(3) क्या2 ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है।3 नहीं, बल्कि यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से4 ताकि तू ख़बरदार करे एक ऐसी क़ौम को जिसके पास तुझसे पहले कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया, शायद के वे सीधा रास्ता पा जाएँ।5
2. ऊपर के शुरुआती जुमले के बाद मक्का के मशरिक लोगों के पहले एतिराज़ को लिया जा रहा है जो वे मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) पर करते थे।
3. यह सिर्फ़ सवाल नहीं है, बल्कि इसमें सख़्त ताज्जुब का अन्दाज़ पाया जाता है। मतलब यह है। कि उन सारी बातों के बावजूद, जिनकी बुनियाद पर यह बात हर शक व शुब्हे से परे है कि यह किताब ख़ुदा की तरफ़ से उतरी है, क्या ये लोग ऐसी खुली हठधर्मी की बात कह रहे हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) ने इसे ख़ुद गढ़कर झूठ-मठ अल्लाह, सारे जहान के रब, से जोड़ दिया है। इतना बेहूदा और बेसिर पैर का इलज़ाम (आरोप) रखते हुए कोई शर्म इनको नहीं आती? इन्हें कुछ महसूस नहीं होता कि जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) को और उनके काम और कलाम को जानते हैं और इस किताब को भी समझते हैं, वे इस बेहूदा इलज़ाम को सुनकर क्या राय क़ायम करेंगे?
4. जिस तरह पहली आयत में 'ला रै-ब फ़ीह' कहना काफ़ी समझा गया था और इससे बढ़कर कोई दलील क़ुरआन के अल्लाह के कलाम होने के हक़ में पेश करने की ज़रूरत न समझी गई थी, उसी तरह अब इस आयत में भी मक्का के ग़ैर मुस्लिमों के इस क़ुरआन को गढ़ने के इलज़ाम (आरोप) पर कि मुहम्मद (सल्ल०) क़ुरआन को ख़ुद गढ़कर पेश कर रहे हैं, सिर्फ़ इतनी बात कहने पर बस किया जा रहा है कि “यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से।” इसकी वजह वही है जो ऊपर हाशिया-1 में हम बयान कर चुके हैं। कौन, किस माहौल में, किस शान के साथ यह किताब पेश कर रहा था, यह सब कुछ सुननेवालों के सामने मौजूद था और यह किताब भी अपनी ज़बान और अपने अदब (साहित्य) और मज़ामीन (विषयों) के साथ सबके सामने थी। और इसके असरात और नतीजे भी मक्का की उस सोसाइटी में सब अपनी आँखों से देख रहे थे। इस सूरतेहाल में इस किताब का तमाम जहानों के रब की तरफ़ से आया हुआ हक़ होना ऐसी खुली हक़ीक़त थी जिसे सिर्फ़ फ़ैसलाकुन अन्दाज़ से बयान कर देना ही इस्लाम मुख़ालिफ़ों के इलज़ाम को रद्द कर देने के लिए काफ़ी था। इसपर किसी दलील देने की कोशिश बात को मज़बूत करने के बजाय उलटे उसे कमज़ोर करने का सबब होती। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे दिन के वक़्त सूरज चमक रहा हो और कोई ढीठ आदमी कहे कि यह अंधेरी रात है। इसके जवाब में सिर्फ़ यही कहना काफ़ी है कि तुम इसे रात कहते हो? यह चमकता दिन तो सामने मौजूद है। इसके बाद दिन के मौजूद होने पर अगर आप दलीलें क़ायम करेंगे तो अपने जवाब के ज़ोर में कोई इज़ाफ़ा न करेंगे, बल्कि हक़ीक़त में उसके ज़ोर को कुछ कम ही कर देंगे।
5. यानी जिस तरह इसका हक़ होना और अल्लाह की तरफ़ से होना पक्की और यक़ीनी बात है, उसी तरह इसका हिकमत के मुताबिक़ होना और ख़ुद तुम लोगों के लिए ख़ुदा की एक रहमत होना भी ज़ाहिर है। तुम ख़ुद जानते हो कि सैकड़ों सालों से तुम्हारे अन्दर कोई पैग़म्बर नहीं आया है। तुम ख़ुद जानते हो कि तुम्हारी सारी क़ौम जहालत और अख़लाक़ी गिरावट और बहुत पिछड़ेपन में मुब्तला है। इस हालत में अगर तुम्हें जगाने और सीधा रास्ता दिखाने के लिए एक पैग़म्बर तुम्हारे बीच भेजा गया है तो इसपर हैरान क्यों होते हो। यह तो एक बड़ी ज़रूरत है जिसे अल्लाह तआला ने पूरा किया है और तुम्हारी अपनी भलाई के लिए किया है।
यह बात सामने रहे कि अरब में सच्चे दीन (इस्लाम) की रौशनी सबसे पहले हज़रत हूद (अलैहि०) और हज़रत सॉलेह (अलैहि०) के ज़रिए से पहुँची थी जो इतिहास से पहले के ज़माने में गुज़रे हैं। फिर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) आए जिनका ज़माना नबी (सल्ल०) से ढाई हज़ार साल पहले गुज़रा है। उसके बाद आख़िरी पैग़म्बर जो अरब की सरज़मीन में नबी (सल्ल०) से पहले भेजे गए, वे हज़रत शुऐब (अलैहि०) थे और उनको आए हुए भी लगभग दो हज़ार साल बीत चुके थे। यह इतनी लम्बी मुद्दत है कि इसके लिहाज़ से यह कहना बिलकुल सही था कि उस क़ौम के अन्दर कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया। इस कहने का मतलब यह नहीं है कि उस क़ौम में कभी कोई ख़बरदार करनेवाला न आया था, बल्कि इसका मतलब यह है कि एक लम्बी मुद्दत से यह क़ौम एक ख़बरदार करनेवाले की मुहताज चली आ रही है।
यहाँ एक और सवाल सामने आ जाता है जिसको साफ़ कर देना ज़रूरी है। इस आयत को पढ़ते हुए आदमी के ज़ेहन में यह खटक पैदा होती है कि जब नबी (सल्ल०) से पहले सैकड़ों साल तक अरबों में कोई नबी नहीं आया तो उस जाहिलियत के दौर में गुज़रे हुए लोगों से आख़िर क़ियामत के दिन पूछ-गछ किस बुनियाद पर होगी? उन्हें मालूम ही कब था कि हिदायत क्या है और गुमराही क्या? फिर अगर वे गुमराह थे तो अपनी इस गुमराही के ज़िम्मेदार वे कैसे ठहराए जा सकते हैं? इसका जवाब यह है कि दीन (धर्म) की तफ़सीली जानकारी चाहे उस जाहिलियत के ज़माने में लोगों के पास न रही हो, मगर यह बात उस ज़माने में भी लोगों से छिपी न थी कि अस्ल दीन तौहीद (एकेश्वरवाद) है और पैग़म्बरों (अलैहि०) ने कभी बुत-परस्ती नहीं सिखाई है। यह हक़ीक़त उन रिवायतों में भी महफ़ूज़ थी जो अरब के लोगों को अपनी सरज़मीन के पैग़म्बरों से पहुँची थीं और उसे क़रीब की सरज़मीन में आए हुए पैग़म्बरों, हज़रत मूसा (अलैहि०), हज़रत दाऊद (अलैहि०), हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) की तालीमात के ज़रिए से भी वे जानते थे। अरब की रिवायतों में यह बात भी मशहूर और जानी-पहचानी थी कि पुराने ज़माने में अरबवालों का अस्ल दीन, इबराहीम (अलैहि०) का दीन था और बुत-परस्ती उनके यहाँ अम्र-बिन-लुहई नाम के एक आदमी ने शुरू की थी। शिर्क और बुत-परस्ती के आम रिवाज के बावजूद अरब के अलग-अलग हिस्सों में जगह-जगह ऐसे लोग मौजूद थे जो शिर्क से इनकार करते थे, तौहीद का एलान करते थे और बुतों पर क़ुरबानियाँ करने को खुल्लम-खुल्ला बुरा और ग़लत कहते थे। ख़ुद नबी (सल्ल०) के दौर से बिलकुल क़रीब ज़माने में कुस्स-बिन-साइदतुल-इयादी, उमैया-बिन-अबी-सल्त, सुवेद-बिन-अमरुल-मुस्तलक़ी, वकी-बिन-सुलमा-बिन- ज़ुहैरुल-इयादी, अम्र-बिन-जुन्दुब-अल-जुहनी, अबू-क़ैस-सरमा-बिन-अबी-अनस, ज़ैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ैल, वरक़ा-बिन-नौफ़ल, उसमान-बिन-हुवैरिस, उबैदुल्लाह-बिन-जहश, आमिर-बिन-ज़रब अदवानी, अल्लाफ़-बिन-शिहाब तमीमी, अल-मुतलम्मिस-बिन-उमैया-अल-किनानी, ज़ुहैर-बिन-अबी-सुलमा, ख़ालिद-बिन-सिनान-बिन-ग़ैस अबसी, अब्दुल्लाह अल-क़ुज़ाई और ऐसे ही बहुत-से लोगों के हालात हमें इतिहासों में मिलते हैं जिन्हें 'हुनफ़ा' के नाम से याद किया जाता है। ये सब लोग खुल्लम-खुल्ला तौहीद को अस्ल दीन कहते थे और अरब के मुशरिकों के मज़हब से ख़ुद के अलग होने का साफ़-साफ़ इज़हार करते थे। ज़ाहिर है कि इन लोगों के ज़ेहन में यह ख़याल पैग़म्बरों (अलैहि०) की पिछली तालीमात के बचे हुए असरात ही से आया था। इसके अलावा यमन में चौथी-पाँचवीं सदी ईसवी के जो कतबे (शिलालेख) आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) की नई खोजों के सिलसिले में निकले हैं, उनसे पता चलता है कि उस दौर में वहाँ एक तौहीदी दीन (एकेश्वरीय धर्म) मौजूद था जिसकी पैरवी करनेवाले 'अर-रहमान’ (दयावान ख़ुदा) और आसमानों और ज़मीन के रब ही को अकेला माबूद मानते थे। 378 ई० का एक कतबा एक इबादतगाह के खण्डहर से मिला है, जिसमें लिखा गया है कि यह इबादगाह आसमान के इलाह या आसमान के रब की इबादत के लिए बनाई गई है। 465 ई० के एक कतबे में भी ऐसे अलफ़ाज़ लिखे हैं जो तौहीद के अक़ीदे की दलील देते हैं। इसी दौर का एक और कतबा एक क़ब्र पर मिला है, जिसमें 'अर-रहमान' से मदद माँगने की बात लिखी हुई है। इसी तरह उत्तरी अरब में फ़ुरात और किन्नसरीन के बीच 'ज़बद' के मक़ाम पर 512 ई० का एक कतबा मिला है जिसमें 'बिसमिल इलाह, ला इज़-ज़ इल्ला लहू, ला शुक-र इल्ला लहू' (अल-इलाह के नाम से, उसके सिवा किसी के लिए इज़्जत नहीं, उसके सिवा किसी के लिए शुक्र नहीं) के अलफ़ाज़ पाए जाते हैं। ये सारी बातें बताती हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) को नबी बनाए जाने से पहले पिछले पैग़म्बरों की तालीमात की निशानियाँ अरब से बिलकुल मिट नहीं गई थीं और कम-से-कम इतनी बात याद दिलाने के लिए बहुत-से ज़रिए मौजूद थे कि “तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-84)