(4) तो जब इन कुफ़्र करनेवालों (दुश्मनों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो, उसके बाद (तुम्हें अधिकार है) एहसान करो या फ़िदये का मामला कर लो, यहाँ तक कि लड़ाई अपने हथियार डाल दे।8 यह है तुम्हारे करने का काम। अल्लाह चाहता तो ख़ुद ही उनसे निमट लेता, मगर (यह तरीक़ा उसने इसलिए अपनाया है, ताकि तुम लोगों को एक-दूसरे के ज़रिए से आज़माए।9 और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँगे, अल्लाह उनके आमाल को हरगिज़ अकारथ न करेगा।10
8. इस आयत के अलफ़ाज़ से भी, और जिस मौक़े में यह आई है उससे भी यह बात साफ़ मालूम होती है कि यह लड़ाई का हुक्म आ जाने के बाद और लड़ाई शुरू होने से पहले उतरी है। 'जब कुफ़्र करनेवालों (दुश्मनों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो' के अलफ़ाज़ इसकी दलील हैं कि अभी मुठभेड़ हुई नहीं है और उसके होने से पहले यह हिदायत दी जा रही है कि जब वह हो तो क्या करना चाहिए।
आगे आयत-20 के अलफ़ाज़ इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह सूरा उस ज़माने में उतरी थी जब सूरा-22 हज की आयत-39, और सूरा-2 बक़रा की आयत-190 में लड़ाई का हुक्म आ चुका था और इसपर डर के मारे मदीना के मुनाफ़िक़ और कमज़ोर ईमानवाले लोगों का हाल यह हो रहा था कि जैसे उनपर मौत छा गई हो।
इसके अलावा सूरा-8 अनफ़ाल की आयतें—67 से 69 भी इस बात पर गवाह हैं कि यह आयत बद्र की जंग से पहले उतर चुकी थी। वहाँ कहा गया है—
"किसी नबी के लिए यह सही नहीं है कि उसके पास क़ैदी हों जबतक कि वह ज़मीन में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल न दे। तुम लोग दुनिया के फ़ायदे चाहते हो, हालाँकि अल्लाह के सामने आख़िरत है और अल्लाह ग़ालिब और हिकमतवाला है। अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता तो जो कुछ तुम लोगों ने लिया है उसके बदले में तुमको बड़ी सज़ा दी जाती। तो जो कुछ तुमने माल हासिल किया है उसे खाओ कि वह हलाल (वैध) और पाक है।
इस इबारत और ख़ास तौर से इसके Underline किए हुए जुमलों पर ग़ौर करने से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इस मौक़े पर सज़ा जिस बात पर दी जा रही थी वह यह थी कि बद्र की जंग में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल देने से पहले मुसलमान दुश्मन के आदमियों को क़ैद करने में लग गए थे, हालाँकि जंग से पहले जो हिदायत सूरा-47 मुहम्मद, आयत-4 में उनको दी गई थी वह यह थी कि “जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो।” मगर चूँकि सूरा-47 मुहम्मद में मुसलमानों को क़ैदियों से फ़िदया लेने की इजाज़त पूरी तरह दी जा चुकी थी इसलिए बद्र की जंग के क़ैदियों से जो माल लिया गया उसे अल्लाह ने हलाल ठहराया और मुसलमानों को उसके लेने पर सज़ा न दी। 'अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता' के अलफ़ाज़ इस बात की तरफ़ साफ़ इशारा कर रहे हैं कि इस घटना से पहले फ़िदया लेने की इजाज़त का हुक्म क़ुरआन में आ चुका था, और ज़ाहिर है कि क़ुरआन के अन्दर सूरा-47 मुहम्मद की इस आयत के सिवा कोई दूसरी आयत ऐसी नहीं है जिसमें यह हुक्म पाया जाता हो। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि यह आयत सूरा-8 अनफ़ाल की ऊपर बयान की गई आयत से पहले उतर चुकी थी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिया-49)
यह क़ुरआन मजीद की पहली आयत है जिसमें जंग के क़ानून के बारे में शुरुआती हिदायतें दी गई हैं। इससे जो हुक्म निकलते हैं, और इसके मुताबिक़ नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) ने जिस तरह अमल किया है, और फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) ने इस आयत और नबी (सल्ल०) की सुन्नत से जो हुक्म निकाले हैं उनका ख़ुलासा यह है—
(i) जंग में मुसलमानों की फ़ौज का अस्ल निशाना दुश्मन की जंगी ताक़त को तोड़ देना है, यहाँ तक कि उसमें लड़ने की ताक़त न रहे और जंग ख़त्म हो जाए। इस मक़सद से ध्यान हटाकर दुश्मन के आदमियों को गिरफ़्तार करने में न लग जाना चाहिए। क़ैदी पकड़ने की तरफ़ ध्यान उस वक़्त देना चाहिए जब दुश्मन को अच्छी तरह उखाड़ फेंका जाए और जंग के मैदान में उसके कुछ आदमी बाक़ी रह जाएँ। अरबवालों को यह हिदायत शुरू ही में इसलिए दे दी गई को कि वे कहीं फ़िदया हासिल करने, या ग़ुलाम जुटाने के लालच में पड़कर जंग के अस्ल मक़सद को भुला न बैठें।
(ii) जंग में जो लोग गिरफ़्तार हों उनके बारे में कहा गया कि तुम्हें इख़्तियार है, चाहे उनपर एहसान करो, या उनसे फ़िदये का मामला कर लो। इससे आम क़ानून यह निकलता है कि जंगी क़ैदियों को क़त्ल न किया जाए। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हसन बसरी, अता और हम्माद-बिन-अबी-सुलैमान (रह०) क़ानून के इसी आम होने की बात को लेते हैं, और यह अपनी जगह बिलकुल दुरुस्त है। वे कहते हैं कि आदमी को क़त्ल लड़ाई की हालत में किया जा सकता है। जब लड़ाई ख़त्म हो गई और क़ैदी हमारे क़ब्ज़े में आ गया तो उसे क़त्ल करना दुरुस्त नहीं है। इब्ने-जरीर और अबू-बक्र जस्सास (रह०) की रिवायत है कि हज्जाज-बिन-यूसुफ़ का ने जंगी क़ैदियों में से एक क़ैदी को हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के हवाले किया और हुक्म दिया कि उसे क़त्ल कर दें। उन्होंने इनकार कर दिया और यह आयत पढ़कर कहा कि हमें क़ैद की हालत में किसी को क़त्ल करने का हुक्म नहीं दिया गया है। इमाम मुहम्मद (रह०) ने 'अस्सियरुल-कबीर' में भी एक वाक़िआ लिखा है कि अब्दुल्लाह-बिन-आमिर (रज़ि०) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) को एक जंगी क़ैदी के क़त्ल का हुक्म दिया था और कि उन्होंने इसी वजह से उस हुक्म पर अमल करने से इनकार कर दिया था।
(iii) मगर चूँकि इस आयत में क़त्ल की साफ़ मनाही भी नहीं की गई है, इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह तआला के हुक्म का मंशा यह समझा और उसी पर अमल भी किया कि अगर कोई ख़ास वजह ऐसी हो जिसकी बुनियाद पर इस्लामी हुकूमत का हुक्मराँ किसी क़ैदी या कुछ क़ैदियों को क़त्ल की सज़ा देना ज़रूरी समझे तो वह ऐसा कर सकता है। यह आम क़ायदा नहीं है, बल्कि आम क़ायदे में एक अलग गुंजाइश है, जिसे ज़रूरत के मुताबिक़ ही इस्तेमाल किया जाएगा। चुनाँचे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बद्र की जंग के 70 क़ैदियों में से सिर्फ़ उक़बा-बिन-अबी-मुऐत और नज़्र-बिन-हारिस को क़त्ल की सज़ा दी। उहुद की जंग के क़ैदियों में से सिर्फ़ अबू-अज़्ज़ा शाइर को क़त्ल की सज़ा दी। बनी-क़ुरैज़ा ने चूँकि अपने-आपको हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) के फ़ैसले पर हवाले किया था, और उनके अपने माने हुए हकम (पंच) का फ़ैसला यह था कि उनके मर्दों को क़त्ल कर दिया जाए, इसलिए नबी (सल्ल०) ने उनको क़त्ल करा दिया। ख़ैबर की जंग में जो लोग गिरफ़्तार हुए उनमें से सिर्फ़ किनाना-बिन-अबी-हुक़ैक़ को क़त्ल की सज़ा दी गई, क्योंकि उसने अह्द (समझौते) को तोड़ा था। मक्का की फ़तह के बाद नबी (सल्ल०) ने तमाम मक्कावालों में से सिर्फ़ कुछ ख़ास लोगों के बारे में हुक्म दिया कि उनमें से जो भी पकड़ा जाए, उसे क़त्ल की सज़ा दी जाए। इन कुछ वाक़िआत के सिवा नबी (सल्ल०) का आम तरीक़ा जंगी क़ैदियों को क़त्ल करने का कभी नहीं रहा। और यही अमल ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का भी था। उनके ज़माने में भी जंगी क़ैदियों के क़त्ल की मिसालें कभी-कभार ही मिलती हैं और हर मिसाल में क़त्ल किसी ख़ास वजह से किया गया है। हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) ने भी ख़िलाफ़त (हुकूमत) के अपने पूरे दौर में सिर्फ़ एक जंगी क़ैदी को क़त्ल किया, और उसकी वजह यह थी कि उसने मुसलमानों को बहुत तक़लीफ़ें पहुँचाई थीं। इसी वजह से फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) में से ज़्यादातर इस बात को मानते हैं कि इस्लामी हुकूमत अगर ज़रूरत समझे तो क़ैदी को क़त्ल की सज़ा दे सकती है। लेकिन यह फ़ैसला करना हुकूमत का काम है। हर फ़ौजी इसका इख़्तियार नहीं रखता कि जिस क़ैदी को चाहे क़त्ल कर दे।
अलबत्ता अगर क़ैदी के भाग जाने का या उससे किसी ख़तरनाक शरारत का अन्देशा हो जाए तो जिस आदमी को भी इस सूरते-हाल का सामना हो वह उसे क़त्ल कर सकता है। इस सिलसिले में इस्लामी फ़क़ीहों ने तीन बातों को और भी साफ़ कर दिया है। एक यह कि अगर क़ैदी इस्लाम क़ुबूल कर ले तो उसे क़त्ल नहीं किया जाएगा। दूसरी यह कि क़ैदी सिर्फ़ उसी वक़्त तक कत्ल किया जा सकता है जब तक वह हुकूमत के क़ब्ज़े में हो। बाँटे जाने या बेच दिए जाने की वजह से अगर वह किसी शख़्स की मिलकियत में जा चुका हो तो फिर उसे क़त्ल नहीं किया जा सकता। तीसरी यह कि क़ैदी को क़त्ल करना हो तो बस सीधी तरह कत्ल कर दिया जाए, अज़ाब देकर न मारा जाए।
(iv) जंगी क़ैदियों के बारे में आम हुक्म जो दिया गया है वह यह है कि या उनपर एहसान करो, या फ़िदये (लेन-देन) का मामला कर लो।
एहसान में चार चीज़े शामिल हैं : एक यह कि क़ैद की हालत में उनसे अच्छा बरताव किया जाए। दूसरी यह कि क़त्ल की सज़ा देने या उम्र-भर के लिए क़ैद करने के बजाय उनको ग़ुलाम बनाकर मुसलमानों के हवाले कर दिया जाए। तीसरी यह कि जिज़्या (टैक्स) लगाकर उनको ज़िम्मी बना लिया जाए। चौथी यह कि उनको बिना कुछ लिए रिहा कर दिया जाए।
फ़िदये का मामला करने की तीन शक्लें हैं : एक यह कि पैसा लेकर उन्हें छोड़ा जाए। दूसरी यह कि रिहाई की शर्त के तौर पर उनसे कोई ख़ास काम लेने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाए। जो दुश्मन के क़ब्ज़े में हों, उनका तबादला कर लिया जाए। इन सब अलग-अलग सूरतों पर नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) ने अलग-अलग वक़्तों में मौक़े के मुताबिक़ अमल किया है। ख़ुदा की शरीअत ने इस्लामी हुकूमत को किसी एक ही शक्ल का पाबन्द नहीं कर दिया है। हुकूमत जिस वक़्त जिस तरीक़े को सबसे ज़्यादा मुनासिब पाए उसपर अमल कर सकती है।
(v) नबी (सल्ल०) और सहाबा (रज़ि०) के अमल से यह साबित है कि एक जंगी क़ैदी जब तक हुकूमत की क़ैद में रहे, उसका खाना-कपड़ा, और अगर वह बीमार या ज़ख़्मी हो तो उसका इलाज, हुकूमत के ज़िम्मे है। क़ैदियों को भूखा-नंगा रखना या उनको तकलीफ़ देना इस्लामी शरीअत में किसी तरह जाइज़ नहीं है। बल्कि इसके बरख़िलाफ़ अच्छा सुलूक और मेहरबानी व कुशादादिली के रवैये की हिदायत भी की गई है और अमली तौर पर भी इसकी मिसालें नबी (सल्ल०) की सुन्नत (फ़रमान और अमल) में मिलती हैं। बद्र की जंग के क़ैदियों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अलग-अलग सहाबा (रज़ि०) के घरों में बाँट दिया और हिदायत की कि “इन क़ैदियों के साथ अच्छा सुलूक करना।” उनमें से एक क़ैदी अबू-अज़ीज़ का बयान है कि मुझे जिन अनसारियों के घर में रखा गया था वे सुबह-शाम मुझको रोटी खिलाते थे और ख़ुद सिर्फ़ खजूर खाकर रह जाते थे। एक और क़ैदी सुहैल-बिन-अम्र के बारे में नबी (सल्ल०) से कहा गया कि यह बड़ी भड़काऊ बातें करनेवाला है, आपके ख़िलाफ़ तक़रीरें करता रहा है, इसके दाँत तुड़वा दीजिए। नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “अगर मैं इसके दाँत तुड़वाऊँ तो अल्लाह मेरे दाँत तोड़ देगा, अगरचे मैं नबी हूँ,” (सीरत इब्ने-हिशाम)। यमामा के सरदार सुमामा-बिन-उसाल जब गिरफ़्तार होकर आए तो जब तक वे क़ैद में रहे, नबी (सल्ल०) के हुक्म से उनके लिए अच्छे खाने और दूध का इन्तिज़ाम किया जाता रहा, (इब्ने-हिशाम)। यही रवैया सहाबा किराम (रज़ि०) के दौर में भी रहा। जंगी क़ैदियों से बुरे सुलूक की कोई मिसाल उस दौर में नहीं मिलती।
(vi) क़ैदियों के मामले यह शक्ल इस्लाम ने सिरे से अपने यहाँ रखी ही नहीं है कि उनको हमेशा क़ैद रखा जाए और हुकूमत उनसे जबरदस्ती काम लेती रहे। अगर उनके साथ या उनकी क़ौम के साथ जंगी क़ैदियों के तबादले या फ़िदये का कोई मामला तय न हो सके तो उनके मामले में एहसान का तरीक़ा यह रखा गया है कि उन्हें ग़ुलाम बनाकर लोगों की मिलकियत में दे दिया जाए और उनके मालिकों को हिदायत की जाए कि वे उनके साथ अच्छा सुलूक करें। नबी (सल्ल०) के दौर में भी इस तरीक़े पर अमल किया गया है, सहाबा किराम के दौर में भी यह जारी रहा है और इस्लामी क़ानून के सभी आलिम (फ़क़ीह) इसको जाइज़ कहते हैं। इस सिलसिले में यह बात जान लेनी चाहिए कि जो शख़्स क़ैद में आने से पहले इस्लाम क़ुबूल कर चुका हो और फिर किसी तरह गिरफ़्तार हो जाए वह तो आज़ाद कर दिया जाएगा, मगर जो शख़्स क़ैद होने के बाद इस्लाम क़ुबूल करे, या किसी शख़्स की मिलकियत में दे दिए जाने के बाद मुसलमान हो तो यह इस्लाम उसके लिए आज़ादी का सबब नहीं बन सकता। मुसनद अहमद, मुस्लिम और तिरमिज़ी में हज़रत इमरान-बिन-हुसैन की रिवायत है कि बनी-उक़ैल का एक आदमी गिरफ़्तार होकर आया और उसने कहा कि मैंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर यह बात तूने उस वक़्त कही होती जब तू आज़ाद था तो यक़ीनन आज़ादी पा जाता।” यही बात हज़रत उमर (रज़ि०) ने कही है कि “जब क़ैदी मुसलमानों के क़ब्ज़े में आने के बाद मुसलमान हो तो वह क़त्ल होने से तो बच जाएगा, मगर ग़ुलाम रहेगा।” इसी बुनियाद पर इस्लाम के सभी फ़क़ीह (क़ानून के माहिर आलिम) इस बात पर एक राय हैं कि क़ैद होने के बाद मुसलमान होनेवाला ग़ुलामी से नहीं बच सकता, (अस्सियरुल-कबीर, इमाम मुहम्मद)। और यह बात सरासर मुनासिब भी है। अगर हमारा क़ानून यह होता कि जो शख़्स भी गिरफ़्तार होने के बाद इस्लाम क़ुबूल कर लेगा, वह आज़ाद कर दिया जाएगा, तो आख़िर वह कौन-सा नादान क़ैदी होता जो मुसलमान बनकर रिहाई न हासिल कर लेता।
(vii) क़ैदियों के साथ एहसान की तीसरी सूरत इस्लाम यह रखी गई है कि जिज़्या (माली टैक्स) लगाकर उनको 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी हुकूमत) का ज़िम्मी शहरी बना लिया जाए और वे इस्लामी हुकूमत में उसी तरह आज़ाद होकर रहें जिस तरह मुसलमान रहते हैं। इमाम मुहम्मद अस्सियरुल-कबीर में लिखते हैं कि “हर वह शख़्स जिसको ग़ुलाम बनाना जाइज़ है उसपर जिज़्या लगाकर उसे ज़िम्मी बना लेना भी जाइज़ है।” और एक दूसरी जगह फ़रमाते हैं, “मुसलमानों के हुक्मराँ को यह हक़ है कि उनपर जिज़्या और उनकी ज़मीनों पर ख़िराज (टैक्स) लगाकर उन्हें अस्ल में आज़ाद ठहरा दे।” इस तरीक़े पर आम तौर से उन हालात में अमल किया गया है जबकि क़ैद होनेवाले लोग जिस इलाक़े के रहनेवाले हों वह हारकर इस्लामी हुकूमत में शामिल हो चुका हो। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) ने ख़ैबरवालों के मामले में यह तरीक़ा अपनाया था, और फिर हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़ के एक बड़े हिस्से और दूसरे इलाक़ों पर जीत हासिल करने के बाद बड़े पैमाने पर उसकी पैरवी की। अबू-उबैद ने किताबुल-अमवाल में लिखा है कि इराक़ की फ़तह के बाद उस इलाक़े के नुमायाँ लोगों का एक नुमाइन्दा वफ़्द (गरोह) हज़रत उमर (रज़ि०) के पास हाज़िर हुआ और उसने कहा कि “ऐ मुसलमानों के ख़लीफ़ा! पहले ईरानवाले हमपर सवार थे। उन्होंने हमको बहुत सताया, बड़ा बुरा बरताव हमारे साथ किया और तरह-तरह की ज़्यादतियाँ हमपर करते रहे। फिर जब ख़ुदा ने आप लोगों को भेजा तो हम आपके आने से बड़े ख़ुश हुए और आपके मुक़ाबले में न कोई बचाव हमने किया न जंग में कोई हिस्सा लिया। अब हमने सुना है कि आप हमें ग़ुलाम बना लेना चाहते हैं।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने जवाब दिया, “तुमको इख़्तियार है कि मुसलमान हो जाओ, या जिज़्या क़ुबूल करके आज़ाद रहो।” उन लोगों ने जिज़्या क़ुबूल कर लिया और वे आज़ाद छोड़ दिए गए। एक और जगह इसी किताब में अबू-उबैद बयान करते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने हज़रत अबू-मूसा अश्अरी (रज़ि०) को लिखा कि “जंग में जो लोग पकड़े गए हैं उनमें से हर खेती करनेवाले और किसान को छोड़ दो।”
(viii) एहसान की चौथी सूरत यह है कि क़ैदी को बिना किसी फ़िदये और बिना कुछ लिए यूँ ही रिहा कर दिया जाए। यह एक ख़ास छूट है जो इस्लामी हुकूमत सिर्फ़ उसी हालत में कर सकती है जबकि किसी ख़ास क़ैदी के हालात इसका तक़ाज़ा करते हों, या उम्मीद हो कि यह छूट उस क़ैदी को हमेशा के लिए एहसानमन्द कर देगी और वह दुश्मन से दोस्त या ग़ैर-मुस्लिम से मोमिन (ईमानवाला) हो जाएगा। वरना ज़ाहिर है कि दुश्मन-क़ौम के किसी आदमी को इसलिए छोड़ देना कि वह फिर हमसे लड़ने आ जाए किसी तरह भी मस्लहत का तक़ाज़ा नहीं हो सकता। इसी लिए इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) ने आम तौर से इसकी मुख़ालफ़त की है, और इसके जाइज़ होने के लिए यह शर्त लगाई है कि “अगर मुसलमानों का ज़िम्मेदार क़ैदियों को, या उनमें से कुछ को एहसान के तौर पर छोड़ देने में मस्लहत पाए तो ऐसा करने में हरज नहीं है,” (अस्सियरुल-कबीर)। नबी (सल्ल०) के दौर में इसकी बहुत-सी मिसालें मिलती हैं और क़रीब-क़रीब सबमें मस्लहत का पहलू नुमायाँ है। बद्र की जंग के क़ैदियों के बारे में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर मुतइम-बिन-अदी ज़िन्दा होता और वह मुझसे इन घिनौने लोगों के बारे में बात करता, तो मैं उसकी ख़ातिर इन्हें यूँ ही छोड़ देता,” (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, मुसनद अहमद)। यह बात नबी (सल्ल०) ने इसलिए फ़रमाई थी कि आप (सल्ल०) जब ताइफ़ से मक्का वापस हुए थे उस वक़्त मुतइम ही ने आप (सल्ल०) को अपनी पनाह में लिया था और उसके लड़के हथियार बाँधकर अपनी हिफ़ाज़त में आप (सल्ल०) को हरम में ले गए थे। इसलिए आप (सल्ल०) उसके एहसान का बदला इस तरह उतारना चाहते थे। बुख़ारी, मुस्लिम और मुसनद अहमद की रिवायत है कि यमामा के सरदार सुमामा-बिन-उसाल जब गिरफ़्तार होकर आए तो नबी (सल्ल०) ने उनसे पूछा, “सुमामा! तुम्हारा क्या ख़याल है?” उन्होंने कहा, “अगर आप मुझे क़त्ल करेंगे तो ऐसे आदमी को क़त्ल करेंगे जिसका ख़ून कुछ क़ीमत रखता है, अगर मुझपर एहसान करेंगे तो ऐसे आदमी पर एहसान करेंगे जो एहसान माननेवाला है, और अगर आप माल लेना चाहते हैं तो माँगिए, आपको दिया जाएगा।” तीन दिन तक आप (सल्ल०) उनसे यही बात पूछते रहे और वे यही जवाब देते रहे। आख़िर आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि सुमामा को छोड़ दो। रिहाई पाते ही वे क़रीब के एक नख़लिस्तान (रेगिस्तान का वह हिस्सा जहाँ कुछ पानी और हरियाली हो) गए, नहा-धोकर वापस आए, कलिमा पढ़कर मुसलमान हुए और कहा कि “आज से पहले कोई आदमी मेरे लिए आपसे और कोई दीन आपके दीन से बढ़कर नापसन्द न था, मगर अब कोई आदमी और कोई दीन मुझे आपसे और आपके दीन से बढ़कर प्यारा नहीं है।” फिर वे उमरा के लिए मक्का गए और वहाँ क़ुरैश के लोगों को नोटिस दे दिया कि आज के बाद कोई अनाज तुम्हें यमामा से न पहुँचेगा जब तक मुहम्मद (सल्ल०) इजाज़त न दें। चुनाँचे उन्होंने ऐसा ही किया और मक्कावालों को नबी (सल्ल०) से दरख़ास्त करनी पड़ी कि यमामा से हमारे अनाज की रसद बन्द न कराएँ।
बनी-कुरैज़ा के क़ैदियों में से नबी (सल्ल०) ने ज़ुबैर-बिन-बाता और अम्र-बिन-साद (या इब्ने-सुअदा) की जान बख़्श दी। ज़ुबैर को इसलिए छोड़ा कि उसने जाहिलियत के ज़माने में बुआस की जंग के मौक़े पर हज़रत साबित-बिन-क़ैस अनसारी (रज़ि०) को पनाह दी थी, इसलिए आप (सल्ल०) ने उसको हज़रत साबित (रज़ि०) के हवाले कर दिया, ताकि उसके एहसान का बदला अदा कर दें। और अम्र-बिन-साद को इसलिए छोड़ा कि जब बनी-क़ुरैज़ा नबी (सल्ल०) के साथ समझौते की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे थे उस वक़्त यही आदमी अपने क़बीले को ग़द्दारी से मना कर रहा था। (किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)
बनी-मुस्तलिक़ की जंग बाद जब उस क़बीले के क़ैदी लाए गए और लोगों में बाँट दिए गए, उस वक़्त हज़रत जुवैरिया (रज़ि०) जिस आदमी के हिस्से में आई थीं उसको उनका बदला अदा करके आप (सल्ल०) ने उन्हें रिहा कराया और फिर उनसे ख़ुद निकाह कर लिया। इसपर तमाम मुसलमानों ने यह कहकर अपने-अपने हिस्से के क़ैदियों को आज़ाद कर दिया कि “ये अब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रिश्तेदार हो चुके हैं।” इस तरह सौ ख़ानदानों के आदमी रिहा हो गए। (हदीस : मुसनद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-साद, सीरत इब्जे-हिशाम)
सुलह-हुदैबिया (हुदैबिया की सन्धि) के मौक़े पर मक्का के 80 आदमी तनईम की तरफ़ से आए और फ़ज्र की नमाज़ के क़रीब उन्होंने नबी (सल्ल०) के कैम्प पर अचानक हमला करने का इरादा किया। मगर वे सब-के-सब पकड़ लिए गए और नबी (सल्ल०) ने सबको छोड़ दिया, ताकि इस नाज़ुक मौक़े पर यह मामला लड़ाई का सबब न बन जाए। (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी, मुसनद अहमद)
मक्का की फ़तह के मौक़े पर आप (सल्ल०) ने कुछ आदमियों को अलग करके तमाम मक्कावालों को उनपर एहसान करते हुए माफ़ कर दिया, और जिन्हें अलग किया गया था उनमें से भी तीन-चार के सिवा कोई क़त्ल न किया गया। सारा अरब इस बात को जानता था कि मक्कावालों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों पर कैसे-कैसे जु़ल्म किए थे। इसके मुक़ाबले में जीत पाकर जिस ज़बरदस्त हौसले के साथ नबी (सल्ल०) ने उन लोगों को माफ़ किया उससे अरबवालों को यह इत्मीनान हासिल हो गया कि उनका वास्ता किसी ज़ालिम से नहीं, बल्कि एक बहुत ही रहमदिल, मेहरबान और कुशादादिल रहनुमा से है। इसी वजह से मक्का की फ़तह के बाद पूरे अरब के इलाक़ों को मातहत होने में दो साल से ज़्यादा देर न लगी। हुनैन की जंग के बाद जब हवाज़िन क़बीले का नुमाइन्दा गरोह अपने क़ैदियों की रिहाई के लिए हाज़िर हुआ तो सारे क़ैदी बाँटे जा चुके थे। नबी (सल्ल०) ने सब मुसलमानों को इकट्ठा किया और फ़रमाया कि ये लोग तौबा करके आए हैं और मेरी राय यह है कि इनके क़ैदी इनको वापस दे दिए जाएँ। तुममें से जो कोई अपनी ख़ुशी से अपने हिस्से में आए हुए क़ैदी को बदले में बिना कुछ लिए हुए छोड़ना चाहे वह इस तरह छोड़ दे, और जो मुआवज़ा लेना चाहे उसको हम बैतुल-माल में आनेवाली पहली आमदनी से मुआवज़ा दे देंगे। चुनाँचे छह हज़ार क़ैदी रिहा कर दिए गए और जिन लोगों ने मुआवज़ा लेना चाहा उन्हें हुकूमत की तरफ़ से मुआवज़ा दे दिया गया। (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, मुसनद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-साद) इससे यह भी मालूम हुआ कि बाँटे जा चुकने के बाद हुकूमत क़ैदियों को ख़ुद रिहा कर देने की हक़दार नहीं रहती, बल्कि यह काम उन लोगों की रज़ामन्दी से, या उनको मुआवज़ा देकर किया जा सकता है जिनकी मिलकियत में क़ैदी दिए जा चुके हों। नबी (सल्ल०) के बाद सहाबा किराम (रज़ि०) के दौर में भी एहसान के तौर पर क़ैदियों को रिहा करने की मिसालें बराबर मिलती हैं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने अशअस-बिन-फ़ैस किन्दी को रिहा किया, और हज़रत उमर (रज़ि०) ने हुरमुज़ान को और मनाज़िर और मैसान के क़ैदियों को आज़ादी दी। (किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)
(ix) बदले में रकम लेकर क़ैदियों को छोड़ने की मिसाल नबी (सल्ल०) के दौर में सिर्फ़ बद्र की जंग के मौक़े पर मिलती है, जबकि एक क़ैदी से एक हज़ार से चार हज़ार तक की रक़में लेकर उनको रिहा किया गया, (तबक़ाते-इब्ने-साद, किताबुल-अमवाल) सहाबा किराब (रज़ि०) के दौर में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। और इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) ने आम तौर पर इसको नापसन्द किया है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि हम रुपए लेकर दुश्मन के एक आदमी को छोड़ दें, ताकि वह फिर हमारे ख़िलाफ़ तलवार उठाए। लेकिन चूँकि क़ुरआन में फ़िदया लेने की इजाज़त दी गई है, और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने एक बार इसपर अमल भी किया है, इसलिए ऐसा करना पूरी तरह मना नहीं है। इमाम मुहम्मद (रह०) अस्सियरुल-कबीर में कहते हैं कि अगर मुसलमानों को इसकी ज़रूरत पड़े तो वे बदले में पैसे लेकर क़ैदियों को छोड़ सकते हैं।
(x) कोई ख़िदमत लेकर छोड़ने की मिसाल भी बद्र की जंग के मौक़े पर मिलती है। क़ुरैश के क़ैदियों में से जो लोग माल की शक्ल में फ़िदया देने के क़ाबिल न थे, उनकी रिहाई के लिए नबी (सल्ल०) ने यह शर्त रख दी कि वे अनसार के दस-दस बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखा दें। (हदीस : मुसनद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-साद, किताबुल-अमवाल)
(xi) क़ैदियों के तबादले (अदला-बदली) की कई मिसालें हमको नबी (सल्ल०) के दौर में मिलती हैं। एक बार नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को एक मुहिम पर भेजा और उसमें कुछ क़ैदी गिरफ़्तार हुए। उनमें एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत भी थी जो हज़रत सलमा-बिन-अकवा के हिस्से में आई। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ज़ोर देकर उसको हज़रत सलमा से माँग लिया और फिर उसे मक्का भेजकर उसके बदले कई मुसलमान क़ैदियों को रिहा कराया, (हदीस मुस्लिम, अबू-दाऊद, तहावी, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद, तबक़ाते-इब्ने-साद)। हज़रत इमरान-बिन-हुसैन की रिवायत है कि एक बार क़बीला सक़ीफ़ ने मुसलमानों के दो आदमियों को क़ैद कर लिया। उसके कुछ मुद्दत बाद सक़ीफ़ के हलीफ़ (साथ देने की क़सम खानेवाले) क़बीले, बनी-उक़ैल का एक आदमी मुसलमानों के पास गिरफ़्तार हो गया। नबी (सल्ल०) ने उसको ताइफ़ भेजकर उसके बदले उन दोनों मुसलमानों को रिहा करा लिया, (हदीस : मुस्लिम, तिरमिज़ी, मुसनद अहमद)। इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) में से इमाम अबू-यूसुफ़, इमाम मुहम्मद, इमाम शाफ़िई, इमाम मालिक और इमाम अहमद (रह०) क़ैदियों की अदला-बदली को जाइज़ समझते हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) की एक राय यह है कि अदला-बदली नहीं करनी चाहिए, मगर दूसरी राय उनकी भी यही है कि अदला-बदली की जा सकती है। अलबत्ता इस बात पर सब एक राय हैं कि जो क़ैदी मुसलमान हो जाए उसे बदले में ग़ैर-मुस्लिमों के हवाले न किया जाए।
इस तशरीह से यह बात साफ़ हो जाती है कि इस्लाम ने जंगी क़ैदियों के मामले में एक ऐसा कुशादा क़ानून बनाया है जिसके अन्दर हर ज़माने और हर तरह के हालात में इस मसले से निबटने की गुंजाइश है। जो लोग क़ुरआन मजीद की इस आयत का बस यह ज़रा-सा मतलब ले लेते हैं कि जंग में क़ैद होनेवालों को “या तो एहसान के तौर पर छोड़ दिया जाए या फ़िदया लेकर रिहा कर दिया जाए,” वे इस बात को नहीं जानते कि जंगी क़ैदियों का मामला कितने अलग-अलग पहलू रखता है, और अलग-अलग ज़मानों में वह कितने मसले पैदा करता रहा है और आगे भी कर सकता है।
9. यानी अल्लाह तआला को अगर सिर्फ़ बातिल-परस्तों (असत्यवादियों) का सर कुचलना ही होता तो वह इस काम के लिए तुम्हारा मुहताज न था। यह काम तो उसका एक ज़लज़ला या एक तूफ़ान पलक झपकते में कर सकता था। मगर उसके सामने तो यह है कि इनसानों में से जो हक़-परस्त हों वे बातिल-परस्तों से कश्मकश करें और उनके मुक़ाबले में जिद्दो-जुह्द करें, ताकि जिसके अन्दर जो कुछ खूबियाँ हैं वे इस इम्तिहान से निखरकर पूरी तरह नुमायाँ हो जाएँ और हर एक अपने किरदार के लिहाज़ से जिस मक़ाम और मर्तबे का हक़दार हो वह दिया जाए।
10. मतलब यह है कि अल्लाह की राह में किसी के मारे जाने का मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि आदमी अपनी जान से गया और उसकी ज़ात की हद तक उसका किया-कराया सब मिट्टी में मिल गया। अगर कोई शख़्स यह समझता है कि शहीदों की क़ुरबानियाँ ख़ुद उनके लिए नहीं बल्कि सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिए फ़ायदेमन्द हैं जो उनके बाद इस दुनिया में ज़िन्दा रहें और उनकी क़ुर्बानियों से यहाँ फ़ायदा उठाएँ, तो वह ग़लत समझता है। अस्ल हक़ीक़त यह है कि ख़ुद शहीद होनेवालों के लिए भी यह नुक़सान का नहीं, बल्कि फ़ायदे का सौदा है।