Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الزُّمَرِ

39. अज़-ज़ुमर

(मक्‍का में उतरी, आयतें 75)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम आयत नं0 71 और 73 ("वे लोग जिन्होंने इंकार किया था, जहन्नम की ओर गिरोह के गिरोह (ज़ुमरा) हाँके जाएँगे" और "जो लोग अपने रब की अवज्ञा से बचते थे, उन्हें गिरोह के गिरोह (ज़ुमरा) जन्नत की ओर ले जाया जाएगा।") से लिया गया है। मतलब यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द 'ज़ुमर' आया है।

उतरने का समय

आयत नं0 10 (और अल्लाह की धरती विशाल है) से इस बात की और स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह सूरा हबशा की हिजरत से पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

यह पूरी सूरा एक उत्तम और अति प्रभावकारी अभिभाषण है जो हबशा की हिजरत से कुछ पहले मक्का-मुअज़्ज़मा के अत्याचार और हिंसा से परिपूर्ण वातावरण में दिया गया था। इसका सम्बोधन अधिकतर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों से है, यद्यपि कहीं-कहीं ईमानवालों को भी सम्बोधित किया गया है। इसमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सन्देश की दावत का मूल उद्देश्य बताया गया है और वह यह है कि इंसान अल्लाह की ख़ालिस (विशुद्ध) बन्दगी अपनाए और किसी दूसरे के आज्ञापालन और इबादत से अपनी ख़ुदापरस्ती को दूषित न करे। इस बुनियादी बात को बार-बार अलग-अलग ढंग से पेश करते हुए बहुत ही ज़ोरदार तरीक़े से तौहीद (एकेश्वरवाद) का सत्य होना और उसे मानने के अच्छे नतीजे, और शिर्क (बहुदेववाद) की ग़लती और उसपर जमे रहने के बुरे नतीजों को स्पष्ट किया गया है और लोगों को दावत दी गई है कि वे अपने ग़लत रवैये को छोड़कर अपने रब की दयालुता की ओर पलट आएँ। इस सिलसिले में ईमानवालों को निर्देश दिया गया है कि अगर अल्लाह की बन्दगी के लिए एक जगह तंग हो गई है तो उसकी धरती फैली हुई है, अपना दीन बचाने के लिए किसी और तरफ़ निकल खड़े हो, अल्लाह तुम्हारे धैर्य का बदला देगा। दूसरी ओर नबी (सल्ल०) से कहा गया है कि इन इस्लाम-विरोधियों को इस ओर से बिल्कुल निराश कर दो कि उनका अत्याचार कभी तुमको इस राह से फेर सकेगा।

---------------------

سُورَةُ الزُّمَرِ
39. अज़-जुमर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ
(1) इस किताब का उतरना अल्लाह ज़बरदस्त और हिकमतवाले की तरफ़ से है।1
إِنَّآ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ فَٱعۡبُدِ ٱللَّهَ مُخۡلِصٗا لَّهُ ٱلدِّينَ ۝ 1
(2) (ऐ नबी) यह किताब हमने तुम्हारी तरफ़ हक़ के साथ उतारी है,2 इसलिए तुम अल्लाह ही की बन्दगी करो, दीन को उसी के लिए ख़ालिस करते हुए।3
2. यानी इसमें जो कुछ है हक़ और सच्चाई है, झूठ की कोई मिलावट इसमें नहीं है।
3. यह एक बहुत अहम आयत है जिसमें इस्लामी दावत के अस्ल मक़सद को बयान किया गया है, इसलिए इसपर से सरसरी तौर पर न गुज़र जाना चाहिए, बल्कि इसके मतलब और मक़सद को अच्छी तरह समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बुनियादी पहलू दो हैं, जिन्हें समझे बिना आयत का मतलब नहीं समझा जा सकता। एक यह कि माँग अल्लाह की इबादत करने की है। दूसरा यह कि ऐसी इबादत की माँग है जो दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करते हुए की जाए। इबादत का माद्दा (मूल-तत्त्व) 'अब्द' है और यह लफ़्ज़ 'आज़ाद' के मुक़ाबले में 'ग़ुलाम' और 'मिलकियत' के लिए अरबी ज़बान में इस्तेमाल होता है। इसी मानी के लिहाज़ से 'इबादत' में दो मतलब पैदा हुए हैं। एक पूजा और परस्तिश, जैसा कि अरबी ज़बान की मशहूर और भरोसेमन्द लुग़त (शब्दकोश) 'लिसानुल-अरब' में है। दूसरे आजिज़ाना (विनम्रतापूर्वक) और अपनी मरज़ी और ख़ुशी से फ़रमाँबरदारी, जैसा कि लिसानुल-अरब में है। इसलिए लुग़त के मुताबिक़ माँग सिर्फ़ अल्लाह तआला की पूजा और परस्तिश ही की नहीं है, बल्कि उसके हुक्मों को बिना ना-नुकुर किए पूरा करना और उसके शरई क़ानून की ख़ुशी और दिल के लगाव के साथ पैरवी और जिन कामों का उसने हुक्म दिया है और जिन कामों से उसने रोका है, उनकी दिलो-जान से फ़रमाँबरदारी करना भी है। दीन का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में कई मतलब रखता है— एक मतलब है ग़लबा और इक़तिदार (सत्ता), मालिकाना और हाकिमाना अधिकार, सियासत और हुकूमत और दूसरों पर फ़ैसला लागू करना। (देखें,लिसानुल-अरब) दूसरा मतलब है हुक्म मानना, फ़रमाँबरदारी और ग़ुलामी। (देखें, लिसानुल-अरब) तीसरा मतलब है वह आदत और तरीक़ा जिसकी इनसान पैरवी करे। (देखें, लिसानुल-अरब) इन तीनों मतलबों को ध्यान में रखते हुए दीन का मतलब इस आयत में अमल का वह तरीक़ा और वह रवैया है, “जो किसी को अपने से ऊपर मानकर और किसी की फ़रमाँबरदारी क़ुबूल करके इनसान अपनाए।” और दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसकी बन्दगी करने का मतलब यह है कि “आदमी अल्लाह की बन्दगी के साथ किसी दूसरे की बन्दगी शामिल न करे, बल्कि उसी की परस्तिश करे, उसी की हिदायत की पैरवी करे और उसी के हुक्मों को माने।"
أَلَا لِلَّهِ ٱلدِّينُ ٱلۡخَالِصُۚ وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ مَا نَعۡبُدُهُمۡ إِلَّا لِيُقَرِّبُونَآ إِلَى ٱللَّهِ زُلۡفَىٰٓ إِنَّ ٱللَّهَ يَحۡكُمُ بَيۡنَهُمۡ فِي مَا هُمۡ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي مَنۡ هُوَ كَٰذِبٞ كَفَّارٞ ۝ 2
(3) ख़बरदार! दीन ख़ालिस अल्लाह का हक़ है।4 रहे वे लोग जिन्होंने उसके सिवा दूसरे सरपरस्त बना रखे हैं (और अपनी इस हरकत की वजह ये बयान करते हैं कि) हम तो उनकी इबादत सिर्फ़ इसलिए करते हैं कि वे अल्लाह तक हमारी पहुँच करा दें,5 अल्लाह यक़ीनन उनके बीच उन तमाम बातों का फ़ैसला कर देगा जिनमें वे इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं।6 अल्लाह किसी ऐसे शख़्स को हिदायत नहीं देता जो झूठा और हक़ का इनकार करनेवाला हो।7
4. यह एक सच्चाई और एक हक़ीक़त है कि जिसे ऊपर की माँग के लिए दलील के तौर पर पेश किया गया है। मतलब यह है कि अल्लाह के लिए दीन को ख़ालिस करके उसकी बन्दगी तुमको करनी चाहिए, क्योंकि ख़ालिस और मिलावट से पाक फ़रमाबरदारी और बन्दगी अल्लाह का हक़ है। दूसरे अलफ़ाज़ में बन्दगी का हक़दार कोई दूसरा है ही नहीं कि अल्लाह के साथ उसकी भी परस्तिश की जाए और उसके हुक्मों और क़ानूनों को माना जाए। अगर कोई शख़्स अल्लाह के सिवा किसी और की ख़ालिस और मिलावट से पाक बन्दगी करता है तो ग़लत करता है। और इसी तरह अगर वह अल्लाह की बन्दगी के साथ दूसरे की बन्दगी भी मिला लेता है तो यह भी हक़ के सरासर ख़िलाफ़ है। इस आयत की बेहतरीन तशरीह वह हदीस है जो इब्ने-मरदुवैह ने यज़ीदुर-रक़्क़ाशी से नक़्ल की है। वे कहते हैं कि एक शख़्स ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “हम अपना माल देते हैं, इसलिए कि हमारा नाम बुलन्द हो। क्या इसपर हमें कोई बदला मिलेगा?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं!” उसने पूछा, "अगर अल्लाह के बदले और दुनिया की नामवरी दोनों की नीयत हो?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तआला कोई अमल भी क़ुबूल नहीं करता जब तक वह ख़ालिस उसी के लिए न हो।” इसके बाद नबी (सल्ल०) ने यही आयत पढ़ी।
5. मक्का के ग़ैर-मुस्लिम कहते थे और आम तौर पर दुनिया भर के मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) लोग यही कहते हैं कि हम दूसरी हस्तियों की इबादत उनको पैदा करनेवाला (स्रष्टा) समझते हुए नहीं करते। पैदा करनेवाला तो हम अल्लाह ही को मानते हैं और अस्ल माबूद उसी को समझते हैं। लेकिन उसका दरबार बहुत ऊँचा है जिस तक हमारी पहुँच भला कहाँ हो सकती है। इसलिए हम इन बुज़ुर्ग हस्तियों को ज़रिआ बनाते हैं, ताकि ये हमारी दुआएँ और दरख़ास्तें अल्लाह तक पहुँचा दें।
6. यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सारे लोगों का एक राय होना और एकता सिर्फ़ तौहीद (एकेश्वरवाद) ही में मुमकिन है। शिर्क में यह मुमकिन नहीं है कि सब लोग एक राय हो जाएँ। दुनिया के मुशरिक कभी इसपर एकराय नहीं हुए हैं कि अल्लाह के यहाँ पहुँच का ज़रिआ आख़िर कौन-सी हस्तियाँ हैं। किसी के नज़दीक कुछ देवता और देवियाँ इसका ज़रिआ हैं और उनके बीच भी सब देवताओं और देवियों पर एक राय नहीं है। किसी के नज़दीक चाँद, सूरज, मिर्रीख़ (मंगल), मुश्तरी (वृहस्पति) इसका ज़रिआ हैं और वे भी आपस में इसपर एकराय नहीं हैं कि इनमें से किसका क्या मक़ाम है और कौन अल्लाह तक पहुँचने का ज़रिआ है। किसी के नज़दीक मर चुकीं बुज़ुर्ग हस्तियाँ इसका ज़रिआ हैं और उनके बीच भी अनगिनत इख़्तिलाफ़ हैं। कोई किसी बुज़ुर्ग को मान रहा है और कोई किसी और को। इसकी वजह यह है कि इन अलग-अलग हस्तियों के बारे में इस गुमान की बुनियाद न तो किसी इल्म पर है और न अल्लाह तआला की तरफ़ से कभी कोई ऐसी लिस्ट आई है कि फ़ुलाँ-फ़ुलाँ लोग हमारे ख़ास क़रीबी हैं, लिहाज़ा हम तक पहुँचने के लिए तुम इनको ज़रिआ बनाओ। यह तो एक ऐसा अक़ीदा है जो सिर्फ़ वहम और अन्धी अक़ीदत और बुज़ुर्गों की बे-सोचे-समझे पैरवी से लोगों में फैल गया है। इसलिए लाज़िमन इसमें इख़्तिलाफ़ तो होना ही है।
7. यहाँ अल्लाह तआला ने इन लोगों के लिए दो अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं। एक 'काज़िब’ दूसरे 'कफ़्फ़ार'। 'काज़िब' (झूठा) उनको इसलिए कहा गया कि उन्होंने अपनी तरफ़ से झूठ-मूठ यह अक़ीदा गढ़ लिया है और फिर यही झूठ वे दूसरों में फैलाते हैं। रहा 'कफ़्फ़ार', तो इसके दो मतलब हैं। एक हक़ का सख़्त इनकारी, यानी तौहीद की तालीम सामने आ जाने के बाद भी ये लोग इस ग़लत अक़ीदे पर अड़े हैं। दूसरे, नेमतों की नाशुक्री करनेवाला, यानी नेमतें तो ये लोग अल्लाह से पा रहे हैं और शुक्रिए उन हस्तियों के अदा कर रहे हैं जिनके बारे में इन्होंने अपनी जगह यह मान लिया है कि ये नेमतें इनकी दख़लअन्दाज़ी की वजह से मिल रही हैं।
لَّوۡ أَرَادَ ٱللَّهُ أَن يَتَّخِذَ وَلَدٗا لَّٱصۡطَفَىٰ مِمَّا يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ سُبۡحَٰنَهُۥۖ هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 3
(4) अगर अल्लाह किसी को बेटा बनाना चाहता तो अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) में से जिसको चाहता चुन लेता,8 पाक है वह इससे (कि कोई उसका बेटा हो), वह अल्लाह है अकेला सबपर हावी।9
8. यानी अल्लाह का बेटा होना तो सिरे से ही नामुमकिन है। मुमकिन अगर कोई चीज़ है तो वह सिर्फ़ यह है कि किसी बन्दे को अल्लाह अपने लिए चुन ले। और जिसको भी वह चुनेगा, वह हर हाल में मख़्लूक़ (सृष्टि) में से ही कोई होगा, क्योंकि अल्लाह के सिवा दुनिया में जो भी है उसका पैदा किया हुआ है। अब यह ज़ाहिर है कि मख़लूक़ चाहे कितनी ही क़रीबी हो जाए, औलाद की हैसियत नहीं पा सकती, क्योंकि ख़ालिक़ (स्रष्टा) और मख़लूक़ (पैदा किया हुआ) में बहुत बड़ा बुनियादी फ़र्क़ है और बेटा होना लाज़िमी तौर से बाप और औलाद में बुनियादी एकता का तक़ाज़ा करता है। इसके साथ यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि “अगर अल्लाह किसी को बेटा बनाना चाहता तो ऐसा करता” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं जिनसे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब पर निकलता है कि अल्लाह ने ऐसा करना कभी नहीं चाहा। बयान के इस अन्दाज़ का मक़सद यह बात ज़ेहन में बिठाना है कि किसी को बेटा बना लेना तो एक तरफ़, अल्लाह ने तो ऐसा करने का कभी इरादा भी नहीं किया है।
9. ये दलीलें हैं जिनसे ख़ुदा का बेटा होने के अक़ीदे का रद्द किया गया है। पहली दलील यह है कि अल्लाह तआला हर ख़राबी और बुराई और कमज़ोरी से पाक है। और ज़ाहिर है कि औलाद की ज़रूरत उसको हुआ करती है जिसके अन्दर कोई कमी हो और जो कमज़ोर हो। जो आदमी मिट जानेवाला होता है, वही इसका मुहताज होता है कि उसके यहाँ कोई औलाद हो, ताकि उसकी नस्ल और जाति बाक़ी रहे और किसी को बेटा भी वही शख़्स बनाता है जो या तो लावारिस होने की वजह से किसी को वारिस बनाने की ज़रूरत महसूस करता है, या मुहब्बत के जज़्बे के असर में आकर किसी को बेटा बना लेता है। ये इनसानी कमज़ोरियाँ अल्लाह की तरफ़ जोड़ना और इनकी बुनियाद पर मज़हबी अक़ीदे बना लेना जहालत और कम-निगाही के सिवा और क्या है। दूसरी दलील यह है कि वह अकेला अपनी हस्ती में एक है, किसी जिंस (जाति) का फ़र्द नहीं है। और ज़ाहिर है कि औलाद लाज़िमन हमजिंस हुआ करती है। इसके अलावा यह बात भी है कि औलाद का कोई तसव्वुर जोड़े के बिना नहीं हो सकता और जोड़ा भी हमजिंस (सहजाति) से ही हो सकता है। लिहाज़ा वह शख़्स सख़्त जाहिल और नादान है जो उस अकेली और बेमिसाल हस्ती के लिए औलाद की बात कहता है। तीसरी दलील यह है कि वह क़ह्हार (पूरा ज़ोर रखनेवाला) है। यानी दुनिया में जो चीज़ भी है उसके बस में और उसकी ज़बरदस्त पकड़ में जकड़ी हुई है। इस कायनात में कोई किसी दरजे में भी उससे कोई मुशाबहत (यकसानियत) नहीं रखता जिसकी बुनियाद पर उसके बारे में यह गुमान किया जा सकता हो कि अल्लाह तआला से उसका कोई रिश्ता है।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ يُكَوِّرُ ٱلَّيۡلَ عَلَى ٱلنَّهَارِ وَيُكَوِّرُ ٱلنَّهَارَ عَلَى ٱلَّيۡلِۖ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِي لِأَجَلٖ مُّسَمًّىۗ أَلَا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡغَفَّٰرُ ۝ 4
(5) उसने आसमानों और ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है।10 वही दिन पर रात और रात पर दिन को लपेटता है। उसी ने सूरज और चाँद को इस तरह ख़िदमत में लगा रखा है कि हर एक, एक तयशुदा वक़्त तक चले जा रहा है। जान रखो, वह ज़बरदस्त है और माफ़ करनेवाला है।11
10. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-26; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-6; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-75।
11. यानी ज़बरदस्त ऐसा कि अगर वह तुम्हें अज़ाब देना चाहे तो कोई ताक़त उसे रोक नहीं सकती। मगर यह उसकी मेहरबानी है कि तुम ये कुछ गुस्ताख़ियाँ कर रहे हो और फिर भी वह तुमको फ़ौरन पकड़ नहीं लेता, बल्कि मुहलत-पर-मुहलत दिए जाता है। इस जगह पर सज़ा देने में जल्दी न करने और मुहलत देने को मग़फ़िरत (अनदेखा करना) कहा गया है।
خَلَقَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ ثُمَّ جَعَلَ مِنۡهَا زَوۡجَهَا وَأَنزَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ ثَمَٰنِيَةَ أَزۡوَٰجٖۚ يَخۡلُقُكُمۡ فِي بُطُونِ أُمَّهَٰتِكُمۡ خَلۡقٗا مِّنۢ بَعۡدِ خَلۡقٖ فِي ظُلُمَٰتٖ ثَلَٰثٖۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡ لَهُ ٱلۡمُلۡكُۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَأَنَّىٰ تُصۡرَفُونَ ۝ 5
(6) उसी ने तुमको एक जान से पैदा किया, फिर वही है जिसने उस जान से उसका जोड़ा बनाया।12 और उसी ने तुम्हारे लिए मवेशियों में से आठ नर-मादा पैदा किए।13 वह तुम्हारी माओं के पेटों में तीन-तीन अंधेरे परदों के अन्दर तुम्हें एक के बाद एक शक्ल देता चला जाता है।14 यही अल्लाह (जिसके ये काम हैं) तुम्हारा रब है,15 बादशाही उसी की है,16 कोई माबूद (पूज्य) उसके सिवा नहीं है,17 फिर तुम किधर से फिराए जा रहे हो?18
12. यह मतलब नहीं है कि पहले हज़रत आदम (अलैहि०) से इनसानों को पैदा कर दिया और फिर उनकी बीवी हज़रत हव्वा को पैदा किया, बल्कि यहाँ बात में ज़माने की तरतीब (क्रम) के बजाय बयान की तरतीब है जिसकी मिसालें हर ज़बान में पाई जाती हैं। मसलन हम कहते हैं, तुमने आज जो कुछ किया, मुझे मालूम है, फिर जो कुछ तुम कल कर चुके हो, उससे भी मैं बाख़बर हूँ। इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि कल का वाक़िआ आज के बाद हुआ है।
13. मवेशी से मुराद हैं ऊँट, गाय, भेड़ और बकरी। इनके चार नर और चार मादा मिलकर आठ नर-मादा होते हैं।
14. तीन परदों से मुराद है पेट, रहम (गर्भाशय) और मशीमा (वह झिल्ली जिसमें बच्चा लिपटा हुआ होता है)।
15. यानी मालिक, हाकिम और पालनहार।
16. यानी तमाम अधिकारों का मालिक वही है और सारी कायनात में उसी का हुक्म चल रहा है।
17. दूसरे अलफ़ाज़ में दलील यह है कि जब वही तुम्हारा रब है और उसी की सारी बादशाही है तो फिर लाज़िमन तुम्हारा इलाह (माबूद) भी वही है। दूसरा कोई इलाह कैसे हो सकता है, जबकि न पालनहार होने में उसका कोई हिस्सा, न बादशाही में उसका कोई दख़ल। आख़िर तुम्हारी अक़्ल में यह बात कैसे समाती है कि ज़मीन और आसमान का पैदा करनेवाला तो हो अल्लाह, सूरज और चाँद को ख़िदमत में लगानेवाला और रात के बाद दिन और दिन के बाद रात लानेवाला भी हो अल्लाह, तुम्हारा अपना और तमाम जानदारों का पैदा करनेवाला और पालनेवाला भी हो अल्लाह और तुम्हारे माबूद बन जाएँ उसके सिवा दूसरे।
18. ये अलफ़ाज़ ध्यान देने के लायक़ हैं। यह नहीं फ़रमाया कि तुम किधर फिरे जा रहे हो। कहा गया है कि तुम किधर से फिराए जा रहे हो। यानी कोई दूसरा है जो तुमको उलटी पट्टी पढ़ा जा रहा है और तुम उसके बहकावे में आकर ऐसी सीधी-सी अक़्ल की बात भी नहीं समझ रहे हो। दूसरी बात जो इस अन्दाज़े बयान से ख़ुद ज़ाहिर हो रही है वह यह है कि 'तुम' का लफ़्ज़ फिरानेवालों से नहीं, बल्कि उन लोगों से कहा गया है जो उनके असर में आकर फिर रहे थे। इसमें एक बारीक पहलू है जो ज़रा-से सोच-विचार से आसानी के साथ समझ में आ जाता है। फिरानेवाले उसी समाज में सबके सामने मौजूद थे और हर तरफ़ अपना काम खुल्लम-खुल्ला कर रहे थे, इसलिए उनका नाम लेने की ज़रूरत न थी। उनसे कुछ कहना ही बेकार था, क्योंकि वे अपने मतलब के लिए लोगों को एक ख़ुदा की बन्दगी से फेरने और दूसरों की बन्दगी में फाँसने और फाँसे रखने की कोशिशें कर रहे थे। ऐसे लोग ज़ाहिर है कि समझाने से समझनेवाले न थे, क्योंकि न समझने ही से उनका फ़ायदा जुड़ा था और समझने के बाद भी वे अपने फ़ायदे को क़ुरबान करने के लिए मुश्किल ही से तैयार हो सकते थे। अलबत्ता रहम के क़ाबिल उन आम लोगों की हालत थी जो उनके झाँसे में आ रहे थे। उनका कोई मतलब इस कारोबार से जुड़ा न था, इसलिए वे समझाने से समझ सकते थे और ज़रा-सी आँखें खुल जाने के बाद वे यह भी देख सकते थे कि जो लोग उन्हें ख़ुदा के आस्ताने से हटाकर दूसरे आस्तानों का रास्ता दिखाते हैं, वे अपने इस कारोबार का फ़ायदा क्या उठाते हैं। यही वजह है कि गुमराह करनेवाले कुछ आदमियों से मुँह फेरकर गुमराह होनेवाले आम लोगों से कहा जा रहा है।
إِن تَكۡفُرُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنكُمۡۖ وَلَا يَرۡضَىٰ لِعِبَادِهِ ٱلۡكُفۡرَۖ وَإِن تَشۡكُرُواْ يَرۡضَهُ لَكُمۡۗ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُم مَّرۡجِعُكُمۡ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 6
(7) अगर तुम कुफ़्र (अल्लाह का इनकार औरउसकी नाशुक्री) करो तो अल्लाह तुमसे बेनियाज़ (बेपरवाह) है।19 लेकिन वह अपने बन्दों के लिए कुफ़्र को पसन्द नहीं करता,20 और अगर तुम शुक्र करो तो इसे वह तुम्हारे लिए पसन्द करता है।21 कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा।22 आख़िरकार तुम सबको अपने रब की तरफ़ पलटना है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो, वह तो दिलों का हाल तक जानता है।
19. यानी तुम्हारे कुफ़्र (इनकार) से उसकी ख़ुदाई में ज़र्रा बराबर भी कमी नहीं आ सकती। तुम मानोगे तब भी वह ख़ुदा है और न मानोगे तब भी वह ख़ुदा है और रहेगा। उसकी हुकूमत अपने ज़ोर पर चल रही है, तुम्हारे मानने या न मानने से इसमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ सकता। हदीस में नबी (सल्ल०) का कहना है कि अल्लाह तआला फ़रमाता है, “ऐ मेरे बन्दो, अगर तुम सब-के-सब अगले और पिछले, इनसान और जिन्न अपने में से किसी नाफ़रमान-से-नाफ़रमान शख़्स के दिल की तरह हो जाओ तब भी मेरी बादशाही में कुछ भी कमी न होगी।" (हदीस : मुस्लिम)
20. यानी वे अपने किसी मतलब और फ़ायदे की ख़ातिर नहीं, बल्कि ख़ुद बन्दों के फ़ायदे के लिए यह पसन्द नहीं करता कि वे कुफ़्र (इनकार और नाशुक्री) करें, क्योंकि कुफ़्र ख़ुद उन्हीं के लिए नुक़सानदेह है। यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अल्लाह तआला की मशीयत (मरज़ी) और चीज़ है और रिज़ा (ख़ुशी) दूसरी चीज़। दुनिया में कोई काम भी अल्लाह की मशीयत (मरज़ी) के ख़िलाफ़ नहीं हो सकता, मगर उसकी रिज़ा (ख़ुशी) के ख़िलाफ़ बहुत-से काम हो सकते हैं और रात-दिन होते रहते हैं। मिसाल के तौर पर दुनिया में जब्बारों (दमनकारियों) और ज़ालिमों का हुक्मराँ होना, चोरों और डाकुओं का पाया जाना, क़ातिलों और बदकारों का मौजूद होना इसी लिए मुमकिन है कि अल्लाह तआला ने अपने बनाए हुए क़ुदरत के निज़ाम में इन बुराइयों के ज़ाहिर होने और इन शरारतियों के वुजूद की गुंजाइश रखी है। फिर उनको बुराई करने के मौक़े भी वही देता है और उसी तरह देता है जिस तरह नेकी करनेवालों को नेकी के मौक़े देता है। अगर वह सिरे से इन कामों की गुंजाइश ही न रखता और उनके करनेवालों को मौक़ा ही न देता तो दुनिया में कभी कोई बुराई ज़ाहिर न होती। यह सब कुछ ख़ुदा की मशीयत की वजह से है। लेकिन मशीयत के तहत किसी काम का होना यह मतलब नहीं रखता कि अल्लाह की रिज़ा (ख़ुशी) भी उसको हासिल है। मिसाल के तौर पर इस बात को यूँ समझिए कि एक आदमी अगर हरामख़ोरी ही के ज़रिए से अपनी रोज़ी हासिल करने की कोशिश करता है तो अल्लाह उसी के ज़रिए से उसको रोज़ी दे देता है। यह है उसकी मशीयत। मगर मशीयत के तहत चोर या डाकू या रिश्वत खानेवाले को रोज़ी देने का यह मतलब नहीं है कि चोरी, डाके और रिश्वत को अल्लाह पसन्द भी करता है। यही बात अल्लाह तआला यहाँ फ़रमा रहा है कि तुम कुछ करना चाहो तो करो, हम तुम्हें ज़बरदस्ती इससे रोककर ईमानवाला नहीं बनाएँगे। मगर हमें यह पसन्द नहीं है कि तुम बन्दे होकर अपने पैदा करनेवाले और पालनेवाले से कुफ़्र करो, क्योंकि ये तुम्हारे ही लिए नुक़सानदेह है, हमारी ख़ुदाई का इससे कुछ भी नहीं बिगड़ता।
21. कुफ़्र (इनकार) के मुक़ाबले में यहाँ ईमान के बजाय शुक्र का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर होती है कि कुफ़्र हक़ीक़त में एहसान भुला देना और नमकहरामी है और ईमान हक़ीक़त में शुक्रगुज़ारी का लाज़िमी तक़ाज़ा है। जिस शख़्स में अल्लाह तआला के एहसानों का कुछ भी एहसास हो वह ईमान के सिवा कोई दूसरी राह अपना ही नहीं सकता। इसलिए शुक्र और ईमान एक-दूसरे के लिए इस तरह ज़रूरी हैं कि जहाँ शुक्र होगा वहाँ ईमान ज़रूर होगा। और इसके बरख़िलाफ़ जहाँ कुफ़्र होगा वहाँ शुक्र का सिरे से कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि कुफ़्र के साथ शुक्र का कोई मतलब नहीं है।
22. मतलब यह है कि तुममें से हर शख़्स अपने आमाल का ख़ुद ज़िम्मेदार है। कोई शख़्स अगर दूसरों को राज़ी रखने के लिए, या उनकी नाराज़ी से बचने की ख़ातिर कुफ़्र करेगा तो वे दूसरे लोग उसके कुफ़्र का बोझ अपने ऊपर नहीं उठा लेंगे, बल्कि उसे आप ही अपने गुनाह की सज़ा भुगतने के लिए छोड़ देंगे। लिहाज़ा जिसपर भी कुफ़्र का ग़लत और ईमान का सही होना वाज़ेह हो जाए, उसको चाहिए कि ग़लत रवैया छोड़कर सही रवैया अपना ले और अपने ख़ानदान या बिरादरी या क़ौम के साथ लगकर अपने आपको ख़ुदा के अज़ाब का हक़दार न बनाए।
۞وَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ضُرّٞ دَعَا رَبَّهُۥ مُنِيبًا إِلَيۡهِ ثُمَّ إِذَا خَوَّلَهُۥ نِعۡمَةٗ مِّنۡهُ نَسِيَ مَا كَانَ يَدۡعُوٓاْ إِلَيۡهِ مِن قَبۡلُ وَجَعَلَ لِلَّهِ أَندَادٗا لِّيُضِلَّ عَن سَبِيلِهِۦۚ قُلۡ تَمَتَّعۡ بِكُفۡرِكَ قَلِيلًا إِنَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِ ۝ 7
(8) इनसान पर जब कोई आफ़त आती है23 तो वह अपने रब की तरफ़ पलटकर उसे पुकारता है।24 फिर जब उसका रब उसे अपनी नेमत से नवाज़ देता है तो वह उस मुसीबत को भूल जाता है, जिसपर वह पहले पुकार रहा था25 और दूसरों को अल्लाह के बराबर ठहराता है26 ताकि उसकी राह से गुमराह करे।27 (ऐ नबी) उससे कहो कि थोड़े दिन अपने कुफ़्र से मज़े ले ले, यक़ीनन तू जहन्नम में जानेवाला है।
23. इनसान से मुराद यहाँ वह ग़ैर-मुस्लिम इनसान है जिसने नाशुक्री का रवैया अपना रखा हो।
24. यानी उस वक़्त उसे वे दूसरे माबूद याद नहीं आते जिन्हें वह अपने अच्छे हाल में पुकारा न करता था, बल्कि उन सबसे मायूस होकर वह सिर्फ़ सारे जहान के रब अल्लाह की तरफ़ रुजू करता है। यह मानो इस बात का सुबूत है कि वह अपने दिल की गहराइयों में दूसरे माबूदों के बेबस होने का एहसास रखता है और इस हक़ीक़त का एहसास भी उसके ज़ेहन में कहीं-न-कहीं दबा-छिपा मौजूद है कि अस्ल अधिकारों का मालिक अल्लाह ही है।
25. यानी वह बुरा वक़्त फिर उसे याद नहीं रहता जिसमें वह तमाम दूसरे माबूदों को छोड़कर सिर्फ़ एक अल्लाह से, जिसका कोई शरीक नहीं, दुआएँ माँग रहा था।
26. यानी फिर दूसरों की बन्दगी करने लगता है। उन्हीं का हुक्म मानता है, उन्हीं से दुआएँ माँगता है और उन्हीं के आगे मन्नतें माँगना और चढ़ावे चढ़ाना शुरू कर देता है।
27. यानी ख़ुद गुमराह होने पर बस नहीं करता, बल्कि दूसरों को भी यह कह कहकर गुमराह करता है कि जो आफ़त मुझपर आई थी, वह फ़ुलाँ हज़रत या फ़ुलाँ बुज़ुर्ग या फ़ुलाँ देवी-देवता की वजह से टल गई। इससे दूसरे बहुत-से लोग भी अल्लाह के बजाय इन माबूदों को माननेवाले बन जाते हैं और हर जाहिल अपने इसी तरह के तजरिबे बयान कर-करके आम लोगों की इस गुमराही को बढ़ाता चला जाता है।
أَمَّنۡ هُوَ قَٰنِتٌ ءَانَآءَ ٱلَّيۡلِ سَاجِدٗا وَقَآئِمٗا يَحۡذَرُ ٱلۡأٓخِرَةَ وَيَرۡجُواْ رَحۡمَةَ رَبِّهِۦۗ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلَّذِينَ يَعۡلَمُونَ وَٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَۗ إِنَّمَا يَتَذَكَّرُ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 8
(9) (क्या इस आदमी का रवैया बेहतर है या उस आदमी का) जो हुक्म माननेवाला है, रात की घड़ियों में खड़ा रहता और सजदे करता है, आख़िरत से डरता और अपने रब की रहमत से उम्मीद लगाता है? इनसे पूछो : क्या जाननेवाले और न जाननेवाले दोनों कभी बराबर हो सकते हैं?28 नसीहत तो अक़्ल रखनेवाले ही क़ुबूल करते हैं।
28. वाज़ेह रहे कि यहाँ मुक़ाबला दो तरह के इनसानों के बीच किया जा रहा है। एक वे जो कोई बड़ी आफ़त आ पड़ने पर तो अल्लाह की तरफ़ पलटते हैं और आम हालात में अल्लाह के अलावा दूसरों की बन्दगी करते रहते हैं। दूसरे वे जिन्होंने अल्लाह की फ़रमाँबरदारी और उसकी बन्दगी और परस्तिश को अपना मुस्तक़िल (स्थायी) तरीक़ा बना लिया है और रातों की तन्हाई में उनका इबादत करना उनके मुख़लिस (निष्ठावान) होने की दलील है। इनमें से पहले गरोहवालों को अल्लाह तआला बे-इल्म ठहराता है, चाहे उन्होंने बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियाँ ही क्यों न चाट रखी हों और दूसरे गरोहवालों को वह आलिम (ज्ञानी) कहता है, चाहे वे बिलकुल ही अनपढ़ क्यों न हों, क्योंकि अस्ल चीज़ हक़ीक़त का इल्म और उसके मुताबिक़ अमल है और इसी पर इनसान की कामयाबी का दारोमदार है। अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ये दोनों आख्रिर बराबर कैसे हो सकते हैं। कैसे मुमकिन है कि दुनिया में ये मिलकर अलग-अलग तरीक़े पर चलें और आख़िरत में दोनों एक ही तरह के अंजाम से दोचार हों?
قُلۡ يَٰعِبَادِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمۡۚ لِلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا حَسَنَةٞۗ وَأَرۡضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةٌۗ إِنَّمَا يُوَفَّى ٱلصَّٰبِرُونَ أَجۡرَهُم بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 9
(10) (ऐ नबी) कहो, ऐ मेरे बन्दो जो ईमान लाए हो, अपने रब से डरो।29 जिन लोगों ने इस दुनिया में अच्छा रवैया अपनाया है, उनके लिए भलाई है।30 और ख़ुदा की ज़मीन कुशादा (विशाल) है,31 सब्र करनेवालों को तो उनका बदला बेहिसाब दिया जाएगा।32
29. यानी सिर्फ़ मानकर न रह जाओ बल्कि उसके साथ तक़वा (परहेज़गारी) भी अपनाओ। जिन चीज़ों का अल्लाह ने हुक्म दिया है उनपर अमल करो, जिनसे रोका है उनसे बचो और दुनिया में अल्लाह की पकड़ से डरते हुए काम करो।
30. दुनिया और आख़िरत दोनों की भलाई। उनकी दुनिया भी सुधरेगी और आख़िरत भी।
31. यानी अगर एक शहर या इलाक़ा या देश अल्लाह की बन्दगी करनेवालों के लिए तंग हो गया है तो दूसरी जगह चले जाओ, जहाँ ये मुश्किलें न हों।
32. यानी उन लोगों को जो ख़ुदापरस्ती और नेकी के रास्ते पर चलने में हर तरह की मुसीबतें और सख़्तियाँ सह लें, मगर हक़ की राह से न हटें। इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो दीन और ईमान की ख़ातिर हिजरत करके जलावतन होने की मुसीबतें बरदाश्त करें और वे भी जो ज़ुल्म की सरज़मीन में जमकर हर आफ़त का सामना करते चले जाएँ।
قُلۡ إِنِّيٓ أُمِرۡتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱللَّهَ مُخۡلِصٗا لَّهُ ٱلدِّينَ ۝ 10
(11) (ऐ नबी) इनसे कहो, मुझे हुक्म दिया गया है कि दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसकी बन्दगी करूँ,
وَأُمِرۡتُ لِأَنۡ أَكُونَ أَوَّلَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 11
(12) और मुझे हुक्म दिया गया है कि सबसे पहले मैं ख़ुद फ़रमाँबरदार (मुस्लिम) बनूँ।33
33. यानी मेरा काम सिर्फ़ दूसरों से कहना ही नहीं है, ख़ुद करके दिखाना भी है। जिस राह पर लोगों को बुलाता हूँ उसपर सबसे पहले मैं ख़ुद चलता हूँ।
قُلۡ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 12
(13) कहो, अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूँ तो मुझे एक बड़े दिन के अज़ाब का डर है।
قُلِ ٱللَّهَ أَعۡبُدُ مُخۡلِصٗا لَّهُۥ دِينِي ۝ 13
(14) कह दो कि मैं तो अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसी की बन्दगी करूँगा,
فَٱعۡبُدُواْ مَا شِئۡتُم مِّن دُونِهِۦۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡخَٰسِرِينَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَأَهۡلِيهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَا ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡخُسۡرَانُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 14
(15) तुम उसके सिवा जिस-जिसकी बन्दगी करना चाहो, करते रहो। कहो, अस्ल दिवालिए तो वही हैं जिन्होंने क़ियामत के दिन अपने आपको और अपने घरवालों को घाटे में डाल दिया। ख़ूब सुन रखो, यही खुला दिवाला है।'34
34. 'दिवाला' आम बोलचाल में इस चीज़ को कहते हैं कि कारोबार में आदमी की लगाई हुई सारी पूँजी डूब जाए और बाज़ार में उसपर दूसरों के मुतालबे (माँगें) इतने चढ़ जाएँ कि अपना सब कुछ देकर भी वह उन्हें अदा न कर सके। यही मिसाल कुफ़्र और शिर्क करनेवालों के लिए एक, अल्लाह तआला ने यहाँ इस्तेमाल की है। इनसान को ज़िन्दगी, उम्र, अक़्ल, जिस्म, क़ुव्वतें और क़ाबिलियतें, ज़रिए और मौक़े, जितनी चीज़ें भी दुनिया में हासिल हैं, उन सबका जोड़ अस्ल में वह पूँजी है जिसे वह दुनिया की ज़िन्दगी के कारोबार में लगाता है। यह सारी पूँजी अगर किसी आदमी ने इस मनगढ़ंत ख़याल पर लगा दी कि कोई ख़ुदा नहीं है, या बहुत-से ख़ुदा हैं जिनका मैं बन्दा हूँ और किसी को मुझे हिसाब नहीं देना है, या हिसाब के वक़्त कोई दूसरा आकर मुझे बचा लेगा, तो इसका मतलब यह है कि उसने घाटे का सौदा किया और अपना सब कुछ डुबो दिया। यह है पहला घाटा। दूसरा घाटा यह है कि इस मनगढ़ंत ख़याल पर उसने जितने भी काम किए उन सबमें वह अपने आप से लेकर दुनिया के बहुत-से इनसानों और आगे आनेवाली नस्लों और अल्लाह के दूसरे बहुत-से बन्दों पर उम्र भर ज़ुल्म करता रहा। इसलिए उसपर अनगिनत माँगें चढ़ गईं, मगर उसके पल्ले कुछ नहीं है जिससे वह उन माँगों का भुगतान भुगत सके। इसपर और ज़्यादा घाटा यह है कि वह ख़ुद ही नहीं डूबा, बल्कि अपने बाल-बच्चों और दूर-नज़दीक के रिश्तेदारों और दोस्तों और अपनी क़ौमों को भी ग़लत तालीम और तरबियत और ग़लत मिसाल से ले डूबा। यही तीन घाटे हैं जिनको मिलाकर अल्लाह तआला 'ख़ुसरानुल-मुबीन' (खुला दिवाला) ठहरा रहा है।
لَهُم مِّن فَوۡقِهِمۡ ظُلَلٞ مِّنَ ٱلنَّارِ وَمِن تَحۡتِهِمۡ ظُلَلٞۚ ذَٰلِكَ يُخَوِّفُ ٱللَّهُ بِهِۦ عِبَادَهُۥۚ يَٰعِبَادِ فَٱتَّقُونِ ۝ 15
(16) उनपर आग की छतरियाँ ऊपर से भी छाई होंगी और नीचे से भी। यह वह अंजाम है जिससे अल्लाह अपने बन्दों को डराता है। तो ऐ मेरे बन्दो, मेरे गज़ब (प्रकोप) से बचो।
وَٱلَّذِينَ ٱجۡتَنَبُواْ ٱلطَّٰغُوتَ أَن يَعۡبُدُوهَا وَأَنَابُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ لَهُمُ ٱلۡبُشۡرَىٰۚ فَبَشِّرۡ عِبَادِ ۝ 16
(17) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग ताग़ूत (बड़े सरकश)35 की बन्दगी से बचे और अल्लाह की तरफ़ पलट आए उनके लिए ख़ुशख़बरी है।
35. अस्ल अरबी लफ़्ज़ ‘ताग़ूत' इस्तेमाल हुआ है। यह 'तुग़ियान' से निकला है, जिसका मतलब है सरकशी। किसी को 'ताग़ी' (सरकश) कहने के बजाय अगर ताग़ूत (सरकशी) कहा जाए तो इसका मतलब यह है कि वह बेइन्तिहा सरकश है। मिसाल के तौर पर किसी को हसीन (ख़ूबसूरत) कहने के बजाय अगर यह कहा जाए कि वह हुस्न (ख़ूबसूरती) है तो इसका मतलब यह होगा कि वह ख़ूबसूरती में इन्तिहाई दरजे को पहुँचा हुआ है। अल्लाह को छोड़कर जो झूठे माबूद हैं उनको ताग़ूत इसलिए कहा गया है कि अल्लाह के सिवा दूसरे की बन्दगी करना तो सिर्फ़ सरकशी है, मगर जो दूसरों से अपनी बन्दगी कराए वह कमाल दरजे का सरकश है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-286; सूरा-4 निसा, हाशिया-91, 105; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-32) 'ताग़ूत' का लफ़्ज़ यहाँ 'तवाग़ीत' यानी बहुत-से ताग़ूतों के लिए इस्तेमाल किया गया है, इसी लिए 'अंय-यअबुदूहा' (कि वे उनकी बन्दगी करें) कहा गया। अगर वाहिद (एकवचन) मुराद होता तो 'यअबुदूहु' (कि वे उसकी बन्दगी करें) होता।
ٱلَّذِينَ يَسۡتَمِعُونَ ٱلۡقَوۡلَ فَيَتَّبِعُونَ أَحۡسَنَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ هَدَىٰهُمُ ٱللَّهُۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 17
(18) तो (ऐ नबी) ख़ुशख़बरी दे दो मेरे उन बन्दों को जो बात को ग़ौर से सुनते हैं और उसके बेहतरीन पहलू की पैरवी करते हैं।36 ये वे लोग हैं जिनको अल्लाह ने हिदायत दी है और यही अक़्लमन्द हैं।
36. इस आयत के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि वे हर आवाज़ के पीछे नहीं लग जाते, बल्कि हर एक की बात सुनकर उसपर ग़ौर करते हैं और जो सही बात होती है उसे क़ुबूल कर लेते हैं। दूसरा यह कि वे बात को सुनकर ग़लत मतलब निकालने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उसके अच्छे और बेहतर पहलू को अपनाते हैं।
أَفَمَنۡ حَقَّ عَلَيۡهِ كَلِمَةُ ٱلۡعَذَابِ أَفَأَنتَ تُنقِذُ مَن فِي ٱلنَّارِ ۝ 18
(19) (ऐ नबी) उस शख़्स को कौन बचा सकता है जिसपर अज़ाब का फ़ैसला चस्पाँ हो चुका हो?"37 क्या तुम उसे बचा सकते हो जो आग में गिर चुका हो?
37. यानी जिसने अपने आपको ख़ुदा के अज़ाब का हक़दार बना लिया हो और अल्लाह ने फ़ैसला कर लिया हो कि उसे अब सज़ा देनी है।
لَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ لَهُمۡ غُرَفٞ مِّن فَوۡقِهَا غُرَفٞ مَّبۡنِيَّةٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ لَا يُخۡلِفُ ٱللَّهُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 19
(20) अलबत्ता जो लोग अपने रब से डरकर रहे उनके लिए ऊँची इमारतें हैं मंज़िल-पर-मंज़िल बनी हुई, जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी। यह अल्लाह का वादा है, अल्लाह कभी अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करता।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَسَلَكَهُۥ يَنَٰبِيعَ فِي ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ يُخۡرِجُ بِهِۦ زَرۡعٗا مُّخۡتَلِفًا أَلۡوَٰنُهُۥ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَىٰهُ مُصۡفَرّٗا ثُمَّ يَجۡعَلُهُۥ حُطَٰمًاۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَذِكۡرَىٰ لِأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 20
(21) क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया, फिर उसको सोतों, चश्मों और नदियों38 की शक्ल में ज़मीन के अन्दर जारी किया, फिर पानी के ज़रिए से वह तरह-तरह की खेतियाँ निकालता है जिनकी क़िस्में अलग-अलग हैं, फिर वे खेतियाँ पककर सूख जाती हैं, फिर तुम देखते हो कि वे पीली पड़ गईं, फिर आख़िरकार अल्लाह उनको भुस बना देता है। हक़ीक़त में इसमें एक सबक़ है अक़्ल रखनेवालों के लिए।39
38. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘यनाबीअ' इस्तेमाल हुआ है जिसमें ये तीनों चीज़ें आ जाती हैं।
39. यानी उससे एक अक़्ल रखनेवाला आदमी यह सबक़ लेता है कि यह दुनिया की ज़िन्दगी और उसकी रंगीनियाँ बस कुछ दिनों की हैं। हर बहार का अंजाम पतझड़ है। हर जवानी का अंजाम बुढ़ापा और मौत है। हर तरक़्क़ी को आख़िरकार ज़वाल (पतन) का मुँह देखना है। लिहाज़ा यह दुनिया वह चीज़ नहीं है जिसके हुस्न पर फ़रेफ़ता (मुग्ध) होकर आदमी ख़ुदा और आख़िरत को भूल जाए और यहाँ की कुछ दिन की बहार के मज़े लूटने की ख़ातिर वे हरकतें करे जो उसकी आख़िरत बरबाद कर दें। फिर एक अक़्लमन्द आदमी इन मनाज़िर (दृश्यों) से यह सबक़ भी लेता है कि इस दुनिया की बहार और पतझड़ अल्लाह ही के बस में है। अल्लाह जिसको चाहता है परवान चढ़ाता है और जिसे चाहता है बदहाल और ख़राब कर देता है। न किसी के बस में यह है कि अल्लाह जिसे परवान चढ़ा रहा हो उसको वह फलने-फूलने से रोक दे और न कोई यह ताक़त रखता है कि जिसे अल्लाह बरबाद करना चाहे उसे वह ख़ाक में मिलने से बचा ले।
أَفَمَن شَرَحَ ٱللَّهُ صَدۡرَهُۥ لِلۡإِسۡلَٰمِ فَهُوَ عَلَىٰ نُورٖ مِّن رَّبِّهِۦۚ فَوَيۡلٞ لِّلۡقَٰسِيَةِ قُلُوبُهُم مِّن ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 21
(22) अब क्या वह शख़्स जिसका सीना अल्लाह ने इस्लाम के लिए खोल दिया।40 और वह अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ रौशनी पर चल रहा है"41 (उस शख़्स की तरह हो सकता है जिसने इन बातों से कोई सबक़ न लिया?) तबाही है उन लोगों के लिए जिनके दिल अल्लाह की नसीहत से और ज़्यादा सख़्त हो गए।42 वे खुली गुमराही में पड़े हुए हैं।
40. यानी जिसे अल्लाह ने यह सुनहरा मौक़ा दिया कि इन हक़ीक़तों से सबक़ ले और इस्लाम के हक़ और सही होने पर मुत्मइन हो जाए। किसी बात पर आदमी का 'शरहे-सद्र' हो जाना या सीना खुल जाना अस्ल में इस कैफ़ियत का नाम है कि आदमी के दिल में उस बात के बारे में कोई उलझन या बेचैनी या शक-शुब्हा बाक़ी न रहे और उसे किसी ख़तरे का एहसास और किसी नुक़सान का अन्देशा भी उस बात को क़ुबूल करने और अपनाने में रुकावट न हो, बल्कि पूरे इत्मीनान के साथ वह यह फ़ैसला कर ले कि यह चीज़ हक़ है, लिहाज़ा चाहे कुछ हो जाए मुझे इसी पर चलना है। इस तरह का फ़ैसला करके जब आदमी इस्लाम की राह को अपना लेता है तो ख़ुदा और रसूल की तरफ़ से जो हुक्म भी उसे मिलता है वह उसे बेमन से नहीं, बल्कि राज़ी-ख़ुशी मानता है। किताब और सुन्नत में जो अक़ीदे और ख़यालात और जो उसूल और क़ायदे भी उसके सामने आते हैं वह उन्हें इस तरह क़ुबूल करता है कि मानो यही उसके दिल की आवाज़ है। किसी नाजाइज़ फ़ायदे को छोड़ने पर उसे कोई पछतावा नहीं होता, बल्कि वह समझता है कि मेरे लिए वह सिरे से कोई फ़ायदा था ही नहीं, उलटा एक नुक़सान था जिससे ख़ुदा की मेहरबानी से मैं बच गया। इसी तरह कोई नुक़सान भी अगर सच्चाई पर क़ायम रहने की सूरत में उसे पहुँचे तो वह उसपर अफ़सोस नहीं करता, बल्कि ठण्डे दिल से उसे बरदाश्त करता है और अल्लाह की राह से मुँह मोड़ने के मुक़ाबले में वह नुक़सान उसे हलका नज़र आता है। यही हाल उसका ख़तरे सामने आने पर भी होता है। वह समझता है कि मेरे लिए कोई दूसरा रास्ता सिरे से है ही नहीं कि इस ख़तरे से बचने के लिए उधर निकल जाऊँ। अल्लाह का सीधा रास्ता एक ही है जिसपर मुझे हर हाल में चलना है। ख़तरा आता है तो आता रहे।
41. यानी अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत की सूरत में एक इल्म की रौशनी उसे मिल गई है जिसके उजाले में वह हर-हर क़दम पर साफ़ देखता जाता है कि ज़िन्दगी की अनगिनत पगडंडियों के बीच हक़ का सीधा रास्ता कौन-सा है।
42. 'शरहे-सद्र (सीना खुल जाना) के मुक़ाबले में इनसानी दिल की दो ही हालतें हो सकती हैं। एक 'जीक़े-सद्र' (सीना तंग हो जाने और दिल भिंच जाने) की कैफ़ियत जिसमें कुछ-न-कुछ गुंजाइश इस बात की रह जाती है कि हक़ उसमें दाख़िल हो जाए और दूसरी 'क़सावते-क़ल्ब' (दिल के पत्थर हो जाने) की कैफ़ियत जिसमें हक़ के लिए दाख़िल होने की कोई गुंजाइश नहीं होती। अल्लाह तआला इस दूसरी कैफ़ियत के बारे में फ़रमाता है कि जो आदमी इस हद तक पहुँच जाए उसके लिए फिर पूरी तबाही है। इसका मतलब यह है कि अगर कोई आदमी, चाहे दिल की तंगी ही के साथ सही, एक बार हक़ को क़ुबूल करने के लिए किसी तरह तैयार हो जाए तो उसके लिए बच निकलने का कुछ-न-कुछ इमकान होता है। यह दूसरी बात आयत के मौक़ा-महल से ख़ुद-ब-ख़ुद निकलती है, मगर अल्लाह तआला ने इस बात को बयान नहीं किया है, क्योंकि आयत का अस्ल मक़सद उन लोगों को ख़बरदार करना था जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुख़ालफ़त में ज़िद और हठधर्मी पर तुले हुए थे और फ़ैसला किए बैठे थे कि आप (सल्ल०) की कोई बात मानकर नहीं देनी है। इसपर उन्हें ख़बरदार किया गया है कि तुम तो अपनी इस हेकड़ी को बड़ी चीज़ समझ रहे हो, मगर हक़ीक़त में एक इनसान की इससे बढ़कर कोई नालायक़ी और बदनसीबी नहीं हो सकती कि अल्लाह का ज़िक्र और उसकी तरफ़ से आई हुई नसीहत को सुनकर वह नर्म पड़ने के बजाय और ज़्यादा सख़्त हो जाए।
ٱللَّهُ نَزَّلَ أَحۡسَنَ ٱلۡحَدِيثِ كِتَٰبٗا مُّتَشَٰبِهٗا مَّثَانِيَ تَقۡشَعِرُّ مِنۡهُ جُلُودُ ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُمۡ ثُمَّ تَلِينُ جُلُودُهُمۡ وَقُلُوبُهُمۡ إِلَىٰ ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ هُدَى ٱللَّهِ يَهۡدِي بِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٍ ۝ 22
(23) अल्लाह ने बेहतरीन कलाम उतारा है, एक ऐसी किताब जिसके तमाम हिस्से आपस में मिलते-जुलते हैं43 और जिसमें बार-बार बातें दोहराई गई हैं। उसे सुनकर उन लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं जो अपने रब से डरनेवाले हैं और फिर उनके जिस्म और उनके दिल नर्म होकर अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ राग़िब (उन्मुख) हो जाते हैं। यह अल्लाह की हिदायत है जिससे वह सीधे रास्ते पर ले आता है जिसे चाहता है और जिसे अल्लाह ही हिदायत न दे, उसके लिए फिर कोई हिदायत देनेवाला नहीं है।
43. यानी उनमें कोई टकराव और इख़्तिलाफ़ नहीं है। पूरी किताब शुरू से लेकर आख़िर तक एक ही मक़सद, एक ही अक़ीदे और सोचने और अमल करने के एक ही निज़ाम (व्यवस्था) को पेश करती है। इसका हर हिस्सा दूसरे हिस्से की ओर हर बात दूसरी बात की तसदीक़ (पुष्टि) और ताईद करता और उसे साफ़-साफ़ बयान करता है। और मानी और बयान, दोनों के लिहाज़ से इसमें पूरी यकसानी (समानता, Consistency) पाई जाती है।
أَفَمَن يَتَّقِي بِوَجۡهِهِۦ سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَقِيلَ لِلظَّٰلِمِينَ ذُوقُواْ مَا كُنتُمۡ تَكۡسِبُونَ ۝ 23
(24) अब उस शख़्स की बदहाली का तुम क्या अन्दाज़ा कर सकते हो जो क़ियामत के दिन अज़ाब की सख़्त मार अपने मुँह पर लेगा?44 ऐसे ज़ालिमों से तो कह दिया जाएगा कि अब चखो मज़ा उस कमाई का जो तुम करते रहे थे।45
44. किसी मार को आदमी अपने मुँह पर उस वक़्त लेता है जबकि वह बिलकुल मजबूर और बेबस हो। वरना जब तक वह कुछ भी बचाव करने के क़ाबिल होता है, वह अपने जिस्म के हर हिस्से पर चोट खाता रहता है, मगर मुँह पर मार नहीं पड़ने देता। इसलिए यहाँ उस आदमी की इन्तिहाई बेबसी की तस्वीर यह कहकर खींच दी गई है कि वह सख़्त मार अपने मुँह पर लगा।
45. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'कसब' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद क़ुरआन मजीद की ज़बान में इनाम और सज़ा का वह हक़ है जो आदमी अपने अमल के नतीजे में कमाता है। नेक अमल करनेवाले की अस्ल कमाई यह है कि वह अल्लाह के इनाम का हक़दार बनता है और गुमराही अपनानेवाले और बुरी राह पर चलनेवाले की कमाई वह सज़ा है जो उसे आख़िरत में मिलनेवाली है।
كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَأَتَىٰهُمُ ٱلۡعَذَابُ مِنۡ حَيۡثُ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 24
(25) इनसे पहले भी बहुत-से लोग इसी तरह झुठला चुके हैं। आख़िर उनपर अज़ाब ऐसे रुख़ से आया जिधर उनका ख़याल भी न जा सकता था।
فَأَذَاقَهُمُ ٱللَّهُ ٱلۡخِزۡيَ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 25
(26) फिर अल्लाह ने उनको दुनिया ही की ज़िन्दगी में रुसवाई का मज़ा चखाया, और आख़िरत का अज़ाब तो इससे कहीं ज़्यादा सख़्त है। काश, ये लोग जानते!
وَلَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖ لَّعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 26
(27) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह की मिसालें दी हैं कि ये होश में आएँ।
قُرۡءَانًا عَرَبِيًّا غَيۡرَ ذِي عِوَجٖ لَّعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 27
(28) ऐसा क़ुरआन जो अरबी ज़बान में है,46 जिसमें कोई टेढ़ नहीं है,47 ताकि ये बुरे अंजाम से बचें।
46. यानी यह किसी अजनबी ज़बान में नहीं आया है कि मक्का और अरब के लोग इसे समझने के लिए किसी तर्जमा करनेवाले या समझानेवाले के मुहताज हों, बल्कि यह उनकी अपनी ज़बान में है जिसे ये सीधे तौर पर ख़ुद समझ सकते हैं।
47. यानी इसमें एँच-पेंच की भी कोई बात नहीं है कि आम आदमी के लिए इसको समझने में कोई मुश्किल पेश आए, बल्कि साफ़-साफ़ सीधी बात कही गई है, जिसे हर आदमी जान सकता है कि यह किताब किस चीज़ को ग़लत कहती है और क्यों, किस चीज़ को सही कहती है और किस बुनियाद पर, क्या मनवाना चाहती है और किस चीज़ का इनकार कराना चाहती है, किन कामों का हुक्म देती है और किन कामों से रोकती है?
ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا رَّجُلٗا فِيهِ شُرَكَآءُ مُتَشَٰكِسُونَ وَرَجُلٗا سَلَمٗا لِّرَجُلٍ هَلۡ يَسۡتَوِيَانِ مَثَلًاۚ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 28
(29) अल्लाह एक मिसाल देता है। एक आदमी तो वह है जिसकी मिलकियत में बहुत-से बुरी आदतवाले मालिक शरीक हैं जो उसे अपनी-अपनी तरफ़ खींचते हैं और दूसरा आदमी पूरा-का-पूरा एक ही मालिक का ग़ुलाम है। क्या इन दोनों का हाल एक जैसा हो सकता है?48 अल-हम्दु लिल्लाह,49 मगर अकसर लोग नादानी में पड़े हुए हैं।50
48. इस मिसाल में अल्लाह तआला ने शिर्क (बहुदेववाद) और तौहीद (एकेश्वरवाद) के फ़र्क़ और इनसान की ज़िन्दगी पर दोनों के असरात को इस तरह खोलकर बयान कर दिया है कि इससे ज़्यादा कम अलफ़ाज़ में इतनी बड़ी बात इतने असरदार तरीक़े से समझा देना मुमकिन नहीं है। यह बात हर आदमी मानेगा कि जिस आदमी के बहुत-से मालिक हों और हर एक उसको अपनी-अपनी तरफ़ खींच रहा हो और वे मालिक भी ऐसे बदमिज़ाज हों कि हर एक उससे काम लेते हुए दूसरे मालिक के हुक्म पर दौड़ने की उसे मुहलत न देता हो और उनके एक-दूसरे से बिलकुल अलग-अलग हुक्मों में से जिसके हुक्म को वह पूरा न कर सके वह उसे डाँटने-फटकारने पर ही बस न करता हो, बल्कि सज़ा देने पर तुल जाता हो, उसकी ज़िन्दगी लाज़िमन बड़ी तंग होगी और इसके बरख़िलाफ़ वह आदमी बड़े चैन और आराम से रहेगा जो बस एक ही मालिक का नौकर या ग़ुलाम हो और उसे न किसी दूसरे की ख़िदमत करनी पड़े और न उसे ख़ुश रखना पड़े। यह ऐसी सीधी-सी बात है जिसे समझने के लिए किसी बड़े सोच-विचार की ज़रूरत नहीं है। इसके बाद किसी आदमी के लिए यह समझना भी मुश्किल नहीं रहता कि इनसान के लिए जो अम्न और इत्मीनान एक ख़ुदा की बन्दगी में है, वह बहुत-से ख़ुदाओं की बन्दगी में उसे कभी नहीं मिल सकता। इस जगह पर यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि बहुत-से बदमिज़ाज मालिकों और आपस में एक-दूसरे के मुख़ालिफ़ मालिकों की मिसाल पत्थर के बुतों पर फ़िट नहीं होती, बल्कि उन जीते-जागते मालिकों पर ही फ़िट बैठती है जो अमली तौर पर आदमी को आपस में एक-दूसरे से टकरानेवाले हुक्म देते हैं और सचमुच उसको अपनी-अपनी तरफ़ खींचते रहते हैं। पत्थर के बुत किसे हुक्म दिया करते हैं और कब किसी को खींचकर अपनी ख़िदमत के लिए बुलाते हैं। ये काम तो ज़िन्दा मालिकों ही के करने के हैं। एक मालिक आदमी के अपने मन में बैठा हुआ है जो तरह-तरह की ख़ाहिशें उसके सामने पेश करता है और उसे मजबूर करता रहता है कि वह उन्हें पूरा करे। दूसरे अनगिनत मालिक घर में, ख़ानदान में, बिरादरी में, क़ौम और देश के समाज में, मज़हबी पेशवाओं में, हुक्मरानों और क़ानून बनानेवालों में, कारोबार और माली मामलों के दायरों में और दुनिया के तमद्दुन (संस्कृति) पर ग़लबा रखनेवाली (प्रभावी) ताक़तों में हर तरफ़ मौजूद हैं जिनके अलग-अलग तक़ाज़े और अलग-अलग माँगें आदमी को अपनी-अपनी तरफ़ हर वक़्त खींचती रहती हैं और उनमें से जिसकी माँग पूरी करने में भी वह ढिलाई बरतता है, वह अपने काम के दायरे में उसको सज़ा दिए बिना नहीं छोड़ता। अलबत्ता हर एक की सज़ा के हथियार अलग-अलग हैं। कोई दिल मसोसता है। कोई रूठ जाता है। कोई नक्कू बनाता है। कोई बायकाट करता है। कोई दिवाला निकालता है। कोई मज़हब का वार करता है और कोई क़ानून की चोट लगाता है। इस घुटन और तंगी से निकलने की कोई सूरत इनसान के लिए इसके सिवा नहीं है कि वह तौहीद (एकेशवरवाद) का रास्ता चुनकर सिर्फ़ एक ख़ुदा का बन्दा बन जाए, और हर दूसरे की बन्दगी का पट्टा अपनी गर्दन से उतार फेंके। तौहीद का रास्ता अपनाने की भी दो शक्लें हैं जिनके नतीजे अलग-अलग हैं। एक शक्ल यह है कि एक आदमी अपनी निजी हैसियत में एक ख़ुदा का बन्दा बनकर रहने का फ़ैसला कर ले और आस-पास का माहौल इस मामले में उसका साथी न हो। इस सूरत में यह तो हो सकता है कि बाहरी कश्मकश और तंगी उसके लिए पहले से भी ज़्यादा बढ़ जाए, लेकिन अगर उसने सच्चे दिल से यह रास्ता पकड़ा हो तो उसे अन्दरूनी अम्न और इत्मीनान ज़रूर मिल जाएगा। वह मन की हर उस ख़ाहिश को रद्द कर देगा जो अल्लाह के हुक्मों के ख़िलाफ़ हो या जिसे पूरा करने के साथ ख़ुदापरस्ती के तक़ाज़े पूरे न किए जा सकते हों। वह ख़ानदान, बिरादरी, क़ौम, हुकूमत, मज़हबी पेशवाई और मआशी (आर्थिक) इक़तिदार के भी किसी ऐसे मुतालबे को क़ुबूल न करेगा जो ख़ुदा के क़ानून से टकराता हो। इसके नतीजे में उसे बेहद तकलीफें पहुँच सकती हैं, बल्कि लाज़िमन पहुँचेंगी, लेकिन उसका दिल पूरी तरह मुत्मइन होगा कि जिस ख़ुदा का मैं बन्दा हूँ, उसकी बन्दगी का तक़ाज़ा पूरा कर रहा हूँ और जिनका बन्दा मैं नहीं हूँ, उनका मुझपर कोई हक़ नहीं है जिसकी बुनियाद पर मैं अपने रब के हुक्म के ख़िलाफ़ उनकी बन्दगी करूँ। यह दिल का इत्मीनान और रूह का अम्न व सुकून दुनिया की कोई ताक़त उससे नहीं छीन सकती। यहाँ तक कि अगर उसे फाँसी पर भी चढ़ना पड़ जाए तो वह ठण्डे दिल से चढ़ जाएगा और उसको ज़रा पछतावा न होगा कि मैंने क्यों न झूठे ख़ुदाओं के आगे सर झुकाकर अपनी जान बचा ली। दूसरी शक्ल यह है कि पूरा समाज इसी तौहीद की बुनियाद पर क़ायम हो जाए और उसमें अख़लाक़़, रहन-सहन, तहज़ीब, तालीम, मज़हब, क़ानून, रस्मो-रिवाज, सियासत, कारोबारी मामले, ग़रज़ ज़िन्दगी के हर मामले के लिए वे उसूल अक़ीदे के तौर पर मान लिए जाएँ और अमली तौर पर उनका चलन हो जाए जो अल्लाह तआला ने अपनी किताब और अपने रसूल के ज़रिए से दिए हैं। ख़ुदा का दीन जिसको गुनाह कहता है, क़ानून उसी को जुर्म ठहरा दे, हुकूमत की इन्तिज़ामी मशीन (प्रशासन-तंत्र) उसी को मिटाने की कोशिश करे, तालीम और तरबियत उसी से बचने के लिए ज़ेहन और किरदार तैयार करे। मस्जिदों और आम जलसों में उसी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द हो, समाज उसी को बुरा कहे और माली कारोबार के हर मैदान में वह मना हो जाए। इसी तरह ख़ुदा का दीन जिस चीज़ को भलाई और नेकी ठहराए, क़ानून उसकी हिमायत करे, इन्तिज़ाम की ताक़तें उसे परवान चढ़ाने में लग जाएँ, तालीम और तरबियत का पूरा निज़ाम ज़ेहनों में उसको बिठाने और किरदार में उसे रचा-बसा देने की कोशिश करे, मस्जिदों और आम जलसों से उसी की नसीहत की जाए, समाज उसी की तारीफ़ करे और अपने अमली रस्मो-रिवाज उसपर क़ायम कर दे और माली कारोबार भी उसी के मुताबिक़ चले। यह वह सूरत है जिसमें इनसान को अन्दरूनी और बाहरी पूरा इत्मीनान हासिल हो जाता है और माद्दी (भौतिक) और रूहानी तरक़्क़ी के तमाम दरवाज़े उसके लिए खुल जाते हैं, क्योंकि इसमें रब की बन्दगी और दूसरों की बन्दगी के तक़ाज़ों का टकराव क़रीब-क़रीब ख़त्म हो जाता है। इस्लाम की दावत अगरचे हर आदमी को यही है कि चाहे दूसरी सूरत पैदा हो या न हो, बहरहाल वह तौहीद ही को अपना दीन बना ले और तमाम ख़तरों और मुश्किलों का मुक़ाबला करते हुए अल्लाह की बन्दगी करे। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम का आख़िरी मक़सद यही दूसरी सूरत पैदा करना है और तमाम नबियों (अलैहि०) की कोशिशों का मक़सद यही रहा है कि एक मुस्लिम उम्मत (समुदाय) वुजूद में आए जो ख़ुदा के इनकार और ख़ुदा के इनकारियों के ग़लबे से आज़ाद होकर एक जमाअत की हैसियत से अल्लाह के दीन की पैरवी करे। कोई शख़्स जब तक क़ुरआन और सुन्नत से अनजान और अक़्ल से कोरा न हो, यह नहीं कह सकता कि नबी (अलैहि०) की कोशिशों का मक़सद सिर्फ़ यह है कि लोग अपने-अपने तौर पर अल्लाह पर ईमान ले आएँ और उसकी फ़रमाँबरदारी कर लें और इजतिमाई ज़िन्दगी में सच्चे दीन को लागू और क़ायम करना सिरे से उसका मक़सद ही नहीं रहा है।
49. यहाँ 'अल-हम्दु लिल्लाह' क्यों कहा गया है, इस बात को समझने के लिए यह नक़्शा ज़ेहन में लाइए कि ऊपर का सवाल लोगों के सामने पेश करने के बाद तक़रीर करनेवाला चुप हो गया, ताकि अगर तौहीद के मुख़ालिफ़ों के पास इसका कोई जवाब हो तो दें। फिर जब उनसे कोई जवाब बन न पड़ा और किसी तरफ़ से यह आवाज़ न आई कि दोनों बराबर हैं, तो तक़रीर करनेवाले ने कहा, 'अल-हम्दु लिल्लाह' यानी अल्लाह का शुक्र है कि तुम ख़ुद भी अपने दिलों में इन दोनों हालतों का फ़र्क़ महसूस करते हो और तुममें से कोई भी यह कहने की जुर्अत (दुस्साहस) नहीं रखता कि एक मालिक की बन्दगी से बहुत-से मालिकों की बन्दगी बेहतर है या दोनों एक जैसी हैं।
50. यानी एक मालिक की ग़ुलामी और बहुत-से मालिकों की ग़ुलामी का फ़र्क़ तो ख़ूब समझ लेते हैं, मगर एक ख़ुदा की बन्दगी और बहुत-से ख़ुदाओं की बन्दगी का फ़र्क़ जब समझाने की कोशिश की जाती है तो नादान बन जाते हैं।
إِنَّكَ مَيِّتٞ وَإِنَّهُم مَّيِّتُونَ ۝ 29
(30) (ऐ नबी) तुम्हें भी मरना है और इन लोगों को भी मरना है।51
51. पिछले जुमले और इस जुमले के बीच एक लतीफ़ ख़ला (सूक्ष्म रिक्तता) है जिसे मौक़ा-महल पर ग़ौर करके हर समझदार आदमी ख़ुद भर सकता है। इसमें यह बात छिपी है कि इस-इस तरह तुम एक साफ़-सीधी बात सीधे तरीक़े से इन लोगों को समझा रहे हो और ये लोग न सिर्फ़ यह कि हठधर्मी से तुम्हारी बात रद्द कर रहे हैं, बल्कि इस खुली सच्चाई को दबाने के लिए तुम्हारे पीछे पड़े हैं। अच्छा, हमेशा न तुम्हें रहना है, न इन्हें। दोनों को एक दिन मरना है। अंजाम सबके सामने आ जाएगा।
ثُمَّ إِنَّكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عِندَ رَبِّكُمۡ تَخۡتَصِمُونَ ۝ 30
(31) आख़िरकार क़ियामत के दिन तुम सब अपने रब के सामने अपना-अपना मुक़द्दमा पेश करोगे।
۞فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَذَبَ عَلَى ٱللَّهِ وَكَذَّبَ بِٱلصِّدۡقِ إِذۡ جَآءَهُۥٓۚ أَلَيۡسَ فِي جَهَنَّمَ مَثۡوٗى لِّلۡكَٰفِرِينَ ۝ 31
(32) फिर उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जिसने अल्लाह पर झूठ बाँधा और जब सच्चाई उसके सामने आई तो उसे झुठला दिया। क्या (हक़ के) ऐसे इनकारियों के लिए जहन्नम में कोई ठिकाना नहीं है?
وَٱلَّذِي جَآءَ بِٱلصِّدۡقِ وَصَدَّقَ بِهِۦٓ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُتَّقُونَ ۝ 32
(33) और जो कोई सच्चाई लेकर आया और जिन्होंने उसको सच माना, वही अज़ाब से बचनेवाले हैं।52
52. मतलब यह है कि क़ियामत के दिन अल्लाह तआला की अदालत में जो मुक़द्दमा होना है, उसमें सज़ा पानेवाले कौन होंगे, यह बात तुम आज ही सुन लो। सज़ा लाज़िमी तौर से उन्हीं ज़ालिमों को मिलनी है जिन्होंने ये झूठे अक़ीदे गढ़े कि अल्लाह के साथ उसके वुजूद, सिफ़ात (गुणों), अधिकारों और हक़ों में कुछ दूसरी हस्तियाँ भी शरीक हैं और इससे भी ज़्यादा बढ़कर उनका ज़ुल्म यह है कि जब उनके सामने सच्चाई पेश की गई तो उन्होंने उसे मानकर न दिया, बल्कि उलटा उसी को झूठा ठहरा दिया जिसने सच्चाई पेश की। रहा वह शख़्स जो सच्चाई लाया और वे लोग जिन्होंने उसको सच्चा माना, तो ज़ाहिर है कि अल्लाह की अदालत से उनके सज़ा पाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
لَهُم مَّا يَشَآءُونَ عِندَ رَبِّهِمۡۚ ذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 33
(34) उन्हें अपने रब के यहाँ वह सब कुछ मिलेगा जिसकी वे ख़ाहिश करेंगे,53 यह है नेकी करनेवालों का बदला,
53. यह बात सामने रहे कि यहाँ 'फ़िल-जन्नति' (जन्नत में) नहीं, बल्कि 'इन-द रब्बिहिम' (उनके रब के यहाँ) के अलफ़ाज़ कहे गए हैं और ज़ाहिर है कि अपने रब के यहाँ तो बन्दा मरने के बाद ही पहुँच जाता है। इसलिए आयत का मंशा यह मालूम होता है कि जन्नत में पहुँचकर ही नहीं, बल्कि मरने के वक़्त से जन्नत में दाख़िल होने तक के ज़माने में भी नेक ईमानवाले के साथ अल्लाह तआला का मामला यही रहेगा। वह बरज़ख़ के अज़ाब से, क़ियामत के दिन की सख़्तियों से, हिसाब की सख़्ती से, हश्र के मैदान की रुसवाई से, अपनी कोताहियों और को कुसूरों पर पकड़ से लाज़िमन बचना चाहेगा और अल्लाह तआला उसकी ये सारी ख़ाहिशें पूरी करेगा।
لِيُكَفِّرَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ أَسۡوَأَ ٱلَّذِي عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَهُمۡ أَجۡرَهُم بِأَحۡسَنِ ٱلَّذِي كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 34
(35) ताकि जो बहुत बुरे काम उन्होंने किए थे, उन्हें अल्लाह उनके हिसाब से मिटा दे और जो बेहतरीन काम वे करते रहे, उनके लिहाज़ से उनको बदला दे।54
54. नबी (सल्ल०) पर जो लोग ईमान लाए थे, जाहिलियत के ज़माने में उनसे अक़ीदे और अख़लाक़ से मुताल्लिक़ दोनों तरह के बदतरीन गुनाह हो चुके थे और ईमान लाने के बाद उन्होंने सिर्फ़ यही एक नेकी न की थी कि उस झूठ को छोड़ दिया जिसे वे पहले मान रहे थे और वह क़ुबूल कर ली जिसे नबी (सल्ल०) ने पेश किया था, बल्कि इसके अलावा उन्होंने अख़लाक़, इबादतों और मामलात में बेहतरीन नेक काम किए थे। अल्लाह तआला फ़रमाता है कि कि उनके वे बदतरीन काम जो जाहिलियत में उनसे हुए थे, उनके हिसाब से मिटा दिए जाएँगे और उनको इनाम उन कामों के लिहाज़ से दिया जाएगा जो उनके आमालनामे में सबसे बेहतर होंगे।
أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِكَافٍ عَبۡدَهُۥۖ وَيُخَوِّفُونَكَ بِٱلَّذِينَ مِن دُونِهِۦۚ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِنۡ هَادٖ ۝ 35
(36) (ऐ नबी) क्या अल्लाह अपने बन्दे के लिए काफ़ी नहीं है? ये लोग उसके सिवा दूसरों से तुमको डराते हैं।55 हालाँकि अल्लाह जिसे गुमराही में डाल दे, उसे कोई रास्ता दिखानेवाला नहीं
55. मक्का के इस्लाम-दुश्मन नबी (सल्ल०) से कहा करते थे कि तुम हमारे माबूदों की शान में गुस्ताख़ियाँ करते हो और इनके ख़िलाफ़ ज़बान खोलते हो। तुम्हें मालूम नहीं है कि ये कैसी ज़बरदस्त बाकरामत (चमत्कारी) हस्तियाँ हैं। इनकी तौहीन तो जिसने भी की, वह बरबाद हो गया। तुम भी अगर अपनी बातों से बाज़ न आए तो ये तुम्हारा तख़्ता उलट देंगे।
وَمَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن مُّضِلٍّۗ أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِعَزِيزٖ ذِي ٱنتِقَامٖ ۝ 36
(37) और जिसे वह हिदायत दे, उसे भटकानेवाला भी कोई नहीं। क्या अल्लाह ज़बरदस्त और इन्तिक़ाम लेनेवाला नहीं है?56
56. यानी यह भी हिदायत से उनकी महरूमी ही का करिश्मा है कि इन बेवक़ूफों को अपने इन माबूदों की ताक़त और इज़्ज़त का तो बड़ा ख़याल है, मगर इन्हें इस बात का ख़याल कभी नहीं आता कि अल्लाह भी कोई ज़बरदस्त हस्ती है और शिर्क करके उसकी जो तौहीन (अपमान) ये कर रहे हैं, उसकी भी कोई सज़ा इन्हें मिल सकती है।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۚ قُلۡ أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ إِنۡ أَرَادَنِيَ ٱللَّهُ بِضُرٍّ هَلۡ هُنَّ كَٰشِفَٰتُ ضُرِّهِۦٓ أَوۡ أَرَادَنِي بِرَحۡمَةٍ هَلۡ هُنَّ مُمۡسِكَٰتُ رَحۡمَتِهِۦۚ قُلۡ حَسۡبِيَ ٱللَّهُۖ عَلَيۡهِ يَتَوَكَّلُ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 37
(38) लोगों से अगर तुम पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है, तो ये ख़ुद कहेंगे कि अल्लाह ने। इनसे कहो, जब हक़ीक़त यह है तो तुम्हारा क्या ख़याल है कि अगर अल्लाह मुझे कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे तो क्या तुम्हारी ये देवियाँ, जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो, मुझे उसके पहुँचाए हुए नुक़सान से बचा लेंगी? या अल्लाह मुझपर मेहरबानी करना चाहे तो क्या ये उसकी रहमत को रोक सकेंगी? बस इनसे कह दो कि मेरे लिए अल्लाह ही काफ़ी है, भरोसा करनेवाले उसी पर भरोसा करते हैं।"57
57. इब्ने-अबी-हातिम (रह०) ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स चाहता हो कि सब इनसानों से ज़्यादा ताक़तवर हो जाए, उसे चाहिए कि अल्लाह पर भरोसा करे और जो कोई चाहता हो कि सबसे बढ़कर ग़नी (सम्पन्न) हो जाए, उसे चाहिए कि जो कुछ अल्लाह के पास है, उसपर ज़्यादा भरोसा रखे, उस चीज़ के मुक़ाबले में जो उसके अपने हाथ में है और जो शख़्स चाहता हो कि सबसे ज़्यादा इज़्ज़तवाला हो जाए, उसे चाहिए कि ज़बरदस्त और जलालवाले (प्रतापी) अल्लाह से डरे।
قُلۡ يَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَٰمِلٞۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 38
(39) इनसे साफ़ कहो कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, तुम अपनी जगह अपना काम किए जाओ,58 मैं अपना काम करता रहूँगा, बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा
58. यानी मुझे नीचा दिखाने के लिए जो कुछ तुम कर रहे हो और कर सकते हो वह किए जाओ, अपनी करनी में कोई कसर न उठा रखो।
مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَيَحِلُّ عَلَيۡهِ عَذَابٞ مُّقِيمٌ ۝ 39
(40) कि किसपर रुसवा करनेवाला अज़ाब आता है और किसे वह सज़ा मिलती है जो कभी टलनेवाली नहीं।"
إِنَّآ أَنزَلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ لِلنَّاسِ بِٱلۡحَقِّۖ فَمَنِ ٱهۡتَدَىٰ فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٍ ۝ 40
(41) (ऐ नबी) हमने सब इनसानों के लिए यह सच्ची किताब तुमपर उतार दी है। अब जो सीधा रास्ता अपनाएगा, अपने लिए अपनाएगा और जो भटकेगा, उसके भटकने का वबाल उसी पर होगा, तुम उनके ज़िम्मेदार नहीं हो।59
59. यानी तुम्हारे सिपुर्द इन्हें सीधे रास्ते पर ले आना नहीं है। तुम्हारा काम सिर्फ़ यह है कि इनके सामने सीधी राह पेश कर दो। उसके बाद अगर ये गुमराह रहें तो तुमपर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।
ٱللَّهُ يَتَوَفَّى ٱلۡأَنفُسَ حِينَ مَوۡتِهَا وَٱلَّتِي لَمۡ تَمُتۡ فِي مَنَامِهَاۖ فَيُمۡسِكُ ٱلَّتِي قَضَىٰ عَلَيۡهَا ٱلۡمَوۡتَ وَيُرۡسِلُ ٱلۡأُخۡرَىٰٓ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمًّىۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 41
(42) वह अल्लाह ही है जो मौत के वक़्त रूहें क़ब्ज़ करता है और जो अभी नहीं मरा है, उसकी रूह नींद में क़ब्ज़ कर लेता है,60 फिर जिसपर वह मौत का फ़ैसला लागू करता है, उसे रोक लेता है और दूसरों की रूहें एक मुक़र्रर वक़्त के लिए वापस भेज देता है। इसमें बड़ी निशानियाँ हैं, उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करनेवाले हैं।61
60. नींद की हालत में रूह निकाल लेने से मुराद एहसास, समझ-बूझ और इरादे और इख़्तियार की क़ुव्वतों को मुअत्तल (स्थगित) कर देना है। यह एक ऐसी हालत है जिसपर उर्दू ज़बान की यह कहावत सचमुच फ़िट होती है कि “सोया और मुआ (मरा) बराबर।"
61. यह बात कहकर अल्लाह तआला हर इनसान को यह एहसास दिलाना चाहता है कि मौत और ज़िन्दगी किस तरह उसकी क़ुदरत के हाथ में है। कोई शख़्स भी यह ज़मानत नहीं रखता कि रात को जब वह सोएगा तो सुबह ज़रूर ही वह जिन्दा हो उठेगा। किसी को भी यह मालूम नहीं है कि एक घड़ी भर में उसपर क्या आफ़त आ सकती है और दूसरा पल उसपर ज़िन्दगी का पल होता है या मौत का। हर वक़्त सोते में या जागते में, घर में बैठे या कहीं चलते-फिरते आदमी के जिस्म की कोई अन्दरूनी ख़राबी, या बाहर से कोई नामालूम आफ़त यकायक वह शक्ल इख़्तियार कर सकती है जो उसके लिए मौत का पैग़ाम साबित हो। इस तरह जो इनसान ख़ुदा के हाथ में बेबस है, वह कैसा सख़्त नादान है, अगर उसी ख़ुदा से ग़ाफ़िल या मुँह फेरे हो।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ شُفَعَآءَۚ قُلۡ أَوَلَوۡ كَانُواْ لَا يَمۡلِكُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 42
(43) क्या उस अल्लाह को छोड़कर इन लोगों ने दूसरों को सिफ़ारिशी बना रखा है?62 इनसे कहो, सिफ़ारिश करेंगे चाहे उनके अधिकार में कुछ हो न हो और वे समझते भी न हों?
62. यानी एक तो इन लोगों ने अपने तौर पर ख़ुद ही यह मान लिया कि कुछ हस्तियाँ अल्लाह के यहाँ बड़ा ज़ोर रखती हैं जिनकी सिफ़ारिश किसी तरह टल नहीं सकती, हालाँकि उनके सिफ़ारिशी होने पर न कोई दलील, न अल्लाह तआला ने कभी यह फ़रमाया कि इनको मेरे यहाँ ये मर्तबा हासिल है और न ख़ुद उन हस्तियों ने कभी यह दावा किया कि हम अपने ज़ोर से तुम्हारे सारे काम बनवा दिया करेंगे। इसपर और ज़्यादा बेवक़ूफ़ी उन लोगों की यह है कि अस्ल मालिक को छोड़कर इन फ़र्ज़ी (काल्पनिक) सिफ़ारिशियों ही को सब कुछ समझ बैठे हैं और इनकी सारी नियाज़मन्दियाँ सिर्फ़ इन्हीं के लिए हैं।
قُل لِّلَّهِ ٱلشَّفَٰعَةُ جَمِيعٗاۖ لَّهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ ثُمَّ إِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 43
(44) कहो, सिफ़ारिश सारी की सारी अल्लाह के अधिकार में है।63 आसमानों और ज़मीन की बादशाही का वही मालिक है। फिर उसी की तरफ़ तुम पलटाए जानेवाले हो।
63. यानी किसी का यह ज़ोर नहीं है कि अल्लाह तआला के सामने ख़ुद सिफ़ारिशी बनकर उठ ही सके, कहाँ यह कि अपनी सिफ़ारिश मनवा लेने की ताक़त भी उसमें हो। यह बात बिलकुल अल्लाह के बस में है कि जिसे चाहे सिफ़ारिश की इजाज़त दे और जिसे चाहे न द और जिसके हक़ में चाहे किसी को सिफ़ारिश करने दे और जिसके हक़ में चाहे न करने दे। (शफ़ाअत यानी सिफ़ारिश के इस्लामी अक़ीदे और मुशरिकाना अक़ीदे का फ़र्क़ समझने के लिए नीचे लिखे मक़ामात देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-281; सूरा-6 अनआम, हाशिया-32; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—5, 24; सूरा-11 हूद, हाशिए—84, 106; सूरा-13 रअद, हाशिया-19; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—64, 65, 79; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—85, 86; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-27; सूरा-22 हज, हाशिया-125; सूरा-34 सबा, हाशिया-40)
وَإِذَا ذُكِرَ ٱللَّهُ وَحۡدَهُ ٱشۡمَأَزَّتۡ قُلُوبُ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِۖ وَإِذَا ذُكِرَ ٱلَّذِينَ مِن دُونِهِۦٓ إِذَا هُمۡ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 44
(45) जब अकेले अल्लाह का ज़िक्र किया जाता है तो आख़िरत पर ईमान न रखनेवालों के दिल कुढ़ने लगते हैं और जब उसके सिवा दूसरों का ज़िक्र होता है तो यकायक वे ख़ुशी से खिल उठते हैं।64
64. यह बात लगभग सारी दुनिया के शिर्कवाला मिज़ाज रखनेवाले लोगों में एक जैसी है, यहाँ तक कि मुसलमानों में भी जिन बदक़िस्मतों को यह बीमारी लग गई है वे भी इस ख़राबी से ख़ाली नहीं हैं। ज़बान से कहते हैं कि हम अल्लाह को मानते हैं। लेकिन हालत यह है कि एक अल्लाह का ज़िक्र कीजिए तो उनके चेहरे बिगड़ने लगते हैं। कहते हैं, ज़रूर यह आदमी बुज़ुर्गों और वलियों को नहीं मानता, जभी तो तो बस अल्लाह-ही-अल्लाह की बातें किए जाता है और अगर दूसरों का ज़िक्र किया जाए तो उनके दिलों की कली खिल जाती है और ख़ुशी से उनके चेहरे दमकने लगते हैं। इस रवैये से साफ़ ज़ाहिर होता है कि उनको अस्ल दिलचस्पी और मुहब्बत किससे है। अल्लामा आलूसी (रह०) ने तफ़सीर रूहुल-मआनी में इस जगह पर ख़ुद अपना एक तजरिबा बयान किया है। फ़रमाते हैं कि एक दिन मैंने देखा कि एक आदमी अपनी किसी मुसीबत में एक इन्तिक़ालशुदा बुज़ुर्ग को मदद के लिए पुकार रहा है। मैंने कहा, अल्लाह के बन्दे, अल्लाह को पुकार, वह ख़ुद फ़रमाता है कि “और जब मेरे बन्दे तुमसे मेरे बारे में पूछें तो उनसे कहो, मैं उनसे क़रीब ही हूँ, पुकारनेवाले की पुकार का जवाब देता हूँ जबकि वह मुझे पुकारे।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-186) मेरी यह बात सुनकर उसे बहुत ग़ुस्सा आया और बाद में लोगों ने मुझे बताया कि वह कहता था कि यह आदमी वलियों को नहीं मानता और कुछ लोगों ने उसको यह कहते भी सुना कि अल्लाह के मुक़ाबले वली जल्दी सुन लेते हैं।
قُلِ ٱللَّهُمَّ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ عَٰلِمَ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ أَنتَ تَحۡكُمُ بَيۡنَ عِبَادِكَ فِي مَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 45
(46) कहो, ऐ ख़ुदा! आसमानों और ज़मीन के पैदा करनेवाले, हाज़िर और ग़ायब के जाननेवाले, तू ही अपने बन्दों के बीच उस चीज़ का फ़ैसला करेगा जिसमें वे इख़्तिलाफ़ करते रहे हैं।
وَلَوۡ أَنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لَٱفۡتَدَوۡاْ بِهِۦ مِن سُوٓءِ ٱلۡعَذَابِ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَبَدَا لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ مَا لَمۡ يَكُونُواْ يَحۡتَسِبُونَ ۝ 46
(47) अगर इन ज़ालिमों के पास ज़मीन की सारी दौलत भी हो और उतनी ही और भी, तो ये क़ियामत के दिन बुरे अज़ाब से बचने के लिए सब कुछ फ़िद्ये (बदले) में देने के लिए तैयार हो जाएँगे। वहाँ अल्लाह की तरफ़ से इनके सामने वह कुछ आएगा जिसका इन्होंने कभी अन्दाज़ा ही नहीं किया है।
وَبَدَا لَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا كَسَبُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 47
(48) वहाँ अपनी कमाई के सारे बुरे नतीजे इनपर खुल जाएँगे और वही चीज़ इनपर छा जाएगी जिसका ये मज़ाक़ उड़ाते रहे हैं।
فَإِذَا مَسَّ ٱلۡإِنسَٰنَ ضُرّٞ دَعَانَا ثُمَّ إِذَا خَوَّلۡنَٰهُ نِعۡمَةٗ مِّنَّا قَالَ إِنَّمَآ أُوتِيتُهُۥ عَلَىٰ عِلۡمِۭۚ بَلۡ هِيَ فِتۡنَةٞ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 48
(49) यही इनसान65 जब ज़रा सी मुसीबत इसे छू जाती है तो हमें पुकारता है, और जब हम इसे अपनी तरफ़ से नेमत देकर उसका पेट भर देते हैं तो कहता है कि यह तो मुझे इल्म की बुनियाद पर दिया गया है!66 नहीं, बल्कि यह आज़माइश है, मगर इनमें से ज़्यादा तर लोग जानते नहीं हैं।67
65. यानी जिसे अल्लाह के नाम से चिढ़ है और अकेले अल्लाह का ज़िक्र सुनकर जिसका चेहरा बिगड़ने लगता है।
66. इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि अल्लाह जानता है कि मैं इस नेमत के लायक़ हूँ, इसी लिए उसने मुझे यह कुछ दिया है, वरना अगर उसके नज़दीक मैं एक बुरा और बुरे अक़ीदेवाला और ग़लत काम करनेवाला आदमी होता तो मुझे ये नेमतें क्यों देता। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि यह तो मुझे मेरी क़ाबिलियत की बुनियाद पर मिला है।
67. लोग अपनी जहालत और नादानी से यह समझते हैं कि जिसे कोई नेमत मिल रही है, वह ज़रूर उसकी लायक़ी और क़ाबिलियत की बुनियाद पर मिल रही है और इस नेमत का मिलना अल्लाह के दरबार में उसके पसन्दीदा होने की निशानी या दलील है। हालाँकि यहाँ जिसको जो कुछ भी दिया जा रहा अल्लाह तआला की तरफ़ से आज़माइश के तौर पर दिया जा रहा है। यह इम्तिहान का सामान है, न कि क़ाबिलियत का इनाम, वरना आख़िर क्या वजह है कि बहुत-से क़ाबिल आदमी तंगहाल हैं और बहुत-से नाक़ाबिल (अयोग्य) आदमी नेमतों में खेल रहे हैं। इसी तरह ये दुनियावी नेमतें अल्लाह के यहाँ पसन्दीदा होने की निशानी भी नहीं हैं। हर आदमी देख सकता है कि दुनिया में बहुत-से ऐसे नेक आदमी मुसीबतों में मुब्तला हैं जिनके नेक होने से इनकार नहीं किया जा सकता और बहुत-से बुरे आदमी, जिनकी बुरी हरकतों को एक दुनिया जानती है, ऐश कर रहे हैं। अब क्या कोई समझदार आदमी एक की मुसीबत और दूसरे के ऐश को इस बात की दलील बना सकता है कि नेक इनसान को अल्लाह पसन्द नहीं करता और बुरे इनसान को वह पसन्द करता है?
۞قُلۡ يَٰعِبَادِيَ ٱلَّذِينَ أَسۡرَفُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ لَا تَقۡنَطُواْ مِن رَّحۡمَةِ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يَغۡفِرُ ٱلذُّنُوبَ جَمِيعًاۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 49
(53) (ऐ नबी) कह दो कि ऐ मेरे बन्दो,70 जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती की है, अल्लाह की रहमत से मायूस न हो जाओ, यक़ीनन अल्लाह सारे गुनाह माफ़ कर देता है,वह तो माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।71
70. कुछ लोगों ने इन अलफ़ाज़ का यह अनोखा मतलब निकाला है कि अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को ख़ुद “ऐ मेरे बन्दो” कहकर लोगों को मुख़ातब करने का हुक्म दिया है, लिहाज़ा सब इनसान नबी (सल्ल०) के बन्दे हैं। यह हक़ीक़त में एक ऐसा मनमाना मतलब है जिसे मनमाना मतलब नहीं, बल्कि क़ुरआन के मानी को बुरी तरह बिगाड़ना और अल्लाह के कलाम के साथ खेल कहना चाहिए। जाहिल अक़ीदतमन्दों का कोई गरोह तो इस बात को सुनकर झूम उठेगा, लेकिन यह मतलब अगर सही हो तो फिर पूरा क़ुरआन ग़लत हुआ जाता है, क्योंकि क़ुरआन तो शुरू से आख़िर तक इनसानों को सिर्फ़ अल्लाह तआला का बन्दा ठहराता है और उसकी सारी दावत ही यह है कि तुम एक अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो। मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुदा बन्दे थे। उनको अल्लाह ने रब नहीं, बल्कि रसूल बनाकर भेजा था और इसलिए भेजा था कि ख़ुद भी उसी की बन्दगी करें और लोगों को भी उसी की बन्दगी सिखाएँ। आख़िर किसी समझदार आदमी के दिमाग़ में यह बात कैसे समा सकती है कि मक्का में क़ुरैश के ग़ैर-मुस्लिमों के बीच खड़े होकर एक दिन मुहम्मद (सल्ल०) ने यकायक यह एलान कर दिया होगा कि तुम अब्दुल-उज़्ज़ा और अब्दे-शम्स के बजाय अस्ल में अब्दे-मुहम्मद (मुहम्मद के बन्दे) हो, (हम इस बात से अल्लाह की पनाह माँगते हैं)।
71. यह बात तमाम इनसानों से कही जा रही है, सिर्फ़ ईमानवालों के लिए ठहराने की कोई वज़नी दलील नहीं है और जैसा कि अल्लामा इब्ने-कसीर ने लिखा है, आम इनसानों को मुख़ातब करके यह बात कहने का मतलब यह नहीं है कि अल्लाह तआला तौबा किए और पलटे बिना सारे गुनाह माफ़ कर देता है, बल्कि बादवाली आयत में अल्लाह तआला ने ख़ुद ही वाज़ेह कर दिया है कि गुनाहों की माफ़ी की सूरत बन्दगी और फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलट आना और अल्लाह के उतारे हुए पैग़ाम की पैरवी को अपना लेना है। अस्ल में यह आयत उन लोगों के लिए उम्मीद का पैग़ाम लेकर आई थी जो जाहिलियत में क़त्ल, बदकारी, चोरी, डाके और ऐसे ही सख़्त गुनाहों में डूबे रह चुके थे और इस बात से मायूस थे कि ये क़ुसूर कभी माफ़ हो सकेंगे। उनसे फ़रमाया गया है कि अल्लाह की रहमत से मायूस न हो जाओ, जो कुछ भी तुम कर चुके हो उसके बाद अब अगर अपने रब की फ़रमाँबरदारी की तरफ़ पलट आओ तो सब कुछ माफ़ हो जाएगा। इस आयत का यही मतलब इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा, मुजाहिद और इब्ने-ज़ैद (रह०) ने बयान किया है। (इब्ने-जरीर, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-84।
وَأَنِيبُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّكُمۡ وَأَسۡلِمُواْ لَهُۥ مِن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلۡعَذَابُ ثُمَّ لَا تُنصَرُونَ ۝ 50
(54) पलट आओ अपने रब की तरफ़ और फ़रमाँबरदार जाओ उसके, इससे पहले कि तुमपर अज़ाब आ जाए और फिर कहीं से तुम्हें मदद न मिल सके।
وَٱتَّبِعُوٓاْ أَحۡسَنَ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَكُمُ ٱلۡعَذَابُ بَغۡتَةٗ وَأَنتُمۡ لَا تَشۡعُرُونَ ۝ 51
(55) और पैरवी अपना लो अपने रब की भेजी हुई किताब के बेहतरीन पहलू की,72 इससे पहले कि तुमपर अचानक अज़ाब आ जाए और तुमको ख़बर भी न हो।
72. अल्लाह की किताब के बेहतरीन पहलू की पैरवी करने का मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने जिन कामों का हुक्म दिया है आदमी उन्हें करे, जिन कामों से उसने मना किया है उनसे बचे और मिसालों और क़िस्सों में जो कुछ उसने कहा है उससे सबक़ और नसीहत हासिल करे। इसके बरख़िलाफ़ जो कोई ख़ुदा के हुक्म से मुँह मोड़ता है, जिन कामों से ख़ुदा ने रोका है उन कामों को करता है और अल्लाह की नसीहत से कोई असर नहीं लेता, वह अल्लाह की किताब के सबसे बुरे पहलू को अपनाता है, यानी वह पहलू अपनाता है जिसे अल्लाह की किताब सबसे बुरा ठहराती है।
أَن تَقُولَ نَفۡسٞ يَٰحَسۡرَتَىٰ عَلَىٰ مَا فَرَّطتُ فِي جَنۢبِ ٱللَّهِ وَإِن كُنتُ لَمِنَ ٱلسَّٰخِرِينَ ۝ 52
(56) कहीं ऐसा न हो कि बाद में कोई शख़्स कहे, “अफ़सोस मेरी उस कोताही पर जो मैं अल्लाह के हक़ में करता रहा, बल्कि मैं तो उलटा मज़ाक़ उड़ानेवालों में शामिल था!”
أَوۡ تَقُولَ لَوۡ أَنَّ ٱللَّهَ هَدَىٰنِي لَكُنتُ مِنَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 53
(57) या कहे, “काश, अल्लाह ने मुझे हिदायत दी होती तो मैं भी परहेज़गारों में से होता!”
أَوۡ تَقُولَ حِينَ تَرَى ٱلۡعَذَابَ لَوۡ أَنَّ لِي كَرَّةٗ فَأَكُونَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 54
(58) या अज़ाब देखकर कहे, “काश, मुझे एक मौक़ा और मिल जाए और मैं भी नेक अमल करनेवालों में शामिल हो जाऊँ!”
بَلَىٰ قَدۡ جَآءَتۡكَ ءَايَٰتِي فَكَذَّبۡتَ بِهَا وَٱسۡتَكۡبَرۡتَ وَكُنتَ مِنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 55
(59) (और उस वक़्त उसे यह जवाब मिले कि) “क्यों नहीं, मेरी आयतें तेरे पास आ चुकी थीं, फिर तूने उन्हें झुठलाया और घमण्ड किया और तू इनकारियों में से था।”
وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ تَرَى ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ عَلَى ٱللَّهِ وُجُوهُهُم مُّسۡوَدَّةٌۚ أَلَيۡسَ فِي جَهَنَّمَ مَثۡوٗى لِّلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 56
60) आज जिन लोगों ने ख़ुदा पर झूठ बाँधे हैं, क़ियामत के दिन तुम देखोगे कि उनके मुँह काले होंगे। क्या जहन्नम में घमण्ड करनेवालों के लिए काफ़ी जगह नहीं है?
وَيُنَجِّي ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ بِمَفَازَتِهِمۡ لَا يَمَسُّهُمُ ٱلسُّوٓءُ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 57
(61) इसके बरख़िलाफ़ जिन लोगों ने यहाँ परहेज़गारी अपनाई है, उनकी कामयाबी के असबाब की वजह से अल्लाह उनको नजात देगा, उनको न कोई नुक़सान पहुँचेगा और न वे दुखी होंगे।
ٱللَّهُ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٞ ۝ 58
(62) अल्लाह हर चीज़ का पैदा करनेवाला है और वही हर चीज़ पर निगहबान है।73
73. यानी उसने दुनिया को पैदा करके छोड़ नहीं दिया है, बल्कि वही हर चीज़ की देखभाल और निगरानी कर रहा है। दुनिया की तमाम चीज़ें जिस तरह उसके पैदा करने से वुजूद में आई हैं, उसी तरह वह उसके बाक़ी रखने से बाक़ी हैं, उसके परवरिश करने से फल-फूल रही हैं और उसकी हिफ़ाज़त और निगरानी में काम कर रही हैं।
لَّهُۥ مَقَالِيدُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 59
(63) ज़मीन और आसमानों के ख़ज़ाने की कुंजियाँ उसी के पास हैं। और जो लोग अल्लाह की आयात का कुफ़्र (इनकार) करते हैं, वही घाटे में रहनेवाले हैं।
قُلۡ أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَأۡمُرُوٓنِّيٓ أَعۡبُدُ أَيُّهَا ٱلۡجَٰهِلُونَ ۝ 60
(64) (ऐ नबी) इनसे कहो, “फिर क्या ऐ जाहिलो, तुम अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी करने के लिए मुझसे कहते हो?”
وَلَقَدۡ أُوحِيَ إِلَيۡكَ وَإِلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكَ لَئِنۡ أَشۡرَكۡتَ لَيَحۡبَطَنَّ عَمَلُكَ وَلَتَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 61
(65) (यह बात तुम्हें उनसे साफ़ कह देनी चाहिए, क्योंकि) तुम्हारी तरफ़ और तुमसे पहले गुज़रे हुए तमाम नबियों की तरफ़ यह वह्य भेजी जा चुकी है कि अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा अमल बरबाद हो जाएगा"74 और तुम घाटे में रहोगे।
74. यानी शिर्क (अनेकेश्वरवाद) के साथ किसी काम को अमले-सॉलेह (नेक काम) नहीं कहा जाएगा और जो शख़्स भी मुशरिक रहते हुए अपने नज़दीक बहुत-से कामों को नेक काम समझते हुए करेगा, उनपर वह किसी इनाम का हक़दार न होगा और उसकी पूरी ज़िन्दगी सरासर घाटा बनकर रह जाएगी।
بَلِ ٱللَّهَ فَٱعۡبُدۡ وَكُن مِّنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 62
(66) इसलिए (ऐ नबी) तुम बस अल्लाह ही की बन्दगी करो और शुक्रगुज़ार बन्दों में से हो जाओ।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦ وَٱلۡأَرۡضُ جَمِيعٗا قَبۡضَتُهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَٱلسَّمَٰوَٰتُ مَطۡوِيَّٰتُۢ بِيَمِينِهِۦۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 63
(67) इन लोगों ने अल्लाह की क़द्र ही न की जैसा कि उसकी क़द्र करने का हक़ हैं।75 (उसकी मुकम्मल क़ुदरत का हाल तो यह है कि) क़ियामत के दिन पूरी ज़मीन उसकी मुट्ठी में होगी और आसमान उसके दाहिने हाथ में लिपटे हुए होंगे76 पाक और बालातर है, वह उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं।”77
75. यानी उनको अल्लाह की अज़मत (महानता) और बड़ाई का कुछ अन्दाज़ा ही नहीं है। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि सारे जहानों के ख़ुदा का मक़ाम कितना ऊँचा है और वे हक़ीर (तुच्छ) हस्तियाँ क्या चीज़ हैं जिनको ये नादान लोग ख़ुदाई में शरीक करते हैं और इबादत का हक़दार बनाए बैठे हैं।
76. ज़मीन और आसमान पर अल्लाह तआला के मुकम्मल इक़तिदार और इख़्तियार की तस्वीर खींचने के लिए मुट्ठी में होने और हाथ पर लिपटे होने की मिसाल इस्तेमाल की गई है। जिस तरह एक आदमी किसी छोटी-सी गेंद को मुट्ठी में दबा लेता है और उसके लिए यह एक मामूली काम है, या एक आदमी एक रूमाल को लपेटकर हाथ में ले लेता है और उसके लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं होता, उसी तरह क़ियामत के दिन तमाम इनसान (जो आज अल्लाह की अज़मत और बड़ाई का अन्दाज़ा नहीं लगा सकते) अपनी आँखों से देख लेंगे कि ज़मीन और आसमान अल्लाह की क़ुदरत के हाथ में एक मामूली-सी गेंद और एक ज़रा-से रूमाल की तरह हैं। हदीस की मशहूर किताबों मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, इब्ने-माजा, इब्ने-जरीर वग़ैरा में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायतें लिखी हैं कि एक बार नबी (सल्ल०) मिम्बर पर ख़ुतबा दे रहे थे। ख़ुतबे के दौरान यह आयत आप (सल्ल०) ने तिलावत की और फ़रमाया, “अल्लाह तआला आसमानों और ज़मीनों (यानी सय्यारों और ग्रहों) को अपनी मुट्ठी में लेकर इस तरह फिराएगा जैसे एक बच्चा गेंद फिराता है और फ़रमाएगा, “मैं हूँ अकेला ख़ुदा, मैं हूँ बादशाह, मैं हूँ ताक़तवर, मैं हूँ बड़ाई का मालिक, कहाँ हैं ज़मीन के बादशाह? कहाँ हैं ज़ोर रखनेवाले? कहाँ हैं ख़ुदपर घमण्ड करनेवाले?” यह कहते-कहते नबी (सल्ल०) पर ऐसी कपकपी तारी हुई कि हमें ख़तरा होने लगा कि कहीं आप मिम्बर के साथ गिर न पड़ें।
77. यानी कहाँ उसकी यह अज़मत (महानता) और बड़ाई की शान और कहाँ उसके साथ ख़ुदाई में किसी का शरीक होना।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَصَعِقَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا مَن شَآءَ ٱللَّهُۖ ثُمَّ نُفِخَ فِيهِ أُخۡرَىٰ فَإِذَا هُمۡ قِيَامٞ يَنظُرُونَ ۝ 64
(68) और उस दिन सूर (नरसिंघा) फूँका जायेगा78 और वे सब मरकर गिर जाएँगे जो आसमानों और ज़मीन में हैं सिवाय उनके जिन्हें अल्लाह ज़िन्दा रखना चाहे। फिर एक दूसरा सूर फूँका जाएगा और यकायक सब-के-सब उठकर देखने लगेंगे।"79
78. सूर (नरसिंघा) की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-47; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-57; सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-73; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78; सूरा-22 हज, हाशिया-1; सूरा-23 मोमिनून, हाश्यिा-94; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-106।
79. यहाँ सिर्फ़ दो बार सूर फूँके जाने का ज़िक्र है। इनके अलावा सूरा-27 नम्ल में इन दोनों से पहले एक और सूर फूँके जाने का ज़िक्र भी आया है, जिसे सुनकर ज़मीन और आसमान के सारे जानदार ख़ौफ़ज़दा हो जाएँगे (आयत-87)। इसी बुनियाद पर हदीसों में तीन बार सूर फूँके जाने का ज़िक्र किया गया है। एक ‘नफ़ख़तुल-फ़ज़अ’, यानी घबरा देनेवाला सूर। दूसरा ‘नफ़ख़तुस-सअन’, यानी मार गिरानेवाला सूर। तीसरा ‘नफ़ख़तुल-क़ियामि लिरब्बिल-आलमीन’, यानी वह सूर जिसे फूँकते ही तमाम इनसान जी उठेंगे और अपने रब के सामने पेश होने के लिए अपनी क़ब्रों से निकल आएँगे।
وَأَشۡرَقَتِ ٱلۡأَرۡضُ بِنُورِ رَبِّهَا وَوُضِعَ ٱلۡكِتَٰبُ وَجِاْيٓءَ بِٱلنَّبِيِّـۧنَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 65
(69) ज़मीन अपने रब के नूर से चमक उठेगी, आमाल की किताब लाकर रख दी जाएगी, पैग़म्बर और तमाम गवाह80 हाज़िर कर दिए जाएँगे, लोगों के बीच ठीक-ठीक हक़ के साथ फ़ैसला कर दिया जाएगा और उनपर कोई ज़ुल्म न होगा।
80. गवाहों से मुराद वे गवाह हैं जो इस बात की गवाही देंगे कि लोगों तक अल्लाह तआला का पैग़ाम पहुँचा दिया गया था और वे गवाह भी जो लोगों के आमाल की गवाही पेश करेंगे। ज़रूरी नहीं है कि ये गवाह सिर्फ़ इनसान ही हों। फ़रिश्ते, जिन्न और जानवर और इनसानों के अपने जिस्मानी हिस्से और दरो-दीवार, पेड़-पौधे और पत्थर, सब इन गवाहों में शामिल होंगे।
وَوُفِّيَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 66
(70) और हर इनसान को जो कुछ भी उसने अमल किया था, उसका पूरा-पूरा बदला दे दिया जाएगा। लोग जो कुछ भी करते हैं, अल्लाह उसको ख़ूब जानता है।
وَسِيقَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ جَهَنَّمَ زُمَرًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوهَا فُتِحَتۡ أَبۡوَٰبُهَا وَقَالَ لَهُمۡ خَزَنَتُهَآ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَتۡلُونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِ رَبِّكُمۡ وَيُنذِرُونَكُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَاۚ قَالُواْ بَلَىٰ وَلَٰكِنۡ حَقَّتۡ كَلِمَةُ ٱلۡعَذَابِ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 67
(71) (इस फ़ैसले के बाद) वे लोग जिन्होंने कुफ़्र किया था, जहन्नम की तरफ़ गरोह-दर-गरोह हाँके जाएँगे, यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे तो उसके दरवाज़े खोले जाएँगे81 और उसके कर्मचारी उनसे कहेंगे, “क्या तुम्हारे पास तुम्हारे अपने लोगों में से ऐसे रसूल नहीं आए थे, जिन्होंने तुमको तुम्हारे रब की आयतें सुनाई हों और तुम्हें इस बात से डराया हो कि एक वक़्त तुम्हें यह दिन भी देखना होगा?” वे जवाब देंगे, “हाँ, आए थे, मगर अज़ाब का फ़ैसला (अल्लाह का) इनकार करनेवालों पर चिपक गया।"
81. यानी जहन्नम के दरवाज़े पहले से खुले न होंगे, बल्कि उनके पहुँचने पर खोले जाएँगे, जिस तरह मुजरिमों के पहुँचने पर जेल का दरवाज़ा खोला जाता है और उनके दाख़िल होते ही बन्द कर दिया जाता है।
قِيلَ ٱدۡخُلُوٓاْ أَبۡوَٰبَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ فَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلۡمُتَكَبِّرِينَ ۝ 68
(72) कहा जाएगा, “दाख़िल हो जाओ जहन्नम के दरवाज़ों में, यहाँ अब तुम्हें हमेशा रहना है, बड़ा ही बुरा ठिकाना है यह घमण्डियों के लिए।
وَسِيقَ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ إِلَى ٱلۡجَنَّةِ زُمَرًاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوهَا وَفُتِحَتۡ أَبۡوَٰبُهَا وَقَالَ لَهُمۡ خَزَنَتُهَا سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡ طِبۡتُمۡ فَٱدۡخُلُوهَا خَٰلِدِينَ ۝ 69
(73) और जो लोग अपने रब की नाफ़रमानी से बचते थे, उन्हें गरोह-दर-गरोह जन्नत की तरफ़ ले जाया जाएगा। यहाँ तक कि जब वे वहाँ पहुँचेंगे और उसके दरवाज़े पहले ही खोले जा चुके होंगे, तो उसके इन्तिज़ाम करनेवाले उनसे कहेंगे कि “सलाम हो तुमपर, बहुत अच्छे रहे, दाख़िल हो जाओ इसमें हमेशा के लिए।”
وَقَالُواْ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي صَدَقَنَا وَعۡدَهُۥ وَأَوۡرَثَنَا ٱلۡأَرۡضَ نَتَبَوَّأُ مِنَ ٱلۡجَنَّةِ حَيۡثُ نَشَآءُۖ فَنِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 70
(74) और वे कहेंगे, “शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमारे साथ अपना वादा सच कर दिखाया और हमको ज़मीन का वारिस बना दिया।82 अब हम जन्नत में जहाँ चाहें अपनी जगह बना सकते हैं।83 तो बेहतरीन बदला है अमल करनेवालों के लिए।84
82. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-83, 106; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-99।
83. यानी हममें से हर एक को जो जन्नत दी गई है वह अब हमारी मिलकियत है और हमें इसमें पूरे अधिकार हासिल हैं।
84. हो सकता है कि यह जन्नतियों का कहना हो और यह भी हो सकता है कि जन्नतवालों की बात पर यह जुमला अल्लाह तआला की तरफ़ से इज़ाफ़े के तौर पर कहा गया हो।
85. यानी पूरी कायनात (सृष्टि) अल्लाह की हम्द (शुक्र और तारीफ़) पुकार उठेगी।
وَتَرَى ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ حَآفِّينَ مِنۡ حَوۡلِ ٱلۡعَرۡشِ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡۚ وَقُضِيَ بَيۡنَهُم بِٱلۡحَقِّۚ وَقِيلَ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 71
(75) और तुम देखोगे कि फ़रिश्ते अर्श के आस-पास घेरा बनाए हुए अपने रब की हम्द और तसबीह (महिमागान) कर रहे होंगे। और लोगों के दरमियान ठीक-ठीक हक़ के साथ फ़ैसला चुका दिया जाएगा और पुकार दिया जाएगा कि हम्द है सारे जहानों के रब अल्लाह के लिए।
قَدۡ قَالَهَا ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 72
(50) यही बात इनसे पहले गुज़रे हुए लोग भी कह चुके हैं, मगर जो कुछ वे कमाते थे, वह उनके किसी काम न आया।68
68. मतलब यह है कि जब उनकी शामत आई तो वह क़ाबिलियत भी धरी रह गई जिसका उन्हें दावा था और यह बात भी खुल गई कि वे अल्लाह के पसन्दीदा बन्दे न थे। ज़ाहिर है कि अगर उनकी यह कमाई पसन्दीदगी और सलाहियत (योग्यता) की बुनियाद पर होती तो शामत कैसे आ जाती।
فَأَصَابَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا كَسَبُواْۚ وَٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ هَٰٓؤُلَآءِ سَيُصِيبُهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا كَسَبُواْ وَمَا هُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 73
(51) फिर अपनी कमाई के बुरे नतीजे उन्होंने भुगते और उन लोगों में से भी जो ज़ालिम हैं वे बहुत जल्द अपनी कमाई के बुरे नतीजे भुगतेंगे, ये हमें बेबस कर देनेवाले नहीं हैं।
أَوَلَمۡ يَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 74
(52) और क्या इन्हें मालूम नहीं है कि अल्लाह जिसकी चाहता है रोज़ी कुशादा कर देता है और जिसकी चाहता है तंग कर देता है?69 इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
69. यानी रोज़ी की तंगी और कुशादगी अल्लाह के एक-दूसरे ही क़ानून के मुताबिक़ है, जिसकी मस्लहतें कुछ और हैं। इस रोज़ी के बाँटे जाने का दारोमदार आदमी के लायक़ और क़ाबिल होने, या उसके पसन्दीदा और नापसन्दीदा होने पर हरगिज़ नहीं है। इस बात की तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, हाशिए—54, 75, 89; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-23; सूरा-11 हूद, हाशिए—3, 33; सूरा-13 रअद, हाशिया-42; सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-37; सूरा-19 मरयम, हाशिया-15; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—113, 114; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-99; सूरा-23 मोमिनून, परिचय, हाशिए—1, 49, 50; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—81, 84; सूरा-28 क़सस, हाशिए—97, 98, 101; सूरा-34 सबा, हाशिए—54 से 60।