(13) उसने तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा मुक़र्रर किया है जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसे (ऐ मुहम्मद) अब तुम्हारी तरफ़ हमने वह्य के ज़रिए से भेजा है और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताक़ीद के साथ कि क़ायम करो इस दीन को और इसमें टुकड़े-टुकड़े न हो जाओ।20 यही बात इन मुशरिकों को सख़्त नागवार हुई, जिसकी तरफ़ (ऐ नबी) तुम उन्हें दावत दे रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है, अपना कर लेता है और वह अपनी तरफ़ आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी तरफ़ पलटे।21
20. यहाँ उसी बात को फिर ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है जो पहली आयत में कही गई थी। इसमें साफ़-साफ़ बताया गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) किसी नए मज़हब की बुनियाद डालनेवाले नहीं हैं, न नबियों (अलैहि०) में से कोई अपने किसी अलग मज़हब की बुनियाद डालनेवाला गुज़रा है, बल्कि अल्लाह की तरफ़ से एक ही दीन है जिसे शुरू से तमाम पैग़म्बर पेश करते चले आ रहे हैं और उसी को मुहम्मद (सल्ल०) भी पेश कर रहे हैं। इस सिलसिले में सबसे पहले हज़रत नूह (अलैहि०) का नाम लिया गया है, जो तूफ़ान के बाद मौजूदा इनसानी नस्ल के सबसे पहले पैग़म्बर थे, उसके बाद नबी (सल्ल०) का ज़िक्र किया गया है जो आख़िरी नबी हैं, फ़िर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का नाम लिया गया है, जिन्हें अरबवाले अपना पेशवा मानते थे और आख़िर में हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) का ज़िक्र किया गया है, जिनसे यहूदी और ईसाई अपने मज़हब को जोड़ते हैं। इसका मक़सद यह नहीं है कि इन्हीं पाँच नबियों को उस दीन की हिदायत की गई थी, बल्कि अस्ल मक़सद यह बताना है कि दुनिया में जितने पैग़म्बर (अलैहि०) भी आए हैं, सब एक ही दीन लेकर आए हैं और नमूने के तौर पर उन पाँच बड़े नबियों का नाम ले दिया गया है, जिनसे दुनिया को सबसे ज़्यादा मशहूर आसमानी शरीअतें मिली हैं।
यह आयत चूँकि दीन और उसके मक़सद पर बड़ी अहम रौशनी डालती है, इसलिए ज़रूरी है कि इसपर पूरी तरह ग़ौर करके इसे समझा जाए—
कहा कि “श-र-अ लकुम” (मुक़र्रर किया तुम्हारे लिए)। अस्ल अरबी लफ़्ज़ 'श-र-अ' के मानी रास्ता बनाने के हैं और इस्लामी ज़बान में इससे मुराद तरीक़ा और ज़ाब्ता और क़ायदा तय करना है। अरबी ज़बान में इसी इस्लामी मानी के लिहाज़ से तशरीअ (क़ानूनी हुक्म) के लफ़्ज़ क़ानून साज़ी (Legislation) का, शरअ और शरीअत का लफ़्ज़ क़ानून (Law) का और शारेअ का लफ़्ज़ क़ानून बयान करनेवाले (Lawgiver) का हममानी (समानार्थी) समझा जाता है। यह ख़ुदाई क़ानून अस्ल में फ़ितरी और मनतिक़ी (तार्किक) नतीजा है उन उसूली हक़ीक़तों का जो ऊपर आयत 1, 9 और 10 में बयान हुई हैं कि अल्लाह ही कायनात की हर चीज़ का मालिक है और वही इनसान का हक़ीक़ी वली (सरपरस्त) है और इनसानों के बीच जिस बात में भी इख़्तिलाफ़ हो, उसका फ़ैसला करना उसी काम है। अब चूँकि उसूली तौर पर अल्लाह ही मालिक और वली (सरपरस्त) और हाकिम है, इसलिए लाज़िमन वही इसका हक़ रखता है कि इनसान के लिए क़ानून और ज़ाब्ता बनाए और उसी की यह ज़िम्मेदारी है कि इनसानों को यह क़ानून और ज़ाब्ता दे। चुनाँचे अपनी इस ज़िम्मेदारी को उसने यूँ अदा कर दिया है।
फिर फ़रमाया, “मिनद्-दीन” (दीन की क़िस्म में से)। शाह वलीयुल्लाह साहब (रह०) ने इसका तर्जमा “अज़ आईन” किया है। यानी अल्लाह तआला ने जो शरीअत बनाई है, वह आईन (दस्तूर व संविधान) की हैसियत रखती है। लफ़्ज़ 'दीन' की जो तशरीह हम इससे पहले सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-3 में कर चुके हैं, वह अगर निगाह में रहे तो यह समझने में कोई उलझन पेश नहीं आ सकती कि दीन का मतलब ही किसी की सरदारी और हाकिमियत तस्लीम करके उसके हुक्मों की पैरवी करना है और जब यह लफ़्ज़ 'तरीक़े' के मानी में बोला जाता है तो इससे मुराद वह तरीक़ा होता है जिसे आदमी पैरवी के लिए ज़रूरी और जिसके मुक़र्रर करनेवाले को फ़रमाँबरदारी के क़ाबिल माने। इस बुनियाद पर अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए इस तरीक़े को दीन की तरह की शरीअत कहने का साफ़ मतलब यह है कि इसकी हैसियत सिर्फ़ सिफ़ारिश (Recommendation) और नसीहत की नहीं है, बल्कि यह बन्दों के लिए उनके मालिक का ऐसा क़ानून है जिसकी पैरवी वाजिब (अनिवार्य) है, जिसकी पैरवी न करने का मतलब बग़ावत करना है और जो आदमी इसकी पैरवी नहीं करता, वह अस्ल में अल्लाह की सरदारी और हाकिमियत और अपनी बन्दगी इनकार करता है।
इसके बाद कहा गया कि दीन की तरह की यह शरीअत वही है जिसकी हिदायत नूह (अलैहि०), इबहराहीम (अलैहि०) और मूसा (अलैहि०) को दी गई थी और उसी की हिदायत अब मुहम्मद (सल्ल०) को दी गई है। इस बात से कई बातें निकलती हैं। एक यह कि अल्लाह तआला ने अपनी इस शरीअत को सीधे तौर पर हर इनसान के पास नहीं भेजा है, बल्कि वक़्त-वक़्त पर जब उसने मुनासिब समझा है एक शख़्स को अपना रसूल बनाकर यह शरीअत उसके हवाले की है। दूसरी यह कि यह शरीअत इबतिदा से एक जैसी रही है। ऐसा नहीं है कि किसी ज़माने में किसी क़ौम के लिए कोई दीन मुक़र्रर किया गया हो और किसी दूसरे ज़माने में किसी और क़ौम के लिए उससे अलग और उसके बिलकुल उलट दीन भेज दिया गया हो। ख़ुदा की तरफ़ से बहुत-से दीन नहीं आए हैं, बल्कि जब भी आया है यही एक दीन आया है। तीसरी यह कि अल्लाह की सरदारी और हाकिमियत मानने के साथ उन लोगों की पैग़म्बरी को मानना जिनके ज़रिए से यह शरीअत भेजी गई है और उस वह्य को मानना जिसमें यह शरीअत बयान की गई है, इस दीन का ज़रूरी हिस्सा है और अक़्ल और मनतिक़ तर्क (तार्किकता) का तक़ाज़ा भी यही है कि उसको ज़रूरी हिस्सा होना चाहिए, क्योंकि आदमी इस शरीअत की पैरवी कर ही नहीं सकता जब तक वह उसके ख़ुदा की तरफ़ से मुस्तनद (Authentic) होने पर मुत्मइन न हो।
इसके बाद फ़रमाया इन सब नबियों (अलैहि०) को दीन की हैसियत रखनेवाली यह शरीअत इस हिदायत और ताकीद के साथ दी गई थी कि “अक़ीमुद्-दीन” (दीन क़ायम करो)। इस जुमले का तर्जमा शाह वलीयुल्लाह साहब (रह०) ने “क़ायम कुनीद दीन रा” किया है और शाह रफ़ीउद्दीन साहब (रह०) और शाह अब्दुल-क़ादिर साहब (रह०) ने भी “क़ायम रखो दीन को।” ये दोनों तर्जमे सही हैं। 'इक़ामत' का मतलब क़ायम करना भी है और क़ायम रखना भी और नबी (अलैहि०) इन दोनों ही कामों पर मुक़र्रर थे। उनका पहला फ़र्ज़ यह था कि जहाँ यह दीन क़ायम नहीं है, वहाँ इसे क़ायम करें और दूसरा फ़र्ज़ यह था कि जहाँ यह क़ायम हो जाए या पहले से क़ायम हो वहाँ इसे क़ायम रखें। ज़ाहिर बात है कि क़ायम रखने की नौबत आती ही उस वक़्त है जब एक चीज़ क़ायम हो चुकी हो। वरना पहले उसे क़ायम करना होगा, फिर यह कोशिश लगातार जारी रखनी पड़ेगी कि वह क़ायम रहे।
अब हमारे सामने दो सवाल आते हैं। एक यह कि दीन को क़ायम करने से मुराद क्या है? दूसरा यह कि ख़ुद दीन से क्या मुराद है, जिसे क़ायम करने और फिर क़ायम रखने का हुक्म दिया गया है? इन दोनों बातों को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
क़ायम करने का लफ़्ज़ जब किसी माद्दी (भौतिक) चीज़ के लिए इस्तेमाल होता है तो इससे मुराद बैठे को उठाना होता है। मसलन किसी इनसान या जानवर को उठाना या पड़ी हुई चीज़ को खड़ा करना होता है, जैसे बाँस या खम्बे को क़ायम करना या किसी चीज़ के बिखरे हुए टुकड़ों को इकट्ठा करके बुलन्द करना होता है, जैसे किसी ख़ाली ज़मीन में इमारत बनाना। लेकिन जो चीज़ें माद्दी (भौतिक) नहीं, बल्कि उनका ताल्लुक़ किसी बात या किसी मानी या मतलब से होता है उनके लिए जब क़ायम करने का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है तो उससे मुराद उस चीज़ की सिर्फ़ तबलीग़ करना नहीं, बल्कि उसपर पूरी तरह अमल करना, उसे रिवाज देना और उसे अमली तौर पर लागू करना होता है। मसलन जब हम कहते हैं कि फ़ुलाँ आदमी ने अपनी हुकूमत क़ायम की तो इसका मतलब यह नहीं होता कि उसने अपनी हुकूमत की तरफ़ दावत दी, बल्कि यह होता है कि उसने देश के लोगों को अपने मातहत कर लिया और हुकूमत के तमाम महकमों को इस तरह तरतीब दिया कि देश का सारा इन्तिज़ाम उसके हुक्मों के मुताबिक़ चलने लगा। इसी तरह जब हम कहते हैं कि देश में अदालतें क़ायम हैं तो इसका मतलब यह होता है कि इनसाफ़ करने के लिए जज मुक़र्रर हैं और वे मुक़द्दमों की सुनवाई कर रहे हैं और फ़ैसले दे रहे हैं, न यह कि इनसाफ़ की ख़ूबियाँ ख़ूब-ख़ूब बयान की जा रही हैं और लोग उनको मान रहे हैं। इसी तरह जब क़ुरआन मजीद में हुक्म दिया जाता है कि नमाज़ क़ायम करो तो इससे मुराद नमाज़ की दावत और तबलीग़ नहीं होती, बल्कि यह होती है कि नमाज़ को उसकी तमाम शर्तों के साथ न सिर्फ़ ख़ुद अदा करो, बल्कि ऐसा इन्तिज़ाम करो कि वह ईमानवालों में बाक़ायदा से रिवाज पा जाए। मस्जिदें हों, जुमा और जमाअत का एहतिमाम हो, वक़्त की पाबन्दी के साथ अज़ानें दी जाएँ, इमाम और ख़ुतबा देनेवाले मुक़र्रर हों और लोगों को वक़्त पर मस्जिदों में आने और नमाज़ अदा करने की आदत पड़ जाए। इस तशरीह के बाद यह बात समझने में कोई दिक़्क़त पेश नहीं आ सकती कि नबियों (अलैहि०) को जब इस दीन के क़ायम करने और क़ायम रखने का हुक्म दिया गया तो इससे मुराद सिर्फ़ इतनी बात न थी कि वे ख़ुद इस दीन पर अमल करें और इतनी बात भी न थी कि वे दूसरों में इस दीन की तबलीग़ करें, ताकि लोग इसका सही होना तस्लीम कर लें, बल्कि यह भी थी कि जब लोग इसे तस्लीम कर लें तो इससे आगे बढ़कर पूरा-का-पूरा दीन उनमें अमली तौर पर राइज और लागू किया जाए, ताकि उसके मुताबिक़ अमल होने लगे और होता रहे। इसमें शक नहीं कि दावत और तबलीग़ इस काम का लाज़िमी इब्तिदाई मरहला है जिसके बिना दूसरा मरहला पेश नहीं आ सकता। लेकिन हर अक़्ल रखनेवाला आदमी ख़ुद देख सकता है कि इस हुक्म में दावत और तबलीग़ को मक़सद की हैसियत नहीं दी गई है, बल्कि दीन क़ायम करने और क़ायम रखने को मक़सद ठहराया गया है। दावत और तबलीग़ इस मक़सद को हासिल करने का ज़रिआ जरूर है, मगर अपने आपमें ख़ुद मक़सद नहीं है, कहाँ यह कि कोई आदमी इसे नबियों के मिशन का सिर्फ़ एक अकेला मक़सद ठहरा बैठे।
अब दूसरे सवाल को लीजिए। कुछ लोगों ने देखा कि जिस दीन को क़ायम करने का हुक्म दिया गया है वह दीन तमाम नबियों (अलैहि०) के बीच एक रहा है और शरीअतें उन सबकी अलग-अलग रही हैं, जैसा कि अल्लाह तआला ख़ुद फ़रमाता है, “हमने तुममें से हर एक के लिए एक शरीअत और एक राह मुक़र्रर कर दी” (सूरा-5 माइदा, आयत-48)। इसलिए उन्होंने यह राय क़ायम कर ली कि लाज़िमन इस दीन से मुराद शरई हुक्म और ज़ाब्ते नहीं हैं, बल्कि सिर्फ़ तौहीद और आख़िरत और किताब और नुबूवत का मानना और अल्लाह तआला की इबादत करना है, या हद-से-हद इसमें वे मोटे-मोटे अख़लाक़ी उसूल शामिल हैं जो सभी शरीअतों में मौजूद रहे हैं। लेकिन यह एक बड़ी सतही राय है जो सिर्फ़ सरसरी निगाह से दीन के एक होने और शरीअतों के इख़्तिलाफ़ को देखकर क़ायम कर ली गई है और यह ऐसी ख़तरनाक राय है कि अगर इसका सुधार न कर दिया जाए तो आगे बढ़कर बात दीन और शरीअत के उस अलगाव तक जा पहुँचेगी जिसमें मुब्तला होकर सेंट पॉल ने बिना शरीअत के दीन का नज़रिया पेश किया और हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) की उम्मत को ख़राब कर दिया। इसलिए कि जब शरीअत दीन से अलग एक चीज़ है और हुक्म सिर्फ़ दीन को क़ायम करने का है, न कि शरीअत को, तो यक़ीनन मुसलमान भी ईसाइयों की तरह शरीअत को ग़ैर-अहम और उसके क़ायम करने को ग़ैर-जरूरी समझकर नज़रअन्दाज़ कर देंगे और सिर्फ़ ईमान से मुताल्लिक़ बातों और मोटे-मोटे अख़लाक़ी उसूलों को लेकर बैठ जाएँगे। इस तरह की अटकलों से दीन का मतलब तय करने के बजाय आख़िर क्यों न हम ख़ुद अल्लाह की किताब से पूछ लें कि जिस दीन को क़ायम करने का हुक्म यहाँ दिया गया है, क्या इससे मुराद सिर्फ़ ईमान से मुताल्लिक़ (ईमानियात) और कुछ बड़े-बड़े अख़लाक़ी उसूल ही हैं, या शरई हुक्म भी। क़ुरआन मजीद पर जब हम गहराई से ग़ौर करते हैं तो उसमें जिन चीज़ों को दीन के दायरे में रखा गया है उनमें नीचे लिखी चीज़ें भी हमें मिलती हैं—
(1) “और उनको हुक्म नहीं दिया गया, मगर इस बात का कि यकसू होकर अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करते हुए उसकी इबादत करें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें और यही सीधी राह पर चलनेवाली मिल्लत (समुदाय) का दीन है।" (सूरा-98 बय्यिना, आयत-5)। इससे मालूम हुआ कि नमाज़ और ज़कात इस दीन में शामिल हैं, हालाँकि इन दोनों के हुक्म अलग-अलग शरीअतों में अलग-अलग रहे हैं। कोई शख़्स भी यह नहीं कह सकता कि तमाम पिछली शरीअतों में नमाज़ की यही शक्ल और तरीक़ा, यही उसके हिस्से, यही उसकी रकअतें, यही उसका क़िबला (जिधर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाए), यही उसके वक़्त और यही उसके दूसरे तमाम हुक्म रहे हैं। इसी तरह ज़कात के बारे में भी कोई यह दावा नहीं कर सकता कि तमाम शरीअतों में यही उसका निसाब (वाजिब होने की मिक़दार), यही उसकी दरें और यही उसको वुसूल करने और बाँटने के हुक्म रहे हैं। लेकिन शरीअतों के इख़्तिलाफ़ होने के बावजूद अल्लाह तआला इन दोनों चीज़ों को दीन में शुमार कर रहा है।
(2) “तुम्हारे लिए हराम किया गया मुर्दार और ख़ून और सूअर का गोश्त और वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो और वह जो गला घुटकर, या चोट खाकर, या बुलन्दी से गिरकर, या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिन्दे ने फाड़ा हो, सिवाय उसके जिसे तुमने ज़िन्दा पाकर ज़ब्ह कर लिया और वह जो किसी आस्ताने पर ज़ब्ह किया गया हो। इसके अलावा यह भी तुम्हारे लिए हराम किया गया कि तुम पाँसों के ज़रिए से अपनी क़िस्मत मालूम करो। ये सब काम फ़िस्क़ (अल्लाह की नाफ़रमानी) हैं। आज कुफ़्र और इनकार करनेवालों को तुम्हारे दीन की तरफ़ से मायूसी हो चुकी है, लिहाज़ा तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए मुकम्मल कर दिया ....” (सूरा-5 माइदा, आयत-3)। इससे मालूम हुआ कि शरीअत के ये सब हुक्म भी दीन ही हैं।
(3) “जंग करो उन लोगों से जो अल्लाह और आख़िरी दिन पर ईमान नहीं लाते और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम किया है उसे हराम नहीं करते और सच्चे दीन को अपना दीन नहीं बनाते।” (सूरा-9 तौबा, आयत-29)। मालूम हुआ कि अल्लाह और आख़िरत पर ईमान लाने के साथ हलाल और हराम के उन हुक्मों को मानना और उनकी पाबंदी करना भी दीन है जो अल्लाह और उसके रसूल ने दिये हैं।
(4) “बदकार औरत और मर्द, दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो और उनपर तरस खाने का जज़्बा अल्लाह के दीन के मामले में तुमको रोक न दे, अगर तुम अल्लाह और आख़िरी दिन पर ईमान रखते हो।” (सूरा-24 नूर, आयत-2)। “यूसुफ़ अपने भाई को बादशाह के दीन में पकड़ लेने का अधिकार न रखता था।” (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-76)। इससे मालूम हुआ कि फ़ौजदारी क़ानून भी दीन है। अगर आदमी ख़ुदा के फ़ौजदारी क़ानून पर चले तो वह ख़ुदा के दीन की पैरवी करनेवाला है और अगर बादशाह के क़ानून पर चले तो वह बादशाह के दीन की पैरवी करनेवाला।
ये चार तो वे नमूने हैं जिनमें शरीअत के हुक्मों को साफ़ अलफ़ाज़ में दीन कहा गया है। लेकिन इसके अलावा अगर ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होता है कि जिन गुनाहों पर अल्लाह तआला ने जहन्नम की धमकी दी है (मसलन बदकारी, ब्याज खाना, ईमानवाले को क़त्ल करना, यतीम का माल खाना, ग़लत तरीक़ों से लोगों के माल लेना, वग़ैरा) और जिन जुर्मों को अल्लाह के अज़ाब का सबब ठहराया गया है (मसलन लूत अलैहि० की क़ौम की बदकारी और लेन-देन में शुऐब अलैहि० की क़ौम का रवैया)। उनकी रोकथाम लाज़िमन दीन ही के दायरे में आनी चाहिए, इसलिए कि दीन अगर जहन्नम और अल्लाह के अज़ाब से बचाने के लिए नहीं आया है तो और किस चीज़ के लिए आया है? इसी तरह शरीअत के वे हुक्म भी दीन ही का हिस्सा होने चाहिएँ जिनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी को जहन्नम में दाख़िले का सबब ठहराया गया है। मसलन मीरास के हुक्म, जिनको बयान करने के बाद आख़िर में कहा गया है कि “जो अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी और अल्लाह की हदों को पार करेगा, अल्लाह उसको जहन्नम में डालेगा जिसमें वह हमेशा रहेगा और उसके लिए रुसवा कर देनेवाला अज़ाब है।” (सूरा-4 निसा, आयत-14)। इसी तरह जिन चीज़ों का हराम होना अल्लाह तआला ने पूरी शिद्दत और फ़ैसलाकुन अन्दाज़ में बयान किया है, मसलन माँ, बहन और बेटी से शादी का हराम होना, शराब का हराम होना, चोरी का हराम होना, जूए का हराम होना, झूठी गवाही का हराम होना, इनके हराम होने को अगर दीन क़ायम करने में शामिल न किया जाए तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने कुछ ग़ैर-ज़रूरी हुक्म भी दे दिए हैं। जिनका जारी होना मक़सद नहीं है। इसी तरह अल्लाह ने जिन कामों को फ़र्ज़ ठहराया है, मसलन रोज़ा और हज, उनके क़ायम करने को भी सिर्फ़ इस बहाने दीन क़ायम करने से अलग नहीं किया जा सकता कि रमज़ान के 30 रोज़े तो पिछली शरीअतों में न थे और काबा का हज तो सिर्फ़ उस शरीअत में था जो इबराहीम (अलैहि०) की औलाद की इसमाईली शाखा को मिली थी।
अस्ल में सारी ग़लत-फ़हमी सिर्फ़ इस वजह से पैदा हुई है कि आयत “हमने तुममें से हर एक के लिए एक शरीअत और एक राह मुक़र्रर कर दी” का उलटा मतलब लेकर उसे यह मानी पहना दिए गए हैं कि शरीअत चूँकि हर उम्मत के लिए अलग थी और हुक्म सिर्फ़ उस दीन के क़ायम करने का दिया गया है जो तमाम नबियों (अलैहि०) के बीच एक था, इसलिए दीन क़ायम करने के हुक्म में शरीअत का क़ायम करना शामिल नहीं है। हालाँकि हक़ीक़त में इस आयत का मतलब इसके बिलकुल बरख़िलाफ़ है। सूरा-5 माइदा में जिस जगह यह आयत आई है, उसके पूरे मौक़ा-महल को आयत-41 से आयत-50 तक अगर कोई आदमी ग़ौर से पढ़े तो मालूम होगा कि इस आयत का सही मतलब यह है कि जिस नबी की उम्मत को जो शरीअत भी अल्लाह ने दी थी, वह उस उम्मत के लिए दीन थी और उसकी पैग़म्बरी के दौर में उसी को क़ायम करना मक़सद था और अब चूँकि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का दौर है, इसलिए मुहम्मद (सल्ल०) की उम्मत को जो शरीअत दी गई है, वह इस दौर के लिए दीन है और उसका क़ायम करना ही दीन का क़ायम करना है। रहा उन शरीअतों का इख़्तिलाफ़, तो उसका मतलब यह नहीं है कि ख़ुदा की भेजी हुई शरीअतें आपस में एक-दूसरे के बरख़िलाफ़ थीं, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनकी छोट-छोटी मामूली बातों में हालात के लिहाज़ से कुछ फ़र्क़ रहा है। मिसाल के तौर पर नमाज़ और रोज़े को देखिए। नमाज़ तमाम शरीअतों में फ़र्ज़ रही है, मगर क़िबला (जिधर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है) सारी शरीअतों का एक न था और इसके वक़्तों और रकअतों और दूसरी चीज़ों में भी फ़र्क़ था। इसी तरह रोज़ा हर शरीअत में फ़र्ज़ था, मगर रमज़ान के 30 रोज़े दूसरी शरीअतों में न थे। इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि पूरे तौर पर नमाज़-रोज़ा तो दीन क़ायम करने में शामिल है, मगर एक ख़ास तरीक़े से नमाज़ पढ़ना और ख़ास ज़माने में रोज़ा रखना दीन क़ायम करने से बाहर है, बल्कि इससे सही तौर पर जो नतीजा निकलता है वह यह है कि हर नबी की उम्मत के लिए उस वक़्त की शरीअत में नमाज़-रोज़े के लिए जो क़ायदे तय किए गए थे, उन्हीं के मुताबिक़ उस ज़माने में नमाज़ पढ़ना और रोज़े रखना दीन क़ायम करना था और अब दीन क़ायम करना यह है कि इन इबादतों के लिए मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में जो तरीक़ा रखा गया है, उसके मुताबिक़ इन्हें अदा किया जाए। इन्हीं दो मिसालों के मुताबिक़ शरीअत के दूसरे तमाम हुक्मों को भी समझा जा सकता है।
क़ुरआन मजीद को जो शख़्स भी आँखें खोलकर पढ़ेगा, उसे यह बात साफ़ नज़र आएगी कि यह किताब अपने माननेवालों को कुफ़्र और कुफ़्र करनेवालों का ग़ुलाम मानकर ग़ुलामाना हैसियत में मज़हबी ज़िन्दगी गुज़ारने का प्रोग्राम नहीं दे रही है, बल्कि यह खुल्लम-खुल्ला अपनी हुकूमत क़ायम करना चाहती है, अपने पैरोकारों से माँग करती है कि वे सच्चे दीन को फ़िक्री (वैचारिक), अख़लाक़ी, तहज़ीबी, क़ानूनी और सियासी हैसियत से ग़ालिब करने के लिए जान लड़ा दें और उनको इनसानी ज़िन्दगी के सुधार का वह प्रोग्राम देती है जिसके बहुत बड़े हिस्से पर सिर्फ़ उसी सूरत में अमल किया जा सकता है जब हुकूमत की बागडोर ईमानवालों के हाथ में हो। यह किताब अपने नाज़िल (अवतरित) किए जाने का मक़सद यह बयान करती है कि नबी! हमने यह किताब हक़ के साथ तुमपर उतारी है, ताकि तुम लोगों के बीच फ़ैसला करो उस रौशनी में जो अल्लाह ने तुम्हें दिखाई है।” (सूरा-4 निसा, आयत-105)। इस किताब में ज़कात वुसूल करने और उसे बाँटने के जो हुक्म दिए गए हैं, वे साफ़-साफ़ अपने पीछे एक ऐसी हुकूमत का तसव्वुर (परिकल्पना) रखते हैं जो एक मुक़र्रर क़ायदे के मुताबिक़ ज़कात वुसूल करके हक़दारों तक पहुँचाने का ज़िम्मा ले (सूरा-9 तौबा, आयतें-60, 103)। इस किताब में सूद (ब्याज) को बन्द करने का जो हुक्म दिया गया है और सूदख़ोरी जारी रखनेवालों के ख़िलाफ़ जो जंग का एलान किया गया है (सूरा-2 बक़रा, आयतें-275, 279), वह उसी सूरत में अमल में आ सकता है जब देश का सियासी और मआशी निज़ाम (राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था) पूरी तरह ईमानवालों के हाथ में हो। इस किताब में क़ातिल से क़िसास (क़त्ल का बदला) लेने का हुक्म (सूरा-2 बक़रा, आयत-178), चोरी पर हाथ काटने का हुक्म (सूरा-5 माइदा, आयत-36), ज़िना (व्यभिचार) करने और 'क़ज़्फ़' (ज़िना का झूठा इलज़ाम लगाने) पर हद्द (सज़ा) जारी करने का हुक्म (सूरा-24 नूर, आयतें-2 से 4) इस मनगढ़न्त ख़याल पर नहीं दिया गया है कि इन हुक्मों के माननेवाले लोगों को उन लोगों की पुलिस और अदालतों के मातहत रहना होगा जो ख़ुदा के इनकारी हैं। इस किताब में कुफ़्र करनेवालों से जंग का हुक्म (सूरा-2 बक़रा, आयतें-190, 216) यह समझते हुए नहीं दिया गया है कि इस दीन की पैरवी करनेवाले कुफ़्र की हुकूमत में फ़ौज भरती करके इस हुक्म पर अमल करेंगे। इस किताब में अहले-किताब से जिज़्या लेने का हुक्म (सूरा-9 तौबा, आयत-29) इस मनगढ़न्त ख़याल पर नहीं दिया गया है कि मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों के मातहत रहते हुए उनसे जिज़्या वुसूल करेंगे और उनकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा लेंगे और यह मामला सिर्फ़ मदनी सूरतों ही तक महदूद नहीं है, मक्की सूरतों में भी देखनेवाली आँख को यह साफ़ नज़र आ सकता है कि शुरू ही से जो नक़्शा सामने था वह दीन के ग़लबे (प्रभुत्त्व) और इक़तिदार का था, न कि कुफ़्र की हुकूमत के तहत इस्लाम और मुसलमानों के 'ज़िम्मी' बनकर रहने का। मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—89, 99, 101; सूरा-28 क़सस, हाशिए—104, 105; सूरा-30 रूम, हाशिए—1 से 3; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—171 से 179, हाशिए—93, 94; सूरा-38 सॉद, परिचय और आयत-11 हाशिया 12 के साथ।
ऊपर का मतलब लेने से सबसे ज़्यादा जो ग़लती टकराती है, वह ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह अज़ीमुश्शान काम है जो नबी (सल्ल०) ने 23 साल की पैग़म्बरी के ज़माने में अंजाम दिया। आख़िर कौन नहीं जानता कि आप (सल्ल०) ने तबलीग़ और तलवार दोनों से पूरे अरब को जीत लिया और उसमें एक मुकम्मल हुकूमत का निज़ाम एक तफ़सीली शरीअत के साथ क़ायम कर दिया जो अक़ीदों और इबादतों से लेकर शख़्सी किरदार, इजतिमाई अख़लाक़़, तहज़ीब और तमद्दुन (रहन-सहन), मईशत (आर्थिकता) और सामाजिकता, सियासत और अदालत और सुलह और जंग तक ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं पर हावी थी। अगर नबी (सल्ल०) के इस पूरे काम को 'इक़ामते-दीन' के उस हुक्म की तफ़सीर न माना जाए जो इस आयत के मुताबिक़ तमाम नबियों (अलैहि०) समेत आप (सल्ल०) को दिया गया था, तो फिर इसके दो ही मतलब हो सकते हैं, या तो, अल्लाह की पनाह, नबी (सल्ल०) पर यह इलज़ाम लगाया जाए कि आप (सल्ल०) को काम तो सिर्फ़ ईमान और अख़लाक़ के मोटे-मोटे उसूलों की सिर्फ़ तबलीग़ और दावत का दिया गया था, मगर आप (सल्ल०) ने इससे आगे बढ़कर अपने तौर पर एक हुकूमत क़ायम कर दी और एक तफ़सीली क़ानून बना डाला जो सभी नबियों की शरीअतों में पाए जानेवाली क़द्रों (मूल्यों) से अलग भी था और ज़्यादा भी। या फिर अल्लाह तआला पर यह इलज़ाम रखा जाए कि वह सूरा-42 शूरा में ऊपर बयान किया गया एलान कर चुकने के बाद ख़ुद अपनी बात से पलट गया और उसने अपने आख़िरी नबी से न सिर्फ़ वह काम लिया जो इस सूरा के एलान किए हुए ‘इक़ामते-दीन' से बहुत कुछ ज़्यादा और अलग था, बल्कि इस काम के पूरा होने पर अपने पहले एलान के ख़िलाफ़ यह दूसरा एलान भी कर दिया कि “आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया।” हम इससे अल्लाह की पनाह माँगते हैं। इन दो सूरतों के सिवा अगर कोई तीसरी सूरत ऐसी निकलती हो जिससे 'इक़ामते-दीन' का यह मतलब भी बाक़ी रहे और अल्लाह या उसके रसूल पर कोई इलज़ाम भी न आता हो तो हम ज़रूर उसे मालूम करना चाहेंगे।
दीन क़ायम करने का हुक्म देने के बाद, आख़िरी बात जो अल्लाह तआला ने इस आयत में फ़रमाई है वह यह है कि “ला त-तफ़र्रक़ू फ़ीह” यानी “दीन में फूट न डालो,” या “उसके अन्दर बिखर न जाओ।” दीन में 'तफ़रिक़ा' (फूट, बिखराव) से मुराद यह है कि आदमी दीन के अन्दर अपनी तरफ़ से कोई निराली बात ऐसी निकाले जिसकी कोई मुनासिब गुंजाइश उसमें न हो और ज़ोर दे कि उसकी निकाली हुई बात के मानने ही पर कुफ़्र और ईमान का दारोमदार है, फिर जो माननेवाले हों उन्हें लेकर न माननेवालों से अलग हो जाए। यह निराली बात कई तरह की हो सकती है। वह यह भी हो सकती है कि दीन में जो चीज़ न थी, वह उसमें लाकर शामिल कर दी जाए। यह भी हो सकती है कि दीन में जो बात शामिल थी, उसे निकाल बाहर किया जाए और यह भी हो सकती है कि दीन की साबित-शुदा बातों में फेर-बदल की हद तक पहुँचे हुए मतलब निकालकर निराले अक़ीदे और अनोखे काम पैदा किए जाएँ और यह भी हो सकती है कि दीन की बुनियादी बातों में फेर-बदल करके उसका हुलिया बिगाड़ा जाए। मसलन जो चीज़ अहम थी उसे ग़ैर-अहम बना दिया जाए और जो चीज़ हद-से-हद मुबाह (पसन्दीदा) के दरजे में थी, उसे फ़र्ज़ और वाजिब, बल्कि इससे भी बढ़ाकर इस्लाम का अहम सुतून बना डाला जाए। इसी तरह की हरकतों से नबियों (अलैहि०) की उम्मतों में पहले फूट पड़ी, फिर धीरे-धीरे उन फ़िरक़ों (गुटों) के रास्ते बिलकुल अलग अपने में एक दीन बन गए, जिनके माननेवालों में अब यह तसव्वुर तक बाक़ी नहीं रहा है कि कभी उन सबकी अस्ल एक थी। इस फूट का उस जाइज़ और अक़्ल के मुताबिक़ राय के इख़्तिलाफ़ से कोई ताल्लुक़ नहीं है जो दीन के हुक्मों को समझने और नुसूस (क़ुरआन और हदीस के हुक्मों) पर ग़ौर करके उनसे मसाइल निकालने में फ़ितरी तौर पर इल्मवालों के बीच पाया जाता है और जिसके लिए ख़ुद अल्लाह की किताब के अलफ़ाज़ में लुग़त (शब्दकोश) और मुहावरे और ज़बान के क़ायदों के लिहाज़ से गुंजाइश होती है। (इस बारे में और ज़्यादा तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-220; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—16 से 17; सूरा-4 निसा, हाशिए—211 से 216; सूरा-5 माइदा, हाशिया-101; सूरा-6 अनआम, हाशिया-141; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—117 से 121; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—89 से 91; सूरा-हज, हाशिए—114 से 117; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—45 से 48; सूरा-28 क़सस, हाशिए—72 से 74; सूरा-30 रूम, हाशिए—50, 51)।
21. यहाँ फिर वही बात दुहराई गई है जो इससे पहले आयत 8, 9 में बताई जा चुकी है और जिसकी तशरीह हम हाशिया-11 में कर चुके हैं। इस जगह यह बात कहने का मक़सद यह है कि तुम इन लोगों के सामने दीन का साफ़ रास्ता पेश कर रहे हो और ये नादान इस नेमत की क़द्र करने के बजाय उलटे इसपर बिगड़ रहे हैं। मगर इन्हीं के बीच इन्हीं की क़ौम में वे लोग मौजूद हैं जो अल्लाह की तरफ़ रुजू कर रहे हैं और अल्लाह भी उन्हें खींच-खींचकर अपनी तरफ़ ला रहा है। अब ये अपनी-अपनी क़िस्मत है कि कोई इस नेमत को पाए और कोई इससे महरूम रहे। मगर अल्लाह की बाँट अंधी बाँट नहीं है। वह उसी को अपनी तरफ़ खींचता है जो उसकी तरफ़ बढ़े। दूर भागनेवालों के पीछे दौड़ना अल्लाह का काम नहीं है।