43. अज़-ज़ुख़रुफ़
(मक्का में उतरी, आयतें 89)
परिचय
नाम
आयत 35 के शब्द ‘वज़्ज़ुख़रुफ़न ' (चाँदी और सोने के) से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह वह सूरा हैं जिसमें शब्द ‘ज़ुख़रुफ़' आया है।
उतरने का समय
इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा भी उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-40 अल-मोमिन, सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा और सूरा-42 अश-शूरा उतरीं। [यह वह समय था,] जब मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।
विषय और वार्ता
इस सूरा में पूरे ज़ोर के साथ क़ुरैश और अरबवालों को उन अज्ञानतापूर्ण धारणाओं और अंधविश्वासों की आलोचना की गई है, जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे, और अत्यन्त दृढ़ और दिल में घर करनेवाले तरीक़े से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है। वार्ता का आरंभ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का उतरना रोक दिया जाए, मगर अल्लाह ने कभी दुष्टताओं की वजह से नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को तबाह कर दिया है जो उसके मार्गदर्शन का रास्ता रोककर खड़े हुए थे। यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे ये लोग सीने से लगाए हुए हैं और वे प्रमाण क्या हैं जिनके बल-बूते पर ये मुहम्मद (सल्ल०) का मुक़ाबला कर रहे हैं। ये स्वयं मानते हैं कि ज़मीन और आसमान का और इनका अपना और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला [भी और इनको रोज़ी देनेवाला भी] अल्लाह ही है। फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में साझी करने पर हठ किए चले जा रहे हैं। बन्दों को अल्लाह की सन्तान कहते हैं और [फ़रिश्तों के बारे में] कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आख़िर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते औरतें हैं ? इन अज्ञानतापूर्ण बातों पर टोका जाता है तो तक़दीर का बहाना बनाते हैं और कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन बुतों की पूजा कर सकते थे, हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे काम जो दुनिया में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं। [अपने शिर्क का एक तर्क यह भी] देते हैं कि बाप-दादा से यह काम यों ही होता चला आ रहा है। मानो इनके नज़दीक किसी धर्म के सत्य होने के लिए यह पर्याप्त प्रमाण है, हालाँकि इबराहीम (अलैहि०) ने जिनकी सन्तान होने पर ही इनका सारा गर्व और इनकी विशिष्टता निर्भर करती है, ऐसे अंधे अनुसरण को रद्द कर दिया था, जिसका साथ कोई बुद्धिसंगत प्रमाण न देता हो। फिर अगर इन लोगों को पूर्वजों का अनुसरण ही करना था, तो इसके लिए भी अपने सबसे बड़े पूर्वज इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर इन्होंने अपने सबसे बड़े अज्ञानी पूर्वजों का चुनाव किया। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी स्वीकार करने में इन्हें संकोच है तो इस कारण कि उनके पास माल-दौलत और राज्य और सत्ता तो है ही नहीं। कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे यहाँ किसी को नबी बनाना चाहता तो हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के बड़े आदमियों में से किसी को बनाता। इसी कारण फ़िरऔन ने भी हज़रत मूसा (अलैहि०) को तुच्छ जाना था और कहा था कि आसमान का बादशाह अगर मुझ ज़मीन के बादशाह के पास कोई दूत भेजता तो उसे सोने के कंगन पहनाकर और फ़रिश्तों की एक फ़ौज उसकी अरदली में देकर भेजता। यह फ़क़ीर कहाँ से आ खड़ा हुआ। आख़िर में साफ़-साफ़ कहा गया है कि न अल्लाह की कोई सन्तान है, न आसमान और ज़मीन के प्रभु अलग-अलग हैं और न अल्लाह के यहाँ कोई ऐसा सिफ़ारिशी है जो जान बूझकर गुमराही अपनानेवालों को उसकी सज़ा से बचा सके।
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