- अल-अनआम
(मक्का में उतरी आयतें 165)
परिचय
नाम
इस सूरा के रुकूअ 16-17 (आयत 130-144) में कुछ अन-आम (मवेशियों) की हुर्मत (हराम क़रार दिए जाने) और कुछ की हिल्लत (हलाल क़रार दिए जाने) के बारे में अरबों के अंधविश्वासों का खंडन किया गया है। इसी दृष्टि से इसका नाम 'अल-अनआम' रखा गया है।
उतरने का समय
इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह पूरी सूरा मक्का में एक ही समय में उतरी थी। हज़रत मुआज-बिन-जबल (रज़ि०) की चचेरी बहन अस्मा-बिन्ते-यज़ीद कहती हैं कि 'जब यह सूरा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतर रही थी, उस समय आप ऊँटनी पर सवार थे। मैं उसकी नकेल पकड़े हुए थी और बोझ के मारे ऊँटनी का यह हाल हो रहा था कि मालूम होता था कि उसकी हड्डियाँ अब टूट जाएँगी।' रिवायतों में इसका भी स्पष्टीकरण है कि जिस रात को यह उतरी, उसी रात को आपने इसे लिखवा दिया।
इसके विषयों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा मक्को युग के अन्तिम समय में उतरी होगी।
उतरने का कारण
जिस समय यह व्याख्यान उतरा है, उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को इस्लाम की ओर दावत देते हुए बारह साल बीत चुके थे। क़ुरैश की डाली रुकावटें और ज़ुल्मो-सितम भरे कारनामे अपनी अन्तिम सीमा को पहुँच चुके थे। इस्लाम अपनानेवालों की एक बड़ी संख्या उनके ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर देश छोड़ चुकी थी और हबशा में ठहरी हुई थी।
वार्ताएँ
इन परिस्थितियों में यह व्याख्यान उतरा है और इसके विषयों को सात बड़े-बड़े शीर्षको में बांटा जा सकता है-
- शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का झुठलाना और तौहीद (एकेश्वरवाद) के अक़ीदे की ओर बुलाना,
- आख़िरत (परलोक) के अक़ीदे का प्रचार,
- अज्ञानता के अंधविश्वासों का खंडन,
- नैतिकता के उन बड़े-बड़े नियमों को अपनाने पर ज़ोर जिनपर इस्लाम समाज का निर्माण चाहता था,
- नबी (सल्ल०) और आपकी दावत (आह्वान) के विरुद्ध लोगों की आपत्तियों का उत्तर,
- प्यारे नबी (सल्ल०) और आम मुसलमानों को तसल्ली, और
- इंकारियों और विरोधियों को उपदेश, चेतावनी और डरावा।
मक्की जीवन के काल-खण्ड
यहाँ चूँकि पहली बार पढ़नेवालों के सामने एक सविस्तार मक्की सूरा आ रही है, इसलिए उचित मालूम हो रहा है कि यहाँ हम मक्की सूरतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की एक व्यापक व्याख्या कर दें, ताकि आगे तमाम मक्की सूरतों को और उनकी व्याख्याओं के सिलसिले में हमारे संकेतों को समझना आसान हो जाए।
जहाँ तक मदनी सूरतों का संबंध है, उनमें से तो क़रीब-क़रीब हर एक के उतरने का समय मालूम है या थोड़ी-सी कोशिश से निश्चित किया जा सकता है, बल्कि इनकी तो बहुत-सी आयतों के उतरने की अलग-अलग वजहें भी भरोसेमंद रिवायतों में मिल जाती हैं, लेकिन मक्की सूरतों के बारे में हमारे पास ज्ञान प्राप्त करने का ऐसा कोई साधन नहीं है। बहुत कम सूरतें या आयते ऐसी है जिनके उतरने के समय और मौक़े के बारे में कोई सही और भरोसेमंद रिवायत (उल्लेख) मिलती हो। इस कारण मक्की सूरतों के बारे में हमें ऐतिहासिक गवाहियों के बजाय अधिकतर उन अन्दरूनी गवाहियों पर भरोसा करना पड़ता है जो अलग-अलग सूरतों के विषय, सामग्री और शैली में और अपनी पृष्ठभूमि की ओर उनके खुले या छिपे संकेतों में पाई जाती हैं, और स्पष्ट है कि इस प्रकार की गवाहियों से मदद लेकर एक-एक सूरा और एक-एक आयत के बारे में यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि यह फ़ुलां तारीख़ को या फ़ुलां सन् में फ़ुलां मौके पर उतरी है। अधिक विश्वास के साथ जो बात कही जा सकती है, वह केवल यह है कि एक ओर हम मक्की सूरतों को अन्दरूनी गवाहियों को और दूसरी ओर नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन के इतिहास को आमने-सामने रखें और फिर दोनों की तुलना करते हुए यह राय बनाएँ कि कौन-सी सूरा किस युग से संबंधित है- शोध की इस पद्धति को बुद्धि में रखकर जब हम नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन पर नज़र डालते हैं तो वह इस्लामी दावत की दृष्टि से हमें चार बड़े-बड़े युगों में बँटा दिखाई देता है-
पहला युग, पैग़म्बर बनाए जाने से लेकर नुबूवत के एलान तक, लगभग 3 साल, जिसमें दावत खुफ़िया तरीके से खास-खास आदमियों को दी जा रही थी और सामान्य मक्कावालों को इसका ज्ञान न था।
दूसरा युग, नुबूवत के एलान से लेकर जुल्मो-सितम और फ़ितने (Persecution) के फैलने तक, लगभग 2 साल, जिसमें पहले विरोध शुरू हुआ, फिर उसने रोक-टोक का रूप लिया, फिर हँसी उड़ाना, आवाजें कसना, आरोप लगाना, गाली-गलोच, झूठे प्रोपगंडे और विरोधी जत्थेबन्दी तक नौबत पहुँची और अन्त में उन मुसलमानों पर ज़्यादतियाँ शुरू हो गईं जो औरों की तुलना में अधिक धनहीन, कमज़ोर और असहाय थे।
तीसरा युग, फ़ितने की शुरुआत (05 नबवी) से लेकर अबू-तालिब और हज़रत ख़दीजा (रजि०) के देहावसान (10 नबवी) तक, लगभग पाँच-छह साल। इसमें विरोध अति उग्र होता चला गया। बहुत-से मुसलमान मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के जुल्मो-सितम से तंग आकर हबशा की ओर हिजरत कर गए। नबी (सल्ल०) और आपके परिवार और बाक़ी मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया गया और आप अपने समर्थकों और साथियों सहित अबू-तालिब नामक घाटी में कैद कर दिए गए।
चौथा युग, 10 नबवी से लेकर 11 नबवी तक, लगभग तीन साल। यह नबी (सल्ल.) और आप के साथियों के लिए अति कठोर और विपदाओं का युग था। मक्का में आपके लिए ज़िन्दगी दूभर कर दी गई थी। अन्ततः अल्लाह की मेहरबानी से अंसार के दिल इस्लाम के लिए खुल गए और उनकी दावत पर आपने मदीने की और हिजरत की।
इनमें से हर युग में क़ुरआन मजीद की जो सूरतें उतरी हैं, उनमें उस युग की विशेष बातों का प्रभाव बहुत बड़ी हद तक दिखाई देता है। इन्ही निशानियों पर भरोसा करके हम आगे हर मक्की सूरा के शुरू में यह बताएँगे कि वह मक्का के किस काल में उतरी है।
---------------------
وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ مَلَكٞۖ وَلَوۡ أَنزَلۡنَا مَلَكٗا لَّقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ثُمَّ لَا يُنظَرُونَ 7
(8) कहते हैं कि इस नबी पर कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा गया।5 अगर कहीं हमने फ़रिश्ता उतार दिया होता तो अब तक कभी का फ़ैसला हो चुका होता, फिर उन्हें कोई मुहलत न दी जाती।6
5. यानी जब यह शख़्स ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है तो आसमान से एक फ़रिश्ता उतरना चाहिए था जो लोगों से कहता कि यह ख़ुदा का पैग़म्बर है। इसकी बात मानो वरना तुम्हें सज़ा दी जाएगी। एतिराज़ करनेवाले जाहिलों को इस बात पर ताज्जुब था कि ज़मीन और आसमान का बनानेवाला किसी को पैग़म्बर मुक़र्रर करे और फिर इस तरह उसे बे यारो-मददगार पत्थर खाने और गालियाँ सुनने के लिए छोड़ दे। इतने बड़े बादशाह का नुमाइन्दा अगर किसी बड़े स्टाफ के साथ न आया था तो कम-से-कम एक फ़रिश्ता तो उसका बॉडी गार्ड (अंग रक्षक) होना चाहिए था, ताकि वह उसकी हिफ़ाज़त करता, उसका रोब और दबदबा बिठाता, इस बात का यक़ीन दिलाता कि उसे ख़ुदा ने भेजा है और फ़ितरी तरीक़ों से ऊपर उठकर उसके काम अंजाम देता।
6. यह उनके एतिराज़ का पहला जवाब है। इसका मतलब यह है कि ईमान लाने और अपने रवैये को सुधारने के लिए जो मुहलत तुम्हें मिली हुई है यह उसी वक़्त तक है जब तक हक़ीक़त ग़ैब (परोक्ष) के परदे में छिपी है। वरना जहाँ ग़ैब का परदा हटा, फिर मुहलत का कोई मौक़ा बाक़ी न रहेगा। उसके बाद तो सिर्फ़ हिसाब ही लेना बाक़ी रह जाएगा। इसलिए कि दुनिया की ज़िन्दगी तुम्हारे लिए एक इम्तिहान का ज़माना है, और इम्तिहान इस बात का है कि तुम हक़ीक़त को देखे बिना अक़्ल और फ़िक्र (बुद्धि और विवेक) के सही इस्तेमाल से उसको पाते हो या नहीं, और पाने के बाद अपने मन और उसकी ख़ाहिशों को क़ाबू में लाकर अपने अमल को हक़ीक़त के मुताबिक़ दुरुस्त रखते हो या नहीं। इस इम्तिहान के लिए ग़ैब का ग़ैब रहना लाज़िम शर्त है और तुम्हारी दुनियावी ज़िन्दगी, जो अस्ल में इम्तिहान की मुहलत है, उसी वक़्त तक क़ायम रह सकती है जब तक ग़ैब ग़ैब है। जहाँ ग़ैब वाज़ेह होकर सामने आ गया, यह मुहलत लाज़िमी तौर पर ख़त्म हो जाएगी और इम्तिहान के बजाय इम्तिहान का नतीजा निकलने का वक़्त आ पहुँचेगा। इसलिए तुम्हारे मुतालबे के जवाब में यह मुमकिन नहीं है कि तुम्हारे सामने फ़रिश्ते को उसकी असली सूरत में नुमायाँ कर दिया जाए, क्योंकि अल्लाह अभी तुम्हारे इम्तिहान की मुद्दत ख़त्म नहीं करना चाहता। (देखें सूर-2 अल-बक़रा, हाशिया-228)
قُلۡ أَيُّ شَيۡءٍ أَكۡبَرُ شَهَٰدَةٗۖ قُلِ ٱللَّهُۖ شَهِيدُۢ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ وَأُوحِيَ إِلَيَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ لِأُنذِرَكُم بِهِۦ وَمَنۢ بَلَغَۚ أَئِنَّكُمۡ لَتَشۡهَدُونَ أَنَّ مَعَ ٱللَّهِ ءَالِهَةً أُخۡرَىٰۚ قُل لَّآ أَشۡهَدُۚ قُلۡ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَإِنَّنِي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ 18
(19) इनसे पूछो, किसकी गवाही सबसे बढ़कर है? — कहो, मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह गवाह है,11 और यह क़ुरआन मेरी तरफ़ वह्य के ज़रिए से भेजा गया है, ताकि तुम्हें और जिस-जिस को यह पहुँचे, सबको ख़बरदार कर दूँ। क्या वाक़ई तुम लोग यह गवाही दे सकते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी हैं12 कहो, मैं तो इसकी गवाही हरगिज़ नहीं दे सकता।13 कहो, ख़ुदा तो वही एक है और मैं उस शिर्क से बिलकुल बेज़ार (विरक्त) हूँ जिसमें तुम पड़े हुए हो।
11. यानी इस बात पर गवाह है कि मैं उसकी तरफ़ से भेजा गया हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ उसी के हुक्म से कह रहा हूँ।
12. किसी चीज़ की गवाही देने के लिए सिर्फ़ गुमान या अटकल काफ़ी नहीं हैं, बल्कि उसके लिए इल्म होना ज़रूरी है, जिसकी बुनियाद पर आदमी यक़ीन के साथ कह सके कि ऐसा है। तो सवाल का मतलब यह है कि क्या वाक़ई तुम्हें यह इल्म है कि इस पूरे जहान में ख़ुदा के सिवा और भी कोई इख़्तियार रखनेवाला बादशाह है जो बन्दगी और इबादत का हक़दार हो?
13. यानी अगर तुम इल्म के बग़ैर सिर्फ़ झूठी गवाही देना चाहते हो तो दो, मैं तो ऐसी गवाही नहीं दे सकता।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ 19
(21) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बोहतान लगाए,15 या अल्लाह की निशानियों को झुठलाए?16 यक़ीनन ऐसे ज़ालिम कभी फलाह नहीं पा सकते।
15. यानी यह दावा करे कि ख़ुदा के साथ दूसरी बहुत-सी हस्तियाँ भी ख़ुदाई में शरीक हैं, ख़ुदाई सिफ़ात (गुण) रखती हैं, ख़ुदाई के इख़्तियार रखती हैं और इसकी हक़दार हैं कि इनसान उनके आगे बन्दगी और ग़ुलामी का रवैया इख़्तियार करे। साथ ही यह भी अल्लाह पर बोहतान है कि कोई यह कहे कि ख़ुदा ने फ़ुलाँ-फ़ुलाँ हस्तियों को अपना ख़ास क़रीबी ठहराया है और उसी ने यह हुक्म दिया है, या कम-से-कम यह कि वह इस पर राज़ी है कि उनसे ख़ुदाई सिफ़ात जोड़ी जाएँ और उनसे वह मामला किया जाए जो बन्दे को अपने ख़ुदा के साथ करना चाहिए।
16. अल्लाह की निशानियों से मुराद वे निशानियाँ भी हैं जो इनसान के अपने नफ़्स और सारी कायनात में फैली हुई हैं, और वे भी जो पैग़म्बरों की सीरत (आचरण) और उनके कारनामों में ज़ाहिर हुई, और वे भी जो आसमानी किताबों में पेश की गईं। ये सारी निशानियाँ एक ही हक़ीक़त की तरफ़ रहनुमाई करती हैं। यानी यह कि पूरी कायनात में ख़ुदा सिर्फ़ एक है, बाक़ी सब बन्दे हैं। अब जो आदमी इन तमाम निशानियों के मुक़ाबले में किसी हक़ीक़ी गवाही के बिना किसी इल्म, किसी मुशाहदे (अवलोकन) और किसी तजरिबे के बिना सिर्फ़ अटकल या अपने बाप-दादा की पैरवी की बुनियाद पर दूसरों को ख़ुदाई सिफ़ातवाला और ख़ुदाई हक़ों का हक़दार ठहराता है, ज़ाहिर है कि उससे बढ़कर ज़ालिम कोई नहीं हो सकता। वह हक़ीक़त और सच्चाई पर ज़ुल्म कर रहा है, अपने आप पर ज़ुल्म कर रहा है और कायनात की हर उस चीज़ पर ज़ुल्म कर रहा है जिसके साथ वे इस ग़लत नज़रिए (दृष्टिकोण) की बिना पर कोई मामला मामला करता है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا صُمّٞ وَبُكۡمٞ فِي ٱلظُّلُمَٰتِۗ مَن يَشَإِ ٱللَّهُ يُضۡلِلۡهُ وَمَن يَشَأۡ يَجۡعَلۡهُ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ 37
(39) मगर जो लोग हमारी निशानियों को झुठलाते हैं वे बहरे और गूंगे हैं, अँधेरों में पड़े हुए हैं।27 अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधे रास्ते पर लगा देता है।28
27. मतलब यह कि अगर तुम्हें सिर्फ़ तमाशा देखने का शौक नहीं है, बल्कि हक़ीक़त में यह मालूम करने के लिए निशानी देखना चाहते हो कि यह नबी जिस चीज़ की तरफ़ बुला रहा है वह हक़ बात है या नहीं, तो आखें खोलकर देखो, तुम्हारे आसपास हर तरफ़ निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं। ज़मीन के जानवरों और हवा के परिन्दों की किसी एक क़िस्म को लेकर उसकी ज़िन्दगी पर ग़ौर करो। किस तरह उसकी बनावट ठीक-ठीक उसके मुनासिब बनाई गई है। जिसकी उसको ज़रूरत है। किस तरह उसकी फ़ितरत में उसकी फ़ितरी ज़रूरतों के ठीक मुताबिक़ क़ुव्वतें दी गई हैं। किस तरह उसको रोज़ी पहुँचाने का इन्तिज़ाम हो रहा है। किस तरह उसकी एक तक़दीर मुक़र्रर है, जिसकी हदों से वह न आगे बढ़ सकती है, न पीछे हट सकती है। किस तरह उनमें से एक-एक जानवर और एक-एक छोटे से छोटे कीड़े की उसी मुक़ाम पर जहाँ वह है, ख़बरगीरी, निगरानी, हिफ़ाज़त और रहनुमाई की जा रही है। किस तरह उससे एक तयशुदा स्कीम के मुताबिक़ काम लिया जा रहा है। किस तरह उसे एक क़ानून और ज़ाब्ते का पाबन्द बना कर रखा गया है और किस तरह उसकी पैदाइश, तनासुल (प्रजनन) और मौत का सिलसिला पूरी बाक़ायदगी के साथ चल रहा है। अगर ख़ुदा की अनगिनत निशानियों में से सिर्फ़ इसी एक निशानी पर ग़ौर करो तो तुम्हें मालूम हो जाए कि ख़ुदा की तौहीद और उसकी सिफ़तों का जो तसव्वुर यह पैग़म्बर तुम्हारे सामने पेश कर रहा है और उस तसव्वुर के मुताबिक़ दुनिया में ज़िन्दगी बसर करने के लिए जिस रवैये की तरफ़ तुम्हें दावत दे रहा है वह ऐन हक़ है। लेकिन तुम लोग न ख़ुद अपनी आँखें खोलकर देखते हो, न किसी समझानेवाले की बात सुनते हो। जहालत की तारीकियों में पड़े हुए हो और चाहते हो कि अजाइबे-क़ुदरत के करिश्मे दिखाकर तुम्हारा दिल बहलाया जाए।
28. ख़ुदा का भटकाना यह है कि एक जहालत पसन्द इनसान को अल्लाह की निशानियों को देखने और समझने की तौफ़ीक़ न दी जाए और तास्सुब से काम लेनेवाला एक ग़ैर-हक़ीक़त पसन्द इल्म का तालिब अगर अल्लाह की निशानियों को देखे भी तो हक़ीक़त तक पहुँचने के निशानात उसकी आँख से ओझल रहें और ग़लतफ़हमियों में उलझानेवाली चीज़ें उसे हक़ से दूर और बहुत दूर खींचती चली जाएँ। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह की हिदायत यह है कि एक हक़ के तलबगार को इल्म के ज़रिओं से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक़ दी जाए और अल्लाह की निशानियों में उसे हक़ीक़त तक पहुँचने के निशानात मिलते चले जाएँ। इन तीनों कैफ़ियतों की बहुत-सी मिसालें आए दिन हमारे सामने आती रहती हैं। बहुत-से इनसान ऐसे हैं जिनके सामने कायनात में और ख़ुद उनके अपने अन्दरून में अल्लाह की बेशुमार निशानियाँ फैली हुई हैं मगर वे जानवरों की तरह उन्हें देखते हैं और कोई सबक़ हासिल नहीं करते। और बहुत-से इनसान हैं जो हैवानियात (Zoology), नबातियात (Botany), हयातियात (Biology), अरज़ियात (Geology), फ़लकियात (Astronomy), उज़्वियात (Physiology), इल्मुत्तशरीह (Anatomy) और साइंस की दूसरी शाख़ों का मुताला करते हैं। इतिहास, आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) और सामाजिक विज्ञान (Social Science) की तहक़ीक़ करते हैं और ऐसी-ऐसी निशानियों उनके देखने में आती हैं जो दिल को ईमान से भर दें। मगर चूँकि वे मुताला (अध्ययन) की शुरुआत ही तास्सुब के साथ करते हैं और उनके सामने दुनिया और उसके फ़ायदों और मुनाफ़ों के सिवा कुछ नहीं होता इसलिए इस मुशाहदे के दौरान में उनको सच्चाई तक पहुँचानेवाली कोई निशानी नहीं मिलती, बल्कि जो निशानी भी सामने आती है वह उन्हें उलटी नास्तिकता, माद्दापरस्ती (भौतिकवाद) और प्रकृतिवाद (Naturalism) की तरफ़ खींच ले जाती है। उनके मुक़ाबले में ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो आँखें खोलकर दुनिया के इस कारख़ाने को देखते हैं और उनका हाल यह है कि—
बर्गे-दरख़्ताने सब्ज़ दर नज़रे-होशियार
हर वरक़े दफ़रेस्त मारफ़ते-किर्दगार
यानी : हरे-भरे पेड़ों की पत्तियाँ भी अक़्लमन्द इनसान की नज़र में बहुत अहम हैं आर उनमें से हर पत्ती के अन्दर बनानेवाले की पहचान की बेशुमार निशानियाँ मौजूद हैं।
قُل لَّآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ إِنِّي مَلَكٌۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُۚ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ 48
(50) ऐ नबी! इनसे कहो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं। न मैं ग़ैब का इल्म रखता हूँ, और न यह कहता हूँ कि में फ़रिश्ता हूँ। मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मुझ पर उतारी जाती है।31 फिर इनसे पूछो क्या अन्धा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो सकते हैं?32 क्या तुम ग़ौर नहीं करते?
31. नादान लोगों के ज़ेहन में हमेशा से यह बेवक़ूफ़ाना तसव्वुर रहा है कि जो शख़्स अल्लाह को पहुँचा हुआ हो उसे इनसानियत से परे होना चाहिए, उसकी अजीबो-ग़रीब बातें ज़ाहिर होनी चाहिएँ, वह एक इशारा करे और पहाड़ सोने का बन जाए, वह हुक्म दे और ज़मीन से ख़ज़ाने उबलने लगें, उसपर लोगों के अगले-पिछले सब हालात रौशन हों, वह बता दे कि खोई हुई चीज़ कहाँ रखी है। मरीज़ बच जाएगा या मर जाएगा, गर्भवती के पेट में नर है या मादा। फिर उसको इनसानी कमज़ोरियों और इनसानों के साथ जो हदबन्दियाँ हैं उनसे भी परे होना चाहिए। भला वह भी कोई ख़ुदा को पहुँचा हुआ है जिसे भूख प्यास लगे, जिसको नींद आए, जो बीवी-बच्चे रखता हो, जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए ख़रीदता-बेचता फिरे, जिसे कभी क़र्ज़ लेने की ज़रूरत पेश आए और कभी वह मुफ़लिसी और तंगदस्ती में मुब्तला होकर परेशान हाल रहे। इसी क़िस्म के तसव्वुर नबी (सल्ल०) के ज़माने के लोगों के दिमाग़ों में बैठे हए थे। वह जब आप से पैग़म्बरी का दावा सुनते थे तो आप की सच्चाई को जाँचने के लिए आपसे ग़ैब की ख़बरें पूछते थे, ऐसी बातों का मुतालबा करते थे, जो फ़ितरत से परे होती हैं (यानी जो इनसानों से ज़ाहिर नहीं होती हैं)। और आपको बिलकुल आम इनसानों जैसा एक इनसान देखकर एतिराज़ करते थे कि यह अच्छा पैग़म्बर है जो खाता-पीता है, बीवी-बच्चे रखता है और बाज़ारों में चलता फिरता है। इन्हीं बातों का जवाब इस आयत में दिया गया है।
32. मतलब यह है कि मैं जिन हक़ीक़तों को तुम्हारे सामने पेश कर रहा हूँ उनको मैंने देखा है, वह सीधे तौर पर मेरे तजरिबे में आई हैं, मुझे वह्य के ज़रिए से उनका ठीक-ठीक इल्म दिया गया है, उनके बारे में मेरी गवाही आँखों देखी गवाही है। इसके बरख़िलाफ़ तुम उन हक़ीक़तों की तरफ़ से अन्धे हो, तुम उनके बारे में जो ख़यालात रखते हो उनकी बुनियाद अटकल और गुमान पर है या सिर्फ़ अन्धी तक़लीद (अनुसरण) पर। इसलिए मेरे और तुम्हारे बीच वही फ़र्क़ है जो किसी आँख रखनेवाले और आँख न रखनेवाले के बीच होता है और इसी हैसियत से मुझे तुमपर बड़ाई हासिल है, न इस हैसियत से कि मेरे पास ख़ुदाई के ख़ज़ाने हैं, या मैं ग़ैब का जाननेवाला हूँ या इनसानी कमज़ोरियों से पाक हूँ।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ وَيَوۡمَ يَقُولُ كُن فَيَكُونُۚ قَوۡلُهُ ٱلۡحَقُّۚ وَلَهُ ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ 68
(73) वही है जिसने आसमान और ज़मीन को बामक़सद पैदा किया है।46 और जिस दिन वह कहेगा कि हश्र (प्रलय) हो जाए उसी दिन वह हो जाएगा। उसका फ़रमान बिलकुल हक़ है। और जिस दिन सूर फूँका जाएगा47 उस दिन बादशाही उसी की होगी48 वह छिपी और खुली49 हर चीज़ का जाननेवाला है और सूझ-बूझ रखनेवाला और बाख़बर है।
46. क़ुरआन में यह बात जगह-जगह बयान की गई है कि अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को हक़ पर पैदा किया है या हक़ के साथ पैदा किया है। यह इरशाद अपने अन्दर बहुत-से मानी रखता है।
इसका एक मतलब यह है कि ज़मीन और आसमानों की पैदाइश सिर्फ़ खेल के तौर पर नहीं हुई है। यह ईश्वर जी की लीला नहीं है। यह किसी बच्चे का खिलौना नहीं है कि सिर्फ़ दिल बहलाने के लिए वह इससे खेलता रहे और फिर यूँ ही उसे तोड़-फोड़कर फेंक दे। अस्ल में यह एक निहायत संजीदा काम है जो हिकमत की बुनियाद पर किया गया है, एक बहुत बड़ा मक़सद इसके अन्दर काम कर रहा है और इसका एक दौर गुज़र जाने के बाद ज़रूरी है कि बनानेवाला उस पूरे काम का हिसाब ले, जो उस दौर में अंजाम पाया हो और उसी दौर के नतीजों पर दूसरे दौर की बुनियाद रखे। यही बात है जो क़ुरआन में दूसरी जगहों पर इस तरह बयान की गई है–
“ऐ हमारे रब, तू ने यह सब कुछ फ़ुज़ूल पैदा नहीं किया है।"
“हमने आसमान और ज़मीन और उन चीज़ों को जो आसमान और ज़मीन के दरमियान हैं खेल के तौर पर पैदा नहीं किया है।” और “तो क्या तुमने यह समझ रखा है कि हमने तुम्हें यूँ ही फ़ुज़ूल पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ वापस न लाए जाओगे?"
दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह ने कायनात का यह सारा निज़ाम हक़ की ठोस बुनियादों पर क़ायम किया है। इनसाफ़ और हिकमत और सच्चाई के क़ानूनों पर उसकी हर चीज़ का दारोमदार है। बातिल (असत्य) के लिए हक़ीक़त में इस निज़ाम में जड़ पकड़ने और फलने-फूलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यह और बात है कि अल्लाह बातिल-परस्तों को मौक़ा दे दे कि वे अगर अपने झूठ, ज़ुल्म और ग़लत बात को फैलाना और बढ़ाना चाहते हैं तो अपनी कोशिश करके देखें। लेकिन आख़िरकार ज़मीन बातिल के हर बीज को उगल कर फेंक देगी और आख़िरी हिसाब के चिट्टे में हर बातिल-परस्त देख लेगा कि जो कोशिशें उसने इस ख़बीस (बुरे) पौधे की खेती करने और सींचने में लगाईं वे सब बरबाद हो गईं।
तीसरा मतलब यह है कि ख़ुदा ने इस सारी कायनात को हक़ की बुनियाद पर क़ायम किया है और अपने ज़ाती हक़ की बुनियाद पर ही वह इसपर हुकूमत कर रहा है। उसका हुक्म यहाँ इसलिए चलता है कि वही अपनी पैदा की हुई कायनात में हुक्मरानी का हक़ रखता है। दूसरों का हुक्म अगर बज़ाहिर चलता नज़र भी आता हो तो उससे धोखा न खाओ, हक़ीक़त में न उनका हुक्म चलता है, न चल सकता है, क्योंकि कायनात की किसी चीज़ पर भी उनका कोई हक़ नहीं है कि वे इसपर अपना हुक्म चलाएँ।
47. सूर फूँकने की सही कैफ़ियत क्या होगी, इसकी तफ़सील हमारी समझ से बाहर है। क़ुरआन से जो कुछ हमें मालूम हुआ है वह सिर्फ़ इतना है कि क़ियामत के दिन अल्लाह के हुक्म से एक बार सूर फूँका जाएगा और सब हलाक हो जाएँगे। फिर न मालूम कितनी मुद्दत के बाद, जिसे अल्लाह ही जानता है, दूसरा सूर फूँका जाएगा और तमाम अगले और पिछले नए सिरे से ज़िन्दा होकर अपने आपको हश्र के मैदान में पाएँगे। पहले सूर पर कायनात का सारा निज़ाम दरहम-बरहम होगा और दूसरे सूर पर एक दूसरा निज़ाम नई सूरत और नए क़ानूनों के साथ क़ायम हो जाएगा।
48. यह मतलब नहीं है कि आज बादशाही उसकी नहीं है, बल्कि मतलब यह है कि उस दिन जब परदा उठाया जाएगा और हक़ीक़त बिलकुल सामने आ जाएगी तो मालूम हो जाएगा कि वे सब जो बा-इख़्तियार नज़र आते थे, या समझे जाते थे, बिलकुल बे-इख़्तियार हैं और बादशाही के सारे इख़्तियार उसी एक ख़ुदा के लिए हैं, जिसने कायनात को पैदा किया है।
49. ग़ैब यानी वह सब कुछ जो मख़लूक़ात (प्राणियों) से छिपा हुआ है। शहादत यानी वह सब कुछ जो मख़लूक़ात के लिए ज़ाहिर और मालूम है।
وَكَذَٰلِكَ نُرِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ مَلَكُوتَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلِيَكُونَ مِنَ ٱلۡمُوقِنِينَ 70
(75) इबराहीम को हम इसी तरह ज़मीन और आसमानों का निज़ामे-सल्तनत दिखाते थे51 और इसलिए दिखाते थे कि वह यक़ीन करनेवालों में से हो जाए।52
51. यानी जिस तरह तुम लोगों के सामने कायनात की निशानियाँ नुमायाँ हैं और अल्लाह की निशानियाँ तुम्हें दिखाई जा रही हैं, उसी तरह इबराहीम (अलैहि०) के सामने भी यही निशानियाँ थीं। मगर तुम लोग उन्हें देखने पर भी अन्धों की तरह कुछ नहीं देखते और इबराहीम (अलैहि०) ने उन्हें आँखें खोलकर देखा। यही सूरज और चाँद और तारे जो तुम्हारे सामने निकलते और डूबते हैं और रोज़ाना तुमको जैसा गुमराह निकलते वक़्त पाते हैं वैसा ही डूबते वक़्त छोड़ जाते हैं, इन्हीं को उस आँखोंवाले इनसान ने भी देखा था और इन्हीं निशानियों से वह हक़ीक़त तक पहुँच गया।
52. इस जगह को और क़ुरआन की उन दूसरी जगहों को जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से उनकी क़ौम के झगड़े का ज़िक्र आया है, अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम के मज़हबी और तमद्दुनी (सांस्कृतिक) हालात पर एक नज़र डाल ली जाए। नए ज़माने की ख़ोजों और तहक़ीक़ात के सिलसिले में न सिर्फ़ वह शहर मालूम हो गया है जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पैदा हुए थे, बल्कि इबराहीमी दौर में उस इलाक़े के लोगों की जो हालत थी उसपर भी बहुत कुछ रौशनी पड़ी है। सर ल्यूनार्ड वूली (Sir Leonard Wooly) ने अपनी किताब Abraham, London, 1935 में इस तहक़ीक़त के जो नतीजे शाया (प्रकाशित) किए हैं उनका ख़ुलासा हम यहाँ बयान कर रहे हैं। अन्दाज़ा किया गया है कि लगभग 2100 ईसा पूर्व के ज़माने में, जिसे अब आम तौर पर तहक़ीक़ और खोज करनेवाले तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दुनिया में आने का ज़माना मानते हैं, उर शहर की आबादी ढाई लाख के क़रीब थी और नामुमकिन नहीं है कि पाँच लाख हो। यह शहर बड़ा सनअती (औद्योगिक) और तिजारती मर्कज़ था। एक तरफ़ पामेर और नीलगिरी तक से वहाँ माल आता था और दूसरी तरफ़ अनातूलिया तक से इसके तिज़ारती ताल्लुक़ात थे। जिस रियासत का यह सदर मक़ाम (केन्द्र) था उसकी हदें इराक़ की मौजूदा हुकूमत से उत्तर में कुछ कम और पश्चिम में कुछ ज़्यादा थीं। मुल्क की आबादी ज़्यादातर उद्योग-धन्धे और तिज़ारत करती थी। उस दौर की जो तहरीरें (लेख) आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) के खण्डहरों में मिले हैं उनसे मालूम होता है कि ज़िन्दगी में उन लोगों का नज़रिया ख़ालिस माद्दापरस्ताना (भौतिकवादी) था। दौलत कमाना और ज़्यादा-से-ज़्यादा ऐशो-आराम जुटाना उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद था। सूदख़ोरी ख़ूब फैली हुई थी। सख़्त कारोबारी क़िस्म के लोग थे। हर एक-दूसरे को शक की निगाह से देखता था और आपस में मुक़द्दमेबाज़ियाँ बहुत होती थीं। अपने ख़ुदाओं से उनकी दुआएँ ज़्यादातर उम्र के लम्बे होने, ख़ुशहाली और कारोबार की तरक़्क़ी के बारे में हुआ करती थीं। आबादी में तीन तबक़े शामिल थे—
1. अमीलो : ये ऊँचे तबक़े के लोग थे जिनमें पुजारी, हुकूमत के ओहदेदार और फ़ौजी अफ़सर वग़ैरा शामिल थे।
2. मिसकीनो : ये तिजारत पेशा, कारख़ानेदार और खेती करनेवाले लोग थे।
3. अरदो : यानी ग़ुलाम।
इनमें से पहले तबक़े यानी अमीलो को ख़ास इम्तियाज़ी हैसियत हासिल थी। उनके फ़ौजदारी और दीवानी हक़ दूसरों से मुख़्तलिफ़ थे। और उनकी जान-माल की क़ीमत दूसरों से बढ़कर थी। यह शहर और यह समाज था जिसमें हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने आँखें खोली। उनका और उनके ख़ानदान का जो हाल हमें तलमूद में मिलता है उससे मालूम होता है कि वे अमीलो तबक़े के एक व्यक्ति थे और उनका बाप रियासत का सबसे बड़ा ओहदेदार था। (देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-290)
उर के कतबात (शिलालेखों) में लगभग पाँच हज़ार ख़ुदाओं के नाम मिलते हैं। मुल्क के मुख़्तलिफ़ शहरों के अलग-अलग ख़ुदा थे। हर शहर का एक ख़ास मुहाफ़िज़ ख़ुदा होता था जो रब्बुल-बलद (शहर का पालनकर्ता और शासक) महादेव या रईसुल-आलिहा (देवताओं का प्रमुख) समझा जाता था और उसका एहतिराम दूसरे माबूदों से ज़्यादा होता था। उर का रब्बुल-बलद 'नन्नार' (चाँद-देवता) था और इसी ताल्लुक़ से बाद के लोगों ने इस शहर का नाम 'क़मरीना' भी लिखा है। दूसरा बड़ा शहर लरसा था जो बाद में उर के बजाय रियासत का मर्कज़ बना। उसका रब्बुल-बलद 'शमाश' (सूर्य देवता) था। इन बड़े ख़ुदाओं के मातहत बहुत-से छोटे ख़ुदा भी थे जो ज़्यादा तर आसमानी तारों और सैयारों (ग्रहों) में से और कमतर ज़मीन से चुने गए थे। और लोग अपनी बहुत-सी छोटी-मोटी ज़रूरतों को उनसे मुताल्लिक़ समझते थे। इन आसमानी और ज़मीनी देवताओं और देवियों की शक्ल-सूरत बुतों की शक्ल में बना ली गई थीं और इबादतों के तमाम तरीक़े उन्हीं के आगे पूरे किए जाते थे।
'नन्नार' का बुत उर में सबसे ऊँची पहाड़ी पर एक आलीशान इमारत में रखा हुआ था। इसी के करीब 'नन्नार' की बीवी ‘निन गल' का माबद (पूजास्थल) था। नन्नार के माबद की शान एक शाही महल-सरा की-सी थी। उसकी ख़ाबगाह (शयन कक्ष) में रोजाना रात को एक पुजारिन जाकर उसकी दुल्हन बनती थी। मन्दिर में बहुत-सी औरतें देवता के नाम पर वक़्फ़ थीं और उनकी हैसियत देवदासियों (Religious Prostitutes) की-सी थी। वह औरत बड़ी इज़्ज़तवाली समझी जाती थी जो 'ख़ुदा' के नाम पर अपनी बकारत (क़ौमार्य) क़ुरबान कर दे। कम-से-कम एक बार अपने आपको 'ख़ुदा की राह' में किसी अजनबी के हवाले करना औरत के लिए नजात का ज़रिआ समझा जाता था। अब यह बयान करना कुछ ज़रूरी नहीं कि इस मज़हबी तवाइफ़गीरी (वेश्यावृत्ति) से फ़ायदा उठानेवाले ज़्यादा तर पुजारी लोग ही होते थे।
नन्नार सिर्फ़ एक देवता ही न था, बल्कि मुल्क का सबसे बड़ा ज़मींदार, सबसे बड़ा ताजिर, सबसे बड़ा कारख़ानेदार और मुल्क की सियासी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हाकिम भी था। बहुत- से बाग़, मकान और ज़मीनें इस मन्दिर के लिए वक़्फ़ थीं। इस जायदाद की आमदनी के अलावा किसान, ज़मींदार, ताजिर, सब हर क़िस्म के ग़ल्ले, दूध, सोना, कपड़ा और दूसरी चीज़ें लाकर मन्दिर में नज़्र भी करते थे, जिन्हें वुसूल करने के लिए मन्दिर में एक बहुत बड़ा स्टाफ़ मौजूद था। बहुत-से कारख़ाने मन्दिर के मातहत क़ायम थे। तिजारती कारोबार भी बहुत बड़े पैमाने पर मन्दिर की तरफ़ से होता था। ये सब काम देवता के नुमाइन्दे होने की हैसियत से पुजारी ही करते थे। फिर मुल्क की सबसे बड़ी अदालत मन्दिर ही में थी। पुजारी उसके जज थे और उनके फ़ैसले ख़ुदा के फ़ैसले समझे जाते थे। ख़ुद शाही ख़ानदान की हाकिमियत भी नन्नार ही से ली गई थी। अस्ल बादशाह नन्नार था और मुल्क का बादशाह उसकी तरफ़ से हुकूमत करता था। इस ताल्लुक़ से बादशाह ख़ुद भी माबूदों में शामिल हो जाता था और ख़ुदाओं के जैसी उसकी पूजा की जाती थी।
उर का शाही ख़ानदान जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ज़माने में हुकमराँ था, उसके सबसे पहले बानी (संस्थापक) का नाम उर नमूव था जिसने 2300 ईसा पूर्व में एक बड़ी सल्तनत क़ायम की थी। उसकी सल्तनत की हदें पूरब में ‘सूसा’ से लेकर पश्चिम में लुब्नान तक फैली हुई थीं। उसी से इस ख़ानदान को 'नमूव' का नाम मिला जो अरबी में जाकर नमरूद हो गया। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की हिजरत के बाद इस ख़ानदान और इस क़ौम पर लगातार तबाही नाज़िल होनी शुरू हुई। पहले ईलामियों ने उर को तबाह किया और नमरूद को नन्नार के बुत समेत पकड़ कर ले गए। फिर लरसा में एक ईलामी हुकूमत क़ायम हुई, जिसके मातहत उर का इलाक़ा ग़ुलाम की हैसियत से रहा। आख़िरकार एक अरबी नस्ल के ख़ानदान के मातहत बाबिल ने ज़ोर पकड़ा और लरसा और उर दोनों उसकी हुकूमत के तहत आ गए। इन तबाहियों ने नन्नार के साथ उर के लोगों का अक़ीदा डगमगा दिया, क्योंकि वह उनकी हिफ़ाज़त न कर सका।
यक़ीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि बाद के दौर में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की तालीमात का असर इस मुल्क के लोगों ने कहाँ तक क़ुबूल किया। लेकिन 1910 ईसा पूर्व में बाबिल के बादशाह हम्मूरावी (बाइबल के अम्राफ़ील) ने जो क़ानून बनाए थे वे गवाही देते हैं कि सीधे तौर पर या किसी दूसरे ज़रिए से उनके मुरत्तब किए जाने में नुबूवत के चिराग़ से हासिल की हुई रौशनी किसी हद तक ज़रूर कारफ़रमा थी। इन क़ानूनों का तफ़सीली कतबा (शिलालेख) 1902 ई० में आसारे-क़दीमा के एक फ़्रांसीसी खोजी को मिला और उसका अंग्रेज़ी तर्जमा CH.W JoHN ने 1903 ई० में The oledst Code of Law के नाम से शाया किया।
इस क़ानूनी ज़ाब्ते के बहुत-से उसूल क़ानूनों के इस ज़ाब्ते में बहुत-सी उन असली और दूसरी बातें हज़रत मूसा (अलैहि०) की शरीअत से मेल रखनेवाली हैं।
ये अब तक के नई तहक़ीक़त के नतीजे अगर सही हैं तो उनसे यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम में शिर्क सिर्फ़ एक मज़हबी अक़ीदे और बुत-परस्ताना इबादात का मजमुआ ही न था, बल्कि हक़ीक़त में उस क़ौम की पूरी मआशी (आर्थिक), तमहद्दुनी (सांस्कृतिक), सियासी और समाजी ज़िन्दगी का निज़ाम उसी अक़ीदे की बुनियाद पर था। उसके मुक़ाबले में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) तौहीद की जो दावत लेकर उठे थे, उसका असर सिर्फ़ बुतों की पूजा ही पर नहीं पड़ता था, बल्कि शाही ख़ानदान की माबूदियत और हाकमियत, पुजारियों और ऊँचे तबक़ों की समाजी, मआशी और सियासी हैसियत, और पूरे मुल्क की इज्तिमाई ज़िन्दगी उसकी चपेट में आई जाती थी। उनकी दावत को क़ुबूल करने का मतलब यह था कि नीचे से ऊपर तक सारी सोसाइटी की इमारत उधेड़ डाली जाए और उसे नए सिरे से अल्लाह की तौहीद की बुनियाद पर तामीर किया जाए। इसी लिए इबराहीम (अलैहि०) की आवाज़ बुलन्द होते ही आम लोग और ख़ास लोग, पुजारी और नमरूद सबके सब एक ही वक़्त में उसको दबाने के लिए खड़े हो गए।
فَلَمَّا رَءَا ٱلشَّمۡسَ بَازِغَةٗ قَالَ هَٰذَا رَبِّي هَٰذَآ أَكۡبَرُۖ فَلَمَّآ أَفَلَتۡ قَالَ يَٰقَوۡمِ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ 73
(78) फिर जब सूरज को रौशन देखा तो कहा : यह है मेरा रब, यह सबसे बड़ा है। मगर जब वह भी डूबा तो इबराहीम पुकार उठा कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं उन सबसे बेज़ार (विरक्त) हूँ जिन्हें तुम ख़ुदा का शरीक ठहराते हो।53
53. यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के उस शुरू के फ़िक्र (चिन्तन) की कैफ़ियत बयान की गई है। जो उन्हें पैग़म्बर बनाए जाने से पहले उनके लिए हक़ीक़त तक पहुँचने का ज़रिआ बनी। इसमें बताया गया है कि एक सही दिमाग़ रखनेवाला और सही अन्दाज़ से देखनेवाला इनसान जिसने सरासर शिर्क के माहौल में आँखें खोली थीं, और जिसे तौहीद की तालीम कहीं से हासिल नहीं हो सकती थी, किस तरह कायनात की निशानियों को देखकर और उनपर ग़ौर और फ़िक्र करके और उनसे सही तौर पर चीज़ को साबित करके हक़ बात मालूम करने में कामयाब हो गया। ऊपर इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम के जो हालात बयान किए गए हैं उन पर एक नज़र डालने से यह मालूम हो जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब होश संभाला था तो उनके आसपास हर तरफ़ चाँद, सूरज और तारों की ख़ुदाई के डंके बज रहे थे। इसलिए क़ुदरती तौर पर हक़ीक़त को तलाश करने की हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की कोशिश करने की शुरुआत इसी सवाल से होना चाहिए थी कि क्या हक़ीक़त में इनमें से कोई रब हो सकता है? इसी मर्कज़ी सवाल पर उन्होंने ग़ौर-फ़िक्र किया और आख़िरकार अपनी क़ौम के सारे ख़ुदाओं को एक अटल क़ानून के तहत ग़ुलामों की तरह गर्दिश करते देखकर वे इस नतीजे पर पहुँच गए कि जिन-जिन के रब होने का दावा किया जाता है उनमें से किसी के अन्दर भी रब होने का शायबा (अंश) तक नहीं है, रब तो सिर्फ़ वही एक है जिसने इन सबको पैदा किया और बन्दगी पर मजबूर किया।
इस क़िस्से के अलफ़ाज़ से आम तौर पर लोगों के ज़ेहन में एक शुब्हाा पैदा होता है। यह जो कहा गया है कि जब रात छाई उसने एक तारा देखा, और जब वह डूब गया तो यह कहा, फिर चाँद को देखा और जब वह डूब गया तो यह कहा, फिर सूरज को देखा और जब वह भी डूब गया तो यह कहा, इसपर एक आम आदमी के ज़ेहन में फ़ौरन यह सवाल खटकता है कि क्या बचपन से आँख खोलते ही रोज़ाना हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पर रात छाती न रही थी। और क्या वे हर दिन चाँद, तारों और सूरज को निकलते और डूबते न देखते थे? ज़ाहिर है कि यह ग़ौर और फ़िक्र तो उन्होंने समझ-बूझ की उम्र को पहुँचने के बाद ही किया होगा। फिर यह क़िस्सा इस तरह क्यों बयान किया गया है कि जब रात हुई तो यह देखा और दिन निकला तो यह देखा? मानो इस ख़ास वाक़िए से पहले उन्हें ये चीज़ें देखने का इत्तिफ़ाक़ न हुआ था, हालाँकि ऐसा होना बिलकुल नामुमकिन है। यह शक कुछ लोगों के लिए इस क़द्र नाक़ाबिले-हल बन गया कि इसे हल करने की कोई सूरत उन्हें इसके सिवा नज़र न आई कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पैदाइश और परवरिश के बारे में एक ग़ैर-मामूली क़िस्सा गढ़ लें। चुनाँचे बयान किया जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पैदाइश और परवरिश एक गुफा में हुई थी, जहाँ समझने-बूझने की उम्र को पहुँचने तक वे चाँद, तारों और सूरज को देखने से महरूम रखे गए थे। हालाँकि बात बिलकुल साफ़ है और इसको समझने के लिए इस तरह की किसी दास्तान की ज़रूरत नहीं है। न्यूटन के बारे में मशहूर है कि उसने बाग़ में एक सेब को पेड़ से गिरते हुए देखा और इससे उसका ज़ेहन अचानक इस सवाल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया कि चीज़ें आख़िर ज़मीन पर ही क्यों गिरा करती हैं, यहाँ तक कि ग़ौर करते-करते वह क़ानूने जज़्बो-कशिश (गुरुत्त्वाकर्षण नियम) की खोज तक पहुँच गया। सवाल पैदा होता है कि क्या इस वाक़िए से पहले न्यूटन ने कभी कोई चीज़ ज़मीन पर गिरते नहीं देखी थी? ज़ाहिर है कि ज़रूर देखी होगी और बहुत-बार देखी होगी फिर क्या वजह है कि उसी ख़ास तारीख़ को सेब गिरते गिरते हुए देखने से न्यूटन के ज़ेहन में वह हरकत पैदा हुई जो उससे पहले रोज़ाना के ऐसे सैकड़ों वाक़िओं को देखने से न हुई थी? इसका जवाब अगर कुछ हो सकता है तो यही कि ग़ौर और फ़िक्र करनेवाला ज़ेहन हमेशा एक तरह के वाक़िओं को देखने से एक ही तरह मुतास्सिर नहीं हुआ करता। बहुत बार ऐसा होता है कि आदमी एक चीज़ को हमेशा देखता रहता है और उसके ज़ेहन में कोई हरकत पैदा नहीं होती, मगर एक वक़्त उसी चीज़ को देखकर अचानक ज़ेहन में एक खटक पैदा हो जाती है जिससे फ़िक्र की क़ुव्वतें एक ख़ास मज़मून की तरफ़ काम करने लगती हैं। या पहले से किसी सवाल की तहक़ीक़ और खोज में ज़ेहन उलझ रहा होता है। और यकायक रोज़ाना दिखने में आनेवाली चीज़ों में से किसी एक चीज़ पर नज़र पड़ते ही गुत्थी का वह सिरा हाथ लग जाता है जिस से सारी उलझनें सुलझती चली जाती हैं। ऐसा ही मामला हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ भी पेश आया। रातें रोज़ आती थीं और गुज़र जाती थीं। सूरज और चाँद और तारे सब ही आँखों के सामने डूबते और उभरते रहते थे। लेकिन वह एक ख़ास दिन था जब एक तारे के देखने ने उनके ज़ेहन को उस राह पर डाल दिया जिससे आख़िरकार वे एक अल्लाह की मर्कज़ी हक़ीक़त तक पहुँचकर रहे। मुमकिन है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का ज़ेहन पहले से इस सवाल पर ग़ौर कर रहा हो कि जिन अक़ीदों पर सारी क़ौम की ज़िन्दगी का निज़ाम चल रहा है उनमें किस हद तक सच्चाई है और फिर एक तारा यकायक सामने आकर कामयाबी की कुंजी बन गया हो। और यह भी मुमकिन है कि तारे को देखने ही से ज़ेहनी हरकत की शुरुआत हुई हो।
इस सिलसिले में एक और सवाल भी पैदा होता है। वह यह कि जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तारे को देखकर कहा यह मेरा रब है, और जब चाँद और सूरज को देखकर उन्हें अपना रब कहा, तो क्या उस वक़्त वक़्ती तौर पर ही सही वे शिर्क में पड़ गए थे? इसका जवाब यह है कि हक़ की तलब रखनेवाला एक आदमी अपनी जुस्तजू की राह में सफ़र करते हुए बीच की जिन मंजिलों पर सोच-विचार के लिए ठहरता है, अस्ल एतिबार उन मंज़िलों का नहीं होता, बल्कि अस्ल एतिबार उस सम्त का होता है जिसपर वह आगे बढ़ रहा है और उस आख़िरी मक़ाम का होता है जहाँ पहुँचकर वह क़ियाम करता है। बीच की मंज़िलें हक़ के हर चाहनेवाले के लिए बहुत ही ज़रूरी हैं। उनपर ठहरना तलब और जुस्तजू के सिलसिले में होता है, न कि फ़ैसले की सूरत में। अस्ल में यह ठहराव समझने और खोजबीन करने के लिए हुआ करता है, न कि फ़ैसले के रूप में। एक खोजी आदमी जब इनमें से किसी मंजिल पर रुक कर कहता है कि “ऐसा है” तो अस्ल में यह उसकी आख़िरी राय नहीं होती, बल्कि इसका मतलब यह होता है कि “ऐसा है?” और तहक़ीक़ व खोज से उसका जवाब 'नहीं' में पाकर वह आगे बढ़ जाता है। इसलिए यह ख़याल करना बिलकुल ग़लत है कि बीच रास्ते में जहाँ-जहाँ वह ठहरता रहा, वहाँ वह वक़्ती तौर पर कुफ़्र या शिर्क में पड़ा रहा।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓ إِذۡ قَالُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ بَشَرٖ مِّن شَيۡءٖۗ قُلۡ مَنۡ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِي جَآءَ بِهِۦ مُوسَىٰ نُورٗا وَهُدٗى لِّلنَّاسِۖ تَجۡعَلُونَهُۥ قَرَاطِيسَ تُبۡدُونَهَا وَتُخۡفُونَ كَثِيرٗاۖ وَعُلِّمۡتُم مَّا لَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنتُمۡ وَلَآ ءَابَآؤُكُمۡۖ قُلِ ٱللَّهُۖ ثُمَّ ذَرۡهُمۡ فِي خَوۡضِهِمۡ يَلۡعَبُونَ 83
(91) इन लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अन्दाज़ा लगाया जब कहा कि अल्लाह ने किसी बशर (इनसान) पर कुछ नहीं उतारा है।59 इनसे पूछो फिर वह किताब जिसे मूसा लाया था, जो तमाम इनसानों के लिए रौशनी और हिदायत थी, जिसे तुम पारा-पारा करके रखते हो, कुछ दिखाते हो और बहुत कुछ छिपा जाते हो, और जिसके ज़रिए से तुमको वह इल्म दिया गया जो न तुम्हें हासिल था और न तुम्हारे बाप-दादा को, आख़िर उसका उतारनेवाला कौन था?60 — बस इतना कह दो कि अल्लाह, फिर उन्हें अपनी दलीलबाज़ियों से खेलने के लिए छोड़ दो।
59. बयान के पिछले सिलसिले (वार्ताक्रम) और बाद की जवाबी तक़रीर से साफ़ मालूम होता है कि यह क़ौल यहूदियों का था। चूँकि नबी (सल्ल०) का दावा यह था कि में नबी हूँ और मुझपर किताब उतरी है, इसलिए क़ुदरती तौर पर क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन और अरब के दूसरे मुशरिक इस दावे की तहक़ीक़ के लिए यहूदियों और ईसाइयों की तरफ़ पलटते थे और उनसे पूछते थे कि तुम भी किताबवाले हो, पैग़म्बरों को मानते हो, बताओ क्या वाक़ई उस आदमी पर अल्लाह का कलाम उतरा है? फिर जो कुछ जवाब वे देते उसे नबी (सल्ल०) के सरगर्म मुख़ालिफ़ जगह-जगह बयान करके लोगों को भड़काते फिरते थे। इसी लिए यहाँ यहूदियों की इस बात को, जिसे इस्लाम के मुख़ालिफ़ों ने हुज्जत (दलील) बना रखा था, नक़्ल करके उसका जवाब दिया जा रहा है।
शुब्हाा किया जा सकता है कि एक यहूदी जो ख़ुद तौरात को ख़ुदा की तरफ़ से उतरी हुई किताब मानता है, यह कैसे कह सकता है कि ख़ुदा ने किसी इनसान पर कुछ नहीं उतारा। लेकिन यह शुब्हाा सही नहीं है, इसलिए कि ज़िद और हठधर्मी की बुनियाद पर कभी-कभी आदमी किसी दूसरे की सच्ची बातों को रद्द करने के लिए ऐसी बातें भी कह जाता है जिनसे ख़ुद उसकी अपनी तस्लीमशुदा सच्चाइयों पर भी चोट पड़ जाती है। ये लोग मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत को रद्द करने पर तुले हुए थे और अपनी मुख़ालफ़त के जोश में इतने अन्धे हो जाते थे कि नबी (सल्ल०) की रिसालत को रद्द करते-करते ख़ुद रिसालत ही को मानने से इनकार कर देते थे। और यह जो फ़रमाया कि लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अन्दाज़ा लगाया जब यह कहा, तो इसका मतलब यह है कि उन्होंने अल्लाह की हिकमत और उसकी क़ुदरत का अन्दाज़ा करने में ग़लती की है। जो आदमी यह कहता है कि ख़ुदा ने किसी इनसान पर हक़ का इल्म और ज़िन्दगी के लिए कोई हिदायतनामा नहीं उतारा है वह या तो इनसान पर वह्य के उतरने को नामुमकिन समझता है और यह ख़ुदा की क़ुदरत का ग़लत अन्दाज़ा है, या फिर वह यह समझता है कि ख़ुदा ने इनसान को सूझ-बूझ के हथियार और इस्तेमाल करने के इख़्तियारात तो दे दिए, मगर उसकी सही रहनुमाई का कोई इन्तिज़ाम न किया, बल्कि उसे दुनिया में अन्धाधुन्ध काम करने के लिए यूँ ही छोड़ दिया और यह ख़ुदा की हिकमत का ग़लत अन्दाज़ा है।
60. यह जवाब चूँकि यहूदियों को दिया जा रहा है इसलिए मूसा (अलैहि०) पर तौरात के उतरने को दलील के तौर पर पेश किया गया है, क्योंकि वे ख़ुद इसके क़ायल थे। ज़ाहिर है कि उनका यह तस्लीम करना कि हज़रत मूसा पर तौरात उतरी थी, उनके इस क़ौल की आप से आप तरदीद (खंडन) कर देता है कि ख़ुदा ने किसी इनसान पर कुछ नहीं उतारा। इसी के साथ कम-से-कम इतनी बात तो साबित हो जाती है कि इनसान पर ख़ुदा का कलाम उतर सकता है और उतर चुका है।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ مُّصَدِّقُ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَلِتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَاۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَهُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ يُحَافِظُونَ 84
(92) (उसी किताब की तरह) यह एक किताब है जिसे हमने उतारा है। बड़ी ख़ैर और बरकतवाली है। उस चीज़ की तसदीक़ करती है जो इससे पहले आई थी। और इसलिए उतारी गई है कि इसके ज़रिए से तुम बस्तियों के इस मर्कज़ (यानी मक्का) और इसके आस-पास में रहनेवाले लोगों को ख़बरदार करो। जो लोग आख़िरत को मानते हैं वे इस किताब पर ईमान लाते हैं और उनका हाल यह है कि अपनी नमाज़ों की पाबन्दी करते हैं।61
61. पहली दलील इस बात के सुबूत में थी कि इनसान पर ख़ुदा का कलाम उतर सकता है और अमली तौर पर उतरा भी है। अब यह दूसरी दलील इस बात के सुबूत में है कि यह कलाम जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरा है यह ख़ुदा ही का कलाम है। इस हक़ीक़त को साबित करने के लिए चार बातें गवाही के तौर पर पेश की गई हैं–
एक यह कि यह किताब बड़ी ख़ैर और बरकतवाली है, यानी इसमें इनसान की फ़लाह और कामयाबी के लिए बेहतरीन उसूल पेश किए गए हैं। सही अक़ीदों की तालीम है, भलाइयों पर उभारा गया है, बेहतरीन अख़लाक़ की नसीहत है, पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर करने की हिदायत है। और फिर यह जहालत, ख़ुदग़रज़ी, तंगनज़री, ज़ुल्म, गन्दी बातों और दूसरी उन बुराइयों से, जिनका ढेर तुम लोगों ने पाक किताब के मजमूए में भर रखा है, बिलकुल पाक है। दूसरे यह कि इससे पहले ख़ुदा की तरफ़ से जो हिदायतनामे आए थे यह किताब उनसे अलग हटकर कोई मुख़ालिफ़ हिदायत पेश नहीं करती, बल्कि उसी चीज की तसदीक़ और ताईद करती है जो उनमें पेश की गई थी।
तीसरे यह कि यह किताब उसी मक़सद के लिए उतरी है जो हर ज़माने में अल्लाह की तरफ़ से किताबों के उतरने का मक़सद रहा है, यानी ग़फ़लत में पड़े हुए लोगों को चौंकाना और ग़लत रास्ते पर चलने के बुरे अंजाम से ख़बरदार करना।
चौथे यह कि इस किताब की दावत ने इनसानों के गरोह में से उन लोगों को नहीं समेटा जो दुनियापरस्त और नफ़्स की ख़ाहिश के बन्दे हैं, बल्कि ऐसे लोगों को अपने आस-पास जमा किया है जिनकी नज़र दुनिया की ज़िन्दगी की तंग सरहदों से आगे तक जाती है और फिर इस किताब से मुतास्सिर होकर जो इनक़िलाब उनकी ज़िन्दगी में पैदा हुआ है उसकी सबसे ज़्यादा खुली निशानी यह है कि वे इनसानों के दरमियान अपनी ख़ुदापरस्ती के एतिबार से नुमायाँ हैं। क्या ये ख़ुसूसियतें और ये नतीजे किसी ऐसी किताब के हो सकते हैं जिसे किसी झूठे इनसान ने गढ़ लिया हो जो अपनी तसनीफ़ को ख़ुदा की तरफ़ मंसूब कर देने की इन्तिहाई मुजरिमाना जसारत (दुस्साहस) तक कर गुज़रे?
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا شَيَٰطِينَ ٱلۡإِنسِ وَٱلۡجِنِّ يُوحِي بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ زُخۡرُفَ ٱلۡقَوۡلِ غُرُورٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ 104
(112) और हमने तो इसी तरह हमेशा शैतान इनसानों और शैतान जिन्नों को हर नबी का दुश्मन बनाया है जो एक-दूसरे के दिलों पर ख़ुश कर देनेवाली बातें धोखे और फ़रेब के तौर पर दिल में डालते रहे हैं।79 अगर तुम्हारे रब ने यही चाहा कि वे ऐसा न करें तो वे कभी न करते।80 तो तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो कि झूठ गढ़ने का काम करते रहें।
79. यानी आज अगर शैतान जिन्न और इनसान एकजुट होकर तुम्हारे मुक़ाबले में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं तो घबराने की कोई बात नहीं। यह कोई नई बात नहीं है जो तुम्हारे ही साथ पेश आ रही है। हर ज़माने में ऐसा ही होता आया है कि जब कोई पैग़म्बर दुनिया को सीधा रास्ता दिखाने के लिए उठा तो तमाम शैतानी ताक़तें उसके मिशन को नाकाम करने के लिए कमर कसकर खड़ी हो गईं।
“ख़ुश करनेवाली बातों” से मुराद वे तमाम चालें और तदबीरें और शक-शुब्हाे और एतिराज़ हैं, जिनसे ये लोग आम लोगों को हक़ की तरफ़ बुलानेवाले के ख़िलाफ़ और उसकी दावत के ख़िलाफ़ भड़काने और उकसाने का काम लेते हैं। फिर इन सब बातों को मजमूई हैसियत से धोखा और फ़रेब कहा गया है; क्योंकि हक़ से लड़ने के लिए जो हथियार भी हक़ के मुख़ालिफ़ लोग इस्तेमाल करते हैं वे न सिर्फ़ दूसरों के लिए, बल्कि ख़ुद इनके लिए भी हक़ीक़त के एतिबार से सिर्फ़ एक धोखा होते हैं। हालाँकि देखने में वे इनको बहुत फ़ायदेमन्द और कामयाब हथियार नज़र आते हैं।
80. हमने पीछे जो तशरीहें (व्याख्याएँ) की हैं, उनके अलावा यहाँ यह हक़ीक़त भी अच्छी तरह ज़ेहन में बैठ जानी चाहिए कि क़ुरआन के मुताबिक़ अल्लाह की मंशा और उसकी रिज़ा में बहुत बड़ा फ़र्क़ है, जिसको नज़रअन्दाज़ कर देने से आम तौर से सख़्त ग़लतफ़हमियाँ पैदा हो जाती हैं। किसी चीज़ का अल्लाह की मरज़ी आर उसकी इजाज़त के तहत सामने आना लाज़िमी तौर पर यह मानी नहीं रखता कि अल्लाह उससे राज़ी भी है और उसे पसन्द भी करता है। दुनिया में कोई वाक़िआ कभी पेश नहीं आता, जब तक अल्लाह उसके होने की इजाजज़ न दे और अपनी अज़ीमुश्शान स्कीम में उसके होने की गुंजाइश न निकाले और हालात और वजहों को इस हद तक साज़गार न बना दे कि वह वाक़िआ रूनुमा हो सके। किसी चोर की चोरी, किसी क़ातिल का क़त्ल, किसी ज़ालिम और फ़सादी का ज़ुल्म और फ़साद और किसी इनकारी या मुशरिक का इनकार और शिर्क अल्लाह के चाहे बिना मुमकिन नहीं है। और इसी तरह किसी ईमानवाले और किसी परहेज़गार इनसान का ईमान और परहेज़गारी भी अल्लाह के चाहे बिना नामुमकिन है। दोनों तरह के वाक़िए बराबर तौर पर अल्लाह की मरज़ी के तहत रूनुमा होते हैं। मगर पहली तरह के वाक़िओं से अल्लाह राज़ी नहीं है और इसके बरख़िलाफ़ दूसरी तरह के वाक़िओं को ख़ुदा की ख़ुशनूदी और उसकी पसन्दीदगी और महबूबियत की सनद हासिल है। हालाँकि आख़िरकार किसी बड़ी भलाई ही के लिए कायनात के फ़रमाँरवा की मरज़ी काम कर रही है। लेकिन उस बड़ी भलाई के ज़ाहिर होने का रास्ता नूर और ज़ुलमत (प्रकाश और अन्धकार) नेकी और बुराई और तथा सुधार और फ़साद की मुख़्तलिफ़ ताक़तों के एक-दूसरे के मुक़ाबले में कशमकश करने ही से सामने आता है। इसलिए अपनी निहायत दूरन्देशियाँ रखनेवाली मस्लहतों की बुनियाद पर वह फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी, इबराहीमियत और नमरूदियत, मूसवियत और फ़िरऔनियत, आदमियत और शैतानियत दोनों को अपना-अपना काम करने का मौक़ा देता है। उसने अपनी इख़्तियार रखनेवाली मख़लूक़ (जिन्न और इनसान) को नेकी और बुराई में से किसी एक के चुनाव कर लेने की आज़ादी दे दी है। जो चाहे दुनिया के इस कारख़ीने में अपने लिए नेकी का काम पसन्द कर ले और जो चाहे बुराई का काम। दोनों तरह के काम करनेवालों को जिस हद तक ख़ुदाई मस्लहतें इजाज़त देती हैं, हालात और वजहों की हिमायत नसीब होती है, लेकिन अल्लाह की ख़ुशी और उसकी पसन्दीदगी सिर्फ़ भलाई ही के लिए काम करनेवालों को हासिल है। और अल्लाह को पसन्द यही बात है कि उसके बन्दे अपने चुनाव की आज़ादी से फ़ायदा उठाकर भलाई को अपनाएँ, न कि बुराई को।
इसके साथ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि यह जो अल्लाह हक़ के दुश्मनों की मुख़ालिफ़ाना कार्यवाइयों का ज़िक्र करते हुए अपनी मरज़ी का बार-बार हवाला देता है उससे मक़सद अस्ल में नबी (सल्ल०) को और आपके ज़रिए से ईमानवालों को यह समझाना है कि तुम्हारे काम की नौईयत फ़रिश्तों के काम की-सी नहीं है, जो किसी रुकावट के बग़ैर अल्लाह के अहकाम को पूरा कर रहे हैं, बल्कि तुम्हारा अस्ल काम शरारती लोगों और बाग़ियों के मुक़ाबले में अल्लाह के पसन्द किए हुए तरीक़े को गालिब करने के लिए जिद्दो-जुह्द करना है। अल्लाह अपनी मरज़ी के तहत उन लोगों को भी काम करने का मौक़ा दे रहा है, जिन्होंने अपनी कोशिशों और जिद्दो-जुह्द के लिए ख़ुद अल्लाह से बग़ावत के रास्ते को इख़्तियार किया है और इसी तरह वह तुमको भी जिन्होंने फ़रमाँबरदारी और बन्दगी के रास्ते को इख़्तियार किया है, काम करने का पूरा मौक़ा देता है। हालाँकि उसकी ख़ुशी और हिदायत व रहनुमाई और ताईद और मदद तुम्हारे ही साथ है; क्योंकि तुम उस पहलू में काम कर रहे हो जिसे वह पसन्द करता है। लेकिन तुम्हें यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि अल्लाह अपनी फ़ौक़ुलफ़ितरत (नैसर्गिक) दख़लअन्दाज़ी से उन लोगों को ईमान लाने पर मजबूर कर देगा जो ईमान नहीं लाना चाहते। या उन शैतान जिन्न और इनसानों को ज़बरदस्ती तुम्हारे रास्ते से हटा देगा, जिन्होंने अपने दिल व दिमाग़ को और हाथ-पाँवों की ताक़तों को और अपने साधनों और ज़रिओं को हक़ की राह रोकने के लिए इस्तेमाल करने का फ़ैसला कर लिया है। नहीं, अगर तुमने वाक़ई हक़ और नेकी व सच्चाई के लिए काम करने का पक्का इरादा किया है तो तुम्हें बातिल-परस्तों के मुक़ाबले में सख़्त कशमकश और जिद्दो-जुह्द करके अपनी हक़परस्ती का सुबूत देना होगा, वरना मोजिज़े (चमत्कार) के ज़ोर से बातिल को मिटाना और हक़ को ग़ालिब करना होता तो तुम्हारी ज़रूरत ही क्या थी। अल्लाह ख़ुद ऐसा इन्तिज़ाम कर सकता था कि दुनिया में कोई शैतान न होता और किसी शिर्क और नाफ़रमानी के ज़ाहिर होने का इमकान न होता।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ قَدِ ٱسۡتَكۡثَرۡتُم مِّنَ ٱلۡإِنسِۖ وَقَالَ أَوۡلِيَآؤُهُم مِّنَ ٱلۡإِنسِ رَبَّنَا ٱسۡتَمۡتَعَ بَعۡضُنَا بِبَعۡضٖ وَبَلَغۡنَآ أَجَلَنَا ٱلَّذِيٓ أَجَّلۡتَ لَنَاۚ قَالَ ٱلنَّارُ مَثۡوَىٰكُمۡ خَٰلِدِينَ فِيهَآ إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ 120
(128) जिस रोज़ अल्लाह उन सब लोगों को घेर कर जमा करेगा, उस रोज़ वह जिन्नों94 से ख़िताब करके फ़रमाएगा कि “ऐ जिन्नों के गरोह, तुमने तो इनसानी बिरादरी पर ख़ूब हाथ साफ़ किया।” इनसानों में से जो उनके साथी थे वे कहेंगे कि “परवरदिगार, हम में से हर एक ने दूसरे को ख़ूब इस्तेमाल किया है,95 और अब हम उस वक़्त पर आ पहुँचे हैं जो तू ने हमारे लिए मुक़र्रर कर दिया था।” अल्लाह कहेगा, “अच्छा, अब आग तुम्हारा ठिकाना है, इसमें तुम हमेशा रहोगे।” उससे बचेंगे सिर्फ़ वही लोग जिन्हें अल्लाह बचाना चाहेगा, बेशक तुम्हारा रख सूझ-बूझवाला और जाननेवाला है।96
94. यहाँ जिन्नों से मुराद शैतान जिन्न हैं।
95. यानी हममें से हर एक ने दूसरे से नाजाइज़ फ़ायदे उठाए हैं, हर एक-दूसरे को धोखे और फ़रेब में डालकर अपनी ख़ाहिशें पूरी करता रहा है।
96. यानी हालाँकि अल्लाह को इख़्तियार है कि जिसे चाहे सज़ा दे और जिसे चाहे माफ़ कर दे, मगर यह सज़ा और माफ़ी बिना किसी मुनासिब वजह के सिर्फ़ ख़ाहिश की बुनियाद पर नहीं होगी, बल्कि इल्म और हिकमत की बुनियाद पर होगी। ख़ुदा माफ़ उसी मुजरिम को करेगा जिसके बारे में वह जानता है कि वह ख़ुद अपने जुर्म का ज़िम्मेदार नहीं है और जिसके बारे में उसकी हिकमत यह फ़ैसला करेगी कि उसे सज़ा नहीं दी जानी चाहिए।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ مِمَّا ذَرَأَ مِنَ ٱلۡحَرۡثِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ نَصِيبٗا فَقَالُواْ هَٰذَا لِلَّهِ بِزَعۡمِهِمۡ وَهَٰذَا لِشُرَكَآئِنَاۖ فَمَا كَانَ لِشُرَكَآئِهِمۡ فَلَا يَصِلُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَا كَانَ لِلَّهِ فَهُوَ يَصِلُ إِلَىٰ شُرَكَآئِهِمۡۗ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ 128
(136) इन लोगों ने104 अल्लाह के लिए ख़ुद उसी की पैदा की हुई खेतियों और मवेशियों में से एक हिस्सा मुक़र्रर किया है और अपने ख़याल से कहते हैं कि यह अल्लाह के लिए है, और यह हमारे ठहराए हुए शरीकों के लिए105 फिर जो हिस्सा उनके ठहराए हुए शरीकों के लिए है वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता। मगर जो अल्लाह के लिए है वह उनके शरीकों को पहुँच जाता है।106 कैसे बुरे फ़ैसले करते हैं ये लोग!
104. तक़रीर का ऊपर का सिलसिला इस बात पर ख़त्म हुआ था कि अगर ये लोग नसीहत क़ुबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं और अपनी जाहिलियत पर अड़े ही रहते हैं तो इनसे कह दो कि अच्छा, तुम अपने तरीक़े पर अमल करते रहो और में अपने तरीक़े पर अमल करूँगा, क़ियामत एक दिन ज़रूर आनी है, उस वक़्त तुम्हें मालूम हो जाएगा कि इस रवैये का क्या अंजाम होता है। बहरहाल यह ख़ूब समझ लो कि वहाँ ज़ालिमों को फ़लाह नसीब न होगी। इसके बाद अब उस जाहिलियत का मतलब बताया जाता है जिस पर वे लोग अड़े हुए थे और जिसे छोड़ने पर किसी तरह तैयार न होते थे। उन्हें बताया जा रहा है कि तुम्हारा वह “ज़ुल्म” क्या है जिसपर क़ायम रहते हुए तुम किसी फ़लाह और कामयाबी की उम्मीद नहीं कर सकते।
105. इस बात को वे ख़ुद मानते थे कि ज़मीन अल्लाह की है और खेतियाँ वही उगाता है। इसी के साथ उन जानवरों का पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है जिनसे वे अपनी ज़िन्दगी में ख़िदमत लेते हैं। लेकिन उनका ख़याल यह था कि उनपर अल्लाह का यह फ़ज़्ल उन देवियों और देवताओं और फ़रिश्तों और जिन्नों और आसमानी सितारों और गुज़रे हुए बुज़ुर्गों की रूहों की वजह से और बरकत से है जो उनपर रहमत की नज़र रखते हैं। इसलिए वे अपने खेतों की पैदावार और अपने जानवरों में से दो हिस्से निकालते थे। एक हिस्सा अल्लाह के नाम का, इस शुक्रिये में कि उसने ये खेत और ये जानवर बख़्शे। और दूसरा हिस्सा अपने क़बीले या ख़ानदान के सरपरस्त माबूदों की नज़्र व नियाज़ का, ताकि उनकी मेहरबानियाँ उनके साथ रहें। अल्लाह सबसे पहले उनके इसी ज़ुल्म पर पकड़ करता है कि ये सब मवेशी हमारे पैदा किए हुए और हमारे दिए हुए हैं, इनमें यह दूसरों की नज़्र व नियाज़ कैसी? यह नमक हरामी नहीं तो क्या है कि तुम अपने मुहसिन के एहसान को, जो उसने सरासर ख़ुद अपने फ़ज़्ल और करम से तुम पर किया है, दूसरों की दख़लअन्दाज़ी और उनका ज़रिआ और वास्ता बनने का नतीजा क़रार देते हो और शुक्रिए के हक़ में उन्हें उसके साथ शरीक करते हो। फिर इशारे के तौर पर दूसरी गिरफ़्त इस बात पर भी की है कि यह अल्लाह का हिस्सा जो उन्होंने मुक़र्रर किया है यह भी अपने आप ही कर लिया है, अपने लिए क़ानून बनानेवाले ख़ुद बन बैठे हैं, आप ही जो हिस्सा चाहते हैं अल्लाह के लिए मुक़र्रर कर लेते हैं और जो चाहते हैं दूसरों के लिए तय कर देते हैं। हालाँकि अपनी बख़्शिश का अस्ल मालिक और मुख़्तार ख़ुद अल्लाह है और यह बात उसी की शरीअत के मुताबिक़ तय होनी चाहिए कि इस बख़्शिश में से कितना हिस्सा उसके शुक्रिए के लिए निकाला जाए और बाक़ी में कौन-कौन हक़दार हैं। तो हक़ीक़त में इस मनमाने तरीक़े से जो हिस्सा ये लोग अपने झूठे ख़याल में ख़ुदा के लिए निकालते हैं और फ़क़ीरों और मुहताजों पर ख़ैरात करते हैं वह भी कोई नेकी नहीं है। ख़ुदा के यहाँ उसके क़ुबूल होने की भी कोई वजह नहीं।
106. यह लतीफ़ तंज़ (व्यंग्य) है उनकी इस हरकत पर कि वे ख़ुदा के नाम से जो हिस्सा निकालते थे उसमें भी तरह-तरह की चालबाज़ियाँ करके कमी करते रहते थे और हर सूरत से अपने ख़ुद के गढ़े हुए शरीकों का हिस्सा बढ़ाने की कोशिश करते थे, जिससे ज़ाहिर होता था कि जो दिलचस्पी उन्हें अपने उन शरीकों से है वे ख़ुदा से नहीं है। मिसाल के तौर पर, जो ग़ल्ले या फल वग़ैरा ख़ुदा के नाम पर निकाले जाते उनमें से अगर कुछ गिर जाता तो वह शरीकों के हिस्से में शामिल कर दिया जाता था, और अगर शरीकों के हिस्से में से गिरता, या ख़ुदा के हिस्से में मिल जाता तो उसे उन्हीं के हिस्से में वापस किया जाता। खेत का जो हिस्सा शरीकों की नज़्र के लिए ख़ास किया जाता था, अगर उसमें से पानी उस हिस्से की तरफ़ फूट बहता जो ख़ुदा की नज़्र के लिए ख़ास होता था तो उसकी सारी पैदावार शरीकों के हिस्से में दाख़िल कर दी जाती थी, लेकिन अगर उसके बरख़िलाफ़ सूरत पेश आती तो ख़ुदा के हिस्से में कोई बढ़ोतरी न की जाती। अगर कभी सूखा पड़ने की वजह से नज़्र व नियाज़ का ग़ल्ला ख़ुद इस्तेमाल करने की ज़रूरत पेश आ जाती तो ख़ुदा का हिस्सा खा लेते थे मगर साझीदारों के हिस्से को हाथ लगाते हुए डरते थे कि कहीं कोई बला नाज़िल न हो जाए। अगर किसी वजह से शरीकों के हिस्से में कुछ कमी आ जाती तो वे ख़ुदा के हिस्से से पूरी की जाती थी लेकिन ख़ुदा के हिस्से में कमी होती तो शरीकों के हिस्से में से एक दाना भी इसमें न डाला जाता। इस रवैये पर कोई नुक्ताचीनी करता तो जवाब में तरह-तरह की दिलफ़रेब दलीलें दी जाती थीं। मिसाल के तौर पर, कहते थे कि ख़ुदा तो ग़नी (बेनियाज़) है, उसके हिस्से में से कुछ कम भी हो जाए तो उस क्या परवाह हो सकती है। रहे ये शरीक, तो ये बन्दे हैं, ख़ुदा की तरह ग़नी नहीं हैं, इसलिए ज़रा-सी कमी या बेशी पर भी उनके यहाँ पकड़ हो जाती है।
इन अन्धविश्वासों की अस्ल जड़ क्या थी, इसको समझने के लिए यह जान लेना भी ज़रूरी है कि अरब के जाहिल लोग अपने माल में से जो हिस्सा ख़ुदा के लिए निकालते थे, वह फ़क़ीरों, मुहताजों, मुसाफ़िरों और यतीमों वग़ैरा की मदद में ख़र्च किया जाता था, और जो हिस्सा शरीकों की नज़्र व नियाज़ के लिए निकालते थे वह या तो सीधे तौर पर मज़हबी तबक़ों के पेट में जाता था या आस्तानों पर चढ़ावे की सूरत में पेश किया जाता और इस तरह घूम-घुमाकर मुजाविरों (मठाधीशों) और पुजारियों तक पहुँच जाता था। इसी लिए इन ख़ुदग़रज़ मज़हबी पेशवाओं ने सदियों की लगातार नसीहत से उन जाहिलों के दिल में यह बात बिठाई थी कि ख़ुदा के हिस्से में कमी हो जाए तो कुछ हरज नहीं, मगर 'ख़ुदा के प्यारों' के हिस्से में कमी नहीं होनी चाहिए, बल्कि जहाँ तक हो सके कुछ बढ़ोतरी ही होती रहे तो बेहतर है।
وَكَذَٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ قَتۡلَ أَوۡلَٰدِهِمۡ شُرَكَآؤُهُمۡ لِيُرۡدُوهُمۡ وَلِيَلۡبِسُواْ عَلَيۡهِمۡ دِينَهُمۡۖ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ 129
(137) और इसी तरह बहुत-से मुशरिकों के लिए उनके शरीकों ने अपनी औलाद के क़त्ल को ख़ुशनुमा बना दिया है।107 ताकि उनको हलाकत में डालें108 और उन पर उनके दीन को मुश्तबह (सन्दिग्ध) बना दें।109 अगर अल्लाह चाहता तो ये ऐसा न करते। तो इन्हें छोड़ दो कि झूठ गढ़ने के काम में लगे रहें।110
107. यहाँ 'शरीकों’ का लफ़्ज़ एक-दूसरे मानी में इस्तेमाल हुआ है जो ऊपर के मानी से अलग है। ऊपर की आयत में जिन्हें शरीक कहा गया था वे उनके माबूद थे जिनकी बरकत या सिफ़ारिश या वास्ते को ये लोग नेमत के हासिल करने में मददगार समझते थे और नेमत के शुक्र के हक़ में उन्हें ख़ुदा के साथ हिस्सेदार बनाते थे। इसके बरख़िलाफ़ इस आयत में शरीक से मुराद इनसान और शैतान हैं जिन्होंने औलाद के क़त्ल को उन लोगों की निगाह में एक जाइज़ और पसन्दीदा काम बना दिया था। उन्हें शरीक कहने की वजह यह है कि इस्लाम के नज़रिए से जिस तरह इबादत का हक़दार अकेला अल्लाह है इसी तरह बन्दों के लिए क़ानून बनाने और जाइज़ और नाजाइज़ की हदें मुक़र्रर करने का हक़दार भी सिर्फ़ अल्लाह है। इसलिए जिस तरह किसी दूसरे के आगे इबादत के कामों में से कोई काम करना उसे ख़ुदा का शरीक बनाने के बराबर है, उसी तरह किसी के ख़ुद के बनाए हुए क़ानून को हक़ समझते हुए उसकी पाबन्दी करना और उसकी मुक़र्रर की हुई हदों की इताअत को ज़रूरी मानना भी उसे ख़ुदाई में शरीक क़रार देने के बराबर है। ये दोनों काम बहरहाल शिर्क हैं, चाहे इनकार करनेवाला उन हस्तियों को ज़बान से इलाह और रब कहे या न कहे जिनके आगे वह नज़्र व नियाज़ पेश करता है या जिनके मुक़र्रर किए क़ानून को इताअत के लिए ज़रूरी मानता है।
औलाद के क़त्ल की तीन सूरतें अरब के लोगों में राइज थीं और क़ुरआन में तीनों तरफ़ इशारा किया गया है–
1 लड़कियों का क़त्ल, इस ख़याल से कि कोई उनका दामाद न बने, या क़बायली लड़ाइयों में वे दुश्मन के हाथ न पड़ें, या किसी दूसरी वजह से वह उनके लिए शर्मिन्दगी की वजह न बनें।
2. बच्चों का क़त्ल, इस ख़याल से कि उनकी परवरिश का बोझ न उठाया जा सकेगा और ज़राए-मआश (आर्थिक संसाधनों) की कमी की वजह से वे नाक़ाबिले-बरदाश्त बोझ बन जाएँगे।
3. बच्चों को अपने माबूदों की ख़ुशनूदी के लिए भेंट चढ़ाना।
108. यह हलाकत का लफ़्ज़ निहायत गहरे मानी रखता है। इससे मुराद अख़लाक़्री हलाकत भी है कि जो इनसान संगदिली और सख़्ती की इस हद को पहुँच जाए कि अपनी औलाद को अपने हाथ से क़त्ल करने लगे, उसमें इनसानियत का जौहर होना तो दूर की बात है हैवानियत का जौहर तक बाक़ी नहीं रहता। और नौई और क़ौमी (जातीय और राष्ट्रीय) हलाकत भी कि औलाद के क़त्ल का लाज़िमी नतीजा नस्लों का घटना और आबादी का कम होना है, जिससे मानव-जाति को भी नुक़सान पहुँचता है और वह क़ौम भी तबाही के गढ़े में गिरती है जो अपने हामियों और अपने समाज के कारकुनों और मीरास के वारिसों को पैदा नहीं होने देती, या पैदा होते ही ख़ुद अपने हाथों उन्हें ख़त्म कर डालती है। और उससे मुराद अंजामी हलाकत भी है कि जो आदमी मासूम बच्चों पर यह ज़ुल्म करता है और जो अपनी इनसानियत को, बल्कि अपनी हैवानी फ़ितरत तक को यूँ उलटी छुरी से ज़बह करता है, और जो मानव-जाति के साथ और ख़ुद अपनी क़ौम के साथ यह दुश्मनी करता है, वह अपने आपको ख़ुदा के सख़्त अज़ाब का हक़दार बनाता है।
109. जाहिलियत के ज़माने के अरब अपने आपको हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) का पैरौ कहते और समझते थे और इस वजह से उनका ख़याल यह था कि जिस मज़हब की पैरवी कर रहे हैं वह ख़ुदा का पसन्दीदा मज़हब ही है। लेकिन जो दीन उन लोगों ने हज़रत इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) से सीखा था उसके अन्दर बाद की सदियों में मज़हबी पेशवा, क़बीलों के सरदार, ख़ानदानों के बड़े-बूढ़े और बहुत-से लोग तरह-तरह के अक़ीदों (धारणाओं), कामों और रस्मों का इज़ाफ़ा करते चले गए, जिन्हें आनेवाली नस्लों ने अस्ल मज़हब का हिस्सा समझा और अक़ीदतमन्दी के साथ उनकी पैरवी की। चूँकि रिवायतों में, या तारीख़ में, या किसी किताब में ऐसा कोई रिकॉर्ड महफ़ूज़ नहीं था जिससे मालूम होता कि अस्ल मज़हब क्या था और बाद में क्या चीज़ें किस ज़माने में किसने किस तरह बढ़ा दीं, इस वजह से अरब के लोगों के लिए उनका पूरा दीन शक व शुब्हाे से भरा हुआ होकर रह गया था। न किसी चीज़ के बारे में यक़ीन के साथ यही कह सकते थे कि यह अस्ल दीन का अंश है जो ख़ुदा की तरफ़ से आया था और न यही जानते थे कि ये बिदअतें (यानी नई गढ़ी हुई बातें) और ग़लत रस्में हैं जो बाद में लोगों ने बढ़ा दीं। इसी सूरते-हाल की तर्जुमानी इस जुमले में की गई है।
110. यानी अगर अल्लाह चाहता कि वे ऐसा न करें तो वे कभी न कर सकते थे, लेकिन चूँकि अल्लाह की मर्ज़ी यही थी कि जो आदमी जिस राह पर जाना चाहता है उसे जाने का मौक़ा दिया जाए। इसी लिए यह सब कुछ हुआ। इसलिए अगर ये लोग तुम्हारे समझाने से नहीं मानते और इस तरह के झूठ गढ़ने ही पर वे अड़े हुए हैं, तो जो कुछ ये करना चाहते हैं करने दो। इनके पीछे पड़ने की कुछ ज़रूरत नहीं।
وَقَالُواْ هَٰذِهِۦٓ أَنۡعَٰمٞ وَحَرۡثٌ حِجۡرٞ لَّا يَطۡعَمُهَآ إِلَّا مَن نَّشَآءُ بِزَعۡمِهِمۡ وَأَنۡعَٰمٌ حُرِّمَتۡ ظُهُورُهَا وَأَنۡعَٰمٞ لَّا يَذۡكُرُونَ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا ٱفۡتِرَآءً عَلَيۡهِۚ سَيَجۡزِيهِم بِمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ 130
(138) कहते हैं ये जानवर और ये खेत महफ़ूज़ हैं, इन्हें सिर्फ़ वही लोग खा सकते हैं, जिन्हें हम खिलाना चाहें, हालाँकि यह पाबन्दी उनकी ख़ुद की लगाई हुई है।111 फिर कुछ जानवर हैं जिनपर सवारी और बोझ ढोने का काम हराम कर दिया गया है और कुछ जानवर हैं जिनपर ये अल्लाह का नाम नहीं लेते।112 और यह सब कुछ इन्होंने अल्लाह पर झूठ गढ़ा है।113 जल्दी ही अल्लाह इन्हें इनके झूठ गढ़ने का बदला देगा।
111. अरब के लोगों का क़ायदा था कि कुछ जानवरों के बारे में या कुछ खेतियों की पैदावार के बारे में मन्नत मान लेते थे कि ये फ़ुलाँ आस्ताने या फ़ुलाँ हज़रत की नियाज़ के लिए ख़ास हैं। उस नियाज़ को हर एक न खा सकता था, बल्कि उसके लिए उनके यहाँ एक तफ़सीली ज़ाब्ता और क़ानून था जिसके मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ नियाज़ों को मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ख़ास लोग ही खा सकते थे। अल्लाह उनके इस काम को न सिर्फ़ मुशरिकाना कामों में शुमार करता है, बल्कि इस पहलू पर भी ख़बरदार करता है कि यह ज़ाब्ता और क़ानून उनका ख़ुद का गढ़ा हुआ है। यानी जिस ख़ुदा की रोज़ी में से वे ये मन्नतें मानते और नियाज़ें करते हैं, उसने न इन मन्नतों और नियाज़ों का हुक्म दिया है और न उनके खाने के बारे में ये पाबन्दियाँ लगाई हैं। यह सब कुछ उन सरकश और बाग़ी बन्दों ने अपने इख़्तियार से ख़ुद ही गढ़ लिया है।
112. रिवायतों से मालूम होता है कि अरब के लोगों के यहाँ कुछ ख़ास मन्नतों और नज़्रों के जानवर ऐसे होते थे जिनपर ख़ुदा का नाम लेना जाइज़ नहीं समझा जाता था। उनपर सवार होकर हज करना मना था, क्योंकि हज के लिए लब्बैक अल्लाहुम-म-लब्बैक (यानी हाज़िर हूँ मैं ऐ अल्लाह में हाज़िर हूँ!) कहना पड़ता था। इसी तरह उनका दूध दुहते वक़्त या उनपर सवार होने की हालत में, या उनको ज़ब्ह करते हुए, या उनको खाने के वक़्त इस बात का ख़ास ख़याल रखा जाता था कि ख़ुदा का नाम ज़बान पर न आए।
113. यानी ये क़ायदे ख़ुदा के मुक़र्रर किए हुए नहीं हैं, मगर वे उनकी पाबन्दी यही समझते हुए कर रहे हैं कि उन्हें ख़ुदा ने मुक़र्रर किया है, और ऐसा समझने के लिए उनके पास ख़ुदा के किसी हुक्म की सनद नहीं है, बल्कि सिर्फ़ यह सनद है कि बाप-दादा से यूँ ही होता चला आ रहा है।
قُل لَّآ أَجِدُ فِي مَآ أُوحِيَ إِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلَىٰ طَاعِمٖ يَطۡعَمُهُۥٓ إِلَّآ أَن يَكُونَ مَيۡتَةً أَوۡ دَمٗا مَّسۡفُوحًا أَوۡ لَحۡمَ خِنزِيرٖ فَإِنَّهُۥ رِجۡسٌ أَوۡ فِسۡقًا أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ رَبَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ 137
(145) ऐ नबी। इनसे कहो कि जो वह्य मेरे पास आई है उसमें तो मैं कोई चीज़ ऐसी नहीं पाता जो किसी खानेवाले पर हराम हो, सिवाय इसके कि वह मुर्दार हो, या बहाया हुआ ख़ून हो, या सूअर का गोश्त हो कि वह नापाक है। या फ़िस्क (नाफ़रमानी) हो कि अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो।121 फिर जो शख़्स मजबूरी की हालत में (कोई चीज़ इनमें से खा ले) बग़ैर इसके कि वह नाफ़रमानी का इरादा रखता हो और बग़ैर इसके कि वह ज़रूरत की हद से आगे बढ़े। तो यक़ीनन तुम्हारा रब दरगुज़र और माफ़ी से काम लेनेवाला और रहम करनेवाला है।
121. यह मज़मून सूरा-2, अल-बक़रा की आयत-178 और सूरा-5, अल-माइदा की आयत-3 में आ चुका है, और आगे सूरा-16, अन-नह्ल की आयत-115 में आनेवाला है।
सूरा-2, अल-बक़रा की आयत और इस आयत में बज़ाहिर इतना इख़्तिलाफ़ पाया जाता है कि वहाँ सिर्फ़ 'ख़ून' कहा गया है और यहाँ ख़ून के साथ ‘मसफ़ूह' की क़ैद लगाई गई है यानी ऐसा ख़ून जो किसी जानवर को जख़्मी करके या ज़बह करके निकाला गया हो। मगर अस्ल में यह इख़्तिलाफ़ नहीं, बल्कि उस हुक्म की तशरीह (व्याख्या) है। इसी तरह सूरा-5 अल-माइदा की आयत में इन चार चीज़ों के अलावा कुछ और चीज़ों को हराम किए जाने का भी ज़िक्र मिलता है यानी वे जानवर जो गला घुटकर या चोट खाकर या बुलन्दी से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो या जिसे किसी दरिन्दे ने फाड़ा हो। लेकिन हक़ीक़त में यह भी इख़्तिलाफ़ नहीं है, बल्कि एक तशरीह (व्याख्या) है जिससे मालूम होता है कि जो जानवर इस तीर पर हलाक हुए हों वे भी मुर्दार कहलाएँगे।
इस्लाम के फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) में से एक गरोह इस बात का क़ायल है कि हैवानी ग़िज़ाओं में से यही चार चीज़ें हराम हैं और इनके सिवा हर चीज़ का खाना जाइज़ है। यही मसलक हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) का था। लेकिन बहुत-सी हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने कुछ चीज़ों के खाने से या तो मना किया है या उन पर नापसन्दीदगी का इज़हार किया है। जैसे, पालतू गधे, कचुलियों (नुकीले दाँत) वाले दरिन्दे और पंजोंवाले परिन्दे। इस वजह से ज़्यादा तर फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) इन चार चीज़ों को ही हराम किए जाने तक महदूद नहीं मानते, बल्कि दूसरी चीज़ें भी इसमें शामिल कर देते हैं। मगर इसके बाद फिर बहुत-सी चीज़ों को हलाल और हराम होने में फ़ुक़हा के दरमियान इख़्तिलाफ़ हुआ है। मिसाल के तौर पर पालतू गधे को इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) हराम क़रार देते हैं। लेकिन कुछ दूसरे फ़ुक़हा कहते हैं कि वह हराम नहीं है, बल्कि किसी वजह से नबी (सल्ल०) ने एक मौक़े पर उसको मना कर दिया था। दरिन्दे जानवरों और शिकारी परिन्दों और मुर्दार खानेवाले जानवरों को हनफ़ी मसलक के उलमा बिलकुल हराम क़रार देते हैं। मगर इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक शिकारी परिन्दे हलाल हैं। लैस के नज़दीक बिल्ली हलाल है। इमाम शाफ़िई के नज़दीक सिर्फ़ वे दरिन्दे हराम हैं जो इनसान पर हमला करते हैं, जैसे शेर, भेड़िया, चीता वग़ैरा। इकरिमा के नज़दीक कौआ और बिज्जू दोनों हलाल हैं। इसी तरह हनफ़ी मसलक के उलमा ज़मीन के अन्दर रहनेवाले तमाम कीड़े-मकौड़ों को हराम क़रार देते हैं, मगर इब्ने-अबी-लैला, इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक साँप हलाल है।
इन सभी अलग-अलग बातों और उनकी दलीलों पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ मालूम होती है कि अस्ल में अल्लाह की शरीअत में बिलकुल हराम चीज़ें यही चार हैं, जिनका ज़िक्र क़ुरआन में किया गया है। उनके सिवा दूसरी हैवानी ग़िज़ाओं में मुख़्तलिफ़ दरजों की कराहत (नापसन्दीदगी) है। जिन चीज़ों का नापसन्द होना सही रिवायतों के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) से साबित है वे हराम होने के दरजे से ज़्यादा क़रीब हैं। और जिन चीज़ों में फ़ुक़हा के दरमियान इख़्तिलाफ़ हुआ है उनके नापसन्द होने में शक है। रही फ़ितरी नापसन्दीदगी जिसकी वजह से कुछ लोग कुछ चीज़ों को खाना पसन्द नहीं करते, गरोही नापसन्दीदगी जिसकी वजह से इनसानों के कुछ गरोह कुछ चीज़ों को नापसन्द करते हैं, या क़ौमी नापसन्दीदगी जिसकी वजह से कुछ क़ौमें कुछ चीज़ों से नफ़रत करती हैं, तो अल्लाह की शरीअत किसी को मजबूर नहीं करती कि वह ख़ाह-मख़ाह हर उस चीज़ को ज़रूर ही खा जाए, जो हराम नहीं की गई है और इसी तरह शरीअत किसी को यह हक़ भी नहीं देती कि वह अपनी नापसन्दीदगी या नफ़रत को क़ानून क़रार दे और उन लोगों पर इलज़ाम लगाए जो ऐसी जाएँ इस्तेमाल करते हैं जिन्हें वह नापसन्द करता है।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا كُلَّ ذِي ظُفُرٖۖ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ وَٱلۡغَنَمِ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ شُحُومَهُمَآ إِلَّا مَا حَمَلَتۡ ظُهُورُهُمَآ أَوِ ٱلۡحَوَايَآ أَوۡ مَا ٱخۡتَلَطَ بِعَظۡمٖۚ ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِبَغۡيِهِمۡۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ 138
(146) और जिन लोगों ने यहूदियत इख़्तियार की उनपर हमने सब नाख़ुनवाले जानवर हराम कर दिए थे, और गाय और बकरी की चरबी भी, सिवाय उसके जो उनकी पीठ या उनकी आँतों से लगी हो या हड्डी से लगी रह जाए। यह हमने उनकी सरकशी की सज़ा उन्हें122 दी थी और ये जो कुछ हम कह रहे हैं, बिलकुल सच कह रहे हैं।
122. यह मज़मून क़ुरआन मजीद में तीन जगहों पर बयान हुआ है। सूरा-3, आले-इमरान की आयत-93 में फ़रमाया गया, “खाने की ये सारी चीज़ें (जो मुहम्मद सल्ल॰ की शरीअत में हलाल हैं) बनी-इसराईल के लिए भी हलाल थीं, अलबत्ता कुछ चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले इसराईल ने ख़ुद अपने ऊपर हराम कर लिया था। इनसे कहो कि लाओ तौरात और पेश करो उसकी कोई इबारत अगर तुम (अपने एतिराज़ में) सच्चे हो।” फिर सूरा-4, अन-निसा की आयत-160 में फ़रमाया कि बनी-इसराईल के जुर्मों की बुनियादों पर हमने बहुत-सी वे पाक चीज़ें उन पर हराम कर दीं जो पहले उनके लिए हलाल थीं।” और यहाँ कहा गया है कि उनकी सरकशियों के बदले में हमने उन पर तमाम नाख़ुनवाले जानवर हराम किए और बकरी और गाय की चरबी भी उनके लिए हराम ठहरा दी। इन तीनों आयतों को जमा करने से मालूम होता है कि मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत और यहूदी फिक़्ह के दरमियान हैवानी ग़िज़ाओं को हलाल और हराम किए जाने के मामले में जो फ़र्क़ पाया जाता है उनकी दो वजहें हैं–
एक यह कि तौरात के उतरने से सदियों पहले हज़रत याक़ूब (इसराईल) ने कुछ चीज़ों का इस्तेमाल छोड़ दिया था और उनके बाद उनकी औलाद भी उन चीज़ों को छोड़ बैठी थी, यहाँ तक कि यहूदी फ़ुक़हा ने इनको बाक़ायदा हराम समझ लिया और उनके हराम होने की बात तौरात में लिख ली। इन चीज़ों में ऊँट और ख़रगोश और साफ़ान शामिल हैं। आज बाइबल में तौरात के जो हिस्से हमको मिलते हैं उनमें इन तीनों चीज़ों को हराम होने का ज़िक्र है। (देखें लैव्य-व्यवस्था 11:4-6, व्यववस्थविवरण 14:7) लेकिन क़ुरआन मजीद में यहूदियों को जो चैलेंज दिया गया था कि लाओ तौरात और दिखाओ ये चीज़ें कहाँ हराम लिखी हैं, इससे मालूम हुआ कि तौरात में इनका इज़ाफ़ा उसके बाद किया गया है, क्योंकि अगर उस वक़्त तौरात में ये अहकाम मौजूद होते तो बनी-इसराईल फ़ौरन लाकर पेश कर देते।
दूसरा फ़र्क़ इस वजह से है कि अल्लाह की उतारी हुई शरीअत से जब यहूदियों ने बग़ावत की और आप अपनी शरीअत बनानेवाले बन बैठे तो उन्होंने बहुत-सी पाक चीज़ों को अपनी बाल की खाल निकालनेवाली आदत से ख़ुद हराम कर लिया और अल्लाह ने सज़ा के तौर पर उन्हें इस ग़लतफ़हमी में पड़े रहने दिया। इन चीज़ों में एक तो नाख़ुनवाले जानवर शामिल हैं, यानी शतुरमुर्ग, क़ाज़, बतख़ वग़ैरा। दूसरे गाय और बकरी की चरबी। बाइबल में इन दोनों तरह की हराम की गई चीज़ों को तौरात के हुक्मों में दाख़िल कर दिया गया है। (देखें लैव्य-व्यवस्था 3:17 ; व्यवस्थाविवरण 7:23-25) लेकिन सूरा-4, अन-निसा से मालूम होता है कि ये चीज़ें तौरात में हराम नहीं थीं, बल्कि ईसा (अलैहि०) के बाद हराम हुई हैं और इतिहास भी गवाही देता है कि मौजूदा यहूदी शरीअत दूसरी सदी ईसवी के आख़िर में रब्बी यहूदा के हाथों मुकम्मल हुई है।
रहा यह सवाल कि फिर इन चीज़ों के बारे में यहाँ और सूरा-4, अन-निसा में अल्लाह ने 'हर्रमना' (हमने हराम किया) का लफ़्ज़ क्यों इस्तेमाल किया तो इसका जवाब यह है कि अल्लाह के हराम करने की सिर्फ़ यही एक सूरत नहीं है कि वह किसी पैग़म्बर और किताब के ज़रिए से किसी चीज़ को हराम करे, बल्कि इसकी एक सूरत यह भी है कि वे अपने बाग़ी बन्दों पर बनावटी शरीअत बनानेवालों और जाली क़ानून गढ़ लेनेवालों को मुसल्लत कर दे और वे उन पर पाक चीज़ों को हराम कर दें। पहली क़िस्म का हराम करना ख़ुदा की तरफ़ से रहमत के तौर पर होता है और यह दूसरी क़िस्म का हराम करना उसकी फिटकार और सज़ा के तौर पर हुआ करता है।
۞قُلۡ تَعَالَوۡاْ أَتۡلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمۡ عَلَيۡكُمۡۖ أَلَّا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗاۖ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُم مِّنۡ إِمۡلَٰقٖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكُمۡ وَإِيَّاهُمۡۖ وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَۖ وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ 142
(151) ऐ नबी! इनसे कहो कि आओ मैं तुम्हें सुनाऊँ तुम्हारे रब ने तुम पर क्या पाबन्दियाँ लगाई हैं।127
1) यह कि उसके साथ किसी को शरीक न करो, 128
2) और माँ-बाप के साथ नेक सुलूक करो,129
3) और अपनी औलाद को मुहताजी के डर से क़त्ल न करो, हम तुम्हें भी रोज़ी देते हैं और उनको भी देंगे।
4) और बेशर्मी की बातों के क़रीब भी न जाओ130 चाहे वे खुली हों या छिपी।
5) और किसी जान को, जिसे अल्लाह ने मुहतरम ठहराया है, हलाक न करो, मगर हक़ और इनसाफ़ के साथ।131
ये बातें हैं जिनकी हिदायत उसने तुम्हें की है, शायद कि तुम समझ-बूझ से काम लो।
127. यानी तुम्हारे रब की लागू की गई पाबन्दियाँ ये नहीं हैं जिनमें तुम गिरफ़्तार हो, बल्कि अस्ल पाबन्दियाँ ये हैं जो अल्लाह ने इनसानी ज़िन्दगी को ठीक तौर पर चलाने के लिए लागू की है। और जो हमेशा से अल्लाह की शरीअतों की अस्ल बुनियाद रही हैं। मुक़ाबले के लिए देखें बाइबल की किताब निर्गमन, अध्याय-20)
128. यानी न ख़ुदा की ज़ात में किसी को उसका शरीक ठहराओ, न उसकी सिफ़तों में, न उसके इख़्तियारात में, और न उसके हुक़ूक़ में।
ज़ात में शिर्क यह है कि ख़ुदाई के जौहर में किसी को हिस्सेदार ठहराया जाए। जैसे ईसाइयों का तीन ख़ुदाओं का अक़ीदा, अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) का फ़रिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ ठहराना, और दूसरे मुशरिकों का अपने देवताओं और देवियों को और अपने शाही ख़ानदानों को ख़ुदा की जिन्स ठहराना। ये सब ज़ात में शरीक ठहराना है।
सिफ़ात (विशेषता और गुण) में शिर्क यह है कि ख़ुदाई सिफ़ात जैसी कि वे ख़ुदा के लिए हैं, वैसा ही उनको या उनमें से किसी सिफ़त को किसी दूसरे के लिए ठहराना। जैसे किसी के बारे में यह समझना कि उस पर ग़ैब की सारी हक़ीक़तें रौशन हैं, या वह सब कुछ सुनता और देखता है, या वह तमाम ऐबों और तमाम कमज़ोरियों से पाक और बिलकुल बे-ख़ता है। इख़्तियारात में शिर्क यह है कि ख़ुदा होने की हैसियत से जो इख़्तियारात सिर्फ़ अल्लाह के लिए ख़ास हैं उनको या उनमें से किसी को अल्लाह के सिवा किसी और के लिए तसलीम किया जाए। जैसे ग़ैर-फ़ितरी तरीक़ से फ़ायदा और नुक़सान पहुँचाना, ज़रूरतें पूरी करना और हाथ थाम लेना, हिफ़ाज़त और निगहबानी करना, दुआएँ सुनना और क़िस्मतों को बनाना और बिगाड़ना। साथ ही हराम और हलाल और जाइज़ और नाजाइज़ की हदें मुक़र्रर करना और इनसानी ज़िन्दगी के लिए क़ानून और शरीअत तय करना। ये सब ख़ुदा के ख़ास इख़्तियारात हैं जिनमें से किसी और को अल्लाह के सिवा किसी के लिए तसलीम करना शिर्क है। हुक़ूक़ में शिर्क यह है कि ख़ुदा होने की हैसियत से बन्दों पर ख़ुदा के जो ख़ास हक़ हैं वे या उनमें से कोई हक़ ख़ुदा के सिवा किसी और के लिए माना जाए। जैसे रुकू और सजदे करना, हाथ बाँधकर उसके सामने खड़े रहना, सलाम करना और आस्ताने को चूमना, नेमत के शुक्र या बड़ाई को तस्लीम करने के लिए नज़्र व नियाज़ और क़ुरबानी, ज़रूरतों को पूरा करने और मुश्किलों को दूर करने के लिए मन्नत, मुसीबतों और मुश्किलों में मदद के लिए पुकारा जाना और ऐसी ही इबादत और बुज़ुर्गी बयान करने की दूसरी तमाम सूरतें अल्लाह के ख़ास हक़ों में से हैं। इसी तरह ऐसा महबूब होना कि उसकी मुहब्बत पर दूसरी सब मुहब्बतें क़ुरबान की जाएँ, और डर व परहेज़गारी का ऐसा हक़दार होना कि छिपे और खुले में उसकी नाराज़ी और उसके हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी से डरा जाए, यह भी सिर्फ़ अल्लाह का हक़ है। और यह भी अल्लाह ही का हक़ है कि उसकी इताअत और फ़रमाँबरदारी बग़ैर किसी शर्त के की जाए, और उसकी हिदायत को सही और ग़लत की कसौटी माना जाए, और किसी ऐसी इताअत और फ़रमाँबरदारी का पट्टा अपने गले में न डाला जाए जो अल्लाह की इताअत और फ़रमाँबरदारी से आज़ाद एक मुस्तक़िल इताअत और फ़रमाँबरदारी हो और जिसके हुक्म के लिए अल्लाह के हुक्म की सनद हो। इन हक़ों में से जो हक़ भी दूसरे को दिया जाएगा वह अल्लाह का शरीक ठहरेगा, चाहे उसको ख़ुदाई नामों में से कोई नाम दिया जाए या न दिया जाए।
129. नेक सुलूक में अदब करना, बड़ाई बयान करना, फ़रमाँबरदारी, ख़ुशी की चाहत, ख़िदमत करना, सब शामिल हैं। माँ-बाप के इस हक़ को क़ुरआन में हर जगह तौहीद के हुक्म के बाद बयान फ़रमाया गया है जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा के बाद बन्दों के हक़ों में सबसे पहला हक़ इनसान पर उसके माँ-बाप का है।
130. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'फ़वाहिश' इस्तेमाल हुआ है जिसको उन सभी कामों के लिए बोला जाता है जिनकी बुराई बिलकुल वाज़ेह है। क़ुरआन में ज़िना, लूत (अलैहि०) की क़ौम का अमल, नंगापन, झूठी तोहमत, और ऐसी औरत से निकाह करना जिससे बाप निकाह कर चुका हो, इन सब कामों को फ़ुहश कामों में शुमार किया गया है। हदीस में चोरी और शराब पीने और भीख माँगने को कुल मिलाकर फ़वाहिश कहा गया है। इसी तरह दूसरे तमाम शर्मनाक काम भी फ़वाहिश में दाख़िल हैं और अल्लाह का इर्शाद यह है कि इस क़िस्म के काम न अलानियः किए जाएँ न छिपकर।
131. यानी इनसानी जान, जो अस्ल में ख़ुदा की तरफ़ से हराम ठहराई गई है, हलाक न की जाए। मगर हक़ के साथ। अब रहा सवाल यह कि “हक़ के साथ” का क्या मतलब है, तो इसकी तीन सूरतें क़ुरआन में बयान की गई हैं और इनके अलावा दो सूरतें नबी (सल्ल०) ने और बयान की हैं। क़ुरआन की बयान की हुई सूरतें ये हैं–
1- इनसान किसी दूसरे इनसान के क़त्ल का जान-बूझकर मुजरिम हो और उसपर क़िसास (हत्या-दण्ड) का हक़ क़ायम हो जाए।
2- दीने-हक़ (सत्य-धर्म) को क़ायम करने की राह में रुकावट हो और उससे जंग किए बग़ैर कोई रास्ता न रहा हो।
3- दारुल-इस्लाम की हदों में बदअम्नी फैलाए या इस्लामी निज़ामे-हुकूमत को उलटने की कोशिश करे।
बाक़ी दो सूरतें जो हदीस में बयान हुई हैं, ये हैं—
4- शादी-शुदा होने के बावजूद ज़िना करे।
5- इर्तिदाद (सत्य-धर्म को त्यागने) और जमाअत (इस्लामी समाज) से बग़ावत का मुजरिम हो।
इन पाँच सूरतों के सिवा किसी सूरत में इनसान का क़त्ल इनसान के लिए हलाल (जाइज़) नहीं है, चाहे वह मोमिन हो या ज़िम्मी (इस्लामी हुकूमत की ग़ैर-मुस्लिम जनता) या ग़ैर-मुस्लिम।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۖ وَإِذَا قُلۡتُمۡ فَٱعۡدِلُواْ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰۖ وَبِعَهۡدِ ٱللَّهِ أَوۡفُواْۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ 143
(152) (6)और यह कि यतीम के माल के क़रीब न जाओ मगर ऐसे तरीक़े से जो बेहतरीन हो।132 यहाँ तक कि वे अपनी जवानी की उम्र को पहुँच जाएँ,
(7) और नाप-तौल में पूरा इनसाफ़ करो, हम हर शख़्स पर ज़िम्मेदारी का उतना ही भार रखते हैं जितना उसके वश में है,133
(8) और जब बात कहो इनसाफ़ की कहो, चाहे मामला अपने रिश्तेदार ही का क्यों न हो,
(9) और अल्लाह के अह्द को पूरा करो।134 इन बातों की हिदायत अल्लाह ने तुम्हें की है शायद कि तुम नसीहत क़ुबूल करो।
132. यानी ऐसा तरीक़ा जो ज़्यादा-से-ज़्यादा बेगरज़ी, नेक नीयती और यतीम की ख़ैर-ख़ाही पर मुश्तमिल हो, और जिस पर अल्लाह और लोगों किसी की तरफ़ से भी तुमपर एतिराज़ न किया जा सके।
133. यह हालाँकि अल्लाह की शरीअत का एक मुस्तक़िल उसूल (सिद्धान्त) है, लेकिन यहाँ इसके बयान करने का मक़सद यह है कि जो शख़्स अपनी हद तक नाप-तौल और लेन-देन के मामलों में सच्चाई और इनसाफ़ से काम लेने की कोशिश करे वह अपनी ज़िम्मेदारी से बरी हो जाएगा। भूल-चूक या अनजाने में कमी-बेशी हो जाने पर उससे पूछ-गछ न होगी।
134. ‘अल्लाह के अह्द’ से मुराद वह अह्द भी है, जो इनसान अपने ख़ुदा से करे और वह भी जो ख़ुदा का नाम लेकर बन्दों से करे, और वह भी जो इनसान और ख़ुदा और इनसान और इनसान के दरमियान उस वक़्त आपसे आप बंध जाता है, जिस वक़्त एक शख़्स ख़ुदा की ज़मीन में एक इनसानी सोसाइटी के अन्दर पैदा होता है। पहले दोनों अह्द शुऊरी और इरादी हैं, और यह तीसरा अह्द एक फ़ितरी अह्द (Natural Contract) हैं जिस के बाँधने में हालाँकि इनसान के इरादे का कोई दख़ल नहीं है, लेकिन इसका लिहाज़, एहतिराम और इसको पूरा करना उसी तरह ज़रूरी है, जिस तरह पहले दो अहदों को पूरा करना ज़रूरी है। किसी शख़्स का ख़ुदा के बख़्शे हुए वुजूद से, उसकी दी हुई जिस्मानी और नफ़सियाती क़ुव्वतों से, उसके दिए हुए जिस्मानी आलात (अंगों-प्रत्यंगों) से, और उसकी पैदा की हुई ज़मीन और रोज़ी और ज़रिओं से फ़ायदा उठाना, और ज़िन्दगी के उन मौक़ों से फ़ायदा उठाना जो क़ुदरत के क़ानून की वजह से मिलते हैं, ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ितरी तौर पर ख़ुदा के कुछ हक़ उसपर डाल देता है और इसी तरह आदमी का एक माँ के पेट में उसके ख़ून से परवरिश पाना, एक बाप की मेहनतों से बसे हुए घर में पैदा होना और एक सामाजिक ज़िन्दगी के बेशुमार मुख़्तलिफ़ इदारों से मुख़्तलिफ़ शक्लों में फ़ायदा उठाना, मर्तबों दरजों के लिहाज़ से उसके ज़िम्मे बहुत-से लोगों और सामाजिक इदारों के हक़ भी लागू कर देता है। इनसान का ख़ुदा से और इनसान का सोसाइटी से यह अह्द किसी काग़ज़ पर नहीं लिखा गया, मगर उसके रोएँ-रोएँ पर लिखा हुआ है। इनसान ने उसे शुऊर व इरादे के साथ नहीं बाँधा, मगर उसका पूरा वुजूद उसी अह्द पर क़ायम है। इसी अह्द की तरफ़ सूरा-2 अल-बक़रा की आयत-27 में कहा गया है कि नाफ़रमान वे हैं जो, “अल्लाह के अह्द को उसके पूरा होने के बाद तोड़ते हैं और जिसे अल्लाह ने जोड़े का हुक्म दिया है उसे काटते हैं और ज़मीन में फ़साद फैलाते हैं।” और इसी का ज़िक्र आगे चलकर सूरा-7 अल-आराफ़ की आयत-172 में हुआ है कि अल्लाह ने शुरू ही में आदम की पीठों से उनकी आलाद को निकालकर उनसे गवाही ली थी कि क्या में तुम्हारा रब नहीं हूँ? और उन्होंने इक़रार किया था कि हाँ, हम गवाह हैं।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ رَبُّكَ أَوۡ يَأۡتِيَ بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَۗ يَوۡمَ يَأۡتِي بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَ لَا يَنفَعُ نَفۡسًا إِيمَٰنُهَا لَمۡ تَكُنۡ ءَامَنَتۡ مِن قَبۡلُ أَوۡ كَسَبَتۡ فِيٓ إِيمَٰنِهَا خَيۡرٗاۗ قُلِ ٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ 149
(158) क्या अब लोग इसके इन्तिज़ार में हैं कि उनके सामने फ़रिश्ते आ खड़े हों, या तुम्हारा रब ख़ुद आ जाए, या तुम्हारे रब की कुछ वाज़ेह निशानियाँ139 सामने आ जाएँ? जिस दिन तुम्हारे रब की कुछ ख़ास निशानियाँ सामने आ जाएँगी फिर किसी ऐसे आदमी को उसका ईमान कुछ फ़ायदा न देगा जो पहले ईमान न लाया हो या जिसने अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई हो।140 ऐ नबी! इनसे कह दो कि अच्छा, तुम इन्तिज़ार करो, हम भी इन्तिज़ार करते हैं।
139. यानी कायनात की निशानियाँ या अज़ाब या कोई और ऐसी निशानी जो हक़ीक़त से बिलकुल परदा उठा देनेवाली हो और जिसके ज़ाहिर हो जाने के बाद इम्तिहान और आज़माइश का कोई सवाल बाक़ी न रहे।
140. यानी ऐसी निशानियों को देख लेने के बाद अगर कोई इनकारी अपने इनकार से तौबा करके ईमान ले आए तो उसके ईमान लाने का कोई मतलब नहीं है, और अगर कोई नाफ़रमान मोमिन अपनी नाफ़रमानी की रविश छोड़कर इताअतगुज़ार और फ़रमाँबरदार बन जाए तो उसकी इताअत भी बेफ़ायदा है, इसलिए कि ईमान और इताअत की क़द्र तो उसी वक़्त है जब तक हक़ीक़त परदे में है, मुहलत की रस्सी लम्बी नज़र आ रही है और दुनिया धोखे भरे अपने तमाम साज़ो-सामान के साथ यह धोखा देने के लिए मौजूद है कि कैसा ख़ुदा और कहाँ की आख़िरत, बस खाओ-पियो और मज़े करो।
أَوَمَن كَانَ مَيۡتٗا فَأَحۡيَيۡنَٰهُ وَجَعَلۡنَا لَهُۥ نُورٗا يَمۡشِي بِهِۦ فِي ٱلنَّاسِ كَمَن مَّثَلُهُۥ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ لَيۡسَ بِخَارِجٖ مِّنۡهَاۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡكَٰفِرِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ 162
(122) क्या वह शख़्स जो पहले मुर्दा था फिर हमने उसे ज़िन्दगी बख़्शी88 और उसको वह रौशनी अता की जिसके उजाले में वह लोगों के दरमियान ज़िन्दगी का रास्ता तय करता है, उस शख़्स की तरह हो सकता है जो तारीकियों में पड़ा हुआ हो और किसी तरह उनसे न निकलता हो?89 हक़ का इनकार करनेवालों के लिए तो इसी तरह उनके आमाल ख़ुशनुमा बना दिए हैं,90
88. यहाँ मौत से मुराद जहालत और बेशुऊरी की हालत है, और ज़िन्दगी से मुराद इल्म और समझ-बूझ और हक़ीक़त को पहचान लेने की हालत है। जिस आदमी को सही और ग़लत की पहचान नहीं और जिसे मालूम नहीं कि सीधा रास्ता क्या है, वह तबीआत (भौतिकी) के मुताबिक़ चाहे ज़िन्दा हो, मगर हक़ीक़त के लिहाज़ से उसको इनसानियत की ज़िन्दगी हासिल नहीं है। वह ज़िन्दा हैवान तो ज़रूर है, मगर ज़िन्दा इनसान नहीं। जिन्दा इनसान अस्ल में सिर्फ़ वह आदमी है जिसे हक़ और बातिल, नेकी और बदी, सही और ग़लत का शुऊर हासिल है।
89. यानी तुम किस तरह यह उम्मीद कर सकते हो कि जिस इनसान को इनसानियत का शुऊर नसीब हो चुका है और जो इल्म की रौशनी में टेढ़े रास्तों के दरमियान हक़ की सीधी राह को साफ़ देख रहा है वह उन बेशुऊर लोगों की तरह दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारेगा, जो नादानी और जहालत के अंधेरों में भटकते फिर रहे हैं।
90. यानी जिन लोगों के सामने रौशनी पेश की जाए और वे उसको क़ुबूल करने से इनकार कर दें, जिन्हें सीधे रास्ते की तरफ़ दावत दी जाए और वे अपने टेढ़े रास्तों ही पर चलते रहने को तरजीह दें, उनके लिए अल्लाह का क़ानून यही है कि फिर उन्हें अंधेरा अच्छा मालूम होने लगता है। वे अन्धों की तरह टटोल-टटोलकर चलना और ठोकरें खा-खाकर गिरना ही पसन्द करते हैं। उनको झाड़ियाँ ही बाग़ और काँटे ही फूल नज़र आते हैं। उन्हें हर बुराई में मज़ा आता है, हर बेवक़ूफ़ी को वे तहक़ीक़ (खोज) समझते हैं, और हर बिगाड़ से भरे हुए तजरिबे के बाद उससे बढ़कर दूसरे बिगाड़ से भरे हुए तजरिबे के लिए वे इस उम्मीद पर तैयार हो जाते हैं कि पहले इत्तिफ़ाक़ से दहकते हुए अंगारे पर हाथ पड़ गया था अबके तो क़ीमती हीरे हाथ आएँगे।