(13) वे उसके लिए बनाते थे जो कुछ वह चाहता, ऊँची इमारतें, तस्वीरें,20 बड़े-बड़े हौज़ जैसे लगन और अपनी जगह से न हटनेवाली भारी देगें।21 ऐ दाऊद के लोगो, अमल करो शुक्र के तरीक़े पर,22 मेरे बन्दों में कम ही शुक्रगुज़ार हैं।
20. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'तमासील' इस्तेमाल हुआ है जो 'तिमसाल' की जमा (बहुवचन) है। 'तिमसाल' अरबी ज़बान में हर उस चीज़ को कहते हैं जो किसी क़ुदरती चीज़ से मिलती-जुलती बनाई जाए, चाहे फिर वह कोई इनसान हो या जानवर, कोई पेड़ हो या फूल या नदी या कोई दूसरी बेजान चीज़। “तिमसाल नाम है हर उस बनावटी चीज़ का जो ख़ुदा की बनाई हुई किसी चीज़ के जैसी बनाई गई हो।” (लिसानुल-अस्ब)। “तिमसाल हर उस तस्वीर को कहते हैं जो किसी दूसरी चीज़ के जैसी बनाई गई हो, चाहे वह जानदार हो या बेजान।” (तफ़सीरे-कश्शाफ़)। इस वजह से क़ुरआन मजीद के इस बयान से यह लाज़िम नहीं आता कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के लिए जो 'तमासील' बनाई जाती थीं वे ज़रूर इनसानों और जानवरों की तस्वीरें या मूर्तियाँ ही होंगी। हो सकता है कि वे फूल-पत्तियाँ और क़ुदरती मंज़र और अलग-अलग तरह के बेल-बूटे हों जिनसे हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने अपनी इमारतों को सजाया हो।
ग़लत-फ़हमी का मंशा कुछ तफ़सीर लिखनेवालों के ये बयान हैं कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने नबियों और फ़रिश्तों की तस्वीरें बनवाई थीं। ये बातें उन लोगों ने बनी-इसराईल की रिवायतों से ले लीं और फिर उनकी वजह यह बयान की कि पिछली शरीअतों में इस तरह की तस्वीरें बनाना मना न था। लेकिन इन रिवायतों को बिना तहक़ीक़ नक़्ल करते हुए इन बुज़ुर्गा को यह ख़याल न रहा कि हज़रत सुलैमान जिस मूसवी शरीअत की पैरवी करते थे, उसमें भी इनसानी और जानवरों की तस्वीरें और बुत उसी तरह हराम थे जिस तरह मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में हराम हैं और वे यह भी भूल गए कि बनी-इसराईल के एक गरोह को हज़रत सुलैमान (अलैहि०) से जो दुश्मनी थी, उसकी वजह से उन्होंने उनपर शिर्क और बुत-परस्ती और जादूगरी और ज़िना (व्यभिचार) के इन्तिहाई बुरे इलज़ाम लगाए हैं, इसलिए उनकी रिवायतों पर भरोसा करके इस बुलन्द रुतबेवाले पैग़म्बर के बारे में कोई ऐसी बात हरगिज़ क़ुबूल न करनी चाहिए जो ख़ुदा की भेजी हुई किसी शरीअत के ख़िलाफ़ पड़ती हो। यह बात हर किसी को मालूम है, कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद हज़रत ईसा (अलैहि०) तक बनी-इसराईल में जितने नबी भी आए हैं, वे सब तौरात की पैरवी करनेवाले थे और उनमें से कोई भी नई शरीअत न लाया था जो तौरात के क़ानून को ख़त्म करनेवाली होती। अब तौरात को देखिए तो उसमें बार-बार साफ़ तौर से यह हुक्म मिलता है कि इनसानों और जानवरों की तस्वीरें और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) बिलकुल हराम हैं—
"तू अपने लिए मूर्ति तराशकर न बनाना, न किसी चीज़ की प्रतिमा बनाना जो आसमान में या नीचे ज़मीन पर या ज़मीन के नीचे पानी में है।" (निर्गमन, अध्याय-20, आयत-4)
“तुम अपने लिए बुत न बनाना और न कोई तराशी हुई मूर्ति या लाट अपने लिए खड़ी करना और न अपने देश में सजदा करने के लिए नक़्क़ाशीदार पत्थर स्थापित करना।" (लैव्य-व्यवस्था, अध्याय-26, आयत-1)
"यह न हो कि तुम बिगड़कर किसी शक्ल या सूरत की खोदी हुई मूरत अपने लिए बना लो जिसकी शबीह (आकृति) किसी मर्द या औरत या ज़मीन के किसी जानदार या हवा में उड़नेवाले परिन्दे या ज़मीन के रेंगनेवाले जानदार या मछली से जो ज़मीन के नीचे पानी में रहती है, मिलती हो।" (व्यवस्थाविवरण, अध्याय-1, आयत-16-18)
"लानत है उस आदमी पर जो कोई मूर्ति कारीगर से खुदवाकर या ढलवाकर निराले स्थान में स्थापित करे, क्योंकि इससे ख़ुदावन्द नफ़रत करता है।" (व्यवस्थाविवरण, अध्याय-27, आयत-15)
इन साफ़ और वाज़ेह हुक्मों के बाद यह बात कैसे मानी जा सकती है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने नबियों और फ़रिश्तों की तस्वीरें या उनके मुजस्समे (प्रतिमाएँ) बनाने का काम जिन्नों से लिया होगा और यह बात आख़िर उन यहूदियों के बयान पर भरोसा करके कैसे मान ली जाए जो हज़रत सुलैमान (अलैहि०) पर यह इलज़ाम लगाते हैं कि वे अपनी मुशरिक बीवियों के इश्क में पड़कर बुत-परस्ती करने लगे थे। (राजा-1, अध्याय-2)
फिर भी तफ़सीर लिखनेवालों ने तो बनी-इसराईल की ये रिवायतें नक़्ल करने के साथ इस बात को साफ़ तौर पर बयान कर दिया था कि मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में यह काम हराम है, इसलिए अब कोई शख़्स हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की पैरवी में तस्वीरें और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) नहीं बना सकता। लेकिन मौजूदा ज़माने के कुछ लोगों ने, जो मग़रिब (पश्चिम) वालों की नक़्ल में तस्वीरें बनाने और बुत तराशने को हलाल करना चाहते हैं, क़ुरआन मजीद की इस आयत को अपने लिए दलील ठहरा लिया। वे कहते हैं कि जब एक पैग़म्बर ने यह काम किया है और अल्लाह तआला ने ख़ुद अपनी किताब में उसके इस काम का ज़िक्र किया है और इसपर किसी नापसन्दीदगी का इज़हार भी नहीं किया है तो इसे लाज़िमन हलाल ही होना चाहिए।
मग़रिब (पश्चिम) की पैरवी करनेवाले इन लोगों की यह दलील दो वजहों से ग़लत है। एक यह कि लफ़्ज़ 'तमासील' जो क़ुरआन मजीद में इस्तेमाल किया गया है, साफ़-साफ़ इनसानों और जानवरों की तस्वीरों के मानी में नहीं है, बल्कि इसका इस्तेमाल बेजान चीज़ों की तस्वीरों के लिए भी होता है, इसलिए सिर्फ़ इस लफ़्ज़ के सहारे यह हुक्म नहीं लगाया जा सकता कि क़ुरआन के मुताबिक़ इनसानों और जानवरों की तस्वीरें हलाल हैं। दूसरी यह कि बहुत-सी और मज़बूत सनदों और एक जैसे मानीवाली हदीसों से यह साबित है कि नबी (सल्ल०) ने जानदार चीज़ों की तस्वीरें बनाने और रखने को बिलकुल हराम ठहराया है। इस मामले में जो इरशादात (कथन) नबी (सल्ल०) से साबित हैं और बड़े सहाबा (रज़ि०) के जो आसार (बातें और आमाल) बयान हुए हैं उन्हें हम यहाँ नक़्ल करते हैं—
(1) उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत है कि हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) ने हबशा में एक कनीसा देखा था जिसमें तस्वीरें थीं। इसका ज़िक्र उन्होंने नबी (सल्ल०) से किया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इन लोगों का हाल यह था कि जब इनमें कोई नेक आदमी होता तो उसके मरने के बाद वे उसकी क़ब्र पर एक इबादतगाह बनाते और उसमें ये तस्वीरें बना लिया करते थे। ये लोग क़ियामत के दिन अल्लाह के नज़दीक सबसे बुरे लोग क़रार पाएँगे।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई)
(2) अबू-जुहैफ़ा का बयान है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तस्वीर बनानेवाले पर लानत की है। (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-बुयूअ, किताबुत-तलाक़ और किताबुल-लिबास)
(3) अबू-ज़ुरआ कहते हैं कि एक बार में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) के साथ एक मकान में दाख़िल हुआ तो देखा कि मकान के ऊपर एक मुसव्विर (तस्वीर बनानेवाला) तस्वीरें बना रहा है। इसपर हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) ने कहा कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि “अल्लाह तआला फ़रमाता है कि उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम कौन होगा जो मेरी तख़लीक़ (रचना) के जैसी तख़लीक़ की कोशिश करे। ये लोग एक दाना या एक चींटी तो बनाकर दिखाएँ।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-लिबास। मुस्लिम और मुसनद अहमद की रिवायत में बताया गया है कि यह मरवान का घर था।)
(4) अबू-मुहम्मद हुज़ली हज़रत अली (रज़ि०) से रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) एक ज़नाजे में शरीक थे। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम लोगों में से कौन है जो जाकर मदीना में कोई बुत न छोड़े जिसे तोड़ न दे और कोई क़ब्र न छोड़े जिसे ज़मीन के बराबर न कर दे और कोई तस्वीर न छोड़े जिसे मिटा न दे।” एक आदमी ने कहा, “मैं इसके लिए हाज़िर हूँ।” चुनाँचे वह गया, मगर मदीनावालों के डर से यह काम किए बिना पलट आया। फिर हज़रत अली (रज़ि०) ने कहा कि “ऐ अल्लाह के रसूल, मैं जाता हूँ।” नबी (सल्ल०) ने कहा, “अच्छा तुम जाओ।” हज़रत अली (रज़ि०) गए और वापस आकर उन्होंने कहा कि “मैंने कोई बुत नहीं छोड़ा जिसे तोड़ न दिया हो, कोई क़ब्र नहीं छोड़ी जिसे ज़मीन के बराबर न कर दिया हो और कोई तस्वीर नहीं छोड़ी जिसे मिटा न दिया हो।” इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अब अगर किसी शख़्स ने इन चीज़ों में से कोई चीज़ बनाई तो उसने उस तालीम से इनकार किया जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरी है।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुस्लिम किताबुल-जनाइज़ और नसई किताबुल-जनाइज़ में भी इस सिलसिले की एक हदीस नक़्ल हुई है।)
(5) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) नबी (सल्ल०) से रिवायत करते हैं..... “और जिस किसी ने तस्वीर बनाई, उसे अज़ाब दिया जाएगा और मजबूर किया जाएगा कि वह उसमें रूह फूँके और वह न फूँक सकेगा।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुत-ताबीर; तिरमिज़ी, अबवाबुल-लिबास; नसई, किताबुज़-ज़ीनत; मुसनद अहमद)
(6) सईद-बिन-अबिल-हसन कहते हैं कि मैं इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के पास बैठा था। इतने में एक आदमी आया और उसने कहा कि “ऐ अबू-अब्बास, मैं एक ऐसा आदमी हूँ जो अपने हाथ से रोज़ी कमाता है और मेरा रोज़गार ये तस्वीरें बनाना है।” इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने जवाब दिया कि मैं तुमसे वही बात कहूँगा जो मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को फ़रमाते सुनी है। मैंने नबी (सल्ल०) से यह बात सुनी है कि “जो कोई तस्वीर बनाएगा, अल्लाह उसे अज़ाब देगा और उसे न छोड़ेगा जब तक वह उसमें रूह न फूँके और वह कभी रूह न फूँक सकेगा।” यह बात सुनकर वह आदमी सख़्त नाराज़ हुआ और उसके चेहरे का पीला पड़ गया। इसपर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने कहा, “ऐ अल्लाह के बन्दे, अगर तुझे तस्वीर बनानी ही है तो इस पेड़ की बना, या किसी ऐसी चीज़ की बना जिसमें रूह न हो।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-बुयूअ; मुस्लिम, किताबुल-लिबास; नसई किताबुज़-जीनत; मुसनद अहमद)
(7) अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़ियामत के दिन अल्लाह के यहाँ सबसे सख़्त सज़ा पानेवाले मुसव्विर (तस्वीर बनानेवाले) होंगे।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-लिबास; मुस्लिम, किताबुल-लिबास; नसई, किताबुज़-ज़ीनत; मुसनद अहमद)
(8) अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने बयान किया है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो लोग ये तस्वीरें बनाते हैं, उनको क़ियामत के दिन अज़ाब दिया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि जो कुछ तुमने बनाया है, उसे ज़िन्दा करो।” (हदीस : बुख़ारी, किताबुल- लिबास; मुस्लिम, किताबुल-लिबास; नसई, किताबुज़-ज़ीनत; मुसनद अहमद)
(9) हज़रत आइशा (रज़ि०) कहती हैं कि “मैंने एक तकिया ख़रीदा जिसमें तस्वीरें बनी हुई थीं। फिर नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए और दरवाज़े ही में खड़े हो गए। अन्दर दाख़िल न हुए। मैंने कहा कि मैं ख़ुदा से तौबा करती हूँ हर उस गुनाह पर जो मैंने किया हो। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया : यह तकिया कैसा है? मैंने अर्ज़ किया कि यह इस ग़रज़ के लिए है कि आप यहाँ तशरीफ़ रखें और इसपर टेक लगाएँ। फ़रमाया कि इन तस्वीरों के बनानेवालों को क़ियामत के दिन अज़ाब दिया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि जो कुछ तुमने बनाया है उसको ज़िन्दा करो और फ़रिश्ते (यानी रहमत के फ़रिश्ते) किसी ऐसे घर में दाख़िल नहीं होते जिसमें तस्वीरें हों।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, इब्ने-माजा, मुवत्ता)
(10) हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मेरे यहाँ तशरीफ़ लाए और मैंने एक परदा लटका रखा था जिसमें तस्वीर थी। आप (सल्ल०) के चेहरे का रंग बदल गया, फिर आपने उस परदे को लेकर फाड़ डाला और फ़रमाया, “क़ियामत के दिन सबसे बुरा अज़ाब जिन लोगों को दिया जाएगा, उनमें वे लोग भी हैं जो अल्लाह की तख़लीक़ (रचना) की जैसी तख़लीक़ की कोशिश करते हैं।" (हदीस : मुस्लिम, बुख़ारी, नसई)
(11) हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) सफ़र से वापस तशरीफ़ लाए और मैंने अपने दरवाज़े पर एक परदा लटका रखा था, जिसमें परदार घोड़ों की तस्वीरें थीं। नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि इसे उतार दो और मैंने उतार दिया। (हदीस : मुस्लिम, नसई)
(12) जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इससे मना कर दिया है कि घर में तस्वीर रखी जाए और इससे भी मना कर दिया कि कोई शख़्स तस्वीर बनाए। (हदीस : तिरमिज़ी)
(13) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) अबू-तलहा अनसारी से रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “फ़रिश्ते (यानी रहमत के फ़रिश्ते) किसी ऐसे घर में दाख़िल नहीं होते जिसमें कुत्ता पला हुआ हो और न ऐसे घर में जिसमें तस्वीर हो।” (हदीस : बुख़ारी)
(14) अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) कहते हैं एक बार जिबरील (अलैहि०) ने नबी (सल्ल०) के पास आने का वादा किया, मगर बहुत देर लग गई और वह न आए। नबी (सल्ल०) को इससे परेशानी हुई और आप (सल्ल०) घर से निकले तो वे मिल गए। आप (सल्ल०) ने उनसे शिकायत की तो उन्होंने कहा कि हम किसी ऐसे घर में दाख़िल नहीं होते जिसमें कुत्ता हो या तस्वीर हो। (हदीस : बुख़ारी। इस सिलसिले की बहुत-सी रिवायतें बुख़ारी, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, इमाम मालिक और इमाम अहमद ने कई सहाबा से नक़्ल की हैं।)
इन रिवायतों के मुक़ाबले में कुछ रिवायतें ऐसी भी पेश की जाती हैं जिनमें तस्वीरों के मामले में छूट पाई जाती है। मसलन अबू-तलहा अनसारी (रज़ि०) की यह रिवायत कि जिस कपड़े में तस्वीर कढ़ी हुई हो, उसका परदा लटकाने की इजाज़त है। (हदीस : बुख़ारी, किताबुल-लिबास) और हज़रत आइशा (रज़ि०) की यह रिवायत कि तस्वीरदार कपड़े को फाड़कर जब उन्होंने गद्दा बना लिया तो नबी (सल्ल०) ने उसे बिछाने से मना नहीं किया। (हदीस : मुस्लिम, किताबुल-लिबास) और सालिम-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की यह रिवायत कि मनाही उस तस्वीर की है जो नुमायाँ जगह पर लगाई गई हो, न कि उस तस्वीर की जो फ़र्श के तौर पर बिछा दी गई हो। (हदीस : मुसनद अहमद)। लेकिन इनमें से कोई हदीस भी दरअस्ल उन हदीसों को रद्द नहीं करती जो ऊपर नक़्ल की गई हैं। जहाँ तक तस्वीर बनाने का ताल्लुक़ है, उसका जाइज़ होना इनमें से किसी हदीस से भी नहीं साबित होता। ये हदीसें सिर्फ़ इस मसले से बहस करती हैं कि अगर किसी कपड़े पर तस्वीर बनी हुई हो और आदमी उसको ले चुका हो तो क्या करे। इस बारे में अबू-तलहा अनसारी (रज़ि०) वाली रिवायत किसी तरह भी क़ुबूल करने के क़ाबिल नहीं है, क्योंकि वह दूसरी बहुत-सी सहीह हदीसों से टकराती है, जिनमें नबी (सल्ल०) ने तस्वीरदार कपड़ा लटकाने से न सिर्फ़ मना किया है, बल्कि उसे फाड़ दिया है। इसके अलावा ख़ुद हज़रत अबू-तलहा (रज़ि०) का अपना अमल जो हदीस की किताब तिरमिज़ी और मुवत्ता में बयान हुआ है, वह यह है कि तस्वीरदार परदा लटकाना तो एक तरफ़ रहा, वे ऐसा फ़र्श बिछाना भी पसन्द नहीं करते थे जिसमें तस्वीरें हों। रहीं हज़रत आइशा (रज़ि०) और सालिम-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायतें तो उनसे सिर्फ़ इतनी गुंजाइश निकलती है कि अगर तस्वीर एहतिराम की जगह पर न हो, बल्कि रुसवाई और ज़िल्लत के साथ फ़र्श में रखी जाए और उसे रौंदा जाए तो वह बरदाश्त के क़ाबिल है। इन हदीसों से आख़िर उस पूरी तहज़ीब (संस्कृति) का जाइज़ होना कैसे निकाला जा सकता है जो तस्वीर बनाने और मुजस्समासाज़ी (प्रतिमा बनाने) के आर्ट (कला) को इनसानी तहज़ीब का फ़ख़्र करने लायक़ कमाल ठहराती है और उसे मुसलमानों में रिवाज देना चाहती है।
तस्वीरों के मामले में नबी (सल्ल०) ने आख़िरकार उम्मत के लिए जो उसूल छोड़ा है उसका पता बड़े सहाबा के उस रवैये से चलता है जो उन्होंने इस बारे में अपनाया। इस्लाम में यह उसूल माना गया है कि भरोसेमन्द इस्लामी क़ानून वही है जो तमाम तदरीजी (दरजा-ब-दरजा दिए जानेवाले, क्रमबद्ध) हुक्मों और इबतिदाई रुख़सतों के बाद नबी (सल्ल०) ने अपने आख़िरी दौर में मुक़र्रर कर दिया हो और नबी (सल्ल०) के बाद बड़े-बड़े सहाबियों का किसी तरीक़े पर अमल करना इस बात का सुबूत है कि इसी तरीक़े पर नबी (सल्ल०) ने उम्मत को छोड़ा था। अब देखिए कि तस्वीरों के साथ इस पाकीज़ा और क़ाबिले-एहतिराम गरोह का बर्ताव क्या था।
हज़रत उमर (रज़ि०) ने ईसाइयों से कहा कि “हम तुम्हारे गिरजाघरों में इसलिए दाख़िल नहीं होते कि उनमें तस्वीरें हैं।" (हदीस : बुख़ारी, किताबुस्सलात)
इब्ने-अब्बास (रज़ि०) गिरजा में नमाज़ पढ़ लेते थे, मगर किसी ऐसे गिरजाघर में नहीं जिसमें तस्वीरें हों। (हदीस : बुख़ारी, किताबुस्सलात)
अबुल-हय्याज असदी कहते हैं कि हज़रत अली (रज़ि०) ने मुझसे कहा, “क्या न भेजूँ मैं तुमको उस मुहिम पर जिसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझे भेजा था? और वह यह है कि तुम कोई मुजस्समा (प्रतिमा) न छोड़ो जिसे तोड़ न दो और कोई ऊँची कब्र न छोड़ो जिसे ज़मीन के बराबर न कर दो और कोई तस्वीर न छोड़ो जिसे मिटा न दो।" (हदीस : मुस्लिम, किताबुल-जनाइज़; नसई, किताबुल-जनाइज़)।
हनशुल-किनानी कहते हैं कि हज़रत अली (रज़ि०) ने अपनी पुलिस के कोतवाल से कहा कि तुम जानते हो कि मैं किस मुहिम पर तुम्हें भेज रहा हूँ? उस मुहिम पर जिसपर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझे भेजा था, यह कि मैं हर तस्वीर को मिटा दूँ और हर क़ब्र को ज़मीन के बराबर कर दूँ। (हदीस : मुसनद अहमद)
इसी साबितशुदा इस्लामी उसूल को इस्लाम के फ़क़ीहों (फ़ुक़हा) ने माना है और इसे इस्लामी क़ानून की एक दफ़ा (धारा) क़रार दिया है। चुनाँचे अल्लामा बदरुद्दीन ऐनी (रह०) इस बात को किताब 'तौजीह' के हवाले से लिखते हैं—
“हमारे असहाब (यानी हनफ़ी आलिम) और दूसरे फ़ुक़हा कहते हैं कि किसी जानदार चीज़ की तस्वीर बनाना हराम ही नहीं, सख़्त हराम और बड़े गुनाहों में से है, चाहे बनानेवाले ने उसे किसी ऐसे इस्तेमाल के लिए बनाया हो जिसमें उसकी ज़िल्लत (अनादर) और रुसवाई हो, या किसी दूसरे मक़सद के लिए। हर हालत में तस्वीर बनाना हराम है, क्योंकि इसमें अल्लाह की तख़लीक़ (रचना-कार्य) की नक़्ल है। इसी तरह तस्वीर चाहे कपड़े में हो या फ़र्श में या दीनार और दिरहम या पैसे में या किसी बरतन में या दीवार में, बहरहाल उसका बनाना हराम है। अलबत्ता जानदार के सिवा किसी दूसरी चीज़ मसलन पेड़ वग़ैरा की तस्वीर बनाना हराम नहीं है। इन तमाम मामलों में तस्वीर के सायादार होने या न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यही राय इमाम मालिक (रह०), सुफ़ियान सौरी (रह०), इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और दूसरे आलिमों की है। क़ाज़ी अयाज़ कहते हैं कि इससे लड़कियों की गुड़ियाँ अलग हैं। मगर इमाम मालिक (रह०) उनके ख़रीदने को भी नापसन्द करते थे। (उम्दतुल-क़ारी, हिस्सा-22, पे० 70। इसी राय को इमाम नववी ने 'शरह मुस्लिम' में ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान किया है। (देखिए— शरह नववी, मिस्र में छपी हुई, हिस्सा-14, पे० 81, 82)
यह तो है तस्वीर बनाने का हुक्म। रहा दूसरे की बनाई हुई तस्वीर के इस्तेमाल का मसला तो इसके बारे में इस्लाम के फ़क़ीहों की रायें अल्लामा इब्ने-हजर ने इस तरह नक़्ल की हैं—
“मालिकी फ़क़ीह इब्ने-अरबी कहते हैं, कि जिस तस्वीर का साया पड़ता हो, उसके हराम होने पर तो सभी आलिम एक राय हैं, यह देखे बग़ैर कि वह तहक़ीर (अपमान) के साथ रखी गई राज हो या न। इससे सिर्फ़ लड़कियों की गुड़ियाँ अलग हैं इब्ने-अरबी (रह०) यह भी कहते हैं कि जिस तस्वीर की छाया न पड़ती हो, वह अगर अपनी हालत पर बाक़ी रहे (यानी आईने की परछाईं की तरह न हो, बल्कि छपी हुई तस्वीर की तरह जमी हुई और क़ायम हो) तो वह भी हराम है, चाहे उसे तहक़ीर (अनादर) के साथ रखा गया हो या न रखा गया हो। अलबत्ता उसका इस्तेमाल जाइज़ है अगर उसका सर काट दिया गया हो या उसके हिस्से अलग-अलग कर दिए गए हों तो इमामुल-हरमैन ने एक मसलक यह नक़्ल किया है कि परदे या तकिए पर अगर तस्वीर हो तो उसके इस्तेमाल की इजाज़त है, मगर दीवार या छत में जो तस्वीर लगाई जाए वह मना है, क्योंकि इस हालत में उसकी इज़्ज़त होगी, इसके बरख़िलाफ़ परदे और तकिए की तस्वीर हिक़ारत (अनादर) से रहेगी इब्ने-अबी-शैबा ने इकरिमा (रज़ि०) से नक़्ल किया है कि ताबिईन के ज़माने के उलमा यह राय रखते थे कि फ़र्श और तकिए में तस्वीर का होना उसके लिए ज़िल्लत (अनादर) का सबब है। साथ ही उनका यह खयाल भी था कि ऊँची जगह पर जो तस्वीर लगाई गई हो, वह हराम है और जिसे पैरों से रौंदा जाता हो यह जाइज़ है। यही राय इब्ने-सीरीन, सालिम-बिन-अब्दुल्लाह, इकरिमा-बिन-ख़ालिद और सईद-बिन-जुबैर से भी नक़्ल हुई है।" (फ़तहुल-बारी, हिस्सा-10, पे० 300)
इस तफ़सील से यह बात भी अच्छी तरह वाज़ेह हो जाती है कि इस्लाम में तस्वीरों का हराम होना कोई ऐसा मसला नहीं है जिसमें उलमा का इख़्तिलाफ़ हो या जिसमें किसी तरह का शक-शुब्हा पाया जाए, बल्कि नबी (सल्ल०) के वाज़ेह फ़रमानों, सहाबा किराम (रज़ि०) के अमल और इस्लामी फ़क़ीहों (धर्म-शास्त्रियों) की एकराय से दिए गए फ़तवों के मुताबिक़ एक तस्लीम-शुदा क़ानून है जिसे आज बाहर की तहज़ीबों से मुतास्सिर लोगों की बहानेबाज़ियाँ बदल नहीं सकतीं।
इस सिलसिले में कुछ बातें और भी समझ लेनी ज़रूरी हैं, ताकि किसी तरह की ग़लत-फ़हमी बाक़ी न रहे।
कुछ लोग फ़ोटो और हाथ से बनी हुई तस्वीर में फ़र्क़ करने की कोशिश करते हैं। हालाँकि शरीअत अपनी जगह ख़ुद तस्वीर को हराम करती है, न कि तस्वीर बनाने के किसी ख़ास तरीक़े को। फ़ोटो और हाथ से बनी तस्वीर में तस्वीर होने के लिहाज़ से कोई फर्क़ नहीं है। उनके बीच जो कुछ भी फ़र्क़ है वह तस्वीर बनाने के तरीक़े के लिहाज़ से है और इस लिहाज़ से शरीअत ने हुक्मों में कोई फ़र्क़ नहीं किया है।
कुछ लोग यह दलील देते हैं कि इस्लाम में तस्वीर के हराम होने का हुक्म सिर्फ़ शिर्क और बुत-परस्ती को रोकने के लिए दिया गया था और अब इसका कोई ख़तरा नहीं है, लिहाज़ा यह हुक्म बाक़ी न रहना चाहिए। लेकिन यह दलील बिलकुल ग़लत है। पहली बात तो यह कि हदीसों में कहीं यह बात नहीं कही गई है कि तस्वीरें सिर्फ़ शिर्क और बुत-परस्ती के ख़तरे से बचाने के लिए हराम की गई हैं। दूसरी, यह दावा भी बिलकुल बेबुनियाद है कि अब दुनिया में शिर्क और बुत-परस्ती का ख़ातिमा हो गया है। आज ख़ुद भारत-पाकिस्तान जैसे मुल्कों में करोड़ों बुत-परस्त मुशरिक लोग मौजूद हैं, दुनिया के अलग-अलग इलाक़ों में तरह-तरह से शिर्क हो रहा है, ईसाई अहले-किताब भी हज़रत ईसा (अलैहि०) और हज़रत मरयम (अलैहि०) और अपने कई बुज़ुर्गों की तस्वीरों और मुजस्समों (प्रतिमाओं) को पूज रहे है, यहाँ तक कि मुसलमानों की एक बड़ी तादाद भी मख़लूक़-परस्ती की आफ़तों से महफ़ूज़ नहीं है।
कुछ लोग कहते हैं कि सिर्फ़ वे तस्वीरें मना होनी चाहिएँ जो मुशरिकाना तरह की हों, यानी ऐसे लोगों की तस्वीरें और मुजस्समे (प्रतिमाएँ) जिनको माबूद (उपास्य) बना लिया गया हो, बाक़ी दूसरी तस्वीरों और मुजस्समों (प्रतिमाओं) के हराम होने की कोई वजह नहीं है। लेकिन इस तरह की बातें करनेवाले अस्ल में शरीअत देनेवाले (ख़ुदा व रसूल) के हुक्मों और फ़रमानों से क़ानून लेने के बजाय आप ही अपने लिए शरीअत (क़ानून) बनानेवाले बन बैठते हैं। उनको यह मालूम नहीं है कि तस्वीर सिर्फ़ एक शिर्क और बुत-परस्ती ही का सबब नहीं बनती, बल्कि दुनिया में दूसरे बहुत-से फ़ितनों का सबब भी बनी है और बन रही है। तस्वीर उन बड़े ज़रिओं में से एक है जिनसे बादशाहों, तानाशाहों और सियासी लीडरों की बड़ाई का सिक्का आम लोगों के दिमाग़ों पर बिठाने की कोशिश की गई है। तस्वीर को दुनिया में शहवानियत (कामुकता) फैलाने के लिए भी बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है और आज यह फ़ितना हर ज़माने से ज़्यादा ज़ोरों पर है। तस्वीरें क़ौमों में नफ़रत और दुश्मनी के बीज बोने, फ़साद डलवाने और आम लोगों को तरह-तरह से गुमराह करने के लिए भी बहुत ज़्यादा इस्तेमाल की जाती रही हैं और आज सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जा रही हैं। इसलिए यह समझना कि शरीअत बनानेवाले ने तस्वीर के हराम होने का हुक्म सिर्फ़ बुत-परस्ती को जड़ से ख़त्म करने के लिए दिया है, बुनियादी तौर पर ग़लत है। शरीअत देनेवाले ने जानदार चीज़ों की तस्वीरों से पूरी तरह रोका है। हम अगर ख़ुद शरीअत बनानेवाले नहीं हैं, बल्कि शरीअत बनानेवाले की पैरवी करनेवाले हैं तो हमें बिना किसी शर्त के इससे पूरी तरह रुक जाना चाहिए। हमारे लिए यह किसी तरह जाइज़ नहीं है कि अपनी तरफ़ से हुक्म की कोई वजह ख़ुद तय करके उसके लिहाज़ से कुछ तस्वीरों को हराम और कुछ को हलाल ठहराने लगें। कुछ लोग चन्द इस क़िस्म की तस्वीरों की तरफ़ इशारा करके कहते हैं जिनमें बज़ाहिर किसी भी तरह का कोई नुक़सान या अन्देशा नहीं है कि आख़िर इनमें क्या ख़तरा है, ये तो शिर्क, शहवानियत (कामुकता), फ़साद फैलाने और सियासी प्रोपेगण्डे और ऐसी ही दूसरी बुराई फैलानेवाली बातों से बिलकुल पाक हैं, फिर इनके मना होने की क्या वजह हो सकती है? इस मामले में लोग फिर वही ग़लती करते हैं कि पहले हुक्म की वजह ख़ुद तय कर लेते हैं और उसके बाद यह सवाल करते हैं कि जब फ़ुलाँ चीज़ में यह वजह नहीं पाई जाती तो वह क्यों नाजाइज़ है। इसके अलावा ये लोग इस्लामी शरीअत के इस क़ायदे को भी नहीं समझते कि वे हलाल और हराम के बीच ऐसी धुंधली और ग़ैर-वाज़ेह हदबन्दियाँ क़ायम नहीं करती जिनसे आदमी यह फ़ैसला न कर सकता हो कि वह कहाँ तक जाइज़ होने की हद में है और कहाँ उस हद को पार कर गया है, बल्कि एक ऐसी साफ़ फ़र्क़ करनेवाली लकीर खींचती है जिसे हर आदमी दिन के उजाले की तरह देख सकता हो। तस्वीरों के बीच यह हदबन्दी पूरी तरह वाज़ेह है कि जानदारों की तस्वीरें हराम और बेजान चीज़ों की तस्वीरें हलाल हैं। फ़र्क़ करनेवाली इस लकीर में किसी शक की गुंजाइश नहीं है। जिसे हुक्मों की पैरवी करनी हो वह साफ़-साफ़ जान सकता है कि उसके लिए क्या चीज़ जाइज़ है और क्या नाजाइज़। लेकिन अगर जानदारों की तस्वीरों में से कुछ को जाइज़ और कुछ को नाजाइज़ ठहराया जाता तो दोनों तरह की तस्वीरों की कोई बड़ी-से-बड़ी फ़ेहरिस्त बयान कर देने के बाद भी जाइज़ और नाजाइज़ की सरहद कभी वाज़ेह (स्पष्ट) न हो सकती और अनगिनत तस्वीरों के बारे में यह शक बाक़ी रह जाता कि उन्हें जाइज़ की हद के अन्दर समझा जाए या बाहर। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे शराब के बारे में इस्लाम का यह हुक्म कि उससे पूरी तरह परहेज़ किया जाए, एक साफ़ हद क़ायम कर देता है। लेकिन अगर यह कहा जाता कि उसकी इतनी मिक़दार इस्तेमाल करने से परहेज़ किया जाए जिससे नशा पैदा हो तो हलाल और हराम के बीच फ़र्क़ करनेवाली हद किसी जगह भी क़ायम न की जा सकती और कोई शख़्स भी फ़ैसला न कर सकता कि किस हद तक वह शराब पी सकता है और कहाँ जाकर उसे रुक जाना चाहिए। (और ज़्यादा तफ़सीली बहस के लिए देखिए रसाइल-व-मसाइल, हिस्सा-1, पे० 152-155)
21. इससे मालूम होता है कि हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के यहाँ बहुत बड़े पैमाने पर मेहमानदारी होती थी। बड़े-बड़े हौज़ जैसे लगन (परातें) इसलिए बनाए गए थे कि उनमें लोगों के लिए खाना निकालकर रखा जाए और भारी देगें इसलिए बनवाई गई थीं कि उनमें एक ही वक़्त में हज़ारों आदमियों का खाना पक सके।
22. यानी शुक्रगुज़ार बन्दों तरह काम करो। जो शख़्स नेमत देनेवाले का एहसान सिर्फ़ ज़बान से मानता हो, मगर उसकी नेमतों को उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता हो, उसका सिर्फ़ ज़बानी शुक्रिया बेमतलब है। अस्ल शुक्रगुज़ार बन्दा वही है जो ज़बान से भी नेमत को माने और इसके साथ नेमतें देनेवाले की नेमतों से वही काम भी ले जो नेमत देनेवाले की मरज़ी के मुताबिक़ हो।