(৪6) तुम इस बात के हरगिज़ उम्मीदवार न थे कि तुमपर किताब उतारी जाएगी, यह तो सिर्फ़ तुम्हारे रब की मेहरबानी से (तुमपर उतारी गई है109), इसलिए तुम (ख़ुदा के) इनकारियों के मददगार न बनो।110
109. यह बात मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी के सुबूत में पेश की जा रही है। जिस तरह मूसा (अलैहि०) बिलकुल बेख़बर थे कि उन्हें नबी बनाया जानेवाला है और एक बहुत बड़े मिशन पर वे लगाए जानेवाले हैं, उनके ज़ेहन के किसी कोने में भी इसका इरादा ख़ाहिश तो एक तरफ़ इसकी उम्मीद तक कभी न गुज़री थी, बस यकायक राह चलते उन्हें खींच बुलाया गया और नबी बनाकर वह हैरतअंगेज़ काम उनसे लिया गया जो उनकी पिछली ज़िन्दगी से कोई मेल नहीं रखता था, ठीक ऐसा ही मामला नबी (सल्ल०) के साथ भी पेश आया। मक्का के लोग ख़ुद जानते थे कि हिरा की गुफा से जिस दिन आप पैग़म्बरी का पैग़ाम लेकर उतरे उससे एक दिन पहले तक आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी क्या थी, आप (सल्ल०) की मशग़ूलियतें क्या थीं, आप (सल्ल०) की बातचीत क्या थी, आप (सल्ल०) की बातचीत किन-किन बातों (विषयों) के बारे में होती थी, आप (सल्ल०) की दिलचस्पियाँ और सरगर्मियाँ किस तरह की थीं। यह पूरी ज़िन्दगी सच्चाई, ईमानदारी, अमानत और पाकबाज़ी से भरी ज़रूर थी। इसमें इन्तिहाई शराफ़त, अम्न-पसन्दी, वादे का ख़याल रखना, हक़ों को अदा करना और समाज की ख़िदमत का रंग भी ग़ैर-मामूली शान के साथ नुमायाँ था, मगर इसमें कोई चीज़ ऐसी मौजूद न थी जिसकी बुनियाद पर किसी के वहमो-गुमान में भी यह ख़याल गुज़र सकता हो कि यह नेक बन्दा कल ख़ुदा का पैग़म्बर होने का दावा लेकर उठनेवाला है। आप (सल्ल०) से सबसे ज़्यादा क़रीबी ताल्लुक़ात रखनेवालों में, आप (सल्ल०) के रिश्तेदारों और पड़ोसियों और दोस्तों में कोई शख़्स यह न कर सकता था कि आप (सल्ल०) पहले से नबी बनने की तैयारी कर रहे थे। किसी ने उन बातों और मामलों के बारे में कभी एक लफ़्ज़ तक आप (सल्ल०) की ज़बान से न सुना था जो हिरा नामक गुफा की उस इंक़िलाबी घड़ी के बाद यकायक आप (सल्ल०) की ज़बान पर जारी होने शुरू हो गए। किसी ने आप (सल्ल०) को वह ख़ास ज़बान और वे अलफ़ाज़ और इस्तिलाहें इस्तेमाल करते न सुना था जो अचानक क़ुरआन की शक्ल में लोग आप (सल्ल०) से सुनने लगे। कभी आप (सल्ल०) तक़रीर करने खड़े न हुए थे। कभी कोई दावत और तहरीक (आन्दोलन) लेकर न उठे थे, बल्कि कभी आप (सल्ल०) की किसी सरगर्मी से यह गुमान तक न हो सकता था कि आप इजतिमाई मसलों के हल, या मज़हबी सुधार या अख़लाक़री सुधार के लिए कोई काम शुरू करने की फ्रिक में हैं। इस इंक़िलाबी घड़ी से एक दिन पहले तक आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी एक ऐसे ताजिर की ज़िन्दगी नज़र आती थी जो सीधे-सादे जाइज़ तरीक़ों से अपनी रोज़ी कमाता है, अपने बाल-बच्चों के साथ हँसी-ख़ुशी रहता है, मेहमानों की ख़ातिरदारी, ग़रीबों की मदद और रिश्तेदारों से अच्छा सुलूक करता है और कभी-कभी इबादत करने के लिए तन्हाई में जा बैठता है। ऐसे शख़्स का यकायक एक आलमगीर (विश्वव्यापी) भूकम्प पैदा कर देनेवाली तक़रीर के साथ उठना, एक इंक़िलाब लानेवाली दावत शुरू कर देना, एक निराला लिट्रेचर पैदा कर देना, ज़िन्दगी का एक मुस्तक़िल फ़लसफ़ा (स्थायी जीवन-दर्शन) और निज़ामे-फ़िक्र और अख़लाक़ व तमद्दुन लेकर सामने आ जाना, इतनी बड़ी तब्दीली है जो इनसानी नफ़सियात (मनोवृति) के लिहाज़ से किसी बनावट और तैयारी और इरादी कोशिश के नतीजे में हरगिज़ पैदा नहीं हो सकती। इसलिए कि ऐसी हर कोशिश और तैयारी बहरहाल दरजा-ब-दरजा तरक़्क़ी के मरहलों से गुज़रती है और ये मरहले उन लोगों से कभी छिपे नहीं रह सकते जिनके बीच आदमी दिन-रात ज़िन्दगी गुज़ारता हो। अगर नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी इन मरहलों से गुज़री होती तो मक्का में सैकड़ों जानें यह कहनेवाली होतीं कि हम न कहते थे, यह आदमी एक दिन कोई बड़ा दावा लेकर उठनेवाला है। लेकिन इतिहास गवाह है कि मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने आप (सल्ल०) पर हर तरह के एतिराज़ किए मगर यह एतिराज़ करनेवाला उनमें से कोई एक आदमी भी न था।
फिर यह बात कि नबी (सल्ल०) ख़ुद भी पैग़म्बरी के ख़ाहिशमन्द या उसकी उम्मीद और इन्तिज़ार में न थे, बल्कि पूरी बेख़बरी की हालत में अचानक आप (सल्ल०) को इस मामले का सामना करना पड़ा, इसका सुबूत उस घटना से मिलता है जो हदीसों में वह्य की शुरुआत की कैफ़ियत के बारे में नक़्ल हुई है। जिबरील (अलैहि०) से पहली मुलाक़ात और सूरा-96 अलक़ की शुरू की आयतों के उतरने के बाद आप (सल्ल०) हिरा की गुफा से काँपते और थरथराते हुए घर पहुँचते हैं। घरवालों से कहते हैं कि “मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ!” कुछ देर के बाद जब ज़रा डर की कैफ़ियत दूर होती है तो अपनी बीवी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) को सारा माजरा सुनाकर कहते हैं कि “मुझे अपनी जान का डर है।” वे फ़ौरन जवाब देती हैं, “हरगिज़ नहीं! आपको अल्लाह कभी रंज में न डालेगा। आप तो रिश्तेदारों के हक़ अदा करते हैं। बेसहारा को सहारा देते हैं। ग़रीब की मदद करते हैं। मेहमानों की ख़ातिरदारी करते हैं। हर भले काम में मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।” फिर वे नबी (सल्ल०) को लेकर वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास जाती हैं जो उनके चचेरे भाई और अहले-किताब में से एक इल्म रखनेवाले और सच्चे आदमी थे। वे आप (सल्ल०) से सारा वाक़िआ सुनने के बाद बिना झिझक कहते हैं कि “यह जो आपके पास आया था वही नामूस (ख़ास काम पर लगा हुआ फ़रिश्ता) है जो मूसा के पास आता था। काश, मैं जवान होता और उस वक़्त तक ज़िन्दा रहता जब आपकी क़ौम आपको निकाल देगी।” आप (सल्ल०) पूछते हैं, “क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे?” ये जवाब देते हैं, “हाँ, कोई शख़्स ऐसा नहीं गुज़रा कि वह चीज़ लेकर आया हो, जो आप लाए हैं और लोग उसके दुश्मन न हो गए हों।"
यह पूरा वाक़िआ उस हालत की तस्वीर पेश कर देता है, जो बिलकुल फ़ितरी तौर पर यकायक उम्मीद के ख़िलाफ़ एक इन्तिहाई ग़ैर-मामूली तजरिबा पेश आ जाने से किसी सीधे-सादे इनसान पर छा सकती है। अगर नबी (सल्ल०) पहले से नबी बनने की फ़िक्र में होते, अपने बारे में यह सोच रहे होते कि मुझ जैसे आदमी को नबी होना चाहिए और उसके इन्तिज़ार में मुराक़बे (ध्यान और साधना) कर-करके अपने ज़ेहन पर ज़ोर डाल रहे होते कि कब कोई फ़रिश्ता आता है और मेरे पास पैग़ाम लाता है, तो हिरा नाम की गुफावाला मामला पेश आते ही आप (सल्ल०) ख़ुशी से उछल पड़ते और बड़े दम-दावे के साथ पहाड़ से उतरकर सीधे अपनी क़ौम के सामने पहुँचते और अपनी पैग़म्बरी का एलान कर देते । लेकिन इसके बरख़िलाफ़ यहाँ हालत यह है कि जो कुछ देखा था उसपर हैरान रह जाते हैं, काँपते और थरथराते हुए घर पहुँचते हैं, लिहाफ़ ओढ़कर लेट जाते हैं, ज़रा दिल ठहरता है तो बीवी को चुपके से बताते हैं कि आज हिरा की गुफा की तन्हाई में मुझपर यह हादिसा गुज़रा है, पता नहीं क्या होनेवाला है, मुझे अपनी जान की ख़ैर नज़र नहीं आती। यह कैफ़ियत पैग़म्बरी के किसी उम्मीदवार की कैफ़ियत से कितनी अलग है।
फिर बीवी से बढ़कर शौहर की ज़िन्दगी उसके हालात और उसके ख़यालात को कौन जान सकता है? अगर उनके तजरिबे में पहले से यह बात आई हुई होती कि मियाँ पैग़म्बरी के उम्मीदवार हैं और हर वक़्त फ़रिश्ते के आने का इन्तिज़ार कर रहे हैं, तो उनका जवाब हरगिज़ वह न होता जो आप (सल्ल०) की बीवी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने दिया। वे कहतीं कि “मियाँ घबराते क्यों हो, जिस चीज़ की मुद्दतों से तमन्ना थी, वह मिल गई। चलो अब पीरी की दुकान चमकाओ, मैं भी नज़राने संभालने की तैयारी करती हूँ।” लेकिन वे पन्द्रह साल के साथ में आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी का जो रंग देख चुकी थीं, उसकी बुनियाद पर उन्हें यह बात समझने में एक पल की भी देर न लगी कि ऐसे नेक बेग़रज़ इनसान के पास शैतान नहीं आ सकता, न अल्लाह उसको किसी बड़ी आज़माइश में डाल सकता है, उसने जो कुछ देखा है वह सरासर हक़ीक़त है।
और यही मामला वरक़ा-बिन-नौफ़ल का भी है। वे कोई बाहर के आदमी न थे, बल्कि नबी (सल्ल०) की अपनी बिरादरी के आदमी और क़रीब के रिश्ते से निस्बती भाई (साले) थे। फिर एक इल्मवाले ईसाई होने की हैसियत से पैग़म्बरी, किताब और वह्य (प्रकाशना) को बनावट में अलग कर सकते थे। उम्र में कई साल बड़े होने की वजह से आप (सल्ल०) की पूरी ज़िन्दगी बचपन से उस वक़्त तक उनके सामने थी। उन्होंने भी आप (सल्ल०) की ज़बान से हिरा में जो कुछ गुज़रा उसे सुनते ही फ़ौरन कह दिया कि यह आनेवाला यक़ीनन वही फ़रिश्ता है जो मूसा (अलैहि०) पर वह्य लाता था, क्योंकि यहाँ भी वही सूरत पेश आई थी जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ पेश आई थी कि एक इन्तिहाई पाकीज़ा सीरत का सीधा-सादा इनसान बिलकुल ख़ाली ज़ेहन है, पैग़म्बरी की फ्रिक में रहना तो दूर, उसको पाने का तसव्वुर (कल्पना) तक उसके ज़ेहन के किसी कोने में कभी नहीं आया है और अचानक वह पूरे होशो-हवास की हालत में खुल्लम-खुल्ला इस तजरिबे से दोचार होता है। इसी चीज़ ने उनको दो और दो चार की तरह ज़रा भी झिझक किए बिना इस नतीजे तक पहुँचा दिया कि यहाँ कोई मन का धोखा या शैतानी करिश्मा नहीं है, बल्कि इस सच्चे इनसान ने अपने किसी इरादे और ख़ाहिश के बिना जो कुछ देखा है वह अस्ल में हक़ीक़त ही को देखा है।
यह मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत (पैग़म्बरी) का एक ऐसा खुला सुबूत है कि एक हक़ीक़त-परसन्द इनसान मुश्किल ही से इसका इनकार कर सकता है। इसी लिए क़ुरआन में कई जगहों पर इसे नुबूवत की दलील को हैसियत से पेश किया गया है। मसलन सूरा-10 यूनुस में फ़रमाया—
“ऐ नबी, इनसे कहो कि अगर अल्लाह ने यह न चाहा होता तो मैं कभी यह क़ुरआन तुम्हें न
सुनाता, बल्कि इसकी ख़बर तक वह तुमको न देता। आख़िर मैं इससे पहले एक उम्र तुम्हारे
बीच गुज़ार चुका हूँ, क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?" (आयत-16)
और सूरा-42 शूरा में फ़रमाया—
“ऐ नबी, तुम तो जानते तक न थे कि किताब क्या होती है और ईमान क्या होता है, मगर हमने इस वह्य को एक नूर बना दिया जिससे हम रहनुमाई करते हैं, अपने बन्दों में से जिसकी चाहते हैं।” (आयत-52)
और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-21; सूरा-29 अन्कबूत, हाशिए—88-92; सूरा-42 शूरा, हाशिया-84।
110. यानी जब अल्लाह ने यह नेमत तुम्हें बिन माँगे दी है तो उसका हक़ अब तुमपर यह है कि तुम्हारी सारी क़ुव्वतें और मेहनतें इसकी अलमबरदारी पर, इसकी तबलीग़ पर और इसे फैलाने पर लगे। इसमें कोताही करने का मतलब यह होगा कि तुमने हक़ के बजाय हक़ का इनकार करनेवालों की मदद की। इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह, नबी (सल्ल०) से ऐसी किसी कोताही का अन्देशा था, बल्कि अस्ल में इस तरह अल्लाह तआला इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाते हुए अपने नबी को यह हिदायत कर रहा है कि तुम इनके शोर-हंगामे और इनकी मुख़ालफ़त के बावजूद अपना काम करो और इसकी कोई परवाह न करो कि हक़ के दुश्मन इस दावत से अपने फ़ायदे पर चोट लगने के क्या अन्देशे ज़ाहिर करते हैं।