(10) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन अगलों के बाद आए हैं,20 जो कहते हैं कि “ऐ हमारे रब! हमें और हमारे उन सब भाइयों को माफ़ कर दे जो इससे पहले ईमान लाए हैं और हमारे दिलों में ईमानवालों के लिए कोई बुग़्ज़ (विद्वेष) न रख, ऐ हमारे रब! तू बड़ा मेहरबान और रहम करनेवाला है।"21
20. यहाँ तक जो हुक्म बयान हुए हैं, उनमें यह फ़ैसला कर दिया गया है कि फ़य में अल्लाह और रसूल, और रसूल के क़रीबी रिश्तेदारों, और यतीमों, और मिसकीनों और मुसाफ़िरों, और मुहाजिरों और अनसार, और क़ियामत तक आनेवाली मुसलमान नस्लों के हक़ हैं। क़ुरआन पाक का यही वह अहम और क़ानूनी फ़ैसला है जिसकी रौशनी में हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़, शाम (सीरिया) और मिस्र के जीते हुए देशों की ज़मीनों और जायदादों का और उन देशों की पिछली हुकूमतों और उनके हुक्मरानों की जायदादों का नया बन्दोबस्त किया। ये देश जब फ़तह हुए तो कुछ बड़े सहाबा किराम (रज़ि०) ने, जिनमें हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०), हज़रत बिलाल (रज़ि०), हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) और हज़रत सलमान फ़ारिसी (रज़ि०) जैसे बुज़ुर्ग शामिल थे, इस बात पर ज़ोर दिया कि इनको उन फ़ौजों में बाँट दिया जाए जिन्होंने लड़कर उन्हें फ़तह किया है। उनका ख़याल यह था कि ये माल ‘वे ऐसे माल नहीं हैं जिनपर तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों’ के दायरे में नहीं आते, बल्कि इनपर तो मुसलमानों ने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाकर इन्हें जीता है, इसलिए सिवाय उन शहरों और इलाक़ों के जिन्होंने जंग के बिना फ़रमाँबरदारी क़ुबूल की है, बाक़ी तमाम जीते हुए देश ग़नीमत (जंग में हासिल माल) की तारीफ़ (परिभाषा) में आते हैं और उनका शरई हुक्म यह है कि उनकी ज़मीनों और उनके रहनेवालों का पाँचवाँ हिस्सा बैतुल-माल के हवाले कर दिया जाए, और बाक़ी चार हिस्से फ़ौज में बाँट दिए जाएँ। लेकिन यह राय इस वजह से सही नहीं थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुबारक दौर में जो इलाक़े लड़कर जीते गए थे उनमें से किसी की ज़मीनों और रहनेवालों को भी नबी (सल्ल०) ने माले-ग़नीमत की तरह ख़ुमुस निकालने के बाद फ़ौज में नहीं बाँटा था। आप (सल्ल०) के ज़माने की दो सबसे नुमायाँ मिसालें फ़तह-मक्का और फ़तह-ख़ैबर की हैं। उनमें से मक्का को तो आप (सल्ल०) ने ज्यों-का-त्यों उसके रहनेवालों के हवाले कर दिया। रहा ख़ैबर, तो उसके बारे में हज़रत बुशैर-बिन-यसार (रज़ि०) की रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने उसके 36 हिस्से किए, और उनमें से 18 हिस्से इजतिमाई ज़रूरतों के लिए वक़्फ़ करके बाक़ी 18 हिस्से फ़ौज में बाँट दिए, (हदीस : अबू-दाऊद, बैहक़ी, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद, किताबुल-ख़राज लि-यह्या-बिन-आदम, फ़ुतूहुल-बुलदान लिल-बलाज़ुरी, फ़तहुल-क़दीर लि-इब्ने-हुमाम)। नबी (सल्ल०) के इस अमल से यह बात साफ़ हो गई थी कि जीती हुई ज़मीनों का हुक्म, अगरचे वे लड़कर ही जीती गई हों, ग़नीमत का नहीं है, वरना कैसे मुमकिन था कि नबी (सल्ल०) मक्का को तो बिलकुल ही मक्कावालों के हवाले कर देते, और ख़ैबर में से पाँचवाँ हिस्सा निकालने के बजाय उसका पूरा आधा हिस्सा इजतिमाई ज़रूरतों के लिए बैतुल-माल के क़ब्जे में ले लेते। इसलिए सुन्नत से जो बात साबित थी वह यह कि 'अनवह' फ़तह होनेवाले देशों के मामले में वक़्त के इमाम (हाकिम) को इख़्तियार है कि हालात के लिहाज़ से उनके बारे में जो फ़ैसला भी सबसे मुनासिब हो करे। वह उनको बाँट भी सकता है और अगर कोई ग़ैर-मामूली हालत किसी इलाक़े की हो, जैसा कि मक्का की थी, तो उसके रहनेवालों के साथ वह एहसान भी कर सकता है जो नबी (सल्ल०) ने मक्कावालों के साथ किया।
मगर नबी (सल्ल०) के ज़माने में चूँकि जीतें बहुत ज़्यादा न हुई थीं, और अलग-अलग तरह के जीते हुए देशों का अलग-अलग हुक्म खुलकर लोगों के सामने न आया था, इसलिए हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में जब बड़े-बड़े देश फ़तह हुए तो सहाबा किराम (रज़ि०) को इस उलझन का सामना हुआ कि तलवार के ज़ोर पर फ़तह होनेवाले इलाक़े ग़नीमत हैं या फ़य। मिस्र की फ़तह के बाद हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने माँग की कि “इस पूरे इलाक़े को उसी तरह बाँट दीजिए जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ैबर को बाँटा था,” (अबू-उबैद)। शाम (सीरिया) और इराक़ के जीते हुए इलाक़ों के बारे में हज़रत बिलाल (रज़ि०) ने इस माँग पर ज़ोर दिया कि “तमाम ज़मीनों को जीत हासिल करनेवाली फ़ौजों के दरमियान उसी तरह बाँट दीजिए जिस तरह माले-ग़नीमत बाँटा जाता है,” (किताबुल-ख़राज, अबू-यूसुफ़)। दूसरी तरफ़ हज़रत अली (रज़ि०) की राय यह थी कि “इन ज़मीनों को उनके किसानों के पास रहने दीजिए, ताकि ये मुसलमानों के लिए आमदनी का ज़रिआ बने रहें,” (अबू-यूसुफ़, अबू-उबैद)। इसी तरह हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०) की राय यह थी कि “अगर आपने बाँटा तो इसके नतीजे बहुत बुरे होंगे। इस बँटवारे की बदौलत बड़ी-बड़ी जायदादें उन कुछ लोगों के क़ब्जे में चली जाएँगी जिन्होंने ये इलाक़े फ़त्ह किए हैं। फिर ये लोग दुनिया से विदा हो जाएँगे और इनकी जायदादें उनके वारिसों के पास रह जाएँगी, जिनमें कभी कोई एक ही औरत होगी या कोई एक मर्द होगा, लेकिन आनेवाली नस्लों के लिए कुछ न रहेगा, जिससे उनकी ज़रूरतें पूरी हों और इस्लामी सरहदों की हिफ़ाज़त के ख़र्चे भी पूरे किए जा सकें। लिहाज़ा आप ऐसा बन्दोबस्त करें जिसमें मौज़ूदा और आनेवाली नस्लों के फ़ायदों की बराबर हिफ़ाज़त हो।”(अबू-उबैद, पे० 59, फ़तहुल-बारी, हिस्सा-6, पे० 138)। हज़रत उमर (रज़ि०) ने हिसाब लगाकर देखा कि अगर इराक़ के आसपास के इलाक़ों को बाँटा जाए तो एक आदमी के हिस्से में क्या आएगा। मालूम हुआ कि दो-तीन किसान एक आदमी के हिस्से में आते हैं, (अबू-यूसुफ़, अबू-उबैद)। इसके बाद उन्होंने दिल के पूरे इत्मीनान के साथ यह राय क़ायम कर ली कि इन इलाक़ों को बाँटा न जाना चाहिए। चुनाँचे उन्होंने बाँटे जाने की माँग करनेवाले अलग-अलग सहाबा को जो जवाब दिए वे ये थे—
“क्या आप चाहते हैं कि बाद के लोग इस हालत में आएँ कि उनके लिए कुछ न हो?" (अबू-उबैद)
“उन मुसलमानों का क्या बनेगा जो बाद में आएँगे और हालत यह पाएँगे कि ज़मीन अपने किसानों सहित बँट चुकी है और बाप-दादा से लोगों ने विरासत में सम्भाल ली है? यह हरगिज़ मुनासिब नहीं है।” (अबू-यूसुफ़)
"तुम्हारे बाद आनेवाले मुसलमानों के लिए क्या रहेगा? और मुझे ख़तरा है कि अगर मैं इसे बाँट दूँ तो तुम पानी पर आपस में लड़ोगे।” (अबू-उबैद)
"अगर बाद में आनेवालों का ख़याल न होता तो जो इलाक़ा भी मैं फ़तह करता उसे बाँट देता जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ैबर को बाँट दिया।” (हदीस : बुख़ारी, मुवत्ता, अबू-उबैद)
"नहीं, यह तो ग़ैर-मनक़ूला (अचल सम्पत्ति, Real estate) है। मैं इसे रोक रखूँगा ताकि फ़तह हासिल करनेवाली फ़ौजों और आम मुसलमानों, सबकी ज़रूरतें इससे पूरी होती रहें।" (अबू-उबैद)
लेकिन इन जवाबों से लोग मुत्मइन न हुए और उन्होंने कहना शुरू किया कि आप ज़ुल्म कर रहे हैं। आख़िरकार हज़रत उमर (रज़ि०) ने मजलिसे-शूरा (सलाहकार समिति) का इजलास बुलाया और उनके सामने यह मामला रखा। इस मौक़े पर जो तक़रीर उन्होंने की उसके कुछ जुमले ये हैं—
"मैंने आप लोगों को सिर्फ़ इसलिए तकलीफ़ दी है कि आप उस अमानत के उठाने में मेरे साथ शरीक हों जिसकी ज़िम्मेदारी आपके मामलों को चलाने के लिए मेरे ऊपर रखी गई है। मैं आप ही लोगों में से एक आदमी हूँ, और आप वे लोग हैं जो आज हक़ का इक़रार करनेवाले हैं। आपमें से जो चाहे मेरी राय से इत्तिफ़ाक़ करे और जो चाहे इख़्तिलाफ़ करे। मैं यह नहीं चाहता कि आप मेरी ख़ाहिश की पैरवी करें। आपके पास अल्लाह की किताब है जो बिलकुल हक़ कहती है। ख़ुदा की क़सम! मैंने अगर कोई बात कही है जिसे मैं करना चाहता हूँ तो इससे मेरा मक़सद हक़ के सिवा कुछ नहीं है ...... आप उन लोगों की बात सुन चुके हैं जिनका ख़याल यह है कि मैं उनके साथ ज़ुल्म कर रहा हूँ और उनका हक़ मारना चाहता हूँ। हालाँकि मैं इससे ख़ुदा की पनाह माँगता हूँ कि कोई ज़ुल्म करूँ। मैं बड़ा संगदिल होऊँगा अगर ज़ुल्म करके कोई ऐसी चीज़ जो हक़ीक़त में उनकी हो, उन्हें न दूँ और किसी दूसरे को दे दूँ। मगर मैं यह देख रहा हूँ कि किसरा की सरज़मीन के बाद अब कोई और इलाक़ा फ़तह होनेवाला नहीं है। अल्लाह तआला ने ईरानियों के माल और उनकी ज़मीनें और उनके किसान, सब हमारे क़ब्ज़े में दे दिए हैं। हमारी फ़ौजों ने ग़नीमतों के जो माल हासिल किए थे वे तो मैं ख़ुमुस (पाँचवाँ हिस्सा) निकालकर उनमें बाँट चुका हूँ, और अभी जो ग़नीमतों के माल तक़सीम नहीं हुए हैं, मैं उनको बाँटने की फ़िक्र में लगा हुआ हूँ। अलबत्ता ज़मीनों के बारे में मेरी राय यह है कि उन्हें और उनके किसानों को न बाँटूँ, बल्कि उनपर ख़िराज (टैक्स) और किसानों पर जिज़्या लगा दूँ, जिसे वे हमेशा अदा करते रहें और यह इस वक़्त के आम मुसलमानों और लड़नेवाली फ़ौजों और मुसलमानों के बच्चों के लिए और बाद की आनेवाली नस्लों के लिए फ़य हो। क्या आप लोग नहीं देखते कि हमारी इन सरहदों के लिए लाज़िमी तौर से ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो इनकी हिफ़ाज़त करते रहें? क्या आप नहीं देखते कि ये बड़े-बड़े देश, शाम (सीरिया), अल-जज़ीरा, कूफ़ा, बसरा, मिस्र, इन सबमें फ़ौजें रहनी चाहिएँ और उनको पाबन्दी से तनख़ाहें मिलनी चाहिएँ? अगर मैं इन ज़मीनों को इनके किसानों समेत बाँट दूँ तो ये ख़र्चे कहाँ से आएँगे?"
यह बहस दो-तीन दिन चलती रही। हज़रत उसमान (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत तलहा (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) वग़ैरा ने हज़रत उमर (रज़ि०) की राय से इत्तिफ़ाक़ किया, लेकिन फ़ैसला न हो सका। आख़िरकार हज़रत उमर (रज़ि०) उठे और उन्होंने फ़रमाया कि मुझे अल्लाह की किताब से एक दलील मिल गई है जो इस मसले का फ़ैसला कर देनेवाली है। इसके बाद उन्होंने सूरा-59 हश्र की यही आयतें ‘मा अफ़ाअल्लाहु अला रसूलिही मिनहुम' से लेकर 'रब्बना इन-न-क रऊफ़ुर्रहीम' तक पढ़ीं और उनसे यह दलील ली कि अल्लाह की दी हुई इन जायदादों में सिर्फ़ इस ज़माने के लोगों का ही हिस्सा नहीं है, बल्कि बाद के आनेवालों को भी अल्लाह ने उनके साथ शरीक किया है, फिर यह कैसे सही हो सकता है कि इस फ़य को जो सबके लिए है, हम इन जीतनेवालों में बाँट दें और बादवालों के लिए कुछ न छोड़ें। इसके अलावा अल्लाह तआला फ़रमाता है कि “ताकि यह माल तुम्हारे मालदारों ही में चक्कर न लगाता रहे।” लेकिन अगर मैं इसे जीतनेवालों में बाँट दूँ तो यह तुम्हारे मालदारों ही में चक्कर लगाता रहेगा और दूसरों के लिए कुछ न बचेगा। यह दलील थी जिसने सबको मुत्मइन कर दिया और इस बात पर सब एक राय हो गए कि उन तमाम जीते हुए इलाक़ों को आम मुसलमानों के लिए फ़य क़रार दिया जाए, जो लोग उन ज़मीनों पर काम कर रहे हैं उन ही के हाथों में उन्हें रहने दिया जाए और उनपर ख़िराज (टैक्स) और जिज़्या लगा दिया जाए। (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़, पे० 23 से 27 और 35, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)
इस फ़ैसले के मुताबिक़ जीती हुई ज़मीनों की अस्ल हैसियत यह क़रार पाई कि कुल मिलाकर पूरी मुस्लिम मिल्लत (समुदाय) उनकी मालिक है, जो लोग पहले से इन ज़मीनों पर काम कर रहे थे उनको मिल्लत ने अपनी तरफ़ से किसान के तौर पर बरक़रार रखा है, वे इन ज़मीनों पर इस्लामी हुकूमत को एक मुक़र्रर लगान अदा करते रहेंगे, नस्ल-दर-नस्ल खेती के ये हक़ और इख़्तियार उनकी विरासत में मुन्तक़िल (स्थानान्तरित) होते रहेंगे और वे उन हक़ों को न बेच भी सकेंगे, मगर ज़मीन के अस्ल मालिक वे न होंगे, बल्कि मुस्लिम मिल्लत उनकी मालिक होगी। इमाम अबू-उबैद (रह०) ने अपनी किताब किताबुल-अमवाल में इस क़ानूनी हैसियत को इस तरह बयान किया है—
“हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़ के इलाक़े के लोगों को उनकी ज़मीन पर बरक़रार रखा, और उनके लोगों पर जिज़्या और उनकी ज़मीनों पर टैक्स लगा दिया।” (पे०-57)
"इमाम (यानी इस्लामी हुकूमत का हाकिम) जब जीते हुए देशों के लोगों को उनकी ज़मीनों पर बरक़रार रखे तो वे उन ज़मीनों को विरासत में भी मुन्तक़िल कर सकेंगे और बेच भी सकेंगे।” (पे०-84)
उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) के ज़माने में शअबी (रह०) से पूछा गया कि क्या इराक़ के इलाक़े के लोगों से कोई समझौता है? उन्होंने जवाब दिया कि समझौता तो नहीं है, मगर जब उनसे ख़िराज लेना क़ुबूल कर लिया गया तो यह उनके साथ समझौता हो गया। (अबू-उबैद, पे०-49, अबू-यूसुफ़, पे०-28)
हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में उतबा-बिन-फ़र्क़द ने फ़ुरात के किनारे एक ज़मीन ख़रीदी। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनसे पूछा, “तुमने यह ज़मीन किससे ख़रीदी है?” उन्होंने कहा, “इसके मालिकों से।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “इसके मालिक तो ये लोग हैं (यानी मुहाजिरीन और अनसार)।” उमर (रज़ि०) की राय यह थी कि इन ज़मीनों के अस्ल मालिक मुसलमान हैं। (अबू-उबैद, पे०-74)
इस फ़ैसले के मुताबिक़ जीते गए देशों के जो माल मुसलमानों की इजतिमाई मिलकियत क़रार दिए गए वे ये थे—
(1) वे ज़मीनें और इलाक़े जो किसी सुलह (सन्धि) के नतीजे में इस्लामी हुकूमत के क़ब्ज़े में आएँ
(2) वह फ़िदया या ख़िराज (टैक्स) या जिज़्या जो किसी इलाक़े के लोगों ने जंग के बिना ही मुसलमानों से पनाह हासिल करने के लिए अदा करना क़ुबूल किया हो
(3) वे ज़मीनें और जायदादें जिनके मालिक उन्हें छोड़कर भाग गए
(4) वे जायदादें जिनके मालिक मारे गए और कोई मालिक बाक़ी न रहा
(5) वे ज़मीनें जो पहले से किसी के क़ब्ज़े में न थीं
(6) वे ज़मीनें जो पहले से लोगों के क़ब्ज़े में थीं, मगर उनके पिछले मालिकों को बरक़रार रखकर उनपर जिज़्या और ख़िराज लागू कर दिया गया
(7) पहले हुकूमत कर चुके ख़ानदानों की जागीरें
(8) पिछली हुकूमतों की मिलकियतें
(तफ़सीलात के लिए देखिए बदाइउस-सनाइ, हिस्सा-7, पे० 116, 118; किताबुल-ख़राज, यह्या बिन-आदम, पे० 22, 64; मुग़निल-मुहताज, हिस्सा-8, पे० 93; हाशियतुद-दुसूकी अलश-शरहिल- कबीर, हिस्सा-2, पे० 190; ग़ायतुल-मुन्तहा, हिस्सा-1, पे० 167, 471)।
ये चीज़ें चूँकि सहाबा किराम (रज़ि०) की ताईद से फ़य ठहराई गई थीं, इसलिए इस्लाम के फ़क़ीहों के दरमियान भी इनके फ़य क़रार दिए जाने पर उसूली तौर पर एक राय पाई जाती है। अलबत्ता इख़्तिलाफ़ कुछ बातों में है, जिन्हें हम मुख़्तसर तौर पर नीचे बयान करते हैं—
हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि जीते गए देशों की ज़मीनों के मामले में इस्लामी हुकूमत (फ़क़ीहों की ज़बान में इमाम) को इख़्तियार है, चाहे तो उनमें से ख़ुमुस (पाँचवाँ हिस्सा) लेकर बाक़ी जीतनेवाली फ़ौज में बाँट दे, और चाहे तो उनको पिछले मालिकों के क़ब्ज़े में रहने दे और उनके मालिकों पर जिज़्या और ज़मीनों पर टैक्स लगा दे। इस सूरत में यह हमेशा-हमेशा के लिए मुसलमानों के लिए वक़्फ़ क़रार पाएँगी, (बदाइउस-सनाइ, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, शरहुल-इनाया अलल-हिदाया, फ़तहुल-क़दीर)। यही राय अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रह०) ने इमाम सुफ़ियान सौरी (रह०) से भी नक़्ल की है। (यह्या-बिन-आदम, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)
मालिकी मसलक के आलिम कहते हैं कि मुसलमानों के सिर्फ़ जीत हासिल कर लेने ही से ये ज़मीनें ख़ुद-ब-ख़ुद मुसलमानों के लिए वक़्फ़ हो जाती हैं। उनको वक़्फ़ करने के लिए न इमाम के फ़ैसले की ज़रूरत है और न मुजाहिदीन को राज़ी करने की। इसके अलावा मालिकी आलिमों के यहाँ मशहूर राय यह है कि सिर्फ़ ज़मीनें ही नहीं, जीते हुए इलाक़ों के मकान और इमारतें भी हक़ीक़त में मुसलमानों के लिए वक़्फ़ हैं, अलबत्ता इस्लामी हुकूमत उनपर किराया लागू नहीं करेगी। (हाशियतुद-दुसूक़ी)
हंबली मसलक के आलिम इस हद तक हनफ़ी आलिमों से इत्तिफ़ाक़ करते हैं कि ज़मीनों को जंग जीतनेवालों में बाँटना, या मुसलमानों पर वक़्फ़ कर देना इमाम के बस में है। और इस मामले में मालिकी आलिमों से इत्तिफ़ाक़ करते हैं कि जीते हुए देशों के मकान भी अगरचे वक़्फ़ में शामिल होंगे, मगर उनपर किराया न लगाया जाएगा। (ग़ायातुल-मुन्तहा, इसमें हंबली मसलक के मुताबिक़ दिए गए फ़तवे जमा किए गए हैं और दसवीं सदी ई० से इस मसलक में फ़तवा इसी किताब के मुताबिक़ दिया जाता है)
शाफ़िई आलिमों की राय यह है कि इलाक़े के तमाम मनक़ूला माल (चल-सम्पत्ति) ग़नीमत हैं, और तमाम ग़ैर-मनक़ूला माल (ज़मीनें और मकान) को फ़य क़रार दिया जाएगा। (मुग़निल-मुहताज)
कुछ फ़क़ीह कहते हैं कि 'अनवह' फ़तह होनेवाले देशों की ज़मीनों को अगर इमाम मुसलमानों के लिए वक़्फ़ करना चाहे तो लाज़िम है कि वह पहले जीतनेवाली फ़ौजों की रज़ामन्दी हासिल करे। इसके लिए वे दलील यह पेश करते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़ के इलाक़े की फ़तह से पहले जरीर-बिन-अब्दुल्लाह अल-बजली (रज़ि०) से, जिनके क़बीले के लोग क़ादिसिया की जंग में शरीक होनेवाली फ़ौज का चौथाई हिस्सा थे, यह वादा किया था कि जीते हुए इलाक़े का चौथाई हिस्सा उनको दिया जाएगा। चुनाँचे दो-तीन साल तक यह हिस्सा उनके पास रहा। फिर हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनसे फ़रमाया कि “अगर मैं बँटवारे के मामले में ज़िम्मेदार और जवाबदेह न होता तो जो कुछ तुम्हें दिया जा चुका है वह तुम्हारे पास ही रहने दिया जाता। लेकिन अब मैं देखता हूँ कि लोगों की तादाद बढ़ गई है, इसलिए मेरी राय यह है कि तुम इसे आम लोगों को वापस कर दो।” हज़रत जरीर (रज़ि०) ने इस बात को क़ुबूल कर लिया और हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनको इसपर अस्सी (80) दीनार बतौर इनाम दिए (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़; किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)। इससे वे यह दलील लेते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने जीतनेवालों को राज़ी करने के बाद जीते हुए इलाक़ों को मुसलमानों के लिए वक़्फ़ क़रार देने का फ़ैसला किया था। लेकिन ज़्यादातर फ़क़ीहों ने इस दलील को नहीं माना है। क्योंकि तमाम जीते गए देशों के मामले में तमाम जीतनेवालों से इस तरह की कोई रज़ामन्दी नहीं ली गई थी, और सिर्फ़ हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह के साथ यह मामला सिर्फ़ इसलिए किया गया था कि फ़तह से पहले, इससे पहले कि जीती गई ज़मीनों के बारे में सबकी राय से कोई फ़ैसला होता, हज़रत उमर (रज़ि०) उनसे एक वादा कर चुके थे, इसलिए वादे की पाबन्दी से आज़ादी हासिल करने के लिए उनको उन्हें राज़ी करना पड़ा। उसे कोई आम क़ानून क़रार नहीं दिया जा सकता।
फ़क़ीहों का एक और गरोह कहता है कि वक़्फ़ क़रार दे देने के बाद भी हुकूमत को यह इख़्तियार बाक़ी रहता है कि किसी वक़्त उन ज़मीनों को फिर से जीतनेवालों में बाँट दे। इसके लिए वे इस रिवायत से दलील लेते हैं कि एक बार हज़रत अली (रज़ि०) ने लोगों को मुख़ातब करके फ़रमाया, “अगर यह अन्देशा न होता कि तुम एक-दूसरे से लड़ोगे तो मैं जीता हुआ इलाक़ा तुम्हारे दरमियान बाँट देता,” (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)। लेकिन ज़्यादातर फ़क़ीहों ने इस राय को भी क़ुबूल नहीं किया है और वे इसपर एक राय हैं कि जब एक बार जीते गए इलाक़े के लोगों पर जिज़्या और ख़िराज लागू करके उन्हें उनकी ज़मीनों पर बरक़रार रखने का फ़ैसला कर दिया गया हो तो उसके बाद कभी यह फ़ैसला बदला नहीं जा सकता। रही वह बात जो हज़रत अली (रज़ि०) की तरफ़ जोड़ी जाती है, तो उसपर अबू-बक्र जस्सास (रह०) ने अहकामुल-क़ुरआन में तफ़सीली बहस करके यह साबित किया है कि यह रिवायत सही नहीं है।
21. इस आयत में अगरचे अस्ल मक़सद सिर्फ़ यह बताना है कि फ़य के बँटवारे में हाज़िर और मौजूद लोगों का ही नहीं, बाद में आनेवाले मुसलमानों और उनकी आनेवाली नस्लों का हिस्सा भी है, लेकिन साथ-साथ इसमें एक अहम अख़लाक़ी नसीहत भी मुसलमानों को दी गई है, और वह यह है कि किसी मुसलमान के दिल में किसी दूसरे मुसलमान के लिए कपट न होना चाहिए, और मुसलमानों के लिए सही रवैया यह है कि वे अपने बुज़ुर्गों के हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करते रहें, न यह कि वे उनपर लानत भेजें और बुरा-भला कहें। मुसलमानों को जिस रिश्ते ने एक-दूसरे के साथ जोड़ा है वह अस्ल में ईमान का रिश्ता है। अगर किसी शख़्स के दिल में ईमान की अहमियत दूसरी तमाम चीज़ों से बढ़कर हो तो ज़रूर वह उन सब लोगों का भला चाहेगा जो ईमान के रिश्ते से उसके भाई हैं। उनके लिए बुरा चाहने का जज़बा और कपट और नफ़रत उसके दिल में उसी वक़्त जगह पा सकती है जबकि ईमान की क़द्र उसकी निगाह में घट जाए और किसी दूसरी चीज़ को वह उससे ज़्यादा अहमियत देने लगे। लिहाज़ा यह ठीक ईमान का तक़ाज़ा है कि एक मोमिन का दिल किसी दूसरे मोमिन के ख़िलाफ़ नफ़रत और कपट से ख़ाली हो। इस मामले में बेहतरीन सबक़ एक हदीस से मिलता है जो नसई ने हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत की है। उनका बयान है कि एक बार तीन दिन लगातार यह होता रहा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपनी मजलिस में यह फ़रमाते कि अब तुम्हारे सामने एक ऐसा शख़्स आनेवाला है जो जन्नतवालों में से है, और हर बार वह आनेवाले शख़्स अनसार में से एक साहब ही होते। यह देखकर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) को जुस्तजू (जिज्ञासा) पैदा हुई कि आख़िर यह क्या ऐसा अमल करते हैं जिसकी वजह से नबी (सल्ल०) ने इनके बारे में बार-बार यह ख़ुशख़बरी सुनाई है। चुनाँचे वे एक बहाना करके तीन दिन लगातार उनके यहाँ जाकर रात गुजारते रहे, ताकि उनकी इबादत का हाल देखें। मगर उनके रात गुज़ारने में कोई ग़ैर-मामूली चीज़ उन्हें नज़र न आई। आख़िरकार उन्होंने ख़ुद ही पूछ लिया कि भाई! आप क्या अमल ऐसा करते हैं जिसकी वजह से हमने नबी (सल्ल०) से आपके बारे में यह बड़ी ख़ुशख़बरी सुनी है? उन्होंने कहा, “मेरी इबादत का हाल तो आप देख ही चुके हैं। अलबत्ता एक बात है जो शायद इसका सबब बनी हो, और वह यह है कि मैं अपने दिल में किसी मुसलमान के ख़िलाफ़ कपट नहीं रखता और न किसी ऐसी भलाई पर जो अल्लाह ने उसे दी हो, उससे हसद (जलन) रखता हूँ।"
इसका यह मतलब नहीं है कि कोई मुसलमान अगर किसी दूसरे मुसलमान की बात में या अमल में कोई ग़लती पाता हो तो वह उसे ग़लत न कहे। ईमान का तक़ाज़ा यह हरगिज़ नहीं है कि मोमिन ग़लती भी करे तो उसको सही कहा जाए, या उसकी ग़लत बात को ग़लत न कहा जाए। लेकिन किसी चीज़ को दलील के साथ ग़लत कहना और अदब व सलीक़े के साथ उसे बयान कर देना और चीज़ है, और कपट और नफ़रत, बुराई करना और बुरा-भला कहना बिलकुल ही एक दूसरी चीज़। यह हरकत मौज़ूदा ज़माने के ज़िन्दा लोगों के बारे में की जाए तब भी एक बड़ी बुराई है, लेकिन मरे हुए बुज़ुर्गों के बारे में यह जुर्म करना तो और ज़्यादा बड़ी बुराई है, क्योंकि वह नफ़्स (मन) एक बहुत गन्दा नफ़्स होगा जो मरनेवालों को भी माफ़ करने के लिए तैयार न हो। और उन सबसे बढ़कर सख़्त बुराई यह है कि कोई आदमी उन लोगों के बारे में बुराई करे जिन्होंने इन्तिहाई सख़्त आज़माइशों के दौर में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दोस्ती का हक़ अदा किया था और अपनी जानें लड़ाकर दुनिया में इस्लाम का वह नूर फैलाया था जिसकी बदौलत आज हमें ईमान की नेमत मिली है। उनके दरमियान जो इख़्तिलाफ़ पैदा हुए उनमें अगर एक शख़्स किसी फ़रीक़ (पक्ष) को हक़ पर समझता हो और दूसरे फ़रीक़ की राय उसकी राय में सही न हो तो वह यह राय रख सकता है और उसे अदब के दायरे में बयान भी कर सकता है। मगर एक फ़रीक़ की हिमायत में ऐसा हद से आगे बढ़ जाना कि दूसरे फ़रीक़ के ख़िलाफ़ दिल बुग़्ज़ (कपट) और नफ़रत से गाँठ भर जाए और ज़बान और क़लम से बुराई निकलने लगे, एक ऐसी हरकत है जो ख़ुदा से कि डरनेवाला कोई इनसान नहीं कर सकता। क़ुरआन की साफ़ तालीम के ख़िलाफ़ यह हरकत जो लोग करते हैं वे आम तौर पर अपनी इस हरकत के लिए यह बहाना बनाते हैं कि क़ुरआन ईमानवालों के ख़िलाफ़ कपट रखने से मना करता है, और हम जिनके ख़िलाफ़ कपट रखते हैं वे मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ थे। लेकिन यह इलज़ाम उस गुनाह से भी ज़्यादा बुरा है जिसकी सफ़ाई में यह बहाने के तौर पर पेश किया जाता है। क़ुरआन मजीद की यही आयतें जिनके बयान के सिलसिले में अल्लाह तआला ने बाद के आनेवाले मुसलमानों को अपने से पहले गुज़रे हुए ईमानवालों से बुग़्ज़ (दिल में दुश्मनी) न रखने और उनके हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करने की तालीम दी है, उनके इस इलज़ाम को रद्द करने के लिए काफ़ी हैं। इन आयतों में एक के बाद एक तीन गरोहों को फ़य का हक़दार क़रार दिया गया है। एक मुहाजिरीन, दूसरे अनसार, तीसरे उनके बाद आनेवाले मुसलमान। और इन बाद के आनेवाले मुसलमानों से कहा गया है कि तुमसे पहले जिन लोगों ने ईमान लाने में तेज़ी दिखाई है उनके हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करो। ज़ाहिर है कि इस मौक़ा-महल के एतिबार से ईमान लाने में पहल करनेवालों से मुराद मुहाजिरीन और अनसार के सिवा और कोई नहीं हो सकता। फिर अल्लाह तआला ने इसी सूरा-59 हश्र की आयतें—11 से 17 में यह भी बता दिया है कि मुनाफ़िक कौन लोग थे। इससे यह बात बिलकुल ही खुल जाती है कि मुनाफ़िक वे थे जिन्होंने बनी-नज़ीर की जंग के मौक़े पर यहूदियों की पीठ ठोंकी थी, और उनके मुक़ाबले में ईमानवाले वे थे जो इस जंग में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ शामिल थे। इसके बाद क्या एक मुसलमान, जो ख़ुदा का कुछ भी डर दिल में रखता हो, यह हिम्मत कर सकता है कि उन लोगों के ईमान का इनकार करे जिनके ईमान की गवाही अल्लाह तआला ने ख़ुद दी है?
इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) ने इस आयत से दलील लेते हुए यह राय ज़ाहिर की है कि फ़य में उन लोगों का कोई हिस्सा नहीं है जो सहाबा किराम (रज़ि०) को बुरा कहते हैं, (अहकामुल-क़ुरआन लि-इब्ने-अरबी, ग़ायतुल-मुन्तहा)। लेकिन हनफ़ी और शाफ़िई आलिमों ने इस राय को तसलीम नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि अल्लाह तआला ने तीन गरोहों को फ़य में हिस्सेदार क़रार देते हुए हर एक की एक नुमायाँ ख़ूबी की तारीफ़ की है, मगर उनमें से कोई तारीफ़ भी बतौर शर्त नहीं है कि वह शर्त उस गरोह में पाई जाती हो तो उसे हिस्सा दिया जाए वरना नहीं। मुहाजिरों के बारे में फ़रमाया कि “वे अल्लाह की मेहरबानी और उसकी ख़ुशनूदी चाहते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की हिमायत के लिए कमर कसे रहते हैं।” इसका यह मतलब नहीं है कि जिस मुहाजिर में यह सिफ़त न पाई जाए वह फ़य में से हिस्सा पाने का हक़दार नहीं है। अनसार के बारे में फ़रमाया कि “वे मुहाजिरों से मुहब्बत करते हैं और जो कुछ भी उनको दे दिया जाए उसके लिए अपने दिलों में कोई तलब नहीं पाते, चाहे वे ख़ुद तंगदस्त हों।” इसका भी यह मतलब नहीं है कि फ़य में किसी ऐसे अनसारी का कोई हक़ नहीं जो मुहाजिरों से मुहब्बत न रखता हो और जो कुछ उनको दिया जा रहा हो उसे ख़ुद हासिल करने का ख़ाहिशमन्द हो। लिहाज़ा तीसरे गरोह की यह ख़ूबी कि “अपने से पहले ईमान लानेवालों के लिए वह मग़फ़िरत की दुआ करता है और अल्लाह से दुआ माँगता है कि किसी ईमानवाले के लिए उसके दिल में बुग़्ज़ (दुश्मनी व नफ़रत) न हो,” यह भी फ़य में हक़दार होने की शर्त नहीं है, बल्कि एक अच्छी ख़ूबी की तारीफ़ और इस बात की नसीहत है कि ईमानवालों का रवैया दूसरे ईमानवालों के साथ और अपने से पहले गुज़रे हुए ईमानवालों के मामले में क्या होना चाहिए।