Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الأَنۡعَامِ

  1. अल-अनआम

(मक्‍का में उतरी आयतें 165)

परिचय

नाम

इस सूरा के रुकूअ 16-17 (आयत 130-144) में कुछ अन-आम (मवेशियों) की हुर्मत (हराम क़रार दिए जाने) और कुछ की हिल्लत (हलाल क़रार दिए जाने) के बारे में अरबों के अंधविश्वासों का खंडन किया गया है। इसी दृष्टि से इसका नाम 'अल-अनआम' रखा गया है।

उतरने का समय

इब्ने अब्बास (रजि०) की रिवायत है कि यह पूरी सूरा मक्का में एक ही समय में उतरी थी। हज़रत मुआज-बिन-जबल (रज़ि०) की चचेरी बहन अस्मा-बिन्ते-यज़ीद कहती हैं कि 'जब यह सूरा नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतर रही थी, उस समय आप ऊँटनी पर सवार थे। मैं उसकी नकेल पकड़े हुए थी और बोझ के मारे ऊँटनी का यह हाल हो रहा था कि मालूम होता था कि उसकी हड्डियाँ अब टूट जाएँगी।' रिवायतों में इसका भी स्पष्टीकरण है कि जिस रात को यह उतरी, उसी रात को आपने इसे लिखवा दिया।

इसके विषयों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है कि यह सूरा मक्को युग के अन्तिम समय में उतरी होगी।

उतरने का कारण 

जिस समय यह व्याख्यान उतरा है, उस समय अल्लाह के रसूल (सल्ल.) को इस्लाम की ओर दावत देते हुए बारह साल बीत चुके थे। क़ुरैश की डाली रुकावटें और ज़ुल्मो-सितम भरे कारनामे अपनी अन्तिम सीमा को पहुँच चुके थे। इस्लाम अपनानेवालों की एक बड़ी संख्या उनके ज़ुल्मो-सितम से तंग आकर देश छोड़ चुकी थी और हबशा में ठहरी हुई थी।

वार्ताएँ

इन परिस्थितियों में यह व्याख्यान उतरा है और इसके विषयों को सात बड़े-बड़े शीर्षको में बांटा जा सकता है-

  1. शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का झुठलाना और तौहीद (एकेश्वरवाद) के अक़ीदे की ओर बुलाना,
  2. आख़िरत (परलोक) के अक़ीदे का प्रचार,
  3. अज्ञानता के अंधविश्वासों का खंडन,
  4. नैतिकता के उन बड़े-बड़े नियमों को अपनाने पर ज़ोर जिनपर इस्लाम समाज का निर्माण चाहता था,
  5. नबी (सल्ल०) और आपकी दावत (आह्वान) के विरुद्ध लोगों की आपत्तियों का उत्तर,
  6. प्यारे नबी (सल्ल०) और आम मुसलमानों को तसल्ली, और
  7. इंकारियों और विरोधियों को उपदेश, चेतावनी और डरावा।

मक्‍की जीवन के काल-खण्ड

यहाँ चूँकि पहली बार पढ़नेवालों के सामने एक सविस्तार मक्की सूरा आ रही है, इसलिए उचित मालूम हो रहा है कि यहाँ हम मक्की सूरतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की एक व्यापक व्याख्या कर दें, ताकि आगे तमाम मक्की सूरतों को और उनकी व्याख्याओं के सिलसिले में हमारे संकेतों को समझना आसान हो जाए।

जहाँ तक मदनी सूरतों का संबंध है, उनमें से तो क़रीब-क़रीब हर एक के उतरने का समय मालूम है या थोड़ी-सी कोशिश से निश्चित किया जा सकता है, बल्कि इनकी तो बहुत-सी आयतों के उतरने की अलग-अलग वजहें भी भरोसेमंद रिवायतों में मिल जाती हैं, लेकिन मक्की सूरतों के बारे में हमारे पास ज्ञान प्राप्त करने का ऐसा कोई साधन नहीं है। बहुत कम सूरतें या आयते ऐसी है जिनके उतरने के समय और मौक़े के बारे में कोई सही और भरोसेमंद रिवायत (उल्लेख) मिलती हो। इस कारण मक्की सूरतों के बारे में हमें ऐतिहासिक गवाहियों के बजाय अधिकतर उन अन्दरूनी गवाहियों पर भरोसा करना पड़ता है जो अलग-अलग सूरतों के विषय, सामग्री और शैली में और अपनी पृष्ठभूमि की ओर उनके खुले या छिपे संकेतों में पाई जाती हैं, और स्पष्ट है कि इस प्रकार की गवाहियों से मदद लेकर एक-एक सूरा और एक-एक आयत के बारे में यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि यह फ़ुलां तारीख़ को या फ़ुलां सन् में फ़ुलां मौके पर उतरी है। अधिक विश्वास के साथ जो बात कही जा सकती है, वह केवल यह है कि एक ओर हम मक्की सूरतों को अन्दरूनी गवाहियों को और दूसरी ओर नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन के इतिहास को आमने-सामने रखें और फिर दोनों की तुलना करते हुए यह राय बनाएँ कि कौन-सी सूरा किस युग से संबंधित है- शोध की इस पद्धति को बुद्धि में रखकर जब हम नबी (सल्ल.) के मक्की जीवन पर नज़र डालते हैं तो वह इस्लामी दावत की दृष्टि से हमें चार बड़े-बड़े युगों में बँटा दिखाई देता है-

पहला युग, पैग़म्बर बनाए जाने से लेकर नुबूवत के एलान तक, लगभग 3 साल, जिसमें दावत खुफ़िया तरीके से खास-खास आदमियों को दी जा रही थी और सामान्य मक्कावालों को इसका ज्ञान न था।

दूसरा युग, नुबूवत के एलान से लेकर जुल्मो-सितम और फ़ितने (Persecution) के फैलने तक, लगभग 2 साल, जिसमें पहले विरोध शुरू हुआ, फिर उसने रोक-टोक का रूप लिया, फिर हँसी उड़ाना, आवाजें कसना, आरोप लगाना, गाली-गलोच, झूठे प्रोपगंडे और विरोधी जत्थेबन्दी तक नौबत पहुँची और अन्त में उन मुसलमानों पर ज़्यादतियाँ शुरू हो गईं जो औरों की तुलना में अधिक धनहीन, कमज़ोर और असहाय थे।

तीसरा युग, फ़ितने की शुरुआत (05 नबवी) से लेकर अबू-तालिब और हज़रत ख़दीजा (रजि०) के देहावसान (10 नबवी) तक, लगभग पाँच-छह साल। इसमें विरोध अति उग्र होता चला गया। बहुत-से मुसलमान मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के जुल्मो-सितम से तंग आकर हबशा की ओर हिजरत कर गए। नबी (सल्ल०) और आपके परिवार और बाक़ी मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया गया और आप अपने समर्थकों और साथियों सहित अबू-तालिब नामक घाटी में कैद कर दिए गए।

चौथा युग, 10 नबवी से लेकर 11 नबवी तक, लगभग तीन साल। यह नबी (सल्ल.) और आप के साथियों के लिए अति कठोर और विपदाओं का युग था। मक्का में आपके लिए ज़िन्दगी दूभर कर दी गई थी। अन्ततः अल्लाह की मेहरबानी से अंसार के दिल इस्लाम के लिए खुल गए और उनकी दावत पर आपने मदीने की और हिजरत की।

इनमें से हर युग में क़ुरआन मजीद की जो सूरतें उतरी हैं, उनमें उस युग की विशेष बातों का प्रभाव बहुत बड़ी हद तक दिखाई देता है। इन्ही निशानियों पर भरोसा करके हम आगे हर मक्की सूरा के शुरू में यह बताएँगे कि वह मक्का के किस काल में उतरी है।

---------------------

سُورَةُ الأَنۡعَامِ
6. अल-अनआम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَجَعَلَ ٱلظُّلُمَٰتِ وَٱلنُّورَۖ ثُمَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡ يَعۡدِلُونَ
(1) तारीफ़ अल्लाह के लिए है जिसने ज़मीन और आसमान बनाए, रौशनी और अंधेरे पैदा किए। फिर भी वे लोग जिन्होंने हक़ की दावत को मानने से इनकार कर दिया है दूसरों को अपने रब का हमसर (समकक्ष) ठहरा रहे हैं।1
1. याद रहे कि यह बात अरब के उन मुशरिकों से कही जा रही है जो इस बात को मानते थे कि ज़मीन और आसमान का पैदा करनेवाला अल्लाह है, वही दिन निकालता और रात लाता है और उसी ने सूरज और चाँद को वुजूद बख़्शा है। उनमें से किसी का भी यह अक़ीदा नहीं था कि ये काम लात या हुबल या उज़्ज़ा या किसी और देवी या देवता के हैं। इसलिए उनको ख़िताब करते हुए कहा जा रहा है कि नादानो! जब तुम ख़ुद यह मानते हो कि ज़मीन और आसमान का बनानेवाला और रात व दिन को बारी-बारी से लाने और ले जानेवाला अल्लाह है तो ये दूसरे कौन होते हैं कि उनके सामने सजदे करते हो, नज़्रें और नियाज़ें चढ़ाते हो, दुआएँ माँगते हो और अपनी ज़रूरतें रखते हो। (देखें सूरा-1 अल-फ़ातिहा, हाशिया-2; सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-163) रौशनी के मुक़ाबले में अँधेरों को जमा (बहुवचन) के रूप में बयान किया गया है, क्योंकि अँधेरा नाम है रौशनी के न होने का और रौशनी के न होने के बेशुमार दरजे हैं। इसलिए रौशनी एक है और अँधेरे बहुत हैं।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُم مِّن طِينٖ ثُمَّ قَضَىٰٓ أَجَلٗاۖ وَأَجَلٞ مُّسَمًّى عِندَهُۥۖ ثُمَّ أَنتُمۡ تَمۡتَرُونَ ۝ 1
(2) वही है जिसने तुमको मिट्टी से पैदा किया,2 फिर तुम्हारे लिए ज़िन्दगी की एक मुद्दत मुक़र्रर कर दी, और एक दूसरी मुद्दत और भी है जो उसके यहाँ तयशुदा है।3 मगर तुम लोग हो कि शक में पड़े हुए हो।
2. इनसानी जिस्म के तमाम अजज़ा (तत्त्व) ज़मीन से हासिल होते हैं, कोई एक ज़र्रा भी इसमें ज़मीन से हटकर नहीं है। इसलिए कहा कि तुम को मिट्टी से पैदा किया गया है।
3. यानी क़ियामत की घड़ी जबकि तमाम अगले-पिछले इनसान नए सिरे से ज़िन्दा किए जाएँगे और हिसाब देने के लिए अपने रब के सामने हाज़िर होंगे।
وَهُوَ ٱللَّهُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَفِي ٱلۡأَرۡضِ يَعۡلَمُ سِرَّكُمۡ وَجَهۡرَكُمۡ وَيَعۡلَمُ مَا تَكۡسِبُونَ ۝ 2
(3) वही एक ख़ुदा आसमानों में भी है और ज़मीन में भी, तुम्हारे खुले और छिपे सब हाल जानता है और जो बुराई या भलाई तुम कमाते हो उससे ख़ूब वाक़िफ़ है।
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 3
(4) लोगों का हाल यह है कि उनके रब की निशानियों में से कोई निशानी ऐसी नहीं जो उनके सामने आई हो और उन्होंने उससे मुँह न मोड़ लिया हो।
فَقَدۡ كَذَّبُواْ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ فَسَوۡفَ يَأۡتِيهِمۡ أَنۢبَٰٓؤُاْ مَا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 4
(5) चुनाँचे अब जो हक़ इनके पास आया तो उसे भी इन्होंने झुठला दिया। अच्छा, जिस चीज़ का वे अब तक मज़ाक़ उड़ाते रहे हैं बहुत ही जल्दी उसके बारे में कुछ ख़बरें उन्हें पहुँचेंगी।4
4. इशारा है हिजरत और उन कामयाबियों की तरफ़ जो हिजरत के बाद इस्लाम को लगातार हासिल होनेवाली थीं। जिस वक़्त यह इशारा किया गया था उस वक़्त न इस्लाम-दुश्मन यह सोच सकते थे कि किस तरह की ख़बरें उन्हें पहुँचनेवाली हैं और न मुसलमानों ही के ज़ेहन में इसका कोई तसव्वुर था; बल्कि नबी (सल्ल०) ख़ुद भी इस बात से बेख़बर थे कि आइन्दा क्या-क्या हासिल होनेवाला है।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّن قَرۡنٖ مَّكَّنَّٰهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَا لَمۡ نُمَكِّن لَّكُمۡ وَأَرۡسَلۡنَا ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡهِم مِّدۡرَارٗا وَجَعَلۡنَا ٱلۡأَنۡهَٰرَ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهِمۡ فَأَهۡلَكۡنَٰهُم بِذُنُوبِهِمۡ وَأَنشَأۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِمۡ قَرۡنًا ءَاخَرِينَ ۝ 5
(6) क्या उन्होंने देखा नहीं कि इनसे पहले कितनी ऐसी क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं जिनका अपने-अपने ज़माने में दौर-दौरा रहा है? उनको हमने ज़मीन में वह इक़तिदार दिया था जो तुम्हें नहीं दिया है। उन पर हमने आसमान से ख़ूब बारिशें बरसाई और उनके नीचे नहरें बहा दीं (मगर जब उन्होंने नेमतों पर नाशुक्री से काम लिया तो) आख़िरकार हमने उनके गुनाहों के बदले में उन्हें तबाह कर दिया और उनकी जगह दूसरे दौर की क़ौमों को उठाया।
وَلَوۡ نَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ كِتَٰبٗا فِي قِرۡطَاسٖ فَلَمَسُوهُ بِأَيۡدِيهِمۡ لَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 6
(7) ऐ पैग़म्बर, अगर हम तुम्हारे ऊपर कोई काग़ज़ में लिखी-लिखाई किताब भी उतार देते और लोग उसे अपने हाथों से छूकर भी देख लेते तब भी जिन्होंने हक़ का इनकार किया है वे यही कहते कि यह तो खुला जादू है।
وَقَالُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ مَلَكٞۖ وَلَوۡ أَنزَلۡنَا مَلَكٗا لَّقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ثُمَّ لَا يُنظَرُونَ ۝ 7
(8) कहते हैं कि इस नबी पर कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा गया।5 अगर कहीं हमने फ़रिश्ता उतार दिया होता तो अब तक कभी का फ़ैसला हो चुका होता, फिर उन्हें कोई मुहलत न दी जाती।6
5. यानी जब यह शख़्स ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है तो आसमान से एक फ़रिश्ता उतरना चाहिए था जो लोगों से कहता कि यह ख़ुदा का पैग़म्बर है। इसकी बात मानो वरना तुम्हें सज़ा दी जाएगी। एतिराज़ करनेवाले जाहिलों को इस बात पर ताज्जुब था कि ज़मीन और आसमान का बनानेवाला किसी को पैग़म्बर मुक़र्रर करे और फिर इस तरह उसे बे यारो-मददगार पत्थर खाने और गालियाँ सुनने के लिए छोड़ दे। इतने बड़े बादशाह का नुमाइन्दा अगर किसी बड़े स्टाफ के साथ न आया था तो कम-से-कम एक फ़रिश्ता तो उसका बॉडी गार्ड (अंग रक्षक) होना चाहिए था, ताकि वह उसकी हिफ़ाज़त करता, उसका रोब और दबदबा बिठाता, इस बात का यक़ीन दिलाता कि उसे ख़ुदा ने भेजा है और फ़ितरी तरीक़ों से ऊपर उठकर उसके काम अंजाम देता।
6. यह उनके एतिराज़ का पहला जवाब है। इसका मतलब यह है कि ईमान लाने और अपने रवैये को सुधारने के लिए जो मुहलत तुम्हें मिली हुई है यह उसी वक़्त तक है जब तक हक़ीक़त ग़ैब (परोक्ष) के परदे में छिपी है। वरना जहाँ ग़ैब का परदा हटा, फिर मुहलत का कोई मौक़ा बाक़ी न रहेगा। उसके बाद तो सिर्फ़ हिसाब ही लेना बाक़ी रह जाएगा। इसलिए कि दुनिया की ज़िन्दगी तुम्हारे लिए एक इम्तिहान का ज़माना है, और इम्तिहान इस बात का है कि तुम हक़ीक़त को देखे बिना अक़्ल और फ़िक्र (बुद्धि और विवेक) के सही इस्तेमाल से उसको पाते हो या नहीं, और पाने के बाद अपने मन और उसकी ख़ाहिशों को क़ाबू में लाकर अपने अमल को हक़ीक़त के मुताबिक़ दुरुस्त रखते हो या नहीं। इस इम्तिहान के लिए ग़ैब का ग़ैब रहना लाज़िम शर्त है और तुम्हारी दुनियावी ज़िन्दगी, जो अस्ल में इम्तिहान की मुहलत है, उसी वक़्त तक क़ायम रह सकती है जब तक ग़ैब ग़ैब है। जहाँ ग़ैब वाज़ेह होकर सामने आ गया, यह मुहलत लाज़िमी तौर पर ख़त्म हो जाएगी और इम्तिहान के बजाय इम्तिहान का नतीजा निकलने का वक़्त आ पहुँचेगा। इसलिए तुम्हारे मुतालबे के जवाब में यह मुमकिन नहीं है कि तुम्हारे सामने फ़रिश्ते को उसकी असली सूरत में नुमायाँ कर दिया जाए, क्योंकि अल्लाह अभी तुम्हारे इम्तिहान की मुद्दत ख़त्म नहीं करना चाहता। (देखें सूर-2 अल-बक़रा, हाशिया-228)
وَلَوۡ جَعَلۡنَٰهُ مَلَكٗا لَّجَعَلۡنَٰهُ رَجُلٗا وَلَلَبَسۡنَا عَلَيۡهِم مَّا يَلۡبِسُونَ ۝ 8
(9) और अगर हम फ़रिश्ते को उतारते तब भी उसे इनसानी शक्ल ही में उतारते और इस तरह उन्हें उसी शक में डाल देते, जिसमें अब ये पड़े हुए हैं।7
7. यह उनके एतिराज़ का दूसरा जवाब है। फ़रिश्ते आने की पहली सूरत यह हो सकती थी कि वह लोगों के सामने अपनी असली ग़ैबी सूरत में ज़ाहिर होता। लेकिन ऊपर बता दिया गया कि अभी इसका वक़्त नहीं आया। अब दूसरी सूरत यह बाक़ी रह गई कि वह इनसानी सूरत में आए। इसके बारे में फ़रमाया जा रहा है कि अगर वह इनसानी सूरत में आए तो उसके अल्लाह की तरफ़ से भेजा हुआ होने में भी तुमको वही शुब्हाा पेश आएगा जो मुहम्मद (सल्ल०) के अल्लाह की तरफ़ से भेजे जाने में हो रहा है।
وَلَقَدِ ٱسۡتُهۡزِئَ بِرُسُلٖ مِّن قَبۡلِكَ فَحَاقَ بِٱلَّذِينَ سَخِرُواْ مِنۡهُم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 9
(10) ऐ नबी, तुमसे पहले भी बहुत-से रसूलों का मज़ाक़ उड़ाया जा चुका है इन मज़ाक़ उड़ानेवालों पर आख़िरकार वही हक़ीक़त मुसल्लत होकर रही जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
قُلۡ سِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ ٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 10
(11) इनसे कहो : ज़रा ज़मीन में चल-फिर कर देखो झुठलानेवालों का क्या अंजाम हुआ है।8
8. यानी गुज़री हुई क़ौमों के आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) और उनकी तारीख़ी दास्तानें (ऐतिहासिक गाथाएँ) गवाही देंगी कि सच्चाई और हक़ीक़त से मुँह मोड़ने और बातिल परस्ती पर जमे रहने की बदौलत किस तरह ये क़ौमें इबरतनाक (शिक्षाप्रद) अंजाम से दो-चार हुई।
قُل لِّمَن مَّا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قُل لِّلَّهِۚ كَتَبَ عَلَىٰ نَفۡسِهِ ٱلرَّحۡمَةَۚ لَيَجۡمَعَنَّكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 11
(12) इनसे पूछो : आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है वह किसका है— कहो : सब कुछ अल्लाह ही का है,9 उसने रहम और करम का रवैया अपने ऊपर लाज़िम कर लिया है (इसी लिए वह नाफ़रमानियों और सरकशियों पर तुम्हें जल्दी से नहीं पकड़ लेता), क़ियामत के दिन वह तुम सबको ज़रूर जमा करेगा, यह बिलकुल एक ऐसी हक़ीक़त है जिसमें कोई शक नहीं, मगर जिन लोगों ने अपने आप को ख़ुद तबाही के ख़तरे में डाल लिया है वे उसे नहीं मानते।
9. यह एक लतीफ़ (सूक्ष्म) अन्दाज़े-बयान है। पहले हुक्म हुआ कि इनसे पूछो, ज़मीन और आसमान में मौजूद चीज़ें किसकी हैं। सवाल करनेवाले ने सवाल किया और जवाब के इन्तिज़ार में ठहर गया। जिन लोगों से बात की जा रही है हालाँकि वे ख़ुद इस बात को मानते हैं कि सब कुछ अल्लाह का है, लेकिन न तो वे ग़लत जवाब देने का हौसला रखते हैं और न सही जवाब देना चाहते हैं, क्योंकि अगर सही जवाब देते हैं तो इन्हें डर है कि मुख़ालिफ़ इससे उनके मुशरिकाना अक़ीदे के ख़िलाफ़ दलील पेश करेगा। इसलिए वे कुछ जवाब नहीं देते। तब हुक्म होता है कि तुम ख़ुद ही कहो कि सब कुछ अल्लाह का है।
۞وَلَهُۥ مَا سَكَنَ فِي ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 12
(13) रात के अंधेरे और दिन के उजाले में जो कुछ ठहरा हुआ है, सब अल्लाह का है और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
قُلۡ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَتَّخِذُ وَلِيّٗا فَاطِرِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَهُوَ يُطۡعِمُ وَلَا يُطۡعَمُۗ قُلۡ إِنِّيٓ أُمِرۡتُ أَنۡ أَكُونَ أَوَّلَ مَنۡ أَسۡلَمَۖ وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 13
(14) कहो अल्लाह को छोड़कर क्या मैं किसी और को अपना सरपरस्त बना लूँ? उस ख़ुदा को छोड़कर जो ज़मीन और आसमान का ख़ालिक़ है और जो रोज़ी देता है रोज़ी लेता नहीं है?10 कहो मुझे तो यही हुक्म दिया गया है कि सबसे पहले मैं उसके आगे फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुका दूँ (और ताक़ीद की गई है कि कोई शिर्क करता है तो करे) तू किसी भी हाल में मुशरिकों में शामिल न हो।
10. इसमें एक लतीफ़ तारीज़ (सूक्ष्म व्यंग्य) है। मुशरिकों ने अल्लाह के सिवा जिन-जिनको अपना ख़ुदा बना रखा है वे सब अपने उन बन्दों को रोज़ी देने के बजाय उलटा उनसे रोज़ी पाने के मुहताज हैं। कोई फ़िरऔन ख़ुदाई के ठाठ नहीं जमा सकता जब तक उसके बन्दे उसे टैक्स और नज़राने न दें। किसी क़ब्रवाले के माबूद होने की शान क़ायम नहीं हो सकती जब तक कि उसके परस्तार उसका शानदार मक़बरा तामीर न करें। किसी देवता का दरबारे-ख़ुदावन्दी सज नहीं सकता जब तक उसके पुजारी उसका मुजस्समा और मूर्ति बनाकर किसी शानदार मन्दिर में न रखें और उसको साज-सज्जा के सामानों से न सजाएँ। सारे बनावटी ख़ुदा बेचारे ख़ुद अपने बन्दों के मुहताज हैं। सिर्फ़ एक ख़ुदावन्दे-आलम ही वह हक़ीक़ी ख़ुदा है जिसकी ख़ुदाई आप अपने बल बूते पर क़ायम है और जो किसी की मदद का मुहताज नहीं, बल्कि सब उसी के मुहताज हैं।
قُلۡ إِنِّيٓ أَخَافُ إِنۡ عَصَيۡتُ رَبِّي عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 14
(15) कहो, अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूँ तो डरता हूँ कि एक बड़े (ख़ौफ़नाक) दिन मुझे सज़ा भुगतनी पड़ेगी।
مَّن يُصۡرَفۡ عَنۡهُ يَوۡمَئِذٖ فَقَدۡ رَحِمَهُۥۚ وَذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 15
(16) उस दिन जो सज़ा से बच गया उसपर अल्लाह ने बड़ा ही रहम किया और यही नुमायाँ कामयाबी है।
وَإِن يَمۡسَسۡكَ ٱللَّهُ بِضُرّٖ فَلَا كَاشِفَ لَهُۥٓ إِلَّا هُوَۖ وَإِن يَمۡسَسۡكَ بِخَيۡرٖ فَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 16
(17) अगर अल्लाह तुम्हें किसी क़िस्म का नुक़सान पहुँचाए तो उसके सिवा कोई नहीं जो तुम्हें उस नुक़सान से बचा सके, और अगर वह तुम्हें किसी भलाई से फ़ायदा पहुँचाए, तो वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
وَهُوَ ٱلۡقَاهِرُ فَوۡقَ عِبَادِهِۦۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 17
(18) वह अपने बन्दों पर मुकम्मल इख़्तियारात रखता है और सूझ-बूझवाला और बाख़बर है।
قُلۡ أَيُّ شَيۡءٍ أَكۡبَرُ شَهَٰدَةٗۖ قُلِ ٱللَّهُۖ شَهِيدُۢ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ وَأُوحِيَ إِلَيَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ لِأُنذِرَكُم بِهِۦ وَمَنۢ بَلَغَۚ أَئِنَّكُمۡ لَتَشۡهَدُونَ أَنَّ مَعَ ٱللَّهِ ءَالِهَةً أُخۡرَىٰۚ قُل لَّآ أَشۡهَدُۚ قُلۡ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٞ وَٰحِدٞ وَإِنَّنِي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 18
(19) इनसे पूछो, किसकी गवाही सबसे बढ़कर है? — कहो, मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह गवाह है,11 और यह क़ुरआन मेरी तरफ़ वह्य के ज़रिए से भेजा गया है, ताकि तुम्हें और जिस-जिस को यह पहुँचे, सबको ख़बरदार कर दूँ। क्या वाक़ई तुम लोग यह गवाही दे सकते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी हैं12 कहो, मैं तो इसकी गवाही हरगिज़ नहीं दे सकता।13 कहो, ख़ुदा तो वही एक है और मैं उस शिर्क से बिलकुल बेज़ार (विरक्त) हूँ जिसमें तुम पड़े हुए हो।
11. यानी इस बात पर गवाह है कि मैं उसकी तरफ़ से भेजा गया हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ उसी के हुक्म से कह रहा हूँ।
12. किसी चीज़ की गवाही देने के लिए सिर्फ़ गुमान या अटकल काफ़ी नहीं हैं, बल्कि उसके लिए इल्म होना ज़रूरी है, जिसकी बुनियाद पर आदमी यक़ीन के साथ कह सके कि ऐसा है। तो सवाल का मतलब यह है कि क्या वाक़ई तुम्हें यह इल्म है कि इस पूरे जहान में ख़ुदा के सिवा और भी कोई इख़्तियार रखनेवाला बादशाह है जो बन्दगी और इबादत का हक़दार हो?
13. यानी अगर तुम इल्म के बग़ैर सिर्फ़ झूठी गवाही देना चाहते हो तो दो, मैं तो ऐसी गवाही नहीं दे सकता।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 19
(21) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बोहतान लगाए,15 या अल्लाह की निशानियों को झुठलाए?16 यक़ीनन ऐसे ज़ालिम कभी फलाह नहीं पा सकते।
15. यानी यह दावा करे कि ख़ुदा के साथ दूसरी बहुत-सी हस्तियाँ भी ख़ुदाई में शरीक हैं, ख़ुदाई सिफ़ात (गुण) रखती हैं, ख़ुदाई के इख़्तियार रखती हैं और इसकी हक़दार हैं कि इनसान उनके आगे बन्दगी और ग़ुलामी का रवैया इख़्तियार करे। साथ ही यह भी अल्लाह पर बोहतान है कि कोई यह कहे कि ख़ुदा ने फ़ुलाँ-फ़ुलाँ हस्तियों को अपना ख़ास क़रीबी ठहराया है और उसी ने यह हुक्म दिया है, या कम-से-कम यह कि वह इस पर राज़ी है कि उनसे ख़ुदाई सिफ़ात जोड़ी जाएँ और उनसे वह मामला किया जाए जो बन्दे को अपने ख़ुदा के साथ करना चाहिए।
16. अल्लाह की निशानियों से मुराद वे निशानियाँ भी हैं जो इनसान के अपने नफ़्स और सारी कायनात में फैली हुई हैं, और वे भी जो पैग़म्बरों की सीरत (आचरण) और उनके कारनामों में ज़ाहिर हुई, और वे भी जो आसमानी किताबों में पेश की गईं। ये सारी निशानियाँ एक ही हक़ीक़त की तरफ़ रहनुमाई करती हैं। यानी यह कि पूरी कायनात में ख़ुदा सिर्फ़ एक है, बाक़ी सब बन्दे हैं। अब जो आदमी इन तमाम निशानियों के मुक़ाबले में किसी हक़ीक़ी गवाही के बिना किसी इल्म, किसी मुशाहदे (अवलोकन) और किसी तजरिबे के बिना सिर्फ़ अटकल या अपने बाप-दादा की पैरवी की बुनियाद पर दूसरों को ख़ुदाई सिफ़ातवाला और ख़ुदाई हक़ों का हक़दार ठहराता है, ज़ाहिर है कि उससे बढ़कर ज़ालिम कोई नहीं हो सकता। वह हक़ीक़त और सच्चाई पर ज़ुल्म कर रहा है, अपने आप पर ज़ुल्म कर रहा है और कायनात की हर उस चीज़ पर ज़ुल्म कर रहा है जिसके साथ वे इस ग़लत नज़रिए (दृष्टिकोण) की बिना पर कोई मामला मामला करता है।
وَيَوۡمَ نَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ أَيۡنَ شُرَكَآؤُكُمُ ٱلَّذِينَ كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 20
(22) जिस दिन हम इन सबको इकट्ठा करेंगे और मुशरिकों से पूछेगे कि अब वे तुम्हारे ठहराए हुए शरीक कहाँ हैं जिनको तुम अपना ख़ुदा समझते थे।
ثُمَّ لَمۡ تَكُن فِتۡنَتُهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ وَٱللَّهِ رَبِّنَا مَا كُنَّا مُشۡرِكِينَ ۝ 21
(23) तो वे इसके सिवा कोई फ़ितना न उठा सकेंगे कि (यह झूठा बयान दें कि) ऐ हमारे आक़ा, तेरी क़सम! हम हरगिज़ मुशरिक न थे।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ كَذَبُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡۚ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 22
(24) देखो, उस वक़्त ये किस तरह अपने ऊपर आप झूठ गढ़ेंगे, और वहाँ उनके सारे बनावटी माबूद गुम हो जाएँगे।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَۖ وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِن يَرَوۡاْ كُلَّ ءَايَةٖ لَّا يُؤۡمِنُواْ بِهَاۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءُوكَ يُجَٰدِلُونَكَ يَقُولُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 23
(25) इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं, मगर हाल यह है कि हम ने उनके दिलों पर परदे डाल रखे हैं जिनकी वजह से वे इसको कुछ नहीं समझते और इनके कानों में गिरानी डाल दी है (कि सब कुछ सुनने पर भी कुछ नहीं सुनते)17 वे चाहे कोई निशानी देख लें, इसपर ईमान लाकर न देंगे। हद यह है कि जब वे तुम्हारे पास आकर तुमसे झगड़ते हैं तो इनमें से जिन लोगों ने इनकार का फ़ैसला कर लिया है वे (सारी बातें सुनने के बाद) यही कहते हैं कि यह एक पुरानी कहानी के सिवा कुछ नहीं।18
17. यहाँ यह बात सामने रहे कि फ़ितरत के क़ानून के तहत जो कुछ दुनिया में होता है उसे अल्लाह अपने से जोड़ता है, क्योंकि अस्ल इस क़ानून का बनानेवाला अल्लाह ही है और नतीजे इस क़ानून के तहत सामने आते हैं वे सब हक़ीक़त में अल्लाह की मरज़ी और उसके इरादे के तहत ही सामने आया करते हैं। हक़ का इनकार करनेवाले हठधर्मियों का सब कुछ सुनने पर कुछ न सुनना और हक़ की तरफ़ बुलानेवाले की किसी बात का उनके दिल में न उतरना भी उनकी हठधर्मी और तास्सुब (द्वेष) और जुमूद (जड़ता) का फ़ितरी नतीजा है। फ़ितरत का क़ानून यही है कि जो आदमी ज़िद पर उतर आता है और बेतास्सुबी (निष्पक्षता) के साथ सच्चाई पसन्द इनसान का-सा रवैया इख़्तियार करने पर तैयार नहीं होता, उसके दिल के दरवाज़े हर उस सच्चाई के लिए बन्द हो जाते हैं जो उसकी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ हो। इस बात को जब हम बयान करेंगे तो यूँ कहेंगे कि फ़ुलाँ आदमी के दिल के दरवाज़े बन्द हैं। और इसी बात को जब अल्लाह बयान फ़रमाएगा तो यूँ फ़रमाएगा कि उसके दिल के दरवाज़े हमने बन्द कर दिए हैं; क्योंकि हम सिर्फ़ वाक़िआ बयान करते हैं और अल्लाह उस वाक़िए की हक़ीक़त का इज़हार करता है।
18. नादान लोगों का आम तौर से यह क़ायदा होता है कि जब कोई आदमी उन्हें हक़ की तरफ़ बुलाता है तो वे कहते हैं कि तुमने नई बात क्या कही, ये तो सब वही पुरानी बातें हैं जो हम पहले से सुनते चले आ रहे हैं। मानो इन बेवक़ूफ़ों का नज़रिया यह है कि किसी बात के हक़ होने के लिए उसका नया होना भी ज़रूरी है और जो बात पुरानी है वह हक़ नहीं है। हालाँकि हक़ हर ज़माने में एक ही रहा है और हमेशा एक ही रहेगा। ख़ुदा के दिए हुए इल्म की बिना पर जो लोग इनसानों की रहनुमाई के लिए आगे बढ़े हैं वे सब पुराने ज़माने से एक ही हक़ बात को पेश करते आए हैं और आइन्दा भी जो इल्म के इस ज़रिए से फ़ायदा उठाकर कुछ पेश करेगा वह उसी पुरानी बात को दोहराएगा। अलबत्ता नई बात सिर्फ़ वही लोग निकाल सकते हैं जो ख़ुदा की रौशनी से महरूम होकर अज़ली और अब्दी (आदिकालीन और सार्वकालीन) हक़ीक़त को नहीं देख सकते और अपने ज़ेहन की उपज से कुछ नज़रियात और उसूल गढ़कर उन्हें हक़ के नाम से पेश करते हैं। इस क़िस्म के लोग बिला शुब्हाा ऐसी अनोखी बात कहनेवाले हो सकते हैं कि वह बात कहें जो उनसे पहले कभी दुनिया में किसी ने न कही हो।
وَهُمۡ يَنۡهَوۡنَ عَنۡهُ وَيَنۡـَٔوۡنَ عَنۡهُۖ وَإِن يُهۡلِكُونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 24
(26) वे इस हक़ बात को क़ुबूल करने से लोगों को रोकते हैं और ख़ुद भी इससे दूर भागते हैं। (वे समझते हैं कि इस हरकत से वे तुम्हारा कुछ बिगाड़ रहे हैं) हालाँकि अस्ल में वे ख़ुद अपनी ही तबाही का सामान कर रहे हैं मगर इन्हें इसका शुऊर नहीं है।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ وُقِفُواْ عَلَى ٱلنَّارِ فَقَالُواْ يَٰلَيۡتَنَا نُرَدُّ وَلَا نُكَذِّبَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّنَا وَنَكُونَ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 25
(27) काश! तुम उस वक़्त की हालत देख सकते जब वे दोज़ख़ के किनारे खड़े किए जाएँगे। उस वक़्त वे कहेंगे कि काश! कोई सूरत ऐसी हो कि हम दुनिया में फिर वापस भेजे जाएँ और अपने रब की निशानियों को न झुठलाएँ और ईमान लानेवालों में शामिल हों।
بَلۡ بَدَا لَهُم مَّا كَانُواْ يُخۡفُونَ مِن قَبۡلُۖ وَلَوۡ رُدُّواْ لَعَادُواْ لِمَا نُهُواْ عَنۡهُ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 26
(28) हक़ीक़त में यह बात वे सिर्फ़ इस वजह से कहेंगे कि जिस हक़ीक़त पर उन्होंने परदा डाल रखा था वे उस वक़्त बेनक़ाब होकर उनके सामने आ चुकी होगी,19 वरना अगर इन्हें पिछली ज़िन्दगी की तरफ़ वापस भेजा जाए तो फिर वही सब कुछ करें जिससे उन्हें मना किया गया है, वे तो हैं ही झूठे (इसलिए अपनी इस ख़ाहिश के इज़हार में भी झूठ ही से काम लेंगे)।
19. यानी उनका यह कहना हक़ीक़त में अक़्ल और फ़िक्र के किसी सही फ़ैसले और राय की किसी हक़ीक़ी तब्दीली का नतीजा न होगा, बल्कि सिर्फ़ हक़ को देखने का नतीजा होगा, जिसके बाद ज़ाहिर है कि कोई कट्टर से कट्टर इनकारी भी इनकार की हिम्मत नहीं कर सकता।
وَقَالُوٓاْ إِنۡ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا وَمَا نَحۡنُ بِمَبۡعُوثِينَ ۝ 27
(29) आज ये लोग कहते हैं कि ज़िन्दगी जो कुछ भी है बस यही दुनिया की ज़िन्दगी है और हम मरने के बाद हरगिज़ दोबारा न उठाए जाएँगे।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذۡ وُقِفُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ قَالَ أَلَيۡسَ هَٰذَا بِٱلۡحَقِّۚ قَالُواْ بَلَىٰ وَرَبِّنَاۚ قَالَ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 28
(30) काश! वह मंज़र तुम देख सको जब ये अपने रब के सामने खड़े किए जाएँगे। उस वक़्त इनका रब इनसे पूछेगा, “क्या यह हक़ीक़त नहीं है?” ये कहेंगे, “हाँ ऐ हमारे रब, यह हक़ीक़त ही है।” वह कहेगा, “अच्छा, तो अब अपने हक़ीक़त के इनकार के बदले में अज़ाब का मज़ा चखो।”
قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِلِقَآءِ ٱللَّهِۖ حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَتۡهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةٗ قَالُواْ يَٰحَسۡرَتَنَا عَلَىٰ مَا فَرَّطۡنَا فِيهَا وَهُمۡ يَحۡمِلُونَ أَوۡزَارَهُمۡ عَلَىٰ ظُهُورِهِمۡۚ أَلَا سَآءَ مَا يَزِرُونَ ۝ 29
(31) नुक़सान में पड़ गए वे लोग जिन्होंने अल्लाह से अपनी मुलाक़ात की ख़बर को झूठ क़रार दिया। जब अचानक वह घड़ी आ जाएगी तो यही लोग कहेंगे, “अफ़सोस! हमसे इस मामले में कैसी कोताही हुई।” और इनका हाल यह होगा कि अपनी पीठों पर अपने गुनाहों का बोझ लादे हुए होंगे। देखो! कैसा बुरा बोझ है जो ये उठा रहे हैं।
وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۖ وَلَلدَّارُ ٱلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 30
(32) दुनिया की ज़िन्दगी तो एक खेल और एक तमाशा है,20 हक़ीक़त में आख़िरत ही का मक़ाम उन लोगों के लिए बेहतर है जो नुक़सान उठाने से बचना चाहते हैं, फिर क्या तुम लोग अक़्ल से काम न लोगे?
20. इसका यह मतलब नहीं है कि दुनिया की ज़िन्दगी में कोई संजीदगी नहीं है और यह सिर्फ़ खेल और तमाशे के तौर पर बनाई गई है। अस्ल में इसका मतलब यह है कि आख़िरत की हक़ीक़ी और पाएदार ज़िन्दगी के मुक़ाबले में यह ज़िन्दगी ऐसी है जैसे कोई आदमी कुछ देर खेल और तफ़रीह में दिल बहलाए और फिर अस्ल संजीदा कारोबार की तरफ़ वापस हो जाए। इसी के साथ इसकी मिसाल खेल और तमाशे से इसलिए भी दी गई है कि यहाँ हक़ीक़त के छिपे होने की वजह से दूर तक न देखनेवाले और सिर्फ़ ऊपरी चीज़ों को देखकर रीझनेवाले इनसानों के लिए ग़लतफ़हमियों में पड़ने की बहुत-सी वजहें मौजूद हैं और इन ग़लतफ़हमियों में फँसकर लोग अस्ल हक़ीक़त के ख़िलाफ़ ऐसे-ऐसे अजीब रवैये अपनाते हैं जिनकी बदौलत उनकी ज़िन्दगी सिर्फ़ एक खेल और तमाशा बनकर रह जाती है। मिसाल के तौर पर, जो आदमी यहाँ बादशाह बनकर बैठता है उसकी हैसियत हक़ीक़त में थियेटर के उस बनावटी बादशाह से अलग नहीं होती जो ताज पहनकर विराजमान होता है और इस तरह हुक्म चलाता है कि मानो वह वाक़ई बादशाह है। हालाँकि हक़ीक़ी बादशाही की उसको हवा तक नहीं लगी होती। डायरेक्टर के एक इशारे पर वह हटा दिया जाता है, क़ैद किया जाता है और उसके क़त्ल तक का फ़ैसला कर दिया जाता है। ऐसे ही तमाशे इस दुनिया में हर तरफ़ हो रहे हैं। कहीं किसी वली या देवी के दरबार से ज़रूरतें पूरी हो रही हैं। हालाँकि वहाँ ज़रूरतें पूरी करने की ताक़त का नामे-निशान तक मौजूद नहीं। कहीं कोई ग़ैब के जानने के कमालात का मुज़ाहरा कर रहा है, हालाँकि ग़ैब का इल्म वहाँ रत्ती भर भी नहीं। कहीं कोई लोगों को रोज़ी देनेवाला बना हुआ है, हालाँकि बेचारा ख़ुद अपनी रोज़ी के लिए किसी और का मुहताज है। कहीं कोई अपने आप को इज़्ज़त और रुसवाई देनेवाला, नफ़ा और नुक़सान पहुँचानेवाला समझे बैठा है और यूँ अपनी बड़ाई के डंके बजा रहा है कि मानो कि वही आसपास की सारी चीज़ों का ख़ुदा है, हालाँकि उसके माथे पर यह निशान लगा हुआ है कि वह मामूली-सा बन्दा है और क़िस्मत का एक ज़रा-सा झटका उसे बड़ाई के मक़ाम से गिराकर उन्हीं लोगों के क़दमों में पामाल करा सकता है जिन पर वह कल तक ख़ुदाई कर रहा था। ये सब खेल जो दुनिया की कुछ दिन की ज़िन्दगी में खेले जा रहे हैं मौत की घड़ी आते ही एकबारगी ख़त्म हो जाएँगे। और इस सरहद से पार होते ही इनसान उस जहान में पहुँच जाएगा जहाँ सब कुछ बिलकुल सच्चाई के मुताबिक़ होगा और जहाँ दुनिया की ज़िन्दगी की सारी ग़लतफ़हमियों के छिलके उतारकर हर इनसान को दिखा दिया जाएगा कि वह सच्चाई का कितना जौहर अपने साथ लाया है जिसका हक़ की तराजू में कोई वज़न और कुछ भी क़ीमत हो सकती हो।
قَدۡ نَعۡلَمُ إِنَّهُۥ لَيَحۡزُنُكَ ٱلَّذِي يَقُولُونَۖ فَإِنَّهُمۡ لَا يُكَذِّبُونَكَ وَلَٰكِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ يَجۡحَدُونَ ۝ 31
(33) ऐ नबी! हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग बनाते हैं उनसे तुम्हें रंज होता है, लेकिन ये लोग तुम्हें नहीं झुठलाते बल्कि ये ज़ालिम अस्ल में अल्लाह की आयतों का इनकार कर रहे हैं।21
21. सच्ची बात यह है कि जब तक मुहम्मद (सल्ल०) ने अल्लाह की आयतें सुनानी शुरू न की थीं, आपकी क़ौम के सब लोग आपको अमीन और सादिक़ (अमानतदार और सच्चा) समझते थे और आपकी सच्चाई पर पूरा भरोसा करते थे। उन्होंने आपको झुठलाया उस वक़्त जबकि आपने अल्लाह की तरफ़ से पैग़ाम पहुँचाना शुरू किया। और इस दूसरे दौर में भी उनके अन्दर कोई शख़्स ऐसा न था जो शख़्सी हैसियत से आपको झूठा क़रार देने की जुर्रत कर सकता हो। आप (सल्ल०) के किसी सख़्त से सख़्त मुख़ालिफ़ ने भी कभी आप (सल्ल०) पर यह इलज़ाम नहीं लगाया कि आपने दुनिया के किसी मामले में कभी झूठ बोला है। उन्होंने जितना आप (सल्ल०) को झुठलाया वह सिर्फ़ नबी होने की हैसियत से झुठलाया। आपका सबसे बड़ा दुश्मन अबू-जह्ल था और हज़रत अली (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार उसने ख़ुद नबी (सल्ल०) से बातचीत करते हुए कहा था कि “हम आपको तो झूठा नहीं कहते, मगर जो कुछ आप पेश कर रहे हैं उसे झूठ कहते हैं।” बद्र की लड़ाई के मौक़े पर अख़नस-बिन-शरीक ने अकेले में अबू-जह्ल से पूछा कि यहाँ मेरे और तुम्हारे सिवा कोई तीसरा मौजूद नहीं है, सच बताओ कि मुहम्मद (सल्ल०) को तुम सच्चा समझते हो या झूठा? उसने जवाब दिया कि “ख़ुदा की क़सम, मुहम्मद (सल्ल०) एक सच्चा आदमी है, उम्र भर कभी झूठ नहीं बोला, मगर जब झण्डा उठाना, पानी पिलाना, काबा की निगरानी और नुबूवत सब कुछ बनी-क़ुसई ही के हिस्से में आ जाए तो बताओ बाक़ी सारे क़ुरैश के पास क्या रह गया?” इसी वजह से यहाँ अल्लाह अपने नबी को तसल्ली दे रहा है। कि अस्ल में झुठलाया तुमको नहीं, बल्कि हमें जा रहा है। और जब हम सब्र और बरदाश्त के साथ इसे सहन किए जा रहे हैं और ढील पर ढील दिए जाते हैं तो तुम क्यों बेचैन होते हो।
وَلَقَدۡ كُذِّبَتۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَ فَصَبَرُواْ عَلَىٰ مَا كُذِّبُواْ وَأُوذُواْ حَتَّىٰٓ أَتَىٰهُمۡ نَصۡرُنَاۚ وَلَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِ ٱللَّهِۚ وَلَقَدۡ جَآءَكَ مِن نَّبَإِيْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 32
(34) तुमसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाए जा चुके हैं, मगर इस झुठलाने पर और उन तकलीफ़ों पर जो उन्हें पहुँचाई गई, उन्होंने सब्र किया, यहाँ तक कि उन्हें हमारी मदद पहुँच गई। अल्लाह की बातों को बदलने की ताक़त किसी में नहीं है,22 और पिछले रसूलों के साथ जो कुछ पेश आया उसकी ख़बरें तुम्हें पहुँच ही चुकी हैं।
22. यानी अल्लाह ने हक़ और बातिल की कशमकश के लिए जो क़ानून बना दिया है उसे बदल देना किसी के बस में नहीं है। हक़परस्तों के लिए ज़रूरी कि वे एक लम्बी मुद्दत तक आज़माइशों की भट्टी में तपाए जाएँ। अपने सब्र का, अपनी सच्चाई का, अपनी क़ुरबानी और फ़िदाकारी का, अपने ईमान की मज़बूती और अल्लाह पर अपने भरोसे का इम्तिहान दें। मुसीबतों और मुश्किलों के दौर से गुज़रकर अपने अन्दर वे सिफ़ात परवान चढ़ाएँ जो सिर्फ़ इसी मुश्किल घाटी में परवरिश पा सकती हैं और शुरुआती तौर पर ख़ालिस बुलन्द अख़लाक़ और नेक किरदार के ख़ालिस अख़लाक़े-फ़ाज़िला (उत्कृष्ट आचरण और सच्चरित्रता) के हथियारों से जाहिलियत पर फ़तह हासिल करके दिखाएँ। इस तरह जब वे यह साबित कर देंगे कि वे निहायत नेक और भले लोग हैं तब अल्लाह की नुसरत और मदद ठीक अपने वक़्त पर उनका हाथ थामने के लिए आ पहुँचेगी। वक़्त से पहले वह किसी के लाए नहीं आ सकती।
وَإِن كَانَ كَبُرَ عَلَيۡكَ إِعۡرَاضُهُمۡ فَإِنِ ٱسۡتَطَعۡتَ أَن تَبۡتَغِيَ نَفَقٗا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ سُلَّمٗا فِي ٱلسَّمَآءِ فَتَأۡتِيَهُم بِـَٔايَةٖۚ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَمَعَهُمۡ عَلَى ٱلۡهُدَىٰۚ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 33
(35 ) फिर भी अगर उन लोगों की बेरुख़ी तुम से बर्दाश्त नहीं होती तो अगर तुममें कुछ ज़ोर है तो ज़मीन में कोई सुरंग ढूँढ़ो या आसमान में सीढ़ी लगाओ और उनके पास कोई निशानी लाने की कोशिश करो।23 अगर अल्लाह चाहता तो उन सबको हिदायत पर जमा कर सकता था, इसलिए नादान मत बनो।24
23. नबी (सल्ल०) जब देखते थे कि इस काम को समझाते-समझाते मुद्दतें गुज़र गई हैं और किसी तरह ये सीधे रास्ते पर नहीं आतीं तो कभी-कभी आपके दिल में यह ख़ाहिश पैदा होती थी कि काश! कोई निशानी ख़ुदा की तरफ़ से ऐसी ज़ाहिर हो जिससे इन लोगों की मुख़ालफ़त ख़त्म हो और ये मेरी सच्चाई को तस्लीम कर लें। आपकी इसी ख़ाहिश का जवाब इस आयत में दिया गया है। मतलब यह है कि बे-सब्री से काम न लो जिस ढंग और जिस तरतीब से हम इस काम को चलवा रहे हैं उसी पर सब्र के साथ चले जाओ। मोजिज़ों (चमत्कारों) से काम लेना होता तो क्या हम ख़ुद न ले सकते थे? मगर हम जानते हैं कि जिस फ़िक्री (वैचारिक) और अख़लाक़ी इंक़िलाब और जिस अच्छे समाज की तामीर के काम पर तुम लगाए गए हो उसे कामयाबी की मंजिल तक पहुँचाने का सही रास्ता यह नहीं है। फिर भी अगर लोगों के मौजूदा जुमूद और उनके इनकार की सख़्ती पर तुम से सब्र नहीं होता और तुम्हें गुमान है कि इस जुमूद को तोड़ने के लिए किसी महसूस निशानी का दिखाना ही ज़रूरी है तो ख़ुद ज़ोर लगाओ और तुम्हारा कुछ बस चलता हो तो ज़मीन में घुसकर या आसमान पर चढ़कर कोई ऐसा मोजिज़ा लाने की कोशिश करो जिसे तुम समझो कि यह बेयक़ीनी को यक़ीन में बदल देने के लिए काफ़ी होगी। मगर हमसे उम्मीद न रखो कि तुम्हारी यह ख़ाहिश पूरी करेंगे, क्योंकि हमारी स्कीम में इस तदबीर के लिए कोई जगह नहीं है।
24. यानी अगर सिर्फ़ यही बात मतलूब होती कि सारे इनसान किसी न किसी तौर पर सीधे रास्ते पर चलनेवाले बन जाएँ तो नबी भेजने और किताबें उतारने और ईमानवालों से ईमान न रखनेवालों के मुक़ाबले में जिद्दो-जुह्द कराने और हक़ की दावत को तदरीजी (क्रमागत) तहरीक (आन्दोलन) की मंज़िलों से गुज़रवाने की ज़रूरत ही क्या थी? यह काम तो अल्लाह के एक ही तख़लीक़ी (सृजनात्मक) इशारे से हो सकता था। लेकिन अल्लाह इस काम को इस तरीक़े पर करना नहीं चाहता। उसकी मंशा तो यह है कि हक़ को दलीलों के साथ लोगों के सामने पेश किया जाए। फिर उनमें से जो लोग सही फ़िक़्र से काम लेकर हक़ को पहचान लें वे अपने आज़ादाना इख़्तियार से उसपर ईमान लाएँ। अपनी सीरतों को उसके साँचे में ढालकर बातिल-परस्तों के मुक़ाबले में अपनी अख़लाक़ी बरतरी साबित करें। इनसानों की भीड़ में से नेक लोगों को अपनी ताक़तवर दलीलों, अपने बुलन्द मक़सद, और अपनी पाकीज़ा ज़िन्दगी की कशिश से अपनी तरफ़ खींचते चले जाएँ। और बातिल के ख़िलाफ़ लगातार जिद्दो-जुह्द करके फ़ितरी तरक़्क़ी की राह से दीने-हक़ को क़ायम करने की मंज़िल तक पहुँचें। अल्लाह इस काम में उनकी रहनुमाई करेगा और जिस मरहले पर जैसी मदद अल्लाह से पाने का वे अपने आप को हक़दार बनाएँगे वह मदद भी उन्हें देता चला जाएगा। लेकिन अगर कोई यह चाहे कि इस फ़ितरी रास्ते को छोड़कर अल्लाह सिर्फ़ अपनी ज़बरदस्त क़ुदरत के ज़ोर से ग़लत विचारों और नज़रियात को मिटाकर लोगों में अच्छे ख़याल और नज़रिए फैला दे और बुराइयों और ख़राबियों से भरी हुई तहज़ीब और सामाजिकता का ख़ातिमा करके भलाइयों और ख़ूबियों से भरपूर तहज़ीब और समाज की तामीर कर दे तो ऐसा हरगिज़ न होगा; क्योंकि यह अल्लाह की उस हिकमत के ख़िलाफ़ है जिसके तहत उसने इनसान को दुनिया में एक ज़िम्मेदार मख़लूक़ की हैसियत से पैदा किया है, उसे इस्तेमाल के इख़्तियार दिए हैं, फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी की आज़ादी दी। इम्तिहान की मुहलत दी है और उसकी कोशिश के मुताबिक़ इनाम और सज़ा देने के लिए फ़ैसले का एक वक़्त मुक़र्रर कर दिया है।
۞إِنَّمَا يَسۡتَجِيبُ ٱلَّذِينَ يَسۡمَعُونَۘ وَٱلۡمَوۡتَىٰ يَبۡعَثُهُمُ ٱللَّهُ ثُمَّ إِلَيۡهِ يُرۡجَعُونَ ۝ 34
(36) हक़ की दावत पर लब्बैक वही लोग कहते हैं जो सुननेवाले हैं; रहे मुर्दे25, तो उन्हें तो अल्लाह बस कब्रों ही से उठाएगा और फिर वे (उसकी अदालत में पेश होने के लिए) वापस लाए जाएँगे।
25. सुननेवालों से मुराद वे लोग हैं जिनके ज़मीर (दिल) ज़िन्दा हैं, जिन्होंने अपनी अक़्ल और फ़िक्र (चिन्तन) को मुअत्तल नहीं कर दिया है, और जिन्होंने अपने दिल के दरवाज़ों पर तास्सुब (पक्षपात) और जुमूद के ताले नहीं लगा दिए हैं। उनके मुक़ाबले में मुर्दा वे लोग हैं जो लकीर के फ़कीर बने अन्धों की तरह चले जा रहे हैं और उस लकीर से हटकर कोई बात क़ुबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं, चाहे वे वाज़ेह हक़ ही क्यों न हो।
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ءَايَةٞ مِّن رَّبِّهِۦۚ قُلۡ إِنَّ ٱللَّهَ قَادِرٌ عَلَىٰٓ أَن يُنَزِّلَ ءَايَةٗ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 35
(37) ये लोग कहते हैं कि इस नबी पर उसके रब की तरफ़ से कोई निशानी क्यों नहीं उतरी? कहो : अल्लाह निशानी उतारने की पूरी क़ुदरत रखता है, मगर उनमें से ज़्यादातर लोग नादानी में पड़े हुए हैं।26
26. निशानी से मुराद वह मोजिज़ा (चमत्कार) है जिसे महसूस किया जा सके। अल्लाह के इस इरशाद का मतलब यह है कि मोजिज़ा न दिखाए जाने की वजह यह नहीं है कि हम उसको दिखाने की ताक़त नहीं रखते, बल्कि इसकी वजह कुछ और है जिसे ये लोग सिर्फ़ अपनी नादानी से नहीं समझते।
وَمَا مِن دَآبَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا طَٰٓئِرٖ يَطِيرُ بِجَنَاحَيۡهِ إِلَّآ أُمَمٌ أَمۡثَالُكُمۚ مَّا فَرَّطۡنَا فِي ٱلۡكِتَٰبِ مِن شَيۡءٖۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يُحۡشَرُونَ ۝ 36
(38) ज़मीन में चलनेवाले किसी जानवर और हवा में परों से उड़नेवाले किसी परिन्दे को देख लो, ये सब तुम्हारी ही तरह की जातियाँ है, हमने इनकी तक़दीर के लिखे में कोई कसर नहीं छोड़ी है, फिर ये सब अपने रब की तरफ़ समेटे जाते हैं।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا صُمّٞ وَبُكۡمٞ فِي ٱلظُّلُمَٰتِۗ مَن يَشَإِ ٱللَّهُ يُضۡلِلۡهُ وَمَن يَشَأۡ يَجۡعَلۡهُ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 37
(39) मगर जो लोग हमारी निशानियों को झुठलाते हैं वे बहरे और गूंगे हैं, अँधेरों में पड़े हुए हैं।27 अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है सीधे रास्ते पर लगा देता है।28
27. मतलब यह कि अगर तुम्हें सिर्फ़ तमाशा देखने का शौक नहीं है, बल्कि हक़ीक़त में यह मालूम करने के लिए निशानी देखना चाहते हो कि यह नबी जिस चीज़ की तरफ़ बुला रहा है वह हक़ बात है या नहीं, तो आखें खोलकर देखो, तुम्हारे आसपास हर तरफ़ निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं। ज़मीन के जानवरों और हवा के परिन्दों की किसी एक क़िस्म को लेकर उसकी ज़िन्दगी पर ग़ौर करो। किस तरह उसकी बनावट ठीक-ठीक उसके मुनासिब बनाई गई है। जिसकी उसको ज़रूरत है। किस तरह उसकी फ़ितरत में उसकी फ़ितरी ज़रूरतों के ठीक मुताबिक़ क़ुव्वतें दी गई हैं। किस तरह उसको रोज़ी पहुँचाने का इन्तिज़ाम हो रहा है। किस तरह उसकी एक तक़दीर मुक़र्रर है, जिसकी हदों से वह न आगे बढ़ सकती है, न पीछे हट सकती है। किस तरह उनमें से एक-एक जानवर और एक-एक छोटे से छोटे कीड़े की उसी मुक़ाम पर जहाँ वह है, ख़बरगीरी, निगरानी, हिफ़ाज़त और रहनुमाई की जा रही है। किस तरह उससे एक तयशुदा स्कीम के मुताबिक़ काम लिया जा रहा है। किस तरह उसे एक क़ानून और ज़ाब्ते का पाबन्द बना कर रखा गया है और किस तरह उसकी पैदाइश, तनासुल (प्रजनन) और मौत का सिलसिला पूरी बाक़ायदगी के साथ चल रहा है। अगर ख़ुदा की अनगिनत निशानियों में से सिर्फ़ इसी एक निशानी पर ग़ौर करो तो तुम्हें मालूम हो जाए कि ख़ुदा की तौहीद और उसकी सिफ़तों का जो तसव्वुर यह पैग़म्बर तुम्हारे सामने पेश कर रहा है और उस तसव्वुर के मुताबिक़ दुनिया में ज़िन्दगी बसर करने के लिए जिस रवैये की तरफ़ तुम्हें दावत दे रहा है वह ऐन हक़ है। लेकिन तुम लोग न ख़ुद अपनी आँखें खोलकर देखते हो, न किसी समझानेवाले की बात सुनते हो। जहालत की तारीकियों में पड़े हुए हो और चाहते हो कि अजाइबे-क़ुदरत के करिश्मे दिखाकर तुम्हारा दिल बहलाया जाए।
28. ख़ुदा का भटकाना यह है कि एक जहालत पसन्द इनसान को अल्लाह की निशानियों को देखने और समझने की तौफ़ीक़ न दी जाए और तास्सुब से काम लेनेवाला एक ग़ैर-हक़ीक़त पसन्द इल्म का तालिब अगर अल्लाह की निशानियों को देखे भी तो हक़ीक़त तक पहुँचने के निशानात उसकी आँख से ओझल रहें और ग़लतफ़हमियों में उलझानेवाली चीज़ें उसे हक़ से दूर और बहुत दूर खींचती चली जाएँ। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह की हिदायत यह है कि एक हक़ के तलबगार को इल्म के ज़रिओं से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक़ दी जाए और अल्लाह की निशानियों में उसे हक़ीक़त तक पहुँचने के निशानात मिलते चले जाएँ। इन तीनों कैफ़ियतों की बहुत-सी मिसालें आए दिन हमारे सामने आती रहती हैं। बहुत-से इनसान ऐसे हैं जिनके सामने कायनात में और ख़ुद उनके अपने अन्दरून में अल्लाह की बेशुमार निशानियाँ फैली हुई हैं मगर वे जानवरों की तरह उन्हें देखते हैं और कोई सबक़ हासिल नहीं करते। और बहुत-से इनसान हैं जो हैवानियात (Zoology), नबातियात (Botany), हयातियात (Biology), अरज़ियात (Geology), फ़लकियात (Astronomy), उज़्वियात (Physiology), इल्मुत्तशरीह (Anatomy) और साइंस की दूसरी शाख़ों का मुताला करते हैं। इतिहास, आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) और सामाजिक विज्ञान (Social Science) की तहक़ीक़ करते हैं और ऐसी-ऐसी निशानियों उनके देखने में आती हैं जो दिल को ईमान से भर दें। मगर चूँकि वे मुताला (अध्ययन) की शुरुआत ही तास्सुब के साथ करते हैं और उनके सामने दुनिया और उसके फ़ायदों और मुनाफ़ों के सिवा कुछ नहीं होता इसलिए इस मुशाहदे के दौरान में उनको सच्चाई तक पहुँचानेवाली कोई निशानी नहीं मिलती, बल्कि जो निशानी भी सामने आती है वह उन्हें उलटी नास्तिकता, माद्दापरस्ती (भौतिकवाद) और प्रकृतिवाद (Naturalism) की तरफ़ खींच ले जाती है। उनके मुक़ाबले में ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो आँखें खोलकर दुनिया के इस कारख़ाने को देखते हैं और उनका हाल यह है कि— बर्गे-दरख़्ताने सब्ज़ दर नज़रे-होशियार हर वरक़े दफ़रेस्त मारफ़ते-किर्दगार यानी : हरे-भरे पेड़ों की पत्तियाँ भी अक़्लमन्द इनसान की नज़र में बहुत अहम हैं आर उनमें से हर पत्ती के अन्दर बनानेवाले की पहचान की बेशुमार निशानियाँ मौजूद हैं।
قُلۡ أَرَءَيۡتَكُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُ ٱللَّهِ أَوۡ أَتَتۡكُمُ ٱلسَّاعَةُ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ تَدۡعُونَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 38
(40) इनसे कहो, ज़रा ग़ौर करके बताओ, अगर कभी तुम पर अल्लाह की तरफ़ से कोई बड़ी मुसीबत आ जाती है या आख़िरी घड़ी आ पहुँचती है तो क्या उस वक़्त तुम अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारते हो? बोलो, अगर तुम सच्चे हो।
بَلۡ إِيَّاهُ تَدۡعُونَ فَيَكۡشِفُ مَا تَدۡعُونَ إِلَيۡهِ إِن شَآءَ وَتَنسَوۡنَ مَا تُشۡرِكُونَ ۝ 39
(41) उस वक़्त तुम अल्लाह ही को पुकारते हो, फिर अगर वह चाहता है तो उस मुसीबत को तुम पर से टाल देता है। ऐसे मौक़ों पर तुम अपने ठहराए हुए शरीकों को भूल जाते हो।29
29. पिछली आयत में कहा गया था कि तुम एक निशानी की माँग करते हो और हाल यह है कि तुम्हारे आसपास हर तरफ़ निशानियाँ ही निशानियाँ फैली हुई हैं। इस सिलसिले में पहले मिसाल के तौर पर हैवानों की ज़िन्दगी को देखने की तरफ़ तवज्जोह दिलाई गई। उसके बाद अब एक दूसरी निशानी की तरफ़ इशारा किया जा रहा है जो ख़ुद हक़ का इनकार करनेवालों के अपने मन में मौजूद है। जब इनसान पर कोई बड़ी आफ़त आ जाती है, या मौत अपनी भयानक सूरत के साथ सामने आ खड़ी होती है, उस वक़्त एक ख़ुदा के दामन के सिवा कोई दूसरी पनाहगाह उसे नज़र नहीं आती। बड़े-बड़े मुशरिक ऐसे मौक़े पर अपने माबूदों को भूलकर एक ख़ुदा को पुकारने लगते हैं। ख़ुदा का कट्टर से कट्टर इनकारी तक ख़ुदा के आगे दुआ के लिए हाथ फैला देता है। इसी निशानी को यहाँ हक़ को ज़ाहिर करने के लिए पेश किया जा रहा है, क्योंकि यह इस बात पर दलील है कि ख़ुदापरस्ती और तौहीद की गवाही हर इनसान के नफ़्स में मौजूद है, जिसपर ग़फ़लत और जहालत के चाहे कितने ही परदे डाल दिए गए हों, मगर फिर भी कभी न कभी वह उभर कर सामने आ जाती है। अबू-जह्ल के बेटे इकरिमा को इसी निशानी के देख लेने से ईमान की तौफ़ीक़ नसीब हुई। जब मक्का मुअज़्ज़मा मुहम्मद (सल्ल०) के हाथों फ़तह हो गया तो इकरिमा जिद्दा की तरफ़ भागे और एक कश्ती पर सवार होकर हब्शा मुल्क की तरफ़ चल पड़े। रास्ते में सख़्त तूफ़ान आया और कश्ती ख़तरे में पड़ गई। पहले-पहल तो देवियों और देवताओं को पुकारा जाता रहा। मगर जब तूफ़ान की शिद्दत बढ़ी और मुसाफिरों को यक़ीन हो गया कि अब किश्ती डूब जाएगी तो सब कहने लगे कि यह वक़्त अल्लाह के सिवा किसी को पुकारने का नहीं है, वही चाहे तो हम बच सकते हैं। उस वक़्त इकरिमा की आँखें खुलीं और उनके दिल ने आवाज़ दी कि अगर यहाँ अल्लाह के सिवा कोई मददगार नहीं तो कहीं और क्यों हो। यही तो वह बात है जो अल्लाह का वह नेक बन्दा हमें बीस वर्ष से समझा रहा है और हम ख़ाह-मख़ाह उससे लड़ रह हैं। यह इकरिमा की ज़िन्दगी में फ़ैसलाकुन लम्हा था। उन्होंने उसी वक़्त ख़ुदा से अह्द (वादा) किया कि अगर मैं इस तूफ़ान से बच गया तो सीधा मुहम्मद (सल्ल०) के पास जाऊँगा और उनके हाथ में हाथ दे दूँगा। चुनाँचे उन्होंने अपने इस अह्द को पूरा किया और बाद में न सिर्फ़ मुसलमान हुए, बल्कि अपनी बाक़ी उम्र इस्लाम के लिए जिद्दो-जुह्द करते हुए गुज़ारी।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰٓ أُمَمٖ مِّن قَبۡلِكَ فَأَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡبَأۡسَآءِ وَٱلضَّرَّآءِ لَعَلَّهُمۡ يَتَضَرَّعُونَ ۝ 40
(42) तुमसे पहले बहुत-सी क़ौमों की तरफ़ हमने रसूल भेजे और उन क़ौमों को मुसीबतों और परेशानियों में डाल दिया, ताकि वे आजिज़ी (विनम्रता) के साथ हमारे सामने झुक जाएँ।
فَلَوۡلَآ إِذۡ جَآءَهُم بَأۡسُنَا تَضَرَّعُواْ وَلَٰكِن قَسَتۡ قُلُوبُهُمۡ وَزَيَّنَ لَهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 41
(43) इसलिए जब हमारी तरफ़ से उन पर सख़्ती आई तो क्यों न उन्होंने आजिज़ी अपनाई? मगर इनके दिल तो और सख़्त हो गए और शैतान ने इनको इतमीनान दिलाया कि जो कुछ तुम कर रहे ख़ूब कर रहे हो।
فَلَمَّا نَسُواْ مَا ذُكِّرُواْ بِهِۦ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِمۡ أَبۡوَٰبَ كُلِّ شَيۡءٍ حَتَّىٰٓ إِذَا فَرِحُواْ بِمَآ أُوتُوٓاْ أَخَذۡنَٰهُم بَغۡتَةٗ فَإِذَا هُم مُّبۡلِسُونَ ۝ 42
(44) फिर जब उन्होंने इस नसीहत को, जो उन्हें की गई थी, भुला दिया तो हमने हर तरह की ख़ुशहालियों के दरवाज़े उनके लिए खोल दिए, यहाँ तक कि जब वे उन बख़्शिशों में जो उन्हें अता की गई थीं ख़ूब मग्न हो गए तो अचानक हमने उन्हें पकड़ लिया और अब हाल यह था कि वे हर भलाई से मायूस थे।
فَقُطِعَ دَابِرُ ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْۚ وَٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 43
(45) इस तरह उन लोगों की जड़ काट कर रख दी गई जिन्होंने ज़ुल्म किया था और तारीफ़ है सारे जहानों के रब अल्लाह के लिए (कि उसने उनकी जड़ काट दी)।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَخَذَ ٱللَّهُ سَمۡعَكُمۡ وَأَبۡصَٰرَكُمۡ وَخَتَمَ عَلَىٰ قُلُوبِكُم مَّنۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِ يَأۡتِيكُم بِهِۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ ثُمَّ هُمۡ يَصۡدِفُونَ ۝ 44
(46) ऐ नबी! इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर अल्लाह तुम्हारी देखने और सुनने की ताक़त तुम से छीन ले और तुम्हारे दिलों पर मुहर लगा दे30 तो अल्लाह के सिवा और कौन-सा ख़ुदा है जो ये ताक़तें तुम्हें वापस दिला सकता हो? देखो, किस तरह हम बार-बार अपनी निशानियाँ उनके सामने पेश करते हैं और फिर ये किस तरह उनसे नज़र चुरा जाते हैं।
30. यहाँ दिलों पर मुहर करने से मुराद सोचने और समझने की क़ुव्वतें छीन लेना है।
قُلۡ أَرَءَيۡتَكُمۡ إِنۡ أَتَىٰكُمۡ عَذَابُ ٱللَّهِ بَغۡتَةً أَوۡ جَهۡرَةً هَلۡ يُهۡلَكُ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 45
(47) कहो, कभी तुमने सोचा कि अगर अल्लाह की तरफ़ से अचानक या अलानिया तुम पर अज़ाब आ जाए तो क्या ज़ालिम लोगों के सिवा कोई और हलाक होगा?
وَمَا نُرۡسِلُ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَۖ فَمَنۡ ءَامَنَ وَأَصۡلَحَ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 46
(48) हम जो रसूल भेजते हैं इसी लिए तो भेजते हैं कि वे नेक किरदार लोगों के लिए ख़ुशख़बरी देनेवाले और बुरे किरदारवालों के लिए डरानेवाले हों। फिर जो लोग उनकी बात मान लें और अपने रवैये को सुधार लें उनके लिए किसी ख़ौफ़ और रंज का मौक़ा नहीं है।
وَٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يَمَسُّهُمُ ٱلۡعَذَابُ بِمَا كَانُواْ يَفۡسُقُونَ ۝ 47
(49) और जो हमारी आयतों को झुठलाएँ वे अपनी नाफ़रमानियों के बदले में सज़ा भुगत कर रहेंगे।
قُل لَّآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ إِنِّي مَلَكٌۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّۚ قُلۡ هَلۡ يَسۡتَوِي ٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡبَصِيرُۚ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ ۝ 48
(50) ऐ नबी! इनसे कहो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं। न मैं ग़ैब का इल्म रखता हूँ, और न यह कहता हूँ कि में फ़रिश्ता हूँ। मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मुझ पर उतारी जाती है।31 फिर इनसे पूछो क्या अन्धा और आँखोंवाला दोनों बराबर हो सकते हैं?32 क्या तुम ग़ौर नहीं करते?
31. नादान लोगों के ज़ेहन में हमेशा से यह बेवक़ूफ़ाना तसव्वुर रहा है कि जो शख़्स अल्लाह को पहुँचा हुआ हो उसे इनसानियत से परे होना चाहिए, उसकी अजीबो-ग़रीब बातें ज़ाहिर होनी चाहिएँ, वह एक इशारा करे और पहाड़ सोने का बन जाए, वह हुक्म दे और ज़मीन से ख़ज़ाने उबलने लगें, उसपर लोगों के अगले-पिछले सब हालात रौशन हों, वह बता दे कि खोई हुई चीज़ कहाँ रखी है। मरीज़ बच जाएगा या मर जाएगा, गर्भवती के पेट में नर है या मादा। फिर उसको इनसानी कमज़ोरियों और इनसानों के साथ जो हदबन्दियाँ हैं उनसे भी परे होना चाहिए। भला वह भी कोई ख़ुदा को पहुँचा हुआ है जिसे भूख प्यास लगे, जिसको नींद आए, जो बीवी-बच्चे रखता हो, जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए ख़रीदता-बेचता फिरे, जिसे कभी क़र्ज़ लेने की ज़रूरत पेश आए और कभी वह मुफ़लिसी और तंगदस्ती में मुब्तला होकर परेशान हाल रहे। इसी क़िस्म के तसव्वुर नबी (सल्ल०) के ज़माने के लोगों के दिमाग़ों में बैठे हए थे। वह जब आप से पैग़म्बरी का दावा सुनते थे तो आप की सच्चाई को जाँचने के लिए आपसे ग़ैब की ख़बरें पूछते थे, ऐसी बातों का मुतालबा करते थे, जो फ़ितरत से परे होती हैं (यानी जो इनसानों से ज़ाहिर नहीं होती हैं)। और आपको बिलकुल आम इनसानों जैसा एक इनसान देखकर एतिराज़ करते थे कि यह अच्छा पैग़म्बर है जो खाता-पीता है, बीवी-बच्चे रखता है और बाज़ारों में चलता फिरता है। इन्हीं बातों का जवाब इस आयत में दिया गया है।
32. मतलब यह है कि मैं जिन हक़ीक़तों को तुम्हारे सामने पेश कर रहा हूँ उनको मैंने देखा है, वह सीधे तौर पर मेरे तजरिबे में आई हैं, मुझे वह्य के ज़रिए से उनका ठीक-ठीक इल्म दिया गया है, उनके बारे में मेरी गवाही आँखों देखी गवाही है। इसके बरख़िलाफ़ तुम उन हक़ीक़तों की तरफ़ से अन्धे हो, तुम उनके बारे में जो ख़यालात रखते हो उनकी बुनियाद अटकल और गुमान पर है या सिर्फ़ अन्धी तक़लीद (अनुसरण) पर। इसलिए मेरे और तुम्हारे बीच वही फ़र्क़ है जो किसी आँख रखनेवाले और आँख न रखनेवाले के बीच होता है और इसी हैसियत से मुझे तुमपर बड़ाई हासिल है, न इस हैसियत से कि मेरे पास ख़ुदाई के ख़ज़ाने हैं, या मैं ग़ैब का जाननेवाला हूँ या इनसानी कमज़ोरियों से पाक हूँ।
وَأَنذِرۡ بِهِ ٱلَّذِينَ يَخَافُونَ أَن يُحۡشَرُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ لَيۡسَ لَهُم مِّن دُونِهِۦ وَلِيّٞ وَلَا شَفِيعٞ لَّعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 49
(51) और ऐ नबी! तुम इस (वह्य के इल्म) के ज़रिए से उन लोगों को नसीहत करो जो इस बात का डर रखते हैं कि अपने रब के सामने कभी इस हाल में पेश किए जाएँगे कि उसके सिवा वहाँ कोई (ऐसा ताक़तवर) न होगा जो उनका हामी और मददगार हो या उनकी सिफ़ारिश करे, शायद कि (इस नसीहत से ख़बरदार होकर) वे ख़ुदा तरसी का रवैया इख़्तियार कर लें।33
33. मतलब यह है कि जो लोग दुनिया की ज़िन्दगी में ऐसे मदहोश हैं कि उन्हें न मौत की फ़िक्र है, न यह ख़याल है कि कभी हमें अपने ख़ुदा को भी मुँह दिखाना है, उन पर तो यह नसीहत हरगिज़ कारगर न होगी। और इसी तरह उन लोगों पर भी उसका कुछ असर न होगा, जो इस बे-बुनियाद भरोसे पर जी रहे हैं कि दुनिया में हम जो चाहें कर गुज़रें, आख़िरत में हमारा बाल तक बाँका न होगा, क्योंकि हम फ़ुलाँ का दामन पकड़े हुए हैं, या फ़ुलाँ हमारी सिफ़ारिश कर देगा, या फ़ुलाँ हमारे लिए कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) बन चुका है। तो ऐसे लोगों को छोड़कर तुम अपनी बात का रुख़ उन लोगों की तरफ़ रखो जो ख़ुदा के सामने हाज़िरी का भी अन्देशा रखते हों और उसके साथ झूठे भरोसों पर फूले हुए भी न हों। इस नसीहत का असर सिर्फ़ ऐसे ही लोगों पर हो सकता है और उन्हीं के दुरुस्त होने की उम्मीद की जा सकती है।
وَلَا تَطۡرُدِ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ رَبَّهُم بِٱلۡغَدَوٰةِ وَٱلۡعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجۡهَهُۥۖ مَا عَلَيۡكَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَمَا مِنۡ حِسَابِكَ عَلَيۡهِم مِّن شَيۡءٖ فَتَطۡرُدَهُمۡ فَتَكُونَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 50
(52) और जो लोग अपने रब को रात-दिन पुकारते रहते हैं और उसकी ख़ुशनूदी की तलब में लगे हुए हैं उन्हें अपने से दूर न फेंको।34 उनके हिसाब में से किसी चीज़ का भार तुम पर नहीं है। और तुम्हारे हिसाब में से किसी चीज़ का भार उन पर नहीं। इसपर भी अगर तुम उन्हें दूर फेंकोगे तो ज़ालिमों में गिने जाओगे।35
34. क़ुरैश के बड़े-बड़े सरदारों और खाते-पीते लोगों को नबी (सल्ल०) पर और दूसरे एतिराज़ों के अलावा एक एतिराज़ यह भी था कि आपके आसपास हमारी क़ौम के ग़ुलाम, दलित और निचले तबक़े के लोग जमा हो गए हैं। वे ताना दिया करते थे कि इस शख़्स को साथी भी कैसे-कैसे इज़्ज़तदार लोग मिले हैं, बिलाल, अम्मार, सुहैब और ख़ब्बाब। बस यही लोग अल्लाह को हमारे दरमियान ऐसे मिले जिनका चुनाव किया जा सकता था! फिर वे उन ईमान लानेवालों की ख़स्ताहाली का मज़ाक़ उड़ाने पर ही बस नहीं करते थे, बल्कि उनमें से जिस-जिस से कभी पहले कोई अख़लाक़ी कमज़ोरी ज़ाहिर हुई थी उसपर भी नुक्ताचीनी करते थे और कहते थे कि फ़ुलाँ जो कल तक यह था और फ़ुलाँ जिसने यह किया था आज वह भी इस 'चुने हुए गरोह' में शामिल है। इन्हीं बातों का जवाब यहाँ दिया जा रहा है।
35. यानी हर आदमी अपनी बुराई और भलाई का ज़िम्मेदार ख़ुद ही है। इन मुसलमान होनेवालों में से किसी शख़्स की जवाबदेही के लिए तुम खड़े न होगे और न तुम्हारी जवाबदेही के लिए इनमें से कोई खड़ा होगा। तुम्हारे हिस्से की कोई नेकी ये तुमसे छीन नहीं सकते और अपने हिस्से की कोई बुराई तुमपर डाल नहीं सकते। फिर जब ये सिर्फ़ हक़ के तलबगार बनकर तुम्हारे पास आते हैं तो आख़िर तुम क्यों इन्हें अपने से दूर फेंको।
وَكَذَٰلِكَ فَتَنَّا بَعۡضَهُم بِبَعۡضٖ لِّيَقُولُوٓاْ أَهَٰٓؤُلَآءِ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنۢ بَيۡنِنَآۗ أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِأَعۡلَمَ بِٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 51
(53) अस्ल में हमने इस तरह उन लोगों में से कुछ को कुछ के ज़रिए से आज़माइश में डाला है36 ताकि वे इन्हें देखकर कहें, “क्या ये हैं वे लोग जिन पर हमारे दरमियान अल्लाह की मेहरबानी और करम है?” — हाँ! क्या ख़ुदा अपने शुक्रगुज़ार बन्दों को इनसे ज़्यादा नहीं जानता है?
36. यानी ग़रीबों और मुफ़लिसों और ऐसे लोगों को जो समाज में मामूली हैसियत रखते हैं, सबसे पहले ईमान की तौफ़ीक़ देकर हमने दौलत और इज़्ज़त का घमण्ड रखनेवाले लोगों को आज़माइश में डाल दिया है।
وَإِذَا جَآءَكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِـَٔايَٰتِنَا فَقُلۡ سَلَٰمٌ عَلَيۡكُمۡۖ كَتَبَ رَبُّكُمۡ عَلَىٰ نَفۡسِهِ ٱلرَّحۡمَةَ أَنَّهُۥ مَنۡ عَمِلَ مِنكُمۡ سُوٓءَۢا بِجَهَٰلَةٖ ثُمَّ تَابَ مِنۢ بَعۡدِهِۦ وَأَصۡلَحَ فَأَنَّهُۥ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 52
(54) जब तुम्हारे पास वे लोग आएँ जो हमारी आयतों पर ईमान लाते हैं तो उनसे कहो, “तुम पर सलामती है। तुम्हारे रब ने रहम और करम का रवैया अपने ऊपर लाज़िम कर लिया है। यह उसका रहम और करम ही है कि अगर तुममें से कोई नादानी के साथ कोई बुराई कर बैठा हो, फिर उसके बाद तौबा करे और सुधार कर ले तो वह उसे माफ़ कर देता है और नर्मी से काम लेता है।"37
37. जो लोग उस वक़्त नबी (सल्ल०) पर ईमान लाए थे उनमें से ज़्यादातर लोग ऐसे भी थे जिन से जाहिलियत के ज़माने में बड़े-बड़े गुनाह हो चुके थे। अब इस्लाम क़ुबूल करने के बाद हालाँकि उनकी ज़िन्दगियाँ बिलकुल बदल गई थीं, लेकिन इस्लाम के मुख़ालिफ़ उनको पिछली ज़िन्दगी के ऐबों और कामों के ताने देते थे। इसपर कहा जा रहा है कि ईमानवालों को तसल्ली दो। इन्हें बताओ कि जो शख़्स तौबा करके अपनी इस्लाह कर लेता है उसके पिछले क़ुसूरों पर पकड़ करने का तरीक़ा अल्लाह के यहाँ नहीं है।
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلِتَسۡتَبِينَ سَبِيلُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 53
(55) और इस तरह हम अपनी निशानियाँ खोल-खोलकर पेश करते हैं, ताकि मुजरिमों की राह बिलकुल नुमायाँ हो जाए।38
38. 'इस तरह' का इशारा तक़रीर के उस पूरे सिलसिले की तरफ़ है जो आयत 37 से शुरू हुआ था, “ये लोग कहते हैं कि इस पर कोई निशानी क्यों नहीं उतरी।” मतलब यह है कि ऐसी साफ़ और वाज़ेह दलीलों और निशानियों के बाद भी जो लोग अपने कुफ़्र और इनकार पर जिद ही किए चले जाएँ उनका मुजरिम होना किसी शक व शुब्हा के बग़ैर साबित हुआ जाता है और यह हक़ीक़त बिलकुल आईने की तरह नुमायाँ हुई जाती है कि अस्ल में ये लोग गुमराही को पसन्द करने की वजह से यह राह चल रहे हैं, न इस वजह से कि हक़ की राह की दलीलें वाज़ेह नहीं हैं या यह कि कुछ दलीलें उनकी इस गुमराही के हक़ में भी मौजूद हैं।
قُلۡ إِنِّي نُهِيتُ أَنۡ أَعۡبُدَ ٱلَّذِينَ تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِۚ قُل لَّآ أَتَّبِعُ أَهۡوَآءَكُمۡ قَدۡ ضَلَلۡتُ إِذٗا وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 54
(56 ) ऐ नबी! इनसे कहो कि “तुम लोग अल्लाह के सिवा जिन दूसरों को पुकारते हो उनकी बन्दगी करने से मुझे मना किया गया है।” कहो, “मैं तुम्हारी ख़ाहिशों की पैरवी नहीं करूँगा, अगर मैंने ऐसा किया तो गुमराह हो गया, सीधा रास्ता पानेवालों में से न रहा।”
قُلۡ إِنِّي عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَكَذَّبۡتُم بِهِۦۚ مَا عِندِي مَا تَسۡتَعۡجِلُونَ بِهِۦٓۚ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ يَقُصُّ ٱلۡحَقَّۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡفَٰصِلِينَ ۝ 55
(57) कहो : “मैं अपने रब की तरफ़ से एक रौशन दलील पर क़ायम हूँ और तुमने उसे झुठला दिया है, अब मेरे इख़्तियार में वह चीज़ है नहीं, जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे हो39 फ़ैसले का सारा इख़्तियार अल्लाह को है, वही हक़ बात बयान करता है और वही बेहतरीन फ़ैसला करनेवाला है।”
39. इशारा है अल्लाह के अज़ाब की तरफ़। मुख़ालिफ़ लोग कहते थे कि अगर तुम ख़ुदा की तरफ़ से भेजे हुए नबी हो और हम खुल्लम-खुल्ला तुमको झुठला रहे हैं, तो क्यों नहीं ख़ुदा का अज़ाब हम पर टूट पड़ता? तुम्हारे अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किए जाने का तक़ाज़ा तो यह था कि इधर कोई तुम्हें झुठलाता या तौहीन करता और उधर फ़ौरन ज़मीन धँसती और वह इसमें समा जाता या बिजली गिरती और वह भस्म हो जाता। यह क्या है कि ख़ुदा का भेजा हुआ पैग़म्बर और उसपर ईमान लोनेवाले तो मुसीबतों पर मुसीबतें और रुसवाइयों पर रुसवाइयाँ सह रहे हैं और उनको गालियाँ देने और पत्थर मारनेवाले चैन किए जाते हैं?
قُل لَّوۡ أَنَّ عِندِي مَا تَسۡتَعۡجِلُونَ بِهِۦ لَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۗ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 56
(58) कहो, “अगर कहीं वह चीज़ मेरे इख़्तियार में होती जिसकी तुम जल्दी मचा रहे हो तो मेरे और तुम्हारे दरमियान कभी का फ़ैसला हो चुका होता। मगर अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि ज़ालिमों के साथ क्या मामला किया जाना चाहिए।
۞وَعِندَهُۥ مَفَاتِحُ ٱلۡغَيۡبِ لَا يَعۡلَمُهَآ إِلَّا هُوَۚ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۚ وَمَا تَسۡقُطُ مِن وَرَقَةٍ إِلَّا يَعۡلَمُهَا وَلَا حَبَّةٖ فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡأَرۡضِ وَلَا رَطۡبٖ وَلَا يَابِسٍ إِلَّا فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 57
(59) उसी के पास ग़ैब की कुंजियाँ हैं, जिन्हें उसके सिवा कोई नहीं जानता। ख़ुश्की (थल) और तरी (जल) में जो कुछ है सबको वह जानता है। पेड़ से गिरनेवाला कोई पत्ता ऐसा नहीं जिसका उसे इल्म न हो। ज़मीन के अंधेरे पर्दो में कोई दाना ऐसा नहीं जिसको वह न जानता हो। ख़ुश्क और तर सब कुछ एक खुली किताब में लिखा हुआ है।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَتَوَفَّىٰكُم بِٱلَّيۡلِ وَيَعۡلَمُ مَا جَرَحۡتُم بِٱلنَّهَارِ ثُمَّ يَبۡعَثُكُمۡ فِيهِ لِيُقۡضَىٰٓ أَجَلٞ مُّسَمّٗىۖ ثُمَّ إِلَيۡهِ مَرۡجِعُكُمۡ ثُمَّ يُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 58
(60) वही है जो रात को तुम्हारी रूहें क़ब्ज़ करता है और दिन को जो कुछ तुम करते हो उसे जानता है, फिर दूसरे दिन वह तुम्हें इसी कारोबार की दुनिया में वापस भेज देता है, ताकि ज़िन्दगी की मुक़र्रर मुद्दत पूरी हो। आख़िरकार उसी की तरफ़ तुम्हारी वापसी है, फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या करते रहे हो।
وَهُوَ ٱلۡقَاهِرُ فَوۡقَ عِبَادِهِۦۖ وَيُرۡسِلُ عَلَيۡكُمۡ حَفَظَةً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ تَوَفَّتۡهُ رُسُلُنَا وَهُمۡ لَا يُفَرِّطُونَ ۝ 59
(61) अपने बन्दों पर वह पूरी क़ुदरत रखता है और तुम पर निगरानी करनेवाले मुक़र्रर करके भेजता है40 यहाँ तक कि जब तुम में से किसी की मौत का वक़्त आ जाता है तो उसके भेजे हुए फ़रिश्ते उसकी जान निकाल लेते हैं और अपना फ़र्ज़ अंजाम देने में ज़रा कोताही नहीं करते,
40. यानी ऐसे फ़रिश्ते जो तुम्हारी एक-एक हरकत और एक-एक बात पर निगाह रखते हैं और तुम्हारी हर-हर हरकत का रिकॉर्ड महफ़ूज़ करते रहते हैं।
ثُمَّ رُدُّوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ مَوۡلَىٰهُمُ ٱلۡحَقِّۚ أَلَا لَهُ ٱلۡحُكۡمُ وَهُوَ أَسۡرَعُ ٱلۡحَٰسِبِينَ ۝ 60
(62) फिर सबके सब अल्लाह अपने हक़ीक़ी आक़ा की तरफ़ वापस लाए जाते हैं। ख़बरदार हो जाओ, फ़ैसले के सारे इख़्तियारात उसी को हासिल हैं और वह हिसाब लेने में बहुत तेज़ है।”
قُلۡ مَن يُنَجِّيكُم مِّن ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ تَدۡعُونَهُۥ تَضَرُّعٗا وَخُفۡيَةٗ لَّئِنۡ أَنجَىٰنَا مِنۡ هَٰذِهِۦ لَنَكُونَنَّ مِنَ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 61
(63) ऐ नबी! इन से पूछो : रेगिस्तान और समन्दर के अंधेरों में कौन तुम्हें ख़तरों से बचाता है? कौन है जिससे तुम (मुसीबत के वक़्त) गिड़गिड़ा, गिड़गिड़ाकर और चुपके-चुपके दुआएँ माँगते हो? किससे कहते हो कि अगर इस बला से तूने हमको बचा लिया तो हम ज़रूर शुक्रगुज़ार होंगे?
قُلِ ٱللَّهُ يُنَجِّيكُم مِّنۡهَا وَمِن كُلِّ كَرۡبٖ ثُمَّ أَنتُمۡ تُشۡرِكُونَ ۝ 62
(64) कहो, अल्लाह तुम्हें उससे और हर तकलीफ़ से नजात देता है फिर तुम दूसरों को उसका शरीक ठहराते हो।41
41. यानी यह हक़ीक़त कि अकेले अल्लाह ही क़ादिरे-मुतलक़ है और वही तमाम इख़्तियारात का मालिक और तुम्हारी भलाई और बुराई पर पूरा इख़्तियार रखता है। और उसी के हाथ में तुम्हारी क़िस्मतों की बागडोर है। इसकी गवाही तो तुम्हारे अपने अन्दर मौजूद है। जब कोई सख़्त वक़्त आता है और उससे बचने की तरकीबें नाकाम होती नज़र आती हैं तो उस वक़्त तुम बे-इख़्तियार उसी की तरफ़ रुजू करते हो। लेकिन इस खुली निशानी के होते हुए भी तुमने ख़ुदाई में बग़ैर किसी दलील व हुज़्ज़त और बिना सुबूत के दूसरों को उसका शरीक बना रखा है। पलते हो उसकी रोज़ी पर और अन्न दाता बनाते हो दूसरों को। मदद पाते हो उसकी मेहरबानी और रहमत से और हिमायती व मददगार ठहराते हो दूसरों को। ग़ुलाम हो उसके और बन्दगी बजा लाते हो दूसरों की। मुश्किलें दूर करता है वह, बुरे वक़्त पर गिड़गिड़ाते हो उसके सामने और जब वह वक़्त गुज़र जाता है तो तुम्हारे बिगड़ी बनानेवाले बन जाते हैं दूसरे और नज़्रें और नियाज़ें चढ़ने लगती हैं दूसरों के नाम की।
قُلۡ هُوَ ٱلۡقَادِرُ عَلَىٰٓ أَن يَبۡعَثَ عَلَيۡكُمۡ عَذَابٗا مِّن فَوۡقِكُمۡ أَوۡ مِن تَحۡتِ أَرۡجُلِكُمۡ أَوۡ يَلۡبِسَكُمۡ شِيَعٗا وَيُذِيقَ بَعۡضَكُم بَأۡسَ بَعۡضٍۗ ٱنظُرۡ كَيۡفَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَفۡقَهُونَ ۝ 63
(65) कहो: वह इसकी क़ुदरत रखता है कि तुम पर कोई अज़ाब ऊपर से नाज़िल कर दे, या तुम्हारे क़दमों के नीचे से बरपा कर दे, या तुम्हें गरोहों में बाँट कर एक गरोह को दूसरे गरोह की ताक़त का मज़ा चखवा दे। देखो, हम किस तरह बार-बार अलग-अलग तरीक़ों से अपनी निशानियाँ उनके सामने पेश कर रहे हैं, शायद कि ये हक़ीक़त को समझ लें।42
42. जो लोग अल्लाह के अज़ाब को अपने से दूर पाकर हक़ की दुश्मनी में जुर्रत पर जुर्रत दिखा रहे थे उन्हें ख़बरदार किया जा रहा है कि अल्लाह के अज़ाब को आते कुछ देर नहीं लगती। हवा का एक तूफ़ान तुम्हें अचानक बरबाद कर सकता है। ज़लज़ले का एक झटका तुम्हारी बस्तियों को ख़ाक में मिला देने के लिए काफ़ी है। क़बीलों और क़ौमों और मुल्कों की दुश्मनियों के मैगज़ीन में एक चिंगारी वह तबाही फैला सकती है कि सालों-साल तक ख़ून-ख़राबे और बदअम्नी से नजात न मिले। तो अगर अज़ाब नहीं आ रहा है तो यह तुम्हारे लिए ग़फ़लत और मदहोशी की पिनक न बन जाए कि मुतमइन होकर सही और ग़लत का फ़र्क़ किए बग़ैर अन्धों की तरह ज़िन्दगी के रास्ते पर चलते रहो। ग़नीमत समझो कि अल्लाह तुम्हें मुहलत दे रहा है। और वे निशानियाँ तुम्हारे सामने पेश कर रहा है जिनसे तुम हक़ को पहचान कर सही रास्ता इख़्तियार कर सको।
وَمَا عَلَى ٱلَّذِينَ يَتَّقُونَ مِنۡ حِسَابِهِم مِّن شَيۡءٖ وَلَٰكِن ذِكۡرَىٰ لَعَلَّهُمۡ يَتَّقُونَ ۝ 64
(69) उनके हिसाब में से किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी परहेज़गार लोगों पर नहीं है, अलबत्ता नसीहत करना उनका फ़र्ज़ है, शायद कि वे ग़लत रवी से बच जाएँ।45
45. मतलब यह है कि जो लोग ख़ुदा की नाफ़रमानी से ख़ुद बचकर काम करते हैं उनपर नाफ़रमानों के किसी अमल की ज़िम्मेदारी नहीं है, फिर वे क्यों ख़ाह-मख़ाह इस बात को अपने ऊपर फ़र्ज़ कर लें कि इन नाफ़रमानों से बहस और मुनाज़रा (शास्त्रार्थ) करके ज़रूर उन्हें क़ायल करके ही छोड़ेंगे और उनके हर बेहूदा और बेमानी और मुहमल एतिराज़ का जवाब ज़रूर ही देंगे और अगर वे न मानते हों तो किसी न किसी तरह मनवाकर ही रहेंगे। इनका फ़र्ज़ बस इतना है कि जिन्हें गुमराही में भटकते देख रहे हों उन्हें नसीहत करें और हक़ बात उनके सामने पेश कर दें। फिर अगर वे न मानें और झगड़े और बहस और हुज्जतबाज़ियों पर उतर आएँ तो हक़परस्तों का यह काम नहीं है कि उनके साथ दिमाग़ी कुश्तियाँ लड़ने में अपना वक़्त और अपनी क़ुव्वतें बरबाद करते फिरें। गुमराही-पसन्द लोगों के बजाय उन्हें अपने वक़्त और अपनी क़ुव्वतों को उन लोगों की तालीम और तरबियत और इस्लाह और नसीहत पर लगाना चाहिए जो ख़ुद हक़ के तालिब हों।
وَذَرِ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ دِينَهُمۡ لَعِبٗا وَلَهۡوٗا وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ وَذَكِّرۡ بِهِۦٓ أَن تُبۡسَلَ نَفۡسُۢ بِمَا كَسَبَتۡ لَيۡسَ لَهَا مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٞ وَلَا شَفِيعٞ وَإِن تَعۡدِلۡ كُلَّ عَدۡلٖ لَّا يُؤۡخَذۡ مِنۡهَآۗ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ أُبۡسِلُواْ بِمَا كَسَبُواْۖ لَهُمۡ شَرَابٞ مِّنۡ حَمِيمٖ وَعَذَابٌ أَلِيمُۢ بِمَا كَانُواْ يَكۡفُرُونَ ۝ 65
(70) छोड़ो उन लोगों को जिन्होंने अपने दीन को खेल और तमाशा बना रखा है और जिन्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने धोखे में डाले हुए है। हाँ, मगर इस क़ुरआन को सुनाकर नसीहत और ख़बरदार करते रहो कि कहीं कोई शख़्स अपने किए करतूतों के वबाल में गिरफ़्तार न हो जाए, और गिरफ़्तार भी इस हाल में हो कि अल्लाह से बचानेवाला कोई हामी और मददगार और कोई सिफ़ारिशी उसके लिए न हो, और अगर वह हर मुमकिन चीज़ फ़िदये में देकर छूटना भी चाहे तो वह भी उससे क़ुबूल न की जाएगी, क्योंकि ऐसे लोग तो ख़ुद अपनी कमाई के नतीजे में पकड़े जाएँगे, इनको तो अपने हक़ के इनकार के बदले में खौलता हुआ पानी पीने को और दर्दनाक अज़ाब भुगतने को मिलेगा।
قُلۡ أَنَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُنَا وَلَا يَضُرُّنَا وَنُرَدُّ عَلَىٰٓ أَعۡقَابِنَا بَعۡدَ إِذۡ هَدَىٰنَا ٱللَّهُ كَٱلَّذِي ٱسۡتَهۡوَتۡهُ ٱلشَّيَٰطِينُ فِي ٱلۡأَرۡضِ حَيۡرَانَ لَهُۥٓ أَصۡحَٰبٞ يَدۡعُونَهُۥٓ إِلَى ٱلۡهُدَى ٱئۡتِنَاۗ قُلۡ إِنَّ هُدَى ٱللَّهِ هُوَ ٱلۡهُدَىٰۖ وَأُمِرۡنَا لِنُسۡلِمَ لِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 66
(71) ऐ नबी! इनसे पूछो: क्या हम अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारें जो न हमें फ़ायदा पहुँचा सकते हैं, न नुक़सान? और जबकि अल्लाह हमें सीधा रास्ता दिखा चुका तो क्या अब हम उलटे पाँव फिर जाएँ? क्या हम अपना हाल उस शख़्स का-सा कर लें जिसे शैतानों ने रेगिस्तान में भटका दिया हो और वह हैरान व परेशान फिर रहा हो? जब कि हाल यह है कि उसके साथी उसे पुकार रहे हों कि इधर आ, यह सीधा रास्ता मौजूद है? कहो : हक़ीक़त में सही रहनुमाई तो सिर्फ़ अल्लाह ही की रहनुमाई है और उसकी तरफ़ से हमें यह हुक्म मिला है कि कायनात के मालिक के आगे फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुका दो,
وَأَنۡ أَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَٱتَّقُوهُۚ وَهُوَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 67
(72) नमाज़ क़ायम करो और उसकी नाफ़रमानी से बचो, उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّۖ وَيَوۡمَ يَقُولُ كُن فَيَكُونُۚ قَوۡلُهُ ٱلۡحَقُّۚ وَلَهُ ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِۚ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 68
(73) वही है जिसने आसमान और ज़मीन को बामक़सद पैदा किया है।46 और जिस दिन वह कहेगा कि हश्र (प्रलय) हो जाए उसी दिन वह हो जाएगा। उसका फ़रमान बिलकुल हक़ है। और जिस दिन सूर फूँका जाएगा47 उस दिन बादशाही उसी की होगी48 वह छिपी और खुली49 हर चीज़ का जाननेवाला है और सूझ-बूझ रखनेवाला और बाख़बर है।
46. क़ुरआन में यह बात जगह-जगह बयान की गई है कि अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों को हक़ पर पैदा किया है या हक़ के साथ पैदा किया है। यह इरशाद अपने अन्दर बहुत-से मानी रखता है। इसका एक मतलब यह है कि ज़मीन और आसमानों की पैदाइश सिर्फ़ खेल के तौर पर नहीं हुई है। यह ईश्वर जी की लीला नहीं है। यह किसी बच्चे का खिलौना नहीं है कि सिर्फ़ दिल बहलाने के लिए वह इससे खेलता रहे और फिर यूँ ही उसे तोड़-फोड़कर फेंक दे। अस्ल में यह एक निहायत संजीदा काम है जो हिकमत की बुनियाद पर किया गया है, एक बहुत बड़ा मक़सद इसके अन्दर काम कर रहा है और इसका एक दौर गुज़र जाने के बाद ज़रूरी है कि बनानेवाला उस पूरे काम का हिसाब ले, जो उस दौर में अंजाम पाया हो और उसी दौर के नतीजों पर दूसरे दौर की बुनियाद रखे। यही बात है जो क़ुरआन में दूसरी जगहों पर इस तरह बयान की गई है– “ऐ हमारे रब, तू ने यह सब कुछ फ़ुज़ूल पैदा नहीं किया है।" “हमने आसमान और ज़मीन और उन चीज़ों को जो आसमान और ज़मीन के दरमियान हैं खेल के तौर पर पैदा नहीं किया है।” और “तो क्या तुमने यह समझ रखा है कि हमने तुम्हें यूँ ही फ़ुज़ूल पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ वापस न लाए जाओगे?" दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह ने कायनात का यह सारा निज़ाम हक़ की ठोस बुनियादों पर क़ायम किया है। इनसाफ़ और हिकमत और सच्चाई के क़ानूनों पर उसकी हर चीज़ का दारोमदार है। बातिल (असत्य) के लिए हक़ीक़त में इस निज़ाम में जड़ पकड़ने और फलने-फूलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यह और बात है कि अल्लाह बातिल-परस्तों को मौक़ा दे दे कि वे अगर अपने झूठ, ज़ुल्म और ग़लत बात को फैलाना और बढ़ाना चाहते हैं तो अपनी कोशिश करके देखें। लेकिन आख़िरकार ज़मीन बातिल के हर बीज को उगल कर फेंक देगी और आख़िरी हिसाब के चिट्टे में हर बातिल-परस्त देख लेगा कि जो कोशिशें उसने इस ख़बीस (बुरे) पौधे की खेती करने और सींचने में लगाईं वे सब बरबाद हो गईं। तीसरा मतलब यह है कि ख़ुदा ने इस सारी कायनात को हक़ की बुनियाद पर क़ायम किया है और अपने ज़ाती हक़ की बुनियाद पर ही वह इसपर हुकूमत कर रहा है। उसका हुक्म यहाँ इसलिए चलता है कि वही अपनी पैदा की हुई कायनात में हुक्मरानी का हक़ रखता है। दूसरों का हुक्म अगर बज़ाहिर चलता नज़र भी आता हो तो उससे धोखा न खाओ, हक़ीक़त में न उनका हुक्म चलता है, न चल सकता है, क्योंकि कायनात की किसी चीज़ पर भी उनका कोई हक़ नहीं है कि वे इसपर अपना हुक्म चलाएँ।
47. सूर फूँकने की सही कैफ़ियत क्या होगी, इसकी तफ़सील हमारी समझ से बाहर है। क़ुरआन से जो कुछ हमें मालूम हुआ है वह सिर्फ़ इतना है कि क़ियामत के दिन अल्लाह के हुक्म से एक बार सूर फूँका जाएगा और सब हलाक हो जाएँगे। फिर न मालूम कितनी मुद्दत के बाद, जिसे अल्लाह ही जानता है, दूसरा सूर फूँका जाएगा और तमाम अगले और पिछले नए सिरे से ज़िन्दा होकर अपने आपको हश्र के मैदान में पाएँगे। पहले सूर पर कायनात का सारा निज़ाम दरहम-बरहम होगा और दूसरे सूर पर एक दूसरा निज़ाम नई सूरत और नए क़ानूनों के साथ क़ायम हो जाएगा।
48. यह मतलब नहीं है कि आज बादशाही उसकी नहीं है, बल्कि मतलब यह है कि उस दिन जब परदा उठाया जाएगा और हक़ीक़त बिलकुल सामने आ जाएगी तो मालूम हो जाएगा कि वे सब जो बा-इख़्तियार नज़र आते थे, या समझे जाते थे, बिलकुल बे-इख़्तियार हैं और बादशाही के सारे इख़्तियार उसी एक ख़ुदा के लिए हैं, जिसने कायनात को पैदा किया है।
49. ग़ैब यानी वह सब कुछ जो मख़लूक़ात (प्राणियों) से छिपा हुआ है। शहादत यानी वह सब कुछ जो मख़लूक़ात के लिए ज़ाहिर और मालूम है।
۞وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ لِأَبِيهِ ءَازَرَ أَتَتَّخِذُ أَصۡنَامًا ءَالِهَةً إِنِّيٓ أَرَىٰكَ وَقَوۡمَكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 69
(74) इबराहीम का वाक़िआ याद करो जबकि उसने अपने बाप आज़र से कहा था, ” क्या तू बुतों को ख़ुदा बनाता है? 50 मैं तो तुझे और तेरी क़ौम को खुली गुमराही में पाता हूँ।”
50. यहाँ हज़रत इबराहीम के वाक़िए का ज़िक्र इस बात की ताईद और गवाही में पेश किया जा रहा है कि जिस तरह अल्लाह की बख़्शी हुई हिदायत से आज मुहम्मद (सल्ल०) ने और आपके साथियों ने शिर्क का इनकार किया है और सब बनावटी ख़ुदाओं से मुँह मोड़कर सिर्फ़ एक मालिके-कायनात के आगे फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुका दिया है उसी तरह कल यही कुछ इबराहीम (अलैहि०) भी कर चुके हैं और जिस तरह आज मुहम्मद (सल्ल०) और उनपर ईमान लानेवालों से उनकी जाहिल क़ौम झगड़ रही है उसी तरह कल हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से भी उनकी क़ौम यही झगड़ा कर चुकी है। और कल जो जवाब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपनी क़ौम को दिया था आज मुहम्मद (सल्ल०) और उनकी पैरवी करनेवालों की तरफ़ से उनकी क़ौम को भी वही जवाब है। मुहम्मद (सल्ल०) उस रास्ते पर हैं जो नूह (अलैहि०) और इबराहीमी नस्ल के तमाम नबियों का रास्ता रहा है। अब जो लोग उनकी पैरवी से इनकार कर रहे हैं उन्हें मालूम हो जाना चाहिए कि वे नबियों के तरीक़े से हटकर गुमराही की राह पर जा रहे हैं। यहाँ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि अरब के लोग आम तौर पर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को अपना पेशवा और इमाम मानते थे। ख़ास तौर से क़ुरैश के लोगों के फ़ख़्र और नाज़ की सारी बुनियाद ही यह थी कि वे इबराहीम (अलैहि०) की औलाद और उनके तामीर किए हुए ख़ुदा के घर (काबा) के ख़ादिम हैं। इसलिए उनके सामने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के तौहीद के अक़ीदे का और शिर्क से उनके इनकार और मुशरिक क़ौम से उनके झगड़े का ज़िक्र करने का मतलब यह था कि क़ुरैश के फ़ख़्र और नाज़ का सारा सरमाया और अरब के इस्लाम-दुश्मनों का अपने मुशरिकाना दीन पर सारा इतमीनान उनसे छीन लिया जाए, और उनपर साबित कर दिया जाए कि आज मुसलमान उस मक़ाम पर हैं जिसपर हज़रत इबराहीम थे और तुम्हारी हैसियत वह है जो हज़रत इबराहीम से लड़नेवाली जाहिल क़ौम की थी। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे कोई शैख़ अब्दुल-क़ादिर जीलानी (रह०) के अक़ीदतमन्दों और क़ादरी नस्ब के पीरज़ादों के सामने हज़रत शैख़ की अस्ल तालीमात और उनकी ज़िन्दगी के वाक़िआत पेश करके यह साबित कर दे कि जिन बुज़ुर्गों के तुम नामलेवा हो, तुम्हारा अपना तरीक़ा उनके बिलकुल ख़िलाफ़ है और तुमने आज उन्हीं गुमराह लोगों की हैसियत इख़्तियार कर ली है जिनके खिलाफ़ तुम्हारे इमाम और पेशवा जिहाद करते रहे।
وَكَذَٰلِكَ نُرِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ مَلَكُوتَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلِيَكُونَ مِنَ ٱلۡمُوقِنِينَ ۝ 70
(75) इबराहीम को हम इसी तरह ज़मीन और आसमानों का निज़ामे-सल्तनत दिखाते थे51 और इसलिए दिखाते थे कि वह यक़ीन करनेवालों में से हो जाए।52
51. यानी जिस तरह तुम लोगों के सामने कायनात की निशानियाँ नुमायाँ हैं और अल्लाह की निशानियाँ तुम्हें दिखाई जा रही हैं, उसी तरह इबराहीम (अलैहि०) के सामने भी यही निशानियाँ थीं। मगर तुम लोग उन्हें देखने पर भी अन्धों की तरह कुछ नहीं देखते और इबराहीम (अलैहि०) ने उन्हें आँखें खोलकर देखा। यही सूरज और चाँद और तारे जो तुम्हारे सामने निकलते और डूबते हैं और रोज़ाना तुमको जैसा गुमराह निकलते वक़्त पाते हैं वैसा ही डूबते वक़्त छोड़ जाते हैं, इन्हीं को उस आँखोंवाले इनसान ने भी देखा था और इन्हीं निशानियों से वह हक़ीक़त तक पहुँच गया।
52. इस जगह को और क़ुरआन की उन दूसरी जगहों को जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से उनकी क़ौम के झगड़े का ज़िक्र आया है, अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम के मज़हबी और तमद्दुनी (सांस्कृतिक) हालात पर एक नज़र डाल ली जाए। नए ज़माने की ख़ोजों और तहक़ीक़ात के सिलसिले में न सिर्फ़ वह शहर मालूम हो गया है जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पैदा हुए थे, बल्कि इबराहीमी दौर में उस इलाक़े के लोगों की जो हालत थी उसपर भी बहुत कुछ रौशनी पड़ी है। सर ल्यूनार्ड वूली (Sir Leonard Wooly) ने अपनी किताब Abraham, London, 1935 में इस तहक़ीक़त के जो नतीजे शाया (प्रकाशित) किए हैं उनका ख़ुलासा हम यहाँ बयान कर रहे हैं। अन्दाज़ा किया गया है कि लगभग 2100 ईसा पूर्व के ज़माने में, जिसे अब आम तौर पर तहक़ीक़ और खोज करनेवाले तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दुनिया में आने का ज़माना मानते हैं, उर शहर की आबादी ढाई लाख के क़रीब थी और नामुमकिन नहीं है कि पाँच लाख हो। यह शहर बड़ा सनअती (औद्योगिक) और तिजारती मर्कज़ था। एक तरफ़ पामेर और नीलगिरी तक से वहाँ माल आता था और दूसरी तरफ़ अनातूलिया तक से इसके तिज़ारती ताल्लुक़ात थे। जिस रियासत का यह सदर मक़ाम (केन्द्र) था उसकी हदें इराक़ की मौजूदा हुकूमत से उत्तर में कुछ कम और पश्चिम में कुछ ज़्यादा थीं। मुल्क की आबादी ज़्यादातर उद्योग-धन्धे और तिज़ारत करती थी। उस दौर की जो तहरीरें (लेख) आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व) के खण्डहरों में मिले हैं उनसे मालूम होता है कि ज़िन्दगी में उन लोगों का नज़रिया ख़ालिस माद्दापरस्ताना (भौतिकवादी) था। दौलत कमाना और ज़्यादा-से-ज़्यादा ऐशो-आराम जुटाना उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा मक़सद था। सूदख़ोरी ख़ूब फैली हुई थी। सख़्त कारोबारी क़िस्म के लोग थे। हर एक-दूसरे को शक की निगाह से देखता था और आपस में मुक़द्दमेबाज़ियाँ बहुत होती थीं। अपने ख़ुदाओं से उनकी दुआएँ ज़्यादातर उम्र के लम्बे होने, ख़ुशहाली और कारोबार की तरक़्क़ी के बारे में हुआ करती थीं। आबादी में तीन तबक़े शामिल थे— 1. अमीलो : ये ऊँचे तबक़े के लोग थे जिनमें पुजारी, हुकूमत के ओहदेदार और फ़ौजी अफ़सर वग़ैरा शामिल थे। 2. मिसकीनो : ये तिजारत पेशा, कारख़ानेदार और खेती करनेवाले लोग थे। 3. अरदो : यानी ग़ुलाम। इनमें से पहले तबक़े यानी अमीलो को ख़ास इम्तियाज़ी हैसियत हासिल थी। उनके फ़ौजदारी और दीवानी हक़ दूसरों से मुख़्तलिफ़ थे। और उनकी जान-माल की क़ीमत दूसरों से बढ़कर थी। यह शहर और यह समाज था जिसमें हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने आँखें खोली। उनका और उनके ख़ानदान का जो हाल हमें तलमूद में मिलता है उससे मालूम होता है कि वे अमीलो तबक़े के एक व्यक्ति थे और उनका बाप रियासत का सबसे बड़ा ओहदेदार था। (देखें सूरा-2 अल-बक़रा, हाशिया-290) उर के कतबात (शिलालेखों) में लगभग पाँच हज़ार ख़ुदाओं के नाम मिलते हैं। मुल्क के मुख़्तलिफ़ शहरों के अलग-अलग ख़ुदा थे। हर शहर का एक ख़ास मुहाफ़िज़ ख़ुदा होता था जो रब्बुल-बलद (शहर का पालनकर्ता और शासक) महादेव या रईसुल-आलिहा (देवताओं का प्रमुख) समझा जाता था और उसका एहतिराम दूसरे माबूदों से ज़्यादा होता था। उर का रब्बुल-बलद 'नन्नार' (चाँद-देवता) था और इसी ताल्लुक़ से बाद के लोगों ने इस शहर का नाम 'क़मरीना' भी लिखा है। दूसरा बड़ा शहर लरसा था जो बाद में उर के बजाय रियासत का मर्कज़ बना। उसका रब्बुल-बलद 'शमाश' (सूर्य देवता) था। इन बड़े ख़ुदाओं के मातहत बहुत-से छोटे ख़ुदा भी थे जो ज़्यादा तर आसमानी तारों और सैयारों (ग्रहों) में से और कमतर ज़मीन से चुने गए थे। और लोग अपनी बहुत-सी छोटी-मोटी ज़रूरतों को उनसे मुताल्लिक़ समझते थे। इन आसमानी और ज़मीनी देवताओं और देवियों की शक्ल-सूरत बुतों की शक्ल में बना ली गई थीं और इबादतों के तमाम तरीक़े उन्हीं के आगे पूरे किए जाते थे। 'नन्नार' का बुत उर में सबसे ऊँची पहाड़ी पर एक आलीशान इमारत में रखा हुआ था। इसी के करीब 'नन्नार' की बीवी ‘निन गल' का माबद (पूजास्थल) था। नन्नार के माबद की शान एक शाही महल-सरा की-सी थी। उसकी ख़ाबगाह (शयन कक्ष) में रोजाना रात को एक पुजारिन जाकर उसकी दुल्हन बनती थी। मन्दिर में बहुत-सी औरतें देवता के नाम पर वक़्फ़ थीं और उनकी हैसियत देवदासियों (Religious Prostitutes) की-सी थी। वह औरत बड़ी इज़्ज़तवाली समझी जाती थी जो 'ख़ुदा' के नाम पर अपनी बकारत (क़ौमार्य) क़ुरबान कर दे। कम-से-कम एक बार अपने आपको 'ख़ुदा की राह' में किसी अजनबी के हवाले करना औरत के लिए नजात का ज़रिआ समझा जाता था। अब यह बयान करना कुछ ज़रूरी नहीं कि इस मज़हबी तवाइफ़गीरी (वेश्यावृत्ति) से फ़ायदा उठानेवाले ज़्यादा तर पुजारी लोग ही होते थे। नन्नार सिर्फ़ एक देवता ही न था, बल्कि मुल्क का सबसे बड़ा ज़मींदार, सबसे बड़ा ताजिर, सबसे बड़ा कारख़ानेदार और मुल्क की सियासी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा हाकिम भी था। बहुत- से बाग़, मकान और ज़मीनें इस मन्दिर के लिए वक़्फ़ थीं। इस जायदाद की आमदनी के अलावा किसान, ज़मींदार, ताजिर, सब हर क़िस्म के ग़ल्ले, दूध, सोना, कपड़ा और दूसरी चीज़ें लाकर मन्दिर में नज़्र भी करते थे, जिन्हें वुसूल करने के लिए मन्दिर में एक बहुत बड़ा स्टाफ़ मौजूद था। बहुत-से कारख़ाने मन्दिर के मातहत क़ायम थे। तिजारती कारोबार भी बहुत बड़े पैमाने पर मन्दिर की तरफ़ से होता था। ये सब काम देवता के नुमाइन्दे होने की हैसियत से पुजारी ही करते थे। फिर मुल्क की सबसे बड़ी अदालत मन्दिर ही में थी। पुजारी उसके जज थे और उनके फ़ैसले ख़ुदा के फ़ैसले समझे जाते थे। ख़ुद शाही ख़ानदान की हाकिमियत भी नन्नार ही से ली गई थी। अस्ल बादशाह नन्नार था और मुल्क का बादशाह उसकी तरफ़ से हुकूमत करता था। इस ताल्लुक़ से बादशाह ख़ुद भी माबूदों में शामिल हो जाता था और ख़ुदाओं के जैसी उसकी पूजा की जाती थी। उर का शाही ख़ानदान जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ज़माने में हुकमराँ था, उसके सबसे पहले बानी (संस्थापक) का नाम उर नमूव था जिसने 2300 ईसा पूर्व में एक बड़ी सल्तनत क़ायम की थी। उसकी सल्तनत की हदें पूरब में ‘सूसा’ से लेकर पश्चिम में लुब्नान तक फैली हुई थीं। उसी से इस ख़ानदान को 'नमूव' का नाम मिला जो अरबी में जाकर नमरूद हो गया। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की हिजरत के बाद इस ख़ानदान और इस क़ौम पर लगातार तबाही नाज़िल होनी शुरू हुई। पहले ईलामियों ने उर को तबाह किया और नमरूद को नन्नार के बुत समेत पकड़ कर ले गए। फिर लरसा में एक ईलामी हुकूमत क़ायम हुई, जिसके मातहत उर का इलाक़ा ग़ुलाम की हैसियत से रहा। आख़िरकार एक अरबी नस्ल के ख़ानदान के मातहत बाबिल ने ज़ोर पकड़ा और लरसा और उर दोनों उसकी हुकूमत के तहत आ गए। इन तबाहियों ने नन्नार के साथ उर के लोगों का अक़ीदा डगमगा दिया, क्योंकि वह उनकी हिफ़ाज़त न कर सका। यक़ीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि बाद के दौर में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की तालीमात का असर इस मुल्क के लोगों ने कहाँ तक क़ुबूल किया। लेकिन 1910 ईसा पूर्व में बाबिल के बादशाह हम्मूरावी (बाइबल के अम्राफ़ील) ने जो क़ानून बनाए थे वे गवाही देते हैं कि सीधे तौर पर या किसी दूसरे ज़रिए से उनके मुरत्तब किए जाने में नुबूवत के चिराग़ से हासिल की हुई रौशनी किसी हद तक ज़रूर कारफ़रमा थी। इन क़ानूनों का तफ़सीली कतबा (शिलालेख) 1902 ई० में आसारे-क़दीमा के एक फ़्रांसीसी खोजी को मिला और उसका अंग्रेज़ी तर्जमा CH.W JoHN ने 1903 ई० में The oledst Code of Law के नाम से शाया किया। इस क़ानूनी ज़ाब्ते के बहुत-से उसूल क़ानूनों के इस ज़ाब्ते में बहुत-सी उन असली और दूसरी बातें हज़रत मूसा (अलैहि०) की शरीअत से मेल रखनेवाली हैं। ये अब तक के नई तहक़ीक़त के नतीजे अगर सही हैं तो उनसे यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम में शिर्क सिर्फ़ एक मज़हबी अक़ीदे और बुत-परस्ताना इबादात का मजमुआ ही न था, बल्कि हक़ीक़त में उस क़ौम की पूरी मआशी (आर्थिक), तमहद्दुनी (सांस्कृतिक), सियासी और समाजी ज़िन्दगी का निज़ाम उसी अक़ीदे की बुनियाद पर था। उसके मुक़ाबले में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) तौहीद की जो दावत लेकर उठे थे, उसका असर सिर्फ़ बुतों की पूजा ही पर नहीं पड़ता था, बल्कि शाही ख़ानदान की माबूदियत और हाकमियत, पुजारियों और ऊँचे तबक़ों की समाजी, मआशी और सियासी हैसियत, और पूरे मुल्क की इज्तिमाई ज़िन्दगी उसकी चपेट में आई जाती थी। उनकी दावत को क़ुबूल करने का मतलब यह था कि नीचे से ऊपर तक सारी सोसाइटी की इमारत उधेड़ डाली जाए और उसे नए सिरे से अल्लाह की तौहीद की बुनियाद पर तामीर किया जाए। इसी लिए इबराहीम (अलैहि०) की आवाज़ बुलन्द होते ही आम लोग और ख़ास लोग, पुजारी और नमरूद सबके सब एक ही वक़्त में उसको दबाने के लिए खड़े हो गए।
فَلَمَّا جَنَّ عَلَيۡهِ ٱلَّيۡلُ رَءَا كَوۡكَبٗاۖ قَالَ هَٰذَا رَبِّيۖ فَلَمَّآ أَفَلَ قَالَ لَآ أُحِبُّ ٱلۡأٓفِلِينَ ۝ 71
(76) चुनाँचे जब रात उस पर छा गई तो उसने एक तारा देखा। कहा : यह मेरा रब है। मगर जब वह डूब गया तो बोला : डूब जानेवालों का तो मैं चाहनेवाला नहीं हूँ।
فَلَمَّا رَءَا ٱلۡقَمَرَ بَازِغٗا قَالَ هَٰذَا رَبِّيۖ فَلَمَّآ أَفَلَ قَالَ لَئِن لَّمۡ يَهۡدِنِي رَبِّي لَأَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 72
(77) फिर जब चाँद चमकता नज़र आया तो कहा : यह है मेरा रब। मगर जब वह भी डूब गया तो कहा : अगर मेरे रब ने मेरी रहनुमाई न की होती तो मैं भी गुमराह लोगों में शामिल हो गया होता।
فَلَمَّا رَءَا ٱلشَّمۡسَ بَازِغَةٗ قَالَ هَٰذَا رَبِّي هَٰذَآ أَكۡبَرُۖ فَلَمَّآ أَفَلَتۡ قَالَ يَٰقَوۡمِ إِنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 73
(78) फिर जब सूरज को रौशन देखा तो कहा : यह है मेरा रब, यह सबसे बड़ा है। मगर जब वह भी डूबा तो इबराहीम पुकार उठा कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं उन सबसे बेज़ार (विरक्त) हूँ जिन्हें तुम ख़ुदा का शरीक ठहराते हो।53
53. यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के उस शुरू के फ़िक्र (चिन्तन) की कैफ़ियत बयान की गई है। जो उन्हें पैग़म्बर बनाए जाने से पहले उनके लिए हक़ीक़त तक पहुँचने का ज़रिआ बनी। इसमें बताया गया है कि एक सही दिमाग़ रखनेवाला और सही अन्दाज़ से देखनेवाला इनसान जिसने सरासर शिर्क के माहौल में आँखें खोली थीं, और जिसे तौहीद की तालीम कहीं से हासिल नहीं हो सकती थी, किस तरह कायनात की निशानियों को देखकर और उनपर ग़ौर और फ़िक्र करके और उनसे सही तौर पर चीज़ को साबित करके हक़ बात मालूम करने में कामयाब हो गया। ऊपर इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम के जो हालात बयान किए गए हैं उन पर एक नज़र डालने से यह मालूम हो जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब होश संभाला था तो उनके आसपास हर तरफ़ चाँद, सूरज और तारों की ख़ुदाई के डंके बज रहे थे। इसलिए क़ुदरती तौर पर हक़ीक़त को तलाश करने की हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की कोशिश करने की शुरुआत इसी सवाल से होना चाहिए थी कि क्या हक़ीक़त में इनमें से कोई रब हो सकता है? इसी मर्कज़ी सवाल पर उन्होंने ग़ौर-फ़िक्र किया और आख़िरकार अपनी क़ौम के सारे ख़ुदाओं को एक अटल क़ानून के तहत ग़ुलामों की तरह गर्दिश करते देखकर वे इस नतीजे पर पहुँच गए कि जिन-जिन के रब होने का दावा किया जाता है उनमें से किसी के अन्दर भी रब होने का शायबा (अंश) तक नहीं है, रब तो सिर्फ़ वही एक है जिसने इन सबको पैदा किया और बन्दगी पर मजबूर किया। इस क़िस्से के अलफ़ाज़ से आम तौर पर लोगों के ज़ेहन में एक शुब्हाा पैदा होता है। यह जो कहा गया है कि जब रात छाई उसने एक तारा देखा, और जब वह डूब गया तो यह कहा, फिर चाँद को देखा और जब वह डूब गया तो यह कहा, फिर सूरज को देखा और जब वह भी डूब गया तो यह कहा, इसपर एक आम आदमी के ज़ेहन में फ़ौरन यह सवाल खटकता है कि क्या बचपन से आँख खोलते ही रोज़ाना हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पर रात छाती न रही थी। और क्या वे हर दिन चाँद, तारों और सूरज को निकलते और डूबते न देखते थे? ज़ाहिर है कि यह ग़ौर और फ़िक्र तो उन्होंने समझ-बूझ की उम्र को पहुँचने के बाद ही किया होगा। फिर यह क़िस्सा इस तरह क्यों बयान किया गया है कि जब रात हुई तो यह देखा और दिन निकला तो यह देखा? मानो इस ख़ास वाक़िए से पहले उन्हें ये चीज़ें देखने का इत्तिफ़ाक़ न हुआ था, हालाँकि ऐसा होना बिलकुल नामुमकिन है। यह शक कुछ लोगों के लिए इस क़द्र नाक़ाबिले-हल बन गया कि इसे हल करने की कोई सूरत उन्हें इसके सिवा नज़र न आई कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पैदाइश और परवरिश के बारे में एक ग़ैर-मामूली क़िस्सा गढ़ लें। चुनाँचे बयान किया जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पैदाइश और परवरिश एक गुफा में हुई थी, जहाँ समझने-बूझने की उम्र को पहुँचने तक वे चाँद, तारों और सूरज को देखने से महरूम रखे गए थे। हालाँकि बात बिलकुल साफ़ है और इसको समझने के लिए इस तरह की किसी दास्तान की ज़रूरत नहीं है। न्यूटन के बारे में मशहूर है कि उसने बाग़ में एक सेब को पेड़ से गिरते हुए देखा और इससे उसका ज़ेहन अचानक इस सवाल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया कि चीज़ें आख़िर ज़मीन पर ही क्यों गिरा करती हैं, यहाँ तक कि ग़ौर करते-करते वह क़ानूने जज़्बो-कशिश (गुरुत्त्वाकर्षण नियम) की खोज तक पहुँच गया। सवाल पैदा होता है कि क्या इस वाक़िए से पहले न्यूटन ने कभी कोई चीज़ ज़मीन पर गिरते नहीं देखी थी? ज़ाहिर है कि ज़रूर देखी होगी और बहुत-बार देखी होगी फिर क्या वजह है कि उसी ख़ास तारीख़ को सेब गिरते गिरते हुए देखने से न्यूटन के ज़ेहन में वह हरकत पैदा हुई जो उससे पहले रोज़ाना के ऐसे सैकड़ों वाक़िओं को देखने से न हुई थी? इसका जवाब अगर कुछ हो सकता है तो यही कि ग़ौर और फ़िक्र करनेवाला ज़ेहन हमेशा एक तरह के वाक़िओं को देखने से एक ही तरह मुतास्सिर नहीं हुआ करता। बहुत बार ऐसा होता है कि आदमी एक चीज़ को हमेशा देखता रहता है और उसके ज़ेहन में कोई हरकत पैदा नहीं होती, मगर एक वक़्त उसी चीज़ को देखकर अचानक ज़ेहन में एक खटक पैदा हो जाती है जिससे फ़िक्र की क़ुव्वतें एक ख़ास मज़मून की तरफ़ काम करने लगती हैं। या पहले से किसी सवाल की तहक़ीक़ और खोज में ज़ेहन उलझ रहा होता है। और यकायक रोज़ाना दिखने में आनेवाली चीज़ों में से किसी एक चीज़ पर नज़र पड़ते ही गुत्थी का वह सिरा हाथ लग जाता है जिस से सारी उलझनें सुलझती चली जाती हैं। ऐसा ही मामला हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ भी पेश आया। रातें रोज़ आती थीं और गुज़र जाती थीं। सूरज और चाँद और तारे सब ही आँखों के सामने डूबते और उभरते रहते थे। लेकिन वह एक ख़ास दिन था जब एक तारे के देखने ने उनके ज़ेहन को उस राह पर डाल दिया जिससे आख़िरकार वे एक अल्लाह की मर्कज़ी हक़ीक़त तक पहुँचकर रहे। मुमकिन है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का ज़ेहन पहले से इस सवाल पर ग़ौर कर रहा हो कि जिन अक़ीदों पर सारी क़ौम की ज़िन्दगी का निज़ाम चल रहा है उनमें किस हद तक सच्चाई है और फिर एक तारा यकायक सामने आकर कामयाबी की कुंजी बन गया हो। और यह भी मुमकिन है कि तारे को देखने ही से ज़ेहनी हरकत की शुरुआत हुई हो। इस सिलसिले में एक और सवाल भी पैदा होता है। वह यह कि जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तारे को देखकर कहा यह मेरा रब है, और जब चाँद और सूरज को देखकर उन्हें अपना रब कहा, तो क्या उस वक़्त वक़्ती तौर पर ही सही वे शिर्क में पड़ गए थे? इसका जवाब यह है कि हक़ की तलब रखनेवाला एक आदमी अपनी जुस्तजू की राह में सफ़र करते हुए बीच की जिन मंजिलों पर सोच-विचार के लिए ठहरता है, अस्ल एतिबार उन मंज़िलों का नहीं होता, बल्कि अस्ल एतिबार उस सम्त का होता है जिसपर वह आगे बढ़ रहा है और उस आख़िरी मक़ाम का होता है जहाँ पहुँचकर वह क़ियाम करता है। बीच की मंज़िलें हक़ के हर चाहनेवाले के लिए बहुत ही ज़रूरी हैं। उनपर ठहरना तलब और जुस्तजू के सिलसिले में होता है, न कि फ़ैसले की सूरत में। अस्ल में यह ठहराव समझने और खोजबीन करने के लिए हुआ करता है, न कि फ़ैसले के रूप में। एक खोजी आदमी जब इनमें से किसी मंजिल पर रुक कर कहता है कि “ऐसा है” तो अस्ल में यह उसकी आख़िरी राय नहीं होती, बल्कि इसका मतलब यह होता है कि “ऐसा है?” और तहक़ीक़ व खोज से उसका जवाब 'नहीं' में पाकर वह आगे बढ़ जाता है। इसलिए यह ख़याल करना बिलकुल ग़लत है कि बीच रास्ते में जहाँ-जहाँ वह ठहरता रहा, वहाँ वह वक़्ती तौर पर कुफ़्र या शिर्क में पड़ा रहा।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَمۡ يَلۡبِسُوٓاْ إِيمَٰنَهُم بِظُلۡمٍ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمُ ٱلۡأَمۡنُ وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 74
(82) हक़ीक़त में तो अम्न उन ही के लिए है और सीधे रास्ते पर वही हैं जो ईमान लाए। और जिन्होंने अपने ईमान में ज़ुल्म की मिलावट नहीं की।"55
55. यह पूरी तक़रीर इस बात पर गवाह है कि वह क़ौम आसमानों और ज़मीन को पैदा करनेवाले अल्लाह की हस्ती की इनकारी न थ, बल्कि उसका असली जुर्म अल्लाह के साथ दूसरों को ख़ुदाई सिफ़ात और ख़ुदावन्दाना हुक़ूक़ में शरीक क़रार देना था। पहले तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ख़ुद ही फ़रमा रहे हैं कि तुम अल्लाह के साथ दूसरी चीज़ों को शरीक करते हो। दूसरे जिस तरह आप इन लोगों को ख़िताब करते हुए अल्लाह का ज़िक्र करते हैं, बयान का यह अन्दाज़ सिर्फ़ उन्हीं लोगों के मुक़ाबले में इख़्तियार किया जा सकता है जो अल्लाह के वुजूद का इनकार न करते हों। इसलिए क़ुरआन के उन मुफ़स्सिरों की राय दुरुस्त नहीं है जिन्होंने इस मक़ाम पर और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सिलसिले में दूसरे मक़ामात पर क़ुरआन के बयानों की तफ़सीर इस ख़याली बात पर की है कि इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम अल्लाह का इनकार करती थी या उसको जानती ही नहीं थी और सिर्फ़ अपने माबूदों ही को पूरे तौर पर ख़ुदाई का मालिक समझती थी। आख़िरी आयत में यह जो जुमला है कि “जिन्होंने अपने ईमान में ज़ुल्म की मिलावट नहीं की” इसमें लफ़्ज़ ज़ुल्म से कुछ सहाबा को ग़लतफ़हमी हुई थी कि शायद इससे मुराद गुनाह है। लेकिन नबी (सल्ल०) ने ख़ुद बता दिया दी कि अस्ल में यहाँ ज़ुल्म से मुराद शिर्क है। इसलिए इस आयत का मतलब यह हुआ कि जो लोग अल्लाह को मानें और अपने इस मानने में किसी मुशरिकाना अक़ीदे और अमल की मिलावट न करें, अमन सिर्फ़ उन्हीं के लिए है और वही सीधे रास्ते पर हैं। इस मौक़े पर यह जान लेना भी दिलचस्पी से ख़ाली न होगा कि यह वाक़िआ जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की अज़ीमुश्शान पैग़म्बराना ज़िन्दगी का शुरुआती नुक्ता है, बाइबल में कोई जगह नहीं पा सका है। अलबत्ता तलमूद में इसका ज़िक्र मौजूद है। लेकिन इसमें दो बातें क़ुरआन से अलग हैं। एक यह कि वह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की हक़ीक़त की जुस्तजू को शुरू करके तारों तक और फिर ख़ुदा तक ले जाती है। दूसरे उसका बयान है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने जब सूरज को 'हाज़ा रब्बी' (यह मेरा रब है) कहा तो साथ ही उसकी पूजा भी कर डाली और इसी तरह चाँद को भी उन्होंने 'हाज़ा रब्बी' कहकर उसकी पूजा की।
وَتِلۡكَ حُجَّتُنَآ ءَاتَيۡنَٰهَآ إِبۡرَٰهِيمَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 75
(83) यह थी हमारी वह हुज्जत (तर्क) जो हमने इबराहीम को उसकी क़ौम के मुक़ाबले में अता की। हम जिसे चाहते हैं बुलन्द मर्तबे अता करते हैं। हक़ यह है कि तुम्हारा रब निहायत सूझ-बूझवाला और इल्म रखनेवाला है।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۚ كُلًّا هَدَيۡنَاۚ وَنُوحًا هَدَيۡنَا مِن قَبۡلُۖ وَمِن ذُرِّيَّتِهِۦ دَاوُۥدَ وَسُلَيۡمَٰنَ وَأَيُّوبَ وَيُوسُفَ وَمُوسَىٰ وَهَٰرُونَۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 76
(84) फिर हमने इबराहीम को इसहाक़ और याक़ूब जैसी औलाद दी और हर एक को सीधी राह दिखाई। (वही सीधी राह) जो इससे पहले नूह को दिखाई थी और उसी की नस्ल से हमने दाऊद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ़, मूसा और हारून को (हिदायत बख़्शी)। इस तरह हम नेकी करनेवालों को उनकी नेकी का बदला देते हैं।
وَزَكَرِيَّا وَيَحۡيَىٰ وَعِيسَىٰ وَإِلۡيَاسَۖ كُلّٞ مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 77
(85) (उसी की औलाद से) ज़करिय्या, यहया, ईसा और इलयास को (राह दिखाई) हर एक उनमें से नेक था।
وَإِسۡمَٰعِيلَ وَٱلۡيَسَعَ وَيُونُسَ وَلُوطٗاۚ وَكُلّٗا فَضَّلۡنَا عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 78
(86) (उसी के ख़ानदान से) इसमाईल, अल-यसअ, यूनुस और लूत को (रास्ता दिखाया)। इनमें से हर एक को हमने तमाम दुनियावालों पर फ़ज़ीलत (बड़ाई) अता की।
وَمِنۡ ءَابَآئِهِمۡ وَذُرِّيَّٰتِهِمۡ وَإِخۡوَٰنِهِمۡۖ وَٱجۡتَبَيۡنَٰهُمۡ وَهَدَيۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 79
(87) इसी के साथ उनके बाप-दादा और उनकी औलाद और उनके भाई-बन्दों में से बहुतों को हमने नवाज़ा, उन्हें अपनी ख़िदमत के लिए चुन लिया और सीधे रास्ते की तरफ़ उनकी रहनुमाई की।
ذَٰلِكَ هُدَى ٱللَّهِ يَهۡدِي بِهِۦ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۚ وَلَوۡ أَشۡرَكُواْ لَحَبِطَ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 80
(88) यह अल्लाह की हिदायत है जिसके साथ वह अपने बन्दों में से जिसकी चाहता है रहनुमाई करता है। लेकिन अगर कहीं उन लोगों ने शिर्क किया होता तो उनका सब किया-कराया बरबाद हो जाता 56
56. यानी जिस शिर्क में तुम लोग पड़े हुए हो अगर कहीं वे भी इसी में पड़े हुए होते तो ये मर्तबे हरगिज़ नहीं पा सकते थे। मुमकिन था कि कोई आदमी कामयाब डाका डालकर फ़ातेह (विजयी) की हैसियत से दुनिया में शोहरत पा लेता, या माल की पूजा में कमाल पैदा करके क़ारून का-सा नाम पैदा कर लेता, या किसी और सूरत से दुनिया के बदकारों में नामवर बदकार बन जाता। लेकिन हिदायत के काम और नेक और परहेज़गार लोगों के रहनुमा होने का यह इज्ज़तवाला मकाम और यह दुनिया भर के लिए भलाई और कामयाबी का सरचश्मा (स्रोत) होने का यह मक़ाम तो कोई भी नहीं पा सकता अगर शिर्क से दूर और ख़ालिस ख़ुदापरस्ती की राह पर मज़बूती से जमा न होता।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَۚ فَإِن يَكۡفُرۡ بِهَا هَٰٓؤُلَآءِ فَقَدۡ وَكَّلۡنَا بِهَا قَوۡمٗا لَّيۡسُواْ بِهَا بِكَٰفِرِينَ ۝ 81
(89) वे लोग थे जिनको हमने किताब और हुक्म और नुबूवत57 अता की थी। अब अगर ये लोग इसको मानने से इनकार करते हैं तो (परवाह नहीं) हमने कुछ और लोगों को यह नेमत सौंप दी है जो उसके इनकारी नहीं हैं।58
57. यहाँ नबियों को तीन चीज़ें दिए जाने का ज़िक्र किया गया है। एक किताब यानी अल्लाह का हिदायतनामा, दूसरे हुक्म यानी उस हिदायतनामे की सही समझ और उसके उसूलों को ज़िन्दगी के मामलों पर चस्पा और लागू करने की सलाहियत और ज़िन्दगी के मसलों में फ़ैसलाकुन राय क़ायम करने की अल्लाह की दी हुई क़ाबिलियत। तीसरे नुबूवत, यानी यह मंसब कि वह उस हिदायतनामे के मुताबिक़ अल्लाह के बन्दों की रहनुमाई करें।
58. मतलब यह है कि अगर ये ख़ुदा का इनकार करनेवाले और मुशरिक लोग अल्लाह की इस हिदायत को क़ुबूल करने से इनकार करते हैं तो कर दें, हमने ईमानवालों का एक ऐसा गरोह पैदा कर दिया है जो इस नेमत की क़द्र करनेवाला है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ هَدَى ٱللَّهُۖ فَبِهُدَىٰهُمُ ٱقۡتَدِهۡۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًاۖ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرَىٰ لِلۡعَٰلَمِينَ ۝ 82
(90) ऐ नबी! वही लोग अल्लाह की तरफ़ से हिदायत पाए हुए थे, इन ही के रास्ते पर तुम चलो, और कह दो कि मैं (इस तबलीग़ और हिदायत के) काम पर तुमसे कोई बदला नहीं चाहता हूँ। यह तो एक आम नसीहत है तमाम दुनियावालों के लिए।
وَمَا قَدَرُواْ ٱللَّهَ حَقَّ قَدۡرِهِۦٓ إِذۡ قَالُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ عَلَىٰ بَشَرٖ مِّن شَيۡءٖۗ قُلۡ مَنۡ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ ٱلَّذِي جَآءَ بِهِۦ مُوسَىٰ نُورٗا وَهُدٗى لِّلنَّاسِۖ تَجۡعَلُونَهُۥ قَرَاطِيسَ تُبۡدُونَهَا وَتُخۡفُونَ كَثِيرٗاۖ وَعُلِّمۡتُم مَّا لَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنتُمۡ وَلَآ ءَابَآؤُكُمۡۖ قُلِ ٱللَّهُۖ ثُمَّ ذَرۡهُمۡ فِي خَوۡضِهِمۡ يَلۡعَبُونَ ۝ 83
(91) इन लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अन्दाज़ा लगाया जब कहा कि अल्लाह ने किसी बशर (इनसान) पर कुछ नहीं उतारा है।59 इनसे पूछो फिर वह किताब जिसे मूसा लाया था, जो तमाम इनसानों के लिए रौशनी और हिदायत थी, जिसे तुम पारा-पारा करके रखते हो, कुछ दिखाते हो और बहुत कुछ छिपा जाते हो, और जिसके ज़रिए से तुमको वह इल्म दिया गया जो न तुम्हें हासिल था और न तुम्हारे बाप-दादा को, आख़िर उसका उतारनेवाला कौन था?60 — बस इतना कह दो कि अल्लाह, फिर उन्हें अपनी दलीलबाज़ियों से खेलने के लिए छोड़ दो।
59. बयान के पिछले सिलसिले (वार्ताक्रम) और बाद की जवाबी तक़रीर से साफ़ मालूम होता है कि यह क़ौल यहूदियों का था। चूँकि नबी (सल्ल०) का दावा यह था कि में नबी हूँ और मुझपर किताब उतरी है, इसलिए क़ुदरती तौर पर क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन और अरब के दूसरे मुशरिक इस दावे की तहक़ीक़ के लिए यहूदियों और ईसाइयों की तरफ़ पलटते थे और उनसे पूछते थे कि तुम भी किताबवाले हो, पैग़म्बरों को मानते हो, बताओ क्या वाक़ई उस आदमी पर अल्लाह का कलाम उतरा है? फिर जो कुछ जवाब वे देते उसे नबी (सल्ल०) के सरगर्म मुख़ालिफ़ जगह-जगह बयान करके लोगों को भड़काते फिरते थे। इसी लिए यहाँ यहूदियों की इस बात को, जिसे इस्लाम के मुख़ालिफ़ों ने हुज्जत (दलील) बना रखा था, नक़्ल करके उसका जवाब दिया जा रहा है। शुब्हाा किया जा सकता है कि एक यहूदी जो ख़ुद तौरात को ख़ुदा की तरफ़ से उतरी हुई किताब मानता है, यह कैसे कह सकता है कि ख़ुदा ने किसी इनसान पर कुछ नहीं उतारा। लेकिन यह शुब्हाा सही नहीं है, इसलिए कि ज़िद और हठधर्मी की बुनियाद पर कभी-कभी आदमी किसी दूसरे की सच्ची बातों को रद्द करने के लिए ऐसी बातें भी कह जाता है जिनसे ख़ुद उसकी अपनी तस्लीमशुदा सच्चाइयों पर भी चोट पड़ जाती है। ये लोग मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत को रद्द करने पर तुले हुए थे और अपनी मुख़ालफ़त के जोश में इतने अन्धे हो जाते थे कि नबी (सल्ल०) की रिसालत को रद्द करते-करते ख़ुद रिसालत ही को मानने से इनकार कर देते थे। और यह जो फ़रमाया कि लोगों ने अल्लाह का बहुत ग़लत अन्दाज़ा लगाया जब यह कहा, तो इसका मतलब यह है कि उन्होंने अल्लाह की हिकमत और उसकी क़ुदरत का अन्दाज़ा करने में ग़लती की है। जो आदमी यह कहता है कि ख़ुदा ने किसी इनसान पर हक़ का इल्म और ज़िन्दगी के लिए कोई हिदायतनामा नहीं उतारा है वह या तो इनसान पर वह्य के उतरने को नामुमकिन समझता है और यह ख़ुदा की क़ुदरत का ग़लत अन्दाज़ा है, या फिर वह यह समझता है कि ख़ुदा ने इनसान को सूझ-बूझ के हथियार और इस्तेमाल करने के इख़्तियारात तो दे दिए, मगर उसकी सही रहनुमाई का कोई इन्तिज़ाम न किया, बल्कि उसे दुनिया में अन्धाधुन्ध काम करने के लिए यूँ ही छोड़ दिया और यह ख़ुदा की हिकमत का ग़लत अन्दाज़ा है।
60. यह जवाब चूँकि यहूदियों को दिया जा रहा है इसलिए मूसा (अलैहि०) पर तौरात के उतरने को दलील के तौर पर पेश किया गया है, क्योंकि वे ख़ुद इसके क़ायल थे। ज़ाहिर है कि उनका यह तस्लीम करना कि हज़रत मूसा पर तौरात उतरी थी, उनके इस क़ौल की आप से आप तरदीद (खंडन) कर देता है कि ख़ुदा ने किसी इनसान पर कुछ नहीं उतारा। इसी के साथ कम-से-कम इतनी बात तो साबित हो जाती है कि इनसान पर ख़ुदा का कलाम उतर सकता है और उतर चुका है।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ مُّصَدِّقُ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَلِتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَاۚ وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۖ وَهُمۡ عَلَىٰ صَلَاتِهِمۡ يُحَافِظُونَ ۝ 84
(92) (उसी किताब की तरह) यह एक किताब है जिसे हमने उतारा है। बड़ी ख़ैर और बरकतवाली है। उस चीज़ की तसदीक़ करती है जो इससे पहले आई थी। और इसलिए उतारी गई है कि इसके ज़रिए से तुम बस्तियों के इस मर्कज़ (यानी मक्का) और इसके आस-पास में रहनेवाले लोगों को ख़बरदार करो। जो लोग आख़िरत को मानते हैं वे इस किताब पर ईमान लाते हैं और उनका हाल यह है कि अपनी नमाज़ों की पाबन्दी करते हैं।61
61. पहली दलील इस बात के सुबूत में थी कि इनसान पर ख़ुदा का कलाम उतर सकता है और अमली तौर पर उतरा भी है। अब यह दूसरी दलील इस बात के सुबूत में है कि यह कलाम जो मुहम्मद (सल्ल०) पर उतरा है यह ख़ुदा ही का कलाम है। इस हक़ीक़त को साबित करने के लिए चार बातें गवाही के तौर पर पेश की गई हैं– एक यह कि यह किताब बड़ी ख़ैर और बरकतवाली है, यानी इसमें इनसान की फ़लाह और कामयाबी के लिए बेहतरीन उसूल पेश किए गए हैं। सही अक़ीदों की तालीम है, भलाइयों पर उभारा गया है, बेहतरीन अख़लाक़ की नसीहत है, पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर करने की हिदायत है। और फिर यह जहालत, ख़ुदग़रज़ी, तंगनज़री, ज़ुल्म, गन्दी बातों और दूसरी उन बुराइयों से, जिनका ढेर तुम लोगों ने पाक किताब के मजमूए में भर रखा है, बिलकुल पाक है। दूसरे यह कि इससे पहले ख़ुदा की तरफ़ से जो हिदायतनामे आए थे यह किताब उनसे अलग हटकर कोई मुख़ालिफ़ हिदायत पेश नहीं करती, बल्कि उसी चीज की तसदीक़ और ताईद करती है जो उनमें पेश की गई थी। तीसरे यह कि यह किताब उसी मक़सद के लिए उतरी है जो हर ज़माने में अल्लाह की तरफ़ से किताबों के उतरने का मक़सद रहा है, यानी ग़फ़लत में पड़े हुए लोगों को चौंकाना और ग़लत रास्ते पर चलने के बुरे अंजाम से ख़बरदार करना। चौथे यह कि इस किताब की दावत ने इनसानों के गरोह में से उन लोगों को नहीं समेटा जो दुनियापरस्त और नफ़्स की ख़ाहिश के बन्दे हैं, बल्कि ऐसे लोगों को अपने आस-पास जमा किया है जिनकी नज़र दुनिया की ज़िन्दगी की तंग सरहदों से आगे तक जाती है और फिर इस किताब से मुतास्सिर होकर जो इनक़िलाब उनकी ज़िन्दगी में पैदा हुआ है उसकी सबसे ज़्यादा खुली निशानी यह है कि वे इनसानों के दरमियान अपनी ख़ुदापरस्ती के एतिबार से नुमायाँ हैं। क्या ये ख़ुसूसियतें और ये नतीजे किसी ऐसी किताब के हो सकते हैं जिसे किसी झूठे इनसान ने गढ़ लिया हो जो अपनी तसनीफ़ को ख़ुदा की तरफ़ मंसूब कर देने की इन्तिहाई मुजरिमाना जसारत (दुस्साहस) तक कर गुज़रे?
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًا أَوۡ قَالَ أُوحِيَ إِلَيَّ وَلَمۡ يُوحَ إِلَيۡهِ شَيۡءٞ وَمَن قَالَ سَأُنزِلُ مِثۡلَ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُۗ وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلظَّٰلِمُونَ فِي غَمَرَٰتِ ٱلۡمَوۡتِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ بَاسِطُوٓاْ أَيۡدِيهِمۡ أَخۡرِجُوٓاْ أَنفُسَكُمُۖ ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ عَذَابَ ٱلۡهُونِ بِمَا كُنتُمۡ تَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ وَكُنتُمۡ عَنۡ ءَايَٰتِهِۦ تَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 85
(93) और उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठा बुहतान गढ़े, या कहे कि मुझपर वह्य आई है। हालाँकि उसपर कोई वह्य उतारी न गई हो, या जो अल्लाह की उतारी हुई चीज़ के मुक़ाबले में कहे कि मैं भी ऐसी चीज़ उतार करके दिखा दूँगा? काश, तुम ज़ालिमों को इस हालत में देख सको जबकि वे मौत की तकलीफ़ में डुबकियाँ खा रहे होते हैं और फ़रिश्ते हाथ बढ़ा-चढ़ाकर कह रहे होते हैं कि “लाओ, निकालो अपनी जान, आज तुम्हें उन बातों के बदले में रुस्वाई का अज़ाब दिया जाएगा जो तुम अल्लाह पर तुहमत रखकर नाहक़ बका करते थे और उसकी आयतों के मुक़ाबले में सरकशी दिखाते थे।”
وَلَقَدۡ جِئۡتُمُونَا فُرَٰدَىٰ كَمَا خَلَقۡنَٰكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَتَرَكۡتُم مَّا خَوَّلۡنَٰكُمۡ وَرَآءَ ظُهُورِكُمۡۖ وَمَا نَرَىٰ مَعَكُمۡ شُفَعَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُمۡ أَنَّهُمۡ فِيكُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْۚ لَقَد تَّقَطَّعَ بَيۡنَكُمۡ وَضَلَّ عَنكُم مَّا كُنتُمۡ تَزۡعُمُونَ ۝ 86
(94) (और अल्लाह फ़रमाएगा) “लो अब तुम वैसे ही तने तन्हा हमारे सामने हाज़िर हो गए जैसा हमने तुम्हें पहली बार अकेला पैदा किया था। जो कुछ हमने तुम्हें दुनिया में दिया था वह सब तुम पीछे छोड़ आए हो, और अब हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशियों को भी नहीं देखते जिनके बारे में तुम समझते थे कि तुम्हारे काम बनाने में उनका भी कुछ हिस्सा है, तुम्हारे आपस के सब राब्ते टूट गए और वे सब तुम से गुम हो गए जिनका तुम दावा रखते थे।
۞إِنَّ ٱللَّهَ فَالِقُ ٱلۡحَبِّ وَٱلنَّوَىٰۖ يُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَمُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتِ مِنَ ٱلۡحَيِّۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ تُؤۡفَكُونَ ۝ 87
(95) दाने और गुठली को फाड़नेवाला अल्लाह है।62 वही ज़िन्दा को मुर्दा से निकालता है और वही मुर्दा को ज़िन्दा से निकालता है।63 ये सारे काम करनेवाला तो अल्लाह है, फिर तुम किधर बहके चले जा रहे हो?
62. यानी ज़मीन की तहों में बीज को फाड़कर उससे पेड़ की कोंपल निकालनेवाला।
63. ज़िन्दा को मुर्दा से निकालने का मतलब बेजान माद्दे (निर्जीव पदार्थों) से ज़िन्दा मख़लूक़ को पैदा करना है और मुर्दा को ज़िन्दा से निकालने का मतलब जानदार जिस्मों में से बेजान माद्दों को निकालना है।
فَالِقُ ٱلۡإِصۡبَاحِ وَجَعَلَ ٱلَّيۡلَ سَكَنٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ حُسۡبَانٗاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 88
(96) रात के परदे को चाक करके वही सुबह निकालता है। उसी ने रात को सुकून का वक़्त बनाया है। उसी ने चाँद और सूरज के निकलने और डूबने का हिसाब मुक़र्रर किया। ये सब उसी ज़बरदस्त क़ुदरत और इल्म रखनेवाले के ठहराए हुए पैमाने हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلنُّجُومَ لِتَهۡتَدُواْ بِهَا فِي ظُلُمَٰتِ ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 89
(97) और वही है जिसने तुम्हारे लिए तारों को रेगिस्तान और समन्दर के अन्धियारों में रास्ता मालूम करने का ज़रिआ बनाया। देखो हमने निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं उन लोगों के लिए जो इल्म रखते हैं।64
64. यानी इस हक़ीक़त की निशानियाँ कि ख़ुदा सिर्फ़ एक है। कोई दूसरा न ख़ुदाई की सिफ़तें रखता है, न ख़ुदाई के इख़्तियारों में हिस्सेदार है और न ख़ुदाई के हुकूक़ में से किसी हक़ का हक़दार है। मगर इन निशानियों व अलामतों से हक़ीक़त तक पहुँचना जाहिलों के बस की बात नहीं। इस दौलत से फ़ायदा सिर्फ़ वही लोग उठा सकते हैं जो इल्मी तरीक़े पर कायनात की निशानियों को देखते हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَكُم مِّن نَّفۡسٖ وَٰحِدَةٖ فَمُسۡتَقَرّٞ وَمُسۡتَوۡدَعٞۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَفۡقَهُونَ ۝ 90
(98) और वही है जिसने एक जान से तुम को पैदा किया65 फिर हर एक के लिए एक ठहरने की जगह है और एक उसके सौंपे जाने की जगह। ये निशानियाँ हमने वाज़ेह कर दी हैं उन लोगों के लिए जो समझ-बूझ रखते हैं।66
65. यानी इनसानी नस्ल की शुरुआत एक जान से की।
66. यानी इनसानी नस्ल की पैदाइश और इसके अन्दर मर्द और औरत में फ़र्क़ और तनासुल (प्रजनन-क्रिया) के ज़रिए से इसकी बढ़ोतरी और माँ के पेट में इनसानी बच्चे का नुतफ़ा क़रार पा जाने के बाद से ज़मीन में इसके सौंपे जाने तक इसकी ज़िन्दगी के बहुत-से तरीक़ों पर अगर नज़र डाली जाए तो इसमें अनगिनत खुली-खुली निशानियाँ आदमी के सामने आएँगी जिनसे वह उस हक़ीक़त को पहचान सकता है जो ऊपर बयान हुई हैं। मगर इन निशानियों से यह इल्म हासिल करना उन्हीं लोगों का काम है जो समझ-बूझ से काम लें। जानवरों की तरह ज़िन्दगी जीनेवाले जो सिर्फ़ अपनी ख़ाहिशों से और उन्हें पूरा करने की तदबीरों ही से मतलब रखते हैं इन निशानियों में कुछ भी नहीं देख सकते।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَخۡرَجۡنَا بِهِۦ نَبَاتَ كُلِّ شَيۡءٖ فَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهُ خَضِرٗا نُّخۡرِجُ مِنۡهُ حَبّٗا مُّتَرَاكِبٗا وَمِنَ ٱلنَّخۡلِ مِن طَلۡعِهَا قِنۡوَانٞ دَانِيَةٞ وَجَنَّٰتٖ مِّنۡ أَعۡنَابٖ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلرُّمَّانَ مُشۡتَبِهٗا وَغَيۡرَ مُتَشَٰبِهٍۗ ٱنظُرُوٓاْ إِلَىٰ ثَمَرِهِۦٓ إِذَآ أَثۡمَرَ وَيَنۡعِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكُمۡ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 91
(99) और वही है जिसने आसमान से पानी बरसाया, फिर उसके ज़रिए से हर क़िस्म की नबातात (वनस्पतियाँ) उगाईं, फिर उससे हरे-हरे खेत और पेड़ पैदा किए, फिर उनसे तह पर तह चढ़े हुए दाने निकाले और खजूर के गाभों से फलों के गुच्छे-के-गुच्छे पैदा किए जो बोझ के मारे झुके पड़ते हैं, और अंगूर, ज़ैतून और अनार के बाग़ लगाए जिनके फल एक-दूसरे से मिलते-जुलते भी हैं। और फिर हर एक की ख़ुसूसियतें अलग-अलग भी हैं। ये पेड़ जब फलते हैं तो इनमें फल आने और फिर उनके पकने की कैफ़ियत ज़रा ग़ौर की नज़र से देखो, इन चीज़ों में निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ شُرَكَآءَ ٱلۡجِنَّ وَخَلَقَهُمۡۖ وَخَرَقُواْ لَهُۥ بَنِينَ وَبَنَٰتِۭ بِغَيۡرِ عِلۡمٖۚ سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 92
(100) इसपर भी लोगों ने जिन्नों को अल्लाह का शरीक ठहरा दिया,67 हालाँकि वह उनका पैदा करनेवाला है, और बेजाने-बूझे उसके लिए बेटे और बेटियाँ बना दीं,68 हालाँकि वह पाक और बालातर (उच्च) है उन बातों से जो ये लोग कहते हैं।
67. यानी अपनी अटकल और गुमान से यह ठहरा लिया कि कायनात के इन्तिज़ाम में और इनसान की क़िस्मत के बनाने और बिगाड़ने में अल्लाह के साथ दूसरी छिपी हुई हस्तियाँ भी शरीक हैं। कोई बारिश का देवता है, तो कोई पैदा करने का। कोई दौलत की देवी है तो कोई बीमारी की, और कुछ इसी तरह की बेहूदा बातें। इस तरह के बेहूदा और बेमानी अक़ीदे दुनिया की सभी मुशरिक क़ौमों में रूहों और शैतानों और राक्षसों और देवताओं और देवियों के बारे में पाए जाते रहे हैं।
68. अरब के जाहिल लोग फ़रिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ कहते थे। इसी तरह दुनिया की दूसरी मुशरिक क़ौमों ने भी ख़ुदा से अपनी नस्ल का सिलसिला चलाया है। और फिर देवताओं और देवियों की एक पूरी नस्ल अपने अटकल और गुमान से पैदा कर दी।
بَدِيعُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُۥ وَلَدٞ وَلَمۡ تَكُن لَّهُۥ صَٰحِبَةٞۖ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 93
(101) वह तो आसमानों और ज़मीन का ईजाद करनेवाला है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है, जबकि उसका कोई जीवन साथी ही नहीं है। उसने हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ का इल्म रखता है।
ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبُّكُمۡۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ خَٰلِقُ كُلِّ شَيۡءٖ فَٱعۡبُدُوهُۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٞ ۝ 94
(102) यह अल्लाह तुम्हारा रब, कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं है, हर चीज़ का पैदा करनेवाला, तो तुम उसी की बन्दगी करो और वह हर चीज़ का ज़िम्मेदार है।
لَّا تُدۡرِكُهُ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَهُوَ يُدۡرِكُ ٱلۡأَبۡصَٰرَۖ وَهُوَ ٱللَّطِيفُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 95
(103) निगाहें उसको नहीं पा सकतीं और वह निगाहों को पा लेता है, वह निहायत बारीक बीं (सूक्ष्मदर्शी) और बाख़बर है।
قَدۡ جَآءَكُم بَصَآئِرُ مِن رَّبِّكُمۡۖ فَمَنۡ أَبۡصَرَ فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ عَمِيَ فَعَلَيۡهَاۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ ۝ 96
(104) देखो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से आँखें खोल देनेवाली रोशनियाँ आ गई हैं, अब जो आँखों से काम लेगा अपना ही भला करेगा और जो अन्धा बनेगा ख़ुद नुक़सान उठाएगा, मैं तुम पर कोई पासबान नहीं हूँ।69
69. यह जुमला हालाँकि अल्लाह ही का कलाम है मगर नबी की तरफ़ से अदा हो रहा है। क़ुरआन मजीद में जिस तरह मुख़ातब बार-बार बदलते हैं कि कभी नबी से ख़िताब होता है, कभी ईमानवालों से, कभी किताबवालों से, कभी इनकारियों और मुशरिकों से। कभी क़ुरैश के लोगों से, कभी अरबवालों से और कभी आम इनसानों से। हालाँकि अस्ल मक़सद तमाम इनसानों की हिदायत है। इसी तरह कहनेवाले भी बार-बार बदलते हैं कि कहीं कहनेवाला ख़ुदा होता है और कहीं वह्य लानेवाला फ़रिश्ता, कहीं फ़रिश्तों का गरोह, कहीं नबी और कहीं ईमानवाले। हालाँकि इन सब सूरतों में कलाम वही एक ख़ुदा का कलाम होता है। “मैं तुम पर पासबान नहीं हूँ” यानी मेरा काम बस इतना ही है कि इस रौशनी को तुम्हारे सामने पेश कर दूँ। इसके बाद आँखें खोलकर देखना या न देखना तुम्हारा अपना काम है। मेरे सिपुर्द यह ख़िदमत नहीं की गई है कि जिन्होंने ख़ुद आँखें बन्द कर रखी हैं उनकी आँखें ज़बरदस्ती खोलूँ, और जो कुछ वे नहीं देखते वह उन्हें दिखाकर ही छोड़ूँ।
وَكَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ ٱلۡأٓيَٰتِ وَلِيَقُولُواْ دَرَسۡتَ وَلِنُبَيِّنَهُۥ لِقَوۡمٖ يَعۡلَمُونَ ۝ 97
(105) इस तरह हम अपनी आयतों को बार-बार मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से बयान करते हैं और इसलिए करते हैं कि ये लोग कहें, 'तुम किसी से पढ़ आए हो', और जो लोग इल्म रखते हैं उन पर हम हक़ीक़त को रौशन कर दें।70
70. यह वही बात है जो सूरा-2, अल-बक़रा, आयत-21 से 29 में फ़रमाई गई है कि मच्छर और मकड़ी वग़ैरा चीज़ों की मिसालें सुनकर हक़ की तलब रखनेवाले तो इस सच्चाई को पा लेते हैं जो इन मिसालों के पैराए में बयान हुई हैं। मगर जिन पर इनकार का तास्सुब मुसल्लत है वे मज़ाक़ उड़ाते हुए कहते हैं कि भला अल्लाह के कलाम में इन हक़ीर चीज़ों के बयान का क्या काम हो सकता है? इसी बात को यहाँ एक-दूसरे अन्दाज़ में बयान किया गया है। कहने का मक़सद यह है कि यह कलाम लोगों के लिए आज़माइश बन गया है, जिससे खोटे और खरे इनसान अलग हो जाते हैं। एक तरह के इनसान वे हैं जो इस कलाम को सुनकर या पढ़कर इसके मक़सद और मंशा पर ग़ौर करते हैं और जो हिकमत और नसीहत की बातें इसमें कही गई हैं उनसे फ़ायदा उठाते हैं। इसके बरख़िलाफ़ एक दूसरी तरह के इनसानों का हाल यह है कि उसे सुनने और पढ़ने के बाद उनका ज़ेहन कलाम की रूह की तरफ़ मुतवज्जेह होने के बजाय इस टटोल में लग जाता है कि आख़िर यह उम्मी और अनपढ़ इनसान ये बातें लाया कहाँ से है। और क्योंकि मुख़ालिफ़ाना तास्सुब पहले से उनके दिल पर क़ब्ज़ा किए हुए होता है इसलिए एक ख़ुदा की तरफ़ से उतारे हुए होने के इमकान को छोड़कर बाक़ी तमाम मुमकिन सूरतें जो सोची जा सकती हैं वे अपने ज़ेहन से गढ़ते हैं और उन्हें इस तरह बयान करते हैं कि मानो उन्होंने इस बात की तहक़ीक़ कर ली है कि यह किताब कहाँ से आई है।
ٱتَّبِعۡ مَآ أُوحِيَ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۖ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 98
(106) ऐ नबी! उस वह्य की पैरवी किए जाओ जो तुमपर तुम्हारे रब की तरफ़ से उतरी है; क्योंकि उस एक रब के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है। और इन मुशरिकों के पीछे न पड़ो।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَآ أَشۡرَكُواْۗ وَمَا جَعَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظٗاۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ ۝ 99
(107) अगर अल्लाह की मरज़ी होती तो (वह ख़ुद ऐसा इन्तिज़ाम कर सकता था कि) ये लोग शिर्क न करते। तुम को हमने इनपर पासबान मुक़र्रर नहीं किया है और न तुम इनपर हवालादार हो।71
71. मतलब यह है कि तुम्हें बुलानेवाला और तबलीग़ करनेवाला बनाया गया है, कोतवाल नहीं बनाया गया। तुम्हारा काम सिर्फ़ यह है कि लोगों के सामने इस रौशनी को पेश कर दो और हक़ को ज़ाहिर करने का हक़ अदा करने में अपनी हद तक कोई कसर उठा न रखो। अब अगर कोई इस हक़ को क़ुबूल नहीं करता, तो न करे। तुमको न इस काम पर लगाया गया है कि लोगों को हक़परस्त (सत्यवादी) बनाकर ही रहो और न तुम्हारी जिम्मेदारी और जवाबदेही में यह बात शामिल है कि तुम्हारी नुबूवत के हलक़े में कोई आदमी बातिल-परस्त न रह जाए। इसलिए इस फ़िक्र में ख़ाह-मख़ाह अपने ज़ेहन को परेशान न करो कि अन्धों को किस तरह आँखोंवाला बनाया जाए। और जो आँखें खोलकर नहीं देखना चाहते उन्हें कैसे दिखाया जाए। अगर हक़ीक़त में अल्लाह की हिकमत का तक़ाज़ा यही होता कि दुनिया में कोई आदमी बातिलपरस्त (असत्यवादी) न रहने दिया जाए तो अल्लाह को यह काम तुमसे लेने की क्या ज़रूरत थी? क्या उसका एक ही ऐसा इशारा जिसकी पाबन्दी पर सब मजबूर होते, तमाम इनसानों को हक़परस्त न बना सकता था? मगर वहाँ तो मक़सद सिरे से यह है ही नहीं। मक़सद तो यह है कि इनसान के लिए हक़ और बातिल को चुनने की आज़ादी बाक़ी रहे। फिर हक़ की रौशनी उसके सामने पेश करके उसकी आज़माइश की जाए कि वह दोनों चीज़ों में से किसको चुनता है। इसलिए तुम्हारे लिए सही रवैया यही है कि जो रौशनी तुम्हें दिखा दी गई है उसके उजाले में सीधी राह पर ख़ुद चलते रहो और दूसरों को उसकी तरफ़ बुलाते रहो। जो लोग इस दावत को क़ुबूल कर लें उन्हें सीने से लगाओ और उनका साथ न छोड़ो। चाहे वे दुनिया की निगाह में कितने ही हक़ीर और मामूली हों, और जो इसे क़ुबूल न करें उनके पीछे न पड़ो। जिस बुरे अंजाम की तरफ़ वे ख़ुद जाना चाहते हैं और जाने पर ज़िद कर रहे हैं उसकी तरफ़ जाने के लिए उन्हें छोड़ दो।
وَلَا تَسُبُّواْ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَسُبُّواْ ٱللَّهَ عَدۡوَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖۗ كَذَٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ أُمَّةٍ عَمَلَهُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِم مَّرۡجِعُهُمۡ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 100
(108) और (ऐ ईमान लानेवालो) ये लोग अल्लाह के सिवा जिनको पुकारते हैं उन्हें गालियाँ न दो, कहीं ऐसा न हो कि ये शिर्क से आगे बढ़कर जहालत की बिना पर अल्लाह को गालियाँ देने लगें।72 हमने तो इसी तरह हर गरोह के लिए उसके अमल को ख़ुशनुमा बना दिया है,73 फिर उन्हें अपने रब ही की तरफ़ पलटकर आना है, उस वक़्त वह उन्हें बता देगा कि वे क्या करते रहे हैं।
72. यह नसीहत नबी (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को की गई है कि अपनी तबलीग़ के जोश में इतने बेक़ाबू न हो जाएँ कि मुनाज़रे (शास्त्रार्थ), बहस और तकरार से मामला बढ़ते-बढ़ते ग़ैर-मुस्लिमों के अक़ीदों पर सख़्त हमले करने और उनके पेशवाओं और उनके माबूदों (उपास्यों) को गालियाँ देने तक नौबत पहुँच जाए; क्योंकि यह चीज़ उनको हक़ से क़रीब लाने के बजाय और ज़्यादा दूर फेंक देगी।
73. यहाँ फिर उस हक़ीक़त को सामने रखना चाहिए जिसकी तरफ़ इससे पहले भी हम अपनी टिप्पणी में इशारा कर चुके हैं कि जो बातें फ़ितरत के क़ानून के तहत सामने आती हैं अल्लाह उन्हें अपना काम क़रार देता है, क्योंकि वही इन क़ानूनों को मुक़र्रर करनेवाला है और जो कुछ इन क़ानूनों के तहत सामने आता है वह उसी के हुक्म से सामने आता है। जिस बात को अल्लाह इस तरह बयान करता है कि हमने ऐसा किया है। इसी को अगर हम इनसान बयान करें तो इस तरह कहेंगे कि फ़ितरी तौर पर ऐसा ही हुआ करता है।
وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِن جَآءَتۡهُمۡ ءَايَةٞ لَّيُؤۡمِنُنَّ بِهَاۚ قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡأٓيَٰتُ عِندَ ٱللَّهِۖ وَمَا يُشۡعِرُكُمۡ أَنَّهَآ إِذَا جَآءَتۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 101
(109) ये लोग कड़ी-कड़ी क़समें खा-खाकर कहते हैं कि अगर कोई निशानी74 हमारे सामने आ जाए तो हम उसपर ईमान ले आएँगे। ऐ नबी! इनसे कहो कि “निशानियाँ तो अल्लाह के पास हैं।"75 और तुम्हें कैसे समझाया जाए कि अगर निशानियों आ भी जाएँ तो ये ईमान लानेवाले नहीं।76
74. निशानी से मुराद कोई ऐसा खुला और महसूस मोजिज़ा (चमत्कार) है जिसे देखकर नबी (सल्ल०) की सच्चाई और आप को अल्लाह की तरफ़ से नबी बनाकर भेजा हुआ मान लेने के सिवा कोई चारा न रहे।
75. यानी निशानियों के पेश करने और बना लाने की क़ुदरत मुझे हासिल नहीं है। इनका इख़्तियार तो अल्लाह को है। चाहे दिखाए और न चाहे, न दिखाए।
76. यह बात मुसलमानों से कहीं जा रही है, जो बेताब हो-होकर तमन्ना करते थे और कभी-कभी ज़बान से भी इस ख़ाहिश का इज़हार कर देते थे कि कोई ऐसी निशानी ज़हिर हो जाए जिससे उनके गुमराह भाई सीधे रास्ते पर आ जाएँ। उनकी इसी तमन्ना और ख़ाहिश के जवाब में कहा जा रहा है कि आख़िर तुम्हें किस तरह समझाया जाए कि उन लोगों के ईमान लाने का दारोमदार किसी निशानी के ज़ाहिर होने पर नहीं है।
وَنُقَلِّبُ أَفۡـِٔدَتَهُمۡ وَأَبۡصَٰرَهُمۡ كَمَا لَمۡ يُؤۡمِنُواْ بِهِۦٓ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَنَذَرُهُمۡ فِي طُغۡيَٰنِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 102
(110) हम उसी तरह इनके दिलों और निगाहों को फेर रहे हैं जिस तरह ये पहली बार इस पर ईमान नहीं लाए थे।77 हम इन्हें इनकी सरकशी ही में भटकने के लिए छोड़े देते हैं।
77. यानी इनके अन्दर वही ज़ेहनियत (मानसिकता) काम किए जा रही है जिसकी वजह से उन्होंने पहली बार मुहम्मद (सल्ल०) की दावत सुनकर उसे मानने से इनकार कर दिया था। उनकी सोच में अभी तक कोई तब्दीली नहीं हुई है। वही अक़्ल का फेर और नज़र की टेढ़ जो उन्हें उस वक़्त सही समझने और सही देखने से रोक रही थी आज भी उनपर उसी तरह मुसल्लत है।
۞وَلَوۡ أَنَّنَا نَزَّلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ وَكَلَّمَهُمُ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَحَشَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ كُلَّ شَيۡءٖ قُبُلٗا مَّا كَانُواْ لِيُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ يَجۡهَلُونَ ۝ 103
(111) अगर हम फ़रिश्ते भी इन पर उतार देते और मुर्दे इनसे बातें करते और दुनिया भर की चीज़ों को हम इनकी आँखों के सामने जमा कर देते तब भी ये ईमान लानेवाले न थे, सिवाय इसके कि अल्लाह की मरज़ी यही हो (कि ईमान लाएँ78) मगर ज़्यादातर लोग नादानी की बातें करते हैं।
78. यानी ये लोग अपने इख़्तियार और इन्तिख़ाब से तो हक़ को बातिल के मुक़ाबले में तरजीह देकर क़ुबूल करनेवाले हैं नहीं, अब इनके हक़परस्त बनने की सिर्फ़ एक ही सूरत बाक़ी है और वह यह कि फ़ितरी अमल से जिस तरह कायनात की तमाम बेइख़्तियार चीज़ों को हक़परस्त पैदा किया गया है उसी तरह इन्हें भी बेइख़्तियार करके फ़ितरी और पैदाइशी तौर पर हक़-परस्त बना डाला जाए। मगर यह उस हिकमत के ख़िलाफ़ है जिसके तहत अल्लाह ने इनसान को पैदा किया है। इसलिए तुम्हारा यह उम्मीद करना बेकार है कि अल्लाह सीधे तौर पर अपनी उस फ़ितरी दख़ल-अन्दाज़ी से उनको ईमानवाला बनाएगा जिसकी पाबन्दी करने पर ये मजबूर हों।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا شَيَٰطِينَ ٱلۡإِنسِ وَٱلۡجِنِّ يُوحِي بَعۡضُهُمۡ إِلَىٰ بَعۡضٖ زُخۡرُفَ ٱلۡقَوۡلِ غُرُورٗاۚ وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ ۝ 104
(112) और हमने तो इसी तरह हमेशा शैतान इनसानों और शैतान जिन्नों को हर नबी का दुश्मन बनाया है जो एक-दूसरे के दिलों पर ख़ुश कर देनेवाली बातें धोखे और फ़रेब के तौर पर दिल में डालते रहे हैं।79 अगर तुम्हारे रब ने यही चाहा कि वे ऐसा न करें तो वे कभी न करते।80 तो तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो कि झूठ गढ़ने का काम करते रहें।
79. यानी आज अगर शैतान जिन्न और इनसान एकजुट होकर तुम्हारे मुक़ाबले में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं तो घबराने की कोई बात नहीं। यह कोई नई बात नहीं है जो तुम्हारे ही साथ पेश आ रही है। हर ज़माने में ऐसा ही होता आया है कि जब कोई पैग़म्बर दुनिया को सीधा रास्ता दिखाने के लिए उठा तो तमाम शैतानी ताक़तें उसके मिशन को नाकाम करने के लिए कमर कसकर खड़ी हो गईं। “ख़ुश करनेवाली बातों” से मुराद वे तमाम चालें और तदबीरें और शक-शुब्हाे और एतिराज़ हैं, जिनसे ये लोग आम लोगों को हक़ की तरफ़ बुलानेवाले के ख़िलाफ़ और उसकी दावत के ख़िलाफ़ भड़काने और उकसाने का काम लेते हैं। फिर इन सब बातों को मजमूई हैसियत से धोखा और फ़रेब कहा गया है; क्योंकि हक़ से लड़ने के लिए जो हथियार भी हक़ के मुख़ालिफ़ लोग इस्तेमाल करते हैं वे न सिर्फ़ दूसरों के लिए, बल्कि ख़ुद इनके लिए भी हक़ीक़त के एतिबार से सिर्फ़ एक धोखा होते हैं। हालाँकि देखने में वे इनको बहुत फ़ायदेमन्द और कामयाब हथियार नज़र आते हैं।
80. हमने पीछे जो तशरीहें (व्याख्याएँ) की हैं, उनके अलावा यहाँ यह हक़ीक़त भी अच्छी तरह ज़ेहन में बैठ जानी चाहिए कि क़ुरआन के मुताबिक़ अल्लाह की मंशा और उसकी रिज़ा में बहुत बड़ा फ़र्क़ है, जिसको नज़रअन्दाज़ कर देने से आम तौर से सख़्त ग़लतफ़हमियाँ पैदा हो जाती हैं। किसी चीज़ का अल्लाह की मरज़ी आर उसकी इजाज़त के तहत सामने आना लाज़िमी तौर पर यह मानी नहीं रखता कि अल्लाह उससे राज़ी भी है और उसे पसन्द भी करता है। दुनिया में कोई वाक़िआ कभी पेश नहीं आता, जब तक अल्लाह उसके होने की इजाजज़ न दे और अपनी अज़ीमुश्शान स्कीम में उसके होने की गुंजाइश न निकाले और हालात और वजहों को इस हद तक साज़गार न बना दे कि वह वाक़िआ रूनुमा हो सके। किसी चोर की चोरी, किसी क़ातिल का क़त्ल, किसी ज़ालिम और फ़सादी का ज़ुल्म और फ़साद और किसी इनकारी या मुशरिक का इनकार और शिर्क अल्लाह के चाहे बिना मुमकिन नहीं है। और इसी तरह किसी ईमानवाले और किसी परहेज़गार इनसान का ईमान और परहेज़गारी भी अल्लाह के चाहे बिना नामुमकिन है। दोनों तरह के वाक़िए बराबर तौर पर अल्लाह की मरज़ी के तहत रूनुमा होते हैं। मगर पहली तरह के वाक़िओं से अल्लाह राज़ी नहीं है और इसके बरख़िलाफ़ दूसरी तरह के वाक़िओं को ख़ुदा की ख़ुशनूदी और उसकी पसन्दीदगी और महबूबियत की सनद हासिल है। हालाँकि आख़िरकार किसी बड़ी भलाई ही के लिए कायनात के फ़रमाँरवा की मरज़ी काम कर रही है। लेकिन उस बड़ी भलाई के ज़ाहिर होने का रास्ता नूर और ज़ुलमत (प्रकाश और अन्धकार) नेकी और बुराई और तथा सुधार और फ़साद की मुख़्तलिफ़ ताक़तों के एक-दूसरे के मुक़ाबले में कशमकश करने ही से सामने आता है। इसलिए अपनी निहायत दूरन्देशियाँ रखनेवाली मस्लहतों की बुनियाद पर वह फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी, इबराहीमियत और नमरूदियत, मूसवियत और फ़िरऔनियत, आदमियत और शैतानियत दोनों को अपना-अपना काम करने का मौक़ा देता है। उसने अपनी इख़्तियार रखनेवाली मख़लूक़ (जिन्न और इनसान) को नेकी और बुराई में से किसी एक के चुनाव कर लेने की आज़ादी दे दी है। जो चाहे दुनिया के इस कारख़ीने में अपने लिए नेकी का काम पसन्द कर ले और जो चाहे बुराई का काम। दोनों तरह के काम करनेवालों को जिस हद तक ख़ुदाई मस्लहतें इजाज़त देती हैं, हालात और वजहों की हिमायत नसीब होती है, लेकिन अल्लाह की ख़ुशी और उसकी पसन्दीदगी सिर्फ़ भलाई ही के लिए काम करनेवालों को हासिल है। और अल्लाह को पसन्द यही बात है कि उसके बन्दे अपने चुनाव की आज़ादी से फ़ायदा उठाकर भलाई को अपनाएँ, न कि बुराई को। इसके साथ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि यह जो अल्लाह हक़ के दुश्मनों की मुख़ालिफ़ाना कार्यवाइयों का ज़िक्र करते हुए अपनी मरज़ी का बार-बार हवाला देता है उससे मक़सद अस्ल में नबी (सल्ल०) को और आपके ज़रिए से ईमानवालों को यह समझाना है कि तुम्हारे काम की नौईयत फ़रिश्तों के काम की-सी नहीं है, जो किसी रुकावट के बग़ैर अल्लाह के अहकाम को पूरा कर रहे हैं, बल्कि तुम्हारा अस्ल काम शरारती लोगों और बाग़ियों के मुक़ाबले में अल्लाह के पसन्द किए हुए तरीक़े को गालिब करने के लिए जिद्दो-जुह्द करना है। अल्लाह अपनी मरज़ी के तहत उन लोगों को भी काम करने का मौक़ा दे रहा है, जिन्होंने अपनी कोशिशों और जिद्दो-जुह्द के लिए ख़ुद अल्लाह से बग़ावत के रास्ते को इख़्तियार किया है और इसी तरह वह तुमको भी जिन्होंने फ़रमाँबरदारी और बन्दगी के रास्ते को इख़्तियार किया है, काम करने का पूरा मौक़ा देता है। हालाँकि उसकी ख़ुशी और हिदायत व रहनुमाई और ताईद और मदद तुम्हारे ही साथ है; क्योंकि तुम उस पहलू में काम कर रहे हो जिसे वह पसन्द करता है। लेकिन तुम्हें यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि अल्लाह अपनी फ़ौक़ुलफ़ितरत (नैसर्गिक) दख़लअन्दाज़ी से उन लोगों को ईमान लाने पर मजबूर कर देगा जो ईमान नहीं लाना चाहते। या उन शैतान जिन्न और इनसानों को ज़बरदस्ती तुम्हारे रास्ते से हटा देगा, जिन्होंने अपने दिल व दिमाग़ को और हाथ-पाँवों की ताक़तों को और अपने साधनों और ज़रिओं को हक़ की राह रोकने के लिए इस्तेमाल करने का फ़ैसला कर लिया है। नहीं, अगर तुमने वाक़ई हक़ और नेकी व सच्चाई के लिए काम करने का पक्का इरादा किया है तो तुम्हें बातिल-परस्तों के मुक़ाबले में सख़्त कशमकश और जिद्दो-जुह्द करके अपनी हक़परस्ती का सुबूत देना होगा, वरना मोजिज़े (चमत्कार) के ज़ोर से बातिल को मिटाना और हक़ को ग़ालिब करना होता तो तुम्हारी ज़रूरत ही क्या थी। अल्लाह ख़ुद ऐसा इन्तिज़ाम कर सकता था कि दुनिया में कोई शैतान न होता और किसी शिर्क और नाफ़रमानी के ज़ाहिर होने का इमकान न होता।
وَلِتَصۡغَىٰٓ إِلَيۡهِ أَفۡـِٔدَةُ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ وَلِيَرۡضَوۡهُ وَلِيَقۡتَرِفُواْ مَا هُم مُّقۡتَرِفُونَ ۝ 105
(113) (ये सब कुछ हम इन्हें इसी लिए करने दे रहे हैं कि) जो लोग आख़िरत पर ईमान नहीं रखते उनके दिल इस (ख़ुशनुमा धोखे) की तरफ़ झुकें और वे इससे राज़ी हो जाएँ और उन बुराइयों को करें जिनको वे करना चाहते हैं।
أَفَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡتَغِي حَكَمٗا وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ إِلَيۡكُمُ ٱلۡكِتَٰبَ مُفَصَّلٗاۚ وَٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡلَمُونَ أَنَّهُۥ مُنَزَّلٞ مِّن رَّبِّكَ بِٱلۡحَقِّۖ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 106
(114) फिर जब हाल यह है तो क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और फ़ैसला करनेवाला तलाश करूँ, हालाँकि उसने पूरी तफ़सील के साथ तुम्हारी तरफ़ किताब उतार दी है?81 और जिन लोगों को हमने (तुमसे पहले) किताब दी थी वे जानते हैं कि ये किताब तुम्हारे रब ही की तरफ़ से हक़ के साथ उतारी है, इसलिए तुम शक करनेवालों में शामिल न हो।82
81. इस जुमले में बात कहनेवाले नबी (सल्ल०) हैं और बात मुसलमानों से कही जा रही है। मतलब यह है कि जब अल्लाह ने अपनी किताब में साफ़-साफ़ ये तमाम हक़ीक़तें बयान कर दी हैं और यह भी फ़ैसला कर दिया है कि फ़ौक़ुल-फ़ितरी (पराप्राकृतिक) दख़लअन्दाज़ी के बग़ैर हक़परस्तों को फ़ितरी तरीक़ों ही से हक़ के ग़लबे की जिद्दो-जुह्द करनी होगी, तो क्या अब मैं अल्लाह के सिवा कोई और ऐसा हाकिम तलाश करूँ जो अल्लाह के इस फ़ैसले पर नज़रसानी करे और ऐसा कोई मोजिज़ा भेजे जिससे ये लोग ईमान लाने पर मजबूर हो जाएँ?
82. यानी यह कोई नई बात नहीं है जो वाक़िआत को सही साबित करने में आज गढ़ी गई हो। वे तमाम लोग जो आसमानी किताबों का इल्म रखते हैं और जो नबियों के मिशन को जानते हैं, इस बात की गवाही देंगे कि यह जो कुछ क़ुरआन में बयान किया जा रहा है ठीक-ठीक हक़ बात है और वह हमेशा से चली आ रही है और हमेशा तक रहनेवाली हक़ीक़त है जिसमें कभी फ़र्क़ नहीं आया है।
وَتَمَّتۡ كَلِمَتُ رَبِّكَ صِدۡقٗا وَعَدۡلٗاۚ لَّا مُبَدِّلَ لِكَلِمَٰتِهِۦۚ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 107
(115) तुम्हारे रब की बात सच्चाई और इनसाफ़ के पहलू से मुकम्मल है, कोई उसके फ़रमानों को बदलनेवाला नहीं है और वह सब कुछ सुनता और जानता है।
وَإِن تُطِعۡ أَكۡثَرَ مَن فِي ٱلۡأَرۡضِ يُضِلُّوكَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 108
(116) और ऐ नबी! अगर तुम उनके ज़्यादातर लोगों के कहने पर चलो जो ज़मीन में बसते हैं तो वे तुम्हें अल्लाह के रास्ते से भटका देंगे। वे तो सिर्फ़ गुमान पर चलते और अटकल दौड़ाते हैं।83
83. यानी ज़्यादातर लोग जो दुनिया में बसते हैं इल्म के बजाय गुमान और अटकल की पैरवी कर रहे हैं और उनके अक़ीदे, ख़यालात, फ़लसफ़े, ज़िन्दगी के उसूल और अमल के क़ानून सबके सब अटकलों पर हैं। इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह का रास्ता, यानी दुनिया में ज़िन्दगी बसर करने का वह तरीक़ा जो अल्लाह की ख़ुशी के मुताबिक़ है, लाज़िमी तौर पर सिर्फ़ वही एक है। जिसका इल्म अल्लाह ने ख़ुद दिया है, न कि वह जिसको लोगों ने अपने तौर पर अपनी अटकलों और गुमानों से गढ़ लिया है। इसलिए किसी हक़ के तालिब को यह न देखना चाहिए के ज़्यादातर इनसान किस रास्ते पर जा रहे हैं, बल्कि उसे पूरी मज़बूती के साथ उस राह पर चलना चाहिए जो अल्लाह ने बताई है, चाहे उस रास्ते पर चलने के लिए वह दुनिया में अकेला ही रह जाए।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ مَن يَضِلُّ عَن سَبِيلِهِۦۖ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 109
(117) हक़ीक़त में तुम्हारा रब ज़्यादा बेहतर जानता है कि कौन उसके रास्ते से हटा हुआ है और कौन सीधे रास्ते पर है।
فَكُلُواْ مِمَّا ذُكِرَ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كُنتُم بِـَٔايَٰتِهِۦ مُؤۡمِنِينَ ۝ 110
(118) फिर अगर तुम लोग अल्लाह की आयतों पर ईमान रखते हो तो जिस जानवर पर अल्लाह का नाम लिया गया हो उसका गोश्त खाओ।84
84. उन सभी ग़लत तरीक़ों के साथ-साथ जो ज़्यादा तर ज़मीनवालों ने ख़ुद अपने तौर से अटकल और गुमान से गढ़ लिए और जिन्हें मज़हबी हदों और पाबन्दियों की हैसियत हासिल हो गई, एक वे पाबन्दियाँ भी हैं जो खाने-पीने की चीज़ों में बहुत-सी क़ौमों के दरमियान पाई जाती हैं। कुछ चीज़ों को लोगों ने आप ही आप हलाल क़रार दे लिया है, हालाँकि अल्लाह की नज़र में वे हराम हैं। और कुछ चीज़ों को उन्होंने ख़ुद हराम ठहरा लिया है, हालाँकि अल्लाह ने उन्हें हलाल किया है। ख़ास तौर से सबसे ज़्यादा जाहिलाना बात जिसपर पहले भी कुछ गरोह अड़े हुए थे और आज भी दुनिया के कुछ गरोह अड़े हुए हैं, वह यह है कि अल्लाह का नाम लेकर जो जानवर ज़ब्ह किया जाए वह तो उनके नज़दीक नाजाइज़ है और अल्लाह के नाम के बग़ैर जिसे ज़बह किया जाए वह बिलकुल जाइज़ है। इसी को रद्द करते हुए अल्लाह यहाँ मुसलमानों से फ़रमा रहा है कि अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह पर ईमान लाए हो और उसके अहकाम को मानते हो तो उन तमाम अन्धविश्वासों और तास्सुबों को छोड़ दो जो काफ़िर और मुशरिक लोगों में पाए जाते हैं। उन सब पाबन्दियों को तोड़ दो जो ख़ुदा की हिदायत से बेनियाज़ होकर लोगों ने ख़ुद लगा रखी हैं। हराम सिर्फ़ उसी चीज़ को समझो जिसे ख़ुदा ने हराम किया है और हलाल उसी को ठहराओ जिसको अल्लाह ने हलाल ठहरा दिया है।
وَمَا لَكُمۡ أَلَّا تَأۡكُلُواْ مِمَّا ذُكِرَ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَقَدۡ فَصَّلَ لَكُم مَّا حَرَّمَ عَلَيۡكُمۡ إِلَّا مَا ٱضۡطُرِرۡتُمۡ إِلَيۡهِۗ وَإِنَّ كَثِيرٗا لَّيُضِلُّونَ بِأَهۡوَآئِهِم بِغَيۡرِ عِلۡمٍۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُعۡتَدِينَ ۝ 111
(119) आख़िर क्या वजह है कि तुम वह चीज़ न खाओ जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया हो, हालाँकि जिन चीज़ों का इस्तेमाल मजबूरी की हालत के सिवा दूसरी तमाम हालतों में अल्लाह ने हराम कर दिया है, उनकी तफ़सील वह तुम्हें बता चुका है।85 ज़्यादातर लोगों का हाल यह है कि इल्म के बग़ैर सिर्फ़ अपनी ख़ाहिशों की बुनियाद पर गुमराह कर देनेवाली बातें करते हैं, हद से गुज़रनेवालों को तुम्हारा रब ख़ूब जानता है।
85. देखें सूरा-16, अन-नह्ल की आयत 115। इस इशारे से एक बात यह भी मालूम हुई कि सूरा अन-नह्ल इस सूरा से पहले नाज़िल हो चुकी थी।
وَذَرُواْ ظَٰهِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَبَاطِنَهُۥٓۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡسِبُونَ ٱلۡإِثۡمَ سَيُجۡزَوۡنَ بِمَا كَانُواْ يَقۡتَرِفُونَ ۝ 112
(120) तुम खुले गुनाहों से भी दो और छिपे गुनाहों से भी, जो लोग गुनाह की कमाई करते हैं वे अपनी उस कमाई बदला पाकर रहेंगे।
وَلَا تَأۡكُلُواْ مِمَّا لَمۡ يُذۡكَرِ ٱسۡمُ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ وَإِنَّهُۥ لَفِسۡقٞۗ وَإِنَّ ٱلشَّيَٰطِينَ لَيُوحُونَ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِهِمۡ لِيُجَٰدِلُوكُمۡۖ وَإِنۡ أَطَعۡتُمُوهُمۡ إِنَّكُمۡ لَمُشۡرِكُونَ ۝ 113
(121) और जिस जानवर को अल्लाह का नाम लेकर ज़ब्ह न किया गया हो उसका गोश्त न खाओ, ऐसा करना फ़िस्क़ (नाफ़रमानी) है। शैतान अपने साथियों के दिलों में शक और एतिराज़ डालते हैं, ताकि वे तुमसे झगड़ा करें।86 लेकिन अगर तुमने बात मान ली, तो यक़ीनन तुम मुशरिक हो।87
86. हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास की रिवायत है कि यहूदी आलिम अरब के जाहिल लोगों को नबी मुहम्मद (सल्ल०) पर एतिराज़ करने के लिए जो सवाल सिखाया करते थे उनमें से एक यह भी था कि “आख़िर यह क्या मामला है कि जिसे ख़ुदा मारे वह तो हराम हो और जिसे हम मारें वह हलाल हो जाए।” यह एक मामूली-सा नमूना है उस टेढ़ी ज़ेहनियत का जो सिर्फ़ नाम के उन किताबवालों में पाई जाती थी। वे इस तरह के सवालात गढ़-गढ़कर पेश करते थे, ताकि आम लोगों के दिलों में शुब्हााे डालें और उन्हें हक़ से लड़ने के लिए हथियार जुटाकर दें।
87. यानी एक तरफ़ अल्लाह की ख़ुदावन्दी का इक़रार करना और दूसरी तरफ़ अल्लाह से फिरे हुए लोगों के रास्ते पर चलना और उनके मुक़र्रर किए हुए तरीक़ों की पाबन्दी करना शिर्क है। तौहीद यह है कि ज़िन्दगी सरासर अल्लाह की इताअत में बसर हो। अल्लाह के साथ अगर दूसरों को अपने अक़ीदों में आज़दाना तौर पर हुक्म देनेवाला मान लिया जाए तो यह अक़ीदे का शिर्क है, और अगर अमली तौर पर ऐसे लोगों की इताअत की जाए जो अल्लाह की हिदायत से बनियाज़ होकर ख़ुद हुक्म देने और रोकने के मुख़्तार बन गए हों तो यह अमली शिर्क है।
إِنِّي وَجَّهۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّذِي فَطَرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ حَنِيفٗاۖ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 114
(79) मैंने तो यकसू (एकाग्र) होकर अपना रुख़़ उस हस्ती की तरफ़ कर लिया जिसने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया है और मैं हरगिज़ शिर्क करनेवालों में से नहीं हूँ।”
وَحَآجَّهُۥ قَوۡمُهُۥۚ قَالَ أَتُحَٰٓجُّوٓنِّي فِي ٱللَّهِ وَقَدۡ هَدَىٰنِۚ وَلَآ أَخَافُ مَا تُشۡرِكُونَ بِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَشَآءَ رَبِّي شَيۡـٔٗاۚ وَسِعَ رَبِّي كُلَّ شَيۡءٍ عِلۡمًاۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 115
(80) उसकी क़ौम उससे झगड़ने लगी तो उसने क़ौम से कहा, “क्या तुम लोग अल्लाह के मामले में मुझ से झगड़ते हो? हालाँकि उसने मुझे सीधा रास्ता दिखा दिया है। और मैं तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों से नहीं डरता। हाँ, अगर मेरा रब कुछ चाहे तो वह ज़रूर हो सकता है। मेरे रब का इल्म हर चीज़ पर छाया हुआ है। फिर क्या तुम होश में न आओगे?54
54. मूल अरबी में लफ़्ज़ 'तज़क्कुर' इस्तेमाल हुआ है, जिसका सही मतलब यह है कि एक आदमी जो ग़फ़लत और भुलावे में पड़ा हुआ हो वह चौंककर उस चीज़ को याद कर ले जिससे वह ग़ाफ़िल था। इसी लिए हम ने अरबी जुमले 'अ-फ़-ला त-तज़क्करून' का यह तर्जमा किया है। हज़रत इबरहीम (अलैहि०) के कहने का मतलब यह था कि तुम जो कुछ कह रहे हो, तुम्हारा अस्ली और हक़ीक़ी रब इससे बेख़बर नहीं है, उसका इल्म सारी चीज़ों पर फैला हुआ है, फिर क्या इस हक़ीक़त को जानकर भी तुम्हें होश न आएगा?
وَكَيۡفَ أَخَافُ مَآ أَشۡرَكۡتُمۡ وَلَا تَخَافُونَ أَنَّكُمۡ أَشۡرَكۡتُم بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ عَلَيۡكُمۡ سُلۡطَٰنٗاۚ فَأَيُّ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ أَحَقُّ بِٱلۡأَمۡنِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 116
(81) और आख़िर मैं तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों से कैसे डरूँ जबकि तुम अल्लाह के साथ उन चीज़ों को ख़ुदाई में शरीक बनाते हुए नहीं डरते जिनके लिए उसने तुम पर कोई सनद नहीं उतारी है? हम दोनों फ़रीकों में से कौन ज़्यादा बेख़ौफ़ी और इत्मीनान का हक़दार है? बताओ अगर तुम कुछ इल्म रखते हो।
فَمَن يُرِدِ ٱللَّهُ أَن يَهۡدِيَهُۥ يَشۡرَحۡ صَدۡرَهُۥ لِلۡإِسۡلَٰمِۖ وَمَن يُرِدۡ أَن يُضِلَّهُۥ يَجۡعَلۡ صَدۡرَهُۥ ضَيِّقًا حَرَجٗا كَأَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِي ٱلسَّمَآءِۚ كَذَٰلِكَ يَجۡعَلُ ٱللَّهُ ٱلرِّجۡسَ عَلَى ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 117
(125) तो (यह हक़ीक़त है कि) जिसे अल्लाह हिदायत बख़्शने का इरादा करता है उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है92 और जिसे गुमराही में डालने का इरादा करता है उसके सीने को तंग कर देता है और ऐसा भींचता है कि (इस्लाम का तसव्वुर करते ही) उसे यूँ मालूम होने लगता है कि मानो उसकी रूह आसमान की तरफ़ परवाज़ कर रही है। इस तरह अल्लाह (हक़ से फ़रार और नफ़रत की) नापाकी उन लोगों पर मुसल्लत कर देता है जो ईमान नहीं लाते;
92. सीना खोल देने से मुराद इस्लाम की सच्चाई पर पूरी तरह मुत्मइन कर देना और शक और शुब्हाों, तज़बज़ुब और तरद्दुद (संकोच और दुविधा) को दूर कर देना है।
وَهَٰذَا صِرَٰطُ رَبِّكَ مُسۡتَقِيمٗاۗ قَدۡ فَصَّلۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لِقَوۡمٖ يَذَّكَّرُونَ ۝ 118
(126) हालाँकि यह रास्ता तुम्हारे रब का सीधा रास्ता है और उसके निशान उन लोगों के लिए वाज़ेह कर दिए गए हैं जो नसीहत क़ुबूल करते हैं।
۞لَهُمۡ دَارُ ٱلسَّلَٰمِ عِندَ رَبِّهِمۡۖ وَهُوَ وَلِيُّهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 119
(127) उनके लिए उनके रब के पास सलामती का घर है93 और वह उनका सरपरस्त है उस सही रवैये की वजह से जो उन्होंने इख़्तियार किया।
93. “सलामती का घर” यानी जन्नत जहाँ इनसान हर आफ़त से महफ़ूज़ और हर ख़राबी से बचाव में होगा।
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ جَمِيعٗا يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ قَدِ ٱسۡتَكۡثَرۡتُم مِّنَ ٱلۡإِنسِۖ وَقَالَ أَوۡلِيَآؤُهُم مِّنَ ٱلۡإِنسِ رَبَّنَا ٱسۡتَمۡتَعَ بَعۡضُنَا بِبَعۡضٖ وَبَلَغۡنَآ أَجَلَنَا ٱلَّذِيٓ أَجَّلۡتَ لَنَاۚ قَالَ ٱلنَّارُ مَثۡوَىٰكُمۡ خَٰلِدِينَ فِيهَآ إِلَّا مَا شَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 120
(128) जिस रोज़ अल्लाह उन सब लोगों को घेर कर जमा करेगा, उस रोज़ वह जिन्नों94 से ख़िताब करके फ़रमाएगा कि “ऐ जिन्नों के गरोह, तुमने तो इनसानी बिरादरी पर ख़ूब हाथ साफ़ किया।” इनसानों में से जो उनके साथी थे वे कहेंगे कि “परवरदिगार, हम में से हर एक ने दूसरे को ख़ूब इस्तेमाल किया है,95 और अब हम उस वक़्त पर आ पहुँचे हैं जो तू ने हमारे लिए मुक़र्रर कर दिया था।” अल्लाह कहेगा, “अच्छा, अब आग तुम्हारा ठिकाना है, इसमें तुम हमेशा रहोगे।” उससे बचेंगे सिर्फ़ वही लोग जिन्हें अल्लाह बचाना चाहेगा, बेशक तुम्हारा रख सूझ-बूझवाला और जाननेवाला है।96
94. यहाँ जिन्नों से मुराद शैतान जिन्न हैं।
95. यानी हममें से हर एक ने दूसरे से नाजाइज़ फ़ायदे उठाए हैं, हर एक-दूसरे को धोखे और फ़रेब में डालकर अपनी ख़ाहिशें पूरी करता रहा है।
96. यानी हालाँकि अल्लाह को इख़्तियार है कि जिसे चाहे सज़ा दे और जिसे चाहे माफ़ कर दे, मगर यह सज़ा और माफ़ी बिना किसी मुनासिब वजह के सिर्फ़ ख़ाहिश की बुनियाद पर नहीं होगी, बल्कि इल्म और हिकमत की बुनियाद पर होगी। ख़ुदा माफ़ उसी मुजरिम को करेगा जिसके बारे में वह जानता है कि वह ख़ुद अपने जुर्म का ज़िम्मेदार नहीं है और जिसके बारे में उसकी हिकमत यह फ़ैसला करेगी कि उसे सज़ा नहीं दी जानी चाहिए।
وَكَذَٰلِكَ نُوَلِّي بَعۡضَ ٱلظَّٰلِمِينَ بَعۡضَۢا بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 121
(129) देखो, इस तरह हम (आख़िरत में) ज़ालिमों को एक-दूसरे का साथी बनाएँगे, उस कमाई की वजह से जो वे (दुनिया में एक-दूसरे के साथ मिलकर) करते थे।97
97. यानी जिस तरह वे दुनिया में गुनाह समेटने और बुराई करने में एक-दूसरे के शरीक थे उसी तरह आख़िरत की सज़ा पाने में भी वे एक-दूसरे के शरीक होंगे।
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ رُسُلٞ مِّنكُمۡ يَقُصُّونَ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتِي وَيُنذِرُونَكُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَاۚ قَالُواْ شَهِدۡنَا عَلَىٰٓ أَنفُسِنَاۖ وَغَرَّتۡهُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَشَهِدُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمۡ أَنَّهُمۡ كَانُواْ كَٰفِرِينَ ۝ 122
(130) (इस मौक़े पर अल्लाह उनसे यह भी पूछेगा कि) “ऐ जिन्नों और इनसानों के गरोह, क्या तुम्हारे पास ख़ुद तुम ही में से वे पैग़म्बर नहीं आए थे जो तुमको मेरी आयतें सुनाते और इस दिन के अंजाम से डराते थे?” वे कहेंगे, “हाँ, हम अपने ख़िलाफ़ ख़ुद गवाही देते हैं।98 आज दुनिया की ज़िन्दगी ने इन लोगों को धोखे में डाल रखा है, मगर उस वक़्त वे ख़ुद अपने ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि वे इनकारी थे।99
98. यानी हम इक़रार करते हैं कि आपकी तरफ़ से रसूल पर रसूल आते और हमें हक़ीक़त से ख़बरदार करते रहे, मगर यह हमारा अपना कुसूर था कि हमने उनकी बात न मानी।
199. यानी बेख़बर और अनजान न थे, बल्कि इनकारी थे। वे ख़ुद तस्लीम करेंगे कि हक़ हम तक पहुँचा था, मगर हमने ख़ुद उसे क़ुबूल करने से इनकार कर दिया था।
ذَٰلِكَ أَن لَّمۡ يَكُن رَّبُّكَ مُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ بِظُلۡمٖ وَأَهۡلُهَا غَٰفِلُونَ ۝ 123
(131) (यह गवाही उनसे इसलिए ली जाएगी कि यह साबित हो जाए कि) तुम्हारा रब बस्तियों को ज़ुल्म के साथ तबाह करनेवाला न था। जबकि उनके बाशिन्दे हक़ीक़त से बेख़बर हों।100
100. यानी अल्लाह अपने बन्दों को यह मौक़ा नहीं देना चाहता कि वह उसके मुक़ाबले में यह शिकायत कर सकें कि आपने हमें हक़ीक़त से तो आगाह किया नहीं, और न हम को सही रास्ता बताने का कोई इन्तिज़ाम फ़रमाया, मगर जब न जानने की बुनियाद पर हम ग़लत राह पर चल पड़े तो अब आप हमें पकड़ते हैं। इसी हुज्जत और शिकायत को ख़त्म कर देने के लिए अल्लाह ने पैग़म्बर भेजे और किताबें उतारीं, ताकि जिन्नों और इनसानों को साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दिया जाए। अब अगर लोग ग़लत रास्तों पर चलते हैं और अल्लाह उनको सज़ा देता है तो उसका इलज़ाम ख़ुद उनपर है, न कि अल्लाह पर।
وَلِكُلّٖ دَرَجَٰتٞ مِّمَّا عَمِلُواْۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا يَعۡمَلُونَ ۝ 124
(132) हर शख़्स का दरजा उसके काम के लिहाज़ से है और तुम्हारा रब लोगों के कामों से बे-ख़बर नहीं है।
وَرَبُّكَ ٱلۡغَنِيُّ ذُو ٱلرَّحۡمَةِۚ إِن يَشَأۡ يُذۡهِبۡكُمۡ وَيَسۡتَخۡلِفۡ مِنۢ بَعۡدِكُم مَّا يَشَآءُ كَمَآ أَنشَأَكُم مِّن ذُرِّيَّةِ قَوۡمٍ ءَاخَرِينَ ۝ 125
(133) तुम्हारा रब बे-नियाज़ है और मेहरबानी उसका तरीक़ा है।101 अगर वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और तुम्हारी जगह दूसरे जिन लोगों को चाहे ले आए, जिस तरह उसने तुम्हें कुछ और लोगों की नस्ल से उठाया है।
101. “तुम्हारा रब बे-नियाज़ है” यानी उसकी कोई ग़रज तुमसे अटकी हुई नहीं है, उसका कोई फ़ायदा तुमसे जुड़ा हुआ नहीं है कि तुम्हारी नाफ़रमानी से उसका कुछ बिगड़ जाता हो, या तुम्हारी फ़रमाँबरदारी से उसको कोई फ़ायदा पहुँच जाता हो। तुम सब मिलकर सख़्त नाफ़रमान बन जाओ तो उसकी बादशाही में ज़र्रा बराबर कमी नहीं कर सकते। और सबके सब मिलकर उसके फ़रमाँबरदार और इबादतगुज़ार बन जाओ तो उसकी सल्तनत में कोई इज़ाफ़ा नहीं कर सकते। वह न तुम्हारी सलामियों का मुहताज है और न तुम्हारी नज़्र व नियाज़ का। अपने बेशुमार ख़ज़ाने तुमपर लुटा रहा है बग़ैर इसके कि उनके बदले में अपने लिए तुमसे कुछ चाहे। “मेहरबानी उसका तरीक़ा है” यहाँ मौक़े के लिहाज़ से इस जुमले के दो मतलब हैं। एक यह कि तुम्हारा रब तुमको सीधे रास्ते पर चलने की जो नसीहत करता है आर अस्ल हक़ीक़त के ख़िलाफ़ रवैया इख़्तियार करने से जो मना करता है उसकी वजह यह नहीं है कि तुम्हारा सीधे रास्ते पर चलने से उसका कोई फ़ायदा और ग़लत रास्ते पर चलने से उसका कोई नुक़सान होता है, बल्कि इसकी वजह अस्ल में यह है कि सीधे रास्ते पर चलने में तुम्हारा अपना फ़ायदा है। और ग़लत रास्ते पर चलने में तुम्हारा अपना नुक़सान है। इसलिए यह सरासर उसकी मेहरबानी है कि वे तुम्हें उस सही रवैये की तालीम देता है जिससे तुम बुलन्द दरजों तक तरक़्क़ी करने के क़ाबिल बन सकते हो और उस ग़लत रवैये से रोकता है जिसकी बदौलत तुम पस्त मर्तबों की तरफ़ गिरा करते हो। दूसरे यह कि तुम्हारा रब सख़्त पकड़ करनेवाला नहीं है, तुमको सज़ा देने में उसे कोई मज़ा नहीं आता है, वह तुम्हें पकड़ने और मारने पर तुला हुआ नहीं है कि ज़रा तुमसे ग़लती हो जाए और वह तुम्हारी ख़बर ले डाले। हक़ीक़त में वह अपनी तमाम मख़लूक़ पर बहुत ही मेहरबान है, इन्तिहाई दरजे के रहम और करम के साथ ख़ुदाई कर रहा है, और यही उसका मामला इनसानों के साथ भी है। इसी लिए वह तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करता चला जाता है। तुम नाफ़रमानियाँ करते हो, गुनाह करते हो, जुर्म करते हो, उसकी रोज़ी से पलकर भी उसके हुक्मों से मुँह मोड़ते हो, मगर वह बरदाश्त और माफ़ी ही से काम लिए जाता है और तुम्हें संभलने और समझने और अपनी इस्लाह कर लेने के लिए मुहलत पर मुहलत दिए जाता है। वरना अगर वह सख़्त पकड़ करनेवाला होता तो उसके लिए कुछ मुश्किल नहीं था कि तुम्हें दुनिया से रुख़सत कर देता और तुम्हारी जगह किसी दूसरी क़ौम को उठा खड़ा करता, या सारे इनसानों को ख़त्म करके कोई और मख़लूक़ पैदा कर देता।
إِنَّ مَا تُوعَدُونَ لَأٓتٖۖ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 126
(134) तुमसे जिस चीज़ का वादा किया जा रहा है वह यक़ीनन आनेवाली है?102 और तुम ख़ुदा को मजबूर कर देने की ताक़त नहीं रखते।
102. यानी क़ियामत, जिसके बाद तमाम अगले-पिछले इनसान नए सिरे से ज़िन्दा किए जाएँगे और अपने रब के सामने आख़िरी फ़ैसले के लिए पेश होंगे।
قُلۡ يَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَامِلٞۖ فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن تَكُونُ لَهُۥ عَٰقِبَةُ ٱلدَّارِۚ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 127
(135) ऐ नबी! कह दो कि लोगो, तुम अपनी जगह अमल करते रहो और मैं भी अपनी जगह अमल कर रहा हूँ103 जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि अंजाम किस के हक़ में बेहतर होता है। बहरहाल यह हक़ीक़त है कि ज़ालिम कभी फ़लाह नहीं पा सकते।
103. यानी अगर मेरे समझाने से तुम नहीं समझते और अपने ग़लत रवैये से नहीं रुकते तो जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, चले जाओ, और मुझे अपनी राह पर चलने के लिए छोड़ दो, अंजाम जो कुछ होगा वह तुम्हारे सामने भी आ जाएगा और मेरे सामने भी।
وَجَعَلُواْ لِلَّهِ مِمَّا ذَرَأَ مِنَ ٱلۡحَرۡثِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ نَصِيبٗا فَقَالُواْ هَٰذَا لِلَّهِ بِزَعۡمِهِمۡ وَهَٰذَا لِشُرَكَآئِنَاۖ فَمَا كَانَ لِشُرَكَآئِهِمۡ فَلَا يَصِلُ إِلَى ٱللَّهِۖ وَمَا كَانَ لِلَّهِ فَهُوَ يَصِلُ إِلَىٰ شُرَكَآئِهِمۡۗ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 128
(136) इन लोगों ने104 अल्लाह के लिए ख़ुद उसी की पैदा की हुई खेतियों और मवेशियों में से एक हिस्सा मुक़र्रर किया है और अपने ख़याल से कहते हैं कि यह अल्लाह के लिए है, और यह हमारे ठहराए हुए शरीकों के लिए105 फिर जो हिस्सा उनके ठहराए हुए शरीकों के लिए है वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता। मगर जो अल्लाह के लिए है वह उनके शरीकों को पहुँच जाता है।106 कैसे बुरे फ़ैसले करते हैं ये लोग!
104. तक़रीर का ऊपर का सिलसिला इस बात पर ख़त्म हुआ था कि अगर ये लोग नसीहत क़ुबूल करने के लिए तैयार नहीं हैं और अपनी जाहिलियत पर अड़े ही रहते हैं तो इनसे कह दो कि अच्छा, तुम अपने तरीक़े पर अमल करते रहो और में अपने तरीक़े पर अमल करूँगा, क़ियामत एक दिन ज़रूर आनी है, उस वक़्त तुम्हें मालूम हो जाएगा कि इस रवैये का क्या अंजाम होता है। बहरहाल यह ख़ूब समझ लो कि वहाँ ज़ालिमों को फ़लाह नसीब न होगी। इसके बाद अब उस जाहिलियत का मतलब बताया जाता है जिस पर वे लोग अड़े हुए थे और जिसे छोड़ने पर किसी तरह तैयार न होते थे। उन्हें बताया जा रहा है कि तुम्हारा वह “ज़ुल्म” क्या है जिसपर क़ायम रहते हुए तुम किसी फ़लाह और कामयाबी की उम्मीद नहीं कर सकते।
105. इस बात को वे ख़ुद मानते थे कि ज़मीन अल्लाह की है और खेतियाँ वही उगाता है। इसी के साथ उन जानवरों का पैदा करनेवाला भी अल्लाह ही है जिनसे वे अपनी ज़िन्दगी में ख़िदमत लेते हैं। लेकिन उनका ख़याल यह था कि उनपर अल्लाह का यह फ़ज़्ल उन देवियों और देवताओं और फ़रिश्तों और जिन्नों और आसमानी सितारों और गुज़रे हुए बुज़ुर्गों की रूहों की वजह से और बरकत से है जो उनपर रहमत की नज़र रखते हैं। इसलिए वे अपने खेतों की पैदावार और अपने जानवरों में से दो हिस्से निकालते थे। एक हिस्सा अल्लाह के नाम का, इस शुक्रिये में कि उसने ये खेत और ये जानवर बख़्शे। और दूसरा हिस्सा अपने क़बीले या ख़ानदान के सरपरस्त माबूदों की नज़्र व नियाज़ का, ताकि उनकी मेहरबानियाँ उनके साथ रहें। अल्लाह सबसे पहले उनके इसी ज़ुल्म पर पकड़ करता है कि ये सब मवेशी हमारे पैदा किए हुए और हमारे दिए हुए हैं, इनमें यह दूसरों की नज़्र व नियाज़ कैसी? यह नमक हरामी नहीं तो क्या है कि तुम अपने मुहसिन के एहसान को, जो उसने सरासर ख़ुद अपने फ़ज़्ल और करम से तुम पर किया है, दूसरों की दख़लअन्दाज़ी और उनका ज़रिआ और वास्ता बनने का नतीजा क़रार देते हो और शुक्रिए के हक़ में उन्हें उसके साथ शरीक करते हो। फिर इशारे के तौर पर दूसरी गिरफ़्त इस बात पर भी की है कि यह अल्लाह का हिस्सा जो उन्होंने मुक़र्रर किया है यह भी अपने आप ही कर लिया है, अपने लिए क़ानून बनानेवाले ख़ुद बन बैठे हैं, आप ही जो हिस्सा चाहते हैं अल्लाह के लिए मुक़र्रर कर लेते हैं और जो चाहते हैं दूसरों के लिए तय कर देते हैं। हालाँकि अपनी बख़्शिश का अस्ल मालिक और मुख़्तार ख़ुद अल्लाह है और यह बात उसी की शरीअत के मुताबिक़ तय होनी चाहिए कि इस बख़्शिश में से कितना हिस्सा उसके शुक्रिए के लिए निकाला जाए और बाक़ी में कौन-कौन हक़दार हैं। तो हक़ीक़त में इस मनमाने तरीक़े से जो हिस्सा ये लोग अपने झूठे ख़याल में ख़ुदा के लिए निकालते हैं और फ़क़ीरों और मुहताजों पर ख़ैरात करते हैं वह भी कोई नेकी नहीं है। ख़ुदा के यहाँ उसके क़ुबूल होने की भी कोई वजह नहीं।
106. यह लतीफ़ तंज़ (व्यंग्य) है उनकी इस हरकत पर कि वे ख़ुदा के नाम से जो हिस्सा निकालते थे उसमें भी तरह-तरह की चालबाज़ियाँ करके कमी करते रहते थे और हर सूरत से अपने ख़ुद के गढ़े हुए शरीकों का हिस्सा बढ़ाने की कोशिश करते थे, जिससे ज़ाहिर होता था कि जो दिलचस्पी उन्हें अपने उन शरीकों से है वे ख़ुदा से नहीं है। मिसाल के तौर पर, जो ग़ल्ले या फल वग़ैरा ख़ुदा के नाम पर निकाले जाते उनमें से अगर कुछ गिर जाता तो वह शरीकों के हिस्से में शामिल कर दिया जाता था, और अगर शरीकों के हिस्से में से गिरता, या ख़ुदा के हिस्से में मिल जाता तो उसे उन्हीं के हिस्से में वापस किया जाता। खेत का जो हिस्सा शरीकों की नज़्र के लिए ख़ास किया जाता था, अगर उसमें से पानी उस हिस्से की तरफ़ फूट बहता जो ख़ुदा की नज़्र के लिए ख़ास होता था तो उसकी सारी पैदावार शरीकों के हिस्से में दाख़िल कर दी जाती थी, लेकिन अगर उसके बरख़िलाफ़ सूरत पेश आती तो ख़ुदा के हिस्से में कोई बढ़ोतरी न की जाती। अगर कभी सूखा पड़ने की वजह से नज़्र व नियाज़ का ग़ल्ला ख़ुद इस्तेमाल करने की ज़रूरत पेश आ जाती तो ख़ुदा का हिस्सा खा लेते थे मगर साझीदारों के हिस्से को हाथ लगाते हुए डरते थे कि कहीं कोई बला नाज़िल न हो जाए। अगर किसी वजह से शरीकों के हिस्से में कुछ कमी आ जाती तो वे ख़ुदा के हिस्से से पूरी की जाती थी लेकिन ख़ुदा के हिस्से में कमी होती तो शरीकों के हिस्से में से एक दाना भी इसमें न डाला जाता। इस रवैये पर कोई नुक्ताचीनी करता तो जवाब में तरह-तरह की दिलफ़रेब दलीलें दी जाती थीं। मिसाल के तौर पर, कहते थे कि ख़ुदा तो ग़नी (बेनियाज़) है, उसके हिस्से में से कुछ कम भी हो जाए तो उस क्या परवाह हो सकती है। रहे ये शरीक, तो ये बन्दे हैं, ख़ुदा की तरह ग़नी नहीं हैं, इसलिए ज़रा-सी कमी या बेशी पर भी उनके यहाँ पकड़ हो जाती है। इन अन्धविश्वासों की अस्ल जड़ क्या थी, इसको समझने के लिए यह जान लेना भी ज़रूरी है कि अरब के जाहिल लोग अपने माल में से जो हिस्सा ख़ुदा के लिए निकालते थे, वह फ़क़ीरों, मुहताजों, मुसाफ़िरों और यतीमों वग़ैरा की मदद में ख़र्च किया जाता था, और जो हिस्सा शरीकों की नज़्र व नियाज़ के लिए निकालते थे वह या तो सीधे तौर पर मज़हबी तबक़ों के पेट में जाता था या आस्तानों पर चढ़ावे की सूरत में पेश किया जाता और इस तरह घूम-घुमाकर मुजाविरों (मठाधीशों) और पुजारियों तक पहुँच जाता था। इसी लिए इन ख़ुदग़रज़ मज़हबी पेशवाओं ने सदियों की लगातार नसीहत से उन जाहिलों के दिल में यह बात बिठाई थी कि ख़ुदा के हिस्से में कमी हो जाए तो कुछ हरज नहीं, मगर 'ख़ुदा के प्यारों' के हिस्से में कमी नहीं होनी चाहिए, बल्कि जहाँ तक हो सके कुछ बढ़ोतरी ही होती रहे तो बेहतर है।
وَكَذَٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيرٖ مِّنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ قَتۡلَ أَوۡلَٰدِهِمۡ شُرَكَآؤُهُمۡ لِيُرۡدُوهُمۡ وَلِيَلۡبِسُواْ عَلَيۡهِمۡ دِينَهُمۡۖ وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَا فَعَلُوهُۖ فَذَرۡهُمۡ وَمَا يَفۡتَرُونَ ۝ 129
(137) और इसी तरह बहुत-से मुशरिकों के लिए उनके शरीकों ने अपनी औलाद के क़त्ल को ख़ुशनुमा बना दिया है।107 ताकि उनको हलाकत में डालें108 और उन पर उनके दीन को मुश्तबह (सन्दिग्ध) बना दें।109 अगर अल्लाह चाहता तो ये ऐसा न करते। तो इन्हें छोड़ दो कि झूठ गढ़ने के काम में लगे रहें।110
107. यहाँ 'शरीकों’ का लफ़्ज़ एक-दूसरे मानी में इस्तेमाल हुआ है जो ऊपर के मानी से अलग है। ऊपर की आयत में जिन्हें शरीक कहा गया था वे उनके माबूद थे जिनकी बरकत या सिफ़ारिश या वास्ते को ये लोग नेमत के हासिल करने में मददगार समझते थे और नेमत के शुक्र के हक़ में उन्हें ख़ुदा के साथ हिस्सेदार बनाते थे। इसके बरख़िलाफ़ इस आयत में शरीक से मुराद इनसान और शैतान हैं जिन्होंने औलाद के क़त्ल को उन लोगों की निगाह में एक जाइज़ और पसन्दीदा काम बना दिया था। उन्हें शरीक कहने की वजह यह है कि इस्लाम के नज़रिए से जिस तरह इबादत का हक़दार अकेला अल्लाह है इसी तरह बन्दों के लिए क़ानून बनाने और जाइज़ और नाजाइज़ की हदें मुक़र्रर करने का हक़दार भी सिर्फ़ अल्लाह है। इसलिए जिस तरह किसी दूसरे के आगे इबादत के कामों में से कोई काम करना उसे ख़ुदा का शरीक बनाने के बराबर है, उसी तरह किसी के ख़ुद के बनाए हुए क़ानून को हक़ समझते हुए उसकी पाबन्दी करना और उसकी मुक़र्रर की हुई हदों की इताअत को ज़रूरी मानना भी उसे ख़ुदाई में शरीक क़रार देने के बराबर है। ये दोनों काम बहरहाल शिर्क हैं, चाहे इनकार करनेवाला उन हस्तियों को ज़बान से इलाह और रब कहे या न कहे जिनके आगे वह नज़्र व नियाज़ पेश करता है या जिनके मुक़र्रर किए क़ानून को इताअत के लिए ज़रूरी मानता है। औलाद के क़त्ल की तीन सूरतें अरब के लोगों में राइज थीं और क़ुरआन में तीनों तरफ़ इशारा किया गया है– 1 लड़कियों का क़त्ल, इस ख़याल से कि कोई उनका दामाद न बने, या क़बायली लड़ाइयों में वे दुश्मन के हाथ न पड़ें, या किसी दूसरी वजह से वह उनके लिए शर्मिन्दगी की वजह न बनें। 2. बच्चों का क़त्ल, इस ख़याल से कि उनकी परवरिश का बोझ न उठाया जा सकेगा और ज़राए-मआश (आर्थिक संसाधनों) की कमी की वजह से वे नाक़ाबिले-बरदाश्त बोझ बन जाएँगे। 3. बच्चों को अपने माबूदों की ख़ुशनूदी के लिए भेंट चढ़ाना।
108. यह हलाकत का लफ़्ज़ निहायत गहरे मानी रखता है। इससे मुराद अख़लाक़्री हलाकत भी है कि जो इनसान संगदिली और सख़्ती की इस हद को पहुँच जाए कि अपनी औलाद को अपने हाथ से क़त्ल करने लगे, उसमें इनसानियत का जौहर होना तो दूर की बात है हैवानियत का जौहर तक बाक़ी नहीं रहता। और नौई और क़ौमी (जातीय और राष्ट्रीय) हलाकत भी कि औलाद के क़त्ल का लाज़िमी नतीजा नस्लों का घटना और आबादी का कम होना है, जिससे मानव-जाति को भी नुक़सान पहुँचता है और वह क़ौम भी तबाही के गढ़े में गिरती है जो अपने हामियों और अपने समाज के कारकुनों और मीरास के वारिसों को पैदा नहीं होने देती, या पैदा होते ही ख़ुद अपने हाथों उन्हें ख़त्म कर डालती है। और उससे मुराद अंजामी हलाकत भी है कि जो आदमी मासूम बच्चों पर यह ज़ुल्म करता है और जो अपनी इनसानियत को, बल्कि अपनी हैवानी फ़ितरत तक को यूँ उलटी छुरी से ज़बह करता है, और जो मानव-जाति के साथ और ख़ुद अपनी क़ौम के साथ यह दुश्मनी करता है, वह अपने आपको ख़ुदा के सख़्त अज़ाब का हक़दार बनाता है।
109. जाहिलियत के ज़माने के अरब अपने आपको हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) का पैरौ कहते और समझते थे और इस वजह से उनका ख़याल यह था कि जिस मज़हब की पैरवी कर रहे हैं वह ख़ुदा का पसन्दीदा मज़हब ही है। लेकिन जो दीन उन लोगों ने हज़रत इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) से सीखा था उसके अन्दर बाद की सदियों में मज़हबी पेशवा, क़बीलों के सरदार, ख़ानदानों के बड़े-बूढ़े और बहुत-से लोग तरह-तरह के अक़ीदों (धारणाओं), कामों और रस्मों का इज़ाफ़ा करते चले गए, जिन्हें आनेवाली नस्लों ने अस्ल मज़हब का हिस्सा समझा और अक़ीदतमन्दी के साथ उनकी पैरवी की। चूँकि रिवायतों में, या तारीख़ में, या किसी किताब में ऐसा कोई रिकॉर्ड महफ़ूज़ नहीं था जिससे मालूम होता कि अस्ल मज़हब क्या था और बाद में क्या चीज़ें किस ज़माने में किसने किस तरह बढ़ा दीं, इस वजह से अरब के लोगों के लिए उनका पूरा दीन शक व शुब्हाे से भरा हुआ होकर रह गया था। न किसी चीज़ के बारे में यक़ीन के साथ यही कह सकते थे कि यह अस्ल दीन का अंश है जो ख़ुदा की तरफ़ से आया था और न यही जानते थे कि ये बिदअतें (यानी नई गढ़ी हुई बातें) और ग़लत रस्में हैं जो बाद में लोगों ने बढ़ा दीं। इसी सूरते-हाल की तर्जुमानी इस जुमले में की गई है।
110. यानी अगर अल्लाह चाहता कि वे ऐसा न करें तो वे कभी न कर सकते थे, लेकिन चूँकि अल्लाह की मर्ज़ी यही थी कि जो आदमी जिस राह पर जाना चाहता है उसे जाने का मौक़ा दिया जाए। इसी लिए यह सब कुछ हुआ। इसलिए अगर ये लोग तुम्हारे समझाने से नहीं मानते और इस तरह के झूठ गढ़ने ही पर वे अड़े हुए हैं, तो जो कुछ ये करना चाहते हैं करने दो। इनके पीछे पड़ने की कुछ ज़रूरत नहीं।
وَقَالُواْ هَٰذِهِۦٓ أَنۡعَٰمٞ وَحَرۡثٌ حِجۡرٞ لَّا يَطۡعَمُهَآ إِلَّا مَن نَّشَآءُ بِزَعۡمِهِمۡ وَأَنۡعَٰمٌ حُرِّمَتۡ ظُهُورُهَا وَأَنۡعَٰمٞ لَّا يَذۡكُرُونَ ٱسۡمَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَا ٱفۡتِرَآءً عَلَيۡهِۚ سَيَجۡزِيهِم بِمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 130
(138) कहते हैं ये जानवर और ये खेत महफ़ूज़ हैं, इन्हें सिर्फ़ वही लोग खा सकते हैं, जिन्हें हम खिलाना चाहें, हालाँकि यह पाबन्दी उनकी ख़ुद की लगाई हुई है।111 फिर कुछ जानवर हैं जिनपर सवारी और बोझ ढोने का काम हराम कर दिया गया है और कुछ जानवर हैं जिनपर ये अल्लाह का नाम नहीं लेते।112 और यह सब कुछ इन्होंने अल्लाह पर झूठ गढ़ा है।113 जल्दी ही अल्लाह इन्हें इनके झूठ गढ़ने का बदला देगा।
111. अरब के लोगों का क़ायदा था कि कुछ जानवरों के बारे में या कुछ खेतियों की पैदावार के बारे में मन्नत मान लेते थे कि ये फ़ुलाँ आस्ताने या फ़ुलाँ हज़रत की नियाज़ के लिए ख़ास हैं। उस नियाज़ को हर एक न खा सकता था, बल्कि उसके लिए उनके यहाँ एक तफ़सीली ज़ाब्ता और क़ानून था जिसके मुताबिक़ मुख़्तलिफ़ नियाज़ों को मुख़्तलिफ़ क़िस्म के ख़ास लोग ही खा सकते थे। अल्लाह उनके इस काम को न सिर्फ़ मुशरिकाना कामों में शुमार करता है, बल्कि इस पहलू पर भी ख़बरदार करता है कि यह ज़ाब्ता और क़ानून उनका ख़ुद का गढ़ा हुआ है। यानी जिस ख़ुदा की रोज़ी में से वे ये मन्नतें मानते और नियाज़ें करते हैं, उसने न इन मन्नतों और नियाज़ों का हुक्म दिया है और न उनके खाने के बारे में ये पाबन्दियाँ लगाई हैं। यह सब कुछ उन सरकश और बाग़ी बन्दों ने अपने इख़्तियार से ख़ुद ही गढ़ लिया है।
112. रिवायतों से मालूम होता है कि अरब के लोगों के यहाँ कुछ ख़ास मन्नतों और नज़्रों के जानवर ऐसे होते थे जिनपर ख़ुदा का नाम लेना जाइज़ नहीं समझा जाता था। उनपर सवार होकर हज करना मना था, क्योंकि हज के लिए लब्बैक अल्लाहुम-म-लब्बैक (यानी हाज़िर हूँ मैं ऐ अल्लाह में हाज़िर हूँ!) कहना पड़ता था। इसी तरह उनका दूध दुहते वक़्त या उनपर सवार होने की हालत में, या उनको ज़ब्ह करते हुए, या उनको खाने के वक़्त इस बात का ख़ास ख़याल रखा जाता था कि ख़ुदा का नाम ज़बान पर न आए।
113. यानी ये क़ायदे ख़ुदा के मुक़र्रर किए हुए नहीं हैं, मगर वे उनकी पाबन्दी यही समझते हुए कर रहे हैं कि उन्हें ख़ुदा ने मुक़र्रर किया है, और ऐसा समझने के लिए उनके पास ख़ुदा के किसी हुक्म की सनद नहीं है, बल्कि सिर्फ़ यह सनद है कि बाप-दादा से यूँ ही होता चला आ रहा है।
وَقَالُواْ مَا فِي بُطُونِ هَٰذِهِ ٱلۡأَنۡعَٰمِ خَالِصَةٞ لِّذُكُورِنَا وَمُحَرَّمٌ عَلَىٰٓ أَزۡوَٰجِنَاۖ وَإِن يَكُن مَّيۡتَةٗ فَهُمۡ فِيهِ شُرَكَآءُۚ سَيَجۡزِيهِمۡ وَصۡفَهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 131
(139) और कहते हैं कि जो कुछ इन जानवरों के पेट में है ये हमारे मर्दो के लिए ख़ास है और हमारी औरतों पर हराम, लेकिन अगर वह मुर्दा हो तो दोनों उसके खाने में शरीक हो सकते हैं।114 ये बातें जो इन्होंने गढ़ ली हैं इनका बदला अल्लाह इन्हें देकर रहेगा। यक़ीनन वह हिकमतवाला है और सब बातों की उसे ख़बर है।
114. अरबवालों के यहाँ नज़्रों और मन्नतों के जानवरों के बारे में जो ख़ुद की गढ़ी हुई शरीअत बनी हुई थी उसकी एक दफ़ा यह भी थी कि उन जानवरों के पेट से जो बच्चा पैदा हो उसका गोश्त सिर्फ़ मर्द खा सकते हैं, औरतों के लिए उसका खाना जाइज़ नहीं। लेकिन अगर वह बच्चा मुर्दा हो या मर जाए तो उसका गोश्त खाने में मर्द और औरत दोनों शरीक हो सकते हैं।
قَدۡ خَسِرَ ٱلَّذِينَ قَتَلُوٓاْ أَوۡلَٰدَهُمۡ سَفَهَۢا بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَحَرَّمُواْ مَا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُ ٱفۡتِرَآءً عَلَى ٱللَّهِۚ قَدۡ ضَلُّواْ وَمَا كَانُواْ مُهۡتَدِينَ ۝ 132
(140) यक़ीनन घाटे में पड़ गए वे लोग जिन्होंने अपनी औलाद को जहालत और नादानी की बुनियाद पर क़त्ल किया और अल्लाह की दी हुई रोज़ी को अल्लाह पर झूठ गढ़ के हराम ठहरा लिया। यक़ीनन वे भटक गए और हरगिज़ वे सीधा रास्ता पानेवालों में से न थे।115
115. यानी हालाँकि वे लोग जिन्होंने ये रस्म और रिवाज गढ़े थे तुम्हारे बाप-दादा थे, तुम्हारे मज़हबी बुज़ुर्ग थे, तुम्हारे पेशवा और सरदार थे, लेकिन हक़ीक़त बहरहाल हक़ीक़त है, उनके पैदा किए हुए ग़लत तरीक़े सिर्फ़ इसलिए सही नहीं हो सकते कि वे तुम्हारे पूर्वज और बुज़ुर्ग थे। जिन ज़ालिमों ने औलाद के क़त्ल जैसे वहशियाना काम को रस्म बनाया हो, जिन्होंने ख़ुदा की दी हुई रोज़ी को ख़ाह-मख़ाह ख़ुदा के बन्दों पर हराम किया हो, जिन्होंने दीन में अपनी तरफ़ से नई-नई बातें शामिल करके ख़ुदा से जोड़ी हों, वे आख़िर कामयाब और सीधे रास्ते पर कैसे हो सकते हैं? चाहे वे तुम्हारे पूर्वज और बुज़ुर्ग ही क्यों न हों, बहरहाल थे वे गुमराह, और अपनी इस गुमराही का बुरा अंजाम भी वे देखकर रहेंगे।
۞وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَ جَنَّٰتٖ مَّعۡرُوشَٰتٖ وَغَيۡرَ مَعۡرُوشَٰتٖ وَٱلنَّخۡلَ وَٱلزَّرۡعَ مُخۡتَلِفًا أُكُلُهُۥ وَٱلزَّيۡتُونَ وَٱلرُّمَّانَ مُتَشَٰبِهٗا وَغَيۡرَ مُتَشَٰبِهٖۚ كُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦٓ إِذَآ أَثۡمَرَ وَءَاتُواْ حَقَّهُۥ يَوۡمَ حَصَادِهِۦۖ وَلَا تُسۡرِفُوٓاْۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلۡمُسۡرِفِينَ ۝ 133
(141) वह अल्लाह ही जिसने तरह-तरह के बाग़ और ताकिस्तान116 और नख़लिस्तान पैदा किए, खेतियाँ उगाईं जिनसे तरह-तरह के खाने की चीज़ें हासिल होती हैं, ज़ैतून और अनार के पेड़ पैदा किए जिनके फल सूरत में मिलते-जुलते और मज़े में मुख़्तलिफ़ होते हैं। खाओ इनकी पैदावार जबकि ये फलें, और अल्लाह का हक़ अदा करो जब उनकी फ़सल काटो, और हद से न गुज़रो कि अल्लाह हद से गुज़रनेवालों को पसन्द नहीं करता।
116. असूल अरबी में “जन्नातिम्मारुशातिंव व ग़ै-र मारुशातिन” के लफ़्ज़ इस्तेमाल किए गए हैं, जिनसे मुराद दो तरह के बाग़ हैं, एक वे जिनकी बेलें टट्टियों पर चढ़ाई जाती हैं। दूसरे वे जिनके पेड़ ख़ुद अपने तनों पर खड़े रहते हैं। हमारी ज़बान में बाग़ का लफ़्ज़ सिर्फ़ दूसरी तरह के बाग़ों के लिए इस्तेमाल होता है। इसलिए हमने अरबी जुमले “जन्नातिन ग़ै-र मारूशातिन” का तर्जमा 'बाग़' किया है और “जन्नातिम्मारूशातिन” के लिए ‘ताकिस्तान' (अंगूरी बाग़) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है।
وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ حَمُولَةٗ وَفَرۡشٗاۚ كُلُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ وَلَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 134
(142) फिर वही है जिसने मवेशियों में से वे जानवर भी पैदा किए जिनसे सवारी और बोझ ढोने का काम लिया जाता है और वे भी जो खाने और बिछाने के काम आते हैं।117 खाओ उन चीज़ों में से, जो अल्लाह ने तुम्हें दी हैं। और शैतान की पैरवी न करो कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।118
117. मूल अरबी में लफ़्ज़ 'फ़र्श' इस्तेमाल हुआ है। जानवरों को फ़र्श कहना या तो इस रिआयत से है कि वे छोटे क़द के हैं और ज़मीन से लगे हुए चलते हैं या इस रिआयत से कि वे ज़बह के लिए ज़मीन पर लिटाए जाते हैं, या इस रिआयत से कि उनकी खालों और उनके बालों से फ़र्श बनाए जाते हैं।
118. ऊपर से जो बात चली आ रही है उसको देखने से साफ़ मालूम होता है कि यहाँ अल्लाह तीन बातें ज़ेहन में बिठाना चाहता है। एक यह कि ये बाग़ और खेत और ये जानवर जो तुमको हासिल हैं, ये सब अल्लाह के बख़्शे हुए हैं, किसी दूसरे का इस बख़्शिश में कोई हिस्सा नहीं है, इसलिए बख़्शिश के शुक्रिए में भी किसी का कोई हिस्सा नहीं हो सकता। दूसरे यह कि जब ये चीज़ें अल्लाह की बख़्शिश हैं तो इनके इस्तेमाल में अल्लाह ही के क़ानून की पैरवी होनी चाहिए। किसी दूसरे को हक़ नहीं पहुँचता कि उनके इस्तेमाल पर अपनी तरफ़ से हदें मुक़र्रर कर दे। अल्लाह के सिवा किसी और की मुक़र्रर की हुई रस्मों की पाबन्दी करना ओर अल्लाह के सिवा किसी और के आगे नेमत के शुक्र की नज़्र पेश करना ही हद से गुज़रना है और यही शैतान की पैरवी है। तीसरे यह कि ये सब चीज़ें अल्लाह ने इनसान के खाने-पीने और इस्तेमाल करने ही के लिए पैदा की हैं, इसलिए पैदा नहीं कीं कि इन्हें ख़ाह-मख़ाह हराम कर लिया जाए। अपने अन्धविश्वासों और अटकलों की बुनियाद पर जो पाबन्दियों लोगों ने ख़ुदा की रोज़ी और उसकी बख़्शी हुई चीज़ों के इस्तेमाल पर लगा ली हैं वे सब अल्लाह की मंशा के ख़िलाफ़ हैं।
ثَمَٰنِيَةَ أَزۡوَٰجٖۖ مِّنَ ٱلضَّأۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَمِنَ ٱلۡمَعۡزِ ٱثۡنَيۡنِۗ قُلۡ ءَآلذَّكَرَيۡنِ حَرَّمَ أَمِ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ أَمَّا ٱشۡتَمَلَتۡ عَلَيۡهِ أَرۡحَامُ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۖ نَبِّـُٔونِي بِعِلۡمٍ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 135
(143) ये आठ नर और मादा हैं, दो भेड़ की क़िस्म से और दो बकरी की क़िस्म से। ऐ नबी! इनसे पूछो कि अल्लाह ने उनके नर हराम किए हैं या मादा, या वे बच्चे जो भेड़ों और बकरियों के पेट में हों? ठीक-ठीक इल्म के साथ मुझे बताओ, अगर तुम सच्चे हो।119
119. यानी अटकल और गुमान या बाप-दादा की रिवायतों को न पेश करो; बल्कि इल्म पेश करो, अगर वह तुम्हारे पास हो।
وَمِنَ ٱلۡإِبِلِ ٱثۡنَيۡنِ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ ٱثۡنَيۡنِۗ قُلۡ ءَآلذَّكَرَيۡنِ حَرَّمَ أَمِ ٱلۡأُنثَيَيۡنِ أَمَّا ٱشۡتَمَلَتۡ عَلَيۡهِ أَرۡحَامُ ٱلۡأُنثَيَيۡنِۖ أَمۡ كُنتُمۡ شُهَدَآءَ إِذۡ وَصَّىٰكُمُ ٱللَّهُ بِهَٰذَاۚ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا لِّيُضِلَّ ٱلنَّاسَ بِغَيۡرِ عِلۡمٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 136
(144) और इसी तरह दो ऊँट की क़िस्म से हैं और दो गाय की क़िस्म से। पूछो : इनके नर अल्लाह ने हराम किए हैं या मादा, या वे बच्चे जो ऊँटनी और गाय के पेट में हों?120 क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब अल्लाह ने उनके हराम होने का हुक्म तुम्हें दिया था? फिर उस शख़्स से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह से जोड़कर झूठी बात कहे, ताकि इल्म के बग़ैर लोगों की ग़लत रहनुमाई करे। यक़ीनन अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को सीधा रास्ता नहीं दिखाता।
120. यह सवाल इस तफ़सील के साथ उनके सामने इसलिए पेश किया गया है कि उनपर ख़ुद ये बात वाज़ेह हो जाए कि उनके अन्धविश्वास किसी दलील और इल्म की बुनियाद पर नहीं हैं। यह बात कि एक ही जानवर का नर हलाल हो और मादा हराम, या मादा हलाल हो और नर हराम, या जानवर ख़ुद हलाल हो मगर उसका बच्चा हराम, यह खुले तौर पर ऐसी ग़लत बात है कि सही अक़्ल इसे मानने से इनकार करती है और कोई अक़्लवाला इनसान यह तसव्वुर नहीं कर सकता कि ख़ुदा ने ऐसी बेहूदा बातों का हुक्म दिया होगा। फिर जिस तरीक़े से क़ुरआन अरबवालों को यह बात समझाने की कोशिश की है कि उनके अन्धविश्वास की बुनियाद न तो अक़्ल पर है और न इल्म पर बिलकुल उसी तरीक़े पर दुनिया की उन दूसरी क़ौमों को भी उनके अन्धविश्वासों की बेहूदा और ग़लत बातों पर ख़बरदार किया जा सकता है जिनके अन्दर खाने-पीने की चीज़ों को हराम करने या हलाल करने की ऐसी पाबन्दियाँ और छूत-छात के ऐसे बन्धन पाए जाते हैं जिनकी ताईद न अक़्ल करती है और न इल्म।
قُل لَّآ أَجِدُ فِي مَآ أُوحِيَ إِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلَىٰ طَاعِمٖ يَطۡعَمُهُۥٓ إِلَّآ أَن يَكُونَ مَيۡتَةً أَوۡ دَمٗا مَّسۡفُوحًا أَوۡ لَحۡمَ خِنزِيرٖ فَإِنَّهُۥ رِجۡسٌ أَوۡ فِسۡقًا أُهِلَّ لِغَيۡرِ ٱللَّهِ بِهِۦۚ فَمَنِ ٱضۡطُرَّ غَيۡرَ بَاغٖ وَلَا عَادٖ فَإِنَّ رَبَّكَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 137
(145) ऐ नबी। इनसे कहो कि जो वह्य मेरे पास आई है उसमें तो मैं कोई चीज़ ऐसी नहीं पाता जो किसी खानेवाले पर हराम हो, सिवाय इसके कि वह मुर्दार हो, या बहाया हुआ ख़ून हो, या सूअर का गोश्त हो कि वह नापाक है। या फ़िस्क (नाफ़रमानी) हो कि अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो।121 फिर जो शख़्स मजबूरी की हालत में (कोई चीज़ इनमें से खा ले) बग़ैर इसके कि वह नाफ़रमानी का इरादा रखता हो और बग़ैर इसके कि वह ज़रूरत की हद से आगे बढ़े। तो यक़ीनन तुम्हारा रब दरगुज़र और माफ़ी से काम लेनेवाला और रहम करनेवाला है।
121. यह मज़मून सूरा-2, अल-बक़रा की आयत-178 और सूरा-5, अल-माइदा की आयत-3 में आ चुका है, और आगे सूरा-16, अन-नह्ल की आयत-115 में आनेवाला है। सूरा-2, अल-बक़रा की आयत और इस आयत में बज़ाहिर इतना इख़्तिलाफ़ पाया जाता है कि वहाँ सिर्फ़ 'ख़ून' कहा गया है और यहाँ ख़ून के साथ ‘मसफ़ूह' की क़ैद लगाई गई है यानी ऐसा ख़ून जो किसी जानवर को जख़्मी करके या ज़बह करके निकाला गया हो। मगर अस्ल में यह इख़्तिलाफ़ नहीं, बल्कि उस हुक्म की तशरीह (व्याख्या) है। इसी तरह सूरा-5 अल-माइदा की आयत में इन चार चीज़ों के अलावा कुछ और चीज़ों को हराम किए जाने का भी ज़िक्र मिलता है यानी वे जानवर जो गला घुटकर या चोट खाकर या बुलन्दी से गिरकर या टक्कर खाकर मरा हो या जिसे किसी दरिन्दे ने फाड़ा हो। लेकिन हक़ीक़त में यह भी इख़्तिलाफ़ नहीं है, बल्कि एक तशरीह (व्याख्या) है जिससे मालूम होता है कि जो जानवर इस तीर पर हलाक हुए हों वे भी मुर्दार कहलाएँगे। इस्लाम के फ़ुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रियों) में से एक गरोह इस बात का क़ायल है कि हैवानी ग़िज़ाओं में से यही चार चीज़ें हराम हैं और इनके सिवा हर चीज़ का खाना जाइज़ है। यही मसलक हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) का था। लेकिन बहुत-सी हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने कुछ चीज़ों के खाने से या तो मना किया है या उन पर नापसन्दीदगी का इज़हार किया है। जैसे, पालतू गधे, कचुलियों (नुकीले दाँत) वाले दरिन्दे और पंजोंवाले परिन्दे। इस वजह से ज़्यादा तर फ़ुक़हा (धर्मशास्त्री) इन चार चीज़ों को ही हराम किए जाने तक महदूद नहीं मानते, बल्कि दूसरी चीज़ें भी इसमें शामिल कर देते हैं। मगर इसके बाद फिर बहुत-सी चीज़ों को हलाल और हराम होने में फ़ुक़हा के दरमियान इख़्तिलाफ़ हुआ है। मिसाल के तौर पर पालतू गधे को इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) हराम क़रार देते हैं। लेकिन कुछ दूसरे फ़ुक़हा कहते हैं कि वह हराम नहीं है, बल्कि किसी वजह से नबी (सल्ल०) ने एक मौक़े पर उसको मना कर दिया था। दरिन्दे जानवरों और शिकारी परिन्दों और मुर्दार खानेवाले जानवरों को हनफ़ी मसलक के उलमा बिलकुल हराम क़रार देते हैं। मगर इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक शिकारी परिन्दे हलाल हैं। लैस के नज़दीक बिल्ली हलाल है। इमाम शाफ़िई के नज़दीक सिर्फ़ वे दरिन्दे हराम हैं जो इनसान पर हमला करते हैं, जैसे शेर, भेड़िया, चीता वग़ैरा। इकरिमा के नज़दीक कौआ और बिज्जू दोनों हलाल हैं। इसी तरह हनफ़ी मसलक के उलमा ज़मीन के अन्दर रहनेवाले तमाम कीड़े-मकौड़ों को हराम क़रार देते हैं, मगर इब्ने-अबी-लैला, इमाम मालिक और औज़ाई के नज़दीक साँप हलाल है। इन सभी अलग-अलग बातों और उनकी दलीलों पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ मालूम होती है कि अस्ल में अल्लाह की शरीअत में बिलकुल हराम चीज़ें यही चार हैं, जिनका ज़िक्र क़ुरआन में किया गया है। उनके सिवा दूसरी हैवानी ग़िज़ाओं में मुख़्तलिफ़ दरजों की कराहत (नापसन्दीदगी) है। जिन चीज़ों का नापसन्द होना सही रिवायतों के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) से साबित है वे हराम होने के दरजे से ज़्यादा क़रीब हैं। और जिन चीज़ों में फ़ुक़हा के दरमियान इख़्तिलाफ़ हुआ है उनके नापसन्द होने में शक है। रही फ़ितरी नापसन्दीदगी जिसकी वजह से कुछ लोग कुछ चीज़ों को खाना पसन्द नहीं करते, गरोही नापसन्दीदगी जिसकी वजह से इनसानों के कुछ गरोह कुछ चीज़ों को नापसन्द करते हैं, या क़ौमी नापसन्दीदगी जिसकी वजह से कुछ क़ौमें कुछ चीज़ों से नफ़रत करती हैं, तो अल्लाह की शरीअत किसी को मजबूर नहीं करती कि वह ख़ाह-मख़ाह हर उस चीज़ को ज़रूर ही खा जाए, जो हराम नहीं की गई है और इसी तरह शरीअत किसी को यह हक़ भी नहीं देती कि वह अपनी नापसन्दीदगी या नफ़रत को क़ानून क़रार दे और उन लोगों पर इलज़ाम लगाए जो ऐसी जाएँ इस्तेमाल करते हैं जिन्हें वह नापसन्द करता है।
وَعَلَى ٱلَّذِينَ هَادُواْ حَرَّمۡنَا كُلَّ ذِي ظُفُرٖۖ وَمِنَ ٱلۡبَقَرِ وَٱلۡغَنَمِ حَرَّمۡنَا عَلَيۡهِمۡ شُحُومَهُمَآ إِلَّا مَا حَمَلَتۡ ظُهُورُهُمَآ أَوِ ٱلۡحَوَايَآ أَوۡ مَا ٱخۡتَلَطَ بِعَظۡمٖۚ ذَٰلِكَ جَزَيۡنَٰهُم بِبَغۡيِهِمۡۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 138
(146) और जिन लोगों ने यहूदियत इख़्तियार की उनपर हमने सब नाख़ुनवाले जानवर हराम कर दिए थे, और गाय और बकरी की चरबी भी, सिवाय उसके जो उनकी पीठ या उनकी आँतों से लगी हो या हड्डी से लगी रह जाए। यह हमने उनकी सरकशी की सज़ा उन्हें122 दी थी और ये जो कुछ हम कह रहे हैं, बिलकुल सच कह रहे हैं।
122. यह मज़मून क़ुरआन मजीद में तीन जगहों पर बयान हुआ है। सूरा-3, आले-इमरान की आयत-93 में फ़रमाया गया, “खाने की ये सारी चीज़ें (जो मुहम्मद सल्ल॰ की शरीअत में हलाल हैं) बनी-इसराईल के लिए भी हलाल थीं, अलबत्ता कुछ चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले इसराईल ने ख़ुद अपने ऊपर हराम कर लिया था। इनसे कहो कि लाओ तौरात और पेश करो उसकी कोई इबारत अगर तुम (अपने एतिराज़ में) सच्चे हो।” फिर सूरा-4, अन-निसा की आयत-160 में फ़रमाया कि बनी-इसराईल के जुर्मों की बुनियादों पर हमने बहुत-सी वे पाक चीज़ें उन पर हराम कर दीं जो पहले उनके लिए हलाल थीं।” और यहाँ कहा गया है कि उनकी सरकशियों के बदले में हमने उन पर तमाम नाख़ुनवाले जानवर हराम किए और बकरी और गाय की चरबी भी उनके लिए हराम ठहरा दी। इन तीनों आयतों को जमा करने से मालूम होता है कि मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत और यहूदी फिक़्ह के दरमियान हैवानी ग़िज़ाओं को हलाल और हराम किए जाने के मामले में जो फ़र्क़ पाया जाता है उनकी दो वजहें हैं– एक यह कि तौरात के उतरने से सदियों पहले हज़रत याक़ूब (इसराईल) ने कुछ चीज़ों का इस्तेमाल छोड़ दिया था और उनके बाद उनकी औलाद भी उन चीज़ों को छोड़ बैठी थी, यहाँ तक कि यहूदी फ़ुक़हा ने इनको बाक़ायदा हराम समझ लिया और उनके हराम होने की बात तौरात में लिख ली। इन चीज़ों में ऊँट और ख़रगोश और साफ़ान शामिल हैं। आज बाइबल में तौरात के जो हिस्से हमको मिलते हैं उनमें इन तीनों चीज़ों को हराम होने का ज़िक्र है। (देखें लैव्य-व्यवस्था 11:4-6, व्यववस्थविवरण 14:7) लेकिन क़ुरआन मजीद में यहूदियों को जो चैलेंज दिया गया था कि लाओ तौरात और दिखाओ ये चीज़ें कहाँ हराम लिखी हैं, इससे मालूम हुआ कि तौरात में इनका इज़ाफ़ा उसके बाद किया गया है, क्योंकि अगर उस वक़्त तौरात में ये अहकाम मौजूद होते तो बनी-इसराईल फ़ौरन लाकर पेश कर देते। दूसरा फ़र्क़ इस वजह से है कि अल्लाह की उतारी हुई शरीअत से जब यहूदियों ने बग़ावत की और आप अपनी शरीअत बनानेवाले बन बैठे तो उन्होंने बहुत-सी पाक चीज़ों को अपनी बाल की खाल निकालनेवाली आदत से ख़ुद हराम कर लिया और अल्लाह ने सज़ा के तौर पर उन्हें इस ग़लतफ़हमी में पड़े रहने दिया। इन चीज़ों में एक तो नाख़ुनवाले जानवर शामिल हैं, यानी शतुरमुर्ग, क़ाज़, बतख़ वग़ैरा। दूसरे गाय और बकरी की चरबी। बाइबल में इन दोनों तरह की हराम की गई चीज़ों को तौरात के हुक्मों में दाख़िल कर दिया गया है। (देखें लैव्य-व्यवस्था 3:17 ; व्यवस्थाविवरण 7:23-25) लेकिन सूरा-4, अन-निसा से मालूम होता है कि ये चीज़ें तौरात में हराम नहीं थीं, बल्कि ईसा (अलैहि०) के बाद हराम हुई हैं और इतिहास भी गवाही देता है कि मौजूदा यहूदी शरीअत दूसरी सदी ईसवी के आख़िर में रब्बी यहूदा के हाथों मुकम्मल हुई है। रहा यह सवाल कि फिर इन चीज़ों के बारे में यहाँ और सूरा-4, अन-निसा में अल्लाह ने 'हर्रमना' (हमने हराम किया) का लफ़्ज़ क्यों इस्तेमाल किया तो इसका जवाब यह है कि अल्लाह के हराम करने की सिर्फ़ यही एक सूरत नहीं है कि वह किसी पैग़म्बर और किताब के ज़रिए से किसी चीज़ को हराम करे, बल्कि इसकी एक सूरत यह भी है कि वे अपने बाग़ी बन्दों पर बनावटी शरीअत बनानेवालों और जाली क़ानून गढ़ लेनेवालों को मुसल्लत कर दे और वे उन पर पाक चीज़ों को हराम कर दें। पहली क़िस्म का हराम करना ख़ुदा की तरफ़ से रहमत के तौर पर होता है और यह दूसरी क़िस्म का हराम करना उसकी फिटकार और सज़ा के तौर पर हुआ करता है।
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل رَّبُّكُمۡ ذُو رَحۡمَةٖ وَٰسِعَةٖ وَلَا يُرَدُّ بَأۡسُهُۥ عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 139
(147) अब अगर वे तुम्हें झुठलाएँ तो उनसे कह दो कि तुम्हारे रब की रहमत का दामन फैला हुआ है और मुजरिमों से उसके अज़ाब को फेरा नहीं जा सकता।123
123. यानी अगर तुम अब भी अपनी नाफ़रमानी की रविश से बाज़ आ जाओ और बन्दगी के सही रवैये की तरफ़ पलट आओ तो अपने रब की रहमत के दामन को अपने लिए कुशादा पाओगे। लेकिन अगर अपनी इसी मुजरिमाना और बाग़ियाना रविश पर अड़े रहोगे तो ख़ूब जान लो कि उसके गज़ब से भी फिर कोई बचानेवाला नहीं है।
سَيَقُولُ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُواْ لَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ مَآ أَشۡرَكۡنَا وَلَآ ءَابَآؤُنَا وَلَا حَرَّمۡنَا مِن شَيۡءٖۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ حَتَّىٰ ذَاقُواْ بَأۡسَنَاۗ قُلۡ هَلۡ عِندَكُم مِّنۡ عِلۡمٖ فَتُخۡرِجُوهُ لَنَآۖ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا ٱلظَّنَّ وَإِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَخۡرُصُونَ ۝ 140
(148) ये मुशरिक लोग (तुम्हारी इन बातों के जवाब में) ज़रूर कहेंगे कि “अगर अल्लाह चाहता तो न हम शिर्क करते और न हमारे बाप-दादा, और न हम किसी चीज़ की को हराम ठहराते।"124 ऐसी ही बातें बना-बनाकर इनसे पहले के लोगों ने भी हक़ को झुठलाया था, यहाँ तक कि आख़िरकार हमारे अज़ाब का मज़ा उन्होंने चख लिया। इनसे कहो, “क्या तुम्हारे पास कोई इल्म है जिसे हमारे सामने पेश कर सको? तुम तो सिर्फ़ गुमान पर चल रहे हो और निरी अटकलें लगाते हो।”
124. यानी वे अपने जुर्म और अपनी ग़लतकारी के लिए वही पुराना उज़्र पेश करेंगे जो हमेशा से मुजरिम और ग़लतकार लोग पेश करते रहे हैं। वे कहेंगे कि हमारे हक़ में अल्लाह की मरज़ी यही है कि हम शिर्क करें और जिन चीज़ों को हमने हराम ठहरा रखा है उन्हें हराम ठहराएँ। वरना अगर ख़ुदा न चाहता कि हम ऐसा करें तो कैसे मुमकिन था कि ये काम हमसे होते। तो चूँकि हम अल्लाह की मरज़ी के मुताबिक़ ये सब कुछ कर रहे हैं इसलिए ठीक कर रहे हैं, इसका इलज़ाम अगर है तो हम पर नहीं, अल्लाह पर है। और जो कुछ हम कर रहे हैं ऐसा ही करने पर मजबूर हैं कि इसके सिवा कुछ और करना हमारी क़ुदरत से बाहर है।
ٱلَّذِينَ ءَاتَيۡنَٰهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ يَعۡرِفُونَهُۥ كَمَا يَعۡرِفُونَ أَبۡنَآءَهُمُۘ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 141
(20) जिन लोगों को हम ने किताब दी है वह इस बात को इस तरह बग़ैर किसी शक- शुब्हाे के पहचानते हैं। जैसे उनको अपने बेटों के पहचानने में कोई शक और शुब्हा नहीं होता।14 मगर जिन्होंने अपने आपको ख़ुद घाटे में डाल दिया है वे इसे नहीं मानते।
14. यानी आसमानी किताबों का इल्म रखनेवाले इस हक़ीक़त को बग़ैर किसी शक और शुब्हा के पहचानते हैं कि ख़ुदा एक ही है और ख़ुदाई में किसी का कुछ हिस्सा नहीं है। जिस तरह किसी का बच्चा बहुत-से बच्चों में मिला-जुला खड़ा हो तो वह अलग पहचान लेगा कि उसका बच्चा कौन-सा है, इसी तरह जो शख़्स अल्लाह की किताब का इल्म रखता हो वह ख़ुदाई के बारे में लोगों के बहुत-से अक़ीदों और नज़रियों (धारणाओं और विचारों) के बीच बिना किसी शक और शुब्हाे के यह पहचान लेता है कि इनमें से हक़ बात कौन-सी है।
۞قُلۡ تَعَالَوۡاْ أَتۡلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمۡ عَلَيۡكُمۡۖ أَلَّا تُشۡرِكُواْ بِهِۦ شَيۡـٔٗاۖ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنٗاۖ وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُم مِّنۡ إِمۡلَٰقٖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُكُمۡ وَإِيَّاهُمۡۖ وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلۡفَوَٰحِشَ مَا ظَهَرَ مِنۡهَا وَمَا بَطَنَۖ وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 142
(151) ऐ नबी! इनसे कहो कि आओ मैं तुम्हें सुनाऊँ तुम्हारे रब ने तुम पर क्या पाबन्दियाँ लगाई हैं।127 1) यह कि उसके साथ किसी को शरीक न करो, 128 2) और माँ-बाप के साथ नेक सुलूक करो,129 3) और अपनी औलाद को मुहताजी के डर से क़त्ल न करो, हम तुम्हें भी रोज़ी देते हैं और उनको भी देंगे। 4) और बेशर्मी की बातों के क़रीब भी न जाओ130 चाहे वे खुली हों या छिपी। 5) और किसी जान को, जिसे अल्लाह ने मुहतरम ठहराया है, हलाक न करो, मगर हक़ और इनसाफ़ के साथ।131 ये बातें हैं जिनकी हिदायत उसने तुम्हें की है, शायद कि तुम समझ-बूझ से काम लो।
127. यानी तुम्हारे रब की लागू की गई पाबन्दियाँ ये नहीं हैं जिनमें तुम गिरफ़्तार हो, बल्कि अस्ल पाबन्दियाँ ये हैं जो अल्लाह ने इनसानी ज़िन्दगी को ठीक तौर पर चलाने के लिए लागू की है। और जो हमेशा से अल्लाह की शरीअतों की अस्ल बुनियाद रही हैं। मुक़ाबले के लिए देखें बाइबल की किताब निर्गमन, अध्याय-20)
128. यानी न ख़ुदा की ज़ात में किसी को उसका शरीक ठहराओ, न उसकी सिफ़तों में, न उसके इख़्तियारात में, और न उसके हुक़ूक़ में। ज़ात में शिर्क यह है कि ख़ुदाई के जौहर में किसी को हिस्सेदार ठहराया जाए। जैसे ईसाइयों का तीन ख़ुदाओं का अक़ीदा, अरब के मुशरिकों (बहुदेववादियों) का फ़रिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ ठहराना, और दूसरे मुशरिकों का अपने देवताओं और देवियों को और अपने शाही ख़ानदानों को ख़ुदा की जिन्स ठहराना। ये सब ज़ात में शरीक ठहराना है। सिफ़ात (विशेषता और गुण) में शिर्क यह है कि ख़ुदाई सिफ़ात जैसी कि वे ख़ुदा के लिए हैं, वैसा ही उनको या उनमें से किसी सिफ़त को किसी दूसरे के लिए ठहराना। जैसे किसी के बारे में यह समझना कि उस पर ग़ैब की सारी हक़ीक़तें रौशन हैं, या वह सब कुछ सुनता और देखता है, या वह तमाम ऐबों और तमाम कमज़ोरियों से पाक और बिलकुल बे-ख़ता है। इख़्तियारात में शिर्क यह है कि ख़ुदा होने की हैसियत से जो इख़्तियारात सिर्फ़ अल्लाह के लिए ख़ास हैं उनको या उनमें से किसी को अल्लाह के सिवा किसी और के लिए तसलीम किया जाए। जैसे ग़ैर-फ़ितरी तरीक़ से फ़ायदा और नुक़सान पहुँचाना, ज़रूरतें पूरी करना और हाथ थाम लेना, हिफ़ाज़त और निगहबानी करना, दुआएँ सुनना और क़िस्मतों को बनाना और बिगाड़ना। साथ ही हराम और हलाल और जाइज़ और नाजाइज़ की हदें मुक़र्रर करना और इनसानी ज़िन्दगी के लिए क़ानून और शरीअत तय करना। ये सब ख़ुदा के ख़ास इख़्तियारात हैं जिनमें से किसी और को अल्लाह के सिवा किसी के लिए तसलीम करना शिर्क है। हुक़ूक़ में शिर्क यह है कि ख़ुदा होने की हैसियत से बन्दों पर ख़ुदा के जो ख़ास हक़ हैं वे या उनमें से कोई हक़ ख़ुदा के सिवा किसी और के लिए माना जाए। जैसे रुकू और सजदे करना, हाथ बाँधकर उसके सामने खड़े रहना, सलाम करना और आस्ताने को चूमना, नेमत के शुक्र या बड़ाई को तस्लीम करने के लिए नज़्र व नियाज़ और क़ुरबानी, ज़रूरतों को पूरा करने और मुश्किलों को दूर करने के लिए मन्नत, मुसीबतों और मुश्किलों में मदद के लिए पुकारा जाना और ऐसी ही इबादत और बुज़ुर्गी बयान करने की दूसरी तमाम सूरतें अल्लाह के ख़ास हक़ों में से हैं। इसी तरह ऐसा महबूब होना कि उसकी मुहब्बत पर दूसरी सब मुहब्बतें क़ुरबान की जाएँ, और डर व परहेज़गारी का ऐसा हक़दार होना कि छिपे और खुले में उसकी नाराज़ी और उसके हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी से डरा जाए, यह भी सिर्फ़ अल्लाह का हक़ है। और यह भी अल्लाह ही का हक़ है कि उसकी इताअत और फ़रमाँबरदारी बग़ैर किसी शर्त के की जाए, और उसकी हिदायत को सही और ग़लत की कसौटी माना जाए, और किसी ऐसी इताअत और फ़रमाँबरदारी का पट्टा अपने गले में न डाला जाए जो अल्लाह की इताअत और फ़रमाँबरदारी से आज़ाद एक मुस्तक़िल इताअत और फ़रमाँबरदारी हो और जिसके हुक्म के लिए अल्लाह के हुक्म की सनद हो। इन हक़ों में से जो हक़ भी दूसरे को दिया जाएगा वह अल्लाह का शरीक ठहरेगा, चाहे उसको ख़ुदाई नामों में से कोई नाम दिया जाए या न दिया जाए।
129. नेक सुलूक में अदब करना, बड़ाई बयान करना, फ़रमाँबरदारी, ख़ुशी की चाहत, ख़िदमत करना, सब शामिल हैं। माँ-बाप के इस हक़ को क़ुरआन में हर जगह तौहीद के हुक्म के बाद बयान फ़रमाया गया है जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा के बाद बन्दों के हक़ों में सबसे पहला हक़ इनसान पर उसके माँ-बाप का है।
130. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'फ़वाहिश' इस्तेमाल हुआ है जिसको उन सभी कामों के लिए बोला जाता है जिनकी बुराई बिलकुल वाज़ेह है। क़ुरआन में ज़िना, लूत (अलैहि०) की क़ौम का अमल, नंगापन, झूठी तोहमत, और ऐसी औरत से निकाह करना जिससे बाप निकाह कर चुका हो, इन सब कामों को फ़ुहश कामों में शुमार किया गया है। हदीस में चोरी और शराब पीने और भीख माँगने को कुल मिलाकर फ़वाहिश कहा गया है। इसी तरह दूसरे तमाम शर्मनाक काम भी फ़वाहिश में दाख़िल हैं और अल्लाह का इर्शाद यह है कि इस क़िस्म के काम न अलानियः किए जाएँ न छिपकर।
131. यानी इनसानी जान, जो अस्ल में ख़ुदा की तरफ़ से हराम ठहराई गई है, हलाक न की जाए। मगर हक़ के साथ। अब रहा सवाल यह कि “हक़ के साथ” का क्या मतलब है, तो इसकी तीन सूरतें क़ुरआन में बयान की गई हैं और इनके अलावा दो सूरतें नबी (सल्ल०) ने और बयान की हैं। क़ुरआन की बयान की हुई सूरतें ये हैं– 1- इनसान किसी दूसरे इनसान के क़त्ल का जान-बूझकर मुजरिम हो और उसपर क़िसास (हत्या-दण्ड) का हक़ क़ायम हो जाए। 2- दीने-हक़ (सत्य-धर्म) को क़ायम करने की राह में रुकावट हो और उससे जंग किए बग़ैर कोई रास्ता न रहा हो। 3- दारुल-इस्लाम की हदों में बदअम्नी फैलाए या इस्लामी निज़ामे-हुकूमत को उलटने की कोशिश करे। बाक़ी दो सूरतें जो हदीस में बयान हुई हैं, ये हैं— 4- शादी-शुदा होने के बावजूद ज़िना करे। 5- इर्तिदाद (सत्य-धर्म को त्यागने) और जमाअत (इस्लामी समाज) से बग़ावत का मुजरिम हो। इन पाँच सूरतों के सिवा किसी सूरत में इनसान का क़त्ल इनसान के लिए हलाल (जाइज़) नहीं है, चाहे वह मोमिन हो या ज़िम्मी (इस्लामी हुकूमत की ग़ैर-मुस्लिम जनता) या ग़ैर-मुस्लिम।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ لَا نُكَلِّفُ نَفۡسًا إِلَّا وُسۡعَهَاۖ وَإِذَا قُلۡتُمۡ فَٱعۡدِلُواْ وَلَوۡ كَانَ ذَا قُرۡبَىٰۖ وَبِعَهۡدِ ٱللَّهِ أَوۡفُواْۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 143
(152) (6)और यह कि यतीम के माल के क़रीब न जाओ मगर ऐसे तरीक़े से जो बेहतरीन हो।132 यहाँ तक कि वे अपनी जवानी की उम्र को पहुँच जाएँ, (7) और नाप-तौल में पूरा इनसाफ़ करो, हम हर शख़्स पर ज़िम्मेदारी का उतना ही भार रखते हैं जितना उसके वश में है,133 (8) और जब बात कहो इनसाफ़ की कहो, चाहे मामला अपने रिश्तेदार ही का क्यों न हो, (9) और अल्लाह के अह्द को पूरा करो।134 इन बातों की हिदायत अल्लाह ने तुम्हें की है शायद कि तुम नसीहत क़ुबूल करो।
132. यानी ऐसा तरीक़ा जो ज़्यादा-से-ज़्यादा बेगरज़ी, नेक नीयती और यतीम की ख़ैर-ख़ाही पर मुश्तमिल हो, और जिस पर अल्लाह और लोगों किसी की तरफ़ से भी तुमपर एतिराज़ न किया जा सके।
133. यह हालाँकि अल्लाह की शरीअत का एक मुस्तक़िल उसूल (सिद्धान्त) है, लेकिन यहाँ इसके बयान करने का मक़सद यह है कि जो शख़्स अपनी हद तक नाप-तौल और लेन-देन के मामलों में सच्चाई और इनसाफ़ से काम लेने की कोशिश करे वह अपनी ज़िम्मेदारी से बरी हो जाएगा। भूल-चूक या अनजाने में कमी-बेशी हो जाने पर उससे पूछ-गछ न होगी।
134. ‘अल्लाह के अह्द’ से मुराद वह अह्द भी है, जो इनसान अपने ख़ुदा से करे और वह भी जो ख़ुदा का नाम लेकर बन्दों से करे, और वह भी जो इनसान और ख़ुदा और इनसान और इनसान के दरमियान उस वक़्त आपसे आप बंध जाता है, जिस वक़्त एक शख़्स ख़ुदा की ज़मीन में एक इनसानी सोसाइटी के अन्दर पैदा होता है। पहले दोनों अह्द शुऊरी और इरादी हैं, और यह तीसरा अह्द एक फ़ितरी अह्द (Natural Contract) हैं जिस के बाँधने में हालाँकि इनसान के इरादे का कोई दख़ल नहीं है, लेकिन इसका लिहाज़, एहतिराम और इसको पूरा करना उसी तरह ज़रूरी है, जिस तरह पहले दो अहदों को पूरा करना ज़रूरी है। किसी शख़्स का ख़ुदा के बख़्शे हुए वुजूद से, उसकी दी हुई जिस्मानी और नफ़सियाती क़ुव्वतों से, उसके दिए हुए जिस्मानी आलात (अंगों-प्रत्यंगों) से, और उसकी पैदा की हुई ज़मीन और रोज़ी और ज़रिओं से फ़ायदा उठाना, और ज़िन्दगी के उन मौक़ों से फ़ायदा उठाना जो क़ुदरत के क़ानून की वजह से मिलते हैं, ख़ुद-ब-ख़ुद फ़ितरी तौर पर ख़ुदा के कुछ हक़ उसपर डाल देता है और इसी तरह आदमी का एक माँ के पेट में उसके ख़ून से परवरिश पाना, एक बाप की मेहनतों से बसे हुए घर में पैदा होना और एक सामाजिक ज़िन्दगी के बेशुमार मुख़्तलिफ़ इदारों से मुख़्तलिफ़ शक्लों में फ़ायदा उठाना, मर्तबों दरजों के लिहाज़ से उसके ज़िम्मे बहुत-से लोगों और सामाजिक इदारों के हक़ भी लागू कर देता है। इनसान का ख़ुदा से और इनसान का सोसाइटी से यह अह्द किसी काग़ज़ पर नहीं लिखा गया, मगर उसके रोएँ-रोएँ पर लिखा हुआ है। इनसान ने उसे शुऊर व इरादे के साथ नहीं बाँधा, मगर उसका पूरा वुजूद उसी अह्द पर क़ायम है। इसी अह्द की तरफ़ सूरा-2 अल-बक़रा की आयत-27 में कहा गया है कि नाफ़रमान वे हैं जो, “अल्लाह के अह्द को उसके पूरा होने के बाद तोड़ते हैं और जिसे अल्लाह ने जोड़े का हुक्म दिया है उसे काटते हैं और ज़मीन में फ़साद फैलाते हैं।” और इसी का ज़िक्र आगे चलकर सूरा-7 अल-आराफ़ की आयत-172 में हुआ है कि अल्लाह ने शुरू ही में आदम की पीठों से उनकी आलाद को निकालकर उनसे गवाही ली थी कि क्या में तुम्हारा रब नहीं हूँ? और उन्होंने इक़रार किया था कि हाँ, हम गवाह हैं।
وَأَنَّ هَٰذَا صِرَٰطِي مُسۡتَقِيمٗا فَٱتَّبِعُوهُۖ وَلَا تَتَّبِعُواْ ٱلسُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمۡ عَن سَبِيلِهِۦۚ ذَٰلِكُمۡ وَصَّىٰكُم بِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ۝ 144
(153) इसी के साथ उसकी हिदायत यह है कि यही मेरा सीधा रास्ता है, इसलिए तुम इसी पर चलो और दूसरे रास्तों पर न चलो कि वे उसके रास्ते से हटाकर तुम्हें बिखेर देंगे।135 यह है वह हिदायत जो तुम्हारे रब ने तुम्हें की है, शायद कि तुम गुमराही से बचो।
135. और जिस फ़ितरी अह्द का ज़िक्र हुआ, यह उस अह्द का लाज़िमी तक़ाज़ा है कि इनसान अपने रब के बताए हुए रास्ते पर चले, क्योंकि उसके हुक्म की पैरवी से मुँह मोड़ना और ख़ुदसरी और ख़ुद-मुख़्तारी या ग़ैर की बन्दगी की तरफ़ कदम बढ़ाना इनसान की तरफ़ से उस अह्द की सबसे पहली ख़िलाफ़वर्ज़ी है, जिसके बाद हर क़दम पर उसकी दफ़ाएँ टूटती चली जाती हैं। लेकिन इस निहायत नाज़ुक, बहुत ही वसीअ और निहायत पेचीदा अह्द की ज़िम्मेदारियों से इनसान हरगिज़ बरी नहीं हो सकता, जब तक कि वह ख़ुदा की रहनुमाई को क़ुबूल करके उसके बताए हुए रास्ते पर ज़िन्दगी बसर न करे। उसको क़ुबूल न करने के दो ज़बरदस्त नुक़सान हैं। एक यह कि हर दूसरे रास्ते की पैरवी लाज़िमी तौर पर इनसान को उस राह से हटा देती है जो ख़ुदा के क़रीब और उसकी ख़ुशी तक पहुँचने की एक ही राह है। दूसरे यह कि इस राह से हटते ही अनगिनत पगडण्डियाँ सामने आ जाती हैं, जिनमें भटककर पूरी इनसानी नस्ल बिखर जाती है। और इस गन्दगी के साथ ही उसके बालिग़ होने और तरक़्क़ी का ख़ाब भी परेशान होकर रह जाता है। इन्ही दोनों नुक़सानों को इस जुमले में बयान किया गया है कि “दूसरे रास्तों पर न चलो कि वे तुम्हें उसके रास्ते से हटाकर परागन्दा कर देंगे।” (देखें सूरा-5, अल-माइदा, हाशिया-35)
ثُمَّ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ تَمَامًا عَلَى ٱلَّذِيٓ أَحۡسَنَ وَتَفۡصِيلٗا لِّكُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لَّعَلَّهُم بِلِقَآءِ رَبِّهِمۡ يُؤۡمِنُونَ ۝ 145
(154) फिर हमने मूसा को किताब अता की थी जो भलाई की रविश इख़्तियार करनेवाले इनसान पर नेमत की तकमील और हर ज़रूरी चीज़ की तफ़सील और सरासर हिदायत और रहमत थी (और इसलिए बनी-इसराईल को दी गई थी कि) शायद लोग अपने रब की मुलाक़ात पर ईमान लाएँ।136
136. रब की मुलाक़ात पर ईमान लाने से मुराद अपने आपको अल्लाह के सामने जवाबदेह समझना और ज़िम्मेदाराना ज़िन्दगी गुज़ारना है। यहाँ इस बात के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि ख़ुद बनी-इसराईल में इस किताब की हिकमत भरी तालीम से ज़िम्मेदारी का एहसास जाग जाए। दूसरे यह कि आम लोग उस आला दरजे के निज़ामे-ज़िन्दगी को देखकर और नेक और भले इनसानों में उस हिदायत की नेमत और उस रहमत के असर देखकर यह महसूस कर लें कि आख़िरत के इनकार की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना ज़िन्दगी के मुक़ाबले में वह ज़िन्दगी हर एतिबार से बेहतर है जो आख़िरत के इक़रार की बुनियाद पर ज़िम्मेदाराना तरीक़े से बसर की जाती है, और इस तरह यह देखना और समझना उन्हें इनकार से ईमान की तरफ़ खींच लाए।
وَهَٰذَا كِتَٰبٌ أَنزَلۡنَٰهُ مُبَارَكٞ فَٱتَّبِعُوهُ وَٱتَّقُواْ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 146
(155) और इसी तरह यह किताब हमने उतारी है, एक बरकतवाली किताब। तो तुम इसकी पैरवी करो और तक़वा (ईश-भय, संयम) का तरीक़ा अपनाओ। नामुमकिन नहीं कि तुम पर रहम किया जाए।
أَن تَقُولُوٓاْ إِنَّمَآ أُنزِلَ ٱلۡكِتَٰبُ عَلَىٰ طَآئِفَتَيۡنِ مِن قَبۡلِنَا وَإِن كُنَّا عَن دِرَاسَتِهِمۡ لَغَٰفِلِينَ ۝ 147
(156) अब तुम यह नहीं कह सकते कि किताब तो हमसे पहले के दो गरोहों को दी गई थी,137 और हमको कुछ ख़बर न थी कि वे क्या पढ़ते-पढ़ाते थे।
137. यानी यहूदी और ईसाइयों को।
أَوۡ تَقُولُواْ لَوۡ أَنَّآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا ٱلۡكِتَٰبُ لَكُنَّآ أَهۡدَىٰ مِنۡهُمۡۚ فَقَدۡ جَآءَكُم بَيِّنَةٞ مِّن رَّبِّكُمۡ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞۚ فَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن كَذَّبَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَصَدَفَ عَنۡهَاۗ سَنَجۡزِي ٱلَّذِينَ يَصۡدِفُونَ عَنۡ ءَايَٰتِنَا سُوٓءَ ٱلۡعَذَابِ بِمَا كَانُواْ يَصۡدِفُونَ ۝ 148
(157) और अब तुम यह बहाना भी नहीं कर सकते कि अगर हमपर किताब उतारी गई होती तो हम उनसे ज़्यादा सीधे रास्ते पर चलनेवाले साबित होते। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से एक रौशन दलील और हिदायत और रहमत आ गई है, अब उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की आयतों को झुठलाए और इनसे मुँह मोड़े।138 जो लोग हमारी आयतों से मुँह मोड़ते हैं उन्हें इस मुँह मोड़ने के बदले में हम बदतरीन सज़ा देकर रहेंगे।
138. अल्लाह की आयतों से मुराद उसके वे फ़रमान भी हैं जो क़ुरआन की सूरत में लोगों के सामने पेश किए जा रहे थे, और वे निशानियाँ भी जो नबी (सल्ल०) की शख़्सियत और आप पर ईमान लानेवालों की पाकीज़ा ज़िन्दगी में नुमायाँ तौर पर नज़र आ रही थीं, और कायनात की वे निशानियाँ भी जिन्हें क़ुरआन अपनी दावत की ताईद में गवाही के तौर पर पेश कर रहा था।
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّآ أَن تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ يَأۡتِيَ رَبُّكَ أَوۡ يَأۡتِيَ بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَۗ يَوۡمَ يَأۡتِي بَعۡضُ ءَايَٰتِ رَبِّكَ لَا يَنفَعُ نَفۡسًا إِيمَٰنُهَا لَمۡ تَكُنۡ ءَامَنَتۡ مِن قَبۡلُ أَوۡ كَسَبَتۡ فِيٓ إِيمَٰنِهَا خَيۡرٗاۗ قُلِ ٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ ۝ 149
(158) क्या अब लोग इसके इन्तिज़ार में हैं कि उनके सामने फ़रिश्ते आ खड़े हों, या तुम्हारा रब ख़ुद आ जाए, या तुम्हारे रब की कुछ वाज़ेह निशानियाँ139 सामने आ जाएँ? जिस दिन तुम्हारे रब की कुछ ख़ास निशानियाँ सामने आ जाएँगी फिर किसी ऐसे आदमी को उसका ईमान कुछ फ़ायदा न देगा जो पहले ईमान न लाया हो या जिसने अपने ईमान में कोई भलाई न कमाई हो।140 ऐ नबी! इनसे कह दो कि अच्छा, तुम इन्तिज़ार करो, हम भी इन्तिज़ार करते हैं।
139. यानी कायनात की निशानियाँ या अज़ाब या कोई और ऐसी निशानी जो हक़ीक़त से बिलकुल परदा उठा देनेवाली हो और जिसके ज़ाहिर हो जाने के बाद इम्तिहान और आज़माइश का कोई सवाल बाक़ी न रहे।
140. यानी ऐसी निशानियों को देख लेने के बाद अगर कोई इनकारी अपने इनकार से तौबा करके ईमान ले आए तो उसके ईमान लाने का कोई मतलब नहीं है, और अगर कोई नाफ़रमान मोमिन अपनी नाफ़रमानी की रविश छोड़कर इताअतगुज़ार और फ़रमाँबरदार बन जाए तो उसकी इताअत भी बेफ़ायदा है, इसलिए कि ईमान और इताअत की क़द्र तो उसी वक़्त है जब तक हक़ीक़त परदे में है, मुहलत की रस्सी लम्बी नज़र आ रही है और दुनिया धोखे भरे अपने तमाम साज़ो-सामान के साथ यह धोखा देने के लिए मौजूद है कि कैसा ख़ुदा और कहाँ की आख़िरत, बस खाओ-पियो और मज़े करो।
إِنَّ ٱلَّذِينَ فَرَّقُواْ دِينَهُمۡ وَكَانُواْ شِيَعٗا لَّسۡتَ مِنۡهُمۡ فِي شَيۡءٍۚ إِنَّمَآ أَمۡرُهُمۡ إِلَى ٱللَّهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 150
(159) जिन लोगों ने अपने दीन को टुकड़े-टुकड़े कर दिया और गरोह-गरोह बन गए यक़ीनन उनसे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं,141 उनका मामला तो अल्लाह के सिपुर्द है, वही उनको बताएगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है।
141. बात नबी (सल्ल०) से कही जा रही है और आप (सल्ल०) के वास्ते से दीने-हक़ की पैरवी करनेवाले सभी लोग इसके मुख़ातब हैं। कहने का मक़सद है कि अस्ल दीन हमेशा से यही रहा है और अब भी यही है कि एक ख़ुदा को इलाह और रब माना जाए। अल्लाह की ज़ात, सिफ़ात, इख़्तियारात और हुक़ूक़ में किसी को शरीक न किया जाए। अल्लाह के सामने अपने-आपको जवाबदेह समझते हुए आख़िरत पर ईमान लाया जाए और उन वसीअ (व्यापक) उसूल और ज़ाब्तों के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर की जाए जिनकी तालीम अल्लाह ने अपने रसूलों और अपनी किताबों के ज़रिए से दी है। यही दीन तमाम इनसानों को पैदाइश के पहले ही दिन से दिया गया था। बाद में जितने बहुत से मज़हब बने वे सब-के-सब इस तरह बने कि अलग-अलग ज़मानों के लोगों ने अपने जेहन की ग़लत उपज से या नफ़्स की ख़ाहिशों के ग़लबे से या अक़ीदत में हद से आगे बढ़ने से इस दीन को बदला और इसमें नई-नई बातें मिलाईं। उसके अक़ीदों में अपने अन्धविश्वासों और गुमानों और फ़लसफ़ों से कमी-बेशी और फेर-बदल की। उसके अहकाम में नई-नई बातें गढ़कर इज़ाफ़े किए। अपने आप गढ़े हुए क़ानून बनाए। छोटी-छोटी और ग़ैर-बुनियादी बातों में बाल की खाल निकाली। ग़ैर-ज़रूरी इख़्तिलाफ़ात को हदों से आगे बढ़ाया। अहम को ग़ैर-अहम और ग़ैर-अहम को अहम बनाया। उसके लानेवाले नबियों और उसके अलमबरदार बुज़ुर्गों में से किसी की अक़ीदत में हद से आगे बढ़े और किसी को हसद और मुख़ालफ़त का निशाना बनाया। इस तरह बेशुमार मज़हब और फ़िरक़े बनते चले गए, और हर मज़हब और फ़िरक़े की पैदाइश इनसानों को एक-दूसरे के दुश्मन गरोहों में बाँटती चली गई। अब जो शख़्स भी अस्ल दीने-हक़ की पैरवी करनेवाला हो उसके लिए ज़रूरी है कि इन सारी गरोहबन्दियों से अलग हो जाए और इस सबसे अपना रास्ता अलग कर ले।
مَن جَآءَ بِٱلۡحَسَنَةِ فَلَهُۥ عَشۡرُ أَمۡثَالِهَاۖ وَمَن جَآءَ بِٱلسَّيِّئَةِ فَلَا يُجۡزَىٰٓ إِلَّا مِثۡلَهَا وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 151
(160) जो अल्लाह के पास नेकी लेकर आएगा उसके लिए दस गुना अज (बदला) है और जो बदी लेकर आएगा उसको उतना ही बदला दिया जाएगा जितना उसने क़ुसूर किया है, और किसी पर ज़ुल्म न किया जाएगा।
قُلۡ إِنَّنِي هَدَىٰنِي رَبِّيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ دِينٗا قِيَمٗا مِّلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۚ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 152
(161 ) ऐ नबी! कहो मेरे रब ने यक़ीनन मुझे सीधा रास्ता दिखा दिया है, बिलकुल ठीक दीन जिसमें कोई टेढ़ नहीं, इबराहीम का तरीक़ा जिसे142 यकसू (एकाग्र) होकर उसने इख़्तियार किया था, और वह मुशरिकों में से न था।
142. “इबराहीम (अलैहि०) का तरीक़ा” यह उस रास्ते की पहचान के लिए एक और बात बताई गई है। हालाँकि इसको मूसा (अलैहि०) का तरीक़ा या ईसा (अलैहि०) का तरीक़ा भी कहा जा सकता था, मगर हज़रत मूसा की तरफ़ दुनिया ने यहूदियत को और हज़रत ईसा (अलैहि०) की तरफ़ ईसाइयत को जोड़ रखा है, इसलिए “इबराहीम (अलैहि०) का तरीक़ा” कहा गया। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को यहूदी और ईसाई दोनों गरोह हक़ पर मानते थे, और दोनों यह भी जानते हैं कि वे यहूदियत और ईसाइयत की पैदाइश से बहुत पहले गुज़र चुके थे। साथ ही अरब के मुशरिक भी इनको सीधे रास्ते पर मानते थे और अपनी जहालत के बावजूद कम-से-कम इतनी बात उन्हें भी तस्लीम थी कि काबा की बुनियाद रखनेवाला पाकीज़ा इनसान ख़ालिस ख़ुदापरस्त था, न कि बुतपरस्त।
قُلۡ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحۡيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 153
(162) कहो: मेरी नमाज़, मेरी इबादत की सारी रस्में,143 मेरा जीना और मेरा मरना , सब कुछ अल्लाह, सारे जहानों के रब के लिए है
143. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'नुसुक' इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी क़ुरबानी के भी हैं और इसको आम तौर से बन्दगी और इबादत की दूसरी तमाम सूरतों के लिए भी बोला जाता है।
لَا شَرِيكَ لَهُۥۖ وَبِذَٰلِكَ أُمِرۡتُ وَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 154
(163) जिसका कोई शरीक नहीं। इसी का मुझे हुक्म दिया गया है और सबसे पहले फ़रमाँबरदारी में सर झुकानेवाला मैं हूँ।
قُلۡ أَغَيۡرَ ٱللَّهِ أَبۡغِي رَبّٗا وَهُوَ رَبُّ كُلِّ شَيۡءٖۚ وَلَا تَكۡسِبُ كُلُّ نَفۡسٍ إِلَّا عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُم مَّرۡجِعُكُمۡ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 155
(164) कहो कि क्या मैं अल्लाह के सिवा कोई और रब तलाश करूँ, हालाँकि वही हर चीज़ का रब है?144 हर आदमी जो कुछ कमाता है उसका ज़िम्मेदार वह ख़ुद है, कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ नहीं उठाता,145 फिर तुम सबको अपने रब की तरफ़ पलटना है, उस वक़्त वह तुम्हारे इख़्तिलाफ़ों की हक़ीक़त तुम पर खोल देगा।
144. यानी कायनात की सारी चीज़ों का रब तो अल्लाह है, मेरा रब कोई और कैसे हो सकता है। किस तरह यह बात अक़्ल में आ सकती है कि सारी कायनात तो अल्लाह की इताअत और फ़रमाँबरदारी के निज़ाम पर चल रही हो और कायनात का एक हिस्सा होने के हैसियत से मेरा अपना वुजूद भी उसी निज़ाम पर चले, मगर मैं अपनी शुऊरी और इख़्तियारी ज़िन्दगी के लिए कोई और रब तलाश करूँ? क्या पूरी कायनात के ख़िलाफ़ मैं अकेला एक-दूसरे रुख़ पर चल पड़ूँ।
145. यानी हर शख़्स ख़ुद ही अपने अमल का ज़िम्मेदार है, एक के अमल की ज़िम्मेदारी दूसरे पर नहीं है।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَكُمۡ خَلَٰٓئِفَ ٱلۡأَرۡضِ وَرَفَعَ بَعۡضَكُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَبۡلُوَكُمۡ فِي مَآ ءَاتَىٰكُمۡۗ إِنَّ رَبَّكَ سَرِيعُ ٱلۡعِقَابِ وَإِنَّهُۥ لَغَفُورٞ رَّحِيمُۢ ۝ 156
(165) वही है जिसने तुमको ज़मीन का ख़लीफ़ा बनाया, और तुममें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में ज़्यादा बुलन्द दरजे दिए, ताकि जो कुछ तुमको दिया है उसमें तुम्हारी आज़माइश करे।146 बेशक तुम्हारा रब सज़ा देने में भी बहुत तेज़ है और बहुत माफ़ करने और रहम फ़रमानेवाला भी है।
146. इस जुमले में तीन हक़ीक़तें बयान की गई हैं– एक यह कि तमाम इनसान ज़मीन में ख़ुदा के ख़लीफ़ा (नायब) हैं, इस मानी में कि ख़ुदा ने अपनी पैदा की हुई चीज़ों में से बहुत-सी चीज़ें उनकी अमानत में दी हैं और उनको इस्तेमाल के इख़्तियार दिए हैं। दूसरे यह कि इन ख़लीफ़ाओं (प्रतिनिधियों) में मर्तबों का फ़र्क़ भी ख़ुदा ही ने रखा है, किसी की अमानत का दायरा फैला हुआ है और किसी का महदूद, किसी को ज़्यादा चीज़ों पर तसर्रुफ़ के इख़्तियारात दिए हैं और किसी को कम चीज़ों पर, किसी को ज़्यादा कारकर्दगी की क़ुव्वत दी है और किसी को कम, और कुछ इनसान भी कुछ इनसानों की अमानत में हैं। तीसरे यह कि यह सब कुछ अस्ल में इम्तिहान का सामान है, पूरी ज़िन्दगी एक इम्तिहानगाह है और जिसको जो कुछ भी ख़ुदा ने दिया है उसी में उसका इम्तिहान है कि उसने किस तरह ख़ुदा की अमानत को इस्तेमाल किया, कहाँ तक अमानत की ज़िम्मेदारी को समझा और उसका हक़ अदा किया और किस हद तक अपनी क़ाबिलियत या नाक़ाबिलियत का सुबूत दिया। इसी इम्तिहान के नतीजे पर ज़िन्दगी के दूसरे मरहले में इस बात का दारोमदार है कि इनसान को क्या दरजा हासिल होगा।
وَكَذَّبَ بِهِۦ قَوۡمُكَ وَهُوَ ٱلۡحَقُّۚ قُل لَّسۡتُ عَلَيۡكُم بِوَكِيلٖ ۝ 157
(66) तुम्हारी क़ौम उसका इनकार कर रही है हालाँकि वह हक़ीक़त है। इनसे कह दो कि मैं तुम पर हवालादार नहीं बनाया गया हूँ।43
43. यानी मेरा यह काम नहीं है कि जो कुछ तुम नहीं देख रहे हो वह ज़बरदस्ती तुम्हें दिखाऊँ और जो कुछ तुम नहीं समझ रहे हो वह ज़बरदस्ती तुम्हारी समझ में उतार दूँ। और मेरा यह काम भी नहीं है कि अगर तुम न देखो और न समझो तो तुम पर अज़ाब उतार दूँ। मेरा काम सिर्फ़ हक़ और बातिल को अलग करके तुम्हारे सामने पेश कर देना है। अब अगर तुम नहीं मानते तो जिस बुरे अंजाम से मैं तुम्हें डराता हूँ वह अपने वक़्त पर ख़ुद तुम्हारे सामने आ जाएगा।
لِّكُلِّ نَبَإٖ مُّسۡتَقَرّٞۚ وَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ ۝ 158
(67) हर ख़बर के सामने आने का एक वक़्त मुक़र्रर है, निकट ही तुम को ख़ुद अंजाम मालूम हो जाएगा।
وَإِذَا رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ يَخُوضُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيۡرِهِۦۚ وَإِمَّا يُنسِيَنَّكَ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَلَا تَقۡعُدۡ بَعۡدَ ٱلذِّكۡرَىٰ مَعَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 159
(68) और ऐ नबी! जब तुम देखो कि लोग हमारी आयतों पर नुक्ताचीनियाँ कर रहे हैं तो उनके पास से हट जाओ, यहाँ तक कि वे इस गुफ़्तगू को छोड़कर दूसरी बातों में लग जाएँ। और अगर कभी शैतान तुम्हें भुलावे में डाल दे44 तो जिस वक़्त तुम्हें इस ग़लती का एहसास हो जाए उसके बाद फिर ऐसे ज़ालिम लोगों के पास न बैठो।
44. यानी अगर किसी वक़्त हमारी यह हिदायत तुम्हें याद न रहे और तुम भूले ऐसे लोगों के साथ में बैठे रह जाओ।
قُلۡ فَلِلَّهِ ٱلۡحُجَّةُ ٱلۡبَٰلِغَةُۖ فَلَوۡ شَآءَ لَهَدَىٰكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 160
(149) फिर कहो (तुम्हारी इस हुज्जत के मुक़ाबले में) “हक़ीक़त तक पहुँचनेवाली हुज्जत (तर्क) तो अल्लाह के पास है, बेशक अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको सीधे रास्ते पर चला देता।"125
125. यह उनके उज़्र का मुकम्मल जवाब है। इस जवाब को समझने के लिए इसका जाइज़ा लेकर देखना चाहिए– पहली बात यह कही गई कि अपनी ग़लतकारी और गुमराही के लिए अल्लाह की मरज़ी को बहाने के तौर पर पेश करना और उसे बहाना बनाकर सही रहनुमाई को क़ुबूल करने से इनकार करना मुजरिमों की पुरानी रविश रही है, और इसका अंजाम यह हुआ है कि आख़िरकार वे तबाह हुए और हक़ के ख़िलाफ़ चलने का बुरा नतीजा उन्होंने देख लिया। फिर फ़रमाया कि यह उज़्र जो तुम कर रहे हो यह अस्ल में हक़ीक़त के इल्म की बुनियाद पर नहीं है, बल्कि सिर्फ़ गुमान और अन्दाज़ा है। तुमने मरज़ी का लफ़्ज़ कहीं से सुन लिया और इस पर गुमानों की एक इमारत खड़ी कर ली। तुमने यह समझा ही नहीं कि इनसान के हक़ में हक़ीक़त में अल्लाह की मरज़ी क्या है? तुम मरज़ी का मतलब यह समझ रहे हो कि चोर अगर अल्लाह की मरज़ी के तहत चोरी कर रहा है तो वह मुजरिम नहीं है, क्योंकि उसने यह काम ख़ुदा की मरज़ी के तहत किया है। हालाँकि अस्ल में इनसान के हक़ में ख़ुदा की मरज़ी यह है कि वह शुक्र और नाशुक्री, हिदायत और गुमराही, फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी में से जो राह भी अपने लिए चुनेगा, ख़ुदा वही राह उसके लिए खोल देगा, और फिर ग़लत या सही, जो काम भी इनसान करना चाहेगा, ख़ुदा अपनी आलमगीर मस्लहतों का लिहाज़ करते हुए जिस हद तक मुनासिब समझेगा उसे उस काम की इजाज़त और उसकी तौफ़ीक़ देगा। इसलिए अगर तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने अल्लाह की मरज़ी के तहत शिर्क और पाक चीज़ों को हराम करने की तौफ़ीक़ पाई तो उसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि तुम लोग अपने इन कामों के ज़िम्मेदार और जवाबदेह नहीं हो। अपने ग़लत रास्ता चुनने और अपने ग़लत इरादे और कोशिश के ज़िम्मेदार तो तुम ख़ुद ही हो। आख़िर में एक ही जुमले के अन्दर काँटे की बात भी फ़रमा दी गई कि “तुम अपनी बहानेबाज़ी में यह हुज्जत पेश करते हो कि अगर अल्लाह चाहता तो हम शिर्क न करते, इससे पूरी बात अदा नहीं होती। पूरी बात कहना चाहते हो तो यूँ कहो कि 'अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको सीधे रास्ते पर चला देता’।” दूसरे अलफ़ाज़ में तुम ख़ुद अपने चुनाव से सीधा रास्ता अपनाने को तैयार नहीं हो, बल्कि यह चाहते हो कि ख़ुदा ने जिस तरह फ़रिश्तों को पैदाइशी तौर पर सीधे रास्ते पर चलनेवाला बनाया है उसी तरह तुम्हें भी बना दे। तो बेशक अगर अल्लाह की मरज़ी इनसान के हक़ में यह होती तो वह ज़रूर ऐसा कर सकता था, लेकिन उसकी मर्ज़ी नहीं है, इसलिए जिस गुमराही को तुमने अपने लिए ख़ुद पसन्द किया है अल्लाह भी तुम्हें उसी में पड़ा रहने देगा।
قُلۡ هَلُمَّ شُهَدَآءَكُمُ ٱلَّذِينَ يَشۡهَدُونَ أَنَّ ٱللَّهَ حَرَّمَ هَٰذَاۖ فَإِن شَهِدُواْ فَلَا تَشۡهَدۡ مَعَهُمۡۚ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ وَهُم بِرَبِّهِمۡ يَعۡدِلُونَ ۝ 161
(150) इनसे कहो कि “लाओ अपने वे गवाह जो इस बात की गवाही दें कि अल्लाह ही ने इन चीज़ों को हराम किया है।” फिर अगर वे गवाही दे दें, तो तुम उनके साथ गवाही न देना!126 और हरगिज़ उन लोगों की ख़ाहिशों के पीछे न चलना जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया है, और जो अख़िरत के इनकारी हैं और जो दूसरों को अपने रब का हमसर (समकक्ष) ठहराते हैं।
126. यानी अगर वे गवाही की ज़िम्मेदारी को समझते हैं और जानते हैं कि गवाही उसी बात की देनी चाहिए जिसका आदमी को इल्म है, तो वे कभी यह गवाही देने की हिम्मत न करेंगे कि खाने-पीने पर ये पाबन्दियाँ, जो उनके यहाँ रस्म के तौर पर लागू हैं, और ये पाबन्दियाँ कि फ़ुलाँ चीज़ को फ़ुलाँ न खाए और फ़ुलाँ चीज़ को फ़ुलाँ का हाथ न लगे, ये सब ख़ुदा की मुक़र्रर की हुई हैं। लेकिन अगर ये लोग गवाही की ज़िम्मेदारी को महसूस किए बग़ैर इतनी ढिठाई पर उतर आएँ कि ख़ुदा का नाम लेकर झूठी गवाही देने में भी न झिझके, तो इनके इस झूठ में तुम इनके साथी न बनो, क्योंकि उनसे यह गवाही इसलिए नहीं माँगी जा रही है कि अगर ये गवाही दे दें तो तुम इनकी बात मान लोगे, बल्कि उसकी ग़रज़ सिर्फ़ यह है कि इनमें से जिन लोगों के अन्दर कुछ भी सच्चाई मौजूद है उनसे जब कहा जाएगा कि क्या वाक़ई तुम सच्चाई के साथ इस बात की गवाही दे सकते हो कि ये क़ानून ख़ुदा ही के मुक़र्रर किए हुए हैं तो वे अपनी रस्मों की हक़ीक़त पर ग़ौर करेंगे और जब इनके अल्लाह की तरफ़ से होने का कोई सुबूत न पाएँगे तो इन फ़ुजूल रस्मों की पाबन्दी से बाज़ आ जाएँगे।
أَوَمَن كَانَ مَيۡتٗا فَأَحۡيَيۡنَٰهُ وَجَعَلۡنَا لَهُۥ نُورٗا يَمۡشِي بِهِۦ فِي ٱلنَّاسِ كَمَن مَّثَلُهُۥ فِي ٱلظُّلُمَٰتِ لَيۡسَ بِخَارِجٖ مِّنۡهَاۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلۡكَٰفِرِينَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 162
(122) क्या वह शख़्स जो पहले मुर्दा था फिर हमने उसे ज़िन्दगी बख़्शी88 और उसको वह रौशनी अता की जिसके उजाले में वह लोगों के दरमियान ज़िन्दगी का रास्ता तय करता है, उस शख़्स की तरह हो सकता है जो तारीकियों में पड़ा हुआ हो और किसी तरह उनसे न निकलता हो?89 हक़ का इनकार करनेवालों के लिए तो इसी तरह उनके आमाल ख़ुशनुमा बना दिए हैं,90
88. यहाँ मौत से मुराद जहालत और बेशुऊरी की हालत है, और ज़िन्दगी से मुराद इल्म और समझ-बूझ और हक़ीक़त को पहचान लेने की हालत है। जिस आदमी को सही और ग़लत की पहचान नहीं और जिसे मालूम नहीं कि सीधा रास्ता क्या है, वह तबीआत (भौतिकी) के मुताबिक़ चाहे ज़िन्दा हो, मगर हक़ीक़त के लिहाज़ से उसको इनसानियत की ज़िन्दगी हासिल नहीं है। वह ज़िन्दा हैवान तो ज़रूर है, मगर ज़िन्दा इनसान नहीं। जिन्दा इनसान अस्ल में सिर्फ़ वह आदमी है जिसे हक़ और बातिल, नेकी और बदी, सही और ग़लत का शुऊर हासिल है।
89. यानी तुम किस तरह यह उम्मीद कर सकते हो कि जिस इनसान को इनसानियत का शुऊर नसीब हो चुका है और जो इल्म की रौशनी में टेढ़े रास्तों के दरमियान हक़ की सीधी राह को साफ़ देख रहा है वह उन बेशुऊर लोगों की तरह दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारेगा, जो नादानी और जहालत के अंधेरों में भटकते फिर रहे हैं।
90. यानी जिन लोगों के सामने रौशनी पेश की जाए और वे उसको क़ुबूल करने से इनकार कर दें, जिन्हें सीधे रास्ते की तरफ़ दावत दी जाए और वे अपने टेढ़े रास्तों ही पर चलते रहने को तरजीह दें, उनके लिए अल्लाह का क़ानून यही है कि फिर उन्हें अंधेरा अच्छा मालूम होने लगता है। वे अन्धों की तरह टटोल-टटोलकर चलना और ठोकरें खा-खाकर गिरना ही पसन्द करते हैं। उनको झाड़ियाँ ही बाग़ और काँटे ही फूल नज़र आते हैं। उन्हें हर बुराई में मज़ा आता है, हर बेवक़ूफ़ी को वे तहक़ीक़ (खोज) समझते हैं, और हर बिगाड़ से भरे हुए तजरिबे के बाद उससे बढ़कर दूसरे बिगाड़ से भरे हुए तजरिबे के लिए वे इस उम्मीद पर तैयार हो जाते हैं कि पहले इत्तिफ़ाक़ से दहकते हुए अंगारे पर हाथ पड़ गया था अबके तो क़ीमती हीरे हाथ आएँगे।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٍ أَكَٰبِرَ مُجۡرِمِيهَا لِيَمۡكُرُواْ فِيهَاۖ وَمَا يَمۡكُرُونَ إِلَّا بِأَنفُسِهِمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 163
(123) और इसी तरह हमने हर बस्ती में उसके बड़े-बड़े मुजरिमों को लगा दिया है कि वहाँ अपने धोखे और फ़रेब का जाल फैलाएँ। अस्ल में वह अपने फ़रेब के जाल में आप फँसते हैं, मगर उन्हें इसकी समझ नहीं है।
وَإِذَا جَآءَتۡهُمۡ ءَايَةٞ قَالُواْ لَن نُّؤۡمِنَ حَتَّىٰ نُؤۡتَىٰ مِثۡلَ مَآ أُوتِيَ رُسُلُ ٱللَّهِۘ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ حَيۡثُ يَجۡعَلُ رِسَالَتَهُۥۗ سَيُصِيبُ ٱلَّذِينَ أَجۡرَمُواْ صَغَارٌ عِندَ ٱللَّهِ وَعَذَابٞ شَدِيدُۢ بِمَا كَانُواْ يَمۡكُرُونَ ۝ 164
(124) जब इनके सामने कोई आयत आती है तो वे कहते हैं, “हम न मानेंगे जब तक कि वह चीज़ ख़ुद हमको न दी जाए जो अल्लाह के रसूलों को दी गई है।"91 अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि अपनी पैग़म्बरी का काम किससे ले और किस तरह ले। क़रीब है वह वक़्त जब ये अपनी मक्कारियों के बदले में अल्लाह के यहाँ रुसवाई और सख़्त अज़ाब से दो-चार होंगे।
91. यानी हम रसूलों के इस बयान पर ईमान नहीं लाएँगे कि उनके पास फ़रिश्ता आया और ख़ुदा का पैग़ाम लाया, बल्कि हम सिर्फ़ उसी वक़्त ईमान ला सकते हैं जबकि फ़रिश्ता ख़ुद हमारे पास आए और सीधे तौर से हमसे कहे कि यह अल्लाह का पैग़ाम है।