(26) (हमने उससे कहा) “ऐ दाऊद, हमने तुझे ज़मीन में ख़लीफ़ा बनाया है, लिहाज़ा तू लोगों के बीच हक़ के साथ हुकूमत कर और मन की ख़ाहिश की पैरवी न कर कि वह तुझे अल्लाह की राह से भटका देगी। जो लोग अल्लाह की राह से भटकते हैं, यक़ीनन उनके लिए सख़्त सज़ा है कि वे हिसाब के दिन को भूल गए।"28
28. यह वह चेतावनी है जो इस मौक़े पर अल्लाह तआला ने तौबा क़ुबूल करने और दरजे बुलन्द होने की ख़ुशख़बरी देने के साथ हज़रत दाऊद (अलैहि०) को की। इससे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है कि जो हरकत उनसे हो गई थी, उसके अन्दर मन की ख़ाहिश का कुछ दख़ल था, उसका हुकूमत के इख़्तियार के नामुनासिब इस्तेमाल से भी कोई ताल्लुक़ था और वह कोई ऐसा काम था जो हक़ के साथ हुकूमत करनेवाले किसी हाकिम को ज़ेब (शोभा) न देता था।
यहाँ पहुँचकर तीन सवाल हमारे सामने आते हैं। एक यह कि वह काम क्या था? दूसरा यह कि अल्लाह तआला ने उसको साफ़-साफ़ बयान करने के बजाय इस तरह परदे-परदे ही में उसकी तरफ़ क्यों इशारा किया? तीसरा यह कि इस मौक़े पर उसका ज़िक्र किस वजह से किया गया है?
जिन लोगों ने बाइबल पढ़ी है, उनसे यह बात छिपी नहीं है कि इस किताब में हज़रत दाऊद (अलेहि०) पर ऊरिय्याह हित्ती (Uriah the Hittite) की बीवी से बदकारी करने और फिर ऊरिय्याह को एक जंग में जान-बूझकर मरवाकर उसकी बीवी से शादी कर लेने का साफ़-साफ़ इलज़ाम लगाया गया है और यह भी कहा गया है कि यही औरत, जिसने एक आदमी की बीवी होते हुए अपने आपको हज़रत दाऊद (अलैहि०) के हवाले किया था, हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की माँ थी। यह पूरा क़िस्सा बाइबल की किताब शमूएल-2, अध्याय-11-12 में बहुत तफ़सील के साथ लिखा है। क़ुरआन उतरने से सदियों पहले यह बाइबल में लिखा जा चुका था। दुनिया भर के यहूदियों और ईसाइयों में से जो भी अपनी इस पाक किताब को पढ़ता या उसे सुनता था, वह इस क़िस्से से न सिर्फ़ वाक़िफ़ था, बल्कि इसपर ईमान भी लाता था। इन्हीं लोगों के ज़रिए से यह दुनिया में मशहूर हुआ और आज तक हाल यह है कि पश्चिमी देशों में बनी-इसराईल और इबरानी मज़हब के इतिहास पर कोई किताब ऐसी नहीं लिखी जाती जिसमें हज़रत दाऊद (अलैहि०) के ख़िलाफ़ इस इलज़ाम को दोहराया न जाता हो। इस मशहूर क़िस्से में यह बात भी लिखी है—
"ख़ुदावन्द ने नातन को दाऊद के पास भेजा। उसने उसके पास आकर उससे कहा : किसी शहर में दो आदमी थे। एक अमीर, दूसरा ग़रीब। उस अमीर के पास बहुत-से रेवड़ और गल्ले थे। पर उस ग़रीब के पास भेड़ की एक पठिया के सिवा कुछ न था, जिसे उसने ख़रीदकर पाला था और वह उसके और उसके बाल-बच्चों के साथ बढ़ी थी। वह उसी के निवाले में से खाती और उसी के प्याले से पानी पीती और उसकी गोद में सोती थी और उसके लिए बेटी जैसी थी और उस अमीर के यहाँ कोई मुसाफ़िर आया। सो उसने उस मुसाफ़िर के लिए, जो उसके यहाँ आया था, पकाने को अपने रेवड़ और गल्ले में से कुछ न लिया, बल्कि उस ग़रीब की भेड़ ले ली और उस आदमी के लिए, जो उसके यहाँ आया था, पकाई। तब दाऊद का ग़ुस्सा उस आदमी पर तेज़ी से भड़का और उसने नातन से कहा कि ख़ुदावन्द की ज़िन्दगी की कसम! वह आदमी जिसने यह काम किया, क़त्ल किए जाने के क़ाबिल है। अब उस आदमी को उस भेड़ का चौगुना भरना पड़ेगा, क्योंकि उसने ऐसा काम किया और उसे तरस न आया। तब नातन ने दाऊद से कहा कि वह आदमी तू ही है ...... तूने हित्ती ऊरिय्याह को तलवार से मारा और उसकी बीवी ले ली, ताकि वह तेरी बीवी बने और उसको बनी-अम्मून की तलवार से क़त्ल करवाया।" (शमूएल-2, अध्याय 12, जुमले 1-11)
इस क़िस्से और उसकी शोहरत की मौजूदगी में यह ज़रूरत बाक़ी न थी कि क़ुरआन मजीद में उसके बारे में कोई तफ़सीली बयान दिया जाता। अल्लाह तआला का यह क़ायदा है भी नहीं कि वह अपनी पाक किताब में ऐसी बातों को खोलकर बयान करे। इसलिए यहाँ परदे-परदे ही में इसकी तरफ़ इशारा भी किया गया है और इसके साथ यह भी बता दिया गया है कि अस्ल वाक़िआ क्या था और अहले-किताब ने उसे बना क्या दिया है। अस्ल वाक़िआ, जो क़ुरआन मजीद में ऊपर ज़िक्र हुए बयान से साफ़ समझ में आता है, वह यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने ऊरिय्याह (या जो कुछ भी उस आदमी का नाम रहा हो) से सिर्फ़ ख़ाहिश की थी कि वह अपनी बीवी को तलाक़ दे दे और चूँकि यह ख़ाहिश एक आम आदमी की तरफ़ से नहीं, बल्कि एक बड़े बादशाह और ज़बरदस्त (महान) दीनी शख़सियत की तरफ़ से जनता के एक आदमी के सामने ज़ाहिर की गई थी, इसलिए वह आदमी किसी ज़ाहिरी दबाव के बिना भी अपने आपको उसे क़ुबूल करने पर मजबूर पा रहा था। इस मौक़े पर, इससे पहले कि वह हज़रत दाऊद (अलैहि०) की फ़रमाइश पूरी करता, क़ौम के दो नेक आदमी अचानक हज़रत दाऊद (अलैहि०) के पास पहुँच गए और उन्होंने एक फ़रज़ी (काल्पनिक) मुक़द्दमे में यह मामला उनके सामने पेश कर दिया। हज़रत दाऊद (अलैहि०) शुरू में तो यह समझे कि यह सचमुच कोई मुक़द्दमा है। चुनाँचे उन्होंने उसे सुनकर अपना फ़ैसला सुना दिया। लेकिन ज़बान से फ़ैसले के अलफ़ाज़ निकलते ही उनके ज़मीर (अन्तरात्मा) ने ख़बरदार किया कि यह मिसाल पूरी तरह उनके और उस आदमी के मामले पर चस्पाँ होती है और जिस काम को वह ज़ुल्म ठहरा रहे हैं, वह ख़ुद उनसे उस आदमी के मामले में हो रहा है। यह एहसास दिल में पैदा होते ही वे सजदे में गिर गए और तौबा की और अपने इस काम से रुजू कर लिया।
बाइबल में इस वाक़िए की इतनी घिनावनी शक्ल कैसे बनी? यह बात भी थोड़े-से ग़ौर के बाद समझ में आ जाती है। मालूम ऐसा होता है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) को उस औरत की ख़ूबियों का पता किसी ज़रिए से चल गया था और उनके दिल में यह ख़याल पैदा हुआ था कि ऐसी लायक़ औरत एक मामूली अफ़सर की बीवी होने के बजाय देश की मलिका होनी चाहिए। इसी ख़याल के असर में आकर उन्होंने उसके शौहर से यह ख़ाहिश ज़ाहिर की कि वह उसे तलाक़ दे दे। इसमें कोई बुराई उन्होंने इसलिए महसूस न की कि बनी-इसराईल के यहाँ यह कोई बुरी बात न समझी जाती थी। उनके यहाँ यह एक मामूली बात थी कि एक आदमी अगर किसी की बीवी को पसन्द करता तो बेझिझक उससे दरख़ास्त कर देता था कि इसे मेरे लिए छोड़ दे। ऐसी दरख़ास्त पर कोई बुरा न मानता था, बल्कि कभी-कभी तो दोस्त एक-दूसरे का ख़याल करते हुए बीवी को ख़ुद तलाक़ दे देते थे, ताकि दूसरा उससे शादी कर ले। लेकिन यह बात करते वक़्त हज़रत दाऊद (अलैहि०) को इस बात का एहसास न हुआ कि एक आम आदमी की तरफ़ से इस तरह की ख़ाहिश ज़ाहिर करना तो ज़ोर-ज़बरदस्ती और ज़ुल्म के असर से ख़ाली हो सकता है, मगर एक बादशाह की तरफ़ से जब ऐसी ख़ाहिश ज़ाहिर की जाए तो वह ज़ोर-ज़बरदस्ती से किसी तरह भी ख़ाली नहीं हो सकती। इस पहलू की तरफ़ जब उस बनावटी मुक़द्दमे के ज़रिए से उनको ध्यान दिलाया गया तो उन्होंने बिना झिझक अपनी यह ख़ाहिश छोड़ दी और बात आई-गई हो गई। मगर बाद में किसी वक़्त जब उनकी किसी ख़ाहिश और कोशिश के बिना उस औरत का शौहर जंग में शहीद हो गया और उन्होंने उससे निकाह कर लिया, तो यहूदियों के गन्दे ज़ेहन ने कहानी बनानी शुरू कर दी और यह मन की गन्दगी उस वक़्त और ज़्यादा तेजी से काम करने लगी जब बनी-इसराईल का एक गरोह हज़रत सुलैमान (अलैहि०) का दुश्मन हो गया (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिया-56)। इन वजहों से यह क़िस्सा गढ़ डाला गया कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने, अल्लाह की पनाह, ऊरिय्याह की बीवी को अपने महल की छत पर से इस हालत में देख लिया था कि वह बरहना (नग्नावस्था में) नहा रही थी। उन्होंने उसको अपने यहाँ बुलवाया और उससे बदकारी की जिससे वह हामिला (गर्भवती) हो गई। फिर उन्होंने ऊरिय्याह को बनी-अम्मून के मुक़ाबले पर जंग में भेज दिया और फ़ौज के कमाँडर यूआब को हुक्म दिया कि उसे लड़ाई में ऐसी जगह रख दे जहाँ लाज़िमन वह मारा जाए और जब वह मारा गया तो उन्होंने उसकी बीवी से शादी कर ली और उसी औरत के पेट से सुलैमान (अलैहि०) पैदा हुए। ये तमाम झूठे इलज़ाम ज़ालिमों ने अपनी 'पाक किताब' में लिख दिए हैं ताकि एक नस्ल के बाद दूसरी नस्ल के ज़रिए से इसे पढ़ते रहें और अपनी क़ौम के उन दो सबसे बुज़ुर्ग इनसानों की बेइज़्ज़ती करते रहें जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद उनके सबसे बड़े मुहसिन (एहसान करनेवाले) थे।
क़ुरआन मजीद की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से एक गरोह ने तो उन कहानियों को क़रीब-क़रीब ज्यों-का-त्यों क़ुबूल कर लिया है जो बनी-इसराईल के ज़रिए से उन तक पहुँची हैं। इसराईली रिवायतों का सिर्फ़ इतना हिस्सा उन्होंने निकाल दिया है जिसमें हज़रत दाऊद पर बदकारी का इलज़ाम लगाया गया था और औरत के हामिला (गर्भवती) हो जाने का ज़िक्र था।
बाक़ी सारा क़िस्सा उनकी नक़्ल की हुई रिवायतों में उसी तरह पाया जाता है जिस तरह वह बनी-इसराईल में मशहूर था। दूसरे गरोह ने सिरे से इस वाक़िए ही का इनकार कर दिया है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) से कोई ऐसी हरकत हो गई थी जो दुबियोंवाले मुक़द्दमे से कोई मेल रखता हो। इसके बजाय वे अपनी तरफ़ से इस क़िस्से के मतलब कुछ इस तरह बयान करते हैं जो बिलकुल बेबुनियाद हैं, उनके बारे में कुछ नहीं पता कि वे कहाँ से लिए गए हैं। और ख़ुद क़ुरआन के मौक़ा-महल से भी वे ज़रा मेल नहीं खाते। लेकिन तफ़सीर लिखनेवालों ही में एक गरोह ऐसा भी है जो ठीक बात तक पहुँचा है और क़ुरआन के साफ़ इशारों से क़िस्से की अस्ल हक़ीक़त पा गया है। मिसाल के तौर पर कुछ बातें देखिए—
मसरूक़ (रह०) और सईद-बिन-जुबैर, दोनों हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का यह क़ौल (कथन) नक़्ल करते हैं कि “हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने इससे ज़्यादा कुछ नहीं किया था कि उस औरत के शौहर से यह ख़ाहिश ज़ाहिर की थी कि अपनी बीवी को मेरे लिए छोड़ दे।" (इब्ने-जरीर)
अल्लामा ज़मख़्शरी अपनी तफ़सीर 'कश्शाफ़' में लिखते हैं कि “जिस शक्ल में अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद (अलैहि०) का क़िस्सा बयान किया है, उससे तो यही ज़ाहिर होता है कि उन्होंने उस आदमी से सिर्फ़ यह ख़ाहिश ज़ाहिर की थी कि वह उनके लिए को छोड़ दे।”
अल्लामा अबू-बक्र जस्सास (रह०) इस राय का इज़हार करते हैं कि वह औरत उस आदमी की बीवी नहीं थी, बल्कि उसकी लौंडी थी जिससे उसको कुछ दे-दिलाकर आज़ाद करने का मामला हो चुका था या उससे मंगनी का ताल्लुक़ था। हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने उसी औरत से निकाह का पैग़ाम दे दिया, इसपर अल्लाह तआला की तरफ़ से मलामत की गई, क्योंकि उन्होंने अपने ईमानवाले भाई के पैग़ाम पर पैग़ाम दिया था। हालाँकि उनके घर में पहले से कई बीवियाँ मौजूद थीं। (अहकामुल-क़ुरआन) कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवालों ने भी यही राय ज़ाहिर की है। लेकिन यह बात क़ुरआन के बयान से पूरी तरह मेल नहीं खाती। क़ुरआन मजीद में मुक़द्दमा पेश करनेवाले के जो अलफ़ाज़ नक़्ल हुए हैं वे ये हैं, “मेरे पास बस एक ही दुंबी है और यह कहता है कि इसे मेरे हवाले कर दे।” यही बात हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने भी अपने फ़ैसले में कही, “उसने तेरी दुंबी माँगने में तुझपर ज़ुल्म किया।” यह मिसाल हज़रत दाऊद (अलैहि०) और ऊरिय्याह के मामले पर इसी सूरत में चस्पाँ हो सकती है जबकि वह औरत उस आदमी की बीवी हो। पैग़ाम पर पैग़ाम देने का मामला होता तो फिर मिसाल यूँ होती कि “मैं एक दुंबी लेना चाहता था और इसने कहा कि यह भी मेरे लिए छोड़ दे।”
क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी अहकामुल-क़ुरआन में इस मसले पर तफ़सीली बहस करते हुए लिखते हैं, “अस्ल वाक़िआ बस यह है कि हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने अपने आदमियों में से एक आदमी से कहा कि मेरे लिए अपनी बीवी छोड़ दे और संजीदगी के साथ यह माँग की..... क़ुरआन में यह बात नहीं है कि उस आदमी ने उनकी इस माँग पर अपनी बीवी को छोड़ दिया और हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने उस औरत से इसके बाद शादी कर ली और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) उसी के पेट से पैदा हुए ...... जिस बात पर मलामत की गई वह इसके सिवा कुछ न थी कि उन्होंने एक औरत के शौहर से यह चाहा कि वह उनकी ख़ातिर उसे छोड़ दे ..... यह काम चाहे अपनी जगह जाइज़ ही हो मगर नुबूवत (पैग़म्बरी) के मंसब से मेल नहीं खाता था, इसी लिए उनकी मलामत भी की गई और उनको नसीहत भी की गई।” यही तफ़सीर उस मौक़ा-महल से भी मेल खाती है जिसमें यह क़िस्सा बयान किया गया है। बात के सिलसिले पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ मालूम होती है कि क़ुरआन मजीद में इस जगह पर यह क़िस्सा दो मक़सदों से बयान किया गया है। पहला मक़सद नबी (सल्ल०) को सब्र की नसीहत करना है और इस मक़सद के लिए आप (सल्ल०) को मुख़ातब (सम्बोधित) करके कहा गया है कि “जो बातें ये लोग तुमपर बनाते हैं उनपर सब्र करो और हमारे बन्दे दाऊद को याद करो।” यानी तुम्हें तो जादूगर और झूठा ही कहा जा रहा है, लेकिन हमारे बन्दे दाऊद पर ज़ालिमों ने बदकारी और साज़िशी क़त्ल तक के इलज़ाम लगा दिए। लिहाज़ा इन लोगों से जो कुछ भी तुमको सुनना पड़े उसे बरदाश्त करते रहो। दूसरी ग़रज़ कि ईमान न लानेवालों को यह बताना है कि तुम लोग हर पूछ-गछ से बेख़र होकर दुनिया में तरह-तरह की ज़्यादतियाँ करते चले जाते हो, लेकिन जिस ख़ुदा की ख़ुदाई में तुम ये हरकतें कर रहे हो वह किसी को भी हिसाब लिए बिना नहीं छोड़ता, यहाँ तक कि जो बन्दे उसके बहुत ही पसन्दीदा और क़रीबी होते हैं, वे भी अगर कहीं ज़रा-सा फिसल जाएँ तो अल्लाह तआला उनसे सख़्त पूछ-गछ करता है। इस मक़सद के लिए नबी (सल्ल०) से फ़रमाया गया कि उनके सामने हमारे बन्दे दाऊद (अलैहि०) का क़िस्सा बयान करो जो ऐसी और ऐसी ख़ूबियों का मालिक था, मगर जब उससे एक ग़लत बात हो गई तो देखो कि हमने उसे किस तरह मलामत की।
इस सिलसिले में एक ग़लतफ़हमी और बाक़ी रह जाती है, जिसे दूर कर देना ज़रूरी है। मिसाल में मुक़द्दमा पेश करनेवाले ने यह जो कहा है कि इस आदमी के पास 99 दुंबियाँ हैं और मेरे पास एक ही दुंबी है जिसे यह माँग रहा है, इससे बज़ाहिर यह गुमान होता है कि शायद हज़रत दाऊद (अलैहि०) के पास 99 बीवियाँ थीं और वह एक औरत हासिल करके 100 का आंकड़ा पूरा करना चाहते थे। लेकिन अस्ल में मिसाल के हर-हर हिस्से का हज़रत दाऊद (अलैहि०) और ऊरिय्याह हित्ती के मामले पर लफ़्ज़-लफ़्ज़ चस्पाँ होना जरूरी नहीं है। आम मुहावरे में दस, बीस, पचास वग़ैरा नम्बरों का ज़िक्र सिर्फ़ तादाद की ज़्यादती को बयान करने के लिए किया जाता है, न कि ठीक तादाद बयान करने के लिए। हम जब किसी से कहते हैं कि दस बार तुमसे फ़ुलाँ बात कह दी तो इसका मतलब यह नहीं होता कि दस बार गिनकर वह बात कही गई है, बल्कि मतलब यह होता है कि कई बार वह बात कही जा चुकी है। ऐसा ही मामला यहाँ भी है। मिसाल के तौर पर पेश होनेवाले मुक़द्दमे में वह आदमी हज़रत दाऊद (अलैहि०) को यह एहसास दिलाना चाहता था कि आपके पास कई बीवियाँ हैं और फिर भी आप दूसरे आदमी की एक बीवी हासिल करना चाहते हैं। यही बात तफ़सीर लिखनेवाले आलिम नेसाबूरी ने हज़रत हसन बसरी (रह०) से नक़्ल की है कि “हज़रत दाऊद के 99 बीवियाँ न थीं, बल्कि यह सिर्फ़ एक मिसाल है।"
(इस क़िस्से पर तफ़सीली बहस हमने अपनी किताब तफ़हीमात हिस्सा-2 में की है। जो लोग हमारे बयान किए हुए मतलब को तरजीह देने की तफ़सीली दलीलें मालूम करना चाहते हैं, वे इस किताब के पे० 29-44 देखें)।