Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۗ مَّا خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ بِلِقَآيِٕ رَبِّهِمۡ لَكَٰفِرُونَ

30. अर-रूम 

(मक्का में उतरी-आयतें 60)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द “ग़ुलि ब-तिर्रूम" (रूमी पराजित हो गए हैं) से लिया गया है।

उतरने का समय

आरंभ ही में कहा गया है कि "क़रीब के भू-भाग में रूमी (रोमवासी) पराजित हो गए हैं।” उस समय अरब से मिले हुए सभी अधिकृत क्षेत्रों पर ईरानियों का प्रभुत्व 615 ई० में पूरा हुआ था : इसलिए पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि यह सूरा उसी साल उतरी थी और यह वही साल था जिसमें हबशा की हिजरत हुई थी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जो भविष्यवाणी इस सूरा की आरंभिक आयतों में की गई है वह क़ुरआन मजीद के अल्लाह के कलाम होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने की स्पष्ट और खुली गवाहियों में से एक है । इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि उन ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत विवेचन किया जाए जो इन आयतों से संबंध रखती हैं। नबी (सल्ल०) की नुबूवत से 8 साल पहले की घटना है कि क़ैसरे-रूम (रोम का शासक) मारीस (Maurice) के विरुद्ध विद्रोह हुआ और एक व्यक्ति फ़ोकास (Phocas) ने राजसिंहासन पर क़ब्ज़ा कर लिया [और क़ैसर को उसके बाल-बच्चों के साथ क़त्ल करा दिया]। इस घटना से ईरान के सम्राट ख़ुसरो परवेज़ को रोम पर हमलावर होने के लिए बड़ा ही अच्छा नैतिक बहाना मिल गया, क्योंकि क़ैसर मॉरीस उसका उपकारकर्ता था। चुनांँचे 603 ई० में उसने रोमी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ाई कर दी और कुछ साल के भीतर वह फ़ोकास की फ़ौज़ों को बराबर हराता हुआ [बहुत दूर तक अंदर घुस गया] रूम के दरबारियों ने यह देखकर कि फ़ोकास देश को नहीं बचा सकता, अफ़रीक़ा के गर्वनर से मदद मांँगी। उसने अपने बेटे हिरक़्ल (Heraclius) को एक शक्तिशाली बेड़े के साथ क़ुस्तनतीनिया भेज दिया। उसके पहुँचते ही फ़ोकास को पद से हटा दिया गया और उसकी जगह हिरक़्ल कै़सर बनाया गया। यह 610 ई० की घटना है और यह वही साल है जिसमें नबी (सल्ल०) अल्लाह की ओर से नबी बनाए गए।

ख़ुसरो परवेज़ ने फ़ोकास के हटाए और क़त्ल कर दिए जाने के बाद भी लड़ाई जारी रखी, और अब इस लड़ाई को उसने मजूसियों (अग्नि-पूजकों) और ईसाइयों के धर्मयुद्ध का रंग दे दिया [वह जीतता हुआ आगे बढ़ता रहा, यहाँ तक कि] 614 ई० में बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके ईरानियों ने मसीही दुनिया पर क़ियामत ढा दी। इस जीत के बाद एक साल के अन्दर-अन्दर ईरानी फ़ौजें जार्डन, फ़िलस्तीन और सीना प्रायद्वीप के पूरे इलाके़ पर क़ब्ज़ा करके मिस्र की सीमाओं तक पहुँच गईं। यह वह समय था जब मक्का मुअज़्ज़मा में एक ओर उससे कई गुना अधिक ऐतिहासिक महत्त्ववाली लड़ाई [कुफ्र और इस्लाम की लड़ाई] छिड़ गई थी और नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि 615 ई० में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या को अपना घर-बार छोड़कर हबशा के ईसाई राज्य में (जिससे रोम की शपथ-मित्रता थी) पनाह लेनी पड़ी। उस वक़्त ईसाई रोम पर [अग्निपूजक] ईरान के प्रभुत्व की चर्चा हर ज़बान पर थी। मक्का के मुशरिक इसपर खु़शी मना रहे थे और इसे मुसलमानों [के विरुद्ध उसकी सफलता की एक मिसाल और शगुन ठहरा रहे थे।] इन परिस्थतियों में कु़रआन मजीद की यह सूरा उतरी और इसमें वह भविष्यवाणी की गई [जो इसकी शुरू की आयतों में बयान की गई है।] इसमें एक के बजाय दो भविष्यवाणियाँ थीं- एक यह कि रूमियों को ग़लबा (प्रभुत्व) मिलेगा। दूसरी यह कि मुसलमानों को भी उसी समय में जीत मिलेगी। प्रत्यक्ष में तो दूर-दूर तक कहीं इसकी निशानियाँ मौजूद न थीं कि इनमें से कोई एक भविष्यवाणी भी कुछ वर्ष के भीतर पूरी हो जाएगी। चुनांँचे क़ुरआन की ये आयतें जब उतरीं तो मक्का के विधर्मियों ने इसकी खू़ब हँसी उड़ाई, [लेकिन सात-आठ वर्ष बाद ही परिस्थतियों ने पलटा खाया।] 622 ई० में इधर नबी (सल्ल०) हिजरत करके मदीना तशरीफ़ ले गए और उधर कै़सर हिरक़्ल [ईरान पर जवाबी हमला करने के लिए] ख़ामोशी के साथ कु़स्तनतीनिया से काला सागर के रास्ते से तराबजू़न की ओर रवाना हुआ और 623 ई० में आरमीनिया से [अपना हमला] शुरू करके दूसरे साल 624 ई० में उसने आज़र बाइजान में घुसकर ज़रतुश्त के जन्म स्थल अरमियाह (Clorumia) को नष्ट कर दिया और ईरानियों के सबसे बड़े अग्निकुंड की ईंट से ईट बजा दी। अल्लाह की कु़दरत का करिश्मा देखिए कि यही वह साल था जिसमें मुसलमानों को बद्र में पहली बार मुशरिकों के मुक़ाबले में निर्णायक विजय मिली। इस तरह वे दोनों भविष्यवाणियाँ जो सूरा रूम में की गई थी, दस साल की अवधि समाप्त होने में पहले एक साथ ही पूरी हो गईं।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में वार्ता का आरंभ इस बात से किया गया है कि आज रूमी (रोमवासी) परास्त हो गए हैं, मगर कुछ साल न बीतने पाएँगे कि पांँसा पलट जाएगा और जो परास्त है, वह विजयी हो जाएगा। इस भूमिका से यह बात मालूम हुई कि इंसान अपनी बाह्य दृष्टि के कारण वही कुछ देखता है जो बाह्य रूप से उसकी आँखों के सामने होता है, मगर इस बाह्य के परदे की पीछे जो कुछ है, उसकी उसे ख़बर नहीं होती। जब दुनिया के छोटे-छोटे मामलों में [आदमी अपनी ऊपरी नज़र के कारण] ग़लत अन्दाज़े लगा बैठता है, तो फिर समग्र जीवन के मामले में दुनिया को जिंदगी के प्रत्यक्ष पर भरोसा कर बैठना कितनी बड़ी ग़लती है। इस तरह रोम एवं ईरान के मामले से व्याख्यान का रुख़ आख़िरत के विषय की ओर फिर जाता है और लगातार 27 आयतों तक विविध ढंग से यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आख़िरत सम्भव भी है, बुद्धिसंगत भी है और आवश्यक भी है। इस सिलसिले में आख़िरत पर प्रमाण जुटाते हुए सृष्टि की जिन निशानियों को गवाही के रूप में पेश किया गया है, वे ठीक वही निशानियाँ हैं जो तौहीद (एकेश्वरवाद) को प्रमाणित करती हैं। इस लिए आयत 41 के आरंभ में से व्याख्यान का रुख़ तौहीद को साबित करने और शिर्क (बहुदेववाद) को झुठलाने की ओर फिर जाता है और बताया जाता है कि शिर्क जगत् की प्रकृति और मानव की प्रकृति के विरुद्ध है। इसी लिए जहाँ भी इंसान ने इस गुमराही को अपनाया है, वहाँ बिगाड़ पैदा हुआ है। इस मौके़ पर फिर उस बड़े बिगाड़ की ओर, जो उस समय दुनिया के दो बड़े राज्यों के बीच लड़ाई की वजह से पैदा हो गया था, संकेत किया गया है और बताया गया है कि यह बिगाड़ भी शिर्क के नतीजों में से है। अन्त में मिसाल की शक्ल में लोगों को समझाया गया है कि जिस तरह मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन अल्लाह की भेजी हुई बारिश से सहसा जी उठती है, उसी तरह अल्लाह की भेजी हुई वह्य और नुबूवत भी मुर्दा पड़ी हुई मानवता के हक़ में रहमत (दयालुता) की बारिश है। इस मौके़ से फ़ायदा उठाओगे तो यही अरब की सूनी ज़मीन अल्लाह की रहमत से लहलहा उठेगी। लाभ न उठाओगे तो अपनी ही हानि करोगे।

---------------------

أَوَلَمۡ يَتَفَكَّرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۗ مَّا خَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ بِلِقَآيِٕ رَبِّهِمۡ لَكَٰفِرُونَ ۝ 1
(8) क्या इन्होंने कभी अपने आपमें ग़ौर-फ़िक्र नहीं किया?5 अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को जो उनके बीच हैं हक़ के साथ और एक मुक़र्रर मुद्दत ही के लिए पैदा किया है।6 मगर बहुत-से लोग अपने रब की मुलाक़ात के इनकारी हैं।7
5. यह आख़िरत पर अपने आपमें ख़ुद एक मुस्तक़िल (स्थायी) दलील हैं। इसका मतलब यह है कि अगर ये लोग बाहर किसी तरफ़ निगाह दौड़ाने से पहले ख़ुद अपने वुजूद पर ग़ौर करते तो उन्हें अपने अन्दर ही वे दलीलें मिल जातीं जो मौजूदा ज़िन्दगी के बाद दूसरी ज़िन्दगी की ज़रूरत साबित करती हैं। इनसान की तीन ख़ास ख़ूबियाँ ऐसी हैं जो उसको ज़मीन पर मौजूद दूसरी चीज़ों से अलग करती हैं— एक यह कि ज़मीन और उसके माहौल की अनगिनत चीज़ें उसकी ख़िदमत में लगा दी गई हैं और उनके इस्तेमाल के बहुत ज़्यादा इख़्तियार उसको दे दिए गए हैं। दूसरी यह कि उसे अपनी ज़िन्दगी की राह को चुनने में आज़ाद छोड़ दिया गया है। ईमान और कुफ़्र, फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी, नेकी और बदी (बुराई) की राहों में से जिसपर भी जाना चाहे जा सकता है। हक़ और बातिल, सही और ग़लत, जिस तरीक़े को भी अपनाना चाहे अपना सकता है। हर रास्ते पर चलने के लिए उसे तौफ़ीक़ (सामर्थ्य) दे दी जाती है और उसपर चलने में वह ख़ुदा के दिए हुए ज़रिए इस्तेमाल कर सकता है, चाहे वह ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी का रास्ता हो या उसकी नाफ़रमानी का रास्ता। तीसरी यह कि उसमें पैदाइशी तौर पर अख़लाक़ की हिस (चेतना) रख दी गई है जिसकी बुनियाद पर वह इख़्तियारी और ग़ैर-इख़्तियारी कामों में फ़र्क़ करता है। इख़्तियारी कामों पर नेकी और बदी का हुक्म लगाता है, और फ़ौरन यह राय क़ायम करता है कि अच्छा काम इनाम का और बुरा काम सज़ा का हक़दार होना चाहिए। ये तीनों ख़ासियतें जो इनसान के अपने वुजूद में पाई जाती हैं इस बात की निशानदेही करती हैं कि कोई वक़्त ऐसा होना चाहिए जब इनसान से हिसाब लिया जाए। जब उससे पूछा जाए कि जो कुछ दुनिया में उसको दिया गया था उसे इस्तेमाल करने के इख़्तियारों को उसने किस तरह इस्तेमाल किया? जब यह देखा जाए कि उसने अपने चुनाव की आज़ादी को इस्तेमाल करके सही रास्ता अपनाया या ग़लत? जब उसके इख़्तियारी आमाल की जाँच की जाए और नेक अमल पर इनाम और बुरे अमल पर सज़ा दी जाए। यह वक़्त लाज़िमन इनसान की ज़िन्दगी का कारनामा ख़त्म और उसके अमल का दफ़्तर बन्द होने के बाद ही आ सकता है, न कि उससे पहले। और यह वक़्त लाज़िमन उसी वक़्त आना चाहिए जबकि एक इनसान या एक क़ौम का नहीं, बल्कि तमाम इनसानों के अमल का दफ़्तर बन्द हो। क्योंकि एक इनसान या एक क़ौम के मर जाने पर उन असरात का सिलसिला ख़त्म नहीं हो जाता जो उसने अपने आमाल की बदौलत दुनिया में छोड़े हैं। उसके छोड़े हुए अच्छे या बुरे असरात भी तो उसके हिसाब में गिने जाने चाहिएँ। ये असरात जब तक पूरे तौर पर ज़ाहिर न हो लें इनसाफ़ के मुताबिक़ पूरा हिसाब-किताब करना और पूरा इनाम या पूरी सज़ा देना कैसे मुमकिन है? इस तरह इनसान का अपना वुजूद इस बात की गवाही देता है, और ज़मीन में इनसान को जो हैसियत हासिल है वह आप-से-आप इस बात का तक़ाज़ा करती है कि दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी के बाद एक दूसरी ज़िन्दगी ऐसी हो जिसमें अदालत क़ायम हो, इनसाफ़ के साथ इनसान की ज़िन्दगी के कामों का हिसाब किया जाए और हर शख़्स को उसके काम के लिहाज़ से बदला दिया जाए।
6. इस जुमले में आख़िरत की दो और दलीलें दी गई हैं। इसमें बताया गया है कि अगर इनसान अपने वुजूद से बाहर के निज़ामे-कायनात (सृष्टि-व्यवस्था) को ग़ौर से देखे तो उसे दो सच्चाइयाँ नुमायाँ नज़र आएँगी— एक यह कि यह कायनात बरहक़ और वायरस बनाई गई है। यह किसी बच्चे का खेल नहीं है कि सिर्फ़ दिल बहलाने के लिए उसने एक बेढ़ंगा-सा घरौंदा बना लिया हो जिसका बनाना और बिगाड़ना दोनों ही का कोई मक़सद न हो, बल्कि यह एक संजीदा निज़ाम है, जिसका एक-एक ज़र्रा इस बात की गवाही दे रहा है कि उसे इन्तिहाई दरजा हिकमत के साथ बनाया गया है, जिसकी हर चीज़ में एक क़ानून काम कर रहा है, जिसकी हर चीज़ बामक़सद है। इनसान का सारा कल्चर और उसकी पूरी मईशत (आर्थिक व्यवस्था) और उसके तमाम उलूम व फ़ुनून (ज्ञान और कलाएँ) ख़ुद इस बात पर गवाह हैं। दुनिया की हर चीज़ के पीछे काम करनेवाले क़ानूनों को खोज करके और हर चीज़ जिस मक़सद के लिए बनाई गई है उसे तलाश करके ही इनसान यहाँ यह सब कुछ बना सका है। वरना एक बेज़ाबिता और बेमक़सद खिलौने में अगर एक पुतले की हैसियत से उसको रख दिया गया होता तो किसी साइंस और किसी तहज़ीब व तमदुन (सभ्यता एवं संस्कृति) का तसव्वुर तक न किया जा सकता था। अब आख़िर यह बात तुम्हारी अक़्ल में कैसे समाती है कि जिस हिकमतवाले ने इस हिकमत और मक़सद के साथ यह दुनिया बनाई है और इसके अन्दर तुम जैसी एक मख़लूक़ (प्राणी) को आला दरजे की ज़ेहनी और जिस्मानी ताक़तें देकर, इख़्तियार देकर, चुनने की आज़ादी देकर, अख़लाक़ का एहसास देकर अपनी दुनिया का बेशुमार सरो-सामान तुम्हारे हवाले किया है, उसने तुम्हें बेमक़सद ही पैदा कर दिया होगा? तुम दुनिया में बनाने बिगाड़ने नेकी और बदी, ज़ुल्म और इनसाफ़, और सही और ग़लत के सारे हंगामे बरपा करने के बाद बस यूँ ही मरकर मिट्टी में मिल जाओगे और तुम्हारे किसी अच्छे या बुरे काम का कोई नतीजा न होगा? तुम अपने एक-एक अमल से अपनी और अपने जैसे हज़ारों इनसानों की ज़िन्दगी पर और दुनिया की अनगिनत चीज़ों पर बहुत-से फ़ायदेमन्द या नुक़सानदेह असरात डालकर चले जाओगे और तुम्हारे मरते ही कामों का यह सारा खाता बस यूँ ही लपेटकर नदी में बहा दिया जाएगा? दूसरी हक़ीक़त जो इस कायनात के निज़ाम का मुताला (अध्ययन) करने से साफ़ नज़र आती है वह यह है कि यहाँ किसी चीज़ के लिए भी हमेशगी नहीं है। हर चीज़ के लिए एक उम्र तय है। जिसे पहुँचने के बाद वह ख़त्म हो जाती है। और यही मामला कुल मिलाकर पूरी कायनात का भी है। यहाँ जितनी ताक़तें काम कर रही हैं, वे सब महदूद (सीमित) हैं। एक वक़्त तक ही वे काम कर रही हैं, और किसी वक़्त पर उन्हें लाज़िमी तौर पर ख़र्च हो जाना और इस निज़ाम को ख़त्म हो जाना है। पुराने ज़माने में तो जानकारी की कमी के सबब उन फ़ल्सफ़ियों (दार्शनिको) और साइंसदानों की बात कुछ चल भी जाती थी जो दुनिया को हमेशा से चली आ रही और हमेशा रहनेवाली बताते थे, मगर मौजूदा साइंस ने दुनिया में क्या चीज़ मिट जानेवाली है और क्या चीज़ हमेशा रहनेवाली है की उस बहस में, जो एक लम्बी मुद्दत से ख़ुदा के इनकारियों (नास्तिकों) और ख़ुदा को माननेवालों के बीच चली आ रही थी, क़रीब-क़रीब तयशुदा तौर पर अपना वोट ख़ुदापरस्तों के हक़ में डाल दिया है। अब नास्तिकों के लिए अक़्ल और हिकमत का नाम लेकर यह दावा करने की कोई गुंजाइश नहीं रही है कि दुनिया हमेशा से है और हमेशा रहेगी और क़ियामत कभी न आएगी। पुरानी माद्दा-परस्ती (भौतिकवाद) का सारा दारोमदार इस ख़याल पर था कि माद्दा (पदार्थ) मिट नहीं सकता, सिर्फ़ सूरत बदली जा सकती है, मगर हर बदलाव के बाद माद्दा माद्दा ही रहता है और उसकी मिक़दार में कोई कभी-ज़्यादती नहीं होती। इस बुनियाद पर यह नतीजा निकाला जाता था कि इस माद्दी आलम की न कोई शुरुआत है और न इन्तिहा (अन्त)। लेकिन अब जौहरी तवानाई (परमाणु-शक्ति, Atomic Energy) की खोज ने इस पूरी सोच और ख़याल बिलकुल ही बदल कर रख दिया है। अब यह बात खुल गई है कि ताक़त माद्दे में बदल जाती है और माद्दा फिर ताक़त में बदल जाता है, यहाँ तक कि न सूरत बाक़ी रहती है, न मिला हुआ माद्दा। अब हरकियाते-हरारत (ऊष्मा की गति) के दूसरे क़ानून (Second Law of Thermo-Dynamics) ने यह साबित कर दिया है कि यह आलमे-माद्दी न सदा से हो सकता है और न सदा के लिए हो सकता है। इसको लाज़िमन एक वक़्त शुरू और एक वक़्त ख़त्म होना ही चाहिए। इसलिए साइंस की बुनियाद पर अब क़ियामत का इनकार मुमकिन नहीं रहा है। और ज़ाहिर बात है कि जब साइंस हथियार डाल दे तो फ़ल्सफ़ा किन टाँगों पर उठकर क़ियामत का इनकार करेगा?
7. यानी इस बात का इनकार करनेवाले कि उन्हें मरने के बाद अपने रब के सामने हाज़िर होना है।
أَوَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَانُوٓاْ أَشَدَّ مِنۡهُمۡ قُوَّةٗ وَأَثَارُواْ ٱلۡأَرۡضَ وَعَمَرُوهَآ أَكۡثَرَ مِمَّا عَمَرُوهَا وَجَآءَتۡهُمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِۖ فَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيَظۡلِمَهُمۡ وَلَٰكِن كَانُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 2
(9) और क्या ये लोग कभी ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि इन्हें उन लोगों का अंजाम नज़र आता जो इनसे पहले गुज़र चुके हैं?8 वे इनसे ज़्यादा ताक़त रखते थे, उन्होंने ज़मीन को ख़ूब उधेड़ा था9 और उसे इतना आबाद किया था जितना इन्होंने नहीं किया है।10 उनके पास उनके रसूल रौशन निशानियाँ लेकर आए।11 फिर अल्लाह उनपर ज़ुल्म करनेवाला न था, मगर वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे थे।12
8. यह आख़िरत के हक़ में तारीख़़ी (ऐतिहासिक) दलील है। मतलब यह है कि आख़िरत का इनकार दुनिया में दो-चार आदमियों ही ने तो नहीं किया है, इनसानी तारीख़ के दौरान में बहुत-से इनसान इस रोग में मुब्तला होते रहे हैं। बल्कि पूरी-पूरी क़ौमें ऐसी गुज़री हैं जिन्होंने या तो इसका इनकार किया है, या इससे बेपरवाह होकर रही हैं, या मरने के बाद की ज़िन्दगी के बारे में ऐसे ग़लत अक़ीदे ईजाद कर लिए हैं जिनसे आख़िरत का अक़ीदा बेमानी होकर रह जाता है। फिर तारीख़ का लगातार तजरिबा यह बताता है कि आख़िरत का इनकार जिस सूरत में भी किया गया है उसका लाज़िमी नतीजा यह हुआ कि लोगों के अख़लाक़ बिगड़े, वे अपने आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार समझकर बेनकेल के ऊँट बन गए, उन्होंने ज़ुल्म और फ़साद और नाफ़रमानी और सरकशी की हद कर दी। और इसी चीज़ की वजह से क़ौमों-पर-क़ौमें तबाह होती चली गईं। क्या हज़ारों साल की तारीख़ का यह तजरिबा, जो एक-के-बाद एक इनसानी नस्लों को पेश आता रहा है, यह साबित नहीं करता कि आख़िरत एक हक़ीक़त है, जिसका इनकार इनसान के लिए तबाह कर देनेवाला है? इनसान कशिशे-सक़्ल (गुरुत्वाकर्षण) को इसी लिए तो मानने लगा है कि अमली और आँखों देखे तजरिबे से उसने माद्दी चीज़ों को हमेशा ज़मीन की तरफ़ गिरते देखा है। इनसान ने ज़हर को ज़हर इसी लिए तो माना है कि जिसने भी ज़हर खाया वह मर गया। इसी तरह जब आख़िरत का इनकार हमेशा इनसान के लिए अख़लाक़ी बिगाड़ का सबब साबित हुआ है तो क्या यह तरजरिबा यह सबक़ देने के लिए काफ़ी नहीं है कि आख़िरत एक हक़ीक़त है और उसको नज़र अन्दाज़ करके दनिया में ज़िन्दगी बसर करना ग़लत है?
9. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ “आसारुल-अरज़” इस्तेमाल हुआ है। यह लफ़्ज़ खेती के लिए हल चलाने के लिए भी इस्तेमाल होता है और ज़मीन खोदकर नीचे का पानी, नहरें-नाले और मादनियात (खनिज पदार्थ) वग़ैरा निकालने के लिए भी।
10. इसमें उन लोगों की दलील का जवाब मौजूद है जो सिर्फ़ माद्दी तरक़्क़ी को किसी क़ौम के नेक होने की निशानी समझते हैं। वे कहते हैं कि जिन लोगों ने ज़मीन के ज़राए (संसाधनों) इतने बड़े पैमाने पर इस्तेमाल (Exploit) किया है, जिन्होंने दुनिया में बड़े-बड़े तामीरी काम किए हैं और एक शानदार कल्चर को जन्म दिया है, भला यह कैसे मुमकिन है कि अल्लाह तआला उनको जहन्नम का ईंधन बना दे। क़ुरआन इसका जवाब यह देता है कि ये 'तामीरी काम' पहले भी बहुत-सी क़ौमों ने बड़े पैमाने पर किए हैं, फिर क्या तुम्हारी आँखों ने नहीं देखा कि वे क़ौमें अपनी तहज़ीब (सभ्यता) और अपने तमद्दुन (संस्कृति) समेत मिट्टी में मिल गई और उनकी 'तामीर' का गगनचुम्बी महल ज़मीन पर आ रहा? जिस ख़ुदा के क़ानून ने यहाँ सच्चे अक़ीदे और बेहतरीन अख़लाक़ के बिना सिर्फ़ माद्दी तामीर की यह क़द्र की है, आख़िर क्या वजह है कि उसी ख़ुदा का क़ानून दूसरी दुनिया में उन्हें जहन्नम में दाख़िल न करे?
11. यानी ऐसी निशानियाँ लेकर आए जो उनके सच्चे नबी होने का यक़ीन दिलाने के लिए काफ़ी थीं। यहाँ इस मौक़े पर नबियों के आने के ज़िक्र का मतलब यह है कि एक तरफ़ इनसान के अपने वुजूद में, और उससे बाहर सारी कायनात के निज़ाम (व्यवस्था) में, और इनसानी तारीख़ के लगातार तजरिबे में आख़िरत की गवाहियाँ मौजूद थीं, और दूसरी तरफ़ एक-के-बाद एक ऐसे नबी भी आए जिनके साथ उनकी नुबूवत के सच होने की खुली-खुली निशानियाँ पाई जाती थीं, और उन्होंने इनसानों को ख़बरदार किया कि सचमुच आख़िरत आनेवाली है।
12. यानी उसके बाद जो तबाही उन क़ौमों पर आई वह उनपर ख़ुदा का ज़ुल्म न था, बल्कि वह उनका अपना ज़ुल्म था जो उन्होंने अपने ऊपर किया। जो शख़्स या गरोह न ख़ुद सही सोचे और न किसी समझानेवाले के समझाने से सही रवैया अपनाए, उसपर अगर तबाही आती है तो वह आप ही अपने बुरे अंजाम का ज़िम्मेदार है। ख़ुदा पर उसका इलज़ाम लगाया नहीं जा सकता। ख़ुदा ने तो अपनी किताबों और अपने नबियों के ज़रिए से इनसान को हक़ीक़त का इल्म देने का इन्तिज़ाम भी किया है, और वे इल्मी और अक़्ली ज़रिए भी दिए हैं जिनसे काम लेकर वह हर वक़्त नबियों और आसमानी किताबों के दिए हुए इल्म के सही होने की जाँच कर सकता है। यह रहनुमाई और ये ज़रिए अगर ख़ुदा ने इनसान को न दिए होते और इस हालत में इनसान को ग़लत रवैये के नतीजों का सामना करना पड़ता तब बेशक ख़ुदा पर ज़ुल्म के इलज़ाम की गुंजाइश निकल सकती थी।
ثُمَّ كَانَ عَٰقِبَةَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ ٱلسُّوٓأَىٰٓ أَن كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ بِهَا يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 3
(10) आख़िरकार जिन लोगों ने बुराइयाँ की थीं, उनका अंजाम बहुत बुरा हुआ, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया था और वे उनका मज़ाक़ उड़ाते थे।
ٱللَّهُ يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 4
(11) अल्लाह ही पैदाइश की शुरुआत करता है, फिर वही उसको दोहराएगा,13 फिर उसी की तरफ़ तुम पलटाए जाओगे।
13. यह बात अगरचे दावे के अन्दाज़ में कही गई है, मगर इसमें ख़ुद दावे की दलील भी मौजूद है। अक़्ल साफ़ तौर से इस बात की गवाही देती है कि जिसके लिए पैदाइश की इबतिदा करना मुमकिन हो उसके लिए उसी पैदाइश को दोहरा देना कहीं ज़्यादा आसान है। पैदाइश की इबतिदा तो एक ऐसी हक़ीक़त है जो सबके सामने मौजूद है। और कुफ़्र और शिर्क करनेवाले भी मानते हैं कि यह अल्लाह तआला ही का काम है। इसके बाद उनका यह ख़याल करना सरासर अक़्ल के ख़िलाफ़ बात है कि वही ख़ुदा जिसने पहली बार पैदा किया, दोबारा पैदा नहीं कर सकता।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُبۡلِسُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 5
(12) और जब वह घड़ी आएगी,14 उस दिन मुजरिम हक्का-बक्का रह जाएँगे,15
14. यानी अल्लाह तआला की तरफ़ पलटने और उसके सामने पेश होने की घड़ी।
15. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'युबलिसु' इस्तेमाल किया गया है जो 'इबलास' से बना है। इबलास का मतलब है सख़्त मायूसी और सदमे की वजह से किसी शख़्स का गुमसुम हो जाना, उम्मीद के सारे रास्ते बन्द पाकर हैरान और परेशान रह जाना, कोई दलील न पाकर चुपचाप रह जाना। यह लफ़्ज़ जब मुजरिम के लिए इस्तेमाल किया जाए तो ज़ेहन के सामने उसकी यह तस्वीर आती है कि एक शख़्स ठीक जुर्म की हालत में रंगे हाथों (Red-handed) पकड़ा गया है, न बच निकलने की कोई राह पाता है, न अपनी सफ़ाई में कोई चीज़ पेश करके बच निकलने को उम्मीद रखता है, इसलिए ज़बान उसकी बन्द है और वह इन्तिहाई मायूसी और दुख की हालत में हैरान और परेशान खड़ा है। इस जगह पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि वहाँ मुजरिमों से मुराद सिर्फ़ वही लोग नहीं हैं जिन्होंने दुनिया में क़त्ल, चोरी, डाके और इसी तरह के दूसरे जुर्म किए हैं, बल्कि वे सब लोग मुराद हैं जिन्होंने ख़ुदा से बग़ावत की है, उसके रसूलों की तालीम और हिदायत को क़ुबूल करने से इनकार किया है, आख़िरत की जवाबदेही का इनकार किया या उससे बेफ़िक्र रहे हैं, और दुनिया में ख़ुदा के बजाय दूसरों की या अपने मन की बन्दगी करते रहे हैं, चाहे इस बुनियादी गुमराही के साथ उन्होंने वे काम किए हों या न किए हों जिन्हें आम तौर पर जुर्म कहा जाता है। इसके अलावा वे लोग भी शामिल हैं जिन्होंने ख़ुदा को मानकर, उसके पैग़म्बरों पर ईमान लाकर, आख़िरत का इक़रार करके फिर जान-बूझकर अपने रब की नाफ़रमानियाँ की हैं और आख़िर वक़्त तक अपनी इस बाग़ियाना रविश पर डटे रहे हैं। ये लोग जब अपनी उम्मीदों के बिलकुल ख़िलाफ़ आख़िरत की दुनिया में यकायक जी उठेंगे और देखेंगे कि यहाँ तो सचमुच वह दूसरी ज़िन्दगी पेश आ गई है जिसका इनकार करके, या जिसे अनदेखा करके, वे दुनिया में काम करते रहे थे, तो उनके होश उड़ जाएँगे और उनकी वह हालत हो जाएगी जिसका नक़्शा 'युबलिसुल-मुजरिमून' के अलफ़ाज़ में खींचा गया है।
وَلَمۡ يَكُن لَّهُم مِّن شُرَكَآئِهِمۡ شُفَعَٰٓؤُاْ وَكَانُواْ بِشُرَكَآئِهِمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 6
(13) उनके ठहराए हुए शरीकों में कोई उनका सिफ़ारिशी न होगा16 और वे अपने शरीकों के इनकारी हो जाएँगे।17
16. शरीक होनेवालों में तीन तरह की हस्तियाँ शामिल हैं। एक फ़रिश्ते, नबी, वली और शहीद और नेक लोग जिनको अलग-अलग ज़मानों में मुशरिकों ने ख़ुदाई ख़ूबियाँ और इख़्तियार रखनेवाला ठहराकर उनके आगे बन्दगी की रस्में अदा की हैं। वे क़ियामत के दिन साफ़-साफ़ कह देंगे कि तुम यह सब कुछ हमारी मरज़ी के बिना बल्कि हमारी तालीम और हिदायत के सरासर ख़िलाफ़ करते रहे हो, इसलिए हमारा तुमसे कोई ताल्लुक़ नहीं, हमसे कोई उम्मीद न रखो कि हम तुम्हारी सिफ़ारिश के लिए अल्लाह तआला के सामने कुछ दरख़ास्त करेंगे। दूसरी क़िस्म उन चीज़ों की है जो बेसमझ या बेजान हैं, जैसे चाँद, सूरज, सितारे, पेड़, पत्थर और जानवर वग़ैरा। मुशरिकों ने उनको ख़ुदा बनाया और उनकी पूजा की और उनसे दुआएँ माँगीं, मगर वे बेचारे अनजान हैं कि अल्लाह मियाँ के ख़लीफ़ा साहब ये सारी मन्नत-नियाज़ें उनके लिए ख़ास कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि उनमें से भी कोई वहाँ उनकी सिफ़ारिश के लिए आगे बढ़नेवाला न होगा। तीसरी क़िस्म उन बड़े मुजरिमों की है जिन्होंने ख़ुद कोशिश करके, धोखा-धड़ी से काम लेकर, झूठ के जाल फैलाकर, या ताक़त इस्तेमाल करके दुनिया में ख़ुदा के बन्दों से अपनी बन्दगी कराई। मसलन शैतान, झूठे मज़हबी पेशवा, और ज़ालिम और अत्याचारी हुक्मराँ वग़ैरा। ये वहाँ ख़ुद मुसीबत में पड़े होंगे, अपने इन बन्दों की सिफ़ारिश के लिए आगे बढ़ना तो एक तरफ़, उनकी तो उलटी कोशिश यह होगी कि अपने आमालनामे का बोझ हल्का करें और हश्र के दिन इनसाफ़ करनेवाले अल्लाह तआला के सामने यह साबित कर दें कि ये लोग अपने जुर्मों के ख़ुद ज़िम्मेदार हैं, इनको गुमराही का बोझ हमपर नहीं पड़ना चाहिए। इस तरह मुशरिकों को वहाँ किसी तरफ़ से भी कोई सिफ़ारिश न मिलेगी।
17. यानी उस वक़्त ये मुशरिक लोग ख़ुद इस बात को क़ुबूल करेंगे कि हम इनको ख़ुदा का साझेदार ठहराने में ग़लती पर थे। उनपर यह हक़ीक़त खुल जाएगी कि सचमुच उनमें से किसी का भी ख़ुदाई में कोई हिस्सा नहीं है, इसलिए जिस शिर्क पर आज वे दुनिया में अड़े हैं, उसी का यह आख़िरत में इनकार करेंगे।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يَوۡمَئِذٖ يَتَفَرَّقُونَ ۝ 7
(14) जिस दिन वह घड़ी आएगी, उस दिन (सब इनसान) अलग गरोहों में बँट जाएँगे।18
18. यानी दुनिया की ये तमाम जत्थे-बन्दियाँ जो आज क़ौम, नस्ल, वतन, ज़बान, क़बीला और बिरादरी और मआशी (आर्थिक) और सियासी फ़ायदों की बुनियाद पर बनी हुई हैं, उस दिन टूट जाएँगी, और ख़ालिस अक़ीदे और अख़लाक़ और किरदार की बुनियाद पर नए सिरे से एक दूसरी गरोह-बन्दी होगी। एक तरफ़ इनसानों की तमाम अगली-पिछली क़ौमों में से ईमानवाले और नेक इनसान अलग छाँट लिए जाएँगे और उन सबका एक गरोह होगा। दूसरी तरफ़ एक-एक क़िस्म के गुमराहीवाले नज़रिए और अक़ीदे रखनेवाले, और एक-एक क़िस्म के जराइम-पेशा लोग इनसानों की इस अज़ीमुश्शान भीड़ में से छाँट-छाँटकर अलग निकाल लिए जाएँगे और उनके अलग-अलग गरोह बन जाएँगे। दूसरे अलफ़ाज़ में यूँ समझना चाहिए कि इस्लाम जिस चीज़ को इस दुनिया में जुदा होने और जमा होने की हक़ीक़ी बुनियाद ठहराता है। और जिसे जाहिलियत के पुजारी यहाँ मानने से इनकार करते हैं, आख़िरत में इसी बुनियाद पर जुदाई और अलगाव भी होगा और इसी बुनियाद पर लोग जमा भी होंगे। इस्लाम कहता है कि इनसानों को काटने और जोड़नेवाली अस्ल चीज़ अक़ीदा और अख़लाक़ है। ईमान लानेवाले और ख़ुदाई हिदायत पर ज़िन्दगी के निज़ाम (व्यावस्था) की बुनियाद रखनेवाले एक उम्मत (समुदाय) हैं, चाहे वे दुनिया के किसी कोने से ताल्लुक़ रखते हों, और इनकार और नाफ़रमानी की राह अपनानेवाले एक दूसरी उम्मत हैं, चाहे उनका ताल्लुक़ किसी नस्ल और वतन से हो। इन दोनों की क़ौमियत एक नहीं हो सकती। ये न दुनिया में मिल-जुलकर ज़िन्दगी की एक राह बनाकर एक साथ चल सकते हैं और न आख़िरत में इनका अंजाम एक हो सकता है। दुनिया से आख़िरत तक इनकी राह और मंज़िल एक-दूसरे से अलग है जाहिलियत के पुजारी इसके बरख़िलाफ़ हर ज़माने में इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं और आज भी इसी बात पर अड़े हैं कि जत्थाबन्दी नस्ल और वतन की बुनियादों पर होनी चाहिए, इन बुनियादों के लिहाज़ से जो लोग एक जैसे हों उन्हें मज़हब और अक़ीदे का लिहाज़ किए बिना एक क़ौम बनकर दूसरी ऐसी ही क़ौमों के मुक़ाबले में एकजुट हो जाना चाहिए, और इस क़ौमियत का एक ऐसा निज़ामे-ज़िन्दगी (जीवन-व्यवस्था) होना चाहिए जिसमें तौहीद (एकेश्वरवाद) और शिर्क और नास्तिकता के माननेवाले सब एक साथ मिलकर चल सकें। यही ख़याल अबू-जह्ल, अबू-लहब और क़ुरैश के सरदारों का था, जब वे बार-बार मुहम्मद (सल्ल०) पर इलज़ाम रखते थे कि इस आदमी ने आकर हमारी क़ौम में फूट डाल दी है। इसी पर क़ुरआन यहाँ ख़बरदार कर रहा है कि तुम्हारी ये तमाम जत्थेबन्दियाँ, जो तुमने इस दुनिया में ग़लत बुनियादों पर कर रखी हैं, आख़िरकार दूट जानेवाली हैं और इनसानों में मुस्तक़िल अलगाव तो उसी अक़ीदे और नज़रिए और अख़लाक़ और किरदार की बुनियाद पर होनेवाला है जिसपर इस्लाम दुनिया की इस ज़िन्दगी में करना चाहता है। जिन लोगों की मंज़िल एक नहीं है, उनकी ज़िन्दगी की राह आख़िर कैसे एक हो सकती है?
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَهُمۡ فِي رَوۡضَةٖ يُحۡبَرُونَ ۝ 8
(15) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने भले काम किए हैं वे एक बाग़ में19 ख़ुशी और आनन्द के साथ रखे जाएँगे।20
19. 'एक बाग़' का लफ़्ज़ यहाँ उस बाग़ की बड़ाई और शान का तसव्वुर दिलाने के लिए इस्तेमाल हुआ है। अरबी ज़बान की तरह उर्दू हिन्दी में भी यह अन्दाज़े-बयान इस ग़रज़ के लिए जाना जाता है। जैसे कोई आदमी किसी को एक बड़ा अहम काम करने को कहे और इसके साथ यह कहे कि तुमने यह काम अगर कर दिया तो मैं तुम्हें ‘एक चीज़' दूँगा, तो इससे मुराद यह नहीं होती कि वह चीज़ गिनती के लिहाज़ से एक होगी, बल्कि इसका मक़सद यह होता है कि उसके इनाम में तुमको एक बड़ी क़ीमती चीज़ दूँगा जिसे पाकर तुम निहाल हो जाओगे।
20. अस्ल अरबी में 'युहबरून' इस्तेमाल हुआ है जिसके मतलब में ख़ुशी, मज़ा, शानो-शौकत और इज़्ज़त व एहतिराम शामिल है। यानी वहाँ बड़ी इज़्ज़त के साथ रखे जाएँगे, ख़ुश रहेंगे और हर तरह की लज़्ज़तों से फ़ायदा उठाएँगे।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَلِقَآيِٕ ٱلۡأٓخِرَةِ فَأُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡعَذَابِ مُحۡضَرُونَ ۝ 9
(16) और जिन्होंने इनकार किया है और हमारी आयतों को और आख़िरत को झुठलाया है21 वे अज़ाब में हाज़िर रखे जाएँगे
21. यह बात ध्यान देने के क़ाबिल है कि ईमान के साथ तो भले कामों का ज़िक्र किया गया है जिसके नतीजे में वह शानदार अंजाम नसीब होगा, लेकिन कुफ़्र का बुरा अंजाम बयान करते हुए बुरे कामों का कोई ज़िक्र नहीं किया गया। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि कुफ़्र अपने आपमें ख़ुद आदमी के अंजाम को ख़राब कर देने के लिए काफ़ी है चाहे अमल की ख़राबी उसके साथ शामिल हो या न हो।
فَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ حِينَ تُمۡسُونَ وَحِينَ تُصۡبِحُونَ ۝ 10
(17) तो22 तसबीह करो अल्लाह की23 जबकि तुम शाम करते हो और जब सुबह करते हो
22. यह 'तो' इस मानी में है कि जब तुम्हें यह मालूम हो गया कि ईमान और भले काम का अंजाम वह कुछ, और कुफ़्र और झुठलाने का अंजाम यह कुछ है तो तुम्हें यह रवैया अपनाना चाहिए। इसके अलावा यह 'तो' इस मानी में भी है कि शिर्क और कुफ़्र करनेवाले लोग आख़िरत की ज़िन्दगी को नामुमकिन ठहराकर अल्लाह तआला को अस्ल में बेबस और कमज़ोर ठहरा रहे हैं। इसलिए तुम इसके मुक़ाबले में अल्लाह की तसबीह करो और इस कमज़ोरी से उसके पाक होने का एलान करो। यह हुक्म नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के ज़रिए से तमाम ईमानवालों को दिया गया है।
23. अल्लाह की तसबीह करने से मुराद उन तमाम बुराइयों, ख़राबियों और कमज़ोरियों से, जो मुशरिक लोग अपने शिर्क और आख़िरत के इनकार से अल्लाह की तरफ़ जोड़ते हैं, उस बेमिसाल हस्ती के पाक होने का एलान और इज़हार करना है। इस एलान और इज़हार की बेहतरीन सूरत नमाज़ है। इसी वजह से इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, क़तादा, इब्ने-ज़ैद और दूसरे तफ़सीर लिखनेवाले कहते हैं कि यहाँ तसबीह करने से मुराद नमाज़ पढ़ना है। इस तफ़सीर के हक़ में यह साफ़ इशारा ख़ुद इस आयत में मौजूद है कि अल्लाह की पाकी बयान करने के लिए इसमें कुछ वक़्त मुक़र्रर किए गए हैं। ज़ाहिर बात है कि अगर सिर्फ़ यह अक़ीदा रखना मक़सद हो कि अल्लाह तमाम ख़राबियों और कमज़ोरियों से पाक है तो इसके लिए सुबह-शाम और ज़ुहर और अस्र के वक़्तों की पाबन्दी का कोई सवाल पैदा नहीं होता, क्योंकि यह अक़ीदा तो मुसलमान को हर वक़्त रखना चाहिए। इसी तरह अगर सिर्फ़ ज़बान से अल्लाह की पाकी ज़ाहिर करना मक़सद हो तब भी इन वक़्तों के ख़ास करने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि यह इज़हार तो मुसलमान को हर मौक़े पर करना चाहिए। इसलिए वक़्तों की पाबन्दी के साथ तसबीह करने का हुक्म लाज़िमी तौर पर उसकी एक ख़ास अमली शक्ल ही की तरफ़ इशारा करता है। और यह अमली शक्ल नमाज़ के सिवा और कोई नहीं है।
وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَعَشِيّٗا وَحِينَ تُظۡهِرُونَ ۝ 11
(18) आसमानों और ज़मीन में उसी के लिए हम्द (तारीफ़) है। और (तसबीह करो उसकी) तीसरे पहर और जबकि तुमपर ज़ुहर का वक़्त आता है।24
24. इस आयत में नमाज़ के चार वक़्तों की तरफ़ साफ़ इशारा है— फ़ज़्र, मग़रिब, अस्र और ज़ुहर। इसके अलावा कुछ और इशारे जो क़ुरआन मजीद में नमाज़ के वक़्तों की तरफ़ दिए गए हैं, नीचे दिए जा रहे हैं— “नमाज़ क़ायम करो सूरज ढलने के बाद से रात के अंधेरे तक, और फ़ज़्र के वक़्त क़ुरआन पढ़ने का एहतिमाम करो।” (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-78) “और नमाज़ क़ायम करो दिन के दोनों सिरों पर और कुछ रात गुज़रने पर।" (क़ुरआन, सूरा-11 हूद, आयत-114) “और अपने रब की हम्द (तारीफ़) के साथ उसकी तसबीह करो सूरज निकलने से पहले और उसके डूबने से पहले, और रात की कुछ घड़ियों में तसबीह करो, और दिन के किनारों पर भी।” (क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, आयत-130) इनमें से पहली आयत बताती है कि नमाज़ के वक़्त सूरज ढलने के बाद से इशा तक हैं, और इसके बाद फिर फ़ज़्र का वक़्त है दूसरी आयत में दिन के दोनों सिरों से मुराद सुबह और मग़रिब के वक़्त हैं और कुछ रात गुज़रने पर से मुराद इशा का वाक़्त। तीसरी आयत में सूरज निकलने से पहले से मुराद फ़ज्र और सूरज डूबने से पहले से मुराद अस्र। रात की घड़ियों में मग़रिब और इशा दोनों शामिल हैं। और दिन के किनारे तीन हैं, एक सुबह, दूसरे सूरज ढलने का वक़्त और तीसरे मग़रिब। इस तरह क़ुरआन मजीद अलग-अलग जगहों पर नमाज़ के उन पाँचों वक़्तों की तरफ़ इशारा करता है जिनपर आज दुनिया भर के मुसलमान नमाज़ पढ़ते हैं। लेकिन ज़ाहिर है कि सिर्फ़ इन आयतों को पढ़कर कोई शख़्स भी नमाज़ के वक़्त मुक़र्रर न कर सकता था जब तक कि अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए क़ुरआन सिखानेवाले, मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुद अपनी ज़बान और अमल से इनकी तरफ़ रहनुमाई न करते। यहाँ ज़रा थोड़ी देर ठहरकर हदीस को न माननेवालों की इस जसारत (दुस्साहस) पर ग़ौर कीजिए कि वे 'नमाज़ पढ़ने’ का मज़ाक़ उड़ाते हैं और कहते हैं कि यह नमाज़ जो आज मुसलमान पढ़ रहे हैं यह सिरे से वह चीज़ ही नहीं है जिसका क़ुरआन में हुक्म दिया गया है। उनका कहना है कि क़ुरआन तो 'इक़ामते-सलात' का हुक्म देता है और इससे मुराद नमाज़ पढ़ना नहीं, बल्कि 'निज़ामे-रुबूबियत' (ख़ुदा की व्यवस्था) क़ायम करना है। अब ज़रा उनसे पूछिए कि वह कौन-सा निराला निज़ामे-रुबूबियत है जिसे या तो सूरज निकलने से पहले क़ायम किया जा सकता है या फिर सूरज ढलने के बाद से कुछ रात गुज़रने तक? और वह कौन-सा निज़ामे-रुबूबियत है जो ख़ास जुमे के दिन क़ायम किया जाना दरकार है? (जब जुमे के दिन नमाज़ के लिए पुकारा जाए तो दौड़ो अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ — सूरा-62 जुमुआ, आयत-9)। और निज़ामे-रुबूबियत की आख़िर वह कौन-सी ख़ास क़िस्म है कि उसे क़ायम करने के लिए जब आदमी खड़ा हो तो पहले मुँह और कुहनियों तक हाथ और टख़नों तक पाँव धो ले और सर पर हाथ फेर ले, वरना वह उसे क़ायम नहीं कर सकता? (जब तुम नमाज़ के लिए खड़े हो तो अपने चेहरों को और अपने हाथों को कुहनियों तक धो लो — सूरा-5 माइदा, आयत-6)। और निज़ामे-रुबूबियत के अन्दर आख़िर यह क्या ख़ासियत है कि अगर आदमी नापाकी की हालत में हो तो जब तक वह ग़ुस्ल न कर ले, उसे क़ायम नहीं कर सकता? (जब तुम नशे की हालत में हो तो नमाज़ के क़रीब न जाओ......और इसी तरह जनाबत (नापाकी) की हालत में भी नमाज़ के क़रीब न जाओ जब तक ग़ुस्ल न कर लो। सिवाय इसके कि रास्ते से गुज़रते हो। सूरा-4 निसा, आयत-43) और यह क्या मामला है कि अगर आदमी औरत को छू बैठा हो और पानी न मिले तो इस अजीबो-ग़रीब निज़ामे-रुबूबियत को क़ायम करने के लिए उसे पाक मिट्टी पर हाथ मारकर अपने चेहरे और मुँह पर मलना होगा? (या तुमने औरत को छुआ हो और फिर पानी न मिले तो पाक मिट्टी से काम लो और उसे अपने चेहरों और हाथों पर मल लो। सूरा-4 निसा, आयत-43) और यह कैसा अजीब निज़ामे-रुबूबियत है कि अगर सफ़र करना पड़े तो आदमी उसे पूरा क़ायम करने के बजाय आधा ही क़ायम कर ले? (और जब तुम लोग सफ़र के लिए निकलो तो तुमपर कोई हरज नहीं कि नमाज़ में कमी कर लो। सूरा-4 निसा, आयत-101)। फिर यह क्या लतीफ़ा है कि अगर जंग की हालत हो तो फ़ौज के आधे सिपाही हथियार लिए हुए इमाम के पीछे 'निज़ामे-रुबूबियत' क़ायम करते रहें और आधे दुश्मन के मुक़ाबले में डटे रहें, इसके बाद जब पहला गरोह इमाम के पीछे 'निज़ामे-रुबूबियत' क़ायम करते हुए एक सजदा कर ले तो वह उठकर दुश्मन का मुक़ाबला करने के लिए चला जाए, और दूसरा गरोह उसकी जगह आकर इमाम के पीछे इस 'निज़ामे-रुबूबियत' को क़ायम करना शुरू कर दे (ऐ नबी, जब तुम मुसलमानों के बीच में हो और, (जंग की हालत में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने खड़े हो तो चाहिए कि उनमें से एक गरोह तुम्हारे साथ खड़ा हो और अपने हथियार लिए रहे, फिर जब सजदा कर ले तो पीछे चला जाए और दूसरा गरोह जिसने अभी नमाज़ नहीं पढ़ी है, आकर तुम्हारे साथ नमाज़ पढ़े। सूरा-4 निसा, आयत-102)। क़ुरआन मजीद की ये सारी आयतें साफ़ बता रही हैं कि 'इक़ामते-सलात' से मुराद वही नमाज़ क़ायम करना है जो मुसलमान दुनिया भर में पढ़ रहे हैं, लेकिन हदीस को न माननेवाले हैं कि ख़ुद बदलने के बजाय क़ुरआन को बदलने पर अड़े चले जाते हैं। हक़ीक़त यह है कि जब तक कोई शख़्स अल्लाह तआला के मुक़ाबले में बिलकुल ही निडर और बेख़ौफ़ न हो जाए, वह उसके कलाम के साथ यह मज़ाक़ नहीं कर सकता जो ये लोग कर रहे हैं। या फिर क़ुरआन के साथ यह खेल वह शख़्स खेल सकता है जो अपने दिल में उसे अल्लाह का कलाम न समझता हो और सिर्फ़ धोखा देने के लिए क़ुरआन-क़ुरआन पुकारकर मुसलमानों को गुमराह करना चाहता हो। (इस सिलसिले में आगे हाशिया-50 भी देखिए।)
يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَيُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّ وَيُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَاۚ وَكَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ ۝ 12
(19) वह ज़िन्दा में से मुर्दे को निकालता है और मुर्दे में से ज़िन्दा को निकाल लाता है और ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी देता है।25 इसी तरह तुम लोग भी (मौत की हालत से) निकाल लिए जाओगे।
25. यानी जो ख़ुदा हर पल तुम्हारी आँखों के सामने यह काम कर रहा है वह आख़िर इनसान को, मरने के बाद, दोबारा ज़िन्दगी देने में बेबस कैसे हो सकता है। वह हर वक़्त ज़िन्दा इनसानों और हैवानों में से बेकार चीज़ें (Waste Matter) निकाल रहा है जिनके अन्दर ज़िन्दगी का हल्का-सा असर तक नहीं होता। वह हर लम्हा बेजान माददे (Dead Matter) के अन्दर ज़िन्दगी की रूह फूँककर अनगिनत जीते-जागते जानवर, पेड़-पौधे और इनसान वुजूद में ला रहा है, हालाँकि अपने आपमें ख़ुद उन माद्दों (पदार्थों) में जिनसे इन ज़िन्दा हस्तियों के जिस्म तैयार होते हैं, हरगिज़ कोई ज़िन्दगी नहीं होती। वह हर पल यह मंज़र तुम्हें दिखा रहा है कि बंजर पड़ी हुई ज़मीन को जहाँ पानी मयस्सर आया और यकायक वह हैवानी और नबाताती (जन्तु और पेड़-पौधों की) ज़िन्दगी के ख़ज़ाने उगलना शुरू कर देती है। यह सब कुछ देखकर भी अगर कोई शख़्स यह समझता है कि इस दुनिया को चलानेवाला ख़ुदा इनसान के मर जाने के बाद उसे दोबारा ज़िन्दा करने से बेबस है तो हक़ीक़त में वह अक़्ल का अंधा है। उसके सर की आँखें जिन ज़ाहिरी मंज़रों को देखती हैं, उसकी अक़्ल की आँखें उनके अन्दर नज़र आनेवाली रौशन सच्चाइयों को नहीं देखतीं।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَكُم مِّن تُرَابٖ ثُمَّ إِذَآ أَنتُم بَشَرٞ تَنتَشِرُونَ ۝ 13
(20) उसकी26 निशानियों में से यह है कि उसने तुमको मिट्टी से पैदा किया। फिर यकायक तुम इनसान हो कि (ज़मीन में) फैलते चले जा रहे हो।27
26. ख़बरदार रहना चाहिए कि यहाँ से आयत-27 के ख़ातिमे तक अल्लाह तआला की जो निशानियाँ बयान की जा रही हैं, वे एक तरफ़ तो ऊपर से चली आ रही बात को सामने रखते हुए इस बात को साबित करती हैं कि आख़िरत की ज़िन्दगी का होना मुमकिन भी है और वह होकर भी रहेगी, और दूसरी तरफ़ यही निशानियाँ इस बात पर भी दलील देती हैं कि यह कायनात न बे-ख़ुदा है और न उसके बहुत-से ख़ुदा हैं, बल्कि सिर्फ़ एक ख़ुदा उसका अकेला पैदा करनेवाला, चलानेवाला और हाकिम है जिसके सिवा इनसानों का कोई माबूद नहीं होना चाहिए। इस तरह ये आयतें अपने मज़मून के लिहाज़ से पिछली तक़रीर और आगे की तक़रीर, दोनों के साथ जुड़ी हुई हैं।
27. यानी इनसान जिन चीज़ों से बना है वे इसके सिवा क्या हैं कि कुछ बेजान माद्दे हैं जो ज़मीन में पाए जाते हैं। जैसे कुछ कार्बन, कुछ कैल्शियम, कुछ सोडियम और ऐसी ही कुछ और चीज़ें। इन्हीं को मिलाकर वह हैरतअंगेज़ हस्ती बना खड़ी की गई है जिसका नाम इनसान है और उसके अन्दर एहसासात, जज़बात, समझ, अक़्ल और सोचने की वे अजीब ताक़तें पैदा कर दी गई हैं जिनमें से किसी का मम्बा (मूलस्रोत) भी उन चीज़ों में तलाश नहीं किया जा सकता जिनसे वह बना है। फिर यही नहीं कि एक इनसान इत्तिफ़ाक़ से ऐसा बन खड़ा हुआ हो, बल्कि उसके अन्दर पैदा करने की वह अजीब क़ुव्वत भी पैदा कर दी गई जिसकी बदौलत करोड़ों और अरबों इनसान वही बनावट और वही सलाहियतें (प्रतिभाएँ) लिए हुए अनगिनत विरासती और बेहद और बेहिसाब इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) ख़ासियतें रखनेवाले निकलते चले आ रहे हैं। क्या तुम्हारी अक़्ल यह गवाही देती है कि ये इन्तिहाई हिकमत से भरी पैदाइश किसी हिकमतवाले पैदा करनेवाले के बिना आप-से-आप हो गई है? क्या तुम होशो-हवास की हालत में यह कह सकते हो कि इनसान की पैदाइश जैसा अज़ीमुश्शान मंसूबा बनाना और उसको अमल में लाना और ज़मीन और आसमान की बेहद और बेहिसाब क़ुव्वतों को इनसानी ज़िन्दगी के लिए साज़गार (अनुकूल) कर देना बहुत-से ख़ुदाओं की फ़िक्र और तदबीर का नतीजा हो सकता है। और क्या तुम्हारा दिमाग़ अपनी सही हालत में होता है जब तुम यह गुमान करते हो कि जो ख़ुदा इनसान को ख़ालिस अदम (अनस्तित्व) से वुजूद में लाया है वह उसी इनसान को मौत देने के बाद दोबारा ज़िन्दा नहीं कर सकता?
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَنۡ خَلَقَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا لِّتَسۡكُنُوٓاْ إِلَيۡهَا وَجَعَلَ بَيۡنَكُم مَّوَدَّةٗ وَرَحۡمَةًۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 14
(21) और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जिंस (सहजाति) में से बीवियाँ बनाईं28 ताकि तुम उनके पास सुकून हासिल करो29और तुम्हारे बीच मुहब्बत और रहमत पैदा कर दी।30 यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ग़ौर-फ़िक्र करते हैं।
28. यानी पैदा करनेवाले की हिकमत का कमाल यह है कि उसने इनसान की सिर्फ़ एक सिन्फ़ (जाति) ही नहीं बनाई, बल्कि उसे दी जातियों (Sexes) की शक्ल में पैदा किया, जो इनसानियत में एक जैसे हैं। जिनकी बनावट का बुनियादी फार्मूला भी एक जैसा ही है, मगर दोनों एक दूसरे से अलग जिस्मानी बनावट, अलग-अलग ज़ेहनी और नफ़सी सिफ़तें, और अलग-अलग जज़बात और ख़ाहिशें लेकर पैदा होती हैं। और फिर उनके बीच यह हैरतअंगेज़ मुनासबत (अनुकूलता) रख दी गई है कि उनमें से हर एक-दूसरे का पूरा जोड़ है, हर एक का जिस्म और उसकी नफ़सियात (मनोवृत्तियाँ) और ख़ाहिशें दूसरे के जिस्मानी और नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) तकाज़ों का मुकम्मल जवाब हैं। इसके अलावा वह हिकमतवाला ख़ालिक (स्रष्टा) इन दोनों जातियों के लोगों को शुरू ही से बराबर इस तनासुब (अनुपात) के साथ पैदा किए चला जा रहा है कि आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि दुनिया की किसी क़ौम या किसी भू-भाग में सिर्फ़ लड़के-ही-लड़के पैदा हुए हों, या कहीं किसी क़ौम में सिर्फ़ लड़कियाँ-ही-लड़कियाँ पैदा होती चली गई हों। यह ऐसी चीज़ है जिसमें किसी इनसानी तदबीर का बिलकुल भी कोई दख़ल नहीं है। इनसान ज़र्रा बराबर भी न इस मामले में कुछ असर-अन्दाज़ हो सकता है कि लड़कियाँ लगातार ऐसी ज़नाना ख़ुसूसियतें और लड़के ऐसी मर्दाना ख़ुसूसियतें लिए हुए पैदा होते रहें जो एक-दूसरे का ठीक जोड़ हों, और न इस मामले ही में उसके पास कुछ असर-अन्दाज़ होने का कोई ज़रिआ है कि औरतों और मर्दों की पैदाइश इस तरह लगातार एक तनासुब (अनुपात) के साथ होती चली जाए। हज़ारों साल से करोड़ों और अरबों इनसानों की पैदाइश में इस तदबीर और इन्तिज़ाम का इतने मुनासिब (सन्तुलित) तरीक़े के साथ लगातार जारी रहना इत्तिफ़ाक़ से भी नहीं हो सकता, और यह बहुत-से ख़ुदाओं की मिली-जुली तदबीर का नतीजा भी नहीं हो सकता। यह चीज़ साफ-साफ़ इस बात पर दलील दे रही है कि एक हिकमतवाले ख़ालिक़ (स्रष्टा), और एक ही हिकमतवाले ख़ालिक़ ने अपनी ज़बरदस्त हिकमत और क़ुदरत से पहले-पहल मर्द और औरत का एक बहुत ही बेहतर डिज़ाइन बनाया, फिर इस बात का इन्तिज़ाम किया कि उस डिज़ाइन के मुताबिक़ अनगिनत मर्द और अनगिनत औरतें अपनी अलग-अलग इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) ख़ासियतें लिए हुए दुनिया भर में एक तनासुब (अनुपात) के साथ पैदा हों।
29. यानी यह इन्तिज़ाम अललटप नहीं हो गया है, बल्कि बनानेवाले ने इरादे के साथ इस ग़रज़ के लिए यह इन्तिज़ाम किया है कि मर्द अपनी फ़ितरत के तक़ाज़े औरत के पास, और औरत अपनी फ़ितरत की माँग मर्द के पास पाए, और दोनों एक-दूसरे से वाबस्ता होकर ही सुकून और इत्मीनान हासिल करें। यही वह हिकमत भरी तदबीर है जिसे पैदा करनेवाले ने एक तरफ़ इनसानी नस्ल के बाक़ी रहने का, और दूसरी तरफ़ इनसानी तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता एवं संस्कृति) को वुजूद में लाने का ज़रिआ बनाया है अगर ये दोनों जातियाँ सिर्फ़ अलग-अलग डिज़ाइनों के साथ पैदा कर दी जातीं और इनमें वह बेचैनी न रख दी जाती जो उनके आपसी मिलन के बिना सुकून में नहीं बदल सकती, तो इनसानी नस्ल तो मुमकिन है कि भेड़-बकरियों की तरह चल जाती, लेकिन किसी तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता एवं संस्कृति) के वुजूद में आने का कोई इमकान न था। जानवरों की तमाम जातियों के बरख़िलाफ़ इनसानों में तहज़ीब व तमद्दुन के पैदा होने का बुनियादी सबब यही है कि पैदा करनेवाले ने अपनी हिकमत से मर्द और औरत में एक-दूसरे के लिए वह माँग, वह प्यास, वह बेचैनी की कैफ़ियत रख दी जिसे सुकून नहीं मिलता जब तक कि वह एक-दूसरे से जुड़कर न रहें। यही सुकून की चाहत है जिसने उन्हें मिलकर घर बनाने पर मजबूर किया। इसी की बदौलत ख़ानदान और क़बीले वुजूद में आए। और इसी की बदौलत इनसान की ज़िन्दगी में सामाजिकता पली-बढ़ी। इस पलने-बढ़ने में इनसान की ज़ेहनी सलाहियतें मददगार ज़रूर हुई हैं, मगर वे उसकी अस्ली वजह नहीं हैं। अस्ल वजह यही बेचैनी है जिसे मर्द और औरत के वुजूद में रखकर उन्हें 'घर' की बुनियाद डालने पर मजबूर कर दिया गया। अक़्ल रखनेवाला कौन आदमी यह सोच सकता है कि अक़्लमन्दी का यह शाहकार (महान कार्य) फ़ितरत की अंधी ताक़तों से महज़ इत्तिफ़ाक़ी तौर पर वुजूद में आ गया है? या बहुत-से ख़ुदा ये इन्तिज़ाम कर सकते थे कि इस गहरे हिकमत भरे मक़सद को ध्यान में रखकर हज़ारों साल से लगातार अनगिनत मर्दों और औरतों को यह ख़ास बेचैनी लिए हुए पैदा करते चले जाएँ? यह तो एक हिकमतवाले और एक ही हिकमतवाले की हिकमत का खुला और वाज़ेह निशान है जिसे सिर्फ़ अक़्ल के अंधे ही देखने से इनकार कर सकते हैं।
30. मुहब्बत से मुराद यहाँ जिसी मुहब्बत (Sexual Love) है जो मर्द और औरत के अन्दर एक-दूसरे की तरफ़ खिंचने और एक-दूसरे के साथ रहने का इबतिदाई सबब बनती है और फिर उन्हें एक-दूसरे से जोड़े रखती है। और रहमत से मुराद वह रूहानी ताल्लुक़ है जो शौहर-बीवी की ज़िन्दगी में धीरे-धीरे उभरता है, जिसकी बदौलत वे एक-दूसरे के ख़ैरख़ाह, हमदर्द और दुख-सुख के साथी बन जाते हैं, यहाँ तक कि एक वक़्त ऐसा आता है जब जिंसी मुहब्बत पीछे जा पड़ती है और बुढ़ापे में ये जीवन-साथी कुछ जवानी से भी बढ़कर एक-दूसरे के लिए रहमदिल और मेहरबान साबित होते हैं। ये दो ऐसी ताक़तें हैं जिनके अच्छे नतीजे सामने आते हैं और इन्हें पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने उस शुरुआती बेचैनी की मदद के लिए इनसान के अन्दर पैदा की हैं जिसका ज़िक्र ऊपर गुज़रा है। वह बेचैनी तो सिर्फ़ सुकून चाहती है और उसकी तलाश में मर्द और औरत को एक-दूसरे की तरफ़ ले जाती है। इसके बाद ये दो ताक़तें आगे बढ़कर उनके बीच मुस्तक़िल दोस्ती का ऐसा रिश्ता जोड़ देती हैं जो दो अलग माहौलों में पले-बढ़े हुए अजनबियों को मिलाकर कुछ इस तरह एक-दूसरे से जोड़ देता है कि उम्र भर वे ज़िन्दगी के मंझधार में अपनी नाव एक साथ खींचते रहते हैं। ज़ाहिर है कि यह मुहब्बत और रहमत जिसका तजरिबा करोड़ों इनसानों को अपनी ज़िन्दगी में हो रहा है, कोई माद्दी (भौतिक) चीज़ नहीं है जो नाप-तौल में आ सके, इनसानी जिस्म जिन चीज़ों से मिलकर बना है उनमें भी कहीं इसकी निशानदेही नहीं की जा सकती कि यह चीज़ उनसे हासिल हुई है, न किसी लेबॉरेटरी (प्रयोगशाला) में इसकी पैदाइश और इसके पलने-बढ़ने की वजहों की खोज लगाई जा सकती है। इसकी कोई वजह इसके सिवा नहीं बयान की जा सकती कि एक हिकमतवाले ख़ालिक़ (स्रष्टा) ने पूरे इरादे के साथ एक मक़सद के लिए पूरी मुनासबत (अनुकूलता) के साथ इसे इनसान के नफ़्स (मन) में रख दिया है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفُ أَلۡسِنَتِكُمۡ وَأَلۡوَٰنِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡعَٰلِمِينَ ۝ 15
(22) और उसकी निशानियों में से आसमानों और ज़मीन की पैदाइश,31 और तुम्हारी ज़बानों और तुम्हारे रंगों का अलग-अलग होना है।32 यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं अक़्लमन्द लोगों के लिए।
31. यानी उनका अदम (अनस्तित्व) से वुजूद में आना, और एक अटल ज़ाबिते पर उनका क़ायम होना, और अनगिनत क़ुव्वतों का उनके अन्दर बहुत ही तनासुब व तवाज़ुन (अनुपात और सन्तुलन) के साथ काम करना, अपने अन्दर इस बात की बहुत-सी निशानियाँ रखता है कि इस पूरी कायनात को एक ख़ालिक़ (स्रष्टा) और एक ही ख़ालिक़ वुजूद में लाया है, और वही इस अज़ीमुश्शान निज़ाम को चला रहा है। एक तरफ़ अगर इस बात पर ग़ौर किया जाए कि वह इबतिदाई क़ुव्वत (Energy) कहाँ से आई है जिसने माद्दे (पदार्थ) की शक्ल इख़्तियार कर ली, फिर माद्दे के ये बहुत-से अनासिर (तत्व) कैसे बने, फिर उन अनासिर (तत्वों) की इस क़द्र हिकमत भरी तरकीब (मिलान करने) से इतनी हैरतनाक मुनासबतों के साथ यह हैरान कर देनेवाला दुनिया का निज़ाम कैसे बन गया, और अब यह निज़ाम करोड़ों-करोड़ सदियों से किस तरह एक ज़बरदस्त क़ुदरती क़ानून की बन्दिश में कसा हुआ चल रहा है, तो तास्सुब न रखनेवाली (निष्पक्ष) हर अक़्ल इस नतीजे पर पहुँचेगी कि यह सब कुछ किसी सब कुछ जाननेवाले और हिकमतवाले के ज़बरदस्त इरादे के बिना सिर्फ़ क़िस्मत और इत्तिफ़ाक़ के नतीजे में नहीं हो सकता। और दूसरी तरफ़ अगर यह देखा जाए कि ज़मीन से लेकर कायनात के सबसे दूर के सितारों तक सब एक ही तरह के अनासिर (तत्वों) से बने हैं और एक ही क़ुदरती क़ानून उनमें काम कर रहा है तो हर अक़्ल जो हठधर्म नहीं है, बेशक यह मान लेगी कि यह सब कुछ बहुत-से ख़ुदाओं की ख़ुदाई का करिश्मा नहीं है, बल्कि एक ही ख़ुदा इस पूरी कायनात का पैदा करनेवाला और रब है।
32. यानी इसके बावजूद कि तुम्हारे बोलने-चालने के आज़ा (अंग) एक जैसे हैं, न मुँह और ज़बान की बनावट में कोई फ़र्क़ है और न दिमाग़ की बनावट में, मगर ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में तुम्हारी ज़बान अलग-अलग हैं, फिर एक ही ज़बान बोलनेवाले इलाक़ों में शहर-शहर और बस्ती-बस्ती की बोलियाँ अलग-अलग हैं, और इसके अलावा हर शख़्स का लहजा और तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) और बात करने का अन्दाज़ दूसरे से अलग है। इसी तरह तुम्हारा वह माद्दा (तत्व) जिससे तुम बनाए गए हो और तुम्हारी बनावट का फ़ार्मूला एक ही है, मगर तुम्हारे रंग इस क़द्र अलग-अलग हैं कि क़ौम और काम तो एक तरफ़, एक माँ-बाप के दो बेटों का रंग भी बिलकुल एक जैसा नहीं है। यहाँ नमूने के तौर पर सिर्फ़ दो ही चीज़ों की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है, लेकिन इसी रुख़ पर आगे बढ़कर देखिए तो दुनिया में आप हर तरफ़ इतनी रंगारंगी (Variety) पाएँगे कि उसको पूरी तरह जानना मुश्किल हो जाएगा। इनसान, जानवर, पेड़-पौधों (वनस्पतियों) और दूसरी तमाम चीज़ों की जिस क़िस्म को भी आप ले लें, उसकी इकाइयों में बुनियादी समानता के बावजूद अनगिनत फ़र्क़ मौजूद हैं, यहाँ तक कि किसी क़िस्म की भी कोई एक इकाई दूसरे से बिलकुल मिलती हुई नहीं है, यहाँ तक कि एक पेड़ के पत्तों में भी पूरी मुशाबहत (एकरूपता) नहीं पाई जाती। यह चीज़ साफ़ बता रही है कि यह दुनिया कोई ऐसा कारख़ाना नहीं है जिसमें ऑटोमैटिक (स्वचालित) मशीनें चल रही हों और ज़्यादा पैदावारी (Mass Production) के तरीक़े पर हर तरह की चीज़ों का बस एक-एक ठप्पा हो जिससे ढल-ढलकर एक ही तरह की चीज़ें निकलती चली आ रही हों, बल्कि यहाँ एक ऐसा ज़बरदस्त कारीगर काम कर रहा है जो हर-हर चीज़ को पूरे अलग और ख़ास ध्यान के साथ नए डिज़ाइन, नए नक़्शो-निगार, नए तनासुब (अनुपात) और नई सिफ़तों के साथ बनाता है और उसकी बनाई हुई हर चीज़ अपनी जगह अनोखी है। उसकी ईजाद की क़ुव्वत हर पल हर चीज़ का एक नया मॉडल निकाल रही है, और उसकी कारीगरी एक डिज़ाइन को दूसरी बार दोहराना अपने कमाल की तौहीन समझती है। इस हैरतअंगेज़ मंज़र को जो शख़्स भी आँखें खोलकर देखेगा वह कभी इस बेवक़ूफ़ी भरे ख़याल में मुब्तला न होगा कि इस कायनात का बनानेवाला एक बार इस कारख़ाने को चलाकर कहीं जा सोया है। यह तो इस बात का खुला सुबूत है कि वह हर वक़्त पैदा करने और बनाने के काम में लगा हुआ है और अपनी बनाई हुई एक-एक चीज़ पर अलग-अलग ध्यान दे रहा है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ مَنَامُكُم بِٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَٱبۡتِغَآؤُكُم مِّن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَسۡمَعُونَ ۝ 16
(23) और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात और दिन का सोना और तुम्हारा उसकी मेहरबानी को तलाश करना है।33 यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो (ध्यान से) सुनते हैं।
33. फ़ज़्ल (मेहरबानी) को तलाश करने से मुराद रोज़ी (आजीविका) की तलाश में दौड़-धूप करना है। इनसान अगरचे आम तौर पर रात को सोता और दिन को अपनी रोज़ी के लिए जिद्दो-जुह्द करता है, लेकिन यह ऐसी बात नहीं है जिसपर सब अमल करते हों, बहुत-से इनसान दिन को भी सोते हैं और रात को भी रोज़ी के लिए काम करते हैं। इसी लिए रात और दिन का इकट्ठा ज़िक्र करके कहा गया कि इन दोनों वक़्तों में तुम सोते भी हो और अपनी रोज़ी के लिए दौड़-धूप भी करते हो। यह चीज़ भी उन निशानियों में से एक है जो एक हिकमतवाले ख़ालिक़ (स्रष्टा) की तदबीर का पता देती हैं। बल्कि इसके अलावा यह चीज इस बात की निशानदेही भी करती है कि वह सिर्फ़ पैदा करनेवाला ही नहीं है, बल्कि अपनी मख़लूक़ पर बेइन्तिहा रहमतवाला और मेहरबान और उसकी ज़रूरतों और मस्लहतों के लिए ख़ुद उससे बढ़कर फ़िक्र करनेवाला है। इनसान दुनिया में लगातार मेहनत नहीं कर सकता, बल्कि हर कुछ घण्टों की मेहनत के बाद उसे कुछ घण्टों के लिए आराम चाहिए होता है, ताकि फिर कुछ घण्टे मेहनत करने के लिए उसे ताक़त मिल जाए। इस ग़रज़ के लिए हिकमतवाले और रहमवाले ख़ालिक़ ने इनसान के अन्दर सिर्फ़ थकन का एहसास और सिर्फ़ आराम की ख़ाहिश पैदा कर देने ही पर बस नहीं किया, बल्कि उसने 'नींद' की एक ज़बरदस्त तलब उसके वुजूद में रख दी जो उसके इरादे के बिना, यहाँ तक कि उसके रोकने के बावजूद, अपने आप हर कुछ घण्टों की बेदारी और मेहनत के बाद उसे आ दबोचती है, कुछ घण्टे आराम लेने पर उसको मजबूर कर देती है, और ज़रूरत पूरी हो जाने के बाद अपने आप उसे छोड़ देती है। इस नींद की हक़ीक़त और कैफ़ियत और उसकी हक़ीक़ी वजहों को इनसान आज तक नहीं समझ सका है। यह बिलकुल एक पैदाइशी चीज़ है जो आदमी की फ़ितरत और उसकी बनावट में रख दी गई है। इसका ठीक इनसान की ज़रूरत के मुताबिक़ होना ही इस बात की गवाही देने के लिए काफ़ी है कि यह एक इत्तिफ़ाक़ी हादिसा नहीं है, बल्कि किसी हिकमतवाले ने एक सोचे-समझे मंसूबे के मुताबिक़ यह इन्तिज़ाम किया है इसमें एक बड़ी हिकमत, मस्लहत और मक़सद साफ़ तौर पर काम करता दिखाई देता है। इसके अलावा यही नींद इस बात पर भी गवाह है कि जिसने वह मजबूर कर देनेवाली तलब इनसान के अन्दर रखी है वह इनसान के हक़ में ख़ुद उससे बढ़कर ख़ैरख़ाह है, वरना इनसान अपनी कोशिश और इरादे से नींद को रोक करके और ज़बरदस्ती जाग-जागकर और लगातार काम कर-करके अपनी काम करने की ताक़त को ही नहीं, जीने की ताक़त तक को ख़त्म कर डालता। फिर रोज़ी की तलाश के लिए 'अल्लाह की मेहरबानी की तलाश’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके निशानियों के एक-दूसरे सिलसिले की तरफ़ इशारा किया गया है। आदमी आख़िर यह रोज़ी तलाश ही कहाँ कर सकता था, अगर ज़मीन और आसमान की बेहद्दो-हिसाब ताक़तों को रोज़ी के असबाब (संसाधन) पैदा करने में न लगा दिया गया होता, और ज़मीन में इनसान के लिए रोज़ी के अनगिनत ज़रिए न पैदा कर दिए गए होते। सिर्फ़ यही नहीं, बल्कि रोज़ी की यह तलाश और इसका कमाना उस हालत में भी मुमकिन न होता अगर इनसान को इस काम के लिए निहायत मुनासिब आज़ा (अंग) और निहायत मुनासिब जिस्मानी ओर ज़ेहनी सलाहियतें न दी गई होतीं। इसलिए आदमी के अन्दर रोज़ी की तलाश की क़ाबिलियत और उसके वुजूद से बाहर रोज़ी के वसाइल (संसाधनों) का मौजूद होना, साफ-साफ़ एक रहम और करम करनेवाले रब के वुजूद का पता देता है। जो अक़्ल बीमार न हो वह कभी यह नहीं मान सकती कि यह सब कुछ इत्तिफ़ाक़ से हो गया है, या यह बहुत-से ख़ुदाओं की ख़ुदाई का करिश्मा है, या कोई बेदर्द अंधी ताक़त इस मेहरबानी और करम की ज़िम्मेदार है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ يُرِيكُمُ ٱلۡبَرۡقَ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَيُحۡيِۦ بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 17
(24) और उसकी निशानियों में से यह है कि वह तुम्हें बिजली की चमक दिखाता है डर के साथ भी और लालच के साथ भी।34 और आसमान से पानी बरसाता है, फिर उसके ज़रिए से ज़मीन को उसकी मौत के बाद ज़िन्दगी देता है।35 यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
34. यानी उसकी गरज और चमक से उम्मीद भी बोलती है कि बारिश होगी और फ़स्लें तैयार होंगी, मगर साथ ही डर भी लगा होता है कि कहीं बिजली न गिर पड़े या ऐसी तूफ़ानी बारिश न हो जाए जो सब कुछ बहा ले जाए।
35. यह चीज़ एक तरफ़ मरने के बाद आनेवाली ज़िन्दगी की निशानदेही करती है, और दूसरी तरफ़ यही चीज़ इसपर भी दलील देती है कि ख़ुदा है और ज़मीन और आसमान का इन्तिज़ाम करनेवाला एक ही ख़ुदा है। ज़मीन के अनगिनत जानदारों के खाने-पीने का दारोमदार उस पैदावार पर है जो ज़मीन से निकलती है। इस पैदावार का दारोमदार इस बात पर है कि ज़मीन के अन्दर पैदावार की कितनी सलाहियत (क्षमता) है। इस सलाहियत के काम आने का दारोमदार बारिश पर है, चाहे वह सीधे तौर पर ज़मीन पर बरसे या उसके भण्डार ज़मीन की सतह पर जमा हों, या ज़मीन के नीचे चश्मों और कुओं की शक्ल इख़्तियार कर लें, या पहाड़ों पर ठण्डी होकर नदियों की शक्ल में बहे। फिर इस बारिश का दारोमदार सूरज की गर्मी पर, मौसमों के रद्दोबदल पर, फ़िज़ा के ठण्डे-गर्म होने पर, हवाओं के चलने पर और उस बिजली पर है जो बादलों से बारिश बरसने का सबब भी होती है और साथ-ही-साथ बारिश के पानी में एक तरह की क़ुदरती खाद भी शामिल कर देती है। ज़मीन से लेकर आसमान तक की इन तमाम अलग-अलग चीज़ों के बीच यह ताल्लुक़ और मुनासबतें (अनुकूलताएँ) क़ायम होना, फिर इन सबका अनगिनत अलग-अलग मक़सदों और मस्लहतों के लिए खुले तौर पर साज़गार होना, और हज़ारों-लाखों साल तक इनका पूरे तालमेल के साथ लगातार साज़गारी करते चले जाना, क्या यह सब कुछ सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ी तौर पर हो सकता है? क्या यह किसी कारीगर को हिकमत और उसके सोचे-समझे मंसूबे और उसकी ग़ालिब तदबीर के बिना हो गया है? और क्या यह इस बात की दलील नहीं है कि ज़मीन, सूरज, हवा पानी, गर्मी, सर्दी और ज़मीन के जानदारों का पैदा करनेवाला और रब एक ही है?
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن تَقُومَ ٱلسَّمَآءُ وَٱلۡأَرۡضُ بِأَمۡرِهِۦۚ ثُمَّ إِذَا دَعَاكُمۡ دَعۡوَةٗ مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ إِذَآ أَنتُمۡ تَخۡرُجُونَ ۝ 18
(25) और उसकी निशानियों में से यह है कि आसमान और ज़मीन उसके हुक्म से क़ायम हैं।36 फिर ज्यों ही कि उसने तुम्हें ज़मीन से पुकारा, बस एक ही पुकार में अचानक तुम निकल आओगे।37
36. यानी सिर्फ़ यही नहीं कि वे उसके हुक्म से एक बार वुजूद में आ गए हैं, बल्कि उनका लगातार क़ायम रहना और उनके अन्दर एक अज़ीमुश्शान कारख़ाने का लगातार चलते रहना भी उसी के हुक्म की बदौलत है। एक पल के लिए भी अगर उसका हुक्म उन्हें बरक़रार न रखे तो यह सारा निज़ाम एकदम दरहम-बरहम हो जाए।
37. यानी कायनात के पैदा करनेवाले और चलानेवाले के लिए तुम्हें दोबारा ज़िन्दा करके उठाना कोई ऐसा बड़ा काम नहीं है कि उसे इसके लिए बहुत बड़ी तैयारियाँ करनी होंगी, बल्कि उसकी सिर्फ़ एक पुकार इसके लिए बिलकुल काफ़ी होगी कि दुनिया की शुरुआत से आज तक जितने इनसान दुनिया में पैदा हुए हैं और आगे पैदा होंगे वे सब एक साथ ज़मीन के हर कोने से निकल खड़े हों।
وَلَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ۝ 19
(26) आसमानों और ज़मीन में जो भी हैं उसके बन्दे हैं, सब-के सब उसी के हुक्म के मातहत हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَبۡدَؤُاْ ٱلۡخَلۡقَ ثُمَّ يُعِيدُهُۥ وَهُوَ أَهۡوَنُ عَلَيۡهِۚ وَلَهُ ٱلۡمَثَلُ ٱلۡأَعۡلَىٰ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 20
(27) वही है जो पैदाइश (सृष्टि) की इबतिदा करता है, फिर वही उसको दोहराएगा और यह उसके लिए बहुत आसान है।38 आसमानों और ज़मीन में उसकी सिफ़त (बड़ाई) सबसे बढ़कर है, और वह ज़बरदस्त और हिकमत वाला है।
38. यानी पहली बार पैदा करना अगर उसके लिए मुश्किल न था तो आख़िर तुमने यह कैसे समझ लिया कि दोबारा पैदा करना उसके लिए मुश्किल हो जाएगा? पहली बार की पैदाइश में तो तुम ख़ुद जीते-जागते मौजूद हो। इसलिए उसका मुश्किल न होना तो ज़ाहिर है। अब यह बिलकुल सीधी-सादी अक़्ल की बात है कि एक बार जिसने किसी चीज़ को बनाया हो उसके लिए वही चीज़ दोबारा बनाना और ज़्यादा आसान होना चाहिए।
ضَرَبَ لَكُم مَّثَلٗا مِّنۡ أَنفُسِكُمۡۖ هَل لَّكُم مِّن مَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُم مِّن شُرَكَآءَ فِي مَا رَزَقۡنَٰكُمۡ فَأَنتُمۡ فِيهِ سَوَآءٞ تَخَافُونَهُمۡ كَخِيفَتِكُمۡ أَنفُسَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 21
(28) वह तुम्हें39 ख़ुद तुम्हारी अपनी ही ज़ात से एक मिसाल देता है। क्या तुम्हारे उन ग़ुलामों में से जो तुम्हारी मिल्कियत में हैं कुछ ग़ुलाम ऐसे भी हैं जो हमारे दिए हुए। माल-दौलत में तुम्हारे साथ बराबर के हिस्सेदार हों और तुम उनसे उस तरह डरते हो जिस तरह आपस में अपने बराबरवालों से डरते हो?40—इस तरह हम आयतें खोल-खोलकर पेश करते हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
39. यहाँ तक तौहीद और आख़िरत का बयान मिला-जुला चल रहा था। इसमें जिन निशानियों की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है, उनके अन्दर तौहीद की दलीलें भी हैं और वही दलीलें यह भी साबित करती हैं कि आख़िरत का आना नामुमकिन नहीं है। इसके बाद आगे ख़ालिस तौहीद पर बात शुरू हो रही है।
40. मुशरिक लोग यह मानने के बाद कि ज़मीन-आसमान और उसकी सब चीज़ों का पैदा करनेवाला और मालिक अल्लाह तआला है, उसकी मख़लूक़ (सृष्टि) में से कुछ को ख़ुदाई सिफ़ात और इख़्तियारों में उसका साझी ठहराते थे और उनसे दुआए माँगते, उनके आगे नज़रें (भेंट) और चढ़ावे पेश करते और इबादत की रस्में अदा करते थे। ख़ुदा के इन बनावटी साझेदारों के बारे में उनका अस्ल अक़ीदा उन अलफ़ाज़ में हमें मिलता है जो काबा का तवाफ़ (परिक्रमा) करते वक़्त वे ज़बान से अदा करते थे। वे इस मौक़े पर कहते थे, “मैं हाजिर हूँ, मेरे अल्लाह मैं हाज़िर हूँ, तेरा कोई शरीक नहीं, सिवाय उस शरीक के जो तेरा अपना है, तू उसका भी मालिक है और जो कुछ उसकी मिलकियत है, उसका भी तू मालिक है।” अल्लाह तआला इस आयत में इसी शिर्क को रद्द कर रहा है। मिसाल देने का मंशा यह है कि ख़ुदा के दिए हुए माल में ख़ुदा ही के पैदा किए हुए वे इनसान जो इत्तिफ़ाक़ से तुम्हारी ग़ुलामी में आ गए हैं, तुम्हारे तो साझीदार नहीं बन सकते, मगर तुमने यह अजीब धांधली मचा रखी है कि ख़ुदा की पैदा की हुई कायनात में ख़ुदा ही की पैदा की हुई मख़लूक़ (सृष्टि) को बेझिझक उसके साथ ख़ुदाई का शरीक ठहराते हो। इस तरह की बेवक़ूफ़ीवाली बातें सोचते हुए आख़िर तुम्हारी अक़्ल कहाँ मारी जाती है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-62)
بَلِ ٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ فَمَن يَهۡدِي مَنۡ أَضَلَّ ٱللَّهُۖ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 22
(29 ) मगर ये ज़ालिम बिना समझे-बूझे अपने ख़यालों (कल्पनाओं) के पीछे चल पड़े हैं। अब कौन उस शख़्स को रास्ता दिखा सकता है जिसे अल्लाह ने भटका दिया हो।41 ऐसे लोगों का तो कोई मददगार नहीं हो सकता।
41. यानी जब कोई आदमी सीधी-सीधी अक़्ल की बात न ख़ुद सोचे और न किसी के समझाने से समझने के लिए तैयार हो तो फिर उसकी अक़्ल पर अल्लाह की फिटकार पड़ जाती है और उसके बाद हर वह चीज़ जो किसी समझदार आदमी को हक़ बात तक पहुँचने में मदद दे सकती है, यह इस ज़िद्दी जहालत-पसन्द इनसान को उलटी और ज़्यादा गुमराही में डालती चली जाती है। यही कैफ़ियत है जिसके लिए ‘भटकाने' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। सच्चाई पसन्द इनसान जब अल्लाह से हिदायत की तौफ़ीक़ माँगता है तो अल्लाह उसकी सच्ची तलब के मुताबिक़ उसके लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा रहनुमाई के ज़रिए पैदा कर देता है। और गुमराही पसन्द इनसान जब गुमराह ही होने पर अड़ जाता है तो फिर अल्लाह उसके लिए वही असबाब पैदा करता चला जाता है जो उसे भटकाकर दिन-पर-दिन हक़ से दूर लिए चले जाते हैं।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗاۚ فِطۡرَتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي فَطَرَ ٱلنَّاسَ عَلَيۡهَاۚ لَا تَبۡدِيلَ لِخَلۡقِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 23
(30) लिहाज़ा42 (ऐ नबी, और नबी की पैरवी करनेवालो) यकसू होकर अपना रुख़ इस दीन43 की सम्त (दिशा) में जमा दो,44 क़ायम हो जाओ उस फ़ितरत पर जिसपर अल्लाह तआला ने इनसानों को पैदा किया है,45 अल्लाह की बनाई हुई साख़्त (बनावट) बदली नहीं जा सकती,46 यही बिलकुल सच्चा और सही दीन है,47 मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
42. यह 'लिहाज़ा' इस मानी में है कि जब हक़ीक़त तुमपर खुल चुकी और तुमको मालूम हो गया कि इस कायनात का और ख़ुद इनसान का पैदा करनेवाला और मालिक और तमाम इख़्तियार रखनेवाला हाकिम एक अल्लाह के सिवा और कोई नहीं है तो इसके बाद हर हाल में तुम्हारा रवैया यह होना चाहिए।
43. इस दीन से मुराद वह ख़ास दीन है जिसे क़ुरआन पेश कर रहा है, जिसमें बन्दगी, इबादत, और फ़रमाँबरदारी का हक़दार एक अल्लाह, जिसका कोई शरीक नहीं, के सिवा और कोई नहीं है जिसमें ख़ुदाई और उसकी सिफ़ात और इख़्तियारों और उसके हक़ों में बिलकुल किसी को भी अल्लाह तआला के साथ शरीक नहीं ठहराया जाता, जिसमें इनसान अपनी मरज़ी और ख़ुशी से इस बात की पाबन्दी करता है कि वह अपनी पूरी ज़िन्दगी अल्लाह की हिदायत और उसके क़ानून की पैरवी में बिताएगा।
44. “यकसू होकर अपना रुख़ इस तरफ़ जमा दो", यानी फिर किसी और तरफ़ का रुख़ न करो। ज़िन्दगी के लिए इस राह को अपना लेने के बाद फिर किसी दूसरे रास्ते की तरफ़ नज़र तक न उठने पाए। फिर तुम्हारी फ़िक्र और सोच हो तो मुसलमान की-सी और तुम्हारी पसन्द और नापसन्द हो तो मुसलमान की-सी। तुम्हारी क़द्रें (नैतिक मूल्य) और तुम्हारे पैमाने हों तो वे जो इस्लाम तुम्हें देता है, तुम्हारे अख़लाक़ और तुम्हारी सीरत और किरदार का ठप्पा हो तो उस तरह का जो इस्लाम चाहता है, और तुम्हारी निजी और सामाजिक ज़िन्दगी के मामले चलें तो उस तरीक़े पर जो इस्लाम ने तुम्हें बताया है।
45. यानी सारे इनसान इस फ़ितरत पर पैदा किए गए हैं कि उनका कोई पैदा करनेवाला और कोई रब और कोई माबूद और हक़ीक़ी हुक्म मानने लायक़ एक अल्लाह के सिवा नहीं है। इसी फ़ितरत पर तुमको क़ायम हो जाना चाहिए। अगर ख़ुदमुख़्तारी का रवैया अपनाओगे तब भी फ़ितरत के ख़िलाफ़ चलोगे और अगर अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी का तौक़ अपने गले में डालोगे तब भी अपनी फ़ितरत के खिलाफ़ काम करोगे। इस बात को कई हदीसों में नबी (सल्ल०) ने साफ़ तौर पर बयान कर दिया है। बुख़ारी और मुस्लिम में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “हर बच्चा जो किसी माँ के पेट से पैदा होता है, अस्ल इनसानी फ़ितरत पर पैदा होता है। यह माँ-बाप हैं जो उसे बाद में ईसाई या यहूदी या मजूसी वग़ैरा बना डालते हैं। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे हर जानवर के पेट से पूरा-का-पूरा सही-सलामत बच्चा निकलता है, कोई बच्चा भी कटे हुए कान लेकर नहीं आता, बाद में मुशरिक अपने अंधविश्वासों की बुनियाद पर उसके कान काटते हैं।" मुसनद अहमद और नसई में एक और हदीस है कि एक जंग में मुसलमानों ने दुश्मनों के बच्चों तक को क़त्ल कर दिया। नबी (सल्ल०) को ख़बर हुई तो सख़्त नाराज़ हुए और फ़रमाया, “लोगों को क्या हो गया कि आज वे हद से गुज़र गए और बच्चों तक को क़त्ल कर डाला!” एक शख़्स ने पूछा, “क्या वे मुशरिकों के बच्चे न थे?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम्हारे बेहतरीन लोग मुशरिकों ही की तो औलाद हैं।” फिर फ़रमाया, “हर इनसान फ़ितरत पर पैदा होता है, यहाँ तक कि जब उसकी ज़बान खुलने पर आती है तो माँ-बाप उसे यहूदी या ईसाई बना लेते हैं।" एक और हदीस जो इमाम अहमद (रह०) ने अयाज़-बिन-हिमारुल-मुजाशिई से नक़्ल की है। उसमें बयान हुआ है कि एक दिन नबी (सल्ल०) ने अपने ख़ुतबे के दौरान में फ़रमाया, “मेरा रब कहता है कि मैंने अपने तमाम बन्दों को हनीफ़ (सच्चे दीन पर यकसू) पैदा किया था फिर शैतानों ने आकर उन्हें उनके दीन से गुमराह किया, और जो कुछ मैंने उनके लिए हलाल किया था, उसे हराम किया और उन्हें हुक्म दिया कि मेरे साथ उन चीज़ों को साझी ठहराएँ जिनके साझी होने पर मैंने कोई दलील नहीं उतारी है।"
46. यानी ख़ुदा ने इनसान को अपना बन्दा बनाया है और अपनी ही बन्दगी के लिए पैदा किया है। यह बनावट किसी के बदले नहीं बदल सकती। न आदमी बन्दे से ग़ैर-बन्दा बन सकता है, न किसी ग़ैर-ख़ुदा को ख़ुदा बना लेने से वह हक़ीक़त में उसका ख़ुदा बन सकता है। इनसान चाहे अपने कितने ही माबूद बना बैठे, लेकिन यह हक़ीक़त अपनी जगह अटल है कि वह एक ख़ुदा के सिवा किसी का बन्दा नहीं है। इनसान अपनी बेवक़ूफ़ी और जहालत की वजह से जिसको भी चाहे ख़ुदाई सिफ़ात और इख़्तियारात में हिस्सेदार ठहरा ले और जिसे भी चाहे अपनी क़िस्मत का बनाने और बिगाड़नेवाला समझ बैठे, मगर हक़ीक़त तो यही है कि न ख़ुदाई सिफ़ात अल्लाह तआला के सिवा किसी को हासिल हैं न उसके इख़्तियार और न किसी दूसरे के पास यह ताक़त है कि इनसान को क़िस्मत बना सके या बिगाड़ सके। एक दूसरा तर्जमा इस आयत का यह भी हो सकता है कि “अल्लाह की बनाई हुई साख़्त (संरचना) में तब्दीली न की जाए।” यानी अल्लाह ने जिस फ़ितरत पर इनसान को पैदा किया है उसको बिगाड़ना और बदलना दुरुस्त नहीं है।
47. यानी सही फ़ितरत पर क़ायम रहना ही सीधा और सही तरीक़ा है।
۞مُنِيبِينَ إِلَيۡهِ وَٱتَّقُوهُ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَلَا تَكُونُواْ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 24
(31) (क़ायम हो जाओ इस बात पर) अल्लाह की तरफ़ रुजू करते हुए,48 और डरो उससे49 और नमाज़ क़ायम करो,50
48. अल्लाह की तरफ़ से मुराद यह है कि जिसने भी आज़ादी और ख़ुदमुख़्तारी का रवैया अपनाकर अपने हक़ीक़ी मालिक से मुँह मोड़ा हो, या जिसने भी अल्लाह को छोड़कर दूसरे की बन्दगी का तरीक़ा अपनाकर अपने अस्ली और हक़ीक़ी रब से बेवफ़ाई की हो, वह अपने इस रवैये को छोड़ दे और उसी एक ख़ुदा की बन्दगी की तरफ़ पलट आए जिसका बन्दा हक़ीक़त में वह पैदा हुआ है।
49. यानी तुम्हारे दिल में इस बात का डर होना चाहिए कि अगर अल्लाह के पैदाइशी बन्दे होने के बावजूद तुमने उसके मुक़ाबले में ख़ुदमुख़्तारी का रवैया अपनाया या उसके बजाय किसी और की बन्दगी की तो इस ग़द्दारी और नमक-हरामी की सख़्त सज़ा तुम्हें भुगतनी होगी। इसलिए तुम्हें ऐसे हर रवैये से बचना चाहिए जो तुमको ख़ुदा के ग़ज़ब का हक़दार बनाता हो।
50. अल्लाह तआला की तरफ़ रुजू और उसके ग़ज़ब का डर दोनों का ताल्लुक़ दिल से है। इस दिली कैफ़ियत को ज़ाहिर होने और क़ायम रहने के लिए लाज़िमन किसी ऐसे जिस्मानी काम की ज़रूरत है जिससे ज़ाहिरी तौर पर भी हर आदमी को मालूम हो जाए कि फ़ुलाँ शख़्स सचमुच एक अल्लाह जिसका कोई साझी नहीं, की बन्दगी की तरफ़ पलट आया है, और आदमी के अपने मन में भी इस पलटने और अल्लाह से डरने की कैफ़ियत को एक अमली तजरिबे के ज़रिए से लगातार बढ़ना और फलना-फूलना नसीब होता चला जाए। इसी लिए अल्लाह तआला उस ज़ेहनी तब्दीली का हुक्म देने के बाद फ़ौरन ही इस जिस्मानी अमल, यानी नमाज़ क़ायम करने का हुक्म देता है। आदमी के ज़ेहन में जब तक कोई ख़याल सिर्फ़ ख़याल की हद तक रहता है, उसमें मज़बूती और पायदारी नहीं होती। उस ख़याल के कमज़ोर पड़ जाने का भी ख़तरा रहता है और बदल जाने का भी इमकान होता है। लेकिन जब वह उसके मुताबिक़ काम करने लगता है तो वह ख़याल उसके अन्दर जड़ पकड़ लेता है, और ज्यों-ज्यों वह उसपर अमल करता जाता है, उसकी मज़बूती बढ़ती चली जाती है, यहाँ तक कि उस अक़ीदे और सोच का बदल जाना या कमज़ोर पड़ जाना मुश्किल-से मुश्किल होता जाता है। इस नज़रिए से देखा जाए तो अल्लाह की तरफ़ रुजू होना और अल्लाह के डर को मज़बूत करने के लिए हर दिन पाँच वक़्त पाबन्दी के साथ नमाज़ अदा करने से बढ़कर कोई अमल कारगर नहीं है; क्योंकि दूसरा जो अमल भी हो, उसकी नौबत देर-देर में आती है या अलग-अलग शक्लों में अलग-अलग मौक़ों पर आती है। लेकिन नमाज़ एक ऐसा अमल है जो हर कुछ घण्टों के बाद एक ही तयशुदा सूरत में आदमी को हमेशा करना होता है, और इसमें ईमान और इस्लाम का यह पूरा सबक़ जो क़ुरआन ने उसे पढ़ाया है, आदमी को बार-बार दोहराना होता है, ताकि वह उसे भूलने न पाए। इसके अलावा ग़ैर-ईमानवालों और ईमानवालों, दोनों पर यह ज़ाहिर होना ज़रूरी है कि इनसानी आबादी में से किस-किस ने बग़ावत का रवैया छोड़कर रब की फ़माँबरदारी का रवैया अपना लिया है। ईमानवालों पर इसका ज़ाहिर होना इसलिए दरकार है कि उनकी एक जमाअत और सोसाइटी बन सके और वे ख़ुदा की राह में एक-दूसरे से तआवुन (सहयोग) कर सकें और ईमान और इस्लाम से जब भी उनके गरोह का ताल्लुक़ ढीला पड़ना शुरू हो उसी वक़्त कोई खुली निशानी फ़ौरन ही तमाम ईमानवालों को उसकी हालत से बाख़बर कर दे। ग़ैर-ईमानवालों पर इसका ज़ाहिर होना इसलिए ज़रूरी है कि उनके अन्दर सोई हुई फ़ितरत अपने जैसे इनसानों को हक़ीक़ी ख़ुदा की तरफ़ बार-बार पलटते देखकर जाग सके, और जब तक वह न जागे, उनपर ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बन्दों की अमली सरगरमी देख-देखकर दहशत छाती रहे। इन दोनों मक़सदों के लिए भी नमाज़ क़ायम करना ही सबसे ज़्यादा मुनासिब ज़रिआ है। इस जगह पर यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि नमाज़ क़ायम करने का यह हुक्म मक्का के उस दौर में दिया गया था जबकि मुसलमानों की एक मुट्ठी-भर जमाअत क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के ज़ुल्मो-सितम की चक्की में पिस रही थी और उसके बाद भी नौ साल तक पिसती रही। उस वक़्त दूर-दूर भी कहीं इस्लामी हुकूमत का नामो-निशान नहीं था। अगर नमाज़ इस्लामी हुकूमत के बिना बेमतलब होती, जैसा कि कुछ नादान समझते हैं, या 'इक़ामते-सलात' से मुराद नमाज़ क़ायम करना सिरे से होता ही नहीं, बल्कि 'निज़ामे-रुबूबियत’ चलाना होता, जैसा कि हदीस को न माननेवालों का दावा है, तो इस हालत में क़ुरआन मजीद का यह हुक्म देना आख़िर क्या मानी रखता है? और यह हुक्म आने के बाद नौ साल तक नबी (सल्ल०) और मुसलमान इस हुक्म पर अमल आख़िर किस तरह करते रहे?
51. यह इशारा है इस चीज़ की तरफ़ कि इनसानों का अस्ल दीन यही फ़ितरी दीन है जिसका ऊपर ज़िक्र किया गया है। यह दीन शिर्कवाले धर्मों से धीरे-धीरे तरक़्क़ी करता हुआ तौहीद (एकेश्वरवाद) तक नहीं पहुँचा है, जैसा कि अटकतों और अन्दाज़ों से एक फ़ल्सफ़ा-ए-मज़ह्ब (धर्म-दर्शन) गढ़ लेनेवाले लोग समझते हैं, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ ये जितने धर्म दुनिया में पाए जाते हैं ये सब-के-सब उस अस्ली दीन में बिगाड़ आने की वजह से पैदा हुए हैं। और यह बिगाड़ इसलिए आया है कि अलग-अलग लोगों ने क़ुदरती हक़ीक़तों पर अपनी-अपनी नई निकाली हुई बातों का इज़ाफ़ा करके अपने अलग दीन बना डाले और हर एक अस्ल हक़ीक़त के बजाय उस बढ़ाई हुई चीज़ का दीवाना हो गया जिसकी बदौलत वह दूसरों से अलग होकर एक अलग फ़िरक़ा (सम्प्रदाय) बना था। अब जो शख़्स भी हिदायत पा सकता है, वह इसी तरह पा सकता है कि उस अस्ल हक़ीक़त की तरफ़ पलट जाए जो सच्चे दीन की बुनियाद थी, और बाद के इन तमाम इज़ाफ़ों से और उनके दीवाने होनेवाले गरोहों से दामन झाड़कर बिलकुल अलग हो जाए। उनके साथ ताल्तुक़ का जो रिश्ता भी वह लगाए रखेगा यही दीन में बिगाड़ का सबब होगा।
فَـَٔاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 25
(38) तो (ऐ ईमान लानेवाले) रिश्तेदार को उसका हक़ दे और मिसकीन और मुसाफ़िर को (उसका हक़)।57 यह तरीक़ा बेहतर है उन लोगों के लिए जो अल्लाह की ख़ुशनूदी चाहते हों, और वही कामयाबी पानेवाले हैं।58
57. यह नहीं फ़रमाया कि रिश्तेदार, मिसकीन और मुसाफ़िर को ख़ैरात दे। कहा गया है कि यह उसका हक़ है जो तुझे देना चाहिए, और हक़ ही समझकर तू उसे दे। इसको देते हुए यह ख़याल तेरे दिल में न आने पाए कि यह कोई एहसान है जो तू उसपर कर रहा है, और तू कोई बड़ी हस्ती है दान करनेवाली और वह कोई हक़ीर मख़लूक़ है तेरा दिया खानेवाली। बल्कि यह बात अच्छी तरह तेरे ज़ेहन में रहे कि माल के हक़ीक़ी मालिक ने अगर तुझे ज़्यादा दिया है और दूसरे बन्दों को कम दिया है तो यह ज़ाइद माल उन दूसरों का हक़ है जो तेरी आज़माइश के लिए तेरे हाथ में दे दिया गया है, ताकि तेरा मालिक देखे कि तू उनका हक़ पहचानता और पहुँचाता है या नहीं। अल्लाह का यह फ़रमान और इसकी अस्ल रूह पर जो शख़्स भी ग़ौर करेगा वह यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि क़ुरआन मजीद इनसान के लिए अख़लाक़ी और रूहानी तरक़्क़ी का जो रास्ता सुझाता है उसके लिए एक आज़ाद समाज और आज़ाद मईशत (आर्थिक व्यवस्था Free Economy) का होना ज़रूरी है। यह तरक़्क़ी किसी ऐसे सामाजिक माहौल में मुमकिन नहीं है जहाँ लोगों के मिलकियत के हक़ खत्म कर दिए जाएँ, हुकूमत तमाम ज़राए (साधनों) की मालिक हो जाए और लोगों के बीच रोज़ी के तक़सीम होने का पूरा कारोबार हुकूमत की मशीनरी संभाल ले, यहाँ तक कि न कोई आदमी अपने ऊपर किसी का कोई हक़ पहचान कर दे सके और न कोई दूसरा आदमी किसी से कुछ लेकर उसके लिए अपने दिल में कोई भलाई का जज़बा पाल सके। इस तरह का ख़ालिस कम्युनिस्ट सामाजिक और मआशी (आर्थिक) निज़ाम जिसे आजकल हमारे देश में 'क़ुरआनी निज़ामे-रुबूबियत' के धोखे में डालनेवाले नाम से ज़बरदस्ती क़ुरआन के सर मँढा जा रहा है, क़ुरआन की अपनी स्कीम के बिलकुल ख़िलाफ़ है, क्योंकि इसमें निजी अख़लाक़ के फलने-फूलने और इनफ़िरादी किरदारों के पैदा होने और तरक़्क़ी करने का दरवाज़ा बिलकुल बन्द हो जाता है। क़ुरआन की स्कीम तो उसी जगह चल सकती है जहाँ लोग दौलत के कुछ ज़रिओं के मालिक हों, उन्हें आज़ादी से इस्तेमाल करने के इख़्तियार रखते हों, और अपनी मरज़ी से ख़ुदा और उसके बन्दों के हुक़ूक़ ख़ुलूस (निष्ठा) के साथ अदा करें। इसी तरह के समाज में यह इमकान पैदा होता है कि अलग-अलग तौर पर लोगों में एक तरफ़ हमदर्दी, रहम और नर्मदिली, ईसार और क़ुरबानी और हक़ को पहचानने और हक़ अदा करने की आला ख़ूबियाँ पैदा हों, और दूसरी तरफ़ जिन लोगों के साथ भलाई की जाए उनके दिलों में भलाई करनेवालों के लिए भला चाहने, एहसानमन्दी और एहसान के बदले एहसान के पाकीज़ा जज़बात फले-फूलें, यहाँ तक कि वह मिसाली हालत पैदा हो जाए जिसमें बुराई का रुकना और नेकी का फलना-फूलना किसी ज़ोर-ज़बरदस्ती करनेवाली ताक़त पर टिका न हो, बल्कि लोगों की अपने मन की पाकीज़गी और उनके अपने नेक इरादे इस ज़िम्मेदारी को संभाल लें।
58. यह मतलब नहीं है कि कामयाबी सिर्फ़ मिसकीन और मुसाफ़िर और रिश्तेदार का हक़ अदा कर देने से हासिल हो जाती है, इसके अलावा और कोई चीज़ कामयाबी के हासिल करने के लिए दरकार नहीं है। बल्कि मतलब यह है कि इनसानों में से जो लोग इन हक़ों को नहीं पहचानते और नहीं अदा करते वे कामयाबी पानेवाले नहीं है, बल्कि कामयाबी पानेवाले वे हैं जो ख़ालिस अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए ये हक़ पहचानते और अदा करते हैं।
وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن رِّبٗا لِّيَرۡبُوَاْ فِيٓ أَمۡوَٰلِ ٱلنَّاسِ فَلَا يَرۡبُواْ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَآ ءَاتَيۡتُم مِّن زَكَوٰةٖ تُرِيدُونَ وَجۡهَ ٱللَّهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُضۡعِفُونَ ۝ 26
(39) जो सूद (ब्याज) तुम देते हो ताकि लोगों के माल में शामिल होकर वह बढ़ जाए, अल्लाह के नज़दीक वह नहीं बढ़ता,59 और जो ज़कात तुम अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल करने के इरादे से देते हो, उसी के देनेवाले हक़ीक़त में अपने माल बढ़ाते हैं।60
59. क़ुरआन मजीद में यह पहली आयत है जो सूद (ब्याज) की मज़म्मत (बुराई) में उतरी है। इसमें सिर्फ़ इतनी बात कही गई है कि तुम लोग तो सूद (ब्याज) यह समझते हुए देते हो कि जिसको हम यह ज़्यादा माल दे रहे हैं उसकी दौलत बढ़ेगी, लेकिन हक़ीक़त में अल्लाह के नज़दीक सूद से दौलत नहीं बढ़ती, बल्कि ज़कात से बढ़ती है। आगे चलकर जब मदीना तय्यिबा में सूद के हराम होने का हुक्म उतारा गया तो इसपर यह बात और कही गई कि “अल्लाह सूद का मठ मार देता है और सदकों को बढ़ाता है।” (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-276) (बाद के हुक्मों के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, आयत-130; सूरा-2 बक़रा, आयतें—275-281)। इस आयत की तफ़सीर में तफ़सीर लिखनेवालों की दो रायें हैं। एक गरोह कहता है कि यहाँ 'रिबा' से मुराद वह सूद (ब्याज) नहीं है जो शरई तौर पर हराम किया गया है, बल्कि वह अतिया या हदिया और तोहफ़ा है जो इस नीयत से दिया जाए कि लेनेवाला बाद में उससे ज़्यादा वापस करेगा, या देनेवाले के लिए कोई फ़ायदेमन्द काम करेगा, या उसका ख़ुशहाल हो जाना देनेवाले के अपने लिए फ़ायदेमन्द होगा। यह इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद (रज़ि०), ज़ह्हाक (रज़ि०), क़तादा, इकरिमा, मुहम्मद-बिन-कअब अल-क़ुरज़ी और शअबी का कहना है। और मुमकिन है यह तफ़सीर इन लोगों ने इस बिना पर की है कि आयत में इस काम का नतीजा सिर्फ़ इतना ही बताया गया है कि अल्लाह के यहाँ इस दौलत को कोई बढ़ोतरी नसीब न होगी, हालाँकि अगर मामला सूद का होता जिसे शरीअत ने हराम किया है तो साफ़ तौर से कहा जाता कि अल्लाह के यहाँ इसपर सख़्त अज़ाब दिया जाएगा। दूसरा गरोह कहता है कि नहीं, इससे मुराद वही जाना-माना सूद (ब्याज) ही है जिसे शरीअत ने हराम किया है। यह राय हज़रत हसन बसरी और सुद्दी (रह०) की है और अल्लामा आलूसी का ख़याल है कि आयत का ज़ाहिरी मतलब यही है, क्योंकि अरबी ज़बान में 'रिबा’ का लफ़्ज़ इसी मतलब के लिए इस्तेमाल होता है। यही मतलब क़ुरआन के आलिम नेसाबुरी (रह०) ने भी लिया है। हमारे ख़याल में भी यही दूसरी तफ़सीर सही है, इसलिए कि जाने-माने मतलब को छोड़ने के लिए वह दलील काफ़ी नहीं है जो ऊपर पहली तफ़सीर के हक़ में बयान हुई है। सूरा-30 रूम जिस ज़माने में उतरी है उस वक़्त क़ुरआन मजीद में सूद के हराम होने का एलान नहीं हुआ था। यह एलान उसके कई साल बाद हुआ है। क़ुरआन मजीद का तरीक़ा यह है कि जिस चीज़ को बाद में किसी वक़्त हराम करना होता है, उसके लिए वह पहले से ज़ेहनों को तैयार करना शुरू कर देता है। शराब के मामले में भी पहले सिर्फ़ इतनी बात कही गई थी कि वह पाकीज़ा रोज़ी नहीं है (सूरा-16 नह्ल, आयत-67), फिर फ़रमाया कि उसका गुनाह उसके फ़ायदे से ज़्यादा है (सूरा-2 बक़रा, आयत-219), फिर हुक्म दिया गया कि नशे की हालत में नमाज़ के क़रीब न जाओ (सूरा-4 निसा, आयत-43), फिर उसके बिलकुल हराम होने का फ़ैसला कर दिया गया। इसी तरह यहाँ सूद के बारे में सिर्फ़ इतना कहने पर बस किया गया है कि यह वह चीज़ नहीं है जिससे दौलत बढ़ती हो, बल्कि हक़ीक़त में बढ़ोतरी तो ज़कात से होती है। इसके बाद सूद-दर-सूद को मना किया गया (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-130)। और सबसे आख़िर में अपनी जगह ख़ुद सूद ही के बिलकुल हराम होने का फ़ैसला कर दिया गया (सूरा-2 बक़रा, आयत-275)
60. इस बढ़ोतरी के लिए कोई हद मुक़र्रर नहीं है। जितनी ख़ालिस नीयत और जितने गहरे क़ुरबानी के ज़ज्बे और जिस क़द्र ज़्यादा अल्लाह की ख़ुशनूदी की तलब के साथ कोई शख़्स अल्लाह की राह में माल ख़र्च करेगा उसी क़द्र अल्लाह तआला उसका ज़्यादा-से-ज़्यादा इनाम देगा। चुनाँचे एक सही हदीस में आया है कि अगर एक आदमी ख़ुदा की राह में एक खजूर भी दे तो अल्लाह तआला उसको बढ़ाकर उहुद पहाड़ के बराबर कर देता है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ ثُمَّ رَزَقَكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يُحۡيِيكُمۡۖ هَلۡ مِن شُرَكَآئِكُم مَّن يَفۡعَلُ مِن ذَٰلِكُم مِّن شَيۡءٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 27
(40) अल्लाह61 ही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुम्हें रोज़ी दी,62 फिर वह तुम्हें मौत देता है, फिर वह तुम्हें ज़िन्दा करेगा क्या तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई ऐसा है जो इनमें से कोई काम भी करता हो?63 पाक है वह और बहुत बुलन्द और बरतर है। उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।
61. यहाँ से फिर कुफ़्र और शिर्क में पड़े हुए लोगों को समझाने के लिए बात का सिलसिला तौहीद (एक ख़ुदा को मानने) और आख़िरत के मज़मून की तरफ़ फिर जाता है।
62. यानी ज़मीन में तुम्हारी रोज़ी के लिए सारे वसाइल (संसाधन) जुटाए और ऐसा इन्तिज़ाम कर दिया कि रोज़ी की गरदिश से हर एक को कुछ-न-कुछ हिस्सा पहुँच जाए।
63. यानी अगर तुम्हारे बनाए हुए माबूदों में से कोई भी न पैदा करनेवाला है, न रोज़ी देनेवाला, न मौत और ज़िन्दगी उसके इख़्तियार में है, और न मर जाने के बाद वह किसी को ज़िन्दा कर देने की क़ुदरत रखता है, तो आख़िर ये लोग है किस रोग की दवा हैं कि तुमने इन्हें माबूद बना लिया?
ظَهَرَ ٱلۡفَسَادُ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ بِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِي ٱلنَّاسِ لِيُذِيقَهُم بَعۡضَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 28
(41) ख़ुश्की और तरी में बिगाड़ पैदा हो गया है लोगों के अपने हाथों की कमाई से, ताकि मज़ा चखाए उनको उनके कुछ कामों का, शायद कि वे बाज़ आएँ।64
64. यह फिर उस जंग की तरफ़ इशारा है जो उस वक़्त रूम (रोम) और ईरान के बीच हो रही थी जिसकी आग ने पूरे शरक़े-औसत (मध्य-पूर्व) को अपनी लपेट में ले लिया था। 'लोगों के अपने हाथों की कमाई’ से मुराद वह नाफ़रमानी, सरकशी और ज़ुल्मो-सितम है जो शिर्क या नास्तिकता का अक़ीदा अपनाने और आख़िरत को नज़र-अन्दाज़ कर देने से लाज़िमन इनसानी अख़लाक़ और किरदार में ज़ाहिर होता है। 'शायद कि वे बाज़ आएँ’ का मतलब यह है कि अल्लाह आख़िरत की सज़ा से पहले इस दुनिया में इनसानों को उनके तमाम कामों का नहीं, बल्कि कुछ कामों का बुरा नतीजा इसलिए दिखाता है कि वे हक़ीक़त को समझें और अपने ख़यालात और सोच की ग़लती को महसूस करके उस सही अक़ीदे की तरफ़ रूजू करें जो ख़ुदा के पैग़म्बर हमेशा से इनसान के सामने पेश करते चले आ रहे हैं, जिसको अपनाने के सिवा इनसानी आमाल (कर्मों) को सही बुनियाद पर क़ायम करने की कोई दूसरी सूरत नहीं है। यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान हुई है। मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-9 तौबा, आयत-126; सूरा-13 रअद, आयत-21; सूरा-32 सजदा, आयत-21; सूरा-52 तूर, आयत-47।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلُۚ كَانَ أَكۡثَرُهُم مُّشۡرِكِينَ ۝ 29
(42) (ऐ नबी) इनसे कहो कि ज़मीन में चल-फिरकर देखो कि पहले गुज़रे हुए लोगों का क्या अंजाम हो चुका है, उनमें से ज़्यादातर मुशरिक ही थे।65
65. यानी रूम और ईरान की तबाही मचानेवाली जंग आज कोई नया हादिसा नहीं है। पिछला इतिहास बड़ी-बड़ी क़ौमों की तबाही और बरबादी के रिकार्ड से भरा हुआ है और उन सब क़ौमों को जिन ख़राबियों ने बरबाद किया उन सबकी जड़ यही शिर्क था जिससे रुक जाने के लिए आज तुमसे कहा जा रहा है।
فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ ٱلۡقَيِّمِ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۖ يَوۡمَئِذٖ يَصَّدَّعُونَ ۝ 30
(43) तो (ऐ नबी) अपना रुख़ मज़बूती के साथ जमा दो इस सच्चे दीन की सम्त (दिशा) में, इससे पहले कि वह दिन आए जिसके टल जाने की कोई सूरत अल्लाह की तरफ़ से नहीं है।66 उस दिन लोग फटकर एक-दूसरे से अलग हो जाएँगे।
66. यानी जिसको न अल्लाह तआला ख़ुद टालेगा और न उसने किसी के लिए ऐसी किसी तदबीर की कोई गुंजाइश छोड़ी है कि वह उसे टाल सके।
مَن كَفَرَ فَعَلَيۡهِ كُفۡرُهُۥۖ وَمَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِأَنفُسِهِمۡ يَمۡهَدُونَ ۝ 31
(44) जिसने कुफ़्र (इनकार) किया है उसके कुफ़्र का बवाल उसी पर है।67 और जिन लोगों ने नेक अमल किया है वे अपने ही लिए कामयाबी का रास्ता साफ़ कर रहे हैं,
67. यह एक ऐसा जुमला है जो अपने अन्दर बड़े मानी रखता है। यह तमाम उन नुक़सानों की अपने अन्दर समेट लेता है जो कुफ़्र करनेवाले को अपने कुफ़्र की वजह से पहुँच सकते हैं। नुक़सानों की कोई तफ़सीली लिस्ट भी ऐसी नहीं हो सकती जो अपने अन्दर उनका समेट सके।
لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 32
(45) ताकि अल्लाह ईमान लानेवालों और अच्छे काम करनेवालों को अपनी मेहरबानी से बदला दे। यक़ीनन वह कुफ़्र करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦٓ أَن يُرۡسِلَ ٱلرِّيَاحَ مُبَشِّرَٰتٖ وَلِيُذِيقَكُم مِّن رَّحۡمَتِهِۦ وَلِتَجۡرِيَ ٱلۡفُلۡكُ بِأَمۡرِهِۦ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 33
(46) उसकी निशानियों में से यह है कि वह हवाएँ भेजता है ख़ुशख़बरी देने के लिए68 और तुम्हें अपनी रहमत देने के लिए और इस ग़रज़ के लिए कि कश्तियाँ उसके हुक्म से चलें69 और तुम उसकी मेहरबानी (फ़ज़्ल) तलाश करो70 और उसके शुक्रगुज़ार बनो।
68. यानी रहमत की बारिश की ख़ुशख़बरी देने के लिए।
69. यह एक और क़िस्म की हवाओं का ज़िक्र है जो पानी के जहाज़ चलाने में मददगार होती हैं। पुराने ज़माने की बादबानी कश्तियों और जहाजों के सफ़र का दारोमदार ज़्यादातर मुवाफ़िक़ (अनुकूल) हवा पर था, और मुख़ालिफ़ हवा उनके लिए तबाही की बात होती थी। इसलिए बारिश लानेवाली हवाओं के बाद इन हवाओं का ज़िक्र एक ख़ास नेमत की हैसियत से किया गया है।
70. यानी तिजारत के लिए सफ़र करो।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ رُسُلًا إِلَىٰ قَوۡمِهِمۡ فَجَآءُوهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَٱنتَقَمۡنَا مِنَ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْۖ وَكَانَ حَقًّا عَلَيۡنَا نَصۡرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 34
(47) और हमने तुमसे पहले रसूलों को उनकी क़ौम की तरफ़ भेजा और वे उनके पास रौशन निशानियाँ लेकर आए,71 फिर जिन्होंने जुर्म किया72 उनसे हमने इन्तिक़ाम लिया, और हमपर यह हक़ था कि हम ईमानवालों की मदद करें।
71. यानी एक क़िस्म की निशानियाँ तो वे हैं जो कायनात की फ़ितरत में हर तरफ़ फैली हुई हैं। जिनसे इनसान को अपनी ज़िन्दगी में हर पल वास्ता पेश आता है, जिनमें से एक हवाओं के चलने का यह निज़ाम है जिसका ऊपर की आयत में ज़िक्र किया गया है। दूसरी क़िस्म की निशानियाँ वे हैं जो पैग़म्बर (अलैहि०) के मोजिज़ा (चमत्कारों) की सूरत में, अल्लाह के कलाम की सूरत में, अपनी ग़ैर-मामूली पाकीज़ा सीरत की शक़्ल में और इनसानी समाज पर ज़िन्दगी देनेवाले असरात की शक्ल में लेकर आए थे। दोनों क़िस्म की निशानियाँ एक ही हक़ीक़त की निशानदेही करती हैं, और वह यह है कि जिस तौहीद (एकेश्वरवाद) की तालीम पैग़म्बर दे रहे हैं, वही सही है। उनमें से हर निशानी दूसरी की ताईद करती है। कायनात की निशानियाँ नबियों के बयान की सच्चाई पर गवाही देती हैं और नबियों की लाई हुई निशानियाँ उस हक़ीक़त को खोलती हैं जिसकी तरफ़ कायनात की निशानियाँ इशारे कर रही हैं।
72. यानी जो लोग इन दोनों निशानियों की तरफ़ से अंधे बनकर तौहीद से इनकार पर जमे रहे और ख़ुदा से बग़ावत ही किए चले गए।
ٱللَّهُ ٱلَّذِي يُرۡسِلُ ٱلرِّيَٰحَ فَتُثِيرُ سَحَابٗا فَيَبۡسُطُهُۥ فِي ٱلسَّمَآءِ كَيۡفَ يَشَآءُ وَيَجۡعَلُهُۥ كِسَفٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦۖ فَإِذَآ أَصَابَ بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 35
(48) अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है और वे बादल उठाती हैं, फिर वह उन बादलों को आसमान में फैलाता है जिस तरह चाहता है और उन्हें टुकड़ियों में बाँटता है, फिर तू देखता है कि बारिश की बूँदें बादल में से टपकी चली आती हैं। यह बारिश जब वह अपने बन्दों में से जिनपर चाहता है बरसाता है, तो यकायक ये ख़ुश हो जाते हैं।
وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلِ أَن يُنَزَّلَ عَلَيۡهِم مِّن قَبۡلِهِۦ لَمُبۡلِسِينَ ۝ 36
(49) हालाँकि उसके उतरने से पहले वे मायूस हो रहे थे।
فَٱنظُرۡ إِلَىٰٓ ءَاثَٰرِ رَحۡمَتِ ٱللَّهِ كَيۡفَ يُحۡيِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَآۚ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 37
(50) देखो अल्लाह की रहमत के असरात कि मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन को वह किस तरह जिला उठाता है,73 यक़ीनन वह मुर्दो को ज़िन्दगी देनेवाला है और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
73. यहाँ जिस अन्दाज़ से नुबूवत (पैग़म्बरी) और बारिश का ज़िक्र एक-के-बाद एक किया गया है, उसमें एक बारीक इशारा इस हक़ीक़त की तरफ़ भी है कि नबी (पैग़म्बर) का आना भी इनसान की अख़लाक़ी ज़िन्दगी के लिए वैसी ही रहमत है जैसी बारिश का आना उसकी माद्दी (भौतिक) ज़िन्दगी के लिए रहमत साबित होता है। जिस तरह आसमानी बारिश के पड़ने से मुर्दा पड़ी हुई ज़मीन यकायक जी उठती है और उसमें खेतियाँ लहलहाने लगती हैं, उसी तरह आसमानी वह्य (ईश-प्रकाशना) का उतरना अख़लाक़ और रूहानियत की वीरान पड़ी हुई दुनिया को जिला उठाता है और उसमें नेकियों और भलाइयों के बाग़ लहलहाने शुरू हो जाते हैं। यह इनकार करनेवालों की अपनी बदक़िस्मती है कि ख़ुदा की तरफ़ से यह नेमत जब उनके यहाँ आती है तो वे उसकी नाशुक्री करते हैं और उसको अपने लिए रहमत की ख़ुशख़बरी समझने के बजाय मौत का पैग़ाम समझ लेते हैं।
وَلَئِنۡ أَرۡسَلۡنَا رِيحٗا فَرَأَوۡهُ مُصۡفَرّٗا لَّظَلُّواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ يَكۡفُرُونَ ۝ 38
(51) और अगर हम एक ऐसी हवा भेज दें जिसके असर से वे अपनी खेती को पीला पाएँ74 तो वे नाशुक्री करते रह जाते हैं।75
74. यानी रहमत की बारिश के बाद जब खेतियाँ हरी-भरी हो चुकी हों उस वक़्त अगर कोई ऐसी सख़्त सर्द या सख़्त गर्म हवा चल पड़े जो हरी-भरी फ़स्लों को जलाकर रख दे।
75. यानी फिर ये ख़ुदा को कोसने लगते हैं और उसपर इलज़ाम रखने लगते हैं कि उसने यह कैसी मुसीबतें हमपर डाल रखी हैं। हालाँकि जब ख़ुदा ने उनपर नेमत की बारिश की थी उस वक़्त उन्होंने शुक्र के बजाय उसकी नाक़द्री की थी, वहीं फिर एक बारीक इशारा इस बात की तरफ़ है कि जब ख़ुदा के रसूल उसकी तरफ़ से रहमत का पैग़ाम लाते हैं तो लोग उनकी बात नहीं मानते और उस नेमत को ठुकरा देते हैं। फिर जब उनकी नाफ़रमानी और इनकार की सज़ा में ख़ुदा उनके सिरों पर ज़ालिमों और जाबिरों को सवार कर देता है और वे ज़ुल्मो-सितम की चक्की में उन्हें पीसते हैं और उनके साथ इनसानियत-सोज़ रवैया अपनाकर आदमियत का गला घोंट डालते हैं, तो वही लोग ख़ुदा को बुरा-भला कहना शुरू कर देते हैं और उसे इलज़ाम देते हैं कि उसने यह कैसी ज़ुल्म से भरी हुई दुनिया बना डाली है।
فَإِنَّكَ لَا تُسۡمِعُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَلَا تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ ٱلدُّعَآءَ إِذَا وَلَّوۡاْ مُدۡبِرِينَ ۝ 39
(52) (ऐ नबी) तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते,76 न उन बहरों को अपनी पुकार सुना सकते हो जो पीठ फेरे चले जा रहे हों,77
76. यहाँ मुर्दों से मुराद वे लोग हैं जिनके ज़मीर (अन्तरात्माएँ) मर चुके हैं जिनके अन्दर अख़लाक़ी ज़िन्दगी का हलका-सा असर भी बाक़ी नहीं रहा है, जिनके मन की बन्दगी और जिद और हठधर्मी ने उस सलाहियत ही को ख़त्म कर दिया है जो आदमी को हक़ बात समझने और क़ुबूल करने के क़ाबिल बनाती है।
77. बहरों से मुराद वे लोग हैं जिन्होंने अपने दिलों पर ऐसे ताले लगा रखे हैं कि सबकुछ सुनकर भी वे कुछ नहीं सुनते। फिर जब ऐसे लोग यह कोशिश भी करें कि हक़ की दावत की आवाज़ सिरे से उनके कान में पड़ने ही न पाए, और दावत देनेवाले की शक्ल देखते ही दूर भागना शुरू कर दें तो ज़ाहिर है कि कोई उन्हें क्या सुनाए और कैसे सुनाए?
وَمَآ أَنتَ بِهَٰدِ ٱلۡعُمۡيِ عَن ضَلَٰلَتِهِمۡۖ إِن تُسۡمِعُ إِلَّا مَن يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا فَهُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 40
(53) और न तुम अन्धों को उनकी गुमराही से निकालकर सही रास्ता दिखा सकते हो।78 तुम तो सिर्फ़ उन्हीं को सुना सकते हो, जो हमारी आयतों पर ईमान लाते और फ़रमाँबरदारी में सर झुका देते हैं।
78. यानी पैग़म्बर का काम यह तो नहीं है कि अंधों का हाथ पकड़कर उन्हें सारी उम्र सीधे रास्ते पर चलाता रहे। वह तो सीधे रास्ते की तरफ़ रहनुमाई ही कर सकता है। मगर जिन लोगों की दिल की आँखें फूट चुकी हों और जिन्हें वह रास्ता नज़र ही न आता हो जो पैग़म्बर उन्हें दिखाने की कोशिश करता है, उनकी रहनुमाई करना पैग़म्बर के बस का काम नहीं है।
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن ضَعۡفٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ ضَعۡفٖ قُوَّةٗ ثُمَّ جَعَلَ مِنۢ بَعۡدِ قُوَّةٖ ضَعۡفٗا وَشَيۡبَةٗۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡقَدِيرُ ۝ 41
(54) अल्लाह ही तो है जिसने कमज़ोरी की हालत से तुम्हारी पैदाइश की शुरुआत की, फिर उस कमज़ोरी के बाद तुम्हें ताक़त दी, फिर उस ताक़त के बाद तुम्हें कमज़ोर और बूढ़ा कर दिया। वह जो कुछ चाहता है पैदा करता है।79 और वह सब कुछ जाननेवाला, हर चीज़ पर क़ुदरत रखनेवाला है।
79. यानी बचपन, जवानी और बुढ़ापा, ये सारी हालतें उसी की पैदा की हुई हैं। यह उसी की मरज़ी पर है कि जिसे चाहे कमज़ोर पैदा करे और जिसको चाहे ताक़तवर बनाए, जिसे चाहे बचपन से जवानी तक न पहुँचने दे और जिसको चाहे जवानी में मौत दे दे, जिसे चाहे लम्बी उम्र देकर भी तन्दुरुस्त और ताक़तवर रखे और जिसको चाहे शानदार जवानी के बाद बुढ़ापे में इस तरह एड़ियाँ रगड़वाए कि दुनिया उसे देखकर सबक़ लेने लगे। इनसान अपनी जगह जिस घमण्ड में चाहे मुब्तला होता रहे, मगर ख़ुदा के क़ब्ज़े में वह इस तरह बेबस है कि जो हालत भी ख़ुदा उसपर तारी कर दे उसे वह अपनी किसी तदबीर से नहीं बदल सकता।
وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يُقۡسِمُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ مَا لَبِثُواْ غَيۡرَ سَاعَةٖۚ كَذَٰلِكَ كَانُواْ يُؤۡفَكُونَ ۝ 42
(55) और जब वह घड़ी आएगी80 तो मुजरिम क़समें खा-खाकर कहेंगे कि हम एक घड़ी भर से ज़्यादा नहीं ठहरे हैं,81 इसी तरह वे दुनिया की ज़िन्दगी में धोखा खाया करते थे।82
80. यानी क़ियामत जिसके आने की ख़बर दी जा रही है।
81. यानी मरने के वक़्त से क़ियामत की उस घड़ी तक। इन दोनों घड़ियों के दरमियान चाहे दस-बीस हज़ार साल ही गुज़र चुके हों, मगर वे यह महसूस करेंगे कि कुछ घण्टे पहले हम सोए थे और अब अचानक एक हादिसे ने हमें जगा उठाया है।
82. यानी ऐसे ही ग़लत अन्दाज़े ये लोग दुनिया में भी लगाते थे। वहाँ भी यह हक़ीक़त के समझने से महरूम थे। इसी वजह से यह हुक्म लगाया करते थे कि कोई क़ियामत-वयामत नहीं आनी, मरने के बाद कोई ज़िन्दगी नहीं और किसी ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर हमें हिसाब नहीं देना।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ وَٱلۡإِيمَٰنَ لَقَدۡ لَبِثۡتُمۡ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡبَعۡثِۖ فَهَٰذَا يَوۡمُ ٱلۡبَعۡثِ وَلَٰكِنَّكُمۡ كُنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 43
(56) मगर जिन्हें इल्म और ईमान दिया गया था वे कहेंगे कि ख़ुदा के रजिस्टर में तो तुम हश्र (जी उठने) के दिन तक पड़े रहे हो, सो यह वही हश्र का दिन है, लेकिन तुम जानते न थे।
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَعۡذِرَتُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 44
(57) तो वह दिन होगा जिसमें ज़ालिमों को उनका बहाना कोई फ़ायदा नहीं देगा और न उनसे माफ़ी माँगने के लिए कहा जाएगा।83
83. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है, “न उनसे यह चाहा जाएगा कि अपने रब को राज़ी करो", इसलिए कि तौबा और ईमान और नेक अमल की तरफ़ रुजू करने के सारे मौक़ों को वे खो चुके होंगे और इम्तिहान का वक़्त ख़त्म होकर फ़ैसले की घड़ी आ चुकी होगी।
وَلَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖۚ وَلَئِن جِئۡتَهُم بِـَٔايَةٖ لَّيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُبۡطِلُونَ ۝ 45
(58) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया है। तुम चाहे कोई निशानी ले आओ, जिन लोगों ने मानने से इनकार कर दिया है वे यही कहेंगे कि तुम बातिल (असत्य) पर हो।
كَذَٰلِكَ يَطۡبَعُ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 46
(59) इस तरह ठप्पा लगा देता है अल्लाह उन लोगों के दिलों पर जो बेइल्म हैं।
فَٱصۡبِرۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ وَلَا يَسۡتَخِفَّنَّكَ ٱلَّذِينَ لَا يُوقِنُونَ ۝ 47
(60) तो (ऐ नबी) सब्र करो, यक़ीनन अल्लाह का वादा सच्चा है,84 और हरगिज़ हलका न पाएँ तुमको वे लोग जो यक़ीन नहीं लाते।85
84. इशारा है उस वादे की तरफ़ जो ऊपर की आयत-17 में गुज़र चुका है। वहाँ अल्लाह तआला ने अपनी यह सुन्नत (रीति) बयान की है कि जिन लोगों ने भी अल्लाह के रसूलों की लाई हुई बयियनात (खुली हुई हिदायतों) का मुक़ाबला झुठलाने, मज़ाक़ उड़ाने और हठधर्मी के साथ किया है, अल्लाह ने ऐसे मुजरिमों से ज़रूर इन्तिक़ाम लिया है (तो हमने मुजरिमों से बदला लिया) और अल्लाह पर यह हक़ है कि ईमानवालों की मदद करे (और मोमिनों की मदद करना हमपर हक़ था)।
85. यानी दुश्मन तुमको ऐसा कमज़ोर न पाएँ कि उनके शोर-शराबे से तुम दब जाओ, या उनकी झूठे इलज़ामों की मुहिम से तुम डर जाओ, या उनकी फब्तियों और तानों और मज़ाक़ और ठट्ठा उड़ाने से तुम हिम्मत हार जाओ, या उनकी धमकियों और ताक़त के इस्तेमाल और ज़ुल्मो-सितम से तुम डर जाओ, या उनके दिए हुए लालचों से तुम फिसल जाओ, या क़ौमी मफ़ाद (हित) के नाम पर जो अपीलें वे तुमसे कर रहे हैं, उनकी बुनियाद पर तुम उनके साथ समझौता कर लेने पर उतर आओ। इसके बजाय ये तुमको अपने मक़सद के एहसास में इतना होशमन्द और अपने यक़ीन और ईमान में इतना मज़बूत और इस इरादे में इतना पक्का और अपने किरदार में इतना मज़बूत पाएँ कि न किसी डर से तुम्हें डराया जा सके, न किसी क़ीमत पर तुम्हें ख़रीदा जा सके, न किसी धोखे से तुमको फुसलाया जा सके, न कोई ख़तरा या नुक़सान या तकलीफ़ तुम्हें अपनी राह से हटा सके और न दीन के मामले में किसी लेन-देन का सौदा तुमसे चुकाया जा सके। ये सारी बातें अल्लाह तआला के बेहतरीन अन्दाज़े-बयान ने इस ज़रा-से जुमले में समेट दी हैं कि “ये बेयक़ीन लोग तुमको हलका न पाएँ।” अब इस बात का सुबूत इतिहास की बेलाग गवाही देती है कि नबी (सल्ल०) दुनिया पर वैसे ही भारी साबित हुए जैसा अल्लाह अपने आख़िरी नबी (सल्ल०) को भारी-भरकम देखना चाहता था। आप (सल्ल०) से जिसने जिस मैदान में भी ज़ोर आज़माई की उसने उसी मैदान में मात खाई और आख़िर उस अज़ीम शख़्सियत ने वह इंक़िलाब बरपा करके दिखा दिया जिसे रोकने के लिए अरब की कुफ़्र और शिर्क करनेवाली ताक़तों ने अपना सारा ज़ोर लगा दिया और अपने सारे दाँव-पेंच इस्तेमाल कर डाले।
سُورَةُ الرُّومِ
30. अर-रूम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम।
غُلِبَتِ ٱلرُّومُ ۝ 48
(2) रूमी क़रीब की ज़मीन में हार गए हैं
فِيٓ أَدۡنَى ٱلۡأَرۡضِ وَهُم مِّنۢ بَعۡدِ غَلَبِهِمۡ سَيَغۡلِبُونَ ۝ 49
(3) और अपनी इस हार के बाद कुछ साल के अन्दर वे ग़ालिब (विजयी) हो जाएँगे।1अल्लाह ही का इख़्तियार है पहले भी और बाद में भी।2
1. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और दूसरे सहाबा और ताबिईन के बयानों से मालूम होता है कि रूम और ईरान की इस लड़ाई में मुसलमानों की हमदर्दियाँ रूम के साथ और मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की हमदर्दियाँ ईरान के साथ थीं। इसकी कई वजहें थीं। एक यह कि ईरानियों ने इस लड़ाई को मजूसियत (मजूसी धर्म) और मसीहियत (ईसाई धर्म) की लड़ाई का रंग दे दिया था और वे मुल्क जीतने के मक़सद से आगे बढ़कर उसे मजूसियत फैलाने का ज़रिआ बना रहे थे। बैतुल-मक़दिस की फ़तह के बाद ख़ुसरो परवेज़ ने जो ख़त रूम (रोम) के क़ैसर (बादशाह) को लिखा था उसमें साफ़ तौर पर वह अपनी जीत को मजूसियत के सही होने की दलील ठहराता है। उसूली तौर से मजूसियों का मज़हब मक्का के मुशरिकों से मिलता-जुलता था, क्योंकि वे भी तौहीद (एक ख़ुदा) को नहीं मानते थे, दो ख़ुदाओं को मानते थे और आग की पूजा करते थे। इसलिए मुशरिकों की हमदर्दियाँ उनके साथ थीं। उनके मुक़ाबले में ईसाई चाहे कितने ही शिर्क में मुब्तिला हो गए हों, मगर वे ख़ुदा की तौहीद को अस्ल दीन (धर्म) मानते थे, आख़िरत को मानते थे और वह्य और रिसालत को हिदायत का सरचश्मा (मूलस्रोत) मानते थे। इस वजह से उनका दीन अपनी अस्ल के एतिबार से मुसलमानों के दीन से मिलता-जुलता था, और इसी लिए मुसलमान क़ुदरती तौर पर उनसे हमदर्दी रखते थे और उनपर मुशरिक क़ौम का गलबा उन्हें नागवार था। दूसरी वजह यह थी कि एक नबी के आने से पहले जो लोग पिछले नबी को मानते हों, वे उसूली तौर पर मुसलमान (ख़ुदा के दीन को माननेवाले) ही कहलाते हैं और जब तक बाद के आनेवाले नबी की दावत उन्हें न पहुँचे और वे उसका इनकार न कर दें, उनकी गिनती मुसलमानों ही में होती है। (देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-28 क़सस हाशिया-73) । उस वक़्त नबी (सल्ल०) को नबी बने हुए सिर्फ़ पाँच-छः साल ही बीते थे, और नबी (सल्ल०) की दावत अभी बाहर नहीं पहुँची थी। इसलिए मुसलमान ईसाइयों की गिनती कुफ़्र करनेवालों में नहीं करते थे। अलबत्ता यहूदी उनकी निगाह में ख़ुदा के दीन के इनकारी थे, क्योंकि वे हज़रत ईसा (अलैहि०) की नुबूवत का इनकार कर चुके थे। तीसरी वजह यह थी कि इस्लाम के शुरू ही में ईसाइयों की तरफ़ से मुसलमानों के साथ हमदर्दी ही का बर्ताव हुआ था, जैसाकि सूरा-5 माइदा, आयतें—82-85 और सूरा-25 क़सस, आयतें—52-55 में बयान हुआ है। बल्कि उनमें से बहुत से लोग खुले दिल से हक़ की दावत क़ुबूल कर रहे थे। फिर हबशा की हिजरत के मौक़े पर जिस तरह हबशा के ईसाई बादशाह ने मुसलमानों को पनाह दी और उनकी वापसी के लिए मक्का के इस्लाम-दुश्मनों की माँग को ठुकरा दिया उसका भी यह तक़ाज़ा था कि मुसलमान मजूसियों के मुक़ाबले में ईसाइयों का भला चाहनेवाले हों।
2. यानी पहले जब ईरानी जीत गए तो इस बुनियाद पर नहीं कि मआज़ल्लाह (अल्लाह की पनाह) सारे जहान का ख़ुदा उनके मुक़ाबले में हार गया, और बाद में जब रूमी कामयाब होंगे तो इसका मतलब यह नहीं है कि अल्लाह तआला को उसका खोया हुआ मुल्क मिल जाएगा। हुकमत तो हर हाल में अल्लाह ही की है। पहले जिसे जीत हुई उसे भी अल्लाह ही ने जिताया, और बाद में जो जीतेगा वह भी अल्लाह ही के हुक्म से जीतेगा उसकी ख़ुदाई में कोई अपने बल पर जीत हासिल नहीं कर सकता। जिसे वह उठाता है वही उठता है और जिसे वह गिराता है वही गिरता है।
3. इब्ने-अब्बास (रज़ि०), अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) सुफ़ियान सौरी (रह०), सुद्दी (रह०) वग़ैरा लोगों का बयान है कि ईरानियों पर रूमियों की जीत और बद्र की जंग में मुशरिकों पर मुसलमानों को जीत का ज़माना एक ही था, इसलिए मुसलमानों को दोहरी ख़ुशी हासिल हुई। यही बात ईरान और रूम के इतिहासों से भी साबित है। 624 ईo ही वह साल है जिसमें बद्र की जंग हुई, और वह साल है जिसमें रूम के क़ैसर (बादशाह) ने ज़रतुश्त की जाए-पैदाइश को तबाह किया और ईरान के सबसे बड़े आतिश-कदे (अग्निकुण्ड) को ढा दिया।
فِي بِضۡعِ سِنِينَۗ لِلَّهِ ٱلۡأَمۡرُ مِن قَبۡلُ وَمِنۢ بَعۡدُۚ وَيَوۡمَئِذٖ يَفۡرَحُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 50
(4) और वह दिन वह होगा जबकि अल्लाह की दी हुई जीत पर मुसलमान ख़ुशियाँ मनाएँगे।3
بِنَصۡرِ ٱللَّهِۚ يَنصُرُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 51
(5) अल्लाह मदद करता है जिसकी चाहता है, और वह ज़बरदस्त और रहम करनेवाला है।
وَعۡدَ ٱللَّهِۖ لَا يُخۡلِفُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 52
(6) यह वादा अल्लाह ने किया है, अल्लाह कभी अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करता, मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।
يَعۡلَمُونَ ظَٰهِرٗا مِّنَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا وَهُمۡ عَنِ ٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 53
(7) लोग दुनिया की ज़िन्दगी का बस ज़ाहिर पहलू जानते हैं और आख़िरत से ये ख़ुद ही ग़ाफ़िल हैं।4
4. यानी अगरचे आख़िरत पर दलील देनेवाली निशानियाँ और गवाहियाँ बहुत ज़्यादा मौजूद हैं और उससे ग़फ़लत की कोई मुनासिब वजह नहीं है, लेकिन ये लोग उससे ख़ुद ही लापरवाही बरत रहे हैं। दूसरे अलफ़ाज़ में, यह उनकी अपनी कोताही है कि दुनियावी ज़िन्दगी के इस ज़ाहिरी परदे पर निगाह जमाकर बैठ गए हैं और उसके पीछे जो कुछ आनेवाला है उससे बिलकुल बेख़बर हैं, वरना ख़ुदा की तरफ़ से उनको ख़बरदार करने में कोई कोताही नहीं हुई है।
مِنَ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗاۖ كُلُّ حِزۡبِۭ بِمَا لَدَيۡهِمۡ فَرِحُونَ ۝ 54
(32) और न हो जाओ उन मुशरिकों में से जिन्होंने अपना-अपना दीन अलग बना लिया है और गरोहों में बँट गए हैं, हर एक गरोह के पास जो कुछ है उसी में वह मग्न है।51
وَإِذَا مَسَّ ٱلنَّاسَ ضُرّٞ دَعَوۡاْ رَبَّهُم مُّنِيبِينَ إِلَيۡهِ ثُمَّ إِذَآ أَذَاقَهُم مِّنۡهُ رَحۡمَةً إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم بِرَبِّهِمۡ يُشۡرِكُونَ ۝ 55
(33) लोगों का हाल यह है कि जब उन्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो अपने रब की तरफ़ रुजू करके उसे पुकारते हैं,52 फिर जब वह कुछ अपनी रहमत का मज़ा उन्हें चखा देता है तो यकायक उनमें से कुछ लोग शिर्क करने लगते हैं53
52. यह इस बात की खुली दलील है कि उनके दिल की गहराइयों में एक ख़ुदा की गवाही मौजूद है। उम्मीदों के सहारे जब भी टूटने लगते हैं, उनका दिल ख़ुद ही अन्दर से पुकारने लगता है कि अस्ल बादशाही कायनात के मालिक ही की है और उसी की मदद उनकी बिगड़ी बना सकती है।
53. यानी फिर दूसरे माबूदों को नज़्रें (भेंटें) और चढ़ावे चढ़ने शुरू हो जाते हैं और कहा जाने लगता है कि यह मुसीबत फ़ुलाँ हज़रत की मेहरबानी और फ़ुलाँ आस्ताने की बरकत से टली है।
لِيَكۡفُرُواْ بِمَآ ءَاتَيۡنَٰهُمۡۚ فَتَمَتَّعُواْ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 56
(34) ताकि हमारे किए हुए एहसान की नाशुक्री करें। अच्छा, मज़े कर लो, जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा।
أَمۡ أَنزَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٗا فَهُوَ يَتَكَلَّمُ بِمَا كَانُواْ بِهِۦ يُشۡرِكُونَ ۝ 57
(35) क्या हमने कोई सनद और दलील उनपर उतारी है जो गवाही देती हो उस शिर्क की सच्चाई पर जो ये कर रहे हैं?54
54. यानी आख़िर किस दलील से उन लोगों को यह मालूम हुआ कि बलाएँ ख़ुदा नहीं टालता, बल्कि हज़रत टाला करते हैं? क्या अक़्ल इसकी गवाही देती है? या अल्लाह की कोई किताब ऐसी है जिसमें अल्लाह तआला ने यह फ़रमाया हो कि मैं अपने ख़ुदाई के इख़्तियारात फ़ुलाँ-फ़ुलाँ हज़रतों को दे चुका हूँ और अब ये तुम लोगों के काम बनाया करेंगे?
وَإِذَآ أَذَقۡنَا ٱلنَّاسَ رَحۡمَةٗ فَرِحُواْ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ إِذَا هُمۡ يَقۡنَطُونَ ۝ 58
(36) जब हम लोगों को रहमत का मज़ा चखाते हैं तो ये उसपर फूल जाते हैं, और जब उनके अपने किए करतूतों से उनपर कोई मुसीबत आती है तो यकायक ये मायूस होने लगते हैं।55
55. ऊपर की आयत में इनसान की जहालत और बेवक़ूफ़ी और उसकी नाशुक्री और नमक-हरामी पर गिरिफ़्त थी। इस आयत में उसके छिछोरेपन और नीचता पर गिरिफ़्त की गई है इस थुड़दिले को जब दुनिया में कुछ दौलत, ताक़त, इज़्ज़त मिल जाती है और यह देखता है कि इसका काम ख़ूब चल रहा है तो इसे याद नहीं रहता कि यह सब कुछ अल्लाह का दिया है। यह समझता है कि मेरे ही कुछ सुर्ख़ाब के पंख लगे हुए हैं जो मुझे वह कुछ मिला है जिससे दूसरे महरूम हैं। इस ग़लत-फ़हमी में घमण्ड और ग़ुरूर का नशा इसपर ऐसा चढ़ता है कि फिर यह न ख़ुदा को कुछ समझता है, न इनसानों को। लेकिन ज्यों ही कि कामयाबी और तरक़्क़ी ने मुँह मोड़ा इसकी हिम्मत जवाब दे जाती है और बदनसीबी की एक ही चोट उसपर दिल टूटने की वह कैफ़ियत तारी कर देती है कि जिसमें यह हर नीच-से-नीच हरकत कर बैठता है, यहाँ तक कि ख़ुदकुशी तक कर जाता है।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 59
(37) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि अल्लाह ही रोज़ी कुशादा करता है जिसकी चाहता है और तंग करता है (जिसकी चाहता है)! यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।56
56. यानी ईमानवाले इससे सबक़ हासिल कर सकते हैं कि कुफ़्र और शिर्क का इनसान के अख़लाक़ पर क्या असर पड़ता है, और इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह पर ईमान के अख़लाक़ी नतीजे क्या है। जो शख़्स सच्चे दिल से ख़ुदा पर ईमान रखता हो और उसी को रोज़ी के ख़ज़ानों का मालिक समझता हो, वह कभी उस नीचता में मुब्तला नहीं हो सकता जिसमें ख़ुदा को भूले हुए लोग मुब्तला होते हैं। उसे कुशादा रोज़ी मिले तो फूलेगा नहीं, शुक्र करेगा, लोगों के साथ नरमी और फ़ैयाज़ी (उदारता) से पेश आएगा, और ख़ुदा का माल ख़ुदा की राह में ख़र्च करने से हरगिज़ परहेज़ न करेगा। तंगी के साथ रोज़ी मिले, या फ़ाक़े ही पड़ जाएँ, तब भी सब्र से काम लेगा, ईमानदारी और अमानतदारी और ख़ुद्दारी को हाथ से न जाने देगा, और आख़िर वक़्त तक ख़ुदा से मेहरबानी और करम की आस लगाए रहेगा। यह अख़लाक़ी बुलन्दी न किसी नास्तिक को नसीब हो सकती है, न मुशरिक को।