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سُورَةُ الفَتۡحِ

48. अल-फ़त्‌ह

(मदीना में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के वाक्यांश ‘इन्ना फ़तह्‌ना ल-क फ़तहम-मुबीना' (हमने तुमको स्पष्ट विजय प्रदान कर दी) से लिया गया है। यह केवल इस सूरा का नाम ही नहीं है, बल्कि विषय की दृष्टि से भी इसका शीर्षक है, क्योंकि इसमें उस महान विजय पर वार्ता की गई है जो हुदैबिया के समझौते के रूप में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को प्रदान की थी।

उतरने का समय

उल्लेखों (हदीस के बहुत-से कथनों) में इसपर मतैक्य है कि यह ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० में उस समय उतरी थी, जब आप (सल्ल०), मक्का के इस्लाम-विरोधियों से हुदैबिया के समझौते के बाद, मदीना मुनव्वरा की ओर वापस जा रहे थे।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 जिन घटनाओं के सिलसिले में यह सूरा उतरी, उनकी शुरुआत इस तरह होती है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने स्वप्न में देखा कि आप (सल्ल०) अपने साथियों के साथ मक्का मुअज़्ज़मा गए हैं और वहाँ उमरा किया है। पैग़म्बर का सपना, विदित है कि मात्र सपना और ख़याल नहीं हो सकता था, वह कई प्रकार की प्रकाशनाओं में से एक प्रकाशना है। इसलिए वास्तव में यह [सपना] अल्लाह की ओर से एक संकेत था, जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल०) के लिए ज़रूरी था। [अतः आप (सल्ल०) ने] बे-झिझक अपना सपना सहाबा किराम (रज़ि०) को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। 1400 सहाबी नबी (सल्ल०) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी-क़ादा सन् 06 हि० के आरंभ में यह मुबारक क़ाफ़िला [उमरा के लिए] मदीना से रवाना हुआ। क़ुरैश के लोगों को नबी (सल्ल०) के इस आगमन ने बड़ी उलझन में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों साल से अरब में हज और ज़ियारत (दर्शन) के लिए मुह्तरम (आदर करने योग्य) समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बाँधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो, उसे रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। क़ुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि अगर हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर हमला करके इसे मक्का मुअज़्ज़मा में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा, लेकिन अगर हम मुहम्मद (सल्ल०) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं, तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्तत: बड़े सोच-विचार के बाद उनका अज्ञानतापूर्ण पक्षपात ही उनपर प्रभावी रहा और उन्होंने अपनी नाक की ख़ातिर यह फ़ैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को अपने शहर में दाख़िल नहीं होने देना है। जब आप (सल्ल०) उसफ़ान के स्थान पर पहुंँचे तो [आप (सल्ल०) के मुख़बिर ने] आकर आप (सल्ल०) को ख़बर दी कि क़ुरैश के लोग पूरी तैयारी के साथ ज़ी-तुवा के स्थान पर पहुंँच गए हैं और ख़ालिद-बिन-वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल-ग़मीम की ओर भेज दिया है ताकि वे आप (सल्ल०) का रास्ता रोकें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह ख़बर पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक बड़े ही दुर्गम रास्ते से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुंँच गए, जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। [अब कुरैश ने आप (सल्ल०) के पास दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप (सल्ल०) मक्का में प्रवेश करने के इरादे से बाज़ आ जाएँ, मगर वे अपने इस दूतीय प्रयास में विफल रहे।] अन्तत: नबी (सल्ल०) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रज़ि०) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके ज़रिये से क़ुरैश के सरदारों को यह सन्देश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं, बल्कि ज़ियारत (दर्शन) के लिए हदी (क़ुर्बानी) के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुर्बानी करके वापस चले जाएंँगे। किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रज़ि०) को मक्का ही में रोक लिया। इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रज़ि०) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब और अधिक सहन करने का कोई अवसर नहीं था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात् प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यही वह बैअत है जो ‘बैअते-रिज़वान' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। बाद में मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रज़ि०) के क़त्ल की ख़बर ग़लत थी। हज़रत उसमान (रज़ि०) स्वयं भी वापस आ गए और क़ुरैश की ओर से सुहैल-बिन-अम्र के नेतृत्त्व में एक प्रतिनिधि मंडल भी समझौते की बात-चीत करने के लिए नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गया। लम्बी बातचीत के बाद जिन शर्तों पर संधिपत्र लिखा गया, वे ये थीं—

(1) दस साल तक दोनों पक्षों के बीच युद्ध बन्द रहेगा और एक-दूसरे के विरुद्ध ख़ुफ़िया या खुल्लम-खुल्ला कोई कार्रवाई न की जाएगी।

(2) इस बीच क़ुरैश का जो आदमी अपने वली (अभिभावक) की अनुमति के बिना भागकर मुहम्मद के पास जाएगा, उसे आप (सल्ल०) वापस कर देंगे और आप (सल्ल०) के साथियों में से जो आदमी क़ुरैश के पास चला जाएगा, उसे वे वापस न करेंगे।

(3) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों फ़रीक़ों में से किसी एक के साथ प्रतिज्ञाबद्ध होकर इस समझौते में शामिल होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।

(4) मुहम्मद (सल्ल०) इस साल वापस जाएँगे और अगले साल वे उमरे के लिए आकर तीन दिन मक्का में ठहर सकते हैं, बशर्ते कि परतलों (यानी पट्टों) में सिर्फ़ एक-एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ। इन तीन दिनों में मक्कावाले उनके लिए शहर ख़ाली कर देंगे, (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए,) मगर वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी आदमी को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा। जिस समय इस संधि की शर्ते तय हो रही थीं, मुसलमानों की पूरी सेना बहुत बेचैन थी। कोई आदमी भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था, जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल०) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर दबकर ये अपमानजनक शर्तें क्यों स्वीकार कर लें। ठीक उस समय जब समझौता-नामा लिखा जा रहा था, सुहैल-बिन-अम्र के अपने (बेटे) अबू-जन्दल, जो मुसलमान हो चुके थे और मक्का के इस्लाम-विरोधियों ने उनको क़ैद कर रखा था, किसी न किसी तरह भागकर नबी (सल्ल०) के कैम्प में पहुँच गए। उनके पाँवों में बेड़ियाँ थीं और शरीर पर मार के निशान थे। उन्होंने नबी (सल्ल०) से फ़रियाद की कि मुझे इस अनुचित क़ैद से मुक्ति दिलाई जाए। सहाबा किराम (रज़ि०) के लिए यह हालत देखकर अपने को नियंत्रित रखना कठिन हो गया, मगर सुहैल-बिन-अम्र ने कहा कि समझौता-नामा चाहे पूरा लिखा न गया हो, शर्ते तो हमारे और आपके बीच तय हो चुकी हैं, इसलिए इस लड़के को हमारे हवाले किया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसका तर्क मान लिया और अबू-जन्दल ज़ालिमों के हवाले कर दिए गए। [इस घटना ने मुसलमानों को और अधिक बेचैन और दुखी कर दिया।] समझौते से निवृत्त होकर नबी (सल्ल०) ने सहाबा से कहा कि अब यहीं क़ुर्बानी करके सर मुंडा लो और एहराम समाप्त कर दो, मगर कोई अपनी जगह से न हिला। नबी (सल्ल०) ने तीन बार हुक्म दिया, मगर सहाबा पर उस समय दुख और शोक और दिल के टूट जाने का एहसास ऐसा छा गया था कि वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। [फिर जब उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) के मश्‍वरे के अनुसार नबी (सल्ल०) ने स्वयं आगे बढ़कर अपना ऊँट ज़िब्ह किया और सिर मुंडा लिया, तब] आप (सल्ल०) को देखकर लोगों ने भी क़ुर्बानियाँ कर ली, सिर मुंडा लिए या बाल कटवा लिए और एहराम से निकल आए। इसके बाद जब यह क़ाफ़िला हुदैबिया के समझौते को अपनी पराजय और अपना अपमान समझता हुआ मदीना की ओर वापस जा रहा था, उस समय ज़जनान के स्थान पर (या कुछ लोगों के अनुसार कुराउल-ग़मीम के स्थान पर) यह सूरा उतरी। इसमें मुसलमानों को बताया गया कि यह समझौता जिसे वे पराजय समझ रहे हैं, वास्तव में महान विजय है। इसके उतरने के बाद नबी (सल्ल.) ने मुसलमानों को जमा किया और फ़रमाया, "आज मुहम्मद पर वह चीज़ उतरी है, जो मेरे लिए दुनिया और दुनिया की सब चीज़ों से अधिक मूल्यवान है।" फिर यह सूरा आप (सल्ल०) ने पढ़कर सुनाई और विशेष रूप से हज़रत उमर (रज़ि०) को बुलाकर इसे सुनाया, क्योंकि वे सबसे अधिक दुखी थे। यद्यपि ईमानवाले तो अल्लाह का यह कथन सुनकर हो सन्तुष्ट हो गए थे, मगर कुछ अधिक समय न बीता था कि इस सुलह के फ़ायदे एक-एक करके सामने आते गए, यहाँ तक कि किसी को भी इस बात में सन्देह न रहा कि वास्तव में यह समझौता एक शानदार विजय थी।

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سُورَةُ الفَتۡحِ
48. अल-फ़तह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِنَّا فَتَحۡنَا لَكَ فَتۡحٗا مُّبِينٗا
(1) ऐ नबी! हमने तुमको खुली फ़तह दे दी,1
1. सुलह-हुदैबिया के बाद जब फ़तह की यह बुशख़बरी सुनाई गई तो लोग हैरान थे कि आख़िर इस सुलह को फ़तह कैसे कहा जा सकता है। ईमान की बुनियाद पर अल्लाह तआला के फ़रमान को मान लेने की बात तो दूसरी थी, मगर इसके फ़तह होने का पहलू किसी की समझ में न आ रहा था। हज़रत उमर (रज़ि०) ने यह आयत सुनकर पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल। क्या यह फ़तह है?” नबी (सल्ल०) ने फरमाया, “हाँ!” (इब्ने-जरीर) एक और सहाबी हाज़िर हुए और उन्होंने भी यही सवाल किया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़सम है उस हस्ती की जिसके हाथ में मुहम्मद की जान है। यक़ीनन यह फ़तह है,” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद) मदीना पहुँचकर एक और साहब ने अपने साथियों से कहा, “यह कैसी फ़तह है? हम बैतुल्लाह जाने से रोक दिए गए हैं, हमारी क़ुरबानी के ऊँट भी आगे न जा सके, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हुदैबिया ही में रुक जाना पड़ा, और इस सुलह की बदौलत हमारे दो मज़लूम (उत्पीड़ित) भाइयों (अबू-जन्दल और अबू-बसीर) को ज़ालिमों के हवाले कर दिया गया।” नबी (सल्ल०) तक यह बात पहुँची तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बड़ी ग़लत बात कही गई है यह। हक़ीक़त में तो यह बहुत बड़ी फ़तह है। तुम मुशरिकों के ठीक घर पर पहुँच गए और उन्होंने अगले साल उमरा अदा करने की दरख़ास्त करके तुम्हें वापस जाने पर राज़ी किया। उन्होंने तुमसे ख़ुद जंग बन्द कर देने और सुलह कर लेने की ख़ाहिश की, हालाँकि उनके दिलों में तुम्हारे लिए जैसी कुछ दुश्मनी है, वह मालूम है। अल्लाह ने तुमको उनपर हावी कर दिया है। क्या वह दिन भूल गए जब उहुद में तुम भागे जा रहे थे और मैं तुम्हें पीछे से पुकार रहा था? क्या वह दिन भूल गए जब अहज़ाब की जंग में हर तरफ़ से दुश्मन चढ़ आए थे और कलेजे मुँह को आ रहे थे?” (हदीस : बैहकी)। मगर कुछ ज़्यादा मुद्दत न गुज़री थी कि इस सुलह का फ़तह होना बिलकुल ज़ाहिर होता चला गया और हर ख़ास और आम पर यह बात पूरी तरह खुल गई कि सचमुच इस्लाम की फ़तह की शुरुआत सुलह-हुदैबिया ही से हुई थी। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हज़रत बरा-बिन-आज़िब (रज़ि०) तीनों लोगों से लगभग एक ही मानी में यह बात रिवायत हुई है कि “लोग फ़तह-मक्का को फ़तह कहते हैं, हालाँकि हम अस्ल फ़तह हुदैबिया की सुलह को समझते हैं।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, इब्ने-जरीर)
لِّيَغۡفِرَ لَكَ ٱللَّهُ مَا تَقَدَّمَ مِن ذَنۢبِكَ وَمَا تَأَخَّرَ وَيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَيَهۡدِيَكَ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 1
(2) ताकि अल्लाह तुम्हारी अगली-पिछली हर कोताही को माफ़ कर दे2 और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दे3 और तुम्हें सीधा रास्ता दिखाए4
2. जिस मौक़े पर यह जुमला कहा गया है उसे निगाह में रखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ जिन कोताहियों को अनदेखा करने का ज़िक्र है उनसे मुराद वे कमियाँ हैं जो इस्लाम की कामयाबी और सरबुलन्दी के लिए काम करते हुए उस जिद्दो-जुह्द में रह गई थीं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रहनुमाई में पिछले 19 साल से मुसलमान कर रहे थे। यह कमियाँ किसी इनसान के इल्म में नहीं हैं, बल्कि इनसानी अक़्ल तो उस जिद्दो-जुद में कोई ख़राबी तलाश करने से बिलकुल मजबूर है, मगर अल्लाह तआला की निगाह में कमाल (चरम) का जो सबसे बुलन्द पैमाना है उसके लिहाज़ से उसमें कुछ ऐसी ख़राबियाँ थीं जिनकी वजह से मुसलमानों को इतनी जल्दी अरब के मुशरिकों पर फ़ैसला कर डालनेवाली फ़तह हासिल न हो सकती थी। अल्लाह तआला के फ़रमान का मतलब यह है कि इन कमियों के साथ अगर तुम जिद्दो-जुह्द करते रहते तो अरब के मातहत होने में अभी लम्बा वक़्त चाहिए था, मगर हमने इन सारी कमज़ोरियों और कोताहियों को नज़रअन्दाज़ करके सिर्फ़ अपनी मेहरबानी से उनकी भरपाई कर दी और हुदैबिया के मक़ाम पर तुम्हारे लिए उस फ़तह और कामयाबी का दरवाज़ा खोल दिया जो आम उसूल के मुताबिक़ तुम्हारी अपनी कोशिशों से नसीब न हो सकती थी। इस जगह पर यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि किसी मक़सद के लिए एक जमाअत जो कोशिश कर रही हो, उसकी ख़ामियों (कमियों) के लिए उस जमाअत के लीडर और रहनुमा ही को मुख़ातब किया जाता है। इसका मतलब यह नहीं होता कि वे ख़ामियाँ (कमियाँ) रहनुमा और लीडर की अपनी कमियाँ हैं। अस्ल में वह उस जिद्दो-जुह्द्द की कमज़ोरियाँ होती हैं जो कुल मिलाकर पूरी जमाअत कर रही होती है, मगर मुख़ातब (सम्बोधित) लीडर को किया जाता है कि आपके काम में ये कमज़ोरियाँ हैं। फिर भी चूँकि बात का रुख़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की तरफ़ है, और फ़रमाया यह गया है कि अल्लाह ने आप (सल्ल०) की हर अगली-पिछली कोताही को माफ़ कर दिया, इसलिए इन आम अलफ़ाज़ से यह बात भी निकल आई कि अल्लाह तआला के यहाँ उसके पाक रसूल (सल्ल०) की तमाम कमज़ोरियाँ (जो आप सल्ल० के बुलन्द मक़ाम के लिहाज़ से कमज़ोरियाँ थीं) बख़्श दी गईं। इसी वजह से जब सहाबा किराम (रज़ि०) नबी (सल्ल०) को इबादत में ग़ैर-मामूली तक़लीफ़ें उठाते हुए देखते थे तो कहते थे कि आपके तो सब अगले-पिछले क़ुसूर माफ़ हो चुके हैं, फिर आप अपनी जान पर इतनी सख़्ती क्यों उठाते हैं? और आप (सल्ल०) जवाब में फ़रमाते थे, “क्या मैं एक शुक्रगुज़ार बन्दा न बनूँ?" (हदीस : अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद)
3. नेमत के पूरा होने से मुराद यह है कि मुसलमान अपनी जगह हर डर-ख़ौफ़, हर मुख़ालफ़त और रुकावट और हर बाहरी दख़ल-अन्दाजी से महफ़ूज़ होकर पूरी तरह इस्लामी तहज़ीब, रहन-सहन और इस्लामी क़ानूनों और हुक्मों के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए आज़ाद हो रह जाएँ, और उनको यह ताक़त भी नसीब हो जाए कि वे दुनिया में अल्लाह का कलिमा बुलन्द कर सकें। कुफ़्र और फ़िस्क़ (अल्लाह की नाफ़रमानी) का बोलबाला, जो रब की बन्दगी की राह में रुकावट और अल्लाह का बोलबाला करने की कोशिश में रुकावट हो, ईमानवालों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है, जिसे क़ुरआन 'फ़ितना' क़रार देता है। इस फ़ितने से छुटकारा पाकर जब उनको एक ऐसा दारुल-इस्लाम मिल जाए जिसमें अल्लाह का पूरा दीन बिना कमी-बेशी के लागू हो, और इसके साथ उनको ऐसे ज़राए और वसाइल (साधन-संसाधन) भी हाथ आ जाएँ जिनसे वे ख़ुदा की ज़मीन पर कुफ़्र (अधर्म) और फ़िस्क़ (बुराई) की जगह ईमान और परहेज़गारी का सिक्का जारी कर सकें, तो यह उनपर अल्लाह की नेमत का पूरा हो जाना है। यह नेमत चूँकि मुसलमानों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही की बदौलत हासिल हुई थी, इसलिए अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) ही को मुख़ातब करके फ़रमाया कि हम तुमपर अपनी नेमत पूरी कर देना चाहते थे, इसलिए यह फ़तह हमने तुमको दे दी।
4. इस जगह पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सीधा रास्ता दिखाने का मतलब आप (सल्ल०) को फ़तह और कामयाबी का रास्ता दिखाना है। दूसरे अलफ़ाज़ में इससे मुराद यह है कि अल्लाह तआला ने हुदैबिया के मक़ाम पर सुलह का यह समझौता कराकर आप (सल्ल०) के लिए वह राह आसान कर दी और वह तदबीर आप (सल्ल०) को सुझा दी जिससे आप (सल्ल०) इस्लाम की मुख़ालफ़त करनेवाली तमाम ताक़तों को हराकर अपने मातहत (अधीन) कर लें।
وَيَنصُرَكَ ٱللَّهُ نَصۡرًا عَزِيزًا ۝ 2
(3) और तुम्हारी भरपूर मदद करे।5
5. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “तुमको बेमिसाल मदद दे"। अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'नसरन अज़ीज़ा' इस्तेमाल हुआ है। अज़ीज़ के मानी ज़बरदस्त भी है और बेमिसाल और अनोखा भी। पहले मानी के लिहाज़ से इस जुमले का मतलब यह है कि इस सुलह के ज़रिए से अल्लाह ने आप (सल्ल०) की ऐसी मदद की है जिससे आप (सल्ल०) के दुश्मन बेबस हो जाएँगे। और दूसरे मानी के लिहाज़ से इसका मतलब यह है कि कभी-कभार ही किसी की मदद का ऐसा अजीब तरीक़ा अपनाया गया है कि बज़ाहिर जो चीज़ लोगों को सिर्फ़ एक समझौता, और वह भी दबकर किया हुआ समझौता, नज़र आती है, वही एक फ़ैसला कर देनेवाली फ़तह (विजय) बन जानेवाली है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِيمَٰنٗا مَّعَ إِيمَٰنِهِمۡۗ وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 3
(4) वही है जिसने ईमानवालों के दिलों में सकीनत (शान्ति) उतारी,6 ताकि अपने ईमान के साथ वे एक ईमान और बढ़ा लें।7 ज़मीन और आसमानों के सब लश्कर अल्लाह ही के इख़्तियार में हैं और वह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।8
6. 'सकीनत' अरबी ज़बान में सुकून, इत्मीनान और दिल के जमाव को कहते हैं, और यहाँ अल्लाह तआला ईमानवालों के दिल में उसके उतारे जाने को उस फ़तह का एक अहम सबब ठहरा रहा है जो हुदैबिया के मक़ाम पर इस्लाम और मुसलमानों को नसीब हुई। उस वक़्त के हालात पर थोड़ा-सा ग़ौर करने से यह बात अच्छी तरह मालूम हो जाती है कि वह किस तरह की सकीनत थी जो इस पूरे ज़माने में मुसलमानों के दिलों में उतारी गई और कैसे वह इस फ़तह का सबब बनी। जिस वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उमरे के लिए मक्का जाने का इरादा ज़ाहिर किया, अगर मुसलमान उस वक़्त डर में मुब्तला हो जाते और मुनाफ़िक़ों की तरह यह सोचने लगते कि यह तो साफ़ मौत के मुँह में जाना है, या जब रास्ते में यह ख़बर मिली कि क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन लड़ने-मरने पर आमादा हो गए हैं, उस वक़्त अगर मुसलमान इस घबराहट में मुब्तला हो जाते कि हम किसी जंगी साज़ो-सामान के बिना दुश्मन का मुक़ाबला कैसे कर सकेंगे, और इस बुनियाद पर उनके अन्दर भगदड़ मच जाती, तो ज़ाहिर है कि वे नतीजे कभी ज़ाहिर न होते जो हुदैबिया में ज़ाहिर हुए। फिर जब हुदैबिया के मक़ाम पर दुश्मनों ने मुसलमानों को आगे बढ़ने से रोका, और जब उन्होंने रातों को छापे मारकर और रात के वक़्त हमले करके मुसलमानों को भड़काने की कोशिश की, और जब हज़रत उसमान (रज़ि०) की शहादत की ख़बर मिली, और जब अबू-जन्दल (रज़ि०) ज़ुल्म की तस्वीर बने हुए आम भीड़ में आ खड़े हुए, इनमें से हर मौक़ा ऐसा था कि अगर मुसलमान जोश में आकर उस डिसिप्लिन (अनुशासन) को तोड़ डालते जो नबी (सल्ल०) ने क़ायम किया था तो सारा काम ख़राब हो जाता। सबसे ज़्यादा यह कि जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उन शर्तों पर समझौता तय करने लगे जो मुसलमानों की पूरी जमाअत को सख़्त नागवार थीं, उस वक़्त अगर वे नबी (सल्ल०) की नाफ़रमानी करने पर उतर आते तो हुदैबिया की ज़बरदस्त फ़तह एक बड़ी हार में बदल जाती। अब यह सरासर अल्लाह ही की मेहरबानी थी कि इन नाज़ुक घड़ियों में मुसलमानों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रहनुमाई पर, दीने-हक़ की सच्चाई पर और अपने मिशन के सही होने पर पूरा इत्मीनान नसीब हुआ। इसी की वजह से उन्होंने ठण्डे दिल से यह फ़ैसला किया कि अल्लाह की राह में जो कुछ भी पेश आए सब गवारा है। इसी की बुनियाद पर वह डर, घबराहट, ग़ुस्सा, मायूसी, हर चीज़ से महफ़ूज़ रहे। इसी की बदौलत उनके कैम्प में पूरा डिसिप्लिन बरक़रार रहा। और इसी की वजह से उन्होंने समझौते की शर्तों पर सख़्त बददिल होने के बावजूद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के फ़ैसले पर सिर झुका दिया। यही वह सकीनत थी जो अल्लाह ने ईमानवालों के दिलों में उतारी थी, और इसी की यह बरकत थी कि उमरे के लिए निकलने का इन्तिहाई ख़तरनाक क़दम बेहतरीन कामयाबी का सबब बन गया।
7. यानी एक ईमान तो वह था जो इस मुहिम से पहले उनको हासिल था, और उसपर और ज़्यादा ईमान उन्हें इस वजह से हासिल हुआ कि इस मुहिम के सिलसिले में जितनी सख़्त आज़माइशें पेश आती चली गईं उनमें से हर एक में वे ख़ुलूस (निष्ठा), परहेज़गारी और फ़रमाँबरदारी के रवैये साबित क़दम रहे। यह आयत भी उन बहुत-सी आयतों में से है जिनसे मालूम होता है ईमान एक ही तरह की हालत में क़ायम नहीं रहता है, बल्कि यह बढ़ता भी है और घटता भी है। इस्लाम क़ुबूल करने के बाद से मरते दम तक ईमानवाले को ज़िन्दगी में क़दम-क़दम पर ऐसी आज़माइशों से पाला पड़ता रहता है जिनमें उसके लिए यह सवाल फ़ैसला चाहता है कि क्या वह अल्लाह के दीन की पैरवी में अपनी जान, माल, जज़बात, ख़ाहिशों, वक़्त, आराम और फ़ायदों की क़ुरबानी देने के लिए तैयार है या नहीं। ऐसी हर आज़माइश के मौक़े पर अगर वह क़ुरबानी की राह अपना ले तो उसका ईमान तरक़्क़ी करता व बढ़ता-चढ़ता और पुख़्ता होता है। और अगर मुँह मोड़ जाए तो उसका ईमान ठिठुरकर रह जाता है, यहाँ तक कि एक वक़्त ऐसा भी आ जाता है कि जब वह इबतिदाई ईमान की पूंजी भी ख़तरे में पड़ जाती है जिसे लिए हुए वह इस्लाम के दायरे में दाख़िल हुआ था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिया-2; सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-38)
8. मतलब यह है कि अल्लाह के पास तो ऐसे लश्कर हैं जिनसे वह इस्लाम-दुश्मनों को जब चाहे तहस-नहस कर दे, मगर उसने कुछ जानकर और हिकमत ही की बुनियाद पर यह ज़िम्मेदारी ईमानवालों पर डाली है कि वे इस्लाम-दुश्मनों के मुक़ाबले में जिद्दो-जुह्द और कश्मकश करके अल्लाह के दीन का बोल-बाला करें। इसी से उनके लिए दरजों की तरक़्क़ी और आख़िरत की कामयाबियों का दरवाज़ा खुलता है जैसा कि आगे की आयत बता रही है।
لِّيُدۡخِلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَيُكَفِّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عِندَ ٱللَّهِ فَوۡزًا عَظِيمٗا ۝ 4
(5) (उसने यह काम इसलिए किया है कि) ताकि ईमानवाले मर्दों और औरतों9 को हमेशा रहने के लिए ऐसी जन्नतों में दाख़िल करे जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी और उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दे10— अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी कामयाबी है
9. क़ुरआन मजीद में आम तौर पर कुफ़्र मिलाकर सभी ईमानवालों के अज्र (बदले) का ज़िक्र किया जाता है, मर्दों और औरतों को अलग-अलग बदला मिलने को बयान नहीं किया जाता लेकिन यहाँ चूँकि एक साथ ज़िक्र करने से यह गुमान पैदा हो सकता था कि शायद यह बदला सिर्फ़ मर्दों के लिए हो, इसलिए अल्लाह तआला ने ईमानवाली औरतों के बारे में अलग से बता दिया कि वे भी इस इनाम में ईमानवाले मर्दों के साथ बराबर की भागीदार हैं। इसकी वजह ज़ाहिर है। जिन ख़ुदा-परस्त औरतों ने अपने शौहरों, बेटों, भाइयों और बापों को इस ख़तरनाक सफ़र पर जाने से रोकने और रो-चिल्लाकर उनके हौसले पस्त करने के बजाय उनकी हिम्मत बढ़ाई, जिन्होंने उनके पीछे उनके घर, उनके माल, उनकी आबरू और उनके बच्चों की मुहाफ़िज़ बनकर उन्हें इस तरफ़ से बेफ़िक्र कर दिया, जिन्होंने इस अन्देशे से भी कोई हंगामा खड़ा न किया कि चौदह सौ सहाबियों के एकदम चले जाने के बाद कहीं आसपास के इस्लाम-दुश्मन और मुनाफ़िक़ शहर पर न चढ़ आएँ, वे यक़ीनन घर बैठने के बावजूद जिहाद के बदले में अपने मर्दों के साथ बराबर की शरीक होनी ही चाहिए थीं।
10. यानी इनसानी कमज़ोरियों की वजह से जो कुछ भी क़ुसूर उनसे हो गए हों उन्हें माफ़ कर दे, जन्नत में दाख़िल करने से पहले उन क़ुसूरों के हर असर से उनको पाक कर दे, और जन्नत में वे इस तरह दाख़िल हों कि कोई दाग़ उनके दामन पर न हो जिसकी वजह से वे वहाँ शर्मिन्दा हों।
وَيُعَذِّبَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ وَٱلۡمُشۡرِكَٰتِ ٱلظَّآنِّينَ بِٱللَّهِ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِۚ عَلَيۡهِمۡ دَآئِرَةُ ٱلسَّوۡءِۖ وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَلَعَنَهُمۡ وَأَعَدَّ لَهُمۡ جَهَنَّمَۖ وَسَآءَتۡ مَصِيرٗا ۝ 5
(6) और उन मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) मर्दों और औरतों और मुशरिक मर्दों और औरतों को सज़ा दे जो अल्लाह के बारे में बुरे गुमान रखते हैं।11 बुराई के फेर में वे ख़ुद ही आ गए,12अल्लाह का ग़ज़ब उनपर हुआ और उसने उनपर लानत की और उनके लिए जहन्नम तैयार कर दी जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।
11. मदीना के आसपास के मुनाफ़िक़ों को तो इस मौक़े पर यह गुमान था, जैसा कि आगे आयत-12 में बयान हुआ है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथी इस सफ़र से ज़िन्दा वापस न आ सकेंगे। रहे मक्का के मुशरिक और उनके इस्लाम-मुख़ालिफ़ साथी, तो वे इस ख़याल में थे कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को उमरे से रोककर वे मानो आप (सल्ल०) को नुक़सान पहुँचाने में कामयाब हो गए हैं। इन दोनों गरोहों ने जो कुछ भी सोचा था उसकी तह में दरअस्ल अल्लाह तआला के बारे में यह बदगुमानी काम कर रही थी कि वह अपने नबी की मदद न करेगा और हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) की इस कश्मकश में बातिल को नीचा करने की खुली छूट दे देगा।
12. यानी जिस बुरे अंजाम से वे बचना चाहते थे और जिससे बचने के लिए उन्होंने ये तदबीरें की थीं, उसी के फेर में वे आ गए और उनकी वही तदबीरें उस अंजाम को क़रीब लाने का सबब बन गईं।
وَلِلَّهِ جُنُودُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا ۝ 6
(7) आसमानों और ज़मीन के लश्कर अल्लाह ही के इख़्तियार में हैं और वह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।13
13. यहाँ इस बात को एक-दूसरे मक़सद के लिए दोहराया गया है। आयत-4 में उसे इस ग़रज़ के लिए बयान किया गया था कि अल्लाह तआला ने इस्लाम-दुश्मनों के मुक़ाबले में लड़ने का काम अपने फ़रिश्तों के लश्करों से लेने के बजाय ईमानवालों से इसलिए लिया है कि वह उनको नवाज़ना चाहता है। और यहाँ इस बात को दोबारा इसलिए बयान किया गया है कि अल्लाह तआला जिसको सज़ा देना चाहे उसका सर कुचलने के लिए वह अपने अनगिनत लश्करों में से जिसको चाहे इस्तेमाल कर सकता है, किसी में यह ताक़त नहीं है कि अपनी तदबीरों से वह उसकी सज़ा को टाल सके।
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ شَٰهِدٗا وَمُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 7
(8) ऐ नबी! हमने तुमको गवाही देनेवाला,14 ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला15 बनाकर भेजा है,
14. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘शाहिद' इस्तेमाल हुआ है। शाह वलियुल्लाह (रह०) ने 'शाहिद' का तर्जमा ‘इज़हारे-हक़ कुनिन्दा' (सच का इज़हार करनेवाला) किया है और दूसरे तर्जमा करनेवाले इसका तर्जमा 'गवाही देनेवाला' करते हैं। शहादत के लफ़्ज़ में ये दोनों मतलब समाए हुए हैं। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-82
15. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-83 ।
لِّتُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتُعَزِّرُوهُ وَتُوَقِّرُوهُۚ وَتُسَبِّحُوهُ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلًا ۝ 8
(9) ताकि ऐ लोगो! तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसका साथ दो, उसकी इज़्ज़त और उसका एहतिराम करो और सुबह-शाम उसकी तसबीह करते रहो।16
16. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने अरबी लफ़्ज़ 'तुअज़्ज़िरूह' और 'तुवक्कि़रूह' की ज़मीरों (सर्वनामों) को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए और 'तुसब्बिहूह' की ज़मीर (सर्वनाम) को अल्लाह के लिए बताया है। यानी उनके नज़दीक आयत का मतलब यह है कि का “तुम रसूल का साथ दो और उसको इज़्ज़त दो और सुबह-शाम अल्लाह की तसबीह (महिमागान) करते रहो।” लेकिन कलाम (बात) के एक ही सिलसिले में ज़मीरों (सर्वनामों) को दो अलग-अलग हस्तियों से जोड़ना, जबकि उसके लिए कोई इशारा मौजूद नहीं है, दुरुस्त नहीं मालूम होता। इसी लिए तफ़सीर लिखनेवाले कुछ दूसरे आलिमों ने तमाम ज़मीरों (सर्वनामों) को अल्लाह के लिए बताया है और उनके नज़दीक इबारत का मतलब यह है कि “तुम अल्लाह का साथ दो, उसकी इज़्ज़त और उसका एहतिराम करो और सुबह-शाम उसकी तसबीह करते रहो।" सुबह-शाम तसबीह करने से मुराद सिर्फ़ सुबह-शाम ही नहीं बल्कि हर वक़्त तसबीह करते रहना है। यह ऐसा ही है जैसे हम कहते हैं कि फ़ुलाँ बात की चर्चा पूरब-पश्चिम में फैली हुई है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि सिर्फ़ पूरब और पश्चिम के लोग इस बात को जानते हैं, बल्कि इसका मतलब यह होता है कि सारी दुनिया में इसका चर्चा हो रहा है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُبَايِعُونَكَ إِنَّمَا يُبَايِعُونَ ٱللَّهَ يَدُ ٱللَّهِ فَوۡقَ أَيۡدِيهِمۡۚ فَمَن نَّكَثَ فَإِنَّمَا يَنكُثُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَوۡفَىٰ بِمَا عَٰهَدَ عَلَيۡهُ ٱللَّهَ فَسَيُؤۡتِيهِ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 9
(10) ऐ नबी! जो लोग तुमसे बैअत कर रहे थे17 वे अस्ल में अल्लाह से बैअत कर रहे थे। उनके हाथ पर अल्लाह का हाथ था।18 अब जो इस अह्द (प्रतिज्ञा) को तोड़ेगा उसके अह्द तोड़ने का वबाल उसके अपने ही ऊपर होगा, और जो उस अद को पूरा करेगा जो उसने अल्लाह से किया है,19 अल्लाह बहुत जल्द उसको बड़ा इनाम देगा।
17. इशारा है उस बैअत की तरफ़ जो मक्का में हज़रत उसमान (रज़ि०) के शहीद हो जाने की ख़बर सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सहाबा किराम (रज़ि०) से हुदैबिया के मक़ाम पर ली थी। कुछ रिवायतों के मुताबिक़ यह मौत पर बैअत थी, और कुछ रिवायतों के मुताबिक़ बैअत इस बात पर ली गई थी कि हम जंग के मैदान से पीठ न फेरेंगे। पहली बात हज़रत सलमा-बिन-अकवअ (रज़ि०) से बयान हुई है, और दूसरी हज़रत इब्ने-उमर, हज़रत जाबिर-बिन- अब्दुल्लाह और हज़रत माकिल-बिन-यसार (रज़ि०) से। नतीजा दोनों का एक ही निकलता है। सहाबा (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के हाथ पर बैअत इस बात पर की थी कि हज़रत उसमान (रज़ि०) की शहादत का मामला अगर सही साबित हुआ तो वे सब यहीं और इसी वक़्त क़ुरैश से निमट लेंगे, चाहे नतीजे में वे सब कट ही क्यों न मरें। इस मौक़े पर चूँकि यह बात भी यक़ीनी नहीं थी कि हज़रत उसमान (रज़ि०) सचमुच शहीद हो चुके हैं या ज़िन्दा हैं, इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनकी तरफ़ से ख़ुद अपना एक हाथ दूसरे हाथ पर रखकर बैअत की और इस तरह उनको यह बड़ी ख़ुशनसीबी हासिल हुई कि आप (सल्ल०) ने अपने मुबारक हाथ को उनके हाथ का बदल बनाकर उन्हें इस बैअत में शरीक किया। नबी (सल्ल०) का उनकी तरफ़ से ख़ुद बैअत करना लाज़िमन यह मानी रखता है कि नबी (सल्ल०) को उनपर पूरी तरह यह भरोसा था कि अगर वे मौजूद होते तो यक़ीनन बैअत करते।
18. यानी जिस हाथ पर लोग उस वक़्त बैअत कर रहे थे वह किसी शख़्स का हाथ नहीं था, बल्कि अल्लाह के नुमाइन्दे का हाथ था और यह बैअत रसूल (सल्ल०) के ज़रिए से हक़ीक़त में अल्लाह तआला से हो रही थी।
19. इस जगह पर एक बारीक पहलू निगाह में रहना चाहिए। अरबी ज़बान के आम क़ायदे के मुताबिक़ यहाँ 'आ-ह-द अलैहिल्ला-ह' पढ़ा जाना चाहिए था, लेकिन इस आम क़ायदे से हटकर इस जगह 'अलैहुल्ला-ह' पढ़ा जाता है। अल्लामा आलूसी (रह०) ने इस ग़ैर-मामूली एराब (ज़ेर-ज़बर लगाने) के दो सबब बयान किए हैं : एक यह कि इस ख़ास मौक़े पर उस हस्ती (अल्लाह) की बुज़ुर्गी और बड़ी शान का इज़हार करना मक़सद है जिसके साथ यह अह्द बाँधा जा रहा था, इसलिए यहाँ ‘अलैहि' के बजाय 'अलैहु' ही ज़्यादा मुनासिब है। दूसरे यह कि ‘अलैहि’ में ‘हि’ दरअस्ल ‘हु-व’ की जगह पर है और इसका अस्ली एराब पेश ही था न कि ज़ेर। लिहाज़ा यहाँ उसके अस्ली एराब को बाक़ी रखना वादा पूरा करने के मज़मून से ज़्यादा मेल खाता है।
سَيَقُولُ لَكَ ٱلۡمُخَلَّفُونَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ شَغَلَتۡنَآ أَمۡوَٰلُنَا وَأَهۡلُونَا فَٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَاۚ يَقُولُونَ بِأَلۡسِنَتِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ لَكُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ بِكُمۡ ضَرًّا أَوۡ أَرَادَ بِكُمۡ نَفۡعَۢاۚ بَلۡ كَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرَۢا ۝ 10
(11) ऐ नबी! अरब बद्दुओं20 में से जो लोग पीछे छोड़ दिए गए थे, अब वे आकर ज़रूर तुमसे कहेंगे कि “हमें अपने मालों और बाल-बच्चों की फ़िक्र ने मशग़ूल (व्यस्त) कर रखा था, आप हमारे लिए मग़फ़िरत की दुआ करें।” ये लोग अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं होतीं।21 उनसे कहना, “अच्छा, यही बात है तो कौन तुम्हारे मामले में अल्लाह के फ़ैसले को रोक देने का कुछ भी इख़्तियार रखता है अगर वह तुम्हें कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे या फ़ायदा पहुँचाना चाहे? तुम्हारे आमाल (कर्मों) की तो अल्लाह ही ख़बर रखता है।22
20. यह मदीना के आसपास के उन लोगों का ज़िक्र है जिन्हें उमरे की तैयारी शुरू करते वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने साथ चलने की दावत दी थी, मगर वे ईमान का दावा रखने के बावजूद सिर्फ़ इसलिए अपने घरों से न निकले थे कि उन्हें अपनी जान प्यारी थी। रिवायतों से मालूम होता है कि ये असलम, मुज़ैना, जुहैना, ग़िफ़ार, अशजअ, दील वग़ैरा क़बीले के लोग थे।
21. इसके दो मतलब हैं : एक यह कि तुम्हारे मदीना पहुँचने के बाद ये लोग अपने घरों से न निकलने के लिए जो बहाना अब पेश करेंगे वह एक झूठा बहाना होगा, वरना उनके दिल जानते हैं कि वे अस्ल में क्यों बैठ रहे थे। दूसरा यह कि उनका अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मग़ाफ़िरत की दुआ की दरख़ास्त करना सिर्फ़ ज़बानी जमा-ख़र्च होगा। अस्ल में वे न अपनी इस हरकत पर शर्मिन्दा हैं, न उन्हें यह एहसास है कि उन्होंने रसूल (सल्ल०) का साथ न देकर कोई गुनाह किया है, और न उनके दिल में मग़फ़िरत की कोई चाह है। अपने नज़दीक तो वे यह समझते हैं कि उन्होंने इस ख़तरनाक सफ़र पर न जाकर बड़ी अक़्लमन्दी की है। अगर उन्हें सचमुच अल्लाह और उसकी मग़फ़िरत की कोई परवाह होती तो वे घर बैठे ही क्यों रहते!
22. यानी अल्लाह का फ़ैसला तो उस इल्म की बुनियाद पर होगा जो वह तुम्हारे अमल की हक़ीक़त के बारे में रखता है। अगर तुम्हारा अमल सज़ा का हक़दार हो और मैं तुम्हारे लिए मग़फ़िरत की दुआ कर दूँ तो मेरी यह दुआ तुम्हें अल्लाह की सज़ा से न बचाएगी। और अगर तुम्हारा अमल सज़ा का हक़दार न हो और मैं तुम्हारे लिए मग़फ़िरत की दुआ न करूँ तो मेरा दुआ न करना तुम्हें कोई नुक़सान न पहुँचाएगा। यह मेरे बस में नहीं, अल्लाह के बस में है, और उसको किसी की ज़बानी बातें धोखा नहीं दे सकतीं। इसलिए तुम्हारी ज़ाहिरी बातों को मैं सच मान भी लूँ और इस बुनियाद पर तुम्हारे लिए मग़फ़िरत की दुआ भी कर दूँ तो उसका कोई फ़ायदा नहीं है।
بَلۡ ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَنقَلِبَ ٱلرَّسُولُ وَٱلۡمُؤۡمِنُونَ إِلَىٰٓ أَهۡلِيهِمۡ أَبَدٗا وَزُيِّنَ ذَٰلِكَ فِي قُلُوبِكُمۡ وَظَنَنتُمۡ ظَنَّ ٱلسَّوۡءِ وَكُنتُمۡ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 11
(12) (मगर अस्ल बात वह नहीं है जो तुम कह रहे हो) बल्कि तुमने यूँ समझा कि रसूल और ईमानवाले अपने घरवालों में हरगिज़ पलटकर न आ सकेंगे और यह ख़याल तुम्हारे दिलों को बहुत भला लगा23 और तुम बहुत बुरे गुमान किए और तुम अन्दरूनी तौर पर बहुत बुरे लोग हो।"24
23. यानी तुम इस बात पर बहुत ख़ुश हुए कि रसूल (सल्ल०) और उसका साथ देनेवाले अहले-ईमान जिस ख़तरे के मुँह में जा रहे हैं उससे तुमने अपने-आपको बचा लिया। तुम्हारी निगाह में यह बड़ी अक़्लमंदी का काम था। और तुम्हें इस बात पर भी ख़ुश होते हुए कोई शर्म न आई कि रसूल (सल्ल०) और ईमानवाले एक ऐसी मुहिम पर जा रहे हैं जिससे वे बचकर न आएँगे, ईमान का दावा रखते हुए भी तुम इसपर बेचैन न हुए, बल्कि अपनी यह हरकत तुम्हें बहुत अच्छी मालूम हुई कि तुमने अपने-आपको रसूल (सल्ल०) के साथ इस ख़तरे में नहीं डाला।
24. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'कुन्तुम क़ौमम बूरा' । 'बूर' जमा (बहुवचन) है 'बाइर' की। और बाइर के दो मतलब हैं : एक फ़ासिद, बिगड़ा हुआ आदमी, जो किसी भले काम के लायक़ न हो, जिसकी नीयत में बिगाड़ हो। दूसरा बरबाद होनेवाला, बुरे अंजामवाला, तबाही के रास्ते पर जानेवाला।
وَمَن لَّمۡ يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ فَإِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ سَعِيرٗا ۝ 12
(13) अल्लाह और उसके रसूल पर जो लोग ईमान न रखते हों, हक़ के ऐसे इनकारियों के लिए हमने भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है25
25. यहाँ अल्लाह तआला ऐसे लोगों को साफ़ अलफ़ाज़ में हक़ का इनकारी और ईमान से ख़ाली ठहराता है जो अल्लाह और उसके दीन के मामले में मुख़लिस (निष्ठावान) न हों और आज़माइश का वक़्त आने पर दीन की ख़ातिर अपनी जान और माल और अपने फ़ायदे को ख़तरे में डालने से जी चुरा जाएँ। लेकिन यह ध्यान रहे कि यह वह कुफ़्र नहीं है, जिसकी बुनियाद पर दुनिया में किसी शख़्स या गरोह को इस्लाम से बाहर ठहरा दिया जाए, बल्कि वह कुफ़्र है जिसकी बुनियाद पर आख़िरत में वह ग़ैर-मोमिन ठहराया जाएगा। इसकी दलील यह है कि इस आयत के उतरने के बाद भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उन लोगों को, जिनके बारे में यह आयत उतरी थी, इस्लाम से बाहर नहीं ठहराया और न उनसे वह मामला किया जो कुफ़्र (अल्लाह का इनकार) करनेवालों से किया जाता है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 13
(14) आसमानों और ज़मीन की बादशाही का मालिक अल्लाह ही है। जिसे चाहे माफ़ करे और जिसे चाहे सज़ा दे, और वह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।26
26. ऊपर की सख़्त तंबीह (चेतावनी) के बाद अल्लाह के माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला होने का ज़िक्र अपने अन्दर नसीहत का एक लतीफ़ (सूक्ष्म) पहलू रखता है। इसका मतलब यह है कि अगर अब भी अपने ग़ैर-मुख़लिसाना (अनिष्ठापूर्ण) रवैये को छोड़कर तुम लोग इख़लास (निष्ठा) की राह पर आ जाओ तो अल्लाह को तुम माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला पाओगे। वह तुम्हारी पिछली कोताहियों को माफ़ कर देगा और आगे तुम्हारे साथ वह व्यवहार करेगा जिसके तुम अपने ख़ुलूस (निष्ठा) की बुनियाद पर हक़दार होगे।
سَيَقُولُ ٱلۡمُخَلَّفُونَ إِذَا ٱنطَلَقۡتُمۡ إِلَىٰ مَغَانِمَ لِتَأۡخُذُوهَا ذَرُونَا نَتَّبِعۡكُمۡۖ يُرِيدُونَ أَن يُبَدِّلُواْ كَلَٰمَ ٱللَّهِۚ قُل لَّن تَتَّبِعُونَا كَذَٰلِكُمۡ قَالَ ٱللَّهُ مِن قَبۡلُۖ فَسَيَقُولُونَ بَلۡ تَحۡسُدُونَنَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَفۡقَهُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 14
(15) जब तुम ग़नीमत का माल हासिल करने के लिए जाने लगोगे तो ये पीछे छोड़े जानेवाले लोग तुमसे ज़रूर कहेंगे कि हमें भी अपने साथ चलने दो।27 ये चाहते हैं कि अल्लाह के फ़रमान को बदल दें।28 इनसे साफ़ कह देना कि “तुम हरगिज़ हमारे साथ नहीं चल सकते, अल्लाह पहले ही यह फ़रमा चुका है।29 ये कहेंगे कि “नहीं, बल्कि तुम लोगों को हमसे हसद (जलन) हो रहा है।” (हालाँकि बात जलन की नहीं है) बल्कि ये लोग सही बात को कम ही समझते हैं।
27. यानी बहुत जल्द वह वक़्त आनेवाला है जब यही लोग, जो आज ख़तरे की मुहिम पर तुम्हारे साथ जाने से जी चुरा गए थे, तुम्हें एक ऐसी मुहिम पर जाते देखेंगे जिसमें उनको आसान फ़तह और बहुत-से माले-ग़नीमत (जंग में हासिल होनेवाला माल) के हासिल होने का इमकान नज़र आएगा, और वक़्त ये ख़ुद दौड़े आएँगे कि हमें भी अपने साथ ले चलो। यह वक़्त सुलह-हुदैबिया के तीन ही महीने बाद आ गया जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ैबर पर चढ़ाई की और बड़ी आसानी के साथ उसे फ़तह कर लिया। उस वक़्त हर शख़्स को यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि क़ुरैश से सुलह हो जाने के बाद अब ख़ैबर ही के नहीं बल्कि तैमा, फ़दक, वादिल-क़ुरा और शिमाली (उत्तरी) हिजाज़ के दूसरे यहूदी भी मुसलमानों की ताक़त का मुक़ाबला न कर सकेंगे और ये सारी बस्तियाँ पके फल की तरह इस्लामी हुकूमत की गोद में आ गिरेंगी। इसलिए अल्लाह तआला ने अपने रसूल (सल्ल०) को इन आयतों में पहले ही ख़बरदार कर दिया कि मदीना के आसपास ये मौक़ा-परस्त (अवसरवादी) लोग इन आसान जीतों को हासिल होते देखकर उनमें हिस्सा बँटा लेने के लिए आ खड़े होंगे, मगर तुम उन्हें साफ़ जवाब दे देना कि उनमें हिस्सा लेने का मौक़ा तुम्हें हरगिज़ न दिया जाएगा, बल्कि यह उन लोगों का हक़ है जो ख़तरों के मुक़ाबलों में सरफ़रोशी के लिए आगे बढ़े थे।
28. अल्लाह के फ़रमान से मुराद यह फ़रमान है कि ख़ैबर की मुहिम पर नबी (सल्ल०) के साथ सिर्फ़ उन्हीं लोगों को जाने की इजाज़त दी जाएगी जो हुदैबिया की मुहिम पर आप (सल्ल०) के साथ गए थे और 'बैअते-रिज़वान' में शरीक हुए थे। अल्लाह तआला ने ख़ैबर के माले-ग़नीमत उन्हीं के लिए ख़ास कर दिए थे, जैसा कि आगे आयत-18 में साफ़-साफ़ बयान हुआ है।
29. 'अल्लाह पहले ही यह फ़रमा चुका है' के अलफ़ाज़ से लोगों को यह ग़लतफ़हमी हुई कि इस आयत से पहले कोई हुक्म इस मज़मून का आया होगा, जिसकी तरफ़ यहाँ इशारा किया गया है, और चूँकि इस सूरा में इस मज़मून का कोई हुक्म इस आयत से पहले नहीं मिलता इसलिए उन्होंने क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर उसे तलाश करना शुरू किया, यहाँ तक कि सूरा-9 तौबा की आयत-83 उन्हें मिल गई, जिसमें यही बात एक और मौक़े पर कही गई है। लेकिन हक़ीक़त में वह आयत इस जगह फ़िट नहीं होती, क्योंकि वह तबूक की जंग के सिलसिले में उतरी थी जिसके उतरने का ज़माना सूरा-48 फ़तह के उतरने के ज़माने से तीन साल बाद का है। अस्ल बात यह है कि इस आयत का इशारा ख़ुद इसी सूरा की आयत-18 और 19 की तरफ़ है, और अल्लाह के पहले फ़रमा चुकने का मतलब इस आयत से पहले फ़रमाना नहीं है, बल्कि पीछे रह जानेवालों के साथ इस बातचीत से पहले फ़रमाना है। पीछे रह जानेवालों के साथ यह बातचीत, जिसके बारे में यहाँ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को पहले से ये हिदायतें दी जा रही हैं, लेबर की मुहिम पर जाने के वक़्त होनेवाली थी, और यह पूरी सूरा, जिसमें आयतें—18 और 19 भी शामिल हैं, उससे तीन महीने पहले हुदैबिया से पलटते वक़्त रास्ते में उतर चुकी थीं। बात के सिलसिले को ग़ौर से देखिए तो मालूम हो जाएगा कि यहाँ अल्लाह तआला अपने रसूल को यह हिदायत दे रहा है कि जब तुम्हारे मदीना वापस होने के बाद ये पीछे रह जानेवाले लोग आकर तुमसे ये बहाने बयान करें तो उनको यह जवाब देना, और ख़ैबर की मुहिम पर जाते वक़्त जब वे तुम्हारे साथ चलने की ख़ाहिश ज़ाहिर करें तो उनसे यह कहना।
قُل لِّلۡمُخَلَّفِينَ مِنَ ٱلۡأَعۡرَابِ سَتُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ قَوۡمٍ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ تُقَٰتِلُونَهُمۡ أَوۡ يُسۡلِمُونَۖ فَإِن تُطِيعُواْ يُؤۡتِكُمُ ٱللَّهُ أَجۡرًا حَسَنٗاۖ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ كَمَا تَوَلَّيۡتُم مِّن قَبۡلُ يُعَذِّبۡكُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 15
(16) इन पीछे छोड़े जानेवाले अरब बद्दुओं से कहना कि “बहुत जल्द तुम्हें ऐसे लोगों से लड़ने के लिए बुलाया जाएगा जो बड़े ताक़तवर हैं। तुमको उनसे जंग करनी होगी या वे फ़रमाँबरदार हो जाएँगे।30 उस वक़्त अगर तुमने जिहाद का हुक्म माना तो अल्लाह तुम्हें अच्छा बदला देगा, और अगर तुम फिर उसी तरह मुँह मोड़ गए जिस तरह पहले मोड़ चुके हो तो अल्लाह तुमको दर्दनाक सज़ा देगा।
30. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : ‘औ-युसलिमून' । इसके दो मतलब हो सकते हैं और दोनों ही मुराद हैं : एक यह कि वे इस्लाम क़ुबूल कर लें। दूसरा यह कि वे इस्लामी हुकूमत की फ़रमाँबरदारी क़ुबूल कर लें।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞۗ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَمَن يَتَوَلَّ يُعَذِّبۡهُ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 16
(17) अगर अन्धा और लंगड़ा और बीमार जिहाद के लिए न आए तो कोई हरज नहीं।31 जो कोई अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म मानेगा अल्लाह उसे उन जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, और जो मुँह फेरेगा उसे वह दर्दनाक अज़ाब देगा।"
31. यानी जिस आदमी के लिए जिहाद में शरीक होने में सचमुच कोई सही मजबूरी रुकावट हो उसपर तो कोई पकड़ नहीं, मगर हट्टे-कट्टे लोग अगर बहाने बनाकर बैठे रहें तो उनको अल्लाह और उसके दीन के मामले में मुख़लिस (सच्चा) नहीं माना जा सकता और उन्हें यह मौक़ा नहीं दिया जा सकता कि मुस्लिम समाज में शामिल होने के फ़ायदे तो समेटते रहें, मगर जब इस्लाम के लिए क़ुरबानियाँ देने का वक़्त आए तो अपनी जान-माल की ख़ैर मनाएँ। इस जगह पर यह बात जान लेनी चाहिए कि शरीअत में जिन लोगों को जिहाद में शरीक होने से माफ़ रखा गया है वे दो तरह के लोग हैं : एक वे जो जिस्मानी तौर पर जंग के क़ाबिल न हों, मसलन छोटी उम्र के लड़के, औरतें, पागल, अन्धे, ऐसे बीमार जो जंगी ख़िदमात अंजाम न दे सकते हों, और ऐसे मजबूर जो हाथ या पाँव बेकार होने की वजह से जंग में हिस्सा न ले सकें। दूसरे वे लोग जिनके लिए कुछ और दूसरी वजहों से जिहाद में शामिल होना मुश्किल हो, मसलन ग़ुलाम, या वे लोग जो लड़ने के लिए तैयार तो हों, मगर उनके लिए जंगी हथियार और दूसरे ज़रूरी सामान मुहैया न हो सकें, या ऐसे क़र्ज़दार जिन्हें जल्दी-से-जल्दी अपना क़र्ज़ अदा करना हो और जिसका क़र्ज़ हो वह उन्हें मुहलत न दे रहा हो, या ऐसे लोग जिनके माँ-बाप या उनमें से कोई एक ज़िन्दा हो और वह उसका मुहताज हो कि औलाद उसकी देख-भाल करे। इस सिलसिले में यह बयान करना भी जरूरी है कि माँ-बाप अगर मुसलमान हों तो औलाद को उनकी इजाज़त के बिना जिहाद पर न जाना चाहिए, लेकिन अगर वे ग़ैर-मुस्लिम हों तो उनके रोकने से किसी शख़्स का रुक जाना जाइज़ नहीं है।
۞لَّقَدۡ رَضِيَ ٱللَّهُ عَنِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ يُبَايِعُونَكَ تَحۡتَ ٱلشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِي قُلُوبِهِمۡ فَأَنزَلَ ٱلسَّكِينَةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَثَٰبَهُمۡ فَتۡحٗا قَرِيبٗا ۝ 17
(18) अल्लाह ईमानवालों से ख़ुश हो गया जब वे पेड़ के नीचे तुमसे बैअत (प्रतिज्ञा) कर रहे थे।32 उनके दिलों का हाल उसको मालूम था, इसलिए उसने उनपर सकीनत (शान्ति) उतारी,33 उनको इनाम में क़रीबी फ़तह दी,
32 यहाँ फिर उसी बैअत का ज़िक्र है जो हुदैबिया के मक़ाम पर सहाबा किराम (रज़ि०) से ली गई थी। इस बैअत को 'बैअते-रिज़वान' कहा जाता है, क्योंकि अल्लाह तआला ने इस आयत में यह ख़ुशख़बरी सुनाई है कि वह उन लोगों से राज़ी हो गया जिन्होंने इस ख़तरनाक मौक़े पर जान की बाज़ी लगा देने में ज़र्रा बराबर झिझक महसूस न की और रसूल (सल्ल०) के हाथ पर सरफ़रोशी की बैअत करके अपने सच्चे ईमानवाले होने का साफ़ सुबूत पेश कर दिया। वक़्त वह था कि मुसलमान सिर्फ़ एक-एक तलवार लिए हुए आए थे। सिर्फ़ चौदह सौ की तादाद में थे। जंगी लिबास में भी न थे, बल्कि एहराम की चादरें बाँधे हुए थे। अपने जंगी ठिकाने (मदीना) से ढाई सौ मील दूर थे, और दुश्मन का गढ़, जहाँ से वह हर क़िस्म की मदद ला सकता था, सिर्फ़ 13 मील की दूरी पर था। अगर अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और उसके दीन के लिए इन लोगों के अन्दर ख़ुलूस (निष्ठा) की कुछ भी कमी होती तो वे इस इन्तिहाई ख़तरनाक मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का साथ छोड़ जाते और इस्लाम की बाज़ी हमेशा के लिए हर जाती। उनके अपने ख़ुलूस (निष्ठा) के सिवा कोई बाहरी दबाव ऐसा न था जिसकी बुनियाद पर वे इस बैअत के लिए मजबूर होते। उनका उस वक़्त ख़ुदा के दीन के लिए मरने-मारने आमादा हो जाना इस बात की खुली दलील है कि वे अपने ईमान में सच्चे और मुख़लिस (निष्ठावान) और ख़ुदा और रसूल (सल्ल०) की वफ़ादारी में सबसे ऊँचे दरजे पर थे। इसी वजह से अल्लाह तआला ने उनको अपनी ख़ुशनूदी की यह सनद दे दी। और अल्लाह की रज़ामन्दी की सनद मिल जाने के बाद अगर कोई शख़्स उनसे नाराज़ हो, या उनको ताने दे तो उसका टकराव उनसे नहीं, बल्कि अल्लाह से है। इसपर जो लोग यह कहते हैं कि जिस वक़्त अल्लाह ने इन लोगों को यह ख़ुशनूदी और रज़ामन्दी की सनद दी थी उस वक़्त तो ये मुख़लिस (निष्ठावान) थे मगर बाद में ये ख़ुदा और रसूल (सल्ल०) के बेवफ़ा हो गए, वे शायद अल्लाह से यह बदगुमानी रखते हैं कि उसे यह आयत उतारते वक़्त उनके आनेवाले ज़माने (मुस्तक़बिल) की ख़बर न थी, इसलिए सिर्फ़ उस वक़्त की हालत देखकर उसने यह परवाना उन्हें दे दिया, और शायद इसी बेख़बरी की वजह से उसे अपनी पाक किताब में भी दर्ज कर दिया, ताकि बाद में भी, जब ये लोग बेवफ़ा हो जाएँ, उनके बारे में दुनिया यह आयत पढ़ती रहे और उस ख़ुदा के ग़ैब के इल्म की दाद देती रहे जिसने, अल्लाह माफ़ करे! उन बेवफ़ाओं को ख़ुशनूदी का यह परवाना दे दिया था। जिस पेड़ के नीचे यह बैअत हुई थी उसके बारे में हज़रत नाफ़े (रह०) की, जो इब्ने-उमर (रज़ि०) के आज़ाद किए हुए ग़ुलाम थे, यह रिवायत आम तौर पर मशहूर हो गई है कि लोग उसके पास जा-जाकर नमाज़ें पढ़ने लगे थे, हज़रत उमर (रज़ि०) को इसका पता चला तो उन्होंने लोगों को डाँटा और उस पेड़ को कटवा दिया, (तबक़ाते-इब्ने-साद, हिस्सा-2, पे० 100)। लेकिन कई रिवायतें इसके ख़िलाफ़ भी हैं। एक रिवायत ख़ुद हज़रत नाफ़े (रह०) ही से तबक़ाते-इब्ने-साद में यह नक़्ल हुई है कि 'बैअते-रिज़वान' के कई साल बाद सहाबा किराम (रज़ि०) ने उस पेड़ को तलाश किया, मगर उसे पहचान न सके और इस बात में इख़्तिलाफ़ हो गया कि वह पेड़ कौन-सा था, (पे० 105)। दूसरी रिवायत बुख़ारी, मुस्लिम और तबक़ाते-इब्ने-साद में हज़रत सईद-बिन-मुसय्यब (रह०) की है। वे कहते हैं कि मेरे बाप 'बैअते-रिज़वान' में शरीक थे। उन्होंने मुझसे कहा कि दूसरे साल जब हम लोग छूटे हुए उमरे के लिए गए तो हम उस पेड़ को भूल चुके थे, तलाश करने पर भी हम उसे न पा सके। तीसरी रिवायत इब्ने-जरीर (रह०) की है। वे कहते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी ख़िलाफ़त (हुकूमत) के ज़माने में जब हुदैबिया के मक़ाम से गुज़रे तो उन्होंने मालूम किया कि वह पेड़ कहाँ है जिसके नीचे बैअत हुई थी। किसी ने कहा फ़ुलाँ पेड़ है और किसी ने कहा फ़ुलाँ। इसपर हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, छोड़ो, इसके लिए तकलीफ़ उठाने की क्या ज़रूरत है!
33. यहाँ ‘सकीनत' से मुराद दिल की वह कैफ़ियत है जिसकी बुनियाद पर एक शख़्स किसी बड़े मक़सद के लिए ठण्डे दिल से पूरे सुकून और इत्मीनान के साथ अपने-आपको ख़तरे के मुँह में झोंक देता है और किसी डर या घबराहट के बिना फ़ैसला कर लेता है कि यह काम बहरहाल करने का है, चाहे नतीजा कुछ भी हो।
وَمَغَانِمَ كَثِيرَةٗ يَأۡخُذُونَهَاۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمٗا ۝ 18
(19) और ग़नीमत का बहुत-सा माल उन्हें दिया, जिसे वे (बहुत जल्द) हासिल करेंगे।34 अल्लाह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।
34. यह इशारा है ख़ैबर की फ़तह और उसमें हासिल हुए ग़नीमत के मालों की तरफ़। और यह आयत इस बात को वाज़ेह करती है कि अल्लाह तआला ने यह इनाम सिर्फ़ उन लोगों के लिए ख़ास कर दिया था जो 'बैअते-रिज़वान' में शरीक थे, उनके सिवा किसी को उस फ़तह और उन गनीमतों में शरीक होने का हक़ न था। इसी वजह से जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) सफ़र 7 हिजरी में ख़ैबर पर चढ़ाई करने के लिए निकले तो आप (सल्ल०) ने सिर्फ़ उन्हीं को अपने साथ लिया। इसमें शक नहीं कि बाद में नबी (सल्ल०) ने हबश से वापस आनेवाले मुहाजिरों और कुछ दौसी और अश्अरी सहाबियों को भी ख़ैबर के मालों में से कुछ हिस्सा दे दिया, मगर वह या तो पाँचवें हिस्से में से था, या बैअते-रिज़वान में शामिल होनेवालों की रज़ामन्दी से दिया गया। किसी को हक़ के तौर पर इस माल में हिस्सेदार नहीं बनाया गया।
وَعَدَكُمُ ٱللَّهُ مَغَانِمَ كَثِيرَةٗ تَأۡخُذُونَهَا فَعَجَّلَ لَكُمۡ هَٰذِهِۦ وَكَفَّ أَيۡدِيَ ٱلنَّاسِ عَنكُمۡ وَلِتَكُونَ ءَايَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَيَهۡدِيَكُمۡ صِرَٰطٗا مُّسۡتَقِيمٗا ۝ 19
(20) अल्लाह तुमसे ग़नीमत के बहुत सारे मालों का वादा करता है जिन्हें तुम हासिल करोगे।35 फ़ौरी तौर पर तो यह फ़तह उसने तुम्हें दे दी36 और लोगों के हाथ तुम्हारे ख़िलाफ़ उठने से रोक दिए,37 ताकि यह ईमानवालों के लिए एक निशानी बन जाए38 और अल्लाह सीधे रास्ते की तरफ़ तुम्हें हिदायत दे।39
35. इससे मुराद वे दूसरी फ़तह हैं जो ख़ैबर के बाद मुसलमानों को लगातार हासिल होती चली गई।
36. इससे मुराद है सुलह-हुदैबिया जिसको सूरा के शुरू में फ़तह-मुबीन कहा गया है।
37. यानी क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों को यह हिम्मत उसने न दी कि वे हुदैबिया के मक़ाम पर तुमसे लड़ जाते, हालाँकि तमाम ज़ाहिरी हालात के लिहाज़ से वे बहुत ज़्यादा बेहतर पोज़िशन में थे, और जंगी नज़रिए से तुम्हारा पल्ला उनके मुक़ाबले में बहुत कमज़ोर नज़र आता था। इसके अलावा इससे मुराद यह भी है कि किसी दुश्मन की ताक़त को इस ज़माने में मदीना पर भी हमला करने की हिम्मत न हुई, हालाँकि चौदह सौ लड़ाकुओं के निकल जाने के बाद मदीना का मोर्चा बहुत कमज़ोर हो गया था और यहूदी व मुशरिक और मुनाफ़िक़ इस मौक़े से फ़ायदा उठा सकते थे।
38. निशानी इस बात की कि जो अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) की फ़रमाँबरदारी पर जमा रहता है और अल्लाह के भरोसे पर हक़ और सच्चाई की हिमायत के लिए उठ खड़ा होता है उसे अल्लाह किस-किस तरह अपनी हिमायत और मदद से नवाज़ता है।
39. यानी तुम्हें और ज़्यादा सूझ-बूझ और यक़ीन हासिल हो, और आगे तुम इसी तरह अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) की फ़रमाँबरदारी पर क़ायम रहो और अल्लाह के भरोसे पर सच की राह में आगे बढ़ते चले जाओ, और ये तजरिबे तुम्हें यह सबक़ सिखा दें कि ख़ुदा का दीन जिस कार्रवाई का तक़ाज़ा कर रहा हो, मोमिन का काम यह है कि ख़ुदा के भरोसे पर वह कार्रवाई कर डाले, यह हिसाब लगाने में न लग जाए कि मेरी ताक़त कितनी है और बातिल (असत्य) की ताक़तों का ज़ोर कितना है।
وَأُخۡرَىٰ لَمۡ تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهَا قَدۡ أَحَاطَ ٱللَّهُ بِهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٗا ۝ 20
(21) इसके अलावा दूसरी और ग़नीमतों का भी वह तुमसे वादा करता है जिनपर तुम अभी तक क़ाबू नहीं पा सके हो और अल्लाह ने उनको घेर रखा है,40 अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
40. ज़्यादा इमकान इस बात का है कि यह इशारा फ़तहे-मक्का की तरफ़ है। यही राय क़तादा (रह०) की है और इसी को इब्ने-जरीर (रह०) ने तरजीह (प्राथमिकता) दी है। अल्लाह के फ़रमान का मतलब यह मालूम होता है कि अभी तो मक्का तुम्हारे क़ब्ज़े में नहीं आया है मगर अल्लाह ने उसे घेरे में ले लिया है और हुदैबिया की इस फ़तह के नतीजे में वह भी तुम्हारे क़ब्जे में आ जाएगा।
وَلَوۡ قَٰتَلَكُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوَلَّوُاْ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يَجِدُونَ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 21
(22) ये हक़ के इनकारी (दुश्मन) लोग अगर इस वक़्त तुमसे लड़ गए होते तो यक़ीनन पीठ फेर जाते और कोई हिमायती और मददगार न पाते।41
41. यानी हुदैबिया में जंग को अल्लाह ने इसलिए नहीं रोका कि वहाँ तुम्हारे हार जाने का इमकान था, बल्कि उसकी मस्लहत कुछ दूसरी थी जिसे आगे की आयतों में बयान किया जा रहा है। अगर वह मस्लहत रुकावट न होती और अल्लाह तआला इस जगह पर जंग हो जाने देता तो यक़ीनन इस्लाम-दुश्मनों ही की हार होती और मक्का उसी वक़्त फ़तह हो जाता।
سُنَّةَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلُۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗا ۝ 22
(23) यह अल्लाह की सुन्नत (रीति) है जो पहले से चली आ रही है,42 और तुम अल्लाह की सुन्नत में कोई तब्दीली न पाओगे।
42. इस जगह अल्लाह की सुन्नत (रीति) से मुराद यह है कि जो इस्लाम-मुख़ालिफ़ अल्लाह के रसूल से जंग करते हैं अल्लाह उनको बेइज़्ज़त और रुसवा करता है और अपने रसूल की मदद करता है।
وَهُوَ ٱلَّذِي كَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ عَنۡهُم بِبَطۡنِ مَكَّةَ مِنۢ بَعۡدِ أَنۡ أَظۡفَرَكُمۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا ۝ 23
(24) वही है जिसने मक्का की घाटी में उनके हाथ तुमसे और तुम्हारे हाथ उनसे रोक दिए, हालाँकि वह उनपर तुम्हें ग़लबा दे चुका था और जो कुछ तुम कर रहे थे अल्लाह उसे देख रहा था।
هُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ وَٱلۡهَدۡيَ مَعۡكُوفًا أَن يَبۡلُغَ مَحِلَّهُۥۚ وَلَوۡلَا رِجَالٞ مُّؤۡمِنُونَ وَنِسَآءٞ مُّؤۡمِنَٰتٞ لَّمۡ تَعۡلَمُوهُمۡ أَن تَطَـُٔوهُمۡ فَتُصِيبَكُم مِّنۡهُم مَّعَرَّةُۢ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۖ لِّيُدۡخِلَ ٱللَّهُ فِي رَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۚ لَوۡ تَزَيَّلُواْ لَعَذَّبۡنَا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابًا أَلِيمًا ۝ 24
(25) वही लोग तो हैं जिन्होंने कुफ़्र किया और तुमको मस्जिदे-हराम (काबा) से रोका और हद्य (क़ुरबानी) के ऊँटों को उनकी क़ुरबानी की जगह न पहुँचने दिया।43 अगर (मक्का में) ऐसे ईमानवाले मर्द और औरतें मौजूद न होतीं जिन्हें तुम नहीं जानते, और यह ख़तरा न होता कि अनजाने में तुम उन्हें कुचल दोगे और इससे तुम क़ुसूरवार ठहरोगे (तो जंग न रोकी जाती। रोकी वह इसलिए गई) ताकि अल्लाह अपनी रहमत में जिसको चाहे दाख़िल कर ले। वे ईमानवाले अलग हो गए होते तो (मक्कावालों में से) जो हक़ के इनकारी थे, उनको हम ज़रूर सख़्त सजा देते।44
43. यानी जिस ख़ुलूस (सच्चे दिल) और बे-नफ़्सी (निस्स्वार्थ भाव) के साथ तुम लोग सच्चे दीन के लिए सिर-धड़ की बाज़ी लगा देने पर तैयार हो गए थे और जिस तरह बिना ना-नुकुर किए रसूल (सल्ल०) का हुक्म मान रहे थे, अल्लाह उसे भी देख रहा था, और यह भी देख रहा था कि इस्लाम-मुख़ालिफ़ सरासर ज़्यादती कर रहे हैं। इस सूरते-हाल का तक़ाज़ा तो यह था कि वहीं और उसी वक़्त तुम्हारे हाथों से उनका सर कुचलवा दिया जाता। लेकिन इसके बावजूद एक मस्लहत थी जिसकी वजह से अल्लाह ने तुम्हारे हाथ उनसे और उनके हाथ तुमसे रोक दिए।
44. यह थी वह मस्लहत जिसकी वजह से अल्लाह तआला ने हुदैबिया में जंग न होने दी। इस मस्लहत के दो पहलू हैं : एक यह कि मक्का में उस वक़्त बहुत-से मुसलमान मर्द और औरत ऐसे मौजूद थे जिन्होंने या तो अपना ईमान छिपा रखा था, या जिनका ईमान मालूम था मगर वे अपनी बेबसी की वजह से हिजरत न कर सकते थे और ज़ुल्म व सितम के शिकार हो रहे थे। इस हालत में अगर जंग होती और मुसलमान इस्लाम-दुश्मनों को रगेदते हुए मक्का में दाख़िल होते तो दुश्मनों के साथ-साथ ये मुसलमान भी अनजाने में मुसलमानों के हाथों से मारे जाते, जिससे मुसलमानों को अपनी जगह भी दुख और अफ़सोस होता और अरब के मुशरिकों को भी यह कहने का मौक़ा मिल जाता कि ये लोग तो लड़ाई में ख़ुद अपने दीनी भाइयों को भी मारने से नहीं चूकते। इसलिए अल्लाह तआला ने उन बेबस मुसलमानों पर रहम खाकर, और सहाबा किराम (रज़ि०) को दुख और बदनामी से बचाने के लिए इस मौक़े पर जंग को टाल दिया। दूसरा पहलू इस मस्लहत का यह था कि अल्लाह तआला क़ुरैश को एक ख़ूँरेज़ (रक्तपातवाली) जंग में हरवाकर मक्का फ़तह कराना न चाहता था, बल्कि उसके सामने यह बात थी कि दो साल के अन्दर उनको हर तरफ़ से घेरकर इस तरह बेबस कर दे कि वे किसी मुख़ालफ़त के बिना हारकर मातहत हो जाएँ, और फिर पूरा-का-पूरा क़बीला इस्लाम क़ुबूल करके अल्लाह की रहमत में दाख़िल हो जाए, जैसा कि फ़तहे-मक्का के मौक़े पर हुआ। इस मक़ाम पर क़ानूनी (फ़िक़ही) बहस पैदा होती है कि अगर हमारी और इस्लाम-दुश्मनों की जंग हो रही हो और दुश्मनों के क़ब्ज़े में कुछ मुसलमान मर्द, औरतें, बच्चे और बूढ़े हों जिन्हें वे ढाल बनाकर सामने ले आएँ, या दुश्मनों के जिस शहर पर हम चढ़ाई कर रहे हों वहाँ कुछ मुसलमान आबादी भी मौजूद हो, या दुश्मनों का कोई जंगी जहाज़ हमारे निशाने पर हो और उसके अन्दर दुश्मनों ने कुछ मुसलमानों को भी रख छोड़ा हो, तो क्या ऐसी सूरत में हम उनपर गोलाबारी कर सकते हैं? इसके जवाब में इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) ने जो फ़ैसले दिए हैं वे इस तरह हैं— इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि इस हालत में गोलाबारी नहीं करनी चाहिए और इसके लिए वे इसी आयत को दलील क़रार देते हैं। उनका कहना यह है कि अल्लाह तआला ने मुसलमानों को बचाने के लिए ही तो हुदैबिया में जंग को रोक दिया, (अहकामुल-क़ुरआन, लिइब्निल-अरबी)। लेकिन हक़ीक़त में यह एक कमज़ोर दलील है। आयत में कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है जिससे यह बात निकलती हो कि ऐसी हालत में हमला करना हराम (अवैध) और नाजाइज़ है, बल्कि ज़्यादा-से-ज़्यादा इससे जो बात निकलती है वह यह है कि इस हालत में मुसलमानों को बचाने के लिए हमले से बचा जा सकता है, जबकि बचाव से यह ख़तरा न हो कि दुश्मनों को मुसलमानों पर ग़ल्बा (प्रभुत्त्व) हासिल हो जाएगा, या उनपर हमारे जीतने के मौक़े बाक़ी न रहेंगे। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०), इमाम ज़ुफ़र (रह०) और इमाम मुहम्मद (रह०) कहते हैं कि इन हालात में गोलाबारी करना बिलकुल जाइज़ है, यहाँ तक कि अगर दुश्मन मुसलमानों के बच्चों को ढाल बनाकर सामने ला खड़ा करें तब भी उनपर गोली चलाने में कोई हरज नहीं और जो मुसलमान इस हालत में मारे जाएँ उनके ख़ून का कोई कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) और कोई दियत (तावान) मुसलमानों पर वाजिब नहीं है। (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, किताबुस्सियर लिल-इमाम मुहम्मद, बाबु क़तइल-माइ अन अहलिल-हर्ब) इमाम सुफ़ियान सौरी (रह०) भी इस हालत में गोलाबारी को जाइज़ रखते हैं, मगर वे कहते हैं कि जो मुसलमान इस हालत में मारे जाएँ उनकी दियत (तावान) तो नहीं, अलबत्ता कफ़्फ़ारा मुसलमानों पर वाजिब है। (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) इमाम औज़ाई और लैस-बिन-साद (रह) कहते हैं कि अगर दुश्मन मुसलमानों को ढाल बनाकर सामने ले आएँ तो उनपर गोली नहीं चलानी चाहिए। इसी तरह अगर हमें मालूम हो कि उनके जंगी जहाज़ में ख़ुद हमारे क़ैदी भी मौजूद हैं, तो इस हालत में उसको डुबोना नहीं चाहिए। लेकिन अगर हम उनके किसी शहर पर हमला करें और हमें मालूम हो कि उस शहर में मुसलमान भी मौजूद हैं तो उसपर गोलाबारी करना जाइज़ है, क्योंकि यह बात यक़ीनी नहीं है कि हमारा गोला मुसलमानों ही पर जाकर गिरेगा, और अगर कोई मुसलमान इस गोलाबारी का शिकार हो जाए तो यह हमारी तरफ़ से जान-बूझकर मुसलमान का क़त्ल न होगा, बल्कि अनजाने में एक हादिसा होगा। (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) इमाम शाफ़िई (रह०) का मसलक यह है कि अगर इस हालत में गोलाबारी करना बहुत ज़रूरी न हो तो मुसलमानों को तबाही से बचाने की कोशिश करना बेहतर है। अगरचे इस सूरत में गोलाबारी करना हराम नहीं है, मगर मकरूह (नापसन्दीदा) ज़रूर है। लेकिन अगर वाक़ई इसकी ज़रूरत हो, और अन्देशा हो कि अगर ऐसा न किया जाएगा तो यह दुश्मनों के लिए जंगी हैसियत से फ़ायदेमन्द और मुसलमानों के लिए नुक़सानदेह होगा तो फिर गोलाबारी करना जाइज़ है, मगर इस हालत में भी मुसलमानों को बचाने की हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। इसके अलावा इमाम शाफ़िई (रह०) यह भी कहते हैं कि अगर जंग के मौक़े पर दुश्मन किसी मुसलमान को ढाल बनाकर आगे करें और कोई मुसलमान उसे क़त्ल कर दे तो इसकी दो शक्लें हैं : एक यह कि क़ातिल को मालूम था कि यह मुसलमान है, और दूसरी सूरत यह कि उसे मालूम न था कि यह मुसलमान है। पहली शक्ल में दियत और कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हैं, और दूसरी सूरत में सिर्फ़ कफ़्फ़ारा वाजिब है। (मुग़निल-मुहताज)
إِذۡ جَعَلَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡحَمِيَّةَ حَمِيَّةَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ فَأَنزَلَ ٱللَّهُ سَكِينَتَهُۥ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ وَعَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَأَلۡزَمَهُمۡ كَلِمَةَ ٱلتَّقۡوَىٰ وَكَانُوٓاْ أَحَقَّ بِهَا وَأَهۡلَهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 25
(26) (यही वजह है कि) जब हक़ के इन इनकारियों ने अपने दिलों में जहालत-भरी हमीयत (पक्षपात) बिठाली45 तो अल्लाह ने अपने रसूल और ईमानवालों पर सकीनत (शान्ति) उतारी46 और ईमानवालों को परहेज़गारी की बात का पाबन्द रखा कि वही उसके ज़्यादा हक़दार और उसके लायक़ थे। अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
45. जहालत-भरी 'हमीयत' से मुराद यह है कि एक शख़्स सिर्फ़ अपनी नाक की ख़ातिर या अपनी बात की तरफ़दारी में जान-बूझकर एक नामुनासिब काम करे। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ ख़ुद जानते और मानते थे कि हर आदमी को हज और उमरे के लिए बैतुल्लाह (काबा) की ज़ियारत का हक़ हासिल है, और किसी को इस मज़हबी फ़र्ज़ से रोकने का हक़ नहीं है। यह अरब का बहुत पुराना जाना-माना क़ानून था, लेकिन अपने-आपको सरासर नाहक़ पर और मुसलमानों को बिलकुल हक़ पर जानने के बावजूद उन्होंने सिर्फ़ अपनी नाक की ख़ातिर मुसलमानों को उमरे से रोका। ख़ुद मुशरिकों में से जो सच्चाई-पसन्द थे वे भी यह कह रहे थे कि जो लोग एहराम बाँधकर क़ुरबानी के ऊँट साथ लिए हुए उमरा करने आए हैं उनको रोकना एक ग़लत हरकत है, मगर क़ुरैश के सरदार सिर्फ़ इस ख़याल से मुख़ालफ़त करने पर अड़े रहे कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) इतने बड़े गरोह के साथ मक्का में दाख़िल हो गए तो तमाम अरब में हमारी नाक कट जाएगी। यही उनकी जहालत-भरी हमीयत (दुराग्रह) थी।
46. यहाँ ‘सकीनत' से मुराद है सब्र और वक़ार (गरिमा) है जिसके साथ नबी (सल्ल०) और मुसलमानों ने क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों की इस जहालत-भरी हमीयत (दुराग्रह) का मुक़ाबला किया। वे उनकी इस हठधर्मी और खुली ज़्यादती पर भड़ककर आपे से बाहर न हुए, और उनके जवाब में कोई बात उन्होंने ऐसी न की जो हक़ से आगे बढ़ी हुई और सच्चाई के ख़िलाफ़ हो, या जिससे मामला ठीक तरीक़े से सुलझने के बजाय और ज़्यादा बिगड़ जाए।
لَّقَدۡ صَدَقَ ٱللَّهُ رَسُولَهُ ٱلرُّءۡيَا بِٱلۡحَقِّۖ لَتَدۡخُلُنَّ ٱلۡمَسۡجِدَ ٱلۡحَرَامَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ مُحَلِّقِينَ رُءُوسَكُمۡ وَمُقَصِّرِينَ لَا تَخَافُونَۖ فَعَلِمَ مَا لَمۡ تَعۡلَمُواْ فَجَعَلَ مِن دُونِ ذَٰلِكَ فَتۡحٗا قَرِيبًا ۝ 26
(27) हक़ीक़त में अल्लाह ने अपने रसूल को सच्चा ख़ाब (सपना) दिखाया था जो ठीक-ठीक हक़ के मुताबिक़ था।47 इनशा-अल्लाह,48 (अगर अल्लाह ने चाहा तो) तुम ज़रूर मस्जिदे-हराम (काबा) में पूरे अम्न के साथ दाख़िल होगे,49 अपने सर मुंडवाओगे और बाल कटवाओगे,50 और तुम्हें कोई डर न होगा। वह उस बात को जानता था जिसे तुम न जानते थे, इसलिए वह ख़ाब पूरा होने से पहले उसने यह क़रीब की फ़तह तुमको अता कर दी।
47. यह उस सवाल का जवाब है जो बार-बार मुसलमानों के दिलों में खटक रहा था। वे कहते थे कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ाब तो यह देखा था कि आप (सल्ल०) मस्जिदे-हराम (काबा) में दाख़िल हुए हैं और बैतुल्लाह का तवाफ़ किया है, फिर यह क्या हुआ कि हम उमरा किए बिना वापस जा रहे हैं। इसके जवाब में अगरचे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमा दिया था कि ख़ाब में इसी साल उमरा होने की बात तो न की थी, मगर इसके बावजूद अभी तक कुछ-न-कुछ चुभन दिलों में बाक़ी थी। इसलिए अल्लाह तआला ने ख़ुद यह वज़ाहत फ़रमाई कि वह ख़ाब हमने दिखाया था, और वह बिलकुल सच्चा था, और वह यक़ीनन पूरा होकर रहेगा।
48. यहाँ अल्लाह तआला ने ख़ुद अपने वादे के साथ 'इनशा-अल्लाह' के अलफ़ाज़ जो इस्तेमाल किए हैं, उसपर एक एतिराज़ करनेवाला यह सवाल कर सकता है कि जब यह वादा अल्लाह तआला ख़ुद ही कर रहा है तो उसके साथ अल्लाह के चाहने की शर्त लगाने का क्या मतलब है? इसका जवाब यह है कि यहाँ ये अलफ़ाज़ इस मानी में इस्तेमाल नहीं हुए हैं कि अगर अल्लाह न चाहेगा तो अपना यह वादा पूरा न करेगा, बल्कि अस्ल में इनका ताल्लुक़ उस पसमंज़र से है जिसमें यह वादा किया गया है। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने जिस घमंड (दंभ) की बुनियाद पर मुसलमानों को उमरे से रोकने का यह सारा खेल खेला था वह यह था कि जिसको हम उमरा करने देना चाहेंगे वह उमरा कर सकेगा, और जब हम उसे करने देंगे उसी वक़्त वह कर सकेगा। इसपर अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि यह उनकी मरज़ी पर नहीं बल्कि हमारी मरज़ी पर है। इस साल उमरे का न हो सकना इसलिए नहीं हुआ कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने यह चाहा था कि वह न हो, बल्कि यह इसलिए हुआ कि हमने उसको न होने देना चाहा था। और आइन्दा यह उमरा अगर हम चाहेंगे तो होगा चाहे मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ चाहें या न चाहें। इसके साथ इन अलफ़ाज़ में यह मतलब भी छिपा है कि मुसलमान भी जो उमरा करेंगे तो अपने ज़ोर से नहीं करेंगे, बल्कि इस वजह से करेंगे कि हमारी मरज़ी यह होगी कि वे उमरा करें। वरना हमारी मरज़ी अगर इसके ख़िलाफ़ हो तो उनका यह बल-बूता नहीं है कि ख़ुद उमरा कर डालें।
49. यह वादा अगले साल ज़ी-क़ादा7 हिजरी में पूरा हुआ। इतिहास में यह उमरा 'उम-रतुल-क़ज़ा' (सुलह-हुदैबिया के बाद अगले साल किए जानेवाला उमरा) के नाम से मशहूर है।
50. ये अलफ़ाज़ इस बात की दलील हैं कि उमरे और हज में सर मुंडवाना लाज़िम नहीं है, बल्कि कुछ बाल कटवा लेना भी जाइज़ है। अलबत्ता सर मुंडवाना ज़्यादा बेहतर है, क्योंकि अल्लाह तआला ने इसे पहले बयान किया है और बाल कटवाने का ज़िक्र बाद में किया है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدٗا ۝ 27
(28) वह अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चे दीन के साथ भेजा है, ताकि उसको पूरे-के-पूरे दीन पर ग़ालिब (हावी) कर दे और इस हक़ीक़त पर अल्लाह की गवाही काफ़ी है।51
51. इस जगह पर यह बात कहने की वजह यह है कि हुदैबिया में जब समझौता-नामा लिखा जाने लगा, उस वक़्त मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने नबी (सल्ल०) के मुबारक नाम के साथ 'रसूलुल्लाह' (अल्लाह के रसूल) के अलफ़ाज़ लिखने पर एतिराज़ किया था और उनके ज़िद करने पर नबी (सल्ल०) ने ख़ुद समझौते की तहरीर में से ये अलफ़ाज़ मिटा दिए थे। इसपर अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि हमारे रसूल का रसूल होना तो एक हक़ीक़त है जिसमें किसी के मानने या न मानने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उसको अगर कुछ लोग नहीं मानते तो न मानें। उसके हक़ीक़त होने पर सिर्फ़ हमारी गवाही काफ़ी है। उनके इनकार कर देने से यह हक़ीक़त बदल नहीं जाएगी, बल्कि उनकी मरज़ी के ख़िलाफ़ उस हिदायत और उस सच्चे दीन को पूरे-के-पूरे दीन पर ग़ल्बा (प्रभुत्त्व) हासिल होकर रहेगा जिसे लेकर यह रसूल हमारी तरफ़ से आया है, चाहे ये इनकार करनेवाले उसे रोकने के लिए कितना ही ज़ोर मारकर देख लें। 'पूर-के-पूरे दीन' से मुराद ज़िन्दगी के वे तमाम निज़ाम हैं जो 'दीन' की तरह के हैं। इसकी तफ़सीली तशरीह हम इससे पहले तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-3 और सूरा-42 शूरा, हाशिया-20 में कर चुके हैं। यहाँ जो बात अल्लाह तआला ने साफ़ अलफ़ाज़ में फ़रमाई है वह यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी बनाकर भेजे जाने का मक़सद सिर्फ़ इस दीन की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) न था, बल्कि उसे दीन की तरह के तमाम निज़ामों (व्यवस्थाओं) पर ग़ालिब कर देना था। दूसरे अलफ़ाज़ में आप (सल्ल०) यह दीन इसलिए नहीं लाए थे कि ज़िन्दगी के सारे पहलुओं पर तो कोई और ही बातिल दीन छाया हुआ हो और उसके दबाव के तहत यह दीन उन हदों के अन्दर सिकुड़कर रहे जिनमें हावी रहनेवाला दीन इसे जीने की इजाज़त दे दे, बल्कि इसे आप (सल्ल०) इसलिए लाए थे कि ज़िन्दगी का ग़ालिब दीन यह हो और दूसरा कोई दीन अगर जिए भी तो उन हदों के अन्दर जिए जिनमें यह उसे जीने की इजाज़त दे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-48)
مُّحَمَّدٞ رَّسُولُ ٱللَّهِۚ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ أَشِدَّآءُ عَلَى ٱلۡكُفَّارِ رُحَمَآءُ بَيۡنَهُمۡۖ تَرَىٰهُمۡ رُكَّعٗا سُجَّدٗا يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗاۖ سِيمَاهُمۡ فِي وُجُوهِهِم مِّنۡ أَثَرِ ٱلسُّجُودِۚ ذَٰلِكَ مَثَلُهُمۡ فِي ٱلتَّوۡرَىٰةِۚ وَمَثَلُهُمۡ فِي ٱلۡإِنجِيلِ كَزَرۡعٍ أَخۡرَجَ شَطۡـَٔهُۥ فَـَٔازَرَهُۥ فَٱسۡتَغۡلَظَ فَٱسۡتَوَىٰ عَلَىٰ سُوقِهِۦ يُعۡجِبُ ٱلزُّرَّاعَ لِيَغِيظَ بِهِمُ ٱلۡكُفَّارَۗ وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ مِنۡهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمَۢا ۝ 28
(29) मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं, और जो लोग उनके साथ वे हक़ के इनकारियों पर सख़्त52 और आपस में रहम करनेवाले हैं।53 तुम जब देखोगे उन्हें रुकू और सजदे और अल्लाह की मेहरबानी और उसकी ख़ुशनूदी की तलब में मशग़ूल पाओगे। सजदों के असरात उनके चेहरों पर मौजूद हैं जिनसे वे अलग पहचाने जाते हैं।54 यह है।उनकी ख़ूबी तौरात में।55 और इंजील में उनकी मिसाल यूँ दी गई है कि56 मानो एक खेती है जिसने पहले कोंपल निकाली, फिर उसको ताक़त दी, फिर वह गदराई, फिर अपने तने पर खड़ी हो गई। खेती करनेवालों को वह ख़ुश करती है, ताकि हक़ के इनकारी उनके फलने-फूलने पर जलें। इस गरोह के लोग जो ईमान लाए हैं और जिन्होंने नेक अमल किए हैं, अल्लाह ने उनसे मग़फ़िरत और बड़े अज्र (बदले) का वादा किया है57
52. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'अशिद्दाउ अलल-कुफ़्फ़ार'। अरबी ज़बान में कहते हैं 'फ़ुलानुन शदीदुन अलैहि' यानी 'फ़ुलाँ शख़्स उसपर शदीद है' यानी उसको राज़ी करना और अपने मतलब पर लाना उसके लिए मुश्किल है। कुफ़्र करनेवालों पर नबी (सल्ल०) के सहाबियों (रज़ि०) के सख़्त होने का मतलब यह नहीं है कि वे कुफ़्र करनेवालों के साथ सख़्ती और रूखेपन से पेश आते हैं, बल्कि इसका मतलब यह है कि वे अपने ईमान के पक्के होने, उसूलों की मज़बूती, सीरत की ताक़त और ईमानी सूझ-बूझ की वजह से कुफ़्र करनेवालों के मुक़ाबले में पत्थर की चट्टान की तरह हैं। वे मोम की नाक नहीं हैं कि उन्हें कुफ़्र करनेवाले जिधर चाहें मोड़ दें। वे नर्म चारा नहीं हैं कि कुफ़्र करनेवाले उन्हें आसानी के साथ चबा जाएँ। उन्हें किसी डर-ख़ौफ़ से दबाया नहीं जा सकता। उन्हें किसी लालच से ख़रीदा नहीं जा सकता। कुफ़्र (ख़ुदा का इनकार) करनेवालों में यह ताक़त नहीं है कि उन्हें उस बड़े मक़सद से हटा दें जिसके लिए वे सर-धड़ की बाज़ी लगाकर मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देने के लिए उठे हैं।
53. यानी उनकी सख़्ती जो कुछ भी है दीन के दुश्मनों के लिए है, ईमानवालों के लिए नहीं है। ईमानवालों के मुक़ाबले में वे नर्म हैं, रहम करनेवाले हैं, हमदर्द और दुख में काम आनेवाले हैं। उसूल और मक़सद के एक होने ने उनके अन्दर एक-दूसरे के लिए मुहब्बत, एकरंगी और साज़गारी (अनुकूलता) पैदा कर दी है।
54. इससे मुराद माथे का वह गट्टा नहीं है जो सजदे करने की वजह से कुछ नमाज़ियों के चेहरे पर पड़ जाता है। बल्कि इससे मुराद ख़ुदा से डरने, रहमदिली, शराफ़त और अच्छे अख़लाक़ की वे निशानियाँ हैं जो ख़ुदा के आगे झुकने की वजह से फ़ितरी तौर पर आदमी के चेहरे पर नुमायाँ हो जाती हैं। इनसान का चेहरा एक खुली किताब होता है, जिसके पन्नों पर आदमी के मन की कैफ़ियत आसानी से देखी जा सकती हैं। एक घमंडी इनसान का चेहरा एक नर्म-मिज़ाज (विनम्र) आदमी के चेहरे से अलग होता है। एक बुरे अख़लाक़वाले आदमी का चेहरा एक शरीफ़ और अच्छे अख़लाक़वाले आदमी के चेहरे से अलग पहचाना जाता है। एक लफंगे और दुराचारी आदमी की सूरत और एक शरीफ़ पाकबाज़ आदमी की सूरत में नुमायाँ फ़र्क़ होता है। अल्लाह तआला के फ़रमान का मक़सद यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) के ये साथी तो ऐसे हैं कि उनको देखते ही कोई भी आदमी एक ही नज़र में यह मालूम कर सकता है कि ये भले लोग हैं, क्योंकि ख़ुदा-परस्ती का नूर उनके चेहरों पर चमक रहा है। ये वही चीज़ है जिसके बारे में इमाम मालिक (रह०) बयान करते हैं कि जब सहाबा किराम (रज़ि०) की फ़ौजें शाम (सीरिया) की सरज़मीन में दाख़िल हुईं तो शाम के ईसाई कहते थे कि मसीह के हवारियों की जो शान हम सुनते थे, ये तो उसी शान के लोग नज़र आते हैं।
55. शायद यह इशारा बाइबल की किताब 'व्यवस्था विवरण', अध्याय 33, आयतें—2, 3, की तरफ़ है, जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आने का ज़िक्र करते हुए आप (सल्ल०) के सहाबा के लिए 'पवित्र लोगों' (क़ुदसियों) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। इसके सिवा अगर सहाबा किराम (रज़ि०) की कोई सिफ़त (गुण) तौरात में बयान हुई थी, तो वह अब मौजूदा फेर-बदल का शिकार हो चुकी तौरात में नहीं मिलती।
56. यह मिसाल हज़रत ईसा (अलैहि०) की एक नसीहत-भरी तक़रीर में बयान हुई है, जिसे बाइबल के नए नियम की किताब में इस तरह नक़्ल किया गया है— "और उसने कहा ख़ुदा की बादशाही ऐसी है जैसे कोई आदमी ज़मीन में बीज डाले और रात को सोए और दिन को जागे, और वह बीज इस तरह उगे और बढ़े कि वह न जाने। ज़मीन आप-से-आप फल लाती है। पहले पत्ती, फिर बालियाँ, फिर बालियों में तैयार दाने, फिर जब अनाज पक चुका तो वह फ़ौरन दराँती लगाता है क्योंकि काटने का वक़्त आ पहुँचा। वह राई के दाने की तरह है कि जब ज़मीन में बोया जाता है तो ज़मीन के सब बीजों से छोटा होता है, मगर जब बो दिया गया तो उगकर सब तरकारियों से बड़ा हो जाता है, और ऐसी बड़ी डालियाँ निकालता है कि परिन्दे उसके साए में बसेरा कर सकते हैं।” (मरकुस, अध्याय-4, आयतें—26 से 32, इस तक़रीर का आख़िरी हिस्सा बाइबल मत्ती, अध्याय-13, आयतें—31, 32 में भी है)
57. एक गरोह इस आयत में 'मिनहुम' की 'मिन' को 'कुछ' के मानी में लेता है और आयत का तर्जमा यह करता है कि “उनमें से जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए अल्लाह ने उनसे मग़फ़िरत और बड़े बदले का वादा किया है।” इस तरह ये लोग सहाबा (रज़ि०) को बुरा-भला कहने का रास्ता निकालते हैं और दावा करते हैं कि इस आयत के मुताबिक़ सहाबा में से बहुत-से लोग नेक और ईमानवाले न थे। लेकिन यह तफ़सीर इसी सूरा की आयतें—4, 5, 18 और 26 के ख़िलाफ़ पड़ती है, और ख़ुद इस आयत के शुरुआती जुमलों से भी मेल नहीं खाती। आयतें—4, 5 में अल्लाह तआला ने उन तमाम सहाबा के दिलों में सकीनत उतारे जाने और उनके ईमान को बढ़ाने का ज़िक्र किया है जो हुदैबिया में नबी (सल्ल०) के साथ थे, और किसी को अलग किए बिना उन सबको जन्नत में दाख़िल होने की ख़ुशख़बरी दी है। आयत-18 में अल्लाह तआला ने उन सब लोगों के हक़ में अपनी ख़ुशनूदी (रज़ामन्दी) ज़ाहिर की है जिन्होंने पेड़ के नीचे नबी (सल्ल०) से बैअत की थी, और उसमें भी किसी को अलग नहीं किया गया है। आयत-26 में भी नबी (सल्ल०) के तमाम साथियों के लिए 'मोमिनीन' (ईमानवालों) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है, उनके ऊपर अपनी सकीनत उतारने की ख़बर दी है, और फ़रमाया है कि ये लोग तक़वा (परहेज़गारी) की पाबन्दी के ज़्यादा हक़दार और इसके लायक़ हैं। यहाँ भी यह नहीं फ़रमाया कि उनमें से जो मोमिन हैं सिर्फ़ उन्हीं के हक़ में यह ख़बर दी जा रही है। फिर ख़ुद इस आयत के शुरुआती जुमलों में जो तारीफ़ बयान की गई है वह उन सब लोगों के लिए है जो अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) के साथ थे। अलफ़ाज़ ये हैं कि जो लोग भी आप (सल्ल०) के साथ हैं, वे ऐसे और ऐसे हैं। इसके बाद एकाएक आख़िरी जुमले पर पहुँचकर यह बात कहने का आख़िर क्या मौक़ा हो सकता था कि उनमें से कुछ लोग ईमानवाले और नेक थे और कुछ न थे। इसलिए यहाँ 'मिन' को 'कुछ' के मानी में लेना सही नहीं है। अस्ल में यहाँ 'मिन' बयान के लिए है, जिस तरह सूरा-22 हज, आयत-20 'फ़ज्तनिबुर-रिज-स मिनल-औसान' (बुतों की गन्दगी से बचो) में 'मिन' 'कुछ' के लिए नहीं, बल्कि 'लाज़िमन' बयान ही के लिए है, वरना आयत का मतलब यह हो जाएगा कि “बुतों में से जो नापाक हैं उनसे परहेज़ करो।” और इससे यह नतीजा निकलेगा कि कुछ बुत पाक भी क़रार पाएँगे जिनकी पूजा से परहेज़ लाज़िम न होगा।