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سُورَةُ الدُّخَانِ

44. अद-दुख़ान

(मक्‍का में उतरी, आयतें 59)

परिचय

नाम

आयत 10 "जब आकाश प्रत्यक्ष धुआँ (दुख़ान) लिए हुए आएगा" के 'दुख़ान' शब्द को इस सूरा का शीर्षक बनाया गया है, अर्थात् यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'दुख़ान' आया है।

उतरने का समय

सूरा की विषय-वस्तुओं के आन्तरिक साक्ष्य से पता चलता है कि यह भी उसी समय उतरी है जिस समय सूरा-43 जुखरुफ़ और उससे पहले की कुछ सूरतें उतरी थीं, अलबत्ता यह उनसे कुछ बाद की है। इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि [वह ज़बरदस्त अकाल है, जो सारे इलाक़े में पड़ा था। (इस अकाल का विवरण आगे टिप्पणी 13 में आ रहा है।)]

विषय और वार्ता

इस सूरा की भूमिका कुछ महत्त्वपूर्ण वार्ताओं पर आधारित है :

एक यह कि यह किताब अपने आप में स्वयं इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह किसी इंसान की नहीं, बल्कि जगत-प्रभु की किताब है।

दूसरे यह कि तुम्हारे नज़दीक यह एक आपदा है जो तुमपर उतरी है, हालाँकि वास्तव में वह घड़ी बड़ी शुभ घड़ी थी, जब अल्लाह ने सरासर अपनी रहमत के कारण तुम्हारे यहाँ अपना रसूल भेजने और अपनी किताब उतारने का फ़ैसला किया।

तीसरे यह कि इस रसूल का भेजा जाना और इस किताब का उतारा जाना उस ख़ास घड़ी में हुआ जब अल्लाह भाग्यों के फ़ैसले किया करता है, और अल्लाह के फ़ैसले बोदे नहीं होते कि जिसका जी चाहे उन्हें बदल डाले, न वे किसी अज्ञान और नादानी पर आधारित होते हैं कि उनमें दोष और कमी पाई जाए। वे तो उस जगत-शासक के पक्के और अटल फ़ैसले होते हैं जो सब कुछ सुननेवाला, सब कुछ जाननेवाला और तत्त्वदर्शी है। उनसे लड़ना कोई खेल नहीं है।

चौथे यह कि अल्लाह को तुम स्वयं भी जगत् की हर चीज़ का मालिक और पालनकर्ता मानते हो, मगर इसके बावजूद तुम्हें दूसरों को उपास्य बनाने पर आग्रह है और इसके लिए तर्क तुम्हारे पास इसके सिवा और कुछ नहीं है कि बाप-दादा के समयों से यही काम होता चला आ रहा है। हालाँकि तुम्हारे बाप दादा ने अगर यह मूर्खता की थी तो कोई कारण नहीं कि तुम भी आँखें बन्द करके वही करते चले जाओ।

पाँचवें यह की अल्लाह को पालन-क्रिया और दयालुता को केवल यही अपेक्षित नहीं है कि तुम्हारा पेट पाले, बल्कि यह भी है कि तुम्हारे मार्गदर्शन का प्रबन्ध करे। इस मार्गदर्शन के लिए उसने रसूल भेजा है और किताब उतारी है।

इस भूमिका के बाद उस अकाल के मामले को लिया गया है जो उस वक़्त पड़ा हुआ था [और बताया गया है कि यह अकाल रूपी चेतावनी भी सत्य के इन शत्रुओं की गफ़लत (बेसुध अवस्था) दूर न कर सकेगी।] इसी सिलसिले में आगे चलकर फ़िरऔन और उसकी क़ौम का हवाला दिया गया है कि उन लोगों को भी ठीक इसी प्रकार परीक्षा ली गई थी जो परीक्षा क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी सरदारों की ली जा रही है। उनके पास भी ऐसा ही एक प्रतिष्ठित रसूल आया था। वे भी निशानी पर निशानी देखते चले गए, मगर अपने दुराग्रह को त्याग न सके, यहाँ तक कि अन्त में रसूल की जान लेने पर उतर आए और नतीजा वह कुछ देखा जो हमेशा के लिए शिक्षाप्रद बनकर रह गया।

इसके बाद दूसरा विषय आख़िरत (परलोक) का लिया गया है जिससे मक्का के इस्लाम-विरोधियों को पूर्णत: इंकार था। इसके उत्तर में आख़िरत के अक़ीदे की दो दलीलें संक्षेप में दी गई हैं-

एक यह कि इस अक़ीदे का इंकार हमेशा नैतिकता के लिए विनाशकारी सिद्ध होता रहा है।

दूसरे यह कि जगत् किसी खिलवाड़ करनेवालों का खिलौना नहीं है, बल्कि यह एक तत्त्वदर्शिता पर आधारित व्यवस्था है, और तत्त्वदर्शी का कोई काम निरर्थक नहीं होता। फिर यह कहकर बात समाप्त कर दी गई है कि तुम लोगों को समझाने के लिए यह क़ुरआन साफ़-सुथरी भाषा में और तुम्हारी अपनी भाषा में उतार दिया गया है। अब अगर तुम समझाने से नहीं समझते तो इन्तिज़ार करो, हमारा नबी भी इन्तिज़ार कर रहा है, जो कुछ होना है वह अपने समय पर सामने आएगा।

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سُورَةُ الدُّخَانِ
44. अद-दुख़ान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) क़सम है इस किताबे-मुबीन की
إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ فِي لَيۡلَةٖ مُّبَٰرَكَةٍۚ إِنَّا كُنَّا مُنذِرِينَ ۝ 2
(3) कि हमने इसे एक बड़ी खैर और बरकतवाली रात में उतारा है, क्योंकि हम लोगों को ख़बरदार करने का इरादा रखते थे।1
1. किताबे-मुबीन' (वाज़ेह किताब) की क़सम खाने का मक़सद सूरा-43 जुखरुफ़, हाशिया-1 में गुज़र चुका है। यहाँ भी क़सम जिस बात पर खाई गई है, वह यह है कि इस किताब के लिखनेवाले मुहम्मद (सल्ल०) नहीं हैं, बल्कि अल्लाह है और इसका सुबूत कहीं और ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं, ख़ुद यह किताब ही इसके सुबूत के लिए काफ़ी है। इसके बाद फिर यह बात कही गई कि वह बड़ी ख़ैर और बरकतवाली रात थी, जिसमें इसे उतारा गया। यानी नादान लोग, जिन्हें अपनी भलाई-बुराई की समझ नहीं है, इस किताब के आने को अपने लिए अचानक आनेवाली आफ़त समझ रहे हैं और इससे पीछा छुड़ाने की फ़िक्र में परेशान और उलझे हुए हैं। लेकिन हक़ीक़त में उनके लिए और तमाम इनसानों के लिए वह घड़ी बड़ी ही मुबारक थी जब 'हम' (अल्लाह) ने ग़फ़लत में पड़े हुए लोगों को चौंकाने के लिए यह किताब उतारने का फ़ैसला किया। उस रात में क़ुरआन उतारने का मतलब क़ुरआन के कुछ आलिमों ने यह लिया है कि क़ुरआन के उतरने का सिलसिला उस रात शुरू हुआ और कुछ आलिम इसका मतलब यह लेते हैं कि इसमें पूरा क़ुरआन उम्मुल-किताब (अस्ल किताब) से लेकर वह्य के फ़रिश्तों के हवाले कर दिया गया और फिर वह हालात और ज़रूरत के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) पर 23 साल तक उतारा जाता रहा। सही बात क्या है, इसे अल्लाह ही बेहतर जानता है। उस रात से मुराद वही रात है जिसे सूरा-97 क़द्र में 'लैलतुल-क़द्र' कहा गया है। वहाँ कहा गया कि “हमने इसे (क़ुरआन को) एक क़द्र की रात में उतारा” और यहाँ कहा गया, “हमने इसे एक मुबारक रात में उतारा।” फिर यह बात भी क़ुरआन मजीद ही में बता दी गई है कि वह रमज़ान के महीने की एक रात थी, “रमज़ान वह महीना है जिसमें क़ुरआन उतारा गया।" (सूरा-2 बक़रा, आयत-185)
فِيهَا يُفۡرَقُ كُلُّ أَمۡرٍ حَكِيمٍ ۝ 3
(4) यह वह रात थी जिसमें हर मामले का हिकमत के साथ फ़ैसला2 हमारे हुक्म से किया जाता है।3
2. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अमरिन-हकीम' इस्तेमाल हुआ है जिसके दो मतलब हैं। एक यह कि वह हुक्म सरासर हिकमत से भरा होता है, किसी ग़लती या ख़राबी का उसमें कोई इमकान नहीं। दूसरे, यह कि वह एक पक्का और मजबूत फ़ैसला होता है, उसे बदल देना किसी के बस में नहीं।
3. सूरा क़द्र में यही बात इस तरह बयान की गई है, “उस रात फ़रिश्ते और जिबरील अपने रब की इजाज़त से हर तरह का हुक्म लेकर उतरते हैं।” इससे मालूम हुआ कि अल्लाह तआला के शाही इन्तिज़ाम में यह एक ऐसी रात है जिसमें वह लोगों और क़ौमों और देशों की क़िस्मतों के फ़ैसले करके अपने फ़रिश्तों के हवाले कर देता है और फिर वह उन्हीं फ़ैसलों के मुताबिक़ अमल करते रहते हैं। क़ुरआन के कुछ आलिमों को जिनमें हज़रत इकरिमा सबसे ज़्यादा नुमायाँ हैं, यह शक हुआ है कि यह शाबान की 14वीं रात है, क्योंकि कुछ हदीसों में इसी रात के बारे में यह बात आई है कि इसमें क़िस्मतों के फ़ैसले किए जाते हैं। लेकिन इब्ने-अब्बास, इब्ने-उमर (रज़ि०), मुजाहिद (रह०), क़तादा (रह०), हसन बसरी (रह०), सईद-बिन-जुबैर (रह०), इब्ने-ज़ैद (रह०), अबू-मालिक (रह०), ज़ह्हाक (रह०) और दूसरे बहुत-से क़ुरआन के आलिम इस बात पर एक राय हैं कि यह रमज़ान की वही रात है जिसे 'लैलतुल-कद्र' कहा गया है, इसलिए कि क़ुरआन मजीद ख़ुद इसका मतलब बयान कर रहा है और जहाँ क़ुरआन ने साफ़ तौर पर बयान कर दिया हो, वहाँ किसी एक-दो रावी की बयान की हुई रिवायत की बुनियाद पर कोई दूसरी राय नहीं क़ायम की जा सकती। इब्ने-कसीर (रह०) कहते हैं कि "उसमान-बिन-मुहम्मद की जो रिवायत इमाम ज़ुहरी (रह०) ने शाबान से शाबान तक क़िस्मतों के फ़ैसले होने के बारे में नक़्ल की है वह एक मुरसल रिवायत है (यानी ऐसी रिवायत है जिसे किसी ताबिई ने सीधे तौर पर नबी सल्ल० से रिवायत किया हो और किसी सहाबी का ज़िक्र न किया हो) और ऐसी रिवायतें नुसूस (क़ुरआन और हदीस के साफ़ हुक्मों) के मुक़ाबले में नहीं लाई जा सकतीं।” क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी कहते हैं कि “आधे शाबान की रात के बारे में कोई हदीस भरोसे के लायक नहीं है, न उसकी फ़ज़ीलत (बड़ाई) के बारे में और न इस बात में कि उस रात क़िस्मतों के फ़ैसले होते हैं। लिहाज़ा उनकी तरफ़ ध्यान नहीं देना चाहिए।"
أَمۡرٗا مِّنۡ عِندِنَآۚ إِنَّا كُنَّا مُرۡسِلِينَ ۝ 4
(5) हम एक रसूल भेजनेवाले थे,
رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 5
(6) तेरे रब की रहमत के तौर पर,4 यक़ीनन वही सब कुछ सुनने और जाननेवाला है।5
4. यानी यह किताब देकर एक रसूल को भेजना न सिर्फ़ हिकमत का तक़ाज़ा था, बल्कि अल्लाह तआला की रहमत का तक़ाज़ा भी था, क्योंकि वह रब है और रुबूबियत (पालनहार होना) सिर्फ़ इसी बात का तक़ाज़ा नहीं करती है कि बन्दों के जिस्म की परवरिश का सामान किया जाए, बल्कि इस बात का भी तक़ाज़ा करती है कि सही इल्म से उनकी रहनुमाई की जाए, हक़ और बातिल (सही और ग़लत) के फ़र्क़ से उनको आगाह किया जाए और उन्हें अंधेरे में भटकता न छोड़ दिया जाए।
5. इस मौक़ा-महल में अल्लाह तआला की इन दो सिफ़ात (गुणों) को बयान करने का मक़सद लोगों को इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि सही इल्म सिर्फ़ वही दे सकता है, क्योंकि तमाम हक़ीक़तों को वही जानता है। एक इनसान तो क्या, सारे इनसान मिलकर भी अगर अपने लिए ज़िन्दगी का कोई रास्ता तय करें तो उसके हक़ और सही होने की कोई ज़मानत नहीं, क्योंकि इनसानी नस्ल इकट्ठा होकर भी एक 'समीअ (सब कुछ सुननेवाला) और 'अलीम' (सब कुछ जाननेवाला) नहीं बनती। उसके बस में यह है ही नहीं कि उन तमाम हक़ीक़तों को अपने दायरे में ला सके जिनका जानना ज़िन्दगी की एक सही राह तय करने के लिए ज़रूरी है। यह इल्म सिर्फ़ अल्लाह के पास है। वही 'समीअ' और 'अलीम' है, इसलिए वही यह बता सकता है कि इनसान के लिए हिदायत क्या है और गुमराही क्या, हक़ क्या है और बातिल क्या, भलाई क्या है और बुराई क्या।
رَبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَآۖ إِن كُنتُم مُّوقِنِينَ ۝ 6
(7) आसमानों और ज़मीन का रब और हर उस चीज़ का रब जो आसमानों और ज़मीन के बीच है, अगर तुम लोग सचमुच यक़ीन रखनेवाले हो।6
6. अरबवाले ख़ुद मानते थे कि अल्लाह तआला ही कायनात और उसकी हर चीज़ का रब (मालिक और पालनहार) है। इसलिए उनसे कहा गया कि अगर तुम बे-सोचे-समझे सिर्फ़ ज़बान ही से यह इक़रार नहीं कर रहे हो,, बल्कि तुम्हें सचमुच उसके पालनहार होने का एहसास और उसके मालिक होने का यक़ीन है, तो तुम्हें मानना चाहिए कि (1) इनसान की रहनुमाई के लिए किताब और रसूल का भेजना उसकी रहमत और परवरदिगारी की शान का ठीक तक़ाज़ा है और (2) मालिक होने की हैसियत से यह उसका हक़ और मिलकियत होने की हैसियत से यह तुम्हारा फ़र्ज़ है कि उसकी तरफ़ से जो हिदायत आए उसे मानो और जो हुक्म आए, उसके आगे फ़रमाँबरदारी में सर झुका दो।
لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۖ رَبُّكُمۡ وَرَبُّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 7
(8) कोई माबूद (उपास्य) उसके सिवा नहीं है।7 वही ज़िन्दगी देता है और वही मौत देता है।8 तुम्हारा रब और तुम्हारे उन बुज़ुर्गों का रब जो पहले गुज़र चुके हैं,9
7. माबूद से मुराद है हक़ीक़ी माबूद, जिसका हक़ यह है कि उसकी इबादत (ग़ुलामी और पूजा) की जाये।
8. यह दलील है इस बात की कि उसके सिवा कोई माबूद (उपास्य) नहीं है और नहीं हो सकता। इसलिए कि यह बात सरासर अक़्ल के ख़िलाफ़ है कि जिसने बेजान चीज़ों में जान डालकर तुमको जीता-जागता इनसान बनाया और जो इस बात के पूरे अधिकार रखता है कि जब तक चाहे तुम्हारी इस ज़िन्दगी को बाक़ी रखे और जब चाहे उसे ख़त्म कर दे, उसकी तुम बन्दगी न करो, या उसके सिवा किसी और की बन्दगी करो, या उसके साथ दूसरों की बन्दगी भी करने लगो।
9. इसमें एक हलका-सा इशारा है इस बात की तरफ़ कि तुम्हारे जिन बुज़ुर्गों ने उसको छोड़कर दूसरे माबूद (उपास्य) बनाए, उनका रब भी हक़ीक़त में वही था। उन्होंने अपने अस्ली रब के सिवा दूसरों की बन्दगी करके कोई सही काम न किया था कि उनकी पैरवी करने में तुम सही हो और उनके कामों को अपने मज़हब (पंथ) के दुरुस्त होने की दलील ठहरा सको। उनके लिए ज़रूरी था कि वे सिर्फ़ उसी की बन्दगी करते, क्योंकि वही उनका रब था। लेकिन अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि सबकी बन्दगी छोड़कर उसी एक की बन्दगी करो, क्योंकि वही तुम्हारा रब है।
بَلۡ هُمۡ فِي شَكّٖ يَلۡعَبُونَ ۝ 8
(9) (मगर हक़ीक़त में इन लोगों को यक़ीन नहीं है) बल्कि ये अपने शक में पड़े खेल रहे हैं।10
10. इस छोटे-से जुमले में एक बड़ी अहम हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया गया है। ख़ुदा का सिरे से इनकार करनेवाले (नास्तिक) हों या बहुत-से ख़ुदाओं को पूजनेवाले (मुशरिक लोग), उन सबपर वक़्त-वक़्त पर ऐसी घड़ियाँ आती रहती हैं, जब उनका दिल अन्दर से कहता है कि जो कुछ तुम समझे बैठे हो, उसमें कहीं-न-कहीं झोल मौजूद है। ख़ुदा का इनकार करनेवाला अपने इनकार में बज़ाहिर चाहे कितना ही सख़्त हो, किसी-न-किसी वक़्त उसका दिल यह गवाही दे गुज़रता है कि मिट्टी के एक ज़र्रे से लेकर कहकशानों (आकाशगंगाओं) तक और घास की एक पत्ती से लेकर इनसान की पैदाइश तक यह हैरतअंगेज़, हिकमत से भरा निज़ाम किसी हिकमतवाले कारीगर के बिना वुजूद में नहीं आ सकता। इसी तरह एक मुशरिक अपने शिर्क में चाहे कितना ही गहरा डूबा हुआ हो, कभी-न-कभी उसका भी दिल यह पुकार उठता है कि जिन्हें मैं माबूद (उपास्य) बनाए बैठा हूँ, ये ख़ुदा नहीं हो सकते। लेकिन दिल की इस गवाही का नतीजा न तो यह होता है कि उन्हें ख़ुदा के वुजूद और उसके एक अकेला होने का यक़ीन हासिल हो जाए, न यही होता है कि उन्हें अपने शिर्क और अपनी नास्तिकता में पूरा यक़ीन और इत्मीनान हासिल रहे। इसके बजाय उनका दीन हक़ीक़त में शक पर क़ायम होता है चाहे उसमें यक़ीन की कितनी ही शिद्दत वे दिखा रहे हों। अब रहा यह सवाल कि यह शक उनके अन्दर बेचैनी क्यों नहीं पैदा करता और वे संजीदगी के साथ हक़ीक़त की तलाश क्यों नहीं करते कि यक़ीन की मुत्मइन करनेवाली बुनियाद उन्हें मिल सके? इसका जवाब यह है कि दीन के मामले में उनके अन्दर संजीदगी ही तो नहीं पाई जाती। उनकी निगाह में अस्ल अहमियत सिर्फ़ दुनिया की कमाई और इसके ऐश की होती है जिसकी फ़िक्र में वे अपने दिल और दिमाग़ और जिस्म की सारी ताक़तें ख़र्च कर डालते हैं। रहे दीन के मामले, तो वे हक़ीक़त में उनके लिए एक खेल, एक मनोरंजन, एक ज़ेहनी अय्याशी के सिवा कुछ नहीं होते जिनपर संजीदगी के साथ कुछ पल भी वे सोच-विचार में नहीं लगा सकते। मज़हबी रस्में हैं तो मनोरंजन के तौर पर अदा किए जा रहे हैं। इनकार और नास्तिकता की बहसें हैं तो मनोरंजन के तौर पर की जा रही हैं। दुनिया के कामों से इतनी फ़ुर्सत किसे है कि बैठकर यह सोचे कि कहीं हम हक़ (सच्चाई) से मुँह मोड़े हुए तो नहीं हैं और अगर हक़ से मुँह मोड़े हुए हैं तो इसका अंजाम क्या है।
فَٱرۡتَقِبۡ يَوۡمَ تَأۡتِي ٱلسَّمَآءُ بِدُخَانٖ مُّبِينٖ ۝ 9
(10) अच्छा, इन्तिज़ार करो उस दिन का जब आसमान साफ़-साफ़ धुआँ लिए हुए आएगा
يَغۡشَى ٱلنَّاسَۖ هَٰذَا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 10
(11) और वह लोगों पर छा जाएगा, यह है दर्दनाक सज़ा।
رَّبَّنَا ٱكۡشِفۡ عَنَّا ٱلۡعَذَابَ إِنَّا مُؤۡمِنُونَ ۝ 11
(12) (अब कहते हैं कि) “परवरदिगार, हम पर से अज़ाब टाल दे, हम ईमान लाते हैं।”
أَنَّىٰ لَهُمُ ٱلذِّكۡرَىٰ وَقَدۡ جَآءَهُمۡ رَسُولٞ مُّبِينٞ ۝ 12
(13) इनकी ग़फ़लत कहाँ दूर होती है? इनका हाल तो यह है कि इनके पास रसूले-मुबीन11 आ गया
11.'रसूले-मुबीन' के दो मतलब हैं। एक यह कि उसका रसूल होना उसकी सीरत, उसके अख़लाक़ और किरदार और उसके कारनामों से बिलकुल ज़ाहिर है। दूसरा यह कि उसने हक़ीक़त को खोल-खोलकर बयान करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।
ثُمَّ تَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ وَقَالُواْ مُعَلَّمٞ مَّجۡنُونٌ ۝ 13
(14) फिर भी इन्होंने उसकी तरफ़ ध्यान न दिया और कहा कि “यह तो सिखाया-पढ़ाया बावला है।12
12. उनका मतलब यह था कि यह बेचारा तो सीधा-सादा आदमी था, कुछ दूसरे लोगों ने इसे भरों पर चढ़ा लिया, वे परदे में रहकर क़ुरआन की आयतें गढ़-गढ़कर इसे पढ़ा देते हैं, यह आकर आम लोगों के सामने उन्हें पेश कर देता है, वे मज़े से बैठे रहते हैं और यह गालियाँ और पत्थर खाता है। इस तरह एक चलता हुआ जुमला कहकर वे उन सारी दलीलों और नसीहतों और संजीदा तालीमात को उड़ा देते थे जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) सालों से उनके सामने पेश कर-करके थके जा रहे थे। वे न उन माक़ूल और मुनासिब बातों पर कोई ध्यान देते थे जो क़ुरआन मजीद में बयान की जा रही थीं, न यह देखते थे कि जो आदमी यह बातें पेश कर रहा है, वह किस दरजे का आदमी है और न यह इलज़ाम रखते वक़्त ही वे कुछ सोचने की तकलीफ़ गवारा करते थे कि हम यह क्या बकवास कर रहे हैं। ज़ाहिर बात है कि अगर कोई दूसरा आदमी परदे में बैठकर सिखाने-पढ़ानेवाला होता तो वह हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) और अबू-बक्र (रज़ि०) और अली (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) और शुरू के दूसरे मुसलमानों से आख़िर कैसे छिप जाता जिनसे बढ़कर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से क़रीब और हर वक़्त का साथी कोई न था। फिर क्या वजह है कि यही लोग सबसे बढ़कर पैग़म्बर (सल्ल०) से मुहब्बत करनेवाले और आप (सल्ल०) के अक़ीदतमन्द थे, हालाँकि परदे के पीछे से किसी दूसरे आदमी के सिखाने-पढ़ाने से पैग़म्बरी का कारोबार चलाया गया होता तो यही लोग आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त में सबसे आगे-आगे होते। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-107; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-12)
إِنَّا كَاشِفُواْ ٱلۡعَذَابِ قَلِيلًاۚ إِنَّكُمۡ عَآئِدُونَ ۝ 14
(15) हम ज़रा अज़ाब हटाए देते हैं, तुम लोग फिर वही कुछ करोगे जो पहले कर रहे थे।
يَوۡمَ نَبۡطِشُ ٱلۡبَطۡشَةَ ٱلۡكُبۡرَىٰٓ إِنَّا مُنتَقِمُونَ ۝ 15
(16) जिस दिन हम बड़ी चोट लगाएँगे, वह दिन होगा जब हम तुमसे इन्तिक़ाम लेंगे।13
13. इन आयतों का मतलब क्या है इस बारे में क़ुरआन के आलिमों के बीच बड़ा इख़्तिलाफ़ है और यह इख़्तिलाफ़ सहाबा (रज़ि०) के ज़माने में भी पाया जाता था। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) के मशहूर शागिर्द मसरूक़ (रह०) कहते हैं कि एक दिन हम कूफ़ा की मस्जिद में दाख़िल हुए तो देखा कि एक शख़्स लोगों के सामने तक़रीर कर रहा है। उसने आयत "उस दिन जब आसमान साफ़-साफ़ धुआँ लेकर आएगा” (आयत-10) पढ़ी, फिर कहने लगा कि जानते हो यह कैसा धुआँ है? यह धुआँ क़ियामत के दिन आएगा और ख़ुदा के इनकारियों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) को अन्धा-बहरा कर देगा, मगर ईमानवालों पर उसका असर बस इतना होगा कि जैसे ज़ुकाम हो गया हो। उसकी यह बात सुनकर हम हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) के पास गए और उनसे तक़रीर करनेवाले की यह बात बयान की। हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) लेटे हुए थे। यह बात सुनकर घबराकर उठ बैठे और कहने लगे कि आदमी को इल्म न हो तो उसे जाननेवालों से पूछ लेना चाहिए। अस्ल बात यह है कि जब क़ुरैश के लोग इस्लाम क़ुबूल करने से इनकार और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुख़ालफ़त करते ही चले गए तो नबी (सल्ल०) ने दुआ की कि ऐ ख़ुदा, यूसुफ़ (अलैहि०) के अकाल जैसे अकाल से मेरी मदद कर। चुनाँचे ऐसा सख़्त अकाल पड़ा कि लोग हड्डियाँ और चमड़ा और मुर्दार तक खा गए। उस ज़माने में हालत यह थी कि जो शख़्स आसमान की तरफ़ देखता था, उसे भूख की तेज़ी में बस धुआँ-ही-धुआँ नज़र आता था। आख़िरकार अबू-सुफ़ियान ने आकर नबी (सल्ल०) से कहा कि आप तो रिश्तेदारों के साथ अच्छा सुलूक करने की दावत देते हैं। आपकी क़ौम भूखों मर रही है। अल्लाह से दुआ कीजिए कि इस मुसीबत को दूर कर दे। यही ज़माना था जब क़ुरैश के लोग कहने लगे थे कि ऐ ख़ुदा, हमपर से यह अज़ाब दूर कर दे तो हम ईमान ले आएँगे। इसी वाक़िए का ज़िक्र इन आयतों में किया गया है और बड़ी चोट से मुराद वह चोट है जो आख़िरकार बद्र की जंग के दिन क़ुरैश को लगाई गई। यह रिवायत इमाम अहमद, बुख़ारी, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम (रह०) ने कई सनदों के साथ मसरूक़ (रह०) से नक़्ल की है और मसरूक़ (रह०) के अलावा इबराहीम नख़ई, क़तादा, आसिम और आमिर (रह०) का भी यही बयान है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन-मसऊद (रज़ि०) ने इस आयत का यह मतलब बयान किया था। इसलिए इस बात में कोई शक नहीं रहता कि इब्ने-मसऊद (रज़ि०) की राय सचमुच यही थी। ताबिईन में से मुजाहिद, क़तादा, अबुल-आलिया, मुक़ातिल, इबराहीम नख़ई, ज़ह्हाक और अतिय्या-अल-औफ़ी (रह०) वग़ैरा लोगों ने भी इस मतलब में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की राय की ताईद की। दूसरी तरफ़ हज़रत अली (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०) अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०), ज़ैद-बिन-अली (रह०) और हसन बसरी (रह०) जैसे बुज़ुर्ग कहते हैं कि इन आयतों में सारा ज़िक्र क़ियामत के क़रीब ज़माने का किया गया है और वह धुआँ जिसकी ख़बर दी गई है, उसी ज़माने में ज़मीन पर छाएगा। यह मतलब उन रिवायतों से और भी मज़बूत हो जाता है जो ख़ुद नबी (सल्ल०) से नक़्ल हुई हैं। हुज़ैफ़ा-बिन-असीदुल-ग़िफ़ारी (रज़ि०) कहते हैं कि एक दिन हम क़ियामत के बारे में आपस में बातचीत कर रहे थे। इतने में नबी (सल्ल०) आ गए और फ़रमाया, “क़ियामत क़ायम न होगी जब तक दस अलामतें (निशानियाँ) एक के बाद एक ज़ाहिर न हो लेंगी, सूरज का मग़रिब (पश्चिम) से निकलना, धुआँ, दाब्बा (ज़मीन से निकलनेवाला जानदार), याजूज-माजूज का निकलना, मरयम के बेटे ईसा (अलैहि०) का उतरना। ज़मीन का धँसना पूरब में, पश्चिम में और जज़ीरतुल-अरब (अरबद्वीप) में और अद्न से आग का निकलना जो लोगों को हाँकती हुई ले जाएगी।” (हदीस : मुस्लिम)। इसी की ताईद (समर्थन) अबू-मालिक अशअरी (रज़ि०) की वह रिवायत करती है जिसे इब्ने-जरीर और तबरानी ने नक़्ल किया है और अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) की रिवायत जिसे इब्ने-अबी-हातिम ने नक़्ल किया है। इन दोनों रिवायतों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने धुएँ को क़ियामत की अलामतों में गिना है और यह भी नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि वह धुआँ जब छाएगा तो ईमानवाले पर उसका असर सिर्फ़ ज़ुकाम जैसा होगा और ख़ुदा के इनकारी की नस-नस में यह भर जाएगा और उसके जिस्म के हर सुराख़ से निकलेगा। इन दोनों मतलबों का टकराव ऊपर की आयतों पर ग़ौर करने से आसानी के साथ दूर हो सकता है। जहाँ तक अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) के मतलब का ताल्लुक़ है, यह सच है कि मक्का में नबी (सल्ल०) की दुआ से सख़्त अकाल पड़ा था जिससे वहाँ के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की हेकड़ी बहुत कुछ निकल गई थी और उन्होंने उसे दूर कराने के लिए नबी (सल्ल०) से दुआ की दरख़ास्त की थी। इस वाक़िए की तरफ़ क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर इशारे किए गए हैं (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-29; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-77; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—14, 15, 19; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-72)। इन आयतों में भी साफ़ महसूस होता है कि इशारा उसी सूरते-हाल की तरफ़ है। इस्लाम-मुख़ालिफ़ों का यह कहना कि “परवरदिगार, हमपर से यह अज़ाब टाल दे, हम ईमान लाते हैं।” अल्लाह तआला का यह फ़रमाना कि “इनकी ग़फ़लत कहाँ दूर होती है जबकि इनके पास रसूले-मुबीन आ गया, फिर भी इन्होंने उसकी तरफ़ ध्यान न दिया और कहा कि यह तो सिखाया-पढ़ाया बावला है।” फिर यह फ़रमाना कि “हम ज़रा अज़ाब हटाए देते हैं, तुम लोग फिर वही कुछ करोगे जो पहले कर रहे थे।” ये सारी बातें उसी सूरत में सही हो सकती हैं जबकि वाक़िआ नबी (सल्ल०) ही के ज़माने का हो। क़ियामत के क़रीब होनेवाले वाक़िआत पर इनका चस्पाँ होना समझ से परे है। इसलिए इस हद तक तो इब्ने-मसऊद (रज़ि०) का बयान किया हुआ मतलब ही सही मालूम होता है। लेकिन उसका यह हिस्सा सही नहीं मालूम होता कि 'धुआँ' भी उसी ज़माने में ज़ाहिर हुआ था और शक्ल में ज़ाहिर हुआ था कि भूख की तेज़ी में जब लोग आसमान की तरफ़ देखते थे तो धुआँ-ही-धुआँ नज़र आता था। यह बात क़ुरआन मजीद के ज़ाहिर अलफ़ाज़ से भी मेल नहीं खाती और हदीसों के भी ख़िलाफ़ है। क़ुरआन में यह कहाँ कहा गया है कि आसमान धुआँ लिए हुए आ गया और लोगों पर छा गया। वहाँ तो कहा गया है कि “अच्छा तो उस दिन का इन्तिज़ार करो जब आसमान साफ़-साफ़ धुआँ लिए हुए आएगा और वह लोगों पर छा जाएगा।” बाद की आयतों को निगाह में रखकर देखा जाए तो इस बात का साफ़ मतलब यह मालूम होता है कि जब तुम न रसूल के समझाने से मानते हो, न अकाल की शक्ल में जो डरावा तुम्हें दिया गया है, उससे ही होश में आते हो, तो फिर क़ियामत का इन्तिज़ार करो, उस वक़्त जब पूरी तरह शामत आएगी तब तुम्हें पता चल जाएगा कि हक़ (सही) क्या था और बातिल (ग़लत) क्या था। तो जहाँ तक धुएँ का ताल्लुक़ है, उसके बारे में सही बात यही है कि वह अकाल के ज़माने की चीज़ नहीं है, बल्कि क़ियामत की अलामतों (निशानियों) में से है और यही बात हदीसों से भी मालूम होती है। ताज्जुब है कि क़ुरआन के बड़े आलिमों में से जिन्होंने हज़रत इब्ने-मसऊद (रज़ि०) की ताईद की उन्होंने पूरी बात की ताईद कर दी और जिन्होंने उनकी बात को ग़लत बताया, उन्होंने पूरी बात को ग़लत कह दिया, हालाँकि आयतों और हदीसों पर ग़ौर करने से यह साफ़ मालूम की हो जाता है कि उसका कौन-सा हिस्सा सही है और कौन-सा ग़लत।
۞وَلَقَدۡ فَتَنَّا قَبۡلَهُمۡ قَوۡمَ فِرۡعَوۡنَ وَجَآءَهُمۡ رَسُولٞ كَرِيمٌ ۝ 16
(17) हम इनसे पहले फ़िरऔन की क़ौम को इसी आज़माइश में डाल चुके हैं। उनके पास एक बहुत ही भला रसूल14 आया
14. अस्ल अरबी में 'रसूलुन-करीम' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। 'करीम' का लफ़्ज़ जब इनसान के लिए बोला जाता है। उससे मुराद यह होती है कि वह बेहतरीन शरीफ़ाना आदतों और निहायत क़ाबिले-तारीफ़ ख़ूबियों का मालिक है। मामूली ख़ूबियों के लिए यह लफ़्ज़ नहीं बोला जाता।
أَنۡ أَدُّوٓاْ إِلَيَّ عِبَادَ ٱللَّهِۖ إِنِّي لَكُمۡ رَسُولٌ أَمِينٞ ۝ 17
(18) और उसने कहा,15 “अल्लाह के बन्दों को मेरे हवाले करो।16 मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।17
15. यह बात शुरू ही में समझ लेनी चाहिए कि यहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) की कही हुई जो बातें को नक़्ल की जा रही हैं, वे एक वक़्त में एक ही लगातार तक़रीर के हिस्से नहीं हैं, बल्कि कई सालों के दौरान में अलग-अलग मौक़ों पर जो बातें उन्होंने फ़िरऔन और उसके दरबारियों से कही थीं, उनका ख़ुलासा (सार) कुछ जुमलों में बयान किया जा रहा है (तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—83 से 97; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—72 से 93; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—18अ, 52; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—7 से 49; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—8 से 17; सूरा-28 क़सस, हाशिए—46 से 56; सूरा-40 मोमिन, आयतें—23 से 46; सूरा-48 जुख़रुफ़, आयतें—46 से 56, हाशियों समेत)।
16. अस्ल अरबी में “अदू इलय-य इबादल्लाह” के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। इनका एक तर्जमा तो वह है जो ऊपर हमने किया है और उसके लिहाज़ से यह उस माँग के हममानी है जो सूरा-7 आराफ़ (आयत-105); सूरा-20 ता-हा, (आयत-47) और सूरा-26 शुअरा (आयत-17) में गुज़र चुकी है कि “बनी-इसराईल को मेरे साथ जाने के लिए छोड़ दो।” दूसरा तर्जमा, जो हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से नक़्ल हुआ है, यह है कि “अल्लाह के बन्दो, मेरा हक़ अदा करो यानी मेरी बात मानो, मुझपर ईमान लाओ और मेरी हिदायत की पैरवी करो। यह ख़ुदा की तरफ़ से तुम्हारे ऊपर मेरा हक़ है।” बाद का यह जुमला कि “मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूँ।” इस दूसरे मतलब के साथ ज़्यादा मेल खाता है।
17. यानी भरोसे के क़ाबिल रसूल हूँ। अपनी तरफ़ से कोई बात मिलाकर कहनेवाला नहीं हूँ। न अपनी किसी निज़ी ख़ाहिश या ग़रज़ के लिए ख़ुद एक हुक्म या क़ानून गढ़कर ख़ुदा के नाम से पेश करनेवाला हूँ। मुझपर तुम यह भरोसा कर सकते हो कि जो कुछ मेरे भेजनेवाले ने कहा है, वही बिना घटाए-बढ़ाए तुम तक पहुँचाऊँगा। (ध्यान रहे कि ये दो जुमले उस वक़्त के हैं जब हज़रत मूसा (अलैहि०) ने सबसे पहले अपनी दावत पेश की थी।
وَأَن لَّا تَعۡلُواْ عَلَى ٱللَّهِۖ إِنِّيٓ ءَاتِيكُم بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٖ ۝ 18
(19) अल्लाह के मुक़ाबले में सरकशी न करो। मैं तुम्हारे सामने (अपने रसूल मुकर्रर किए जाने की) साफ़ सनद पेश करता हूँ।18
18. दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि मेरे मुक़ाबले में जो सरकशी तुम कर रहे हो यह अस्ल में अल्लाह के मुक़ाबले में सरकशी है, क्योंकि मेरी जिन बातों पर तुम बिगड़ रहे हो वे मेरी नहीं, बल्कि अल्लाह की बातें हैं और मैं उसी के रसूल की हैसियत से इन्हें बयान कर रहा हूँ। अगर तुम्हें इसमें शक है कि मैं अल्लाह का भेजा हुआ हूँ या नहीं, तो मैं तुम्हारे सामने इस बात की वाज़ेह सनद (सुबूत) पेश करता हूँ कि मैं अल्लाह की तरफ़ से पैग़म्बर मुक़र्रर किया गया हूँ। इस सनद से मुराद कोई एक मोजिज़ा (चमत्कार) नहीं है, बल्कि मोजिज़ों का वह लम्बा सिलसिला है जो फ़िरऔन के दरबार में पहली बार पहुँचने के बाद से मिस्र में ठहरने के आख़िरी ज़माने तक हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन और उसकी क़ौम को सालों-साल तक दिखाते रहे। जिस सनद को भी उन लोगों ने झुठलाया, उससे बढ़कर वाज़ेह सनद वे पेश करते चले गए। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-48 जुख़रुफ़, हाशिए—42, 43)।
وَإِنِّي عُذۡتُ بِرَبِّي وَرَبِّكُمۡ أَن تَرۡجُمُونِ ۝ 19
(20) और मैं अपने रब और तुम्हारे रब की पनाह ले चुका हूँ, इससे कि तुम मुझपर हमला करो।
وَإِن لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ لِي فَٱعۡتَزِلُونِ ۝ 20
(21) अगर तुम मेरी बात नहीं मानते तो मुझपर हाथ डालने से बाज़ रहो।"19
19. यह उस ज़माने की बात है जब हज़रत मूसा (अलैहि०) की पेश की हुई सारी निशानियों के मुक़ाबले में फ़िरऔन अपनी हठधर्मी पर अड़ा हुआ था, मगर यह देखकर कि इन निशानियों से मिस्र के आम और ख़ास लोग दिन-पर-दिन असर लिए चले जा रहे हैं, उसके होश उड़े जा रहे थे। उस ज़माने में पहले तो उसने भरे दरबार में वह तक़रीर की जो सूरा-13 ज़ुख़रुफ़, आयतें—51 से 53 में गुज़र चुकी है (देखिए; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिए—45 से 49), फिर ज़मीन पाँव तले से निकलती देखकर आख़िरकार वह अल्लाह के रसूल को क़त्ल कर देने पर आमादा हो गया। उस वक़्त उन्होंने वह बात कही जो सूरा-40 मोमिन, आयत-27 में गुज़र चुकी है कि “मैंने पनाह ली अपने रब और तुम्हारे रब की हर उस घमण्डी से जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता।” यहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी उसी बात का हवाला देकर फ़िरऔन और उसके दरबारियों से कह रहे हैं कि देखो, मैं तुम्हारे सारे हमलों के मुक़ाबले में अल्लाह, सारे जहान के रब, की पनाह माँग चुका हूँ। अब तुम मेरा तो कुछ बिगाड़ नहीं सकते, लेकिन अगर तुम ख़ुद अपनी ख़ैर चाहते हो तो मुझपर हमला करने से बाज़ रहो, मेरी बात नहीं मानते तो न मानो। मुझपर हाथ हरगिज़ न डालना, वरना इसका बहुत बुरा अंजाम देखोगे।
فَدَعَا رَبَّهُۥٓ أَنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ مُّجۡرِمُونَ ۝ 21
(22) आख़िरकार उसने अपने रब को पुकारा कि ये लोग मुजरिम है।20
20. यह हज़रत मूसा (अलैहि०) की आख़िरी रिपोर्ट है जो उन्होंने अपने रब के सामने पेश की। “ये लोग मुजरिम हैं,” यानी इनका मुजरिम होना अब साफ़ तौर पर साबित हो चुका है। कोई गुंजाइश इनके साथ रिआयत बरतने और इनको सुधरने का और ज़्यादा मौक़ा देने की बाक़ी नहीं रही है। अब वक़्त आ गया है कि आप आख़िरी फ़ैसला कर दें।
فَأَسۡرِ بِعِبَادِي لَيۡلًا إِنَّكُم مُّتَّبَعُونَ ۝ 22
(23) (जवाब दिया गया,) “अच्छा तो रातों-रात मेरे बन्दों को21 लेकर चल पड़। तुम लोगों का पीछा किया जाएगा।22
21. यानी उन सब लोगों का जो ईमान लाए हैं। इनमें बनी-इसराईल भी थे और मिस्र के वे निवासी भी जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के ज़माने से हज़रत मूसा (अलैहि०) के आने तक मुसलमानों में शामिल हो चुके थे और मिस्रवालों में से वे लोग भी जिन्होंने हज़रत मूसा (अलैहि०) की निशानियाँ देखकर और उनकी दावत और तबलीग़ से मुतास्सिर होकर इस्लाम क़ुबूल किया था। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-12 यूसुफ़, हाशिया-68)
22. यह इबतिदाई हुक्म है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को हिजरत के लिए दिया गया था। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-53; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—39 से 47)
وَٱتۡرُكِ ٱلۡبَحۡرَ رَهۡوًاۖ إِنَّهُمۡ جُندٞ مُّغۡرَقُونَ ۝ 23
(24) समुद्र को उसके हाल पर खुला छोड़ दे। यह सारा लश्कर डूब जानेवाला है।"23
23. यह हुक्म उस वक़्त दिया गया जब हज़रत मूसा (अलैहि०) अपने काफ़िले को लेकर समन्दर पार उतर चुके थे और चाहते थे कि समुद्र पर असा मारकर उसे फिर वैसा ही कर दें, जैसा वह फटने से पहले था, ताकि फ़िरऔन और उसका लश्कर उस रास्ते से गुज़रकर न जाए जो मोजिज़े (चमत्कार) से बना था। उस वक़्त फ़रमाया गया कि ऐसा न करो। उसको इसी तरह फटा-का-फटा रहने दो, ताकि फ़िरऔन अपने लश्कर समेत इस रास्ते में उतर आए, फिर समन्दर को छोड़ दिया जाएगा और यह पूरी फ़ौज डुबो दी जाएगी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिए—53, 54; सूरा-26 शुअरा, हाशिया-47)
كَمۡ تَرَكُواْ مِن جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 24
(25) कितने ही बाग़ और चश्मे (स्रोत) और खेत
وَزُرُوعٖ وَمَقَامٖ كَرِيمٖ ۝ 25
(26) और शानदार महल थे जो वे छोड़ गए।
وَنَعۡمَةٖ كَانُواْ فِيهَا فَٰكِهِينَ ۝ 26
(27) कितने ही ऐश के सरो-सामान, जिनमें वे मज़े कर रहे थे, उनके पीछे धरे रह गए।
كَذَٰلِكَۖ وَأَوۡرَثۡنَٰهَا قَوۡمًا ءَاخَرِينَ ۝ 27
(28) यह हुआ उनका अंजाम और हमने दूसरों को इन चीज़ों का वारिस बना दिया।24
24. हज़रत हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद बनी-इसराईल हैं, जिन्हें अल्लाह तआला ने फ़िरऔन की क़ौम के बाद मिस्र की सरज़मीन का वारिस बना दिया और क़तादा (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद दूसरे लोग हैं जो फ़िरऔनवालों के बाद मिस्र के वारिस हुए, क्योंकि इतिहासों में कहीं भी यह ज़िक्र नहीं मिलता कि मिस्र से निकलने के बाद बनी-इसराईल कभी वहाँ वापस गए हों और उस सरज़मीन के वारिस हुए हों। यही इख़्तिलाफ़ क़ुरआन के बाद के आलिमों में भी पाया जाता है। (तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-45)
فَمَا بَكَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلسَّمَآءُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَا كَانُواْ مُنظَرِينَ ۝ 28
(29) फिर न आसमान उनपर रोया, न ज़मीन25 और ज़रा-सी मुहलत भी उनको न दी गई।
25. यानी जब वे हुक्मराँ थे तो उनकी बड़ाई के डंके बज रहे थे। उनकी बड़ाई और तारीफ़ों के तरानों से दुनिया गूँज रही थी। चापलूसों के झुण्ड उनके आगे-पीछे लगे रहते थे। उनकी वह हवा बाँधी जाती थी कि मानो एक दुनिया उनके कमालों (चमत्कारों) की दीवानी और उनके एहसानों के बोझ तले दबी है और उनसे बढ़कर दुनिया में कोई पसन्दीदा नहीं। मगर जब वे गिरे तो कोई आँख उनके लिए रोनेवाली न थी, बल्कि दुनिया ने ऐसी इत्मीनान की साँस ली कि मानो एक काँटा था जो उसके पहलू से निकल गया। ज़ाहिर है कि उन्होंने न ख़ुदा के बन्दों के साथ कोई भलाई की थी कि ज़मीनवाले उनके लिए रोते, न ख़ुदा की ख़ुशनूदी का कोई काम किया था कि आसमानवालों को उनकी तबाही पर अफ़सोस होता। जब तक अल्लाह की मरज़ी से उनकी रस्सी ढीली होती रही, वे ज़मीन के सीने पर मूँग दलते रहे। जब उनके जुर्म हद से गुज़र गए तो इस तरह उठाकर फेंक दिए गए जैसे कूड़ा-करकट फेंका जाता है।
وَلَقَدۡ نَجَّيۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ مِنَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡمُهِينِ ۝ 29
(30) इस तरह बनी-इसराईल को हमने सख़्त रुसवाई के अज़ाब, फ़िरऔन26 से छुटकारा दिलाया
26. यानी फ़िरऔन बजाय ख़ुद उनके लिए रुसवाई का अज़ाब था और दूसरे तमाम अज़ाब इसी एक सरापा अज़ाब के हिस्से थे।
مِن فِرۡعَوۡنَۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَالِيٗا مِّنَ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 30
(31) जो हद से गुज़र जानेवालों में सचमुच बड़े ऊँचे दरजे का आदमी था'27
27. इसमें एक हलका-सा तंज़ (व्यंग्य) है क़ुरैश के इस्लाम मुख़ालिफ़ सरदारों पर। मतलब यह है कि बन्दगी की हद से आगे बढ़ जानेवालों में तुम्हारा दरजा और मक़ाम ही क्या है। बड़े ऊँचे दरजे का सरकश तो वह था जो उस वक़्त दुनिया की सबसे बड़ी सल्तनत के तख़्त पर ख़ुदा बना बैठा था। उसे जब घास-फूस की तरह बहा दिया गया तो तुम्हारी क्या हस्ती है कि अल्लाह के क़हर के आगे ठहर सको।
وَلَقَدِ ٱخۡتَرۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ عِلۡمٍ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 31
(32) और उनकी हालत जानते हुए, उनको दुनिया की दूसरी क़ौमों पर तरजीह दी28
28. यानी बनी-इसराईल की ख़ूबियाँ और कमज़ोरियाँ, दोनों अल्लाह पर ज़ाहिर थीं। उसने बे-देखे-भाले उनका चुनाव अन्धा-धुंध नहीं कर लिया था। उस वक़्त दुनिया में जितनी क़ौमें मौजूद थीं, उनमें से इस क़ौम को जब उसने अपने पैग़ाम की ज़िम्मेदारी का बोझ उठानेवाला और अपनी तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत (आह्वान) का अलमबरदार बनाने के लिए चुना तो इस वजह से चुना कि उसके इल्म में वक़्त की मौजूद क़ौमों में से यही इसके लिए ज़्यादा मुनासिब थी।
وَءَاتَيۡنَٰهُم مِّنَ ٱلۡأٓيَٰتِ مَا فِيهِ بَلَٰٓؤٞاْ مُّبِينٌ ۝ 32
(33) और उन्हें ऐसी निशानियाँ दिखाईं जिनमें खुली आज़माइश थी।29
29. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—64 से 85; सूरा-4 निसा, हाशिए—182 से 199; सूरा-5 माइदा, हाशिए—42 से 47; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—97 से 132; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—56 से 741
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ لَيَقُولُونَ ۝ 33
(34) ये लोग कहते हैं,
إِنۡ هِيَ إِلَّا مَوۡتَتُنَا ٱلۡأُولَىٰ وَمَا نَحۡنُ بِمُنشَرِينَ ۝ 34
(35) “हमारी पहली मौत के सिवा और कुछ नहीं, उसके बाद हम दोबारा उठाए जानेवाले नहीं हैं।30
30. यानी पहली बार जब हम मरेंगे तो बस मिट ही जाएँगे, उसके बाद फिर कोई ज़िन्दगी नहीं है। 'पहली मौत' के अलफ़ाज़ से यह जरूरी नहीं हो जाता कि उसके बाद कोई दूसरी मौत भी हो। हम जब यह कहते हैं कि फ़ुलाँ शख़्स के यहाँ पहला बच्चा पैदा हुआ तो इस बात के सच साबित होने के लिए यह ज़रूरी नहीं होता कि उसके बाद ज़रूर ही दूसरा बच्चा पैदा हो, बल्कि सिर्फ़ यह काफ़ी होता है कि उससे पहले कोई बच्चा पैदा न हुआ हो।
فَأۡتُواْ بِـَٔابَآئِنَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 35
(36) अगर तुम सच्चे हो तो उठा लाओ हमारे बाप-दादा को।31
31. उनकी दलील यह थी कि हमने कभी मरने के बाद किसी को दोबारा जी उठते नहीं देखा है, इसलिए हम यक़ीन रखते हैं कि मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं होगी। तुम लोग अगर दावा करते हो कि दूसरी ज़िन्दगी होगी तो हमारे बाप-दादा को क़ब्रों से उठा लाओ, ताकि हमें मरने के बाद की ज़िन्दगी का यक़ीन आ जाए। यह काम तुमने न किया तो हम समझेंगे कि तुम्हारा दावा बेबुनियाद है। यह मानो उनके नज़दीक मौत के बाद की ज़िन्दगी को रद्द करने के लिए बड़ी पक्की दलील थी। हालाँकि सरासर बेमानी थी। आख़िर उनसे यह कहा किसने था कि मरनेवाले दोबारा ज़िन्दा होकर इसी दुनिया में वापस आएँगे? और नबी (सल्ल०) या किसी मुसलमान ने यह दावा कब किया था कि हम मुर्दों को ज़िन्दा करनेवाले हैं?
أَهُمۡ خَيۡرٌ أَمۡ قَوۡمُ تُبَّعٖ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 36
(37) ये अच्छे हैं या तुब्बअ की क़ौम32 और उससे पहले के लोग? हमने उनको इसी वजह से तबाह किया कि वे मुजरिम हो गए थे।33
32. 'तुब्बअ' हिमयर नाम के क़बीले के बादशाहों का लक़ब (उपाधि) था, जैसे क़िसरा, कैसर, फ़िरऔन वग़ैरा अलक़ाब अलग-अलग देशों के बादशाहों के लिए ख़ास रहे हैं। ये लोग सबा नाम की क़ौम की एक शाखा से ताल्लुक़ रखते थे। 115 ई० पू० में इनको सबा के देश पर का ग़लबा हासिल हुआ और 300 ई० तक ये हुकूमत करते रहे। अरब में सदियों तक इनकी बड़ाई की कहानियाँ लोगों की ज़बान पर रही हैं। (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-34 सबा, हाशिया-37)
33. यह इस्लाम को न माननेवालों के एतिराज़ का पहला जवाब है। इस जवाब का ख़ुलासा (सार) यह है कि आख़िरत का इनकार वह चीज़ है जो किसी शख़्स, गरोह या क़ौम को मुजरिम बनाए बिना नहीं रहती। अख़लाक़ की ख़राबी इसका लाज़िमी नतीजा है और इनसानी तारीख़ (मानव-इतिहास) गवाह है कि ज़िन्दगी के इस नज़रिए को जिस क़ौम ने भी अपनाया है, वह आख़िरकार तबाह होकर रही है। रहा यह सवाल कि “ये बेहतर हैं या तुब्बअ की क़ौम और उससे पहले के लोग?” इसका मतलब यह है कि मक्का के ये इस्लाम-मुख़ालिफ़ तो इसकी ख़ुशहाली और शानो-शौकत और हुकूमत को पहुँच भी नहीं सके हैं जो तुब्बअ की क़ौम और उससे पहले सबा और क़ौमे-फ़िरऔन और दूसरी क़ौमों को हासिल रही है। मगर यह माद्दी (भौतिक) ख़ुशहाली और दुनियावी शानो-शौकत अख़लाक़ी गिरावट के नतीजों से उनको कब बचा सकी थी कि ये अपनी ज़रा-सी पूँजी और अपने ज़राए-वसाइल (साधनों-संसाधनों) के बल-बूते पर उनसे बच जाएँगे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-34 सबा, हाशिए—25 से 36)।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا لَٰعِبِينَ ۝ 37
(38) ये आसमान और ज़मीन और उनके बीच की चीज़ें हमने कुछ खेल के तौर पर नहीं बना दी हैं।
مَا خَلَقۡنَٰهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 38
(39) उनको हमने हक़ के साथ पैदा किया है, मगर इनमें से अकसर लोग जानते नहीं हैं।34
34. यह उनके एतिराज़ का दूसरा जवाब है। इसका मतलब यह है कि जो शख़्स भी मौत के बाद की ज़िन्दगी और आख़िरत के इनाम और सज़ा का इनकार करता है, वह अस्ल में दुनिया के इस कारख़ाने को खिलौना और उसके पैदा करनेवाले को नादान बच्चा समझता है। इसी वजह से उसने यह राय क़ायम की है कि इनसान दुनिया में हर तरह के हंगामे बरपा करके एक दिन बस यूँ ही मिट्टी में रल-मिल जाएगा और उसके किसी अच्छे या बुरे काम का कोई नतीजा न निकलेगा। हालाँकि यह कायनात किसी खिलंडरे की नहीं, बल्कि एक ऐसे पैदा करनेवाले (ख़ुदा) की बनाई हुई है जो बड़ी हिकमतवाला है और किसी हिकमतवाले (तत्त्वदर्शी) से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह कोई बेमक़सद काम करेगा। आख़िरत के इनकार के जवाब में यह दलील क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर दी गई है और हम उसको तफ़सील से बयान कर चुके हैं। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-46; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—10, 11; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—16, 17; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—101, 102; सूरा-30 रूम, हाशिए—4 से 10)
إِنَّ يَوۡمَ ٱلۡفَصۡلِ مِيقَٰتُهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 39
(40) इन सबके उठाए जाने के लिए तय हो चुका फ़ैसले का दिन35
35. यह उनकी इस माँग का जवाब है कि “उठा लाओ हमारे बाप-दादा को अगर तुम सच्चे हो।" मतलब यह है कि मरने के बाद की ज़िन्दगी कोई तमाशा तो नहीं है कि जहाँ कोई इससे इनकार करे, फ़ौरन एक मुर्दा क़ब्रिस्तान से उठाकर उसके सामने ला खड़ा किया जाए। इसके लिए तो सारे जहानों के रब ने एक वक़्त तय कर दिया है जब तमाम अगलों-पिछलों को वह दोबारा ज़िन्दा करके अपनी अदालत में इकट्ठा करेगा और उनके मुक़द्दमों का फ़ैसला करेगा। तुम मानो, चाहे न मानो, यह काम बहरहाल अपने मुक़र्रर वक़्त पर ही होगा। तुम मानोगे तो अपना ही भला करोगे, क्योंकि इस तरह वक़्त से पहले ख़बरदार होकर उस अदालत से कामयाब निकलने की तैयारी कर सकोगे। न मानोगे तो अपना ही नुक़सान करोगे, क्योंकि अपनी सारी उम्र इस ग़लतफ़हमी में खपा दोगे कि बुराई और अच्छाई जो कुछ भी है, बस इसी दुनिया की ज़िन्दगी तक है, मरने के बाद फिर कोई अदालत नहीं होनी है जिसमें हमारे अच्छे या बुरे आमाल का कोई मुस्तक़िल (स्थायी) नतीजा निकलना हो।
يَوۡمَ لَا يُغۡنِي مَوۡلًى عَن مَّوۡلٗى شَيۡـٔٗا وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 40
(41) दिन जब कोई अपना क़रीबी रिश्तेदार अपने किसी करीबी रिश्तेदार36 के कुछ भी काम न आएगा और न कहीं से उन्हें कोई मदद पहुँचेगी,
36. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मौला' इस्तेमाल किया गया है जो अरबी ज़बान में ऐसे शख़्स के लिए बोला जाता है जो किसी ताल्लुक़ की बुनियाद पर दूसरे शख़्स की हिमायत करे, चाहे वह रिश्तेदारी का ताल्लुक़ हो या दोस्ती का या किसी और तरह का।
إِلَّا مَن رَّحِمَ ٱللَّهُۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 41
(42) सिवाय इसके कि अल्लाह ही किसी पर रहम करे, वह ज़बरदस्त और रहीम है।37
37. इन जुमलों में बताया गया है कि फ़ैसले के दिन जो अदालत क़ायम होगी, उसका क्या रंग होगा। किसी की मदद या हिमायत वहाँ किसी मुजरिम को न छुड़ा सकेगी, न उसकी सज़ा कम ही करा सकेगी। पूरे अधिकार उस हक़ीक़ी बादशाह के हाथ में होंगे जिसके फ़ैसले को लागू होने से कोई ताक़त नहीं रोक सकती और जिसके फ़ैसले पर असर डालने का बल-बूता किसी में नहीं है। इसका दारोमदार भले-बुरे के पहचानने के बिलकुल उसके अपने अधिकार पर होगा कि किसी पर रहम करके उसको सज़ा न दे या कम सज़ा दे और हक़ीक़त में उसकी शान यही है कि इनसाफ़ करने में बेरहमी से नहीं, बल्कि रहम ही से काम ले। लेकिन जिसके मुक़द्दमे में जो फ़ैसला भी वह करेगा, वह बहरहाल बिना घटे-बढ़े लागू होगा। ख़ुदा की अदालत की यह कैफ़ियत बयान करने के बाद आगे के कुछ जुमलों में बताया गया है कि उस अदालत में जो लोग मुजरिम साबित होंगे, उनका अंजाम क्या होगा और जिन लोगों के बारे में यह साबित हो जाएगा कि वे दुनिया में अल्लाह से डरकर नाफ़रमानियों से परहेज़ करते रहे थे, उनको कौन-कौन-से इनाम दिए जाएँगे।
إِنَّ شَجَرَتَ ٱلزَّقُّومِ ۝ 42
(43) ज़क़्क़ूम38 (थूहड़) का पेड़ गुनहगार का खाजा (खाना) होगा
38. 'ज़क़्क़ूम' की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-34।
طَعَامُ ٱلۡأَثِيمِ ۝ 43
(44) तेल की तलछट39 जैसा,
39. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-मुहल' इस्तेमाल हुआ है जिसके कई मतलब हैं- पिघली हुई धातु, पीप, लहु, पिघला हुआ तारकोल, लावा, तेल की तलछट। ये अलग-अलग मतलब अरबी ज़बान जानेवालों और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने बयान किए हैं। लेकिन अगर जक़्क़ूम से मुराद वही चीज़ है जिसे हमारे यहाँ थूहर कहते हैं, तो इसको चबाने से जो रस निकलेगा, ज़्यादा इमकान यही है कि वह तेल की तलछट से मिलता-जुलता होगा।
كَٱلۡمُهۡلِ يَغۡلِي فِي ٱلۡبُطُونِ ۝ 44
(45) पेट में इस तरह जोश खाएगा,
كَغَلۡيِ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 45
(46) जैसे खौलता हुआ पानी जोश खाता है।
خُذُوهُ فَٱعۡتِلُوهُ إِلَىٰ سَوَآءِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 46
(47) “पकड़ो इसे और घसीटते हुए ले जाओ इसको जहन्नम के बीचों-बीच
ثُمَّ صُبُّواْ فَوۡقَ رَأۡسِهِۦ مِنۡ عَذَابِ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 47
(48) और उड़ेल दो इसके सर पर खौलते पानी का अज़ाब।
ذُقۡ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡكَرِيمُ ۝ 48
(49) चख इसका मज़ा, बड़ा ज़बरदस्त इज़्ज़तदार आदमी है तू।
إِنَّ هَٰذَا مَا كُنتُم بِهِۦ تَمۡتَرُونَ ۝ 49
(50) यह वही चीज़ है जिसके आने में तुम लोग शक रखते थे।"
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي مَقَامٍ أَمِينٖ ۝ 50
(51) ख़ुदा का डर रखनेवाले अम्न की जगह में होंगे।40
40. अम्न की जगह से मुराद ऐसी जगह है जहाँ किसी तरह का खटका न हो। कोई ग़म, कोई परेशानी, कोई ख़तरा और अन्देशा, कोई मेहनत और तकलीफ़ न हो। हदीस में आता है अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जन्नतवालों से कह दिया जाएगा कि यहाँ तुम हमेशा तन्दुरुस्त रहोगे, कभी बीमार न होगे, हमेशा ज़िन्दा रहोगे, कभी न मरोगे, हमेशा ख़ुशहाल रहोगे, कभी तंगहाल न होगे, हमेशा जवान रहोगे, कभी बूढ़े न होगे।” (हदीस : मुस्लिम)।
فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٖ ۝ 51
(52) बाग़ों और चश्मों में,
يَلۡبَسُونَ مِن سُندُسٖ وَإِسۡتَبۡرَقٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 52
(53) हरीर और दीबा41 के लिबास पहने, आमने-सामने बैठे होंगे।
41. अस्ल अरबी में 'सुन्दुस' और 'इस्तबरक़' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। 'सुन्दुस' अरबी ज़बान में बारीक रेशमी कपड़े को कहते हैं और 'इस्तबरक़' फ़ारसी के लफ़्ज़ 'स्तबर' से बना अरबी लफ़्ज़ है और यह मोटे रेशमी कपड़े के लिए इस्तेमाल होता है।
كَذَٰلِكَ وَزَوَّجۡنَٰهُم بِحُورٍ عِينٖ ۝ 53
(54) यह होगी उनकी शान और हम हिरनी जैसी आँखोंवाली गोरी-गोरी औरतें42 उनसे ब्याह देंगे।
42. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'हूरुन ईन'। 'हूर' जमा (बहुवचन) है 'हौरा' की और 'हौरा' अरबी ज़बान में गोरी औरत को कहते हैं और 'ईन' जमा (बहुवचन) है 'ऐना' की और यह लफ़्ज़ बड़ी-बड़ी आँखोंवाली औरत के लिए बोला जाता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-26 और 29)
يَدۡعُونَ فِيهَا بِكُلِّ فَٰكِهَةٍ ءَامِنِينَ ۝ 54
(55) वहाँ वे इत्मीनान से हर तरह की मज़ेदार चीज़ें तलब करेंगे।43
43. 'इत्मीनान से' तलब करने का मतलब यह है कि जो चीज़ जितनी चाहेंगे, बेफ़िक्री के साथ जन्नत के ख़ादिमों (सेवकों) को उसके लाने का हुक्म देंगे और वह हाज़िर कर दी जाएगी। दुनिया में कोई शख़्स होटल तो एक तरफ़, ख़ुद अपने घर में अपनी पसन्द की चीज़ भी इत्मीनान से तलब नहीं कर सकता, जिस तरह वह जन्नत में तलब करेगा, क्योंकि यहाँ किसी चीज़ के भी अथाह भण्डार किसी के पास नहीं होते और जो चीज़ भी आदमी इस्तेमाल करता है, उसकी क़ीमत बहरहाल उसकी अपनी जेब ही से जाती है। जन्नत में माल अल्लाह का होगा और बन्दे को उसके इस्तेमाल की खुली इजाज़त होगी। न किसी चीज़ के भण्डार ख़त्म हो जाने का ख़तरा होगा, न बाद में बिल पेश होने का कोई सवाल।
لَا يَذُوقُونَ فِيهَا ٱلۡمَوۡتَ إِلَّا ٱلۡمَوۡتَةَ ٱلۡأُولَىٰۖ وَوَقَىٰهُمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 55
(56) वहाँ मौत का मज़ा वे कभी न चखेंगे, बस दुनिया में जो मौत आ चुकी, सो आ चुकी
فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكَۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 56
(57) और अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको जहन्नम के अज़ाब से बचा देगा,44 यही बड़ी कामयाबी है।
44. इस आयत में दो बातें ध्यान देने के क़ाबिल हैं— एक यह कि जन्नत की नेमतों का ज़िक्र करने के बाद जहन्नम से बचाए जाने का ज़िक्र ख़ास तौर पर अलग से किया गया है, हालाँकि किसी आदमी के जन्नत में पहुँच जाने से आप-से-आप यह ज़रूरी हो जाता है कि वह जहन्नम में जाने से बच गया। इसकी वजह यह है कि फ़रमाँबरदारी के इनाम की क़द्र इनसान को पूरी तरह उसी वक़्त महसूस हो सकती है। जबकि उसके सामने यह बात भी हो कि नाफ़रमानी करनेवाले कहाँ पहुँचे हैं और वह किस बुरे अंजाम से बच गया है। दूसरी ध्यान देने के क़ाबिल बात यह है कि अल्लाह उन लोगों के जहन्नम से बचने और जन्नत में पहुँचने को अपनी मेहरबानी का नतीजा ठहरा रहा है। इससे इनसान को इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना मक़सद है कि यह कामयाबी किसी शख़्स को नसीब नहीं हो सकती जबतक कि अल्लाह की मेहरबानी शामिल न हो। अगरचे आदमी को इनाम उसके अपने अच्छे अमल ही पर मिलेगा, लेकिन अव्वल तो अच्छे अमल करने की ताक़त और ख़ुशक़िस्मती आदमी को अल्लाह की मेहरबानी के बिना कैसे मिल सकती है। फिर जो बेहतर-से-बेहतर अमल भी आदमी से बन आ सकता है, वह कभी पूरा नहीं हो सकता, जिसके बारे में दावे से यह कहा जा सके कि उसमें कमी का कोई पहलू नहीं है। यह अल्लाह ही की मेहरबानी है कि वह बन्दे की कमज़ोरियों और उसके अमल की कमियों को नज़र-अन्दाज़ करके उसकी ख़िदमतों को क़ुबूल कर ले और उसे इनाम दे दे। वरना बारीकी के साथ हिसाब करने पर वह उत्तर आए तो किसकी यह हिम्मत है कि अपने बाज़ुओं की ताक़त से जन्नत जीत लेने का दावा कर सके। यही बात है जो हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से बयान हुई है। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अमल करो और अपनी ताक़त-भर ज़्यादा-से-ज़्यादा ठीक काम करने की कोशिश करो, मगर यह जान लो कि किसी शख़्स को सिर्फ़ उसका अमल ही जन्नत में न दाख़िल कर देगा।” लोगों ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या आपका अमल भी?” फ़रमाया, “हाँ, मैं भी सिर्फ़ अपने अमल के ज़ोर से जन्नत में न पहुँच जाऊँगा, सिवाय यह कि मुझे मेरा रब अपनी रहमत से ढाँक ले।"
فَإِنَّمَا يَسَّرۡنَٰهُ بِلِسَانِكَ لَعَلَّهُمۡ يَتَذَكَّرُونَ ۝ 57
(58) ऐ नबी, हमने इस किताब को तुम्हारी ज़बान में आसान बना दिया है, ताकि ये लोग नसीहत हासिल करें।
فَٱرۡتَقِبۡ إِنَّهُم مُّرۡتَقِبُونَ ۝ 58
(59) अब तुम भी इन्तिज़ार करो, ये भी इन्तिज़ार कर रहे हैं।45
45. यानी अब अगर ये लोग नसीहत क़ुबूल नहीं करते तो देखते रहो कि इनकी किस तरह शामत आती है और यह भी इन्तिज़ार कर रहे हैं कि देखें तुम्हारी इस दावत का क्या अंजाम होता है।