(8) (भला15 कुछ ठिकाना है उस आदमी की गुमराही का) जिसके लिए उसका बुरा अमल (काम) लुभावना बना दिया गया हो और वह उसे अच्छा समझ रहा हो?16 हक़ीक़त यह है कि अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है। तो (ऐ नबी) ख़ाह-मख़ाह तुम्हारी जान इन लोगों की ख़ातिर ग़म और अफ़सोस में न घुले17 जो कुछ ये कर रहे हैं अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।18
15. ऊपर के दो पैराग्राफ़ आम लोगों को मुख़ातब (सम्बोधित) करके कहे गए थे। अब इस पैराग्राफ़ में गुमराही के उन अलमबरदारों का ज़िक्र हो रहा है जो नबी (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे थे।
16. यानी एक बिगड़ा हुआ आदमी तो वह होता है जो बुरा काम तो करता है, मगर यह जानता और मानता है कि जो कुछ वह कर रहा है, बुरा कर रहा है। ऐसा आदमी समझाने से भी दुरुस्त हो सकता है और कभी ख़ुद उसका अपना ज़मीर (अन्तरात्मा और मन) भी उसे बुरा-भला कहकर उसे सही रास्ते पर ला सकता है, क्योंकि उसकी सिर्फ़ आदतें ही बिगड़ी हैं। ज़ेहन नहीं बिगड़ा। लेकिन एक दूसरा आदमी ऐसा होता है जिसका ज़ेहन बिगड़ चुका होता है, जिसमें बुरे-भले का फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहता, जिसके लिए गुनाह की ज़िन्दगी एक पसन्दीदा और रौशन ज़िन्दगी होती है, जो भलाई से घिन खाता है और बुराई को ठीक तहज़ीब (संस्कृति) और सक़ाफ़त (सभ्यता) समझता है, जो नेकी और परहेज़गारी को दक़ियानूसियत (रूढ़िवादिता) और गुनाह और सरकशी के कामों को तरक़्क़ी पसन्दी समझता है, जिसकी निगाह में हिदायत, गुमराही और गुमराही, सरासर हिदायत बन जाती है। ऐसे आदमी पर कोई नसीहत काम नहीं करती। वह न ख़ुद अपनी बेवक़ूफ़ियों पर ख़बरदार होता है और न किसी समझानवाले की बात सुनकर देता है। ऐसे आदमी के पीछे पड़ना बेकार है। उसे हिदायत देने की फ़िक्र में अपनी जान घुलाने के बजाय हक़ की दावत देनेवाले को उन लोगों की तरफ़ ध्यान देना चाहिए जिनके ज़मीर में अभी ज़िन्दगी बाक़ी हो और जिन्होंने अपने दिल के दरवाज़े हक़ की आवाज़ के लिए बन्द न कर लिए हों।
17. पहले जुमले और इस जुमले के बीच यह कहना कि “अल्लाह जिसे चाहता है गुमराही में डाल देता है और जिसे चाहता है सीधा रास्ता दिखा देता है” साफ़ तौर पर यह मतलब दे रहा है। कि जो लोग इस हद तक अपने ज़ेहन को बिगाड़ लेते हैं, अल्लाह तआला उनको हिदायत की तौफ़ीक़ (सौभाग्य) से महरूम कर देता है और उन्हीं राहों में भटकने के लिए उन्हें छोड़ देता है जिनमें भटकते रहने पर वे ख़ुद अड़े होते हैं। यह हक़ीक़त समझाकर अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को नसीहत करता है कि ऐसे लोगों को सीधे रास्ते पर ले आना तुम्हारे बस में नहीं है। इसलिए उनके मामले में सब्र कर लो और जिस तरह अल्लाह को उनकी परवाह नहीं रही है, तुम भी उनके हाल पर दुखी होना छोड़ दो। इस जगह पर दो बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ। एक यह कि यहाँ जिन लोगों का ज़िक्र हो रहा है वे आम लोग नहीं थे, बल्कि मक्का के वे सरदार थे जो नबी (सल्ल०) की दावत को नाकाम करने के लिए हर झूठ, हर फ़रेब और हर चालबाज़ी से काम ले रहे थे। ये लोग हक़ीक़त में नबी (सल्ल०) के बारे में किसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला नहीं थे। ख़ूब जानते थे कि आप (सल्ल०) किस चीज़ की तरफ़ बुला रहे हैं और आप (सल्ल०) के मुक़ाबले में वे ख़ुद किन जहालतों और अख़लाक़ी बुराइयों को बनाए रखने के लिए कोशिश कर रहे हैं। यह सब कुछ जानने और समझ लेने के बाद ठण्डे दिल से उनका फ़ैसला यह था कि मुहम्मद (सल्ल०) की बात को नहीं चलने देना है और इस ग़रज़ के लिए उन्हें कोई ओछे-से-ओछा हथियार और कोई घटिया-से-घटिया हथकण्डा इस्तेमाल करने में झिझक न थी। अब यह ज़ाहिर बात है कि जो लोग जान-बूझकर और आपस में मशवरे कर-करके आए दिन एक नया झूठ गढ़ें और उसे किसी शख़्स के ख़िलाफ़ फैलाएँ, वे दुनिया भर को धोखा दे सकते हैं, मगर ख़ुद अपने आपको तो वे झूठा जानते हैं और ख़ुद उनसे तो यह बात छिपी हुई नहीं होती कि जिस शख़्स पर उन्होंने एक इलज़ाम लगाया है वह उससे बरी है। फिर अगर वह आदमी, जिसके ख़िलाफ़ ये झूठे हथियार इस्तेमाल किए जा रहे हों, उनके जवाब में कभी सच्चाई और सही रास्ते से हटकर कोई बात न करे तो इन ज़ालिमों से यह बात भी कभी छिपी नहीं रह सकती कि उनके मुक़ाबले पर एक सच्चा और खरा इनसान है। इसपर भी जिन लोगों को अपने करतूतों पर ज़रा शर्म न आए और वे सच्चाई का मुक़ाबला लगातार झूठ से करते ही चले जाएँ, उनका यह रवैया ख़ुद ही इस बात पर गवाही देता है कि अल्लाह की फिटकार उनपर पड़ चुकी है और इनमें बुरे-भले का कोई फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहा है।
दूसरी बात जिसे इस मौक़े पर समझ लेना चाहिए, वह यह है कि अगर अल्लाह तआला के सामने सिर्फ़ अपने रसूल को उनके मामले की असलियत समझाना होता तो वह ख़ुफ़िया तौर से सिर्फ़ आप (सल्ल०) को समझा सकता था। इस ग़रज़ के लिए क़ुरआन में खुल्लम-खुल्ला उसके ज़िक्र की ज़रूरत न थी। क़ुरआन मजीद में उसे बयान करने और दुनिया भर को सुना देने का मक़सद अस्ल में आम लोगों को ख़बरदार करना था कि जिन लीडरों और पेशवाओं के पीछे तुम आँखें बन्द किए चले जा रहे हो, वे कैसे बिगड़े हुए ज़ेहन के लोग हैं और उनकी बेहूदा हरकतें किस तरह मुँह से पुकार-पुकारकर बता रही हैं कि उनपर अल्लाह की फिटकार पड़ी हुई है।
18. इस जुमले में आप-से-आप यह धमकी छिपी है कि एक वक़्त आएगा जब अल्लाह तआला उन्हें इन करतूतों की सज़ा देगा। किसी हाकिम का किसी मुजरिम के बारे में यह कहना कि मैं उसकी हरकतों को अच्छी तरह जानता हूँ, सिर्फ़ यही मतलब नहीं देता कि हाकिम को उसकी हरकतों की जानकारी है, बल्कि इसमें यह तंबीह (चेतावनी) लाज़िमन छिपी होती है कि मैं उसकी ख़बर लेकर रहूँगा।