(60) तुम्हारा82 रब कहता है, “मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआएँ क़ुबूल करूँगा,83 जो लोग घमण्ड में आकर मेरी इबादत से मुँह मोड़ते हैं, ज़रूर वे बेइज़्ज़त और रुसवा होकर जहन्नम में दाख़िल होंगे।84
82. आख़िरत के बाद अब तौहीद (एकेश्वरवाद) पर बात शुरू हो रही है। जो इस्लाम-मुख़ालिफ़ों और नबी (सल्ल०) के दरमियान इख़्तिलाफ़ की दूसरी वजह थी।
83. यानी दुआएँ क़ुबूल करने और न करने के कुल अधिकार ख़ुदा के पास हैं, इसलिए तुम दूसरों से दुआएँ न माँगो, बल्कि ख़ुदा से माँगो। इस आयत की रूह को ठीक-ठीक समझने के लिए तीन बातें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिएँ—
एक यह कि दुआ आदमी सिर्फ़ उस हस्ती से माँगता है, जिसको वह सुनने और देखनेवाला और फ़ितरी ताक़तों से बढ़कर ताक़तों (Supernatural powers) का मालिक समझता है और दुआ माँगने पर उकसानेवाली चीज़ अस्ल में आदमी का यह अन्दरूनी एहसास होता है कि आलमे-असबाब (कारण-जगत्) के तहत फ़ितरी ज़रिए और वसाइल (संसाधन) उसकी तकलीफ़ को दूर करने या किसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए काफ़ी नहीं हैं या काफ़ी साबित नहीं हो रहे हैं, इसलिए किसी फ़ितरी ताक़तों से परे ताक़तों की मालिक हस्ती से रुजू करना ज़रूरी है। उस हस्ती को आदमी बिना देखे पुकारता है। हर वक़्त, हर जगह, हर हाल में पुकारता है। अकेलेपन की तन्हाइयों में पुकारता है। ज़ोर की आवाज़ ही से नहीं, चुपके-चुपके भी पुकारता उससे मदद की दरख़ास्तें करता है। यह सब कुछ लाज़िमी तौर पर है, बल्कि दिल-ही-दिल में इस अक़ीदे की बुनियाद पर होता है कि वह हस्ती उसको हर जगह हर हाल में देख रही है। उसके दिल की बात भी सुन रही है और उसको ऐसी ज़बरदस्त और पूरी क़ुदरत (सामर्थ्य) हासिल है कि उसे पुकारनेवाला जहाँ भी हो, वह उसकी मदद को पहुँच सकती है और उसकी बिगड़ी बना सकती है। दुआ की इस हक़ीक़त को जान लेने के बाद यह समझना आदमी के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं रहता कि जो कोई अल्लाह के सिवा किसी और को मदद के लिए पुकारता है, वह हक़ीक़त में यक़ीनी तौर से और ख़ालिस शिर्क का जुर्म करता है, क्योंकि वह उस हस्ती के अन्दर उन सिफ़ात का अक़ीदा रखता है जो सिर्फ़ अल्लाह तआला ही की सिफ़ात हैं। अगर वह उसको उन ख़ुदाई सिफ़ात में अल्लाह का शरीक न समझता तो उससे दुआ माँगने का ख़याल तक कभी उसके ज़ेहन में न आ सकता था।
दूसरी बात जो इस सिलसिले में अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए, वह यह है कि किसी हस्ती के बारे में आदमी का अपनी जगह यह समझ बैठना कि वह अधिकारों की मालिक है, इससे यह ज़रूरी नहीं हो जाता कि वह सचमुच अधिकारों की मालिक हो जाए। अधिकारों का मालिक होना तो एक हक़ीक़ी सच है जिसका दारोमदार किसी के समझने या न समझने पर नहीं है। जो हक़ीक़त में अधिकारों का मालिक है वह बहरहाल मालिक ही रहेगा, चाहे आप उसे मालिक समझें या न समझें और जो हक़ीक़त में मालिक नहीं है, उसको सिर्फ़ यह बात कि आपने उसे मालिक समझ लिया है, अधिकारों में ज़र्रा बराबर भी कोई हिस्सा न दिलवा सकेगी। अब यह बात एक हक़ीक़ी सच है कि सब कुछ कर सकनेवाला (सर्वशक्तिमान), कायनात को चलानेवाला और सब कुछ सुनने और सब कुछ देखनेवाला सिर्फ़ अल्लाह तआला ही है और वही पूरे तौर पर अधिकारों का मालिक है। दूसरा कोई भी इस पूरी कायनात में ऐसा नहीं है जो दुआएँ सुनने और उनपर क़ुबूल होने या क़ुबूल न होने की हालत में कोई कार्रवाई करने के अधिकार रखता हो। इस हक़ीक़ी सच के ख़िलाफ़ अगर लोग अपनी जगह कुछ नबियों, वलियों, फ़रिश्तों, जिन्नों, सय्यारों (ग्रहों) और फ़र्ज़ी (काल्पनिक) देवताओं को अधिकारों में शरीक समझ बैठें तो इससे हक़ीक़त में ज़र्रा बराबर भी कोई फ़र्क़ न आएगा। मालिक, मालिक ही रहेगा और बेबस और बेइख़्तियार बन्दे, बन्दे ही रहेंगे।
तीसरी बात यह है कि अल्लाह तआला के सिवा दूसरों से दुआएँ माँगना बिलकुल ऐसा है जैसे कोई शख़्स दरख़ास्त लिखकर हुकूमत के दरबार की तरफ़ जाए, मगर तमाम अधिकार रखनेवाले हाकिम को छोड़कर वहाँ जो दूसरे सवाली अपनी ज़रूरतें लिए बैठे हों, उन्हीं में से किसी एक के आगे अपनी दरख़ास्त पेश कर दे और फिर हाथ जोड़-जोड़कर उससे इलतिजाएँ (विनतियाँ) करता चला जाए कि हुज़ूर ही सब कुछ हैं, आप ही का यहाँ हुक्म चलता है, मेरी मुराद आप ही पूरी करेंगे तो पूरी होगी। यह हरकत अव्वल तो अपनी जगह ख़ुद बहुत बड़ी बेवक़ूफ़ी और जहालत है, लेकिन ऐसी हालत में यह इन्तिहाई गुस्ताख़ी भी बन जाती है, जबकि अधिकार रखनेवाला अस्ल हाकिम सामने मौजूद हो और ठीक उसकी मौजूदगी में उसे छोड़कर किसी दूसरे के सामने दरख़ास्तें और इलतिजाएँ पेश की जा रही हों। फिर यह जहालत अपने कमाल (चरम) पर उस वक़्त पहुँच जाती है जब वह शख़्स जिसके सामने दरख़ास्त पेश की जा रही हो, ख़ुद बार-बार समझाए कि मैं तो ख़ुद तेरी ही तरह का एक सवाली हूँ, मेरे हाथ में कुछ नहीं है, अस्ल हाकिम सामने मौजूद है, तू उसकी सरकार में अपनी दरख़ास्त पेश कर, मगर उसके समझाने और मना करने के बावजूद यह बेवक़ूफ़ कहता ही चला जाए कि मेरे सरकार तो आप हैं, मेरा काम आप ही बनाएँगे तो बनेगा।
इन तीनों बातों को ज़ेहन में रखकर अल्लाह तआला के इस फ़रमान को समझने की कोशिश कीजिए कि मुझे पुकारो, तुम्हारी दुआओं का जवाब देनेवाला मैं हूँ, उन्हें क़ुबूल करना मेरा काम है।
84. इस आयत में दो बातें ख़ास तौर पर ध्यान देने के लायक़ हैं। एक यह कि दुआ और इबादत को यहाँ मुतरादिफ़ (पर्यायवाची) अलफ़ाज़ के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि पहले जुमले में जिस चीज़ को 'दुआ' कहा गया था, उसी को दूसरे जुमले में ‘इबादत' कहा गया है। इससे यह बात साफ़ हो गई कि दुआ हक़ीक़ी इबादत और इबादत की जान है। दूसरी यह कि अल्लाह से दुआ न माँगनेवालों के लिए “घमण्ड में आकर मेरी इबादत से मुँह मोड़ते हैं” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह से दुआ माँगना ठीक बन्दगी का तक़ाज़ा है और उससे मुँह मोड़ने का मतलब यह है कि आदमी घमण्ड में पड़ा है, इसलिए अपने पैदा करनेवाले और मालिक के आगे बन्दगी का इक़रार करने से कतराता है। नबी (सल्ल०) ने अपने फ़रमानों में आयत की इन दोनों बातों को खोलकर बयान कर दिया है।
हज़रत नोमान-बिन-बशीर (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दुआ ही इबादत है,” फिर आप (सल्ल०) ने क़ुरआन की यह आयत तिलावत की, “उदऊनी अस्तजिब लकुम.........” (हदीस : बुख़ारी, अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, नसई, इब्ने-माजा, इब्ने-अबी-हातिम, इबने-जरीर)। हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दुआ इबादत का मग़्ज़ (मूल तत्त्व) है।” (हदीस : तिरमिज़ी)। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो अल्लाह से नहीं माँगता, अल्लाह को उसपर ग़ुस्सा आता है।” (हदीस : तिरमिज़ी)।
इस जगह पर पहुँचकर वह गाँठ भी खुल जाती है जो बहुत-से ज़ेहनों में अकसर उलझन डालती रहती है। लोग दुआ के मामले पर इस तरह सोचते हैं कि जब तक़दीर की बुराई और भलाई अल्लाह के इख़्तियार में है और वह अपनी पूरी तरह हावी हिकमत और मस्लहत के लिहाज़ से जो फ़ैसला कर चुका है, वही कुछ ज़रूर ही सामने आकर रहना है तो फिर हमारे दुआ माँगने का फ़ायदा क्या है।
यह एक बड़ी ग़लतफ़हमी है जो आदमी के दिल से दुआ की सारी अहमियत निकाल देती है और इस ग़लत ख़याल में मुब्तला रहते हुए अगर आदमी दुआ माँगे भी तो उसकी दुआ में कोई रूह बाक़ी नहीं रहती। क़ुरआन मजीद की ऊपर बयान की हुई आयत इस ग़लतफ़हमी को दो तरीक़ों से दूर करती है। एक, अल्लाह तआला साफ़ अलफ़ाज़ में फ़रमा रहा है कि “मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआएँ क़ुबूल करूँगा।” इससे साफ़ मालूम हुआ कि अल्लाह का फ़ैसला और तक़दीर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसने हमारी तरह, अल्लाह की पनाह, ख़ुद अल्लाह के हाथ भी बाँध दिए हों और दुआ क़ुबूल करने के इख़्तियार उससे छिन गए हों। बन्दे तो बेशक अल्लाह के फ़ैसलों को टालने या बदल देने की ताक़त नहीं रखते, मगर अल्लाह तआला ख़ुद यह ताकत ज़रूर रखता है कि किसी बन्दे की दुआएँ और इलतिजाएँ सुनकर अपना फ़ैसला बदल दे। दूसरी बात जो इस आयत में बयान की गई है, वह यह है कि दुआ चाहे क़ुबूल हो या न हो, बहरहाल एक फ़ायदे और बहुत बड़े फ़ायदे से वह किसी तरह भी ख़ाली नहीं होती और वह यह कि बन्दा अपने रब के सामने अपनी ज़रूरतें पेश करके और उससे दुआ माँगकर उसके मालिक होने और सबसे बढ़कर होने को मानता और अपनी बन्दगी और बेबसी का इक़रार करता है। बन्दगी का यह इज़हार अपनी जगह ख़ुद इबादत, बल्कि इबादत की जान है, जिसके बदले से बन्दा किसी हाल में भी महरूम (वंचित) न रहेगा, चाहे वह ख़ास चीज़ उसको दी जाए या न दी जाए जिसके लिए उसने दुआ की थी।
नबी (सल्ल०) के फ़रमानों में ये दोनों बातें साफ़ तौर पर बयान कर दी गई हैं। पहली बात पर नीचे दी जा रही हदीसें रौशनी डालती हैं—
हज़रत सलमान फ़ारसी (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़ज़ा (अल्लाह के फ़ैसले) को कोई चीज़ नहीं टाल सकती सिवाय दुआ के।” (हदीस : तिरमिज़ी) यानी अल्लाह के फ़ैसले को बदल देने की ताक़त किसी में नहीं है, मगर अल्लाह अपना फ़ैसला ख़ुद बदल सकता है और यह उस वक़्त होता है जब बन्दा उससे दुआ माँगता है।
हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आदमी जब कभी अल्लाह से दुआ माँगता है, अल्लाह उसे या तो वही चीज़ देता है जिसकी उसने दुआ की थी या उसी दरजे की कोई मुसीबत उसपर आने से रोक देता है, शर्त यह है कि वह किसी गुनाह की या रिश्ता तोड़ने की दुआ न करे।” (हदीस : तिरमिज़ी) इसी से मिलती-जुलती बात
एक दूसरी हदीस में है जो हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से रिवायत की है। उसमें नबी (सल्ल०) ने यह फ़रमाया है, “एक मुसलमान जब भी कोई दुआ माँगता है, शर्त यह है कि वह किसी गुनाह या रिश्ता तोड़ने की दुआ न हो, तो अल्लाह उसे तीन शक्लों में से किसी एक शक्ल में क़ुबूल करता है। या तो उसकी वह दुआ इसी दुनिया में क़ुबूल कर ली
जाती है, या उसे आख़िरत में बदला देने के लिए बचाकर रख लिया जाता है, या उसी दरजे की किसी आफ़त को उसपर आने से रोक दिया जाता है।” (हदीस : मुसनद अहमद)
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब तुममें से कोई शख़्स दुआ माँगे तो यूँ न कहे कि ऐ ख़ुदा, मुझे माफ़ कर दे अगर तू चाहे, मुझपर रहम कर अगर तू चाहे, मुझे रोज़ी दे अगर तू चाहे, बल्कि उसे यक़ीन के साथ कहना चाहिए कि ऐ ख़ुदा मेरी फ़ुलाँ ज़रूरत पूरी कर।” (हदीस : बुख़ारी) दूसरी रिवायत हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) ही से इन अलफ़ाज़ में आई है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह से दुआ माँगो इस यक़ीन के साथ कि वह क़ुबूल करेगा।” (हदीस : तिरमिज़ी)
एक और रिवायत में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) का यह इरशाद (कथन) नक़्ल करते हैं कि “बन्दे की दुआ क़ुबूल की जाती है, शर्त यह है कि वह किसी गुनाह की या रिश्ता तोड़ने की दुआ न करे और जल्दबाज़ी से काम न ले।” पूछा गया कि जल्दबाज़ी क्या है, ऐ अल्लाह के रसूल? फ़रमाया, “जल्दबाज़ी यह है कि आदमी कहे कि मैंने बहुत दुआ की, बहुत दुआ की, मगर मैं देखता हूँ कि मेरी दुआ क़ुबूल ही नहीं होती और यह कहकर आदमी थक जाए और दुआ माँगनी छोड़ दे।” (हदीस : मुस्लिम)
दूसरी बात को नीचे लिखी हदीसें वाज़ेह करती हैं—
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह की निगाह में
दुआ से बढ़कर कोई चीज़ क़द्र के काबिल नहीं है।” (हदीस : तिरमिज़ी, इब्ने-माजा)।
हज़रत इब्ने-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह से उसकी मेहरबानी माँगो, क्योंकि अल्लाह इसे पसन्द करता है कि उससे माँगा जाए।” (हदीस : तिरमिज़ी)।
हज़रत इब्ने-उमर (रज़ि०) और हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दुआ बहरहाल फ़ायदेमन्द है उन मुसीबतों के मामले में भी जो आ चुकी हैं और उनके मामले में भी जो नहीं आईं। तो ऐ ख़ुदा के बन्दो, तुम ज़रूर दुआ माँगा करो।" (हदीस : तिरमिज़ी, मुसनद अहमद)।
हज़रत अनस (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुममें से हर शख़्स को अपनी हर ज़रूरत अल्लाह से माँगनी चाहिए, यहाँ तक कि अगर उसकी जूती का तसमा भी टूट जाए तो अल्लाह से दुआ करे।” यानी जो मामले बज़ाहिर आदमी को अपने बस में महसूस होते हैं, उनमें भी तदबीर करने से पहले उसे ख़ुदा से मदद माँगनी चाहिए, इसलिए कि किसी मामले में भी हमारी कोई तदबीर ख़ुदा की मेहरबानी और मदद के बिना कामयाब नहीं हो सकती और तदबीर से पहले दुआ का मतलब यह है कि बन्दा हर वक़्त अपनी कमज़ोरी और ख़ुदा के सबसे बढ़कर होने को मान रहा है।