(54) और इल्म रखनेवाले लोग जान लें कि यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से और वे इसपर ईमान ले आएँ और उनके दिल उसके आगे झुक जाएँ यक़ीनन अल्लाह ईमान लानेवालों को हमेशा सीधा रास्ता दिखा देता है।101
101. यानी शैतान की इन फ़ितना-परदाज़ियों को अल्लाह ने लोगों की आज़माइश और खरे को खोटे से जुदा करने का एक ज़रिआ बना दिया है। बिगड़ी हुई ज़ेहनियत के लोग इन्हीं चीज़ों से ग़लत नतीजे निकालते हैं और ये उनके लिए गुमराही का ज़रिआ बन जाती हैं। साफ़ ज़ेहन के लोगों को यही बातें नबी और अल्लाह की किताब के सच्चे होने का यक़ीन दिलाती हैं और वे महसूस कर लेते हैं कि ये सब शैतान की शरारतें हैं और यह चीज़ उन्हें मुत्मइन कर देती है कि यह दावत यक़ीनी तौर पर भलाई और सच्चाई की दावत है, वरना शैतान इसपर इतना ज़्यादा न तिलमिलाता।
बात के इस सिलसिले को नज़र में रखकर देखा जाए तो इन आयतों का मतलब साफ़ समझ में आ जाता है। नबी (सल्ल०) की दावत उस वक़्त जिस मरहले में थी उसको देखकर सिर्फ़ ज़ाहिर को देखनेवाली तमाम निगाहें यह धोखा खा रही थीं कि नबी (सल्ल०) अपने मक़सद में नाकाम हो गए। देखनेवाले जो कुछ देख रहे थे वह तो यही था कि एक शख़्स, जिसकी तमन्ना और आरज़ू यह थी कि उसकी क़ौम उसपर ईमान लाए, वह (अल्लाह की पनाह) तेरह साल सर मारने के बाद आख़िरकार अपने मुट्ठी-भर पैरवी करनेवालों को लेकर वतन से निकल जाने पर मजबूर हो गया है। इस सूरते-हाल में जब लोग आप (सल्ल०) के इस बयान को देखते थे कि मैं अल्लाह का नबी हूँ और उसकी ताईद (समर्थन) मेरे साथ है, और क़ुरआन के उन एलानों को देखते थे कि नबी को झुठला देनेवाली क़ौम पर अज़ाब आ जाता है तो उन्हें आप (सल्ल०) की और क़ुरआन की सच्चाई में शक होने लगता था, और आप (सल्ल०) के मुख़ालिफ़ इसपर बढ़ बढ़कर बातें बनाते थे कि कहाँ गई वह ख़ुदा की ताईद और क्या हुईं वे अज़ाब की धरमकियाँ? अब क्यों नहीं आ जाता वह अज़ाब जिसके हमको डरावे दिए जाते थे? इन्हीं बातों का जवाब इससे पहले की आयतों में दिया गया था और इन्हीं के जवाब में ये आयतें भी उतरी हैं। पहले की आयतों में जवाब का रुख़ इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की तरफ़ था और इन आयतों में उसका रुख़ उन लोगों की तरफ़ है जो इस्लाम मुख़ालिफ़ों के प्रोपगंडे से मुतास्सिर हो रहे थे। पूरे जवाब का ख़ुलासा यह है—
“किसी क़ौम का अपने पैग़म्बर को झुठलाना इनसानी तारीख़ में कोई नया वाक़िआ नहीं है, पहले भी ऐसा ही होता रहा है। फिर इस झुठलाने का जो अंजाम हुआ वह तुम्हारी आँखों के सामने तबाह हो चुकी क़ौमों के खण्डहरों की सूरत में मौजूद है। सबक़ लेना चाहो तो उससे ले सकते हो। रही यह बात कि झुठलाते ही वह अज़ाब क्यों न आ गया जिसकी धमकियाँ क़ुरआन की बहुत-सी आयतों में दी गई थीं, तो आख़िर यह कब कहा गया था कि झुठलाने का हर अमल फ़ौरन ही अज़ाब ले आता है, और नबी ने यह कब कहा था कि अज़ाब लाना उसका अपना काम है। इसका फ़ैसला तो ख़ुदा के हाथ में है और वह जल्दबाज़ नहीं है। पहले भी वह अज़ाब लाने से पहले क़ौमों को मुहलत देता रहा है और अब भी दे रहा है। मुहलत का यह ज़माना अगर सदियों तक भी लम्बा हो तो यह इस बात की दलील नहीं है कि अज़ाब से डरानेवाली वे सब ख़बरें ख़ाली-ख़ूली धमकियाँ ही थीं जो पैग़म्बर के झुठलानेवालों पर अज़ाब आने के बारे में की गई थीं।
फिर यह बात भी कोई नई नहीं है कि पैग़म्बर की आरज़ुओं और तमन्नाओं के पूरे होने में रुकावटें आएँ, या उसकी दावत के ख़िलाफ़ झूठे इलज़ामों और तरह-तरह के शक-शुब्हों और एतिराज़ों का एक तूफ़ान उठ खड़ा हो। यह सब कुछ भी तमाम पिछले पैग़म्बरों की दावतों के मुक़ाबले में हो चुका है। मगर आख़िरकार अल्लाह तआला इन शैतानी फ़ितनों को जड़ से ख़त्म कर देता है। रुकावटों के बावजूद हक़ (सत्य) की दावत फलती-फूलती है, और साफ़ और वाज़ेह आयतों के ज़रिए से शक और शुब्हों के छेद भर दिए जाते हैं। शैतान और उसके चेले उन तदबीरों से अल्लाह की आयतों को नीचा दिखाना चाहते हैं, मगर अल्लाह उन्हीं को इनसानों के बीच खोटे और खरे में फ़र्क़ करने का ज़रिआ बना देता है। इस ज़रिए से खरे आदमी हक़ की दावत की तरफ़ खिंच आते हैं और खोटे लोग छँटकर अलग हो जाते हैं।”
यह है वह साफ़ और सीधा मतलब जो यहाँ मौक़ा और महल की रौशनी में इन आयतों से मिलता है। मगर अफ़सोस है कि एक रिवायत ने उनकी तफ़सीर में इतना बड़ा घपला डाल दिया कि न सिर्फ़ उनका मतलब कुछ-से-कुछ हो गया, बल्कि सारे दीन की बुनियाद ही ख़तरे में पड़ गई। हम उसका ज़िक्र यहाँ इसलिए करते हैं कि क़ुरआन का इल्म (ज्ञान) हासिल करनेवाले क़ुरआन के समझने में रिवायतों से मदद लेने के सही और ग़लत तरीक़ों का फ़र्क़ अच्छी तरह समझ सकें और उन्हें मालूम हो जाए कि रिवायत-परस्ती में ग़ैर-ज़रूरी तौर पर हद से आगे बढ़ जाने से क्या नतीजे पैदा होते हैं, और क़ुरआन की ग़लत तफ़सीर करनेवाली रिवायतों पर तनक़ीद (समीक्षा) करने का सही तरीक़ा क्या है।
क़िस्सा यह बयान किया जाता है कि नबी (सल्ल०) के दिल में यह तमन्ना पैदा हुई कि काश, क़ुरआन में कोई ऐसी बात नाज़िल हो (उतर आए) जिससे इस्लाम के ख़िलाफ़ क़ुरैश के इस्लाम मुख़ालिफ़ों की नफ़रत दूर हो और वे कुछ क़रीब आ जाएँ। या कम-से-कम उनके दीन के ख़िलाफ़ ऐसी सख़्त तनक़ीद न हो जो उन्हें भड़का देनेवाली हो। यह तमन्ना नबी (सल्ल०) के दिल ही में थी कि एक दिन क़ुरैश की एक बड़ी मजलिस में बैठे हुए नबी (सल्ल०) पर सूरा-53 नज्म उतरी और आप (सल्ल०) ने उसे पढ़ना शुरू किया जब आप (सल्ल०) “अ-फ़-रऐतुमुल-ला-त वल उज़्ज़ा व मनातस-सालि-सतल-उख़रा”(अब ज़रा बताओ कि “तुमने कभी इस 'लात' इस 'उज़्ज़ा' और तीसरी एक देवी 'मनात' की हक़ीक़त पर कुछ ग़ौर भी किया है।” (आयतें—19, 20) पर पहुँचे तो यकायक आप (सल्ल०) की ज़बान से ये अलफाज़ निकले “ये बुलन्द मर्तबा देवियाँ हैं, इनकी सिफ़ारिश ज़रूर पूरी हो सकती है।” इसके बाद आगे फिर आप (सल्ल०) सूरा नज्म की आयतें पढ़ते चले गए, यहाँ तक कि जब सूरा के आख़िर में आप (सल्ल०) ने सजदा किया तो मुशरिक और मुसलमान सब सजदे में गिर गए। क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने कहा कि “अब हमारा मुहम्मद से क्या इख़्तिलाफ़ बाक़ी रह गया। हम भी तो यही कहते थे कि पैदा करनेवाला और रोज़ी देनेवाला अल्लाह ही है, अलबत्ता हमारे ये माबूद (उपास्य) उसके सामने हमारे सिफारिशी हैं।” शाम को जिबरील आए और उन्होंने कहा, “यह आप (सल्ल०) ने क्या किया। ये दोनों जुमले तो मैं नहीं लाया था।” इसपर आप (सल्ल०) बहुत दुखी हुए और अल्लाह तआला ने वह आयत उतारी जो सूरा-17 बनी-इसराईल में है कि “और वे तो लगते थे कि तुम्हें फ़ितने में डालकर उस चीज़ से हटा देने को हैं जिसकी वह्य हमने तुम्हारी तरफ़ की है, ताकि तुम उससे अलग चीज़ गढकर हमपर थोपो, और तब वे तुम्हें अपना क़रीबी दोस्त बना लेते। अगर हम तुम्हें जमाए न रखते तो तुम उनकी तरफ़ थोड़ा झुकने के क़रीब जा पहुँचते। उस वक़्त हम तुम्हें ज़िन्दगी में भी दोहरा मज़ा चखाते और मौत के बाद भी दोहरा मज़ा चखाते। फिर तुम हमारे मुक़ाबले में अपना कोई मददगार न पाते।” (आयतें—73-75)। यह चीज़ बराबर नबी (सल्ल०) को रंजो-ग़म में मुब्तला किए रही, यहाँ तक कि सूरा-22 हज की यह आयत उतरी और इसमें आप (सल्ल०) को तसल्ली दी गई कि तुमसे पहले भी पैग़म्बरों के साथ ऐसा होता रहा है। उधर यह वाक़िआ कि क़ुरआन सुनकर नबी (सल्ल०) के साथ क़ुरैश के लोगों ने भी सजदा किया, हबशा के मुहाजिरों तक इस रंग में पहुँचा कि नबी (सल्ल०) और मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के बीच समझौता हो गया है। चुनाँचे बहुत-से मुहाजिर मक्का वापस आ गए। मगर यहाँ पहुँचकर उन्हें मालूम हुआ कि समझौते की ख़बर ग़लत थी, इस्लाम और कुफ़्र (अधर्म) की दुश्मनी ज्यों-की-त्यों क़ायम है।
यह क़िस्सा इब्ने-जरीर और बहुत-से तफ़सीर लिखनेवालों ने अपनी तफ़सीरों में, इब्ने-साद ने तबक़ात में, अल-वाहिदी ने असबाबुन-नुज़ूल में, मूसा-बिन-उक़बा ने मग़ाज़ी में, इब्ने-इसहाक़ ने सीरत में, और इब्ने-अबी-हातिम, इब्नुल-मुंज़िर, बाज़्ज़ार, इब्ने-मर्दुवैह और तबरानी ने अपने हदीसों के मजमुओं (संग्रहों) में नक़्ल किया है। जिन सनदों से यह नक़्ल हुआ है वह मुहम्मद-बिन-क़ैस, मुहम्मद-बिन-कअब क़ुरज़ी, उरवा-बिन-ज़ुबैर, अबू-सॉलेह, अबुल-आलिया सईद-बिन-जुबैर, ज़ह्हाक, अबू-बक्र-बिन-अब्दुर्रहमान-बिन-हारिस, क़तादा, मुजाहिद, सुद्दी, इब्ने-शिहाब, ज़ोहरी, और इब्ने-अब्बास पर ख़त्म होती हैं (इब्ने-अब्बास के सिवा इनमें से कोई सहाबी नहीं है)। क़िस्से की तफ़सीलात में छोटे-छोटे इख़्तिलाफ़ों को छोड़कर दो बहुत बड़े इख़्तिलाफ़ हैं। एक यह कि बुतों की तारीफ़ में जो बातें नबी (सल्ल०) से जोड़ी गई हैं वे लगभग हर रिवायत में दूसरी रिवायत से अलग हैं। हमने उनका जाइज़ा लेने की कोशिश की तो पन्द्रह इबारतें अलग-अलग अलफ़ाज़़ में पाईं। दूसरा बड़ा फ़र्क़ यह है कि किसी रिवायत के मुताबिक़ ये अलफ़ाज़ वह्य के दौरान में शैतान ने आप (सल्ल०) पर डाल दिए और आप (सल्ल०) समझे कि ये भी जिबरील लाए हैं। किसी रिवायत में है कि वे अलफ़ाज़ अपनी उस ख़ाहिश के असर से भूल से आप (सल्ल०) की ज़बान से निकल गए। किसी में है कि उस वक़्त आप (सल्ल०) को ऊँघ आ गई थी और इस हालत में ये अलफ़ाज़़ निकले। किसी का बयान है कि आप (सल्ल०) ने ये जान-बूझकर कहे मगर सवाल और इनकार करने के अन्दाज में कहे। किसी का कहना है कि शैतान ने आप (सल्ल०) की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर ये अलफ़ाज़ कह दिए और समझा यह गया कि आप (सल्ल०) ने कहे हैं। और किसी के नज़दीक कहनेवाला मुशरिकों में से कोई शख़्स था।
इब्ने-कसीर, बैहक़ी, क़ाज़ी अयाज़, इब्ने ख़ुज़ैमा, क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी, इमाम राज़ी, क़ुरतुबी, बदरुद्दीन ऐनी, शौकानी, आलूसी वग़ैरा हज़रात इस क़िस्से को बिलकुल ग़लत क़रार देते हैं। इब्ने-कसीर कहते हैं कि “जितनी सनदों से यह रिवायत हुआ है, सब मुरसल और मुनक़तअ हैं। मुझे किसी सहीह, मुत्तसिल (क्रमबद्ध) सनद से यह नहीं मिला।”बैहक़ी कहते हैं कि “किसी बात को मुन्तक़िल किए जाने के जो उसूल हैं उनके मुताबिक़ यह क़िस्सा साबित नहीं है।”इब्ने-ख़ुज़ैमा से इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “यह ज़िन्दीक़ियों (अधर्मियों) का गढ़ा हुआ है।”क़ाज़ी अयाज़ कहते हैं कि “इसकी कमज़ोरी इसी से ज़ाहिर है कि 'सिहाह सित्ता' (भरोसेमन्द हदीसों की छ: किताबों) के जमा करनेवालों में से किसी ने भी इसको अपने यहाँ नक़्ल नहीं किया और न यह किसी सहीह मुत्तसिल बे-ऐब सनद के साथ सिक़ा (भरोसेमन्द) रावियों से बयान हुआ है। इमाम राज़ी, क़ाज़ी अबू-बक्र और आलूसी ने इसपर तफ़सीली बहस करके इसे बड़े ज़ोरदार तरीक़े से रद्द किया है लेकिन दूसरी तरफ़ हाफ़िज़ इब्ने-हजर जैसे ऊँचे दरजे के हदीस के आलिम और अबू-बक्र जस्सास जैसे नामवर फ़क़ीह और ज़मख़शरी जैसे अक़लियत-पसन्द (बुद्धिवादी) क़ुरआन के आलिम और इब्ने-जरीर जैसे क़ुरआन, इतिहास और फ़िक़्ह के बड़े आलिम इसको सही मानते हैं और इसी को इस आयत की तफ़सीर क़रार देते हैं। इब्ने-हजर की हदीस के आलिम और माहिर होने की हैसियत से दलील यह है कि—
"सईद-बिन-जुबैर के वास्ते के सिवा बाक़ी जिन तरीक़ों से यह रिवायत आई है वह या तो कमज़ोर हैं या मुनक़तअ (यानी बीच में राबियों का सिलसिला टूट गया है), मगर बहुत सारे तरीक़ों से इस क़िस्से का बयान किया जाना इस बात की दलील है कि इसकी कोई अस्ल है ज़रूर। इसके अलावा यह एक तरीक़े से सिलसिलेवार सहीह सनद के साथ भी नक़्ल हुआ है, जिसे बज़्ज़ार ने निकाला है (मुराद है यूसुफ़-बिन-हम्माद ने उमैया-बिन-ख़ालिद से उन्होंने शोअबा से, उन्होंने अबी-बिश्र से, उन्होंने सईद-बिन-जुबैर से, उन्होंने इब्ने-अब्बास रज़ि० से रिवायत किया) और दो तरीक़ों से यह अगरचे मुरसल है, मगर इसके रिवायत करनेवाले बुखारी और मुस्लिम की शर्त के मुताबिक़ हैं। ये दोनों रिवायतें तबरी ने नक़्ल की हैं। एक यूनुस-बिन-यज़ीद से, उन्होंने इब्ने-शिहाब से, दूसरी मुअतमिर-बिन-सुलैमान से और हम्माद-बिन-सलमा से, उन्होंने दाऊद-बिन-अबी-हिन्द से, उन्होंने अबुल-आलिया से।"
जहाँ तक इस तफ़सीर के माननेवालों का ताल्लुक़ है, वे तो इसे सही मान ही बैठे हैं। लेकिन मुख़ालफ़त करनेवालों ने भी आम तौर से इसपर तनक़ीद का हक़ अदा नहीं किया है एक गरोह इसे इसलिए रद्द करता है कि इसकी सनद उसके नज़दीक मज़बूत नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर सनद मज़बूत होती तो ये लोग इस क़िस्से को सही मान लेते। दूसरा गरोह इसे इसलिए रद्द करता है कि इससे तो सारा दीन ही शक-शुब्हे में पड़ जाता है और दीन की हर बात के बारे में शक पैदा हो जाता है कि न जाने और कहाँ-कहाँ शैतानी दख़लअन्दाज़ी और मन की ख़ाहिशों की मिलावटों का दख़ल हो गया हो। हालाँकि इस तरह से दलीत देना उन लोगों को तो मुत्मइन कर सकता है जो ईमान लाने के पक्के इरादे पर क़ायम हों, मगर दूसरे लोग जो पहले से शक में मुब्तला या जो अब खोजबीन करके फ़ैसला करना चाहते हैं कि ईमान लाएँ या न लाएँ, उनके दिल में तो यह जज़्बा पैदा नहीं हो सकता कि जो-जो चीज़ें इस दीन में शक व शुब्हे पैदा करती हैं, उन्हें रद्द कर दें। वे तो कहेंगे कि जब कम-से-कम एक नामवर सहाबी और बहुत-से ताबिईन और तबा-ताबिईन और कई भरोसेमन्द हदीस बयान करनेवालों की रिवायत से एक वाक़िआ साबित हो रहा है तो उसे सिर्फ़ इस वजह से क्यों रद्द कर दिया जाए कि उनसे आपके दीन में शक व शुब्हा पैदा हो जाता है? इसके बजाय यह क्यों न समझा जाए कि आपके दीन में शक व शुब्हा मौजूद है, जबकि इस वाक़िआ से यह बात साबित हो ही रही है कि इस दीन में शक व शुब्हा मौजूद है?
अब देखना चाहिए कि तनक़ीद का वह सही तरीक़ा क्या है, जिससे अगर इस क़िस्से को परखकर देखा जाए तो यह रद्द करने के क़ाबिल ठहरता है, चाहे इसकी सनद कितनी ही मज़बूत हो, या मज़बूत होती।
पहली चीज़ ख़ुद उसकी अन्दरूनी गवाही है जो उसे ग़लत साबित करती है। क़िस्से में बयान किया गया है कि यह वाक़िआ उस वक़्त पेश आया जब हबशा की हिजरत हो चुकी थी, और इस वाक़िए की ख़बर पाकर हबशा को हिजरत करनेवालों में से एक गरोह मक्का वापस आ गया। अब ज़रा तारीख़ों का फ़र्क़ देखिए—
• हबशा की हिजरत भरोसेमन्द तारीख़ी (ऐतिहासिक) रियायतों के मुताबिक़ रजब, 5 नबवी में हुई, और हबशा को हिजरत करनेवालों का एक गरोह समझौते की ग़लत ख़बर सुनकर तीन महीने बाद (यानी उसी साल लगभग शव्वाल के महीने में) मक्का वापस आ गया इससे मालूम हुआ कि यह वाक़िआ ज़रूर ही सन् 5 नबवी का है।
• सूरा-17 बनी-इसराईल जिसकी एक आयत के बारे में बयान किया जा रहा है कि वह नबी (सल्ल०) के इस काम पर सज़ा के तौर पर उतरी थी, मेराज के बाद उतरी है, और मेराज का ज़माना बहुत ही भरोसेमन्द रिवायतों के मुताबिक़ सन् 11 या 12 नबवी का है। इसका मतलब यह हुआ कि इस काम पर 5-6 साल जब गुज़र चुके तब अल्लाह तआला ने नाराज़गी ज़ाहिर की।
• और वह आयत, जैसा कि इसका मौक़ा-महल साफ़-साफ़ बता रहा है कि सन् 1 हिजरी में उतरी है। यानी नाराज़गी पर भी जब और दो-ढाई साल बीत गए तब एलान किया गया कि यह मिलावट तो शैतान की गड़बड़ी से हो गई थी, अल्लाह ने इसे रद्द कर दिया है। क्या कोई अक़्ल रखनेवाला आदमी यह मान सकता है कि मिलावट का काम आज हो, नाराज़गी और सज़ा छः (6) साल बाद और मिलावट को रद्द कर देने का एलान नौ साल बाद? फिर इस क़िस्से में बयान किया गया है कि यह मिलावट सूरा-53 नज्म में हुई थी और इस तरह हुई कि शुरू से आप (सल्ल०) अस्ल सूरा के अलफ़ाज़़ पढ़ते चले आ रहे थे, यकायक “मनातस-सालिसतल-उख़रा' पर पहुँचकर आप (सल्ल०) ने अपने तौर पर या शैतान के बहकावे की वजह से यह जुमला मिलाया, और आगे फिर सूरा नज्म की आयतें पढ़ते चले गए। इसके बारे में कहा जा रहा है कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ इसे सुनकर ख़ुश हो गए और उन्होंने कहा कि अब हमारा और मुहम्मद का इख़्तिलाफ़ खत्म हो गया। मगर सूरा नज्म में जो बात चली आ रही है उसमें इस जोड़े गए जुमले को शामिल करके तो देखिए—
"फिर तुमने कुछ ग़ौर भी किया इन लात और उज़्ज़ा पर और तीसरी एक और (देवी) मनात पर? ये बुलन्द दरजे की देवियाँ हैं, इनकी सिफ़ारिश ज़रूर क़ुबूल हो सकती है। क्या तुम्हारे लिए तो हो बेटे और उस (अल्लाह) के लिए हों बेटियाँ? यह तो बड़ी बे-इनसाफ़ी का बाँटवारा है। अस्ल में ये कुछ नहीं हैं मगर कुछ नाम जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इनके लिए कोई सनद नहीं उतारी। लोग सिर्फ़ अपने गुमान और मनमाने ख़यालात की पैरवी कर रहे हैं, हालाँकि उनके रब की तरफ़ से सही रहनुमाई आ गई है।"
देखिए इस इबारत में लाइन खींचे हुए जुमले ने कैसा खुला तज़ाद (विरोधाभास) पैदा कर दिया है। एक साँस में कहा जाता है कि वाक़ई तुम्हारी ये देवियाँ बुलन्द दरजा रखती हैं, इनकी सिफ़ारिश ज़रूर क़ुबूल हो सकती है। दूसरी ही साँस में पलटकर उनपर चोट की जाती है कि बेवक़ूफ़ो, ये तुमने ख़ुदा के लिए बेटियाँ कैसी बना रखी हैं? अच्छी घाँधली है कि तुम्हें तो मिलें बेटे और ख़ुदा के हिस्से में आएँ बेटियाँ! यह सब तुम्हारी मनगढ़न्त है जिसे ख़ुदा की तरफ़ से कोई भरोसेमन्द सनद हासिल नहीं है। थोड़ी देर के लिए इस सवाल को जाने दीजिए कि ये साफ़ बेतुकी बातें किसी अक़्ल रखनेवाले आदमी की ज़बान से निकल भी सकती हैं या नहीं। मान लीजिए कि शैतान ने ग़लबा पाकर ये अलफ़ाज़ ज़बान से निकलवा दिए मगर क्या क़ुरैश की वह सारी भीड़ जो इसे सुन रही थी, बिलकुल ही पागल हो गई थी कि बाद के जुमलों में इन तारीफ़ी बातों का खुला इनकार सुनकर भी वह यही समझती रही कि हमारी देवियों की सचमुच तारीफ़ की गई है? सूरा नज्म के आख़िर तक का पूरा मज़मून इस एक तारीफ़ी जुमले के बिलकुल ख़िलाफ़ है। किस तरह माना जा सकता है कि क़ुरैश के लोग इसे आख़िर तक सुनने के बाद यह पुकार उठे होंगे कि चलो आज हमारा और मुहम्मद का इख़्तिलाफ़ खत्म हो गया?
यह तो है इस क़िस्से की अन्दरूनी गवाही जो इस बात को साबित कर रही है कि यह क़िस्सा बिलकुल बेमानी और बकवास है। इसके बाद दूसरी चीज़ देखने की यह है कि इसमें तीन आयतों के उतरने की जो वजह बयान की जा रही है, क्या क़ुरआन की तरतीब (क्रम) भी उसको क़ुबूल करती है? क़िस्से में बयान यह किया जा रहा है कि मिलावट सूरा-53 नज्म में की गई थी जो सन् 5 नबवी में उतरी। इस मिलावट पर सूरा-17 बनी-इसराईल वाली आयत में नाराज़गी ज़ाहिर की गई और फिर इसको रद्द करने और वाक़िए की वजह बयान करने का अमल सूरा-22 हज की इस आयत में किया गया अब ज़रूर ही दो सूरतों में से कोई एक ही सूरत पेश आई होगी। या तो नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली और रद्द करनेवाली आयतें भी उसी ज़माने में उतरी हों, जबकि मिलावट का वाक़िआ हुआ या फिर नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली आयत सूरा-17 बनी-इसराईल के साथ और रद्द करनेवाली आयत सूरा-22 हज की साथ उतरी हो। अगर पहली सूरत है तो यह कितनी अजीब बात है कि ये दोनों आयतें सूरा-53 नज्म ही में शामिल न की गईं, बल्कि नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली आयत को 6 साल तक यूँ ही डाले रखा गया और सूरा-17 बनी-इसराईल जब उतरी तब कहीं उसमें लाकर चिपका दिया गया। फिर रद्द करनेवाली आयत दो-ढाई साल तक और पड़ी रही और सूरा-22 हज के उतरने तक उसे कहीं न जोड़ा गया। क्या क़ुरआन की तरतीब (संकलन) इसी तरह हुई है कि एक मौक़े की उतरी आयत दो-ढाई साल तक और पड़ी रही और सूरा-22 हज के उतरने तक उसे कहीं न जोड़ा गया। क्या क़ुरआन की तरतीब (संकलन) इसी तरह हुई है कि एक मौक़े की उतरी आयतें अलग-अलग बिखरी पड़ी रहती थीं और सालों के बाद किसी को किसी सूरत में और किसी को किसी दूसरी सूरत में टाँक दिया जाता था? लेकिन अगर दूसरी सूरत है कि नाराज़गी ज़ाहिर करनेवाली आयत वाक़िए के 6 साल बाद और रद्द करनेवाली आयत 8, 9 साल बाद उतरी तो, उस बेतुकेपन के अलावा जिसका हम पहले ज़िक्र कर आए हैं, यह सवाल पैदा होता है कि सूरा-17 बनी-इसराईल और सूरा-22 हज में इनके उतरने का मौक़ा क्या है। यहाँ पहुँचकर सही तौर पर जायज़ा लेने का तीसरा क़ायदा हमारे सामने आता है, यानी यह कि किसी आयत की जो तफ़सीर बयान की जा रही हो उसे देखा जाए कि क्या क़ुरआन का मौक़ा-महल भी इसे क़ुबूल करता है या नहीं। सूरा-17 बनी-इसराईल का आठवाँ रुकू (आयतें—71-77) पढ़कर देखिए, और उससे पहले और बाद के मज़मून पर निगाह डाल लीजिए। इस बात के सिलसिले में आख़िर क्या मौक़ा इस बात का नज़र आता है कि 6 साल पहले के एक वाक़िए पर नबी को डाँट बताई जाए (यह अलग बात है कि आयत “ये ज़रूर तुम्हें फ़ितने में डाल देते” में नबी पर डाँट है भी या नहीं, और आयत के अलफ़ाज़ ग़ैर-मुस्लिमों के फ़ितने में नबी के मुब्तला हो जाने को ग़लत बता रहे हैं या सही)। इसी तरह सूरा-22 हज आपके सामने मौजूद है। इस आयत से पहले का मज़मून भी पढ़िए और बाद का भी देखिए। क्या कोई सही वजह आपकी समझ में आती है कि इस मौक़ा-महल में यकायक यह मज़मून कैसे आ गया कि ‘ऐ नबी, 9 साल पहले क़ुरआन में मिलावट कर बैठने की जो हरकत तुमसे हो गई थी उसपर घबराओ नहीं, पहले नबियों से भी शैतान ये हरकतें कराता रहा है, और जब कभी नबी इस तरह की हरकत कर जाते हैं तो अल्लाह उसको रद्द करके अपनी आयतों को फिर पक्की कर देता है।’
हम इससे पहले भी कई बार कह चुके हैं और यहाँ फिर दोहराते हैं कि कोई रिवायत, चाहे उसकी सनद सूरज से भी ज़्यादा रौशन हो, ऐसी सूरत में क़ुबूल किए जाने लायक़ नहीं हो सकती जबकि उसका मत्न (अस्ल इबारत) उसके ग़लत होने की खुली-खुली गवाही दे रहा हो और क़ुरआन के अलफ़ाज़़, मौक़ा-महल, तरतीब हर चीज़ उसे क़ुबूल करने से इनकार कर रही हो। ये दलीलें तो एक शक में पड़े हुए और बेलाग तहक़ीक़ करनेवाले को भी मुल्मइन कर देंगी कि यह क़िस्सा बिलकुल ग़लत है। रहा मोमिन (ईमानवाला) तो वह इसे हरगिज़ नहीं मान सकता जबकि वह खुले तौर पर यह देख रहा है कि यह रिवायत क़ुरआन की एक नहीं बीसियों आयतों से टकराती है। एक मुसलमान के लिए यह मान लेना बहुत आसान है कि ख़ुद इस रिवायत के बयान करनेवालों को शैतान ने बहका दिया, इसके मुक़ाबले कि वे यह मान लें कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) कभी अपनी मन-मरज़ी से क़ुरआन में एक लफ़्ज़ भी मिला सकते थे, या आप (सल्ल०) के दिल में एक पल के लिए भी यह ख़याल आ सकता था कि तौहीद के साथ शिर्क की कुछ मिलावट करके न माननेवालों को राज़ी किया जाए। या आप (सल्ल०) अल्लाह तआला के हुक्मों के बारे में कभी यह आरज़ू कर सकते थे कि काश, अल्लाह मियाँ ऐसी कोई बात न फ़रमा बैठें जिससे ग़ैर-मुस्लिम लोग नाराज़ हो जाएँ! या यह कि आप (सल्ल०) पर वह्य किसी ग़ैर-महफ़ूज़ और शक व शुब्हों वाले तरीक़े से आती थी कि जिबरील के साथ शैतान भी आप (सल्ल०) पर कोई लफ़्ज़ उतार दे और आप (सल्ल०) इसी ग़लत-फ़हमी में रहें कि यह भी जिबरील ही लाए हैं। इनमें से एक-एक बात क़ुरआन के खुले-खुले बयानों के बिलकुल ख़िलाफ़ है और उन साबित-शुदा अक़ीदों के ख़िलाफ़ है जो हम क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में रखते हैं। ख़ुदा की पनाह उस रिवायत-परस्ती से जो महज़ सनद के मिल जाने या रिवायत करनेवालों के नेक होने या बयान करने के तरीक़ों की कसरत (अधिकता) देखकर किसी मुसलमान को ख़ुदा की किताब और उसके रसूल के बारे में ऐसी सख़्त बातें भी मानने पर आमादा कर दे।
मुनासिब मालूम होता है कि यहाँ उस शक को भी दूर कर दिया जाए जो हदीस बयान करनेवालों की इतनी बड़ी तादाद को इस क़िस्से की रिवायत में मुब्तला होते देखकर दिलों में पैदा होता है। एक शख़्स सवाल कर सकता है कि अगर इस क़िस्से की कोई अस्लियत नहीं है। तो नबी (सल्ल०) और क़ुरआन पर इतना बड़ा झूठा इलज़ाम हदीस के इतने रावियों (उल्लेखकर्ताओं) के ज़रिए से, जिनमें कुछ बड़े नामवर और भरोसेमन्द बुज़ुर्ग हैं, फैल कैसे गया? इसका जवाब यह है कि इसकी वजहों का पता हमको ख़ुद हदीस ही के ज़ख़ीरे में मिल जाता है। बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई और मुसनद अहमद में अस्ल वाक़िआ इस तरह आया है कि नबी (सल्ल०) ने सूरा-55 नज्म की तिलावत की, और आख़िर में जब आप (सल्ल०) ने सजदा किया तो वहाँ मौजूद तमाम लोग, मुस्लिम और मुशरिक सब, सजदे में गिर गए। वाक़िआ बस इतना ही था और यह कोई हैरत की बात न थी। अव्वल तो क़ुरआन का ज़ोरे-कलाम और इन्तिहाई असरदार अन्दाज़े-बयान, फिर नबी (सल्ल०) की ज़बान से इसका एक इलहाम की तरह अदा होना, उसको सुनकर अगर पूरी भीड़ पर एक बेख़ुदी की-सी हालत छा गई हो और आप (सल्ल०) के साथ सारी भीड़ सजदे में गिर गई हो तो कुछ नामुमकिन नहीं है। यही तो वह चीज़ थी जिसपर क़ुरैश के लोग कहा करते थे कि यह शख़्स जादूगर है। अलबत्ता मालूम होता है कि बाद में क़ुरैश के लोग अपने वक़्ती असर पर कुछ पछताए से होंगे और उनमें से किसी ने या कुछ लोगों ने अपने इस काम की वजह यह बयान की होगी कि साहिब, हमारे कानों ने तो मुहम्मद की ज़बान से अपने माबूदों की तारीफ़ में कुछ बातें सुनी थीं, इसलिए हम भी उनके साथ सजदे में गिर गए दूसरी तरफ़ यही वाक़िआ हबशा की तरफ़ हिजरत करनेवालों तक इस शक्ल में पहुँचा कि नबी (सल्ल०) और क़ुरैश के बीच समझौता हो गया है; क्योंकि देखनेवाले ने आप (सल्ल०) की और मुशरिकों और मुसलमानों सबको एक साथ सजदा करते देखा था। यह अफ़वाह ऐसी गर्म हुई कि हिजरत करनेवालों में से लगभग 35 आदमी मक्का में वापस आ गए। एक सदी के अन्दर इन तीनों बातों ने, यानी क़ुरैश का सजदा, उस सजदे की यह वजह बयान करना और हबशा के मुहाजिरों की वापसी, मिल-जुलकर एक क़िस्से की शक्ल इख़्तियार कर गई और कुछ भरोसेमन्द लोग तक इसकी रिवायत में मुब्तला हो गए। इनसान आख़िर इनसान है बड़े-से-बड़े नेक और समझदार आदमी से भी कभी-कभी भूल-चूक हो जाती है और उसकी भूल आम लोगों की भूल से ज़्यादा नुक़सानदेह साबित होती है। अक़ीदत (श्रद्धा) में हद से आगे बढ़ जानेवाले लोग इन बुज़ुर्गों की सही बातों के साथ उनकी ग़लत बातों को भी आँखें बन्द करके मान लेते हैं। और बुरी फ़ितरत के लोग छाट-छाँटकर उनकी ग़लतियाँ जमा करते हैं और उन्हें इस बात के लिए दलील बनाते हैं कि सब कुछ जो उनके ज़रिए से हमें पहुँचा है, आग में झोंक देने के लायक़ है।