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سُورَةُ الحَشۡرِ

59. अल-हश्र

(मक्का में उतरी, आयतें 24)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के वाक्यांश 'अख़-र-जल्लज़ी-न क-फ़-रू मिन अहलिल किताबि मिन दियारिहिम लिअव्वलिल हश्र' अर्थात् 'अहले-किताब काफ़िरों को पहले ही हल्ले (हश्र) में उनके घरों से निकाल बाहर किया' से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'अल- हश्र' शब्द आया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) [फ़रमाते हैं कि सूरा हश्र] बनी-नज़ीर के अभियान के बारे में उतरी थी जिस तरह सूरा-8 (अन्‌फ़ाल) बद्र के युद्ध के विषय में उतरी थी। [(हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) विश्वस्त उल्लेखों के अनुसार इस अभियान का समय रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० है।]

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इस सूरा की वार्ताओं को अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि मदीना तय्यिबा और हिजाज़ के यहूदियों के इतिहास पर एक दृष्टि डाली जाए, क्योंकि इसके बिना आदमी ठीक-ठीक यह नहीं जान सकता कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अन्ततः उनके विभिन्न क़बीलों के साथ जो मामला किया, उसके वास्तविक कारण क्या थे। [यह इतिहास पहली सदी ईसवी के अन्त से शुरू होता है,] जब सन् 70 ई० में रूमियों (रोमवासियों) ने फ़िलस्तीन में यहूदियों का क़त्ले-आम किया और फिर सन् 132 ई० में उन्हें इस भू-भाग से बिल्कुल निकाल बाहर किया। उस समय बहुत-से यहूदी क़बीलों ने भागकर हिजाज़ में शरण ली थी, क्योंकि यह क्षेत्र फ़िलस्तीन के दक्षिण से बिल्कुल मिला हुआ था। यहाँ आकर उन्होंने जहाँ-जहाँ पानी के स्रोत और हरे-भरे स्थान देखे, वहाँ ठहर गए और फिर धीरे-धीरे अपने जोड़-तोड़ और सूदी (ब्याज के) कारोबारों के ज़रिए उनपर क़ब्ज़ा जमा लिया। ऐला, मक़ना, तबूक, तैमा, वादिउल-क़ुरा, फ़दक और ख़ैबर पर उनका क़ब्ज़ा उसी समय में क़ायम हुआ और बनी-क़ुरैज़ा, बनी-नज़ीर, बनी-बहदल और बनी-कैनुक़ाअ ने भी उसी समय आकर यसरिब (मदीना का पुराना नाम) पर क़ब्ज़ी जमाया। यसरिब में आबाद होनेवाले क़बीलों में से बनी-नज़ीर और बनी-क़ुरेज़ा अधिक प्रसिद्ध और प्रभुत्वशाली थे, क्योंकि उनका सम्बन्ध काहिनों के वर्ग से था। उन्हें यहदियों में उच्च वंश का माना जाता था और उनको अपने संप्रदाय में धार्मिक नेतृत्व प्राप्त था। ये लोग जब मदीना में आकर आबाद हुए उस समय कुछ दूसरे अरब क़बीले यहाँ रहते थे, जिनको उन्होंने दबा लिया और व्यावहारिक रूप से इस हरी-भरी जगह के मालिक बन बैठे। इसके लगभग तीन शताब्दी के बाद औस और ख़ज़रज यसरिब में जाकर आबाद हुए [और उन्होंने कुछ दिनों बाद यहूदियों का ज़ोर तोड़कर यसरिब पर पूरा आधिपत्य प्राप्त कर लिया।] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने से पहले, हिजरत के आरंभ तक, हिजाज़ में सामान्य रूप से और यसरिब में विशेष रूप से यहूदियों की स्थिति की स्पष्ट रूप-रेखाएँ ये थीं—

भाषा, पहनावा, संस्कृति एवं सभ्यता, हर दृष्टि से उन्होंने पूरी तरह से अरब-संस्कृति का रंग अपना लिया था। उनके और अरबों के बीच शादी-ब्याह तक के सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे, लेकिन इन सारी बातों के बावजूद वे अरबों में समाहित बिल्कुल न हुए थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक अपने यहूदी पक्षपात को जीवित रखा था। उनमें अत्यन्त इसराईली पक्षपात और वंशगत गर्व और अहंकार पाया जाता था। अरबवालों को वे उम्मी (Gentiles) कहते थे जिसका अर्थ केवल अपढ़ ही नहीं बल्कि असभ्य और उज्जड होता था। उनकी धारणा यह थी कि इन 'उम्मियों' को वे मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं हैं जो इसराईलियों के लिए हैं और उनका माल हर वैध या अवैध तरीक़े से मार खाना इसराईलियों के लिए वैध और विशुद्ध है। आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति अरब क़बीलों की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ थी। वे बहुत-सी ऐसी कलाएँ जानते थे जो अरबों में नहीं पाई जाती थीं और बाहर की दुनिया से उनके व्यावसायिक संबंध भी थे। वे अपने व्यापार में ख़ूब लाभ बटोरते थे, लेकिन उनका सबसे बड़ा कारोबार ब्याज लेने का था, जिसके जाल में उन्होंने अपने आसपास की अरब आबादियों को फाँस रखा था। मगर इसका स्वाभाविक परिणाम यह भी था कि अरबों में सामान्य रूप से उनके विरुद्ध एक गहरी घृणा पाई जाती थी। उनके व्यापारिक और आर्थिक हितों की अपेक्षा यह थी कि अरबों में किसी के मित्र बनकर किसी से न बिगाड़ें और न उनकी आपसी लड़ाइयों में भाग लें। इसके अलावा अपनी रक्षा के लिए उनके हर क़बीले ने किसी न किसी शक्तिशाली अरब क़बीले से प्रतिज्ञाबद्ध मैत्रीपूर्ण संबंध भी स्थापित [कर रखे थे।] यसरिब में बनी-क़ुरैज़ा और बनी-नज़ीर औस के प्रतिज्ञाबद्ध मित्र थे और बनी-क़ैनुक़ाअ ख़ज़रज के। ये परिस्थितियाँ थीं जब मदीना में इस्लाम पहुँचा और अन्ततः अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के तशरीफ़ लाने के बाद वहाँ एक इस्लामी राज्य अस्तित्व में आया। आप (सल्ल०) ने इस राज्य को स्थापित करते ही सबसे पहले जो काम किए उनमें से एक यह था कि औस और ख़ज़रज और मुहाजिरों को मिलाकर एक बिरादरी बनाई, और दूसरा यह था कि इस मुस्लिम समाज और यहूदियों के मध्य स्पष्ट शर्तों पर एक समझौता तय किया, जिसमें इस बात की ज़मानत दी गई थी कि कोई किसी के अधिकारों पर हाथ न डालेगा और बाहरी शत्रुओं के मुक़ाबले में ये सब मिलकर बचाव करेंगे। इस समझौते के कुछ महत्त्वपूर्ण अंश ये हैं—

''.....यह कि यहूदी अपना ख़र्च उठाएँगे और मुसलमान अपना ख़र्च, और यह कि इस समझौते में शरीक लोग हमलावर के मुक़ाबले में एक-दूसरे की मदद करने के पाबन्द होंगे, और यह कि वे शुद्ध हृदयता के साथ एक-दूसरे का हित चाहेंगे और उनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध यह होगा कि वे एक-दूसरे के साथ न्याय करेंगे। गुनाह और ज़्यादती नहीं करेंगे और यह कि कोई उसके साथ ज़्यादती न करेगा जिसके साथ उसकी प्रतिज्ञाबद्ध मैत्री है, और यह कि उत्पीड़ित की मदद की जाएगी, और यह कि जब तक लड़ाई रहे, यहूदी मुसलमानों के साथ मिलकर उसका ख़र्च उठाएँगे, और यह कि उस समझौते में शरीक लोगों के लिए यसरिब में किसी भी प्रकार का उपद्रव और बिगाड़ का कार्य वर्जित है, और यह कि इस समझौते में शरीक होनेवालों के दरमियान अगर कोई ऐसा विवाद या मतभेद पैदा हो जिससे फ़साद का ख़तरा हो तो उसका फ़ैसला अल्लाह के क़ानून के अनुसार रसूल मुहम्मद (सल्ल०) करेंगे....... और यह कि क़ुरैश और उसका समर्थन करनेवालों को शरण नहीं दी जाएगी, और यह कि यसरिब पर जो हमलावर हो उसके मुक़ाबले में समझौते में शरीक लोग एक-दूसरे की सहायता करेंगे......... । हर पक्ष अपनी तरफ़ के क्षेत्र की सुरक्षा का ज़िम्मेदार होगा।" (इब्‍ने-हिशाम, भाग 2, पृष्ठ 147-150)

यह एक निश्चित और स्पष्ट समझौता था जिसकी शर्ते यहूदियों ने स्वयं स्वीकार की थीं, लेकिन बहुत जल्द उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०), इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण नीति का प्रदर्शन शुरू कर दिया और उनकी दुश्मनी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई। उन्होंने नबी (सल्ल०) के विरोध को अपना जातीय लक्ष्य बना लिया। आप (सल्ल०) को पराजित करने के लिए कोई चाल, कोई उपाय और कोई हथकंडा इस्तेमाल करने में उनको कणभर भी संकोच न था। समझौते के विरुद्ध खुली-खुली शत्रुतापूर्ण नीति तो बद्र की लड़ाई से पहले ही वे अपना चुके थे, मगर जब बद्र में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों को क़ुरैश पर खुली विजय प्राप्त हुई तो वे तिलमिला उठे और उनकी दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। बनी-नज़ीर का सरदार काब-बिन-अशरफ़ चीख़ उठा कि "ख़ुदा की क़सम ! अगर मुहम्मद (सल्ल०) ने अरब के इन सम्मानित व्यक्तियों को क़त्ल कर दिया है तो ज़मीन का पेट हमारे लिए उसकी पीठ से अधिक अच्छा है।" फिर वह मक्का पहुँचा और बद्र में कुरैश के जो सरदार मारे गए थे, उनके बड़े भड़काऊ मर्सिये (शोक गीत) कहकर मक्कावालों को बदला लेने पर उकसाया। यहूदियों का पहला क़बीला जिसने सामूहिक रूप से बद्र की लड़ाई के बाद खुल्लम-खुल्ला अपना समझौता तोड़ दिया, बनी-क़ैनुक़ाअ था, जिसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने शव्वाल (और कुछ उल्लेखों के अनुसार ज़ी-क़ादा) सन् 02 हि० के अन्त में उनके महल्ले का घेराव कर दिया। केवल पन्द्रह दिन ही यह घेराव रहा कि उन्होंने हथियार डाल दिए [और अन्त में उन्हें] अपना सब माल-हथियार और उद्योग के उपकरण और यंत्र छोड़कर मदीना से निकल जाना पड़ा (इब्‍ने-साद, इब्‍ने-हिशाम, तारीख़े-तबरी)। इसके बाद जब शव्वाल 03 हि० में कुरैश के लोग बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए बड़ी तैयारियों के साथ मदीना पर चढ़ आए तो इन यहूदियों ने समझौते का पहला और खुला विरोध इस तरह किया कि मदीना की प्रतिरक्षा में आप (सल्ल०) के साथ शरीक न हुए, हालाँकि वे इसके पाबन्द थे। फिर जब उहुद की लड़ाई में मुसलमानों को भारी क्षति पहुँची तो उनका सहास और बढ़ गया। यहाँ तक कि बनी-नज़ीर ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए व्यवस्थित रूप से एक षड्‍यंत्र रचा जो ठीक समय पर असफल हो गया। [इन घटनाओं के बाद] अब उनके साथ किसी प्रकार की नर्मी का सवाल बाक़ी ही न रहा। नबी (सल्ल०) ने उनको अविलम्ब यह चेतावनी भेज दी कि तुमने जो ग़द्दारी करनी चाही थी, वह मुझे मालूम हो गई है, इसलिए दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाओ। इसके बाद अगर तुम यहाँ ठहरे रहे तो जो व्यक्ति भी तुम्हारी आबादी में पाया जाएगा, उसकी गर्दन मार दी जाएगी। [अब्दुल्लाह-बिन-उबई के] झूठे भरोसे पर उन्होंने नबी (सल्ल०) की चेतावनी का यह उत्तर दिया कि "हम यहाँ से नहीं निकलेंगे, आपसे जो हो सके, कर लीजिए।" इसपर रबीउल-अव्वल सन् 04 हि० में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनका घेराव कर लिया और सिर्फ़ कुछ ही दिनों के घेराव के बाद वे इस शर्त पर मदीना छोड़ देने के लिए राज़ी हो गए कि हथियार के सिवा जो कुछ भी वे अपने ऊँटों पर लाद कर ले जा सकेंगे, ले जाएंँगे। इस तरह यहूदियों के इस दूसरे दुष्ट क़बीले से मदीना की धरती ख़ाली करा ली गई। उनमें से सिर्फ़ दो आदमी मुसलमान होकर यहाँ ठहर गए। शेष शाम (सीरिया) और ख़ैबर की ओर निकल गए। यही घटना है जिसकी इस सूरा में विवेचना की गई है।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय, जैसा कि ऊपर बयान हुआ, बनी-नज़ीर के अभियान (युद्ध) की समीक्षा है। इसमें सामूहिक रूप से चार विषय बयान किए गए हैं—

  1. पहली चार आयतों में दुनिया को उस अंजाम से शिक्षा दिलाई गई है जो अभी-अभी बनी-नज़ीर ने देखा था। अल्लाह ने बताया है कि [बनी नज़ीर का यह देश निकाला स्वीकार कर लेना] मुसलमानों को शक्ति का चमत्कार नहीं था, बल्कि इस बात का परिणाम था कि वे अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) से लड़ गए थे, और जो लोग अल्लाह की ताक़त से टकराने की दुस्साहस करें, वे ऐसे ही परिणामों से दोचार होते हैं।
  2. आयत 5 में युद्ध के क़ानून का यह नियम बताया गया है कि युद्ध-सम्बन्धी ज़रूरतों के लिए दुश्मन के क्षेत्रों में जो ध्वंसात्मक कार्रवाई की जाए उसे धरती में फ़साद फैलाने का नाम नहीं दिया जाता।
  3. आयत 6 से 10 तक यह बताया गया है कि उन देशों की ज़मीनों और जायदादों का बन्दोबस्त किस तरह किया जाए जो लड़ाई या समझौते के नतीजे में इस्लामी राज्य के अधीन हो जाएँ।
  4. आयत 11 से 17 तक मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के उस रवैये की समीक्षा की गई है जो उन्होंने बनी-नज़ीर की लड़ाई के मौक़े पर अपनाई थी।
  5. आयत 18 से सूरा के अन्त तक पूरे का पूरा एक उपदेश है जिसका सम्बोधन उन तमाम लोगों से है जो ईमान का दावा करके मुसलमानों के गरोह में सम्मिलित हो गए हों, मगर ईमान के वास्तविक भाव से वंचित रहें। इसमें उनको बताया गया है कि वास्तव में ईमान का तक़ाज़ा क्या है।

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سُورَةُ الحَشۡرِ
59. अल-हश्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहा फ़रमानेवाला है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह ही की तसबीह की है हर उस चीज ने जो आसमानी और ज़मीन में है, और वही ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) और हिकमतवाला है।1
1. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, हाशिए—1, 2। बनी-नज़ीर के निकाले जाने पर तबसिरा (समीक्षा) शुरु करने से पहले यह शुरुआती जुमला कहने का मक़सद ज़ेहन को यह हक़ीक़कत समझने के लिए तैयार करना है कि इस ताक़तवर यहूदी क़बीले के साथ जो मामला पेश आया यह मुसलमानों की ताक़त का नहीं, बल्कि अल्लाह की क़ुदरत का करिश्मा था।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَخۡرَجَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن دِيَٰرِهِمۡ لِأَوَّلِ ٱلۡحَشۡرِۚ مَا ظَنَنتُمۡ أَن يَخۡرُجُواْۖ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمۡ حُصُونُهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَأَتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِنۡ حَيۡثُ لَمۡ يَحۡتَسِبُواْۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَۚ يُخۡرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيۡدِيهِمۡ وَأَيۡدِي ٱلۡمُؤۡمِنِينَ فَٱعۡتَبِرُواْ يَٰٓأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 1
(2) वही है जिसने कुफ़्र करनेवाले अहले-किताब को पहले ही हमले में2 उनके घरों से निकाल बाहर किया।3 तुम्हें हरगिज़ यह गुमान न था कि वे निकल जाएँगे, और वे भी यह समझे बैठे थे कि उनकी गढ़ियाँ उन्हें अल्लाह से बचा लेंगी।4 मगर अल्लाह ऐसे रुख़ से उनपर आया जिधर उनका ख़याल भी न गया था।5 उसने उनके दिलों में रोब डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि वे ख़ुद अपने हाथों से भी अपने घरों को बरबाद कर रहे थे और मोमिनों के हाथों भी बरबाद करवा रहे थे।6 तो सबक़ हासिल करो ऐ देखनेवाली आँखें रखनेवालो!7
2. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं। लिअव्वलिल-हश्र'। 'हश्र' का मतलब है बिखरे हुए लोगों को इकटठा करना, या बिखरे हुए लोगों को जमा करके निकालना। और 'लिअव्वलिल-हश्र' का मतलब है पहले उनके साथ या पहले हश्र के मौक़े पर। अब रहा यह सवाल कि इस जगह 'अव्वले-हश्र' से मुराद क्या है, तो इसमें क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह के नज़दीक इससे मुराद बनी-नज़ीर का मदीना से निकाला जाना है, और उसको उनका पहला हश्र इसी मानी में कहा गया है कि उनका दूसरा हश्र हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में हुआ जब यहूदियों और ईसाइयों को जज़ी-रतुल-अरब (अरब द्वीप) से निकाला गया, और आख़िरी हश्र क़ियामत के दिन होगा। दूसरे गरोह के नज़दीक इससे मुराद मुसलमानों की फ़ौज का इकट्ठा होना है जो बनी-नज़ीर से जंग के लिए इकट्ठा हुई थी। और ‘लिअव्वलिल-हश्र’ का मतलब यह है कि अभी मुसलमान उनसे लड़ने के लिए, जमा ही हुए थे और मार-काट की नौबत भी न आई थी कि अल्लाह तआला की क़ुदरत से वे जलावतनी (मुल्क छोड़ने) के लिए तैयार हो गए। दूसरे अलफ़ाज़ में यहाँ ये अलफ़ाज़ ‘पहली कार्रवाई’ के मानी में इस्तेमाल हुए हैं। शाह वलियुल्लाह साहब ने इसका तर्जमा किया है 'दरे-अव्वल जमा करदने-लश्कर' (पहले जमा करना लश्कर)। और शाह अब्दुल क़ादिर साहब का तर्जमा है 'पहले ही भीड़ होते। हमारे नज़दीक यह दूसरा मतलब ही इन अलफ़ाज़ का आसान मतलब है।
3. इस जगह एक बात शुरू ही में समझा लेनी चाहिए, ताकि बनी-नज़ीर के निकाले जाने के मामले में कोई ज़ेहनी उलझन पैदा न हो। नबी (सल्ल०) से बनी-नज़ीर का बाक़ायदा लिखा हुआ समझौता था। इस समझौते को उन्होंने रद्द नहीं किया था कि समझौता ख़त्म हो जाता, लेकिन जिस वजह से उनपर चढ़ाई की गई वह यह थी कि उन्होंने बहुत-सी छोटी-बड़ी ख़िलाफ़वर्ज़ियाँ करने के बाद आख़िरकार एक साफ़ हरकत ऐसी की जो समझौता तोड़ने जैसी थी। वह यह कि उन्होंने समझौते के दूसरे फ़रीक़, यानी की इस्लामी हुकूमत के ज़िम्मेदार (नबी सल्ल०) को क़त्ल करने की साज़िश की थी और वह कुछ इस तरह खुल गई थी कि जब उनको समझौता तोड़ने का इलज़ाम दिया गया तो वे उसका इनकार न कर सके। इसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको दस दिन का नोटिस दे दिया कि इस मुद्दत में मदीना छोड़कर निकल जाओ, वरना तुम्हारे ख़िलाफ़ जंग की जाएगी। यह नोटिस क़ुरआन के इस हुक्म के ठीक मुताबिक़ था कि “अगर तुमको किसी क़ौम से ख़ियानत (वचन तोड़ने) का अन्देशा हो तो उसके समझौते को खुल्लम-खुल्ला उसके आगे फेंक दो,” (सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-58)। इसी लिए उनके निकाले जाने को अल्लाह अपना काम क़रार दे रहा है, क्योंकि यह ठीक अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़ था। मानो उनको अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों ने नहीं, बल्कि अल्लाह ने निकाला। दूसरी वजह जिसकी बिना पर अल्लाह ने उनके निकाले जाने को अपना काम बताया है, आगे की आयतों में कही गई है।
4. इस बात को समझने के लिए यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि बनी-नज़ीर सदियों से यहाँ जमे थे। मदीना के बाहर उनकी पूरी आबादी इकट्ठी थी, जिसमें उनके अपने क़बीले के सिवा कोई दूसरा आदमी मौजूद न था। उन्होंने पूरी बस्ती को क़िलाबन्द कर रखा था और उनके मकान भी गढ़ियों की शक्ल में बने हुए थे, जिस तरह आम तौर पर आदिवासी इलाक़ों में, जहाँ हर तरफ़ बदअम्नी फैली हुई हो, बनाए जाते हैं। फिर उनकी तादाद भी उस वक़्त के मुसलमानों से कुछ कम न थी। और ख़ुद मदीना के अन्दर बहुत-से मुनाफ़िक़ उनके साथ थे। इसलिए मुसलमानों को हरगिज़ यह उम्मीद न थी कि ये लोग लड़े बिना सिर्फ़ घेराबन्दी ही से बदहवास होकर यूँ अपनी जगह छोड़ देंगे। इसी तरह ख़ुद बनी-नज़ीर के भी गुमान में यह बात न थी कि कोई ताक़त उनसे छह दिन के अन्दर यह जगह छुड़ा लेगी। हालाँकि बनी-क़ैनुक़ाअ उनसे पहले निकाले जा चुके थे और अपनी बहादुरी पर उनका सारा घमण्ड धरा-का-धरा रह गया था, लेकिन वे मदीना के एक मुहल्ले में आबाद थे और उनकी अपनी कोई अलग क़िलाबन्द बस्ती न थी, इसलिए बनी-नज़ीर यह समझते थे कि उनका मुसलमानों के मुक़ाबले में न ठहर सकना नामुमकिन न था। इसके बरख़िलाफ़ वे अपनी महफ़ूज़ बस्ती और अपनी मज़बूत गढ़ियों को देखकर यह सोच भी न सकते थे कि कोई उन्हें यहाँ से निकाल सकता है। इसी लिए जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको दस दिन के अन्दर मदीना से निकल जाने का नोटिस दिया तो उन्होंने बड़े धड़ल्ले के साथ जवाब दे दिया कि हम नहीं निकलेंगे, आपसे जो कुछ हो सकता है, कर लीजिए। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि अल्लाह तआला ने आख़िर यह बात किस वजह से फ़रमाई कि “वे यह समझे बैठे थे कि उनकी गढ़ियाँ उन्हें अल्लाह से बचा लेंगी।” क्या सचमुच बनी-नज़ीर यह जानते थे कि उनका मुक़ाबला मुहम्मद-बिन-अब्दुल्लाह (सल्ल०) से नहीं, बल्कि अल्लाह से है? और क्या यह जानते हुए भी उनका यह ख़याल था कि उनकी गढ़ियाँ उन्हें अल्लाह से बचा लेंगी? यह एक ऐसा सवाल है जो हर उस शख़्स के ज़ेहन में उलझन पैदा करेगा जो यहूदी क़ौम की नफ़सियात (मानसिकता) और उनकी सालों-साल की रिवायतों को न जानता हो। आम इनसानों के बारे में कोई यह गुमान नहीं कर सकता कि वे शुऊरी तौर पर यह जानते भी हों कि मुक़ाबला अल्लाह से है और फिर भी उनको यह घमण्ड हो कि उनके क़िले और हथियार उन्हें अल्लाह से बचा लेंगे। इसलिए एक नादान आदमी इस जगह अल्लाह तआला के कलाम का यह मतलब बयान करेगा कि बनी-नज़ीर बज़ाहिर अपने क़िलों की मज़बूती देखकर इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला थे कि वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के हमले से बच जाएँगे, मगर हक़ीक़त यह थी कि उनका मुक़ाबला अल्लाह से था और उससे उनके क़िले उन्हें न बचा सकते थे। लेकिन सच्चाई यह है कि यहूदी इस दुनिया में एक ऐसी अजीब क़ौम है जो जानते-बूझते अल्लाह का मुक़ाबला करती रही है, अल्लाह के रसूल को यह जानते हुए उसने क़त्ल किया है कि वे अल्लाह के रसूल हैं, और फ़ख़्र के साथ सीना ठोंककर उसने कहा है कि हमने अल्लाह के रसूलों को क़त्ल किया। इस क़ौम की रिवायतें ये हैं कि उनके सबसे बड़े बुज़ुर्ग (पूर्वज) हज़रत याक़ूब (अलैहि०) से अल्लाह तआला की रात-भर कुश्ती होती रही और सुबह तक लड़कर भी अल्लाह तआला उनको न पछाड़ सका। फिर जब सुबह हो गई और अल्लाह तआला ने उनसे कहा, “अब मुझे जाने दे!” तो उन्होंने कहा, “मैं तुझे न जाने दूँगा जब तक तू मुझे बरकत न दे।” अल्लाह तआला ने पूछा, “तेरा नाम क्या है?” उन्होंने कहा, “याक़ूब।” अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि “आगे से तेरा नाम याक़ूब नहीं बल्कि इसराईल होगा, क्योंकि तूने ख़ुदा और आदमियों के साथ ज़ोर आज़माई की और ग़ालिब (हावी) हुआ।” देखिए— यहूदियों की पाक किताबों का नया तर्जमा (The Holy Scriptures), प्रकाशक : जेविश पब्लिकेशन सोसाइटी ऑफ़ अमेरिका 1954 ई०। किताब उत्पत्ति, अध्याय-32, आयतें—25 से 28। ईसाइयों के बाइबल के तर्जमे में भी यह बात इसी तरह बयान हुई है। यहूदी तर्जमे के हाशिए में 'इसराईल' का मतलब लिखा गया है : He who striveth with God यानी “जो ख़ुदा से ज़ोर आज़माई करे।” और इनसाइक्लोपेडिया ऑफ़ बिबलिकल लिट्रेचर में ईसाई आलिमों ने, इसराईल के मानी की तशरीह यह की है, Wrestler with God, “ख़ुदा से कुश्ती लड़नेवाला।” फिर बाइबल की किताब होशे (Hosea) में हज़रत याक़ूब की तारीफ़ यह बयान की गई है कि “वह अपनी ताक़त के दिनों में ख़ुदा से कुश्ती लड़ा। हाँ, वह फ़रिश्ते से कुश्ती लड़ा और हावी रहा।” (अध्याय-12, आयतें—3, 4)। अब ज़ाहिर है कि बनी-इसराईल आख़िर उन हज़रत इसराईल के बेटे ही तो हैं जिन्होंने उनके अक़ीदे के मुताबिक़ ख़ुदा से ज़ोर आज़माई की थी और उससे कुश्ती लड़ी थी। उनके लिए, आख़िर क्या मुश्किल है कि ख़ुदा के मुक़ाबले में यह जानते हुए भी डट जाएँ कि मुक़ाबला ख़ुदा से है। इसी वजह से तो उन्होंने ख़ुद अपनी ही ज़बान से किए हुए इक़रारों के मुताबिक़ ख़ुदा के नबियों को क़त्ल किया और इसी वजह से उन्होंने हज़रत ईसा (अलैहि०) को अपने घमण्ड में सूली पर चढ़ा दिया और ताल ठोंकर कहा, “हमने मरयम के बेटे और अल्लाह के रसूल ईसा मसीह को क़त्ल किया,” (सूरा-4 निसा, आयत-157)। लिहाज़ा यह बात उनकी रिवायतों के ख़िलाफ़ न थी कि उन्होंने मुहम्मद (सल्ल०) को अल्लाह का रसूल जानते हुए उनके ख़िलाफ़ जंग की। अगर उनके आम लोग नहीं तो उनके रिब्बी और अहबार तो ख़ूब जानते थे कि आप (सल्ल०) कि अल्लाह के रसूल हैं। इसकी कई गवाहियाँ ख़ुद क़ुरआन में मौज़ूद हैं। (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—79, 95; सूरा-4 निसा, हाशिए—190, 191; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—70, 73)
5. अल्लाह का उनपर आना इस मानी में नहीं है कि अल्लाह किसी और जगह था और फिर वहाँ से उसने उनपर हमला किया। बल्कि यह मजाज़ी (सांकेतिक) ज़बान है। अस्ल मक़सद यह तसव्वुर दिलाना है कि अल्लाह से मुक़ाबला करते हुए वे इस ख़याल में थे कि अल्लाह तआला उनपर सिर्फ़ इसी शक्ल में बला लेकर आ सकता है कि एक लश्कर को सामने से उनपर चढ़ाकर लाए, और वे समझते थे कि उस बला को तो हम अपनी क़िलाबन्दियों से रोक लेंगे। लेकिन उसने ऐसे रास्ते से उनपर हमला किया कि जिधर से किसी बला के आने की वे कोई उम्मीद न रखते थे। और वह रास्ता यह था कि उसने अन्दर से उनकी हिम्मत और मुक़ाबले की क़ुव्वत को खोखला कर दिया, जिसके बाद न उनके हथियार किसी काम आ सकते थे न उनके मज़बूत गढ़।
6. यानी तबाही दो तरह से हुई : बाहर से मुसलमानों ने घेराबन्दी करके उनकी क़िलाबन्दियों को तोड़ना शुरू किया और अन्दर से ख़ुद उन्होंने पहले तो मुसलमानों का रास्ता रोकने के लिए जगह-जगह पत्थरों और लकड़ियों की रुकावटें खड़ी कीं और इस ग़रज़ के लिए अपने घरों को तोड़-तोड़कर मलबा जमा किया। फिर जब उनको यक़ीन हो गया कि उन्हें यहाँ से निकलना ही पड़ेगा तो उन्होंने अपने घरों को जिन्हें कभी बड़े शौक़ से बनाया और सजाया था, अपने ही हाथों बरबाद करना शुरू कर दिया, ताकि वे मुसलमानों के काम न आ सकें। इसके बाद जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से उन्होंने इस शर्त पर सुलह की कि हमारी जानें बख़्श दी जाएँ और हमें इजाज़त दी जाए कि हथियारों के सिवा जो कुछ भी हम यहाँ से उठाकर ले जा सकते हैं ले जाएँ, तो चलते हुए वे अपने दरवाज़े और खिड़कियाँ और खूटियाँ तक उखाड़ ले गए, यहाँ तक कि कुछ लोगों ने शहतीर और लकड़ी की छतें तक अपने ऊँटों पर लाद लीं।
7. इस वाक़िए में सबक़ लेने के लिए कई पहलू हैं, जिनकी तरफ़ इस छोटे-से असरदार जुमले में इशारा किया गया है। ये यहूदी आख़िर पिछले नबियों की उम्मत ही तो थे। ख़ुदा को मानते थे, किताब को मानते थे, पिछले नबियों को मानते थे, आख़िरत को मानते थे। इस लिहाज़ से अस्ल में वे पहले के मुसलमान थे। लेकिन जब उन्होंने दीन और अख़लाक़ को पीठ-पीछे डालकर सिर्फ़ अपने मन की ख़ाहिशों और दुनियावी मक़सदों की ख़ातिर खुली-खुली सच से दुश्मनी अपनाई और ख़ुद अपने अह्द और वादों का कोई ख़याल न रखा तो अल्लाह तआला की मेहरबानी की निगाह उनसे फिर गई। वरना ज़ाहिर है कि अल्लाह को उनसे कोई निजी दुश्मनी न थी। इसलिए सबसे पहले तो ख़ुद मुसलमानों को उनके अंजाम से सबक़ दिया गया है कि कहीं वे भी अपने-आपको यहूदियों की तरह ख़ुदा की चहेती औलाद न समझ बैठे और इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला न हो जाएँ कि ख़ुदा के आख़िरी नबी की उम्मत में होना ही अपने-आपमें उनके लिए अल्लाह की मेहरबानी और उसकी तरफ़दारी की ज़मानत है, जिसके बाद दीन और अख़लाक़ के किसी तक़ाज़े की पाबन्दी उनके लिए ज़रूरी नहीं रहती। इसके साथ दुनिया भर के उन लोगों को भी इस वाक़िए से सबक़ दिया गया है जो जान-बूझकर हक़ की मुख़ालफ़त करते हैं और फिर अपनी दौलत और ताक़त और अपने ज़राए व वसाइल (साधन-संसाधनों) पर यह भरोसा करते हैं कि ये चीज़ें उनको ख़ुदा की पकड़ से बचा लेंगी। मदीना के यहूदी इससे अनजान न थे कि मुहम्मद (सल्ल०) किसी क़ौम या क़बीले की सरबुलन्दी के लिए नहीं उठे हैं, बल्कि एक उसूली दावत पेश कर रहे हैं जो सारे इनसानों को दी जा रही है और हर इनसान, चाहे वह किसी नस्ल या देश से ताल्लुक़ रखता हो, इस दावत को क़ुबूल करके उनकी उम्मत में बिना फ़र्क़ के शामिल हो सकता है। उनकी आँखों के सामने हबश के बिलाल (रज़ि०), रूम के सुहैब (रज़ि०) और फ़ारिस के सलमान (रज़ि०) को मुस्लिम उम्मत (समुदाय) में वही हैसियत हासिल थी जो ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अपने ख़ानदानवालों को हासिल थी। इसलिए उनके सामने यह कोई ख़तरा न था कि क़ुरैश और औस और ख़ज़रज उनपर हावी हो जाएँगे। वे इससे भी अनजान न थे कि आप सल्ल०) जो उसूली दावत पेश कर रहे हैं वह ठीक वही है जो ख़ुद उनके अपने नबी पेश करते रहे हैं। आप (सल्ल०) का यह दावा न था कि मैं एक नया दीन लेकर आया हूँ जो पहले कभी कोई न लाया था और तुम अपना दीन छोड़कर मेरा यह दीन अपना लो। बल्कि आप (सल्ल०) का दावा यह था कि यह वही दीन है जिसे, जबसे दुनिया शुरू हुई है उस वक़्त से, ख़ुदा के तमाम नबी लाते रहे हैं, और अपनी तौरात से वे ख़ुद इसकी तसदीक़ (पुष्टि) कर सकते थे कि सचमुच यह वही दीन है, इसके उसूलों में नबियों के दीन के उसूलों से कोई फ़र्क़ नहीं है। इसी वजह से तो क़ुरआन मजीद में उनसे कहा गया था कि “ईमान लाओ मेरी उतारी हुई उस तालीम पर जो तसदीक़ करती है उस तालीम की जो तुम्हारे पास पहले से मौज़ूद है, और सबसे पहले तुम ही उसके इनकार करनेवाले न बन जाओ,” (सूरा-2 बक़रा, आयत-41)। फिर उनकी आँखें यह भी देख रही थीं कि मुहम्मद (सल्ल०) किस सीरत और अख़लाक़ के इनसान हैं, और आप (सल्ल०) की दावत क़ुबूल करके लोगों की जिन्दगियों में कैसा ज़बरदस्त इनक़िलाब बरपा हुआ है। अनसार तो लम्बी मुद्दत से उनके सबसे क़रीबी पड़ोसी थे। इस्लाम लाने से पहले उनकी जो हालत थी उसे भी ये लोग देख चुके थे और इस्लाम लाने के बाद उनकी जो हालत हो गई वह भी उनके सामने मौज़ूद थी। इसलिए दावत और दावत देनेवाले और दावत क़ुबूल करने के नतीजे, सब कुछ उनपर ज़ाहिर थे। लेकिन ये सारी बातें देखते और जानते हुए भी उन्होंने सिर्फ़ अपने नस्ली तास्सुबात (पक्षपातों) और अपने दुनियावी फ़ायदे की ख़ातिर उस चीज़ के ख़िलाफ़ अपनी सारी ताक़त लगा दी जिसके हक़ होने में कम-से-कम उनके लिए शक की गुंजाइश न थी। इस जान-बूझकर की गई हक़-दुश्मनी के बाद वे यह उम्मीद रखते थे कि उनके क़िले उन्हें ख़ुदा की पकड़ से बचा लेंगे। हालाँकि पूरी इनसानी तारीख़ इस बात की गवाह है कि ख़ुदा की ताक़त जिसके मुक़ाबले में आ जाए वह फिर किसी हथियार से नहीं बच सकता।
وَلَوۡلَآ أَن كَتَبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمُ ٱلۡجَلَآءَ لَعَذَّبَهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَاۖ وَلَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ عَذَابُ ٱلنَّارِ ۝ 2
(3) अगर अल्लाह ने उनके हक़ में जलावतनी न लिख दी होती तो दुनिया ही में वह उन्हें अज़ाब दे डालता,8 और आख़िरत में तो उनके लिए जहन्नम का अज़ाब है ही।
8. दुनिया के अज़ाब से मुराद है उनका नाम व निशान मिटा देना। अगर वे सुलह करके अपनी जानें बचाने के बजाय लड़ते तो उनका पूरी तरह सफ़ाया हो जाता। उनके मर्द मारे जाते और उनकी औरतें और उनके बच्चे लौंडी-ग़ुलाम बना लिए जाते, जिन्हें फ़िदया देकर छुड़ानेवाला भी कोई न होता।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ شَآقُّواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۖ وَمَن يُشَآقِّ ٱللَّهَ فَإِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 3
(4) यह सब कुछ इसलिए हुआ कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला किया, और जो भी अल्लाह का मुक़ाबला करे अल्लाह उसको सज़ा देने में बहुत सख़्त है।
مَا قَطَعۡتُم مِّن لِّينَةٍ أَوۡ تَرَكۡتُمُوهَا قَآئِمَةً عَلَىٰٓ أُصُولِهَا فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيُخۡزِيَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 4
(5) तुम लोगों ने खजूरों के जो पेड़ काटे या जिनको अपनी जड़ों पर खड़ा रहने दिया, यह सब अल्लाह ही के हुक्म से था9 और (अल्लाह ने यह हुक्म इसलिए दिया) ताकि फ़ासिक़ों (नाफ़रमानों) को बेइज़्ज़त और रुसवा करे।10
9. यह इशारा है इस मामले की तरफ़ कि मुसलमानों ने जब घेराबन्दी शुरू की तो बनी-नज़ीर की बस्ती के चारों तरफ़ जो खजूरों के पेड़ थे, उनके बहुत-से पेड़ों को उन्होंने काट डाला या जला दिया, ताकि घेराबन्दी आसानी से की जा सके, और जो पेड़ फ़ौजों के आने-जाने में रुकावट न थे उनको खड़ा रहने दिया। इसपर मदीना के मुनाफ़िक़ों और बनी-क़ुरैज़ा और ख़ुद बनी-नज़ीर ने शोर मचा दिया कि मुहम्मद (सल्ल०) तो ज़मीन में बिगाड़ फैलाने से मना करते हैं, मगर यह देख लो, हरे-भरे फलदार पेड़ काटे जा रहे हैं, यह आख़िर ज़मीन में बिगाड़ फैलाना नहीं तो और क्या है। इसपर अल्लाह तआला ने यह हुक्म उतारा कि तुम लोगों ने जो पेड़ काटे और जिनको खड़ा रहने दिया, उनमें से कोई काम भी नाजाइज़ नहीं है, बल्कि दोनों को अल्लाह की इजाज़त हासिल है। इससे यह शरई मसला निकलता है कि जंगी ज़रूरतों के लिए जो तोड़-फोड़ बहुत ही ज़रूरी हो वह ज़मीन में बिगाड़ फैलाने के दायरे में नहीं आती, बल्कि ज़मीन में बिगाड़ फैलाना यह है कि किसी फ़ौज पर जंग का भूत सवार हो जाए और वह दुश्मन के देश में घुसकर खेतों, मवेशियों, बाग़ों, इमारतों, हर चीज़ को बिना वजह तबाह-बरबाद करती फिरे। इस मामले में आम हुक्म तो वही है जो हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने फ़ौजों को शाम (सीरिया) की तरफ़ रवाना करते वक़्त दिया था कि फलदार पेड़ों को न काटना, फ़सलों को ख़राब न करना और बस्तियों को वीरान न करना। यह क़ुरआन मजीद की इस तालीम के ठीक मुताबिक़ था कि उसने बिगाड़ फैलानेवाले इनसानों की बुराई करते हुए उनकी इस हरकत पर डाँट-फटकार की है कि “जब वे इक़तिदार (सत्ता) पा लेते हैं तो फ़सलों और नस्लों को तबाह करते फिरते हैं,” (सूरा-2 बक़रा, आयत-205)। लेकिन जंगी ज़रूरतों के लिए ख़ास हुक्म यह है कि अगर दुश्मन के ख़िलाफ़ लड़ाई को कामयाब करने की ख़ातिर कोई तोड़-फोड़ बेहद ज़रूरी हो तो वह की जा सकती है। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने इस आयत की तशरीह करते हुए यह वाज़ेह कर दिया है कि “मुसलमानों ने बनी-नज़ीर के पेड़ों में से सिर्फ़ वे पेड़ काटे थे जो जंग की जगह पर मौज़ूद थे,” (तफ़सीरे-नेसाबूरी)। इस्लामी फ़क़ीहों में से कुछ ने मामले के इस पहलू को नज़रअन्दाज़ करके यह राय ज़ाहिर की है कि बनी-नज़ीर के पेड़ काटने का जाइज़ होना सिर्फ़ इसी वाक़िए की हद तक ख़ास था, इससे यह आम इजाज़त नहीं निकलती कि जब कभी जंगी ज़रूरतों का तक़ाज़ा हो, दुश्मन के पेड़ों को काटा और जलाया जा सके। इमाम औज़ाई, लैस और का अबू-सौर इसी तरफ़ गए हैं। लेकिन ज़्यादातर फ़क़ीहों का मसलक (राय) यह है कि अहम जंगी ज़रूरतों के लिए ऐसा करना जाइज़ है, अलबत्ता सिर्फ़ तबाही और बरबादी के लिए यह काम जाइज़ नहीं है। एक शख़्स यह सवाल कर सकता है कि क़ुरआन मजीद की यह आयत मुसलमानों को तो मुत्मइन कर सकती थी, लेकिन जो लोग क़ुरआन को अल्लाह का कलाम नहीं मानते थे उन्हें अपने एतिराज़ के जवाब में यह सुनकर क्या इत्मीनान हो सकता था कि ये दोनों काम अल्लाह की इजाज़त (हुक्म) की बुनियाद पर जाइज़ हैं? इसका जवाब यह है कि क़ुरआन की यह आयत मुसलमानों ही को मुत्मइन करने के लिए उतरी है, ग़ैर-मुस्लिमों को मुत्सइन करना सिरे से इसका मक़सद ही नहीं है। चूँकि यहूदियों और मुनाफ़िक़ों के एतिराज़ की वजह से, या अपने-आप, मुसलमानों के दिलों में यह खटक पैदा हो गई थी कि कहीं हम ज़मीन में बिगाड़ फैलाने के मुजरिम तो नहीं हो गए हैं, इसलिए अल्लाह तआला ने उनको इत्मीनान दिला दिया कि घेराबन्दी की ज़रूरत के लिए कुछ पेड़ों को काटना, और जो पेड़ घेराबन्दी में रुकावट न थे उनको न काटना, ये दोनों ही काम अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़ सही थे। हदीस के आलिमों की बयान की हुई रिवायतों में इस बात पर इख़्तिलाफ़ है कि क्या उन पेड़ों के काटने और जलाने का हुक्म ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दिया था, या मुसलमानों ने अपने तौर पर यह काम किया और बाद में उसका शरई मसला नबी (सल्ल०) से मालूम किया। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत यह है कि नबी (सल्ल०) ने ख़ुद इसका हुक्म दिया था, (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, इब्ने-जरीर)। यही यज़ीद-बिन-रूमान की रिवायत भी है, (इब्ने-जरीर)। इसके बरख़िलाफ़ मुजाहिद और क़तादा की रिवायत यह है कि मुसलमानों ने अपने तौर पर ये पेड़ काटे थे, फिर उनमें इस मसले पर इख़्तिलाफ़ हुआ कि यह काम करना चाहिए था या नहीं। कुछ इसको जाइज़ कह रहे थे और कुछ ने इससे मना किया। आख़िरकार अल्लाह तआला ने यह आयत उतारकर दोनों के काम को सही ठहरा दिया, (इब्ने-जरीर)। इसी की ताईद हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की यह रिवायत करती है कि मुसलमानों के दिलों में इस बात पर खटक पैदा हुई कि हममें से कुछ ने पेड़ काटे हैं और कुछ ने नहीं काटे, अब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछना चाहिए कि हममें से किसका काम इनाम का हक़दार है और किसके काम पर पकड़ होगी, (हदीस : नसई)। फ़क़ीहों में से जिन लोगों ने पहली रिवायत को अहमियत दी है वे उससे यह दलील लेते हैं कि यह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का इजतिहाद था (यानी उन्होंने ख़ुद ग़ौर करके फ़ैसला किया था) जिसकी तसदीक़ बाद में अल्लाह तआला ने साफ़-साफ़ वह्य के ज़रिए से की और यह इस बात का सुबूत है कि जिन मामलों में अल्लाह तआला का हुक्म मज़ूद न होता था, उनमें नबी (सल्ल०) इजतिहाद (अपनी राय) पर अमल करते थे। दूसरी तरफ़ जिन फ़क़ीहों ने दूसरी रिवायत को अहमियत दी है वे इससे यह दलील लेते हैं कि मुसलमानों के दो गरोहों ने अपने-अपने इजतिहाद (ख़ुद ग़ौर करने) से दो अलग-अलग रायें अपनाई थीं और अल्लाह तआला ने दोनों को सही क़रार दिया, लिहाज़ा अगर नेक नीयती के साथ इजतिहाद करके आलिम लोग अलग-अलग रायें क़ायम करें तो इसके बावजूद कि उनकी रायें एक-दूसरे से अलग होंगी, मगर अल्लाह की शरीअत में वे सब हक़ पर होंगे।
10. यानी अल्लाह का इरादा यह था कि इन पेड़ों को काटने से भी उनकी बेइज़्ज़ती और रुसवाई हो और न काटने से भी। काटने में उनकी बेइज़्ज़ती और रुसवाई का पहलू यह था कि जो बाग़ उन्होंने अपने हाथों से लगाए थे और जिन बाग़ों के वे लम्बी मुद्दत से मालिक चले आ रहे थे, उनके पेड़ उनकी आँखों के सामने काटे जा रहे थे और वे काटनेवालों को किसी तरह न रोक सकते थे। एक मामूली किसान और बाग़बान भी अपने खेत या बाग़ में किसी दूसरे के इख़्तियार को बरदाश्त नहीं कर सकता। अगर उसके सामने उसका खेत या उसका बाग़ कोई बरबाद कर रहा हो तो वह उसपर कट-मरेगा। और अगर वह अपनी जायदाद को दूसरे के हाथ में जाने से न रोक सके तो यह उसकी बड़ी बेइज़्ज़ती और कमज़ोरी की निशानी होगी। लेकिन यहाँ एक पूरा क़बीला, जो सदियों से बड़े धड़ल्ले के साथ इस जगह आबाद था, बेबसी के साथ यह देख रहा था कि उसके पड़ोसी उसके बाग़ों पर चढ़ आए हैं और उसके पेड़ों को बरबाद कर रहे हैं, मगर वह उनका कुछ न बिगाड़ सका। इसके बाद अगर वे मदीना में रह भी जाते तो उनकी कोई आबरू बाक़ी न रहती। रहा पेड़ों को न काटने में बेइज़्ज़ती का पहलू, तो वह यह था कि जब वे मदीना से निकले तो उनकी आँखें यह देख रही थीं कि कल तक जो हरे-भरे बाग़ उनकी मिलकियत में थे, वे आज मुसलमानों के क़ब्ज़े में जा रहे हैं, उनका बस चलता तो वे उनको पूरी तरह उजाड़कर जाते और एक सही-सलामत पेड़ भी मुसलमानों के क़ब्ज़े में न जाने देते। मगर बेबसी के साथ वे सब कुछ ज्यों-का-त्यों छोड़कर अफ़सोस और नाउम्मीदी लिए हुए निकल गए।
وَمَآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡهُمۡ فَمَآ أَوۡجَفۡتُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ خَيۡلٖ وَلَا رِكَابٖ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُۥ عَلَىٰ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 5
(6) और जो माल अल्लाह ने उनके क़ब्ज़े से निकालकर अपने रसूल की तरफ़ पलटा दिए,11 वे ऐसे माल नहीं हैं जिनपर तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों, बल्कि अल्लाह अपने रसूलों को जिसपर चाहता है ग़लबा (प्रभुत्व) देता है, और अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।12
11. अब उन जायदादों और मिलकियतों का ज़िक्र हो रहा है जिनके मालिक पहले बनी-नज़ीर थे और उनकी जलावतनी के बाद इस्लामी हुकूमत के क़ब्ज़े में आई। उनके बारे में यहाँ से आयत-10 तक अल्लाह तआला ने बताया है कि उनका इन्तिज़ाम किस तरह किया जाए। चूँकि यह पहला मौक़ा था कि एक इलाक़ा फ़तह होकर इस्लामी क़ब्ज़े में शामिल हुआ, और आगे बहुत-से इलाक़े फ़तह होनेवाले थे, इसलिए जीतों की शुरुआत ही में जीती हुई ज़मीनों का क़ानून बयान कर दिया गया। इस जगह ग़ौर करने के क़ाबिल बात यह है कि अल्लाह तआला ने “जो कुछ पलटा दिया उनसे अल्लाह ने अपने रसूलों की तरफ़”, (सूरा-59 हश्र, आयत-6) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं। इन अलफ़ाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि यह ज़मीन और वे सारी चीज़ें जो यहाँ पाई जाती हैं, अस्ल में उन लोगों का हक़ नहीं हैं जो अल्लाह तआला के बाग़ी हैं। वे अगर उनपर क़ब्ज़ा किए हुए हैं और उन्हें अपने इस्तेमाल में ले रहे हैं तो यह हक़ीक़त में इस तरह का क़ब्ज़ा और इस्तेमाल है जैसे कोई बेईमान नौकर अपने मालिक का माल दबा बैठे। इन तमाम मालों का अस्ल हक़ यह है कि ये उनके असली मालिक, सारे जहान के रब अल्लाह, की फ़रमाँबरदारी में उसकी मरज़ी के मुताबिक़ इस्तेमाल किए जाएँ, और उनका यह इस्तेमाल सिर्फ़ नेक मोमिन ही कर सकते हैं। इसलिए जो माल भी एक जाइज़ और सही जंग के नतीजे में दुश्मन के क़ब्ज़े से निकलकर ईमानवालों के क़ब्ज़े में आएँ, उनकी हक़ीक़ी हैसियत यह है कि उनका मालिक उन्हें अपने बेईमान नौकरों के क़ब्ज़े से निकालकर अपने फ़रमाँबरदार नौकरों की तरफ़ पलटा लाया है। इसी लिए इन जायदादों को इस्लामी क़ानून की ज़बान में 'फ़य' (पलटाकर लाए हुए माल) क़रार दिया गया है।
12. यानी ये माल इस तरह के नहीं हैं कि जो फ़ौज जंग के मैदान में दुश्मन से भिड़ी है उसने लड़कर उनको जीता हो और इस वजह से उस फ़ौज को यह हक़ हो कि ये माल उसमें बाँट दिए जाएँ, बल्कि ये माल इस तरह के हैं कि अल्लाह तआला ने अपनी मेहरबानी से अपने रसूलों को, और उस निज़ाम को जिसकी नुमाइन्दगी ये रसूल करते हैं, उनपर ग़लबा दे दिया है। दूसरे अलफ़ाज़ में उनका मुसलमानों के क़ब्ज़े में आना सीधे तौर पर लड़नेवाली फ़ौज की ताक़त का नतीजा नहीं है, बल्कि कुल मिलाकर यह उस क़ुव्वत का नतीजा है जो अल्लाह ने अपने रसूल और उसकी उम्मत और उसके क़ायम किए हुए निज़ाम को दी है। इसलिए ये माल, माले-ग़नीमत (जंग जीतने पर दुश्मन का छूटा हुआ माल) से बिलकुल अलग हैसियत रखते हैं और लड़नेवाली फ़ौज का यह हक़ नहीं है कि ग़नीमत की तरह इनको भी उसमें बाँट दिया जाए। इस तरह शरीअत में 'ग़नीमत' और 'फ़य' का हुक्म अलग-अलग कर दिया गया है। ग़नीमत का हुक्म सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-41 में आया है, और वह यह है कि उसके पाँच हिस्से किए जाएँ। चार हिस्से लड़नेवाली फ़ौज में बाँट दिए जाएँ, और एक हिस्सा बैतुल-माल में दाख़िल करके उन मदों में ख़र्च किया जाए जो इस आयत में बयान की गई हैं। और फ़य का हुक्म यह है कि उसे फ़ौज में न बाँटा जाए, बल्कि वह पूरी-की-पूरी उन मदों के लिए ख़ास कर दी जाए जो आगे की आयतों में बयान हो रही हैं। इन दोनों तरह के मालों में फ़र्क़ 'तुमने उसपर अपने घोड़े और ऊँट नहीं दौड़ाए हैं’ के अलफ़ाज़ से ज़ाहिर किया गया है। घोड़े और ऊँट दौड़ाने से मुराद है जंगी कार्रवाई (Warlike operations), लिहाज़ा जो माल सीधे तौर पर इस कार्रवाई से हाथ आए हों, वे ग़नीमत हैं। और जिन मालों के हासिल होने का अस्ल सबब यह कार्रवाई न हो, वे सब फ़य हैं। यह मुख़्तसर फ़र्क़ जो ग़नीमत और फ़य के दरमियान इस आयत में बयान किया गया है, इसको और ज़्यादा खोलकर इस्लाम के फ़क़ीहों ने इस तरह बयान किया है कि ग़नीमत सिर्फ़ वे मनक़ूला माल (चल-सम्पत्ति) हैं जो जंगी कार्रवाइयों के दौरान में दुश्मन के लश्करों से हासिल हों। उनके सिवा दुश्मन देश की ज़मीनें, मकान और दूसरे मनक़ूला और ग़ैर-मनक़ूला माल (चल और अचल सम्पत्ति) ग़नीमत के दायरे से बाहर हैं। यह तशरीह हज़रत उमर (रज़ि०) के उस ख़त से ली गई है जो उन्होंने हज़रत साद-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०) को इराक़ की फ़तह के बाद लिखा था। उसमें वे फ़रमाते हैं, “जो माल-दौलत फ़ौज के लोग तुम्हारे लश्कर में समेट लाए हैं उसको उन मुसलमानों में बाँट दो जो जंग में शरीक थे और ज़मीनें और नहरें उन लोगों के पास छोड़ दो जो उनपर काम करते हैं ताकि उनकी आमदनी मुसलमानों की तनख़ाहों के काम आए,” (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़, पे० 24; किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद, पे० 59; किताबुल-ख़िराज लि-यह्या-बिन-आदम, पे० 27, 28, 48)। इसी बुनियाद पर हज़रत हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि “जो कुछ दुश्मन के कैम्प से हाथ आए वह उनका हक़ है जिन्होंने उसपर फ़तह पाई और ज़मीन मुसलमानों के लिए है,” (यह्या-बिन-आदम, पे० 27)। और इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) फ़रमाते हैं कि जो कुछ दुश्मन के लश्करों से मुसलमानों के हाथ आए और जो माल और हथियार और जानवर वे अपने कैम्प में समेट लाएँ वे ग़नीमत है और उसी में से पाँचवाँ हिस्सा निकालकर बाक़ी चार हिस्से फ़ौज में बाँट दिए जाएँगे,” (किताबुल-ख़राज, पे० 18)। यही राय यह्या-बिन-आदम (रह०) की है, जो उन्होंने अपनी किताब किताबुल-ख़राज में बयान की है, (पे० 27)। इससे भी ज़्यादा जो चीज़ ग़नीमत और फ़य के फ़र्क़ को साफ़ बयान करती है वह यह है कि नहावन्द की जंग के बाद जब ग़नीमत का माल बाँटा जा चुका था और जीता हुआ इलाक़ा इस्लामी हुकूमत में दाख़िल हो गया था, एक साहब, साइब-बिन-अक़रअ को क़िले में जवाहर की दो थैलियाँ मिलीं। उनके दिल में यह उलझन पैदा हुई कि क्या यह ग़नीमत का माल है जिसे फ़ौज में बाँटा जाए, या इसकी गिनती अब फ़य में है जिसे बैतुल-माल में दाख़िल होना चाहिए? आख़िरकार उन्होंने मदीना में हाज़िर होकर मामला हज़रत उमर (रज़ि०) के सामने पेश किया और उन्होंने फ़ैसला सुनाया कि उसे बेचकर उसकी क़ीमत बैतुल-माल में दाख़िल कर दी जाए। इससे मालूम हुआ कि ग़नीमत सिर्फ़ वे मनक़ूला माल (चल-सम्पत्ति) हैं, जो जंग के दौरान में फ़ौज के हाथ आ जाएँ। जंग ख़त्म होने के बाद ग़ैर-मनक़ूला माल (अचल-सम्पत्ति) की तरह मनक़ूला माल (चल-सम्पत्ति) भी फ़य के दायरे में दाख़िल हो जाते हैं। इमाम अबू-उबैद (रह०) इस वाक़िए को नक़्ल करने के बाद लिखते हैं, “जो माल दुश्मन से ताक़त के ज़रिए से हाथ लगे, जबकि अभी जंग हो रही हो, वह ग़नीमत है, और जंग ख़त्म होने के बाद जब देश 'दारुल-इस्लाम' बन गया हो, उस वक़्त जो माल मिले वह फ़य है, जिसे 'दारुल-इस्लाम' के आम लोगों के लिए वक़्फ़ होना चाहिए। उसमें 'ख़ुमुस' (पाँचवाँ हिस्सा) नहीं है।" (किताबुल-अमवाल, पे० 254) ग़नीमत को इस तरह महदूद करने के बाद बाक़ी जो माल, सामान और ज़मीनें इस्लाम-दुश्मनों से मुसलमानों की तरफ़ आ जाएँ वे दो बड़ी-बड़ी क़िस्मों पर बाँटे जा सकते हैं। एक वे जो लड़कर जीते जाएँ, जिनको इस्लामी फ़िक़्ह की ज़बान में 'अनवह' यानी जीत लिए जानेवाले देश कहा जाता है। दूसरे वे जो सुलह के नतीजे में मुसलमानों के हाथ आएँ, चाहे वह सुलह अपनी जगह पर मुसलमानों की फ़ौजी ताक़त के दबाव या रोब और हैबत ही की वजह से हुई हो। और इसी क़िस्म में वे सब माल भी आ जाते हैं जो 'अनवह' जीत जाने के सिवा किसी दूसरी सूरत से मुसलमानों के क़ब्ज़े में आएँ। इस्लाम के फ़क़ीहों के दरमियान जो कुछ बहसें पैदा हुई हैं वे सिर्फ़ पहली क़िस्म के मालों के बारे में पैदा हुई हैं कि उनकी ठीक-ठीक शरई हैसियत क्या है, क्योंकि वे 'वे ऐसे माल नहीं हैं जिनपर तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों' की तारीफ़ में नहीं आते। रहे दूसरी तरह के माल, तो उनके बारे में यह बात सभी मानते हैं कि वे फ़य हैं, क्योंकि उनका हुक्म साफ़-साफ़ क़ुरआन मजीद में बयान कर दिया गया है। आगे चलकर हम पहली क़िस्म के मालों की दीनी हैसियत पर तफ़सीली बात करेंगे।
مَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِۦ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰ فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡيَتَٰمَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينِ وَٱبۡنِ ٱلسَّبِيلِ كَيۡ لَا يَكُونَ دُولَةَۢ بَيۡنَ ٱلۡأَغۡنِيَآءِ مِنكُمۡۚ وَمَآ ءَاتَىٰكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَىٰكُمۡ عَنۡهُ فَٱنتَهُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 6
(7) जो कुछ भी अल्लाह इन बस्तियों के लोगों से अपने रसूल की तरफ़ पलटा दे, वह अल्लाह और रसूल और रिश्तेदारों और यतीमों और मिसकीनों और मुसाफ़िरों के लिए है,13 ताकि वे तुम्हारे मालदारों ही के दरमियान घूमता न रहे।14 जो कुछ रसूल तुम्हें दे वह ले लो और जिस चीज़ से वह तुमको रोक दे उससे रुक जाओ। अल्लाह से डरो, अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।15
13. पिछली आयत में सिर्फ़ इतनी बात कही गई थी कि उन मालों को हमलावर फ़ौज में ग़नीमतों की तरह न बाँटने की वजह क्या है, और क्यों उनका शरई हुक्म ग़नीमतों से अलग है। अब इस आयत में यह बताया गया है कि इन मालों के हक़दार कौन-कौन हैं। इनमें सबसे पहला हिस्सा अल्लाह और रसूल का है। इस हुक्म पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जिस तरह अमल किया उसकी तफ़सील मालिक-बिन-औस-बिन-अल-हदसान ने हज़रत उमर (रज़ि०) की रिवायत से यह नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) इस हिस्से में से अपना और अपने घरवालों का नफ़क़ा (ख़र्च) ले लेते थे और बाक़ी आमदनी जिहाद के लिए हथियार और सवारी के जानवर ख़रीदने पर ख़र्च करते थे, (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई वग़ैरा)। नबी (सल्ल०) के बाद यह हिस्सा मुसलमानों के बैतुल-माल की तरफ़ चला गया, ताकि यह उस मिशन की ख़िदमत पर ख़र्च हो जो अल्लाह ने अपने रसूल के सिपुर्द किया था। इमाम शाफ़िई (रह०) से यह राय नक़्ल हुई है कि ख़ास अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए जो हिस्सा था वह आप (सल्ल०) के बाद आप (सल्ल०) के ख़लीफ़ा के लिए है, क्योंकि आप (सल्ल०) उसके हक़दार अपने इमामत (सरदारी) के मंसब की बुनियाद पर थे, न कि रिसालत (पैग़म्बरी) के मंसब की वजह से। मगर शाफ़िई फ़क़ीहों में ज़्यादातर की राय इस मामले में वही है जो ज़्यादातर आलिमों की राय है कि यह हिस्सा अब मुसलमानों के दीनी और इजतिमाई फ़ायदों के लिए है, किसी ख़ास शख़्स के लिए नहीं है। दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों का है, और उनसे मुराद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रिश्तेदार हैं, यानी बनी-हाशिम और बनी-मुत्तलिब। यह हिस्सा इसलिए मुक़र्रर किया गया था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपनी ज़ात और अपने घरवालों के हक़ अदा करने के साथ-साथ अपने उन रिश्तेदारों के हक़ भी अदा कर सकें जो आप (सल्ल०) की मदद के मुहताज हों, या आप (सल्ल०) जिनकी मदद करने की ज़रूरत महसूस करें। नबी (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद यह भी एक अलग और मुस्तक़िल (स्थायी) हिस्से की हैसियत से बाक़ी नहीं रहा, बल्कि मुसलमानों के दूसरे मिसकीनों, यतीमों और मुसाफ़िरों के साथ बनी-हाशिम और बनी-मुत्तलिब के मुहताज लोगों के हक़ भी बैतुल-माल के ज़िम्मे आ गए, अलबत्ता इस वजह से उनका हक़ दूसरों से बढ़कर समझा गया कि ज़कात में उनका हिस्सा नहीं है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०), हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत उसमान (रज़ि०) के ज़माने में पहले दो हिस्से ख़त्म करके सिर्फ़ तीन हिस्से (यतीम, मिसकीन और मुसाफ़िर) फ़य के हक़दारों में शामिल रहने दिए गए, फिर इसी पर हज़रत अली (रज़ि०) ने अपने ज़माने में अमल किया। मुहम्मद-बिन-इसहाक़ (रह०) ने इमाम मुहम्मद बाक़िर (रह०) का कौल नक़्ल किया है कि अगरचे हज़रत अली (रज़ि०) की अपनी राय वही थी जो उनके अहले-बैत की राय थी (कि यह हिस्सा नबी सल्ल० के रिश्तेदारों को मिलना चाहिए) लेकिन उन्होंने अबू-बक्र (रज़ि०) और उमर (रज़ि०) की राय के ख़िलाफ़ अमल करना पसन्द न किया। हसन-बिन-मुहम्मद-बिन-हनफ़िया (रह०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) के बाद इन दोनों हिस्सों (यानी अल्लाह के रसूल सल्ल० के हिस्से और क़रीबी रिश्तेदारों के हिस्से) के बारे में रायें अलग-अलग हो गई थीं। कुछ लोगों की राय थी कि पहला हिस्सा नबी (सल्ल०) के ख़लीफ़ा को मिलना चाहिए। कुछ लोगों की राय थी कि दूसरा हिस्सा नबी (सल्ल०) के रिश्तेदारों को मिलना चाहिए। कुछ और लोगों का ख़याल था कि दूसरा हिस्सा ख़लीफ़ा के रिश्तेदारों को दिया जाना चाहिए। आख़िरकार इस बात पर सब एक राय हो गए कि ये दोनों हिस्से जिहाद की ज़रूरतों पर ख़र्च किए जाएँ। अता-बिन-साइब (रह०) कहते हैं कि हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) ने अपने ज़माने में नबी (सल्ल०) का हिस्सा और रिश्तेदारों का हिस्सा बनी-हाशिम को भेजना शुरू कर दिया था। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और ज़्यादातर हनफ़ी आलिमों की राय यह है कि इस मामले में वही अमल सही है जो खुलफ़ा-ए-राशिदीन (इस्लाम के पहले चार ख़लीफ़ा) के ज़माने में जारी था, (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़, पे० 19 से 21)। इमाम शाफ़िई (रह०) की राय यह है कि जिन लोगों का हाशिमी और मुत्तलिबी होना साबित हो या आम तौर पर वे इसी नाम से जाने जाते हों उनके मालदार और ग़रीब दोनों तरह के लोगों को फ़य में से माल दिया जा सकता है, (मुग़निल-मुहताज)। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि सिर्फ़ उनके मुहताज लोगों की इस माल से मदद की जा सकती है, अलबत्ता उनका हक़ दूसरों से बढ़कर है, (रूहुल-मआनी)। इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक इस मामले में हुकूमत पर कोई पाबन्दी नहीं है, जिस मद में जिस तरह मुनासिब समझे ख़र्च करे, मगर बेहतर यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के आल (ख़ानदानवालों) को पहले नम्बर पर रखे। (हाशियतुद-दुसूक़ी अलश-शरहिल-कबीर) बाक़ी तीन हिस्सों के बारे में फ़क़ीहों के दरमियान कोई बहस नहीं है। अलबत्ता इमाम शाफ़िई (रह०) और बाक़ी तीनों इमामों के बीच इख़्तिलाफ़ यह है कि इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक फ़य के तमाम माल को पाँच बराबर के हिस्सों में बाँटकर उनमें से एक हिस्सा ऊपर बयान की गई मदों पर इस तरह ख़र्च किया जाना चाहिए कि उसका 1/5 मुसलमानों की भलाई पर, 1/5 बनी-हाशिम और बनी-मुत्तलिब पर, 1/5 यतीमों पर, 1/5 मिसकीनों पर और 1/5 मुसाफ़िरों पर ख़र्च किया जाए। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०), इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम अहमद (रह०) इस बँटवारे को नहीं मानते, और उनकी राय यह है कि फ़य का पूरा-का-पूरा माल मुसलमानों की भलाई के लिए है। (मुग़निल-मुहताज)
14. यह क़ुरआन मजीद की सबसे अहम उसूली आयतों में से है, जिसमें इस्लामी समाज और हुकूमत की मआशी (आर्थिक) पॉलिसी का यह बुनियादी क़ायदों बयान किया गया है कि दौलत की गर्दिश पूरे समाज में आम होनी चाहिए, ऐसा न हो कि माल सिर्फ़ मालदारों ही में घूमता रहे, या अमीर दिन-पर-दिन और ज़्यादा अमीर और ग़रीब दिन-पर-दिन और ज़्यादा ग़रीब होते चले जाएँ। क़ुरआन मजीद में इस पॉलिसी को सिर्फ़ बयान ही करने पर बस नहीं किया गया है, बल्कि इसी मक़सद के लिए सूद (ब्याज) को हराम किया गया है, ज़कात फ़र्ज़ की गई है, ग़नीमत के मालों में से ख़ुमुस (पाँचवाँ हिस्सा) लने का हुक्म दिया गया। नफ़्ल सदक़ों की जगह-जगह नसीहत की गई है, अलग-अलग तरह के कफ़्फ़ारों (बदलों) की ऐसी शक्लें बताई गई हैं जिनसे दौलत के बहाव का रुख़ समाज के ग़रीब तबक़ों की तरफ़ फेर दिया जाए, मीरास का ऐसा क़ानून बनाया गया है कि हर मरनेवाले की छोड़ी हुई दौलत ज़्यादा-से-ज़्यादा बड़े दायरे में फैल जाए। अख़लाक़ी हैसियत से कंजूसी को बहुत बड़ी बुराई और फ़ैयाज़ी (दानशीलता) को बेहतरीन ख़ूबी क़रार दिया गया है। ख़ुशहाल तबक़ों को यह समझाया गया है कि उनके माल में सवाल करनेवाले और महरूम का हक़ है, जिसे ख़ैरात नहीं, बल्कि उनका हक़ समझकर ही उन्हें अदा करना चाहिए, और इस्लामी हुकूमत की आमदनी के एक बहुत बड़े ज़रिए, यानी फ़य के बारे में यह क़ानून मुक़र्रर कर दिया गया है कि उसका एक हिस्सा लाज़िमी तौर से समाज के ग़रीब तबक़ों को सहारा देने के लिए ख़र्च किया जाए। इस सिलसिले में यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि इस्लामी हुकूमत की आमदनी के ज़रिओं की सबसे अहम मदें दो हैं : एक ज़कात, दूसरी फ़य। ज़कात मुसलमानों के निसाब (तयशुदा माल) से ज़्यादा तमाम माल-दौलत, मवेशी, तिजारत का माल और खेती की पैदावार से वुसूल की जाती है और वह ज़्यादातर ग़रीबों ही के लिए ख़ास है। और फ़य में जिज़्‌या और ख़िराज (टैक्स) समेत वे तमाम आमदनियाँ शामिल हैं जो ग़ैर-मुस्लिमों से हासिल हों, और उनका भी बड़ा हिस्सा ग़रीबों ही के लिए ख़ास किया गया है। यह खुला हुआ इशारा इस तरफ़ है कि एक इस्लामी हुकूमत को अपनी आमदनी और ख़र्च का निज़ाम, और कुल मिलाकर देश के तमाम माली और मआशी मामलों का इन्तिज़ाम इस तरह करना चाहिए कि दौलत के ज़रिओं पर मालदार और असरदार लोगों का क़ब्ज़ा क़ायम न हो, और दौलत का बहाव न ग़रीबों से अमीरों की तरफ़ होने पाए, न वह अमीरों ही में चक्कर लगाती रहे।
15. बयान के सिलसिले के लिहाज़ से इस आयत का मतलब यह है कि बनी-नज़ीर के मालों के इन्तिज़ाम, और इसी तरह बाद के फ़य के मालों के बँटवारे के मामले में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जो फ़ैसला कर दें उसे बिना नानुकुर किए मान लो, जो कुछ नबी (सल्ल०) किसी को दें वह उसे ले ले, और जो किसी को न दें वह इसपर कोई हंगामा या माँग न करे। लेकिन चूँकि हुक्म के अलफ़ाज़ आम हैं, इसलिए यह सिर्फ़ फ़य के मालों के बँटवारे तक महदूद नहीं है, बल्कि इसका मंशा यह है कि तमाम मामलों में मुसलमान अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की फ़रमाबरदारी करें। इस मंशा को यह बात और ज़्यादा साफ़ कर देती है कि 'जो कुछ रसूल तुम्हें दे' के मुक़ाबले में ‘जो कुछ न दे' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किए गए हैं, बल्कि कहा यह गया है कि 'जिस चीज़ से वह तुम्हें रोक दे (या मना कर दे) उससे रुक जाओ।’ अगर हुक्म का मक़सद सिर्फ़ फ़य के मालों के बँटवारे के मामले तक फ़रमाँबरदारी को महदूद करना होता तो 'जो कुछ दे' के मुक़ाबले में ‘जो कुछ न दे' कहा जाता। मना करने या रोक देने के अलफ़ाज़ इस मौक़े पर लाना ख़ुद यह ज़ाहिर कर देता है कि हुक्म का मक़सद नबी (सल्ल०) के हुक्म की पैरवी और मना किए हुए कामों से रुकना है। यही बात है जो ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने भी फ़रमाई है। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब मैं तुम्हें किसी बात का हुक्म दूँ तो जहाँ तक मुमकिन हो उसपर अमल करो। और जिस बात से रोक हूँ उससे परहेज करो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) के बारे में रिवायत है कि एक बार उन्होंने तकरीर करते हुए कहा, “अल्लाह तआला ने फ़ुलाँ-फ़ुलाँ फैशन करनेवाली औरतों पर लानत की है।” इस तक़रीर को सुनकर एक औरत उनके पास आई और उसने पूछा, “यह बात आपने कहाँ से ली है? अल्लाह की किताब में तो यह बात मेरी नज़र से नहीं गुज़री।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने कहा, “तूने अगर अल्लाह की किताब पढ़ी होती तो यह बात ज़रूर तुझे उसमें मिल जाती। क्या तूने यह आयत नहीं पढ़ी कि 'रसूल जो तुम्हें दे उसे ले लो और जिससे तुम्हें मना कर दे उससे रुक जाओ,' (सूरा-59 हश्र, आयत-7)। उसने कहा, “हाँ, यह आयत तो मैंने पढ़ी है।” हज़रत अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने फ़रमाया, “तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस काम से मना किया है और यह ख़बर दी है कि अल्लाह ने ऐसा काम करनेवाली औरतों पर लानत की है।” औरत ने कहा, “अब मैं समझ गई।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, मुसनद इब्ने-अबी-हातिम)
لِلۡفُقَرَآءِ ٱلۡمُهَٰجِرِينَ ٱلَّذِينَ أُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأَمۡوَٰلِهِمۡ يَبۡتَغُونَ فَضۡلٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِضۡوَٰنٗا وَيَنصُرُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلصَّٰدِقُونَ ۝ 7
(8) (साथ ही वह माल) उन ग़रीब मुहाजिरों के लिए है जो अपने घरों और जायदादों से निकाल बाहर किए गए हैं।16 ये लोग अल्लाह की मेहरबानी और उसकी ख़ुशनूदी चाहते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की हिमायत पर कमर कसे रहते हैं। यही सच्चे लोग हैं।
16. इससे मुराद वे लोग हैं जो उस वक़्त मक्का में और अरब के दूसरे इलाक़ों से सिर्फ़ इस वजह से निकाल दिए गए थे कि उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था। बनी-नज़ीर का इलाका फ़तह होने से पहले तक इन मुहाजिरों के लिए गुज़र-बसर का कोई मुस्तक़िल ज़रिआ (स्थायी साधन) न था। अब हुक्म दिया गया कि यह माल जो इस वक़्त हाथ आया है, और आगे जो माल भी फ़य के तौर पर हाथ आएँ, उनमें आम मिसकीनों, यतीमों और मुसाफ़िरों के साथ-साथ इन लोगों का हक़ भी है, उनसे ऐसे सब लोगों को सहारा दिया जाना चाहिए जो अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और उसके दीन की ख़ातिर हिजरत पर मजबूर होकर दारुल-इस्लाम में आएँ। इस हुक्म की बुनियाद पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बनी-नज़ीर की जायदादों का एक हिस्सा मुहाजिरों में बाँट दिया और वे खजूरों के बाग़ जो अनसार ने अपने मुहाजिर भाइयों की मदद के लिए दे रखे थे उनको वापस कर दिए गए। लेकिन यह ख़याल करना सही नहीं है कि फ़य में मुहाजिरों का यह हिस्सा सिर्फ़ उसी ज़माने के लिए था। हक़ीक़त में इस आयत का मंशा यह है कि क़ियामत तक जो लोग भी मुसलमान होने की वजह से जलावतन होकर किसी मुस्लिम देश की हदों (सीमाओं) में पनाह लेने पर मजबूर हों, उनको बसाना और अपने पैरों पर खड़े होने के क़ाबिल बनाना उस देश की इस्लामी हुकूमत की ज़िम्मेदारियों में शामिल है, और उसे ज़कात के अलावा फ़य के माल में से भी इस मद पर ख़र्च करना चाहिए।
وَٱلَّذِينَ تَبَوَّءُو ٱلدَّارَ وَٱلۡإِيمَٰنَ مِن قَبۡلِهِمۡ يُحِبُّونَ مَنۡ هَاجَرَ إِلَيۡهِمۡ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمۡ حَاجَةٗ مِّمَّآ أُوتُواْ وَيُؤۡثِرُونَ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ وَلَوۡ كَانَ بِهِمۡ خَصَاصَةٞۚ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 8
(9) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन मुहाजिरों के आने से पहले ही ईमान लाकर 'दारुल-हिजरत' (घर-बार छोड़कर आ बसनेवाले आवास) में ठहरे थे।17 ये उन लोगों से मुहब्बत करते हैं जो हिजरत करके इनके पास आए हैं और जो कुछ भी उनको दे दिया जाए उसकी कोई ज़रूरत तक ये अपने दिलों में महसूस नहीं करते और अपने-आपपर दूसरों को तरजीह देते हैं, चाहे वे अपनी जगह ख़ुद मुहताज हों।18 हक़ीक़त यह है कि जो लोग अपने दिल की तंगी से बचा लिए गए वही कामयाबी पानेवाले हैं।19
17. मुराद हैं अनसार। यानी फ़य में सिर्फ़ मुहाजिरों ही का हक़ नहीं है, बल्कि पहले से जो मुसलमान दारुल-इस्लाम में आबाद हैं, वे भी इसमें हिस्सा पाने के हक़दार हैं।
18. यह तारीफ़ है मदीना तय्यिबा के अनसार की। मुहाजिरीन जब मक्का और दूसरे मक़ाम हिजरत करके उनके शहर में आए तो उन्होंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में यह पेशकश की कि हमारे बाग़ और खजूरों के पेड़ हाज़िर हैं, आप उन्हें हमारे और इन मुहाजिर भाइयों के दरमियान बाँट दें। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “ये लोग तो बाग़बानी नहीं जानते, ये उस इलाक़े से आए हैं जहाँ बाग़ नहीं हैं, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपने इन बाग़ों और खजूरों के पेड़ों में काम तुम करो और पैदावार में से हिस्सा इनको दो?” उन्होंने कहा, "हमने सुना और मान लिया,” (हदीस : बुख़ारी, इब्ने-जरीर)। इसपर मुहाजिरों ने कहा कि “हमने कभी ऐसे लोग नहीं देखे जो इतना ज़्यादा ईसार (त्याग) करनेवाले हों। ये काम ख़ुद करेंगे और हिस्सा हमको देंगे। हम तो समझते हैं कि सारा अज्र (सवाब) यही लूट ले गए।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, जब तक तुम इनकी तारीफ़ करते रहोगे और इनके हक़ में भलाई की दुआ करते रहोगे, तुमको भी अज्र मिलता रहेगा,” (हदीस : मुसनद अहमद)। फिर जब बनी-नज़ीर का इलाक़ा फ़तह हुआ तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया कि अब बन्दोबस्त की एक शक्ल यह है कि तुम्हारी जायदादों और यहूदियों के छोड़े हुए बाग़ों और खजूर के पेड़ों को मिलाकर एक कर दिया जाए और फिर इस पूरे सरमाए को तुम्हारे और मुहाजिरों के बीच बाँट दिया जाए। और दूसरी शक्ल यह है कि तुम अपनी जायदादें अपने पास रखो और ये छोड़ी हुई ज़मीनें मुहाजिरों में बाँट दी जाएँ। अनसार ने कहा, “ये जायदादें आप इनमें बाँट दें, और हमारी जायदादों में से भी जो कुछ आप चाहें इनको दे सकते हैं।" इसपर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) पुकार उठे, “ऐ अनसार के लोगो! अल्लाह तुम्हें इसका बेहतरीन बदला दे!!” (यह्या-बिन-आदम, बलाज़ुरी)। इस तरह अनसार की रज़ामन्दी से यहूदियों के छोड़े हुए माल मुहाजिरों में ही बाँट दिए गए और अनसार में से सिर्फ़ हज़रत अबू-दुजाना, हज़रत सहल-बिन-हुनैफ़ और (कुछ रिवायतों के मुताबिक़) हज़रत हारिस-बिन-अस-सिम्मा (रज़ि०) को हिस्सा दिया गया, क्योंकि ये लोग बहुत ग़रीब थे, (बलाज़ुरी, इब्ने-हिशाम, रूहुल-मआनी)। इसी ईसार (त्याग) और कुशादादिली का सुबूत अनसार ने उस वक़्त दिया जब बहरैन का इलाक़ा इस्लामी हुकूमत में शामिल हुआ। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) चाहते थे कि इस इलाक़े की जीती हुई ज़मीनें अनसार को दी जाएँ, मगर उन्होंने कहा कि “हम इसमें से कोई हिस्सा न लेंगे जब तक उतना ही हमारे मुहाजिर भाइयों को न दिया जाए,” (यह्या-बिन-आदम)। अनसार का यही वह ईसार (त्याग) और कुशादादिली है जिसपर अल्लाह तआला ने उनकी तारीफ़ की है।
19. 'बच गए’ नहीं फ़रमाया गया, बल्कि 'बचा लिए गए' कहा गया है, क्योंकि अल्लाह की मेहरबानी और उसकी मदद के बिना कोई शख़्स ख़ुद अपने बल पर दिल का अमीर नहीं हो सकता। यह ख़ुदा की वह नेमत है जो ख़ुदा ही की मेहरबानी से किसी को नसीब होती है। 'शुह' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में कंजूसी के लिए इस्तेमाल होता है, मगर जब इस लफ़्ज़ को नफ़्स (मन) से जोड़कर 'शुहे-नफ़्स' कहा जाए तो यह तंगनज़री, तंगदिली, कम हिम्मती, और दिल के छोटेपन के हम-मानी (पर्याय) हो जाता है जो कंजूसी से कहीं ज़्यादा बढ़कर चीज़ है, बल्कि ख़ुद कंजूसी की भी अस्ल जड़ वही है। इसी सिफ़त की वजह से आदमी दूसरे का हक़ मानना और अदा करना तो दूर, उसकी ख़ूबी को मानने तक से जी चुराता है। वह चाहता है कि दुनिया में सब कुछ उसी को मिल जाए और किसी को कुछ न मिले। दूसरों को ख़ुद देना तो दूर, कोई दूसरा भी अगर किसी को कुछ दे तो उसका दिल दुखता है। उसकी हिर्स (लालच) कभी अपने हक़ पर मुत्मइन नहीं होती, बल्कि वह दूसरों के हक़ों को छीनता है, या कम-से-कम दिल से यह चाहता है कि उसके आसपास दुनिया में जो अच्छी चीज़ भी है उसे अपने लिए समेट ले और किसी के लिए कुछ न छोड़े। इसी वजह से क़ुरआन में इस बुराई से बच जाने को कामयाबी की ज़मानत क़रार दिया गया है, और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसकी गिनती उन सबसे बुरी इनसानी सिफ़तों में की है जो फ़साद की जड़ हैं। हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “शुह से बचो, क्योंकि शुह ही ने तुमसे पहले के लोगों को हलाक किया। उसी ने उनको एक-दूसरे के ख़ून बहाने और दूसरों की हुर्मतों (इज़्ज़तों और हराम चीज़ों) को अपने लिए हलाल कर लेने पर उकसाया।” (हदीस : मुस्लिम, मुसनद अहमद, बैहक़ी, बुख़ारी) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र (रज़ि०) की रिवायत में ये अलफ़ाज़ हैं— "उसने उनको ज़ुल्म पर आमादा किया और उन्होंने ज़ुल्म किया, अल्लाह की नाफ़रमानी का हुक्म दिया और उन्होंने नाफ़रमानी की, रिश्ते-नाते तोड़ने के लिए कहा और उन्होंने रिश्ते-नाते तोड़े।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "ईमान और शुह्हे-नफ़्स किसी के दिल में जमा नहीं हो सकते।" (हदीस : इब्ने-अबी-शैबा, नसई, बैहक़ी, हाकिम) हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "दो आदतें हैं जो किसी मुसलमान के अन्दर जमा नहीं हो सकतीं, कंजूसी और बद-अख़लाक़ी।” (हदीस : अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, बुख़ारी) इस्लाम की इसी तालीम का फल है कि शख़्सी हैसियत से अलग, मुसलमान एक क़ौम की हैसियत से दुनिया में आज भी सबसे बढ़कर फैयाज़ (दानशील) और बड़े कुशादादिल हैं। जो क़ौमें सारी दुनिया में तंगदिली और कंजूसी के एतिबार से अपनी मिसाल नहीं रखतीं, ख़ुद उन ही में से निकले हुए लाखों और करोड़ों मुसलमान अपने हमनस्ल ग़ैर-मुस्लिमों के साथ-साथ रहते हैं। दोनों के दरमियान दिल की कुशादगी और तंगी के एतिबार से जो साफ़ फ़र्क़ पाया जाता है उसकी कोई वजह इसके सिवा बयान नहीं की जा सकती कि यह इस्लाम की अख़लाक़ी तालीम की देन है जिसने मुसलमानों के दिल बड़े कर दिए हैं।
وَٱلَّذِينَ جَآءُو مِنۢ بَعۡدِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا وَلِإِخۡوَٰنِنَا ٱلَّذِينَ سَبَقُونَا بِٱلۡإِيمَٰنِ وَلَا تَجۡعَلۡ فِي قُلُوبِنَا غِلّٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ رَبَّنَآ إِنَّكَ رَءُوفٞ رَّحِيمٌ ۝ 9
(10) (और वह उन लोगों के लिए भी है) जो इन अगलों के बाद आए हैं,20 जो कहते हैं कि “ऐ हमारे रब! हमें और हमारे उन सब भाइयों को माफ़ कर दे जो इससे पहले ईमान लाए हैं और हमारे दिलों में ईमानवालों के लिए कोई बुग़्ज़ (विद्वेष) न रख, ऐ हमारे रब! तू बड़ा मेहरबान और रहम करनेवाला है।"21
20. यहाँ तक जो हुक्म बयान हुए हैं, उनमें यह फ़ैसला कर दिया गया है कि फ़य में अल्लाह और रसूल, और रसूल के क़रीबी रिश्तेदारों, और यतीमों, और मिसकीनों और मुसाफ़िरों, और मुहाजिरों और अनसार, और क़ियामत तक आनेवाली मुसलमान नस्लों के हक़ हैं। क़ुरआन पाक का यही वह अहम और क़ानूनी फ़ैसला है जिसकी रौशनी में हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़, शाम (सीरिया) और मिस्र के जीते हुए देशों की ज़मीनों और जायदादों का और उन देशों की पिछली हुकूमतों और उनके हुक्मरानों की जायदादों का नया बन्दोबस्त किया। ये देश जब फ़तह हुए तो कुछ बड़े सहाबा किराम (रज़ि०) ने, जिनमें हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०), हज़रत बिलाल (रज़ि०), हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) और हज़रत सलमान फ़ारिसी (रज़ि०) जैसे बुज़ुर्ग शामिल थे, इस बात पर ज़ोर दिया कि इनको उन फ़ौजों में बाँट दिया जाए जिन्होंने लड़कर उन्हें फ़तह किया है। उनका ख़याल यह था कि ये माल ‘वे ऐसे माल नहीं हैं जिनपर तुमने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाए हों’ के दायरे में नहीं आते, बल्कि इनपर तो मुसलमानों ने अपने घोड़े और ऊँट दौड़ाकर इन्हें जीता है, इसलिए सिवाय उन शहरों और इलाक़ों के जिन्होंने जंग के बिना फ़रमाँबरदारी क़ुबूल की है, बाक़ी तमाम जीते हुए देश ग़नीमत (जंग में हासिल माल) की तारीफ़ (परिभाषा) में आते हैं और उनका शरई हुक्म यह है कि उनकी ज़मीनों और उनके रहनेवालों का पाँचवाँ हिस्सा बैतुल-माल के हवाले कर दिया जाए, और बाक़ी चार हिस्से फ़ौज में बाँट दिए जाएँ। लेकिन यह राय इस वजह से सही नहीं थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुबारक दौर में जो इलाक़े लड़कर जीते गए थे उनमें से किसी की ज़मीनों और रहनेवालों को भी नबी (सल्ल०) ने माले-ग़नीमत की तरह ख़ुमुस निकालने के बाद फ़ौज में नहीं बाँटा था। आप (सल्ल०) के ज़माने की दो सबसे नुमायाँ मिसालें फ़तह-मक्का और फ़तह-ख़ैबर की हैं। उनमें से मक्का को तो आप (सल्ल०) ने ज्यों-का-त्यों उसके रहनेवालों के हवाले कर दिया। रहा ख़ैबर, तो उसके बारे में हज़रत बुशैर-बिन-यसार (रज़ि०) की रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने उसके 36 हिस्से किए, और उनमें से 18 हिस्से इजतिमाई ज़रूरतों के लिए वक़्फ़ करके बाक़ी 18 हिस्से फ़ौज में बाँट दिए, (हदीस : अबू-दाऊद, बैहक़ी, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद, किताबुल-ख़राज लि-यह्या-बिन-आदम, फ़ुतूहुल-बुलदान लिल-बलाज़ुरी, फ़तहुल-क़दीर लि-इब्ने-हुमाम)। नबी (सल्ल०) के इस अमल से यह बात साफ़ हो गई थी कि जीती हुई ज़मीनों का हुक्म, अगरचे वे लड़कर ही जीती गई हों, ग़नीमत का नहीं है, वरना कैसे मुमकिन था कि नबी (सल्ल०) मक्का को तो बिलकुल ही मक्कावालों के हवाले कर देते, और ख़ैबर में से पाँचवाँ हिस्सा निकालने के बजाय उसका पूरा आधा हिस्सा इजतिमाई ज़रूरतों के लिए बैतुल-माल के क़ब्जे में ले लेते। इसलिए सुन्नत से जो बात साबित थी वह यह कि 'अनवह' फ़तह होनेवाले देशों के मामले में वक़्त के इमाम (हाकिम) को इख़्तियार है कि हालात के लिहाज़ से उनके बारे में जो फ़ैसला भी सबसे मुनासिब हो करे। वह उनको बाँट भी सकता है और अगर कोई ग़ैर-मामूली हालत किसी इलाक़े की हो, जैसा कि मक्का की थी, तो उसके रहनेवालों के साथ वह एहसान भी कर सकता है जो नबी (सल्ल०) ने मक्कावालों के साथ किया। मगर नबी (सल्ल०) के ज़माने में चूँकि जीतें बहुत ज़्यादा न हुई थीं, और अलग-अलग तरह के जीते हुए देशों का अलग-अलग हुक्म खुलकर लोगों के सामने न आया था, इसलिए हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में जब बड़े-बड़े देश फ़तह हुए तो सहाबा किराम (रज़ि०) को इस उलझन का सामना हुआ कि तलवार के ज़ोर पर फ़तह होनेवाले इलाक़े ग़नीमत हैं या फ़य। मिस्र की फ़तह के बाद हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) ने माँग की कि “इस पूरे इलाक़े को उसी तरह बाँट दीजिए जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ैबर को बाँटा था,” (अबू-उबैद)। शाम (सीरिया) और इराक़ के जीते हुए इलाक़ों के बारे में हज़रत बिलाल (रज़ि०) ने इस माँग पर ज़ोर दिया कि “तमाम ज़मीनों को जीत हासिल करनेवाली फ़ौजों के दरमियान उसी तरह बाँट दीजिए जिस तरह माले-ग़नीमत बाँटा जाता है,” (किताबुल-ख़राज, अबू-यूसुफ़)। दूसरी तरफ़ हज़रत अली (रज़ि०) की राय यह थी कि “इन ज़मीनों को उनके किसानों के पास रहने दीजिए, ताकि ये मुसलमानों के लिए आमदनी का ज़रिआ बने रहें,” (अबू-यूसुफ़, अबू-उबैद)। इसी तरह हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०) की राय यह थी कि “अगर आपने बाँटा तो इसके नतीजे बहुत बुरे होंगे। इस बँटवारे की बदौलत बड़ी-बड़ी जायदादें उन कुछ लोगों के क़ब्जे में चली जाएँगी जिन्होंने ये इलाक़े फ़त्‌ह किए हैं। फिर ये लोग दुनिया से विदा हो जाएँगे और इनकी जायदादें उनके वारिसों के पास रह जाएँगी, जिनमें कभी कोई एक ही औरत होगी या कोई एक मर्द होगा, लेकिन आनेवाली नस्लों के लिए कुछ न रहेगा, जिससे उनकी ज़रूरतें पूरी हों और इस्लामी सरहदों की हिफ़ाज़त के ख़र्चे भी पूरे किए जा सकें। लिहाज़ा आप ऐसा बन्दोबस्त करें जिसमें मौज़ूदा और आनेवाली नस्लों के फ़ायदों की बराबर हिफ़ाज़त हो।”(अबू-उबैद, पे० 59, फ़तहुल-बारी, हिस्सा-6, पे० 138)। हज़रत उमर (रज़ि०) ने हिसाब लगाकर देखा कि अगर इराक़ के आसपास के इलाक़ों को बाँटा जाए तो एक आदमी के हिस्से में क्या आएगा। मालूम हुआ कि दो-तीन किसान एक आदमी के हिस्से में आते हैं, (अबू-यूसुफ़, अबू-उबैद)। इसके बाद उन्होंने दिल के पूरे इत्मीनान के साथ यह राय क़ायम कर ली कि इन इलाक़ों को बाँटा न जाना चाहिए। चुनाँचे उन्होंने बाँटे जाने की माँग करनेवाले अलग-अलग सहाबा को जो जवाब दिए वे ये थे— “क्या आप चाहते हैं कि बाद के लोग इस हालत में आएँ कि उनके लिए कुछ न हो?" (अबू-उबैद) “उन मुसलमानों का क्या बनेगा जो बाद में आएँगे और हालत यह पाएँगे कि ज़मीन अपने किसानों सहित बँट चुकी है और बाप-दादा से लोगों ने विरासत में सम्भाल ली है? यह हरगिज़ मुनासिब नहीं है।” (अबू-यूसुफ़) "तुम्हारे बाद आनेवाले मुसलमानों के लिए क्या रहेगा? और मुझे ख़तरा है कि अगर मैं इसे बाँट दूँ तो तुम पानी पर आपस में लड़ोगे।” (अबू-उबैद) "अगर बाद में आनेवालों का ख़याल न होता तो जो इलाक़ा भी मैं फ़तह करता उसे बाँट देता जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ख़ैबर को बाँट दिया।” (हदीस : बुख़ारी, मुवत्ता, अबू-उबैद) "नहीं, यह तो ग़ैर-मनक़ूला (अचल सम्पत्ति, Real estate) है। मैं इसे रोक रखूँगा ताकि फ़तह हासिल करनेवाली फ़ौजों और आम मुसलमानों, सबकी ज़रूरतें इससे पूरी होती रहें।" (अबू-उबैद) लेकिन इन जवाबों से लोग मुत्मइन न हुए और उन्होंने कहना शुरू किया कि आप ज़ुल्म कर रहे हैं। आख़िरकार हज़रत उमर (रज़ि०) ने मजलिसे-शूरा (सलाहकार समिति) का इजलास बुलाया और उनके सामने यह मामला रखा। इस मौक़े पर जो तक़रीर उन्होंने की उसके कुछ जुमले ये हैं— "मैंने आप लोगों को सिर्फ़ इसलिए तकलीफ़ दी है कि आप उस अमानत के उठाने में मेरे साथ शरीक हों जिसकी ज़िम्मेदारी आपके मामलों को चलाने के लिए मेरे ऊपर रखी गई है। मैं आप ही लोगों में से एक आदमी हूँ, और आप वे लोग हैं जो आज हक़ का इक़रार करनेवाले हैं। आपमें से जो चाहे मेरी राय से इत्तिफ़ाक़ करे और जो चाहे इख़्तिलाफ़ करे। मैं यह नहीं चाहता कि आप मेरी ख़ाहिश की पैरवी करें। आपके पास अल्लाह की किताब है जो बिलकुल हक़ कहती है। ख़ुदा की क़सम! मैंने अगर कोई बात कही है जिसे मैं करना चाहता हूँ तो इससे मेरा मक़सद हक़ के सिवा कुछ नहीं है ...... आप उन लोगों की बात सुन चुके हैं जिनका ख़याल यह है कि मैं उनके साथ ज़ुल्म कर रहा हूँ और उनका हक़ मारना चाहता हूँ। हालाँकि मैं इससे ख़ुदा की पनाह माँगता हूँ कि कोई ज़ुल्म करूँ। मैं बड़ा संगदिल होऊँगा अगर ज़ुल्म करके कोई ऐसी चीज़ जो हक़ीक़त में उनकी हो, उन्हें न दूँ और किसी दूसरे को दे दूँ। मगर मैं यह देख रहा हूँ कि किसरा की सरज़मीन के बाद अब कोई और इलाक़ा फ़तह होनेवाला नहीं है। अल्लाह तआला ने ईरानियों के माल और उनकी ज़मीनें और उनके किसान, सब हमारे क़ब्ज़े में दे दिए हैं। हमारी फ़ौजों ने ग़नीमतों के जो माल हासिल किए थे वे तो मैं ख़ुमुस (पाँचवाँ हिस्सा) निकालकर उनमें बाँट चुका हूँ, और अभी जो ग़नीमतों के माल तक़सीम नहीं हुए हैं, मैं उनको बाँटने की फ़िक्र में लगा हुआ हूँ। अलबत्ता ज़मीनों के बारे में मेरी राय यह है कि उन्हें और उनके किसानों को न बाँटूँ, बल्कि उनपर ख़िराज (टैक्स) और किसानों पर जिज़्‌या लगा दूँ, जिसे वे हमेशा अदा करते रहें और यह इस वक़्त के आम मुसलमानों और लड़नेवाली फ़ौजों और मुसलमानों के बच्चों के लिए और बाद की आनेवाली नस्लों के लिए फ़य हो। क्या आप लोग नहीं देखते कि हमारी इन सरहदों के लिए लाज़िमी तौर से ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो इनकी हिफ़ाज़त करते रहें? क्या आप नहीं देखते कि ये बड़े-बड़े देश, शाम (सीरिया), अल-जज़ीरा, कूफ़ा, बसरा, मिस्र, इन सबमें फ़ौजें रहनी चाहिएँ और उनको पाबन्दी से तनख़ाहें मिलनी चाहिएँ? अगर मैं इन ज़मीनों को इनके किसानों समेत बाँट दूँ तो ये ख़र्चे कहाँ से आएँगे?" यह बहस दो-तीन दिन चलती रही। हज़रत उसमान (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत तलहा (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) वग़ैरा ने हज़रत उमर (रज़ि०) की राय से इत्तिफ़ाक़ किया, लेकिन फ़ैसला न हो सका। आख़िरकार हज़रत उमर (रज़ि०) उठे और उन्होंने फ़रमाया कि मुझे अल्लाह की किताब से एक दलील मिल गई है जो इस मसले का फ़ैसला कर देनेवाली है। इसके बाद उन्होंने सूरा-59 हश्र की यही आयतें ‘मा अफ़ाअल्लाहु अला रसूलिही मिनहुम' से लेकर 'रब्बना इन-न-क रऊफ़ुर्रहीम' तक पढ़ीं और उनसे यह दलील ली कि अल्लाह की दी हुई इन जायदादों में सिर्फ़ इस ज़माने के लोगों का ही हिस्सा नहीं है, बल्कि बाद के आनेवालों को भी अल्लाह ने उनके साथ शरीक किया है, फिर यह कैसे सही हो सकता है कि इस फ़य को जो सबके लिए है, हम इन जीतनेवालों में बाँट दें और बादवालों के लिए कुछ न छोड़ें। इसके अलावा अल्लाह तआला फ़रमाता है कि “ताकि यह माल तुम्हारे मालदारों ही में चक्कर न लगाता रहे।” लेकिन अगर मैं इसे जीतनेवालों में बाँट दूँ तो यह तुम्हारे मालदारों ही में चक्कर लगाता रहेगा और दूसरों के लिए कुछ न बचेगा। यह दलील थी जिसने सबको मुत्मइन कर दिया और इस बात पर सब एक राय हो गए कि उन तमाम जीते हुए इलाक़ों को आम मुसलमानों के लिए फ़य क़रार दिया जाए, जो लोग उन ज़मीनों पर काम कर रहे हैं उन ही के हाथों में उन्हें रहने दिया जाए और उनपर ख़िराज (टैक्स) और जिज़्‌या लगा दिया जाए। (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़, पे० 23 से 27 और 35, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) इस फ़ैसले के मुताबिक़ जीती हुई ज़मीनों की अस्ल हैसियत यह क़रार पाई कि कुल मिलाकर पूरी मुस्लिम मिल्लत (समुदाय) उनकी मालिक है, जो लोग पहले से इन ज़मीनों पर काम कर रहे थे उनको मिल्लत ने अपनी तरफ़ से किसान के तौर पर बरक़रार रखा है, वे इन ज़मीनों पर इस्लामी हुकूमत को एक मुक़र्रर लगान अदा करते रहेंगे, नस्ल-दर-नस्ल खेती के ये हक़ और इख़्तियार उनकी विरासत में मुन्तक़िल (स्थानान्तरित) होते रहेंगे और वे उन हक़ों को न बेच भी सकेंगे, मगर ज़मीन के अस्ल मालिक वे न होंगे, बल्कि मुस्लिम मिल्लत उनकी मालिक होगी। इमाम अबू-उबैद (रह०) ने अपनी किताब किताबुल-अमवाल में इस क़ानूनी हैसियत को इस तरह बयान किया है— “हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़ के इलाक़े के लोगों को उनकी ज़मीन पर बरक़रार रखा, और उनके लोगों पर जिज़्‌या और उनकी ज़मीनों पर टैक्स लगा दिया।” (पे०-57) "इमाम (यानी इस्लामी हुकूमत का हाकिम) जब जीते हुए देशों के लोगों को उनकी ज़मीनों पर बरक़रार रखे तो वे उन ज़मीनों को विरासत में भी मुन्तक़िल कर सकेंगे और बेच भी सकेंगे।” (पे०-84) उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) के ज़माने में शअबी (रह०) से पूछा गया कि क्या इराक़ के इलाक़े के लोगों से कोई समझौता है? उन्होंने जवाब दिया कि समझौता तो नहीं है, मगर जब उनसे ख़िराज लेना क़ुबूल कर लिया गया तो यह उनके साथ समझौता हो गया। (अबू-उबैद, पे०-49, अबू-यूसुफ़, पे०-28) हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में उतबा-बिन-फ़र्क़द ने फ़ुरात के किनारे एक ज़मीन ख़रीदी। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनसे पूछा, “तुमने यह ज़मीन किससे ख़रीदी है?” उन्होंने कहा, “इसके मालिकों से।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “इसके मालिक तो ये लोग हैं (यानी मुहाजिरीन और अनसार)।” उमर (रज़ि०) की राय यह थी कि इन ज़मीनों के अस्ल मालिक मुसलमान हैं। (अबू-उबैद, पे०-74) इस फ़ैसले के मुताबिक़ जीते गए देशों के जो माल मुसलमानों की इजतिमाई मिलकियत क़रार दिए गए वे ये थे— (1) वे ज़मीनें और इलाक़े जो किसी सुलह (सन्धि) के नतीजे में इस्लामी हुकूमत के क़ब्ज़े में आएँ (2) वह फ़िदया या ख़िराज (टैक्स) या जिज़्‌या जो किसी इलाक़े के लोगों ने जंग के बिना ही मुसलमानों से पनाह हासिल करने के लिए अदा करना क़ुबूल किया हो (3) वे ज़मीनें और जायदादें जिनके मालिक उन्हें छोड़कर भाग गए (4) वे जायदादें जिनके मालिक मारे गए और कोई मालिक बाक़ी न रहा (5) वे ज़मीनें जो पहले से किसी के क़ब्ज़े में न थीं (6) वे ज़मीनें जो पहले से लोगों के क़ब्ज़े में थीं, मगर उनके पिछले मालिकों को बरक़रार रखकर उनपर जिज़्‌या और ख़िराज लागू कर दिया गया (7) पहले हुकूमत कर चुके ख़ानदानों की जागीरें (8) पिछली हुकूमतों की मिलकियतें (तफ़सीलात के लिए देखिए बदाइउस-सनाइ, हिस्सा-7, पे० 116, 118; किताबुल-ख़राज, यह्या बिन-आदम, पे० 22, 64; मुग़निल-मुहताज, हिस्सा-8, पे० 93; हाशियतुद-दुसूकी अलश-शरहिल- कबीर, हिस्सा-2, पे० 190; ग़ायतुल-मुन्तहा, हिस्सा-1, पे० 167, 471)। ये चीज़ें चूँकि सहाबा किराम (रज़ि०) की ताईद से फ़य ठहराई गई थीं, इसलिए इस्लाम के फ़क़ीहों के दरमियान भी इनके फ़य क़रार दिए जाने पर उसूली तौर पर एक राय पाई जाती है। अलबत्ता इख़्तिलाफ़ कुछ बातों में है, जिन्हें हम मुख़्तसर तौर पर नीचे बयान करते हैं— हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि जीते गए देशों की ज़मीनों के मामले में इस्लामी हुकूमत (फ़क़ीहों की ज़बान में इमाम) को इख़्तियार है, चाहे तो उनमें से ख़ुमुस (पाँचवाँ हिस्सा) लेकर बाक़ी जीतनेवाली फ़ौज में बाँट दे, और चाहे तो उनको पिछले मालिकों के क़ब्ज़े में रहने दे और उनके मालिकों पर जिज़्‌या और ज़मीनों पर टैक्स लगा दे। इस सूरत में यह हमेशा-हमेशा के लिए मुसलमानों के लिए वक़्फ़ क़रार पाएँगी, (बदाइउस-सनाइ, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, शरहुल-इनाया अलल-हिदाया, फ़तहुल-क़दीर)। यही राय अब्दुल्लाह-बिन-मुबारक (रह०) ने इमाम सुफ़ियान सौरी (रह०) से भी नक़्ल की है। (यह्या-बिन-आदम, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद) मालिकी मसलक के आलिम कहते हैं कि मुसलमानों के सिर्फ़ जीत हासिल कर लेने ही से ये ज़मीनें ख़ुद-ब-ख़ुद मुसलमानों के लिए वक़्फ़ हो जाती हैं। उनको वक़्फ़ करने के लिए न इमाम के फ़ैसले की ज़रूरत है और न मुजाहिदीन को राज़ी करने की। इसके अलावा मालिकी आलिमों के यहाँ मशहूर राय यह है कि सिर्फ़ ज़मीनें ही नहीं, जीते हुए इलाक़ों के मकान और इमारतें भी हक़ीक़त में मुसलमानों के लिए वक़्फ़ हैं, अलबत्ता इस्लामी हुकूमत उनपर किराया लागू नहीं करेगी। (हाशियतुद-दुसूक़ी) हंबली मसलक के आलिम इस हद तक हनफ़ी आलिमों से इत्तिफ़ाक़ करते हैं कि ज़मीनों को जंग जीतनेवालों में बाँटना, या मुसलमानों पर वक़्फ़ कर देना इमाम के बस में है। और इस मामले में मालिकी आलिमों से इत्तिफ़ाक़ करते हैं कि जीते हुए देशों के मकान भी अगरचे वक़्फ़ में शामिल होंगे, मगर उनपर किराया न लगाया जाएगा। (ग़ायातुल-मुन्तहा, इसमें हंबली मसलक के मुताबिक़ दिए गए फ़तवे जमा किए गए हैं और दसवीं सदी ई० से इस मसलक में फ़तवा इसी किताब के मुताबिक़ दिया जाता है) शाफ़िई आलिमों की राय यह है कि इलाक़े के तमाम मनक़ूला माल (चल-सम्पत्ति) ग़नीमत हैं, और तमाम ग़ैर-मनक़ूला माल (ज़मीनें और मकान) को फ़य क़रार दिया जाएगा। (मुग़निल-मुहताज) कुछ फ़क़ीह कहते हैं कि 'अनवह' फ़तह होनेवाले देशों की ज़मीनों को अगर इमाम मुसलमानों के लिए वक़्फ़ करना चाहे तो लाज़िम है कि वह पहले जीतनेवाली फ़ौजों की रज़ामन्दी हासिल करे। इसके लिए वे दलील यह पेश करते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़ के इलाक़े की फ़तह से पहले जरीर-बिन-अब्दुल्लाह अल-बजली (रज़ि०) से, जिनके क़बीले के लोग क़ादिसिया की जंग में शरीक होनेवाली फ़ौज का चौथाई हिस्सा थे, यह वादा किया था कि जीते हुए इलाक़े का चौथाई हिस्सा उनको दिया जाएगा। चुनाँचे दो-तीन साल तक यह हिस्सा उनके पास रहा। फिर हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनसे फ़रमाया कि “अगर मैं बँटवारे के मामले में ज़िम्मेदार और जवाबदेह न होता तो जो कुछ तुम्हें दिया जा चुका है वह तुम्हारे पास ही रहने दिया जाता। लेकिन अब मैं देखता हूँ कि लोगों की तादाद बढ़ गई है, इसलिए मेरी राय यह है कि तुम इसे आम लोगों को वापस कर दो।” हज़रत जरीर (रज़ि०) ने इस बात को क़ुबूल कर लिया और हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनको इसपर अस्सी (80) दीनार बतौर इनाम दिए (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़; किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)। इससे वे यह दलील लेते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने जीतनेवालों को राज़ी करने के बाद जीते हुए इलाक़ों को मुसलमानों के लिए वक़्फ़ क़रार देने का फ़ैसला किया था। लेकिन ज़्यादातर फ़क़ीहों ने इस दलील को नहीं माना है। क्योंकि तमाम जीते गए देशों के मामले में तमाम जीतनेवालों से इस तरह की कोई रज़ामन्दी नहीं ली गई थी, और सिर्फ़ हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह के साथ यह मामला सिर्फ़ इसलिए किया गया था कि फ़तह से पहले, इससे पहले कि जीती गई ज़मीनों के बारे में सबकी राय से कोई फ़ैसला होता, हज़रत उमर (रज़ि०) उनसे एक वादा कर चुके थे, इसलिए वादे की पाबन्दी से आज़ादी हासिल करने के लिए उनको उन्हें राज़ी करना पड़ा। उसे कोई आम क़ानून क़रार नहीं दिया जा सकता। फ़क़ीहों का एक और गरोह कहता है कि वक़्फ़ क़रार दे देने के बाद भी हुकूमत को यह इख़्तियार बाक़ी रहता है कि किसी वक़्त उन ज़मीनों को फिर से जीतनेवालों में बाँट दे। इसके लिए वे इस रिवायत से दलील लेते हैं कि एक बार हज़रत अली (रज़ि०) ने लोगों को मुख़ातब करके फ़रमाया, “अगर यह अन्देशा न होता कि तुम एक-दूसरे से लड़ोगे तो मैं जीता हुआ इलाक़ा तुम्हारे दरमियान बाँट देता,” (किताबुल-ख़राज लि-अबी-यूसुफ़, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद)। लेकिन ज़्यादातर फ़क़ीहों ने इस राय को भी क़ुबूल नहीं किया है और वे इसपर एक राय हैं कि जब एक बार जीते गए इलाक़े के लोगों पर जिज़्‌या और ख़िराज लागू करके उन्हें उनकी ज़मीनों पर बरक़रार रखने का फ़ैसला कर दिया गया हो तो उसके बाद कभी यह फ़ैसला बदला नहीं जा सकता। रही वह बात जो हज़रत अली (रज़ि०) की तरफ़ जोड़ी जाती है, तो उसपर अबू-बक्र जस्सास (रह०) ने अहकामुल-क़ुरआन में तफ़सीली बहस करके यह साबित किया है कि यह रिवायत सही नहीं है।
21. इस आयत में अगरचे अस्ल मक़सद सिर्फ़ यह बताना है कि फ़य के बँटवारे में हाज़िर और मौजूद लोगों का ही नहीं, बाद में आनेवाले मुसलमानों और उनकी आनेवाली नस्लों का हिस्सा भी है, लेकिन साथ-साथ इसमें एक अहम अख़लाक़ी नसीहत भी मुसलमानों को दी गई है, और वह यह है कि किसी मुसलमान के दिल में किसी दूसरे मुसलमान के लिए कपट न होना चाहिए, और मुसलमानों के लिए सही रवैया यह है कि वे अपने बुज़ुर्गों के हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करते रहें, न यह कि वे उनपर लानत भेजें और बुरा-भला कहें। मुसलमानों को जिस रिश्ते ने एक-दूसरे के साथ जोड़ा है वह अस्ल में ईमान का रिश्ता है। अगर किसी शख़्स के दिल में ईमान की अहमियत दूसरी तमाम चीज़ों से बढ़कर हो तो ज़रूर वह उन सब लोगों का भला चाहेगा जो ईमान के रिश्ते से उसके भाई हैं। उनके लिए बुरा चाहने का जज़बा और कपट और नफ़रत उसके दिल में उसी वक़्त जगह पा सकती है जबकि ईमान की क़द्र उसकी निगाह में घट जाए और किसी दूसरी चीज़ को वह उससे ज़्यादा अहमियत देने लगे। लिहाज़ा यह ठीक ईमान का तक़ाज़ा है कि एक मोमिन का दिल किसी दूसरे मोमिन के ख़िलाफ़ नफ़रत और कपट से ख़ाली हो। इस मामले में बेहतरीन सबक़ एक हदीस से मिलता है जो नसई ने हज़रत अनस (रज़ि०) से रिवायत की है। उनका बयान है कि एक बार तीन दिन लगातार यह होता रहा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपनी मजलिस में यह फ़रमाते कि अब तुम्हारे सामने एक ऐसा शख़्स आनेवाला है जो जन्नतवालों में से है, और हर बार वह आनेवाले शख़्स अनसार में से एक साहब ही होते। यह देखकर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) को जुस्तजू (जिज्ञासा) पैदा हुई कि आख़िर यह क्या ऐसा अमल करते हैं जिसकी वजह से नबी (सल्ल०) ने इनके बारे में बार-बार यह ख़ुशख़बरी सुनाई है। चुनाँचे वे एक बहाना करके तीन दिन लगातार उनके यहाँ जाकर रात गुजारते रहे, ताकि उनकी इबादत का हाल देखें। मगर उनके रात गुज़ारने में कोई ग़ैर-मामूली चीज़ उन्हें नज़र न आई। आख़िरकार उन्होंने ख़ुद ही पूछ लिया कि भाई! आप क्या अमल ऐसा करते हैं जिसकी वजह से हमने नबी (सल्ल०) से आपके बारे में यह बड़ी ख़ुशख़बरी सुनी है? उन्होंने कहा, “मेरी इबादत का हाल तो आप देख ही चुके हैं। अलबत्ता एक बात है जो शायद इसका सबब बनी हो, और वह यह है कि मैं अपने दिल में किसी मुसलमान के ख़िलाफ़ कपट नहीं रखता और न किसी ऐसी भलाई पर जो अल्लाह ने उसे दी हो, उससे हसद (जलन) रखता हूँ।" इसका यह मतलब नहीं है कि कोई मुसलमान अगर किसी दूसरे मुसलमान की बात में या अमल में कोई ग़लती पाता हो तो वह उसे ग़लत न कहे। ईमान का तक़ाज़ा यह हरगिज़ नहीं है कि मोमिन ग़लती भी करे तो उसको सही कहा जाए, या उसकी ग़लत बात को ग़लत न कहा जाए। लेकिन किसी चीज़ को दलील के साथ ग़लत कहना और अदब व सलीक़े के साथ उसे बयान कर देना और चीज़ है, और कपट और नफ़रत, बुराई करना और बुरा-भला कहना बिलकुल ही एक दूसरी चीज़। यह हरकत मौज़ूदा ज़माने के ज़िन्दा लोगों के बारे में की जाए तब भी एक बड़ी बुराई है, लेकिन मरे हुए बुज़ुर्गों के बारे में यह जुर्म करना तो और ज़्यादा बड़ी बुराई है, क्योंकि वह नफ़्स (मन) एक बहुत गन्दा नफ़्स होगा जो मरनेवालों को भी माफ़ करने के लिए तैयार न हो। और उन सबसे बढ़कर सख़्त बुराई यह है कि कोई आदमी उन लोगों के बारे में बुराई करे जिन्होंने इन्तिहाई सख़्त आज़माइशों के दौर में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दोस्ती का हक़ अदा किया था और अपनी जानें लड़ाकर दुनिया में इस्लाम का वह नूर फैलाया था जिसकी बदौलत आज हमें ईमान की नेमत मिली है। उनके दरमियान जो इख़्तिलाफ़ पैदा हुए उनमें अगर एक शख़्स किसी फ़रीक़ (पक्ष) को हक़ पर समझता हो और दूसरे फ़रीक़ की राय उसकी राय में सही न हो तो वह यह राय रख सकता है और उसे अदब के दायरे में बयान भी कर सकता है। मगर एक फ़रीक़ की हिमायत में ऐसा हद से आगे बढ़ जाना कि दूसरे फ़रीक़ के ख़िलाफ़ दिल बुग़्ज़ (कपट) और नफ़रत से गाँठ भर जाए और ज़बान और क़लम से बुराई निकलने लगे, एक ऐसी हरकत है जो ख़ुदा से कि डरनेवाला कोई इनसान नहीं कर सकता। क़ुरआन की साफ़ तालीम के ख़िलाफ़ यह हरकत जो लोग करते हैं वे आम तौर पर अपनी इस हरकत के लिए यह बहाना बनाते हैं कि क़ुरआन ईमानवालों के ख़िलाफ़ कपट रखने से मना करता है, और हम जिनके ख़िलाफ़ कपट रखते हैं वे मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ थे। लेकिन यह इलज़ाम उस गुनाह से भी ज़्यादा बुरा है जिसकी सफ़ाई में यह बहाने के तौर पर पेश किया जाता है। क़ुरआन मजीद की यही आयतें जिनके बयान के सिलसिले में अल्लाह तआला ने बाद के आनेवाले मुसलमानों को अपने से पहले गुज़रे हुए ईमानवालों से बुग़्ज़ (दिल में दुश्मनी) न रखने और उनके हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करने की तालीम दी है, उनके इस इलज़ाम को रद्द करने के लिए काफ़ी हैं। इन आयतों में एक के बाद एक तीन गरोहों को फ़य का हक़दार क़रार दिया गया है। एक मुहाजिरीन, दूसरे अनसार, तीसरे उनके बाद आनेवाले मुसलमान। और इन बाद के आनेवाले मुसलमानों से कहा गया है कि तुमसे पहले जिन लोगों ने ईमान लाने में तेज़ी दिखाई है उनके हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करो। ज़ाहिर है कि इस मौक़ा-महल के एतिबार से ईमान लाने में पहल करनेवालों से मुराद मुहाजिरीन और अनसार के सिवा और कोई नहीं हो सकता। फिर अल्लाह तआला ने इसी सूरा-59 हश्र की आयतें—11 से 17 में यह भी बता दिया है कि मुनाफ़िक कौन लोग थे। इससे यह बात बिलकुल ही खुल जाती है कि मुनाफ़िक वे थे जिन्होंने बनी-नज़ीर की जंग के मौक़े पर यहूदियों की पीठ ठोंकी थी, और उनके मुक़ाबले में ईमानवाले वे थे जो इस जंग में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ शामिल थे। इसके बाद क्या एक मुसलमान, जो ख़ुदा का कुछ भी डर दिल में रखता हो, यह हिम्मत कर सकता है कि उन लोगों के ईमान का इनकार करे जिनके ईमान की गवाही अल्लाह तआला ने ख़ुद दी है? इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) ने इस आयत से दलील लेते हुए यह राय ज़ाहिर की है कि फ़य में उन लोगों का कोई हिस्सा नहीं है जो सहाबा किराम (रज़ि०) को बुरा कहते हैं, (अहकामुल-क़ुरआन लि-इब्ने-अरबी, ग़ायतुल-मुन्तहा)। लेकिन हनफ़ी और शाफ़िई आलिमों ने इस राय को तसलीम नहीं किया है। इसकी वजह यह है कि अल्लाह तआला ने तीन गरोहों को फ़य में हिस्सेदार क़रार देते हुए हर एक की एक नुमायाँ ख़ूबी की तारीफ़ की है, मगर उनमें से कोई तारीफ़ भी बतौर शर्त नहीं है कि वह शर्त उस गरोह में पाई जाती हो तो उसे हिस्सा दिया जाए वरना नहीं। मुहाजिरों के बारे में फ़रमाया कि “वे अल्लाह की मेहरबानी और उसकी ख़ुशनूदी चाहते हैं और अल्लाह और उसके रसूल की हिमायत के लिए कमर कसे रहते हैं।” इसका यह मतलब नहीं है कि जिस मुहाजिर में यह सिफ़त न पाई जाए वह फ़य में से हिस्सा पाने का हक़दार नहीं है। अनसार के बारे में फ़रमाया कि “वे मुहाजिरों से मुहब्बत करते हैं और जो कुछ भी उनको दे दिया जाए उसके लिए अपने दिलों में कोई तलब नहीं पाते, चाहे वे ख़ुद तंगदस्त हों।” इसका भी यह मतलब नहीं है कि फ़य में किसी ऐसे अनसारी का कोई हक़ नहीं जो मुहाजिरों से मुहब्बत न रखता हो और जो कुछ उनको दिया जा रहा हो उसे ख़ुद हासिल करने का ख़ाहिशमन्द हो। लिहाज़ा तीसरे गरोह की यह ख़ूबी कि “अपने से पहले ईमान लानेवालों के लिए वह मग़फ़िरत की दुआ करता है और अल्लाह से दुआ माँगता है कि किसी ईमानवाले के लिए उसके दिल में बुग़्ज़ (दुश्मनी व नफ़रत) न हो,” यह भी फ़य में हक़दार होने की शर्त नहीं है, बल्कि एक अच्छी ख़ूबी की तारीफ़ और इस बात की नसीहत है कि ईमानवालों का रवैया दूसरे ईमानवालों के साथ और अपने से पहले गुज़रे हुए ईमानवालों के मामले में क्या होना चाहिए।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ نَافَقُواْ يَقُولُونَ لِإِخۡوَٰنِهِمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَئِنۡ أُخۡرِجۡتُمۡ لَنَخۡرُجَنَّ مَعَكُمۡ وَلَا نُطِيعُ فِيكُمۡ أَحَدًا أَبَدٗا وَإِن قُوتِلۡتُمۡ لَنَنصُرَنَّكُمۡ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 10
(11) तुमने22 देखा नहीं उन लोगों को जिन्होंने मुनाफ़क़त (कपटाचार) का तरीक़ा अपनाया है? ये अपने कुफ़्र करनेवाले अहले-किताब भाइयों से कहते हैं, “अगर तुम्हें निकाला गया तो हम तुम्हारे साथ निकलेंगे, और तुम्हारे मामले में हम किसी की बात हरगिज़ न मानेंगे, और अगर तुमसे जंग की गई तो हम तुम्हारी मदद करेंगे।” मगर अल्लाह गवाह है कि ये लोग बिलकुल झूठे हैं।
22. इस पूरे रुकू (आयतें—11 से 17) के अन्दाज़े-बयान से यह बात ज़ाहिर होती है कि यह उस ज़माने में उतरा था जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बनी-नज़ीर को मदीना से निकल जाने के लिए दस दिन का नोटिस दिया था और उनकी घेराबन्दी शुरू होने में कई दिन बाक़ी थे। जैसा कि हम इससे पहले बयान कर चुके हैं, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जब बनी-नज़ीर को यह नोटिस दिया तो अब्दुल्लाह-बिन-उबई और मदीना के दूसरे मुनाफ़िक़ लीडरों ने उनको यह कहला भेजा कि हम दो हज़ार आदमियों के साथ तुम्हारी मदद को आएँगे, और बनी-क़ुरैज़ा और बनी-ग़तफ़ान भी तुम्हारी हिमायत में उठ खड़े होंगे, लिहाज़ा तुम मुसलमानों के मुक़ाबले में डट जाओ और हरगिज़ उनके आगे हथियार न डालो। ये तुमसे लड़ेंगे तो हम तुम्हारे साथ लड़ेंगे, और तुम यहाँ से निकाले गए तो हम भी निकल जाएँगे। इसपर अल्लाह तआला ने ये आयतें उतारीं। इसलिए नुज़ूल (उतरने) की तरतीब के एतिबार से यह रुकू पहले का उतरा हुआ है और पहला रुकू (आयतें—1 से 10) इसके बाद उतरा है जब बनी-नज़ीर मदीना से निकाले जा चुके थे। लेकिन क़ुरआन मजीद की तरतीब में पहले रुकू को पहले और दूसरे रुकू को बाद में इसलिए रखा गया है कि ज़्यादा अहम बातें पहले रुकू ही में बयान हुई हैं।
لَئِنۡ أُخۡرِجُواْ لَا يَخۡرُجُونَ مَعَهُمۡ وَلَئِن قُوتِلُواْ لَا يَنصُرُونَهُمۡ وَلَئِن نَّصَرُوهُمۡ لَيُوَلُّنَّ ٱلۡأَدۡبَٰرَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 11
(12) अगर वे निकाले गए तो ये उनके साथ हरगिज़ न निकलेंगे, और अगर उनसे जंग की गई तो ये उनकी हरगिज़ मदद न करेंगे, और अगर ये उनकी मदद करें भी तो पीठ फेर जाएँगे और फिर कहीं से कोई मदद न पाएँगे।
لَأَنتُمۡ أَشَدُّ رَهۡبَةٗ فِي صُدُورِهِم مِّنَ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَفۡقَهُونَ ۝ 12
(13) इनके दिलों में अल्लाह से बढ़कर तुम्हारा डर है,23 इसलिए कि ये ऐसे लोग हैं जो समझ-बूझ नहीं रखते।24
23. यानी उनके खुलकर मैदान में न आने की वजह यह नहीं है कि ये मुसलमान हैं, उनके दिल में ख़ुदा का डर है और इस बात का कोई अन्देशा उन्हें नहीं है कि ईमान का दावा करने के बावजूद जब ये ईमानवालों के मुक़ाबले में इस्लाम-दुश्मनों की हिमायत करेंगे तो ख़ुदा के यहाँ उसकी पूछ-गछ होगी, बल्कि उन्हें जो चीज़ तुम्हारा सामना करने से रोकती है वह यह है कि इस्लाम और मुहम्मद (सल्ल०) के लिए तुम्हारी मुहब्बत और जाँबाज़ी और क़ुरबानी के जज़बे को देखकर और तुम्हारी सफ़ों (पंक्तियों) में ज़बरदस्त एकता देखकर इनके दिल बैठ जाते हैं। ये अच्छी तरह जानते हैं कि तुम अगरचे मुट्ठी-भर लोग हो, मगर शहादत के जिस जज़बे ने तुम्हारे एक-एक शख़्स को सरफ़रोश मुजाहिद बना रखा है और जिस एकजुटता की बदौलत तुम एक फ़ौलादी जत्था बन गए हो, उससे टकराकर यहूदियों के साथ ये भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। इस जगह पर यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि अगर किसी के दिल में ख़ुदा से बढ़कर किसी और का डर हो तो यह अस्ल में ख़ुदा का डर न होना है। ज़ाहिर बात है कि जो शख़्स दो ख़तरों में से एक को कमतर और दूसरे को ज़्यादा समझता हो, वह पहले ख़तरे की परवाह नहीं करता और उसे सारी फ़िक्र सिर्फ़ दूसरे ख़तरे से बचने ही की होती है।
24. इस छोटे से जुमले में एक बड़ी हक़ीक़त बयान की गई है। जो शख़्स समझ-बूझ रखता हो वह तो यह जानता है कि अस्ल में डरने के क़ाबिल ख़ुदा की ताक़त है न कि इनसानों की ताक़त। इसलिए वह हर ऐसे काम से बचेगा जिसपर उसे ख़ुदा की पकड़ का ख़तरा हो, चाहे कोई इनसानी ताक़त पकड़ करनेवाली हो या न हो, और हर वह फ़र्ज़ अदा करने के लिए उठ खड़ा होगा जो ख़ुदा ने उसपर डाला हो, चाहे सारी दुनिया की ताक़तें इसमें रुकावट बनी हों। लेकिन एक नासमझ आदमी के लिए चूँकि ख़ुदा की ताक़त ग़ैर-महसूस और इनसानी ताक़तें महसूस होती हैं, इसलिए तमाम मामलों में वह अपने रवैये का फ़ैसला ख़ुदा के बजाय इनसानी ताक़तों के लिहाज़ से करता है। किसी चीज़ से बचेगा तो इसलिए नहीं कि ख़ुदा के यहाँ उसकी पकड़ होनेवाली है, बल्कि इसलिए कि सामने कोई इनसानी ताक़त उसकी ख़बर लेने के लिए मौजूद है। और किसी काम को करेगा तो वह भी इस वजह से नहीं कि ख़ुदा ने उसका हुक्म दिया है, या उसपर वह ख़ुदा के इनाम का उम्मीदवार है, बल्कि सिर्फ़ इस वजह से कि कोई इनसानी ताक़त उसका हुक्म देनेवाली या उसको पसन्द करनेवाली है और वह उसका बदला देगी। यही समझ और नासमझी का फ़र्क़ अस्ल में मोमिन और ग़ैर-मोमिन की सीरत और किरदार को एक-दूसरे से अलग करता है।
لَا يُقَٰتِلُونَكُمۡ جَمِيعًا إِلَّا فِي قُرٗى مُّحَصَّنَةٍ أَوۡ مِن وَرَآءِ جُدُرِۭۚ بَأۡسُهُم بَيۡنَهُمۡ شَدِيدٞۚ تَحۡسَبُهُمۡ جَمِيعٗا وَقُلُوبُهُمۡ شَتَّىٰۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَوۡمٞ لَّا يَعۡقِلُونَ ۝ 13
(14) ये कभी इकट्ठे होकर (खुले मैदान में) तुम्हारा मुक़ाबला न करेंगे, लड़ेंगे भी तो क़िला-बन्द बस्तियों में बैठकर या दीवारों के पीछे छिपकर। ये आपस की मुख़ालफ़त में बड़े सख़्त हैं। तुम इन्हें इकट्ठा समझते हो, मगर इनके दिल एक-दूसरे से फटे हुए हैं।25 इनका यह हाल इसलिए है कि ये नासमझ लोग हैं।
25. यह मुनाफ़िक़ों की दूसरी कमज़ोरी का बयान है। पहली कमज़ोरी यह थी कि वे बुज़दिल थे, ख़ुदा से डरने के बजाय इनसानों से डरते थे और ईमानवालों की तरह कोई ज़्यादा बुलन्द मक़सद उनके सामने न था, जिसके लिए सिर-धड़ की बाज़ी लगा देने का जज़बा उनके अन्दर पैदा होता। और दूसरी कमज़ोरी यह थी कि मुनाफ़क़त (कपट) के सिवा कोई ऐसी चीज़ उनके बीच न थी जो उनको मिलाकर एक मज़बूत जत्था बना देती। उनको जिस चीज़ ने जमा किया था वह सिर्फ़ यह थी कि अपने शहर में बाहर के आए हुए मुहम्मद (सल्ल०) की पेशवाई और हुकूमत चलते हुए देखकर उन सबके दिल जल रहे थे और अपने ही हम-वतन अनसारियों को मुहाजिरों की हमदर्दी करते देखकर उनके सीनों पर साँप लोटते थे। इस हसद (जलन) की वजह से वे चाहते थे कि मिल-जुलकर और आसपास के इस्लाम-दुश्मनों से साँठ-गाँठ करके इस बाहरी असर और ताक़त को किसी तरह ख़त्म कर दें। लेकिन इस ग़लत मक़सद के सिवा कोई सही चीज़ उनको मिलानेवाली न थी। उनमें से हर एक सरदार का जत्था अलग था। हर एक अपनी चौधराहट चाहता था। कोई किसी का सच्चा दोस्त न था। बल्कि हर एक के दिल में दूसरे के लिए इतनी नफ़रत और हसद (जलन) था कि जिसे वे सबका दुश्मन समझते थे, उसके मुक़ाबले में भी वे न आपस को दुश्मनियाँ भूल सकते थे, न एक-दूसरे की जड़ काटना छोड़ सकते थे। इस तरह अल्लाह तआला ने बनी-नज़ीर की जंग से पहले ही मुनाफ़िक़ों की अन्दरूनी हालत का जाइज़ा लेकर मुसलमानों को बता दिया कि इनकी तरफ़ से हक़ीक़त में कोई ख़तरा नहीं है, लिहाज़ा तुम्हें ये ख़बरें सुन-सुनकर घबराने की कोई जरूरत नहीं कि जब तुम बनी-नज़ीर की घेराबन्दी करने के लिए निकलोगे तो ये मुनाफ़िक़ सरदार दो हज़ार का लश्कर लेकर पीछे से तुमपर हमला कर देंगे और साथ-साथ बनी-क़ुरैज़ा और बनी-ग़तफ़ान को भी तुमपर चढ़ा लाएँगे। ये सब सिर्फ़ डींगे मारना है, जिनकी हवा आज़माइश की पहली घड़ी आते ही निकल जाएगी।
كَمَثَلِ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ قَرِيبٗاۖ ذَاقُواْ وَبَالَ أَمۡرِهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 14
(15) ये उन ही लोगों की तरह हैं जो इनसे थोड़ी ही मुद्दत पहले अपने किए का मज़ा चख चुके हैं।26 और इनके लिए दर्दनाक अज़ाब है।
26. इशारा है क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों और बनी-क़ैनुक़ाअ के यहूदियों की तरफ़ जो अपनी ज़्यादा तादाद और अपने सरो-सामान के बावजूद इन ही कमज़ोरियों की वजह से मुसलमानों की मुट्ठी-भर बे-सरो-सामान जमाअत से हार चुके थे।
كَمَثَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ إِذۡ قَالَ لِلۡإِنسَٰنِ ٱكۡفُرۡ فَلَمَّا كَفَرَ قَالَ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّنكَ إِنِّيٓ أَخَافُ ٱللَّهَ رَبَّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 15
(16) इनकी मिसाल शैतान की-सी है कि पहले वह इनसान से कहता है कि कुफ़्र (अल्लाह से सरकशी) कर, और जब इनसान कुफ़्र कर बैठता है तो वह कहता है कि मैं तुझसे बरी हूँ, मुझे तो सारे जहान के रब अल्लाह से डर लगता है।27
27. यानी ये मुनाफ़िक़ लोग बनी-नज़ीर के साथ वही मामला कर रहे हैं जो शैतान इनसान के साथ करता है। आज ये उनसे कह रहे हैं कि तुम मुसलमानों से लड़ जाओ और हम तुम्हारा साथ देंगे, मगर जब वे सचमुच लड़ जाएँगे तो ये दामन झाड़कर अपने सारे वादों से अलग हो जाएँगे और पलटकर भी न देखेंगे कि उनपर क्या गुज़री है। ऐसा ही मामला शैतान हक़ के हर इनकारी से करता है, और ऐसा ही मामला उसने क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों के साथ बद्र की जंग में किया था, जिसका ज़िक्र सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-48 में आया है। पहले तो वह उनको बढ़ावे-चढ़ावे देकर बद्र में मुसलमानों के मुक़ाबले पर ले आया और उसने उनसे कहा कि “आज तुमपर कोई हावी होनेवाला नहीं है और मैं तुम्हारे पीछे हूँ,” मगर जब दोनों फ़ौजों का आमना-सामना हुआ तो वह उलटा फिर गया और कहने लगा कि “मैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी से बरी हूँ, मुझे वह कुछ नज़र आ रहा है जो तुम्हें नज़र नहीं आता, मुझे तो अल्लाह से डर लगता है।"
فَكَانَ عَٰقِبَتَهُمَآ أَنَّهُمَا فِي ٱلنَّارِ خَٰلِدَيۡنِ فِيهَاۚ وَذَٰلِكَ جَزَٰٓؤُاْ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 16
(17) फिर दोनों का अंजाम यह होना है कि हमेशा के लिए जहन्नम में जाएँ, और ज़ालिमों का यही बदला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلۡتَنظُرۡ نَفۡسٞ مَّا قَدَّمَتۡ لِغَدٖۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 17
(18) ऐ28 लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो, और हर शख़्स यह देखे कि उसने कल के लिए क्या सामान किया है।29 अल्लाह से डरते रहो, अल्लाह यक़ीनन तुम्हारे उन सब कामों की ख़बर रखता है जो तुम करते हो।
28. क़ुरआन मजीद का क़ायदा है कि जब कभी मुनाफ़िक़ मुसलमानों के निफ़ाक़ (कपट-नीति) पर पकड़ की जाती है तो साथ-साथ उन्हें नसीहत भी की जाती है, ताकि उनमें से जिसके अन्दर भी अभी कुछ ज़मीर (अन्तरात्मा) की ज़िन्दगी बाक़ी है वह अपने इस रवैये पर शर्मिन्दा हो और ख़ुदा से डरकर उस गढ़े से निकलने की फ़िक्र करे जिसमें नफ़्स (मन) की बन्दगी ने उसे गिरा दिया है। इस पूरे रुकू में यही नसीहत की गई है।
29. कल से मुराद आख़िरत है। मानो दुनिया की यह पूरी ज़िन्दगी 'आज' है और 'कल' वह क़ियामत का दिन है जो इस आज के बाद आनेवाला है। यह अन्दाज़े-बयान अपनाकर अल्लाह तआला ने बहुत ही हिकमत-भरे तरीक़े से इनसान को यह समझाया है कि जिस तरह दुनिया में वह शख़्स सख़्त नादान है जो आज के लुत्फ़ और मज़े पर अपना सब कुछ लुटा बैठता है। और नहीं सोचता कि कल उसके पास खाने को रोटी और सर छिपाने को जगह भी बाक़ी रहेगी या नहीं, इसी तरह वह शख़्स भी अपने पाँव पर ख़ुद कुल्हाड़ी मार रहा है जो अपनी दुनिया बनाने की फ़िक्र में ऐसा डूबा है कि अपनी आख़िरत को बिलकुल भुला बैठा है, हालाँकि आख़िरत ठीक उसी तरह आनी है जिस तरह आज के बाद कल आनेवाला है, और वहाँ वह कुछ नहीं पा सकता अगर दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में उसके लिए कोई पेशगी सामान नहीं जुटाता। इसके साथ दूसरा हिकमत-भरा नुक्ता (Point) यह है कि इस आयत में हर शख़्स को आप ही अपना हिसाब लेनेवाला बनाया गया है। जब तक किसी शख़्स में ख़ुद अपने बुरे-भले की तमीज़ पैदा न हो जाए, उसको सिरे से यह एहसास ही नहीं हो सकता कि जो कुछ वह कर रहा है वह आख़िरत में उसके मुस्तक़बिल को सँवारनेवाला है या बिगाड़नेवाला। और जब उसके अन्दर यह एहसास जाग जाए तो उसे ख़ुद ही अपना हिसाब लगाकर यह देखना होगा कि वह अपने वक़्त, अपने सरमाए, अपनी मेहनत, अपनी क़ाबिलियतों और अपनी कोशिशों को जिस राह में लगा रहा है वह उसे जन्नत की तरफ़ ले जा रही है या जहन्नम की तरफ़। यह देखना उसके अपने ही फ़ायदे का तक़ाज़ा है, न देखेगा तो आप ही अपना मुस्तक़बिल ख़राब करेगा।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ نَسُواْ ٱللَّهَ فَأَنسَىٰهُمۡ أَنفُسَهُمۡۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 18
(19) उन लोगों की तरह न हो जाओ जो अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने भी ऐसा किया कि वे ख़ुद अपने-आपको भुला बैठे,30 यही लोग फ़ासिक़ (नाफ़रमान) हैं।
30. यानी ख़ुदा को भूल जाने का लाज़िमी नतीजा ख़ुद को भूल जाना है। जब आदमी यह मूल जाता है कि वह किसी का बन्दा है तो लाज़िमी तौर से वह दुनिया में अपनी एक ग़लत हैसियत तय कर बैठता है और उसकी सारी ज़िन्दगी इसी बुनियादी ग़लतफ़हमी की वजह से ग़लत होकर रह जाती है। इसी तरह जब वह यह भूल जाता है कि वह एक ख़ुदा के सिवा किसी का बन्दा नहीं है तो वह उस एक की बन्दगी तो नहीं करता जिसका वह हक़ीक़त में बन्दा है, और उन बहुत-सों की बन्दगी करता रहता है जिनका वह हक़ीक़त में बन्दा नहीं है। यह फिर एक बहुत बड़ी और दूर तक फैली हुई ग़लतफ़हमी है जो उसकी सारी ज़िन्दगी को ग़लत करके रख देती है। इनसान का अस्ल मक़ाम दुनिया में यह है कि वह बन्दा है, आज़ाद और ख़ुदमुख़्तार नहीं है। और सिर्फ़ एक ख़ुदा का बन्दा है, उसके सिवा किसी और का बन्दा नहीं है। जो शख़्स इस बात को नहीं जानता वह हक़ीक़त में ख़ुद अपने-आपको नहीं जानता। और जो शख़्स इसको जानने के बावजूद किसी पल भी इसे भुला बैठता है उसी पल कोई ऐसी हरकत उससे हो सकती है जो हक़ के किसी इनकार करनेवाले या शिर्क करनेवाले, यानी ख़ुद को भूले हुए इनसान ही के करने की होती है। सही रास्ते पर इनसान के साबित क़दम रहने का पूरा दारोमदार इस बात पर है कि उसे ख़ुदा याद रहे। इससे ग़ाफ़िल होते ही वह अपने-आपसे ग़ाफ़िल हो जाता है, और यही ग़फ़लत उसे नाफ़रमान बना देती है।
لَا يَسۡتَوِيٓ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۚ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 19
(20) जहन्नम में जानेवाले और जन्नत में जानेवाले कभी बराबर नहीं हो सकते। जन्नत में जानेवाले ही अस्ल में कामयाब हैं।
لَوۡ أَنزَلۡنَا هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ عَلَىٰ جَبَلٖ لَّرَأَيۡتَهُۥ خَٰشِعٗا مُّتَصَدِّعٗا مِّنۡ خَشۡيَةِ ٱللَّهِۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَمۡثَٰلُ نَضۡرِبُهَا لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 20
(21) अगर हमने यह क़ुरआन किसी पहाड़ पर भी उतार दिया होता तो तुम देखते कि वह अल्लाह के डर से दबा जा रहा है और फटा पड़ता है।31 ये मिसालें हम उन लोगों के सामने इसलिए बयान करते हैं कि वे (अपनी हालत पर) ग़ौर करें।
31. इस मिसाल का मतलब यह है कि क़ुरआन जिस तरह ख़ुदा की बड़ाई और उसके सामने बन्दे की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही को साफ़-साफ़ बयान कर रहा है, उसकी समझ अगर पहाड़ जैसी अज़ीम मख़लूक़ (विशाल सृष्टि) को भी नसीब होती और उसे मालूम हो जाता कि उसको किस क़ुदरतवाले रब के सामने अपने आमाल की जवाबदेही करनी है तो वह भी डर से काँप उठता। लेकिन हैरत के लायक़ है उस इनसान की बेहिसी और बेफ़िक्री जो क़ुरआन को समझता है और उसके ज़रिए से हक़ीक़ते-हाल जान चुका है और फिर भी उसपर न कोई डर तारी होता है, न कभी उसे यह फ़िक्र सताती है कि जो ज़िम्मेदारियाँ उसपर डाली गई हैं उनके बारे में वह अपने ख़ुदा को क्या जबाब देगा। बल्कि क़ुरआन को सुनकर या पढ़कर वह इस तरह उसके असर से आज़ाद रहता है, मानो वह एक बेजान और बेसमझ पत्थर है जिसका काम सुनना और देखना और समझना है ही नहीं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-120)
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۖ هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 21
(22) वह32 अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं,33 चीज़ का जाननेवाला,34 ग़ायब और ज़ाहिर हर वही रहमान (निहायत मेहरबान) और रहीम (रहम करनेवाला) हैं35
32. इन आयतों में यह बताया गया है कि वह ख़ुदा जिसकी तरफ़ से यह क़ुरआन तुम्हारी तरफ़ भेजा गया है, जिसने यह ज़िम्मेदारियाँ तुमपर डाली हैं, और जिसके सामने आख़िरकार तुम्हें जबाब देना है, वह कैसा ख़ुदा है और क्या उसकी सिफ़ात (गुण) हैं। ऊपर के मज़मून (विषय-वस्तु) के बाद फ़ौरन ही अल्लाह की सिफ़ात का यह बयान ख़ुद-ब-ख़ुद इनसान के अन्दर यह एहसास पैदा करता है कि उसका सामना किसी मामूली हस्ती से नहीं है, बल्कि उस अज़ीम और जलील (महान और प्रतापवान) हस्ती से है जिसकी ये और ये सिफ़ात हैं। इस जगह यह बात भी जान लेनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद में अगरचे जगह-जगह अल्लाह तआला की सिफ़ात बेमिसाल तरीक़े से बयान की गई हैं जिनसे अल्लाह की हस्ती का निहायत साफ़ तसव्वुर हासिल होता है, लेकिन दो जगहें ऐसी हैं जिनमें अल्लाह की सिफ़ात का सबसे ज़्यादा जामेअ (सारगर्भित) बयान पाया जाता है। एक; सूरा-2 बक़रा में आ-यतुल-कुर्सी (आयत-255)। दूसरी; सूरा-59 हश्र की ये आयतें।
33. यानी जिसके सिवा किसी की यह हैसियत और मक़ाम और मर्तबा नहीं है कि उसकी बन्दगी और परस्तिश की जाए। जिसके सिवा कोई ख़ुदाई की सिफ़ात (गुण) और इख़्तियार रखता ही नहीं कि उसे माबूद (उपास्य) होने का हक़ पहुँचता हो।
34. यानी जो कुछ मख़लूक़ात (अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों) से छिपा है उसको भी वह जानता है और जो कुछ उनपर ज़ाहिर है उससे भी वह वाक़िफ़ है। उसके इल्म से इस कायनात में कोई चीज़ भी छिपी हुई नहीं। पहले जो कुछ गुज़र चुका है, हाल में जो कुछ मौजूद है, और चीज़ उसको सीधे तौर पर मालूम है। इल्म के किसी ज़रिए का वह आगे जो कुछ होगा, मुहताज नहीं है।
35. यानी वही एक हस्ती ऐसी है जिसकी रहमत बेपनाह है, तमाम कायनात पर फैली हुई है, और कायनात की हर चीज़ को उसका फ़ायदा पहुँचता है। सारे जहान में किसी दूसरे के पास यह हमागीर (व्यापक) और बेपनाह रहमत नहीं है। दूसरी जिस हस्ती में भी रहम की सिफ़त पाई। जाती है उसकी रहमत थोड़ी और महदूद है, और वह भी उसकी ज़ाती सिफ़त नहीं है, बल्कि पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने किसी मस्लहत और ज़रूरत की ख़ातिर उसे दी है। जिस मख़लूक़ के अन्दर भी उसने किसी दूसरी मख़लूक़ के लिए रहम का जज़बा पैदा किया है, इसलिए पैदा किया है कि एक मख़लूक़ को वह दूसरी मख़लूक़ की परवरिश और ख़ुशहाली का ज़रिआ बनाना चाहता है। यह अपनी जगह ख़ुद उसी की बेपनाह रहमत की दलील है।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلَّذِي لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡمَلِكُ ٱلۡقُدُّوسُ ٱلسَّلَٰمُ ٱلۡمُؤۡمِنُ ٱلۡمُهَيۡمِنُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡجَبَّارُ ٱلۡمُتَكَبِّرُۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 22
(23) वह अल्लाह ही है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं।वह बादशाह है,36 निहायत पाक,37 सरासर सलामती,38 अम्न देनेवाला,39 निगहबान,40 सबपर ग़ालिब,41 अपना हुक्म बज़ोर लागू करनेवाला,42 और बड़ा ही होकर रहनेवाला।43 पाक है अल्लाह उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं!44
36. अस्ल अरबी में लफ़ज़ 'अल-मलिक इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब यह है कि अस्ल बादशाह वही है। इसके अलावा सिर्फ़ 'अल-मलिक का लफ़्ज़ इस्तेमाल करने से यह मतलब भी निकलता है कि वह किसी ख़ास इलाक़े या ख़ास देश का नहीं, बल्कि सारे जहान का बादशाह है। पूरी कायनात पर उसकी बादशाही और हुकूमत छाई हुई है। हर चीज़ का वह मालिक है। हर चीज़ उसके इस्तेमाल में और उसके बस में और उसके हुक्म की पाबन्द है। और उसकी हाकिमीयत (Sovereignty) को महदूद करनेवाली कोई चीज़ नहीं है। क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर अल्लाह तआला की बादशाही के इन सारे पहलुओं को बहुत साफ़-साफ़ बयान किया गया है— "ज़मीन और आसमानों में जो भी हैं उसकी मिलकियत हैं, सब उसके फ़रमाँबरार हैं।" (सूरा-30 रूम, आयत-26) "आसमान से ज़मीन तक वही हर काम की तदबीर करता है।”(सूरा-32 सजदा, आयत- आयत-5) “ज़मीन और आसमानों की बादशाही उसी की है और अल्लाह ही की तरफ़ सारे मामले रुजू किए जाते हैं।” (सूरा-57 हदीद, आयत-5) “बादशाही में कोई उसका शरीक नहीं है।” (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-2) “हर चीज़ की बादशाही और हुकूमत उसी के हाथ में है।” (सूरा-36 या-सीन, आयत-83) “वह जिस चीज़ का इरादा करे उसे कर गुज़रनेवाला।” (सूरा-85 बुरूज, आयत-16) “जो कुछ वह करे उसपर वह किसी के सामने जवाबदेह नहीं है, और सब जवाबदेह हैं।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-23) “और अल्लाह फ़ैसला करता है, कोई उसके फ़ैसले पर दोबारा ग़ौर करनेवाला नहीं है।" (सूरा-13 रअद, आयत-41) "और वह पनाह देता है और कोई उसके मुक़ाबले में पनाह नहीं दे सकता।” (सूरा-23 मोमिनून, आयत-88) "कहो, ऐ ख़ुदा! हुकूमत के मालिक! तू जिसको चाहता है हुकूमत देता है और जिससे चाहता है हुकूमत छीन लेता है। जिसे चाहता है इज़्ज़त देता है और जिसे चाहता है रुसवा कर देता है। भलाई तेरे ही हाथ में है, यक़ीनन तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-26) इन बयानों से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि अल्लाह तआला की बादशाही हाकिमीयत के किसी महदूद या मजाज़ी (सांकेतिक) मानी में नहीं, बल्कि उसके पूरे और अस्ल मानी में, उसके मुकम्मल तसव्वुर के लिहाज़ से हक़ीक़ी बादशाही है। बल्कि हक़ीक़त में हाकिमीयत जिस चीज़ का नाम है वह अगर कहीं पाई जाती है तो सिर्फ़ अल्लाह तआला की बादशाही में ही पाई जाती है। उसके सिवा और जहाँ भी उसके होने का दावा किया जाता है, चाहे वह किसी बादशाह या तानाशाह की ज़ात हो, या कोई तबक़ा या गरोह या ख़ानदान हो, या कोई क़ौम हो, उसे सचमुच कोई हाकिमीयत हासिल नहीं है, क्योंकि हाकिमीयत सिरे से उस हुकूमत को कहते ही नहीं हैं जो किसी की दी हुई हो, जो कभी मिलती हो और कभी छिन जाती हो, जिसे किसी दूसरी ताक़त से ख़तरा हो सकता हो, जिसका क़ायम और बाक़ी रहना आरज़ी (अस्थायी) और वक़्ती हो, और जिसकी हुकूमत के दायरे को बहुत-सी दूसरी आपस में टकारनेवाली क़ुव्वतें महदूद (सीमित) करती हों। लेकिन क़ुरआन मजीद सिर्फ़ यह कहने पर ही बस नहीं करता कि अल्लाह तआला कायनात का बादशाह है, बल्कि बाद के जुमलों में यह बात भी बयान कर देता है कि वह ऐसा बादशाह है जो ' क़ुद्दूस' (बहुत ही पाक) है, 'सलाम' (सरासर सलामती) है, 'मोमिन' (अम्न देनेवाला) है, 'मुहैमिन' (निगहबान) है, 'अज़ीज' (सबपर ग़ालिब) है, 'जब्बार' (अपना हुक्म क़ुव्वत के ज़ोर पर लागू करनेवाला) है, 'मुतकब्बिर' (बड़ा ही होकर रहनेवाला) है, 'ख़ालिक़' (पैदाइश की स्कीम बनानेवाला) है, 'बारी' (लागू करनेवाला) है, और 'मुसव्विर' (सूरत बनानेवाला) है।
37. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘क़ुद्दूस' इस्तेमाल हुआ है। इसका माद्दा (धातु) 'क़ुद्स' है। 'क़ुद्स' का मतलब है तमाम बुरी ख़ासियतों से पाक-साफ़ होना। और 'क़ुद्दूस' का मतलब यह है कि वह इससे कहीं ज़्यादा बुलन्द और बरतर है कि उसकी हस्ती में कोई ऐब, या ख़राबी, या कोई बुरी सिफ़त पाई जाए। बल्कि वह एक इन्तिहाई पाकीज़ा हस्ती है जिसके बारे में किसी बुराई का तसव्वुर नहीं किया जा सकता। इस जगह पर यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि क़ुद्दूसियत (क़ुद्दूस होना) हक़ीक़त में हाकिमीयत की सबसे पहली ज़रूरी ख़ासियतों में से है। इनसान की अक़्ल और फ़ितरत यह मानने से इनकार करती है कि हाकिमीयत रखनेवाली कोई ऐसी हस्ती हो जो शरारती और बद-अख़लाक़ और बद-नीयत हो। जिसमें ये बुरी और गन्दी ख़ासियतें पाई जाती हों, जिसकी हुकूमत से उसके मातहतों को भलाई नसीब होने के बजाय बुराई का ख़तरा लगा हो। इसी वजह से इनसान जहाँ भी हाकिमीयत को मरकूज़ (केन्द्रित) ठहराता है वहाँ क़ुद्दूसियत नहीं भी होती है तो उसे मौजूद मान लेता है, क्योंकि क़ुद्दूसियत के बिना हुकूमत के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। लेकिन यह ज़ाहिर है कि अल्लाह तआला के सिवा हक़ीक़त में कोई मुक़्तदिरे-आला (सम्प्रभुत्व प्राप्त) बादशाह भी कुद्दूस नहीं है और नहीं हो सकता। शख़्सी बादशाही हो या जम्हूर की हाकिमीयत (लोकतन्त्र), या कम्युनिज़्म की हुकूमत, या इनसानी हुकूमत की कोई दूसरी सूरत, बहरहाल उसके हक़ में कुद्दूसियत का तसव्वुर तक नहीं किया जा सकता।
38. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ ‘अस-सलाम’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है सलामती। किसी को 'सलीम' या 'सालिम' कहने के बजाय 'सलामती' कहने से ख़ुद-ब-ख़ुद मुबालग़े (अतिशयोक्ति) का मतलब पैदा हो जाता है। मसलन किसी को हसीन (ख़ूबसूरत) कहने के बजाय 'हुस्न' (ख़ूबसूरती) कहा जाए तो इसका मतलब यह होगा कि वह सर से पाँव तक 'हुस्न' है। अल्लाह तआला को 'अस-सलाम' कहने का मतलब यह है कि वह सरासर सलामती है। उसकी हस्ती इससे परे है कि कोई आफ़त या कमज़ोरी या ख़ामी उसमें पैदा हो, या कभी उसके कमाल (मुकम्मल होने) में कमी आए।
39. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-मुअमिन' इस्तेमाल हुआ है जिसका माद्दा (धातु) 'अम्न' है। 'अम्न' का मतलब है डर से महफ़ूज़ होना। और 'मुअमिन' वह है जो दूसरे को अम्न दे। अल्लाह तआला को इस मानी में मुअमिन कहा गया है कि वह अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) को अम्न देनेवाला है। उसकी मख़लूक़ इस डर से बिलकुल महफ़ूज़ है कि वह कभी उसपर ज़ुल्म करेगा, या उसका हक़ मारेगा, या उसका अज्र (बदला) बरबाद कर देगा, या उसके साथ अपने किए हुए वादों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करेगा। फिर चूँकि यहाँ इस बात को बयान नहीं किया गया है कि वह किसको अम्न देनेवाला है, बल्कि बस 'अल-मुअमिन' कहा गया है, इसलिए इससे यह मतलब आप-से-आप निकलता है कि उसका अम्न सारी कायनात और उसकी हर चीज़ के लिए है।
40. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-मुहैमिन' इस्तेमाल हुआ है जिसके तीन मतलब हैं एक निगहबानी और हिफ़ाज़त करनेवाला। दूसरा, गवाह, जो देख रहा हो कि कौन क्या करता है। तीसरा, वह हस्ती जिसने लोगों की ज़रूरतें पूरी करने का ज़िम्मा उठा रखा हो। यहाँ भी चूँकि बस लफ़्ज़ 'अल-मुहैमिन' इस्तेमाल किया गया है, और यह बयान नहीं किया गया है कि वह किसका निगहबान और मुहाफ़िज़, किसका गवाह और किसकी ख़बर रखने का ज़िम्मा उठानेवाला है, इसलिए इस इस्तेमाल से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि वह तमाम मख़लूक़ात की निगहबानी और हिफ़ाज़त कर रहा है, सबके आमाल को देख रहा है, और कायनात की हर मख़लूक़ की ख़बर रखने, और परवरिश, और ज़रूरतें पूरी करने का उसने ज़िम्मा उठा रखा है।
41. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-अज़ीज़' इस्तेमाल हुआ है, जिससे मुराद है, ऐसी ज़बरदस्त हस्ती जिसके मुक़ाबले में कोई सर न उठा सकता हो, जिसके फ़ैसलों की मुख़ालफ़त करना किसी के बस में न हो, जिसके आगे सब बेबस और बेज़ोर हों।
42. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-जब्बार' इस्तेमाल हुआ है, जिसका माद्दा 'जब्र' है। 'जब्र' का मतलब है किसी चीज़ को ताक़त से दुरुस्त करना, किसी चीज़ का ताक़त के बल पर सुधार करना। अगरचे अरबी ज़बान में कभी 'जब्र' सिर्फ़ सुधार के लिए भी बोला जाता है, और कभी सिर्फ़ ज़बरदस्ती के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इसका अस्ल मतलब सुधार के लिए ताक़त का इस्तेमाल है। इसलिए अल्लाह तआला को 'जब्बार' इस मानी में कहा गया है कि वह अपनी कायनात का निज़ाम ताक़त के बल पर ठीक रखनेवाला और अपने इरादे को, जो सरासर हिकमत के मुताबिक़ होता है, ताक़त के बल पर लागू करनेवाला है। इसके अलावा लफ़्ज़ 'जब्बार' में बड़ाई (महानता) का मतलब भी शामिल है। अरबी ज़बान में खजूर के उस पेड़ को जब्बार कहते हैं जो इतना ऊँचा हो कि उसके फल को तोड़ना किसी के लिए आसान न हो। इसी तरह कोई काम जो बड़ा शानदार हो 'अमले-जब्बार' कहलाता है।
43. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-मुतकब्बिर' इस्तेमाल हुआ है जिसके दो मतलब हैं : एक वह जो हक़ीक़त में बड़ा न हो और ख़ाह-मख़ाह बड़ा बने। दूसरा वह जो हक़ीक़त में बड़ा हो और बड़ा ही होकर रहे। इनसान हो या शैतान, या कोई और जानदार, चूँकि बड़ाई हक़ीक़त में उसके लिए नहीं है, इसलिए उसका अपने-आपको बड़ा समझना और दूसरों पर अपनी बड़ाई जताना एक झूठा दावा और बहुत बुरा ऐब है। इसके बरख़िलाफ़, अल्लाह तआला हक़ीक़त में बड़ा है और बड़ाई सचमुच उसी के लिए है और कायनात की हर चीज़ उसके मुक़ाबले में हक़ीर (तुच्छ) और ज़लील (हीन) है, इसलिए उसका बड़ा होना और बड़ा ही होकर रहना कोई दावा और बनावट नहीं, बल्कि एक हक़ीक़त है। एक बुरी सिफ़त नहीं बल्कि एक ख़ूबी है जो उसके सिवा किसी में नहीं पाई जाती।
44. यानी उसके इक़तिदार (सत्ता) और इख़्तियारात और सिफ़ात (गुणों) में, या उसकी हस्ती में, जो लोग भी किसी मख़लूक़ को उसका शरीक क़रार दे रहे हैं, वे हक़ीक़त में एक बहुत बड़ा झूठ बोल रहे हैं। अल्लाह तआला इससे पाक है कि किसी मानी में भी कोई उसका शरीक हो।
هُوَ ٱللَّهُ ٱلۡخَٰلِقُ ٱلۡبَارِئُ ٱلۡمُصَوِّرُۖ لَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 23
(24) वह अल्लाह ही है जो पैदाइश की स्कीम बनानेवाला है और उसको लागू करनेवाला और उसके मुताबिक़ सूरत बनानेवाला है।45 उसके लिए बेहतरीन नाम हैं।46 हर चीज़ जो आसमानों और ज़मीन में है उसकी तसबीह कर रही है।47 और वह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।48
45. यानी पूरी दुनिया और दुनिया की हर चीज़ पैदाइश के इबतिदाई मंसूबे से लेकर अपनी ख़ास सूरत में वुजूद में आने तक बिलकुल उसी की बनाई और परवरिश की हुई है। कोई चीज़ भी ख़ुद वुजूद में आई है, न इत्तिफ़ाक़ से पैदा हो गई है, न उसकी पैदाइश और परवरिश में किसी दूसरे का ज़र्रा बराबर कोई दख़ल है। यहाँ अल्लाह तआला के पैदा करने के काम को तीन अलग-अलग मरहलों में बयान किया गया है जो एक के बाद एक होते रहते हैं। पहला मरहला 'ख़ल्क़' है जिसका मतलब तक़दीर या मंसूबा बनाना है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे कोई इंजीनियर एक इमारत बनाने से पहले यह इरादा करता है कि उसे ऐसी और ऐसी इमारत फ़ुलाँ ख़ास मक़सद के लिए बनानी है और अपने ज़ेहन में उसका नक़्शा (Design) सोचता है कि इस मक़सद के लिए उस बनाई जानेवाली इमारत की तफ़सीली सूरत और पूरी शक्ल ऐसी होनी चाहिए। दूसरा मरहला है 'बरअ' जिसका अस्ल मतलब है जुदा करना, फाड़ना, फाड़कर अलग करना। ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) के लिए 'बारी' का लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल किया गया है कि वह अपने सोचे हुए नक़्शे को लागू करता और उस चीज़ को, जिसका नशा उसने सोचा है, अदम या बे-वुजूदी से निकालकर वुजूद में लाता है। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे इंजीनियर ने इमारत का जो नक़्शा ज़ेहन में बनाया था उसके मुताबिक़ वह ठीक नाप-तौल करके ज़मीन पर लकीरें खींचता है, फिर बुनियादें खोदता है, दीवारें उठाता है और तामीर के सारे अमली मरहले तय करता है। तीसरा मरहला तस्वीर है जिसका मलतब है सूरत बनाना, और यहाँ इससे मुराद है एक चीज़ को उसकी आख़िरी मुकम्मल सूरत में बना देना। इन तीनों मरहलों में अल्लाह तआला के काम और इनसानी कामों के बीच सिरे से कोई मेल नहीं है। इनसान का कोई मंसूबा भी ऐसा नहीं है जो पिछले नमूनों से लिया हुआ न हो। मगर अल्लाह तआला का हर मंसूबा बेमिसाल और उसकी अपनी ईजाद है। इनसान जो कुछ भी बनाता है अल्लाह तआला के पैदा किए हुए माद्दों (पदार्थो) को जोड़-जाड़कर बनाता है। वह किसी चीज़ को अदम (अनस्तित्व) से वुजूद में नहीं लाता, बल्कि जो कुछ मौजूद है उसे अलग-अलग तरीक़ों से जोड़ता है। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह तआला तमाम चीज़ों को अदम से वुजूद में लाया है और वह माद्दा भी अपनी जगह ख़ुद उसका पैदा किया हुआ है जिससे उसने यह दुनिया बनाई है। इसी तरह सूरत बनाने के मामले में भी इनसान नई ईजाद करनेवाला नहीं, बल्कि अल्लाह तआला की बनाई हुई सूरतों की नक़्ल और भौंडी नक़्ल करनेवाला है। अस्ल सूरत बनानेवाला अल्लाह तआला है जिसने हर जाति, हर क़िस्म और हर शख़्स की सूरत लाजवाब बनाई है और कभी एक सूरत को हू-ब-हू दोहराया नहीं है।
46. नामों से मुराद सिफ़तों (गुणों) के नाम हैं। और उसके लिए बेहतरीन नाम होने का मतलब यह है कि उसके लिए वे सिफ़ाती (गुणवाचक) नाम मुनासिब नहीं हैं जिनसे किसी तरह की ख़राबी का इज़हार होता हो, बल्कि उसको उन नामों से याद करना चाहिए जो उसकी मुकम्मल सिफ़तों का इज़हार करते हों। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह अल्लाह तआला के ये बेहतरीन नाम बयान किए गए हैं, और हदीस में उस पाक हस्ती के 99 नाम गिनाए गए हैं जिन्हें तिरमिज़ी और इब्ने-माजा ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत से तफ़सील के साथ नक़्ल किया है। क़ुरआन और हदीस में अगर आदमी इन नामों को ग़ौर से पढ़े तो वह आसानी से समझ सकता है कि दुनिया की किसी दूसरी ज़बान में अगर अल्लाह तआला को याद करना हो तो कौन-से अलफ़ाज़ उसके लिए मुनासिब होंगे।
47. यानी बोलनेवाली ज़बान या हाल की ज़बान से यह बयान कर रही है कि उसका पैदा करनेवाला हर ऐब और ख़राबी और कमज़ोरी और ग़लती से पाक है।
48. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, हाशिया-2।