(9) (इसका पता तुम्हें उस दिन चल जाएगा) जब जमा होने के दिन वह तुम सबको इकट्ठा करेगा19 वह दिन होगा एक-दूसरे के मुक़ाबले में लोगों की हार-जीत का।20 जो अल्लाह पर ईमान लाया है और भले काम करता है,21 अल्लाह उसके गुनाह झाड़ देगा और उसे ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। ये लोग हमेशा-हमेशा उनमें रहेंगे। यही बड़ी कामयाबी है।
19. 'जमा होने के दिन' से मुराद है क़ियामत, और सबको जमा करने से मुराद है तमाम उन इनसानों को एक ही वक़्त में ज़िन्दा करके इकट्ठा करना जो कायनात की शुरुआत से क़ियामत तक दुनिया में पैदा हुए हों। यह बात क़ुरआन मजीद में जगह-जगह खोलकर बयान की गई है। मसलन सूरा-11 हूद, आयत-103 में कहा गया, “वह एक ऐसा दिन होगा जिसमें सब इनसान जमा होंगे और फिर जो कुछ भी उस दिन होगा सबकी आँखों के सामने होगा।” और सूरा-56 वाक़िआ, आयतें—49, 50 में कहा गया, “इनसे कहो कि तमाम पहले गुज़रे हुए और बाद में आनेवाले लोग यक़ीनन एक मुक़र्रर दिन के वक़्त जमा किए जानेवाले हैं।"
20. अस्ल में लफ़्ज़ 'यौमुत-तग़ाबुन' इस्तेमाल हुआ है, जिसके मतलब में इतनी वुसअत (व्यापकता) है कि उर्दू (हिन्दी) ज़बान में तो क्या, किसी दूसरी ज़बान के भी एक लफ़्ज़, बल्कि एक जुमले में इसका मतलब बयान नहीं किया जा सकता। ख़ुद क़ुरआन मजीद में भी क़ियामत के जितने नाम आए हैं, उनमें शायद सबसे ज़्यादा मानीदार नाम यही है। इसलिए इसका मतलब समझने के लिए थोड़ी सी तशरीह बहुत ज़रूरी है।
तग़ाबुन, ग़बन से है जिसको ‘ग़ब्न' भी पढ़ सकते हैं और 'ग़बन' भी। ‘ग़ब्न' ज़्यादातर ख़रीदने-बेचने और लेन-देन के मामले में बोला जाता है और 'ग़बन' राय के मामले में। लेकिन कभी-कभी इसके बरख़िलाफ़ भी इस्तेमाल होता है। डिक्शनरी में इसके कई मतलब बयान हुए हैं : ‘ग़-बनू ख़-ब-रन-ना-क़ति' (उन लोगों को पता नहीं चला कि उनकी ऊँटनी कहाँ गई।), 'ग़-ब-न फ़ुलानन फ़िल-बैइ' (उसने फ़ुलाँ शख़्स को ख़रीदने-बेचने में धोखा दे दिया।), 'ग़-ब-न फ़ुलानन' (उसने फ़ुलाँ शख़्स को घाटा दे दिया।) ‘ग़बिन्तु मिन हक़्क़ी इन-द फ़ुलानिन' (फ़ुलाँ शख़्स से अपना हक़ वुसूल करने में मुझसे भूल हो गई।), 'ग़बीन' (वह शख़्स जिसमें ज़ेहानत की कमी हो और जिसकी राय कमज़ोर हो), 'मग़बून' (वह शख़्स जो धोखा खा जाए)। ग़बन का मतलब है ग़फ़लत, भूल, अपने हिस्से से महरूम रह जाना, एक शख़्स का किसी ग़ैर-महसूस तरीक़े से कारोबार या आपसी मामले में दूसरे को नुक़सान देना। इमाम हसन बसरी (रह०) ने देखा कि एक आदमी दूसरे को ख़रीदने या बेचने में धोखा दे रहा है तो फ़रमाया, 'हाज़ा यग़बिनु अक़-ल-क' (यह आदमी तुझे बेवक़ूफ़ बना रहा है)।
इससे जब लफ़्ज़ तग़ाबुन बनाया जाए तो उसमें दो या ज़्यादा आदमियों के दरमियान ग़बन होने का मतलब पैदा हो जाता है। 'तग़ा-बनल-क़ौम' का मतलब है कुछ लोगों का कुछ लोगों के साथ ग़बन का मामला करना। या एक शख़्स का दूसरे को नुक़सान पहुँचाना और दूसरे का उसके हाथों नुक़सान उठा जाना। या एक का हिस्सा दूसरे को मिल जाना और उसका अपने हिस्से से महरूम रह जाना। या तिजारत में एक फ़रीक़ (पक्ष) का घाटा उठाना और दूसरे फ़रीक़ का फ़ायदा उठा ले जाना। या कुछ लोगों का कुछ दूसरे लोगों के मुक़ाबले में ग़ाफ़िल या कमज़ोर राय साबित होना।
अब इस बात पर ग़ौर कीजिए कि आयत में क़ियामत के बारे में फ़रमाया गया है कि “वह दिन होगा तग़ाबुन का।” इन अलफ़ाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि दुनिया में तो रात-दिन तग़ाबुन होता ही रहता है, लेकिन यह तग़ाबुन ज़ाहिरी और आँखों का धोखा है, असली और हक़ीक़ी तग़ाबुन नहीं है। अस्ल तग़ाबुन क़ियामत के दिन होगा। वहाँ जाकर पता चलेगा कि अस्ल में घाटा किसने उठाया और कौन नफ़ा कमा ले गया। अस्ल में किसका हिस्सा किसे मिल गया और कौन अपने हिस्से से महरूम रह गया। अस्ल में धोखा किसने खाया और कौन होशियार निकला। अस्ल में किसने अपनी ज़िन्दगी की तमाम पूँजी एक ग़लत कारोबार में खपाकर अपना दीवाला निकाल दिया, और किसने अपनी क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों और कोशिशों और मालों और वक़्तों को नफ़े के सौदे पर लगाकर वे सारे फ़ायदे लूट लिए जो पहले शख़्स को भी हासिल हो सकते थे, अगर वह दुनिया की हक़ीक़त समझने में धोखा न खाता।
क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने ‘यौमुत-तग़ाबुन' का मतलब बयान करते हुए इसके कई मतलब बयान किए हैं जो सब-के-सब सही हैं और इसके मानी के अलग-अलग पहलुओं पर रौशनी डालते हैं। कुछ आलिमों ने इसका मतलब यह बयान किया है कि उस दिन जन्नतवाले जहन्नमवालों का वह हिस्सा मार ले जाएँगे जो जन्नत में उनको मिलता, अगर वे जन्नतियों के-से काम करके आए होते, और जहन्नमवाले जन्नतवालों का वह हिस्सा लूट लेंगे जो उन्हें जहन्नम में मिलता, अगर उन्होंने दुनिया में जहन्नमवालों के-से काम किए होते। इस बात की ताईद (समर्थन) बुख़ारी की वह हदीस करती है जो उन्होंने किताबुर-रिक़ाक़ में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
"जो शख़्स भी जन्नत में जाएगा उसे वह जगह दिखा दी जाएगी जो उसे जहन्नम में मिलती अगर वह बुरा काम करता, ताकि वह और ज़्यादा शुक्रगुज़ार हो। और जो शख़्स भी जहन्नम में जाएगा उसे वह जगह दिखा दी जाएगी जो उसे जन्नत में मिलती, अगर उसने नेक काम किया होता, ताकि उसे और ज़्यादा पछतावा हो।"
तफ़सीर लिखनेवाले कुछ और आलिम कहते हैं कि उस दिन ज़ालिम की उतनी नेकियाँ मज़लूम लूट ले जाएगा जो उसके ज़ुल्म का बदला हो सकें, या मज़लूम के उतने गुनाह ज़ालिम पर डाल दिए जाएँगे जो उसके हक़ के बराबर वज़न रखते हों। इसलिए कि क़ियामत के दिन आदमी के पास कोई धन-दौलत तो होगी नहीं कि वह मज़लूम का हक़ अदा करने के लिए कोई हरजाना या जुर्माना दे सके। वहाँ तो बस आदमी के आमाल ही आपस में लेन-देन की करंसी होंगे। इसलिए जिस शख़्स ने दुनिया में किसी पर ज़ुल्म किया हो वह मज़लूम का हक़ इसी तरह अदा कर सकेगा कि अपने पल्ले में जो कुछ भी नेकियाँ रखता हो उनमें से उसका जुर्माना अदा करे, या मज़लूम के गुनाहों में से कुछ अपने ऊपर लेकर उसका जुर्माना भुगते। यह बात भी कई हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से नक़्ल हुई है। बुख़ारी, किताबुर-रिक़ाक़ में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
"जिस शख़्स के ज़िम्मे अपने किसी भाई पर किसी क़िस्म के ज़ुल्म का बोझ हो उसे चाहिए कि यहीं उसे उतार दे, क्योंकि आख़िरत में दीनार और दिरहम तो होंगे ही नहीं। वहाँ उसकी नेकियों में से कुछ लेकर मज़लूम को दिलवाई जाएँगी, या अगर उसके पास नेकियाँ काफ़ी न हों तो मज़लूम के कुछ गुनाह उसपर डाल दिए जाएँगे।”
इसी तरह मुसनद अहमद में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-उनैस की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया—
“कोई जन्नती जन्नत में और कोई जहन्नमी जहन्नम में उस वक़्त तक न जा सकेगा जब तक कि उस ज़ुल्म का बदला न चुका दिया जाए जो उसने किसी पर किया हो, यहाँ तक कि एक थप्पड़ का बदला भी देना होगा।”
हमने पूछा कि यह बदला कैसे दिया जाएगा, जबकि क़ियामत में हम नंगे-बुच्चे होंगे? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अपने आमाल की नेकियों और बुराइयों से बदला चुकाना होगा।"
मुस्लिम और मुसनद अहमद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने एक बार अपनी मजलिस में लोगों से पूछा, “जानते हो मुफ़लिस कौन होता है?” लोगों ने कहा कि हममें से मुफ़लिस (मोहताज) वह होता है जिसके पास धन-दौलत कुछ न हो। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मेरी उम्मत में मुफ़लिस वह है जो क़ियामत के दिन नमाज़ और रोज़ा और ज़कात अदा करके हाज़िर हुआ हो, मगर इस हाल में आया हो कि किसी को उसने गाली दी थी और किसी पर बुहतान लगाया था और किसी का माल मार खाया था और किसी का ख़ून बहाया था और किसी को मारा-पीटा था। फिर उन सब मज़लूमों में से हर एक पर उसकी नेकियाँ ले-लेकर बाँट दी गईं। और जब नेकियों में से कुछ न बचा जिससे उनका बदला चुकाया जा सके तो उनमें से हर एक के कुछ-कुछ गुनाह लेकर उसपर डाल दिए गए, और वह आदमी जहन्नम में फेंक दिया गया।"
एक और हदीस में, जिसे मुस्लिम और अबू-दाऊद ने हज़रत बुरैदा (रज़ि०) से नक़्ल किया है, नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “किसी मुजाहिद के पीछे अगर किसी शख़्स ने उसकी बीवी और उसके घरवालों के मामले में ख़ियानत (धोखा) की तो क़ियामत के दिन वह उस मुजाहिद के सामने खड़ा कर दिया जाएगा और उसको कहा जाएगा कि इसकी नेकियों में से जो कुछ तू चाहे ले ले।” फिर नबी (सल्ल०) ने हमारी तरफ़ मुड़कर फ़रमाया, “फिर तुम्हारा क्या ख़याल है?” यानी क्या तुम अन्दाज़ा करते हो कि वह उसके पास क्या छोड़ देगा?
कुछ और तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने कहा है कि 'तग़ाबुन' का लफ़्ज़ ज़्यादातर तिजारत के मामले में बोला जाता है। और क़ुरआन मजीद में जगह-जगह उस रवैये को, जो इनकार करनेवाले और ईमानवाले अपनी दुनिया की ज़िन्दगी में अपनाते हैं, तिजारत से मिसाल दी गई है। मोमिन अगर नाफ़रमानी का रास्ता छोड़कर फ़रमाँबरदारी अपनाता है और अपनी जान-माल और मेहनतें ख़ुदा के रास्ते में खपा देता है तो मानो वह घाटे का सौदा छोड़कर एक ऐसी तिजारत में अपनी पूँजी लगा रहा है जो आख़िरकार फ़ायदा देनेवाली है। और हक़ का एक इनकारी अगर फ़रमाँबरदारी की राह छोड़कर ख़ुदा की नाफ़रमानी और बग़ावत की राह में अपना सब कुछ लगा देता है तो मानो वह एक ऐसा कारोबारी है जिसने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदी है और आख़िरकार वह उसका घाटा उठानेवाला है। दोनों का नफ़ा-नुक़सान क़ियामत के दिन ही खुलेगा। दुनिया में यह हो सकता है कि मोमिन सरासर घाटे में रहे और इनकार करनेवाला बड़े फ़ायदे हासिल करता रहे। मगर आख़िरत में जाकर मालूम हो जाएगा कि अस्ल में नफ़े का सौदा किसने किया है और नुक़सान का सौदा किसने। यह बात क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर बयान हुई है। मिसाल के तौर पर ये आयतें देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयतें—16, 175, 207; सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—77, 177; सूरा-4 निसा, आयत-74; सूरा-9 तौबा, आयत-111; सूरा-27 नम्ल, आयत-95; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-29, सूरा-61 सफ़्फ़, आयत-10।
एक और सूरत तग़ाबुन की यह भी है कि दुनिया में लोग कुफ़्र व नाफ़रमानी और ज़ुल्म व गुनाह पर बड़े इत्मीनान से आपस में एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं और यह भरोसा रखते हैं कि हमारे दरमियान बड़ी गहरी मुहब्बत और दोस्ती है। बदकिरदार ख़ानदानों के लोग, गुमराही फैलानेवाले पेशवा और उनकी पैरवी करनेवाले, चोरों और डाकुओं के जत्थे, रिश्वतख़ोर और ज़ालिम अफ़सरों और कर्मचारियों के गठजोड़, बेईमान कारोबारियों, कारख़ानेदारों और ज़मींदारों के गरोह, गुमराही और शरारत और बुराई फैलानेवाली पार्टियाँ, और बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में ज़ुल्म और बिगाड़ की अलमबरदार हुकूमतें और क़ौमें, सबकी आपसी साँठ-गाँठ इसी भरोसे पर क़ायम है। इनमें से हर एक के साथ ताल्लुक़ रखनेवाले लोग इस गुमान में हैं कि हम एक-दूसरे के बड़े अच्छे दोस्त हैं और हमारे दरमियान बड़ी कामयाबी के साथ एक-दूसरे की मदद चल रही है। मगर जब ये लोग आख़िरत में पहुँचेंगे तो उनपर एकाएक यह बात खुलेगी कि हम सबने बहुत-बड़ा धोखा खाया है। हर एक यह महसूस करेगा कि जिसे मैं अपना बेहतरीन बाप, भाई, बीवी, शौहर, औलाद, दोस्त, साथी, लीडर, पीर, मुरीद, या हिमायती और मददगार समझ रहा था वह अस्ल में मेरा सबसे बुरा दुश्मन था। हर रिश्तेदारी व दोस्ती और अक़ीदत व मुहब्बत, दुश्मनी में बदल जाएगी। सब एक-दूसरे को गालियाँ देंगे, एक-दूसरे पर लानत करेंगे, और हर एक यह चाहेगा कि अपने जुर्मों की ज़्यादा-से-ज़्यादा ज़िम्मेदारी दूसरों पर डालकर उसे सख़्त-से-सख़्त सज़ा दिलवाए। यह बात भी क़ुरआन मजीद में जगह-जगह बयान की गई है जिसकी कुछ मिसालें नीचे दर्ज की गई आयतों में देखी जा सकती हैं— सूरा-2 बक़रा, आयत-167; सूरा-7 आराफ़, आयतें—37 से 39; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—21, 22; सूरा-23 मोमिनून, आयत-101; सूरा-29 अन्कबूत, आयतें—12, 13, 25; सूरा-31 लुक़मान, आयत-33; सूरा-33 अहज़ाब, आयतें—67, 68; सूरा-34 सबा, आयतें—31 से 33; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-18; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—27 से 33; सूरा-38 सॉद, आयतें—59 से 61; सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-29; सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-67; सूरा-44 दुख़ान, आयत-41; सूरा-70 मआरिज, आयतें—10 से 14; सूरा-80 अ-ब-स, आयतें—34 से 37।
21. अल्लाह पर ईमान लाने से मुराद सिर्फ़ यह मान लेना नहीं है कि अल्लाह मौज़ूद है, बल्कि उस तरीक़े से ईमान लाना मुराद है जिस तरह अल्लाह ने ख़ुद अपने रसूल और अपनी किताब के ज़रिए से बताया है। इस ईमान में रिसालत (पैग़म्बरी) पर ईमान और किताब पर ईमान आप-से-आप शामिल है। इसी तरह नेक अमल से मुराद भी हर वह अमल नहीं है जिसे आदमी ने ख़ुद नेकी समझकर या इनसानों के किसी ख़ुद के गढ़े हुए अख़लाक़ के मेयार (पैमाने) की पैरवी करते हुए अपना लिया हो, बल्कि इससे मुराद वह नेक अमल है जो ख़ुदा के भेजे हुए क़ानून के मुताबिक़ हो। लिहाज़ा किसी को यह ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए कि रसूल और किताब के वासिते के बिना अल्लाह को मानने और नेक अमल करने के वे नतीजे हैं जो आगे बयान हो रहे हैं। क़ुरआन मजीद को जो शख़्स भी सोच-समझकर पढ़ेगा उससे यह बात छिपी न रहेगी कि क़ुरआन के मुताबिक़ इस तरह के किसी ईमान का नाम अल्लाह पर ईमान, और किसी अमल का नाम नेक अमल सिरे से है ही नहीं।