(4) और जो शख़्स ग़ुलाम न पाए वह दो महीने के लगातार रोज़े रखे इससे पहले कि दोनों एक-दूसरे को हाथ लगाएँ। और जो यह भी न कर सकता हो वह साठ मिसकीनों को खाना खिलाए।11 यह हुक्म इसलिए दिया जा रहा है कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ।12 यह अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं, और इनकार करनेवालों के लिए दर्दनाक सज़ा है।13
11. यह है ज़िहार के बारे में अल्लाह तआला का हुक्म। इस्लामी फ़क़ीहों (क़ानून के माहिर आलिमों) ने इस आयत के अलफ़ाज़, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के फ़ैसलों और इस्लाम के आम उसूलों से इस मसले में जो क़ानून निकाला है उसकी तफ़सीलात ये हैं—
(1) ज़िहार का यह क़ानून अरब में इस्लाम के आने से पहले के उस रिवाज को ख़त्म करता है जिसके मुताबिक़ यह हरकत निकाह के रिश्ते को तोड़ देती थी और बीवी शौहर पर हमेशा के लिए हराम हो जाती थी। इसी तरह यह क़ानून उन तमाम क़ानून और रिवाजों को भी ख़त्म करता है जो ज़िहार को बे-मतलब और बे-असर समझते हों और आदमी के लिए इस बात को जाइज़ रखते हों कि वह अपनी बीवी को माँ या उन औरतों से, जिनसे शादी करना हराम है, मिसाल देकर भी उसके साथ पहले की तरह मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ जारी रखे, क्योंकि इस्लाम की निगाह में माँ और दूसरी उन औरतों का, जिनसे शादी करना हराम है, एहतिराम ऐसी मामूली चीज़ नहीं है कि इनसान उनकी और बीवी की हैसियत को एक जैसी समझने का ख़याल भी करे, कहाँ यह कि उसको ज़बान पर लाए। इन दोनों इन्तिहाओं (अतियों) के दरमियान इस्लामी क़ानून ने इस मामले में जो पॉलिसी अपनाई है वह तीन बुनियादों पर क़ायम है। एक यह कि ज़िहार से निकाह नहीं टूटता, बल्कि औरत पहले की तरह शौहर की बीवी रहती है। दूसरी यह कि ज़िहार से औरत वक़्ती तौर पर शौहर के लिए हराम हो जाती है। तीसरी यह कि शौहर-बीवी के ताल्लुक़ का हराम होना उस वक़्त तक बाक़ी रहता है जब तक शौहर कफ़्फ़ारा अदा न कर दे, और यह कि सिर्फ़ कफ़्फ़ारा ही इसके हराम होने को हलाल कर सकता है।
(2) ज़िहार करनेवाले शख़्स के बारे में यह बात सभी आलिम मानते हैं कि उस शौहर का ज़िहार भरोसेमन्द है जो अक़्लवाला और बालिग़ हो और पूरे होश व हवास की हालत में ज़िहार के अलफ़ाज़ ज़बान से अदा करे। बच्चे और पागल आदमी का ज़िहार भरोसेमन्द नहीं है। इसके अलावा ऐसे शख़्स का ज़िहार भी भरोसेमन्द नहीं जो इन अलफ़ाज़ को अदा करते वक़्त अपने होश व हवास में न हो, मसलन सोते में बड़बड़ाए, या किसी तरह की बेहोशी में मुब्तला हो गया हो। उसके बाद नीचे लिखी बातों में फ़क़ीहों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है—
(i) नशे की हालत में ज़िहार करनेवाले के बारे में चारों इमामों समेत फ़क़ीहों की एक बड़ी तादाद यह कहती है कि अगर किसी शख़्स ने कोई नशीली चीज़ जान-बूझकर इस्तेमाल की हो तो उसका ज़िहार उसकी तलाक़ की तरह क़ानूनन सही माना जाएगा, क्योंकि उसने यह हालत अपने ऊपर ख़ुद तारी की है। अलबत्ता अगर बीमारी की वजह से उसने कोई दवा पी हो और उससे नशा हो गया हो, या प्यास की शिद्दत में वह जान बचाने के लिए शराब पीने पर मजबूर हुआ हो तो इस तरह के नशे की हालत में उसके ज़िहार और तलाक़ को लागू नहीं किया जाएगा। हनफ़ी, शाफ़िई और हंबली फ़क़ीहों (आलिमों) की राय यही है और सहाबा का आम मसलक भी यही था। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत उसमान (रज़ि०) का क़ौल यह है कि नशे की हालत में तलाक़ और ज़िहार भरोसेमन्द नहीं हैं। हनफ़ी आलिमों में इमाम तहावी (रह०) और करख़ी (रह०) इस क़ौल (राय) को तरजीह देते हैं और इमाम शाफ़िई (रह०) का भी एक क़ौल इसकी ताईद में है। मालिकी आलिमों के नज़दीक ऐसे नशे की हालत में ज़िहार भरोसेमन्द होगा जिसमें आदमी बिलकुल बहक न गया हो, बल्कि वह ठीक-ठाक बात कर रहा हो और उसे यह एहसास हो कि वह क्या कह रहा है।
(ii) इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक ज़िहार सिर्फ़ उस शौहर का भरोसेमन्द है जो मुसलमान हो। ज़िम्मियों (ग़ैर-मुस्लिमों) पर ये हुक्म लागू नहीं होते, क्योंकि क़ुरआन मजीद में 'अल्लज़ी-न युज़ाहिरू-न मिनकुम' (तुममें से जो लोग ज़िहार करते हैं) के अलफ़ाज़ कहे गए हैं, जिनका ख़िताब (सम्बोधन) मुसलमानों से है, और तीन क़िस्म के कफ़्फ़ारों में से एक कफ़्फ़ारा क़ुरआन मजीद में रोज़ा भी बताया गया है जो ज़ाहिर है कि ज़िम्मियों के लिए नहीं हो सकता। इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक ये हुक्म ज़िम्मी और मुसलमान, दोनों के ज़िहार पर लागू होंगे, अलबत्ता ज़िम्मी के लिए रोज़ा नहीं है। वह या ग़ुलाम आज़ाद करे या साठ (60) मिसकीनों को खाना खिलाए।
(iii) क्या मर्द की तरह औरत भी ज़िहार कर सकती है? मसलन अगर वह शौहर से कहे कि तू मेरे लिए मेरे बाप की तरह है, या मैं तेरे लिए तेरी माँ की तरह हूँ! तो क्या यह भी ज़िहार होगा? चारों इमाम कहते हैं कि यह ज़िहार नहीं है और उसपर ज़िहार के क़ानूनी हुक्म सिरे से लागू नहीं होते। क्योंकि क़ुरआन मजीद ने साफ़ अलफ़ाज़ में ये हुक्म सिर्फ़ उस सूरत के लिए बयान किए हैं जबकि शौहर बीवियों से ज़िहार करें (सूरा-58, आयत-3) और ज़िहार करने के इख़्तियार उसी को हासिल हो सकते हैं जिसे तलाक़ देने का इख़्तियार है। औरत को शरीअत ने जिस तरह यह इख़्तियार नहीं दिया कि शौहर को तलाक़ दे दे उसी तरह उसे यह इख़्तियार भी नहीं दिया कि अपने-आपको शौहर के लिए हराम कर ले। यही राय सुफ़ियान सौरी, इसहाक़ राहवैह, अबू-सौर और लैस-बिन-साद (रह०) की है कि औरत का ऐसा कहना बिलकुल बेमानी और बे-असर है। इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) कहते हैं कि यह ज़िहार तो नहीं है, मगर इससे औरत पर क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, क्योंकि औरत का ऐसे अलफ़ाज़ कहना यह मतलब रखता है कि उसने अपने शौहर से ताल्लुक़ न रखने की क़सम खाई है। इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) का मसलक भी इब्ने-क़ुदामा ने यही नक़्ल किया है। इमाम औज़ाई (रह०) कहते हैं कि अगर शादी से पहले औरत ने यह बात कही हो कि मैं उस शख़्स से शादी करूँ तो वह मेरे लिए ऐसा है जैसा मेरा बाप, तो यह ज़िहार होगा, और अगर शादी के बाद कहे तो यह क़सम के मानी में होगा, जिससे क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा। इसके बरख़िलाफ़ हसन बसरी, ज़ुहरी, इबराहीम नख़ई और हसन-बिन-ज़ियाद लुलुई (रह०) कहते हैं कि यह ज़िहार है और ऐसा कहने से औरत पर ज़िहार का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, अलबत्ता औरत को यह हक़ न होगा कि कफ़्फ़ारा देने से पहले शौहर को अपने पास आने से रोक दे। इबराहीम नख़ई (रह०) इसकी ताईद में यह वाक़िआ नक़्ल करते हैं कि हज़रत तलहा (रज़ि०) की बेटी आइशा से हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के बेटे मुसअब ने निकाह का पैग़ाम दिया। उन्होंने उसे रद्द करते हुए ये अलफ़ाज़ कह दिए कि “अगर मैं उनसे निकाह करूँ तो वे मेरे ऊपर ऐसे हों जैसे मेरे बाप की पीठ!” कुछ मुद्दत बाद वे उनसे शादी करने पर राज़ी हो गईं। मदीना के आलिमों से उसके बारे में फ़तवा लिया गया तो बहुत-से फ़क़ीहों ने जिनमें कई सहाबा भी शामिल थे, यह फ़तवा दिया कि आइशा पर ज़िहार का कफ़्फ़ारा लाज़िम है। इस वाक़िए को नक़्ल करने के बाद इबराहीम नख़ई अपनी यह राय बयान करते हैं कि अगर आइशा यह बात शादी के बाद कहतीं तो कफ़्फ़ारा लाज़िम न आता, मगर उन्होंने शादी से पहले यह कहा था जब उन्हें निकाह करने या न करने का इख़्तियार हासिल था, इसलिए कफ़्फ़ारा उनपर वाजिब हो गया।
(3) जो समझदार और बालिग़ आदमी ज़िहार के साफ़ अलफ़ाज़ होश व हवास की हालत में ज़बान से अदा करे उसका यह बहाना मानने लायक नहीं हो सकता कि उसने ग़ुस्से में, या मज़ाक़ में, या प्यार से ऐसा कहा, या यह कि उसकी नीयत ज़िहार की न थी। अलबत्ता जो अलफ़ाज़ इस मामले में वाज़ेह नहीं हैं, और जिनसे अलग-अलग मतलब निकाले जा सकते हों, उनके बारे में अलफ़ाज़ के मुताबिक़ फ़ैसला किया जाएगा। आगे चलकर हम बताएँगे कि ज़िहार के वाज़ेह अलफ़ाज़ कौन-से हैं और कौन-से अलफ़ाज़ वाज़ेह नहीं हैं।
(4) यह बात सभी आलिम मानते हैं कि ज़िहार उस औरत से किया जा सकता है जो आदमी के निकाह में हो। अलबत्ता इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि क्या ग़ैर-औरत से भी ज़िहार हो सकता है। इस मामले में अलग-अलग मसलक (राएँ) ये हैं—
हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि ग़ैर-औरत से अगर आदमी यह कहे कि “मैं तुझसे निकाह करूँ तो मेरे ऊपर तू ऐसी है जैसी मेरी माँ की पीठ,” तो जब भी वह उससे निकाह करेगा कफ़्फ़ारा अदा किए बिना उसे हाथ न लगा सकेगा। यही हज़रत उमर (रज़ि०) का फ़तवा है। उनके ज़माने में एक आदमी ने एक औरत से यह बात कही। और बाद में उससे निकाह कर लिया। हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया कि उसे ज़िहार का कफ़्फ़ारा देना होगा। मालिकी और हंबली मसलक के आलिम भी यही बात कहते हैं, और वे इसपर यह इज़ाफ़ा करते हैं कि अगर औरत को ख़ास न किया गया हो, बल्कि कहनेवाले ने यूँ कहा हो कि तमाम औरतें मेरे ऊपर ऐसी हैं, तो जिससे भी वह निकाह करेगा उसे हाथ लगाने से पहले कफ़्फ़ारा देना होगा। यही राय सईद-बिन-मुसय्यब, उरवा-बिन-ज़ुबैर, अता-बिन-अबी-रबाह, हसन बसरी और इसहाक़-बिन-राहवैह (रह०) की है।
शाफ़िई मसलक के आलिम कहते हैं कि निकाह से पहले ज़िहार बिलकुल बेमानी है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और क़तादा की भी यही राय है।
(5) क्या ज़िहार एक ख़ास वक़्त तक के लिए हो सकता है? हनफ़ी और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि अगर आदमी ने किसी ख़ास वक़्त को तय करके ज़िहार किया हो तो जब तक वह वक़्त बाक़ी है, बीवी को हाथ लगाने से कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, और उस वक़्त के गुज़र जाने पर ज़िहार बे-असर हो जाएगा। इसकी दलील सलमा-बिन-सख़्र बयाज़ी का वाक़िआ है, जिसमें उन्होंने अपनी बीवी से रमज़ान के लिए ज़िहार किया था और नबी (सल्ल०) ने उनसे यह नहीं फ़रमाया था कि वक़्त को तय करना बेमानी है। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०) और इब्ने-अबी-लैला कहते हैं कि ज़िहार जब भी किया जाएगा, हमेशा के लिए होगा और वक़्त को ख़ास करना बे-असर होगा, क्योंकि जो चीज़ हराम हो गई है वह वक़्त गुज़र जाने पर आप-से-आप हलाल नहीं हो सकती।
(6) शर्त के साथ ज़िहार किया गया हो तो जिस वक़्त भी शर्त की ख़िलाफ़वर्ज़ी होगी, कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाएगा। मसलन आदमी बीवी से यह कहता है कि “अगर मैं घर में आऊँ तो मेरे ऊपर तू ऐसी है जैसी मेरी माँ की पीठ!” इस सूरत में वह जब भी घर में दाख़िल होगा, कफ़्फ़ारा अदा किए बिना बीवी को हाथ न लगा सकेगा।
(7) एक बीवी से कई बार ज़िहार के अलफ़ाज़ कहे गए हों तो हनफ़ी और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि चाहे एक ही बार में ऐसा किया गया हो या कई बैठकों में, बहरहाल जितनी बार ये अलफ़ाज़ कहे गए हों उतने की कफ़्फ़ारे लाज़िम आएँगे, सिवाय यह कि कहनेवाले ने एक बार कहने के बाद उस बात को बार-बार सिर्फ़ अपनी पहली बात की ताकीद के लिए कहा हो। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) कहते हैं कि चाहे कितनी ही बार उस बात को दोहराया गया हो, फिर चाहे दोहराने की नीयत हो या ताकीद की, कफ़्फ़ारा एक ही लाज़िम होगा। यही क़ौल (राय) शअबी, ताऊस, अता-बिन-अबी-रबाह, हसन बसरी और औज़ाई (रह०) का है। हज़रत अली (रज़ि०) का फ़तवा यह है कि अगर तकरार एक बैठक में की गई हो तो एक ही कफ़्फ़ारा होगा, और अलग-अलग बैठकों में हो तो जितनी बैठकों में की गई हो उतने ही कफ़्फ़ारे देने होंगे। क़तादा और अम्र-बिन-दीनार की राय भी यही है।
(8) दो या ज़्यादा बीवियों से एक ही वक़्त और एक ही लफ़्ज़ में ज़िहार किया जाए, मसलन उनको मुख़ातब करके शौहर कहे कि तुम मेरे ऊपर ऐसी हो जैसी मेरी माँ की पीठ, तो हनफ़ी और शाफ़िई मसलकवाले आलिम कहते हैं कि हर एक को हलाल करने के लिए अलग-अलग कफ़्फ़ारे देने होंगे। यही राय हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), उरवा-बिन-ज़ुबैर, ताऊस, अता, हसन बसरी, इबराहीम नख़ई, सुफ़ियान सौरी और इब्ने-शिहाब ज़ुहरी की है। इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि इस सूरत में सबके लिए एक ही कफ़्फ़ारा लाज़िम होगा। रबीआ, औज़ाई, इसहाक़-बिन-राहवैह और अबू-सौर की भी यही राय है।
(9) एक ज़िहार का कफ़्फ़ारा देने के बाद अगर आदमी फिर से ज़िहार कर बैठे तो यह बात सभी आलिम कहते हैं कि फिर कफ़्फ़ारा दिए बिना बीवी उसके लिए हलाल न होगी।
(10) कफ़्फ़ारा अदा करने से पहले अगर बीवी से मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ क़ायम कर बैठा हो तो चारों इमामों के नज़दीक अगरचे यह गुनाह है, और आदमी को इसपर तौबा करनी चाहिए, और फिर इसे दोहराना न चाहिए, मगर कफ़्फ़ारा उसे एक ही देना होगा। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ज़माने में जिन लोगों ने ऐसा किया था उनसे आप (सल्ल०) ने यह तो फ़रमाया था कि इसतिग़फ़ार (तौबा) करो और उस वक़्त तक अपनी बीवी से अलग रहो जब तक कफ़्फ़ारा अदा न कर दो, मगर यह हुक्म आप (सल्ल०) ने नहीं दिया था कि ज़िहार के कफ़्फ़ारे के अलावा इसपर उन्हें कोई और कफ़्फ़ारा भी देना होगा। हज़रत अम्र-बिन-आस, क़बीसा-बिन-ज़ुऐब, सईद-बिन-जुबैर, ज़ुहरी और क़तादा (रह०) कहते हैं कि इसपर दो कफ़्फ़ारे लाज़िम होंगे। और हसन बसरी और इबराहीम नख़ई (रह०) की राय यह है कि तीन कफ़्फ़ारे देने होंगे। शायद इन बुज़ुर्गों को वे हदीसें न पहुँची होंगी जिनमें इस मसले पर नबी (सल्ल०) का फ़ैसला बयान हुआ है।
(11) बीवी को किसके जैसी कहना ज़िहार है? इस मसले में फ़क़ीहों के दरमियान राएँ अलग-अलग हैं—
आमिर शअबी (रह०) कहते हैं कि बीवी को सिर्फ़ माँ के जैसी कहना ज़िहार है, और ज़ाहिरी मसलकवाले कहते हैं कि माँ की भी सिर्फ़ पीठ से मिसाल देना ज़िहार है, बाक़ी और किसी बात पर यह हुक्म चस्पाँ नहीं होता। मगर मुस्लिम समाज के फ़क़ीहों में से किसी ने भी इस मामले में उनसे इत्तिफ़ाक़ नहीं किया है, क्योंकि क़ुरआन ने माँ से मिसाल देने को गुनाह क़रार देने की वजह यह बयान की है कि यह निहायत बेहूदा और झूठी बात है। अब यह ज़ाहिर है कि जिन औरतों का एहतिराम (हराम होना) माँ जैसा है उनके साथ बीवी की मिसाल देना बेहूदगी और झूठ में इससे कुछ अलग नहीं है, इसलिए कोई वजह नहीं कि इसका हुक्म वही न हो जो माँ से मिसाल देने का हुक्म है।
हनफ़ी आलिम कहते हैं कि इस हुक्म में तमाम वे औरतें दाख़िल हैं जो नसब (ख़ून के रिश्ते) या रज़ाअत (दूध के रिश्ते), या शादी के रिश्ते की बुनियाद पर आदमी के लिए हमेशा के लिए हराम हैं। मगर वक़्ती तौर पर जो औरतें हराम हों और किसी वक़्त हलाल हो सकती हों वे इसमें दाख़िल नहीं हैं, जैसे बीवी की बहन, उसकी ख़ाला, उसकी फूफी, या ग़ैर-औरत आदमी के निकाह में न हो। हमेशा के लिए हराम औरतों में से किसी औरत के जिस्म के किसी ऐसे हिस्से के साथ मिसाल देना जिसपर नज़र डालना आदमी के लिए हलाल न हो, ज़िहार होगा। अलबत्ता बीवी के हाथ-पाँव, सिर, बाल, दाँत वग़ैरा को हमेशा के लिए हराम औरत की पीठ से, या बीवी को उसके सिर, हाथ-पाँव जैसे जिस्मानी हिस्सों से मिसाल देना ज़िहार न होगा क्योंकि माँ-बहन के इन हिस्सों पर निगाह डालना हराम नहीं है। इसी तरह यह कहना कि तेरा हाथ मेरी माँ के हाथ जैसा है, या तेरा पाँव मेरी माँ के पाँव जैसा है, ज़िहार नहीं है।
शाफ़िई आलिम कहते हैं कि इस हुक्म में सिर्फ़ वही औरतें दाख़िल हैं जो हमेशा हराम थीं और हमेशा हराम रहें, यानी माँ, बहन, बेटी वग़ैरा। मगर वे औरतें इसमें दाख़िल नहीं हैं जो कभी हलाल रह चुकी हों, जैसे दूध पिलानेवाली माँ, बहन, सास और बहू, या किसी वक़्त हलाल हो सकती हों, जैसे साली। इन वक़्ती हराम औरतों के सिवाय हमेशा के लिए हराम औरतों में से किसी के जिस्म के उन हिस्सों के साथ बीवी को मिसाल देना ज़िहार होगा जिनका ज़िक्र इज़्ज़त और एहतिराम ज़ाहिर करने के लिए आदत के तौर पर नहीं किया जाता। रहे जिस्म के वे हिस्से जिनका इज़हार इज़्ज़त और एहतिराम के लिए किया जाता है तो उनकी मिसाल देना सिर्फ़ उस सूरत में ज़िहार होगा जबकि यह बात ज़िहार की नीयत से कही जाए। मसलन बीवी से यह कहना कि तू मेरे लिए मेरी माँ की आँख या जान की तरह है, या माँ के हाथ-पाँव या पेट की तरह है, या माँ के पेट या सीने से बीवी के पेट या सीने की मिसाल देना, या बीवी के सिर, पीठ या हाथ को अपने लिए माँ की पीठ जैसा क़रार देना, या बीवी को यह कहना कि तू मेरे लिए मेरी माँ जैसी है, ज़िहार की नीयत से हो तो ज़िहार है और इज़्ज़त की नीयत से हो तो इज़्ज़त है।
मालिकी आलिम कहते हैं कि हर औरत जो आदमी के लिए हराम हो, उससे बीवी की मिसाल देना ज़िहार है, यहाँ तक कि बीवी से यह कहना भी ज़िहार कहलाता है कि तू मेरे ऊपर फ़ुलाँ ग़ैर-औरत की पीठ जैसी है। इसके अलावा वे कहते हैं कि माँ और हमेशा के लिए हराम औरतों के जिस्म के किसी हिस्से से बीवी की या बीवी के किसी हिस्से की मिसाल देना ज़िहार है, और इसमें यह शर्त नहीं है कि वे हिस्से ऐसे हों जिनपर नज़र डालना हलाल न हो, क्योंकि माँ के किसी हिस्से पर भी उस तरह की नज़र डालना जैसी बीवी पर डाली जाती है, हलाल नहीं है।
हंबली आलिम इस हुक्म में तमाम उन औरतों को दाख़िल समझते हैं जो हमेशा के लिए हराम हों, चाहे वे पहले कभी हलाल रह चुकी हों, मसलन सास, या दूध पिलानेवाली माँ। रहीं वे औरतें जो बाद में किसी वक़्त हलाल हो सकती हों (मसलन साली), तो उनके मामले में इमाम अहमद की एक राय यह है कि उनसे मिसाल देना भी ज़िहार है और दूसरी राय यह है कि उनसे मिसाल देना ज़िहार नहीं है। इसके अलावा हंबली आलिमों के नज़दीक बीवी के जिस्म के किसी हिस्से को हराम की हुई औरतों के किसी हिस्से से मिसाल देना ज़िहार में आ जाता है। अलबत्ता बाल, नाख़ुन, दाँत जैसे आरज़ी हिस्से इस हुक्म में नहीं आते।
(12) इस बात में तमाम फ़क़ीहों की राय एक है कि बीवी से यह कहना कि “तू मेरे ऊपर मेरी माँ की पीठ जैसी है!” साफ़ ज़िहार है, क्योंकि अरब के लोगों में यही ज़िहार का तरीक़ा था और क़ुरआन मजीद का हुक्म इसी के बारे में उतरा है। अलबत्ता इस बात में फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) के दरमियान इख़्तिलाफ़ है कि दूसरे अलफ़ाज़ में से कौन-से ऐसे हैं जो साफ़ ज़िहार के हुक्म में हैं, और कौन-से ऐसे हैं जिनके ज़िहार होने या न होने का फ़ैसला कहनेवाले की नीयत पर किया जाएगा।
हनफ़ी आलिमों के नज़दीक ज़िहार के साफ़ अलफ़ाज़ ये हैं जिनमें साफ़ तौर पर हलाल औरत (बीवी) को हराम औरत (ऐसी औरतों में से कोई औरत जिनसे शादी करना हराम हो) से मिसाल दी गई हो, या मिसाल ऐसे हिस्से से दी गई हो जिसपर नज़र डालना हलाल नहीं है, जैसे यह कहना कि तू मेरे ऊपर माँ या फ़ुलाँ हराम औरत के पेट या रान जैसी है। इनके सिवा दूसरे अलफ़ाज़ में इस बात की गुंजाइश है कि इनसे ज़िहार के अलावा कोई दूसरा मतलब ले लिया जाए। अगर कहे कि “तू मेरे ऊपर हराम है जैसे मेरी माँ की पीठ!” तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक यह साफ़ ज़िहार है, लेकिन इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) और इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक ज़िहार की नीयत हो तो ज़िहार है और तलाक़ की नीयत हो तो तलाक़। अगर कहे कि “तू मेरी माँ जैसी है या मेरी माँ की तरह है!” तो हनफ़ी आलिमों का आम फ़तवा यह है कि यह ज़िहार की नीयत से ज़िहार है, तलाक़ की नीयत से बाइन तलाक़, और अगर कोई नीयत न हो तो बेमानी है। लेकिन इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक यह पूरी तरह ज़िहार है। अगर बीवी को माँ या बहन या बेटी कहकर पुकारे तो सख़्त बेहूदा बात है, जिसपर नबी (सल्ल०) ने ग़ुस्से का इज़हार फ़रमाया था, मगर इसे ज़िहार नहीं क़रार दिया। अगर कहे कि “तू मेरे ऊपर माँ की तरह हराम है!” तो यह ज़िहार की नीयत से ज़िहार है, तलाक़ की नीयत से तलाक़, और कोई नीयत न हो तो ज़िहार है। अगर कहे कि “तू मेरे लिए माँ की तरह है या माँ जैसी है!” तो नीयत पूछी जाएगी। इज़्ज़त और एहतिराम की नीयत से कहा हो तो इज़्ज़त और एहतिराम है। ज़िहार की नीयत से कहा हो तो ज़िहार है। तलाक़ की नीयत से कहा हो तो तलाक़ है। कोई नीयत न हो और यूँ ही यह बात कह दी हो तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक बेमानी है, इमाम अबू-यूसुफ़ के नज़दीक इसपर ज़िहार का तो नहीं, मगर क़सम का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, और इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक यह ज़िहार है। शाफ़िई आलिमों के नज़दीक ज़िहार के साफ़ अलफ़ाज़ ये हैं कि कोई शख़्स अपनी बीवी से कहे कि तू मेरे नज़दीक, या मेरे साथ, या मेरे लिए ऐसी है जैसी मेरी माँ की पीठ या तू मेरी माँ की पीठ की तरह है। या तेरा जिस्म, या तेरा बदन, या तेरा नफ़्स मेरे लिए मेरी माँ के जिस्म या बदन या नफ़्स की तरह है। इनके सिवा बाक़ी तमाम अलफ़ाज़ में कहनेवाले की नीयत पर फ़ैसला होगा।
हंबली आलिमों के नज़दीक हर वह लफ़्ज़ जिससे किसी शख़्स ने बीवी को या उसके मुस्तक़िल हिस्सों में से किसी हिस्से को किसी ऐसी औरत से जिससे शादी करना उसके लिए हराम है, या उसके जिस्म के मुस्तक़िल हिस्सों में से किसी हिस्से से साफ़-साफ़ मिसाल दी हो, ज़िहार के मामले में साफ़ और वाज़ेह माना जाएगा।
मालिकी आलिमों की राय भी क़रीब-क़रीब यही है, अलबत्ता तफ़सीलात में उनके फ़तवे अलग-अलग हैं। मसलन किसी शख़्स का बीवी से यह कहना कि “तू मेरे लिए मेरी माँ जैसी है, या मेरी माँ की तरह है!” मालिकी आलिमों के नज़दीक ज़िहार की नीयत से हो ज़िहार है, तलाक़ की नीयत से हो तो तलाक़ और कोई नीयत न हो तो ज़िहार है। हंबली आलिमों के नज़दीक यह नीयत की शर्त के साथ सिर्फ़ ज़िहार क़रार दिया जा सकता है। अगर कोई शख़्स बीवी से कहे कि “तू मेरी माँ है!” तो मालिकी आलिम कहते हैं कि यह ज़िहार है और हंबली आलिम कहते हैं कि यह बात अगर झगड़े और ग़ुस्से की हालत में कही गई हो तो ज़िहार है, और प्यार-मुहब्बत की बातचीत में कही गई हो तो अगरचे यह बहुत ही बुरी बात है, लेकिन ज़िहार नहीं है। अगर कोई शख़्स कहे, “तुझे तलाक़ तू मेरी माँ की तरह है!” तो हंबली आलिमों के नज़दीक यह तलाक़ है न कि ज़िहार, और अगर कहे, “तू मेरी माँ की तरह है, तुझे तलाक़ है!” तो ज़िहार और तलाक़ दोनों हो जाएँगे। यह कहना कि “तू मेरे ऊपर ऐसी हराम है जैसी मेरी माँ की पीठ!” मालिकी और हंबली मसलकवाले दोनों के नज़दीक ज़िहार है, चाहे तलाक़ ही की नीयत से ये अलफ़ाज़ कहे गए हों, या नीयत कुछ भी न हो।
ज़िहार के अलफ़ाज़ की इस बहस में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि फ़क़ीहों ने इस मामले में जितनी भी बहसें की हैं वे सब अरबी ज़बान के अलफ़ाज़ और मुहावरों से ताल्लुक़ रखती हैं, और ज़ाहिर है कि दुनिया की दूसरी ज़बानें बोलनेवाले न अरबी ज़बान में ज़िहार करेंगे, न ज़िहार करते वक़्त अरबी अलफ़ाज़ और जुमलों का ठीक-ठीक तर्जमा ज़बान से अदा करेंगे। इसलिए किसी लफ़्ज़ या जुमले के बारे में अगर यह फ़ैसला करना हो कि वह ज़िहार में आता है या नहीं, तो उसे उस लिहाज़ से नहीं जाँचना चाहिए कि वह फ़क़ीहों के बयान किए हुए अलफ़ाज़ में से किसका सही तर्जमा है, बल्कि सिर्फ़ यह देखना चाहिए कि क्या कहनेवाले ने बीवी को जिंसी (Sexual) ताल्लुक़ के लिहाज़ से हराम ठहराई गई औरतों में से किसी के साथ साफ़-साफ़ मिसाल दी है, या उसके अलफ़ाज़ का दूसरा मतलब भी लिया जा सकता है? इसकी सबसे नुमायाँ मिसाल ख़ुद वह जुमला है जिसके बारे में तमाम फ़क़ीहों और तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों की एक राय है कि अरब में ज़िहार के लिए वही लफ़्ज़ बोला जाता था और क़ुरआन मजीद का हुक्म उसी के बारे में उतरा है, यानी 'अन्ति अलय्-य क-ज़हरि उम्मी' (तू मेरे ऊपर मेरी माँ की पीठ जैसी है!)। शायद दुनिया की किसी ज़बान में, और कम-से-कम उर्दू (और हिन्दी) की हद तक हम यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि इस ज़बान में कोई ज़िहार करनेवाला ऐसे अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं कर सकता जो इस अरबी जुमले का लफ़्ज़ी तर्जमा हों। अलबत्ता वह अपनी ज़बान (भाषा) के ऐसे अलफ़ाज़ ज़रूर इस्तेमाल कर सकता है जिनका मतलब ठीक वही हो जिसे अदा करने के लिए एक अरब यह जुमला बोला करता था। उसका मतलब यह था कि “तुझसे हमबिस्तरी मेरे लिए ऐसी है जैसे अपनी माँ से हमबिस्तरी करना!” या जैसे कुछ जाहिल लोग बीवी से कह बैठते हैं कि “तेरे पास आऊँ तो अपनी माँ के पास जाऊँ!”
(13) क़ुरआन मजीद में जिस चीज़ को कफ़्फ़ारा लाज़िम आने का सबब ठहराया गया है वह सिर्फ़ ज़िहार नहीं है, बल्कि ज़िहार के बाद 'औद' है। यानी अगर आदमी सिर्फ़ ज़िहार करके रह जाए और ‘औद' न करे, तो उसपर कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं आता। अब सवाल यह है कि वह ‘औद’ क्या है जो कफ़्फ़ारे का सबब है? इस बारे में फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) की राएँ ये हैं—
हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि 'औद' से मुराद मुबाशरत (हमबिस्तरी) का इरादा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ़ इरादे और ख़ाहिश पर कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाए, यहाँ तक कि अगर आदमी इरादा करके रह जाए और अमली क़दम न उठाए तब भी उसे कफ़्फ़ारा देना पड़े। बल्कि इसका सही मतलब यह है कि जो आदमी बीवी के हराम हो जाने की उस हालत को दूर करना चाहता है जो उसने ज़िहार करके बीवी के साथ मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ात के मामले में अपने ऊपर लागू कर ली थी, वह पहले कफ़्फ़ारा दे, क्योंकि बीवी के हराम होने की यह हालत कफ़्फ़ारे के बिना ख़त्म नहीं हो सकती।
इमाम मालिक (रह०) के इस मामले में तीन क़ौल (राएँ) हैं, मगर मालिकी मसलक के आलिमों के यहाँ सबसे मशहूर और सबसे सही बात उस मसलक के मुताबिक़ है जो ऊपर हनफ़ी मसलकवालों का बयान हुआ है। वे कहते हैं कि ज़िहार से जिस चीज़ को उसने अपने ऊपर हराम कर लिया था वह बीवी के साथ हमबिस्तरी का ताल्लुक़ था। उसके बाद ‘औद’ यह है कि वह उसके साथ यही ताल्लुक़ रखने के लिए पलटे।
अहमद-बिन-हंबल (रह०) का मसलक भी इब्ने-क़ुदामा (रह०) ने क़रीब-क़रीब वही नक़्ल किया है जो ऊपर दोनों इमामों का बयान किया गया है। वे कहते हैं कि ज़िहार के बाद हमबिस्तरी के हलाल होने के लिए कफ़्फ़ारा शर्त है। ज़िहार करनेवाला जो शख़्स उसे हलाल करना चाहे वह मानो हराम की हुई हालत से पलटना चाहता है। इसलिए उसे हुक्म दिया गया कि उसे हलाल करने से पहले कफ़्फ़ारा दे, ठीक उसी तरह जैसे कोई शख़्स एक ग़ैर-औरत को अपने लिए हलाल करना चाहे तो उससे कहा जाएगा कि उसे हलाल करने से पहले निकाह करे।
इमाम शाफ़िई (रह०) का मसलक इन तीनों से अलग है। वे कहते हैं कि आदमी का अपनी बीवी से ज़िहार करने के बाद उसे पहले की तरह बीवी बनाए रखना, या दूसरे अलफ़ाज़ में उसे बीवी की हैसियत से रोके रखना ‘औद’ है। क्योंकि जिस वक़्त उसने ज़िहार किया उसी वक़्त मानो उसने अपने लिए यह बात हराम कर ली कि उसे बीवी बनाकर रखे। लिहाज़ा अगर उसने ज़िहार करते ही फ़ौरन उसे तलाक़ न दी और इतनी देर तक उसे रोके रखा जिसमें वह तलाक़ के अलफ़ाज़ ज़बान से निकाल सकता था, तो उसने ‘औद’ कर लिया और उसपर कफ़्फ़ारा वाजिब हो गया। इसका मतलब यह है कि एक साँस में ज़िहार करने के बाद अगर आदमी दूसरी ही साँस में तलाक़ न दे, तो कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाएगा, चाहे बाद में उसका फ़ैसला यही हो कि उस औरत को बीवी बनाकर नहीं रखना है, और उसका कोई इरादा उसके साथ मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ रखने का न हो। यहाँ तक कि कुछ मिनट ग़ौर करके वह बीवी को तलाक़ भी दे डाले तो इमाम शाफ़िई (रह०) के मसलक के मुताबिक़ कफ़्फ़ारा उसके ज़िम्मे लाज़िम रहेगा।
(14) क़ुरआन का हुक्म है कि ज़िहार करनेवाला कफ़्फ़ारा दे इससे पहले कि मियाँ बीवी एक-दूसरे को 'मस्स' (स्पर्श) करें। चारों इमामों की इस बात पर एक राय है कि इस आयत में 'मस्स' से मुराद छूना है, इसलिए कफ़्फ़ारे से पहले सिर्फ़ हमबिस्तरी ही हराम नहीं है, बल्कि शौहर किसी तरह भी बीवी को छू नहीं सकता। शाफ़िई मसलकवाले शहवत (कामुकता) के साथ छूने को हराम कहते हैं, हंबली मसलकवाले हर तरह की लज़्ज़त लेने को हराम ठहराते हैं, और मालिकी मसलकवाले लज़्ज़त के लिए बीवी के जिस्म पर नज़र डालने को भी नाजाइज़ ठहराते हैं और उनके नज़दीक सिर्फ़ चेहरे और हाथों पर नज़र डालना इस दायरे से बाहर है।
(15) ज़िहार के बाद अगर आदमी बीवी को तलाक़ दे दे तो रजई तलाक़ (वह तलाक़ जिसमें दोबारा मिलन किया जा सकता है) होने की सूरत में रुजू करके भी कफ़्फ़ारा दिए बिना हाथ नहीं लगा सकता। बाइन (वह तलाक़ जिसमें दोबारा मिलन नहीं हो सकता) होने की सूरत में अगर उससे दोबारा निकाह करे तब भी उसे हाथ लगाने से पहले कफ़्फ़ारा देना होगा। यहाँ तक कि अगर तीन तलाक़ दे चुका हो, और औरत दूसरे आदमी से निकाह करने के बाद बेवा हो चुकी हो या तलाक़ पा चुकी हो, और उसके बाद ज़िहार करनेवाला शौहर उससे नए सिरे से निकाह कर ले, फिर भी कफ़्फ़ारे के बिना वह उसके लिए हलाल न होगी। क्योंकि वह उसे माँ या हराम ठहराई हुई औरतों से मिसाल देकर अपने ऊपर एक बार हराम कर चुका है, और हराम होने की यह हालत कफ़्फ़ारे के बिना ख़त्म नहीं हो सकती। इसपर चारों इमाम एक राय हैं।
(16) औरत के लिए लाज़िम है कि जिस शौहर ने उसके साथ ज़िहार किया है उसे हाथ न लगाने दे जब तक वह कफ़्फ़ारा अदा न करे। और चूँकि मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ औरत का हक़ है, जिससे ज़िहार करके शौहर ने उसे महरूम किया है, इसलिए अगर वह कफ़्फ़ारा न दे तो बीवी अदालत से मदद ले सकती है। अदालत उसके शौहर को मजबूर करेगी कि वह कफ़्फ़ारा देकर हराम होने की हालत की वह दीवार हटाए जो उसने अपने और उसके बीच खड़ी कर ली है। और अगर वह न माने तो अदालत उसे मार या क़ैद या दोनों तरह की सज़ाएँ दे सकती है। इस बात पर भी चारों फ़िक़ही मसलकों में एक राय पाई जाती है। अलबत्ता फ़र्क़ यह है कि हनफ़ी मसलक में औरत के लिए सिर्फ़ यही एक रास्ता है, वरना ज़िहार पर चाहे कितनी ही मुद्दत गुज़र जाए, औरत को अगर अदालत इस मुश्किल से न निकाले तो वह तमाम उम्र लटकी रहेगी, क्योंकि ज़िहार से निकाह ख़त्म नहीं होता, सिर्फ़ शौहर का हमबिस्तरी का हक़ छिन जाता है। मालिकी मसलक में अगर शौहर औरत को सताने के लिए ज़िहार करके लटकती हुई छोड़ दे तो उसपर 'ईला' के हुक्म जारी होंगे, यानी वह चार महीने से ज़्यादा औरत को रोककर नहीं रख सकता, (ईला के हुक्मों के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—245 से 247) शाफ़िई मसलकवालों के नज़दीक अगरचे ज़िहार में ईला के हुक्म तो सिर्फ़ उस वक़्त जारी हो सकते हैं जबकि शौहर ने एक ख़ास मुद्दत के लिए ज़िहार किया हो और वह मुद्दत चार महीने से ज़्यादा हो, लेकिन चूँकि शाफ़िई मसलक के मुताबिक़ शौहर पर उसी वक़्त कफ़्फ़ारा वाजिब हो जाता है जब वह औरत को बीवी बनाकर रखे रहे, इसलिए यह मुमकिन नहीं रहता कि वह किसी लम्बी मुद्दत तक उसको लटकाए रखे।
(17) क़ुरआन और सुन्नत (हदीस) में यह साफ़ तौर से बताया गया है कि ज़िहार का पहला कफ़्फ़ारा ग़ुलाम आज़ाद करना है। इससे आदमी मजबूर हो तब दो महीने के रोज़ों की शक्ल में कफ़्फ़ारा दे सकता है। और इससे भी मजबूर हो तब साठ (60) मिसकीनों को खाना खिला सकता है। लेकिन अगर तीनों कफ़्फ़ारों से कोई आदमी मजबूर हो तो चूँकि शरीअत में कफ़्फ़ारे की कोई और शक्ल नहीं रखी गई है, इसलिए उसे उस वक़्त तक इन्तिज़ार करना होगा जब तक वह उनमें से किसी एक पर अमल करने के क़ाबिल न हो जाए। अलबत्ता सुन्नत से यह साबित है कि ऐसे शख़्स की मदद की जानी चाहिए, ताकि वह तीसरा कफ़्फ़ारा अदा कर सके। नबी (सल्ल०) ने बैतुल-माल से ऐसे लोगों की मदद की है जो अपनी ग़लती से इस मुश्किल में फँस गए थे, और तीनों कफ़्फ़ारों से मजबूर थे।
(18) क़ुरआन मजीद कफ़्फ़ारे में 'र-क़-बह' आज़ाद करने का हुक्म देता है जिसमें लौंडी और ग़ुलाम दोनों आ जाते हैं और इसमें उम्र की कोई क़ैद नहीं है। दूध पीता बच्चा भी अगर ग़ुलामी की हालत में हो तो उसे आज़ाद कर देना कफ़्फ़ारा देने के लिए काफ़ी है। अलबत्ता फ़क़ीहों के बीच इस मामले में राएँ अलग-अलग हैं कि क्या मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम, दोनों तरह के ग़ुलाम आज़ाद किए जा सकते हैं या सिर्फ़ मुस्लिम ग़ुलाम ही आज़ाद करना होगा। हनफ़ी और ज़ाहिरी मसलकवाले कहते हैं कि ग़ुलाम मुस्लिम हो या ग़ैर-मुस्लिम, उसका आज़ाद कर देना ज़िहार के कफ़्फ़ारे के लिए काफ़ी है, क्योंकि क़ुरआन में सिर्फ़ ‘र-क़-बह' का ज़िक्र है, यह नहीं कहा गया कि वह मुसलमान ही होना चाहिए। इसके बरख़िलाफ़ शाफ़िई, मालिकी और हंबली आलिम इसके लिए मुसलमान की शर्त लगाते हैं, और उन्होंने इस हुक्म को उन दूसरे कफ़्फ़ारों की तरह समझा है जिनमें 'र-क़-बह' के साथ क़ुरआन मजीद में मुसलमान की क़ैद लगाई है।
(19) ग़ुलाम न पाने की सूरत में क़ुरआन का हुक्म है कि ज़िहार करनेवाला लगातार दो महीने रोज़े रखे इससे पहले कि मियाँ-बीवी एक-दूसरे को हाथ लगाएँ। अल्लाह के इस हुक्म पर अमल करने की तफ़सीलात अलग-अलग फ़िक़ही मसलकों में इस तरह हैं—
(i) इस बात पर सब एक राय हैं कि महीनों से मुराद चाँद के महीने हैं। अगर चाँद निकलने से रोज़ों की शुरुआत की जाए तो दो महीने पूरे करने होंगे। अगर बीच में किसी तारीख़ से शुरू किया जाए तो हनफ़ी और हंबली आलिम कहते हैं कि साठ (60) रोज़े रखने चाहिएँ। और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि पहले और तीसरे महीने में कुल मिलाकर तीस (30) रोज़े रखे और बीच का चाँद का महीना चाहे 29 का हो या 30 का, उसके रोज़े रख लेना काफ़ी हैं। (ii) हनफ़ी और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि रोज़े ऐसे वक़्त शुरू करने चाहिएँ जबकि बीच में न रमज़ान आए न दोनों ईदें, न क़ुरबानी का दिन और न हज के दिन, क्योंकि कफ़्फ़ारे के रोज़े रखने के दौरान में रमज़ान के रोज़े रखने और ईदों और क़ुरबानी और हज के दिनों के रोज़े छोड़ने से दो महीने का सिलसिला टूट जाएगा और नए सिरे से रोज़े रखने पड़ेंगे। हंबली आलिम कहते हैं बीच में रमज़ान के रोज़े रखने और हराम दिनों के रोज़े न रखने से सिलसिला नहीं टूटता।
(iii) दो महीनों के दौरान में चाहे आदमी किसी मजबूरी की वजह से रोज़ा छोड़े या बिना मजबूरी, दोनों सूरतों में हनफ़ी और शाफ़िई आलिम के नज़दीक सिलसिला टूट जाएगा और नए सिरे से रोज़े रखने होंगे। यही राय इमाम मुहम्मद बाक़िर, इबराहीम नख़ई, सईद-बिन-जुबैर और सुफ़ियान सौरी (रह०) की है। इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक बीमारी या सफ़र की मजबूरी से बीच में रोज़ा छोड़ा जा सकता है और इससे सिलसिला नहीं टूटता, अलबत्ता बिना मजबूरी के रोज़ा छोड़ देने से टूट जाता है। उनकी दलील यह है कि कफ़्फ़ारे के रोज़े रमज़ान के फ़र्ज़ रोज़ों से ज़्यादा ताकीदी नहीं हैं। जब उनको मजबूरी की वजह से छोड़ा जा सकता है तो कोई वजह नहीं कि इनको न छोड़ा जा सके। यही क़ौल (राय) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हसन बसरी, अता-बिन-अबी-रबाह, सईद-बिन-मुसय्यब, अम्र-बिन-दीनार, शअबी, ताऊस, इसहाक़-बिन-राहवैह, अबू-उबैद और अबू-सौर (रह०) का है।
(iv) दो महीनों के दौरान में अगर आदमी उस बीवी से हमबिस्तरी कर बैठे जिससे ज़िहार किया हो तो तमाम इमामों के नज़दीक इससे सिलसिला टूट जाएगा और नए सिरे से रोज़े रखने होंगे, क्योंकि हाथ लगाने से पहले दो महीने के लगातार रोज़े रखने का हुक्म दिया गया है।
(20) क़ुरआन और सुन्नत के मुताबिक़ तीसरा कफ़्फ़ारा (यानी साठ मिसकीनों का खाना) वह शख़्स दे सकता है जो दूसरे कफ़्फ़ारे (दो महीनों के लगातार रोज़ों) की क़ुदरत न रखता हो। इस हुक्म पर अमल करने के लिए फ़क़ीहों ने जो तफ़सीली हुक्म जमा किए हैं वे इस तरह हैं—
(i) चारों इमामों के नज़दीक रोज़े रखने के क़ाबिल न होने का मतलब यह है कि आदमी या तो बुढ़ापे की वजह से ताक़त न रखता हो, या बीमारी की वजह से, या इस वजह से कि वह लगातार दो महीने तक हमबिस्तरी से परहेज़ न कर सकता हो और उसे डर हो कि इस दौरान में कहीं बेसब्री न कर बैठे। इन तीनों मजबूरियों का सही होना उन हदीसों से साबित है जो औस-बिन-सामित अनसारी और सलमा-बिन-सख़्र बयाज़ी के मामले में आई हैं। अलबत्ता बीमारी के मामले में फ़कीहों के बीच थोड़ा-सा इख़्तिलाफ़ है। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि बीमारी का उज़्र उस सूरत में सही होगा, जबकि या तो उसके ख़त्म होने की उम्मीद न हो, या रोज़ों से बीमारी बढ़ जाने का अन्देशा हो। शाफ़िई आलिम कहते हैं कि अगर रोज़ों से ऐसी सख़्त तकलीफ़ होती हो जिससे आदमी को यह ख़तरा हो कि दो महीने के दौरान में कहीं सिलसिला न तोड़ना पड़े, तो यह उज़्र भी सही हो सकता है। मालिकी मसलकवाले कहते हैं कि अगर आदमी का ज़्यादा गुमान यह हो कि वह
आगे रोज़ा रखने के क़ाबिल हो सकेगा तो इन्तिज़ार कर ले, और अगर ज़्यादा गुमान यह हो कि इस क़ाबिल न हो सकेगा तो मिसकीनों को खाना खिला दे।
हंबली आलिम कहते हैं कि रोज़े से बीमारी बढ़ जाने का अन्देशा बिलकुल काफ़ी उज़्र (सबब) है।
(ii) खाना सिर्फ़ उन मिसकीनों को दिया जा सकता है जिनका ख़र्च उठाना आदमी के ज़िम्मे वाजिब न होता हो।
(iii) हनफ़ी आलिम कहते हैं कि खाना मुसलमान और ज़िम्मी (ग़ैर-मुस्लिम), दोनों तरह के मिसकीनों को दिया जा सकता है, अलबत्ता हरबी (जिनसे जंग हो रही हो) और मुस्तामिन (अम्न और पनाह में आए हुए) ग़ैर-मुस्लिमों को नहीं दिया जा सकता।
मालिकी, शाफ़िई और हंबली आलिमों की राय यह है कि सिर्फ़ मुसलमान मिसकीनों ही को दिया जा सकता है।
(iv) यह बात सभी फ़क़ीह मानते हैं कि खाना देने से मुराद दो वक़्त का पेट-भर खाना देना है। अलबत्ता खाना देने के मतलब में राएँ अलग-अलग हैं। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि दो वक़्त का पेट भरने के क़ाबिल अनाज दे देना, या खाना पकाकर दो वक़्त खिला देना, दोनों ही सही हैं, क्योंकि क़ुरआन मजीद में 'इतआम' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब खाने का सामान देना भी है और खाना खिलाना भी। मगर मालिकी, शाफ़िई और हंबली आलिम पकाकर खिलाने को सही नहीं समझते, बल्कि अनाज दे देना ही ज़रूरी क़रार देते हैं। अनाज देने की सूरत में इस बात पर सभी एक राय हैं कि वह अनाज देना चाहिए जो उस शहर या इलाक़े के लोग आम तौर पर खाते हों। और सब मिसकीनों को बराबर देना चाहिए।
(v) हनफ़ी मसलकवालों के नज़दीक अगर एक ही मिसकीन को साठ (60) दिन तक खाना दिया जाए तो यह भी सही है, अलबत्ता यह सही नहीं है कि एक ही दिन उसे साठ (60) दिनों के खाने का सामान दे दिया जाए। लेकिन बाक़ी तीनों मसलक एक मिसकीन को देना सही नहीं समझते। उनके नज़दीक साठ (60) ही मिसकीनों को देना ज़रूरी है। और यह बात चारों मसलकों में जाइज़ नहीं है कि साठ (60) आदमियों को एक वक़्त का खाना और दूसरे साठ (60) आदमियों को दूसरे वक़्त का खाना दिया जाए।
(vi) यह बात चारों मसलकों में से किसी में जाइज़ नहीं है कि आदमी तीस (30) दिन तक रोज़े रखे और तीस (30) मिसकीनों को खाना दे। दो कफ़्फ़ारे एक साथ जमा नहीं किए जा सकते। रोज़े रखने हों तो पूरे दो महीनों के लगातार रखने चाहिएँ। खाना खिलाना हो तो साठ (60) मिसकीनों को खिलाया जाए।
(vii) अगरचे क़ुरआन मजीद में खाने के कफ़्फ़ारे के बारे में ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किए गए हैं कि यह कफ़्फ़ारा भी मियाँ-बीवी के एक-दूसरे को छूने से पहले अदा होना चाहिए, लेकिन मौक़ा-महल इसका तक़ाज़ा करता है कि इस तीसरे कफ़्फ़ारे पर भी यह उसूल लागू होगा। इसी लिए चारों इमामों ने इसको जाइज़ नहीं रखा है कि खाने के कफ़्फ़ारे के दौरान में आदमी बीवी के पास जाए। अलबत्ता फ़र्क़ यह है कि जो शख़्स ऐसा कर बैठे उसके बारे में हंबली आलिम यह हुक्म देते हैं कि उसे नए सिरे से खाना देना होगा। और हनफ़ी आलिम इस मामले में रिआयत करते हैं, क्योंकि इस तीसरे कफ़्फ़ारे के मामले में 'इससे पहले कि तुम उन्हें हाथ लगाओ' को बयान नहीं किया गया है और यह चीज़ रिआयत की गुंजाइश देती है।
ये अहकाम फ़िक़्ह (इस्लामी क़ानून) की नीचे लिखी किताबों से लिए गए हैं—
फ़िक़्हे-हनफ़ी : हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, बदाइउस्सनाइ, अहकामुल-क़ुरआन तिल-जस्सास।
फ़िकहे-शाफ़िई : अल-मिनहाजु लिन-न-ववी म-अ शरहि मुग़निल-मुहताज, तफ़सीरे-कबीर।
फ़िक़्हे-मालिकी : हाशियतुद-दुसूक़ी अलश-शरहिल-कबीर, बिदायतुल-मुज्तहिद, अहकामुल-क़ुरआन लि-इबनिल-अरबी।
फ़िकहे-हंबली : अल-मुग़नी लि-इब्ने-क़ुदामा।
फ़िकहे-ज़ाहिरी : अल-मुहल्ला लि-इब्ने-हज़्म।
12. यहाँ 'ईमान लाने' से मुराद सच्चे और मुख़लिस मोमिन का-सा रवैया अपनाना है। ज़ाहिर है कि आयत के मुख़ातब (सुननेवाले) ग़ैर-मुस्लिम नहीं हैं, बल्कि मुसलमान हैं जो पहले ही ईमान लाए हुए थे। उनको शरीअत का एक हुक्म सुनाने के बाद यह कहना कि 'यह हुक्म तुमको इसलिए दिया जा रहा है कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ’, साफ़ तौर पर यह मानी रखता है कि जो शख़्स ख़ुदा के इस हुक्म को सुनने के बाद भी जाहिलियत के पुराने रिवाजी क़ानून की पैरवी करता रहे उसका यह रवैया ईमान के ख़िलाफ़ होगा। एक मोमिन का यह काम नहीं है कि अल्लाह और उसका रसूल जब ज़िन्दगी के किसी मामले में उसके लिए एक क़ानून मुक़र्रर कर दे तो वह उसको छोड़कर दुनिया के किसी दूसरे क़ानून की पैरवी करे, या अपने मन की ख़ाहिशों पर अमल करता रहे।
13. यहाँ 'इनकार करनेवाले' से मुराद ख़ुदा और पैग़म्बरी का इनकार करनेवाला नहीं है, बल्कि वह शख़्स है जो ख़ुदा और रसूल को मानने का इक़रार और इज़हार करने के बाद भी वह रवैया अपनाए जो एक इनकार करनेवाले के अपनाने का है। दूसरे अलफ़ाज़ में इस फ़रमान का मतलब यह है कि यह अस्ल में इनकार करनेवालों का काम है कि अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म सुनने के बाद भी अपनी मरज़ी चलाते रहें, या जाहिलियत के तरीक़ों ही की पैरवी करते रहें। वरना सच्चे दिल से ईमान लानेवाला तो कभी यह रवैया नहीं अपना सकता। यही बात सूरा-3 आले-इमरान, आयत-97 में भी हज के फ़र्ज़ होने का हुक्म देने के बाद कही गई है कि 'और जो कुफ़्र करे (यानी इस हुक्म पर अमल न करे) तो अल्लाह दुनियावालों से बेनियाज़ है। इन दोनों जगहों पर 'कुफ़्र' (इनकार) का लफ़्ज़ इस मानी में नहीं है कि जो शख़्स भी ज़िहार करने के बाद कफ़्फ़ारा अदा किए बिना बीवी से ताल्लुक़ रखे, या यह समझे कि ज़िहार ही से बीवी को तलाक़ हो गई है, या हैसियत और ताक़त रखने के बावजूद हज न करे, उसे शरीअत का क़ाज़ी ग़ैर-मुस्लिम और मुरतद ठहरा दे और सारे मुसलमान उसे इस्लाम से निकल जानेवाला क़रार दे दें, बल्कि यह इस मानी में है कि अल्लाह तआला के यहाँ ऐसे लोगों की गिनती मोमिनों में नहीं है जो उसके हुक्मों को ज़बान या अमल से रद्द कर दें और इस बात की कोई परवाह न करें कि उनके रब ने उनके लिए क्या हदें मुक़र्रर की हैं, किन चीज़ों को फ़र्ज़ किया है, किन चीज़ों को हलाल किया है और क्या चीज़ें हराम कर दी हैं।