(40) और रात के वक़्त फिर उसकी तसबीह करो और सजदे करने से निबट जाने के बाद भी।51
51. यह है वह ज़रिआ जिससे आदमी को यह ताक़त हासिल होती है कि हक़ की दावत की राह में उसे चाहे कैसे ही दिल तोड़नेवाले और दुखी करनेवाले हालात का सामना करना पड़े, और उसकी कोशिशों का चाहे कोई फल भी हासिल होता नज़र न आए, फिर भी वह पूरे मज़बूत इरादे के साथ ज़िन्दगी-भर हक़ का बोल-बाला करने और दुनिया को भलाई की तरफ़ बुलाने की काशिश जारी रखे।
रब की हम्द और उसकी तसबीह (महिमागान) से मुराद यहाँ नमाज़ है और जिस मक़ाम पर भी क़ुरआन में हम्द और तसबीह को ख़ास वक़्तों के साथ ख़ास कर दिया गया है वहाँ इससे मुराद नमाज़ ही होती है। ‘सूरज निकलने से पहले’ फ़ज्र की नमाज़ है। 'सूरज डूबने से पहले’ दो नमाज़ें हैं, एक ज़ुह्र, दूसरी अस्र। ‘रात के वक़्त' मग़रिब और इशा की नमाजें हैं और तीसरी तहज्जुद भी रात की तसबीह में शामिल है, (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—91 से 97; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-111; सूरा-30 रूम, हाशिए—23, 24)। रही वह तसबीह जो 'सजदों से फ़ारिग़ होने के बाद’ करने की हिदायत की गई है, तो उससे मुराद नमाज़ के बाद का ‘ज़िक्र' भी हो सकता है और फ़र्ज़ के बाद 'नफ़्ल' अदा करना भी। हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत हसन-बिन-अली (रज़ि०), हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०), हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०), शअबी, मुजाहिद, इकरिमा, हसन बसरी, क़तादा, इबराहीम नख़ई, और औज़ाई (रह०) इससे मुराद मग़रिब की नमाज़ के बाद की दो रकअतें लेते हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) और एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का भी यह ख़याल है कि इससे मुराद नमाज़ के बाद का ज़िक्र है। और इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि इस हुक्म का मक़सद यह है कि फ़र्ज़ों के बाद भी नवाफ़िल (नफ़्ल नमाज़ें) अदा किए जाएँ।
बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार ग़रीब मुहाजिरों ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! मालदार लोग तो बड़े दरजे लूट ले गए।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या हुआ?” उन्होंने कहा, “वे भी नमाज़ें पढ़ते हैं जैसे हम पढ़ते हैं और रोज़े रखते हैं जैसे हम रखते हैं, मगर वे सदक़ा करते हैं और हम नहीं कर सकते, वे ग़ुलाम आज़ाद करते हैं और हम नहीं कर सकते।” अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "क्या मैं तुम्हें ऐसी चीज़ बताऊँ जिसे अगर तुम करो तो तुम दूसरे लोगों से बाज़ी ले जाओगे सिवाय उनके जो वही अमल करें जो तुम करोगे? वह अमल यह है कि तुम हर नमाज़ के बाद 33-33 बार 'सुब्हानल्लाह' (अल्लाह पाक है), 'अल-हमदुलिल्लाह' (शुक्र व तारीफ़ अल्लाह के लिए है), और 'अल्लाहु अकबर' (अल्लाह ही बड़ा है) कहा करो।” कुछ मुद्दत के बाद उन लोगों ने कहा कि हमारे मालदार भाइयों ने यह बात सुन ली है और वे भी यही अमल करने लगे हैं। इसपर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह अल्लाह की मेहरबानी है, वह जिसपर चाहता है करता है।” एक रिवायत में इन कलिमात की तादाद 33-33 के बजाय 10-10 भी नक़्ल हुई है।
हज़रत ज़ैद-बिन-साबित की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हमको हिदायत फ़रमाई थी कि हम हर नमाज़ के बाद 33-33 बार 'सुब्हानल्लाह' और 'अल-हमदुलिल्लाह' कहा करें और 34 बार 'अल्लाहु अकबर' कहें। बाद में एक अनसारी ने पूछा कि मैंने ख़ाब में देखा है कि कोई कहता है अगर तुम 25-25 बार ये तीन कलिमे कहो और फिर 25 बार 'ला इला-ह इल्लल्लाह' (अल्लाह के सिवा कोई बन्दगी के लायक़ नहीं) कहो तो यह ज़्यादा बेहतर होगा। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा इसी तरह किया करो।" (हदीस : अहमद, नसई, दारमी)
हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) नमाज़ अदा करके जब पलटते थे तो मैंने आप (सल्ल०) को ये अलफ़ाज़ कहते सुना है, 'सुब्हा-न रबि-क रब्बिल-इज़्ज़ति अम्मा यसिफ़ून व सलामुन अलल-मुर्सलीन वलहम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।' “पाक है तेरा रब इज़्ज़त का मालिक, उन सभी बातों से जो ये (इस्लाम-मुख़ालिफ़) बना रहे हैं! और सलाम है पैग़म्बरों पर, और सारी तारीफ़ अल्लाह सारे जहानों के रब ही के लिए है!" (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)
इसके अलावा भी नमाज़ के बाद के कई तरह के 'ज़िक्र' अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से बयान हुए हैं। जो लोग क़ुरआन मजीद की इस हिदायत पर अमल करना चाहें वे मिशकात, बाबुज़-ज़िक्र बादस-सलात में से कोई ज़िक जो उनके दिल को सबसे ज़्यादा अच्छा लगे, छाँटकर याद कर लें और उसकी पाबन्दी करें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अपने बताए हुए ज़िक्र से बेहतर और कौन-सा ज़िक्र हो सकता है! मगर यह ख़याल रखें कि ज़िक्र से अस्ल मक़सद कुछ ख़ास अलफ़ाज़ को ज़बान से अदा कर देना नहीं है, बल्कि उन मतलबों को ज़ेहन में ताज़ा और जमाए रखना है जो इन अलफ़ाज़ में बयान किए गए हैं। इसलिए जो ज़िक्र भी किया जाए उसके मतलब को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए और फिर मतलबों का ध्यान रखते हुए ज़िक्र करना चाहिए।