48. अल-फ़त्ह
(मदीना में उतरी, आयतें 29)
परिचय
नाम
पहली ही आयत के वाक्यांश ‘इन्ना फ़तह्ना ल-क फ़तहम-मुबीना' (हमने तुमको स्पष्ट विजय प्रदान कर दी) से लिया गया है। यह केवल इस सूरा का नाम ही नहीं है, बल्कि विषय की दृष्टि से भी इसका शीर्षक है, क्योंकि इसमें उस महान विजय पर वार्ता की गई है जो हुदैबिया के समझौते के रूप में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को प्रदान की थी।
उतरने का समय
उल्लेखों (हदीस के बहुत-से कथनों) में इसपर मतैक्य है कि यह ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० में उस समय उतरी थी, जब आप (सल्ल०), मक्का के इस्लाम-विरोधियों से हुदैबिया के समझौते के बाद, मदीना मुनव्वरा की ओर वापस जा रहे थे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जिन घटनाओं के सिलसिले में यह सूरा उतरी, उनकी शुरुआत इस तरह होती है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वप्न में देखा कि आप (सल्ल०) अपने साथियों के साथ मक्का मुअज़्ज़मा गए हैं और वहाँ उमरा किया है। पैग़म्बर का सपना, विदित है कि मात्र सपना और ख़याल नहीं हो सकता था, वह कई प्रकार की प्रकाशनाओं में से एक प्रकाशना है। इसलिए वास्तव में यह [सपना] अल्लाह की ओर से एक संकेत था, जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल०) के लिए ज़रूरी था। [अतः आप (सल्ल०) ने] बे-झिझक अपना सपना सहाबा किराम (रज़ि०) को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। 1400 सहाबी नबी (सल्ल०) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० के आरंभ में यह मुबारक क़ाफ़िला [उमरा के लिए] मदीना से रवाना हुआ। क़ुरैश के लोगों को नबी (सल्ल०) के इस आगमन ने बड़ी उलझन में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों साल से अरब में हज और ज़ियारत (दर्शन) के लिए मुह्तरम (आदर करने योग्य) समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बाँधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो, उसे रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। क़ुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि अगर हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर हमला करके इसे मक्का मुअज़्ज़मा में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा, लेकिन अगर हम मुहम्मद (सल्ल०) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं, तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्तत: बड़े सोच-विचार के बाद उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात ही उनपर प्रभावी रहा और उन्होंने अपनी नाक की ख़ातिर यह फ़ैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को अपने शहर में दाख़िल नहीं होने देना है। जब आप (सल्ल०) उसफ़ान के स्थान पर पहुंँचे तो [आप (सल्ल०) के मुख़बिर ने] आकर आप (सल्ल०) को ख़बर दी कि क़ुरैश के लोग पूरी तैयारी के साथ ज़ी-तुवा के स्थान पर पहुंँच गए हैं और ख़ालिद-बिन-वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल-ग़मीम की ओर भेज दिया है ताकि वे आप (सल्ल०) का रास्ता रोकें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह ख़बर पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक बड़े ही दुर्गम रास्ते से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुंँच गए, जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। [अब कुरैश ने आप (सल्ल०) के पास दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप (सल्ल०) मक्का में प्रवेश करने के इरादे से बाज़ आ जाएँ, मगर वे अपने इस दूतीय प्रयास में विफल रहे।] अन्तत: नबी (सल्ल०) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रज़ि०) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके ज़रिये से क़ुरैश के सरदारों को यह सन्देश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं, बल्कि ज़ियारत (दर्शन) के लिए हदी (क़ुर्बानी) के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुर्बानी करके वापस चले जाएंँगे। किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रज़ि०) को मक्का ही में रोक लिया। इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रज़ि०) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब और अधिक सहन करने का कोई अवसर नहीं था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात् प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यही वह बैअत है जो ‘बैअते-रिज़वान' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। बाद में मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रज़ि०) के क़त्ल की ख़बर ग़लत थी। हज़रत उसमान (रज़ि०) स्वयं भी वापस आ गए और क़ुरैश की ओर से सुहैल-बिन-अम्र के नेतृत्त्व में एक प्रतिनिधि मंडल भी समझौते की बात-चीत करने के लिए नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गया। लम्बी बातचीत के बाद जिन शर्तों पर संधिपत्र लिखा गया, वे ये थीं—
(1) दस साल तक दोनों पक्षों के बीच युद्ध बन्द रहेगा और एक-दूसरे के विरुद्ध ख़ुफ़िया या खुल्लम-खुल्ला कोई कार्रवाई न की जाएगी।
(2) इस बीच क़ुरैश का जो आदमी अपने वली (अभिभावक) की अनुमति के बिना भागकर मुहम्मद के पास जाएगा, उसे आप (सल्ल०) वापस कर देंगे और आप (सल्ल०) के साथियों में से जो आदमी क़ुरैश के पास चला जाएगा, उसे वे वापस न करेंगे।
(3) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों फ़रीक़ों में से किसी एक के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होकर इस समझौते में शामिल होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।
(4) मुहम्मद (सल्ल०) इस साल वापस जाएँगे और अगले साल वे उमरे के लिए आकर तीन दिन मक्का में ठहर सकते हैं, बशर्ते कि परतलों (यानी पट्टों) में सिर्फ़ एक-एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ। इन तीन दिनों में मक्कावाले उनके लिए शहर ख़ाली कर देंगे, (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए,) मगर वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी आदमी को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा। जिस समय इस संधि की शर्ते तय हो रही थीं, मुसलमानों की पूरी सेना बहुत बेचैन थी। कोई आदमी भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था, जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल०) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर दबकर ये अपमानजनक शर्तें क्यों स्वीकार कर लें। ठीक उस समय जब समझौता-नामा लिखा जा रहा था, सुहैल-बिन-अम्र के अपने (बेटे) अबू-जन्दल, जो मुसलमान हो चुके थे और मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उनको क़ैद कर रखा था, किसी न किसी तरह भागकर नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गए। उनके पाँवों में बेड़ियाँ थीं और शरीर पर मार के निशान थे। उन्होंने नबी (सल्ल०) से फ़रियाद की कि मुझे इस अनुचित क़ैद से मुक्ति दिलाई जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) के लिए यह हालत देखकर अपने को नियंत्रित रखना कठिन हो गया, मगर सुहैल-बिन-अम्र ने कहा कि समझौता-नामा चाहे पूरा लिखा न गया हो, शर्ते तो हमारे और आपके बीच तय हो चुकी हैं, इसलिए इस लड़के को हमारे हवाले किया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसका तर्क मान लिया और अबू-जन्दल ज़ालिमों के हवाले कर दिए गए। [इस घटना ने मुसलमानों को और अधिक बेचैन और दुखी कर दिया।] समझौते से निवृत्त होकर नबी (सल्ल०) ने सहाबा से कहा कि अब यहीं क़ुर्बानी करके सर मुंडा लो और एहराम समाप्त कर दो, मगर कोई अपनी जगह से न हिला। नबी (सल्ल०) ने तीन बार हुक्म दिया, मगर सहाबा पर उस समय दुख और शोक और दिल के टूट जाने का एहसास ऐसा छा गया था कि वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। [फिर जब उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के मश्वरे के अनुसार नबी (सल्ल०) ने स्वयं आगे बढ़कर अपना ऊँट ज़िब्ह किया और सिर मुंडा लिया, तब] आप (सल्ल०) को देखकर लोगों ने भी क़ुर्बानियाँ कर ली, सिर मुंडा लिए या बाल कटवा लिए और एहराम से निकल आए। इसके बाद जब यह क़ाफ़िला हुदैबिया के समझौते को अपनी पराजय और अपना अपमान समझता हुआ मदीना की ओर वापस जा रहा था, उस समय ज़जनान के स्थान पर (या कुछ लोगों के अनुसार कुराउल-ग़मीम के स्थान पर) यह सूरा उतरी। इसमें मुसलमानों को बताया गया कि यह समझौता जिसे वे पराजय समझ रहे हैं, वास्तव में महान विजय है। इसके उतरने के बाद नबी (सल्ल.) ने मुसलमानों को जमा किया और फ़रमाया, "आज मुहम्मद पर वह चीज़ उतरी है, जो मेरे लिए दुनिया और दुनिया की सब चीज़ों से अधिक मूल्यवान है।" फिर यह सूरा आप (सल्ल०) ने पढ़कर सुनाई और विशेष रूप से हज़रत उमर (रज़ि०) को बुलाकर इसे सुनाया, क्योंकि वे सबसे अधिक दुखी थे। यद्यपि ईमानवाले तो अल्लाह का यह कथन सुनकर हो सन्तुष्ट हो गए थे, मगर कुछ अधिक समय न बीता था कि इस सुलह के फ़ायदे एक-एक करके सामने आते गए, यहाँ तक कि किसी को भी इस बात में सन्देह न रहा कि वास्तव में यह समझौता एक शानदार विजय थी।
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