Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ المَائـِدَةِ

  1. अल-माइदा

(मदीना में उतरी, आयतें 120)

परिचय

नाम:

इस सूरा का नाम पंद्रहवें रुकूअ की आयत-112 'हल यस्ततीउ रब्बु-क अंय्युनज़्ज़ि-ल अलैना माइदतम मिनस्समाइ' (क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक ख़्वान (थाल) उतार सकता है?) के शब्द ‘माइदा' से लिया गया है।

उतरने का समय

सूरा के विषयों से स्पष्ट होता है और रिवायतों से इसकी पुष्टि होती है कि यह “हुदैबिया की संधि” के बाद सन् 06 हि० के आख़िर या सन् 07 हि० के शुरू में उतरी है। ज़ी-कादा सन् 06 हि० की घटना है कि नबी (सल्ल.) चौदह सौ मुसलमानों के साथ उमरा करने के लिए मक्का तशरीफ़ ले गए। परन्तु सत्य के विरोधी कुरैशियों ने दुश्मनी के जोश में अरब की प्राचीनतम धार्मिक परम्पराओं के विपरीत आपको उमरा न करने दिया और बड़े वाद-विवाद के बाद यह बात स्वीकार की कि अगले साल आप (सल्ल.) ज़ियारत (दर्शन) के लिए आ सकते हैं। इस अवसर पर ज़रूरत आ पड़ी कि मुसलमानों को एक ओर तो काबा की ज़ियारत के लिए सफ़र के आदाब (नियम) बताए जाएँ और दूसरी ओर उन्हें ताकीद की जाए कि विधर्मो दुश्मनों ने उन्हें उमरा से रोककर जो अन्याय किया है, उसके उत्तर में वे स्वयं कोई उत्पीड़न का पथ न अपनाएँ, इसलिए कि बहुत-से विरोधी क़बीलों के हज का मार्ग इस्लामी इलाक़ों से होकर जाता था और मुसलमानों के लिए यह संभव था कि जिस तरह इन्हें काबे की ज़ियारत से रोका गया है, उसी तरह वे भी उनको रोक दें।

उतरने का कारण

सूरा आले इमरान और सूरा निसा के उतरने के समय से इस सूरा के उतरने तक पहुँचते-पहुँचते परिस्थितियों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो चुका था। या तो वह समय था कि उहुद की लड़ाई के सदमे ने मुसलमानों के लिए मदीना के क़रीबी माहौल को भी ख़तरनाक बना दिया था या अब यह समय आ गया कि अरब में इस्लाम एक अजेय शक्ति दिखाई पड़ने लगा और इस्लामी राज्य एक ओर नज्द तक, दूसरी ओर शाम (सीरिया) की सीमाओं तक, तीसरी ओर लाल सागर के तट पर और चौथी ओर मक्का के क़रीब तक फैल गया। अब इस्लाम मात्र एक अक़ीदा और दृष्टिकोण ही न था जिसका शासन सिर्फ़ दिलों और दिमाग़ों तक सीमित हो, बल्कि वह एक स्टेट भी था जिसकी हुक्मरानी व्यावहारिक रूप से अपनी सीमाओं में रहनेवाले तमाम लोगों के जीवन पर छाई हुई थी।

फिर इन कुछ वर्षों में इस्लामी सिद्धान्तों एवं धारणाओं के अनुसार मुसलमानों की अपनी एक स्थायी सभ्यता बन चुकी थी जो जीवन के तमाम क्षेत्रों में दूसरों से अलग अपना एक विशिष्ट गौरव रखती थी। नैतिकता, रहन-सहन, संस्कृति, हर चीज़ में अब मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों से बिल्‍कुल अलग पहचाने जाते थे। इस्‍लामी जीवन का ऐसा पूर्ण स्‍वरूप बन जाने के बाद ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इस ओर से पूरे तौर पर निराश हो चुकी थी कि ये लोग, जिनकी अपनी एक अलग संस्कृति बन चुकी है, फिर कभी उनमें आ मिलेंगे। हुदैबिया में समझौते से पहले तक मुसलमानों के रास्ते में एक बड़ी रुकावट यह थी कि वे करैशी विरोधियों के साथ एक लगातार संघर्ष में उलझे हुए थे और उन्हें अपने आह्वान का क्षेत्र विस्तृत करने की छूट न मिलती थी। इस रुकावट को हुदैबिया की बाह्य किन्तु वास्तविक जीत ने दूर कर दिया। इससे उनको न केवल यह कि अपने राज्य की सीमाओं में शान्ति मिल गई, बल्कि इतनी मोहलत भी मिल गई कि आस-पास के क्षेत्रों में इस्लाम की दावत को लेकर फैल जाएँ।

वार्ताएँ

ये परिस्थितियाँ थीं जब सूरा माइदा उतरी। यह सूरा नीचे लिखे तीन बड़े-बड़े विषयों पर सम्मिलित है-

  1. मुसलमानों के धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन के बारे में और अधिक आदेश और मार्गदर्शन- इस संबंध में हज के सफ़र के तरीक़े तय किए गए। अल्लाह की निशानियों के सम्मान का और काबे की ज़ियारत करनेवालों को न छेड़ने का आदेश दिया गया, खाने-पीने की चीज़ों में हराम और हलाल की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित की गईं और अज्ञानकाल के मनगढ़ंत बन्धनों को तोड़ दिया गया, अहले-किताब (किताबवालों) के साथ खाने-पीने और उनकी औरतों से निकाह करने की इजाज़त दी गई, वुज़ू और तयम्मुम और ग़ुस्ल (स्‍नान) की विधियाँ निश्चित की गई, विद्रोह करने, बिगाड़ पैदा करने और चोरी करने की सज़ाएँ तय की गईं, शराब और जुए को पूर्ण रूप से हराम कर दिया गया, क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) मुक़र्रर किया गया और गवाही के क़ानून में कुछ और धाराओं को बढ़ाया गया।
  2. मुसलमानों को नसीहत : अब चूँकि मुसलमान एक शासक समुदाय बन चुके थे, इसलिए उनको सम्बोधित करते हुए बार-बार नसीहत की गई कि न्याय पर जमे रहें, अपने से पूर्व गुज़रे हुए किताबबालों के आचरण से बचें। अल्लाह के आज्ञापालन और उसके आदेशों की पैरवी का जो वचन उन्होंने दिया उसपर अटल रहें।
  3. यहूदियों और ईसाइयों को ताकीद : यहूदियों का ज़ोर अब टूट चुका था और उत्तरी अरब की लगभग समस्त यहूदी बस्तियाँ मुसलमानों के अधीन हो गई थीं। इस अवसर पर उनको एक बार फिर उनकी ग़लत नीति पर सचेत किया गया और सीधे रास्ते पर आने का आह्वान किया गया। साथ ही चूँकि हुदैबिया के समझौते के कारण अरब और पड़ोसी देशों की क़ौमों में इस्लाम के प्रचार-प्रसार का सुअवसर निकल आया था, इसलिए ईसाइयों को भी सविस्तार सम्बोधित करके उनके अक़ीदों (विश्वासों) की ग़लतियाँ बताई गई हैं और उन्हें अरबी नबी पर ईमान लाने का आह्वान किया गया है।

---------------------

سُورَةُ المَائـِدَةِ
5. अल-माइदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَوۡفُواْ بِٱلۡعُقُودِۚ أُحِلَّتۡ لَكُم بَهِيمَةُ ٱلۡأَنۡعَٰمِ إِلَّا مَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ غَيۡرَ مُحِلِّي ٱلصَّيۡدِ وَأَنتُمۡ حُرُمٌۗ إِنَّ ٱللَّهَ يَحۡكُمُ مَا يُرِيدُ
(1) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बन्दिशों की पूरी पाबन्दी करो।1 तुम्हारे लिए मवेशी की क़िस्म के सब जानवर हलाल किए गए,2 सिवाय उनके जो आगे चलकर तुमको बताए जाएँगे। लेकिन इहराम की हालत में शिकार को अपने लिए हलाल न कर लो।3 बेशक अल्लाह जो चाहता है हुक्म देता है।4
1. यानी उन बन्दिशों और शर्तों की पाबन्दी करो जो इस सूरा तुम पर लगाई जा रही हैं, और जो आम तौर से ख़ुदा की शरीअत में तुम पर लगाई गई हैं। इस छोटे-से शुरुआती जुमले के बाद ही उन बन्दिशों और शतों का बयान शुरू हो जाता है जिनकी पाबन्दी का हुक्म दिया गया है।
2. अस्ल अरबी में ‘अनआम’ (मवेशी) का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। यह लफ़्ज़ ऊँट, गाय, भेड़ और बकरी के लिए बोला जाता है और ‘बहीमा’ का लफ़्ज़ हर चरनेवाले चौपाए के लिए बोला गया है। अगर अल्लाह ने यह फ़रमाया होता कि अनआम तुम्हारे लिए हलाल किए गए तो इससे सिर्फ़ वही चार जानवर हलाल होते जिन्हें अरबी में अनआम कहते हैं। लेकिन हुक्म इन लफ़्ज़ों में दिया गया है कि “मवेशी की क़िस्म के चरनेवाले चौपाए तुम पर हलाल किए गए।” इससे हुक्म में बड़ी वुसअत और फैलाव पैदा हो जाता है और सब चरनेवाले जानवर इसके दायरे में आ जाते हैं जो मवेशी की क़िस्म के हों। यानी जो कुचलियाँ (नुकीले दाँत) न रखते हों। गोश्त के बजाय पेड़-पौधे, घास-फूस खाते हों और दूसरी हैवानी ख़ुसूसियतों में अरब के मवेशियों से मिलते-जुलते हों। साथ ही इससे इशारों में यह बात भी सामने आती है कि वे चौपाए जो मवेशियों के बरख़िलाफ़ कुचलियाँ रखते हों और दूसरे जानवरों को मारकर खाते हों हलाल नहीं हैं। इसी इशारे को नबी (सल्ल०) ने वाज़ेह करके हदीस में साफ़ हुक्म दे दिया कि दरिन्दे (हिंसक पशु) हराम हैं। इसी तरह नबी (सल्ल०) ने उन परिन्दों को भी हराम ठहराया जिनके पंजे होते हैं और जो दूसरे जानवरों का शिकार करके खाते हैं या मुरदार खाते हैं। इब्ने-अब्बास की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने हर दाँतवाले दरिन्दे का गोश्त खाने से मना किया है और हर ऐसे परिन्दे का गोश्त खाने से मना किया है जिसके शिकार करनेवाले पंजे हों जिनसे वह शिकार करता हो। दूसरे बहुत-से सहाबा से भी इसकी ताईद में रिवायतें बयान हुई हैं।
3. 'इहराम' उस फ़क़ीराना लिबास को कहते हैं जो काबा की जियारत के लिए पहना जाता है। काबा के आस-पास कई-कई मंज़िल के फ़ासले पर एक हद मुक़र्रर कर दी गई है जिससे आगे बढ़ने की किसी ज़ियारत करनेवाले को इजाज़त नहीं है जब तक कि वह अपना आम लिबास उतारकर इहराम का लिबास न पहन ले। इहराम में सिर्फ़ एक तहमद होता है और एक चादर, जो ऊपर से ओढ़ी जाती है। इसे इहराम इसलिए कहते हैं कि इसे बाँधने के बाद आदमी पर बहुत-सी वे चीज़ें हराम हो जाती हैं जो आम हालतों में हलाल हैं। जैसे हजामत, ख़ुशबू का इस्तेमाल, हर क़िस्म का बनाव-सिंगार और शहवत पूरी करना (वासना-पूर्ति) वग़ैरा। इन्हीं पाबन्दियों में से एक यह भी है कि किसी जानदार को हलाक न किया जाए, न शिकार किया जाए और न किसी को शिकार का पता दिया जाए।
4. यानी अल्लाह सारे इख़्तियारात रखनेवाला हाकिम है, उसे पूरा इख़्तियार है कि जो चाहे हुक्म दे। बन्दों को उसके अहकाम (आदेशों) में चूँ-चिरा करने का कोई हक़ नहीं। हालाँकि उसके सभी अहकाम हिकमत (तत्त्वदर्शिता) और मस्लहत की बुनियाद पर होते हैं, लेकिन एक मुस्लिम बन्दा उसके हुक्म इताअत इस हैसियत से नहीं करता कि वह उसे मुनासिब पाता है या मस्लहत पर मबनी (आधारित) समझता है, बल्कि सिर्फ़ इस बुनियाद पर करता है कि यह मालिक का हुक्म है। जो चीज़ उसने हराम कर दी है वह सिर्फ़ इसलिए हराम है कि उसने हराम की है और इसी तरह जो उसने हलाल कर दी है वह भी किसी दूसरी बुनियाद पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ इस बुनियाद पर हलाल है कि जो ख़ुदा उन सारी चीज़ों का मालिक है, वह अपने ग़ुलामों को उस चीज़ के इस्तेमाल की इजाज़त देता है। इसलिए क़ुरआन पूरे ज़ोर के साथ यह उसूल क़ायम करता है कि चीज़ों को हराम और हलाल होने के लिए मालिक की मनाही (निषेध)। इजाज़त के सिवा किसी और बुनियाद की बिलकुल ज़रूरत नहीं और इसी तरह बन्दे के लिए किसी काम के जाइज़ होने या न होने का दारोमदार भी इसके सिवा और किसी चीज़ पर नहीं कि ख़ुदा जिसको जाइज़ रखे वह जाइज़ है और जिसे नाजाइज़ करार दे वह नाजाइज़।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحِلُّواْ شَعَٰٓئِرَ ٱللَّهِ وَلَا ٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَلَا ٱلۡهَدۡيَ وَلَا ٱلۡقَلَٰٓئِدَ وَلَآ ءَآمِّينَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّهِمۡ وَرِضۡوَٰنٗاۚ وَإِذَا حَلَلۡتُمۡ فَٱصۡطَادُواْۚ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ أَن صَدُّوكُمۡ عَنِ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ أَن تَعۡتَدُواْۘ وَتَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡبِرِّ وَٱلتَّقۡوَىٰۖ وَلَا تَعَاوَنُواْ عَلَى ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 1
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, ख़ुदापरस्ती की निशानियों को बे-हुर्मत (अनादर) न करो।5 — न हराम (प्रतिष्ठित) महीनों में से किसी को हलाल कर लो, न क़ुरबानी के जानवरों पर हाथ डालो, न उन जानवरों पर हाथ डालो जिनकी गरदनों में अल्लाह की नज़्र की निशानी के तौर पर पट्टे पड़े हुए हों, न उन लोगों को छेड़ो जो अपने रब के फ़ज़्ल और उसकी ख़ुशनूदी की तलाश में मुहतरम घर (काबा) की तरफ़ जा रहे हों।6 हाँ, जब इहराम की हालत ख़त्म हो जाए तो शिकार तुम कर सकते हो।7 गरोह ने जो तुम्हारे लिए मस्जिदे-हराम (काबा) का रास्ता बन्द कर दिया है तो इस पर तुम्हारा ग़ुस्सा तुम्हें इतना मुश्तइल (उत्तेजित) न कर दे कि तुम भी उनके मुक़ाबले में बे-जा ज़्यादतियाँ करने लगो।8 नहीं, जो काम नेकी और ख़ुदातरसी के हैं उनमें सबकी मदद करो और जो गुनाह और ज़्यादती के काम हैं उनमें किसी की मदद न करो। अल्लाह से डरो, उसकी सज़ा बहुत सख़्त है।
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘शआइर’ इस्तेमाल हुआ है, जो शिआर की जमा (बहुवचन) है। हर वह चीज़ जो किसी मसलक या अक़ीदे या सोचने और अमल करने के रवैये या किसी निज़ाम की नुमाइन्दगी करती हो वह निशानी यानी उसका शिआर कहलाएगी; क्योंकि वह उसके लिए पहचान या निशानी का काम देती है। सरकारी झण्डे, फ़ौज और पुलिस वग़ैरा के यूनिफ़ार्म, सिक्के, नोट और स्टाम्प हुकूमतों की पहचान हैं और वे अपने मातहतों से, बल्कि जिन-जिन पर उनका ज़ोर चले, सबसे उनकी इज़्ज़त और एहतिराम की माँग करती हैं। गिरजा और क़ुरबानगाह और सलीब ईसाइयत के शआइर (निशानियाँ) हैं। चोटी और ज़न्नार (जनेऊ) और मन्दिर ब्रह्मनियत (ब्राह्मणवाद) के शआइर हैं। केश, कड़ा और कृपाण वग़ैरा सिख धर्म के शआइर हैं। हथौड़ा और दराँती कम्यूनिज़्म (साम्यवाद) का शिआर हैं। स्वास्तिक आर्य नस्लपरस्ती का शिआर है। ये सब मसलक और मज़हब (पंथ) अपने-अपने पैरुओं से अपने इन शआइर की इज़्ज़त और एहतिराम की माँग करते हैं। अगर कोई आदमी किसी निज़ाम के शआइर में से किसी शिआर की तौहीन करता है तो यह इस बात की निशानी है कि वह अस्ल में उस निज़ाम के ख़िलाफ़ दुश्मनी रखता है और अगर वह तौहीन करनेवाला ख़ुद उसी निज़ाम से ताल्लुक़ रखता हो तो उसका यह काम अपने निज़ाम से फिरने और बग़ावत करने जैसा है। 'अल्लाह के शआइर' यानी अल्लाह की निशानियों से मुराद वे तमाम अलामतें या निशानियाँ हैं जो शिर्क और कुफ़्र और दहरियत (नास्तिकता) के मुक़ाबले में ख़ालिस ख़ुदापरस्ती के तरीक़े की नुमाइन्दगी करती हों। ऐसी आलामतें जहाँ जिस मसलक और जिस निज़ाम में भी पाई जाएँ मुसलमानों को उनकी इज्ज़त और एहतिराम का हुक्म दिया गया है। शर्त यह है कि उनका नफ़सियाती पसमंजर (मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि) खालिस ख़ुदा परस्ताना हो, किसी मुशरिकाना या काफ़िराना विचार की मिलावट से उन्हें नापाक न कर दिया गया हो। कोई आदमी चाहे वह ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों न हो, अगर अपने अक़ीदे और अमल में एक ख़ुदा की बन्दगी और इबादत का कोई हिस्सा रखता है तो उस हिस्से की हद तक मुसलमान उसका साथ देंगे और उन निशानियों की भी पूरी इज्ज़त और एहतिराम करेंगे जो उसके मजहब में ख़ालिस ख़ुदापरस्ती की अलामत हों। इस चीज़ में हमारे और उसके बीच कोई झगड़ा नहीं, बल्कि मेल है। झगड़ा अगर है तो इस बात में नहीं कि वह ख़ुदा की बन्दगी क्यों करता है, बल्कि इस बात में है कि वह ख़ुदा की बन्दगी के साथ दूसरी बन्दगियों की मिलावट क्यों करता है। याद रखना चाहिए कि अल्लाह के शआइर की इज्ज़त और एहतिराम का यह हुक्म उस ज़माने में दिया गया था जबकि मुसलमानों और अरब के मुशरिक (बहुदेववादियों) के बीच जंग छिड़ी हुई थी। मक्का पर मुशरिकों का क़ब्ज़ा था। अरब के हर हिस्से से मुशरिक क़बीलों के लोग हज और जियारत के लिए काबा की तरफ़ जाते थे और बहुत-से क़बीलों के रास्ते मुसलमानों के निशाने पर थे। उस वक़्त हुक्म दिया गया कि ये लोग मुशरिक ही सही तुम्हारे और उनके दरमियान जंग ही सही, मगर जब ये ख़ुदा के घर की तरफ़ जाते हैं तो उन्हें न छेड़ो, हज के महीनों में उन पर हमला न करो। ख़ुदा के दरबार में नज़्र करने के लिए जो जानवर ये लिए जा रहे हों उन पर हाथ न डालो, क्योंकि उनके बिगड़े हुए मज़हब में ख़ुदापरस्ती का जितना हिस्सा बाक़ी है वह अपने आपमें इज्ज़त और एहतिराम का हक़दार है, न कि बेइज्ज़ती और बे एहतिरामी का।
6. 'अल्लाह के शआइर' (अल्लाह की निशानियों) के एहतिराम का आम हुक्म देने के बाद कुछ निशानियों का नाम लेकर उनके एहतिराम का ख़ास तौर पर हुक्म दिया गया; क्योंकि उस वक़्त जंगी हालात की वजह से यह अन्देशा पैदा हो गया था कि जंग के जोश में कहीं मुसलमानों के हाथों उनकी तौहीन न हो जाए। इन कुछ निशानियों का नाम ले-लेकर बयान करने से मक़सद यह नहीं है कि सिर्फ़ यही एहतिराम के लायक़ हैं।
7. इहराम भी अल्लाह की निशानी (शआइर) में से है। और इसकी पाबन्दियों में से किसी पाबन्दी को तोड़ना उसकी बेहुरमती (अनादर) करना है। इसलिए अल्लाह के शआइर ही के सिलसिले में उसका ज़िक्र भी कर दिया गया कि जब तक तुम इहराम बाँधे हुए हो, शिकार करना ख़ुदापरस्ती के शिआर में से एक शिआर की तौहीन करना है। अलबत्ता जब शरई क़ायदे के मुताबिक़ इहराम की हद ख़त्म हो जाए तो शिकार करने की इजाज़त है।
8. चूँकि इस्लाम-दुश्मन ग़ैर-मुस्लिमों ने उस वक़्त मुसलमानों को काबा की ज़ियारत से रोक दिया था और अरब के पुराने दस्तूर के ख़िलाफ़ हज तक से मुसलमान महरूम कर दिए गए थे, इसलिए मुसलमानों में यह ख़याल पैदा हुआ कि जिन ग़ैर-मुस्लिम क़बीलों के रास्ते इस्लामी इलाक़ों के क़रीब से गुज़रते हैं, उनको हम भी हज से रोक दें और हज के ज़माने में उनके क़ाफ़िलों पर छापे मारने शुरू कर दें। मगर अल्लाह ने यह आयत उतारकर उन्हें इस इरादे से रोक दिया।
حُرِّمَتۡ عَلَيۡكُمُ ٱلۡمَيۡتَةُ وَٱلدَّمُ وَلَحۡمُ ٱلۡخِنزِيرِ وَمَآ أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦ وَٱلۡمُنۡخَنِقَةُ وَٱلۡمَوۡقُوذَةُ وَٱلۡمُتَرَدِّيَةُ وَٱلنَّطِيحَةُ وَمَآ أَكَلَ ٱلسَّبُعُ إِلَّا مَا ذَكَّيۡتُمۡ وَمَا ذُبِحَ عَلَى ٱلنُّصُبِ وَأَن تَسۡتَقۡسِمُواْ بِٱلۡأَزۡلَٰمِۚ ذَٰلِكُمۡ فِسۡقٌۗ ٱلۡيَوۡمَ يَئِسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن دِينِكُمۡ فَلَا تَخۡشَوۡهُمۡ وَٱخۡشَوۡنِۚ ٱلۡيَوۡمَ أَكۡمَلۡتُ لَكُمۡ دِينَكُمۡ وَأَتۡمَمۡتُ عَلَيۡكُمۡ نِعۡمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ ٱلۡإِسۡلَٰمَ دِينٗاۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ فِي مَخۡمَصَةٍ غَيۡرَ مُتَجَانِفٖ لِّإِثۡمٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 2
(3) तुम पर हराम किया गया मुरदार9, ख़ून, सूअर का गोश्त, वह जानवर जो ख़ुदा के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो10, वह जो गला घुटकर या चोट खाकर या बुलन्दी से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो या जिसे किसी दरिन्दे ने फाड़ा हो। — सिवाय उसके जिसे तुमने ज़िन्दा पाकर ज़ब्ह कर लिया11 — और वह जो किसी आस्ताने (थान) पर12 ज़ब्ह किया गया हो।13 साथ ही यह भी तुम्हारे लिए हराम है कि पाँसों के ज़रिए से अपनी क़िस्मत मालूम करो।14 ये सब काम नाफ़रमानी के हैं। कुफ़्र करनेवालों को तुम्हारे दीन की तरफ़ से मायूसी हो चुकी है इसलिए तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो।15 आज मैंने तुम्हारे दीन (जीवन-विधान) को तुम्हारे लिए मुकम्मल कर दिया है और अपनी नेमत तुम पर पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को तुम्हार दीन (धर्म) की हैसियत से क़ुबूल कर लिया है। (इसलिए हराम और हलाल की जो क़ैदें तुमपर लगाई गई हैं, उनकी पाबन्दी करो।)16 अलबत्ता जो आदमी भूख से मजबूर होकर उनमें से कोई चीज़ खा ले, बग़ैर इसके कि गुनाह की तरफ़ इसका मैलान (झुकाव) हो तो बेशक अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।17
9. यानी वह जानवर जो अपनी फ़ितरी मौत मर गया हो।
10. यानी जिसको ज़ब्ह करते वक़्त ख़ुदा के सिवा किसी और का नाम लिया गया हो, या जिसको ज़ब्ह करने से पहले यह नीयत की गई हो कि यह फ़ुलाँ बुज़ुर्ग या फ़ुलाँ देवी-देवता की नज़्र (भेंट) है। (देखें सूरा-2, अल-बक़रा का हाशिया-171)
11. यानी जो जानवर ऊपर बयान किए गए हादिसों में से किसी हादिसे का शिकार हो जाने के बावजूद मरा न हो, बल्कि ज़िन्दगी के कुछ आसार उस में पाए जाते हों, उसको अगर ज़ब्ह कर लिया जाए तो उसे खाया जा सकता है। इससे यह भी मालूम हुआ कि हलाल जानवर का गोश्त सिर्फ़ ज़ब्ह करने से हलाल होता है, कोई दूसरा तरीक़ा उसको हलाल करने का सही नहीं है। ये ‘ज़ब्ह' और 'ज़कात' इस्लाम के इस्तिलाही (पारिभाषिक) लफ़्ज़ हैं। इनसे मुराद हलक़ का इतना हिस्सा काट देना है जिससे जिस्म का ख़ून अच्छी तरह निकल जाए। झटका करने या गला घोंटने या किसी और तरीक़े से जानवर को हलाक करने का नुक़सान यह होता है कि ख़ून का ज़्यादातर हिस्सा जिस्म के अन्दर ही रुका रह जाता है और वह जगह-जगह जमकर गोश्त के साथ चिमट जाता है। इसके बरख़िलाफ़ ज़ब्ह करने की सूरत में दिमाग़ के साथ जिस्म का ताल्लुक़ देर तक बाक़ी रहता है, जिसकी वजह से नस-नस का ख़ून खिंचकर बाहर आ जाता है और इस तरह पूरे जिस्म का गोश्त ख़ून से साफ़ हो जाता है। ख़ून के बारे में अभी ऊपर ही यह बात गुज़र चुकी है कि वह हराम है। इसलिए गोश्त के पाक और हलाल होने के लिए ज़रूरी है कि ख़ून उससे अलग हो जाए।
12. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'नुसुब' इस्तेमाल हुआ है। इससे मुराद वे सब जगहें हैं जिनको अल्लाह के सिवा किसी और को नज़्र और नियाज़ चढ़ाने के लिए लोगों ने ख़ास कर रखा हो, चाहे वहाँ कोई पत्थर या लकड़ी की मूर्ति हो या न हो। हमारी ज़बान में उसका हममानी लफ़्ज़ आस्ताना या थान है जो किसी बुज़ुर्ग या देवता से, या किसी ख़ास मुशरिकाना अक़ीदे से जुड़ा हुआ हो।
13. यहाँ यह बात ख़ूब अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि खाने-पीने की चीज़ों में हराम और हलाल की जो क़ैदें ओर शर्तें शरीअत की तरफ़ से लगाई जाती हैं, उनकी अस्ल बुनियाद उन चीज़ों के तिब्बी फ़ायदे (चिकित्सीय लाभ) या नुक़सानों पर नहीं होती, बल्कि उनके अख़लाक़ी फ़ायदे और नुक़सान होते हैं। जहाँ तक फ़ितरी मामलों का ताल्लुक़ है अल्लाह ने उनको इनसान की अपनी कोशिश, जुस्तजू और जाँच-पड़ताल पर छोड़ दिया है। यह मालूम करना इनसान का अपना काम है कि माद्दी चीज़ों में से कौन-सी चीज़ें उसके जिस्म को अच्छी ग़िज़ा पहुँचानेवाली हैं और कौन-सी चीज़ें सेहत के लिए नुक़सानदेह हैं। शरीअत इन मामलों में उसकी रहनुमाई की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेती। अगर यह काम उसने अपने ज़िम्मे लिया होता तो सबसे पहले संखिया को हराम किया होता। लेकिन आप देखते ही हैं कि क़ुरआन और हदीस में उसका या उन दूसरी चीज़ों (Composits) का, जो इनसान के लिए सख़्त ख़तरनाक हैं सिरे से कोई ज़िक्र ही नहीं है। शरीअत खाने के मामले में जिस चीज़ पर रौशनी डालती है वह अस्ल में उसका यह पहलू है कि किस ग़िज़ा का इनसान के अख़लाक़ पर क्या असर होता है और कौन-सी ग़िज़ाएँ मन की पाकी के लिहाज़ से कैसी हैं और ग़िज़ा हासिल करने के तरीक़ों में से कौन-से तरीक़े अक़ीदे और नज़रिए के लिहाज़ से सही या ग़लत हैं। चूँकि इसकी तहक़ीक़ करना इनसान के बस में नहीं है और इसको मालूम करने के ज़रिए इनसान को हासिल ही नहीं हैं और इसी बुनियाद पर इनसान ने ज़्यादातर इन मामलों में ग़लतियों की हैं, इसलिए शरीअत सिर्फ़ इन्हीं मामलों में, उसकी रहनुमाई करती है। जिन चीज़ों को उसने हराम किया है उन्हें इस वजह से हराम किया है कि या तो अख़लाक़ (नैतिक आचरण) पर उनका बुरा असर पड़ता है या वे पाकी के ख़िलाफ़ हैं। या उनका ताल्लुक़ किसी ग़लत अक़ीदे से है। इसके बरख़िलाफ़ जिन चीज़ों को उसने हलाल किया है उनके हलाल होने की वजह यह है कि वे उन बुराइयों में से कोई बुराई अपने अन्दर नहीं रखतीं। सवाल किया जा सकता है कि ख़ुदा ने हमको इन चीज़ों के हराम होने की वजहें क्यों नहीं समझाईं, ताकि हमें उनके बारे में जानकारी हासिल होती। इसका जवाब यह है कि उसकी वजहों को समझना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। मिसाल के तौर पर यह बात कि ख़ून, या सूअर के गोश्त या मुरदार के खाने से हमारी अख़लाक़ी सिफ़तों (नैतिक गुणों) में क्या ख़राबियाँ पैदा होती हैं, कितनी और किस तरह होती हैं, उसकी खोज हम किसी तरह नहीं कर सकते, क्योंकि अख़लाक़ को नापने और तौलने के ज़रिए हमें हासिल नहीं हैं। मान लीजिए कि अगर उनके बुरे असर को बयान कर भी दिया जाता तो शुब्हाा करनेवाला लगभग उसी मक़ाम पर होता जिसपर वह अब है, क्योंकि वह इस बयान के सही होने या ग़लत होने को कैसे जाँचता? इसलिए अल्लाह ने हराम और हलाल की हदों की पाबन्दी का दारोमदार ईमान पर रख दिया है। जिस आदमी को इस बात पर इतमीनान हो जाए कि किताब, अल्लाह की किताब है और रसूल अल्लाह का रसूल है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है। वह उसकी मुक़र्रर की हुई हदों की पाबन्दी करेगा, चाहे उनकी मस्लहत (निहित उद्देश्य) उसकी समझ में आए या न आए। और जिस आदमी को बुनियादी अक़ीदे पर ही इतमीनान न हो उसके लिए इसके सिवा कोई चारा नहीं कि जिन चीज़ों की ख़राबियाँ इनसान के इल्म के दायरे में आ गई हैं सिर्फ़ उन्हीं से परहेज़ करे और जिनकी ख़राबियाँ इनसान के इल्म में नहीं आ सकी हैं उनके नुक़सानों का वह शिकार बनता रहे।
14. इस आयत में जिस चीज़ को हराम किया गया है उसकी तीन बड़ी क़िस्में दुनिया में पाई जाती हैं और आयत का हुक्म इन तीनों पर लागू होता है। (i) मुशरिकाना फ़ाल-गीरी, जिसमें किसी देवी या देवता से क़िस्मत का फ़ैसला मालूम किया जाता है या ग़ैब की ख़बर मालूम की जाती है या आपसी झगड़ों का निपटारा किया जाता है। मक्का के मुशरिकों ने इस मक़सद के लिए काबा के अन्दर हुबल देवता के बुत को ख़ास कर रखा था। उसके थान में सात तीर रखे हुए थे, जिनपर बहुत-से अलग-अलग अलफ़ाज़ और जुमले खुदे हुए थे। किसी काम के करने या न करने का सवाल हो, या खोई हुई चीज़ का पता पूछना हो, या ख़ून के मुक़द्दमे का फ़ैसला कराना हो, गरज़ कि कोई काम भी हो उसके लिए हुबल के पाँसेदार (साहिबुल-क़िदाह) के पास पहुँच जाते, उसका नज़राना पेश करते और हुबल से दुआ माँगते कि हमारे इस मामले का फ़ैसला कर दे। फिर पाँसेदार इन तीरों के ज़रिए से फ़ाल निकालता और जो तीर भी फ़ाल में निकल आता उसपर लिखे हुए लफ़्ज़ को हुबल का फ़ैसला समझा जाता। (ii) अन्धविश्वास पर क़ायम फ़ालगीरी, जिसमें ज़िन्दगी के मामलों का फ़ैसला अक़्ल और फ़िक्र से करने के बजाय किसी वहमी और ख़याली चीज़ या किसी इत्तिफ़ाक़ी चीज़ के ज़रिए से किया जाता है। या क़िस्मत का हाल ऐसे ज़रिओं से मालूम करने की कोशिश की जाती है, जिनका ग़ैब के इल्म का वसीला होना किसी इल्मी तरीक़े से साबित नहीं है। रमल, नुजूम, जुफ़र, मुजलिफ़ क़िस्म के शगुन और नक्षत्र और फ़ालगीरी के अनगिनत तरीक़े इसमें दाख़िल हैं। (iii) जुए की क़िस्म के वे सारे खेल और काम जिनमें चीज़ों के बँटवारे का दारोमदार हुक़ूक़ और ख़िदमतों और अक़्ली फ़ैसलों पर होने के बजाय सिर्फ़ किसी इत्तिफ़ाक़ी बात पर हो। मिसाल के तौर पर यह कि लॉटरी में इत्तिफ़ाक़ से फ़ुलाँ आदमी का नाम निकल आया है। इसलिए हज़ारों आदमियों की जेब से निकला हुआ रुपया उस एक आदमी की जेब में चला जाए। या यह कि इल्मी हैसियत से तो एक पहेली के बहुत-से हल सही हैं, मगर इनाम वह आदमी पाएगा जिसका हल किसी मुनासिब कोशिश की बुनियाद पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ से उस हल के मुताबिक़ निकल आया हो जो पहेली पूछनेवाले के सन्दूक़ में बन्द है। इन तीन क़िस्मों को हराम कर देने के बाद सिर्फ़ पर्ची डालने की वह सादा सूरत इस्लाम में जाइज़ रखी गई है जिसमें दो बराबर के जाइज़ कामों या दो बराबर के हुक़ूक़ के बीच फ़ैसला करना हो। जैसे एक चीज़ पर दो आदमियों का हक़ हर हैसियत से बिलकुल बराबर है और फ़ैसला करनेवाले के लिए उनमें से किसी को तरजीह देने की कोई मुनासिब वजह मौजूद नहीं है। और ख़ुद उन दोनों में से भी कोई अपना हक़ ख़ुद छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। इस सूरत में उनकी रज़ामन्दी से पर्ची डालने के फ़ैसले की बुनियाद बनाया जा सकता है। या मिसाल के तौर पर दो काम समान रूप से ठीक हैं और अक़्ली हैसियत से आदमी उन दोनों के बीच डावाँडोल हो गया है कि उनमें से किसको इख़्तियार करे। इस सूरत में ज़रूरत हो तो पर्ची डाली जा सकती है। नबी (सल्ल०) आम तौर पर ऐसे मौक़ों पर यह तरीक़ा अपनाते थे, जबकि दो बराबर के हक़दारों के बीच एक को तरजीह देने की ज़रूरत पेश आ जाती थी और आपको अन्देशा होता था कि अगर आप ख़ुद एक को तरजीह देंगे तो दूसरे को रंज होगा।
15. 'आज' से मुराद कोई ख़ास दिन और तारीख़ नहीं है, बल्कि वह दौर या ज़माना मुराद है जिसमें ये आयतें उतरी थीं। हमारी ज़बान में भी आज का लफ़्ज़ मौजूदा ज़माने के लिए आम तौर पर बोला जाता है। “कुफ़्र को तुम्हारे दीन की तरफ़ से पूरी मायूसी हो चुकी है।” यानी अब तुम्हारा दीन एक मुस्तक़िल निज़ाम (व्यवस्था) बन चुका है और ख़ुद अपनी हाकिमाना ताक़त के साथ लागू और क़ायम है। ये इस्लाम-दुश्मन और कुफ़्र करनेवाले जो अब तक इस निज़ाम के क़ायम होने में रुकावट और रोड़ा बनते रहे हैं, अब इस तरफ़ से मायूस हो चुके हैं कि वे इसे मिटा सकेंगे और तुम्हें फिर पिछली जाहिलियत की तरफ़ वापस ले जा सकेंगे। “इसलिए तुम इनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो।” यानी इस दीन के अहकाम और इसकी हिदायतों पर अमल करने में अब किसी बेदीन (अधर्मी) ताक़त के ग़लबे, क़हर, दख़लअन्दाज़ी, रुकावट का ख़तरा तुम्हारे लिए बाक़ी नहीं रहा है। इनसानों के ख़ौफ़ की अब कोई वजह नहीं रही। अब तुम्हें ख़ुदा से डरना चाहिए कि उसके अहकाम को पूरा करने में अगर कोई कोताही तुमने की तो तुम्हारे पास कोई ऐसा बहाना न होगा कि जिसकी बुनियाद पर तुम्हारे साथ कुछ भी नरमी की जाए। अब अल्लाह के क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी का मतलब यह नहीं होगा कि तुम दूसरों के असर से मजबूर हो, बल्कि इसका साफ़ मतलब यह होगा कि तुम ख़ुदा की इताअत (फ़रमाँबरदारी) करना नहीं चाहते।
16. दीन को मुकम्मल कर देने से मुराद उसको फ़िक्र और अमल का एक मुस्तक़िल निज़ाम और तहज़ीब व तमददुन का एक ऐसा मुकम्मल निज़ाम बना देना है जिसमें ज़िन्दगी के सभी मसलों का जवाब उसूली तौर पर या तफ़सील के साथ मौजूद हो और हिदायत और रहनुमाई हासिल करने के लिए किसी हाल में उससे बाहर जाने की ज़रूरत पेश न आए। नेमत पूरी करने से मुराद हिदायत की नेमत को पूरा कर देना है। और इस्लाम को दीन की हैसियत से क़ुबूल कर लेने का मतलब यह है कि तुमने मेरी इताअत व बन्दगी इख़्तियार करने का जो इक़रार किया या, उसको चूँकि तुम अपनी कोशिश और अमल से सच्चा और मुख़लिसाना इक़रार साबित कर चुके हो, इसलिए मैंने इसे क़ुबूलियत का दरजा दे दिया है और तुम्हें अमली तौर पर इस हालत तक पहुँचा दिया है कि अब हक़ीक़त में मेरे सिवा किसी की इताअत व बन्दगी का पट्टा तुम्हारी गर्दनों में बाक़ी नहीं रहा। अब जिस तरह अक़ीदे में तुम मेरे फ़रमाँबरदार हो उसी तरह अमली ज़िन्दगी में भी मेरे सिवा किसी और के फ़रमाँबरदार बनकर रहने के लिए तुम पर कोई मजबूरी नहीं रह गई है। इन एहसानों का ज़िक्र करने के बाद अल्लाह ख़ामोशी इख़्तियार करता है। मगर बयान के अन्दाज़ (वर्णन-शैली) से ख़ुद ही यह बात निकल आती है कि जब ये एहसान तुम पर किए हैं तो उनका तक़ाज़ा यह है कि अब मेरे क़ानून की हदों पर क़ायम रहने में तुम्हारी तरफ़ से भी कोई कोताही न हो। भरोसेमन्द रिवायतों से मालूम होता है कि यह आयत नबी (सल्ल०) के आख़िरी हज (हज्जतुल-वदाअ) के मौक़े पर सन् 10 हिजरी में उतरी थी। लेकिन बात के जिस सिलसिले में यह आई है वह सुलह-हुदैबिया से मिला हुआ ज़माना (सन् 6 हिजरी) है और इबारत के मौक़ा-महल में दोनों जुमले कुछ ऐसे मिले हुए नज़र आते हैं कि यह गुमान नहीं किया जा सकता कि शुरू में बात का यह सिलसिला इन जुमलों के बग़ैर उतरा था और बाद में जब ये जुमले उतरे तो इन्हें यहाँ लाकर जोड़ दिया गया। मेरा गुमान यह है और जानता अल्लाह ही है कि शुरू में यह आयत इसी कलाम के इसी मौक़ा-महल में उतरी थी इसलिए इसकी अस्ल अहमियत को लोग न समझ सके। बाद में जब पूरा अरब इस्लाम के तहत आ गया और इस्लाम की ताक़त अपने शबाब पर पहुँच गई तो अल्लाह ने दोबारा ये जुमले अपने नबी पर उतारे और उनके एलान का हुक्म दिया।
17. देखें सूरा-2 अल-बक़रा हाशिया-172 ।
يَسۡـَٔلُونَكَ مَاذَآ أُحِلَّ لَهُمۡۖ قُلۡ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُ وَمَا عَلَّمۡتُم مِّنَ ٱلۡجَوَارِحِ مُكَلِّبِينَ تُعَلِّمُونَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ ٱللَّهُۖ فَكُلُواْ مِمَّآ أَمۡسَكۡنَ عَلَيۡكُمۡ وَٱذۡكُرُواْ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 3
(4) लोग पूछते हैं कि उनके लिए क्या हलाल किया गया है। कहोः तुम्हारे लिए सारी पाक चीज़ें हलाल कर दी गई हैं।18 और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधाया हो— जिनको ख़ुदा के दिए हुए इल्म की बिना पर तुम शिकार की ट्रेनिंग दिया करते हो वह जिस जानवर को तुम्हारे लिए पकड़ रखें उसको भी तुम खा सकते हो,19 अलबत्ता उसपर अल्लाह का नाम ले लो20 और अल्लाह का क़ानून तोड़ने से डरो, अल्लाह को हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
18. इस जवाब में एक लतीफ़ (सूक्ष्म) नुक्ता छिपा हुआ है। मज़हबी सोच के लोग ज़्यादातर इस ज़ेहनियत के शिकार होते रहे हैं कि दुनिया की हर चीज़ को हराम समझते हैं जब तक कि साफ़ तौर पर किसी चीज़ को हलाल न ठहरा दिया जाए। इस ज़ेहनियत की वजह से लोगों पर अन्धविश्वास और क़ानूनियत का ग़लबा हो जाता है। वे ज़िन्दगी के हर मामले में हलाल चीज़ों और जाइज़ कामों की लिस्ट माँगते हैं और हर काम और हर चीज़ को इस शुब्हाे की नज़र से देखने लगते हैं कि कहीं वह मना तो नहीं। यहाँ क़ुरआन इसी ज़ेहनियत की इस्लाह करता है। पूछनेवालों का मक़सद यह था कि इन्हें तमाम हलाल चीज़ों की तफ़सील बताई जाए, ताकि उनके सिवा हर चीज़ को वे हराम समझें। जवाब क़ुरआन ने हराम चीज़ों की तफ़सील बताई। और उसके बाद यह आम हिदायत देकर छोड़ दिया कि सारी पाक चीज़ें हलाल हैं। इस तरह पुराना मज़हबी नज़रिया बिलकुल उलट गया। पुराना नज़रिया यह था कि सब कुछ हराम है, सिवाय उसके जिसे हलाल ठहराया जाए। क़ुरआन ने इसके बरख़िलाफ़ यह उसूल तय किया कि सब कुछ हलाल है सिवाय उसके जिसके हराम होने को वाज़ेह तौर पर बता दिया जाए। यह एक बहुत बड़ी इस्लाह थी जिसने इनसानी ज़िन्दगी को बन्दिशों से आज़ाद करके दुनिया की कुशादगियों का दरवाज़ा उसके लिए खोल दिया। पहले हलाल होने के एक छोटे-से दायरे के सिवा सारी दुनिया उसके लिए हराम थी। अब हराम के एक छोटे-से दायरे को छोड़कर सारी दुनिया उसके लिए हलाल हो गई। हलाल के लिए 'पाक' की क़ैद इसलिए लगाई कि नापाक चीज़ों को इस जाइज़ होने की दलील से हलाल ठहराने की कोशिश न की जाए। अब रहा यह सवाल कि चीज़ों के 'पाक' होने को किस तरह तय किया जाएगा? तो इसका जवाब यह है कि जो चीज़ें शरीअत के उसूल में से किसी अस्ल के तहत नापाक क़रार पाएँ या जिन चीज़ों से एक अच्छे ज़ौक़ का इनसान नफ़रत करे या जिन्हें मुहज़्ज़ब (सभ्य) इनसान ने आम तौर पर पाकी के अपने फ़ितरी एहसास के ख़िलाफ़ पाया हो उनके सिवा सब कुछ पाक है।
19. शिकारी जानवरों से मुराद कुत्ते, चीते, बाज़, शिकरे और तमाम वे दरिन्दे (हिंसक पशु) और परिन्दे (पक्षी) हैं जिनसे इनसान शिकार की ख़िदमत लेता है। सधाए हुए जानवर की ख़ुसूसियत यह होती है कि वह जिसका शिकार करता है उसे आम दरिन्दों की तरह फाड़ नहीं खाता, बल्कि अपने मालिक के लिए पकड़ रखता है। इसी वजह से आम दरिन्दों का फाड़ा हुआ जानवर हराम है और सधाए हुए दरिन्दों का शिकार हलाल। इस मसले में फ़ुक़हा (इस्लाम के धर्मशास्त्रियों) के बीच कुछ इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह कहता है कि अगर शिकारी जानवर ने, चाहे वह दरिन्दा हो या परिन्दा, शिकार में से कुछ खा लिया, तो वह हराम होगा। क्योंकि उसका खा लेना यह मतलब रखता है कि उसने शिकार को मालिक के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए पकड़ा। यही मसलक (मत) इमाम शाफ़िई (रह०) का है। दूसरा गरोह कहता है कि अगर उसने शिकार में से कुछ खा लिया हो तब भी वह हराम नहीं होता, यहाँ तक कि अगर एक तिहाई हिस्सा भी वह खा ले तो बाक़ी दो तिहाई हलाल है और इस मामले में दरिन्दे और परिन्दे के बीच कुछ फ़र्क़ नहीं। यह मसलक इमाम मालिक (रह०) का है। तीसरा गरोह कहता है कि शिकारी दरिन्दे ने अगर शिकार में से खा लिया हो तो वह हराम होगा, लेकिन अगर शिकारी परिन्दे ने खाया हो तो हराम न होगा, क्योंकि शिकारी दरिन्दे को ऐसी तालीम दी जा सकती है कि वह शिकार को मालिक के लिए पकड़े रखे और उसमें से कुछ न खाए, लेकिन तजरिबे से साबित है कि शिकारी परिन्दा ऐसी तालीम क़ुबूल नहीं करता। यह मसलक इमाम अबू-हनीफ़ा और उनके साथियों का है। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत अली (रज़ि०) कहते हैं कि शिकारी परिन्दे का शिकार सिरे से जाइज़ ही नहीं है, क्योंकि उसे तालीम से यह बात नहीं सिखाई जा सकती कि शिकार को ख़ुद न खाए, बल्कि मालिक के लिए पकड़ रखे।
20. यानी शिकारी जानवर को शिकार पर छोड़ते वक़्त 'बिस्मिल्लाह' कहो। हदीस में आता है कि हज़रत अदी-बिन-हातिम ने नबी (सल्ल०) से पूछा कि क्या मैं कुत्ते के ज़रिए से शिकार कर सकता हूँ? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “अगर उसको छोड़ते वक़्त तुमने अल्लाह का नाम लिया हो तो खाओ वरना नहीं, और अगर उसने शिकार में से कुछ खा लिया हो तो न खाओ, क्योंकि उसने शिकार को अस्ल में अपने लिए पकड़ा है।” फिर उन्होंने पूछा कि अगर मैं शिकार पर अपना कुत्ता छोड़ दूँ और बाद में देखू कि कोई दूसरा कुत्ता वहाँ मौजूद है? आप (सल्ल०) ने जवाब दिया कि “उस शिकार को न खाओ। इसलिए कि तुमने ख़ुदा का नाम अपने कुत्ते पर लिया था, न कि दूसरे कुत्ते पर।” इस आयत से यह मसला मालूम हुआ कि शिकारी जानवर को शिकार पर छोड़ते हुए ख़ुदा का नाम लेना ज़रूरी है। इसके बाद अगर शिकार ज़िन्दा मिले तो फिर अल्लाह का नाम लेकर उसे ज़ब्ह कर लेना चाहिए और अगर ज़िन्दा न मिले तो उसके बग़ैर ही वह हलाल होगा, क्योंकि शुरू में शिकारी जानवर को उसपर छोड़ते वक़्त अल्लाह का नाम लिया जा चुका था। यही हुक्म तीर का भी है।
ٱلۡيَوۡمَ أُحِلَّ لَكُمُ ٱلطَّيِّبَٰتُۖ وَطَعَامُ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ حِلّٞ لَّكُمۡ وَطَعَامُكُمۡ حِلّٞ لَّهُمۡۖ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡمُحۡصَنَٰتُ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحۡصِنِينَ غَيۡرَ مُسَٰفِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِيٓ أَخۡدَانٖۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِٱلۡإِيمَٰنِ فَقَدۡ حَبِطَ عَمَلُهُۥ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 4
(5) आज तुम्हारे लिए सारी पाक चीज़ें हलाल कर दी गई हैं। अहले-किताब का खाना तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा खाना उनके लिए21 और महफ़ूज़ औरतें भी तुम्हारे लिए हलाल हैं, चाहे वे ईमानवालों के गरोह से हों या उन क़ौमों में से जिनको तुमसे पहले किताब दी गई थी।22 शर्त यह है कि तुम उनके मह्‍र अदा करके निकाह में उनके मुहाफ़िज़ बनो, न यह कि आज़ाद शहवतरानी (काम तृप्ति) करने लगो या चोरी छिपे आशनाइयाँ करो। और जिस किसी ने ईमान की रविश पर चलने से इनकार किया तो उसकी ज़िन्दगी का सारा किया-धरा बर्बाद हो जाएगा और वह आख़िरत में दीवालिया होगा।23
21. अहले-किताब के खाने में उनका ज़बीहा (ज़ब्ह किया हुआ जानवर) भी शामिल है। हमारे लिए उनका और उनके लिए हमारा खाना हलाल होने का मतलब यह है कि हमारे और उनके बीच खाने-पीने में कोई रुकावट और कोई छूत-छात नहीं है। हम उनके साथ खा सकते हैं और वे हमारे साथ। लेकिन यह आम इजाज़त देने से पहले इस जुमले को दोहरा दिया गया है कि “तुम्हारे लिए पाक चीज़ें हलाल कर दी गई हैं।” इससे मालूम हुआ कि अहले-किताब अगर पाकी और तहारत के उन क़ानूनों की पाबन्दी न करें जो शरीअत की नज़र में ज़रूरी हैं या अगर उनके खाने में हराम चीज़ें शामिल हों तो उससे बचना चाहिए। जैसे अगर वे ख़ुदा का नाम लिए बिना किसी जानवर को ज़ब्ह करें या उसपर ख़ुदा के सिवा किसी और का नाम लें तो उसे खाना हमारे लिए जाइज़ नहीं। इसी तरह अगर उनके दस्तरख़ान पर शराब या सूअर या कोई और हराम चीज़ हो तो हम उनके साथ शरीक नहीं हो सकते। अहले-किताब के सिवा दूसरे ग़ैर-मुस्लिमों के मामले में भी यही हुक्म है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि ज़बीहा (ज़ब्ह किया हुआ जानवर) सिर्फ़ अहले-किताब ही का जाइज़ है, जबकि उन्होंने ख़ुदा का नाम उसपर लिया हो। रहे अहले-किताब के सिवा दूसरे ग़ैर-मुस्लिम, तो उनके हलाक किए हुए जानवर के गोश्त को हम नहीं खा सकते।
22. इससे मुराद यहूदी और ईसाई हैं। निकाह की इजाज़त सिर्फ़ उन्हीं की औरतों से दी गई है और इसके साथ शर्त यह लगा दी गई है कि वे मुहसनात (महफ़ूज़ औरते) हों। इस हुक्म की तफ़सील और तशरीह में फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) में इख़्तिलाफ़ हुआ है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का ख़याल है कि यहाँ अहले-किताब से मुराद वे अहले-किताब हैं जो इस्लामी हुकूमत की रिआया (जनता) हों। रहे 'दारुल-हर्ब' और 'दारुल-कुफ़्र' के यहूदी और ईसाई तो उनकी औरतों से निकाह करना ठीक नहीं है। हनफ़ी उलमा इससे थोड़ा इख़्तिलाफ़ करते हैं। उनके नज़दीक दूसरे देशों की अहले-किताब औरतों से निकाह करना हराम तो नहीं है, मगर मकरूह (नापसन्दीदा) ज़रूर है। इसके बरख़िलाफ़ सईद-बिन-मुसय्यब (रह०) और हसन बसरी (रह०) इस बात को मानते हैं कि आयत अपने हुक्म में आम है। इसलिए ज़िम्मी और ग़ैर-ज़िम्मी में फ़र्क़ करने की ज़रूरत नहीं। फिर मुहसनात के मफ़हूम (मतलब) में भी फ़ुक़हा के बीच इख़्तिलाफ़ है। हज़रत उमर (रज़ि०) के नजदीक इससे मुराद पाकदामन बाइस्मत औरतें हैं और इस बुनियाद पर वे अहले-किताब की आज़ाद मनिश औरतों को इस इजाज़त से ख़ारिज क़रार देते हैं। यही राय हसन, शअबी और इबराहीम नख़ई (रह०) की है। और हनफ़ी उलमा ने भी इसी को पसन्द किया है। इसके बरख़िलाफ़ इमाम शाफ़िई (रह०) की राय यह है कि यहाँ यह लफ़्ज़ लौडियों के मुक़ाबले में इस्तेमाल हुआ है, यानी इससे मुराद अहले-किताब की वे औरतें हैं जो लौडियाँ न हों।
23. अहले-किताब की औरतों से निकाह की इजाज़त देने के बाद यह जुमला इसलिए ख़बरदार करने के लिए कहा गया है कि जो आदमी इस इजाज़त से फ़ायदा उठाए वह अपने ईमान और अख़लाक़ की तरफ़ से होशियार रहे। कहीं ऐसा न हो कि ग़ैर-मुस्लिम बीवी के इश्क़ में पड़कर या उसके अक़ीदों और अमल से मुतास्सिर होकर वह अपने ईमान से हाथ धो बैठे या अख़लाक़ और समाज में ऐसी रविश पर चल पड़े जो ईमान के ख़िलाफ़ हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قُمۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ فَٱغۡسِلُواْ وُجُوهَكُمۡ وَأَيۡدِيَكُمۡ إِلَى ٱلۡمَرَافِقِ وَٱمۡسَحُواْ بِرُءُوسِكُمۡ وَأَرۡجُلَكُمۡ إِلَى ٱلۡكَعۡبَيۡنِۚ وَإِن كُنتُمۡ جُنُبٗا فَٱطَّهَّرُواْۚ وَإِن كُنتُم مَّرۡضَىٰٓ أَوۡ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوۡ جَآءَ أَحَدٞ مِّنكُم مِّنَ ٱلۡغَآئِطِ أَوۡ لَٰمَسۡتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمۡ تَجِدُواْ مَآءٗ فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدٗا طَيِّبٗا فَٱمۡسَحُواْ بِوُجُوهِكُمۡ وَأَيۡدِيكُم مِّنۡهُۚ مَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيَجۡعَلَ عَلَيۡكُم مِّنۡ حَرَجٖ وَلَٰكِن يُرِيدُ لِيُطَهِّرَكُمۡ وَلِيُتِمَّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुम नमाज़ के लिए उठो तो चाहिए कि अपने मुँह और हाथ कुहनियों तक धो लो, सरों पर हाथ फेर लो और पाँव टख़नों तक धो लिया करो।24 अगर नापाकी की हालत में हो तो नहाकर पाक हो जाओ।25 अगर बीमार हो या सफ़र की हालत में हो या तुममें से कोई आदमी ज़रूरत पूरी (पाख़ाना-पेशाब) करके आए या तुमने औरतों को हाथ लगाया हो और पानी न मिले, तो पाक मिट्टी से काम लो। बस उस पर हाथ मारकर अपने मुँह और हाथों पर फेर लिया करो।26 अल्लाह तुम पर ज़िन्दगी को तंग नहीं करना चाहता, मगर वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और अपनी नेमत तुम पर पूरी कर दे।27 शायद कि तुम शुक्रगुज़ार बनो।
24. नबी (सल्ल०) ने इस हुक्म की जो तशरीह की है उससे मालूम होता है कि मुँह धोने में कुल्ली करना और नाक साफ़ करना भी शामिल है, इसके बिना मुँह का ग़ुस्ल पूरा नहीं होता। और कान चूँकि सर का एक हिस्सा हैं इसलिए सर के मसह में कानों के अन्दर और बाहर के हिस्सा का मसह भी शामिल है। साथ ही साथ वुज़ू शुरू करने से पहले हाथ धो लेने चाहिए ताकि जिन हाथों से आदमी वुज़ू कर रहा हो वे ख़ुद पहले पाक हो जाएँ।
25. जनाबत (नापाकी) चाहे मुबाशरत (सम्भोग) से हुई हो या ख़ाब में मनी (वीर्य) के निकल जाने की वजह से। दोनों सूरतों में ग़ुस्ल वाजिब है। इस हालत में ग़ुस्ल के बिना नमाज़ पढ़ना या क़ुरआन को हाथ लगाना जाइज़ नहीं है। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें सूरा-4 अन-निसा, हाशिया-67 से 69)
26. तशरीह के लिए देखें सूरा-4 अन-निसा, हाशिया-69 और 70।
27. जिस तरह मन की पाकीज़गी एक नेमत है इसी तरह जिस्म की पाकीज़गी भी एक नेमत है। इनसान पर अल्लाह की नेमत उसी वक़्त पूरी हो सकती है जबकि मन और जिस्म दोनों की सफ़ाई आर पाकीज़गी के लिए पूरी हिदायत उसे मिल जाए।
وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَمِيثَٰقَهُ ٱلَّذِي وَاثَقَكُم بِهِۦٓ إِذۡ قُلۡتُمۡ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 6
(7) अल्लाह ने तुमको जो नेमत दी है28 उसका ख़याल रखो और उस पुख़्ता अहदो-पैमान (वचन एवं प्रतिज्ञा) को न भूलो जो उसने तुमसे लिया है, यानी तुम्हारा यह कहना कि “हमने सुना और फ़रमाँबरदारी क़ुबूल की।” अल्लाह से डरो, अल्लाह दिलों के राज़ तक जानता है।
28. यानी यह नेमत कि ज़िन्दगी के सीधे रास्ते को तुम्हारे लिए रौशन कर दिया और दुनिया की हिदायत और रहनुमाई के मंसब पर तुम्हें बिठाया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُواْ قَوَّٰمِينَ لِلَّهِ شُهَدَآءَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنَـَٔانُ قَوۡمٍ عَلَىٰٓ أَلَّا تَعۡدِلُواْۚ ٱعۡدِلُواْ هُوَ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 7
(8) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह के लिए सच्चाई पर क़ायम रहनेवाले और इनसाफ़ की गवाही देनेवाले बनो29 किसी गरोह की दुश्मनी तुमको इतना मुश्तइल (उत्तेजित) न कर दे कि इनसाफ़ से फिर जाओ। इनसाफ़ करो यह ख़ुदातरसी से ज़्यादा मेल रखता है। अल्लाह से डरकर काम करते रहो, जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे पूरी तरह बा-ख़बर है।
29. देखें सूरा-4 अन-निसा, हाशिया-164 और 165 ।
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 8
(9) जो लोग ईमान लाएँ और नेक अमल करें। अल्लाह ने उनसे वादा किया है कि उनकी ख़ताओं को माफ़ कर दिया जाएगा और उन्हें बड़ा बदला मिलेगा।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 9
(10) रहे वे लोग जो कुफ़्र (इनकार) करें और अल्लाह की आयतों को झुठलाएँ तो वे दोज़ख़ में जानेवाले हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ هَمَّ قَوۡمٌ أَن يَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ فَكَفَّ أَيۡدِيَهُمۡ عَنكُمۡۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 10
(11) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह के उस एहसान को याद करो जो उसने (अभी हाल में) तुम पर किया है, जबकि एक गरोह ने तुम पर हाथ डालने का इरादा कर लिया था, मगर अल्लाह ने उनके हाथ तुम पर उठने से रोक दिए।30 अल्लाह से डरकर काम करते रहो। ईमान रखनेवालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
30. इशारा है उस वाक़िए (घटना) की तरफ़ जिसे हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास ने रिवायत किया है कि यहूदियों में से एक गरोह ने नबी (सल्ल०) और आपके ख़ास-ख़ास सहाबा को खाने की दावत पर बुलाया था और खुफ़िया तौर पर यह साज़िश की थी कि अचानक उन पर टूट पड़ेंगे और इस तरह इस्लाम की जान निकाल देंगे। लेकिन ठीक वक़्त पर अल्लाह की मेहरबानी से नबी (सल्ल०) को इस साज़िश का हाल मालूम हो गया और आप दावत पर नहीं गए। चूँकि यहाँ से ख़िताब का रुख़ बनी-इसराईल की तरफ़ फिर रहा है इसलिए तमहीद (भूमिका) के तौर पर इस वाक़िए का ज़िक्र किया गया है।
۞وَلَقَدۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَبَعَثۡنَا مِنۡهُمُ ٱثۡنَيۡ عَشَرَ نَقِيبٗاۖ وَقَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مَعَكُمۡۖ لَئِنۡ أَقَمۡتُمُ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتَيۡتُمُ ٱلزَّكَوٰةَ وَءَامَنتُم بِرُسُلِي وَعَزَّرۡتُمُوهُمۡ وَأَقۡرَضۡتُمُ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا لَّأُكَفِّرَنَّ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۚ فَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ ۝ 11
(12) अल्लाह ने बनी-इसराईल से पुख़्ता अह्द (दृढ़ वचन) लिया था और उनमें बारह नक़ीब31 मुक़र्रर किए थे और उनसे कहा था कि “मैं तुम्हारे साथ हूँ, अगर तुमने नमाज़ क़ायम रखी और ज़कात दी और रसूलों को माना और उनकी मदद की32 और अपने ख़ुदा को अच्छा क़र्ज़ देते रहे33 तो यक़ीन रखो कि मैं तुम्हारी बुराइयाँ तुम से मिटा दूँगा34 और तुमको ऐसे बाग़ों में दाख़िल करूँगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, मगर इसके बाद जिसने तुममें से कुफ़्र की रविश (अधर्म की नीति) इख़्तियार की तो हक़ीक़त में वह सीधे रास्ते35 से भटक गया।”
31. 'नक़ीब' के मानी निगरानी और छानबीन करनेवाले के हैं। बनी-इसराईल के बारह क़बीले थे और अल्लाह ने उनमें से हर क़बीले पर एक-एक नक़ीब ख़ुद उसी क़बीले से मुक़र्रर करने का हुक्म दिया था ताकि वह उनके हालात पर नज़र रखे और उन्हें बे-दीनी और बदअख़लाक़ी से बचाने की कोशिश करता रहे। बाइबल की किताब गिनती में बारह ‘सरदारों का ज़िक्र मौजूद है। मगर उनकी वह हैसियत जो यहाँ लफ़्ज़ 'नक़ीब' से क़ुरआन में बयान की गई है, बाइबल के बयान से ज़ाहिर नहीं होती। बाइबल उन्हें सिर्फ़ रईसों आर सरदारों की हैसियत से पेश करती है। और क़ुरआन उनकी हैसियत अख़लाक़ी और दीनी काम की निगरानी करनेवालों की ठहराता है।
32. यानी जो रसूल भी मेरी तरफ़ से आए उनकी दावत पर अगर तुम लब्बैक कहते और उनकी मदद करते रहे।
33. यानी ख़ुदा की राह में अपना माल ख़र्च करते रहे। चूँकि अल्लाह उस एक-एक पैसे को, जो इनसान उसकी राह में ख़र्च करे, कई गुने ज़्यादा इनाम के साथ वापस करने का वादा करता है। इसलिए क़ुरआन में जगह-जगह अल्लाह के रास्ते में माल ख़र्च करने को 'क़र्ज़' का नाम दिया गया है। शर्त यह है कि वह 'अच्छा क़र्ज़' हो, यानी जाइज़ ज़रिओं से कमाई हुई दौलत ख़र्च की जाए, ख़ुदा के क़ानून के मुताबिक़ ख़र्च की जाए और ख़ुलूस व अच्छी नीयत के साथ ख़र्च की जाए।
34. किसी से उसकी बुराइयाँ मिटा देने के दो मतलब हैं : एक यह कि सीधे रास्ते को अपनाने और ख़ुदा की हिदायत के मुताबिक़ फ़िक्रो-अमल के सही तरीक़े पर चलने का लाज़िमी नतीजा यह होगा कि इनसान का नफ़्स (मन) बहुत-सी बुराइयों से और उसकी ज़िन्दगी का ढंग बहुत-सी ख़राबियों से पाक होता चला जाएगा। दूसरे यह कि इस इस्लाह और सुधार के बावजूद अगर कोई आदमी कुल मिलाकर कमाल के दरजे को न पहुँच सके और कुछ न कुछ बुराइयाँ उसके अन्दर बाक़ी रह जाएँ तो अल्लाह अपने फ़ज़्ल और मेहरबानी से उनपर पकड़ नहीं करेगा और उनको उसके हिसाब से निकाल देगा, क्योंकि जिसने बुनियादी हिदायतें और बुनियादी सुधार को क़ुबूल कर लिया हो, उसकी छोटी-छोटी और मामूली बुराइयों का हिसाब लेने में अल्लाह सख़्तगीर नहीं है।
35. यानी उसने ‘सवाउस्सबील' (सीधे रास्ते) को पाकर फिर खो दिया और वह तबाही के रास्तों में भटक निकला। 'सवाउस्सबील' का तर्जमा तवस्सुत और एतिदाल की शाहेराह (बीच का राजमार्ग) किया जा सकता है, लेकिन इससे पूरा मतलब अदा नहीं होता। इसी लिए हमने तर्जमा में अस्ल लफ़्ज़ ही को ज्यों का त्यों ले लिया है। इस लफ़्ज़ के मतलब को समझने के लिए पहले यह बात ज़ेहन में बिठा लेनी चाहिए कि इनसान अपने आप अपनी ज़ात में एक छोटी दुनिया है जिसके अन्दर अनगिनत बहुत-सी ताक़तें हैं, क़ाबिलियतें हैं, ख़ाहिशें हैं, जज़्बात और रुझान हैं, नफ़्स (मन) और जिस्म की बहुत-सी माँगें हैं, रूह और तबीअत के बहुत-से तक़ाज़े हैं। फिर इन लोगों के मिलने से जो सामाजिक ज़िन्दगी बनती है वह भी बेहद्दो-हिसाब पेचीदा ताल्लुक़ात से मिलकर बनी होती है और तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता और संस्कृति) की तरक़्क़ी के साथ-साथ उसकी पेचीदगियाँ बढ़ती चली जाती हैं। फिर दुनिया में ज़िन्दगी का जो सामान इनसान के चारों तरफ़ फैला हुआ है उससे काम लेने और उसको इनसानी समाज में इस्तेमाल करने का सवाल भी इंफ़िरादी और इज्तिमाई हैसियत से मसाइल की बहुत-सी छोटी-बड़ी शाख़ें पैदा करता है। इनसान अपनी कमज़ोरी की वजह से ज़िन्दगी की इस पूरी मुद्दत पर एक ही वक़्त में एक मुतवाज़िन (सन्तुलित) नज़र नहीं डाल सकता। इस वजह से इनसान अपने लिए ख़ुद ज़िन्दगी का कोई ऐसा रास्ता भी नहीं बना सकता जिसमें उसकी सारी क़ुव्वतों के साथ इनसाफ़ हो, उसकी सभी ख़ाहिशों का ठीक-ठीक हक़ अदा हो जाए, उसके सारे जज़बात और रुझानों में एक तवाज़ुन (सन्तुलन) क़ायम रहे, उसके सब अन्दरूनी और बैरूनी (बाह्य) तक़ाज़े तनासुब (समानुपात) के साथ पूरे हों, उसकी इज्तिमाई ज़िन्दगी के तमाम मसलों की मुनासिब रिआयत का ख़याल रखा जाए और उन सबका एक हमवार और मुनासिब हल निकल आए, और माद्दी चीज़ों को भी शख़्सी और सामाजिक ज़िन्दगी में इनसाफ़ और हक़ की पहचान के साथ इस्तेमाल किया जाता रहे। जब इनसान ख़ुद अपना रहनुमा और अपना क़ानून बनानेवाला बनता है तो हक़ीक़त के बहुत-से पहलुओं में से कोई एक पहलु, ज़िन्दगी की ज़रूरतों में से कोई एक ज़रूरत, हल किए जानेवाले मसलों में से कोई एक मसला उसके दिमाग़ पर इस तरह मुसल्लत हो जाता है कि दूसरे पहलुओं और ज़रूरतों और मसलों के साथ वह जाने-अनजाने बे-इनसाफ़ी करने लगता है। और उसकी इस राय के ज़बरदस्ती लागू किए जाने का नतीजा यह होता है कि ज़िन्दगी का तवाज़ुन (सन्तुलन) बिगड़ जाता है और वह बे-एतिदाली (असन्तुलन) की किसी एक इन्तिहा की तरफ़ टेढ़ा चलने लगता है। फिर जब यह टेढ़ी चाल अपनी आख़िरी हदों पर पहुँचते-पहुँचते इनसान के लिए बरदाश्त से बाहर हो जाती है तो वे पहलू और वे ज़रूरतें और वे मसले जिनके साथ बे-इनसाफ़ी हुई थी बग़ावत शुरू कर देते हैं, और ज़ोर लगाना शुरू करते हैं। कि उनके साथ इनसाफ़ हो। मगर इनसाफ़ फिर भी नहीं होता। क्योंकि फिर वही अमल सामने आता है कि उनमें से कोई एक, जो पहले ना-इनसाफ़ी की वजह से सबसे ज़्यादा दबाया गया था, इनसानी दिमाग़ पर हावी हो जाता है और उसे अपने ख़ास तक़ाज़ों के मुताबिक़ एक ख़ास रुख़ पर बहा ले जाता है, जिसमें फिर दूसरे पहलुओं और ज़रूरतों और मामलों के साथ बे-इनसाफ़ी होने लगती है। इस तरह इनसानी ज़िन्दगी को कभी सीधा चलना नसीब नहीं होता। हमेशा वह हिचकोले ही खाती रहती है और तबाही के एक किनारे से दूसरे किनारे की तरफ़ लुढ़कती चली जाती है। ये रास्ते जो ख़ुद इनसान ने अपनी ज़िन्दगी के लिए बनाए हैं, ख़ते-मुनहनी (वक्र-रेखा) की शक्ल में मौजूद हैं, ग़लत सम्त से चलते हैं और ग़लत सम्त पर ख़त्म होकर फिर किसी दूसरी ग़लत सम्त की तरफ़ मुड़ जाते हैं। इन बहुत-से टेढ़े और ग़लत रास्तों के बीच एक ऐसा रास्ता जो बिलकुल बीच में हो, जिसमें इनसान की सभी ताक़तों और ख़ाहिशों के साथ, उसके तमाम जज़्बात और रुझानों के साथ, उसकी रूह और जिस्म की तमाम माँगों और तक़ाज़ों के साथ और उसकी ज़िन्दगी के तमाम मसलों के साथ पूरा-पूरा इनसाफ़ किया गया हो, जिसके अन्दर कोई टेढ़, कोई कजी, किसी पहलू की बे-जा रिआयत और किसी दूसरे पहलू के साथ ज़ुल्म और बे-इनसाफ़ी न हो, इनसानी ज़िन्दगी की सही तरक़्क़ी और उसकी क़ामयाबी और बा-मुरादी के लिए सख़्त ज़रूरी है। इनसान की अस्ल फ़ितरत ही उस रास्ते की माँग करती है और मुख़्तलिफ़ टेढ़े रास्तों से बार-बार उसके बग़ावत करने की अस्ल वजह यही है कि वह उस सीधी शाहेराह (राजमार्ग) को ढूँढ़ती है। मगर इनसान ख़ुद उस शाहेराह को मालूम करने की क़ुदरत नहीं रखता। उसकी तरफ़ सिर्फ़ ख़ुदा रहनुमाई कर सकता है और ख़ुदा ने अपने रसूल इसी लिए भेजे हैं कि वे उस सीधे रास्ते की तरफ़ इनसान की रहनुमाई करें। क़ुरआन इसी रास्ते को 'सवाउस्सबील' और सीधा रास्ता कहता है। यह शाहेराह (राजमार्ग) दुनिया की इस ज़िन्दगी से लेकर आख़िरत की दूसरी ज़िन्दगी तक अनगिनत टेढ़े रास्तों के बीच से सीधी गुज़रती चली जाती है। जो उसपर चला, वह यहाँ सीधे रास्ते पर चलनेवाला और आख़िरत में क़ामयाब और बा-मुराद है। और जिसने इस रास्ते को गुम कर दिया, वह यहाँ ग़लत है, ग़लत चलनेवाला और ग़लत करनेवाला है, और आख़िरत में उसे दोज़ख़ में जाना है। क्योंकि ज़िन्दगी के तमाम टेटे रास्ते दोज़ख़ ही की तरफ़ जाते हैं। मौजूदा ज़माने के कुछ नादान फ़लसफ़ियों ने यह देखकर कि इनसानी ज़िन्दगी एक इन्तिहा (अति) से दूसरी इन्तिहा की तरफ़ धक्के खाती चली जा रही है, यह ग़लत नतीजा निकाल लिया है कि 'जदली अमल' (Dialectical Process) इनसानी ज़िन्दगी के बढ़ने और तरक़्क़ी करने का फ़ितरी तरीक़ा है। वह अपनी बेवक़ूफ़ी से यह समझ बैठे कि इनसान की तरक़्क़ी का रास्ता यही है कि पहले एक इन्तिहा पसन्दाना (अतिवादी) दावा (Thesis) उसे एक रुख़ पर बहा ले जाए, फिर उसके जवाब में दूसरा वैसा ही इन्तिहा पसन्दाना (अतिवादी) दावा (Antitheses) उसे दूसरी इन्तिहा की तरफ़ खींचे और फिर दोनों के मिलने (Synthesis) से ज़िन्दगी की तरक़्क़ी और पलने-बढ़ने का रास्ता बने। हालाँकि अस्ल में यह तरक़्क़ी (पलने-बढ़ने) का रास्ता नहीं है, बल्कि बदनसीबी के धक्के हैं जो इनसानी ज़िन्दगी की सही तरक़्क़ी में बार-बार रुकावट बन रहे है। हर इन्तिहा पसन्दाना दावा ज़िन्दगी को उसके किसी एक पहलू की तरफ़ मोड़ता है और उसे खींचे लिए चला जाता है। यहाँ तक कि जब वह सवाउस्सबील से बहुत दूर जा पड़ती है तो ख़ुद ज़िन्दगी ही की कुछ दूसरी हक़ीक़तें, जिनके साथ बे-इनसाफ़ी हो रही थी उसके ख़िलाफ़ बग़ावत शुरू कर देती हैं और यह बग़ावत एक जवाबी दावे की शक्ल इख़्तियार करके उसे मुख़ालिफ़ रुख़ में खींचना शुरू करती है। ज्यों-ज्यों सवाउस्सबील क़रीब आती है उन बाहम टकरानेवाले दावों के बीच समझौता होने लगता है और उनके मिलाप से ये चीज़ें वजूद में आती हैं जो इनसानी ज़िन्दगी में फ़ायदेमन्द हैं। लेकिन जब वहाँ न सवाउसबील के निशान दिखानेवाली रौशनी मौजूद होती है और न इसपर मज़बूती से जमे रहनेवाला ईमान, तो वह जवाबी दावा ज़िन्दगी को उस मक़ाम पर ठहरने नहीं देता, बल्कि अपने ज़ोर में उसे दूसरी तरफ़ इन्तिहा तक खींचता चला जाता है, यहाँ तक कि फिर ज़िन्दगी की कुछ दूसरी हक़ीक़तों का इनकार शुरू हो जाता है। और नतीजे में एक दूसरी बग़ावत उठ खड़ी होती है। अगर उन कम-नज़र फ़लसफ़ियों तक क़ुरआन की रौशनी पहुँच गई होती और उन्होंने सवाउस्सबील को देख लिया होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि इनसान के लिए तरक़्क़ी का सही रास्ता यही ‘सवाउस्सबील’ है, न कि ख़ते-मुनहनी (वक्र रेखा) पर एक इन्तिहा से दूसरी इन्तिहा की तरफ़ धक्के खाते फिरना।
فَبِمَا نَقۡضِهِم مِّيثَٰقَهُمۡ لَعَنَّٰهُمۡ وَجَعَلۡنَا قُلُوبَهُمۡ قَٰسِيَةٗۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلَىٰ خَآئِنَةٖ مِّنۡهُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا مِّنۡهُمۡۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱصۡفَحۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 12
(13) फिर यह उनका अपने अह्द (वचन) को तोड़ डालना था, जिसकी वजह से हमने उनको अपनी रहमत से दूर फेंक दिया और उनके दिल सख़्त कर दिए। अब उनका हाल यह है कि लफ़्ज़ों का उलट-फेर करके बात को कहीं से कहीं ले जाते हैं, जो तालीम उन्हें दी गई थी उसका बड़ा हिस्सा भूल चुके हैं, और आए दिन तुम्हें उनकी किसी न किसी ख़ियानत का पता चलता रहता है। उनमें से बहुत कम लोग इस बुराई से बचे हुए हैं। (तो जब ये इस हाल को पहुँच चुके हैं तो जो शरारतें भी ये करें उनकी तो उनसे उम्मीद ही की जानी चाहिए।) इसलिए उन्हें माफ़ करो और उनकी हरकतों को अनदेखा करते रहो, अल्लाह उन लोगों को पसन्द करता है जो एहसान का रवैया अपनाते हैं।
وَمِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰٓ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَهُمۡ فَنَسُواْ حَظّٗا مِّمَّا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَأَغۡرَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَاوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ وَسَوۡفَ يُنَبِّئُهُمُ ٱللَّهُ بِمَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 13
(14) इसी तरह हमने उन लोगों भी पुख़्ता अह्द लिया था, जिन्होंने कहा था कि हम ‘नसारा' हैं,36 मगर उनको भी जो सबक़ याद कराया गया था उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने भुला दिया। आख़िरकार हमने उनके बीच क़ियामत तक के लिए दुश्मनी और आपस के हसद और बैर का बीज बो दिया और ज़रूर एक वक़्त आएगा जब अल्लाह उन्हें बताएगा कि वे दुनिया में क्या बनाते रहे हैं।
36. लोगों का यह ख़याल ग़लत है कि 'नसारा' का लफ़्ज़ 'नासिरा' से लिया गया है, जो मसीह (अलैहि०) का वतन था। अस्ल में यह लफ़्ज़ 'नुसरत' से लिया गया है और इसकी बुनियाद वह क़ौल है जिसमें मसीह (अलैहि०) के सवाल, “मन अनसारी इलल्लाह” (ख़ुदा के रास्ते में कौन लोग मेरे मददगार हैं?) के जवाब में हवारियों ने कहा था कि “नहनु अनसारुल्लाह” (हम अल्लाह के काम में मददगार है)। ईसाई लेखकों को आम तौर से सिर्फ़ ज़ाहिरी मुशाबहत (अनुरूपता) देखकर यह ग़लत-फ़हमी हुई कि ईसाइयत के शुरू के इतिहास में नासरिया (Nazarenes) के नाम से जो एक फ़िरक़ा (गरोह) पाया जाता था और जिन्हें नफ़रत के साथ नासरी और ऐबूनी कहा जाता था, इन्हीं के नाम को क़ुरआन ने तमाम ईसाइयों के लिए इस्तेमाल किया है। लेकिन यहाँ क़ुरआन साफ़ कह रहा है कि उन्होंने ख़ुद कहा था कि हम ‘नसारा' हैं और यह कि ईसाइयों ने अपना नाम कभी नासरी नहीं रखा। इस सिलसिले में यह बात क़ाबिले-ज़िक्र है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अपने माननेवालों का नाम कभी 'ईसाई' या 'मसीही’ नहीं रखा था, क्योंकि वे अपने नाम से किसी नए मज़हब की बुनियाद डालने नहीं आए थे। उनकी दावत उसी दीन को ताज़ा करने की तरफ़ थी, जिसे हज़रत मूसा (अलैहि०) और उनसे पहले और बाद के नबी (अलैहि०) लेकर आए थे। इसलिए उन्होंने आम बनी-इसराईल और मूसा (अलैहि०) की शरीअत पर चलनेवालों से अलग न कोई जमाअत बनाई और न अलग से कोई नाम रखा। उनके शुरू के पैरोकार ख़ुद भी न अपने आपको इसराईली मिल्लत से अलग समझते थे, न एक अलग गरोह बनकर रहे, और न उन्होंने अपने लिए कोई अलग ख़ास नाम और निशान अपनाया था। वे आम यहूदियों के साथ बैतुल-मक़्दिस ही के हैकल में इबादत करने के लिए जाते थे और अपने आप को मूसवी शरीअत ही पर अमल करने का पाबन्द समझते थे। (देखें कर्मियों 1:3, 14:40, 1:15, 21:5) आगे चलकर जुदाई का अमल दो तरफ़ से शुरू हुआ। एक तरफ़ हज़रत ईसा के पैरवी करनेवालों में से पोलूस (सेंट पॉल) ने शरीअत की पाबन्दी ख़त्म करके यह एलान कर दिया कि बस मसीह पर ईमान ले आना नजात के लिए काफ़ी है। और दूसरी तरफ़ यहूदी आलिमों ने मसीह की पैरवी करनेवालों को एक गुमराह फ़िरक़ा ठहराकर बनी-इसराईल के आम लोगों से काट दिया। लेकिन इस जुदाई के बावजूद शुरू में इस नए फ़िरक़े का कोई ख़ास नाम न था। ख़ुद मसीह के माननेवाले अपने लिए कभी 'शागिर्द' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते थे और कभी अपने साथियों का ज़िक्र ‘भाइयों' (इख़वान) 'ईमानदारों' (मोमिनीन) जो 'ईमान लाए’ (अल्लज़ी-न आमनू) और 'मुक़द्दसों' के अलफ़ाज़ से करते थे। (कर्मियों-2:44 , 4:32, 9:26, 11:29, 13:52, 15:1 और 23; रोमियों 15:25; कुलस्सियों 1:2) इसके बरख़िलाफ़ यहूदी उन लोगों को कभी गलीली कहते थे और कभी 'नासिरियों का बिदअती फ़िरक़ा' कहकर पुकारते थे। (कर्मियों 24:5 और लूक़ा 13:2) यह नाम धरने की कोशिश उन्होंने तंज़ (कटाक्ष) करने के लिए इस बुनियाद पर की थी कि हज़रत ईसा (अलैहि०) का वतन नासिरा था और वे फ़िलस्तीन के ज़िला गलील में था। लेकिन ये तंज़िया (कटाक्ष के) लफ़्ज़ इस हद तक राइज न हो सके कि मसीह के माननेवालों के लिए नाम की हैसियत इख़्तियार कर जाते। इस गरोह का मौजूदा नाम मसीही (CHRISTIAN) पहली बार सन् 43 या 44 ई० में अंताकिया के मुशरिक बाशिन्दों ने रखा था, जबकि सेंट पॉल और बरनावास ने वहाँ पहुँचकर अपने मज़हब की आम तबलीग़ शुरू की (कर्मियों 11:26)। यह नाम भी अस्ल में हंसी और मज़ाक़ उड़ाने के तौर पर मुख़ालिफ़ों की तरफ़ से रखा गया था, और मसीह के माननेवाले उसे ख़ुद अपने नाम के तौर पर क़ुबूल करने के लिए तैयार न थे। लेकिन जब उनके दुश्मनों ने उनको इसी नाम से पुकारना शुरू कर दिया तो उनके लीडरों ने कहा कि अगर तुम्हें मसीह की तरफ़ निस्बत देकर 'मसीही’ कहा जाता है तो तुम्हें इस पर शर्माने की क्या ज़रूरत है। (1 पितरस 4:16) । इस तरह धीरे-धीरे ये लोग ख़ुद भी अपने आपको उसी नाम से जोड़ने लगे, जिससे उनके दुश्मनों ने हँसी-मज़ाक़ उड़ाने के लिए उन्हें पुकारा था, यहाँ तक कि आख़िरकार उनके अन्दर से यह एहसास ही ख़त्म हो गया कि यह अस्ल में एक बुरा नाम था जो उन्हें दिया गया था। क़ुरआन ने इसी लिए मसीह के माननेवालों को मसीही या ईसाई के नाम से याद नहीं किया है, बल्कि उन्हें याद दिलाया है कि तुम अस्ल में उन लोगों के नामलेवा हो जिन्हें मरयम के बेटे ईसा ने पुकारा था कि 'मन अनसारी इलल्लाह' (कौन है जो अल्लाह की राह में मेरी मदद करे?) और उन्होंने जवाब दिया था कि 'नहनु अनसारुल्लाह' (हम अल्लाह की राह में मददगार हैं। इसलिए तुम अपनी शुरुआती और बुनियादी हक़ीक़त के एतिबार से नसारा या अनसार हो। लेकिन आज ईसाई मिशनरी इस याददिहानी पर क़ुरआन का शुक्रिया अदा करने के बजाय उलटी शिकायत कर रही है कि क़ुरआन ने उनको मसीही कहने के बजाय उनका नाम 'नसारा' क्यों रखा?
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ كَثِيرٗا مِّمَّا كُنتُمۡ تُخۡفُونَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖۚ قَدۡ جَآءَكُم مِّنَ ٱللَّهِ نُورٞ وَكِتَٰبٞ مُّبِينٞ ۝ 14
(15) ऐ किताबवालो, हमारा रसूल तुम्हारे पास आ गया है जो ख़ुदाई किताब की बहुत-सी उन बातों को तुम्हारे सामने खोल रहा है जिन पर तुम परदा डाला करते थे, और बहुत-सी बातों से अनदेखा भी कर जाता है।37
37. यानी तुम्हारी कुछ चोरियाँ और ख़ियानतें खोल देता है जिनका खोलना दीने-हक़ (सत्य-धर्म) को क़ायम करने के लिए ज़रूरी है, और कुछ को अनदेखा कर जाता है जिनको खोलने की कोई हक़ीक़ी ज़रूरत नहीं है।
يَهۡدِي بِهِ ٱللَّهُ مَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَهُۥ سُبُلَ ٱلسَّلَٰمِ وَيُخۡرِجُهُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِ بِإِذۡنِهِۦ وَيَهۡدِيهِمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 15
(16) तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ़ से रौशनी आ गई है और हक़ को दिखानेवाली एक ऐसी किताब जिसके ज़रिए से अल्लाह उन लोगों को जो उसकी ख़ुशी चाहते हैं, सलामती (शान्ति) के तरीक़े बताता और अपने हुक्म से उनको अँधेरों से निकालकर उजाले की तरफ़ लाता है और सीधे रास्ते की तरफ़ उनकी रहनुमाई करता है।
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۚ قُلۡ فَمَن يَمۡلِكُ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔا إِنۡ أَرَادَ أَن يُهۡلِكَ ٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَأُمَّهُۥ وَمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗاۗ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 16
(17) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि मरयम का बेटा मसीह ही ख़ुदा है।39 ऐ नबी, इनसे कहो कि अगर ख़ुदा मरयम के बेटे मसीह को और उसकी माँ और तमाम ज़मीन वालों को हलाक कर देना चाहे तो किस की मजाल है कि उसको इस इरादे से रोक सके? अल्लाह तो ज़मीन और आसमानों का और उन सब चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमानों के बीच पाई जाती हैं, जो कुछ चाहता है पैदा करता है40 और उसे हर चीज़ पर क़ुदरत हासिल है।
39. ईसाइयों ने शुरू में मसीह की शख़्सियत को इनसानियत और ख़ुदा का मुरक्कब (समिश्रण) क़रार देकर जो ग़लती की थी, उसका नतीजा यह हुआ कि उनके लिए मसीह की हक़ीक़त एक पहेली बनकर रह गई, जिसे उनके आलिमों ने लफ़्ज़ों के खेल और गुमान की मदद से हल करने की जितनी कोशिशें की उतने ही ज़्यादा उलझते चले गए। उनमें से जिसके ज़ेहन पर इस मुरक्कब शख़्सियत के इनसानी हिस्सों ने ग़लबा किया उसने मसीह के अल्लाह के बेटे होने और तीन मुस्तक़िल ख़ुदाओं में से एक होने पर ज़ोर दिया। और जिसके ज़ेहन पर ख़ुदाई हिस्से का असर ज़्यादा ग़ालिब हुआ उसने मसीह को अल्लाह का जिस्मानी ज़ुहूर क़रार देकर ऐन अल्लाह बना दिया और अल्लाह होने की हैसियत ही से मसीह की इबादत की। उनके दरमियान बीच की राह जिन्होंने निकालनी चाही उन्होंने सारा ज़ोर ऐसे लफ़्जी मतलब निकालने पर लगा दिया। जिनसे मसीह को इनसान भी कहा जाता रहे और उसके साथ ख़ुदा भी समझा जा सके। ख़ुदा और मसीह अलग-अलग भी हों और फिर एक भी रहें। (देखें सूरा-1 निसा, हाशिया-212 , 215 और 215)
40. इस जुमले में एक लतीफ़ (सूक्ष्म) इशारा इस तरफ़ है कि सिर्फ़ मसीह की ऐजाज़ी (चामत्कारिक) पैदाइश और उनके अख़लाक़ी कमालात और महसूस मोजिज़ों को देखकर जो लोग इस धोखे में पड़ गए कि मसीह ही ख़ुदा है, वे अस्ल में बहुत ही नादान हैं। मसीह तो अल्लाह की तख़लीक़ के अनगिनत अजाइब (अदभुत संरचनाओं) में से सिर्फ़ एक नमूना हैं जिसे देखकर उन कमज़ोर निगाहोंवाले लोगों की निगाहें चौंधिया गईं। अगर इन लोगों की निगाह कुछ दूर तक देखती तो इन्हें नज़र आता कि अल्लाह ने अपनी तख़लीक़ के इससे भी ज़्यादा हैरतअंगेज़ नमूने पेश किए हैं और उसकी क़ुदरत किसी हद के अन्दर महदूद (सीमित) नहीं है। तो यह बड़ी नासमझी है कि मख़लूक़ के कमालों को देखकर उसी पर ख़ालिक़ (स्रष्टा) होने का गुमान कर लिया जाए। समझदार वे हैं जो मख़लूक़ के कमालों में ख़ालिक़ की अज़ीमुश्शान क़ुदरत के निशानों को देखते हैं और इनसे ईमान का नूर हासिल करते हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ وَٱلنَّصَٰرَىٰ نَحۡنُ أَبۡنَٰٓؤُاْ ٱللَّهِ وَأَحِبَّٰٓؤُهُۥۚ قُلۡ فَلِمَ يُعَذِّبُكُم بِذُنُوبِكُمۖ بَلۡ أَنتُم بَشَرٞ مِّمَّنۡ خَلَقَۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 17
(18) यहूद और नसारा (यहूदी और ईसाई) कहते हैं कि हम अल्लाह के बेटे और उसके चहेते हैं। इनसे पूछो: फिर वह तुम्हारे गुनाहों पर तुम्हें सज़ा क्यों देता है? हक़ीक़त में तुम भी वैसे ही इनसान हो जैसे और इनसान ख़ुदा ने पैदा किए हैं। वह जिसे चाहता है माफ़ करता है और जिसे चाहता है सज़ा देता है, ज़मीन और आसमान और उनमें मौजूद सारी चीज़ें उसकी मिलकियत हैं और उसी की तरफ़ सबको जाना है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ قَدۡ جَآءَكُمۡ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمۡ عَلَىٰ فَتۡرَةٖ مِّنَ ٱلرُّسُلِ أَن تَقُولُواْ مَا جَآءَنَا مِنۢ بَشِيرٖ وَلَا نَذِيرٖۖ فَقَدۡ جَآءَكُم بَشِيرٞ وَنَذِيرٞۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 18
(19) ऐ किताबवालो, हमारा यह रसूल ऐसे वक़्त तुम्हारे पास आया है और दीन की वाज़ेह तालीम तुम्हें दे रहा है, जबकि रसूलों के आने का सिलसिला एक मुद्दत से बन्द था, ताकि तुम यह न कह सको कि हमारे पास कोई ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला नहीं आया। तो देखो, अब वह ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला आ गया और अल्लाह हर चीज पर क़ुदरत रखता है।41
41. इस माने पर यह जो बात कही गई है वह अपने अन्दर बड़े और असरदार मानी रखती है और यह निहायत लतीफ़ (सूक्ष्म) है। इसका मतलब यह भी है कि जो ख़ुदा पहले ख़ुशख़बरी देनेवाले और डरानेवाले भेजने पर क़ुदरत रखता था, उसी ने मुहम्मद (सल्ल०) को इस ख़िदमत पर लगाया है और वह ऐसा करने पर क़ुदरत रखता था। दूसरा मतलब यह है कि अगर तुमने इस ख़ुशख़बरी देनेवाले और डरानेवाले की बात न मानी तो याद रखो कि अल्लाह क़ुदरत रखनेवाला और तवाना (ताक़तवर) है। हर सज़ा जो वह तुम्हें देना चाहे बिना किसी की रुकावट के दे सकता है।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَعَلَ فِيكُمۡ أَنۢبِيَآءَ وَجَعَلَكُم مُّلُوكٗا وَءَاتَىٰكُم مَّا لَمۡ يُؤۡتِ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 19
(20) याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा था कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, अल्लाह की उस नेमत को याद करो जो उसने तुम्हें दी थी। उसने तुममें नबी पैदा किए, तुमको हाकिम बनाया और तुमको वह कुछ दिया जो दुनिया में किसी को न दिया था।42
42. यह इशारा है बनी-इसराईल की उस पिछली अज़मत और बड़ाई की तरफ़ जो हज़रत मूसा से बहुत पहले किसी ज़माने में उनको हासिल थी। एक तरफ़ हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जैसे बड़े और अज़ीमुश्शान पैग़म्बर उनकी क़ौम में पैदा हुए। और दूसरी तरफ़ हज़रत यूसुफ (अलैहि०) के ज़माने में और उनके बाद मिस्र में उनको बड़ा इक़तिदार नसीब हुआ। एक लम्बी मुद्दत तक वही उस ज़माने की मुहज़्ज़ब (सुसभ्य) दुनिया के सबसे बड़े हाकिम थे और उन्हीं का सिक्का मिस्र और उसके आस-पास के इलाक़े में चलता था। आम तौर से लोग बनी-इसराईल के तरक़्क़ी और गलबे का इतिहास हज़रत मूसा (अलैहि०) से शुरू करते हैं, लेकिन क़ुरआन इस जगह पर वाज़ेह करता है कि बनी-इसराईल की तरक़्क़ी और ग़लबे का अस्ल ज़माना हज़रत मूसा से पहले गुज़र चुका था, जिसे ख़ुद हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी क़ौम के सामने उसके शानदार माज़ी (अतीत) की हैसियत से पेश करते थे।
يَٰقَوۡمِ ٱدۡخُلُواْ ٱلۡأَرۡضَ ٱلۡمُقَدَّسَةَ ٱلَّتِي كَتَبَ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَارِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 20
(21) ऐ मेरी क़ौम के लोगो, उस मुक़द्दस सरज़मीन (पावन धरती) में दाख़िल हो जाओ जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है।43 पीछे न हटो, वरना नाकाम और नामुराद पलटोगे।”44
43. इससे मुराद फ़िलस्तीन की सरज़मीन है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०), इसहाक़ (अलैहि०) और याक़ूब (अलैहि०) की क़ियामगाह रह चुकी थी। बनी-इसराईल जब मिस्र से निकल आए तो इसी सरज़मीन को अल्लाह ने उनके लिए नामज़द किया और हुक्म दिया कि जाकर उसे फ़तह कर लो।
44. हज़रत मूसा (अलैहि०) की यह तक़रीर उस मौक़े की है जबकि मिस्र से निकलने के क़रीब दो साल के बाद वे अपनी क़ौम को लिए हुए फ़ारान के जंगल में पड़ाव डाले हुए थे। यह जंगल जज़ीरा नुमाए-सीना (सीना प्रायद्वीप) में अरब की उत्तरी और फ़िलस्तीन की दक्षिणी सरहद से मिला हुआ है।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّ فِيهَا قَوۡمٗا جَبَّارِينَ وَإِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَا حَتَّىٰ يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَا فَإِنَّا دَٰخِلُونَ ۝ 21
(22) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ मूसा, वहाँ तो बड़े ज़बरदस्त लोग रहते हैं, हम वहाँ हरगिज़ न जाएँगे, जब तक वे वहाँ से निकल न जाएँ। हाँ, अगर वे निकल गए तो हम दाख़िल होने के लिए तैयार हैं।”
قَالَ رَجُلَانِ مِنَ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمَا ٱدۡخُلُواْ عَلَيۡهِمُ ٱلۡبَابَ فَإِذَا دَخَلۡتُمُوهُ فَإِنَّكُمۡ غَٰلِبُونَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَتَوَكَّلُوٓاْ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 22
(23) उन डरनेवालों में दो लोग ऐसे भी थे।45 जिनको अल्लाह ने अपनी नेमत से नवाज़ा था। उन्होंने कहा कि “इन जब्र करनेवालों (दमनकारियों) के मुक़ाबले में दरवाज़े के अन्दर घुस जाओ, जब तुम अन्दर पहुँच जाओगे तो तुम ही ग़ालिब रहोगे, अल्लाह पर भरोसा रखो, अगर तुम ईमानवाले हो।
45. आयत के (जुमले के) दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि जो लोग जब्बारों (दमनकारियों) से डर रहे थे, उनके दरमियान से दो आदमी बोल उठे। दूसरा यह कि जो लोग ख़ुदा से डरनेवाले थे उनमें से दो आदमियों ने यह बात कही।
قَالُواْ يَٰمُوسَىٰٓ إِنَّا لَن نَّدۡخُلَهَآ أَبَدٗا مَّا دَامُواْ فِيهَا فَٱذۡهَبۡ أَنتَ وَرَبُّكَ فَقَٰتِلَآ إِنَّا هَٰهُنَا قَٰعِدُونَ ۝ 23
(24) लेकिन उन्होंने फिर यही कहा कि “ऐ मूसा हम तो वहाँ कभी न जाएँगे जब तक कि वे वहाँ मौजूद हैं। बस तुम और तुम्हारा रब, दोनों जाओ और लड़ो, हम यहाँ बैठे है।”
قَالَ رَبِّ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ إِلَّا نَفۡسِي وَأَخِيۖ فَٱفۡرُقۡ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 24
(25) इस पर मूसा ने कहा, “ऐ मेरे रब, मेरे इख़्तियार में कोई नहीं, मगर मेरी अपनी ज़ात या मेरा भाई। तो तू हमें इन नाफ़रमान लोगों से अलग कर दे।”
قَالَ فَإِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيۡهِمۡۛ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗۛ يَتِيهُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 25
(26) अल्लाह ने जवाब दिया, “अच्छा तो वह मुल्क चालीस साल तक इन पर हराम है। ये ज़मीन में मारे-मारे फिरेंगे।46 इन नाफ़रमानों की हालत पर हरगिज़ तरस न खाओ।47
46. इस क़िस्से की तफ़सील बाइबल की किताब गिनती, व्यवस्थाविवरण और यशायाह में मिलेगी। ख़ुलासा इसका यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़ारान जंगल से बनी-इसराईल के 12 सरदारों को फ़िलस्तीन का दौरा करने के लिए भेजा, ताकि वहाँ के हालात मालूम करके आएँ। ये लोग चालीस दिन दौरा करके वहाँ से वापस आए और उन्होंने क़ौम के आम मजमे (सभा) में बयान किया कि “हक़ीक़त में वहाँ दूध और शहद की नहरें बहती हैं। लेकिन जो लोग वहाँ बसे हुए हैं वे ज़ोरावर (प्रबल एवं विशालकाय) हैं........ हम इस लायक़ नहीं हैं कि उन लोगों पर हमला करें ........ वहाँ जितने आदमी हमने देखे वे सब बड़े डील-डौलवाले हैं और हमने वहाँ बनी-उनाक़ को भी देखा जो जब्बार (दमनकारी) हैं और जब्बारों की नस्ल से हैं, और हम तो अपनी ही निगाह में ऐसे थे जैसे टिड्डे होते हैं और ऐसे ही उनकी निगाह में थे।” यह बयान सुनकर सारी भीड़ चीख़ उठी कि “ऐ काश! हम मिस ही में मर जाते! या काश! इस बयाबान ही में मरते! ख़ुदावन्द, क्यों हमको उस मुल्क में ले जाकर तलवार से क़त्ल कराना चाहता है? फिर तो हमारी बीवियाँ और बाल-बच्चे लूट का माल ठहरेंगे। क्या हमारे लिए बेहतर न होगा कि हम मिस्र को वापस चले जाएँ।” फिर वे आपस में कहने लगे कि आओ हम किसी को अपना सरदार बना लें और मिस्र को लौट चलें। इस पर उन बारह सरदारों में से जो फ़िलस्तीन के दौरे पर भेजे गए थे, दो सरदार, यूशअ और कालिब उठे और उन्होंने इस बुज़दिली पर क़ौम को मलामत की। कालिब ने कहा, “चलो हम एकदम जाकर उस देश पर क़ब्ज़ा कर लें, क्योंकि हम इस क़ाबिल हैं कि इस पर हुकूमत करें।” फिर दोनों ने एक ज़बान होकर कहा, “अगर ख़ुदा हमसे राज़ी रहे तो वह हमको उस मुल्क तक पहूँचाएगा .......... बस इतना हो कि तुम ख़ुदावन्द से बग़ावत न करो और न इस मुल्क के लोगों से डरो ........ और हमारे साथ ख़ुदावन्द है। सो उनका डर न रखो।” मगर क़ौम ने उसका जवाब यह दिया कि “उन्हें संगसार (पत्थर मार-मारकर हलाक) कर दो।” आख़िरकार अल्लाह का ग़ज़ब भड़का और उसने फ़ैसला किया कि अच्छा अब यूशअ और कालिब के सिवा उस क़ौम के बालिग़ मर्दो में से कोई भी उस सरज़मीन में दाख़िल न होने पाएगा। यह क़ौम चालीस सालों तक बेघर दर-दर भटकती फिरेगी। यहाँ तक कि जब उनमें से 20 साल से ऊपर की उम्र तक के सब मर्द मर जाएँगे और नई नस्ल जवान होकर उठेगी तब उन्हें फ़िलस्तीन फ़तह करने का मौक़ा दिया जाएगा। चुनाँचे अल्लाह के इस फ़ैसले के मुताबिक़ बनी-इसराईल को फ़ारान जंगल से पूर्वी जार्डन तक पहुँचते-पहुँचते पूरे 38 साल लग गए। इस दौरान में वे सब लोग मर-खप गए जो जवानी की उम्र में मिस्र से निकले थे। पूर्वी जार्डन फ़तह करने के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) का भी इन्तिक़ाल हो गया। उसके बाद हज़रत यूशअ-बिन-नून की ख़िलाफ़त (शासन) के दौर में बनी-इसराईल इस क़ाबिल हुए कि वे फ़िलस्तीन फ़तह कर सकें।
47. बयान के सिलसिले पर ग़ौर करने से यहाँ इस वाक़िए का हवाला देने का मक़सद साफ़-साफ़ समझ में आ जाता है। क़िस्से के अन्दाज़ में अस्ल में बनी-इसराईल को यह जताना मक़सद है मूसा के ज़माने में नाफ़रमानी, मुँह मोड़कर और पस्तहिम्मती से काम लेकर जो सज़ा तुमने पाई थी, अब उससे बहुत ज़्यादा सख़्त सज़ा मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में बाग़ियाना रवैया अपनाकर पाओगे।
۞وَٱتۡلُ عَلَيۡهِمۡ نَبَأَ ٱبۡنَيۡ ءَادَمَ بِٱلۡحَقِّ إِذۡ قَرَّبَا قُرۡبَانٗا فَتُقُبِّلَ مِنۡ أَحَدِهِمَا وَلَمۡ يُتَقَبَّلۡ مِنَ ٱلۡأٓخَرِ قَالَ لَأَقۡتُلَنَّكَۖ قَالَ إِنَّمَا يَتَقَبَّلُ ٱللَّهُ مِنَ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 26
(27) और ज़रा इन्हें आदम के दो बेटों का क़िस्सा भी ठीक-ठीक (बेघटाए-बढ़ाए) सुना दो। जब उन दोनों ने क़ुरबानी की तो उनमें से एक की क़ुरबानी क़ुबूल की गई। और दूसरे की न की गई। उसने कहा, ” मैं तुझे मार डालूँगा।'' उसने जवाब दिया, “अल्लाह तो परहेज़गारों ही की नज़्रें क़ुबूल करता है।48
48. यानी तेरी क़ुरबानी अगर क़ुबूल नहीं हुई तो यह मेरे किसी क़ुसूर की वजह से नहीं है, बल्कि उस वजह से है कि तुझ में तक़वा (ख़ुदा का डर और परहेज़गारी) नहीं है। इसलिए मेरी जान लेने के बजाय तुझको अपने अन्दर तक़वा (ख़ुदा का डर और परहेज़गारी) पैदा करने की फ़िक्र करनी चाहिए।
لَئِنۢ بَسَطتَ إِلَيَّ يَدَكَ لِتَقۡتُلَنِي مَآ أَنَا۠ بِبَاسِطٖ يَدِيَ إِلَيۡكَ لِأَقۡتُلَكَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 27
(28) अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए हाथ उठाएगा तो में तुझे क़त्ल करने के लिए हाथ न उठाऊँगा।49 मैं अल्लाह से जो सारे जहान का रब है, डरता हूँ।
49. इसका यह मतलब नहीं है कि अगर तू मुझे क़त्ल करने के लिए आएगा तो मैं हाथ बाँधकर तेरे सामने क़त्ल होने के लिए बैठ जाऊँगा और बचाव नहीं करूँगा, बल्कि इसका मतलब यह कि तू मेरे क़त्ल के लिए आमादा होता है तो हो, मैं तेरे क़त्ल के लिए आमादा नहीं हूँगा। तू मेरे क़त्ल की तदबीर में लगना चाहे है तो तुझे इख़्तियार है, लेकिन मैं यह जानने के बाद भी कि तू मेरे क़त्ल की तैयारियाँ कर रहा है, यह कोशिश न करूँगा कि पहले मैं ही तुझे मार डालूँ। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि किसी आदमी का अपने आपको ख़ुद क़ातिल के आगे पेश कर देना और ज़ालिमाना हमले से बचाव न करना कोई नेकी नहीं है। अलबत्ता नेकी यह है कि अगर कोई आदमी मेरे क़त्ल पर आमादा हो और मैं जानता हूँ कि वह मेरी घात में लगा हुआ है, तब भी मैं उसके क़त्ल की फ़िक्र न करूँ और उसी बात को तरजीह (प्राथमिकता) दूँ कि ज़ालिमाना क़दम उसकी तरफ़ से उठाया जाए, न कि मेरी तरफ़ से। यही मतलब था इस बात का जो आदम (अलैहि०) के उस नेक बेटे ने कही।
إِنِّيٓ أُرِيدُ أَن تَبُوٓأَ بِإِثۡمِي وَإِثۡمِكَ فَتَكُونَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلنَّارِۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 28
(29) मैं चाहता हूँ कि मेरा और अपना गुनाह तू ही समेट ले50 और दोज़ख़ी बनकर रहे। ज़ालिमों के ज़ुल्म का यही ठीक बदला है।”
50. यानी बजाय इसके कि एक-दूसरे के क़त्ल की कोशिश में हम दोनों गुनाहगार हों, मैं इसको ज़्यादा बेहतर समझता हूँ कि दोनों का गुनाह अकेले तेरे ही हिस्से में आ जाए। तेरे अपने क़ातिलाना क़दम उठाने का गुनाह भी और उस नुक़सान का गुनाह भी जो अपनी जान बचाने की कोशिश करते हुए मेरे हाथ से तुझे पहुँच जाए।
فَطَوَّعَتۡ لَهُۥ نَفۡسُهُۥ قَتۡلَ أَخِيهِ فَقَتَلَهُۥ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 29
(30) आख़िरकार उसके नफ़्स (मन) ने अपने भाई का क़त्ल उसके लिए आसान कर दिया और वह उसे मारकर उन लोगों में शामिल हो गया जो नुक़सान उठानेवाले हैं।
فَبَعَثَ ٱللَّهُ غُرَابٗا يَبۡحَثُ فِي ٱلۡأَرۡضِ لِيُرِيَهُۥ كَيۡفَ يُوَٰرِي سَوۡءَةَ أَخِيهِۚ قَالَ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ أَعَجَزۡتُ أَنۡ أَكُونَ مِثۡلَ هَٰذَا ٱلۡغُرَابِ فَأُوَٰرِيَ سَوۡءَةَ أَخِيۖ فَأَصۡبَحَ مِنَ ٱلنَّٰدِمِينَ ۝ 30
(31) फिर अल्लाह ने एक कौआ भेजा, जो ज़मीन खोदने लगा ताकि उसे बताए कि अपने भाई की लाश कैसे छिपाए। यह देखकर वह बोला, “अफ़सोस मुझ पर! मैं इस कौए जैसा भी न हो सका कि अपने भाई की लाश छिपाने की तदबीर निकाल लेता।”51 इसके बाद वह अपने किए पर बहुत पछताया।52
51. इस तरह अल्लाह ने एक कौए के ज़रिए से आदम के उस ग़लतकार बेटे को उसकी जहालत और नादानी पर ख़बरदार किया और जब एक बार उसको अपने मन की तरफ़ तवज्जोह करने का मौक़ा मिल गया तो उसकी शर्मिन्दगी सिर्फ़ इसी बात तक महदूद न रही कि वह लाश छिपाने की तदबीर निकालने में कौए से पीछे क्यों रह गया, बल्कि उसको यह भी एहसास होने लगा कि उसने अपने भाई को क़त्ल करके कितनी बड़ी जहालत का सुबूत दिया है। बाद का जुमला कि वह अपने किए पर पछताया, इसी मतलब की दलील बनता है।
52. यहाँ इस वाक़िए को बयान करने का मक़सद यहूदियों को उनकी उस साज़िश पर लतीफ़ (सूक्ष्म) तरीक़े से मलामत करना है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) और आपके जलीलुल-क़द्र (महान) सहाबियों को क़त्ल करने के लिए की थी। (देखें इसी सूरा का हाशिया-30) ये दोनों वाक़िआत कितने मिलते-जुलते हैं यह बात बिलकुल वाज़ेह है। यह बात कि अल्लाह ने अरब के जलीलुल-क़द्र (महान) उम्मियों को अपने पैग़ाम के लिए चुन लिया और उन पुराने अहले-किताब को रद्द कर दिया, सरासर इस बुनियाद पर थी कि एक तरफ़ तक़वा (ईशपरायणता) था और दूसरी तरफ़ तक़वा नहीं था। लेकिन बजाय इसके कि वे लोग जिन्हें रद्द किया गया था, इस बात पर ग़ौर करते कि उन्हें किस वजह से नज़र-अन्दाज़ कर दिया गया और उस ग़लती को दूर करने के लिए आमादा होते जिसकी वजह से वे रद्द किए गए थे। उन पर ठीक उसी जाहिलियत का दौरा पड़ गया जिसमें आदम (अलैहि०) का वह ग़लतकार बेटा गिरफ़्तार था, और उसी की तरह वे उन लोगों के क़त्ल पर आमादा हो गए जिन्हें ख़ुदा ने अपने पैग़ाम के लिए चुन लिया था। हालाँकि ज़ाहिर था कि ऐसी जाहिलाना हरकतों से वे ख़ुदा के महबूब नहीं हो सकते थे, बल्कि ये करतूत उन्हें और ज़्यादा मरदूद (तिरस्कृत) बना देनेवाले थे।
مِنۡ أَجۡلِ ذَٰلِكَ كَتَبۡنَا عَلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنَّهُۥ مَن قَتَلَ نَفۡسَۢا بِغَيۡرِ نَفۡسٍ أَوۡ فَسَادٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَكَأَنَّمَا قَتَلَ ٱلنَّاسَ جَمِيعٗا وَمَنۡ أَحۡيَاهَا فَكَأَنَّمَآ أَحۡيَا ٱلنَّاسَ جَمِيعٗاۚ وَلَقَدۡ جَآءَتۡهُمۡ رُسُلُنَا بِٱلۡبَيِّنَٰتِ ثُمَّ إِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم بَعۡدَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡأَرۡضِ لَمُسۡرِفُونَ ۝ 31
(32) इसी वजह से बनी-इसराईल पर हमने यह फ़रमान लिख दिया था53 कि “जिसने किसी इनसान को ख़ून के बदले या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल किया, उसने मानो तमाम इनसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो तमाम इनसानों को ज़िन्दगी बख़्श दी।54 मगर उनका हाल यह है कि हमारे रसूल एक के बाद एक उनके पास खुली-खुली हिदायतें लेकर आए, फिर भी उनमें से बहुत-से लोग ज़मीन में ज़्यादतिया करनेवाले हैं।
53. यानी चूँकि बनी-इसराईल के अन्दर उन्हीं सिफ़ात के आसार पाए जाते थे जिनका इज़हार आदम के उस ज़ालिम बेटे ने किया था, इसलिए अल्लाह ने उनको किसी इनसान के क़त्ल से बाज़ रहने की सख़्त ताक़ीद की थी और अपने फ़रमान में ये बातें लिखी थीं। अफ़सोस है कि आज जो बाइबल पाई जाती है वह ख़ुदा के फ़रमान के इन क़ीमती अलफ़ाज़ से ख़ाली है। अलबत्ता तलमूद में यह मज़मून (विषय) इस तरह बयान हुआ है, “जिसने इसराईल की एक जान को हलाक किया, अल्लाह की किताब की नज़र में उसने मानो सारी दुनिया को हलाक किया और जिसने इसराईल की एक जान को महफ़ूज़ रखा, अल्लाह की किताब के नज़दीक मानो उसने सारी दुनिया की हिफ़ाज़त की।” इसी तरह तलमूद में यह भी बयान हुआ है कि क़त्ल के मुक़द्दमों में बनी-इसराईल के क़ाज़ी (जज) गवाहों को ख़िताब करके कहा करते थे कि “जो आदमी एक इनसान की जान हलाक करता है, वह ऐसी पूछगछ के लायक़ है कि मानो उसने दुनिया भर के इनसानों को क़त्ल किया है।”
54. मतलब यह है कि दुनिया में इनसानी ज़िन्दगी के बाक़ी रहने का दारोमदार इस बात पर है कि हर इनसान के दिल में दूसरे इनसानों की जान का एहतिराम मौजूद हो और हर एक-दूसरे की ज़िन्दगी को बाक़ी रखने और उसकी हिफ़ाज़त करने में मददगार बनने का जज़बा (भावना) रखता हो। जो आदमी नाहक़ किसी की जान लेता है वह सिर्फ़ एक ही आदमी पर ज़ुल्म नहीं करता, बल्कि यह भी साबित करता है कि उसका दिल इनसान की ज़िन्दगी के एहतिराम से और लोगों की हमदर्दी के जज़बे से ख़ाली है; इसलिए वह पूरी इनसानियत का दुश्मन है, क्योंकि उसके अन्दर वह सिफ़त पाई जाती है जो अगर तमाम इनसानों में पाई जाए तो पूरी इनसानियत का ख़ातिमा हो जाए। इसके बरख़िलाफ़ जो आदमी इनसान की ज़िन्दगी के बाक़ी रखने में मदद करता है वह अस्ल में इनसानियत का हिमायती है, क्योंकि उसमें वह सिफ़त पाई जाती है जिस पर इनसानियत के बाक़ी रहने का दारोमदार है।
إِنَّمَا جَزَٰٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادًا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِۚ ذَٰلِكَ لَهُمۡ خِزۡيٞ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 32
(33) जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और ज़मीन में इसलिए भाग-दौड़ करते-फिरते हैं कि फ़साद फैलाएँ55 उनकी सज़ा यह है कि क़त्ल किए जाएँ या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके हाथ और पाँव मुख़ालिफ़ सम्तों से काट डाले जाएँ या वे वतन से निकाल दिए जाएँ।56 यह ज़िल्लत और रुसवाई तो उनके लिए दुनिया में है और आख़िरत में उनके लिए इससे बड़ी सज़ा है।
55. ज़मीन से मुराद यहाँ वह मुल्क या वह इलाक़ा है जिसमें अम्न और इन्तिज़ाम क़ायम करने की ज़िम्मेदारी इस्लामी हुकूमत ने ले रखी हो। और ख़ुदा और रसूल से लड़ने का मतलब उस सॉलेह निज़ाम (कल्याणकारी व्यवस्था) के ख़िलाफ़ जंग करना है जो इस्लाम की हुकूमत ने क़ायम कर रखा हो। अल्लाह की मरज़ी यह है और इसी के लिए उसने अपना रसूल भेजा था कि ज़मीन में एक ऐसा सॉलेह निज़ाम क़ायम हो जो इनसान और हैवान और पेड़ और हर उस चीज़ को जो ज़मीन पर है, अम्न बख़्शे; जिसके तहत इनसानियत अपनी फ़ितरत के उस कमाल तक पहुँच सके जो उसका मक़सद है। जिसके तहत ज़मीन के वसाइल (संसाधन) इस तरह इस्तेमाल किए जाएँ कि वे इनसान की तरक़्क़ी में मददगार हों, न कि उसकी तबाही और बरबादी में। ऐसा निज़ाम जब किसी सरज़मीन पर क़ायम हो जाए तो उसको ख़राब करने की कोशिश करना अस्ल में ख़ुदा और उसके रसूल के ख़िलाफ़ जंग करना है, चाहे यह कोशिश छोटे पैमाने पर क़त्ल व ख़ून-ख़राबा और रहज़नी और डकैती की हद तक हो या बड़े पैमाने पर एक सॉलेह निज़ाम को उलटने और उसकी जगह कोई बुराइयों और फ़सादवाला निज़ाम क़ायम कर देने के लिए, अस्ल में वह ख़ुदा और उसके ख़िलाफ़ जंग है। यह ऐसा ही है जैसे ताज़ीराते-हिन्द (भारतीय दण्ड संहिता) में हर उस आदमी को, जो भारत की अंग्रेज़ी हुकूमत का तख़्ता उलटने की कोशिश करे, 'बादशाह के ख़िलाफ़ लड़ाई’ (Waging war against the King) का मुजरिम क़रार दिया गया। चाहे उसकी कार्रवाई मुल्क के किसी दूर-दराज़ इलाक़े में एक मामूली सिपाही के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो और बादशाह उसकी पहुँच से कितना ही दूर हो।
56. ये मुख़्तलिफ़ सजाएँ मुख़्तसर तौर पर बयान कर दी गई हैं, ताकि क़ाज़ी (जज) या उस वक़्त का हाकिम अपनी तहक़ीक़ और सूझ-बूझ से हर मुजरिम को उसके जुर्म की नौइयत (प्रकार) के मुताबिक़ सज़ा दे। अस्ल मक़सद यह ज़ाहिर करना है कि किसी आदमी का इस्लामी हुकूमत के अन्दर रहते हुए इस्लामी निज़ाम को उलटने की कोशिश करना बदतरीन जुर्म है और उसे इन सख़्त सज़ाओं मे से कोई सज़ा दी जा सकती है।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِن قَبۡلِ أَن تَقۡدِرُواْ عَلَيۡهِمۡۖ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 33
(34) मगर जो लोग तौबा कर लें, इससे पहले कि तुम उन पर क़ाबू पाओ, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।57
57. यानी अगर वे फ़साद की कोशिशो से रुक गए हों, सॉलेह निज़ाम को दरहम-बरहम करने या उलटने की कोशिश छोड़ चुके हों और उनका बाद का रवैया यह साबित कर रहा हो कि वे अम्नपसन्द, क़ानून की पाबन्दी करनेवाले और नेक चलन इनसान बन चुके और इसके बाद उनके पिछले जुर्मों का पता चले तो उन सज़ाओं में से कोई सज़ा उनको न दी जाएगी जो ऊपर बयान हुई हैं। अलबत्ता आदमियों के हक़ों और अधिकारों पर अगर कोई दस्तदराज़ी उन्होंने की थी तो उसकी ज़िम्मेदारी उनपर से खत्म न होगी। जैसे अगर किसी इनसान को उन्होंने क़त्ल किया था या किसी का माल लिया था या कोई और जुर्म इनसानी जान और माल के ख़िलाफ़ किया था तो उसी जुर्म के बारे में फ़ौजदारी मुक़द्दमा उनपर क़ायम किया जाएगा, लेकिन बग़ावत और ग़द्दारी और ख़ुदा और रसूल के ख़िलाफ़ जंग का कोई मुक़द्दमा न चलाया जाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱبۡتَغُوٓاْ إِلَيۡهِ ٱلۡوَسِيلَةَ وَجَٰهِدُواْ فِي سَبِيلِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 34
(35) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से डरो और उसके क़रीब होने का ज़रिआ तलाश करो58 और उसकी राह में जिद्दो-जुह्द करो,59 शायद कि तुम्हें क़ामयाबी नसीब हो जाए।
58. यानी हर उस ज़रिए के तालिब और खोजी रहो जिससे तुम अल्लाह का तक़र्रुब (सामीप्य) हासिल कर सको और उसकी रिज़ा (प्रसन्नता) को पहूँच सको।
59. मूल जरबी में लफ़्ज़ ‘जाहिदू’ इस्तेमाल किया गया है जिसका मतलब सिर्फ़ जिद्दो-जुह्द से पूरी तरह वाज़ेह नहीं होता। अरबी में ‘मुजाहदे’ का लफ़्ज़ मुक़ाबले का तक़ाज़ा करता है और इसका मतलब यह है कि जो ताक़तें अल्लाह की राह में रुकावट हैं जो तुमको ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ चलने से रोकती और उसकी राह से हटाने की कोशिश करती हैं, जो तुमको पूरी तरह ख़ुदा का बन्दा बनकर नहीं रहने देतीं और तुम्हें अपना या किसी ग़ैरुल्लाह का बन्दा बनने पर मजबूर करती हैं, उनके ख़िलाफ़ अपनी तमाम मुमकिन ताक़तों से कशमकश और जिद्दो-जुह्द करो। इसी जिद्दो-जुह्द पर तुम्हारी क़ामयाबी का और ख़ुदा से तुम्हारे क़रीब होने का दारोमदार है। इस तरह यह आयत एक मोमिन बन्दे को हर मोर्चे पर चौमुखी लड़ाई लड़ने की हिदायत करती है। एक तरफ़ लानतज़दा इबलीस और उसका शैतानी लश्कर है। दूसरी तरफ़ आदमी का अपना मन और उसकी सरकश ख़ाहिशें हैं। तीसरी तरफ़ ख़ुदा से फिरे हुए बहुत-से इनसान हैं जिनके साथ आदमी हर तरह के समाजी, तमद्दुनी (सांस्कृतिक) और मआशी (आर्थिक) ताल्लुक़ात से बँधा हुआ है। चौथी तरफ़ वे ग़लत मज़हबी, तमद्दुनी और सियासी निज़ाम हैं जो ख़ुदा से बग़ावत पर क़ायम हुए हैं और हक़ की बन्दगी के बजाय बातिल की बन्दगी पर इनसान को मजबूर करते हैं। इन सबकी चालें अलग-अलग हैं, मगर सबकी एक ही कोशिश है कि आदमी को ख़ुदा के बजाय अपना फ़रमाँबरदार बनाएँ। इसके बरख़िलाफ़ आदमी की तरक्क़ी का और ख़ुदा के क़रीब होने के मक़ाम तक उसके उरूज (उत्थान) का दारोमदार पूरे तौर पर इस बात पर है कि वह सरासर अल्लाह का फ़रमाँबरदार और बातिन से लेकर ज़ाहिर तक ख़ालिस तौर पर अल्लाह का बन्दा बन जाए। इसलिए अपने मक़सद तक उसका पहुँचना इसके बिना मुमकिन नहीं है कि वह इन तमाम रोक और रुकावट बननेवाली ताक़तों के ख़िलाफ़ एक साथ जंग करे, हर वक़्त हर हाल में उनसे कशमकश करता रहे और उन सारी रुकावटों को रौंदता हुआ ख़ुदा की राह में बढ़ता चला जाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ أَنَّ لَهُم مَّا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا وَمِثۡلَهُۥ مَعَهُۥ لِيَفۡتَدُواْ بِهِۦ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ مَا تُقُبِّلَ مِنۡهُمۡۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 35
(36) ख़ूब जान लो कि जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) का रवैया अपनाया है अगर उनके क़ब्ज़े में सारी ज़मीन की दौलत हो और उतनी ही और उसके साथ, और वे चाहें कि उसे फ़िदये (बदले) में देकर क़ियामत के दिन के अज़ाब से बच जाएँ, तब भी वह उनसे क़ुबूल न की जाएगी और उन्हें दर्दनाक सज़ा मिलकर रहेगी।
يُرِيدُونَ أَن يَخۡرُجُواْ مِنَ ٱلنَّارِ وَمَا هُم بِخَٰرِجِينَ مِنۡهَاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّقِيمٞ ۝ 36
(37) वे चाहेंगे कि दोज़ख़ की आग से निकल भागें, मगर निकल न सकेंगे और उन्हें क़ायम (स्थिर) रहनेवाला अज़ाब दिया जाएगा।
وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا جَزَآءَۢ بِمَا كَسَبَا نَكَٰلٗا مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 37
(38) और चोर, चाहे औरत हो या मर्द, दोनों के हाथ काट दो 60 यह उनकी कमाई का बदला है और अल्लाह की तरफ़ से इबरतनाक (शिक्षाप्रद) सज़ा। अल्लाह की क़ुदरत सब पर ग़ालिब है और वह सब कुछ जानता और सुननेवाला है।
60. दोनों हाथ नहीं, बल्कि एक हाथ। और उम्मत का इसपर भी इत्तिफ़ाक़ है कि पहली चोरी पर दायाँ हाथ काटा जाएगा। नबी (सल्ल०) ने बताया है कि खियानत करनेवाले पर हाथ काटने की सजा लागू नहीं होगी, इससे मालूम हुआ कि चोरी में खियानत वग़ैरा शामिल नहीं हैं, बल्कि चोरी यह है कि आदमी किसी के माल को उसकी हिफ़ाज़त से निकालकर अपने क़ब्ज़े में ले ले। फिर नबी (सल्ल०) ने यह हिदायत भी की है कि एक ढाल की क़ीमत से कम की चोरी में हाथ न काटा जाए। एक ढाल की क़ीमत नबी (सल्ल०) के ज़माने में अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत के मुताबिक़ दस दिरहम, हज़रत इब्ने-उमर की रिवायत के मुताबिक़ तीन दिरहम, अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) की रिवायत के मुताबिक़ पाँच दिरहम और हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत के मुताबिक़ एक चौथाई दीनार होती थी। इसी इख़्तिलाफ़ की बुनियाद पर फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) के बीच चोरी के निसाब (कम-से-कम निर्धारित मात्रा) में इख़्तिलाफ़ हुआ है। इमाम अबू-हनीफ़ा के नज़दीक चोरी का निसाब दस दिरहम है और इमाम मालिक, शाफ़िई और अहमद-बिन-हम्बल (रह०) के नज़दीक चौथाई दीनार है। (उस ज़माने के दिरहम में तीन माशा, 1 1/5 रत्ती चाँदी होती थी। और एक चौथाई दीनार 3 दिरहम के बराबर था।) फिर बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जिनकी चोरी में हाथ काटने की सज़ा न दी जाएगी। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) की हिदायत है कि फल और तरकारी की चोरी में हाथ न काटा जाएगा। और खाने की चोरी में हाथ काटने की सज़ा नहीं है। और हज़रत आइशा (रज़ि०) की हदीस है कि मामूली चीज़ों की चोरी में नबी (सल्ल०) के ज़माने में हाथ नहीं काटा जाता था। हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत उसमान (रज़ि०) का फ़ैसला है और सहाबा (रज़ि०) में से किसी ने इससे इख़्तिलाफ़ नहीं किया है कि परिन्दे की चोरी में हाथ काटने की सज़ा नहीं है। हज़रत उमर और हज़रत अली (रज़ि०) ने भी बैतुल-माल से चोरी करनेवाले का हाथ भी नहीं काटा और इस मामले में भी सहाबा (रज़ि०) में से किसी का इख़्तिलाफ़ नहीं मिलता है। इन बातों की बुनियाद पर बहुत-से इमामों और फ़ुक़हा ने बहुत-सी चीज़ों को हाथ काटने के हुक्म से अलग रखा है। इमाम अबू-हनीफ़ा के नज़दीक तरकारियाँ, फल, गोश्त, पका हुआ खाना, ग़ल्ला (अनाज) जिसका अभी खलिहान न किया गया हो, खेल और गाने-बजाने के औज़ार वे चीज़ें हैं जिनकी चोरी में हाथ काटने की सज़ा नहीं है। और जंगल में चरते हुए जानवरों की चोरी और बैतुल-माल की चोरी में भी वे हाथ काटने की सज़ा के कायल नहीं हैं। इसी तरह दूसरे इमामों ने भी कुछ चीज़ों को इस हुक्म से अलग रखा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन चोरियों पर सिरे से कोई सज़ा ही न दी जाएगी, बल्कि मतलब यह है कि इन जुर्मों में हाथ न काटा जाएगा।
فَمَن تَابَ مِنۢ بَعۡدِ ظُلۡمِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَإِنَّ ٱللَّهَ يَتُوبُ عَلَيۡهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 38
(39) फिर जो ज़ुल्म करने के बाद तौबा करे और अपना सुधार कर ले तो अल्लाह की नज़रे-इनायत (कृपादृष्टि) फिर उस पर माइल (उन्मुख) हो जाएगी।61 अल्लाह बहुत माफ़ करनेवाला और रहम फ़रमानेवाला है।
61. इसका यह मतलब नहीं कि उसका हाथ न काटा जाए, बल्कि मतलब यह है कि हाथ कटने के बाद जो आदमी तौबा कर ले और अपने नफ़्स (मन) को चोरी से पाक करके अल्लाह का नेक बन्दा बन जाए वह अल्लाह के ग़ज़ब से बच जाएगा और अल्लाह उसके दामन से उस दाग़ को धो देगा। लेकिन अगर किसी ने हाथ कटवाने के बाद भी अपने आपको बदनीयती से पाक न किया और वही गन्दे जज़बात अपने अन्दर पाले रखे, जिनकी वजह से उसने चोरी की और उसका हाथ काटा गया, तो इसके मानी ये हैं कि हाथ तो उसके बदन से जुदा हो गया, मगर चोरी उसके दिल में बदस्तूर मौजूद रही। इस वजह से वह ख़ुदा के ग़ज़ब का उसी तरह हक़दार रहेगा जिस तरह हाथ कटने से पहले था। इसी लिए क़ुरआन मजीद चोर को हिदायत करता है कि वह अल्लाह से माफ़ी माँगे और अपने नफ़्स (मन) की इस्लाह करे, क्योंकि हाथ काटना तो समाजी इन्तिज़ाम के लिए है। इस सज़ा से नफ़्स पाक नहीं हो सकता। नफ़्स की पाकी सिर्फ़ तौबा और अल्लाह की तरफ़ पलटने से हासिल होती है। नबी (सल्ल०) के बारे में हदीसों में बयान हुआ है कि एक चोर का हाथ जब आप (सल्ल०) के हुक्म के मुताबिक़ काटा जा चुका तो आप ने उसे अपने पास बुलाया और उससे कहा, “कह, मैं ख़ुदा से माफ़ी चाहता हूँ और उससे तौबा करता हूँ।” उसने आपकी नसीहत के मुताबिक़ ये अलफ़ाज़ कहे। फिर आप (सल्ल०) ने उसके हक़ में दुआ की कि “ऐ अल्लाह! इसे माफ कर दे।"
أَلَمۡ تَعۡلَمۡ أَنَّ ٱللَّهَ لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يُعَذِّبُ مَن يَشَآءُ وَيَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 39
(40) क्या तुम जानते नहीं हो कि अल्लाह ज़मीन और आसमानों की सल्तनत का मालिक है? जिसे चाहे सज़ा दे और जिसे चाहे माफ़ कर दे, वह हर चीज़ का इख़्तियार रखता है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ لَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِ مِنَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَلَمۡ تُؤۡمِن قُلُوبُهُمۡۛ وَمِنَ ٱلَّذِينَ هَادُواْۛ سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ سَمَّٰعُونَ لِقَوۡمٍ ءَاخَرِينَ لَمۡ يَأۡتُوكَۖ يُحَرِّفُونَ ٱلۡكَلِمَ مِنۢ بَعۡدِ مَوَاضِعِهِۦۖ يَقُولُونَ إِنۡ أُوتِيتُمۡ هَٰذَا فَخُذُوهُ وَإِن لَّمۡ تُؤۡتَوۡهُ فَٱحۡذَرُواْۚ وَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ فِتۡنَتَهُۥ فَلَن تَمۡلِكَ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يُطَهِّرَ قُلُوبَهُمۡۚ لَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا خِزۡيٞۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 40
(41) ऐ पैग़म्बर, तुम्हारे लिए दुख का सबब न हों वे लोग जो कुफ़्र (इनकार) की राह में बड़ी तेज़ रफ़्तारी दिखा रहे है62 चाहे वे उनमें से हो जो मुँह से कहते हैं कि हम ईमान लाए, मगर दिल उनके ईमान नहीं लाए। या उनमें से हों जो यहूदी बन गए हैं, जिनका हाल यह है कि झूठ के लिए कान लगाते63 हैं और दूसरे लोगों की ख़ातिर, जो तुम्हारे पास कभी नहीं आए, सुन-गुन लेते फिरते हैं।64 अल्लाह की किताब के लफ़्ज़ों को उनका सही मौक़ा मुतैयन (निश्चित अर्थ) होने के बावजूद अस्ल मानी से फेरते हैं।65 और लोगों से कहते हैं कि अगर तुम्हें यह हुक्म दिया जाए तो मानो, नहीं तो न मानो।66 जिसे अल्लाह ही ने फ़ितने में डालने का इरादा कर लिया हो उसको अल्लाह की पकड़ से बचाने के लिए तुम कुछ नहीं कर सकते।67 ये वे लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना न चाहा68 उनके लिए दुनिया में रुसवाई है और आख़िरत में सख़्त सज़ा।
62. यानी जिनकी ज़ेहनी और दिमाग़ी सलाहियतें और सरगर्मियाँ सारी की सारी इस कोशिश में लग रहीं हैं कि जाहिलियत की जो हालत पहले से चली आ रही है वही बरक़रार रहे और इस्लाम का यह पैग़ाम जिसका मक़सद समाज को सुधारना है उस बिगाड़ को ठीक करने में क़ामयाब न होने पाए। ये लोग तमाम अख़लाक़ी पाबन्दियों से आज़ाद होकर नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ हर क़िस्म की घटिया से घटिया चालें चल रहे थे। जान-बूझकर हक़ निगल रहे थे। निहायत बे-बाक़ी और और जसारत (दुस्साहस) के साथ झूठ, फ़रेब, दग़ा और मक्कारी के हथियारों से उस पाक इनसान के काम को शिकस्त देने की कोशिश कर रहे थे जो पूरी बेग़र्ज़ी के साथ सरासर ख़ैरख़ाही की बुनियाद पर आम इनसानों की और ख़ुद उनकी क़ामयाबी और तरक्क़ी के लिए रात-दिन मेहनत कर रहा था। उनकी इन हरकतों को देख-देखकर नबी (सल्ल०) का दिल कुढ़ता था और उनका यह कुढ़ना बिलकुल फ़ितरी बात थी। जब किसी पाकीज़ा इनसान को अख़लाक़ से गिरे हुए लोगों से वास्ता पड़ता है और वह सिर्फ़ अपनी जहालत और ख़ुदग़रज़ी और तगनज़री की बुनियाद पर उसकी उन कोशिशों को जो उनकी भलाई के लिए ही की जा रही हैं, रोकने के लिए घटिया दरजे की चालबाज़ियों से काम लेते हैं तो फ़ितरी तौर पर उसका दिल दुखता ही है। तो अल्लाह के फ़रमान का मंशा और मक़सद यह नहीं है कि इन हरकतों पर जो फ़ितरी रंज आपको होता है वह नहीं होना चाहिए, बल्कि मंशा अस्ल में यह है कि इससे आप हिम्मत न हारें, दिल छोटा न करें, बल्कि सबके साथ अल्लाह के बन्दों के सुधार के लिए काम किए चले जाएँ। रहे ये लोग, तो जिस क़िस्म के घटिया और गिरे हुए अख़लाक़ उन्होंने अपने अन्दर पाले हैं उनकी वजह से उनसे ठीक इसी रवैये की उम्मीद है, कोई चीज़ इनकी इस रविश में ऐसी नहीं है जो उम्मीद के ख़िलाफ़ हो।
63. इसके दो मतलब हैं– एक यह कि ये लोग चूँकि ख़ाहिशों के बन्दे बन गए हैं, इसलिए सच्चाई से इन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है। झूठ ही इन्हें पसन्द आता है और इसी को ये जी लगाकर सुनते हैं, क्योंकि इनके नफ़्स की प्यास उसी से बुझती है। दूसरा मतलब यह है कि नबी (सल्ल०) और मुसलमानों की मजलिसों में ये झूठ की ग़रज़ से आकर बैठते हैं, ताकि यहाँ जो कुछ देखें और जो बातें सुनें उनको उलटे मतलब पहनाकर या उनके साथ अपनी तरफ़ से ग़लत बातें मिलाकर नबी (सल्ल०) और मुसलमानों को बदनाम करने के लिए लोगों में फैलाएँ।
64. इसके भी दो मतलब हैं। एक यह कि जासूस बनकर आते हैं और नबी (सल्ल०) और मुसलमानों की मजलिसों में इसलिए गश्त लगाते फिरते हैं कि कोई राज़ की बात कान में पड़े तो उसे आपके दुश्मनों तक पहुँचाएँ। दूसरा मतलब यह है कि झूठे इलज़ाम लगाने और झूठ फैलाने के लिए बातें इकट्ठा करते फिरते हैं, ताकि उन लोगों में बदगुमानियाँ और ग़लतफ़हमियाँ फैलाएँ जिनको नबी (सल्ल०) और मुसलमानों से सीधे तौर पर ताल्लुक़ पैदा करने का मौक़ा नहीं मिला है।
65. यानी तौरात के जो अहकाम (आदेश) उनकी ख़ाहिशों के मुताबिक़ नहीं हैं, उनके अन्दर जान-बूझकर फेर-बदल करते हैं और अलफ़ाज़ के मानी को बदलकर मनमाने अहकाम उनसे निकालते हैं।
66. यानी जाहिल लोगों से कहते हैं कि जो हुक्म हम बता रहे हैं, अगर मुहम्मद (सल्ल०) भी यही हुक्म तुम्हें बताएँ तो उसे क़ुबूल करना, वरना रद्द कर देना।
67. अल्लाह की तरफ़ से किसी के फ़ितने में डाले जाने का मतलब यह है कि जिस आदमी के अन्दर अल्लाह किसी तरह के बुरे रुझान पलते-बढ़ते देखता है उसके सामने एक के बाद एक ऐसे मौक़े लाता है जिनमें उसकी सख़्त आज़माइश होती है, अगर वह आदमी अभी बुराई की तरफ़ पूरी तरह नहीं झुका है तो इन आज़माइशों से संभल जाता है और उसके अन्दर बुराई का मुक़बला करने के लिए नेकी (भलाई) की जो ताक़तें मौजूद होती हैं, वे उभर आती हैं। लेकिन अगर वह बुराई की तरफ़ पूरी तरह झुक चुका होता है और उसकी नेकी उसकी बदी (बुराई) से अन्दर ही अन्दर हार मान चुकी होती है तो हर ऐसी आज़माइश के मौक़े पर वह और ज़्यादा बुराई के फन्दे में फँसता चला जाता है। यही अल्लाह का वह फ़ितना है जिससे किसी बिगड़ते हुए इनसान को बचा लेना उसके किसी ख़ैरख़ाह के बस में नहीं होता। और इस फ़ितने में सिर्फ़ लोग ही नहीं डाले जाते, बल्कि क़ौमें भी डाली जाती हैं।
68. इसलिए कि उन्होंने ख़ुद पाक होना न चाहा। जो ख़ुद पाकीज़गी का ख़ाहिशमन्द होता है और उसके लिए कोशिश करता है, उसे पाकीज़गी से महरूम करना अल्लाह का दस्तूर नहीं है। अल्लाह पाक करना उसी को नहीं चाहता जो ख़ुद पाक होना नहीं चाहता।
سَمَّٰعُونَ لِلۡكَذِبِ أَكَّٰلُونَ لِلسُّحۡتِۚ فَإِن جَآءُوكَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُمۡ أَوۡ أَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡۖ وَإِن تُعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ فَلَن يَضُرُّوكَ شَيۡـٔٗاۖ وَإِنۡ حَكَمۡتَ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِٱلۡقِسۡطِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 41
(42) ये झूठ सुननेवाले और हराम के माल खानेवाले हैं,69 इसलिए अगर ये तुम्हारे पास (अपने मुक़द्दमे लेकर) आएँ तो तुम्हें इख़्तियार दिया जाता है कि चाहो उनका फ़ैसला करो, वरना इनकार कर दो। इनकार कर दो तो ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते। और फ़ैसला करो तो फिर ठीक-ठीक इनसाफ़ के साथ करो कि अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।70
69. यहाँ ख़ास तौर पर उनके मुफ़्तियों और क़ाज़ियों (न्यायाधीशों) की तरफ़ इशारा है जो झूठी गवाहियाँ लेकर और झूठी रिपोटें सुनकर उन लोगों के हक़ में इनसाफ़ के ख़िलाफ़ फ़ैसले किया करते ये जिनसे उन्हें रिश्वत पहुँच जाती थी या जिनके साथ उनके नाजाइज़ फ़ायदे जुड़े हुए होते थे।
70. यहूदी उस वक़्त तक इस्लामी हुकूमत की बाक़ायदा रिआया (नागरिक) नहीं बने थे, बल्कि इस्लामी हुकूमत के साथ उनके ताल्लुक़ात की बुनियाद समझौतों पर थी। उन समझौतों के मुताबिक़ यहूदियों को अपने अन्दरूनी मामलों में आज़ादी हासिल थी और उनके मुक़द्दमों के फ़ैसले उन्हीं के क़ानूनों के मुताबिक़ उनके अपने जज करते थे। नबी (सल्ल०) के पास या आपके तय किए हुए क़ाज़ियों (न्यायधीशों) के पास अपने मुक़द्दमे लाने के लिए क़ानून के मुताबिक़ वे मजबूर न थे। लेकिन ये लोग जिन मामलों में ख़ुद अपने मज़हबी क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करना न चाहते थे उनका फ़ैसला कराने के लिए नबी (सल्ल०) के पास इस उम्मीद पर आ जाते थे कि शायद आपकी शरीअत में उनके लिए कोई दूसरा हुक्म हो और इस तरह वे अपने मज़हबी क़ानून की पैरवी से बच जाएँ। यहाँ ख़ास तौर पर जिस मुक़द्दमे की तरफ़ इशारा है, वह यह था कि ख़ैबर के इज़्ज़तदार यहूदी ख़ानदानों में से एक औरत और एक मर्द के बीच नाजाइज़ ताल्लुक़ पाया गया। तौरात के मुताबिक़ उनकी सज़ा रज्म थी, यानी यह कि दोनों को संगसार (पत्थर मार-मारकर हलाक) किया जाए। (देखें व्यवस्था 22:23-24) लेकिन यहूदी इस सज़ा को लागू करना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में मश्वरा किया कि इस मुक़द्दमे में मुहम्मद (सल्ल०) को पंच बनाया जाए। अगर वे रज्म के सिवा कोई और हुक्म दें तो क़ुबूल कर लिया जाए और रज्म ही का हुक्म दें तो न क़ुबूल किया जाए। चुनाँचे मुक़द्दमा नबी (सल्ल०) के सामने लाया गया। नबी (सल्ल०) ने रज्म का हुक्म दिया। उन्होंने इस हुक्म को मानने से इनकार किया। इसपर आपने पूछा तुम्हारे मज़हब में इसकी क्या सज़ा है? उन्होंने कहा कि कोड़े मारना और मुँह काला करके गधे पर सवार करना। आप (सल्ल०) ने उनके आलिमों को क़सम देकर उनसे पूछा क्या तौरात में शादी-शुदा ज़ानी और ज़ानिया की यही सज़ा है? उन्होंने फिर वही झूठा जवाब दिया। लेकिन उनमें से एक आदमी इब्ने-सूरया, जो ख़ुद यहूदियों के बयान के मुताबिक़ अपने ज़माने में तौरात का सबसे बड़ा आलिम था, ख़ामोश रहा। आप (सल्ल०) ने उससे मुखातब होकर कहा कि में तुझे उस ख़ुदा की क़सम देकर पूछता हूँ, जिसने तुम लोगों को फ़िरऔन से बचाया और तूर पहाड़ पर तुम्हें शरीअत दी, क्या हक़ीक़त में तौरात में ज़िना की यही सज़ा लिखी है? उसने जवाब दिया कि “अगर आप मुझे ऐसी भारी क़सम न देते तो मैं न बताता। सच बात यह है कि ज़िना की सज़ा तो रज्म ही है, मगर हमारे यहाँ जब यह बुराई बहुत फैल गई तो हमारे हाकिमों ने यह तरीक़ा अपनाया कि बड़े लोग ज़िना करते तो उन्हें छोड़ दिया जाता और छोटे लोगों से यही हरकत होती तो उन्हें रज्म की सज़ा दी जाती। फिर जब इससे लोगों में नाराज़गी पैदा होने लगी तो हमने तौरात के क़ानून को बदलकर यह क़ायदा बना लिया कि ज़ानी और ज़ानिया को कोड़े लगाए जाएँ और उन्हें मुँह काला करके गधे पर उलटे मुँह सवार किया जाए। उसके बाद यहूदियों के लिए कुछ बोलने की गुंजाइश न रही और नबी (सल्ल०) के हुक्म से ज़ानी और ज़ानिया को संगसार कर दिया गया।
وَكَيۡفَ يُحَكِّمُونَكَ وَعِندَهُمُ ٱلتَّوۡرَىٰةُ فِيهَا حُكۡمُ ٱللَّهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوۡنَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 42
(43) और ये तुम्हें कैसे फ़ैसला करनेवाला बनाते हैं जबकि इनके पास तौरात मौजूद है जिसमें अल्लाह का हुक्म लिखा हुआ है और फिर ये उससे मुँह मोड़ रहे हैं?71 अस्ल बात यह है कि ये लोग ईमान ही नहीं रखते।
71. इस आयत में अल्लाह ने इन लोगों की बददियानती को बिलकुल बेनक़ाब कर दिया है। ये 'मज़हबी' लोग जिन्होंने पूरे अरब पर अपनी दीनदारी और अपनी किताब के इल्म का सिक्का जमा रखा था, उनकी हालत यह थी कि जिस किताब को ख़ुद अल्लाह की किताब मानते थे और जिसपर ईमान रखने के दावेदार थे उसके हुक्म को छोड़कर नबी (सल्ल०) के पास अपना मुक़द्दमा लाए थे जिनके पैग़म्बर होने से उनको बड़ी सख़्ती से इनकार था। इससे यह राज़ बिलकुल खुल गया कि ये किसी चीज़ पर भी सच्चाई के साथ ईमान नहीं रखते, अस्ल में इनका ईमान अपने नफ़्स और उसकी ख़ाहिशों पर है। जिसे अल्लाह की किताब मानते हैं, उससे सिर्फ़ इसलिए मुँह मोड़ते हैं कि उसका हुक्म उनके नफ़्स को नागवार है और जिसे नुबूवत का (अल्लाह पनाह में रखे) झूठा दावेदार कहते हैं, उसके पास सिर्फ़ इस उम्मीद पर जाते हैं कि शायद वहाँ से कोई ऐसा फ़ैसला हासिल हो जाए जो उनकी मरज़ी के मुताबिक़ हो।
إِنَّآ أَنزَلۡنَا ٱلتَّوۡرَىٰةَ فِيهَا هُدٗى وَنُورٞۚ يَحۡكُمُ بِهَا ٱلنَّبِيُّونَ ٱلَّذِينَ أَسۡلَمُواْ لِلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ بِمَا ٱسۡتُحۡفِظُواْ مِن كِتَٰبِ ٱللَّهِ وَكَانُواْ عَلَيۡهِ شُهَدَآءَۚ فَلَا تَخۡشَوُاْ ٱلنَّاسَ وَٱخۡشَوۡنِ وَلَا تَشۡتَرُواْ بِـَٔايَٰتِي ثَمَنٗا قَلِيلٗاۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 43
(44) हमने तौरात उतारी जिसमें हिदायत और रौशनी थी। सारे नबी, जो मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) थे, उसी के मुताबिक़ इन यहूदी बन जानेवालों72 के मामलों का फ़ैसला करते थे और इसी तरह रब्बानी और अहबार73 भी (इसी पर फ़ैसले की बुनियाद रखते थे), क्योंकि उन्हें अल्लाह की किताब की हिफाज़त का ज़िम्मेदार बनाया गया था और वे इस पर गवाह थे। तो (ऐ यहूदियों के गरोह) तुम लोगों से न डरो, बल्कि मुझसे डरो और मेरी आयतों को ज़रा-ज़रा से मुआवज़े लेकर बेचना छोड़ दो। जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वही काफ़िर (इनकारी) हैं।
72. यहाँ इस हक़ीक़त पर भी ख़बरदार कर दिया कि नबी सबके सब 'मुस्लिम' (फ़रमाँबरदार) थे। इसके बरख़िलाफ़ ये यहूदी 'इस्लाम' (ख़ुदा की फ़माँबरदारी) से हटकर और गरोहबन्दी में पड़कर सिर्फ़ 'यहूदी' बनकर रह गए थे।
73. रब्बानी से मुराद यहाँ उनके आलिम हैं और अहबार से मुराद उनके फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) हैं।
وَكَتَبۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيهَآ أَنَّ ٱلنَّفۡسَ بِٱلنَّفۡسِ وَٱلۡعَيۡنَ بِٱلۡعَيۡنِ وَٱلۡأَنفَ بِٱلۡأَنفِ وَٱلۡأُذُنَ بِٱلۡأُذُنِ وَٱلسِّنَّ بِٱلسِّنِّ وَٱلۡجُرُوحَ قِصَاصٞۚ فَمَن تَصَدَّقَ بِهِۦ فَهُوَ كَفَّارَةٞ لَّهُۥۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 44
(45) तौरात में हमने यहूदियों पर यह हुक्म लिख दिया था कि जान के बदले जान, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और तमाम ज़ख़्मों के लिए बराबर का बदला।74 फिर जो क़िसास का सदक़ा कर दे तो वह उसके लिए कफ़्फ़ारा है75 और जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वही ज़ालिम हैं।
74. मुक़ाबले (तुलना) के लिए देखें तौरात की किताब निर्गमन अध्याय-21 आयत-23 से25।
75. यानी जो आदमी सदक़े की नीयत से क़िसास माफ़ कर दे उसके हक़ में यह नेकी उसके बहुत-से गुनाहों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) हो जाएगी। इसी मानी में नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान है कि “जिस किसी के जिस्म में कोई ज़ख़्म लगाया गया और उसने माफ़ कर दिया तो जिस दरजे की यह माफ़ी होगी उसी के हिसाब से उसके गुनाह माफ़ कर दिए जाएँगे।"
وَقَفَّيۡنَا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم بِعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡإِنجِيلَ فِيهِ هُدٗى وَنُورٞ وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 45
(46) फिर हमने इन पैग़म्बरों के बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा। तौरात में से जो कुछ उसके सामने मौजूद था वह उसकी तसदीक़ (पुष्टि) करनेवाला था। और हमने उसको इंजील दी जिसमें रहनुमाई और रौशनी थी और वह भी तौरात में से जो कुछ उस वक़्त मौजूद था उसकी तसदीक़ (पुष्टि) करनेवाली थी।76 और अल्लाह से डरनेवाले लोगों के लिए सरासर हिदायत और नसीहत थी।
76. यानी मसीह (अलैहि०) कोई नया मज़हब लेकर नहीं आए थे, बल्कि वही एक दीन (धर्म), जो पिछले सारे नबियों का दीन (धर्म) था, मसीह का दीन भी था और उसी की तरफ़ वे दावत देते थे। तौरात की अस्ल तालीमात (शिक्षाओं) में से जो कुछ उनके ज़माने में महफ़ूज़ था उसको मसीह ख़ुद भी मानते थे और इंजील भी उसकी तसदीक़ करती थी। (देखें मत्ती अध्याय-5, आयत 17, 18)। क़ुरआन इस हक़ीक़त को बार-बार दोहराता है कि ख़ुदा की तरफ़ से जितने नबी दुनिया के किसी कोने में आए हैं उनमें से कोई भी पिछले नबियों को रद्द करने के लिए और उनके कामों को मिटाकर अपना नया मज़हब चलाने के लिए नहीं आया था, बल्कि हर नबी अपने पिछले नबियों की तसदीक़ (पुष्टि) करता था और उसी काम को आगे बढ़ाने के लिए आता था जिसे अगलों ने एक पाक विरासत की हैसियत से छोड़ा था। इसी तरह अल्लाह ने अपनी कोई किताब अपनी ही पिछली किताबों को रद्द करने के लिए कभी नहीं भेजी, बल्कि उसकी हर किताब पहले आई हुई किताबों की ताईद और तसदीक़ में थी।
وَلۡيَحۡكُمۡ أَهۡلُ ٱلۡإِنجِيلِ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فِيهِۚ وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 46
(47) हमारा हुक्म था कि इंजीलवाले उस क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करें जो अल्लाह ने उसमें उतारा है और जो लोग अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें वहीं फ़ासिक़ हैं।77
77. यहाँ अल्लाह ने उन लोगों के हक़ में, जो ख़ुदा के नाज़िल किए हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला न करें, तीन हुक्म दिए हैं। एक यह कि वे कुफ़्र करनेवाले हैं, दूसरे यह कि वे ज़ालिम हैं, तीसरे यह कि वे फ़ासिक़ और नाफ़रमान हैं। इसका साफ़ मतलब यह है कि जो इनसान ख़ुदा के और उसके उतारे हुए क़ानून को छोड़कर अपने या दूसरे इनसानों के बनाए हुए क़ानूनों पर फ़ैसला करता है, वह अस्ल में तीन बड़े जुर्म करता है। एक तो यह कि उसका यह काम अल्लाह के हुक्म के इनकार के बराबर है और यह कुफ़्र (अधर्म) है। दूसरा यह कि उसका यह काम अद्ल और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ है, क्योंकि ठीक-ठीक इनसाफ़ के मुताबिक़ जो हुक्म हो सकता था वह तो ख़ुदा ने दे दिया था, इसलिए जब ख़ुदा के हुक्म से हटकर उसने फ़ैसला किया तो ज़ुल्म किया। तीसरे यह कि बन्दा होने के बावजूद जब उसने अपने मालिक के क़ानून से मुँह फेरकर अपना या किसी दूसरे का क़ानून लागू किया तो अस्ल में बन्दगी और इताअत के दायरे से बाहर क़दम निकाला और यही फ़िस्क़ (नाफ़रमानी) है। यह कुफ़्र, ज़ुल्म, और फ़िस्क़ अपनी नौईयत के पहलू से लाज़िमी तौर पर इन्हिराफ़ (अल्लाह के हुक्म से फिर जाने) की ठीक हक़ीक़त में दाख़िल है। यह मुमकिन ही नहीं है कि जहाँ वह इन्हिराफ़ (फिर जाना) मौजूद हो वहाँ ये तीनों चीज़ें मौजूद न हों। अलबत्ता जिस तरह अल्लाह के हुक्म से फिरने के दजों में फ़र्क़ है उसी तरह इन तीनों चीज़ों के दजों में भी फ़र्क़ है। जो आदमी अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ इस बुनियाद पर फ़ैसला करता है कि वह अल्लाह के हुक्म को ग़लत और अपने या किसी दूसरे इनसान के हुक्म को सही समझता है वह मुकम्मल इनकारी और ज़ालिम और फ़ासिक़ (नाफ़रमान) है। और जो अक़ीदे के तौर पर अल्लाह के हुक्म को सही और हक़ समझता है मगर अमल में उसके ख़िलाफ़ फ़ैसला करता है वह हालाँकि मिल्लत से ख़ारिज तो नहीं है मगर अपने ईमान में कुफ़्र, ज़ुल्म और फ़िस्क़ की मिलावट कर रहा है। इसी तरह वह तमाम मामलों में काफ़िर, ज़ालिम, फ़ासिक़ है। और जो कुछ मामलों में फ़रमाँबरदार और कुछ मामलों में अल्लाह के हुक्मों से फिरा हुआ है तो उसकी ज़िन्दगी में ईमान और इस्लाम और कुफ़ और ज़ुल्म और फ़िस्क़ की मिलावट ठीक-ठीक उसी हिसाब के साथ है जिस हिसाब से उसने इताअत और नाफ़रमानी को मिला रखा है। क़ुरआन के कुछ मुफ़स्सिरों (टीकाकारों) ने इन आयतों को अहले-किताब के साथ ख़ास कर देने की कोशिश की है, मगर अल्लाह के कलाम के अलफ़ाज़़ में इस मतलब के लिए कोई गुंजाइश मौजूद नहीं। इस बात का बेहतरीन जवाब वह है जो हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ि०) ने दिया है। उनसे किसी ने कहा कि ये तीनों आयतें तो बनी-इसराईल के हक़ में हैं। कहनेवाले का मतलब यह था कि यहूदियों में से जिसने ख़ुदा के उतारे हुए हुक्म के ख़िलाफ़ फ़ैसला किया हो वही कुफ़्र (अधर्म) करनेवाला, वही ज़ुल्म करनेवाला और वही फ़ासिक़ (नाफ़रमान) है। इस पर हज़रत हुजैफ़ा ने कहा कि “कितने अच्छे भाई हैं तुम्हारे लिए ये बनी-इसराईल कि कड़ुवा-कड़ुआ सब उनके लिए है और मीठा-मीठा सब तुम्हारे लिए। हरगिज़ नहीं! ख़ुदा की क़सम, तुम उन्हीं के तरीक़े पर क़दम-ब-क़दम चलोगे।"
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ فَٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ عَمَّا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ لِكُلّٖ جَعَلۡنَا مِنكُمۡ شِرۡعَةٗ وَمِنۡهَاجٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَكُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۖ فَٱسۡتَبِقُواْ ٱلۡخَيۡرَٰتِۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 47
(48) फिर ऐ नबी, हमने तुम्हारी तरफ़ यह किताब भेजी जो हक़ लेकर आई है और अल-किताब में से जो कुछ इसके आगे मौजूद है उसकी तसदीक़ करनेवाली78 और उसकी हिफ़ाज़त करनेवाली और निगराँ है।79 इसलिए तुम ख़ुदा के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ लोगों के मामलों का फ़ैसला करो और जो हक़ तुम्हारे पास आया है उससे मुँह मोड़कर उनकी ख़ाहिशों की पैरवी न करो।– हमने80 तुम (इनसानों) में से हर एक के लिए एक शरीअत और अमल का एक रास्ता मुक़र्रर किया। हालाँकि अगर तुम्हारा ख़ुदा चाहता तो तुम सबको एक उम्मत भी बना सकता था। लेकिन उसने यह इसलिए किया कि जो उसने तुम लोगों को दिया है उसमें तुम्हारी आज़माइश करे। इसलिए भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की कोशिश करो। आख़िरकार तुम सबको ख़ुदा की तरफ़ पलटकर जाना है। फिर वह तुम्हें अस्ल हक़ीक़त बता देगा जिसमें तुम इख़्तिलाफ़ करते रहे हो81।
78. यहाँ एक अहम हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया गया है। हालाँकि इस बात को यूँ भी कहा जा सकता था कि ‘पिछली किताबों' में से जो कुछ अपनी असली और सही सूरत पर बाक़ी हैं, क़ुरआन उसकी तसदीक़ करता है, लेकिन अल्लाह ने पिछली किताबों के बजाय अल-किताब (मूल किताब) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया। इससे यह राज़ खुलता है कि क़ुरआन और तमाम वे किताबें जो अलग-अलग ज़मानों और अलग-अलग ज़बानों में अल्लाह की तरफ़ से उतरीं, सबकी सब अस्ल में एक ही किताब हैं। एक ही उनका लिखनेवाला है, एक ही उनका मंशा और मक़सद है, एक ही उनकी तालीम है, और एक ही इल्म है जो उनके ज़रिए से तमाम इनसानों को दिया गया। फ़र्क़ अगर है तो इबारतों का है जो एक ही मक़सद के लिए अलग-अलग मुख़ातबों (श्रोताओं) के लिहाज़ से अलग-अलग तरीक़ों से इख़्तियार की गईं। तो हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि ये किताबें एक-दूसरे की मुख़ालिफ़ नहीं, बल्कि ताईद करनेवाली हैं। रद्द करनेवाली नहीं, बल्कि तसदीक़ करनेवाली हैं। बल्कि अस्ल हक़ीक़त इससे कुछ बढ़कर है और वह यह है कि ये सब एक ही 'अल-किताब' के मुख़्तलिफ़ एडिशन (संस्करण) हैं।
79. मूल अरबी में लफ़्ज़ 'मुहैमिन' इस्तेमाल हुआ है। अरबी में हैम-न, युहैमिनु, हैम-न-तन (माद्दे या धातु से बननेवाले लफ़्ज़ों) का मतलब हिफ़ाज़त, निगरानी, गवाही, अमानत, ताईद और हिमायत है। अरबी में ‘हैम-न-रजुलु-शैइ’ का मतलब है कि आदमी ने फ़ुलाँ चीज़ की हिफ़ाज़त और निगहबानी की, और ‘हैम-नत्ताइरु अला फ़राख़िही’ का मतलब है कि परिन्दे ने अपने चूज़े को अपने परों में लेकर महफ़ूज़ कर दिया। हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक बार लोगों से कहा कि ‘इन्नी दाइन फ़-है-मनू’ यानी मैं दुआ करता हूँ तुम ताईद में आमीन कहो। इसी से लफ़्ज़ ‘हिमयान’ है जिसे उर्दू में हिमयानी कहते हैं, यानी वह थैली जिसमें आदमी अपना माल रखकर महफ़ूज़ करता है। इसलिए क़ुरआन को 'अल-किताब' पर मुहैमिन कहने का मतलब यह है कि उसने उन तमाम सच्ची और बरहक़ तालीमात को, जो पिछली आसमानी किताबों में दी गई थीं अपने अन्दर लेकर महफ़ूज़ कर दिया है। वह उनपर निगहबान है इस मानी में कि अब उनकी सच्ची और बरहक़ तालीमात का कोई हिस्सा बरबाद न होने पाएगा। वह उनकी ताईद करनेवाला है। इस मानी में कि इन किताबों के अन्दर ख़ुदा का कलाम जिस हद तक मौजूद है क़ुरआन से इसकी तसदीक़ होती है। वह उनपर गवाह है इस मानी में कि उन किताबों के अन्दर ख़ुदा के कलाम और लोगों के कलाम की जो मिलावट हो गई है क़ुरआन की गवाही से उसको फिर छाँटा जा सकता है। जो कुछ इनमें क़ुरआन के मुताबिक़ है वह ख़ुदा का कलाम है और जो क़ुरआन के ख़िलाफ़ है वह लोगों का कलाम है।
80. यहाँ ऊपर से चली आ रही बात के सिलसिले से हटकर एक दूसरी बात कही जा रही है, जिसका मक़सद एक सवाल को वाज़ेह करना है जो ऊपर की तक़रीर के सिलसिले को सुनते हुए आदमी के ज़ेहन में उलझन पैदा कर सकता है। सवाल यह है कि जब तमाम नबी और तमाम किताबों का दीन (धर्म) एक है और ये सब एक-दूसरे की तसदीक़ और ताईद करते हुए आए हैं तो शरीअत की तफ़सीलात में उनके बीच फ़र्क़ क्यों है? क्या बात है कि इबादत की सूरतों में, हराम और हलाल की बन्दिशों में और समाजी और तमद्दुनी क़ानूनों, फैलाने और तरक्क़ी देने में मुख़्तलिफ़ नबियों और आसमानी किताबों की शरीअतों के बीच थोड़ा-बहुत इख़्तिलाफ़ पाया जाता है?
81. यह ऊपर किए गए सवाल का पूरा जवाब है। इस जवाब की तफ़सील यह है (I) सिर्फ़ शरीअतों के इख़्तिलाफ़ को इस बात की दलील ठहराना ग़लत है कि ये शरीअतें मुख़्तलिफ़ माख़ज़ (ज़रिओं) से ली गई हैं और मुख़्तलिफ़ सरचश्मों (स्रोतों) से निकली हुई हैं। अस्ल में वह अल्लाह ही है जिसने मुख़्तलिफ़ क़ौमों के लिए मुख़्तलिफ़ ज़मानों और मुख़्तलिफ़ हालात में मुख़्तलिफ़ ज़ाब्ते और क़ानून बनाए। (ii) बेशक यह मुमकिन था कि शुरू ही से तमाम इनसानों के लिए एक ज़ाब्ता और क़ानून मुक़र्रर करके सबको एक उम्मत बना दिया जाता। लेकिन वह फ़र्क़ जो अल्लाह ने मुख़्तलिफ़ नबियों की शरीअतों के बीच रखा उसके अन्दर दूसरी बहुत-सी मस्लहतों के साथ एक बड़ी मस्लहत यह भी थी कि अल्लाह इस तरीक़े से लोगों की आज़माइश करना चाहता था, जो लोग अस्ल दीन और उसकी रूह और हक़ीक़त को समझते हैं, और दीन में इन ज़ाब्तों और क़ानूनों की अस्ल हैसियत को जानते हैं, और किसी तास्सुब (पूर्वाग्रह) में नहीं पड़े हैं, वे हक़ को जिस सूरत में भी वह आएगा, पहचान लेंगे और क़ुबूल कर लेंगे। उनको अल्लाह के भेजे हुए पिछले अहकाम (आदेशों) की जगह बाद के अहकाम तसलीम करने में कोई हिचकिचाहट न होगी। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग दीन की रूह से बेगाना हैं और क़ानूनों और ज़ाब्तों, उनकी तफ़सीलों ही को अस्ल दीन समझ बैठे हैं और जिन्होंने ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई चीज़ों पर ख़ुद अपने हाशिए चढ़ाकर उन पर जुमूद (जड़ता) और तास्सुब (पक्षपात) इख़्तियार कर लिया है वे हर उस हिदायत को रद्द करते चले जाएँगे जो बाद में ख़ुदा की तरफ़ से आए। इन दोनों क़िस्म के आदमियों को एक-दूसरे से छाँटकर अलग करने के लिए यह आज़माइश ज़रूरी थी, इसलिए अल्लाह ने शरीअतों में इख़्तिलाफ़ रखा। (iii) तमाम शरीअतों से अस्ल मक़सद नेकियों और भलाइयों को पाना है और वे इसी तरह हासिल हो सकती हैं कि जिस वक़्त जो ख़ुदा का हुक्म हो उसकी पैरवी की जाए। इसलिए जो लोग अस्ल मक़सद पर निगाह रखते हैं उनके लिए शरीअतों के इख़्तिलाफ़ और तौर-तरीक़ों के फ़र्क़ पर झगड़ा करने के बजाय सही रवैया यह है कि मक़सद की तरफ़ उस राह से आगे बढ़ें, जिसको अल्लाह की मंजूरी हासिल हो। (iv) जो इख़्तिलाफ़ इनसानों ने अपने जुमूद, तास्सुब, हठधर्मी और ज़ेहन की उपज से ख़ुद पैदा कर लिए हैं उनका आख़िरी फ़ैसला न मुनाज़रे की मजलिस (शास्त्रार्थ की सभा) में हो सकता है, न जंग के मैदान में। आख़िरी फ़ैसला अल्लाह ख़ुद करेगा, जबकि हक़ीक़त खोल कर रख दी जाएगी और लोगों पर खुल जाएगा कि जिन झगड़ों में वे उम्रें खपाकर दुनिया से आए हैं, उनकी तह में 'हक़' (सत्य) का ज़ौहर कितना था और ‘बातिल’ (असत्य) की मिलावट कितनी।
وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُصِيبَهُم بِبَعۡضِ ذُنُوبِهِمۡۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا مِّنَ ٱلنَّاسِ لَفَٰسِقُونَ ۝ 48
(49) – तो82 ऐ नबी, तुम अल्लाह के उतारे हुए क़ानून के मुताबिक़ इन लोगों के मामलों का फ़ैसला करो और इनकी ख़ाहिशों की पैरवी न करो। होशयार रहो कि ये लोग तुमको फ़ितने में डालकर उस हिदायत से ज़र्रा बराबर हटाने न पाएँ जो ख़ुदा ने तुम्हारी तरफ़ उतारी है। फिर अगर ये इससे मुँह मोड़ें तो जान लो कि अल्लाह ने इनके कुछ गुनाहों के बदले में इनको मुसीबत में डालने का इरादा ही कर लिया है और यह हक़ीक़त है कि इन लोगों में से अकसर लोग फ़ासिक़ (नाफ़रमान) हैं।
82. यहाँ से तक़रीर का फिर वही सिलसिला चल पड़ता है जो ऊपर से चला आ रहा था।
أَفَحُكۡمَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ يَبۡغُونَۚ وَمَنۡ أَحۡسَنُ مِنَ ٱللَّهِ حُكۡمٗا لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 49
(50) (अगर ये ख़ुदा के क़ानून से मुँह मोड़ते हैं) तो क्या फिर जाहिलियत83 का फ़ैसला चाहते हैं? हालाँकि जो लोग अल्लाह पर यक़ीन रखते हैं उनके नज़दीक अल्लाह से बेहतर फ़ैसला करनेवाला कोई नहीं है।
83. जाहिलियत का लफ़्ज़ इस्लाम के मुक़ाबले में इस्तेमाल किया जाता है। इस्लाम का तरीक़ा सरासर इल्म है, क्योंकि इसकी तरफ़ ख़ुदा ने रहनुमाई की है जो तमाम हक़ीक़तों का इल्म रखता है। और इसके बरख़िलाफ़ हर वह तरीक़ा जो इस्लाम से मुख़्तलिफ़ है, जाहिलियत का तरीक़ा है। इस्लाम से पहले के अरब के ज़माने को जाहिलियत का दौर इसी मानी में कहा गया है कि उस ज़माने में इल्म के बिना सिर्फ़ वहम या क़ियास और गुमान या ख़ाहिशों की बुनियाद पर इनसानों ने अपने लिए ज़िन्दगी के तरीक़े तय कर लिए थे। यह रवैया जहाँ जिस दौर में भी इनसान इख़्तियार करें उसे बहरहाल जाहिलियत ही का रवैया कहा जाएगा। मदरसों और यूनिवर्सिटियों में जो कुछ पढ़ाया जाता है वह सिर्फ़ एक जुज़वी (आंशिक) इल्म है। और किसी मानी में इनसान की रहनुमाई के लिए काफ़ी नहीं है। इसलिए ख़ुदा के दिए हुए इल्म से बेनियाज़ और बेपरवाह होकर ज़िन्दगी का जो निज़ाम इस जुज़वी इल्म (आंशिक ज्ञान) के साथ गुमानों, अटकलों और ख़ाहिशों की मिलावट करके बना लिए गए हैं वे भी उसी तरह 'जाहिलियत' की तारीफ़ (परिभाषा) में आते हैं जिस तरह पुराने ज़माने के जाहिली तरीक़े इस तारीफ़ में आते थे।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلنَّصَٰرَىٰٓ أَوۡلِيَآءَۘ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمۡ فَإِنَّهُۥ مِنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 50
(51) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, यहूदियों और ईसाइयों को अपना साथी और राज़दार न बनाओ, ये आपस ही में एक-दूसरे के दोस्त (राज़दार) हैं। और अगर तुम में से कोई उनको अपना दोस्त (राज़दार) बनाता है तो उसकी गिनती भी फिर उन्हीं में है। यक़ीनन अल्लाह ज़ालिमों को अपनी रहनुमाई से महरूम कर देता है।
فَتَرَى ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يُسَٰرِعُونَ فِيهِمۡ يَقُولُونَ نَخۡشَىٰٓ أَن تُصِيبَنَا دَآئِرَةٞۚ فَعَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَ بِٱلۡفَتۡحِ أَوۡ أَمۡرٖ مِّنۡ عِندِهِۦ فَيُصۡبِحُواْ عَلَىٰ مَآ أَسَرُّواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ نَٰدِمِينَ ۝ 51
(52) तुम देखते हो कि जिनके दिलों में निफ़ाक़ (कपटाचार) की बीमारी है वे उन्हीं में दौड़-धूप करते फिरते हैं। कहते हैं, “हमें डर लगता है कि कहीं हम किसी मुसीबत के चक्कर में न फँस जाएँ।84 मगर यह दूर नहीं कि अल्लाह जब तुम्हें फ़ैसलाकुन फ़तह देगा या अपनी तरफ़ से कोई और बात ज़ाहिर करेगा85 तो ये लोग अपने इस निफ़ाक़ (कपटाचार) पर, जिसे ये दिलों में छिपाए हुए हैं शर्मिन्दा होंगे।
84. उस वक़्त तक अरब में कुफ़्र और इस्लाम की कशमकश का फ़ैसला नहीं हुआ था। हालाँकि इस्लाम अपने पैरवी करनेवालों की सरफ़रोशियों की वजह से एक ताक़त बन चुका था, लेकिन मुक़ाबिल की ताक़तें भी ज़बरदस्त थीं। इस्लाम की फ़तह का जितना इमकान था वैसा ही कुफ़्र की फ़तह का भी था। इसलिए मुसलमानों में जो लोग मुनाफ़िक़ थे वे इस्लामी जमाअत में रहते हुए यहूदियों और ईसाइयों के साथ भी मेल-जोल रखना चाहते थे, ताकि यह कशमकश अगर इस्लाम की हार पर खत्म हो तो उनके लिए कोई न कोई पनाह लेने की जगह बाक़ी रहे। इसके अलावा उस वक़्त अरब में ईसाइयों और यहूदियों की माली ताक़त सबसे ज़्यादा थी। साहूकारा ज़्यादातर उन्हीं के हाथ में था। अरब के बेहतरीन हरे-भरे ख़ित्ते (भूभाग) उनके क़ब्ज़े में थे। उनकी सूदख़ोरी का जाल हर तरफ़ फैला हुआ था। इसलिए माली वजहों से भी ये मुनाफ़िक़ लोग उनके साथ अपने पिछले ताल्लुक़ बनाए रखने के ख़ाहिशमन्द थे। उनका गुमान था कि अगर इस्लाम और कुफ़्र की इस कशमकश में पूरी तरह लगकर हमने उन सब क़ौमों से अपने ताल्लुक़ काट लिए जिनके साथ इस्लाम की इस वक़्त कशमकश चल रही है, तो यह काम सियासी और माली दोनों हैसियतों से हमारे लिए ख़तरनाक होगा।
85. यानी फ़ैसलाकुन फ़तह से कमतर दरजे की कोई ऐसी चीज़ जिससे आम तौर पर लोगों को यह यक़ीन हो जाए कि हार-जीत का आख़िरी फ़ैसला इस्लाम ही के हक़ में होगा।
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ أَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ إِنَّهُمۡ لَمَعَكُمۡۚ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فَأَصۡبَحُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 52
(53) और उस वक़्त ईमानवाले कहेंगे कि, “क्या ये वही लोग हैं जो अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर यक़ीन दिलाते थे कि हम तुम्हारे साथ हैं?” — इनके सब आमाल बरबाद हो गए। और आख़िरकार ये नाकाम और नामुराद होकर रहे।86
86. यानी जो कुछ उन्होंने इस्लाम की पैरवी में किया, नमाजें पढ़ीं, रोज़े रखे, ज़कात दी, जिहाद में शामिल हुए, इस्लाम के क़ानूनों की इताअत की, ये सब कुछ इस वजह से बरबाद हो गया कि उनके दिलों में इस्लाम के लिए ख़ुलूस न था और वे सबसे कटकर सिर्फ़ एक ख़ुदा के होकर न रह गए थे, बल्कि अपनी दुनिया की ख़ातिर उन्होंने अपने आप को ख़ुदा और उसके बाग़ियों के बीच आधा-आधा बाँट रखा था।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَن يَرۡتَدَّ مِنكُمۡ عَن دِينِهِۦ فَسَوۡفَ يَأۡتِي ٱللَّهُ بِقَوۡمٖ يُحِبُّهُمۡ وَيُحِبُّونَهُۥٓ أَذِلَّةٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ أَعِزَّةٍ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ يُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَلَا يَخَافُونَ لَوۡمَةَ لَآئِمٖۚ ذَٰلِكَ فَضۡلُ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٌ ۝ 53
(54) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुममें से कोई अपने दीन से फिरता है (तो फिर जाए), अल्लाह और बहुत-से लोग ऐसे पैदा कर देगा जो अल्लाह को महबूब होंगे और अल्लाह उनको महबूब होगा, जो ईमानवालों पर नर्म और कुफ़्र करनेवालों पर सख़्त होंगे।87 जो अल्लाह की राह में जिद्दो-जुहूद करेंगे और किसी मलामत करनेवाले की मलामत से न डरेंगे।88 यह अल्लाह का फ़ज़्ल है जिसे चाहता है देता है। अल्लाह वसीअ ज़रिओं (व्यापक संसाधनों) का मालिक है और सब कुछ जानता है।
87. 'मोमिनों पर नर्म' होने का मतलब यह है कि एक आदमी ईमानवालों के मुक़ाबले में अपनी ताक़त कभी इस्तेमाल न करे। उसकी अक़्लमन्दी और ज़ेहानत, उसकी होशियारी, उसकी क़ाबिलियत, उसकी पहुँच और असर, उसका माल, उसको जिस्मानी ताक़त, कोई चीज़ भी मुसलमानों को दबाने और सताने और नुक़सान पहुँचाने के लिए न हो। मुसलमान अपने दरमियान उसको हमेशा एक नर्म, रहमदिल, हमदर्द और बुर्दबार (सहनशील) इनसान ही पाएँ। 'कुफ़्र करनेवालों पर सख़्त’ होने का मतलब यह है कि एक मोमिन आदमी अपने ईमान की मज़बूती, दीनदारी के ख़ुलूस, उसूल की मज़बूती, सीरत की ताक़त और ईमान की फ़िरासत (विवेक) की वजह से इस्लाम के मुख़ालिफ़ों के मुक़ाबले में पत्थर की चट्टान के जैसा हो कि किसी तरह अपनी जगह से हटाया न जा सके । वह उसे कभी मोम की नाक और नर्म चारा न पाएँ। उन्हें जब भी उससे वास्ता पड़े तो उनपर यह साबित हो जाए कि यह अल्लाह का बन्दा मर सकता है मगर किसी क़ीमत पर बिक नहीं सकता और किसी दबाव से दब नहीं सकता।
إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُمۡ رَٰكِعُونَ ۝ 54
(55) तुम्हारे दोस्त और राज़दार तो हक़ीक़त में सिर्फ़ अल्लाह और अल्लाह का रसूल और वे ईमानवाले हैं जो नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं।
وَمَن يَتَوَلَّ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ فَإِنَّ حِزۡبَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 55
(56) और जो अल्लाह और उसके रसूल और ईमानवालों को अपना दोस्त बना ले उसे मालूम हो कि अल्लाह की जमाअत ही ग़ालिब रहनेवाली है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَكُمۡ هُزُوٗا وَلَعِبٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَٱلۡكُفَّارَ أَوۡلِيَآءَۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 56
(57) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुमसे पहले के अहले-किताब में से जिन लोगों ने तुम्हारे दीन को मज़ाक़ और तफ़रीह का सामान बना लिया है, उन्हें और (हक़ के) दूसरे इनकारियों को अपना दोस्त और साथी न बनाओ। अल्लाह से डरो अगर तुम ईमानवाले हो।
وَإِذَا نَادَيۡتُمۡ إِلَى ٱلصَّلَوٰةِ ٱتَّخَذُوهَا هُزُوٗا وَلَعِبٗاۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 57
(58) जब तुम नमाज़ के लिए पुकारते हो तो वे उसका मज़ाक़ उड़ाते और उससे खेलते हैं।89 इसकी वजह यह है कि वे अक़्ल नहीं रखते।90
89. यानी अज़ान की आवाज़ सुनकर उसकी नक़्लें उतारते हैं, मज़ाक़ उड़ाने के लिए उसके अलफ़ाज़ बदलते और तोड़-मरोड़ देते हैं और उसपर आवाजें कसते हैं।
90. यानी उनकी ये हरकतें सिर्फ़ बे-अक़ली का नतीजा हैं। अगर वे जाहिलियत और नादानी में पड़े न होते तो मुसलमानों से मज़हबी इख़्तिलाफ़ रखने के बावजूद ऐसी गिरी हुई हरकतें उनसे न होतीं। आख़िर कौन अक़्लमन्द आदमी यह पसन्द कर सकता है कि जब कोई गरोह अल्लाह की इबादत के लिए बुलाए तो उसका मज़ाक़ उड़ाया जाए।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ هَلۡ تَنقِمُونَ مِنَّآ إِلَّآ أَنۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلُ وَأَنَّ أَكۡثَرَكُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 58
(59) इनसे कहो, “ऐ किताबवालो, तुम जिस बात पर हमसे बिगड़े हो, वह इसके सिवा और क्या है कि हम अल्लाह पर और दीन की उस तालीम पर ईमान ले आए हैं जो हमारी तरफ़ उतरी है और हमसे पहले भी उतरी थी। और तुम में से ज़्यादातर लोग फ़ासिक़ (नाफ़रमान) हैं। ”
قُلۡ هَلۡ أُنَبِّئُكُم بِشَرّٖ مِّن ذَٰلِكَ مَثُوبَةً عِندَ ٱللَّهِۚ مَن لَّعَنَهُ ٱللَّهُ وَغَضِبَ عَلَيۡهِ وَجَعَلَ مِنۡهُمُ ٱلۡقِرَدَةَ وَٱلۡخَنَازِيرَ وَعَبَدَ ٱلطَّٰغُوتَۚ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 59
(60) फिर कहो, “क्या मैं उन लोगों की निशानदेही करूँ जिनका अंजाम ख़ुदा के यहाँ फ़ासिक़ों (नाफ़रमानों) के अंजाम से भी बुरा है? वे जिनपर ख़ुदा ने लानत की, जिन पर उसका ग़ज़ब टूटा, जिनमें से बन्दर और सूअर बनाए गए जिन्होंने ताग़ूत की बन्दगी की, उनका दरजा और भी ज़्यादा बुरा है और वे 'सवाउस्सबील' (सीधे रास्ते) से बहुत ज़्यादा भटके हुए हैं।91
91. लतीफ़ (सूक्ष्म) इशारा हे ख़ुद यहूदियों की तरफ़, जिनका अपना इतिहास यह कह रहा है कि बार-बार वे ख़ुदा के ग़ज़ब और उसकी लानत में गिरफ़्तार हुए। सब्त का क़ानून तोड़ने पर उनकी क़ौम के बहुत-से लोगों की सूरतें बिगड़ गई। यहाँ तक कि वे गिरावट की उस हद को पहुँचे कि ताग़ूत की बन्दगी तक उन्हें करनी पड़ी। तो कहने का मतलब यह है कि आख़िर तुम्हारी बेहयाई और मुजरिमाना बेबाकी की कोई हद भी है कि ख़ुद फ़िस्क़ व फ़ुजूर (नाफ़रमानी और बदकारी) और इन्तिहाई अख़लाक़ी गिरावट में पड़े हो और अगर कोई दूसरा गरोह ख़ुदा पर ईमान लाकर सच्ची दीनदारी का तरीक़ा अपनाता है तो उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हो।
وَإِذَا جَآءُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَقَد دَّخَلُواْ بِٱلۡكُفۡرِ وَهُمۡ قَدۡ خَرَجُواْ بِهِۦۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا كَانُواْ يَكۡتُمُونَ ۝ 60
(61) जब ये तुम लोगों के पास आते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए, हालाँकि कुफ़्र लिए हुए आए थे और कुफ़्र ही लिए हुए वापस गए और अल्लाह ख़ूब जानता है। जो कुछ ये दिलों में छिपाए हुए हैं।
وَتَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 61
(62) तुम देखते हो कि इनमें से ज़्यादातर लोग गुनाह और ज़ुल्म व ज़्यादती के कामों में दौड़-धूप करते फिरते हैं और हराम के माल खाते हैं। बहुत बुरी हरकतें हैं जो ये कर रहे हैं।
لَوۡلَا يَنۡهَىٰهُمُ ٱلرَّبَّٰنِيُّونَ وَٱلۡأَحۡبَارُ عَن قَوۡلِهِمُ ٱلۡإِثۡمَ وَأَكۡلِهِمُ ٱلسُّحۡتَۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَصۡنَعُونَ ۝ 62
(63) क्यों इनके आलिम और मशाइख़ (मज़हबी पेशवा) उन्हें गुनाह पर ज़बान खोलने और हराम खाने से नहीं रोकते? यक़ीनन ज़िन्दगी का बहुत ही बुरा कारनामा है जो वे तैयार कर रहे हैं।
وَقَالَتِ ٱلۡيَهُودُ يَدُ ٱللَّهِ مَغۡلُولَةٌۚ غُلَّتۡ أَيۡدِيهِمۡ وَلُعِنُواْ بِمَا قَالُواْۘ بَلۡ يَدَاهُ مَبۡسُوطَتَانِ يُنفِقُ كَيۡفَ يَشَآءُۚ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۚ وَأَلۡقَيۡنَا بَيۡنَهُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ كُلَّمَآ أَوۡقَدُواْ نَارٗا لِّلۡحَرۡبِ أَطۡفَأَهَا ٱللَّهُۚ وَيَسۡعَوۡنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادٗاۚ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 63
(64) यहूदी कहते हैं, अल्लाह के हाथ बँधे हुए हैं।92 बाँधे गए इनके हाथ,93 और लानत पड़ी इनपर उस बकवास की बदौलत जो ये करते हैं94 — अल्लाह के हाथ तो खुले हैं, जिस तरह चाहता है ख़र्च करता है। हक़ीकत यह है कि जो कलाम तुम्हारे रब की तरफ़ से तुमपर उतरा है वह इनमें से ज़्यादातर लोगों की सरकशी और बातिल परस्ती में उलटे इज़ाफ़े का सबब बन गया है,95 और (इसके बदले में) हमने उनके बीच क़ियामत तक के लिए अदावत और दुश्मनी डाल दी है। जब कभी ये जंग की आग भड़काते हैं अल्लाह उसको ठण्डा कर देता है। ये ज़मीन में बिगाड़ फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर अल्लाह फ़साद पैदा करनेवालों को हरगिज़ पसन्द नहीं करता।
92. अरबी मुहावरे के मुताबिक़ किसी के हाथ बँधे हुए होने का मतलब यह है कि वह कंजूस है। देने और ख़ैरात करने से उसका हाथ रुका हुआ है। तो यहूदियों की इस बात का मतलब यह नहीं है कि हक़ीक़त में अल्लाह के हाथ बँधे हुए हैं, बल्कि मतलब यह है कि अल्लाह कंजूस है। चूँकि सदियों से यहूदी क़ौम ज़िल्लत और रुसवाई की हालत में पड़ी हुई थी और उसकी पिछली बड़ाई और अज़मत सिर्फ़ एक पुरानी कहानी बनकर रह गई थी, जिसके फिर से वापस आने का कोई इमकान उन्हें नज़र नहीं आता था। इसलिए आम तौर से अपनी क़ौमी मुसीबतों पर मातम करते हुए उस क़ौम के नादान लोग यह बेहूदा जुमला कहा करते थे कि (अल्लाह पनाह में रखे) ख़ुदा तो कंजूस हो गया है, उसके ख़ज़ाने का मुँह बन्द है, हमें देने के लिए अब उसके पास आफ़तों और मुसीबतों के सिवा और कुछ नहीं रहा। यह बात कुछ यहूदियों तक ही महदूद नहीं, दूसरी क़ौमों के जाहिल लोगों का भी यही हाल है कि जब उनपर कोई सख़्त वक़्त आता है तो ख़ुदा की तरफ़ पलटने के बजाय वे जल-जलकर इस तरह की गुस्ताख़ी की बातें किया करते हैं।
93. यानी कंजूसी में ये ख़ुद पड़े हुए हैं। दुनिया में अपनी कंजूसी और अपनी तंगदिली के लिए कहावत बन चुके हैं।
94. यानी इस तरह की गुस्ताख़ियाँ और ताने भरी बातें करके ये चाहें कि ख़ुदा इनपर मेहरबान हो जाए और इनायतों की बारिश करने लगे तो यह किसी तरह मुमकिन नहीं, बल्कि इन बातों का उलटा नतीजा यह है कि ये लोग ख़ुदा की नज़रे-इनायत (कृपादृष्टि) से और भी ज़्यादा महरूम और उसकी रहमत से और ज़्यादा दूर होते जाते हैं।
95. यानी बजाय इसके कि इस कलाम को सुनकर वे कोई फ़ायदेमन्द सबक़ लेते, अपनी ग़लतियों और ग़लतकारियों पर ख़बरदार होकर उनके नुक़सान को पूरा करते, और अपनी गिरी हुई हालत की वजह मालूम करके सुधार की तरफ़ तवज्जोह करते, उनपर इसका उलटा असर यह हुआ है। कि ज़िद में आकर उन्होंने हक़ और सच्चाई की मुख़ालफ़त शुरू कर दी है। नेकी और सुधार के भूले हुए सबक़ को सुनकर ख़ुद सीधे रास्ते पर आना तो दूर की बात उनकी उलटी कोशिश यह है कि जो आवाज़ इस सबक को याद दिला रही है उसे दबा दें, ताकि कोई दूसरा भी उसे न सुनने पाए।
وَلَوۡ أَنَّ أَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامَنُواْ وَٱتَّقَوۡاْ لَكَفَّرۡنَا عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأَدۡخَلۡنَٰهُمۡ جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 64
(65) अगर (इस सरकशी के बजाय) ये अहले-किताब ईमान ले आते और ख़ुदातरसी की रविश इख़्तियार करते तो हम इनकी बुराइयाँ इनसे दूर कर देते और इनको नेमत भरी जन्नतों में पहुँचाते।
وَلَوۡ أَنَّهُمۡ أَقَامُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِم مِّن رَّبِّهِمۡ لَأَكَلُواْ مِن فَوۡقِهِمۡ وَمِن تَحۡتِ أَرۡجُلِهِمۚ مِّنۡهُمۡ أُمَّةٞ مُّقۡتَصِدَةٞۖ وَكَثِيرٞ مِّنۡهُمۡ سَآءَ مَا يَعۡمَلُونَ ۝ 65
(66) काश! इन्होंने तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को क़ायम किया होता जो इनके रब की तरफ़ से इनके पास भेजी गई थीं। ऐसा करते तो इनके लिए ऊपर से रोज़ी बरसती और नीचे से उबलती।96 हालाँकि इनमें कुछ लोग सीधे रास्ते पर चलनेवाले भी हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादा तर लोग बद-अमल हैं।
96. बाइबल की किताब लैव्यव्यवस्था के अध्याय-26 और व्यवस्थाविवरण के अध्याय-28 में हज़रत मूसा (अलैहि०) की एक तक़रीर बयान की गई है जिसमें उन्होंने बनी-इसराईल को बड़ी तफ़सील के साथ बताया है कि अगर तुम अल्लाह के हुक्मों की ठीक-ठीक पैरवी करोगे तो किस-किस तरह अल्लाह की रहमतों और बरकतों से नवाज़े जाओगे, और अगर अल्लाह की किताब को पीठ पीछे डालकर नाफ़रमानियाँ करोगे तो किस तरह बलाएँ और मुसीबतें और तबाहियाँ हर तरफ़ से तुम पर टूट पड़ेंगी। हज़रत मूसा की वह तक़रीर क़ुरआन के इस छोटे-से जुमले की बेहतरीन तफ़सीर है।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلرَّسُولُ بَلِّغۡ مَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ وَإِن لَّمۡ تَفۡعَلۡ فَمَا بَلَّغۡتَ رِسَالَتَهُۥۚ وَٱللَّهُ يَعۡصِمُكَ مِنَ ٱلنَّاسِۗ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 66
(67) ऐ पैग़म्बर, जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम पर उतारा गया है वह लोगों तक पहुँचा दो। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो उसकी पैग़म्बरी का हक़ अदा नहीं किया। अल्लाह तुमको लोगों की बुराई से बचानेवाला है। यक़ीन रखो कि वह हक़ का इनकार करनेवालों को (तुम्हारे मुक़ाबले में) कामयाबी का रास्ता हरगिज़ न दिखाएगा।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَسۡتُمۡ عَلَىٰ شَيۡءٍ حَتَّىٰ تُقِيمُواْ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُم مِّن رَّبِّكُمۡۗ وَلَيَزِيدَنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُم مَّآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَ طُغۡيَٰنٗا وَكُفۡرٗاۖ فَلَا تَأۡسَ عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 67
(68) साफ़ कह दो कि “ऐ अहले-किताब! तुम हरगिज़ किसी अस्ल पर नहीं हो जब तक कि तौरात और इंजील और उन दूसरी किताबों को क़ायम न करो जो तुम्हारे रब की तरफ़ से उतारी गई हैं।"97 ज़रूर है कि यह फ़रमान जो तुम पर उतारा गया है इनमें से ज़्यादातर की सरकशी और इनकार को और ज़्यादा बढ़ा देगा।98 मगर इनकार करनेवालो के हाल पर कुछ अफ़सोस न करो।
97. तौरात और इंजील को क़ायम करने से मुराद सच्चाई और ईमानदारी के साथ उनकी पैरवी करना और उन्हें अपनी ज़िन्दगी का दस्तूर बनाना है। इस मौक़े पर यह बात अच्छी तरह ज़ेहन में बिठा लेनी चाहिए कि बाइबल की मुक़द्दस किताबों के मजमूए में एक तरह की बातें तो वे हैं जो यहूदी और ईसाई मुसन्निफ़ों (लेखकों) ने अपने तौर पर लिखी हैं। और दूसरी तरह की बातें वे हैं जो अल्लाह के फ़रमान या हज़रत मूसा, ईसा (अलैहि०) और दूसरे पैग़म्बरों की बातें होने की हैसियत से लिखी हुई हैं और जिनमें इस बात की तशरीह (व्याख्या) है कि अल्लाह ने ऐसा फ़रमाया या फ़ुलाँ नबी ने ऐसा कहा। उनमें से पहले क़िस्म की बातों को अलग करके अगर कोई आदमी सिर्फ़ दूसरी तरह की बातों का जाइज़ा ले तो आसानी से यह देख सकता है कि उनकी तालीम और क़ुरआन की तालीम में कोई नुमायाँ फ़र्क़ नहीं है। हालाँकि तर्जमा करनेवालों और घटाने-बढ़ानेवालों और मतलब और मानी बतानेवालों की दख़लअंदाज़ी (हस्तक्षेप) से और कुछ जगह ज़बानी रिवायत करनेवालों की ग़लती से ये दूसरी तरह की बातें भी पूरी तरह महफ़ूज़ नहीं रही हैं। लेकिन इसके बावजूद कोई आदमी यह महसूस किए बग़ैर नहीं रह सकता कि उनमें ठीक उसी ख़ालिस (विशुद्ध) तौहीद यानी ऐकेश्वरवाद की दावत दी गई है जिसकी तरफ़ क़ुरआन बुला रहा है, वही अक़ीदे पेश किए गए हैं जो क़ुरआन पेश करता है और ज़िन्दगी के उसी तरीक़े की तरफ़ रहनुमाई की गई है जिसकी हिदायत क़ुरआन देता है। इसलिए हक़ीक़त यह है कि अगर यहूदी और ईसाई उसी तालीम पर क़ायम रहते जो इन किताबों में ख़ुदा और पैग़म्बरों की तरफ़ से है तो यक़ीनन नबी (सल्ल०) के दुनिया में नबी बनाकर भेजे जाने के वक़्त वे एक हक़परस्त और सीधे रास्ते पर चलनेवाले गरोह पाए जाते और उन्हें क़ुरआन के अन्दर वही रौशनी नज़र आती जो पिछली किताबों में पाई जाती थी। इस सूरत में उनके लिए नबी (सल्ल०) की पैरवी इख़्तियार करने में मज़हब की तब्दीली का सिरे से कोई सवाल पैदा ही न होता, बल्कि वे उसी रास्ते पर चलते हुए, जिस पर वे पहले से चले आ रहे थे, नबी (सल्ल०) की पैरवी करनेवाले बनकर आगे चल सकते थे।
98. यानी यह बात सुनकर ठण्डे दिल से ग़ौर करने और हक़ीक़त को समझने के बजाय वे ज़िद में आकर और ज़्यादा सख़्त मुख़ालफ़त शुरू कर देंगे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱلَّذِينَ هَادُواْ وَٱلصَّٰبِـُٔونَ وَٱلنَّصَٰرَىٰ مَنۡ ءَامَنَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 68
(69) (यक़ीन जानो कि यहाँ ठेकेदारी किसी की भी नहीं है) मुसलमान हों या यहूदी, साबी हों या ईसाई, जो भी अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा बेशक उसके लिए न किसी ख़ौफ़ को मक़ाम है, न रंज का।99
99. देखें सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-62, हाशिया-80।
لَقَدۡ أَخَذۡنَا مِيثَٰقَ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَأَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمۡ رُسُلٗاۖ كُلَّمَا جَآءَهُمۡ رَسُولُۢ بِمَا لَا تَهۡوَىٰٓ أَنفُسُهُمۡ فَرِيقٗا كَذَّبُواْ وَفَرِيقٗا يَقۡتُلُونَ ۝ 69
(70) हमने बनी-इसराईल से पुख़्ता अह्द लिया और उनकी तरफ़ बहुत-से रसूल भेजे, मगर जब कभी उनके पास कोई रसूल उनके मन की ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ कुछ लेकर आया तो किसी को उन्होंने झुठलाया और किसी को क़त्ल कर दिया
وَحَسِبُوٓاْ أَلَّا تَكُونَ فِتۡنَةٞ فَعَمُواْ وَصَمُّواْ ثُمَّ تَابَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ ثُمَّ عَمُواْ وَصَمُّواْ كَثِيرٞ مِّنۡهُمۡۚ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 70
(71) और अपने नज़दीक यह समझे कि कोई फ़ितना पैदा न होगा। इसलिए अन्धे और बहरे बन गए। फिर अल्लाह ने उन्हें माफ़ किया तो उनमें से ज़्यादातर लोग और ज़्यादा अन्धे और बहरे बनते चले गए। अल्लाह उनकी ये सब हरकतें देखता रहा है।
لَقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَۖ وَقَالَ ٱلۡمَسِيحُ يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۖ إِنَّهُۥ مَن يُشۡرِكۡ بِٱللَّهِ فَقَدۡ حَرَّمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ ٱلۡجَنَّةَ وَمَأۡوَىٰهُ ٱلنَّارُۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 71
(72) यक़ीनन कुफ़्र (इनकार) किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह मरयम का बेटा मसीह ही है। हालाँकि मसीह ने कहा था कि “ऐ बनी-इसराईल, अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी।” जिसने अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराया उसपर अल्लाह ने जन्नत हराम कर दी और उसका ठिकाना जहन्नम है और ऐसे ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं।
لَّقَدۡ كَفَرَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ ثَالِثُ ثَلَٰثَةٖۘ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّآ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞۚ وَإِن لَّمۡ يَنتَهُواْ عَمَّا يَقُولُونَ لَيَمَسَّنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 72
(73) यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह तीन में का एक है, हालाँकि एक ख़ुदा के सिवा कोई ख़ुदा नहीं है। अगर ये लोग अपनी इन बातों से बाज़ न आएँ तो इनमें से जिस-जिस ने कुफ़्र किया है उसको दर्दनाक सज़ा दी जाएगी।
أَفَلَا يَتُوبُونَ إِلَى ٱللَّهِ وَيَسۡتَغۡفِرُونَهُۥۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 73
(74) फिर क्या ये अल्लाह से तौबा न करेंगे और उससे माफ़ी न मागेंगे? अल्लाह बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
مَّا ٱلۡمَسِيحُ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُ وَأُمُّهُۥ صِدِّيقَةٞۖ كَانَا يَأۡكُلَانِ ٱلطَّعَامَۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ ٱنظُرۡ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 74
(75) मरयम का बेटा मसीह इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल था, उससे पहले और भी बहुत-से रसूल गुज़र चुके थे, उसकी माँ एक हक़परस्त (सत्यवती) औरत थी और वे दोनों खाना खाते थे। देखो, हम किस तरह उनके सामने हक़ीक़त की निशानिया वाज़ेह करते हैं, फिर देखो ये किधर उलटे फिरे जाते हैं।100
100. इन कुछ ही लफ़्ज़ों में ईसाइयों के इस अक़ीदे का कि मसीह (अलैहि०) ख़ुदा हैं, साफ़ तौर पर रद्द किया गया है और उससे ज़्यादा सफ़ाई मुमकिन नहीं है। मसीह (अलैहि०) के बारे में अगर कोई यह मालूम करना चाहे कि हक़ीक़त में वह क्या था तो इन अलामतों से बग़ैर किसी शुब्हाे के मालूम कर सकता है कि वह सिर्फ़ एक इनसान था। ज़ाहिर है कि जो एक औरत के पेट से पैदा हुआ, जिसका शजरा-ए-नसब (वंशावली) तक मौजूद है, जो इनसानी जिस्म रखता था, जो उन सभी हदों से महदूद और उन तमाम पाबन्दियों में जकड़ा हुआ और उन सभी सिफ़तों को रखता था जो इनसान के लिए ख़ास हैं। जो सोता था, खाता था, गर्मी और सर्दी महसूस करता था, यहाँ तक कि जिसे शैतान के ज़रिए से आज़माइश में भी डाला गया, उसके बारे में कौन अक़्लमन्द इनसान यह सोच सकता है कि वह ख़ुद ख़ुदा है या ख़ुदाई में ख़ुदा का शरीक और साझीदार है। लेकिन यह इनसानी ज़ेहन की गुमराही का एक अजीब करिश्मा है कि ईसाई ख़ुद अपनी मज़हबी किताबों में मसीह की ज़िन्दगी को साफ़ तौर पर एक इनसानी ज़िन्दगी पाते हैं। और फिर भी उसे ख़ुदा की सिफ़त रखनेवाला समझने और कहने पर ज़िद किए चले जाते हैं। हक़ीक़त यह है कि ये लोग उस तारीख़ी (ऐतिहासिक) मसीह के क़ायल ही नहीं हैं जो वाक़िआत की दुनिया में ज़ाहिर हुआ था, बल्कि उन्होंने ख़ुद अपनी अटकल और गुमान से एक ख़याली मसीह गढ़कर उसे ख़ुदा बना लिया है।
قُلۡ أَتَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗاۚ وَٱللَّهُ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 75
(76) इनसे कहो: क्या तुम अल्लाह को छोड़कर उसकी परस्तिश करते हो जो न तुम्हारे लिए नुक़सान का इख़्तियार रखता है और न फ़ायदे का? हालाँकि सबकी सुननेवाला और सब कुछ जाननेवाला तो अल्लाह ही है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لَا تَغۡلُواْ فِي دِينِكُمۡ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوٓاْ أَهۡوَآءَ قَوۡمٖ قَدۡ ضَلُّواْ مِن قَبۡلُ وَأَضَلُّواْ كَثِيرٗا وَضَلُّواْ عَن سَوَآءِ ٱلسَّبِيلِ ۝ 76
(77) कहो: अहले-किताब, अपने दीन (धर्म) में नाहक़ हद से आगे न बढ़ो और उन लोगों के ख़यालों की पैरवी न करो जो तुमसे पहले ख़ुद गुमराह हुए और बहुतों को गुमराह किया और ‘सवाउस्सबील' (सीधे रास्ते) से भटक गए।101
101. इशारा है उनकी गुमराह क़ौमों की तरफ़ जिनसे ईसाइयों ने ग़लत अक़ीदे और बातिल तरीक़े सीखे हैं। ख़ास तौर से यूनान के फ़लसफ़ियों की तरफ़, जिनके ख़यालों से असर लेकर ईसाई उस सीधे रास्ते से हट गए जिसकी तरफ़ शुरू में उनकी रहनुमाई की गई थी। मसीह के शुरू के पैरवी करनेवाले जो अक़ीदे रखते थे वे बड़ी हद तक उस हक़ीक़त के मुताबिक़ थे जिसको उन्होंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा था और जिसकी तालीम उनके हिदायत करनेवाले और रहनुमा। ने उनको दी थी। मगर बाद के ईसाइयों ने एक तरफ़ मसीह की अक़ीदत और एहतिराम में हद से आगे बढ़कर और दूसरी तरफ़ पड़ोसी क़ौमों के अन्धविश्वासों और फ़लसफ़ों से मुतास्सिर होकर, अपने अक़ीदों के बढ़ा-चढ़ाकर फ़लसफ़ियाना मतलब और मानी निकालने शुरू कर दिए। और एक बिलकुल ही नया मज़हब तैयार कर लिया जिसको मसीह की अस्ल तालीमात से दूर का वास्ता भी न रहा। इस बारे में ख़ुद एक मसीही दीनियात के आलिम (रेवरेंड चार्ल्स एंडरसन स्कॉट) का बयान पढ़ने के क़ाबिल है। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के चौदहवें एडिशन में 'यसूअ मसीह' (Jesus Christ) के उनवान पर उसने जो मज़मून लिखा है उसमें वह कहता है— “पहली तीन इंजीलों (मत्ती, मरक़ुस और लूक़ा) में कोई चीज़ ऐसी नहीं है जिससे यह गुमान किया जा सकता हो कि इन इंजीलों के लिखनेवाले यीशू को इनसान के सिवा कुछ और समझते थे। उनकी निगाह में वह एक इनसान था, ऐसा इनसान जो ख़ास तौर पर ख़ुदा की रूह से फ़ैज़याब (लाभान्वित) हुआ था और ख़ुदा के साथ एक ऐसा कभी न टूटनेवाला ताल्लुक़ रखता था जिसकी वजह से अगर उसको ख़ुदा का बेटा कहा जाए तो बिलकुल ठीक है। ख़ुद मत्ती उसका ज़िक्र बढ़ई के बेटे की हैसियत से करता है और एक जगह बयान करता है कि पतरस ने उसको ‘मसीह’ तस्लीम करने के बाद 'अलग एक तरफ़ ले जाकर उसे मलामत (भर्त्सना) की' (मत्ती-16, 22)। लूक़ा में हम देखते हैं कि सलीब के वाक़िए के बाद यीशू के दो शागिर्द अमाऊस की तरफ़ जाते हुए उसका ज़िक्र इस हैसियत से करते हैं कि 'वह ख़ुदा और सारी उम्मत के नज़दीक काम और कलाम में क़ुदरतवाला नबी था' (लूक़ा 24, 19)। यह बात ख़ास तौर पर तवज्जोह देने की है कि हालाँकि मरक़ुस के मज़मून से पहले मसीहियों में यसूअ के लिए लफ़्ज़ 'ख़ुदावन्द' का इस्तेमाल आम तौर पर चल पड़ा था, लेकिन न मरक़ुस की इंजील में यीशू को कहीं इस लफ़्ज़ से याद किया गया है और न मत्ती की इंजील में। इसके बरख़िलाफ़ दोनों किताबों में यह लफ़्ज़ अल्लाह के लिए बहुत इस्तेमाल किया गया है। यीशू के आज़माइश में पड़ने का ज़िक्र तीनों इंजीलें पूरे ज़ोर के साथ करती हैं, जैसा कि इस वाक़िए की शान के मुताबिक़ है। मगर मरक़ुस की फ़िदयेवाली इबारत (मरक़ुस 10, 45) और आख़िरी ‘फ़सह’ के मौक़े पर कुछ अलफ़ाज़ को अलग करके इन किताबों में कहीं उस वाक़िए को वे मानी नहीं पहनाए गए हैं जो बाद में पहनाए गए। यहाँ तक कि इस बात की तरफ़ कहीं इशारा तक नहीं किया गया कि यीशू की मौत का इनसान के गुनाह और उसके कफ़्फ़ारे यानी प्रायश्चित से कोई ताल्लुक़ था।” आगे चलकर वह फिर लिखता है— “यह बात कि यीशू ख़ुद अपने आपको एक नबी की हैसियत से पेश करता था इंजीलों की कई इबारतों से ज़ाहिर होता है। जैसे यह कि 'मुझे आज और कल और परसों अपनी राह पर चलना ज़रूर है, क्योंकि मुमकिन नहीं कि नबी यरुशलम से बाहर हलाक हो।' (लूक़ा 13, 23)। वह अकसर अपना ज़िक्र इब्ने-आदम (आदम का बेटा) के नाम से करता है।...... जब यीशू कहीं अपने आपको ‘इब्नुल्लाह' यानी अल्लाह का बेटा नहीं कहता। उसके दूसरे हम-अस्र (समकालीन) उसके बारे में ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं तो शायद उसका मतलब भी इसके सिवा कुछ नहीं होता कि वह उसको ख़ुदा का ममसूह (मसह किया हुआ) समझते हैं। अलबत्ता वह अपने आपको ख़ालिस और आज़ाद तौर पर बेटे के लफ़्ज़ से बयान करता है इसके साथ यह भी कि वह ख़ुदा के साथ अपने ताल्लुक़ को बयान करने के लिए भी 'बाप' का लफ़्ज़ इसी इतलाक़ी (संज्ञात्मक) शान में इस्तेमाल करता है..... इस ताल्लुक़ के बारे में वह अपने आपको अकेला नहीं समझता था, बल्कि शुरू के दौर में दूसरे इनसानों को भी ख़ुदा के साथ इस ख़ास गहरे ताल्लुक़ में अपना साथी समझता था। अलबत्ता बाद के तजरिबे और इनसानी तबीअतों के गहरे मुताले ने उसे यह समझने मजबूर कर दिया कि इस मामले में वह अकेला है।” फिर यही लेखक लिखता है– “पुन्तिकुस्त त्योहार के मौक़े पर पतरस के ये अलफ़ाज़ कि 'एक इनसान जो ख़ुदा की तरफ़ से था' यीशू को इस हैसियत से पेश करते हैं जिसमें उसके हम-अस्र (समकालीन) इसको जानते और समझते थे।...... इंजीलों से हमको मालूम होता है कि यीशू बचपन से जवानी तक बिलकुल फ़ितरी तौर पर जिस्मानी और ज़ेहनी नशो-नमा (विकास) के मरहलों से गुज़रा। उसको भूख-प्यास लगती थी, वह थकता और सोता था, वह हैरत में पड़ सकता था, और हालात को जानने का मुहताज था, उसने दुख उठाया और मरा। उसने सिर्फ़ यही नहीं कि सब कुछ सुनने और सब कुछ देखनेवाला होने का दावा नहीं किया, बल्कि साफ़ तौर पर इससे इनकार किया है, हक़ीक़त में उसके हाज़िर और नाज़िर होने का अगर दावा किया जाए तो यह उस पूरे तसव्वुर के बिलकुल ख़िलाफ़ होगा जो हमें इंजीलों से हासिल होता है, बल्कि इस दावे के साथ आज़माइश के वाक़िए को और गितसमनी और खोपड़ी के मक़ाम पर जो वारदात गुज़री उनमें से किसी को भी इसकी मुताबक़त नहीं दी जा सकती, जब तक कि उन वाक़िओं को बिलकुल ग़ैर-हक़ीक़ी क़रार न दे दिया जाए, यह मानना पड़ेगा कि मसीह जब इन सारे हालात से गुज़रा तो वह इनसानी इल्म की आम महदूदियत (सीमितता) अपने साथ लिए हुए था और इस महदूदियत में अगर कोई बचा हुआ था तो वह सिर्फ़ उसी हद तक जिस हद तक पैग़म्बराना निगाह और ख़ुदा के यक़ीनी शुहूद की बुनियाद पर हो सकता है। फिर मसीह को क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) समझने की गुंजाइश तो इंजीलों में और भी कम है। कहीं इस बात का इशारा तक नहीं मिलता कि वे ख़ुदा से बेनियाज़ होकर ख़ुद मुख़्तार तौर पर काम करता था। इसके बरख़िलाफ़ वह बार-बार दुआ माँगने की आदत से और इस तरह के अलफ़ाज़ से कि “यह चीज़ दुआ के सिवा किसी और ज़रिए से नहीं टल सकती।” इस बात का साफ़ इक़रार करता है कि उसकी ज़ात का दारोमदार बिलकुल ख़ुदा पर है। अस्ल में यह बात उन इंजीलों की ऐतिहासिक हैसियत से भरोसेमन्द होने की एक अहम गवाही है कि हालाँकि उनकी तसनीफ़ और तरतीब उस ज़माने से पहले मुकम्मल न हुई थी जबकि मसीही कलीसा ने मसीह को ख़ुदा समझना शुरू कर दिया था, फिर भी इन दस्तावेज़ों में एक तरफ़ मसीह के हक़ीक़त में इनसान होने की गवाही महफ़ूज़ है और दूसरी तरफ़ उनके अन्दर कोई गवाही इस बात की मौजूद नहीं है कि मसीह अपने आपको ख़ुदा समझता था।” इसके बाद यह मुसन्निफ़ (लेखक) फिर लिखता है— “वह सेंट पॉल था जिसने एलान किया कि, उठाए जाने के वाक़िए के वक़्त इसी उठाए जाने के काम के ज़रिए से यीशू पूरे इख़्तियारात के साथ 'इब्नुल्लाह' अल्लाह के बेटे के मरतबे पर अलानिया फ़ाइज़ किया गया ...... यह इब्नुल्लाह का लफ़्ज़ यक़ीनी तौर पर ज़ाती इब्नियत (बेटा होने) की तरफ़ एक इशारा अपने अन्दर रखता है जिसे पॉल ने दूसरी जगह यीशू को ‘ख़ुदा का अपना बेटा' कह कर साफ़ कर दिया है। इस बात का फ़ैसला अब नहीं किया जा सकता कि क्या वह शुरू के ईसाइयों का गरोह था या पॉल जिसने मसीह के लिए 'ख़ुदावन्द' का ख़िताब अस्ल मज़हबी मानी में इस्तेमाल किया। शायद यह काम पहले ज़िक्र किए गए गरोह का ही हो। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वह पॉल था जिसने इस ख़िताब को पूरे मानी में बोलना शुरू किया, फिर अपने मक़सद को इस तरह और भी ज़्यादा वाज़ेह कर दिया कि 'ख़ुदावन्द यीशु मसीह' की तरफ़ बहुत-से वे तसव्वुर और इस्तिलाही अलफ़ाज़ मुन्तक़िल कर दिए जो पुरानी मुक़द्दस (पवित्र) किताबों में ख़ुदावन्द यहोवा (अल्लाह) के लिए ख़ास थे। इसके साथ ही उसने मसीह को ख़ुदा की दानिश और ख़ुदा की अज़मत (महानता) के बराबर ठहराया और उसे ख़ालिस और आज़ाद मानी में ख़ुदा का बेटा ठहराया। फिर भी बहुत-सी हैसियतों और पहलुओं से मसीह को ख़ुदा के बराबर कर देने के बावजूद पॉल उसको क़तई तौर पर ख़ुदा कहने से बाज़ रहा।” इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के एक-दूसरे मज़मून 'मसीहियत' (Christianity) में रेवरेंड जॉर्ज विलयम नॉक्स मसीही कलीसा के बुनियादी अक़ीदे पर बहस करते हुए लिखता है— “तस्लीस के अक़ीदे (त्रिएकेश्वरवाद) का फ़िक्री (वैचारिक) साँचा यूनानी है और यहूदी तालीमात इसमें ढाली गई हैं। इस लिहाज़ से यह हमारे लिए एक अजीब क़िस्म का मुरक्कब (सम्मिश्रण) है, मज़हबी ख़यालात बाइबल के और ढले हुए एक अजनबी फ़लसफ़े की सूरतों में। बाप, बेटा और रूहुल-क़ुदुस की इस्तिलाहें यहूदी ज़रिओं की जुटाई हुई हैं। आख़िरी इस्तिलाह हालाँकि ख़ुद यीशू ने शायद ही कभी इस्तेमाल की थी, और पॉल ने भी जो इसको इस्तेमाल किया उसका मतलब बिलकुल ग़ैर-वाज़ेह था। फिर भी यहूदी लिट्रेचर (साहित्य) में यह लफ़्ज़ शख़्सियत इख़्तियार करने के क़रीब पहुँच चुका था। इसलिए इस अक़ीदे का मुसव्वदा (मवाद और मैटर) यहूदी है (हालाँकि इस मुरक्कब में शामिल होने से पहले वे भी यूनानी असरात से मग़लूब (पराभूत) हो चुका था) और मसला ख़ालिस यूनानी। अस्ल सवाल जिस पर यह अक़ीदा बना, वह न कोई अख़लाक़ी सवाल था न मज़हबी, बल्कि वह सरासर एक फ़लसफ़ियाना सवाल था, यानी यह कि इन तीनों अक़ानीम (बाप, बेटा और रूह) के दरमियान ताल्लुक़ की हक़ीक़त क्या है? कलीसा (चर्च) ने इसका जो जवाब दिया वह उस अक़ीदे में दर्ज है जो नीक़िया की कौंसिल में मुक़र्रर किया गया था, और उसे देखने से साफ़ मालूम होता है कि वह अपनी तमाम ख़ासियतों और विशेषताओं में बिलकुल यूनानी फ़िक्र का नमूना है।” इसी सिलसिले में इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के एक और मज़मून 'कलीसा का इतिहास' (Church History) भी पढ़ने लायक हैं— “तीसरी सदी ईसवी के ख़त्म होने से पहले मसीह को आम तौर पर 'कलाम' का जिस्मानी ज़ुहूर तो मान लिया गया था, लेकिन फिर भी बहुत-से ईसाई ऐसे थे जो मसीह के ख़ुदा होने के क़ाइल नहीं थे। चौथी सदी में इस मसले पर सख़्त बहसें छिड़ी हुई थीं, जिनसे कलीसा (चर्च) की बुनियादें हिल गई थीं। आख़िरकार 325 ई॰ में नीक़िया की कौंसिल ने मसीह की ख़ुदाई को बाक़ायदा सरकारी तौर पर अस्ल मसीही अक़ीदा क़रार दिया और ख़ास अलफ़ाज़ में उसे मुरत्तब (संकलित) कर दिया। हालाँकि इसके बाद भी कुछ मुद्दत तक झगड़ा चलता रहा, लेकिन आख़िरी फ़तह नीक़िया ही के फ़ैसले की हुई जिसे पूरब और पश्चिम में इस हैसियत से तस्लीम कर लिया गया कि सही अक़ीदे के ईसाइयों का ईमान इसी पर होना चाहिए। बेटे के ख़ुदा होने के साथ रूह के ख़ुदा होने को भी तस्लीम किया गया और उसे ‘इस्तिबाग़' (बपतिस्मा देते समय पढ़े जानेवाले) कलिमे और उस वक़्त के शआइर (धार्मिक प्रतीकों) में बाप और बेटे के साथ जगह दी गई। इस तरह नीक़िया में मसीह का जो तसव्वुर क़ायम किया गया उसका नतीजा यह हुआ कि त्रिएकेश्वरवाद (Trinity) का अक़ीदा अस्ल मसीही मज़हब का एक कभी न अलग होनेवाला हिस्सा क़रार पाया। फिर इस दावे पर कि बेटे की उलूहियत (ईश्वरत्व) मसीह की शक्ल में सामने आई थी' एक दूसरा मसला पैदा हुआ जिस पर चौथी सदी में और उसके बाद भी मुद्दतों तक बहस और मुनाज़रों का सिलसिला जारी रहा। मसला यह था कि मसीह की शख़्सियत में ख़ुदाई और इनसानियत के दरमियान क्या ताल्लुक़ है? सन 451 ई॰ में कॉल्सडेन की कौंसिल ने इसका यह फ़ैसला किया कि मसीह की ज़ात में दो मुकम्मल तबीअतें जमा हैं, एक इलाही तबीअत, दूसरी इनसानी तबीअत और दोनों एक जगह जमा हो जाने के बाद भी अपनी बिलकुल अलग ख़ासियतों को बिना किसी फेर-बदल के बरक़रार रखे हुए हैं। तीसरी कौंसिल में, जो सन 680 ई॰ में क़ुस्तुनतुनिया के मक़ाम पर हुई, इतनी बात और बढ़ा दी गई कि ये दोनों तबीअतें अपनी अलग-अलग मशीयतें (इच्छाएँ) भी रखती हैं। यानी मसीह एक ही वक़्त में दो अलग-अलग मर्ज़ियों के मालिक हैं........ इसी दौरान में पश्चिमी कलीसा ने गुनाह और फ़ज़्ल के मसले पर भी ख़ास तवज्जोह की और इस सवाल पर मुद्दतों बहस चलती रही कि नजात (मुक्ति) के मामले में ख़ुदा का काम क्या है? और बन्दे का काम क्या? आख़िरकार सन् 529 ई॰ में ओरेंज की दूसरी कौंसिल में यह नज़रिया इख़्तियार किया गया कि आदम के उतरने की वजह से हर इनसान इस हालत में गिरफ़्तार है कि वह नजात की तरफ़ कोई क़दम नहीं बढ़ा सकता, जब तक कि वह ख़ुदा के उस फ़ज़्ल से जो बपतिस्मा में दिया जाता है, नई ज़िन्दगी न हासिल कर ले। और यह नई ज़िन्दगी शुरू करने के बाद भी उसे ख़ैर और भलाई की उस हालत में बाक़ी रहना और आगे बढ़ना नसीब नहीं हो सकता, जब तक वह ख़ुदा की मेहरबानी हमेशा उसकी मददगार न रहे। और ख़ुदा की मेहरबानी की यह हमेशा की मदद उसे सिर्फ़ कैथोलिक कलीसा ही के ज़रिए से हासिल रह सकती है।” मसीही आलिमों के इन बयानों से यह बात बिलकुल वाज़ेह हो जाती है कि शुरू में जिस चीज़ ने मसीहियों को गुमराह किया, वह अक़ीदा और मुहब्बत में हद से बढ़ जाना था। इसी हद से बढ़ने की वजह से मसीह (अलैहिo) के लिए ख़ुदावन्द और ख़ुदा के बेटे के अलफ़ाज़़ इस्तेमाल किए गए, ख़ुदा की सिफ़तें उनसे जोड़ दी गईं, और कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) का अक़ीदा ईजाद किया गया, हालाँकि हज़रत मसीह की तालीमात में इन बातों के लिए बिलकुल कोई गुंजाइश मौजूद नहीं थी। फिर जब फ़लसफ़े और (दर्शन) की हवा मसीहियों को लगी तो बजाय इसके कि ये लोग इस शुरुआती गुमराही को समझकर इससे बचने की कोशिश करते, उन्होंने अपने पिछले पेशवाओं की ग़लतियों को निबाहने के लिए उनके हक़ में दलीलें देनी शुरू कर दीं और मसीह की अस्ल तालीमात की तरफ़ रुजू किए बिना सिर्फ़ मन्तिक़ और फ़लसफ़े (तर्क और दर्शन) की मदद से अक़ीदे पर अक़ीदे गढ़ते चले गए। यही वह गुमराही है जिस पर क़ुरआन ने इन आयतों में मसीहियों को ख़बरदार किया है।
لُعِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ لِسَانِ دَاوُۥدَ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 77
(78) बनी-इसराईल में से जिन लोगों ने कुफ़्र की राह इख़्तियार की उन पर दाऊद और मरयम के बेटे ईसा की ज़बान से लानत की गई, क्योंकि वे सरकश हो गए थे और ज़्यादतियाँ करने लगे थे,
102. हर क़ौम का बिगाड़ शुरुआत में कुछ लोगों से शुरू होता है। अगर काम का इज्तिमाई ज़मीर (सामूहिक चेतना) जिन्दा होता है तो आम लोगों की राय उन बिगड़े हुए लोगों को दबाए रखती है और क़ौम कुल मिलाकर बिगड़ने नहीं पाती। लेकिन अगर क़ौम उन लोगों के मामले में सुस्ती और कोताही शुरू कर देती है और ग़लत काम करनेवालों को मलामत करने के बजाय उन्हें समाज में ग़लत कामों के करने के लिए आज़ाद छोड़ देती है तो फिर धीरे-धीरे वही ख़राबी जो पहले कुछ लोगों तक महदूद थी, पूरी क़ौम में फैल कर रहती है। यही चीज़ थी जो आख़िरकार बनी-इसराईल के बिगाड़ की वजह बनी। हज़रत दाऊद और हज़रत ईसा (अलै०) की ज़बान से जो लानत बनी-इसराईल पर की गई उसके लिए देखें बाइबल की किताब भजन संहिता 10 और 50 और मत्ती 23।
كَانُواْ لَا يَتَنَاهَوۡنَ عَن مُّنكَرٖ فَعَلُوهُۚ لَبِئۡسَ مَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 78
(79) उन्होंने एक-दूसरे को बुरे कामों के करने से रोकना छोड़ दिया था।102 बुरा रवैया था जो उन्होंने इख़्तियार किया।
تَرَىٰ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ يَتَوَلَّوۡنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْۚ لَبِئۡسَ مَا قَدَّمَتۡ لَهُمۡ أَنفُسُهُمۡ أَن سَخِطَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَفِي ٱلۡعَذَابِ هُمۡ خَٰلِدُونَ ۝ 79
(80) आज तुम उनमें ज़्यादातर ऐसे लोग देखते हो जो (ईमानवालों के मुक़ाबले में) कुफ़्र करनेवालों की हिमायत करते और उनका साथ देते हैं। यक़ीनन बहुत बुरा अंजाम है जिसकी तैयारी उनके मन ने उनके लिए की है। अल्लाह उनपर ग़ज़बनाक हो गया है और वे हमेशा रहनेवाले अज़ाब में पड़नेवाले हैं।
وَلَوۡ كَانُواْ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلنَّبِيِّ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَا ٱتَّخَذُوهُمۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِنَّ كَثِيرٗا مِّنۡهُمۡ فَٰسِقُونَ ۝ 80
(81) अगर हक़ीक़त में ये लोग अल्लाह और पैग़म्बर और उस चीज़ के माननेवाले होते जो पैग़म्बर पर उतरी थी तो कभी (ईमानवालों के मुक़ाबले में) कुफ़्र करनेवालों को अपना साथी न बनाते।103 मगर इनमें से तो ज़्यादातर लोग ख़ुदा की इताअत से निकल चुके हैं।
103. मतलब यह है कि जो लोग ख़ुदा और नबी और किताब के माननेवाले होते हैं उन्हें फ़ितरी तौर पर मुशरिकों के मुक़ाबले में उन लोगों के साथ ज़्यादा हमदर्दी होती है जो मज़हब में चाहे उनसे इख़्तिलाफ़ ही रखते हों, मगर बहरहाल उन्हीं की तरह ख़ुदा और वह्य व रिसालत के सिलसिले को मानते हों। लेकिन ये यहूदी अजीब तरह के अहले-किताब हैं कि तौहीद और शिर्क की जंग में खुल्लम-खुल्ला मुशरिकों का साथ दे रहे हैं। नबी को मानने और नबी के इनकार की लड़ाई में खुल्लम-खुल्ला उनकी हमदर्दियाँ नुबूवत का इनकार करनेवालों के साथ हैं, और फिर भी वे बिना किसी शर्म व हया के यह दावा रखते हैं कि हम ख़ुदा और पैग़म्बरों और किताबों के माननेवाले हैं।
۞لَتَجِدَنَّ أَشَدَّ ٱلنَّاسِ عَدَٰوَةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلۡيَهُودَ وَٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْۖ وَلَتَجِدَنَّ أَقۡرَبَهُم مَّوَدَّةٗ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّا نَصَٰرَىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّ مِنۡهُمۡ قِسِّيسِينَ وَرُهۡبَانٗا وَأَنَّهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 81
(82) तुम ईमानवालों की दुश्मनी में सबसे ज़्यादा सहज यहूदियों और मुशरिकों को पाओगे और ईमान लानेवालों के लिए दोस्ती में ज़्यादा करीब उन लोगों को पाओगे जिन्होंने कहा था कि हम नसारा (ईसाई) हैं। यह इस वजह से कि उनमें इबादतगुज़ार आलिम और दुनिया को छोड़ चुके (संसार त्यागी) फ़क़ीर पाए जाते हैं और उनके मन में घमण्ड नहीं है।
وَإِذَا سَمِعُواْ مَآ أُنزِلَ إِلَى ٱلرَّسُولِ تَرَىٰٓ أَعۡيُنَهُمۡ تَفِيضُ مِنَ ٱلدَّمۡعِ مِمَّا عَرَفُواْ مِنَ ٱلۡحَقِّۖ يَقُولُونَ رَبَّنَآ ءَامَنَّا فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 82
(83) जब वे इस कलाम को सुनते हैं जो रसूल पर उतरा है तो तुम देखते हो कि हक़ को पहचानने की वजह से उनकी आँखें आँसुओं से भीग जाती हैं। वे बोल उठते हैं कि “परवरदिगार, हम ईमान लाए। हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले।”
وَمَا لَنَا لَا نُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَا جَآءَنَا مِنَ ٱلۡحَقِّ وَنَطۡمَعُ أَن يُدۡخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 83
(84) और वे कहते हैं कि “आख़िर क्यों न हम अल्लाह पर ईमान लाएँ और जो हक़ हमारे पास आया है उसे क्यों न मान लें, जबकि हम इस बात की ख़ाहिश रखते हैं कि हमारा रब हमें नेक और भले लोगों में शामिल करे?”
فَأَثَٰبَهُمُ ٱللَّهُ بِمَا قَالُواْ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَآءُ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 84
(85) उनकी इस बात की वजह से अल्लाह ने उनको ऐसी जन्नतें दीं जिनके नीचे नहरें बहती हैं और वे उनमें हमेशा रहेंगे। यह बदला है नेक रवैया इख़्तियार करनेवालों के लिए।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 85
(86) रहे वे लोग जिन्होंने हमारी आयतों को मानने से इनकार किया और उन्हें झुठलाया, तो वे जहन्नम के हक़दार हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُحَرِّمُواْ طَيِّبَٰتِ مَآ أَحَلَّ ٱللَّهُ لَكُمۡ وَلَا تَعۡتَدُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 86
(87) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जो पाक चीज़ें अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की हैं उन्हें हराम न कर लो104 और हद से आगे न बढ़ो105 अल्लाह को ज़्यादती करनेवाले सख़्त नापसन्द हैं।
104. इस आयत में दो बातें कही गई हैं। एक यह कि किसी चीज़ को हलाल और हराम के ठहरानेवाले ख़ुदमुख़्तार न बन जाओ। हलाल वही है जो अल्लाह ने हलाल किया और हराम वही है जो अल्लाह ने हराम किया। अपने इख़्तियार से किसी हलाल को हराम करोगे, तो अल्लाह के क़ानून के बजाय नफ़्स के क़ानून की पैरवी करनेवाले ठहरोगे दूसरी बात यह कि ईसाई राहिबों, हिन्दू जोगियों, बौद्ध मज़हब के भिक्षुओं और पूरब के सूफ़ियों की तरह रहबानियत (संन्यास) और लज़्ज़तों से परहेज़ का तरीक़ा न अपनाओ। मज़हबी ज़ेहनियत के नेक मिज़ाज लोगों में हमेशा से यह मैलान पाया जाता रहा है कि नफ़्स और जिस्म के हुकूक़ अदा करने को वे रूहानी तरक्क़ी में रुकावट समझते हैं और यह गुमान करते हैं कि अपने आपको तकलीफ़ में डालना, अपने नफ़्स को दुनिया की लज़्ज़तों से महरूम करना, और दुनिया के सामाने-ज़िन्दगी से ताल्लुक़ तोड़ना, अपने-आप में एक नेकी है और ख़ुदा की ख़ुशी इसके बग़ैर हासिल नहीं हो सकती। सहाबा (मुहम्मद (सल्ल०) के साथियों) में भी कुछ लोग ऐसे थे जिनके अन्दर यह ज़ेहनियत पाई जाती थी। चुनाँचे एक बार नबी (सल्ल०) को मालूम हुआ कि कुछ सहाबियों ने अह्द किया है कि हमेशा दिन में रोज़ा रखेंगे, रातों को बिस्तर पर न सोएँगे बल्कि जाग-जागकर इबादत करते रहेंगे, गोश्त और चिकनाई इस्तेमाल न करेंगे, औरतों से वास्ता न रखेंगे। इस पर नबी (सल्ल०) ने एक तक़रीर की और उसमें कहा कि “मुझे ऐसी बातों का हुक्म नहीं दिया गया है। तुम्हारे नफ़्स के भी तुम पर हुक़ूक़ हैं। रोज़ा भी रखो और खाओ-पियो भी। रातों को इबादत भी करो और सोओ भी। मुझे देखो, मैं सोता भी हूँ और इबादत भी करता हूँ। रोज़े रखता भी हूँ और नहीं भी रखता। गोश्त भी खाता हूँ और घी भी। इसलिए जो मेरे तरीक़े को पसन्द नहीं करता वह मुझ से नहीं है।” फिर फ़रमाया, “यह लोगों को क्या हो गया है कि उन्होंने औरतों को और अच्छे खाने को और ख़ुशबू और नींद और दुनिया की लज़्ज़तों को अपने ऊपर हराम कर लिया है? मैंने तो तुम्हें यह तालीम नहीं दी है कि तुम राहिब और पादरी बन जाओ। मेरे दीन में न औरतों और गोश्त से परहेज़ है और न लोगों से कटकर तन्हाई इख़्तियार करना और अकेले में बैठ रहना है। नफ़्स (इन्द्रियों) पर क़ाबू करने के लिए मेरे यहाँ रोज़ा है, रहबानियत (संन्यास) के सारे फ़ायदे यहाँ जिहाद से हासिल होते हैं। अल्लाह की बन्दगी करो, उसके साथ किसी को शरीक न करो, हज और उमरा करो, नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो और रमज़ान के रोज़े रखो। तुमसे पहले जो लोग हलाक हुए वे इसलिए हलाक हुए कि उन्होंने अपने ऊपर सख़्ती की, और जब उन्होंने ख़ुद अपने ऊपर सख़्ती की तो अल्लाह ने भी उनपर सख़्ती की। ये उन्हीं की छोड़ी हुई बातें हैं जो तुमको गिरजों और ख़ानक़ाहों में नज़र आती हैं।” इसी सिलसिले में कुछ रिवायतों से यहाँ तक मालूम होता है कि एक सहाबी के बारे में नबी (सल्ल०) ने सुना कि वे एक मुद्दत से अपनी बीवी के पास नहीं गए हैं और रात-दिन इबादत में लगे रहते हैं तो आपने बुलाकर उनको हुक्म दिया कि अभी अपनी बीवी के पास जाओ। उन्होंने कहा कि में रोज़े से हूँ। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया रोजा तोड़ दो और जाओ। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में एक खातून ने शिकायत की कि मेरे शौहर दिन भर रोज़ा रखते हैं और रात भर इबादत करते हैं और मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं रखते। हज़रत उमर (रज़िo ) ने मशहूर ताबिई बुज़ुर्ग, कअब-बिन-सौरल अज़दी को उनके मुक़द्दमे की सुनवाई के लिए मुक़र्रर किया और उन्होंने फ़ैसला दिया कि इस औरत के शौहर को तीन रातों के लिए इख़्तियार है कि जितनी चाहें इबादत करें मगर चौथी रात लाज़िमी तौर पर उनकी बीवी का हक़ है।
105. “हद से आगे न बढ़ो” इस जुमले के अन्दर बड़े गहरे और वसीअ मानी और मतलब हैं। हलाल को हराम करना और ख़ुदा की ठहराई हुई पाक चीज़ों से इस तरह परहेज़ करना कि मानो वे नापाक हैं, यह अपने आप में एक ज़्यादती है। फिर पाक चीज़ों के इस्तेमाल में फ़ुज़ूलख़र्ची करना भी ज़्यादती है। फिर हलाल की हद से बाहर क़दम निकाल कर हराम की हदों में दाख़िल होना भी ज़्यादती है। अल्लाह को ये तीनों बातें नापसन्द हैं।
وَكُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ حَلَٰلٗا طَيِّبٗاۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 87
(88) जो कुछ हलाल और पाक रोज़ी अल्लाह ने तुमको दी है उसे खाओ, पियो और उस ख़ुदा की नाफ़रमानी से बचते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
لَا يُؤَاخِذُكُمُ ٱللَّهُ بِٱللَّغۡوِ فِيٓ أَيۡمَٰنِكُمۡ وَلَٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا عَقَّدتُّمُ ٱلۡأَيۡمَٰنَۖ فَكَفَّٰرَتُهُۥٓ إِطۡعَامُ عَشَرَةِ مَسَٰكِينَ مِنۡ أَوۡسَطِ مَا تُطۡعِمُونَ أَهۡلِيكُمۡ أَوۡ كِسۡوَتُهُمۡ أَوۡ تَحۡرِيرُ رَقَبَةٖۖ فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ ثَلَٰثَةِ أَيَّامٖۚ ذَٰلِكَ كَفَّٰرَةُ أَيۡمَٰنِكُمۡ إِذَا حَلَفۡتُمۡۚ وَٱحۡفَظُوٓاْ أَيۡمَٰنَكُمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 88
(89) तुम लोग जो बेकार की क़समें खा लेते हो उन पर अल्लाह पकड़ नहीं करता, मगर जो क़समें तुम जान-बूझकर खाते हो उनपर वह ज़रूर तुम्हारी पकड़ करेगा। (ऐसी क़सम तोड़ने का) कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) यह है कि दस मिस्कीनों (मुहताजों) को वह दरमियानी दरजे का खाना खिलाओ जो तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो, या उन्हें कपड़े पहनाओ, या एक ग़ुलाम आज़ाद करो और जो इसकी ताक़त न रखता हो वह तीन दिन के रोज़े रखे। यह तुम्हारी क़समों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) है, जबकि तुम क़सम खाकर तोड़ दो।106 अपनी क़समों की हिफ़ाज़त किया करो।107 इस तरह अल्लाह अपने अहकाम (आदेश) तुम्हारे लिए वाज़ेह करता है, शायद कि तुम शुक्र अदा करो।
106. चूँकि कुछ लोगों ने हलाल चीज़ों को अपने ऊपर हराम कर लेने की क़सम खा रखी थी, इसलिए अल्लाह ने इसी सिलसिले में क़सम का हुक्म भी बयान फ़रमा दिया कि अगर किसी आदमी की ज़बान से बे-इरादा क़सम का लफ़्ज़ निकल गया है तो उसकी पाबन्दी करने की वैसे ही ज़रूरत नहीं, क्योंकि ऐसी क़सम पर कोई पकड़ नहीं है और अगर जान-बूझकर किसी ने क़सम खाई है तो वह उसे तोड़ दे और कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा कर दे, क्योंकि जिसने किसी गुनाह की क़सम खाई हो उसे अपनी क़सम पर क़ायम न रहना चाहिए। (देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-243 और-244, कफ़्फ़ारे की तशरीह के लिए देखें सूरा-4 अन-निसा, हाशिया-125)
107. क़सम की हिफ़ाज़त के कई मतलब हैं एक यह कि क़सम सही बातों के सिलसिले में खाई जाए, फ़ुज़ूल बातों और गुनाह के कामों में क़सम न खाई जाए। दूसरे यह कि जब किसी बात पर आदमी क़सम खाए तो उसे याद रखे। ऐसा न हो कि अपनी ग़फ़लत और लापरवाही की वजह से वह उसे भूल जाए और फिर उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी करे। तीसरे यह कि जब किसी सही मामले में इरादे के साथ क़सम खाई जाए तो उसे पूरा किया जाए और अगर उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी हो जाए तो उसका कफ़्फ़ारा अदा किया जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّمَا ٱلۡخَمۡرُ وَٱلۡمَيۡسِرُ وَٱلۡأَنصَابُ وَٱلۡأَزۡلَٰمُ رِجۡسٞ مِّنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَٱجۡتَنِبُوهُ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 89
(90) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, यह शराब और जुआ और ये आस्ताने और पाँसे,108 ये सब गन्दे शैतानी काम हैं, इनसे परहेज़ करो, उम्मीद है कि तुम्हें कामयाबी नसीब होगी।109
108. आस्तानों और पाँसों का मतलब जानने के लिए देखें इसी सूरा का हाशिया-12 और 14। इसी सिलसिले में जुए का मतलब भी हाशिया-14 में मिल जाएगा। हालाँकि पाँसे (अज़लाम) अपनी नौईयत के एतिबार से मैसिर (जुए) की ही एक शक्ल हैं। लेकिन इन दोनों के बीच फ़र्क़ यह है कि अरबी ज़बान में अज़लाम (पाँसे), फ़ालगीरी और क़ुरआअन्दाज़ी (पर्ची डालने) की उस शक्ल को कहते हैं जिसमे मुशरिकाना अक़ीदे और अन्धविश्वास पाए जाते हैं। और मैसिर उन खेलों और कामों को कहते हैं जिनमें इत्तिफ़ाक़ी बातों को कमाई और क़िस्मत आज़माने और माल और चीज़ों को तक़सीम करने का ज़रिआ बनाया जाता है।
109. इस आयत में चार चीज़ें कतई तौर पर हराम की गई हैं। एक शराब, दूसरे जुआ, तीसरे वे मक़ामात जो ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे की इबादत करने या ख़ुदा के सिवा किसी और के नाम पर क़ुरबानी और नज़्रो-नियाज़ चढ़ाने के लिए ख़ास किए गए हों, चौथे पाँसे। बाद में बयान की गई तीनों चीज़ों के बारे में ज़रूरी बातें पहले बयान की जा चुकी हैं। शराब के बारे में अहकाम की तफ़सील नीचे दी जा रही है– शराब को हराम करने के सिलसिले में इससे पहले दो हुक्म आ चुके थे, जो सूरा-2 अल-बक़रा की आयत-219 और सूरा-4 अन-निसा की आयत-43 में गुज़र चुके हैं। अब इस आख़िरी हुक्म के आने से पहले नबी (सल्ल०) ने एक ख़ुतबे में लोगों को ख़बरदार किया कि अल्लाह को शराब सख़्त नापसन्द है। नामुमकिन नहीं कि इसके बिलकुल हराम होने का हुक्म आ जाए, इसलिए जिन-जिन लोगों के पास शराब मौजूद हो वे उसे बेच दें। इसके कुछ दिनों के बाद यह आयत नाज़िल हुई और आप (सल्ल०) ने एलान कराया कि अब जिनके पास शराब है वे न उसे पी सकते हैं, न बेच सकते हैं, बल्कि वे उसे नाली में बहा दें। चुनाँचे उसी वक़्त मदीना की गलियों में शराब बहा दी गई। कुछ लोगों ने पूछा : हम यहूदियों को तोहफ़े में क्यों न दे दें? नबी (सल्ल०) ने कहा, “जिसने यह चीज़ हराम की है उसने इसे तोहफ़े में देने से भी मना कर दिया है।” कुछ लोगों ने पूछा कि हम शराब को सिरके में क्यों न तब्दील कर दें? आप (सल्ल०) ने इससे भी मना कर दिया और हुक्म दिया कि “नहीं, इसे बहा दो।” एक साहब ने पूछा कि दवा के तौर पर इस्तेमाल की तो इजाज़त है? नबी (सल्ल०) ने कहा, “नहीं, वह दवा नहीं है, बल्कि बीमारी है।” एक और साहब ने मालूम किया कि ऐ अल्लाह के रसूल, हम एक ऐसे इलाक़े के रहनेवाले हैं जो बहुत ही ज़्यादा ठण्डा है और हमें मेहनत भी बहुत करनी पड़ती है। हम लोग शराब से थकावट दूर करते हैं और इसी से सर्दी का मुक़ाबला करते हैं। नबी (सल्ल०) ने पूछा जो चीज़ तुम पीते हो वह नशा करती है? उन्होंने कहा कि हाँ। नबी (सल्ल०) ने कहा तो फिर इससे परहेज़ करो। उन्होंने फिर कहा कि हमारे इलाक़े के लोग तो नहीं मानेंगे। नबी (सल्ल०) ने कहा, “अगर वे न मानें तो उनसे जंग करो।” इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने कहा— “अल्लाह ने लानत फ़रमाई है शराब पर और उसके पीनेवाले पर और पिलानेवाले पर और बेचनेवाले पर और ख़रीदनेवाले पर और निचोड़ने और तैयार करनेवाले पर और निचुड़वाने यानी तैयार करानेवाले पर और ढोकर ले जानेवाले पर और उस आदमी पर जिसके लिए वह ढोकर ले जाई गई हो।” एक और हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने उस दस्तरख़ान पर खाना खाने से मना फ़रमाया है जिस पर शराब पी जा रही हो। शुरू में आप (सल्ल०) ने उन बरतनों तक के इस्तेमाल को मना कर दिया था जिनमें शराब बनाई और पी जाती थी। बाद में जब शराब के हराम होने का हुक्म पूरी तरह लागू हो गया तब आप (सल्ल०) ने बरतनों के इस्तेमाल न करने पर से यह पाबन्दी उठा दी। मूल अरबी में लफ़्ज़ 'ख़म्र' इस्तेमाल हुआ है। 'ख़म्र' का लफ़्ज़ अरब में अंगूर की शराब के लिए इस्तेमाल होता था, और मजाज़न (लाक्षणिक तौर पर) गेहूँ, जौ, किशमिश, खजूर और शहद की शराबों के लिए भी यह लफ़्ज़ बोलते थे। मगर नबी (सल्ल०) ने हराम होने के इस हुक्म को तमाम उन चीज़ों पर आम क़रार दिया जो नशा पैदा करनेवाली हैं। चुनाँचे हदीस में नबी (सल्ल०) के ये वाज़ेह फ़रमान हमें मिलते हैं कि “हर नशा पैदा करनेवाली चीज़ ख़म्र है। और हर नशा पैदा करनेवाली चीज़ हराम है।” “पीने की हर वह चीज़ जो नशा पैदा करे, हराम है।” “और मैं नशा पैदा करनेवाली हर चीज़ से मना करता हूँ।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने जुमा के खुत्बे में शराब की यह पहचान बयान की थी कि “ख़म्र से मुराद हर वह चीज़ है जो अक़्ल को ढाँक ले।” इसके अलावा नबी (सल्ल०) ने यह उसूल भी बयान किया कि “जिस चीज़ की ज़्यादा मिक़दार (मात्रा) नशा पैदा करे उसकी थोड़ी मिक़दार भी हराम है।” और “जिस चीज़ का एक पूरा क़राबा (बर्तन) नशा पैदा करता हो उसका एक चुल्लू पीना भी हराम है।” नबी (सल्ल०) के ज़माने में शराब पीनेवाले के लिए कोई ख़ास सज़ा मुक़र्रर नहीं थी। जो आदमी इस जुर्म में गिरफ़्तार होकर आता था, उसे जूते, लात, मुक्के, बल दी हुई चादरों के सोंटे और खजूर के संटे मारे जाते थे। ज़्यादा-से-ज़्यादा 40 ज़र्बें (चोटें) आप (सल्ल०) के ज़माने में इस जुर्म पर लगाई गई हैं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के ज़माने में 40 कोड़े मारे जाते थे। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में भी शुरू में 10 कोड़ों ही की सज़ा रही। फिर जब उन्होंने देखा कि लोग इस जुर्म से बाज़ नहीं आते तो उन्होंने सहाबा के मश्वरे से 80 कोड़े सज़ा तय कर दी। इसी सज़ा को इमाम मालिक (रह०) और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और एक रिवायत के मुताबिक़ इमाम शाफ़िई (रह०) भी, शराब की हद (सज़ा) क़रार देते हैं। मगर इमाम अहमद बिन-हम्बल और एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़ इमाम शाफ़िई (रह०) 40 कोड़ों के क़ाइल हैं, और हज़रत अली (रज़ि०) ने भी इसी को पसन्द फ़रमाया है। शरीअत के मुताबिक़ यह बात इस्लामी हुकूमत की ज़िम्मेदारियों में शामिल है कि यह शराब की बन्दिश के इस हुक्म को ताक़त के साथ लागू करे। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में बनी-सक़ीफ़ के रुवैशिद नाम के एक आदमी की दुकान इस बुनियाद पर जलवा दी गई कि वह खुफ़िया तौर पर शराब बेचता था। एक-दूसरे मौक़े पर एक पूरा गाँव हज़रत उमर (रज़ि०) के हुक्म से इस गुनाह पर जला डाला गया कि वहाँ चोरी-छिपे शराब के निचोड़ने और बेचने का कारोबार हो रहा था।
إِنَّمَا يُرِيدُ ٱلشَّيۡطَٰنُ أَن يُوقِعَ بَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةَ وَٱلۡبَغۡضَآءَ فِي ٱلۡخَمۡرِ وَٱلۡمَيۡسِرِ وَيَصُدَّكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَعَنِ ٱلصَّلَوٰةِۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّنتَهُونَ ۝ 90
(91) शैतान तो यह चाहता है कि शराब और जुए के ज़रिए से तुम्हारे बीच दुश्मनी और बुग़्ज़ (ईष्या) डाल दे और तुम्हें ख़ुदा की याद से और नमाज़ से रोक दे। फिर क्या तुम इन चीज़ों से बाज़ रहोगे?
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَٱحۡذَرُواْۚ فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَا عَلَىٰ رَسُولِنَا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 91
(92) अल्लाह और उसके रसूल की बात मानो और बाज़ आ जाओ, लेकिन अगर तुमने हुक्म नहीं माना तो जान लो कि हमारे रसूल पर बस साफ़-साफ़ हुक्म पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी।
لَيۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جُنَاحٞ فِيمَا طَعِمُوٓاْ إِذَا مَا ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّءَامَنُواْ ثُمَّ ٱتَّقَواْ وَّأَحۡسَنُواْۚ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 92
(93) जो लोग ईमान ले आए और नेक अमल करने लगे उन्होंने पहले जो कुछ खाया-पिया था पर कोई पकड़ न होगी। बशर्ते कि वे आगे उन चीज़ों से बचे रहें जो हराम की गई हैं और ईमान पर जमे रहें और अच्छे काम करें। फिर जिस-जिस चीज़ से रोका जाए उससे रुकें और जो अल्लाह का हुक्म हो उसे मानें, फिर अल्लाह से डरते हुए नेक रवैया अपनाएँ। अल्लाह नेक किरदार लोगों को पसन्द करता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَيَبۡلُوَنَّكُمُ ٱللَّهُ بِشَيۡءٖ مِّنَ ٱلصَّيۡدِ تَنَالُهُۥٓ أَيۡدِيكُمۡ وَرِمَاحُكُمۡ لِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ مَن يَخَافُهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ فَمَنِ ٱعۡتَدَىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَلَهُۥ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 93
(94) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह तुम्हें उस शिकार के ज़रिए से सख़्त आज़माइश में डालेगा जो बिलकुल तुम्हारे हाथों और भालों के निशाने पर होगा, यह देखने के लिए कि तुम में से कौन उससे बिन देखे डरता है, फिर जिसने इस डरावे के बाद अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हद को पार किया उसके लिए दर्दनाक सज़ा है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَقۡتُلُواْ ٱلصَّيۡدَ وَأَنتُمۡ حُرُمٞۚ وَمَن قَتَلَهُۥ مِنكُم مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآءٞ مِّثۡلُ مَا قَتَلَ مِنَ ٱلنَّعَمِ يَحۡكُمُ بِهِۦ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ هَدۡيَۢا بَٰلِغَ ٱلۡكَعۡبَةِ أَوۡ كَفَّٰرَةٞ طَعَامُ مَسَٰكِينَ أَوۡ عَدۡلُ ذَٰلِكَ صِيَامٗا لِّيَذُوقَ وَبَالَ أَمۡرِهِۦۗ عَفَا ٱللَّهُ عَمَّا سَلَفَۚ وَمَنۡ عَادَ فَيَنتَقِمُ ٱللَّهُ مِنۡهُۚ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 94
(95) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, इहराम की हालत में शिकार न मारो,110 और अगर तुममें से कोई जान-बूझकर ऐसा कर गुज़रे तो जो जानवर उसने मारा हो उसी के बराबर एक जानवर उसे मवेशियों में से नज़्र देना होगा जिसका फ़ैसला तुममें से दो इनसाफ़-पसन्द आदमी करेंगे, और यह नज़राना काबा पहुँचाया जाएगा, या नहीं तो इस गुनाह के कफ़्फ़ारे में कुछ मिसकीनों को खाना खिलाना होगा। या उसके बराबर रोज़े रखने होंगे,111 ताकि वह अपने किए का मज़ा चखे। पहले जो कुछ हो चुका उसे अल्लाह ने माफ़ कर दिया, लेकिन अब अगर किसी ने इस हरकत को दोहराया तो उससे अल्लाह बदला लेगा, अल्लाह सब पर ग़ालिब है और बदला लेने की ताक़त रखता है।
110. शिकार चाहे आदमी ख़ुद करे, या किसी दूसरे को शिकार में किसी तौर पर मदद दे, दोनों बातें इहराम की हालत में मना हैं। इसी के साथ अगर मोहरिम (इहराम बाँधनेवाले) के लिए शिकार किया गया हो तब भी उसका खाना मोहरिम के लिए जाइज़ नहीं है। अलबत्ता अगर किसी आदमी ने अपने लिए ख़ुद शिकार किया हो और फिर वह उसमें से मोहरिम को भी तोहफ़े में कुछ दे दे तो उसके खाने में कोई हरज नहीं है। इस आम हुक्म में मूज़ी (तकलीफ़ पहुँचानेवाले) जानवर नहीं आते। साँप, बिच्छू, पागल कुत्ता और ऐसे दूसरे जानवर जो इनसान को नुक़सान पहुँचानेवाले हैं इहराम की हालत में मारे जा सकते हैं।
111. इन बातों का फ़ैसला भी दो इनसाफ़-पसन्द आदमी ही करेंगे कि किस जानवर के मारने पर आदमी कितने मुहताजों को खाना खिलाए, या कितने रोज़े रखे।
أُحِلَّ لَكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَحۡرِ وَطَعَامُهُۥ مَتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِلسَّيَّارَةِۖ وَحُرِّمَ عَلَيۡكُمۡ صَيۡدُ ٱلۡبَرِّ مَا دُمۡتُمۡ حُرُمٗاۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 95
(96) तुम्हारे लिए समन्दर का शिकार और उसका खाना हलाल कर दिया गया112 जहाँ तुम ठहरो वहाँ भी उसे खा सकते हो और काफ़िले के लिए ज़ादे-राह (सफ़र का सामान) भी बना सकते हो। अलबत्ता ख़ुश्की का शिकार जब तक तुम इहराम की हालत में हो, तुम पर हराम किया गया है। तो बचो उस ख़ुदा की नाफ़रमानी से जिसकी पेशी में तुम सबको घेरकर हाजिर किया जाएगा।
112. चूँकि समन्दर के सफ़र में कभी-कभी रास्ते का सामान ख़त्म हो जाता है और खाना जुटाने का इसके सिवा और कोई रास्ता नहीं रहता कि पानी के जानवरों का शिकार किया जाए, इसलिए समुद्री शिकार हलाल कर दिया गया।
قُل لَّا يَسۡتَوِي ٱلۡخَبِيثُ وَٱلطَّيِّبُ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ كَثۡرَةُ ٱلۡخَبِيثِۚ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 96
(100) ऐ पैग़म्बर, इनसे कह दो कि पाक और नापाक बहरहाल बराबर नहीं हैं, चाहे नापाक की बहुतायत तुम्हें कितनी ही लुभानेवाली हो।115 तो ऐ लोगो जो अक़्ल रखते हो! अल्लाह की नाफ़रमानी से बचते रहो, उम्मीद है कि तुम्हें कामयाबी नसीब होगी।
115. यह आयत क़द्र और क़ीमत (मूल्यांकन) का एक दूसरा ही पैमाना पेश करती है जो ज़ाहिर को देखनेवाले इनसान के पैमाने से बिलकुल मुख़्तलिफ़ है। ज़ाहिर को देखनेवाले इनसान की नज़र में 5 रुपये के मुक़ाबले में 100 रुपये यक़ीनी तौर पर ज़्यादा क़ीमती हैं, क्योकि ये 5 हैं और वे 100, लेकिन यह आयत कहती है कि 100 रुपये अगर ख़ुदा की नाफ़रमानी करके हासिल किए गए हों तो वे नापाक हैं और 5 रुपये अगर ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करते हुए कमाए गए हैं तो वे पाक हैं और नापाक चाहे मिक़दार में कितना ही ज़्यादा क्यों न हो बहरहाल वह पाक के बराबर किसी तरह नहीं हो सकता। गन्दगी के एक ढेर से इत्र की एक बूँद ज़्यादा क़ीमत रखती है। पेशाब से भरी हुई एक नाँद के मुक़ाबले में पाक पानी का एक चुल्लू ज़्यादा वज़नी है। इसलिए एक सच्चे अक़्लमन्द इनसान को लाज़िमी तौर पर हलाल ही से काम चलाना चाहिए, चाहे वह ज़ाहिर में कितना ही मामूली और थोड़ा हो और हराम की तरफ़ किसी हाल में भी हाथ नहीं बढ़ाना चाहिए, चाहे वह देखने में कितना ही ज़्यादा और शानदार हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَسۡـَٔلُواْ عَنۡ أَشۡيَآءَ إِن تُبۡدَ لَكُمۡ تَسُؤۡكُمۡ وَإِن تَسۡـَٔلُواْ عَنۡهَا حِينَ يُنَزَّلُ ٱلۡقُرۡءَانُ تُبۡدَ لَكُمۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهَاۗ وَٱللَّهُ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 97
(101) जो ईमान लाए हो, ऐसी बातें न पूछा करो जो तुम पर ज़ाहिर कर दी जाएँ तो तुम्हें नागवार हों।116 लेकिन अगर तुम उन्हें ऐसे वक़्त पूछोगे जब कि क़ुरआन उतर रहा हो तो वे तुम पर खोल दी जाएँगी। अब तक जो कुछ तुमने किया उसे अल्लाह ने माफ़ कर दिया, वह माफ़ करनेवाला और बुर्दबार (सहनशील) है।
116. नबी (सल्ल०) से कुछ लोग अजीब-अजीब क़िस्म के बेहूदा सवाल किया करते थे, जिनकी न दीन के किसी मामले में ज़रूरत होती थी और न दुनिया ही के किसी मामले में। मिसाल के तौर पर एक मौक़े पर एक साहब भरे मजमे में नबी (सल्ल०) से पूछ बैठे कि “मेरा असली बाप कौन है?” इसी तरह कुछ लोग शरीअत के हुक्मों में ग़ैर-ज़रूरी पूछ-गछ किया करते थे, और ख़ाह-मख़ाह पूछ-पूछकर ऐसी चीज़ों को तय कराना चाहते थे, जिन्हें शरीअत के बनानेवाले ने मस्लहत के तहत तय नहीं किया है। जैसे क़ुरआन में मुख़्तसर तौर पर यह हुक्म दिया गया था कि हज तुम पर फ़र्ज किया गया है। एक साहब ने हुक्म सुनते ही नबी (सल्ल०) से पूछा कि “क्या हर साल फ़र्ज किया गया है?” आप (सल्ल०) ने कुछ जवाब नहीं दिया। उन्होंने फिर पूछा। आप (सल्ल०) फिर ख़ामोश रहे। तीसरी बार पूछने पर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम पर अफ़सोस है! अगर मेरी ज़बान से हाँ निकल जाए तो हज हर साल फ़र्ज़ क़रार पा जाए। फिर तुम ही लोग उसकी पैरवी न कर सकोगे और नाफ़रमानी करने लगोगे।” ऐसे ही बे-मतलब और ग़ैर-ज़रूरी सवालों से इस आयत में मना किया गया है। नबी (सल्ल०) ख़ुद भी लोगों को बहुत ज़्यादा सवाल से और ख़ाह-मख़ाह हर बात की खोज लगाने से मना करते थे। चुनाँचे हदीस में है कि “मुसलमानों के हक़ में सबसे बड़ा मुजरिम वह आदमी है जिसने किसी ऐसी चीज़ के बारे में सवाल किया जो लोगों पर हराम न की गई थी और फिर सिर्फ़ उसके सवाल करने की बदौलत वह चीज़ हराम कर दी गई।” एक दूसरी हदीस में है कि “अल्लाह ने कुछ फ़र्ज़ तुम पर आइद (लागू) किए हैं, इन्हें बर्बाद न करो। कुछ चीज़ों को हराम किया है उनके पास न फटको। कुछ हदें मुक़र्रर की हैं, उनसे आगे न बढ़ो और कुछ चीज़ों के बारे में ख़ामोशी इख़्तियार की है बग़ैर इसके कि अल्लाह को भूल हुई हो, इसलिए उनकी खोज न लगाओ।” इन दोनों हदीसों में एक अहम हक़ीक़त पर ख़बरदार किया गया है। जिन मामलों को शरीअत के बनानेवाले ने मुख़्तसर तौर पर बयान किया है और उनकी तफ़सील नहीं बताई, या जो हुक्म मुख़्तसर तौर पर दिए हैं और तादाद या मिक़दार या दूसरी बातें तयशुदा सूरत में नहीं बताई हैं, उनको मुख़्तसर तौर पर बयान करने और उनकी तफ़सील न बयान करने की वजह यह नहीं है कि शरीअत के बनानेवाले से भूल हो गई, तफ़सील बतानी चाहिए थी लेकिन नहीं बताई, बल्कि इसकी अस्ल वजह यह है कि शरीअत का बनानेवाला इन बातों की तफ़सील को महदूद नहीं करना चाहता और अहकाम में लोगों के लिए गुंजाइश रखना चाहता है। अब जो आदमी ख़ाह-मख़ाह सवाल पर सवाल निकालकर तफ़सील और बंदिशों को बढ़ाने की कोशिश करता है, और अगर शरीअत भेजनेवाले के कलाम से ये चीज़ें किसी तरह नहीं निकलतीं तो गुमान और अटकल से, खोज-कुरेद से किसी न किसी तरह मुख़्तसर को तफ़सीली बनाकर, जिसमें कोई पाबन्दी और क़ैद नहीं, उसमें पाबन्दी और क़ैद लगाकर, ग़ैर-तयशुदा को तयशुदा बनाकर ही छोड़ता है, वह हक़ीक़त में मुसलमानों को बड़े ख़तरे में डालता है। इसलिए फ़ितरत से परे मामलों में जितनी तफ़सीलें ज़्यादा होंगी, ईमान लानेवाले के लिए उतने ही ज़्यादा उलझन के मौक़े बढ़ेंगे और अहकाम में जितनी पाबन्दियाँ ज़्यादा होंगी पैरवी करनेवाले के लिए हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करने के इमकान भी उतने ही ज़्यादा होंगे।
قَدۡ سَأَلَهَا قَوۡمٞ مِّن قَبۡلِكُمۡ ثُمَّ أَصۡبَحُواْ بِهَا كَٰفِرِينَ ۝ 98
(102) तुमसे पहले एक गरोह ने इसी तरह के सवाल किए थे, फिर वे लोग उन्हीं बातों की वजह से कुफ़्र (अधर्म) में पड़ गए।117
117. यानी पहले इन्होंने ख़ुद ही अक़ीदों और अहकाम में बाल की खाल निकाली और एक-एक चीज़ के बारे में सवाल कर-करके तफ़सीलों और पाबन्दियों का एक जाल अपने लिए तैयार कराया, फिर ख़ुद ही उसमें उलझकर अक़ीदे की गुमराहियों और अमली नाफ़रमानियों में पड़ गए। इस गरोह से मुराद यहूदी हैं जिनके नक़्शे-क़दम पर चलने में, क़ुरआन और नबी (सल्ल०) के ख़बरदार करने के बावजूद मुसलमानों ने कोई कसर उठा नहीं रखी है।
مَا جَعَلَ ٱللَّهُ مِنۢ بَحِيرَةٖ وَلَا سَآئِبَةٖ وَلَا وَصِيلَةٖ وَلَا حَامٖ وَلَٰكِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَفۡتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَۖ وَأَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡقِلُونَ ۝ 99
(103) अल्लाह ने न कोई बहीरा मुक़र्रर किया है, न सायबा और न वसीला और न हाम118 मगर कुफ़्र करनेवाले ये लोग अल्लाह पर झूठा बोहतान लगाते हैं और उनमें से अकसर बे-अक़्ल हैं (कि ऐसे अन्धविश्वासों और वहमों को मान रहे हैं।)
118. जिस तरह हमारे देश में गाय, बैल और बकरे ख़ुदा के नाम पर या किसी बुत या क़ब्र या देवता या पीर के नाम पर छोड़ दिए जाते हैं और उनसे कोई ख़िदमत लेना या उन्हें ज़ब्ह करना या किसी तौर पर उनसे फ़ायदा उठाना हराम समझा जाता है, उसी तरह जाहिलियत के ज़माने में अरब के लोग भी मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से जानवरों को सवाब (पुण्य) समझकर छोड़ दिया करते थे और उन तरीक़ों से छोड़े हुए जानवरों के अलग-अलग नाम रखते थे। 'बहीरा' उस ऊँटनी को कहते थे जो पाँच बार बच्चे जन चुकी हो और आख़िरी बार उसके यहाँ नर बच्चा हुआ हो। उसका कान चीर कर उसे आज़ाद छोड़ दिया जाता था। फिर न कोई उस पर सवार होता, न उसका दूध पिया जाता, न उसे ज़ब्ह किया जाता, न उसका ऊन उतारा जाता। उसे हक़ था कि जिस खेत और जिस चरागाह में चाहे चरे और जिस घाट से चाहे पानी पिए। 'साइबा' उस ऊँट या ऊँटनी को कहते थे जिसे किसी मन्नत के पूरा होने या किसी बीमारी से शिफ़ा पाने या किसी ख़तरे से बच जाने पर शुकराने के तौर पर सवाब (पुण्य) के तौर पर छोड़ दिया गया हो। इसी के साथ जिस ऊँटनी ने दस बार बच्चे दिए हों और हर बार मादा ही जनी हो उसे भी आज़ाद छोड़ दिया जाता था। 'वसीला' अगर बकरी का पहला बच्चा नर होता तो वह ख़ुदाओं के नाम पर ज़ब्ह कर दिया जाता और अगर वह पहली बार मादा जनती तो उसे अपने लिए रख लिया जाता था। लेकिन अगर नर और मादा एक साथ पैदा होते तो नर को ज़ब्ह करने के बजाय यूँ ही ख़ुदाओं के नाम पर छोड़ दिया जाता था और उसका नाम ‘वसीला’ था। 'हाम' अगर किसी ऊँट का पोता सवारी देने के क़ाबिल हो जाता तो उस बूढ़े ऊँट को आज़ाद छोड़ दिया जाता था। इसी तरह अगर किसी ऊँट के नुतफ़े (वीर्य) से दस बच्चे पैदा हो जाते तो उसे भी आज़ादी मिल जाती।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ قَالُواْ حَسۡبُنَا مَا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ءَابَآؤُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا وَلَا يَهۡتَدُونَ ۝ 100
(104) और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस क़ानून की तरफ़ जो अल्लाह ने उतारा है और आओ पैग़म्बर की तरफ़ तो वे जवाब देते हैं कि हमारे लिए तो बस वही तरीक़ा काफ़ी है जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या ये बाप-दादा ही की पैरवी किए चले जाएँगे, चाहे वे कुछ न जानते हों और सही रास्ते की उन्हें ख़बर ही न हो?
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ عَلَيۡكُمۡ أَنفُسَكُمۡۖ لَا يَضُرُّكُم مَّن ضَلَّ إِذَا ٱهۡتَدَيۡتُمۡۚ إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 101
(105) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपनी फ़िक्र करो। किसी दूसरे की गुमराही से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ता, अगर तुम ख़ुद सीधे रास्ते पर हो।119 अल्लाह की तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
119. यानी बजाय इसके कि आदमी हर वक़्त यह देखता रहे कि फ़ुलाँ क्या कर रहा है और फ़ुलाँ के अक़ीदे में क्या ख़राबी है और फ़ुलाँ के अमल में क्या बुराई है, उसे यह देखना चाहिए कि वह ख़ुद क्या कर रहा है। उसे फ़िक्र अपने ख़यालों की, अपने अख़लाक़ और आमाल की होनी चाहिए कि वे कहीं ख़राब न हों। आदमी ख़ुद अल्लाह के बताए हुए रास्तों पर चल रहा है, ख़ुदा और बन्दों के जो हक़ उसके ऊपर आते हैं, उन्हें अदा कर रहा है, सीधे रास्ते पर चलने और सच्चाई अपनाने के तक़ाज़ों को पूरा कर रहा है, जिनमें लाज़िमी तौर पर भलाई का हुक्म देना और बुराई से रोकना भी शामिल है, तो यक़ीनन किसी आदमी की गुमराही व टेढ़ उसके लिए नुक़सान देनेवाली नहीं हो सकती। इस आयत का यह मंशा हरगिज़ नहीं है कि आदमी बस अपनी नजात की फ़िक्र करे, दूसरों के सुधार की फ़िक्र न करे। हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक (रज़ि०) इस ग़लतफ़हमी को दूर करते हुए अपने एक खुतबे में कहते हैं, “लोगो, तुम इस आयत को पढ़ते हो और इसका ग़लत मतलब लेते हो। मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि जब लोगों का हाल यह हो जाए कि वे बुराई को देखें और उसे बदलने की कोशिश न करें, ज़ालिम को ज़ुल्म करते हुए पाएँ और उसका हाथ न पकड़ें, तो कुछ दूर नहीं कि अल्लाह अपने अज़ाब में सबको लपेट ले। ख़ुदा की क़सम, तुमको लाज़िम है कि भलाई का हुक्म दो और बुराई से रोको, वरना अल्लाह तुम पर ऐसे लोगों को मुसल्लत कर देगा जो तुममें सबसे बदतर होंगे और वे तुम को सख़्त तकलीफ़ें पहुँचाएँगे, फिर तुम्हारे नेक लोग ख़ुदा से दुआएँ मागेंगे, मगर वे क़ुबूल न होंगी।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَهَٰدَةُ بَيۡنِكُمۡ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ حِينَ ٱلۡوَصِيَّةِ ٱثۡنَانِ ذَوَا عَدۡلٖ مِّنكُمۡ أَوۡ ءَاخَرَانِ مِنۡ غَيۡرِكُمۡ إِنۡ أَنتُمۡ ضَرَبۡتُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَأَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةُ ٱلۡمَوۡتِۚ تَحۡبِسُونَهُمَا مِنۢ بَعۡدِ ٱلصَّلَوٰةِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ إِنِ ٱرۡتَبۡتُمۡ لَا نَشۡتَرِي بِهِۦ ثَمَنٗا وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰ وَلَا نَكۡتُمُ شَهَٰدَةَ ٱللَّهِ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلۡأٓثِمِينَ ۝ 102
(106) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, जब तुममें से किसी की मौत का वक़्त आ जाए और वह वसीयत कर रहा हो तो उसके लिए गवाही का तरीक़ा यह है कि तुम्हारी जमाअत में से दो इनसाफ़-पसन्द आदमी120 गवाह बनाए जाएँ, या अगर तुम सफ़र की हालत में हो और वहाँ मौत की मुसीबत पेश आ जाए तो ग़ैर-मुस्लिमों ही में से दो गवाह ले लिए जाएँ।121 फिर अगर कोई शक पड़ जाए तो नमाज़ के बाद दोनों गवाहों को (मस्जिद में) रोक लिया जाए और वे ख़ुदा की क़सम खाकर कहें कि “हम किसी ज़ाती (निजी) फ़ायदे के बदले गवाही बेचनेवाले नहीं हैं। और चाहे कोई हमारा रिश्तेदार ही क्यों न हो (हम उसकी रिआयत करनेवाले नहीं) और न ख़ुदा वास्ते की गवाही को हम छिपानेवाले हैं, अगर हमने ऐसा किया तो गुनाहगारों में गिने जाएँगे।”
120. यानी दीनदार, सच्चा और भरोसेमन्द मुसलमान।
121. इससे मालूम हुआ कि मुसलमानों के मामलों में ग़ैर-मुस्लिम को गवाह बनाना सिर्फ़ उस हालत में है जबकि कोई मुसलमान गवाह बनने के लिए न मिल सके।
فَإِنۡ عُثِرَ عَلَىٰٓ أَنَّهُمَا ٱسۡتَحَقَّآ إِثۡمٗا فَـَٔاخَرَانِ يَقُومَانِ مَقَامَهُمَا مِنَ ٱلَّذِينَ ٱسۡتَحَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡأَوۡلَيَٰنِ فَيُقۡسِمَانِ بِٱللَّهِ لَشَهَٰدَتُنَآ أَحَقُّ مِن شَهَٰدَتِهِمَا وَمَا ٱعۡتَدَيۡنَآ إِنَّآ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 103
(107) लेकिन अगर पता चल जाए कि इन दोनों ने अपने आपको गुनाह में डाल लिया है तो फिर उनकी जगह दो और आदमी, जो उनके मुक़ाबले में गवाही देने के लिए ज़्यादा क़ाबिल हों उन लोगों में से खड़े हों जिनका हक़ मारा गया है। और वे ख़ुदा की क़सम खाकर कहें कि “हमारी गवाही उनकी गवाही से ज़्यादा सही है और हमने अपनी गवाही में कोई ज़्यादती नहीं की है, अगर हम ऐसा करें तो ज़ालिमों में से होंगे।”
ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِٱلشَّهَٰدَةِ عَلَىٰ وَجۡهِهَآ أَوۡ يَخَافُوٓاْ أَن تُرَدَّ أَيۡمَٰنُۢ بَعۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡۗ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَٱسۡمَعُواْۗ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 104
(108) इस तरीक़े से ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है कि लोग ठीक- ठीक गवाही देंगे, या कम-से-कम इस बात ही का ख़ौफ़ करेंगे कि उनकी क़समों के बाद दूसरी क़समों से कहीं उनका रदद् न हो जाए। अल्लाह से डरो। और सुनो, अल्लाह नाफ़रमानी करनेवालों को अपनी रहनुमाई से महरूम कर देता है।
۞يَوۡمَ يَجۡمَعُ ٱللَّهُ ٱلرُّسُلَ فَيَقُولُ مَاذَآ أُجِبۡتُمۡۖ قَالُواْ لَا عِلۡمَ لَنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 105
(109) जिस दिन122 अल्लाह सब रसूलों को जमा करक पूछेगा कि तुम्हें क्या जवाब123 दिया गया, तो वे कहेंगे कि हमें कुछ इल्म नहीं,124 आप ही सब छिपी हक़ीक़तो को जानते हैं।
122. मुराद है क़ियामत का दिन।
123. यानी इस्लाम की तरफ़ जो दावत तुमने दुनिया को दी थी, उसका क्या जवाब दुनिया ने तुम्हें दिया।
124. यानी हम तो सिर्फ़ उस महदूद ज़ाहिरी जवाब को जानते हैं जो हमें अपनी ज़िन्दगी में मिलता हुआ महसूस हुआ। बाक़ी रही यह बात कि हक़ीक़त में हमारी दावत का रद्दे-अमल कहाँ, किस सूरत में, कितना हुआ तो इसका सही इल्म आपके सिवा किसी को नहीं हो सकता।
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ٱذۡكُرۡ نِعۡمَتِي عَلَيۡكَ وَعَلَىٰ وَٰلِدَتِكَ إِذۡ أَيَّدتُّكَ بِرُوحِ ٱلۡقُدُسِ تُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗاۖ وَإِذۡ عَلَّمۡتُكَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَۖ وَإِذۡ تَخۡلُقُ مِنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ بِإِذۡنِي فَتَنفُخُ فِيهَا فَتَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِيۖ وَتُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ تُخۡرِجُ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِيۖ وَإِذۡ كَفَفۡتُ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَنكَ إِذۡ جِئۡتَهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡهُمۡ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 106
(110) फिर तसव्वुर (कल्पना) करो उस मौक़े का जब अल्लाह कहेगा125 कि “ऐ मरयम के बेटे ईसा, याद कर मेरी उस नेमत को जो मैंने तुझे और तेरी माँ को दी थी, मैंने पाक रूह से तेरी मदद की, तू पालने में भी लोगों से बात करता था। और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी। मैंने तुझको किताब और हिकमत और तौरात और इंजील तालीम दी, तू मेरे हुक्म से मिट्टी का पुतला परिन्दे की शक्ल का बनाता और उसमें फूँकता था और वह मेरे हुक्म से परिन्दा बन जाता था, तू पैदाइशी (जन्मजात) अन्धे और कोढ़ी को मेरे हुक्म से अच्छा करता था, तू मुर्दो को मेरे हुक्म से निकालता धा,126 फिर जब तू बनी-इसराईल के पास खुली-खुली निशानिया लेकर पहुँचा और जो लोग उनमें से हक़ का इनक़ार करनेवाले थे, उन्होंने कहा कि ये निशानियाँ जादूगरी के सिवा और कुछ नहीं हैं तो मैंने ही तुझे उनसे बचाया,
125. शुरू का सवाल तमाम रसूलों से मजमूई (सामूहिक) हैसियत से होगा। फिर एक-एक रसूल से अलग-अलग गवाही ली जाएगी जैसा कि क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर वाज़ेह तौर पर बयान किया गया है। इस सिलसिले में हज़रत ईसा (अलैहि०) से जो सवाल किया जाएगा वह वहाँ ख़ास तौर से नक़्ल किया जा रहा है।
126. यानी मौत की हालत से निकालकर ज़िन्दगी की हालत में लाता था।
وَإِذۡ أَوۡحَيۡتُ إِلَى ٱلۡحَوَارِيِّـۧنَ أَنۡ ءَامِنُواْ بِي وَبِرَسُولِي قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّنَا مُسۡلِمُونَ ۝ 107
(111) और जब मैंने हवारियों को इशारा किया कि मुझपर और मेरे रसूल पर ईमान लाओ तब उन्होंने कहा कि हम ईमान लाए और गवाह रहो कि हम मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हैं।”127
127. यानी हवारियों का तुझ पर ईमान लाना भी हमारी मेहरबानी और मदद का नतीजा था। वरना तुझ में तो इतनी ताक़त भी न थी कि उस झुठलानेवाली आबादी में एक ही माननेवाला अपने बल-बूते पर पैदा कर लेता। इशारे में एक बात यहाँ यह भी बता दी कि हवारियों का अस्ल दीन इस्लाम था, न कि ईसाइयत।
إِذۡ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ هَلۡ يَسۡتَطِيعُ رَبُّكَ أَن يُنَزِّلَ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِۖ قَالَ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 108
(112) (हवारियों128 के सिलसिले में) यह वाक़िआ भी याद रहे कि जब हवारियों ने कहा, “ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या आपका रब हमपर आसमान से खाने का एक दस्तरख़ान उतार सकता है?” तो ईसा ने कहा : अल्लाह से डरो, अगर तुम ईमानवाले हो।
128. चूँकि हवारियों का ज़िक्र आ गया था इसलिए ऊपर से चली आ रही बात के सिलसिले को तोड़कर बीच में यहाँ हवारियों ही के बारे में एक और वाक़िए की तरफ़ भी इशारा कर दिया गया, जिससे यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि मसीह से सीधे तौर पर जिन शागिर्दो ने तालीम पाई थी वे मसीह को एक इनसान और सिर्फ़ एक बन्दा समझते थे और उनके वहम और गुमान में भी अपने मुरशिद (गुरु) के ख़ुदा या ख़ुदाई में शरीक या ख़ुदा के बेटे होने का तसव्वुर न या। इसी के साथ यह कि मसीह ने ख़ुद भी अपने आपको उनके सामने एक बे-इख़्तियार बन्दे की हैसियत से पेश किया था। यहाँ यह सवाल किया जा सकता है कि जो बातचीत क़ियामत के दिन होनेवाली है, उसके अन्दर ऊपर से चली आ रही बात से हटकर बीच में आए इस जुमले का कौन-सा मौक़ा होगा? इसका जवाब यह है कि बीच में आया हुआ यह जुमला उस बातचीत के बारे में नहीं है जो क़ियामत के दिन होगी, बल्कि उसकी इस पेशगी हिकायत और दास्तान के बारे में है जो इस दुनिया में की जा रही है। क़ियामत की इस होनेवाली बातचीत का बयान यहाँ किया ही इसलिए जा रहा है कि मौजूदा ज़िन्दगी में ईसाइयों को इससे सबक़ मिले और वे सीधे रास्ते पर आएँ। इसलिए इस बातचीत के सिलसिले में हवारियों के उस वाक़िए का बयान ऊपर से चली आ रही बात के सिलसिले से हटकर बीच में इस जुमले में आना किसी तरह बेताल्लुक़ नहीं है।
قَالُواْ نُرِيدُ أَن نَّأۡكُلَ مِنۡهَا وَتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُنَا وَنَعۡلَمَ أَن قَدۡ صَدَقۡتَنَا وَنَكُونَ عَلَيۡهَا مِنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 109
(113) उन्होंने कहा : हम बस यह चाहते हैं कि उस दस्तरख़ान से खाना खाएँ और हमारे दिल मुतमइन हों और हमें मालूम हो जाए कि आपने जो कुछ हम से कहा है वह सच है और हम उसपर गवाह हों।
قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ ٱللَّهُمَّ رَبَّنَآ أَنزِلۡ عَلَيۡنَا مَآئِدَةٗ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ تَكُونُ لَنَا عِيدٗا لِّأَوَّلِنَا وَءَاخِرِنَا وَءَايَةٗ مِّنكَۖ وَٱرۡزُقۡنَا وَأَنتَ خَيۡرُ ٱلرَّٰزِقِينَ ۝ 110
(114) इसपर मरयम के बेटे ईसा ने दुआ की, “ख़ुदाया, हमारे रब, हम पर आसमान से एक दस्तरख़ान उतार जो हमारे लिए और हमारे अगलों-पिछलों के लिए ख़ुशी का मौक़ा ठहरे और तेरी तरफ़ से एक निशानी हो, हमको रोज़ी दे और तू बेहतरीन रोज़ी देनेवाला है।”
قَالَ ٱللَّهُ إِنِّي مُنَزِّلُهَا عَلَيۡكُمۡۖ فَمَن يَكۡفُرۡ بَعۡدُ مِنكُمۡ فَإِنِّيٓ أُعَذِّبُهُۥ عَذَابٗا لَّآ أُعَذِّبُهُۥٓ أَحَدٗا مِّنَ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 111
(115) अल्लाह ने जवाब दिया, “मैं उसको तुमपर उतारने वाला हूँ129 मगर इसके बाद जो तुममें से कुफ़्र करेगा उसे मैं ऐसी सज़ा दूँगा जो दुनिया में किसी को न दी होगी।"
129. क़ुरआन इस बारे में ख़ामोश है कि यह ख़्वान (थाल) हक़ीक़त में उतारा गया या नहीं। दूसरे किसी भरोसेमन्द ज़रिए से भी इस सवाल का जवाब नहीं मिलता। मुमकिन है कि यह नाज़िल हुआ हो और मुमकिन है कि हवारियों ने बाद की खौफ़नाक धमकी सुनकर अपनी दरख़ास्त वापस ले ली हो।
وَإِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَى ٱبۡنَ مَرۡيَمَ ءَأَنتَ قُلۡتَ لِلنَّاسِ ٱتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَٰهَيۡنِ مِن دُونِ ٱللَّهِۖ قَالَ سُبۡحَٰنَكَ مَا يَكُونُ لِيٓ أَنۡ أَقُولَ مَا لَيۡسَ لِي بِحَقٍّۚ إِن كُنتُ قُلۡتُهُۥ فَقَدۡ عَلِمۡتَهُۥۚ تَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِي وَلَآ أَعۡلَمُ مَا فِي نَفۡسِكَۚ إِنَّكَ أَنتَ عَلَّٰمُ ٱلۡغُيُوبِ ۝ 112
(116) मतलब यह कि जब (इन एहसानों को याद दिलाकर) अल्लाह फ़रमाएगा कि “ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या तूने लोगों से कहा था कि ख़ुदा के सिवा मुझे और मेरी माँ को भी ख़ुदा बना लो?"130 तो वह जवाब में कहेगा कि ” सुबहानल्लाह (अल्लाह पाक है), मेरा यह काम न था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे हक़ न था, अगर मैंने ऐसी बात कही होती तो आपको ज़रूर मालूम होता। आप जानते हैं जो कुछ मेरे दिल में है और मैं नहीं जानता जो कुछ आपके दिल में है, आप तो सारी छिपी हक़ीक़तों के जाननेवाले हैं।
130. ईसाइयों ने अल्लाह के साथ सिर्फ़ मसीह और रूहुल-क़ुदुस (पवित्रात्मा) ही को ख़ुदा बनाने पर बस नहीं किया, बल्कि मसीह की बुज़ुर्ग माँ हज़रत मरयम को भी एक मुस्तक़िल माबूद बना डाला। हज़रत मरयम (अलैहि०) के ख़ुदा होने या पाक रूह होने के बारे में कोई इशारा तक बाइबल में मौजूद नहीं है। मसीह के बाद शुरू के तीन सौ सालों तक ईसाई दुनिया इस ख़याल से बिलकुल बेख़बर थी। तीसरी सदी ईसवी के आख़िरी दौर में स्कन्दरिया (Alexandria) के कुछ दीनी (धार्मिक) आलिमों ने पहली बार हज़रत मरयम के लिए ‘उम्मुल्लाह' या 'ख़ुदा की माँ’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए। इसके बाद धीरे-धीरे मरयम के ख़ुदा होने का अक़ीदा और मरयम की इबादत करने का चलन ईसाइयों में फैलना शुरू हुआ। लेकिन पहले पहल तो चर्च उसे बाक़ायदा तस्लीम करने के लिए तैयार न था, बल्कि मरयम की पूजा करनेवालों को ग़लत अक़ीदेवाला (धर्मभ्रष्ट) क़रार देता था। फिर जब नसतूरियस के इस अक़ीदे पर कि मसीह की एक अकेली ज़ात में दो मुस्तक़िल और बिलकुल अलग-अलग शख़्सियतें जमा थीं, मसीही दुनिया में बहस और झगड़े का एक तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। तो इसका फ़ैसला करने के लिए 431 ई० में शहर अफ़िसुस में एक कौंसिल हुई और इस कौंसिल में पहली बार कलीसा (चर्च) की सरकारी ज़बान में हज़रत मरयम के लिए 'मादरे-ख़ुदा' यानी 'ख़ुदा की माँ' का लक़ब इस्तेमाल किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि मरयम को पूजने की जो बीमारी अब तक कलीसा (चर्च) के बाहर फैल रही थी वह इसके बाद कलीसा के अन्दर भी तेज़ी के साथ फैलने लगी, यहाँ तक कि क़ुरआन के उतरने के ज़माने तक पहुँचते-पहुँचते हज़रत मरयम इतनी बड़ी देवी बन गईं कि बाप, बेटा और रूहुल-क़ुदुस तीनों उनके सामने बौने हो गए। उनके मुजस्समे (बुत और मूर्तियाँ) जगह-जगह कलीसाओं में रखे हुए थे। उनके आगे इबादत की सभी रस्में अदा की जाती थीं। उन्हीं से दुआएँ माँगी जाती थीं, वही फ़रियाद सुननेवाली, ज़रूरतों को पूरा करनेवाली, मुश्किल को दूर करनेवाली और बेसहारों को सहारा देनेवाली थीं, और एक मसीही बन्दे के लिए भरोसे का सबसे बड़ा ज़रिआ था तो वह यह था कि 'ख़ुदा की माँ' की हिमायत और सरपरस्ती उसे हासिल हो। क़ैसर जस्टनेन अपने एक क़ानून की तमहीद (भूमिका) में हज़रत मरयम को अपनी सल्तनत का हिमायती और मददगार क़रार देता है। उसका मशहूर जनरल नरसीस लड़ाई के मैदान में हज़रत मरयम से हिदायत और रहनुमाई माँगता है। नबी (सल्ल०) के ज़माने का बादशाह क़ैसर हिरक़्ल ने अपने झण्डे पर 'ख़ुदा की माँ' की तस्वीर बना रखी थी और उसे यक़ीन था कि इस तस्वीर की बरकत से यह झण्डा झुक न पाएगा। हालाँकि बाद की सदियों में सुधार की जो तहरीक चली उसके असर से प्रोटेस्टेंट ईसाइयों ने मरयम को पूजने के ख़िलाफ़ सख़्ती से आवाज़ उठाई, लेकिन रोमन कैथोलिक कलीसा (चर्च) आज तक इस रास्ते पर चल रहा है।
مَا قُلۡتُ لَهُمۡ إِلَّا مَآ أَمَرۡتَنِي بِهِۦٓ أَنِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبَّكُمۡۚ وَكُنتُ عَلَيۡهِمۡ شَهِيدٗا مَّا دُمۡتُ فِيهِمۡۖ فَلَمَّا تَوَفَّيۡتَنِي كُنتَ أَنتَ ٱلرَّقِيبَ عَلَيۡهِمۡۚ وَأَنتَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 113
(117) मैंने उनसे इसके सिवा कुछ नहीं कहा जिसका आपने हुक्म दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। मैं उसी वक़्त तक उनका निगराँ था जब तक कि मैं उनके बीच था। जब आपने मुझे वापस बुला लिया तो आप उनपर निगराँ थे और आप तो सारी ही चीज़ों पर निगराँ हैं।
إِن تُعَذِّبۡهُمۡ فَإِنَّهُمۡ عِبَادُكَۖ وَإِن تَغۡفِرۡ لَهُمۡ فَإِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 114
(118) अब अगर आप उन्हें सज़ा दें तो वे आपके बन्दे हैं और अगर माफ़ कर दें तो आप ग़ालिब और हिकमतवाले हैं।”
قَالَ ٱللَّهُ هَٰذَا يَوۡمُ يَنفَعُ ٱلصَّٰدِقِينَ صِدۡقُهُمۡۚ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 115
(119) तब अल्लाह कहेगा, “यह वह दिन है जिसमें सच्चों को उनकी सच्चाई फ़ायदा देती है। उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं, यहाँ वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से, यही बड़ी कामयाबी है।”
لِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا فِيهِنَّۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرُۢ ۝ 116
(120) ज़मीन और आसमानों और तमाम मौजूद चीज़ों की बादशाही अल्लाह ही के लिए है और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
۞جَعَلَ ٱللَّهُ ٱلۡكَعۡبَةَ ٱلۡبَيۡتَ ٱلۡحَرَامَ قِيَٰمٗا لِّلنَّاسِ وَٱلشَّهۡرَ ٱلۡحَرَامَ وَٱلۡهَدۡيَ وَٱلۡقَلَٰٓئِدَۚ ذَٰلِكَ لِتَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَأَنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 117
(97) अल्लाह ने मुहतरम घर काबा को लोगों के लिए (इज्तिमाई ज़िन्दगी के) क़ियाम का ज़रिआ बनाया और हराम महीनों और क़ुरबानी के जानवरों और क़लादों को भी (इस काम में मददगार बना दिया)113 ताकि तुम्हें मालूम हो जाए कि अल्लाह आसमानों और ज़मीन की सब हालतों से बाख़बर है। और उसे हर चीज़ का इल्म है।114
113. अरब में काबा की हैसियत सिर्फ़ एक पाक और मुक़द्दस इबादतगाह ही की न थी, बल्कि अपनी मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) और अपने तक़द्दुस (पावनता) की वजह से वही पूरे मुल्क के मआशी व तमद्दुनी (आर्थिक एवं सांस्कृतिक) ज़िन्दगी का सहारा बना हुआ था। हज और उमरे के लिए सारा मुल्क उसकी तरफ़ खिंचकर आता था और लोगों के इस तरह जमा होने से इंतिशार (बिखराव) के मारे हुए अरबों में एकता और एकजुटता का एक रिश्ता पैदा होता, मुख़्तलिफ़ इलाक़ों और क़बीलों के लोग आपसी तमद्दुनी राब्ते (सांस्कृतिक सम्बन्ध) क़ायम करते, शायरी के मुक़ाबलों से उनकी ज़बान और अदब (साहित्य) को तरक़्क़ी नसीब होती, और तिज़ारती लेन-देन से सारे मुल्क की माली ज़रूरतें पूरी होतीं। मोहतरम महीनों की बदौलत अरबों को साल का पूरा एक तिहाई ज़माना अमन का नसीब हो जाता था। बस यही ज़माना ऐसा था जिसमें उनके क़ाफ़िले मुल्क के एक सिरे से दूसरे सिरे तक आसानी के साथ आते-जाते थे। क़ुरबानी के जानवरों और क़लादों (गले के पट्टों) की मौजूदगी से भी इस चलत-फिरत में बड़ी मदद मिलती थी, क्योंकि नज़्र की निशानी के तौर पर जिन जानवरों की गरदनों में पट्टे पड़े होते उन्हें देखकर अरबों की गरदनें एहतिराम से झुक जातीं और लूट-मार करनेवाले किसी क़बीले को उनपर हाथ डालने की हिम्मत न होती।
114. यानी अगर तुम इस इन्तिज़ाम पर ग़ौर करो तो तुम्हें ख़ुद अपने मुल्क की समाजी और मआशी (आर्थिक) ज़िन्दगी ही में इस बात की एक खुली गवाही मिल जाए कि अल्लाह अपनी मख़लूक़ की मस्लहतों और उनकी ज़रूरतों का कैसा मुकम्मल और गहरा इल्म रखता है और अपने एक-एक हुक्म के ज़रिए से इनसानी ज़िन्दगी के कितने-कितने पहलुओं को फ़ायदा पहुँचा देता है। बदअमनी (अशान्ति) के ये सैकड़ों साल जो मुहम्मद (सल्ल०) के आने से पहले गुज़रे हैं, उनमें तुम लोग ख़ुद अपने फ़ायदों से अनजान थे और अपने आपको तबाह करने पर तुले हुए थे, मगर अल्लाह तुम्हारी ज़रूरतों को जानता था और उसने सिर्फ़ एक काबा की मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) क़ायम करके तुम्हारे लिए वह इन्तिज़ाम कर दिया था जिसकी बदौलत तुम्हारी क़ौमी ज़िन्दगी बरक़रार रह सकी। दूसरी अनगिनत बातों को छोड़कर अगर सिर्फ़ इसी एक बात पर ध्यान दो तो तुम्हें यक़ीन हासिल हो जाए कि अल्लाह ने जो अहकाम (आदेश) तुम्हें दिए हैं उनकी पाबन्दी में तुम्हारी अपनी भलाई है और उनमें तुम्हारे लिए ऐसी-ऐसी भलाई और फ़ायदे छिपे हैं जिनको न तुम ख़ुद समझ सकते हो और न अपनी तदबीरों से पूरा कर सकते हो।
ٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ وَأَنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 118
(98) ख़बरदार हो जाओ, अल्लाह सज़ा देने में भी सख़्त है और इसके साथ बहुत माफ़ करनेवाला और रहम भी करनेवाला है।
مَّا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 119
(99) रसूल पर तो सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है। आगे तुम्हारे खुले और छिपे सब हालात का जाननेवाला अल्लाह है।