(65) इनसे कहो : अल्लाह के सिवा आसमानों और ज़मीन में कोई ग़ैब (परोक्ष) का इल्म नहीं रखता।83 और वे (तुम्हारे माबूद तो यह भी) नहीं जानते कि कब वे उठाए जाएँगे।84
83. ऊपर पैदा करने, इन्तिज़ाम करने और रोज़ी देने के एतिबार से अल्लाह तआला के अकेला माबूद (यानी अकेले ख़ुदा और अकेले इबादत का हक़दार) होने पर दलील दी गई थी। अब ख़ुदाई की एक और अहम सिफ़त, यानी इल्म के लिहाज़ से बताया जा रहा है कि इसमें भी अल्लाह तआला का कोई शरीक नहीं है। आसमान और ज़मीन में जो भी जानदार हैं, चाहे फ़रिश्ते हों या जिन्न या पैग़म्बर और नेक बुज़ुर्ग या दूसरे इनसान या इनसान के अलावा कोई और जानदार, सबका इल्म महदूद है। सबसे कुछ-न-कुछ छिपा है। सब कुछ जाननेवाला अगर कोई है तो वह सिर्फ़ अल्लाह तआता है जिससे इस कायनात की कोई चीज़ और कोई बात छिपी नहीं, जो गुज़रे हुए (भूतकाल), हाल (वर्तमान) और आइन्दा (भविष्य) सबको जानता है। 'ग़ैब' का मतलब है छिपा हुआ। इस्लामी ज़बान में इससे मुराद हर वह चीज़ है जो मालूम न हो, जिस तक जानकारी के ज़रिओं की पहुँच न हो। दुनिया में बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जो अलग-अलग कुछ इनसानों की जानकारी में हैं और कुछ की जानकारी में नहीं हैं और बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जो सब-की-सब तमाम इनसानों की जानकारी में न कभी थीं, न आज हैं, न आगे कभी हो सकेंगी। ऐसा ही मामला जिन्नों और फ़रिश्तों और दूसरे जानदारों का है कि कुछ बीजें उनमें से किसी से छिपी और किसी को मालूम है और अनगिनत चीज़ें ऐसी हैं जो उन सबसे छिपी हैं और किसी को भी मालूम नहीं। ये तमाम तरह के ‘ग़ैब' सिर्फ़ एक हस्ती के सामने हैं और वह अल्लाह तआला की हस्ती है। उसके लिए कोई चीज ‘ग़ैब’ नहीं, सब सामने-ही-सामने है।
इस हक़ीक़त को बयान करने में सवाल का वह तरीक़ा नहीं अपनाया गया जो ऊपर कायनात को पैदा करने, उसका इन्तिज़ाम चलाने और रोज़ी देने के बयान में अपनाया गया है। इसकी वजह यह है कि उन सिफ़ात के आसार तो बिलकुल नुमायाँ हैं जिन्हें हर शख़्स देख रहा है और उनके बारे में ख़ुदा के इनकारी और ख़ुदा के साथ दूसरी चीज़ों को शरीक करनेवाले लोग यह मानते थे और मानते हैं कि ये सारे काम अल्लाह तआला ही के हैं। इसलिए वहाँ दलील इस तरह दी गई थी कि जब ये सारे काम अल्लाह ही के हैं और कोई इनमें उसका शरीक नहीं है, तो फिर ख़ुदाई में तुमने दूसरों को कैसे शरीक बना लिया और इबादत के हक़दार वे किस बुनियाद पर हो गए? लेकिन इल्म की सिफ़त अपने कोई महसूस होनेवाले आसार (लक्षण) नहीं रखती जिनकी तरफ़ इशारा किया जा सके। यह मामला सिर्फ़ सोच-विचार ही से समझ में आ सकता है। इसलिए इसको सवाल के बजाय दावे के अन्दाज़ में पेश किया गया है। अब यह हर समझदार आदमी का काम है कि वह अपनी जगह इस बात पर ग़ौर करे कि हक़ीक़त में क्या यह समझ में आनेवाली बात है कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा ग़ैब का इल्म रखनेवाला हो? यानी तमाम उन हालात और चीज़ों और हक़ीक़तों का जाननेवाला हो जो कायनात में कभी थीं, या अब हैं, या आगे होंगी और अगर कोई दूसरा ग़ैब की बातें जाननेवाला नहीं है और नहीं हो सकता तो फिर क्या यह बात अक़्ल में आती है कि जो लोग पूरी तरह हक़ीक़तें और हालात जानते ही नहीं हैं उनमें से कोई बन्दों की फ़रियाद सुननेवाला ज़रूरतें पूरी करनेवाला और मुश्किलें दूर करनेवाला हो सके?
ख़ुदाई और ग़ैब का इल्म रखने के बीच एक ऐसा गहरा ताल्लुक़ है कि पुराने ज़माने से इनसान ने जिस हस्ती में भी ख़ुदाई के किसी अंश का गुमान किया है, उसके बारे में यह ख़याल ज़रूर ज़ाहिर किया है कि उसपर सब कुछ रौशन है और कोई चीज़ उससे छिपी नहीं है। मानो इनसान का ज़ेहन इस हक़ीक़त से बिलकुल साफ़ तौर पर आगाह है कि क़िस्मतों का बनाना और बिगाड़ना, दुआओं का सुनना, जरूरतें पूरी करना और हर मदद तलब करनेवाले की मदद को पहुँचना सिर्फ़ उसी हस्ती का काम हो सकता है जो सब कुछ जानती हो और जिससे कुछ भी छिपा न हो। इसी वजह से तो इनसान जिसको भी ख़ुदा के अधिकार रखनेवाला समझता है, उसे ज़रूर ही ग़ैब का जाननेवाला भी समझता है, क्योंकि उसकी अक़्ल बिना किसी शक-शुब्हे के गवाही देती है कि इल्म और अधिकार आपस में एक-दूसरे के लिए ज़रूरी हैं। अब अगर यह हक़ीक़त है कि पैदा करनेवाला और इन्तिज़ाम चलानेवाला और दुआएँ सुननेवाला और रोज़ी देनेवाला ख़ुदा के सिवा कोई दूसरा नहीं है, जैसाकि ऊपर की आयतों में साबित किया गया है तो आप-से-आप यह भी हक़ीक़त है कि ग़ैब का जाननेवाला भी ख़ुदा के सिवा कोई दूसरा नहीं है। आख़िर कौन अपने होशो-हवास में यह सोच सकता है कि किसी फ़रिश्ते या जिन्न या नबी या वली को या किसी जानदार को भी यह मालूम होगा कि समन्दर में और हवा में और ज़मीन की तहों में और समन्दर की सतह के ऊपर किस-किस तरह के कितने जानवर कहाँ-कहाँ हैं? और ऊपरी दुनिया के बेहद्दो-हिसाब सय्यारों (उपग्रहों) की ठीक तादाद क्या है? और उनमें से हर एक में किस-किस तरह के जानदार मौजूद हैं? और उन जानदारों का एक-एक फ़र्द कहाँ है और क्या उसकी ज़रूरतें हैं? यह सब कुछ अल्लाह को तो लाज़िमन मालूम होना चाहिए, क्योंकि उसने उन्हें पैदा किया है और उसी को उनके मामलात की तदबीर और उनके हालात की देखभाल करनी है और वही उनकी रोज़ी का इन्तिज़ाम करनेवाला है। लेकिन दूसरा कोई अपने महदूद वुजूद में इतना फैला हुआ और सब कुछ अपने में समेटे रखनेवाला इल्म कैसे रख सकता है और पैदा करने और रोज़ी देने के इस काम से उसका क्या ताल्लुक़ है कि वह इन चीज़ों को जाने?
फिर यह सिफ़त तजज़िए (विश्लेषण) के लायक़ भी नहीं है कि कोई बन्दा मसलन सिर्फ़ ज़मीन की हद तक और ज़मीन में भी सिर्फ़ इनसानों की हद तक, ग़ैब का जाननेवाला हो। यह उसी तरह तजज़िए के क़ाबिल नहीं है जिस तरह पैदा करने, रोज़ी देने, क़ायम रहने और पालने-पोसने के बारे में अल्लाह की सिफ़ात तजज़िए के क़ाबिल नहीं हैं। कायनात की शुरुआत से आज तक जितने इनसान दुनिया में पैदा हुए हैं और क़ियामत तक पैदा होंगे, माँ के पेट में आने से ज़िन्दगी की आख़िरी घड़ी तक उन सबके तमाम हालात और कैफ़ियतों को जानना आख़िर किस बन्दे का काम हो सकता है और वह कैसे और क्यों उसको जानेगा? क्या वह इस बेहद्दो-हिसाब मख़लूक़ (सृष्टि) का पैदा करनेवाला है? क्या वह उनके बापों के ख़ून में उनके जरसूमे (जीवाणु) को वुजूद में लाया था? क्या उसने उनकी माँओं के पेटों में उनकी शक्ल-सूरत बनाई थी? क्या उसने उनके ज़िन्दा हालत में पैदा होने का इन्तिज़ाम किया था? क्या उसने उनमें से एक-एक शख़्स की क़िस्मत बनाई थी? क्या वह उनकी मौत और ज़िन्दगी, उनकी सेहत और बीमारी, उनकी ख़ुशहाली और बदहाली और उनकी तरक़्क़ी और गिरावट के फ़ैसले करने का ज़िम्मेदार है? और आख़िर यह काम कब से उसके ज़िम्मे हुआ? उसकी अपनी पैदाइश से पहले या उसके बाद? और सिर्फ़ इनसानों की हद तक ये ज़िम्मेदारियाँ महदूद कैसे हो सकती हैं? यह काम तो लाज़िमन ज़मीन और आसमान के आलमगीर इन्तिज़ाम का एक हिस्सा है। जो हस्ती सारी कायनात का निज़ाम चला रही है वही तो इनसानों की पैदाइश और मौत और उनकी रोज़ी की तंगी और कुशादगी और उनकी क़िस्मतों के बनाव-बिगाड़ की ज़िम्मेदार हो सकती है।
इसी वजह से यह इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा है कि ग़ैब का जाननेवाला अल्लाह तआला के सिवा कोई दूसरा नहीं है। अल्लाह तआला अपने बन्दों में से जिसपर चाहे और जितना चाहे अपनी मालूमात का कोई कोना खोल दे और किसी ग़ैब या ग़ैब की कुछ बातों को उसपर रौशन कर दे, लेकिन ग़ैब का इल्म पूरे तौर पर किसी को नसीब नहीं और ग़ैब का जाननेवाला होने की सिफ़त सिर्फ़ सारे जहानों के रब अल्लाह के लिए ख़ास है—
“और उसी के पास ग़ैब की कुंजियाँ हैं, उन्हें कोई नहीं जानता उसके सिवा।” (सुरा-6 अनआम, आयत-59) “अल्लाह ही के पास है क़ियामत का इल्म और वही बारिश बरसानेवाला है और वही जानता है कि माँओं के पेटों में क्या (पल रहा) है और कोई जानदार नहीं जानता कि कल वह क्या कमाई करेगा और किसी जानदार को ख़बर नहीं है कि किस सरज़मीन में उसको मौत आएगी।” (सूरा-31 लुक़मान, आयत-34) “वह जानता है जो कुछ बन्दों के सामने है और जो कुछ उनसे ओझल है और उसके इल्म में से किसी चीज़ पर भी वे हावी नहीं हो सकते सिवाय यह कि वह जिस चीज़ का चाहे उन्हें इल्म दे।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-255)
क़ुरआन मजीद बन्दों के लिए ग़ैब के इल्म के इस आम और पूरी तरह इनकार पर ही बस नहीं करता, बल्कि ख़ास तौर पर पैग़म्बरों (अलैहि०) और ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में इस बात को साफ़-साफ़ बयान करता है कि वे ग़ैब के जाननेवाले नहीं हैं और उनको ग़ैब की सिर्फ़ उतनी ही जानकारी अल्लाह तआला की तरफ़ से दी गई है, जो रिसालत (पैग़म्बरी) की ख़िदमत अंजाम देने के लिए दरकार थी। सूरा-6 अनआम, आयत-50; सूरा-7 आराफ़, आयत-187; सूरा-9 तौबा, आयत-101; सूरा-11 हूद, आयत-31; सूरा-33 अहज़ाब, आयत-63; सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-9; सूरा-66 तहरीम, आयत-3 और सूरा-72 जिन्न, आयतें—26-28 इस मामले में किसी शक-शुब्हे की गुंजाइश नहीं छोड़तीं।
क़ुरआन के ये तमाम साफ़-साफ़ बयान इस आयत की ताईद और तशरीह करते हैं जिनके बाद इस बात में किसी शक की गुंजाइश नहीं रहती कि अल्लाह तआला के सिवा किसी को ग़ैब का जाननेवाला समझना और यह समझना कि कोई दूसरा भी तमाम गुज़रे हुए और आनेवाले हालात की जानकारी रखता है, बिलकुल एक ग़ैर-इस्लामी अक़ीदा है। इमाम बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई, इमाम अहमद, इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने सहीह सनदों के साथ हज़रत आइशा (रज़ि) का यह क़ौल (कथन) नक़्ल किया है—
“जिसने यह दावा किया कि नबी (सल्ल०) जानते हैं कि कल क्या होनेवाला है, उसने अल्लाह पर सख़्त झूठ का इलज़ाम लगाया; क्योंकि अल्लाह तो फ़रमाता है, नबी, तुम कह दो कि ग़ैब का इल्म अल्लाह के सिवा आसमानों और ज़मीन के रहनेवालों में से किसी को भी नहीं है।”
इब्नुल-मुंज़िर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) के मशहूर शागिर्द इकरिमा से रिवायत करते हैं कि एक आदमी ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “ऐ मुहम्मद, क़ियामत कब आएगी? और हमारे इलाक़े में सूखा पड़ा है, बारिश कब होगी? और मेरी बीवी हामिला (गर्भवती) है, वह लड़का पैदा करेगी या लड़की? और यह तो मुझे मालूम है कि मैंने आज क्या कमाया है, कल मैं क्या कमाऊँगा? और यह तो मुझे मालूम है कि मैं कहाँ पैदा हुआ हूँ, मरूँगा कहाँ?” इन सवालों के जवाब में सूरा-31 लुक़मान की वह आयत नबी (सल्ल०) ने सुनाई जो ऊपर हमने नक़्ल की है। यानी—
“अल्लाह ही के पास है क़ियामत का इल्म और वही बारिश बरसानेवाला है और वही जानता जो कुछ माँओं के पेट में (पल रहा) है और कोई जानदार नहीं जानता कि कल वह क्या कमाई करेगा और किसी जानदार को ख़बर नहीं है कि किस सरज़मीन में उसको मौत आएगी।”
फिर बुख़ारी और मुस्लिम और हदीस की दूसरी किताबों की वह मशहूर रिवायत भी इसी की ताईद करती है जिसमें ज़िक्र है कि सहाबा की मौजूदगी में हज़रत जिबरील (अलैहि०) ने इनसानी शक्ल में आकर नबी (सल्ल०) से जो सवालात किए थे उनमें से एक यह भी था कि क़ियामत कब आएगी? नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “जिससे पूछा जा रहा है वह ख़ुद पूछनेवाले से ज़्यादा इस बारे में कुछ नहीं जानता।” फिर फ़रमाया, “यह उन पाँच चीज़ों में से है जिनका इल्म अल्लाह के सिवा किसी को नहीं!” और यही ऊपर बयान की गई आयत नबी (सल्ल०) ने तिलावत की।
84. यानी दूसरे, जिनके बारे में यह गुमान किया जाता है कि वे ग़ैब की बातें जानते हैं और इसी वजह से जिनको तुम लोगों ने ख़ुदाई में शरीक ठहरा लिया उन बेचारों को तो ख़ुद अपने आनेवाले कल की भी ख़बर नहीं। वे नहीं जानते कि कब क़ियामत की वह घड़ी आएगी, जब अल्लाह तआला उनको दोबारा उठा खड़ा करेगा।