(27) उनके बाद हमने एक के बाद एक अपने रसूल भेजे, और उन सबके बाद मरयम के बेटे ईसा को भेजा और उसको इंजील दी, और जिन लोगों ने उसकी पैरवी अपनाई उनके दिलों में हमने तरस (दयाभाव) और रहम डाल दिया।51 और रहबानियत (संन्यास)52 उन्होंने ख़ुद ईजाद कर ली, हमने उसे उनपर फ़र्ज़ नहीं किया था, मगर अल्लाह की ख़ुशनूदी की चाह में उन्होंने आप ही यह बिदअत (नई रस्म) निकाली53 और फिर उसकी पाबन्दी करने का जो हक़ था उसे अदा न किया54 उनमें से जो लोग ईमान लाए हुए थे उनका अज्र (इनाम) हमने उनको दे दिया, मगर उनमें से ज़्यादातर लोग नाफ़रमान हैं।
51. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'राफ़त' और 'रहमत'। इन दोनों लफ़्ज़ों का मतलब क़रीब-क़रीब का एक ही है, मगर जब ये एक साथ बोले जाते हैं तो 'राफ़त' से मुराद वह नर्मदिली होती है जो किसी को तकलीफ़ और मुसीबत में देखकर एक शख़्स के दिल में पैदा हो। और 'रहमत' से मुराद वह जज़बा होता है जिसके तहत वह उसकी मदद की कोशिश करे। हज़रत ईसा (अलैहि०) चूँकि बहुत ही नर्मदिल और ख़ुदा के बन्दों के लिए रहमदिल और मेहरबान थे, इसलिए उनकी सीरत का यह असर उनके पैरोकारों में पैदा हो गया कि वे अल्लाह के बन्दों नाम पर तरस खाते थे और हमदर्दी के साथ उनकी ख़िदमत करते थे।
52. इसको 'रहबानियत' भी पढ़ा जाता है और 'रुहबानियत' भी। इसका माद्दा (धातु) 'र-ह-ब' है जिसका मतलब है डर। रहबानियत का मतलब है 'डरते रहने का रास्ता', और रुहबानियत का मतलब है 'डरते रहनेवालों का रास्ता'। इसतिलाही (पारिभाषिक) तौर पर इससे मुराद है किसी शख़्स का डर की वजह से (चाहे वह किसी के ज़ुल्म का डर हो, या दुनिया के फ़ितनों का डर, या अपने मन की कमज़ोरियों का डर) दुनिया छोड़ देनेवाले बन जाना और दुनियावी ज़िन्दगी से भागकर जंगलों और पहाड़ों में पनाह लेना या किसी तन्हा कोने में जा बैठना।
53. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'इल्लबतिग़ा-अ रिज़वानिल्लाह'। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि हमने उनपर इस 'रहबानियत' को फ़र्ज़ नहीं किया था, बल्कि जो चीज़ उनपर फ़र्ज़ की थी वह यह थी कि वे अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल करने की कोशिश करें। और दूसरा मतलब यह कि यह रहबानियत हमारी फ़र्ज़ की हुई न थी, बल्कि अल्लाह की ख़ुशनूदी की तलब में उन्होंने उसे ख़ुद अपने ऊपर फ़र्ज़ कर लिया था। दोनों हालतों में यह आयत इस बात को वाज़ेह करती है कि 'रहबानियत' एक ग़ैर-इस्लामी चीज़ है और यह कभी सच्चे दीन में शामिल नहीं रही है। यही बात है जो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाई है कि “इस्लाम में कोई रहबानियत नहीं।” (हदीस : मुसनद अहमद)। एक और हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इस उम्मत की रहबानियत अल्लाह की राह में जिहाद है।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुसनद अबी-याला)। यानी इस उम्मत के लिए रूहानी तरक़्क़ी का रास्ता दुनिया छोड़ देना नहीं, बल्कि अल्लाह की राह में जिहाद है, और यह उम्मत फ़ितनों से डरकर जंगलों और पहाड़ों की तरफ़ नहीं भागती, बल्कि ख़ुदा की राह में जिहाद करके उनका मुक़ाबला करती है। बुख़ारी और मुस्लिम की रिवायत है कि सहाबा में से एक साहब ने कहा, “मैं हमेशा सारी रात नमाज़ पढ़ा करूँगा।” दूसरे ने कहा, “मैं हमेशा रोज़ा रखूँगा और कभी नाग़ा न करूँगा।” तीसरे ने कहा, “मैं कभी शादी न करूँगा और औरत से कोई ताल्लुक़ न रलूँगा।” अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनकी ये बातें सुनीं तो फ़रमाया, “ख़ुदा की कसम, मैं तुमसे ज़्यादा अल्लाह से डरता हूँ और उसकी नाफ़रमानी से बचता हूँ। मगर मेरा तरीक़ा यह है कि रोज़ा रखता भी हूँ और नहीं भी रखता, रातों को नमाज़ भी पढ़ता हूँ और सोता भी हूँ, और औरतों से निकाह भी करता हूँ। जिसको मेरा तरीक़ा पसन्द न हो उसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं।” हज़रत अनस (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाया करते थे, “अपने ऊपर सख़्ती न करो कि अल्लाह तुमपर सख़्ती करे। एक गरोह ने यही सख़्ती अपनाई थी तो अल्लाह ने भी फिर उसे सख़्त पकड़ा। देख लो, वह उनके बाक़ी रह गये राहिब-घरों और गिरजाघरों में मौज़ूद हैं।” (हदीस : अबू-दाऊद)
54. यानी वे दोहरी ग़लती में मुब्तला हो गए। एक ग़लती यह कि अपने ऊपर वे पाबन्दियाँ लगा लीं जिनका अल्लाह ने कोई हुक्म न दिया था। और दूसरी ग़लती यह कि जिन पाबन्दियों को अपने नज़दीक अल्लाह की ख़ुशनूदी का ज़रिआ समझकर ख़ुद अपने ऊपर लगा बैठे थे, उनका हक़ अदा न किया और वे हरकतें कीं जिनसे अल्लाह की ख़ुशनूदी के बजाय उलटा उसका ग़ज़ब (ग़ुस्सा) मोल ले बैठे। इस मक़ाम को पूरी तरह समझने के लिए एक नज़र मसीही रहबानियत की तारीख़ (इतिहास) पर डाल लेनी चाहिए।
हज़रत ईसा (अलैहि०) के बाद दो सौ साल तक ईसाई चर्च रहबानियत से अनजान था। मगर शुरू ही से ईसाइयत में उसके असरात पाए जाते थे और वे ख़यालात उसके अन्दर मौज़ूद थे जो इस चीज़ को जन्म देते हैं। दुनिया छोड़ने और तन्हाई की ज़िन्दगी को अख़लाक़ी आइडियल क़रार देना और दरवेशोंवाली ज़िन्दगी को शादी-ब्याह और दुनियावी कारोबार की ज़िन्दगी के मुक़ाबले में बेहतर और आला समझना ही रहबानियत की बुनियाद है, और ये दोनों चीज़ें ईसाइयत में शुरू ही से मौज़ूद थीं। ख़ास तौर से तन्हाई की ज़िन्दगी का मतलब पाकबाज़ी समझने की वजह से चर्च में मज़हबी ख़िदमात अंजाम देनेवालों के लिए यह बात नापसन्दीदा समझी जाती थी कि वे शादी करें, बाल-बच्चोंवाले हों और ख़ानादारी (घर-गृहस्थी) के बखेड़ों में पड़ें। इसी चीज़ ने तीसरी सदी तक पहुँचते-पहुँचते एक फ़ितने की शक्ल अपना ली। तारीख़ी तौर पर इसके तीन बड़े सबब थे—
एक यह कि पुराने मुशरिक (बहुदेववादी) समाज में शहवानियत (कामवासना), बदचलनी और दुनिया-परस्ती जिस ज़ोर के साथ फैली हुई थी, उसका तोड़ करने के लिए ईसाई आलिमों ने बीच का रास्ता अपनाने के बजाय इन्तिहापसन्दी (अतिवाद) का रास्ता अपनाया। उन्होंने पाकदामनी पर इतना ज़ोर दिया कि औरत और मर्द का ताल्लुक़ सिरे से नापाक समझा जाने लगा, चाहे वह शादी (निकाह) ही सूरत में हो। उन्होंने दुनियादारी के ख़िलाफ़ इतनी सख़्ती बरती कि आख़िरकार एक दीनदार आदमी के लिए सिरे से किसी तरह की जायदाद रखना ही गुनाह बन गया और अख़लाक़ का पैमाना यह हो गया कि आदमी बिलकुल ग़रीब और हर लिहाज़ से दुनिया छोड़ देनेवाला (संसार-त्यागी) हो। इसी तरह मुशरिक समाज की लज़्ज़त-परस्ती के जवाब में वे इस इन्तिहा पर जा पहुँचे कि लज़्ज़तों को छोड़ देना, मन को मारना और ख़ाहिशों को कुचल देना अख़लाक़ का मक़सद बन गया, और तरह-तरह की रियाज़तों (तप-तपस्याओं) से जिस्म को तक़लीफ़ें देना आदमी की रूहानियत का कमाल और उसका सुबूत समझा जाने लगा।
दूसरा यह कि ईसाइयत जब कामयाबी के दौर में दाख़िल होकर आम लोगों में फैलनी शुरू हुई तो अपने मज़हब को बढ़ाने और फैलाने के शौक में कलीसा (चर्च) हर उस बुराई को अपने दायरे में दाख़िल करता चला गया जो आम लोगों में पसन्दीदा थी। औलिया-परस्ती (महापुरुषों की पूजा) ने पुराने माबूदों की जगह ले ली। हौरस (Horus) और आइसिस (Isis) की मूर्तियों की जगह पर मरयम और ईसा (अलैहि०) के बुत पूजे जाने लगे। सैटरनेलिया (Saturnalia) की जगह क्रिसमस का त्यौहार मनाया जाने लगा। पुराने ज़माने के तावीज़-गण्डे, अमलियात (तंत्र-मंत्र), फ़ाल निकालना और ग़ैब की बातें बताना, जिन्न-भूत भगाने के काम, सब ईसाई दरवेशों (सन्तों) ने शुरू कर दिए। इसी तरह चूँकि आम लोग उस शख़्स को ख़ुदा तक पहुँचा हुआ समझते, जो गन्दा और नंगा हो और किसी भट या खोह में रहे, इसलिए ईसाई चर्च में ख़ुदा के वली होने का यही तसव्वुर आम हो गया और ऐसे ही लोगों की करामतों (चमत्कारों) के क़िस्सों से ईसाइयों के यहाँ 'तज़किरतुल-औलिया' (वलियों और सन्तों के क़िस्से) जैसी किताबों की भरमार हो गई।
तीसरा यह कि ईसाइयों के पास दीन की सरहदें तय करने के लिए कोई तफ़सीली शरीअत (धर्म-विधान) और कोई वाज़ेह तरीक़ा मौजूद न था। मूसा (अलैहि०) की शरीअत को वे छोड़ चुके थे, और अकेले इंजील के अन्दर मुकम्मल तौर से कोई हिदायतनामा न पाया जाता था। इसलिए ईसाई आलिम कुछ बाहर के फ़ल्सफ़ों (दर्शनों) और तौर-तरीक़ों से मुतास्सिर होकर और कुछ ख़ुद अपनी दिलचस्पियों की वजह से तरह-तरह की नई-नई बातें दीन में दाख़िल करते चले गए। रहबानियत (संन्यास) भी उन ही नई बातों में से एक थी। ईसाई मज़हब के आलिमों और इमामों ने उसका फ़ल्सफ़ा और उसका अमली तरीक़ा बौद्ध मज़हब के भिक्षुओं से, हिन्दू जोगियों और संन्यासियों से, पुराने मिस्री फ़क़ीरों (Anchorites) से, ईरान के मानवियों से, और अफ़लातून और फ़लातीनूस के पैरोकार इशराक़ियों (रहस्यवादियों) से लिया और इसी को नफ़्स के पाक करने (आत्म-शुद्धि) का तरीक़ा, रूहानी तरक़्क़ी का ज़रिआ और अल्लाह के क़रीब होने का वसीला (साधन) क़रार दे लिया। इस ग़लती में पड़नेवाले कोई मामूली दरजे के लोग न थे। तीसरी सदी से सातवीं सदी ईसवी (यानी क़ुरआन उतरने के ज़माने) तक जो लोग पूरब और पश्चिम में ईसाइयत के बड़े आलिम, सबसे बड़े पेशवा (महागुरु) और इमाम (अधिनायक) माने जाते हैं, जैसे सेंट अथानासेविस, सेंट बासिल, सेंट गिरिगोरी नाज़ियानज़ीन, सेंट कराई सूस्टम, सेंट एमब्रूज़, सेंट जीरूम, सेंट ऑग्स्टाइन, सेंट बैनेडिक्ट, गिरीगोरी ग्रेट, सब-के-सब ख़ुद राहिब (संन्यासी) और रहबानियत (संन्यास) के ज़बरदस्त अलमबरदार थे। इन ही की कोशिशों से चर्च में रहबानियत ने रिवाज पाया।
तारीख़ (इतिहास) से मालूम होता है कि ईसाइयों में रहबानियत की शुरुआत मिस्र से हुई। इसकी बुनियाद डालनेवाला सेंट ऐंथोनी (St. Anthony) था जो 250 ई० में पैदा हुआ और 350 ई० में दुनिया से चला गया। उसे पहला ईसाई राहिब क़रार दिया जाता है। उसने फ़य्यूम के इलाक़े में पसपीर के मक़ाम पर (जो अब 'दैरुल-मैमून' के नाम से जाना जाता है) पहली ख़ानक़ाह (मठ) क़ायम की। उसके बाद दूसरी ख़ानक़ाह उसने लाल सागर के तट पर क़ायम की जिसे अब दैरमार अंतूनियूस कहा जाता है। ईसाइयों में रहबानियत के बुनियादी उसूल उसी की तहरीरों और हिदायतों से लिए गए हैं। इस शुरुआत के बाद यह सिलसिला मिस्र सैलाब की तरह फैल गया और जगह-जगह राहिबों (संन्यासियों) और राहिबात (संन्यासिनों) के लिए ख़ानक़ाहें क़ायम हो गईं जिनमें से कुछ में तीन-तीन हज़ार राहिब एक ही वक़्त में रहते थे। 325 ई० में मिस्र ही के अन्दर एक और ईसाई वली (महापुरुष) पाख़ूमियूस सामने आया, जिसने दस बड़ी ख़ानक़ाहें राहिबों और राहिबात के लिए बनाईं। इसके बाद यह का सिलसिला सीरिया और फ़िलस्तीन और अफ़्रीक़ा और यूरोप के अलग-अलग देशों में फैलता चला गया। चर्च के निज़ाम को पहले-पहल इस रहबानियत के मामले में सख़्त उलझन का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह दुनिया छोड़ने और तन्हा रहने (ब्रह्मचर्य) और ग़रीबी और बदहाली को रूहानी ज़िन्दगी का आइडियल तो समझता था, मगर राहिबों की तरह शादी-ब्याह और औलाद पैदा करने और मिलकियत रखने को गुनाह भी न ठहरा सकता था। आख़िरकार सेंट अथानासियूस (इन्तिक़ाल 373 ई०), सेंट बासिल (इन्तिक़ाल 379 ई०), सेंट ऑग्स्टाइन (इन्तिक़ाल 430 ई०) और गिरिगोरी ग्रेट (इन्तिक़ाल 609 ई०) जैसे लोगों के असर से रहबानियत के बहुत-से उसूल चर्च के निज़ाम में दाख़िल हो गए।
यह अपने मज़हब के अन्दर उन्होंने जो नई बातें उस रहबानियत (संन्यास) की शक्ल में शामिल कर डाली थीं, उनकी कुछ ख़ासियतें थीं जिन्हें हम ख़ास तौर पर बयान करते हैं—
(1) सख़्त मेहनतों और रियाज़तों (तपस्याओं) और रोज़ नए तरीक़ों से अपने जिस्म को तक़लीफ़ें देना। इस मामले में हर राहिब (संन्यासी) दूसरे राहिब से आगे बढ़ जाने की कोशिश करता था। ईसाई बुज़ुर्गों के किस्सों में इन लोगों के जो कमालात (चमत्कार) बयान किए गए ये कुछ इस तरह के हैं—
स्कन्दरिया का सेंट मकारियूस हर वक़्त अपने जिस्म पर 80 पौंड का बोझ उठाए रखता था। छह महीने तक यह एक दलदल में सोता रहा और ज़हरीली मक्खियाँ उसके नंगे जिस्म को काटती रहीं। उसके मुरीद (भक्त) सेंट यूसीवियूस ने अपने पीर से भी बढ़कर रियाज़त (तपस्या) की। वह 150 पौंड का बोझ उठाए फिरता था और तीन साल तक एक सूखे कुएँ में पड़ा रहा। सेंट साथियुस सिर्फ़ वह मकई खाता था जो महीना भर पानी में भीगकर बदबूदार हो जाती थी। सेंट वेसारियन 40 दिन तक काँटेदार झाड़ियों में पड़ा रहा और चालीस साल तक उसमें ज़मीन को पीठ नहीं लगाई। सेंट पाख़ूमियूस ने पन्द्रह साल, और एक रिवायत के मुताबिक़ पचास साल ज़मीन को पीठ लगाए बिना गुज़ार दिए। एक सन्त सेंट जॉन तीन साल तक इबादत में खड़ा रहा। इस पूरी मुददत में वह न कभी बैठा न लेटा। आराम के लिए बस एक चट्टान का सहारा ले लेता था और उसका खाना सिर्फ़ वह तबर्रुक (प्रसाद) था जो हर इतवार को उसके लिए लाया जाता था। सेंट सीमीयून स्टाइलाइट (390-449 ई०) जिसकी गिनती ईसाइयों के बड़े बुज़ुर्गों में होती है, हर ईस्टर से पहले पूरे चालीस दिन भूखा रहता था। एक बार वह पूरे एक साल तक एक टाँग पर खड़ा रहा। कभी-कभी वह अपनी ख़ानक़ाह से निकलकर एक कुएँ में जा रहता था। आख़िरकार उसने उत्तरी सीरिया के सीमान क़िले के क़रीब साठ फ़ीट ऊँचा एक सुतून बनवाया जिसका ऊपरी हिस्सा सिर्फ़ तीन फ़ीट के घेरे में था और ऊपर कटघरा बना दिया गया था। इस सुतून पर उसने पूरे तीस साल गुज़ार दिए। धूप, बारिश, सर्दी, गरमी सब उसपर से गुज़रती रहती थीं और वह कभी सुतून से न उतरता था। उसके मुरीद सीढ़ी लगाकर उसको खाना पहुँचाते और उसकी गन्दगी साफ़ करते थे। फिर उसने एक रस्सी लेकर अपने आपको उस सुतून से बाँध लिया, यहाँ तक कि रस्सी उसके गोश्त में पेवस्त हो गई, गोश्त सड़ गया और उसमें कीड़े पड़ गए। जब कोई कीड़ा उसके फोड़ों से गिर जाता तो वह उसे उठाकर फिर फोड़े ही में रख लेता और कहता, “खा जो कुछ ख़ुदा ने तुझे दिया है।” इसाई लोग दूर-दूर से उसको देखने के लिए जाते थे। जब वह मरा तो आम ईसाइयों का फ़ैसला यह था कि वह ईसाई वली (सन्त) की बेहतरीन मिसाल था।
उस दौर के ईसाई सन्तों की जो ख़ूबियाँ बयान की गई हैं वे ऐसी ही मिसालों से भरी पड़ी हैं। किसी वली (सन्त) की तारीफ़ (ख़ुसूसियत) यह थी कि तीस साल तक वह बिलकुल चुप रहा और कभी उसे बोलते न देखा गया। किसी ने अपने आपको एक चट्टान से बाँध रखा था। कोई जंगलों में मारा-मारा फिरता और घास-फूस खाकर गुज़ारा करता। कोई भारी बोझ हर वक़्त उठाए फिरता। कोई बेड़ियों और ज़ंजीरों से अपने जिस्म के हिस्सों को जकड़े रखता। कुछ बुज़ुर्ग जानवरों के भट्टों, या सूखे कुओं या पुरानी क़ब्रों में रहते थे। और कुछ दूसरे बुज़ुर्ग हर वक़्त नंगे रहते और अपना सतर (गुप्तांग) अपने लम्बे-लम्बे बालों से छिपाते और ज़मीन पर रेंगकर चलते थे। ऐसे ही वलियों (महापुरुषों) की करामात (चमत्कारों) की चर्चाएँ हर तरफ़ फैली हुई थीं और उनके मरने के बाद उनकी हड्डियाँ ख़ानक़ाहों में महफ़ूज़ रखी जाती थीं। मैंने ख़ुद सीना पहाड़ के नीचे सेंट कैथराइन की ख़ानक़ाह में ऐसी ही हड्डियों की एक पूरी लाइब्रेरी सजी हुई देखी है जिसमें कहीं वलियों की खोपड़ियाँ क़रीने से रखी हुई थीं, कहीं पाँव की हड्डियाँ, और कहीं हाथों की हड्डियाँ। और एक बुज़ुर्ग का तो पूरा ढाँचा ही शीशे की एक अलमारी में रखा हुआ था।
(2) उनकी दूसरी ख़ासियत यह थी कि वे हर वक़्त गन्दे रहते और सफ़ाई से बहुत बचते थे। नहाना या जिस्म को पानी लगाना उनके नज़दीक ख़ुदापरस्ती के ख़िलाफ़ था। जिस्म की सफ़ाई को वह रूह की गन्दगी समझते थे। सेंट अथानासियूस बड़ी अक़ीदत (श्रद्धा) के साथ सेंट ऐंथोनी की यह ख़ूबी बयान करता है कि उसने मरते दम तक कभी अपने पाँव नहीं धोए। सेंट अब्राहम जब से ईसाइयत में दाख़िल हुआ, पूरे पचास साल उसने न मुँह धोया न पाँव। एक मशहूर राहिबा (संन्यासिनी) कुमारी सिलविया ने उम्र भर अपनी उंगलयों के सिवा जिस्म के किसी हिस्से को पानी नहीं लगने दिया। एक कॉनवेंट की एक सौ तीस राहिबाओं की तारीफ़ में लिखा है कि उन्होंने कभी अपने पाँव नहीं धोए, और नहाने का तो नाम सुनकर ही उनके बदन में कँपकपी तारी हो जाती थी।
(3) इस रहबानियत (संन्यास) ने शादी-शुदा ज़िन्दगी को अमली तौर से बिलकुल हराम कर दिया और शादी के रिश्ते को काट फेंकने में सख़्त बेदरदी से काम लिया। चौथी और पाँचवीं सदी की तमाम मज़हबी तहरीरें (लेख) इस ख़याल से भरी हुई हैं कि तन्हा रहना सबसे बड़ी अख़लाक़ी क़द्र है, और पाकदामनी का मतलब यह है कि आदमी जिंसी ताल्लुक़ (यौन सम्बन्धों) से पूरी तरह बचा रहे, चाहे वह मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ ही क्यों न हो। पाकीज़ा रूहानी ज़िन्दगी का कमाल यह समझा जाता था कि आदमी अपने मन को बिलकुल मार दे और उसमें जिस्मानी लज़्ज़त की कोई ख़ाहिश तक बाक़ी न छोड़े। उन लोगों के नज़दीक ख़ाहिश को मार देना इसलिए ज़रूरी था कि उससे हैवानियत को बल मिलता है। उनके नज़दीक लज़्ज़त और गुनाह का मतलब एक ही था, यहाँ तक कि ख़ुशी भी उनकी निगाह में ख़ुदा को भूल जाने के बराबर थी। सेंट बासिल हँसने और मुस्कराने तक को मना करता है। इन ही तसव्वुरात (धारणाओं) की बुनियाद पर औरत और मर्द के दरमियान शादी का ताल्लुक़ उनके यहाँ बिलकुल नापाक (अपवित्र) क़रार पा गया था। राहिब के लिए ज़रूरी था कि वह शादी करना तो दूर की बात, औरत की शक्ल तक न देखे, और अगर शादी-शुदा हो तो बीवी को छोड़कर निकल जाए। मर्दों की तरह औरतों के दिल में भी यह बात बिठाई गई थी कि वे अगर आसमानों की बादशाहत में दाख़िल होना चाहती हैं तो हमेशा कुँआरी रहें, और शादी-शुदा हों तो शौहरों से अलग हो जाएँ। सेंट जीरूम जैसा मशहूर ईसाई आलिम कहता है कि जो औरत मसीह की ख़ातिर राहिबा बनकर सारी उम्र कुँआरी रहे वह मसीह की दुल्हन और उस औरत की माँ को ख़ुदा, यानी मसीह, की सास (Mother in law of God) होने की ख़ुशनसीबी और इज़्ज़त हासिल है। एक और जगह पर सेंट जीरूम कहता है कि “पाकदामनी की कुल्हाड़ी से शादी-शुदा ताल्लुक़ की लकड़ी को काट फेंकना सालिक (ख़ुदा की चाह में लगे हुए शख़्स) का सबसे पहला काम है।” इन तालीमात की वजह से मज़हबी जज़बा तारी होने के बाद एक ईसाई मर्द या एक ईसाई औरत पर उसका पहला असर यह होता था कि उसकी ख़ुशगवार शादी-शुदा ज़िन्दगी हमेशा के लिए ख़त्म हो जाती थी। और चूँकि ईसाइयत में तलाक़ और जुदाई का रास्ता बन्द था, इसलिए शादी के रिश्ते में रहते हुए मियाँ-बीवी एक-दूसरे से अलग हो जाते थे। सेंट नाइलस (St. Nilus) दो बच्चों का बाप था। जब उसपर रहबानियत का दौरा पड़ा तो उसकी बीवी रोती रह गई और वह उससे अलग हो गया। सेंट अम्मोन (St. Ammon) ने शादी की पहली रात ही अपनी दुल्हन को शादी-शुदा ज़िन्दगी की गन्दगी पर नसीहत की और दोनों ने आपसी सहमति से तय कर लिया कि जीते जी एक-दूसरे से अलग रहेंगे। सेंट अब्राहम शादी की पहली रात ही अपनी बीवी को छोड़कर भाग गया। यही हरकत सेंट एलेक्सिस (St. Alexius) ने की। इस तरह के वाक़िआत से ईसाई वलियों और बुज़ुर्गों के क़िस्से भरे पड़े हैं।
चर्च का निज़ाम तीन सदियों तक अपनी हदों में इन्तिहापसन्दी से भरे इन तसव्वुरात की किसी-न-किसी तरह मुख़ालफ़त करता रहा। उस ज़माने में एक पादरी के लिए ग़ैर-शादी-शुदा होना लाज़िम न था। अगर उसने पादरी के मंसब पर क़ायम होने से पहले शादी कर रखी हो तो वह बीवी के साथ रह सकता था, अलबत्ता पादरी मुक़र्रर होने के बाद शादी करना उसके लिए मना था। साथ ही किसी ऐसे शख़्स को पादरी मुक़र्रर नहीं किया जा सकता था जिसने किसी बेवा (विधवा) या तलाक़ पाई हुई औरत से शादी की हो, या जिसकी दो बीवियाँ हों, या जिसके घर में लौंडी हो। धीरे-धीरे चौथी सदी में यह ख़याल पूरी तरह ज़ोर पकड़ गया कि जो शख़्स चर्च में मज़हबी ख़िदमात अंजाम देता हो उसके लिए शादी-शुदा होना बड़ी घिनौनी बात है। 362 ई० की गिंगरा काउंसिल (Coucil of Gengra) आख़िरी मजलिस थी, जिसमें इस तरह के ख़यालात को मज़हब के लिलाफ़ ठहराया गया। मगर इसके थोड़ी ही मुद्दत बाद 386 ई० की रोमन सीनॉड (Synod) ने तमाम पादरियों को मशवरा दिया कि वे शादी-शुदा ताल्लुक़ात से अलग रहें, और दूसरे साल पॉप साइरीसियस (Siricius) ने हुक्म दे दिया कि जो पादरी शादी करे, या या शादी-शुदा होने की सूरत में अपनी बीवी से ताल्लुक़ रखे, उसको मंसब से हटा दिया जाए। सेंट जीरूम, सेंट एम्ब्रूज़ और सेंट ऑग्स्टाइन जैसे बड़े आलिमों (विद्वानों) ने बड़े ज़ोर-शोर से इस फ़ैसले की हिमायत की और थोड़ी-सी मुख़ालफ़त के बाद मग़रिबी चर्च में यह पूरी सख़्ती के साथ लागू हो गया। उस दौर में कई काउंसिलें इन शिकायतों पर ग़ौर करने के लिए मुन्अक़िद (आयोजित) हुईं कि जो लोग पहले से शादी-शुदा थे वे मज़हबी कामों पर मुक़र्रर होने के बाद भी अपनी बीवियों के साथ 'नाजाइज़' ताल्लुक़ात रखते हैं। आख़िरकार उनके सुधार के लिए ये क़ायदे बनाए गए कि वे खुली जगहों पर सोएँ, अपनी बीवियों से कभी तनहाई में न मिलें, और उनकी मुलाकात के वक़्त कम-से-कम दो आदमी मौज़ूद हों। सेंट गिरिगोरी एक पादरी की तारीफ़ में लिखता है कि चालीस साल तक वह अपनी बीवी से अलग रहा यहाँ तक कि मरते वक़्त जब उसकी बीवी उसके क़रीब गई तो उसने कहा, “औरत, दूर हट जा!"
(4) सबसे ज़्यादा दर्दनाक पहलू इस रहबानियत का यह है कि उसने माँ-बाप, भाई-बहनों और औलाद तक से आदमी का रिश्ता काट दिया। ईसाई सन्तों की निगाह में बेटे के लिए माँ-बाप की मुहब्बत, भाई के लिए बहनों की मुहब्बत और बाप के लिए औलाद की मुहब्बत भी एक गुनाह थी। उनके नज़दीक रूहानी तरक़्क़ी के लिए यह ज़रूरी था कि आदमी इन सारे ताल्लुक़ात को तोड़ दे। मसीही सन्तों के क़िस्सों में इसके ऐसे-ऐसे दिल को दहला देनेवाले वाक़िआत मिलते हैं जिन्हें पढ़कर इनसान के लिए बरदाश्त करना मुश्किल हो जाता है। एक राहिब इवागरियस (Evagrius) सालों तक रेगिस्तान में रियाज़त (तपस्या) करता रहा था। एक दिन यकायक उसके पास उसकी माँ और उसके बाप के ख़त पहुँचे जो सालों से उसकी जुदाई में तड़प रहे थे। उसे अन्देशा हुआ कि कहीं इन ख़तों को पढ़कर उसके दिल में इनसानी मुहब्बत के जज़बात न जाग उठें। उसने उनको खोले बिना फ़ौरन आग में झोंक दिया। सेंट थ्योडोरस की माँ और बहन का बहुत-से पादरियों के सिफ़ारिशी ख़त लेकर उस ख़ानक़ाह में पहुँची जिसमें वह ठहरा हुआ था और ख़ाहिश की कि वे सिर्फ़ एक नज़र बेटे और भाई को देख लें। मगर उसने उनके सामने आने तक से इनकार कर दिया। सेंट मारकुस (St. Marcus) की माँ उससे मिलने के लिए उसकी ख़ानक़ाह गई और ख़ानक़ाह के शैख़ (Abbot) की ख़ुशामदें करके उसको राज़ी किया कि वह बेटे को माँ के सामने आने का हुक्म दे। मगर बेटा किसी तरह माँ से मिलना न चाहता था। आख़िरकार उसने शैख़ के हुक्म पर अमल इस तरह किया कि भेस बदलकर माँ के सामने गया और आँखें बन्द कर ली। इस तरह माँ ने बेटे को पहचाना, न माँ ने बेटे की शक्ल देखी। एक और वली सेंट पोयमेन (Poemen) और उसके छ: भाई मिस्र की एक रेगिस्तानी ख़ानक़ाह (आश्रम) में रहते थे। बरसों बाद उनकी बूढ़ी माँ को उनका पता मालूम हुआ और वह उनसे मिलने के लिए वहाँ पहुँची। बेटे माँ को दूर से देखते ही भागकर अपनी कुटिया में चले गए और दरवाज़ा बन्द कर लिया। माँ बाहर बैठकर रोने लगी और उसने चिल्ला-चिल्लाकर कहा, मैं इस बुढ़ापे में इतनी दूर चलकर सिर्फ़ तुम्हें देखने आई हूँ, तुम्हरा क्या नुक़सान होगा अगर मैं तुम्हारी शक्लें देख लूँ। क्या मैं तुम्हारी माँ नहीं हूँ?” मगर इन बुज़ुर्गों ने दरवाज़ा न खोला और माँ से कह दिया कि हम तुझसे ख़ुदा के यहाँ मिलेंगे। इससे भी ज़्यादा दर्दनाक क़िस्सा सेंट सीमिओन स्टाइलाइटस (St. Simeon Stylites) का है जो माँ-बाप को छोड़कर सत्ताइस साल ग़ायब रहा। बाप उसके ग़म में मर गया। माँ ज़िन्दा थी, बेटे के वली (सिद्ध पुरुष) होने की चर्चाएँ जब दूर और नज़दीक फैल गईं तो उसका पता चला कि वह कहाँ है। बेचारी उससे मिलने के लिए उसकी ख़ानक़ाह (आश्रम) पर पहुँची, मगर वहाँ किसी औरत को दाख़िल होने की इजाज़त न थी। उसने लाख गुज़ारिश और दरख़ास्त की कि बेटा या तो उसे अन्दर बुला ले, या बाहर निकलकर अपनी सूरत दिखा दे। मगर ख़ुदा के उस ‘सन्त' ने साफ़ इनकार कर दिया। तीन रात और तीन दिन वह ख़ानक़ाह के दरवाज़े पर पड़ी रही और आख़िरकार वहीं लेटकर उसने जान दे दी। तब सन्त साहब निकलकर आए। माँ की लाश पर आँसू बहाए और उसकी नजात के लिए दुआ की।
ऐसी ही बेदर्दी इन सन्तों ने बहनों के साथ और अपनी औलाद के साथ दिखाई। एक शख़्स म्यूटियस (Mutius) का क़िस्सा लिखा है कि वह ख़ुशहाल आदमी था। यकायक उसपर मज़हबी जज़बा हावी हुआ और वह अपने आठ साल के इकलौते बेटे को लेकर एक ख़ानक़ाह में जा पहुँचा। वहाँ उसकी रूहानी तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी था कि वह बेटे की मुहब्बत दिल से निकाल दे। इसलिए पहले तो बेटे को उससे अलग कर दिया गया फिर उसकी आँखों के सामने एक मुद्दत तक तरह-तरह की सख़्तियाँ उस मासूम बच्चे पर की जाती रहीं और वह सब कुछ देखता रहा। फिर ख़ानक़ाह के ज़िम्मेदार ने उसे हुक्म दिया कि उसे ले जाकर अपने हाथ से नदी में फेंक दे। जब वह इस हुक्म पर अमल के लिए भी तैयार हो गया तो ठीक उस वक़्त राहिबों (सन्तों) ने बच्चे की जान बचाई जब वह उसे नदी में फेंकने ही वाला था। उसके बाद मान लिया गया कि वह सचमुच सन्त होने के दरजे को पहुँच गया है।
ईसाई रहबानियत का नज़रिया इन मामलों में यह था कि जो शख़्स ख़ुदा की मुहब्बत चाहता हो उसे इनसानी मुहब्बत की वे सारी ज़ंजीरें काट देनी चाहिएँ जो दुनिया में उसको अपने माँ-बाप, भाई-बहनों और बाल-बच्चों के साथ बाँधती हैं। सेंट जीरूम कहता का है कि “चाहे तेरा भतीजा तेरे गले में बाँहें डालकर तुझसे लिपटे, चाहे तेरी माँ अपने दूध का वासिता देकर तुझे रोके, चाहे तेरा बाप तुझे रोकने के लिए तेरे आगे लेट जाए, फिर भी तू सबको छोड़कर और बाप के जिस्म को रौंदकर एक आँसू बहाए बिना सलीब (सूली) के झण्डे की तरफ़ दौड़ जा। इस मामले में बेरहमी ही परहेज़गारी (तक़वा, धर्मपरायणता) है।” सेंट गिरिगोरी लिखता है कि “एक नौजवान सन्त माँ-बाप की मुहब्बत दिल से न निकाल सका और एक रात चुपके-से भागकर उनसे मिल आया ख़ुदा ने इस क़ुसूर की सज़ा उसे यह दी कि ख़ानक़ाह वापस पहुँचते ही वह मर गया। उसकी लाश ज़मीन में दफ़न की गई तो ज़मीन ने उसे क़ुबूल न किया। बार-बार क़ब्र में डाला जाता और ज़मीन उसे निकालकर फेंक देती। आख़िरकार सेंट बैनेडिक्ट ने उसके सीने पर तबर्रुक (प्रसाद) रखा तब क़ब्र ने उसे क़ुबूल किया।” एक राहिबा के बारे में लिखा है कि वह मरने के बाद तीन दिन अज़ाब में इसलिए मुब्तला रही कि वह अपनी माँ की मुहब्बत दिल से न निकाल सकी थी। एक सन्त की तारीफ़ में लिखा है कि उसने कभी अपने रिश्तेदारों के सिवा किसी के साथ बेदर्दी नहीं बरती।
(5) अपने सबसे क़रीबी रिश्तेदारों के साथ बेरहमी, संगदिली और सख़्ती बरतने की जो मश्क़ (अभ्यास) ये लोग करते थे, उसकी वजह से उनके इनसानी जज़बात मर जाते थे और इसी का नतीजा था कि जिन लोगों से उन्हें मज़हबी इख़्तिलाफ़ होता था उनके मुक़ाबले में ये ज़ुल्मो-सितम की इन्तिहा कर देते थे। चौथी सदी तक पहुँचते-पहुँचते ईसाइयत में अस्सी-नव्वे फ़िरक़े पैदा हो चुके थे। सेंट ऑग्स्टाइन ने अपने ज़माने में 88 फ़िरके गिनाए हैं। ये फ़िरक़े एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सख़्त नफ़रत रखते थे। इस नफ़रत की आग को भड़कानेवाले भी राहिब ही थे और इस आग में मुख़ालिफ़ गरोहों को जलाकर राख कर देने की कोशिशों में भी राहिब ही आगे-आगे होते थे। स्कन्दरिया इस फ़िरक़ेवाराना (साम्प्रदायिक) झगड़ों का एक बड़ा अखाड़ा था। वहाँ पहले ऐरियन (Arian) फ़िरक़े के बिशप ने अथानासियूस की पार्टी पर हमला किया, उसकी ख़ानक़ाहों से कुँआरी राहिबाएँ पकड़-पकड़कर निकाली गईं, उनको नंगा करके काँटेदार डालियों से पीटा गया और उनके जिस्म पर दाग़ लगाए गए, ताकि वे अपने अक़ीदे से तौबा करें। फिर जब मिस्र में कैथोलिक गरोह को ग़लबा हासिल हुआ तो उसने ऐरियन फ़िरक़े के ख़िलाफ़ यही सब कुछ किया, यहाँ तक कि बहुत मुमकिन है कि ख़ुद ऐरियस (Arius) को भी ज़हर देकर मार दिया गया। इसी स्कन्दरिया में एक बार साइरिल (St. Cyril) के मुरीद राहिबों ने बड़ा हंगामा किया, यहाँ तक कि मुख़ालिफ़ फ़िरक़े की एक राहिबा को पकड़कर अपने चर्च में ले गए, उसको क़त्ल किया, उसकी लाश की बोटी-बोटी नोच डाली और फिर उसे आग में झोंक दिया। रोम का हाल भी इससे कुछ अलग न था। 366 ई० में पॉप लिबेरियस (Liberius) की मौत पर दो गरोहों ने पापाई के लिए अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किए। दोनों के बीच बहुत ख़ून-खराबा हुआ। यहाँ तक कि एक दिन में सिर्फ़ एक चर्च से 187 लाशें निकाली गईं।
(6) इस दुनिया को छोड़ देने (संन्यास) और तन्हाई (ब्रह्मचर्य) और फ़क़ीरी और दरवेशी के साथ दौलत समेटने में भी कमी न की गई। पाँचवीं सदी की शुरुआत ही में हालत यह हो चुकी थी कि रोम का बिशप बादशाहों की तरह अपने महल में रहता था और उसकी सवारी जब शहर में निकलती थी, तो उसके ठाठ-बाट क़ैसर (रोम के राजा) की सवारी से कम न होते थे। सेंट जीरूम अपने ज़माने (चौथी सदी के आख़िरी दौर) में शिकायत करता है कि बहुत-से बिशपों की दावतें अपनी शान में गर्वनरों की दावतों को शरमाती हैं। ख़ानक़ाहों और चर्चों की तरफ़ दौलत का यह बहाव सातवीं सदी (क़ुरआन के उतरने के ज़माने) तक पहुँचते-पहुँचते सैलाब की शक्ल अपना चुका था। यह बात आम लोगों के ज़ेहन में बिठा दी गई थी कि जिस किसी से कोई बड़ा गुनाह हो जाए उसकी बख़शिश किसी-न-किसी वली की दरगाह पर नज़राना चढ़ाने, या किसी ख़ानक़ाह या चर्च को भेंट देने ही से हो सकती है। इसके बाद वही दुनिया राहिबों के क़दमों में आ रही जिससे दूर रहना उनकी नुमायाँ ख़ासियत थी। ख़ास तौर पर जो चीज़ इस गिरावट का सबब हुई वह यह थी कि राहिबों की ग़ैर-मामूली रियाज़तें (तपसयाएँ) और उनके मन मारने के कमालात देखकर जब आम लोगों में उनके लिए बेपनाह अक़ीदत (श्रद्धा) पैदा हो गई तो बहुत-से दुनिया-परस्त लोग दरवेशी के लिबास पहनकर राहिबों के गरोह में दाख़िल हो गए और उन्होंने दुनिया छोड़ने के भेस में दुनिया हासिल करने का कारोबार ऐसा चमकाया कि बड़े-बड़े दुनिया के तलबगार उनसे मात खा गए।
(7) पाकदामनी के मामले में भी फ़ितरत से लड़कर रहबानियत बहुत बार हारी और जब हारी तो बुरी तरह हारी। ख़ानक़ाहों में मन-मारने की कुछ मश्क़ें (अभ्यास) ऐसी भी थीं, जिनमें राहिब और राहिबाएँ मिलकर एक ही जगह रहते थे और कभी-कभी ज़रा ज़्यादा मश्क़ करने के लिए एक ही बिस्तर पर रात गुज़ारते थे। मशहूर राहिब सेंट इवागिरिया (St. Evagrius) बड़ी तारीफ़ के साथ फ़िलस्तीन के उन राहिबों के मन को क़ाबू में रखने का ज़िक्र करता है जो “अपने जज़बात पर इतना क़ाबू पा गए थे कि औरतों के साथ एक जगह नहाते थे और उनके देखने से, उनके छूने से, यहाँ तक उनके साथ लिपटने से भी उनके ऊपर फ़ितरत हावी न हो पाती थी।” नहाना अगरचे रहबानियत में सख़्त नापसन्दीदा था, मगर मन-मारने की मश्क़ के लिए इस तरह के नहान (स्नान) भी कर लिए जाते थे। आख़िरकार इसी फ़िलस्तीन के बारे में नीसा (Nyssa) का सेंट गिरिगोरी (इन्तिक़ाल 396 ई०) लिखता है कि वह बदकिरदारी का अड्डा बन गया है। इनसानी फ़ितरत कभी उन लोगों से इन्तिक़ाम लिए बिना नहीं रहती जो उससे जंग करें। रहबानियत उससे लड़कर आख़िरकार बदअख़लाक़ी के जिस गड्ढे में जा गिरी उसकी दास्तान आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी ई० तक की मज़हबी तारीख़ का सबसे बदनुमा दाग़ है। दसवीं सदी का एक इटैलियन बिशप लिखता है कि “अगर चर्च में मज़हबी ख़िदमात अंजाम देनेवालों के ख़िलाफ़ बद-चलनी की सज़ाएँ लागू करने का क़ानून अमली तौर से जारी कर दिया जाए तो (नाबालिग़) लड़कों के सिवा कोई सज़ा से न बच सकेगा और अगर हरामी (अवैध) बच्चों को भी मज़हबी ख़िदमतों से अलग कर देने का क़ायदा लागू किया जाए, तो शायद चर्च के ख़ादिमों में कोई लड़का तक बाक़ी न बचे।” अहदे-वुसता (मध्ययुग) के लेखकों की किताबें इन शिकायतों से भरी हुई हैं कि राहिबाओं की ख़ानक़ाहें बदअख़लाक़ी के चकले बन गई हैं, उनकी चारदीवारियों में नए पैदा हुए बच्चों का क़त्ले-आम हो रहा है, पादरियों और चर्च के मज़हबी कर्मचारियों में महरम औरतों (यानी बहुत क़रीबी रिश्तेदार औरतें जिनसे शादी हराम हो) तक से नाजाइज़ ताल्लुक़ात और ख़ानक़ाहों में ग़ैर-फ़ितरी गन्दे काम जैसे जुर्म तक फैल गए हैं, और चर्चा में गुनाह को क़ुबूल करने (Confession) की रस्म बदकिरादारी का ज़रिआ बनकर रह गई है।
इन तफ़सीलात से सही तौर पर अन्दाज़ा किया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद यहाँ मज़हब में रहबानियत (संन्यास) जैसी नई चीज़ दाख़िल करने और फिर उसका हक़ अदा न करने का ज़िक्र करके ईसाइयत के किस बिगाड़ की तरफ़ इशारा कर रहा है।