(9) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब पुकारा जाए नमाज़ के लिए जुमे14 के दिन तो अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो और ख़रीदना-बेचना छोड़ दो,15 यह तुम्हारे लिए ज़्यादा बेहतर है अगर तुम जानो।
14. इस जुमले में तीन बातें ख़ास तौर पर ध्यान देने लायक़ हैं : एक यह कि इसमें नमाज़ के लिए पुकारे जाने का ज़िक्र है। दूसरी यह कि किसी ऐसी नमाज़ के लिए पुकारने का ज़िक्र है जो ख़ास तौर पर सिर्फ़ जुमे के दिन ही पढ़ी जानी चाहिए। तीसरी यह कि इन दोनों चीज़ों का ज़िक्र इस तरह नहीं किया गया है कि तुम नमाज़ के लिए आवाज़ दो, और जुमे के दिन एक ख़ास नमाज़ पढ़ा करो, बल्कि अन्दाज़े-बयान और मौक़ा-महल साफ़ बता रहा है कि नमाज़ के लिए पुकार और जुमे की ख़ास नमाज़, दोनों पहले से जारी थीं, अलबत्ता लोग यह ग़लती कर रहे थे कि जुमे की पुकार सुनकर नमाज़ के लिए दौड़ने में सुस्ती बरतते थे और ख़रीद-बिक्री करने में लगे रहते थे, इसलिए अल्लाह तआला ने यह आयत सिर्फ़ इस ग़रज़ के लिए उतारी कि लोग इस पुकार और इस ख़ास नमाज़ की अहमियत महसूस करें और फ़र्ज़ जानकर इसकी तरफ़ दौड़ें। इन तीनों बातों पर अगर ग़ौर किया जाए तो इनसे यह उसूली हक़ीक़त पूरी तरह साबित हो जाती है कि अल्लाह तआला रसूल (सल्ल०) को कुछ ऐसे हुक्म भी देता था जो क़ुरआन में नहीं उतरे, और उन हुक्मों पर अमल करना भी उसी तरह वाजिब था जिस तरह क़ुरआन में उतरनेवाले हुक्मों पर। नमाज़ के लिए पुकार वही अज़ान है जो आज सारी दुनिया में हर दिन पाँच वक़्त हर मस्जिद में दी जा रही है। मगर क़ुरआन में किसी जगह न इसके अलफ़ाज़ बयान किए गए हैं, न कहीं यह हुक्म दिया गया है कि नमाज़ के लिए लोगों को इस तरह पुकारा करो। यह चीज़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुक़र्रर की हुई है। क़ुरआन में सिर्फ़ दो जगह इसकी तसदीक़ (पुष्टि) की गई है, एक इस आयत में, दूसरे सूरा-5 माइदा, आयत-58 में। इसी तरह जुमे की यह ख़ास नमाज़ जो आज सारी दुनिया के मुसलमान अदा कर रहे हैं, इसका भी क़ुरआन में न हुक्म दिया गया है, न वक़्त और अदा करने का तरीक़ा बताया गया है। यह तरीक़ा भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का जारी किया हुआ है, और क़ुरआन की यह आयत सिर्फ़ उसकी अहमियत और उसके वाजिब होने की शिद्दत बयान करने के लिए उतरी है। इस साफ़ दलील के बावजूद जो शख़्स यह कहता है कि शरई हुक्म सिर्फ़ वही हैं जो क़ुरआन में बयान हुए हैं, वह अस्ल में सुन्नत का नहीं, ख़ुद क़ुरआन का इनकार करता है।
आगे बढ़ने से पहले जुमे के बारे में कुछ बातें और भी जान लेनी चाहिएँ—
• जुमा अस्ल में एक इस्लामी इसतिलाह (पारिभाषिक शब्द) है। जाहिलियत के ज़माने में अरबवाले इसे उरूबा का दिन कहा करते थे। इस्लाम में जब उसको मुसलमानों के इकट्ठे होने का दिन क़रार दिया गया तो उसका नाम जुमा रखा गया। अगरचे इतिहासकार कहते हैं कि काब-बिन-लुअय्य या क़ुसय्य-बिन-किलाब ने भी इस दिन के लिए यह नाम इस्तेमाल किया था, क्योंकि इस दिन वह क़ुरैश के लोगों को इकट्ठा किया करता था, (फ़तहुल-बारी)। लेकिन उसके इस अमल से पुराना नाम तबदील नहीं हुआ, बल्कि आम अरबवाले इसे उरूबा ही कहते थे। नाम की हक़ीक़ी तबदीली उस वक़्त हुई जब इस्लाम में इस दिन का यह नया नाम रखा गया।
• इस्लाम से पहले हफ़्ते का एक दिन इबादत के लिए ख़ास करने और उसको मिल्लत (समुदाय) की पहचान क़रार देने का तरीक़ा अहले-किताब में मौजूद था। यहूदियों के यहाँ इस ग़रज़ के लिए सब्त (शनिवार) का दिन मुक़र्रर किया गया था, क्योंकि इसी दिन अल्लाह तआला ने बनी-इसराईल को फ़िरऔन की ग़ुलामी से नजात दी थी। ईसाइयों ने अपने-आपको यहूदियों से अलग करने के लिए अपनी मिल्लत की पहचान इतवार का दिन क़रार दिया। अगरचे इसका कोई हुक्म न हज़रत ईसा (अलैहि०) ने दिया था, न इंजील में कहीं इसका ज़िक्र आया है, लेकिन ईसाइयों का अक़ीदा यह है कि सूली पर जान देने के बाद हज़रत ईसा (अलैहि०) इसी दिन क़ब्र से निकलकर आसमान की तरफ़ गए थे। इसी बुनियाद पर बाद के ईसाइयों ने इसे अपनी इबादत का दिन क़रार दे लिया और फिर 321 ई० में रूमी हुकूमत ने एक हुक्म के ज़रिए से इसको आम छुट्टी का दिन मुक़र्रर कर दिया। इस्लाम ने इन दोनों मिल्लतों (समुदायों) से अपनी मिल्लत को अलग करने के लिए ये दोनों दिन छोड़कर जुमे को इजतिमाई इबादत के लिए अपनाया।
• हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अबू-मसऊद अनसारी (रज़ि०) की रिवायतों से मालूम होता है कि जुमे के फ़र्ज़ होने का हुक्म नबी (सल्ल०) पर हिजरत से कुछ मुद्दत पहले मक्का ही में उतर चुका था। लेकिन उस वक़्त आप (सल्ल०) उसपर अमल नहीं कर सकते थे। क्योंकि मक्का में कोई इजतिमाई इबादत अदा करना मुमकिन न था। इसलिए आप (सल्ल०) ने उन लोगों को जो आप (सल्ल०) से पहले हिजरत करके मदीना पहुँच चुके थे, यह हुक्म लिख भेजा कि वहाँ जुमा क़ायम करें। चुनाँचे इबतिदाई मुहाजिरों के सरदार हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) ने 12 आदमियों के साथ मदीना में पहला जुमा पढ़ा, (तबरानी, दारे-क़ुतनी)। हज़रत काब-बिन-मालिक (रज़ि०) और इब्ने-सीरीन की रिवायत यह है कि इससे भी पहले मदीना के अनसार ने अपने तौर पर (इससे पहले कि नबी सल्ल० का यह हुक्म उनको पहुँचा होता) आपस में यह तय किया था कि हफ़्ते में एक दिन मिलकर इजतिमाई इबादत करेंगे। इस ग़रज़ के लिए उन्होंने यहूदियों के सब्त और ईसाइयों के इतवार को छोड़कर जुमे का दिन चुना और पहला जुमा असअद-बिन-ज़ुरारा (रज़ि०) ने बनी-बयाज़ा के इलाक़े में पढ़ा, जिसमें 40 आदमी शरीक हुए, (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, इब्ने-हिब्बान, अब्द-बिन-हुमैद, अब्दुर्रज़्ज़ाक, बैहक़ी)। इससे मालूम होता है कि इस्लामी मिज़ाज ख़ुद उस वक़्त यह माँग कर रहा था कि ऐसा एक दिन होना चाहिए जिसमें ज़्यादा-से-ज़्यादा मुसलमान जमा होकर इजतिमाई इबादत करें, और यह भी इस्लामी मिज़ाज ही का तक़ाज़ा था कि वह दिन सनीचर और इतवार से अलग हो, ताकि मुसलमानों की मिल्लत की पहचान यहूदियों और ईसाइयों की मिल्लत की पहचान से अलग रहे। यह सहाबा किराम (रज़ि०) की इस्लामी ज़ेहनियत का एक अजीब करिश्मा है कि कभी-कभी एक हुक्म आने से पहले ही उनका मिज़ाज और पसन्द कह देती थी कि इस्लाम की रूह फ़ुलाँ चीज़ का तक़ाज़ा कर रही है।
• अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हिजरत के बाद जो सबसे पहले काम किए उनमें से एक जुमा क़ायम करना भी था। मक्का से हिजरत करके आप (सल्ल०) सोमवार के दिन कुबा पहुँचे, चार दिन वहाँ क़ियाम किया, पाँचवें दिन जुमे के दिन वहाँ से मदीना की तरफ़ चले, रास्ते में बनी-सालिम-बिन-औफ़ के मकाम पर थे कि जुमे की नमाज़ का वक़्त आ गया, उसी जगह आप (सल्ल) ने पहला जुमा अदा किया। (इब्ने-हिशाम)
• इस नमाज़ के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ज़वाल (सूरज ढलने) के बाद का वक़्त मुक़र्रर किया था, यानी वही वक़्त जो ज़ुह्र की नमाज़ का वक़्त है। हिजरत से पहले हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) को जो लिखकर हुक्म आप (सल्ल०) ने भेजा था उसमें आप (सल्ल०) का फ़रमान यह था कि “जब जुमे के दिन आधा दिन ढल जाए तो दो रकअत नमाज़ के ज़रिए से अल्लाह की नज़दीकी हासिल करो,” (दारे-क़ुतनी)। यही हुक्म हिजरत के बाद आप (सल्ल०) ने ज़बानी भी दिया और अमली तौर पर भी इसी वक़्त पर आप (सल्ल०) जुमे की नमाज़ पढ़ाते रहे। हज़रत अनस (रज़ि०), हज़रत स-लमा-बिन-अकवअ (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम (रज़ि०), हज़रत सहल-बिन-साद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) और हज़रत बिलाल (रज़ि०) से इस मज़मून की रिवायतें हदीस की किताबों में नक़्ल हुई हैं कि नबी (सल्ल०) जुमे की नमाज़ ज़वाल के बाद अदा किया करते थे। (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी)
• यह बात भी नबी (सल्ल०) के अमल से साबित है कि उस दिन आप (सल्ल०) ज़ुह्र की की नमाज़ के बजाय जुमे की नमाज़ पढ़ाते थे, इस नमाज़ की सिर्फ़ दो रकअतें होती थीं, और उससे पहले आप (सल्ल०) ख़ुतबा देते थे। यही फ़र्क़ जुमे की नमाज़ और आम दिनों की ज़ुह्र की नमाज़ में था। हज़रत उमर (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “नबी (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से निकले हुए हुक्म के मुताबिक़ मुसाफ़िर की नमाज़ दो रकअत है, फ़ज्र की नमाज़ दो रकअत है और जुमे की नमाज़ दो रकअत है। यह पूरी नमाज़ है, क़स्र नहीं है। और जुमे को ख़ुतबे की ख़ातिर ही मुख़्तसर (कम) किया गया है।" (अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास)
• जिस अज़ान का यहाँ ज़िक्र है उससे मुराद वह अज़ान है जो ख़ुतबे से पहले दी जाती है, न कि वह अज़ान जो ख़ुतबे से काफ़ी देर पहले लोगों को यह ख़बर देने के लिए दी जाती है कि जुमे का वक़्त शुरू हो चुका है। हदीस में हज़रत साइब-बिन-यज़ीद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ज़माने में सिर्फ़ एक ही अज़ान होती थी, और वह इमाम के मिम्बर पर बैठने के बाद दी जाती थी। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में भी यही अमल होता रहा। फिर हज़रत उसमान (रज़ि०) के दौर में जब आबादी बढ़ गई तो उन्होंने पहले एक और अज़ान दिलवानी शुरू कर दी जो मदीना के बाज़ार में उनके मकान 'जौरा' पर दी जाती थी। (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, नसई, तबरानी)
15. इस हुक्म में 'ज़िक्र' से मुराद ख़ुतबा है, क्योंकि अज़ान के बाद पहला अमल जो नबी (सल्ल०) करते थे वह नमाज़ नहीं बल्कि ख़ुतबा था, और नमाज़ हमेशा ख़ुतबे के बाद अदा करते थे। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जुमे के दिन फ़रिश्ते हर आनेवाले का नाम उसके आने की तरतीब के साथ लिखते जाते हैं। फिर जब इमाम ख़ुतबा देने के लिए निकलता है तो वे नाम लिखना बन्द कर देते हैं और ज़िक्र (यानी ख़ुतबा) सुनने में लग जाते हैं।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई)। इस हदीस से भी मालूम हुआ कि ज़िक्र से मुराद ख़ुतबा है। ख़ुद क़ुरआन का बयान भी इसी की तरफ़ इशारा कर रहा है। पहले फ़रमाया, “ख़ुदा के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो।” फिर आगे चलकर फ़रमाया, “फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ।” इससे मालूम हुआ कि जुमे के दिन अमल की तरतीब यह है कि पहले अल्लाह का ज़िक्र और फिर नमाज़। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिम भी इसपर एक राय हैं कि ज़िक्र से मुराद या तो ख़ुतबा है या फिर ख़ुतबा और नमाज़ दोनों।
ख़ुतबे के लिए 'अल्लाह का ज़िक्र' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल करना ख़ुद यह मतलब रखता है कि इसमें वे बातें होनी चाहिएँ जो अल्लाह की याद से मेल खाती हों। मसलन अल्लाह की तारीफ़ और शुक्र, उसके रसूल (सल्ल०) पर दुरूद और सलात, उसके हुक्मों और उसकी शरीअत के मुताबिक़ अमल की तालीम और नसीहत और उससे डरनेवाले नेक बन्दों की तारीफ़ वग़ैरा। इसी वजह से ज़मख़शरी ने कश्शाफ़ में लिखा है कि ख़ुतबे में ज़ालिम बादशाहों की तारीफ़ बयान करना, या उनका नाम लेना और उनके लिए दुआ करना, अल्लाह के ज़िक्र से दूर का मेल भी नहीं रखता, बल्कि यह तो शैतान का ज़िक्र है।
'अल्लाह के ज़िक्र की तरफ़ दौड़ो' का मतलब यह नहीं है कि भागते हुए आओ, बल्कि इसका मतलब यह है कि जल्दी-से-जल्दी वहाँ पहुँचने की कोशिश करो। उर्दू (और हिन्दी) में भी हम दौड़-धूप करना, भाग-दौड़ करना, सरगर्म कोशिश के मानी में बोलते हैं, न कि भागने के मानी में। इसी तरह अरबी में भी ‘सई' के मानी 'भागना' ही के नहीं है। क़ुरआन में अकसर जगहों पर सई का लफ़्ज़ कोशिश और जिद्दो-जुद के मानी में इस्तेमाल हुआ है। मसलन “इनसान के लिए वही कुछ है जिसकी उसने कोशिश (सई) की।” (सूरा-53 नज्म, आयत-39) “और जो आख़िरत चाहता है और उसके लिए कोशिश (सई) करेगा तो उसकी कोशिश उसके लिए होगी।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-19); “फिर जब वह उसके साथ दौड़-धूप (सई) करने की उम्र को पहुँचा।” (सूरा-87 साफ़्फ़ात, आयत-102); “और जब उसे हुकूमत मिल जाती है तो उसकी कोशिश (सई) होती है कि ज़मीन में बिगाड़ फैलाए,” (सूरा-2 बकरा, आयत-205)। क़ुरआन के आलिमों ने भी एक राय होकर इसको एहतिमाम (आयोजन) के मानी में लिया है, उनके नज़दीक सई यह है कि आदमी अज़ान की आवाज़ सुनकर फ़ौरन मस्जिद पहुँचने की फ़िक्र में लग जाए। और मामला सिर्फ़ इतना ही नहीं है, हदीस में भागकर नमाज़ के लिए आने की साफ़ मनाही आई है। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब नमाज़ खड़ी हो तो उसकी तरफ़ सुकून और वक़ार (गरिमा) के साथ चलकर आओ। भागते हुए न आओ, फिर जितनी नमाज़ भी मिल जाए उसमें शामिल हो जाओ, और जितनी छूट जाए उसे बाद में पूरा कर लो,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा)। हज़रत अबू-क़तादा अनसारी (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक बार हम नबी (सल्ल०) के पीछे नमाज़ पढ़ रहे थे कि एकाएक लोगों के भाग-भागकर चलने की आवाज़ आई। नमाज़ ख़त्म करने के बाद नबी (सल्ल०) ने उन लोगों से पूछा, “यह कैसी आवाज़ थी?” उन लोगों ने बताया, “हम नमाज़ में शामिल होने के लिए भागकर आ रहे थे।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “ऐसा न किया करो, नमाज़ के लिए जब भी आओ पूरे सुकून के साथ आओ। जितनी मिल जाए उसको इमाम के साथ पढ़ लो, और जितनी छूट जाए वह बाद में पूरी कर लो।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)
'ख़रीदना-बेचना छोड़ दो' का मतलब सिर्फ़ ख़रीदना-बेचना ही छोड़ना नहीं है, बल्कि नमाज़ के लिए जाने की फ़िक्र और एहतिमाम के सिवा हर दूसरा काम छोड़ देना है। 'बैअ’ (ख़रीदना-बेचना) का ज़िक्र ख़ास तौर पर सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि जुमे के दिन तिजारत ख़ूब चमकती थी, आसपास की बस्तियों के लोग सिमटकर एक जगह जमा हो जाते थे। कारोबारी भी अपना माल ले-लेकर वहाँ पहुँच जाते थे। लोग भी अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने में लग जाते थे। लेकिन मनाही का हुक्म सिर्फ़ ख़रीदने-बेचने तक महदूद नहीं है, बल्कि दूसरे तमाम काम भी इसके तहत आ जाते हैं, और चूँकि अल्लाह तआला ने साफ़-साफ़ उनसे मना फ़रमा दिया है, इसलिए इस्लामी फ़क़ीहों की इसपर एक राय है कि जुमे की अज़ान के बाद ख़रीदना-बेचना और हर तरह का कारोबार हराम है।
यह हुक्म पूरी तरह जुमे की नमाज़ के फ़र्ज़ होने की दलील देता है। एक तो अज़ान सुनते ही उसके लिए दौड़ने की ताकीद अपने-आपमें ख़ुद इसकी दलील है। फिर ख़रीदने-बेचने जैसी हलाल चीज़ का उसकी ख़ातिर हराम हो जाना यह ज़ाहिर करता है कि वह फ़र्ज़ है। इसके अलावा ज़ुह्र की फ़र्ज़ नमाज़ का जुमे के दिन ख़त्म हो जाना और जुमे की नमाज़ का उसकी जगह ले लेना भी उसके फ़र्ज़ होने का खुला सुबूत है। क्योंकि एक फ़र्ज़ उसी वक़्त ख़त्म होता है जबकि उसकी जगह लेनेवाला फ़र्ज़ उससे ज़्यादा अहम हो। इसी की ताईद बहुत-सी हदीसें करती हैं, जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जुमे की बहुत सख़्त ताकीद की है और उसे साफ़ अलफ़ाज़ में फ़र्ज़ क़रार दिया है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मेरा जी चाहता है कि किसी और शख़्स को अपनी जगह नमाज़ पढ़ाने के लिए खड़ा कर दूँ और जाकर उन लोगों के घर जला दूँ जो जुमे की नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं आते।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी)
हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) कहते हैं कि हमने जुमे के ख़ुतबे में नबी (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है—
"लोगों को चाहिए कि जुमा छोड़ने से बाज़ आ जाएँ, वरना अल्लाह उनके दिलों पर ठप्पा लगा देगा और वे बे-परवाह होकर रह जाएँगे।” (हदीस : मुसनद अहमद, मुस्लिम, नसई)
हज़रत अबुल-जाद ज़मरी (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अबी-औफ़ा (रज़ि०) की रिवायतों में नबी (सल्ल०) के जो फ़रमान नक़्ल हुए हैं उनसे मालूम होता है कि जो शख़्स किसी हक़ीक़ी ज़रूरत और जाइज़ मजबूरी के बिना, सिर्फ़ बे-परवाई की वजह से लगातार तीन जुमे छोड़ दे, अल्लाह उसके दिल पर मुहर लगा देता है, बल्कि एक रिवायत में तो अलफ़ाज़ ये हैं कि “अल्लाह उसके दिल को मुनाफ़िक़ का दिल बना देता है।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, दारमी, हाकिम, इब्ने-हिब्बान, बज़्ज़ार, तबरानी फ़िल-कबीर)
हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“आज से लेकर क़ियामत तक जुमा तुम लोगों पर फ़र्ज़ है। जो शख़्स उसे एक मामूली चीज़ समझकर या उसका हक़ न मानकर उसे छोड़ दे, ख़ुदा उसका हाल दुरुस्त न करे, न उसे बरकत दे। ख़ूब सुन रखो, उसकी नमाज़ नमाज़ नहीं, उसकी ज़कात ज़कात नहीं, उसका हज हज नहीं, उसका रोज़ा रोज़ा नहीं, उसकी कोई नेकी नेकी नहीं, जब तक कि वह तौबा न करे। फिर जो तौबा कर ले, अल्लाह उसे माफ़ करनेवाला है।” (हदीस : इब्ने-माजा, बज़्ज़ार)
इसी से मिलते-जुलते मानीवाली एक रिवायत तबरानी ने औसत में इब्ने-उमर (रज़ि०) से नक़्ल की है। इसके अलावा बहुत-सी रिवायतें हैं जिनमें नबी (सल्ल०) ने जुमे को साफ़ अलफ़ाज़ में फ़र्ज़ और वाजिब हक़ क़रार दिया है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
"जुमा हर उस शख़्स पर फ़र्ज़ है जो उसकी अज़ान सुने।” (हदीस : अबू-दाऊद, दारे-क़ुतनी)
जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) और अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) कहते हैं कि आप (सल्ल०) ने खुतबे में फ़रमाया—
"जान लो कि अल्लाह ने तुमपर जुमे की नमाज़ फ़र्ज़ की है।" (हदीस : बैहक़ी)
अलबत्ता नबी (सल्ल०) ने औरत, बच्चे, ग़ुलाम, बीमार और मुसाफ़िर को इस फ़र्ज़ से अलग क़रार दिया है। हज़रत हफ़सा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“जुमे के लिए निकलना हर बालिग़ पर वाजिब है।” (हदीस : नसई)
हज़रत तारिक़-बिन-शिहाब की रिवायत में आप (सल्ल०) का फरमान यह है—
“जुमा हर मुसलमान पर जमाअत के साथ पढ़ना वाजिब है, सिवाय ग़ुलाम, औरत, बच्चे और बीमार के।” (हदीस : अबू-दाऊद, हाकिम)
हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत में नबी (सल्ल०) के अलफ़ाज़ ये हैं—
“जो शख़्स अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता हो उसपर जुमा फ़र्ज़ है, सिवाय यह कि वह औरत हो, या मुसाफ़िर हो, या ग़ुलाम हो, या बीमार हो।” (हदीस : दारे-क़ुतनी, बैहक़ी)
क़ुरआन और हदीस के इन ही साफ़ बयानों की वजह से जुमे के फ़र्ज़ होने पर पूरी मुस्लिम उम्मत एक राय है।