(1) क़ियामत की घड़ी क़रीब आ गई और चाँद फट गया।1
1. यानी चाँद का फट जाना इस बात की निशानी है कि वह क़ियामत की घड़ी, जिसके आने की तुम लोगों को ख़बर दी जाती रही है, आ लगी है और कायनात के निज़ाम (सृष्टि-व्यवस्था) के दरहम-बरहम (अस्त-व्यस्त) होने की शुरुआत हो गई है। साथ ही यह वाक़िआ कि चाँद जैसा एक बड़ा गोला फटकर दो टुकड़े हो गया, इस बात का खुला सुबूत है कि जिस क़ियामत (प्रलय) का तुमसे ज़िक्र किया जा रहा है वह बरपा हो सकती है। ज़ाहिर है कि जब चाँद फट सकता है तो ज़मीन भी फट सकती है, तारों और सय्यारों (ग्रहों) के मदार (कक्ष) भी बदल सकते हैं और आसमानों का यह सारा निज़ाम दरहम-बरहम हो सकता है। इसमें कोई चीज़ हमेशा से और हमेशा रहनेवाली नहीं है कि क़ियामत बरपा न हो सके।
कुछ लोगों ने इस जुमले का मतलब यह लिया है कि 'चाँद फट जाएगा’। लेकिन अरबी ज़बान के लिहाज़ से चाहे यह मतलब लेना मुमकिन हो, इबारत का मौक़ा-महल इस मतलब को क़ुबूल करने से साफ़ इनकार करता है। एक तो यह मतलब लेने से पहला जुमला ही बे-मतलब हो जाता है। चाँद अगर इस कलाम के उतरने के वक़्त फटा नहीं था, बल्कि वह आगे कभी फटनेवाला है तो उसकी बुनियाद पर यह कहना बिलकुल बेकार बात है कि क़ियामत की घड़ी क़रीब आ गई है। आख़िर मुस्तक़बिल (भविष्य) में पेश आनेवाला कोई वाक़िआ उसके क़रीब होने की निशानी कैसे क़रार पा सकता है कि उसे गवाही के तौर पर पेश करना एक मुनासिब दलील हो। दूसरे, यह मतलब लेने के बाद जब हम आगे की इबारत पढ़ते हैं तो महसूस होता है कि इसके साथ कोई जोड़ नहीं रखती। आगे की इबारत साफ़ बता रही है कि लोगों ने उस वक़्त कोई निशानी देखी थी जो इस बात की खुली अलामत थी कि क़ियामत का आना मुमकिन है, मगर उन्होंने उसे जादू का करिश्मा ठहराकर झुठला दिया और अपने इस ख़याल पर जमे रहे कि क़ियामत का आना मुमकिन नहीं है। इस मौक़ा-महल में 'इन-शक़्क़ल-क़मर' के अलफ़ाज़ उसी सूरत में ठीक बैठ सकते हैं जबकि उनका मतलब 'चाँद फट गया' हो। 'फट जाएगा' के मानी में उनको ले लिया जाए तो बाद की सारी बात बेजोड़ होकर रह जाती है। बात के इस सिलसिले में इस जुमले को रखकर देख लीजिए, आपको ख़ुद महसूस हो जाएगा कि इसकी वजह से सारी इबारत बे-मतलब हो गई है—
“क़ियामत की घड़ी क़रीब आ गई और चाँद फट जाएगा। इन लोगों का हाल यह है कि चाहे कोई निशानी देख लें, मुँह मोड़ जाते हैं और कहते हैं कि यह तो चलता हुआ जादू है। इन्होंने झुठला दिया और अपने मन की ख़ाहिशों की पैरवी की।"
तो हक़ीक़त यह है कि चाँद फटने का वाकिआ क़ुरआन के साफ़ अलफ़ाज़ से साबित है और हदीस की रिवायतों पर उसका दारोमदार नहीं है। अलबत्ता रिवायतों से इसकी तफ़सीलात मालूम होती हैं और पता चलता है कि यह कब और कैसे पेश आया था। ये रिवायतें बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, अहमद, अबू-उवाना, अबू-दाऊद तयालिसी, अब्दुर्रज़्ज़ाक़, इब्ने-जरीर, बैहक़ी, तबरानी, इब्ने-मरदुवैह और अबू-नुऐम अस्फ़हानी ने बहुत-सी सनदों के साथ हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ि०), हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) और हज़रत ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०) से नक़्ल की हैं। इनमें से तीन बुज़ुर्ग यानी हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद, हज़रत हुज़ैफ़ा और ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०) बयान करते हैं कि वे इस वाक़िए के चश्मदीद गवाह हैं। और दो बुज़ुर्ग ऐसे हैं जो इसके चश्मदीद गवाह नहीं हो सकते, क्योंकि यह उनमें से एक (यानी अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास रज़ि०) की पैदाइश से पहले का वाक़िआ है, और दूसरे यानी (अनस-बिन-मालिक रज़ि०) उस वक़्त बच्चे थे। लेकिन चूँकि ये दोनों लोग सहाबी हैं इसलिए ज़ाहिर है कि इन्होंने ऐसे उम्रवाले सहाबियों से सुनकर ही इसे रिवायत किया होगा जो इस वाक़िए का सीधे तौर पर इल्म रखते थे।
तमाम रिवायतों को इकट्ठा करने से इसकी जो तफ़सीलात मालूम होती हैं वे ये हैं कि यह हिजरत से लगभग 5 साल पहले का वाक़िआ है। चाँद के महीने की 14 तारीख़ थी। चाँद अभी-अभी निकला था। एकाएक वह फटा और उसका एक टुकड़ा सामने की पहाड़ी के एक तरफ़ और दूसरा टुकड़ा दूसरी तरफ़ नज़र आया। यह कैफ़ियत बस एक ही पल रही और फिर दोनों टुकड़े आपस में जुड़ गए। नबी (सल्ल०) उस वक़्त मिना में तशरीफ़ रखते थे। आप (सल्ल०) ने लोगों से फ़रमाया, “देखो और गवाह रहो।” इनकार करनेवालों ने कहा, “मुहम्मद ने हमपर जादू कर दिया था, इसलिए हमारी आँखों ने धोखा खाया।” दूसरे लोग बोले कि “मुहम्मद हमपर जादू कर सकते थे, मगर तमाम लोगों पर तो नहीं कर सकते थे। बाहर के लोगों को आने दो। उनसे पूछेंगे कि यह वाक़िआ उन्होंने भी देखा या नहीं।” बाहर से जब कुछ लोग आए तो उन्होंने गवाही दी कि वे भी यह मंज़र देख चुके हैं।
कुछ रिवायतें जो हज़रत अनस (रज़ि०) से बयान हुई हैं उनकी बुनियाद पर यह ग़लतफ़हमी पैदा होती है कि चाँद फटने का वाक़िआ एक बार नहीं, बल्कि दो बार पेश आया था। लेकिन एक तो सहाबा (रज़ि०) में से किसी और ने यह बात बयान नहीं की है। दूसरे ख़ुद हज़रत अनस (रज़ि०) की भी कुछ रिवायतों में 'मर्रतैन' (दो बार) के अलफ़ाज़ हैं और कुछ में 'फ़िर्क़तैन' और 'शक़्क़तैन' (दो टुकड़े) के अलफ़ाज़। तीसरे यह कि क़ुरआन मजीद सिर्फ़ एक ही 'इनशिक़ाक़' (फटने) का ज़िक्र करता है। इस बिना पर सही बात यही है कि यह वाक़िआ सिर्फ़ एक बार पेश आया था। रहे वे क़िस्से जो आम लोगों में मशहूर हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उँगली से चाँद की तरफ़ इशारा किया और वह दो टुकड़े हो गया और यह कि चाँद का एक टुकड़ा नबी (सल्ल०) के गिरेबान में दाख़िल होकर आप (सल्ल०) की आस्तीन से निकल गया, तो ये बिलकुल ही बेबुनियाद और बेअस्ल हैं।
यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि यह वाक़िआ हक़ीक़त में किस तरह का था? क्या यह एक मोजिज़ा (चमत्कार) था जो मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों की माँग पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी पैग़म्बरी के सुबूत में दिखाया था? या यह एक हादिसा था जो अल्लाह तआला की क़ुदरत से चाँद में पेश आया और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने लोगों को उसकी तरफ़ सिर्फ़ इस मक़सद के लिए ध्यान दिलाया कि यह क़ियामत के इमकान (हो सकने) और क़ियामत के क़रीब होने की एक निशानी है? इस्लाम के आलिमों का एक बड़ा गरोह इसे नबी (सल्ल०) के मोजिज़ों (चमत्कारों) में शुमार करता है और उनका ख़याल यह है कि इनकार करनेवालों की माँग पर यह मोजिज़ा (चमत्कार) दिखाया गया था। लेकिन इस राय का दारोमदार सिर्फ़ कुछ उन रिवायतों पर है जो हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं। उनके सिवा किसी ने भी यह बात बयान नहीं की है। फ़तहुल-बारी में इब्ने-हजर (रह०) कहते हैं—
"यह क़िस्सा जितने तरीक़ों से नक़्ल हुआ है उनमें से किसी में भी हज़रत अनस (रज़ि०) की हदीस के सिवा यह मज़मून मेरी निगाह से नहीं गुज़रा कि चाँद फटने का वाक़िआ मुशरिकों की माँग पर हुआ था।” (बाबु इनशिक़ाक़िल-क़मर)।
एक रिवायत अबू-नुऐम अस्फ़हानी ने 'दलाइलुन-नुबूवत' में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से भी इस मज़मून की नक़्ल की है, मगर इसकी सनद कमज़ोर है, और मज़बूत सनदों से जितनी रिवायतें हदीस की किताबों में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से नक़्ल हुई हैं उनमें से किसी में भी इसका ज़िक्र नहीं है। इसके अलावा हज़रत अनस (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन- अब्बास (रज़ि०), दोनों इस वाक़िए के ज़माने के नहीं हैं। इसके बरख़िलाफ़ जो सहाबा उस ज़माने में मौजूद थे, हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), उनमें से किसी ने भी यह नहीं कहा है कि मक्का के मुशरिकों ने नबी (सल्ल०) की सच्चाई के सुबूत में किसी निशानी की माँग की थी और उसपर चाँद फटने का यह मोजिज़ा उनको दिखाया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि क़ुरआन मजीद ख़ुद भी इस वाक़िए को मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की नहीं, बल्कि क़ियामत के क़रीब होने की निशानी के तौर पर पेश कर रहा है। अलबत्ता यह इस लिहाज़ से नबी (सल्ल०) की सच्चाई का एक नुमायाँ सुबूत ज़रूर था कि आप (सल्ल०) ने क़ियामत के आने की जो ख़बरें लोगों को दी थीं, यह वाक़िआ उनको सच्चा साबित कर रहा था।
एतिराज़ करनेवाले इसपर दो तरह के एतिराज़ करते हैं। एक तो उनके नज़दीक ऐसा होना मुमकिन ही नहीं है कि चाँद जैसे बड़े गोले के दो टुकड़े फटकर अलग हो जाएँ और सैंकड़ों मील की दूरी तक एक-दूसरे से दूर जाने के बाद फिर आपस में जुड़ जाएँ। दूसरे, वे कहते हैं कि अगर ऐसा हुआ होता तो यह वाक़िआ दुनिया भर में मशहूर हो जाता, तारीख़ों (इतिहासों) में इसका ज़िक्र आता, और इल्मे-नुजूम (नक्षत्रशास्त्र) की किताबों में इसे बयान किया जाता। लेकिन हक़ीक़त में ये दोनों एतिराज़ बेवज़न हैं। जहाँ तक इस बात की बहस है कि क्या ऐसा होना मुमकिन (सम्भव) भी है? तो पुराने ज़माने में तो शायद वह चल भी सकती थी, लेकिन मौजूदा दौर में सय्यारों (ग्रहों) की बनावट के बारे में इनसान को जो मालूमात हासिल हुई हैं उनकी बुनियाद पर यह बात बिलकुल मुमकिन है कि एक गोला अपने अन्दर की आग के सबब फट जाए और इस ज़बरदस्त बिखराव से उसके दो टुकड़े दूर तक चले जाएँ, और फिर अपने मर्कज़ (केन्द्र) की खींचनेवाली ताक़त के सबब से वे एक-दूसरे के साथ आ मिलें। रहा दूसरा एतिराज़ तो वह इसलिए बेवज़न है कि यह वाक़िआ अचानक बस एक पल के लिए पेश आया था। ज़रूरी नहीं था कि उस ख़ास पल में दुनिया भर की निगाहें चाँद की तरफ़ लगी हुई हों। इससे कोई धमाका नहीं हुआ था कि लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ जाता। पहले से कोई ख़बर उसकी न थी कि लोग उसके इन्तिज़ार में आसमान की तरफ़ देख रहे होते। पूरी धरती पर उसे देखा भी नहीं जा सकता था, बल्कि सिर्फ़ अरब और उसके मशरिक़ी (पूर्वी) तरफ़ के देश ही में उस वक़्त चाँद निकला हुआ था। इतिहास लिखने का शौक़ और फ़न भी उस वक़्त तक इतनी तरक़्क़ी न कर सका था कि मशरिक़ी (पूर्वी) देशों में जिन लोगों ने उसे देखा होता वे उसे लिख लेते और किसी इतिहासकार के पास ये गवाहियाँ जमा होतीं और वह तारीख़ की किसी किताब में उनको लिख लेता। फिर भी मालाबार की तारीख़ों (इतिहासों) में यह ज़िक्र आया है कि उस वक़्त वहाँ के एक राजा ने यह मंज़र देखा था। रहीं तारों के बारे में जानकारी देनेवाली (इल्मे-नुजूम की) किताबें और जंत्रियाँ, तो उनमें इसका ज़िक्र आना सिर्फ़ उस हालत में ज़रूरी था जबकि चाँद की रफ़्तार और उसके चक्कर लगाने के रास्ते और उसके निकलने और डूबने के वक़्तों में इससे कोई फ़र्क़ पैदा हुआ होता। यह सूरत चूँकि पेश नहीं आई इसलिए पुराने ज़माने के नुजूमियों (नक्षत्रशास्त्रियों) का ध्यान इस तरफ़ नहीं गया। उस ज़माने में रसदगाहें (observatories) इस हद तक तरक़्क़ी न कर सकी थीं कि आसमानों में पेश आनेवाले हर वाक़िए का नोटिस लेतीं और उसको रिकॉर्ड पर महफ़ूज़ कर लेतीं।