता है तो उसके मुक़ाबले में बग़ावत का रवैया अपनाने पर उतर आया है।
لَكُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى ثُمَّ مَحِلُّهَآ إِلَى ٱلۡبَيۡتِ ٱلۡعَتِيقِ ۝ 32
(33) तुम्हें एक मुक़र्रर वक़्त तक उन (क़ुरबानी के जानवरों) से फ़ायदा उठाने का हक़ हैं,62 फिर उन (के क़ुर्बान करने) की जगह इसी पुराने घर के पास है।63
62. पहली आयत में अल्लाह की निशानियों के एहतिराम का आम हुक्म देने और उसे दिल के तक़वा की अलामत ठहराने के बाद यह जुमला एक ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए कहा गया है। अल्लाह की निशानियों में क़ुरबानी के जानवर भी दाख़िल हैं, जैसा कि अरब के लोग मानते थे और क़ुरआन ख़ुद भी आगे चलकर कहता है कि “और इन क़ुरबानी के ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह के शाइर (निशानियों) में शामिल किया है। अब सवाल पैदा होता है कि अल्लाह के शआइर के एहतिराम का जो हुक्म ऊपर दिया गया है, क्या उसका तक़ाज़ा यह है कि क़ुरबानी के जानवरों को बैतुल्लाह (काबा) की तरफ़ जब ले जाने लगे तो उनको किसी तरह भी इस्तेमाल न किया जाए। उनपर सवारी करना, या सामान लादना, या उनके दूध पीना अल्लाह की निशानियों के एहतिराम के खिलाफ़ तो नहीं है। अरब के लोगों का यही ख़याल या। चुनाँचे वे उन जानवरों को बिलकुल कोतल (बिना किसी सवारी के) ले जाते थे। रास्ते में उनसे किसी तरह का फ़ायदा उठाना उनके नज़दीक गुनाह था। इसी ग़लत-फ़हमी को दूर करने के लिए यहाँ कहा जा रहा है कि क़ुरबानी की जगह पहुँचने तक तुम उन जानवरों से फ़ायदा उठा सकते हो, ऐसा करना अल्लाह की निशानियों के एहतिराम के ख़िलाफ़ नहीं है। यही बात उन हदीसों से मालूम होती है जो इस मसले में हज़रत अबू-हरैरा (रज़ि०) और हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं। उनमें बयान हुआ है कि नबी (सल्ल०) ने देखा कि एक शख़्स ऊँट की रस्सी थामे पैदल चला जा रहा है और सख़्त तकलीफ़ में है आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसपर सवार हो जा।”उसने अर्ज़ किया, “यह क़ुरबानी का ऊँट है।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अरे, सवार हो जा।" क़ुरआन के आलिमों में से इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा, मुजाहिद, ज़ह्हाक और अता ख़ुरासानी इस तरफ़ गए हैं कि इस आयत में “एक मुक़रर्र वक़्त तक”से मुराद “जब तक कि जानवर को क़ुरबानी के लिए नामज़द और क़ुरबानी का नाम न दे दिया जाए”है। इस तफ़सीर के मुताबिक़ आदमी उन जानवरों से सिर्फ़ उस वक़्त तक फ़ायदा उठा सकता है जब तक कि वह उसे क़ुरबानी का नाम न दे दे। और ज्यों ही वह उसे क़ुरबानी का जानवर बनाकर बैतुल्लाह ले जाने की नीयत करे, फिर उसे कोई फ़ायदा उठाने का हक़ नहीं रहता। लेकिन यह तफ़सीर किसी तरह सही नहीं मालूम होती। अव्वल तो इस सूरत में इस्तेमाल और फ़ायदा उठाने की इजाज़त देना ही बे-मतलब है। क्योंकि 'क़ुरबानी' के सिवा दूसरे जानवरों से फ़ायदा उठाने या न उठाने के बारे में कोई शक पैदा ही कब हुआ था कि उसे इजाज़त के ज़रिए से खोलकर बयान करके दूर करने की ज़रूरत पड़ती। फिर आयत साफ़ तौर पर कह रही है कि इजाज़त उन जानवरों के इस्तेमाल की दी जा रही है जिन्हें 'अल्लाह की निशानियाँ’ कहा जा सकता हो, और ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ इसी सूरत में हो सकता है जबकि उन्हें क़ुरबानी का जानवर ठहरा दिया जाए। क़ुरआन के दूसरे आलिम जैसे उरवा-बिन-ज़ुबैर और अता-बिन-अबी-रबाह कहते हैं कि “मुक़र्रर वक़्त”से मुराद “क़ुरबानी का वक़्त”है। क़ुरबानी से पहले क़ुरबानी के जानवरों को सवारी के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं, उनके दूध भी पी सकते हैं, उनके बच्चे भी ले सकते हैं और उनका ऊन, सूफ़, बाल वग़ैरा भी उतार सकते हैं। इमाम शाफ़िई (रह०) ने इसी तफ़सीर को इख़्तियार किया है। हनफ़ी मसलक को माननेवाले फ़क़ीह अगरचे पहली तफ़सीर को मानते हैं, लेकिन वे इसमें इतनी गुंजाइश निकाल देते हैं कि ज़रूरत के मुताबिक़ फ़ायदा उठाना जाइज़ है।
63. जैसा कि क़ुरआन में दूसरी जगह फ़रमाया, “(जानवर का) यह नज़राना काबा पहुँचाया जाएगा।” (सूरा-5 माइदा, आयत-95) इससे मुराद यह नहीं है कि काबा पर या मस्जिदे-हराम में क़ुरबानी की जाए, बल्कि हरम की हदों में क़ुरबानी करना मुराद है। यह एक और दलील है इस बात की कि क़ुरआन काबा या बैतुल्लाह या मस्जिदे-हराम बोलकर आम तौर से हरमे-मक्का मुराद लेता है, न कि सिर्फ़ वह इमारत।
وَلِكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكٗا لِّيَذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَىٰ مَا رَزَقَهُم مِّنۢ بَهِيمَةِ ٱلۡأَنۡعَٰمِۗ فَإِلَٰهُكُمۡ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ فَلَهُۥٓ أَسۡلِمُواْۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُخۡبِتِينَ ۝ 33
(34) हर उम्मत (समुदाय) के लिए हमने क़ुरबानी का एक क़ायदा तय कर दिया है; ताकि (उस उम्मत के) लोग उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उनको दिए है64 (इन अलग-अलग तरीक़ों के अन्दर मक़सद एक ही है) तो तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है और उसी के तुम फ़रमाँबरदार बनो। और ऐ नबी, ख़ुशख़बरी दे दो आजिज़ाना रविश (विनम्र रवैया) अपनानेवालों को,65
64. इस आयत से दो बातें मालूम हुई। एक यह कि क़ुरबानी अल्लाह की तमाम शरीअतों के इबादती निज़ाम (व्यवस्था) का एक लाज़िमी हिस्सा रही है। इबादत में तौहीद के बुनियादी तक़ाज़ों में से एक यह भी है कि इनसान ने जिन-जिन सूरतों से अल्लाह को छोड़कर दूसरों की बन्दगी की है, उन सबको दूसरों के लिए मना करके सिर्फ़ अल्लाह के लिए ख़ास कर दिया जाए। मिसाल के तौर पर इनसान ने दूसरों के आगे रुकू और सजदे किए हैं। अल्लाह की शरीअतों ने इसे अल्लाह के लिए ख़ास कर दिया। इनसान ने अल्लाह को छोड़कर दूसरों के आगे माली नज़राने पेश किए हैं। अल्लाह की शरीअतों ने इन्हें मना करके ज़कात और सदक़ा अल्लाह के लिए वाजिब कर दिया। इनसान ने झूठे माबूदों की तीर्थयात्रा की है। अल्लाह की शरीअतों ने किसी-न-किसी मक़ाम को मक़दिस या बैतुल्लाह ठहराकर उसकी ज़ियारत और तवाफ़ (परिक्रमा) का हुक्म दे दिया। इनसान ने दूसरों के नाम के रोज़े रखे हैं। अल्लाह की शरीअतों ने उन्हें भी अल्लाह के लिए ख़ास कर दिया। ठीक इसी तरह इनसान अपने ख़ुद के गढ़े माबूदों के लिए जानवरों की क़ुरबानियाँ भी करता रहा है और अल्लाह की शरीअतों ने उनको भी दूसरों के लिए बिलकुल हराम और अल्लाह के लिए वाजिब कर दिया। दूसरी बात इस आयत से यह मालूम हुई कि अस्ल चीज़ अल्लाह के नाम पर क़ुरबानी है, न कि इस क़ायदे की ये तफ़सीलात कि क़ुरबानी कब की जाए और कहाँ की जाए और किस तरह की जाए। इन तफ़सीलात में अलग-अलग ज़मानों और अलग-अलग क़ौमों और देशों के नबियों की शरीअतों में हालात के लिहाज़ से फ़र्क़ रहे हैं, मगर सबकी रूह और सबका मक़सद एक ही रहा है।
65. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुख़बितीन' इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब किसी एक लफ़्ज़ से पूरी तरह अदा नहीं होता। इसमें तीन मतलब शामिल है। घमण्ड और ग़ुरूरे-नफ़्स (अहंकार) को छोड़कर अल्लाह के मुक़ाबले में इज्ज़ (विनम्रता) अपनाना उसकी बन्दगी और ग़ुलामी पर मुत्मइन हो जाना, उसके फ़ैसलों पर राज़ी हो जाना।
ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَجِلَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ عَلَىٰ مَآ أَصَابَهُمۡ وَٱلۡمُقِيمِي ٱلصَّلَوٰةِ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 34
(35) जिनका हाल यह है कि अल्लाह का ज़िक्र सुनते हैं तो उनके दिल काँप उठते हैं, जो मुसीबत भी उनपर आती है उसपर सब्र करते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, और जो कुछ रोज़ी हमने उनको दी है उसमें से ख़र्च करते हैं।66
66. इससे पहले हम इस बात को साफ़ तौर पर बयान कर चुके हैं कि अल्लाह ने कभी हराम और नापाक माल को अपना रिज़्क़ नहीं कहा है इसलिए आयत का मतलब यह है कि जो पाक रोज़ी हमने उन्हें दी है और जो हलाल कमाइयाँ उनको दी हैं, उनमें से वे ख़र्च करते हैं। फिर ख़र्च से मुराद भी हर तरह का ख़र्च नहीं है, बल्कि अपनी और अपने घरवालों की जाइज़ ज़रूरतें पूरी करना, रिश्तेदारों और पड़ोसियों और ज़रूरतमन्द लोगों की मदद करना, समाज सेवा के कामों में हिस्सा लेना और अल्लाह का बोलबाला करने के लिए माली क़ुरबानी देना मुराद है। फ़ुज़ूलख़र्ची और ऐशो-इशरत के ख़र्च, और दिखावे का ख़र्च वह चीज़ नहीं है जिसे क़ुरआन 'इन्‌फ़ाक़' (अल्लाह के रास्ते में ख़र्च) क़रार देता हो, बल्कि यह उसकी ज़बान में फ़ुज़ूलख़र्ची है। इसी तरह कंजूसी और तंगदिली के साथ जो ख़र्च किया जाए कि आदमी अपने बाल-बच्चों को भी तंग रखे, ख़ुद भी अपनी हैसियत के मुताबिक़ अपनी ज़रूरतें पूरी न करे और अल्लाह के बन्दों की मदद भी अपनी हैसियत के मुताबिक़ करने से जी चुराए तो इस सूरत में अगरचे आदमी ख़र्च तो कुछ-न-कुछ करता ही है, मगर क़ुरआन की ज़बान में इस ख़र्च का नाम 'इन्‌फ़ाक़' नहीं है। वह इसको 'कंजूसी' और 'दिल की तंगी' कहता है।
وَٱلۡبُدۡنَ جَعَلۡنَٰهَا لَكُم مِّن شَعَٰٓئِرِ ٱللَّهِ لَكُمۡ فِيهَا خَيۡرٞۖ فَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا صَوَآفَّۖ فَإِذَا وَجَبَتۡ جُنُوبُهَا فَكُلُواْ مِنۡهَا وَأَطۡعِمُواْ ٱلۡقَانِعَ وَٱلۡمُعۡتَرَّۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرۡنَٰهَا لَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 35
(36) और (क़ुरबानी के) ऊँटों67 को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह के 'शआइर' में शामिल किया है, तुम्हारे लिए उनमें भलाई है68 तो उन्हें खड़ा करके69 उनपर अल्लाह का नाम लो,70 और जब (क़ुरबानी के बाद) उनकी पीठें ज़मीन पर टिक जाएँ71 तो उनमें से ख़ुद भी खाओ और उनको भी खिलाओ जो क़नाअत (सन्तोष) किए बैठे हैं और उनको भी जो अपनी ज़रूरत पेश करें। इन जानवरों को हमने इस तरह तुम्हारे मातहत किया है, ताकि तुम शुक्रिया अदा करो।72
67. अस्त अरबी में लफ़्ज़ 'बुद्न' इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में ऊँटों के लिए ख़ास है। मगर नबी (सल्ल०) ने क़ुरबानी के हुक्म में गाय को भी ऊँटों के साथ शामिल कर दिया है। जिस तरह एक ऊँट की क़ुरबानी सात आदमियों के लिए काफ़ी होती है, उसी तरह एक गाय की क़ुरबानी भी सात आदमी मिलकर कर सकते हैं। सहीह मुस्लिम में जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह की रिवायत है कि “अल्लाह के रसूल ने हमको हुक्म दिया कि हम क़ुरबानियों में शरीक हो जाया करें, ऊँट सात आदमियों के लिए और गाय सात आदमियों के लिए।"
68. यानी तुम उनसे बहुत फ़ायदे उठाते हो। यह इशारा है इस बात की तरफ़ कि तुम्हें उनकी क़ुरबानी क्यों करनी चाहिए। आदमी ख़ुदा की दी हुई जिन-जिन चीज़ों से फ़ायदा उठाता है, उनमें से हर एक की क़ुरबानी उसको अल्लाह के नाम पर करनी चाहिए, न सिर्फ़ नेमत के शुक्र के लिए बल्कि अल्लाह के सबसे बढ़कर होने और मालिक होने को मानने के लिए भी, ताकि आदमी दिल में भी और अमल से भी इस बात को क़ुबूल करे कि यह सब कुछ ख़ुदा का है जो उसने हमें दिया है। ईमान और इस्लाम नफ़्स (मन) की क़ुरबानी है। नमाज़ और रोज़ा जिस्म और ताक़तों की क़ुरबानी है। ज़कात उन मालों की क़ुरबानी है जो अलग-अलग शक्लों में हमको अल्लाह ने दिए हैं। जिहाद वक़्त और ज़ेहनी और जिस्मानी सलाहियतों की क़ुरबानी है। क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह (अल्लाह के रास्ते में लड़ना) जान की क़ुरबानी है। ये सब एक-एक तरह की नेमत और एक-एक देन के शुक्रिए हैं। इसी तरह जानवरों की क़ुरबानी भी हमपर आइद की गई है, ताकि हम अल्लाह तआला की इस अज़ीमुश्शान नेमत पर उसका शुक्र अदा करें और उसकी बड़ाई मानें कि उसने अपने पैदा किए हुए बहुत-से जानवरों को हमारे लिए हमारी ख़िदमत में लगा दिया, जिनपर हम सवार होते हैं, जिनसे खेती-बाड़ी और बोझ ढोने का काम लेते हैं, जिनके गोश्त खाते हैं, जिनके दूध पीते हैं, जिनकी खालों और बालों और ख़ून और हड्डी, ग़रज़ एक-एक चीज़ से बे-हिसाब फ़ायदे उठाते हैं।
69. वाज़ेह रहे कि ऊँट की क़ुरबानी उसको खड़ा करके की जाती है। उसका एक पाँव बाँध दिया जाता है, फिर उसकी गर्दन में हलक़ के पास ज़ोर से नेज़ा मारा जाता है, जिससे ख़ून का एक फ़वारा निकल पड़ता है, फिर जब काफ़ी ख़ून निकल जाता है तब ऊँट ज़मीन पर गिर पड़ता है। यही मतलब है ‘सवाफ़' (खड़ा करके) का। इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, ज़ह्हाक वग़ैरा ने इसकी यही तशरीह की है, बल्कि नबी (सल्ल०) के हवाले से भी यही साबित है। चुनाँचे बुख़ारी और मुस्लिम में रिवायत है कि इब्ने-उमर ने एक शख़्स को देखा जो अपने ऊँट को बिठाकर क़ुरबानी कर रहा था। इसपर उन्होंने कहा, “इसको पाँव बाँधकर खड़ा कर, यह है अबुल-क़ासिम (नबी सल्ल०) की सुन्नत। अबू-दाऊद में जाबिर-दिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के सहाबा ऊँट का बायाँ पाँव बाँधकर बाक़ी तीन पाँवों पर उसे खड़ा करते थे, फिर उसको नहर (ज़बह) करते थे। इसी मतलब की तरफ़ ख़ुद क़ुरआन भी इशारा कर रहा है, “जब उनकी पीठें ज़मीन पर टिक जाएँ यह उसी सूरत में बोलेंगे, जबकि जानवर खड़ा हो और फिर ज़मीन पर गिरे। वरना लिटाकर क़ुरबनी करने की सूरत में तो पीठ वैसे ही टिकी हुई होती है।
70. ये अलफ़ाज़़ फिर इस बात की दलील हैं कि अल्लाह का नाम लिए बिना ज़ब्ह करने से कोई जानवर हलाल नहीं होता, इसलिए अल्लाह ताआला उनको “ज़ब्ह करो”कहने के बजाय “उनपर अल्लाह का नाम लो”फ़रमा रहा है, और मतलब इसका जानवरों को ज़ब्ह करना है। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात निकलती है कि इस्लामी शरीअत में जानवर ज़ब्ह करने का कोई तसव्वुर (धारणा) अल्लाह का नाम लेकर ज़ब्ह करने के सिवा नहीं है। ज़ब्ह करते वक़्त “बिसमिल्लाहि अल्लाहु-अकबर”कहने का तरीक़ा भी इसी जगह से लिया गया है। आयत-36 में फ़रमाया, “उनपर अल्लाह का नाम लो।”और आयत-37 में फ़रमाया, “ताकि अल्लाह की दी हुई हिदायत पर तुम उसकी बड़ाई बयान करो।”क़ुरबानी करते वक़्त अल्लाह का नाम लेने की अलग-अलग शक्लें हदीसों में लिखी हैं। मसलन (1) “बिसमिल्लाहि वल्लाहु-अकबर अल्लाहुम-म मिन-क व-ल-क”(अल्लाह के नाम के साथ, और अल्लाह सबसे बड़ा है। ऐ अल्लाह, तेरा ही माल है और तेरे ही लिए हाज़िर है)। (2) अल्लाहु-अकबर ला-इला-ह इल्लल्लाहु अल्ला-हुम्म मिन-क व ल-क। (अल्लाह सबसे बड़ा है, अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लाइक़ नहीं। ऐ अल्लाह तेरा ही माल है और तेरे ही लिए हाज़िर है)। (3) “इन्नी वज्जहतु वजहि-य लिल्लज़ी फ़-तरस-समावाति वल अर-ज़ हनीफ़ौं व मा अना मिनल मुशरिकीन। इन-न सलाती व नुसुकी व महया-य व ममाती लिल्लाहि रब्बिल आलमीन। ला शरी-क लहू व बिज़ालि-क उमिरतु व अना मिनल मुसलिमीन। अल्लाहुम-म मिन क व-ल-क।” (मैंने यकसू होकर अपना रुख़ उस ज़ात की तरफ़ कर लिया जिसने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया है, और मैं मुशरिकों में से नहीं हूँ। बेशक मेरी नमाज़ और क़ुरबानी और मेरा मरना और जीना सब अल्लाह, तमाम जहानों के मालिक, के लिए है, उसका कोई साझी नहीं इसी का मुझे हुक्म दिया गया है और में फ़रमाँबरदारी में सर झुका देनेवालों में से हैं। ऐ अल्लाह, तेरा ही माल है और तेरे ही लिए हाज़िर है)।
71. टिकने का मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि वे ज़मीन पर गिर जाएँ, बल्कि यह भी है कि वे गिरकर ठहर जाएँ, यानी तड़पना बन्द कर दें और जान पूरी तरह निकल जाए अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और मुसनद अहमद में नबी (सल्ल०) का यह इरशाद बयान है कि “जानवर से जो गोश्त इस हालत में काटा जाए कि अभी वह जिन्दा हो, वह मुरदार है।"
72. यहाँ फिर इशारा है इस बात की तरफ़ कि क़ुरबानी का हुक्म क्यों दिया गया है फ़रमाया, इसलिए कि वह शुक्रिया है उस अज़ीमुश्शान नेमत का जो अल्लाह ने मवेशी जानवरों को तुम्हारी ख़िदमत के काम में लगाकर तुम्हें दी है।
لَن يَنَالَ ٱللَّهَ لُحُومُهَا وَلَا دِمَآؤُهَا وَلَٰكِن يَنَالُهُ ٱلتَّقۡوَىٰ مِنكُمۡۚ كَذَٰلِكَ سَخَّرَهَا لَكُمۡ لِتُكَبِّرُواْ ٱللَّهَ عَلَىٰ مَا هَدَىٰكُمۡۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 36
(37) न उनके गोश्त अल्लाह को पहुँचते हैं, न ख़ून; मगर उसे तुम्हारा तक़वा पहुँचता है।73 उसने उनको तुम्हारे इस तरह मातहत किया है, ताकि उसकी दी हुई हिदायत पर तुम उसकी बड़ाई बयान करो।74 और ऐ नबी, ख़ुशख़बरी दे दो भले काम करनेवालों को।
73. जाहिलियत के ज़माने में अरब के लोग जिस तरह बुतों के नाम पर की गई क़ुरबानी का गोश्त बुतों पर ले जाकर चढ़ाते थे, उसी तरह अल्लाह के नाम की क़ुरबानी का गोश्त काबा के सामने लाकर रखते और ख़ून उसकी दीवारों पर लथेड़ते थे। उनके नज़दीक यह क़ुरबानी मानो इसलिए की जाती थी कि अल्लाह के सामने उसका ख़ून और गोश्त पेश किया जाए। इस जहालत का परदा चाक करते हुए फ़रमाया कि अस्ल चीज़ जो अल्लाह के सामने पेश होती है वह जानवर का ख़ून और गोश्त नहीं, बल्कि तुम्हारा तक़वा है। अगर तुम नेमत के शुक्र के जज़्बे की वजह से ख़ालिस नीयत के साथ सिर्फ़ अल्लाह के लिए क़ुरबानी करोगे तो इस जज़्बे और नीयत और ख़ुलूस (निष्ठा) का नज़राना उसके सामने पहुँच जाएगा, वरना ख़ून और गोश्त यहीं धरा रह जाएगा। यही बात है जो हदीस में नबी (सल्ल०) के हवाले से लिखी है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तुम्हारी सूरतें और तुम्हारे रंग नहीं देखता, बल्कि तुम्हारे दिल और आमाल देखता है।”
74. यानी दिल से उसकी बड़ाई और बरतरी मानो और अमल से इसका एलान और इज़हार करो। फिर यह हुक्म क़ुरबानी के मक़सद और वजह की तरफ़ इशारा है। क़ुरबानी सिर्फ़ इसी लिए वाज़िब नहीं की गई है कि यह जानवरों को ख़िदमत पर लगाने की नेमत पर अल्लाह का शुक्रिया है, बल्कि इसलिए भी वाजिब की गई है कि जिसके ये जानवर हैं और जिसने इन्हें हमारी ख़िदमत में लगाया है, उसके मालिकाना हुक़ूक़ को हम दिल से भी और अमल से भी मानें, ताकि हमें कभी यह भूल न हो जाए कि यह सब कुछ हमारा अपना माल है। इसी बात को वह जुमला अदा करता है जो क़ुरबानी करते वक़्त कहा जाता है कि “अल्लाहुम-म मिन-क व-ल-क”(ऐ अल्लाह, तेरा ही माल है और तेरे ही लिए हाज़िर है)। यहाँ यह जान लेना चाहिए कि इस पैराग्राफ़ में क़ुरबानी का जो हुक्म दिया गया है वे सिर्फ़ हाजियों ही के लिए नहीं है, और सिर्फ़ मक्का में हज ही के मौक़े पर अदा करने के लिए नहीं है, बल्कि तमाम हैसियतवाले मुसलमानों के लिए आम है, जहाँ भी वे हों, ताकि वे जानवरों को ख़िदमत पर लगाए जाने की नेमत पर शुक्रिए और तकबीर (बड़ाई बयान) करने का फ़र्ज़ भी अदा करें और साथ-साथ अपने-अपने मक़ामों पर हाजियों के साथ इस अमल में शरीक भी हो जाएँ। हज की ख़ुशनसीबी न मिल सकी न सही, कम-से-कम हज के दिनों में सारी दुनिया के मुसलमान वे काम तो कर रहे हों जो हाजी अल्लाह के घर (काबा) के पास करें। इस बात को और ज़्यादा खोलकर कई सहीह हदीसों में बयान किया गया है, और बहुत-सी भरोसेमन्द रिवायतों से भी साबित हुआ है कि नबी (सल्ल०) ख़ुद मदीना तय्यिबा में ठहरने के पूरे ज़माने में हर साल बक़र-ईद के मौक़े पर क़ुरबानी करते रहे और मुसलमानों में आप (सल्ल०) ही की सुन्नत से यह तरीक़ा जारी हुआ। मुसनद अहमद और इब्ने-माजा में अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स हैसियत रखता हो, फिर क़ुरबानी न करे, यह हमारी ईदगाह के क़रीब न आए।" इस रिवायत के तमाम रिवायत करनेवाले भरोसेमन्द हैं। मुहद्दिसों (हदीस के आलिमों) में सिर्फ़ इस बात पर इख़तिलाफ़ है कि यह मरफ़ूअ रिवायत है या मौक़ूफ़। तिरमिज़ी में इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायत है, “नबी (सल्ल०) मदीना में दस साल रहे और हर साल क़ुरबानी करते रहे।” बुख़ारी में हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने बक़र-ईद के दिन फ़रमाया, “जिसने ईद की नमाज़ से पहले ज़ब्ह कर लिया उसे दोबारा क़ुरबानी करनी चाहिए, और जिसने नमाज़ के बाद क़ुरबानी की उसकी क़ुरबानी पूरी हो गई और उसने मुसलमानों का तरीक़ा पा लिया।" और यह मालूम है कि 'यौमुन-नहर' (क़ुरबानी के दिन) मक्का में कोई नमाज़ ऐसी नहीं होती जिससे पहले क़ुरबानी करना मुसलमानों के तरीक़े के ख़िलाफ़ हो और बाद में करना उसके मुताबिक़। लिहाज़ा ज़रूर ही यह इरशाद मदीना ही में हुआ है, न कि हज के मौक़े पर मक्का में। मुस्लिम में जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने मदीना में बक़र-ईद की नमाज़ पढ़ाई और कुछ लोगों ने यह समझकर कि आप (सल्ल०) क़ुरबानी कर चुके हैं, अपनी-अपनी क़ुरबानियाँ कर लीं। इसपर आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि मुझसे पहले जिन लोगों ने क़ुरबानी कर ली है, वे फिर से क़ुरबानी करें। इसलिए इस बात में कोई शक नहीं कि बक़र ईद के दिन जो क़ुरबानी आम मुसलमान दुनिया भर में करते हैं, यह नबी (सल्ल०) ही की जारी की हुई सुन्नत है। अलबत्ता अगर इख़्तिलाफ़ है तो इस बात में कि क्या यह वाजिब है या सिर्फ़ सुन्नत। इबराहीम नख़ई, इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम मालिक (रह०), इमाम मुहम्मद (रह०), और एक रिवायत के मुताबिक़ इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) भी, इसको वाजिब मानते हैं। मगर इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) के नज़दीक यह सिर्फ़ मुसलमानों की सुन्नत (तरीक़ा) है, और सुफ़ियान सौरी (रह०) भी इस बात को मानते हैं कि अगर कोई न करे तो कोई हरज नहीं। फिर भी मुस्लिम आलिमों में से कोई भी इस बात को नहीं मानता कि अगर तमाम मुसलमान एकमत होकर इसे छोड़ दें तब भी कोई हरज नहीं। यह नई उपज सिर्फ़ हमारे ज़माने के कुछ लोगों को सूझी है जिनके लिए उनका नफ़्स ही क़ुरआन भी है और सुन्नत भी।
۞إِنَّ ٱللَّهَ يُدَٰفِعُ عَنِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ كُلَّ خَوَّانٖ كَفُورٍ ۝ 37
(38) यक़ीनन75 अल्लाह मुदाफ़अत (बचाव) करता है उन लोगों की तरफ़ से जो ईमान लाए हैं।76 यक़ीनन अल्लाह किसी ख़ियानत करनेवाले नाशुक्रे को पसन्द नहीं करता।77
75. यहाँ से तक़रीर का रुख़ एक-दूसरे मज़मून (विषय) की तरफ़ फिरता है। बात के सिलसिले को समझने के लिए यह बात ध्यान में ताज़ा कर लीजिए कि यह तक़रीर उस वक़्त की है जब हिजरत के बाद पहली बार हज का मौसम आया था। उस वक़्त एक तरफ़ तो मुहाजिर और मदीना के अनसार, दोनों को यह बात बहुत नागवार गुज़र रही थी कि वे हज की नेमत से महरूम कर दिए गए हैं और उनपर हरम की ज़ियारत का रास्ता ज़बरदस्ती बन्द कर दिया गया है। और दूसरी तरफ़ मुसलमानों के दिलों पर न सिर्फ़ उस ज़ुल्म के दाग़ ताज़ा थे जो मक्का में उनपर किए गए थे, बल्कि इस बात पर भी वे बहुत दुखी थे कि घर-द्वार छोड़कर जब वे मक्का से निकल गए तो अब मदीना में भी उनको चैन से नहीं बैठने दिया जा रहा है। इस मौक़े पर जो तक़रीर की गई उसके पहले हिस्से में काबा की तामीर, हज के इदारे और क़ुरबानी के तरीक़े पर तफ़सील से बातचीत करके बताया गया कि इन सब चीज़ों का अस्ल मक़सद क्या था और जाहिलियत ने उनको बिगाड़कर क्या-से-क्या कर दिया है। इस तरह मुसलमानों में यह जज़्बा पैदा कर दिया गया कि इन्तिक़ाम की नीयत से नहीं, बल्कि सुधार की नीयत से इस सूरतेहाल को बदलने के लिए उठे। और इसके साथ मदीना में क़ुरबानी का तरीक़ा जारी करके मुसलमानों को यह मौक़ा भी दे दिया गया कि हज के ज़माने में अपने-अपने घरों पर ही क़ुरबानी करके इस नेकी और ख़ुशनसीबी में हिस्सा ले सकें, जिससे दुश्मनों ने उनको महरूम करने कोशिश की है, और हज से अलग एक मुस्तक़िल सुन्नत को हैसियत से क़ुरबानी जारी कर दी, ताकि जो हज का मौक़ा न पाए वह भी अल्लाह की नेमत के शुक्र और उसकी बड़ाई बयान करने का हक़ अदा कर सके। इसके बाद अब दूसरे हिस्से में मुसलमानों को उस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ तलवार उठाने की इजाज़त दी जा रही है जो उनपर किया गया था और किया जा रहा था।
76. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'युदाफ़िउ’ (वह बचाव करता है) इस्तेमाल हुआ है जो ‘मुदाफ़अत' लफ़्ज़ से निकला है। इसका मादा (धातु) 'द-फ़-अ’है जिसका अस्ल मतलब किसी चीज़ को हटाना और दूर करना है। मगर जब 'द-फ़-अ' की जगह मुदाफ़अत करना बोलेंगे तो उसमें दो मतलब शामिल हो जाएँगे। एक यह कि कोई दुश्मन ताक़त है जो हमला कर रही है और बचाव करनेवाला उसका मुक़ाबला कर रहा है। दूसरे यह कि यह मुक़ाबला बस एक दफ़ा ही होकर नहीं रह गया, बल्कि जब भी वह हमला करता है यह उसको हटा देता है। इन दो मतलबों को निगाह में रखकर देखा जाए तो ईमानवालों की तरफ़ से अल्लाह तआला के मुदाफ़अत (बचाव) करने का मतलब यह समझ में आता है कि कुफ़्र और ईमान की कशमकश में ईमानवाले बिलकुल अकेले नहीं होते, बल्कि अल्लाह ख़ुद उनके साथ एक फ़रीक़ (पक्ष) होता है। वह उनकी मदद और हिमायत करता है, उनके ख़िलाफ़ दुश्मनों की चालों का तोड़ करता है और नुक़सान पहुँचानेवालों के नुक़सान को उनसे हटाता रहता है। तो यह आयत हक़ीक़त में हक़परस्तों के लिए एक बहुत बड़ी ख़ुशख़बरी है जिससे बढ़कर उनका दिल मज़बूत करनेवाली कोई दूसरी चीज़ नहीं हो सकती।
77. यह वजह है इस बात की कि इस कशमकश में अल्लाह क्यों हक़परस्तों के साथ एक फ़रीक़ बनता है। इसलिए कि हक़ के ख़िलाफ़ टकरानेवाला दूसरा फ़रीक़ बेईमान है, और नेमत का नाशुक्रा है। वह हर उस अमानत में ख़ियानत कर रहा है जो अल्लाह ने उसके सिपुर्द की है, और हर उस नेमत का जवाब नाशुक्री और नमक-हरामी से दे रहा है जो अल्लाह ने उसको दी है। लिहाज़ा अल्लाह उसको नापसन्द करता है और उसके ख़िलाफ़ जिद्दो-जुह्द करनेवाले हक़परस्तों की मदद करता है।
أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَٰتَلُونَ بِأَنَّهُمۡ ظُلِمُواْۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ نَصۡرِهِمۡ لَقَدِيرٌ ۝ 38
(39) इजाज़त दे दी गई उन लोगों को जिनके ख़िलाफ़ जंग की जा रही है; क्योंकि उनपर ज़ुल्म किया गया है,78 और अल्लाह यक़ीनन उनकी मदद की क़ुदरत रखता है।79
78. जैसा कि परिचय में बयान किया जा चुका है, यह अल्लाह के रास्ते में क़िताल (जंग) करने के बारे में सबसे पहली आयत है जो उतरी है। इस आयत में सिर्फ़ इजाज़त दी गई थी। बाद में सूरा-2 बक़रा की वे आयतें उतरीं जिनमें जंग का हुक्म दे दिया गया, यानी “अल्लाह की राह में उनसे लड़ो जो तुमसे लड़ते हैं।”(आयत-190) और “उनसे लड़ो जहाँ भी तुम्हारी उनसे मुठभेड़ हो जाए और उन्हें निकालो, जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है।” (आयत-191) और “तुम उनसे लड़ते रहो यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी न रहे और दीन अल्लाह के लिए हो जाए।”(अयात-193) और तुम्हें जंग का हुक्म दिया गया है और वह तुम्हें नापसन्द है।” (आयत-216) और “अल्लाह की राह में जंग करो और ख़ूब जान रखो कि अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।” (आयत-244) इजाज़त और हुक्म में सिर्फ़ कुछ महीनों का फ़ासला है। इजाज़त हमारी तहक़ीक़ के मुताबिक़ अरबी महीने ज़िलहिज्जा 01 हिजरी में उतरी और हुक्म जंगे-बद्र से कुछ पहले रजब या शाबान 02 हिजरी में उतरा।
79. यानी इसके बावजूद कि ये कुछ मुट्ठी भर आदमी हैं, अल्लाह उनको तमाम दुश्मनों पर ग़ालिब कर सकता है। यह बात ध्यान में रहे कि जिस वक़्त तलवार उठाने की यह इजाज़त दी जा रही थी, मुसलमानों की सारी ताक़त सिर्फ़ मदीना के एक मामूली क़सबे तक महदूद थी और मुहाजिर और अनसार मिलकर भी एक हज़ार की तादाद तक न पहुँचते थे। और इस हालत में चैलेंज दिया जा रहा था क़ुरैश को जो अकेले न थे, बल्कि अरब के दूसरे मुशरिक क़बीले भी उनकी पीठ पर थे और बाद में यहूदी भी उनके साथ मिल गए। इस मौक़े पर यह इरशाद कि “अल्लाह यक़ीनन उनकी मदद पर पूरी क़ुदरत (सामर्थ्य) रखता है”बिलकुल मौक़े के मुताबिक़ या। इससे मुसलमानों की भी ढाढ़स बँधाई गई जिन्हें अरब की ताक़त के मुक़ाबले में तलवार लेकर उठ खड़े होने के लिए उभारा जा रहा था, और दुश्मनों को भी ख़बरदार कर दिया गया कि तुम्हारा मुक़ाबला अस्ल में उन मुट्ठी भर मुसलमानों से नहीं बल्कि ख़ुदा से है उसके मुक़ाबले की हिम्मत हो तो सामने आ जाओ।
ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِم بِغَيۡرِ حَقٍّ إِلَّآ أَن يَقُولُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُۗ وَلَوۡلَا دَفۡعُ ٱللَّهِ ٱلنَّاسَ بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لَّهُدِّمَتۡ صَوَٰمِعُ وَبِيَعٞ وَصَلَوَٰتٞ وَمَسَٰجِدُ يُذۡكَرُ فِيهَا ٱسۡمُ ٱللَّهِ كَثِيرٗاۗ وَلَيَنصُرَنَّ ٱللَّهُ مَن يَنصُرُهُۥٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ ۝ 39
(40) ये वे लोग हैं जो अपने घरों से नाहक़ निकाल दिए गए80 सिर्फ़ इस कुसूर पर कि वे कहते थे कि “हमारा रब अल्लाह है।81 अगर अल्लाह लोगों को एक-दूसरे के ज़रिए से हटाता न रहे तो खानक़ाहें और गिरजाघर और इबादतगाहे82 और मस्जिदें जिनमें अल्लाह का बहुत ज़्यादा नाम लिया जाता है, सब ढहा दी जाएँ।83 अल्लाह ज़रूर उन लोगों की मदद करेगा जो उसकी मदद करेंगे।84 अल्लाह बड़ा ताक़तवर और ज़बरदस्त है।
80. यह आयत साफ़ बताती है कि सूरा हज का यह हिस्सा ज़रूर हिजरत के बाद उतरा है।
81. जिस ज़ुल्म के साथ ये लोग निकाले गए उसका अन्दाज़ा करने के लिए नीचे के कुछ वाक़िआत पर नज़र डालिए— हज़रत सुहैब रूमी (रज़ि०) जब हिजरत करने लगे तो क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों ने उनसे कहा कि तुम यहाँ ख़ाली हाथ आए थे और अब ख़ूब मालदार हो गए हो। तुम जाना चाहो तो ख़ाली हाथ जा सकते हो। अपना माल नहीं ले जा सकते। हालाँकि उन्होंने जो कुछ कमाया था अपने हाथ की मेहनत से कमाया था, किसी का दिया हुआ नहीं खाते थे। आख़िर वे ग़रीब दामन झाकर खड़े हो गए और सबकुछ ज़ालिमों के हवाले करके इस हाल में मदीना पहुँचे कि जिस्म के कपड़ों के सिवा उनके पास कुछ न था। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) और उनके शौहर अबू-सलमा (रज़ि०) अपने दूध पीते बच्चे को लेकर हिजरत के लिए निकले। बनी-मुग़ीरा (उम्मे-सलमा के ख़ानदान) ने रास्ता रोक लिया और अबू-सलमा (रज़ि०) से कहा कि तुम्हारा जहाँ जी चाहे फिरते रहो, मगर हमारी लड़की को लेकर नहीं जा सकते। मजबूर होकर बेचारे बीवी को छोड़कर चले गए। फिर बनी-अब्दुल-असद (अबू-सलमा के ख़ानदान के लोग) आगे बढ़े और उन्होंने कहा कि बच्चा हमारे हवाले करो। इस तरह बच्चा भी माँ और बाप दोनों से छीन लिया गया। लगभग एक साल तक हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) बच्चे और शौहर के ग़म में तड़पती रहीं, और आख़िर बड़ी मुसीबत से अपने बच्चे को हासिल करके मक्का से इस हाल में निकलीं कि अकेली औरत गोद में बच्चा लिए ऊँट पर सवार थी और उन रास्तों पर जा रही थी जिनसे हथियारबन्द क़ाफ़िले भी गुज़रते हुए डरते थे। अय्याश-बिन-रबीआ (रज़ि०), अबू-जह्ल के माँ जाए भाई थे। हज़रत उमर (रज़ि०) के साथ हिजरत करके मदीना पहुँच गए। पीछे-पीछे अबू-जह्ल अपने एक भाई को साथ लेकर जा पहुँचा और बात बनाई कि अम्मा जान ने क़सम ख़ाली है कि जब तक अय्याश की सूरत न देख लूँगी, न धूप से छाँव में जाऊँगी और न सर में कंघी करूँगी। इसलिए तुम बस चलकर उन्हें सूरत दिखा दो, फिर वापस आ जाना। वे बेचारे माँ की मुहब्बत में साथ हो लिए। रास्ते में दोनों भाइयों ने उनको क़ैद कर लिया और मक्का में उन्हें लेकर इस तरह दाख़िल हुए कि वे रस्सियों में जकड़े हुए थे और दोनों भाई पुकारते जा रहे थे, “ऐ मक्कावालो, अपने-अपने नालायक़ लड़कों को यों सीधा करो जिस तरह हमने किया है।”काफ़ी मुद्दत तक ये बेचारे क़ैद रहे और आख़िरकार एक जाँबाज़ मुसलमान उनको निकाल लाने में कामयाब हुआ। इस तरह के ज़ुल्मों से लगभग हर उस शख़्स को गुज़रना पड़ा जिसने मक्का से मदीना की तरफ़ हिजरत की। ज़ालिमों ने घर-द्वार छोड़ते वक़्त भी इन ग़रीबों को ख़ैरियत से न निकलने दिया।
82. अस्ल अरबी में “सवामिउ” और “बियउन” और “स-लवातुन” के अलफ़ाज़ स्तेमाल हुए हैं। 'सीमआ' (बहुवचन 'सवामिउ') उस जगह को कहते हैं जहाँ राहिब, संन्यासी और दुनिया से अलग-थलग रहनेवाले फ़क़ीर रहते हों। 'बियअ' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में ईसाइयों की इबादतगाह के लिए इस्तेमाल होता है। 'स-लवात' से मुराद यहूदियों के नमाज़ पढ़ने की जगह है। यहूदियों के यहाँ इसका नाम 'सलौता' था जो आरामी ज़बान का लफ़्ज़ है। मुमकिन है कि अंग्रेज़ी लफ़्ज़ (Salute) और (Salutation) इसी से निकलकर लैटिन में और फिर अंग्रेज़ी में पहुँचा हो।
83. यानी यह अल्लाह की बड़ी मेहरबानी है कि उसने किसी एक गरोह वा क़ौम को हमेशा रहनेवाले इक़तिदार (सत्ता) का पट्टा नहीं लिखकर दे दिया, बल्कि वह वक़्त-वक़्त पर दुनिया में एक गरोह को दूसरे गरोह के ज़रिए से हटाता रहता है। वरना अगर एक ही गरोह को कहीं पट्टा मिल गया होता तो क़िले और महल और सियासत के ठिकाने और तिजारत और कल-कारख़ानों के मर्कज़ ही तबाह न कर दिए जाते, बल्कि इबादतगाहें तक तबाह कर डाली जातीं। सूरा-2 बक़रा में इस बात को यूँ बयान किया गया है, “अगर ख़ुदा लोगों को एक-दूसरे के ज़रिए से हटाता न रहता तो ज़मीन में फ़साद मच जाता। मगर अल्लाह दुनियावालों पर बड़ा मेहरबान है।” (आयत-251)
84. यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान हुई है कि जो लोग अल्लाह के बन्दों को तौहीद (एक ख़ुदा) की तरफ़ बुलाने और सच्चे दीन (इस्लाम) को क़ायम करने और बुराई की जगह भलाई को बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं वे अस्ल में अल्लाह के मददगार हैं, क्योंकि यह अल्लाह का काम है जिसे अंजाम देने में वे उसका साथ देते हैं। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-50।
ٱلَّذِينَ إِن مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَوُاْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَمَرُواْ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَنَهَوۡاْ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۗ وَلِلَّهِ عَٰقِبَةُ ٱلۡأُمُورِ ۝ 40
(41) ये वे लोग हैं जिन्हें अगर हम ज़मीन में इक़तिदार (सत्ताधिकार) दें तो वे नमाज़ क़ायम करेंगे, ज़कात देंगे, भलाई का हुक्म देंगे और बुराई से रोकेंगे।85 और तमाम मामलों का अंजाम अल्लाह के हाथ में है।86
85. यानी अल्लाह के मददगार और उसकी हिमायत और मदद के हक़दार लोगों की ये सिफ़तें हैं कि अगर दुनिया में उन्हें हुकूमत और सत्ता दी जाए तो उनका अपना किरदार अल्लाह की नाफ़रमानी, गुनाह और घमंड के बजाय नमाज़ क़ायम करने का हो, उनकी दौलत अय्याशियों और मनमानी के बजाय ज़कात देने में लगे, उनकी हुकूमत नेकी को दबाने के बजाय उसे बढ़ाने और फैलाने का काम करे, और उनकी ताक़त बुराइयों को फैलाने के बजाय उनके दबाने में इस्तेमाल हो। इस एक जुमले में इस्लामी हुकूमत के नस्बुल-ऐन (लक्ष्य) और उसके कारकुनों (कार्यकर्ताओं) की ख़ूबियों का सार निकालकर रख दिया गया है। कोई समझना चाहे तो इसी एक जुमले से समझ सकता है कि इस्लामी हुकूमत हक़ीक़त में किस चीज़ का नाम है।
86. यानी यह फ़ैसला कि ज़मीन का इन्तिज़ाम किस वक़्त किसे सौंपा जाए, अस्ल में अल्लाह ही के हाथ में है। घमंडी लोग इस ग़लतफ़हमी में हैं कि ज़मीन और उसके बसनेवालों की क़िस्मतों के फ़ैसले करनेवाले वे ख़ुद हैं। मगर जो ताक़त एक ज़रा-से बीज को मोटा तनावर पेड़ बना देती है और एक मोटे तनावर पेड़ को जलाने के लायक़ लकड़ी बना देती है, उसी को यह क़ुदरत हासिल है कि जिनके दबदबे को देखकर लोग समझते हों कि भला इनको कौन हिला सकेगा, उन्हें ऐसा गिराए कि दुनिया के लिए सबक़ लेने लायक़ मिसाल बन जाएँ और जिन्हें देखकर कोई गुमान भी न कर सकता हो कि ये भी कभी उठ सकेंगे, उन्हें ऐसा सरबुलन्द करे कि दुनिया में उनकी महानता और बड़ाई के डंके बज जाएँ।
وَإِن يُكَذِّبُوكَ فَقَدۡ كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَعَادٞ وَثَمُودُ ۝ 41
(42) ऐ नबी, अगर वे तुम्हें झुठलाते हैं87 तो उनसे पहले नूह की क़ौम और आद और समूद
87. यानी मक्का के ग़ैर-मुस्लिम लोग।
وَقَوۡمُ إِبۡرَٰهِيمَ وَقَوۡمُ لُوطٖ ۝ 42
(43) और इबराहीम की क़ौम और लूत की क़ौम
وَأَصۡحَٰبُ مَدۡيَنَۖ وَكُذِّبَ مُوسَىٰۖ فَأَمۡلَيۡتُ لِلۡكَٰفِرِينَ ثُمَّ أَخَذۡتُهُمۡۖ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 43
(44) और मदयनवाले भी झुठला चुके हैं और मूसा भी झुठलाए जा चुके हैं। इन सब, हक़ का इनकार करनेवालों को मैने पहले मुहलत दी, फिर पकड़ लिया।88 अब देख लो कि मेरी सज़ा कैसी थी।89
88. यानी उनमें से किसी क़ौम को भी नबी को झुठलाते ही फ़ौरन नहीं पकड़ लिया गया था, बल्कि हर एक को सोचने-समझने के लिए काफी वक़्त दिया गया और पकड़ उस वक़्त की गई जबकि इनसाफ़ के तक़ाज़े पूरे हो चुके थे। इसी तरह मक्का के इस्लाम-दुश्मन भी वह न समझें कि उनकी शामत आने में जो देर लग रही है वह इस वजह से है कि नबी का ख़बरदार करना सिर्फ़ ख़ाली-ख़ाली धमकियाँ हैं। अस्ल में सोचने-समझने की यह मुहलत है जो अल्लाह तआला अपने उसूल के मुताबिक़ उनको दे रहा है, और इस मुहलत से अगर उन्होंने फ़ायदा न उठाया तो उनका अंजाम भी वही होकर रहना है जो उनसे पहले के लोगों का हो चुका है।
89. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'नकीर’ इस्तेमाल हुआ है जिसका पूरा मतलब सज़ा या दूसरे लफ़्ज़ से पूरी तरह अदा नहीं होता। यह लफ़्ज़ दो मतलब देता है। एक यह कि किसी शख़्स के बुरे रवैये पर नागवारी ज़ाहिर की जाए। दूसरा यह कि उसको ऐसी सज़ा दी जाए जो उसकी हालत ख़राब कर दे। उसका हुलिया बिगाड़कर रख दिया जाए। कोई देखे तो पहचान न सके कि यह वही शख़्स है। इन दोनों मतलबों के लिहाज़ से इस जुमले का पूरा मतलब यह है कि “अब देख लो कि उनके इस रवैये पर जब मेरा ग़ज़ब (प्रकोप) भड़का तो फिर मैंने उनकी हालत कैसी ख़राब कर दी।"
فَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ أَهۡلَكۡنَٰهَا وَهِيَ ظَالِمَةٞ فَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا وَبِئۡرٖ مُّعَطَّلَةٖ وَقَصۡرٖ مَّشِيدٍ ۝ 44
(45) कितनी ही कुसूरवार बस्तियाँ हैं जिनको हमने तबाह किया है और आज वे अपनी छतों पर उलटी पड़ी हैं, कितने ही कुँए90 बेकार और कितने ही महल खण्डहर बने हुए हैं।
90. अरब में कुआँ और बस्ती लगभग एक-दूसरे के हममानी हैं। किसी क़बीले की बस्ती का नाम लेना हो तो कहते हैं “फ़ुलाँ क़बीले का कुआँ।” एक अरबी आदमी के सामने जब यह कहा जाएगा कि कुएँ बेकार पड़े हैं तो उसके ज़ेहन में उसका यह मतलब आएगा कि बस्तियाँ उजड़ी पड़ी हैं।
أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَتَكُونَ لَهُمۡ قُلُوبٞ يَعۡقِلُونَ بِهَآ أَوۡ ءَاذَانٞ يَسۡمَعُونَ بِهَاۖ فَإِنَّهَا لَا تَعۡمَى ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَلَٰكِن تَعۡمَى ٱلۡقُلُوبُ ٱلَّتِي فِي ٱلصُّدُورِ ۝ 45
(46) क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इनके दिल समझनेवाले और इनके कान सुननेवाले होते? हक़ीक़त यह है कि आँखें अंधी नहीं होतीं, मगर वे दिल अंधे हो जाते हैं जो सीनों में हैं।91
91. ध्यान रहे कि क़ुरआन साइंस की ज़बान में नहीं, बल्कि अदब (साहित्य) की ज़बान में बात करता है। यहाँ ख़ाह-मख़ाह ज़ेहन इस सवाल में न उलझ जाए कि सीनेवाला दिल कब सोचा करता है। अदबी ज़बान में एहसासात, जज़बात, ख़यालात, बल्कि दिमाग़ के लगभग तमाम ही काम सीने और दिल से ही जोड़े जाते हैं। यहाँ तक कि किसी चीज़ के 'याद होने' को भी यूँ कहते हैं कि “यह तो मेरे सीने में महफ़ूज़ है।"
وَيَسۡتَعۡجِلُونَكَ بِٱلۡعَذَابِ وَلَن يُخۡلِفَ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥۚ وَإِنَّ يَوۡمًا عِندَ رَبِّكَ كَأَلۡفِ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ ۝ 46
(47) ये लोग अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं।92 अल्लाह हरगिज़ अपने वादे के ख़िलाफ़ न करेगा, मगर तेरे रब के यहाँ का एक दिन तुम्हारी गिनती के हज़ार साल के बराबर हुआ करता है।93
92. यानी बार-बार चैलेंज कर रहे हैं कि अगर तुम सच्चे नबी हो तो क्यों नहीं आ जाता। हमपर यह अज़ाब जो ख़ुदा के भेजे हुए सच्चे नबी के झुठलाने पर आना चाहिए, और जिसकी धमकियाँ भी तुम हमको बार-बार दे चुके हो।
93. यानी इनसानी तारीख़ में ख़ुदा के फ़ैसले तुम्हारी घड़ियों और जन्तरियों के लिहाज़ से नहीं होते कि आज एक सही या ग़लत रवैया अपनाया और कल उसके अच्छे या बुरे नतीजे ज़ाहिर हो गए। किसी क़ौम से अगर यह कहा जाए कि फ़ुलाँ रवैया अपनाने का अंजाम तुम्हारी तबाही की सूरत में निकलेगा तो वह बड़ी ही बेवक़ूफ़ होगी अगर जवाब में यह दलील दे कि जनाब, इस रवैये को अपनाए हमें दस, बीस या पचास साल हो चुके हैं, अभी तक तो हमारा कुछ बिगड़ा नहीं। तारीख़़ी (ऐतिहासिक) नतीजों के लिए दिन और महीने और साल तो दूर सदियाँ भी कोई बड़ी चीज़ नहीं हैं।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ أَمۡلَيۡتُ لَهَا وَهِيَ ظَالِمَةٞ ثُمَّ أَخَذۡتُهَا وَإِلَيَّ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 47
(48) कितनी ही बस्तियाँ हैं जो ज़ालिम थीं, मैंने उनको पहले मुहलत दी, फिर पकड़ लिया। और सबको वापस तो मेरे ही पास आना है।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ إِنَّمَآ أَنَا۠ لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 48
(49) ऐ नबी, कह दो कि “लोगो, मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ़ वह शख़्स हूँ जो (बुरा वक़्त आने से पहले) साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाला हो।"94
94. यानी मैं तुम्हारी क़िस्मतों के फ़ैसले करनेवाला नहीं हूँ, बल्कि सिर्फ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ। मेरा काम इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि शामत आने से पहले तुमको ख़बरदार कर दूँ। आगे फ़ैसला करना अल्लाह का काम है। वही तय करेगा कि किसको कब तक मुहलत देनी है और कब किस सूरत में उसपर अज़ाब लाना है।
فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 49
(50) फिर जो ईमान लाएँगे और भले काम करेंगे, उनके लिए मग़फ़िरत (माफ़ी) है और इज़्ज़त की रोज़ी।95
95. 'मग़फ़िरत से मुराद है. ग़लतियों और कमज़ोरियों और फिसलनों की अनदेखी। और 'इज़्ज़त की रोज़ी’ (रिज़्क़े-करीम) के दो मतलब हैं। एक यह कि अच्छी रोज़ी दी जाए। दूसरा यह कि इज़्ज़त के साथ बिठाकर दी जाए।
وَٱلَّذِينَ سَعَوۡاْ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مُعَٰجِزِينَ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 50
(51) और जो हमारी आयतों को नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे, वे दोज़ख़ के यार हैं।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رَّسُولٖ وَلَا نَبِيٍّ إِلَّآ إِذَا تَمَنَّىٰٓ أَلۡقَى ٱلشَّيۡطَٰنُ فِيٓ أُمۡنِيَّتِهِۦ فَيَنسَخُ ٱللَّهُ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ ثُمَّ يُحۡكِمُ ٱللَّهُ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 51
(52) और ऐ नबी, तुमसे पहले हमने न कोई रसूल ऐसा भेजा है, न नबी96 (जिसके साथ यह मामला न पेश आया हो कि) जब उसने तमन्ना की,97 शैतान ने उसकी तमन्ना में रुकावट डाली।98 इस तरह जो कुछ भी शैतान रुकावटें डालता है, अल्लाह उनको मिटा देता है और अपनी आयतों को पुख़्ता कर देता है।99 अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।100
96. रसूल और नबी के फ़र्क़ की तशरीह सूरा-19 मरयम, हाशिया-30 में की जा चुकी है।
97. 'तमन्ना' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में दो मानी में इस्तेमाल होता है। एक मानी तो वही है जो उर्दूहिन्दी में लफ़्ज़ तमन्ना के हैं, यानी किसी चीज़ की ख़ाहिश और आरज़ू। दूसरे मानी तिलावत के हैं, यानी किसी चीज़ को पढ़ना।
98. 'तमन्ना' का लफ़्ज़ अगर पहले मानी में लिया जाए तो मतलब होगा कि शैतान ने उसकी आरज़ू पूरी होने में बाधाएँ डालीं और रुकावटें पैदा कीं। दूसरे मानी में लिया जाए तो मुराद यह होगी कि जब भी उसने ख़ुदा का कलाम लोगों को सुनाया शैतान ने उसके बारे में तरह-तरह के शक-शुब्हे और एतिराज़ पैदा किए। अजीब-अजीब मानी उसको पहनाए और एक सही मतलब के सिवा हर तरह के उलटे-सीधे मतलब लोगों को समझाए।
99. पहले मतलब के लिहाज़ से इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला शैतान के रुकावटें डालने के बावजूद आख़िरकार नबी की तमन्ना को (और आख़िर नबी की तमन्ना इसके सिवा क्या हो सकती है कि उसकी कोशिशें कामयाब हों और उसका मिशन फले-फूले) पूरा करता है और अपनी आयतों को (यानी उन वादों को जो उसने नबी से किए पक्के और अटल वादे साबित कर देता है। दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह निकलता है कि शैतान के डाले हुए शकों और एतिराज़ों को अल्लाह दूर कर देता है और एक आयत के बारे में जो उलझनें वह लोगों के ज़ेहनों में डालता है उन्हें बाद की किसी और ज़्यादा वाज़ेह आयत से साफ़ कर दिया जाता है।
100. यानी वह जानता है कि शैतान ने कहाँ क्या रुकावट डाली और उसके क्या असरात हुए। और उसकी हिकमत (तत्वदर्शिता) हर शैतानी फ़ितने का तोड़ कर देती है।
وَلَا يَزَالُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُ حَتَّىٰ تَأۡتِيَهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةً أَوۡ يَأۡتِيَهُمۡ عَذَابُ يَوۡمٍ عَقِيمٍ ۝ 52
(55) इनकार करनेवाले तो उसकी तरफ़ से शक ही में पड़े रहेंगे, यहाँ तक कि या तो उनपर क़ियामत की घड़ी अचानक आ जाए, या एक मनहूस (अशुभ) दिन का102 अज़ाब आ जाए।
102. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अक़ीम' इस्तेमाल हुआ है जिसका लफ़्ज़ी तर्जमा 'बाँझ' है। दिन को बाँझ कहने के दो मतलब हो सकते हैं एक यह कि वह ऐसा मनहूस (अशुभ) दिन हो जिसमें कोई तदबीर काम न करे, हर कोशिश उलटी पड़े और हर उम्मीद मायूसी में बदल जाए। दूसरा यह कि वह ऐसा दिन हो जिसके बाद रात देखनी नसीब न हो। दोनों सूरतों में मुराद है वह दिन जिसमें किसी क़ौम की बरबादी का फ़ैसला हो जाए जैसे जिस दिन नूह (अलैहि०) की क़ौम पर तूफ़ान आया, वह उसके लिए 'बाँझ' दिन था। इसी तरह आद, समूद, क़ौमे-लूत, मदयनवालों और दूसरी सब तबाह हो चुकी क़ौमों के हक़ में अल्लाह का अज़ाब आने का दिन बाँझ ही साबित हुआ, क्योंकि उस 'आज' का कोई 'आनेवाला कल’ फिर वे न देख सके, और कोई तदबीर उनके लिए मुमकिन न हुई जिससे वे अपनी क़िस्मत की बिगड़ी बना सकते।
ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَئِذٖ لِّلَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡۚ فَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 53
(56) उस दिन बादशाही अल्लाह की होगी. और वह उनके बीच फ़ैसला कर देगा। जो ईमान रखनेवाले और भले काम करनेवाले होंगे वे नेमत भरी जन्नत में जाएँगे,
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 54
(57) और जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) किया होगा और हमारी आयतों को झुठलाया होगा उनके लिए रुसवा कर देनेवाला अज़ाब होगा
وَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ قُتِلُوٓاْ أَوۡ مَاتُواْ لَيَرۡزُقَنَّهُمُ ٱللَّهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 55
(58) और जिन लोगों ने अल्लाह की राह में हिजरत की; फिर क़त्ल कर दिए गए या मर गए, अल्लाह उनको अच्छी रोज़ी देगा। और यक़ीनन अल्लाह ही बेहतरीन रोज़ी देनेवाला है।
لَيُدۡخِلَنَّهُم مُّدۡخَلٗا يَرۡضَوۡنَهُۥۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَعَلِيمٌ حَلِيمٞ ۝ 56
(59) वह उन्हें ऐसी जगह पहुँचाएगा जिससे वे ख़ुश हो जाएँगे। बेशक अल्लाह अलीम (सब कुछ जानने वाला) और हलीम (सहन करने वाला) है।103
103. 'अलीम' है, यानी यह जानता है कि किसने हक़ीक़त में उसी की राह में घर-बार छोड़ा है और वह किस इनाम का हक़दार है। ‘हलीम' (सहनशील) है, यानी ऐसे लोगों की छोटी-छोटी ग़लतियों और कमज़ोरियों की वजह से उनकी बड़ी-बड़ी ख़िदमतों और क़ुरबानियों पर पानी फेर देनेवाला नहीं है। वह उनकी ग़लतियों की अनदेखी करेगा और उनके कुसूर माफ़ कर देगा।
۞ذَٰلِكَۖ وَمَنۡ عَاقَبَ بِمِثۡلِ مَا عُوقِبَ بِهِۦ ثُمَّ بُغِيَ عَلَيۡهِ لَيَنصُرَنَّهُ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٞ ۝ 57
(60) यह तो है उनका हाल, और जो कोई बदला ले, वैसा ही जैसा उसके साथ किया गया, और फिर उसपर ज़्यादती भी की गई हो तो अल्लाह उसकी मदद ज़रूर करेगा।104 अल्लाह माफ़ करनेवाला और दरगुज़र करनेवाला है।105
104. पहले उन मज़लूमों का ज़िक्र था जो ज़ुल्म के मुक़ाबले में कोई जवाबी कार्रवाई न कर सके हों, और यहाँ उनका ज़िक्र है जो ज़ालिमों के मुक़ाबले में ताक़त इस्तेमाल करें। इमाम शाफ़िई (रह०) ने इस आयत से यह दलील ली है कि क़िसास (ख़ून का बदला ख़ून) उसी शक्ल में लिया जाएगा जिस शक्ल में ज़ुल्म किया गया हो। जैसे किसी शख़्स ने अगर आदमी को डुबोकर मारा है तो उसे भी डुबोकर मारा जाएगा, और किसी ने जलाकर मारा है तो उसे भी जलाकर मारा जाएगा। लेकिन हनफ़ी मसलक के आलिम लोग इस बात को मानते हैं कि क़ातिल ने क़त्ल चाहे किसी तरीक़े से किया हो, उससे क़िसास उस एक ही तरीक़े से लिया जाएगा जो लोगों के दरमियान जाना-माना और राइज है।
105. इस आयत के दो मतलब हो सकते हैं और शायद दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि ज़ुल्म के मुक़ाबले में जो मार-काट की जाएगी वह अल्लाह के यहाँ माफ़ है, अगरचे मार-काट अपनी जगह ख़ुद कोई अच्छी चीज़ नहीं है। दूसरा यह कि अल्लाह जिसके तुम बन्दे हो, माफ़ करनेवाला है, इसलिए तुमको भी, जहाँ तक भी तुम्हारे बस में हो, माफ़ करने और नज़र-अन्दाज़ कर देने से काम लेना चाहिए। ईमानवालों के अख़लाक़ का ज़ेवर यही है कि वे बरदाश्त करनेवाले, कुशादा दिल हों। बदला लेने का हक़ उन्हें ज़रूर हासिल हैं, मगर बिलकुल इन्तिक़ाम की ज़ेहनियत अपने ऊपर हावी कर लेना उनके लिए मुनासिब नहीं है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَأَنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ ۝ 58
(61) यह106 इसलिए है कि रात से दिन और दिन से रात निकालनेवाला अल्लाह ही है107 और वह सब कुछ सुनने और सब कुछ देखनेवाला है।108
106. इस पैराग्राफ़ का ताल्लुक़ ऊपर के पूरे पैराग्राफ़ से है, न कि सिर्फ़ क़रीब के आख़िरी जुमले से। यानी कुफ़्र (अधर्म) और ज़ुल्म का रवैया अपनानेवालों पर अज़ाब आना, ईमानवाले और नेक बन्दों को इनाम देना, सताए गए हक़परस्तों की फ़रियाद सुनना और ताक़त से ज़ुल्म का मुक़ाबला करनेवाले हक़परस्तों की मदद करना, यह सब किस वजह से है? इसलिए कि अल्लाह की सिफ़तें ये और ये हैं।
107. यानी कायनात के पूरे निज़ाम (व्यवस्था) पर वही हुकूमत कर रहा है और रात-दिन का यह आना-जाना उसी के वश में है। इस ज़ाहिरी मतलब के साथ इस जुमले में एक हल्का-सा इशारा इस तरफ़ भी है कि जो ख़ुदा रात के अंधेरे में से दिन की रौशनी निकाल लाता है और चमकते हुए दिन पर रात का अन्धेरा छा देता है, वही ख़ुदा इस बात की क़ुदरत भी रखता है कि आज जिनकी हुकूमत और ताक़त का सूरज पूरी तरह चमक रहा है उनके ढलने और डूबने का मंज़र भी दुनिया को जल्द ही दिखा दे, और कुफ़्र (अधर्म) और जहालत (अज्ञान) का जो अंधेरा इस वक़्त हक़ और सच्चाई की पौ फटने का रास्ता रोक रहा है, वह देखते-ही-देखते उसके हुक्म से छँट जाए और वह दिन निकल आए जिसमें सच्चाई, इल्म और ख़ुदा की पहचान के नूर से दुनिया रौशन हो जाए।
108. यानी वह देखने और सुननेवाला है, अन्धा-बहरा नहीं है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّ مَا يَدۡعُونَ مِن دُونِهِۦ هُوَ ٱلۡبَٰطِلُ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 59
(62) यह इसलिए कि अल्लाह ही हक़ (सत्य) है और वे सब बातिल (असत्य) हैं जिन्हें अल्लाह को छोड़कर ये लोग पुकारते हैं109 और अल्लाह ही बुलन्द और बुज़ुर्ग है।
109. यानी हक़ीक़ी अधिकारों का मालिक और हक़ीक़ी रब वही है, इसलिए उसकी बन्दगी करनेवाले नुक़सान में नहीं रह सकते। और दूसरे तमाम माबूद सरासर बे-हक़ीक़त (मिथ्या) हैं, उनको जिन सिफ़ात और अधिकारों का मालिक समझ लिया गया है उनकी सिरे से कोई असलियत नहीं है, इसलिए ख़ुदा से मुँह मोड़कर उनके भरोसे पर जीनेवाले कभी कामयाब नहीं हो सकते।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَتُصۡبِحُ ٱلۡأَرۡضُ مُخۡضَرَّةًۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَطِيفٌ خَبِيرٞ ۝ 60
(63) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह आसमान से पानी बरसाता है और उसकी बदौलत ज़मीन हरी-भरी हो जाती है?110 हक़ीक़त यह है कि वह बारीकियों तक पर नज़र रखनेवाला और बहुत बाख़बर है।111
110. यहाँ फिर ज़ाहिरी मतलब के पीछे एक हल्का-सा इशारा छिपा हुआ है। ज़ाहिरी मतलब तो महज़ अल्लाह की क़ुदरत का बयान है, मगर हल्का-सा इशारा इसमें यह है कि जिस तरह ख़ुदा की बरसाई हुई बारिश का एक छींटा पड़ते ही तुम देखते हो कि सूखी पड़ी हुई ज़मीन यकायक लहलहा उठती है, उसी तरह यह वह्य रूपी रहमत की बारिश जो आज हो रही है, बहुत जल्द तुमको यह मंज़र (दृश्य) दिखाने वाली है कि यही अरब का बंजर रेगिस्तान इल्म और अख़लाक़ और अच्छी तहज़ीब (सभ्यता) का ऐसा बाग़ बन जाएगा जो इससे पहले किसी ने कभी न देखा होगा।
111. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'लतीफ़’इस्तेमाल हुआ है, यानी ग़ैर-महसूस तरीक़ों से अपने इरादे पूरे करनेवाला है। उसकी तदबीरें ऐसी होती हैं कि लोग उनके शुरू में कभी उनके अंजाम के बारे में सोच भी नहीं सकते। लाखों बच्चे दुनिया में पैदा होते हैं, कौन जान सकता है कि उनमें से कौन इबराहीम है जो तीन चौथाई दुनिया का रूहानी पेशवा होगा और कौन चंगेज़ है जो एशिया और यूरोप को बरबाद कर डालेगा। ख़ुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शी) जब ईजाद हुई थी उस वक़्त कौन सोच सकता था कि यह एटम बम और हाइड्रोजन बम तक पहुँचाएगी। कोलम्बस जब सफ़र पर निकल रहा था तो किसे मालूम था कि संयुक्त अमेरिकी गणराज्य (USA) की बुनियाद डाली जा रही है। गरज़ ख़ुदा की स्कीमें ऐसी-ऐसी मुश्किल और समझ में न आनेवाले तरीक़ों से पूरी होती हैं कि जब तक वे पूरी न हो जाएँ किसी को पता नहीं चलता कि यह किस चीज़ के लिए काम हो रहा है। ‘ख़बीर’ है, यानी वह अपनी दुनिया के हालात, मस्लहतों और ज़रूरतों से बाख़बर है, और जानता है कि अपनी ख़ुदाई का काम किस तरह करे।
لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 61
(64) उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है। बेशक वही बेनियाज़ और तारीफ़ के क़ाबिल है112
112. वही ग़नी (निस्पृह) है, यानी सिर्फ़ उसी की हस्ती ऐसी है जो किसी की मुहताज नहीं। और वही 'हमीद’ है, यानी तारीफ़ और हम्द उसी के लिए है और वह अपने आप में ख़ुद तारीफ़ के क़ाबिल है, चाहे कोई उसकी तारीफ़ करे या न करे।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ سَخَّرَ لَكُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡفُلۡكَ تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِأَمۡرِهِۦ وَيُمۡسِكُ ٱلسَّمَآءَ أَن تَقَعَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِٱلنَّاسِ لَرَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 62
(65) क्या तुम देखते नहीं हो कि उसने वह सब कुछ तुम्हारे काम में लगा रखा है जो ज़मीन में है, और उसी ने नाव को क़ायदे (नियम) का पाबन्द बनाया है कि वह उसके हुक्म से समन्दर में चलती है, और वही आसमान को इस तरह थामे हुए है कि उसकी इजाज़त के बिना वह ज़मीन पर नहीं गिर सकता?113 सच तो यह है कि अल्लाह लोगों के लिए बड़ा मेहरबान और रहम करनेवाला है।
113. आसमान से मुराद यहाँ पूरी ऊपरी दुनिया है जिसकी हर चीज़ अपनी-अपनी जगह थमी हुई है।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَحۡيَاكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۗ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَكَفُورٞ ۝ 63
(66) वही है जिसने तुम्हें ज़िन्दगी दी है, वही तुमको मौत देता है और वही फिर तुमको ज़िन्दा करेगा। सच यह है कि इनसान बड़ा ही हक़ का इनकारी है।114
114. यानी यह सब कुछ देखते हुए भी उस हक़ीक़त का इनकार किए जाता है जिसे पैग़म्बरों (अलैहि०) ने पेश किया है।
لِّكُلِّ أُمَّةٖ جَعَلۡنَا مَنسَكًا هُمۡ نَاسِكُوهُۖ فَلَا يُنَٰزِعُنَّكَ فِي ٱلۡأَمۡرِۚ وَٱدۡعُ إِلَىٰ رَبِّكَۖ إِنَّكَ لَعَلَىٰ هُدٗى مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 64
(67) हर उम्मत115 के लिए हमने इबादत का एक तरीक़ा116 मुक़र्रर किया है जिसकी वह पैरवी करती है, तो ऐ नबी, वह इस मामले में तुमसे झगड़ा न करें।117 तुम अपने रब की तरफ़ दावत दो, यक़ीनन तुम सीधे रास्ते पर हो।118
115. यानी हर नबी की उम्मत (समुदाय)।
116. यहाँ अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मनसक’इस्तेमाल हुआ है यह लफ़्ज़ क़ुरबानी के मानी में नहीं, बल्कि पूरे इबादती निज़ाम के मानी में है। इससे पहले इसी लफ़्ज़ का तर्जमा 'क़ुरबानी का क़ायदा' किया गया था, क्योंकि वहाँ बाद का जुमला “ताकि लोग उन जानवरों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उनको दिए है” उसके कई मानो में से सिर्फ़ क़ुरबानी मुराद होने को बयान कर रहा था। लेकिन यहाँ इसे महज़ 'क़ुरबानी’ के मानी में लेने की कोई वजह नहीं है, बल्कि इबादत को भी अगर ‘परस्तिश’ के बजाय ‘बन्दगी’ के ज़्यादा वसीअ (व्यापक) मानी में लिया जाए तो मक़सद से ज़्यादा क़रीब होगा। इस तरह मनसक (बन्दगी का तरीक़ा) का वही मतलब हो जाएगा जो 'शरीअत’ और 'मिनहाज’ का मतलब है, और यह उसी बात को दोहराना होगा जो सूरा-5 माइदा, आयत-48 में कही गई है कि हमने तुममें से हर एक के लिए एक शरीअत और एक राहे-अमल मुक़र्रर की।
117. यानी जिस तरह पहले के पैग़म्बर अपने-अपने दौर की उम्मतों के लिए एक 'मनसक’ (इबादती निज़ाम) लाए थे, उसी तरह इस दौर की उम्मत के लिए तुम एक मनसक लाए हो। अब किसी को तुमसे झगड़ा करने का कोई हक़ हासिल नहीं है, क्योंकि इस दौर के लिए यही सही मनसक है। सूरा-45 जासिया, आयत-18 में इस मज़मून को यूँ बयान किया गया है, “फिर (बनी-इसराईल के नबियों के बाद) ऐ नबी, हमने तुमको दीन के मामले में एक शरीअत (तरीक़े) पर क़ायम किया तो तुम उसी की पैरवी करो और उन लोगों को ख़ाहिशों की पैरवी न करो जो इल्म नहीं रखते।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-42 शूरा, हाशिया-20)
118. यह जुमला उस मतलब को पूरी तरह खोलकर बयान कर रहा है जो पिछले जुमले की तफ़सीर में अभी हम बयान कर आए हैं।
وَإِن جَٰدَلُوكَ فَقُلِ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 65
(68) और अगर वे तुमसे झगड़ा करें तो कह दो कि “जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह को ख़ूब मालूम है।
ٱللَّهُ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 66
(69) अल्लाह क़ियामत के दिन तुम्हारे बीच उन सब बातों का फ़ैसला कर देगा जिनमें तुम इख़्तिलाफ़ करते रहे हो।”
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَآءِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّ ذَٰلِكَ فِي كِتَٰبٍۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 67
(70) क्या तुम नहीं जानते कि आसमान और ज़मीन की हर चीज़ अल्लाह के इल्म में है? सब कुछ एक किताब में दर्ज है। अल्लाह के लिए यह कुछ भी मुश्किल नहीं है।119
119. बात के सिलसिले से इस पैराग्राफ़ का ताल्लुक़ समझने के लिए इस सूरा की आयतें—55-57 निगाह में रहनी चाहिएँ।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗا وَمَا لَيۡسَ لَهُم بِهِۦ عِلۡمٞۗ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِن نَّصِيرٖ ۝ 68
(71) ये लोग अल्लाह को छोड़कर उनकी इबादत कर रहे हैं जिनके लिए न तो उसने कोई सनद (प्रमाण) उतारी है और न ये ख़ुद उनके बारे में कोई इल्म रखते हैं।120 इन ज़ालिमों के लिए कोई मददगार नहीं है।121
120. यानी न तो ख़ुदा की किसी किताब में यह कहा गया है कि हमने फ़ुलाँ-फ़ुलाँ को अपने साथ ख़ुदाई में साझीदार बनाया है इसलिए हमारे साथ तुम उनकी भी इबादत किया करो, और न उनको किसी इल्मी ज़रिए से यह मालूम हुआ है कि ये लोग ख़ुदाई में हिस्सेदार हैं और इस वजह से इनको इबादत का हक़ पहुँचता है। जब ये जो तरह-तरह के माबूद (उपास्य) गढ़े गए हैं, और उनकी सिफ़ात और अधिकारों के बारे में तरह-तरह के अक़ीदे बना लिए गए हैं, और उनके आस्तानों पर माथे टेके जा रहे हैं, दुआ माँगी जा रही हैं, चढ़ावे चढ़ाए जा रहे हैं, नियाज़ें दी जा रही हैं, तवाफ़ किए जा रहे हैं और एतिकाफ़ हो रहे हैं (यानी वहाँ दिन-रात ठहरकर इबादत की जा रही हैं), यह सब जहालत भरे गुमान की पैरवी के सिवा आख़िर और क्या है!
121. यानी ये बेवक़ूफ़ लोग समझ रहे हैं कि यह माबूद दुनिया और आख़िरत में उनके मददगार हैं, हालाँकि हक़ीक़त में उनका कोई भी मददगार नहीं है। न ये माबूद, क्योंकि उनके पास मदद की कोई ताक़त नहीं और न अल्लाह, क्योंकि उससे ये बग़ावत कर चुके हैं। इसलिए अपनी इस बेवक़ूफ़ी से ये आप अपने ही ऊपर ज़ुल्म कर रहे हैं।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ تَعۡرِفُ فِي وُجُوهِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلۡمُنكَرَۖ يَكَادُونَ يَسۡطُونَ بِٱلَّذِينَ يَتۡلُونَ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِنَاۗ قُلۡ أَفَأُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكُمُۚ ٱلنَّارُ وَعَدَهَا ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 69
(72) और जब उनको हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं तो तुम देखते हो कि हक़ का इनकार करनेवालों के चेहरे बिगड़ने लगते हैं और ऐसा लगता है कि अभी वे उन लोगों पर टूट पड़ेंगे जो उन्हें हमारी आयते सुनाते हैं। उनसे कहो, “मैं बताऊँ तुम्हें कि इससे ज़्यादा बुरी चीज़ क्या है?122 आग, अल्लाह ने उसी का वादा उन लोगों के हक़ में कर रखा है जो हक़ को क़ुबूल करने से इनकार करें, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।"
122. यानी अल्लाह के कलाम की आयतें सुनकर जो ग़ुस्से की जलन तुमको होती है उससे बढ़कर चीज़, या यह कि उन आयतों को सुनानेवालों के साथ जो ज़्यादा-से-ज़्यादा बुराई तुम कर सकते हो उससे ज़्यादा बुरी चीज़, जिससे तुम्हारा सामना होनेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ضُرِبَ مَثَلٞ فَٱسۡتَمِعُواْ لَهُۥٓۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ لَن يَخۡلُقُواْ ذُبَابٗا وَلَوِ ٱجۡتَمَعُواْ لَهُۥۖ وَإِن يَسۡلُبۡهُمُ ٱلذُّبَابُ شَيۡـٔٗا لَّا يَسۡتَنقِذُوهُ مِنۡهُۚ ضَعُفَ ٱلطَّالِبُ وَٱلۡمَطۡلُوبُ ۝ 70
(73) लोगो, एक मिसाल दी जाती है, ग़ौर से सुनो। जिन माबूदों को तुम ख़ुदा को छोड़कर पुकारते हो वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते, बल्कि अगर मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहनेवाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वे भी कमज़ोर।123
123. यानी मदद चाहनेवाला तो इसलिए किसी बड़ी ताक़त की तरफ़ मदद के लिए हाथ फैलाता है कि वह कमज़ोर है। मगर इस ग़रज़ के लिए ये जिनके आगे हाथ फैला रहे हैं उनकी कमज़ोरी का हाल यह है कि वे एक मक्खी से भी नहीं निमट सकते। अब ग़ौर करो कि उन लोगों की कमज़ोरी का क्या हाल होगा जो ख़ुद भी कमज़ोर हो और उनकी उम्मीदों के सहारे भी कमज़ोर।
مَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ ۝ 71
(74) इन लोगों ने अल्लाह की क़द्र ही न पहचानी, जैसा कि उसके पहचानने का हक़ है। सच तो यह है कि क़ुव्वत और इज़्ज़तवाला तो अल्लाह ही है।
ٱللَّهُ يَصۡطَفِي مِنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ رُسُلٗا وَمِنَ ٱلنَّاسِۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٞ ۝ 72
(75) हक़ीक़त यह है कि अल्लाह (अपने हुक्मों को भेजने के लिए) फ़रिश्तों में से भी पैग़ाम पहुँचानेवालों को चुनता है, और इनसानों में से भी124 वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।
124. मतलब यह है कि मुशरिकों ने अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों में से जिन-जिन हस्तियों को माबूद बनाया है उनमें सबसे बढ़कर जानदार या फ़रिश्ते हैं या पैग़म्बर। और उनकी हैसियत भी इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि वे अल्लाह के हुक्म पहुँचाने का ज़रिआ हैं जिनको उसने इस काम के लिए चुन लिया है। सिर्फ़ यह बढ़ा हुआ दरजा उनको ख़ुदा या ख़ुदाई में अल्लाह का साझीदार तो नहीं बना देता।
يَعۡلَمُ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَمَا خَلۡفَهُمۡۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 73
(76) जो कुछ उनके सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उससे भी वह वाक़िफ़ है,125 और सारे मामले उसी की तरफ़ पलटते हैं।126
125. यह जुमला क़ुरआन मजीद में आम तौर से सिफ़ारिश के मुशरिकाना अक़ीदे (अनेकेश्वरवाद) को ग़लत ठहराने के लिए आया करता है। इसलिए इस जगह पर पिछले जुमले के बाद इसे कहने का मतलब यह हुआ कि फ़रिश्तों और पैग़म्बरों और नेक लोगों को अपने आप में ज़रूरतें पूरी करनेवाला और मुश्किलें हल करनेवाला समझकर न सही, अल्लाह के यहाँ सिफ़ारिशी समझकर भी अगर तुम पूजते हो तो यह ग़लत है, क्योंकि सब कुछ देखने और सब कुछ सुननेवाला सिर्फ़ अल्लाह तआला है, हर शख़्स के खुले और छिपे हालात वही जानता है, दुनिया की खुली-छिपी मस्लहतों से भी वही वाक़िफ़ है, फ़रिश्तों और नबियों समेत किसी मख़लूक़ को भी ठीक मालूम नहीं है कि किस वक़्त क्या करना मुनासिब है और क्या मुनासिब नहीं है, इसलिए अल्लाह ने अपने सबसे क़रीबी जानदारों की भी यह हक़ नहीं दिया है कि वह उसकी इजाज़त के बिना जो सिफ़ारिश चाहें कर बैठें और उनकी सिफ़ारिश क़ुबूल हो जाए।
126. यानी कुछ भी करना बिलकुल उसके वश में है। कायनात के किसी छोटे या बड़े मामले का हल करनेवाला कोई दूसरा नहीं है कि उसके पास तुम अपनी दरख़ास्तें लेकर जाओ। हर मामला उसी के आगे फ़ैसले के लिए पेश होता है। इसलिए माँगने के लिए हाथ बढ़ाना है तो उसकी तरफ़ बढ़ाओ। उन बेबस हस्तियों से क्या माँगते हो जो ख़ुद अपनी भी कोई ज़रूरत आप पूरी कर लेने की क़ुदरत नहीं रखती हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱرۡكَعُواْ وَٱسۡجُدُواْۤ وَٱعۡبُدُواْ رَبَّكُمۡ وَٱفۡعَلُواْ ٱلۡخَيۡرَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ۩ ۝ 74
(77) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, रुकू और सजदा करो, अपने रब की बन्दगी करो और नेक काम करो, शायद कि तुमको कामयाबी नसीब हो।127
127. यानी कामयाबी की उम्मीद अगर की जा सकती है तो यही रवैया अपनाने से की जा सकती है। लेकिन जो शख़्स भी यह रवैया अपनाए उसे अपने अमल पर घमण्ड न होना चाहिए कि जब में ऐसा इबादतगुज़ार और नेकी करनेवाला हूँ तो ज़रूर कामयाबी पाऊँगा, बल्कि उसे अल्लाह की मेहरबानी का उम्मीदवार रहना चाहिए और उसी की रहमत से उम्मीदें लगानी चाहिएँ। वह कामयाब करे तब ही कोई शख़्स कामयाब हो सकता है। ख़ुद कामयाबी पा लेना किसी के बस की बात नहीं है। "शायद तुमको कामयाबी नसीब हो”यह जुमला कहने का मतलब यह नहीं है कि इस तरह कामयाबी मिलने में शक व शुब्हा है, बल्कि अस्ल में यह शाहाना अन्दज़े-बयान है। बादशाह अगर अपने किसी नौकर से यह कहे कि फ़ुलाँ काम करो, शायद कि तुम्हें फ़ुलाँ मंसब मिल जाए तो ख़ादिम के घर शहनाइयाँ बज जाती हैं, क्योंकि इशारे के रूप में यह एक वादा है और एक मेहरबान मालिक से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि किसी ख़िदमत पर एक बदले की उम्मीद वह ख़ुद दिलाए और फिर अपने वफ़ादार ख़ादिम को मायूस करे। इमाम शाफ़िई, इमाम अहमद, अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक और इसहाक़-बिन-राहवैह के नज़दीक सूरा हज की यह आयत भी सजदे की आयत है। मगर इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम मालिक, हसन बसरी, सईद-बिन-अल-मुसय्यब, सईद-बिन-जुबैर, इबराहीम नख़ई और सुफ़ियान सौरी इस जगह तिलावत के सजदे को नहीं मानते। दोनों तरफ़ की दलीलें हम यहाँ मुख़्तसर तौर पर बयान कर देते हैं। पहले गरोह की सबसे पहली दलील आयत के ज़ाहिर से है कि इसमें सजदे का हुक्म है। दूसरी दलील उक़बा-बिन-आमिर (रज़ि०) की वह रिवायत है जिसे अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिजी, इब्ने-मरदुवैह और बैहक़ी ने नक़्ल किया है कि “मैंने अर्ज़ किया, अल्लाह के रसूल, क्या सूरा हज को सारे क़ुरआन पर यह बढ़कर दरजा हासिल है कि इसमें दो सजदे हैं? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, तो जो उनपर सजदा न करे वह उन्हें न पढ़े।” तीसरी दलील अबू-दाऊद और इब्ने-माजा की वह रिवायत है जिसमें अम्र-बिन-आस (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने उनको सूरा हज में दो सजदे सिखाए थे। चौथी दलील यह है कि हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत उसमान (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), अबू-दरदा (रज़ि०), अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) और अम्मार-बिन यासिर (रज़ि०) से यह रिवायत बयान हुई है कि सूरा हज में दो सजदे हैं। दूसरे गरोह की दलील यह है कि आयत में सिर्फ़ सजदे का हुक्म नहीं, बल्कि रुकू और सजदे का एक साथ हुक्म है और क़ुरआन में रुकू और सजदों को मिलाकर जब बोला जाता है तो उससे मुराद नमाज़ ही होती है। फिर यह कि रुकू और सजदों का एक साथ होना नमाज़ ही के साथ ख़ास है। उक़बा-बिन-आमिर (रज़ि०) की रिवायत के बारे में वे कहते हैं कि उसकी सनद कमज़ोर है। उसको इब्ने-लहीआ अबुल-मुसअब बसरी से रिवायत करता है और ये दोनों कमज़ोर रावी (उल्लेखकर्ता) हैं। ख़ासकर अबुल-मुसअब तो वह शख़्स है जो हज्जाज-बिन-यूसुफ के साथ काबा पर मिनजनीक़ (पत्थर फेंकने का एक यन्त्र) से पत्थर बरसानेवालों में शामिल था। अम्र-बिन-आस (रज़ि०) वाली रिवायत को ये भरोसेमन्द नहीं मानते, क्योंकि उसको सईदुल-अतक़ी अब्दुल्लाह-बिन-मुनैन अल-किलाबी से रिवायत करता है और दोनों अनजाने हैं, कुछ पता नहीं कि कौन थे और किस दरजे के आदमी थे। सहाबा (रज़ि०) ने जो कहा है उसके सिलसिले में वे कहते हैं कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने सूरा हज में दो सजदे होने का यह मतलब साफ़ बताया है कि “पहला सजदा लाज़िमी है और दूसरा सजदा तालीमी।"
وَجَٰهِدُواْ فِي ٱللَّهِ حَقَّ جِهَادِهِۦۚ هُوَ ٱجۡتَبَىٰكُمۡ وَمَا جَعَلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلدِّينِ مِنۡ حَرَجٖۚ مِّلَّةَ أَبِيكُمۡ إِبۡرَٰهِيمَۚ هُوَ سَمَّىٰكُمُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ مِن قَبۡلُ وَفِي هَٰذَا لِيَكُونَ ٱلرَّسُولُ شَهِيدًا عَلَيۡكُمۡ وَتَكُونُواْ شُهَدَآءَ عَلَى ٱلنَّاسِۚ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَٱعۡتَصِمُواْ بِٱللَّهِ هُوَ مَوۡلَىٰكُمۡۖ فَنِعۡمَ ٱلۡمَوۡلَىٰ وَنِعۡمَ ٱلنَّصِيرُ ۝ 75
(78) अल्लाह की राह में जिहाद करो, जैसा कि जिहाद करने का हक़ है।128 उसने तुम्हें अपने काम के लिए चुन लिया है।129 और दीन में तुमपर कोई तंगी नहीं रखी।130 क़ायम हो जाओ अपने बाप इबराहीम की मिल्लत पर।31 अल्लाह ने पहले भी तुम्हारा नाम 'मुस्लिम' रखा था और इस (क़ुरआन) में भी (तुम्हारा यही नाम है),132 ताकि रसूल तुम पर गवाह हो और तुम लोगों पर गवाह।133 तो नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और अल्लाह से जुड़ जाओ। वह है तुम्हारा सरपरस्त, बहुत ही अच्छा है वह सरपरस्त और बहुत ही अच्छा है वह मददगार।134
128. जिहाद से मुराद सिर्फ़ ‘क़िताल’ (जंग) नहीं है, बल्कि यह लफ़्ज़ जिद्दो-जुह्द और कशमकश और इन्तिहाई कोशिश के मानी में इस्तेमाल होता है। फिर जिहाद और मुजाहिद में यह मानी भी शामिल है कि रुकावट डालनेवाली कुछ ताक़तें हैं जिनके मुक़ाबले में यह जिद्दो-जुह्द ज़रूरी है। और इसके साथ 'फ़िल्लाह’ (अल्लाह के लिए) की पाबन्दी यह तय कर देती है कि रुकावट डालनेवाली ताक़तें वे हैं जो अल्लाह की बन्दगी और उसकी ख़ुशी चाहने में, और उसकी राह पर चलने में रुकावट हैं, और जिद्दो-जुह्द का मक़सद यह है कि उनके रुकावट डालने को शिकस्त देकर आदमी ख़ुद भी ठीक-ठीक अल्लाह की बन्दगी करे और दुनिया में भी उसका कलिमा बुलन्द करे और कुफ़्र और नास्तिकता की बातों को पछाड़ देने के लिए जान लड़ा दे। इस कोशिश और जिद्दो-जुह्द का सबसे पहला निशाना आदमी का अपना नफ़्से-अम्मारा (बुराइयाँ पर उभारनेवाला आन्तरिक उत्प्रेरक) है जो हर वक़्त ख़ुदा से बग़ावत करने के लिए ज़ोर लगाता रहता है और आदमी को ईमान और फ़रमाँबरदारी के रास्ते से हटाने की कोशिश करता है। जब तक इसको क़ाबू में न कर लिया जाए, बाहर किसी जिद्दो-जुह्द (बुराई से लड़ने) का इमकान नहीं है। इसी लिए एक जंग से वापस आनेवाले ग़ाज़ियों से नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम छोटे जिहाद से बड़े जिहाद की तरफ़ वापस आ गए हो।” पूछा गया, “वह बड़ा जिहाद क्या है।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आदमी की ख़ुद अपने मन के ख़िलाफ़ जिद्दो-जुह्द। इसके बाद जिहाद का बड़ा मैदान पूरी दुनिया है जिसमें काम करनेवाली तमाम बग़ावत का मिजाज़ रखनेवाली, बग़ावत की तरफ़ माइल हो जानेवाली और बग़ावत पर उभारनेवाली ताक़तों के ख़िलाफ़ दिल और दिमाग़ और जिस्म और माल की सारी ताक़तों के साथ जिद्दो-जुह्द करना जिहाद का वह हक़ है जिसे अदा करने की यहाँ माँग की जा रही है।
129. यानी तमाम इनसानों में से तुम लोग उस काम के लिए चुन लिए गए हो जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है। इस मज़मून को क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से बयान किया गया है। मसलन सूरा-2 बक़रा, आयत-143 में फ़रमाया, “हमने तुमको उम्मते-वसत (बेहतरीन उम्मत) बनाया।” और सूरा-3 आले-इमरान, आयत-110 में फ़रमाया, “तुम बेहतरीन उम्मत हो जिसे लोगों के लिए निकाला गया है।” यहाँ इस बात पर भी ख़बरदार कर देना मुनासिब मालूम होता है कि ये आयतें उन आयतों में से हैं जो सहाबा किराम की फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) की दलील देती हैं और उन लोगों की ग़लती साबित करती हैं जो सहाबा को लानत-मलामत करते हैं। ज़ाहिर है कि इस आयत में सीधे तौर पर सहाबा को ख़िताब किया गया है। दूसरे लोगों से यह बात उनके ज़रिए ही से पहुँचती है।
130. यानी तुम्हारी ज़िन्दगी को उन तमाम बेकार की पाबन्दियों से आज़ाद कर दिया गया है जो पिछली उम्मतों के फ़क़ीहों (धर्म-शास्त्रियों) और फ़रीसियों (प्रोहितों) और पापाओं (क़ानूनदानों) ने लागू कर दी थीं। न यहाँ सोचने-समझने पर वे पाबन्दियाँ हैं जो इल्म की तरक़्क़ी में रुकावट हों और न अमली ज़िन्दगी पर वे पाबन्दियाँ हैं जो तमद्दुनी और सामाजिक तरक़्क़ी में रुकावट बनें। एक सादा और आसान अक़ीदा और क़ानून तुमको दिया गया है जिसको लेकर तुम जितना आगे चाहो बढ़ सकते हो। यहाँ जिस बात को ईजाबी और मुसबत (सकारात्मक) अन्दाज़ में बयान किया गया है वही एक दूसरी जगह सलबी और मनफ़ी (नकारात्मक) अन्दाज़ में बयान हुई है कि “यह रसूल उनको जानी-मानी नेकियों का हुक्म देता है और उन बुराइयों से रोकता है जिनसे इनसानी फ़ितरत इनकार करती है और वे चीज़ें हलाल करता है जो पाकीज़ा है और वे चीज़ें हराम करता है जो गन्दी हैं और उनपर से वे भारी बोझ उतारता है जो उनपर लदे हुए थे और वे ज़ंजीरें खोलता है जिनमें वे जकड़े हुए थे।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-157)
131. अगरचे इस्लाम को नूह की मिल्लत (तरीक़ा), मूसा की मिल्लत, ईसा की मिल्लत भी इसी तरह कहा जा सकता है जिस तरह इबराहीम की मिल्लत। लेकिन क़ुरआन मजीद में इसको बार-बार इबराहीम की मिल्लत कहकर इसकी पैरवी की दावत तीन वजहों से दी गई है। एक यह कि क़ुरआन ने सबसे पहले जिन्हें मुख़ातब (सम्बोधित) किया वे अरब के लोग थे और वे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को जिस तरह जानते थे किसी और को नहीं जानते थे। उनके इतिहास, रिवायतों और अक़ीदों में जिस शख़्सियत का असर और प्रभाव रचा-बसा था वह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ही की शख़्सियत थी। दूसरी वजह यह है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ही वे शख़्स थे जिनकी बुज़ुर्गो पर यहूदी, ईसाई, मुसलमान अरब के मुशरिक और मशरिक़े-वुस्ता (मध्य-पूर्व) के साबिई, सब एकराय थे। नबियों में कोई दूसरा ऐसा न था और न है जिसपर सब एक राय हो। तीसरी वजह यह है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उन सब मिल्लतों की पैदाइश से पहले गुज़रे हैं। यहूदियत, ईसाइयत और साबिइयत के बारे में तो मालूम ही है कि सब बाद की पैदावार हैं। रहे अरब के मुशरिक तो वे भी यह मानते थे कि उनके यहाँ बुतपरस्ती का रिवाज अम्र-बिन-लुहैय से शुरू हुआ जो बनी-ख़ुज़ाआ का सरदार या और मआब (मुआब) के इलाक़े से हुबल नामी बुत ले आया था उसका ज़माना ज़्यादा-से-ज़्यादा 5-6 सौ साल ई०पू० का है। इसलिए यह मिल्लत भी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सदियों बाद पैदा हुई। इस सूरते-हाल में क़ुरआन जब कहता है कि इन मिल्लतों के बजाय इबराहीम की मिल्लत को अपनाओ तो वह अस्ल में इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करता है कि अगर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) हक़ पर और हिदायत पर थे, और उन मिल्लतों में से किसी की पैरवी करनेवाले न थे तो ज़रूर फिर वही मिल्लत अस्ल मिल्लते-हक़ है, न कि ये बाद की मिल्लतें, और मुहम्मद (सल्ल०) की दावत उसी मिल्लत की तरफ़ है। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, भाग-1; सूरा-2 बक़रा, हाशिए—134 135; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—58-79; तफ़हीमुल-क़ुरआन, भाग-2; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-120।
132. 'तुम्हारा' का ख़िताब ख़ास तौर पर सिर्फ़ उन्हीं ईमानवालों की तरफ़ नहीं है जो इस आयत के नाज़िल होने (उतरने) के वक़्त मौजूद थे, या उसके बाद ईमानवालों की क़तार में शामिल हुए, बल्कि उसके मुख़ातब वे तमाम लोग हैं जो के इनसानी तारीख़ से तौहीद, आख़िरत, रिसालत और अल्लाह की किताबों के माननेवाले रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि इस मिल्लते-हक़ (सत्यवादी समुदाय) के माननेवाले पहले भी 'नूही', 'इबराहीमी', 'मूसवी', 'मसीही’वग़ैरा नहीं कहलाते थे, बल्कि उनका नाम 'मुस्लिम (अल्लाह का फ़रमॉबरदार) था, और आज भी वे 'मुहम्मदी' नहीं, बल्कि 'मुस्लिम' है इस बात को न समझने की वजह से लोगों के लिए यह सवाल पहेली बन गया कि मुहम्मद (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों का नाम क़ुरआन से पहले किस किताब में मुस्लिम रखा गया था।
133. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया 144। इससे ज़्यादा तफ़सील के साथ हमने अपनी किताब 'शहादते-हक़' में इस मज़मून पर रौशनी डाली है।
134. या दूसरे अलफ़ाज़ में अल्लाह का दामन मज़बूती के साथ थाम लो। हिदायत और ज़िन्दगी का क़ानून भी उसी से लो, फ़रमाँबरदारी भी उसी की करो, डर भी उसी का रखो, उम्मीदें भी उसी से लगाओ, मदद के लिए भी उसी के आगे हाथ फैलाओ और अपने तवक्कुल और भरोसे का सहारा भी उसी की ज़ात को बनाओ।
لِّيَجۡعَلَ مَا يُلۡقِي ٱلشَّيۡطَٰنُ فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡقَاسِيَةِ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَفِي شِقَاقِۭ بَعِيدٖ ۝ 76
(53) (वह इसलिए ऐसा होने देता है) ताकि शैतान की डाली हुई ख़राबी को फ़ितना बना दे उन लोगों के लिए जिनके दिलों को (निफ़ाक़ यानी कपटाचार का) रोग लगा हुआ है और जिनके दिल खोटे हैं—हक़ीक़त यह है कि ये ज़ालिम लोग दुश्मनी में बहुत दूर निकल गए है।
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ أَنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَيُؤۡمِنُواْ بِهِۦ فَتُخۡبِتَ لَهُۥ قُلُوبُهُمۡۗ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهَادِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 77
(54) और इल्म रखनेवाले लोग जान लें कि यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से और वे इसपर ईमान ले आएँ और उनके दिल उसके आगे झुक जाएँ यक़ीनन अल्लाह ईमान लानेवालों को हमेशा सीधा रास्ता दिखा देता है।101
101. यानी शैतान की इन फ़ितना-परदाज़ियों को अल्लाह ने लोगों की आज़माइश और खरे को खोटे से जुदा करने का एक ज़रिआ बना दिया है। बिगड़ी हुई ज़ेहनियत के लोग इन्हीं चीज़ों से ग़लत नतीजे निकालते हैं और ये उनके लिए गुमराही का ज़रिआ बन जाती हैं। साफ़ ज़ेहन के लोगों को यही बातें नबी और अल्लाह की किताब के सच्चे होने का यक़ीन दिलाती हैं और वे महसूस कर लेते हैं कि ये सब शैतान की शरारतें हैं और यह चीज़ उन्हें मुत्मइन कर देती है कि यह दावत यक़ीनी तौर पर भलाई और सच्चाई की दावत है, वरना शैतान इसपर इतना ज़्यादा न तिलमिलाता। बात के इस सिलसिले को नज़र में रखकर देखा जाए तो इन आयतों का मतलब साफ़ समझ में आ जाता है। नबी (सल्ल०) की दावत उस वक़्त जिस मरहले में थी उसको देखकर सिर्फ़ ज़ाहिर को देखनेवाली तमाम निगाहें यह धोखा खा रही थीं कि नबी (सल्ल०) अपने मक़सद में नाकाम हो गए। देखनेवाले जो कुछ देख रहे थे वह तो यही था कि एक शख़्स, जिसकी तमन्ना और आरज़ू यह थी कि उसकी क़ौम उसपर ईमान लाए, वह (अल्लाह की पनाह) तेरह साल सर मारने के बाद आख़िरकार अपने मुट्ठी-भर पैरवी करनेवालों को लेकर वतन से निकल जाने पर मजबूर हो गया है। इस सूरते-हाल में जब लोग आप (सल्ल०) के इस बयान को देखते थे कि मैं अल्लाह का नबी हूँ और उसकी ताईद (समर्थन) मेरे साथ है, और क़ुरआन के उन एलानों को देखते थे कि नबी को झुठला देनेवाली क़ौम पर अज़ाब आ जाता है तो उन्हें आप (सल्ल०) की और क़ुरआन की सच्चाई में शक होने लगता था, और आप (सल्ल०) के मुख़ालिफ़ इसपर बढ़ बढ़कर बातें बनाते थे कि कहाँ गई वह ख़ुदा की ताईद और क्या हुईं वे अज़ाब की धरमकियाँ? अब क्यों नहीं आ जाता वह अज़ाब जिसके हमको डरावे दिए जाते थे? इन्हीं बातों का जवाब इससे पहले की आयतों में दिया गया था और इन्हीं के जवाब में ये आयतें भी उतरी हैं। पहले की आयतों में जवाब का रुख़ इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की तरफ़ था और इन आयतों में उसका रुख़ उन लोगों की तरफ़ है जो इस्लाम मुख़ालिफ़ों के प्रोपगंडे से मुतास्सिर हो रहे थे। पूरे जवाब का ख़ुलासा यह है— “किसी क़ौम का अपने पैग़म्बर को झुठलाना इनसानी तारीख़ में कोई नया वाक़िआ नहीं है, पहले भी ऐसा ही होता रहा है। फिर इस झुठलाने का जो अंजाम हुआ वह तुम्हारी आँखों के सामने तबाह हो चुकी क़ौमों के खण्डहरों की सूरत में मौजूद है। सबक़ लेना चाहो तो उससे ले सकते हो। रही यह बात कि झुठलाते ही वह अज़ाब क्यों न आ गया जिसकी धमकियाँ क़ुरआन की बहुत-सी आयतों में दी गई थीं, तो आख़िर यह कब कहा गया था कि झुठलाने का हर अमल फ़ौरन ही अज़ाब ले आता है, और नबी ने यह कब कहा था कि अज़ाब लाना उसका अपना काम है। इसका फ़ैसला तो ख़ुदा के हाथ में है और वह जल्दबाज़ नहीं है। पहले भी वह अज़ाब लाने से पहले क़ौमों को मुहलत देता रहा है और अब भी दे रहा है। मुहलत का यह ज़माना अगर सदियों तक भी लम्बा हो तो यह इस बात की दलील नहीं है कि अज़ाब से डरानेवाली वे सब ख़बरें ख़ाली-ख़ूली धमकियाँ ही थीं जो पैग़म्बर के झुठलानेवालों पर अज़ाब आने के बारे में की गई थीं। फिर यह बात भी कोई नई नहीं है कि पैग़म्बर की आरज़ुओं और तमन्नाओं के पूरे होने में रुकावटें आएँ, या उसकी दावत के ख़िलाफ़ झूठे इलज़ामों और तरह-तरह के शक-शुब्हों और एतिराज़ों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हो। यह सब कुछ भी तमाम पिछले पैग़म्बरों की दावतों के मुक़ाबले में हो चुका है। मगर आख़िरकार अल्लाह तआला इन शैतानी फ़ितनों को जड़ से ख़त्म कर देता है। रुकावटों के बावजूद हक़ (सत्य) की दावत फलती-फूलती है, और साफ़ और वाज़ेह आयतों के ज़रिए से शक और शुब्हों के छेद भर दिए जाते हैं। शैतान और उसके चेले उन तदबीरों से अल्लाह की आयतों को नीचा दिखाना चाहते हैं, मगर अल्लाह उन्हीं को इनसानों के बीच खोटे और खरे में फ़र्क़ करने का ज़रिआ बना देता है। इस ज़रिए से खरे आदमी हक़ की दावत की तरफ़ खिंच आते हैं और खोटे लोग छँटकर अलग हो जाते हैं।” यह है वह साफ़ और सीधा मतलब जो यहाँ मौक़ा और महल की रौशनी में इन आयतों से मिलता है। मगर अफ़सोस है कि एक रिवायत ने उनकी तफ़सीर में इतना बड़ा घपला डाल दिया कि न सिर्फ़ उनका मतलब कुछ-से-कुछ हो गया, बल्कि सारे दीन की बुनियाद ही ख़तरे में पड़ गई। हम उसका ज़िक्र यहाँ इसलिए करते हैं कि क़ुरआन का इल्म (ज्ञान) हासिल करनेवाले क़ुरआन के समझने में रिवायतों से मदद लेने के सही और ग़लत तरीक़ों का फ़र्क़ अच्छी तरह समझ सकें और उन्हें मालूम हो जाए कि रिवायत-परस्ती में ग़ैर-ज़रूरी तौर पर हद से आगे बढ़ जाने से क्या नतीजे पैदा होते हैं, और क़ुरआन की ग़लत तफ़सीर करनेवाली रिवायतों पर तनक़ीद (समीक्षा) करने का सही तरीक़ा क्या है। क़िस्सा यह बयान किया जाता है कि नबी (सल्ल०) के दिल में यह तमन्ना पैदा हुई कि काश, क़ुरआन में कोई ऐसी बात नाज़िल हो (उतर आए) जिससे इस्लाम के ख़िलाफ़ क़ुरैश के इस्लाम मुख़ालिफ़ों की नफ़रत दूर हो और वे कुछ क़रीब आ जाएँ। या कम-से-कम उनके दीन के ख़िलाफ़ ऐसी सख़्त तनक़ीद न हो जो उन्हें भड़का देनेवाली हो। यह तमन्ना नबी (सल्ल०) के दिल ही में थी कि एक दिन क़ुरैश की एक बड़ी मजलिस में बैठे हुए नबी (सल्ल०) पर सूरा-53 नज्म उतरी और आप (सल्ल०) ने उसे पढ़ना शुरू किया जब आप (सल्ल०) “अ-फ़-रऐतुमुल-ला-त वल उज़्ज़ा व मनातस-सालि-सतल-उख़रा”(अब ज़रा बताओ कि “तुमने कभी इस 'लात' इस 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की हक़ीक़त पर कुछ ग़ौर भी किया है।” (आयतें—19, 20) पर पहुँचे तो यकायक आप (सल्ल०) की ज़बान से ये अलफाज़ निकले “ये बुलन्द मर्तबा देवियाँ हैं, इनकी सिफ़ारिश ज़रूर पूरी हो सकती है।” इसके बाद आगे फिर आप (सल्ल०) सूरा नज्म की आयतें पढ़ते चले गए, यहाँ तक कि जब सूरा के आख़िर में आप (सल्ल०) ने सजदा किया तो मुशरिक और मुसलमान सब सजदे में गिर गए। क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने कहा कि “अब हमारा मुहम्मद से क्या इख़्तिलाफ़ बाक़ी रह गया। हम भी तो यही कहते थे कि पैदा करनेवाला और रोज़ी देनेवाला अल्लाह ही है, अलबत्ता हमारे ये माबूद (उपास्य) उसके सामने हमारे सिफारिशी हैं।” शाम को जिबरील आए और उन्होंने कहा, “यह आप (सल्ल०) ने क्या किया। ये दोनों जुमले तो मैं नहीं लाया था।” इसपर आप (सल्ल०) बहुत दुखी हुए और अल्लाह तआला ने वह आयत उतारी जो सूरा-17 बनी-इसराईल में है कि “और वे तो लगते थे कि तुम्हें फ़ितने में डालकर उस चीज़ से हटा देने को हैं जिसकी वह्य हमने तुम्हारी तरफ़ की है, ताकि तुम उससे अलग चीज़ गढकर हमपर थोपो, और तब वे तुम्हें अपना क़रीबी दोस्त बना लेते। अगर हम तुम्हें जमाए न रखते तो तुम उनकी तरफ़ थोड़ा झुकने के क़रीब जा पहुँचते। उस वक़्त हम तुम्हें ज़िन्दगी में भी दोहरा मज़ा चखाते और मौत के बाद भी दोहरा मज़ा चखाते। फिर तुम हमारे मुक़ाबले में अपना कोई मददगार न पाते।” (आयतें—73-75)। यह चीज़ बराबर नबी (सल्ल०) को रंजो-ग़म में मुब्तला किए रही, यहाँ तक कि सूरा-22 हज की यह आयत उतरी और इसमें आप (सल्ल०) को तसल्ली दी गई कि तुमसे पहले भी पैग़म्बरों के साथ ऐसा होता रहा है। उधर यह वाक़िआ कि क़ुरआन सुनकर नबी (सल्ल०) के साथ क़ुरैश के लोगों ने भी सजदा किया, हबशा के मुहाजिरों तक इस रंग में पहुँचा कि नबी (सल्ल०) और मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के बीच समझौता हो गया है। चुनाँचे बहुत-से मुहाजिर मक्का वापस आ गए। मगर यहाँ पहुँचकर उन्हें मालूम हुआ कि समझौते की ख़बर ग़लत थी, इस्लाम और कुफ़्र (अधर्म) की दुश्मनी ज्यों-की-त्यों क़ायम है। यह क़िस्सा इब्ने-जरीर और बहुत-से तफ़सीर लिखनेवालों ने अपनी तफ़सीरों में, इब्ने-साद ने तबक़ात में, अल-वाहिदी ने असबाबुन-नुज़ूल में, मूसा-बिन-उक़बा ने मग़ाज़ी में, इब्ने-इसहाक़ ने सीरत में, और इब्ने-अबी-हातिम, इब्नुल-मुंज़िर, बाज़्ज़ार, इब्ने-मर्दुवैह और तबरानी ने अपने हदीसों के मजमुओं (संग्रहों) में नक़्ल किया है। जिन सनदों से यह नक़्ल हुआ है वह मुहम्मद-बिन-क़ैस, मुहम्मद-बिन-कअब क़ुरज़ी, उरवा-बिन-ज़ुबैर, अबू-सॉलेह, अबुल-आलिया सईद-बिन-जुबैर, ज़ह्हाक, अबू-बक्र-बिन-अब्दुर्रहमान-बिन-हारिस, क़तादा, मुजाहिद, सुद्दी, इब्ने-शिहाब, ज़ोहरी, और इब्ने-अब्बास पर ख़त्म होती हैं (इब्ने-अब्बास के सिवा इनमें से कोई सहाबी नहीं है)। क़िस्से की तफ़सीलात में छोटे-छोटे इख़्तिलाफ़ों को छोड़कर दो बहुत बड़े इख़्तिलाफ़ हैं। एक यह कि बुतों की तारीफ़ में जो बातें नबी (सल्ल०) से जोड़ी गई हैं वे लगभग हर रिवायत में दूसरी रिवायत से अलग हैं। हमने उनका जाइज़ा लेने की कोशिश की तो पन्द्रह इबारतें अलग-अलग अलफ़ाज़़ में पाईं। दूसरा बड़ा फ़र्क़ यह है कि किसी रिवायत के मुताबिक़ ये अलफ़ाज़ वह्य के दौरान में शैतान ने आप (सल्ल०) पर डाल दिए और आप (सल्ल०) समझे कि ये भी जिबरील लाए हैं। किसी रिवायत में है कि वे अलफ़ाज़ अपनी उस ख़ाहिश के असर से भूल से आप (सल्ल०) की ज़बान से निकल गए। किसी में है कि उस वक़्त आप (सल्ल०) को ऊँघ आ गई थी और इस हालत में ये अलफ़ाज़़ निकले। किसी का बयान है कि आप (सल्ल०) ने ये जान-बूझकर कहे मगर सवाल और इनकार करने के अन्दाज में कहे। किसी का कहना है कि शैतान ने आप (सल्ल०) की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर ये अलफ़ाज़ कह दिए और समझा यह गया कि आप (सल्ल०) ने कहे हैं। और किसी के नज़दीक कहनेवाला मुशरिकों में से कोई शख़्स था। इब्ने-कसीर, बैहक़ी, क़ाज़ी अयाज़, इब्ने ख़ुज़ैमा, क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी, इमाम राज़ी, क़ुरतुबी, बदरुद्दीन ऐनी, शौकानी, आलूसी वग़ैरा हज़रात इस क़िस्से को बिलकुल ग़लत क़रार देते हैं। इब्ने-कसीर कहते हैं कि “जितनी सनदों से यह रिवायत हुआ है, सब मुरसल और मुनक़तअ हैं। मुझे किसी सहीह, मुत्तसिल (क्रमबद्ध) सनद से यह नहीं मिला।”बैहक़ी कहते हैं कि “किसी बात को मुन्तक़िल किए जाने के जो उसूल हैं उनके मुताबिक़ यह क़िस्सा साबित नहीं है।”इब्ने-ख़ुज़ैमा से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “यह ज़िन्दीक़ियों (अधर्मियों) का गढ़ा हुआ है।”क़ाज़ी अयाज़ कहते हैं कि “इसकी कमज़ोरी इसी से ज़ाहिर है कि 'सिहाह सित्ता' (भरोसेमन्द हदीसों की छ: किताबों) के जमा करनेवालों में से किसी ने भी इसको अपने यहाँ नक़्ल नहीं किया और न यह किसी सहीह मुत्तसिल बे-ऐब सनद के साथ सिक़ा (भरोसेमन्द) रावियों से बयान हुआ है। इमाम राज़ी, क़ाज़ी अबू-बक्र और आलूसी ने इसपर तफ़सीली बहस करके इसे बड़े ज़ोरदार तरीक़े से रद्द किया है लेकिन दूसरी तरफ़ हाफ़िज़ इब्ने-हजर जैसे ऊँचे दरजे के हदीस के आलिम और अबू-बक्र जस्सास जैसे नामवर फ़क़ीह और ज़मख़शरी जैसे अक़लियत-पसन्द (बुद्धिवादी) क़ुरआन के आलिम और इब्ने-जरीर जैसे क़ुरआन, इतिहास और फ़िक़्ह के बड़े आलिम इसको सही मानते हैं और इसी को इस आयत की तफ़सीर क़रार देते हैं। इब्ने-हजर की हदीस के आलिम और माहिर होने की हैसियत से दलील यह है कि— "सईद-बिन-जुबैर के वास्ते के सिवा बाक़ी जिन तरीक़ों से यह रिवायत आई है वह या तो कमज़ोर हैं या मुनक़तअ (यानी बीच में राबियों का सिलसिला टूट गया है), मगर बहुत सारे तरीक़ों से इस क़िस्से का बयान किया जाना इस बात की दलील है कि इसकी कोई अस्ल है ज़रूर। इसके अलावा यह एक तरीक़े से सिलसिलेवार सहीह सनद के साथ भी नक़्ल हुआ है, जिसे बज़्ज़ार ने निकाला है (मुराद है यूसुफ़-बिन-हम्माद ने उमैया-बिन-ख़ालिद से उन्होंने शोअबा से, उन्होंने अबी-बिश्र से, उन्होंने सईद-बिन-जुबैर से, उन्होंने इब्ने-अब्बास रज़ि० से रिवायत किया) और दो तरीक़ों से यह अगरचे मुरसल है, मगर इसके रिवायत करनेवाले बुखारी और मुस्लिम की शर्त के मुताबिक़ हैं। ये दोनों रिवायतें तबरी ने नक़्ल की हैं। एक यूनुस-बिन-यज़ीद से, उन्होंने इब्ने-शिहाब से, दूसरी मुअतमिर-बिन-सुलैमान से और हम्माद-बिन-सलमा से, उन्होंने दाऊद-बिन-अबी-हिन्द से, उन्होंने अबुल-आलिया से।" जहाँ तक इस तफ़सीर के माननेवालों का ताल्लुक़ है, वे तो इसे सही मान ही बैठे हैं। लेकिन मुख़ालफ़त करनेवालों ने भी आम तौर से इसपर तनक़ीद का हक़ अदा नहीं किया है एक गरोह इसे इसलिए रद्द करता है कि इसकी सनद उसके नज़दीक मज़बूत नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर सनद मज़बूत होती तो ये लोग इस क़िस्से को सही मान लेते। दूसरा गरोह इसे इसलिए रद्द करता है कि इससे तो सारा दीन ही शक-शुब्हे में पड़ जाता है और दीन की हर बात के बारे में शक पैदा हो जाता है कि न जाने और कहाँ-कहाँ शैतानी दख़लअन्दाज़ी और मन की ख़ाहिशों की मिलावटों का दख़ल हो गया हो। हालाँकि इस तरह से दलीत देना उन लोगों को तो मुत्मइन कर सकता है जो ईमान लाने के पक्के इरादे पर क़ायम हों, मगर दूसरे लोग जो पहले से शक में मुब्तला या जो अब खोजबीन करके फ़ैसला करना चाहते हैं कि ईमान लाएँ या न लाएँ, उनके दिल में तो यह जज़्बा पैदा नहीं हो सकता कि जो-जो चीज़ें इस दीन में शक व शुब्हे पैदा करती हैं, उन्हें रद्द कर दें। वे तो कहेंगे कि जब कम-से-कम एक नामवर सहाबी और बहुत-से ताबिईन और तबा-ताबिईन और कई भरोसेमन्द हदीस बयान करनेवालों की रिवायत से एक वाक़िआ साबित हो रहा है तो उसे सिर्फ़ इस वजह से क्यों रद्द कर दिया जाए कि उनसे आपके दीन में शक व शुब्हा पैदा हो जाता है? इसके बजाय यह क्यों न समझा जाए कि आपके दीन में शक व शुब्हा मौजूद है, जबकि इस वाक़िआ से यह बात साबित हो ही रही है कि इस दीन में शक व शुब्हा मौजूद है? अब देखना चाहिए कि तनक़ीद का वह सही तरीक़ा क्या है, जिससे अगर इस क़िस्से को परखकर देखा जाए तो यह रद्द करने के क़ाबिल ठहरता है, चाहे इसकी सनद कितनी ही मज़बूत हो, या मज़बूत होती। पहली चीज़ ख़ुद उसकी अन्दरूनी गवाही है जो उसे ग़लत साबित करती है। क़िस्से में बयान किया गया है कि यह वाक़िआ उस वक़्त पेश आया जब हबशा की हिजरत हो चुकी थी, और इस वाक़िए की ख़बर पाकर हबशा को हिजरत करनेवालों में से एक गरोह मक्का वापस आ गया। अब ज़रा तारीख़ों का फ़र्क़ देखिए— • हबशा की हिजरत भरोसेमन्द तारीख़ी (ऐतिहासिक) रियायतों के मुताबिक़ रजब, 5 नबवी में हुई, और हबशा को हिजरत करनेवालों का एक गरोह समझौते की ग़लत ख़बर सुनकर तीन महीने बाद (यानी उसी साल लगभग शव्वाल के महीने में) मक्का वापस आ गया इससे मालूम हुआ कि यह वाक़िआ ज़रूर ही सन् 5 नबवी का है। • सूरा-17 बनी-इसराईल जिसकी एक आयत के बारे में बयान किया जा रहा है कि वह नबी (सल्ल०) के इस काम पर सज़ा के तौर पर उतरी थी, मेराज के बाद उतरी है, और मेराज का ज़माना बहुत ही भरोसेमन्द रिवायतों के मुताबिक़ सन् 11 या 12 नबवी का है। इसका मतलब यह हुआ कि इस काम पर 5-6 साल जब गुज़र चुके तब अल्लाह तआला ने नाराज़गी ज़ाहिर की। • और वह आयत, जैसा कि इसका मौक़ा-महल साफ़-साफ़ बता रहा है कि सन् 1 हिजरी में उतरी है। यानी नाराज़गी पर भी जब और दो-ढाई साल बीत गए तब एलान किया गया कि यह मिलावट तो शैतान की गड़बड़ी से हो गई थी, अल्लाह ने इसे रद्द कर दिया है। क्या कोई अक़्ल रखनेवाला आदमी यह मान सकता है कि मिलावट का काम आज हो, नाराज़गी और सज़ा छः (6) साल बाद और मिलावट को रद्द कर देने का एलान नौ साल बाद? फिर इस क़िस्से में बयान किया गया है कि यह मिलावट सूरा-53 नज्म में हुई थी और इस तरह हुई कि शुरू से आप (सल्ल०) अस्ल सूरा के अलफ़ाज़़ पढ़ते चले आ रहे थे, यकायक “मनातस-सालिसतल-उख़रा' पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने अपने तौर पर या शैतान के बहकावे की वजह से यह जुमला मिलाया, और आगे फिर सूरा नज्म की आयतें पढ़ते चले गए। इसके बारे में कहा जा रहा है कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ इसे सुनकर ख़ुश हो गए और उन्होंने कहा कि अब हमारा और मुहम्मद का इख़्तिलाफ़ खत्म हो गया। मगर सूरा नज्म में जो बात चली आ रही है उसमें इस जोड़े गए जुमले को शामिल करके तो देखिए— "फिर तुमने कुछ ग़ौर भी किया इन लात और उज़्ज़ा पर और तीसरी एक और (देवी) मनात पर? ये बुलन्द दरजे की देवियाँ हैं, इनकी सिफ़ारिश ज़रूर क़ुबूल हो सकती है। क्या तुम्हारे लिए तो हो बेटे और उस (अल्लाह) के लिए हों बेटियाँ? यह तो बड़ी बे-इनसाफ़ी का बाँटवारा है। अस्ल में ये कुछ नहीं हैं मगर कुछ नाम जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इनके लिए कोई सनद नहीं उतारी। लोग सिर्फ़ अपने गुमान और मनमाने ख़यालात की पैरवी कर रहे हैं, हालाँकि उनके रब की तरफ़ से सही रहनुमाई आ गई है।" देखिए इस इबारत में लाइन खींचे हुए जुमले ने कैसा खुला तज़ाद (विरोधाभास) पैदा कर दिया है। एक साँस में कहा जाता है कि वाक़ई तुम्हारी ये देवियाँ बुलन्द दरजा रखती हैं, इनकी सिफ़ारिश ज़रूर क़ुबूल हो सकती है। दूसरी ही साँस में पलटकर उनपर चोट की जाती है कि बेवक़ूफ़ो, ये तुमने ख़ुदा के लिए बेटियाँ कैसी बना रखी हैं? अच्छी घाँधली है कि तुम्हें तो मिलें बेटे और ख़ुदा के हिस्से में आएँ बेटियाँ! यह सब तुम्हारी मनगढ़न्त है जिसे ख़ुदा की तरफ़ से कोई भरोसेमन्द सनद हासिल नहीं है। थोड़ी देर के लिए इस सवाल को जाने दीजिए कि ये साफ़ बेतुकी बातें किसी अक़्ल रखनेवाले आदमी की ज़बान से निकल भी सकती हैं या नहीं। मान लीजिए कि शैतान ने ग़लबा पाकर ये अलफ़ाज़ ज़बान से निकलवा दिए मगर क्या क़ुरैश की वह सारी भीड़ जो इसे सुन रही थी, बिलकुल ही पागल हो गई थी कि बाद के जुमलों में इन तारीफ़ी बातों का खुला इनकार सुनकर भी वह यही समझती रही कि हमारी देवियों की सचमुच तारीफ़ की गई है? सूरा नज्म के आख़िर तक का पूरा मज़मून इस एक तारीफ़ी जुमले के बिलकुल ख़िलाफ़ है। किस तरह माना जा सकता है कि क़ुरैश के लोग इसे आख़िर तक सुनने के बाद यह पुकार उठे होंगे कि चलो आज हमारा और मुहम्मद का इख़्तिलाफ़ खत्म हो गया? यह तो है इस क़िस्से की अन्दरूनी गवाही जो इस बात को साबित कर रही है कि यह क़िस्सा बिलकुल बेमानी और बकवास है। इसके बाद दूसरी चीज़ देखने की यह है कि इसमें तीन आयतों के उतरने की जो वजह बयान की जा रही है, क्या क़ुरआन की तरतीब (क्रम) भी उसको क़ुबूल करती है? क़िस्से में बयान यह किया जा रहा है कि मिलावट सूरा-53 नज्म में की गई थी जो सन् 5 नबवी में उतरी। इस मिलावट पर सूरा-17 बनी-इसराईल वाली आयत में नाराज़गी ज़ाहिर की गई और फिर इसको रद्द करने और वाक़िए की वजह बयान करने का अमल सूरा-22 हज की इस आयत में किया गया अब ज़रूर ही दो सूरतों में से कोई एक ही सूरत पेश आई होगी। या तो नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली और रद्द करनेवाली आयतें भी उसी ज़माने में उतरी हों, जबकि मिलावट का वाक़िआ हुआ या फिर नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली आयत सूरा-17 बनी-इसराईल के साथ और रद्द करनेवाली आयत सूरा-22 हज की साथ उतरी हो। अगर पहली सूरत है तो यह कितनी अजीब बात है कि ये दोनों आयतें सूरा-53 नज्म ही में शामिल न की गईं, बल्कि नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली आयत को 6 साल तक यूँ ही डाले रखा गया और सूरा-17 बनी-इसराईल जब उतरी तब कहीं उसमें लाकर चिपका दिया गया। फिर रद्द करनेवाली आयत दो-ढाई साल तक और पड़ी रही और सूरा-22 हज के उतरने तक उसे कहीं न जोड़ा गया। क्या क़ुरआन की तरतीब (संकलन) इसी तरह हुई है कि एक मौक़े की उतरी आयत दो-ढाई साल तक और पड़ी रही और सूरा-22 हज के उतरने तक उसे कहीं न जोड़ा गया। क्या क़ुरआन की तरतीब (संकलन) इसी तरह हुई है कि एक मौक़े की उतरी आयतें अलग-अलग बिखरी पड़ी रहती थीं और सालों के बाद किसी को किसी सूरत में और किसी को किसी दूसरी सूरत में टाँक दिया जाता था? लेकिन अगर दूसरी सूरत है कि नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली आयत वाक़िए के 6 साल बाद और रद्द करनेवाली आयत 8, 9 साल बाद उतरी तो, उस बेतुकेपन के अलावा जिसका हम पहले ज़िक्र कर आए हैं, यह सवाल पैदा होता है कि सूरा-17 बनी-इसराईल और सूरा-22 हज में इनके उतरने का मौक़ा क्या है। यहाँ पहुँचकर सही तौर पर जायज़ा लेने का तीसरा क़ायदा हमारे सामने आता है, यानी यह कि किसी आयत की जो तफ़सीर बयान की जा रही हो उसे देखा जाए कि क्या क़ुरआन का मौक़ा-महल भी इसे क़ुबूल करता है या नहीं। सूरा-17 बनी-इसराईल का आठवाँ रुकू (आयतें—71-77) पढ़कर देखिए, और उससे पहले और बाद के मज़मून पर निगाह डाल लीजिए। इस बात के सिलसिले में आख़िर क्या मौक़ा इस बात का नज़र आता है कि 6 साल पहले के एक वाक़िए पर नबी को डाँट बताई जाए (यह अलग बात है कि आयत “ये ज़रूर तुम्हें फ़ितने में डाल देते” में नबी पर डाँट है भी या नहीं, और आयत के अलफ़ाज़ ग़ैर-मुस्लिमों के फ़ितने में नबी के मुब्तला हो जाने को ग़लत बता रहे हैं या सही)। इसी तरह सूरा-22 हज आपके सामने मौजूद है। इस आयत से पहले का मज़मून भी पढ़िए और बाद का भी देखिए। क्या कोई सही वजह आपकी समझ में आती है कि इस मौक़ा-महल में यकायक यह मज़मून कैसे आ गया कि ‘ऐ नबी, 9 साल पहले क़ुरआन में मिलावट कर बैठने की जो हरकत तुमसे हो गई थी उसपर घबराओ नहीं, पहले नबियों से भी शैतान ये हरकतें कराता रहा है, और जब कभी नबी इस तरह की हरकत कर जाते हैं तो अल्लाह उसको रद्द करके अपनी आयतों को फिर पक्की कर देता है।’ हम इससे पहले भी कई बार कह चुके हैं और यहाँ फिर दोहराते हैं कि कोई रिवायत, चाहे उसकी सनद सूरज से भी ज़्यादा रौशन हो, ऐसी सूरत में क़ुबूल किए जाने लायक़ नहीं हो सकती जबकि उसका मत्न (अस्ल इबारत) उसके ग़लत होने की खुली-खुली गवाही दे रहा हो और क़ुरआन के अलफ़ाज़़, मौक़ा-महल, तरतीब हर चीज़ उसे क़ुबूल करने से इनकार कर रही हो। ये दलीलें तो एक शक में पड़े हुए और बेलाग तहक़ीक़ करनेवाले को भी मुल्मइन कर देंगी कि यह क़िस्सा बिलकुल ग़लत है। रहा मोमिन (ईमानवाला) तो वह इसे हरगिज़ नहीं मान सकता जबकि वह खुले तौर पर यह देख रहा है कि यह रिवायत क़ुरआन की एक नहीं बीसियों आयतों से टकराती है। एक मुसलमान के लिए यह मान लेना बहुत आसान है कि ख़ुद इस रिवायत के बयान करनेवालों को शैतान ने बहका दिया, इसके मुक़ाबले कि वे यह मान लें कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) कभी अपनी मन-मरज़ी से क़ुरआन में एक लफ़्ज़ भी मिला सकते थे, या आप (सल्ल०) के दिल में एक पल के लिए भी यह ख़याल आ सकता था कि तौहीद के साथ शिर्क की कुछ मिलावट करके न माननेवालों को राज़ी किया जाए। या आप (सल्ल०) अल्लाह तआला के हुक्मों के बारे में कभी यह आरज़ू कर सकते थे कि काश, अल्लाह मियाँ ऐसी कोई बात न फ़रमा बैठें जिससे ग़ैर-मुस्लिम लोग नाराज़ हो जाएँ! या यह कि आप (सल्ल०) पर वह्य किसी ग़ैर-महफ़ूज़ और शक व शुब्हों वाले तरीक़े से आती थी कि जिबरील के साथ शैतान भी आप (सल्ल०) पर कोई लफ़्ज़ उतार दे और आप (सल्ल०) इसी ग़लत-फ़हमी में रहें कि यह भी जिबरील ही लाए हैं। इनमें से एक-एक बात क़ुरआन के खुले-खुले बयानों के बिलकुल ख़िलाफ़ है और उन साबित-शुदा अक़ीदों के ख़िलाफ़ है जो हम क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में रखते हैं। ख़ुदा की पनाह उस रिवायत-परस्ती से जो महज़ सनद के मिल जाने या रिवायत करनेवालों के नेक होने या बयान करने के तरीक़ों की कसरत (अधिकता) देखकर किसी मुसलमान को ख़ुदा की किताब और उसके रसूल के बारे में ऐसी सख़्त बातें भी मानने पर आमादा कर दे। मुनासिब मालूम होता है कि यहाँ उस शक को भी दूर कर दिया जाए जो हदीस बयान करनेवालों की इतनी बड़ी तादाद को इस क़िस्से की रिवायत में मुब्तला होते देखकर दिलों में पैदा होता है। एक शख़्स सवाल कर सकता है कि अगर इस क़िस्से की कोई अस्लियत नहीं है। तो नबी (सल्ल०) और क़ुरआन पर इतना बड़ा झूठा इलज़ाम हदीस के इतने रावियों (उल्लेखकर्ताओं) के ज़रिए से, जिनमें कुछ बड़े नामवर और भरोसेमन्द बुज़ुर्ग हैं, फैल कैसे गया? इसका जवाब यह है कि इसकी वजहों का पता हमको ख़ुद हदीस ही के ज़ख़ीरे में मिल जाता है। बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई और मुसनद अहमद में अस्ल वाक़िआ इस तरह आया है कि नबी (सल्ल०) ने सूरा-55 नज्म की तिलावत की, और आख़िर में जब आप (सल्ल०) ने सजदा किया तो वहाँ मौजूद तमाम लोग, मुस्लिम और मुशरिक सब, सजदे में गिर गए। वाक़िआ बस इतना ही था और यह कोई हैरत की बात न थी। अव्वल तो क़ुरआन का ज़ोरे-कलाम और इन्तिहाई असरदार अन्दाज़े-बयान, फिर नबी (सल्ल०) की ज़बान से इसका एक इलहाम की तरह अदा होना, उसको सुनकर अगर पूरी भीड़ पर एक बेख़ुदी की-सी हालत छा गई हो और आप (सल्ल०) के साथ सारी भीड़ सजदे में गिर गई हो तो कुछ नामुमकिन नहीं है। यही तो वह चीज़ थी जिसपर क़ुरैश के लोग कहा करते थे कि यह शख़्स जादूगर है। अलबत्ता मालूम होता है कि बाद में क़ुरैश के लोग अपने वक़्ती असर पर कुछ पछताए से होंगे और उनमें से किसी ने या कुछ लोगों ने अपने इस काम की वजह यह बयान की होगी कि साहिब, हमारे कानों ने तो मुहम्मद की ज़बान से अपने माबूदों की तारीफ़ में कुछ बातें सुनी थीं, इसलिए हम भी उनके साथ सजदे में गिर गए दूसरी तरफ़ यही वाक़िआ हबशा की तरफ़ हिजरत करनेवालों तक इस शक्ल में पहुँचा कि नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के बीच समझौता हो गया है; क्योंकि देखनेवाले ने आप (सल्ल०) की और मुशरिकों और मुसलमानों सबको एक साथ सजदा करते देखा था। यह अफ़वाह ऐसी गर्म हुई कि हिजरत करनेवालों में से लगभग 35 आदमी मक्का में वापस आ गए। एक सदी के अन्दर इन तीनों बातों ने, यानी क़ुरैश का सजदा, उस सजदे की यह वजह बयान करना और हबशा के मुहाजिरों की वापसी, मिल-जुलकर एक क़िस्से की शक्ल इख़्तियार कर गई और कुछ भरोसेमन्द लोग तक इसकी रिवायत में मुब्तला हो गए। इनसान आख़िर इनसान है बड़े-से-बड़े नेक और समझदार आदमी से भी कभी-कभी भूल-चूक हो जाती है और उसकी भूल आम लोगों की भूल से ज़्यादा नुक़सानदेह साबित होती है। अक़ीदत (श्रद्धा) में हद से आगे बढ़ जानेवाले लोग इन बुज़ुर्गों की सही बातों के साथ उनकी ग़लत बातों को भी आँखें बन्द करके मान लेते हैं। और बुरी फ़ितरत के लोग छाट-छाँटकर उनकी ग़लतियाँ जमा करते हैं और उन्हें इस बात के लिए दलील बनाते हैं कि सब कुछ जो उनके ज़रिए से हमें पहुँचा है, आग में झोंक देने के लायक़ है।