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سُورَةُ التَّغَابُنِ

64. अत-तग़ाबुन

(मदीना में उतरी, आयतें 18)

परिचय

नाम

इसी सूरा के आयत 9 के वाक्यांश 'ज़ालि क यौमुत-तगाबुन' अर्थात् "वह दिन होगा एक-दूसरे के मुक़ाबले में लोगों की हार-जीत (तग़ाबुन) का" से उद्धृत है । तात्पर्य यह कि वह सूरा जिसमें शब्द 'तग़ाबुन' आया है।

उतरने का समय

मुक़ातिल और कल्बी कहते हैं कि इसका कुछ अंश मक्की है और कुछ मदनी। मगर अधिकतर टीकाकार पूरी सूरा को मदनी ठहराते हैं। किन्तु वार्ता की विषय-वस्तु पर विचार करने पर अनुमान होता है कि सम्भवत: यह मदीना तय्यिबा के आरम्भिक कालखण्ड में अवतरित हुई होगी। यही कारण है कि इसमें कुछ रंग मक्की सूरतों का और कुछ मदनी सूरतों का पाया जाता है।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय ईमान और आज्ञापालन का आमंत्रण और सदाचार की शिक्षा है। वार्ता का क्रम यह है कि पहली चार आयतों में संबोधन सभी इंसानों से है। फिर आयत 5 से 10 तक उन लोगों को सम्बोधित किया गया है जो क़ुरआन के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करते और इसके बाद आयत 11 से अन्त तक की आयतों की वार्ता का रुख़ उन लोगों की ओर है जो इस आमंत्रण को स्वीकार करते हैं। सभी इंसानों को सम्बोधित करके कुछ थोड़े-से वाक्यों में उन्हें चार मौलिक सच्चाइयों से अवगत कराया गया है—

एक यह कि इस जगत् का स्रष्टा, मालिक और शासक एक ऐसा सर्वशक्तिमान ईश्वर है जिसके पूर्ण और दोषमुक्त होने की गवाही इस ब्रह्माण्ड की हर चीज़ दे रही है।

दूसरे यह कि यह ब्रह्माण्ड निरुद्देश्य और तत्त्वदर्शिता से रिक्त नहीं है, बल्कि इसके स्रष्टा ने सर्वथा सत्य और औचित्य के आधार पर इसकी रचना की है। यहाँ इस भ्रम में न रहो कि यह व्यर्थ तमाशा है जो निरर्थक शुरू हुआ और निर्रथक ही समाप्त हो जाएगा।

तीसरे यह कि तुम्हें जिस सुन्दरतम रूप के साथ ईश्वर ने पैदा किया है और फिर जिस प्रकार इंकार और ईमान का अधिकार तुमपर छोड़ दिया है, यह कोई फल-रहित और निरर्थक काम नहीं है। वास्तव में ईश्वर यह देख रहा है कि तुम अपनी स्वतंत्रता को किस तरह प्रयोग में लाते हो।

चौथे यह कि तुम दायित्व मुक्त और अनुत्तरदायी नहीं हो । अन्तत: तुम्हें अपने स्रष्टा की ओर पलटकर जाना है, जिसपर मन में छिपे हुए विचार तक प्रकट हैं।

इसके बाद वार्ता का रुख़ उन लोगों की ओर मुड़ता है जिन्होंने इनकार (अधर्म) की राह अपनाई है और उन्हें [विगत विनष्ट जातियों के इतिहास का ध्यान दिलाकर बताया जाता है कि उन] के विनष्ट होने के मूल कारण केवल दो थे, एक यह कि उसने (अल्लाह ने) जिन रसूलों को उनके मार्गदर्शन के लिए भेजा था, उनकी बात मानने से उन्होंने इनकार किया। दूसरे यह कि उन्होंने परलोक की धारणा को भी रद्द कर दिया और अपनी दंभपूर्ण भावना के अन्तर्गत यह समझ लिया कि जो कुछ है बस यही सांसारिक जीवन है। मानव-इतिहास के इन दो शिक्षाप्रद तथ्यों को बयान करके सत्य के न माननेवालों को आमंत्रित किया गया है कि वे होश में आएँ और यदि विगत जातियों के जैसा परिणाम नहीं देखना चाहते तो अल्लाह और उसके रसूल और मार्गदर्शन के उस प्रकाश पर ईमान ले आएँ जो अल्लाह ने क़ुरआन मजीद के रूप में अवतरित किया है। इसके साथ उनको सचेत किया जाता है कि अन्ततः वह दिन आनेवाला है जब समस्त अगले और पिछले एक जगह एकत्र किए जाएंँगे और तुममें से हर एक का ग़बन सबके सामने खुल जाएगा। फिर सदैव के लिए सारे इंसानों के भाग्य का निर्णय [उनके ईमान और कर्म के आधार पर कर दिया जाएगा] । इसके बाद ईमान की राह अपनानेवालों को सम्बोधित करके कुछ महत्त्वपूर्ण आदेश उन्हें दिए जाते हैं-

एक यह कि दुनिया में जो मुसीबत आती है, अल्लाह की अनुज्ञा से आती है। ऐसी स्थितियों में जो व्यक्ति ईमान पर जमा रहे, अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, अन्यथा घबराहट या झुंझलाहट में पड़कर जो आदमी ईमान की राह से हट जाए उसका दिल अल्लाह के मार्गदर्शन से वंचित हो जाता है।

दूसरे यह कि ईमानवाले व्यक्ति का काम केवल ईमान ले आना ही नहीं है, बल्कि ईमान लाने के बाद उसे व्यवहारतः अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) की आज्ञा का पालन करना चाहिए।

तीसरे यह कि ईमानवाले व्यक्ति का भरोसा अपनी शक्ति या संसार की किसी शक्ति पर नहीं, बल्कि केवल अल्लाह पर होना चाहिए।

चौथे यह कि ईमानवाले व्यक्ति के लिए उसका धन और उसके बाल-बच्चे एक बहुत बड़ी परीक्षा हैं, क्योंकि अधिकतर इन्हीं का प्रेम मनुष्य को ईमान और आज्ञापालन के मार्ग से हटा देता है। इसलिए ईमानवालों को [इनके मामले में बहुत] सतर्क रहना चाहिए।

पाँचवें यह कि हर मनुष्य पर उसकी अपनी सामर्थ्य ही तक दायित्व का बोझ डाला गया है। अल्लाह को यह अपेक्षित नहीं है कि मनुष्य अपनी सामर्थ्य से बढ़कर काम करे। अलबत्ता ईमानवाले व्यक्ति को जिस बात की कोशिश करनी चाहिए वह यह है कि अपनी हद तक ख़ुदा से डरते हुए जीवन व्यतीत करने में कोई कमी न होने दे।

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سُورَةُ التَّغَابُنِ
64. अत-तग़ाबुन
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يُسَبِّحُ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ لَهُ ٱلۡمُلۡكُ وَلَهُ ٱلۡحَمۡدُۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ
(1) अल्लाह की तसबीह (महिमागान) कर रही है हर वह चीज़ जो आसमानों में है और हर वह चीज़ जो ज़मीन में है।1 उसी की बादशाही है2 और उसी के लिए तारीफ़ है,3 और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।4
1. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, हाशिया-1। बाद के मज़मून पर ग़ौर करने से यह बात ख़ुद समझ में आ जाती है कि बात की शुरुआत इस जमुले से क्यों की गई। आगे कायनात और इनसान की जो हक़ीक़त बयान की गई है वह यह है कि अल्लाह ही उसका पैदा करनेवाला, मालिक और हाकिम है। और उसने यह कायनात बे-मक़सद और बे-हिकमत नहीं बनाई है। और इनसान यहाँ ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर नहीं छोड़ दिया गया है कि जो कुछ चाहे करता फिरे, कोई उससे पूछ-गछ करनेवाला न हो। और इस कायनात का हाकिम कोई बेख़बर बादशाह नहीं है कि उसकी सल्तनत में जो कुछ हो रहा हो उसका कोई इल्म उसे न हो। इस मज़मून की बेहतरीन तमहीद (भूमिका) वही हो सकती थी जो इस छोटे-से जुमले में बयान हुई है। मौक़ा-महल के लिहाज़ से इस तमहीद (भूमिका) का मतलब यह है कि ज़मीन से लेकर आसमानों की इन्तिहाई कुशादगियों तक जिधर भी तुम निगाह डालोगे, अगर तुम अक़्ल के अन्धे नहीं हो तो तुम्हें साफ़ महसूस होगा कि एक ज़र्रे से लेकर निहायत अज़ीम कहकशानों (आकाशगंगाओं) तक हर चीज़ न सिर्फ़ ख़ुदा के वुजूद पर गवाह है, बल्कि इस बात की गवाही भी दे रही है कि उसका ख़ुदा हर ऐब और कमी और कमज़ोरी और ग़लती से पाक है। उसकी हस्ती और सिफ़ात (गुणों) और उसके कामों और हुक्मों में किसी ऐब और ग़लती, या किसी कमज़ोरी और कमी का मामूली-से-मामूली दरजे में कोई इमकान होता तो यह इन्तिहाई दरजे का हिकमत-भरा निज़ाम वुजूद ही में न आ सकता था, कहाँ यह कि शुरू से लेकर आख़िर तक ऐसे अटल तरीक़े से चल सकता।
2. यानी यह पूरी कायनात अकेले उसी की सल्तनत है। वह सिर्फ़ इसको बनाकर और एक बार हरकत (गति) देकर नहीं रह गया है, बल्कि वही अमली तौर पर हर पल इसपर हुकूमत कर रहा है। इस हुकूमत करने में किसी दूसरे का ज़रा-भी कोई दख़ल या हिस्सा नहीं है। दूसरों को अगर थोड़े वक़्त के लिए और महदूद पैमाने पर इस कायनात में किसी जगह इस्तेमाल करने या मिलकियत या हुकूमत करने के अधिकार हासिल हैं तो वे उनके निजी इख़्तियार नहीं हैं जो उन्हें अपने ज़ोर पर हासिल हुए हों, बल्कि वे अल्लाह तआला के दिए हुए हैं, जब तक अल्लाह चाहे वे उन्हें हासिल रहते हैं, और जब चाहे वह उन्हें छीन सकता है।
3. दूसरे अलफ़ाज़ में वही अकेला तारीफ़ का हक़दार है, दूसरी जिस हस्ती में भी कोई तारीफ़ के क़ाबिल ख़ूबी पाई जाती है वह उसी की दी हुई है। और अगर 'हम्द' को शुक्र के मानी में लिया जाए तो शुक्र का अस्ल हक़ दार वही है, क्योंकि सारी नेमतें उसी की पैदा की हुई हैं और सारी मख़लूक़ात (सृष्टि) का हक़ीक़ी मुहसिन (उपकारक) उसके सिवा कोई नहीं है। दूसरी किसी हस्ती के किसी एहसान का हम शुक्रिया अदा करते हैं तो इस वजह से करते हैं कि अल्लाह ने अपनी नेमत उसके हाथों हम तक पहुँचाई, वरना वह ख़ुद न उस नेमत का पैदा करनेवाला है, न अल्लाह की मेहरबानी और मदद के बिना वह इस नेमत को हम तक पहुँचा सकता था।
4. यानी वह पूरी क़ुदरत रखनेवाला (सर्वशक्तिमान) है। जो कुछ करना चाहे कर सकता है। कोई ताक़त उसकी क़ुदरत को महदूद करनेवाली नहीं है।
هُوَ ٱلَّذِي خَلَقَكُمۡ فَمِنكُمۡ كَافِرٞ وَمِنكُم مُّؤۡمِنٞۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٌ ۝ 1
(2) वही है जिसने तुमको पैदा किया, फिर तुममें से कोई इनकार करनेवाला है और कोई ईमानवाला,5 और अल्लाह वह सब कुछ देख रहा है जो तुम करते हो।6
5. इसके चार मतलब हैं और चारों अपनी-अपनी जगह सही हैं— एक यह कि वही तुम्हारा पैदा करनेवाला है, फिर तुममें से कोई उसके ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला) होने का इनकार करता है और कोई इस हक़ीक़त को मानता है। यह मतलब पहले और दूसरे जुमले को मिलाकर पढ़ने से ज़ाहिर होता है। दूसरा यह कि उसी ने तुमको इस तरह पैदा किया है कि तुम कुफ़्र (इनकार का रवैया) अपनाना चाहो तो अपना सकते हो, और ईमान लाना चाहो तो ला सकते हो। ईमान और कुफ़्र में से किसी के अपनाने पर भी उसने तुम्हें मजबूर नहीं किया है। इसलिए अपने ईमान और कुफ़्र दोनों के तुम ख़ुद ज़िम्मेदार हो। इस मतलब की ताईद बाद का यह जुमला करता है कि “अल्लाह वह सब कुछ देख रहा है जो तुम करते हो।” यानी उसने यह इख़्तियार देकर तुम्हें इम्तिहान में डाला है और वह देख रहा है कि तुम अपने इस इख़्तियार को किस तरह इस्तमाल करते हो। तीसरा मतलब यह है कि उसने तो तुमको सही फ़ितरत पर पैदा किया था, जिसका तक़ाज़ा यह था कि तुम सब ईमान की राह अपनाते, मगर इस सही फ़ितरत पर पैदा होने के बाद तुममें से कुछ लोगों ने कुफ़्र अपनाया जो उनकी पैदाइश के ख़िलाफ़ था, और कुछ ने ईमान की राह अपनाई जो उनकी फ़ितरत के मुताबिक़ थी। यह बात इस आयत को सूरा-30 रूम की आयत-30 के साथ मिलाकर पढ़ने से समझ में आती है, जिसमें फ़रमाया गया है कि “यकसू होकर अपना रुख़ इस दीन पर जमा दो, क़ायम हो जाओ उस फ़ितरत पर जिसपर अल्लाह तआला ने इनसानों को पैदा किया है, अल्लाह की बनाई हुई बनावट बदली नहीं जा सकती, यही बिलकुल सच्चा और सही दीन है।” और इसी बात पर वे कई हदीसें रौशनी डालती हैं जिनमें नबी (सल्ल०) ने बार-बार यह फ़रमाया है कि हर इनसान सही फ़ितरत पर पैदा होता है और बाद में बाहर से कुफ़्र, शिर्क और गुमराही उसपर असर डालती है, (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-30 रूम, हाशिए—42 से 47)। इस जगह पर यह बात भी बयान करनी ज़रूरी है कि आसमानी किताबों ने कभी इनसान के पैदाइशी गुनहगार होने का वह नज़रिया पेश नहीं किया है जिसे लगभग दो हज़ार साल से ईसाइयत ने अपना बुनियादी अक़ीदा बना रखा है। आज ख़ुद कैथोलिक आलिम यह कहने लगे हैं कि बाइबल में इस अक़ीदे की कोई बुनियाद मौज़ूद नहीं है। चुनाँचे बाइबल का एक मशहूर जर्मन आलिम रेवरेंड हरबर्ट हाग (Haag) अपनी किताब Is original Sin in Scripture? में लिखता है कि इबतिदाई दौर के ईसाइयों में कम-से-कम तीसरी सदी तक यह अक़ीदा सिरे से मौज़ूद ही न था कि इनसान पैदाइशी गुनहगार है, और जब यह ख़याल लोगों में फैलने लगा तो दो सदियों तक ईसाई आलिम इसको रद्द करते रहे। मगर आख़िरकार पाँचवीं सदी में सेंट ऑग्स्टाइन ने अपनी मनतिक़ (तर्क, Logic) के ज़ोर से इस बात को मसीहियत के बुनियादी अक़ीदों में शामिल कर दिया कि “इनसानों ने आदम के गुनाह का बोझ विरासत में पाया है और मसीह के कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) की बदौलत नजात पाने के सिवा इनसान के लिए कोई छुटकारे का रास्ता नहीं है। चौथा मतलब यह है कि अल्लाह ही तुमको अदम (न होने) से वुजूद में लाया। तुम न थे और फिर हो गए। यह एक ऐसा मामला था कि अगर तुम इसपर सीधे और साफ़ तरीक़े से सोच-विचार करते और यह देखते कि वुजूद ही वह अस्ल नेमत है जिसकी बदौलत तुम दुनिया की बाक़ी दूसरी नेमतों से फ़ायदा उठा रहे हो, तो तुममें से कोई शख़्स भी अपने पैदा करनेवाले के मुक़ाबले में इनकार और बग़ावत का रवैया न अपनाता। लेकिन तुममें से कुछ ने सोचा ही नहीं, या ग़लत तरीक़े से सोचा और कुफ़्र (इनकार) की राह अपना ली, और कुछ ने ईमान का वही रास्ता अपनाया जो सही सोच का तक़ाज़ा था।
6. इस जुमले में देखने का मतलब सिर्फ़ देखना ही नहीं है, बल्कि इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि जैसे तुम्हारे आमाल हैं उनके मुताबिक़ तुमको इनाम या सज़ा दी जाएगी। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे कोई हाकिम अगर किसी शख़्स को अपनी नौकरी में लेकर यह कहे कि “मैं देखता हूँ कि तुम किस तरह काम करते हो,” तो उसका मतलब यह होता है कि ठीक तरह काम करोगे तो तुम्हें इनाम और तरक़्क़ी दूँगा, वरना तुमसे सख़्त हिसाब लूँगा।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَصَوَّرَكُمۡ فَأَحۡسَنَ صُوَرَكُمۡۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 2
(3) उसने ज़मीन और आसमानों को हक़ के साथ पैदा किया है, और तुम्हारी सूरत बनाई और बड़ी अच्छी बनाई है, और उसी की तरफ़ आख्रिकार तुम्हें पलटना है।7
7. इस आयत में एक के बाद एक तीन बातें बयान की गई हैं, जिनके दरमियान एक बहुत गहरा मनतिक़ी रब्त (तार्किक सम्बन्ध) है— पहली बात यह कही गई है कि अल्लाह ने यह कायनात हक़ के साथ पैदा की है। 'बिल-हक़' (हक़ के साथ) का लफ़्ज़ जब ख़बर के लिए बोला जाता है तो मुराद सच्ची ख़बर होती है। हुक्म के लिए बोला जाता है तो मतलब होता है वह हुक्म जिसकी बुनियाद इनसाफ़ पर हो। बात के लिए बोला जाता है तो मक़सद होता है सीधी और दुरुस्त बात। और जब किसी काम के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है तो मुराद ऐसा काम होता है जो हिकमत-भरा और अक़्ल के मुताबिक़ हो, न कि बे-मतलब और फ़ुज़ूल। अब यह ज़ाहिर है कि 'ख़ल्क़' एक काम है, इसलिए कायनात को पैदा करने को 'हक़ के साथ कहने का मतलब ज़रूर ही यह है कि यह कायनात कुछ खेल के तौर पर नहीं बना दी गई है, बल्कि यह एक हिकमतवाले ख़ालिक़ का बहुत ही संजीदा काम है। इसकी हर चीज़ अपने पीछे एक मुनासिब मक़सद रखती है, और यह मक़सद रखना उसमें इतना नुमायाँ है कि अगर कोई अक़्लमन्द इनसान किसी चीज़ की नौइयत को अच्छी तरह समझ ले तो यह जान लेना उसके लिए मुश्किल नहीं होता कि ऐसी एक चीज़ के पैदा करने का मुनासिब और हिकमत से भरपूर मक़सद और क्या हो सकता है। दुनिया में इनसान की सारी साइंटिफ़िक तरक़्क़ी इस बात की गवाही दे रही है कि जिस चीज़ की नौइयत को भी इनसान ने ग़ौर-फ़िक्र और जाँच-पड़ताल से समझ लिया उसके बारे में यह बात भी उसे आख़िरकार मालूम हो गई कि वह किस मक़सद के लिए बनाई गई है, और उस मक़सद को समझकर ही इनसान ने वे अनगिनत चीज़ें ईजाद कर लीं जो आज इनसानी समाज में इस्तेमाल हो रही हैं। यह बात हरगिज़ मुमकिन न होती अगर यह कायनात किसी खिलंडरे का खिलौना होती जिसमें कोई हिकमत और मक़सद काम न कर रहा होता। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-46; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-11; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-26; सूरा-16 नह्ल,हाशिया-6; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—15, 16; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-102; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-75; सूरा-30 रूम, हाशिया-6; सूरा-44 दुख़ान, हाशिया-34; सूरा-45 जासिया, हाशिया-28) दूसरी बात यह कही गई है कि इस कायनात में अल्लाह तआला ने इनसान को बेहतरीन सूरत पर पैदा किया है। सूरत से मुराद सिर्फ़ इनसान का चेहरा नहीं है, बल्कि इससे मुराद उसकी पूरी जिस्मानी बनावट है और वे क़ुव्वतें और सलाहियतें (प्रतिभाएँ) भी इसके मतलब में दाख़िल हैं जो इस दुनिया में काम करने के लिए आदमी को दी गई हैं। इन दोनों हैसियतों से इनसान को ज़मीन के जानदारों में सबसे बेहतर बनाया गया है, और इसी वजह से वह इस क़ाबिल हुआ है कि उन तमाम मौजूद चीज़ों पर हुकूमत करे जो ज़मीन और उसके आसपास पाई जाती हैं। उसको खड़ा क़द दिया गया है। उसको चलने के लिए इन्तिहाई मुनासिब पाँव दिए गए हैं। उसको काम करने के लिए सबसे ज़्यादा मुनासिब हाथ दिए गए हैं। उसको ऐसे हवास (इन्द्रियाँ) और जानकारी के ऐसे आलात दिए गए हैं जिनके ज़रिए से वह हर तरह की जानकारी हासिल कर सकता है। उसको सोचने और समझने और मालूमात को जमा करके उनसे नतीजे निकालने के लिए एक आला दरजे का ज़ेहन दिया गया है। उसको एक अख़लाक़ी एहसास (नैतिक चेतना) और अच्छा-बुरा पहचानने की क़ुव्वत दी गई है जिसकी वजह से वह भलाई-बुराई और सही-ग़लत में फ़र्क़ करता है। उसको एक फ़ैसला करने की क़ुव्वत दी गई है, जिससे काम लेकर वह अपने अमल का रास्ता ख़ुद चुनता है और यह तय करता है कि अपनी कोशिशों को किस रास्ते पर लगाए और किस पर न लगाए। उसको यहाँ तक आज़ादी दे दी गई है कि चाहे तो अपने पैदा करनेवाले को माने और उसकी बन्दगी करे, वरना उसका इनकार कर दे, या जिन-जिन को चाहे अपना ख़ुदा बना बैठे, या जिसे ख़ुदा मानता हो उसके ख़िलाफ़ भी बग़ावत करना चाहे तो कर गुज़रे। इन सारी क़ुव्वतों और इन सारे इख़्तियारात के साथ उसे ख़ुदा ने अपनी पैदा की हुई अनगिनत जानदार और बेजान चीज़ों को इस्तेमाल करने का इक़तिदार (ताक़त, क़ुदरत और इख़्तियार) उसे दिया है और वह अमली तौर पर इस इक़तिदार को इस्तेमाल कर रहा है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-40 मोमिन, हाशिया-91) इन दो बातों से, जो ऊपर बयान की गई हैं, बिलकुल एक मनतिक़ी (तार्किक) नतीजे के तौर पर वह तीसरी बात ख़ुद-ब-ख़ुद निकलती है जो आयत के तीसरे जुमले में कही गई है कि "उसी की तरफ़ आख़िरकार तुम्हें पलटना है।” ज़ाहिर बात है कि जब ऐसे एक हिकमत-भरे और बा-मक़सद निज़ामे-कायनात (विश्व-व्यवस्था) में ऐसा एक इख़्तियार रखनेवाला जानदार पैदा किया गया है तो हिकमत का तक़ाज़ा हरगिज़ यह नहीं है कि उसे यहाँ बे-नकेल के ऊँट की तरह ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर छोड़ दिया जाए, बल्कि लाज़िमी तौर से इसका तक़ाज़ा यह है कि यह जानदार उस हस्ती के सामने जवाबदेह हो जिसने उसे इन इख़्तियारात के साथ अपनी कायनात में यह मक़ाम और मर्तबा दिया है। 'पलटने' से मुराद इस आयत में सिर्फ़ पलटना नहीं है, बल्कि जवाबदेही के लिए पलटना है, और बाद की आयतों में साफ़ तौर से बयान कर दिया गया है कि यह वापसी इस ज़िन्दगी में नहीं, बल्कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में होगी, और इसका अस्ल वक़्त वह होगा जब तमाम इनसानों को नए सिरे से ज़िन्दा करके एक ही वक़्त में पूछ-गछ के लिए इकट्ठा किया जाएगा, और उस पूछ-गछ के नतीजे में इनाम और सज़ा इस बुनियाद पर होगी कि आदमी ने ख़ुदा के दिए हुए इख़्तियार को सही तरीक़े से इस्तेमाल किया या ग़लत तरीक़े से। रहा यह सवाल कि यह जवाबदेही दुनिया की मौजूदा ज़िन्दगी में क्यों नहीं हो सकती? और इसका सही वक़्त मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी ही क्यों है? और यह क्यों जरूरी है कि यह जवाबदेही उस वक़्त हो जब पूरी इनसानी नस्ल इस दुनिया में ख़त्म हो जाए और शुरू से आख़िर तक के तमाम इनसानों को एक साथ दोबारा ज़िन्दा करके इकट्ठा किया जाए? आदमी ज़रा भी अक़्ल से काम ले तो वह समझ सकता है कि यह सब कुछ भी सरासर अक़्ल के मुताबिक़ है और हिकमत और समझदारी का तक़ाज़ा यही है कि पूछ-गछ दूसरी ज़िन्दगी ही में हो और सब इनसानों से एक साथ हो। इसकी पहली वजह यह है कि इनसान अपनी पूरी ज़िन्दगी के किए-धरे के लिए जवाबदेह है। इसलिए उसकी जवाबदेही का सही वक़्त लाज़िमी तौर से वही होना चाहिए जब उसकी ज़िन्दगी का कारनामा पूरा हो चुका हो। और दूसरी वजह इसकी यह है कि इनसान उन तमाम असरात और नतीजों के लिए ज़िम्मेदार है जो उसके कामों से दूसरों की ज़िन्दगी पर पड़े हों, और वे असरात और नतीजे उसके मरने के साथ ख़त्म नहीं हो जाते, बल्कि उसके बाद एक लम्बी मुद्दत तक चलते रहते हैं। लिहाज़ा सही हिसाब उसी वक़्त लिया जा सकता है जब तमाम इनसानों की ज़िन्दगी का कारनामा ख़त्म हो जाए और शुरू से लेकर आख़िर तक तमाम इनसान एक साथ जवाबदेही के लिए जमा किए जाएँ। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-30; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—10, 11; सूरा-11 हूद, हाशिया-105; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-35; सूरा-22 हज, हाशिया-9; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-27; सूरा-30 रूम, हाशिए 5, 6; सूरा-38 सॉद, हाशिए—29, 30; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-80; सूरा-45 जासिया, हाशिए—27 से 29)
يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَيَعۡلَمُ مَا تُسِرُّونَ وَمَا تُعۡلِنُونَۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 3
(4) ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का उसे इल्म है, जो कुछ तुम छिपाते हो और जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो,8 सब उसको मालूम है, और वह दिलों का हाल तक जानता है।9
8. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “जो कुछ तुम छिपकर करते हो और जो कुछ तुम खुल्लम-खुल्ला करते हो।"
أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَبَؤُاْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَبۡلُ فَذَاقُواْ وَبَالَ أَمۡرِهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 4
(5) क्या तुम्हें उन लोगों की कोई ख़बर नहीं पहुँची जिन्होंने इससे पहले कुफ़्र (इनकार) किया और फिर अपनी करतूतों के फल का मज़ा चख लिया? और आगे उनके लिए एक दर्दनाक अज़ाब है।10
9. यानी वह इनसान के सिर्फ़ उन कामों ही को नहीं जानता जो लोगों की जानकारी में आ जाते हैं, बल्कि उन कामों को भी जानता है जो सबसे छिपे रह जाते हैं। इसके अलावा वह सिर्फ़ कामों की ज़ाहिरी शक्ल ही को नहीं देखता, बल्कि यह भी जानता है कि इनसान के हर अमल के पीछे क्या इरादा और क्या मक़सद काम कर रहा था और जो कुछ उसने किया किस नीयत से किया और क्या समझते हुए किया। यह एक ऐसी हक़ीक़त है जिसपर इनसान ग़ौर करे तो उसे अन्दाज़ा हो सकता है कि इनसाफ़ सिर्फ़ आख़िरत ही में हो सकता है और सिर्फ़ ख़ुदा ही की अदालत में सही इनसाफ़ होना मुमकिन है। इनसान की अक़्ल ख़ुद यह तक़ाज़ा करती है कि आदमी को उसके हर जुर्म की सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन आख़िर यह बात कौन नहीं जानता कि दुनिया में अकसर और ज़्यादातर जुर्म या तो छिपे रह जाते हैं या उनके लिए काफ़ी गवाही न मिल पाने की वजह से मुजरिम छूट जाता है, या जुर्म खुल भी जाता है तो मुजरिम इतना असरदार और ताक़तवर होता है कि उसे सज़ा नहीं दी जा सकती। फिर इनसान की अक़्ल यह भी चाहती है कि आदमी को सिर्फ़ इस बुनियाद पर सज़ा नहीं मिलनी चाहिए कि उसने जो काम किया है उसकी शक्ल एक जुर्म के काम की-सी है, बल्कि यह जाँच होनी चाहिए कि जो हरकत उसने की है जान-बूझकर और सोच-समझकर की है, उसके करते वक़्त वह एक ज़िम्मेदार करनेवाले की हैसियत से काम कर रहा था, उसकी नीयत सचमुच जुर्म करने ही की थी, और वह जानता था कि जो कुछ वह कर रहा है वह जुर्म है। इसी लिए दुनिया की अदालतें मुक़दमों का फ़ैसला करने में इन बातों की जाँच-पड़ताल करती हैं और इनकी पड़ताल को इनसाफ़ के उसूलों का तक़ाज़ा माना जाता है। मगर क्या सचमुच दुनिया में कोई ज़रिआ ऐसा पाया जाता है जिससे इनकी ठीक-ठीक जाँच हो सके जो हर शक-शुब्हे से परे हो? इस लिहाज़ से देखा जाए तो यह आयत भी अल्लाह तआला के इस फ़रमान से गहरा मनतिक़ी रब्त (तार्किक सम्बन्ध) रखती है कि “उसने ज़मीन और आसमानों को हक़ के साथ पैदा किया है।” हक़ के साथ पैदा करने का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि इस कायनात में सही और पूरा इनसाफ़ हो। यह इनसाफ़ लाज़िमी तौर से उसी सूरत में क़ायम हो सकता है जबकि इनसाफ़ करनेवाले की निगाह से इनसान जैसी ज़िम्मेदार मख़लूक़ (जानदार) की न सिर्फ़ यह कि कोई हरकत छिपी न रह जाए, बल्कि वह नीयत भी उससे छिपी न रहे जिसके साथ किसी शख़्स ने कोई हरकत की हो। और ज़ाहिर है कि कायनात के पैदा करनेवाले (ख़ुदा) के सिवा कोई दूसरी हस्ती ऐसी नहीं हो सकती जो इस तरह का इनसाफ़ कर सके। अब अगर कोई शख़्स अल्लाह और आख़िरत का इनकार करता है तो वह मानो यह दावा करता है कि हम एक ऐसी कायनात में रहते हैं जो हक़ीक़त में इनसाफ़ से ख़ाली है, बल्कि जिसमें सिरे से इनसाफ़ का कोई इमकान ही नहीं है। इस बेवक़ूफ़ी-भरे ख़याल पर जिस शख़्स की अक़्ल और जिसका दिल व ज़मीर मुत्मइन हो वह बड़ा ही बेशर्म है, अगर वह अपने-आपको तरक़्क़ी-पसन्द या अक़लियत-पसन्द (बौद्धिकतावादी) समझता हो और उन लोगों को अन्धविश्वासी या क़दामत-पसन्द (रूढ़िवादी) समझे जो कायनात के इस अक़्ल के मुताबिक़ (Rational) नज़रिए को क़ुबूल करते हैं जिसे क़ुरआन पेश कर रहा है।
10. यानी दुनिया में उन्होंने अपने बुरे कामों का जो मज़ा चखा वह उनके जुर्मों की न अस्ल सज़ा थी, न पूरी सज़ा। असली और पूरी सज़ा तो अभी आख़िरत में उनको भुगतनी है। लेकिन दुनिया में जो अज़ाब उनपर आया उससे लोग यह सबक़ ले सकते हैं कि जिन क़ौमों ने भी अपने रब के मुक़ाबले में कुफ़्र (इनकार) का रवैया अपनाया वे किस तरह बिगड़ती चली गईं और आख़िर किस अंजाम से दोचार हुईं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल- क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—5, 6; सूरा-11 हूद, हाशिया-105)
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُۥ كَانَت تَّأۡتِيهِمۡ رُسُلُهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ فَقَالُوٓاْ أَبَشَرٞ يَهۡدُونَنَا فَكَفَرُواْ وَتَوَلَّواْۖ وَّٱسۡتَغۡنَى ٱللَّهُۚ وَٱللَّهُ غَنِيٌّ حَمِيدٞ ۝ 5
(6) इस अंजाम के हक़दार वे इसलिए हुए कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली दलीलें और निशानियाँ लेकर आते रहे,11 मगर उन्होंने कहा, “क्या इनसान हमें हिदायत देंगे?"12 इस तरह उन्होंने मानने से इनकार कर दिया और मुँह फेर लिया, तब अल्लाह भी उनसे बे-परवाह हो गया, और अल्लाह तो है ही बेनियाज़ और अपनी ज़ात में आप तारीफ़ के क़ाबिल13
11. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'बय्यिनात' इस्तेमाल हुआ है, जो अपने अन्दर बहुत-से मतलब और मानी रखता है। 'बय्यिन' अरबी ज़बान में ऐसी चीज़ को कहते हैं जो बिलकुल ज़ाहिर और वाज़ेह हो। पैग़म्बरों (अलैहि०) के बारे में यह कहना कि वे बय्यिनात लेकर आते रहे, यह मानी रखता है कि एक तो वे ऐसी साफ़ अलामतें और निशानियाँ लेकर आते थे जो इस बात की खुली गवाही देती थीं कि वे अल्लाह की तरफ़ से भेजे गए हैं। दूसरे, वे जो बात भी पेश करते थे बिलकुल अक़्ल के मुताबिक़ और रौशन दलीलों के साथ पेश करते थे। तीसरे, उनकी तालीम में कोई उलझाव न था, बल्कि वे साफ़-साफ़ बताते थे कि हक़ क्या है और बातिल क्या, जाइज़ क्या है और नाजाइज़ क्या, किस राह पर इनसान को चलना चाहिए और किस राह पर न चलना चाहिए।
12. यह थी उनकी तबाही की सबसे पहली और बुनियादी वजह। इनसानों को दुनिया में अमल की सही राह इसके बिना मालूम नहीं हो सकती थी कि उसका पैदा करनेवाला (ख़ुदा) उसे सही इल्म दे, और पैदा करनेवाले की तरफ़ से इल्म दिए जाने की अमली सूरत इसके सिवा कुछ न हो सकती थी कि वह इनसानों ही में से कुछ लोगों को इल्म देकर दूसरों तक उसे पहुँचाने का काम सिपुर्द करे। इस ग़रज़ के लिए उसने पैग़म्बरों को 'बय्यिनात' (खुली-खुली निशानियों) के साथ भेजा, ताकि लोगों के लिए उनके हक़ पर होने में शक करने की कोई मुनासिब वजह न रहे। मगर उन्होंने सिरे से यही बात मानने से इनकार कर दिया कि 'बशर' (इनसान) ख़ुदा का रसूल हो सकता है। इसके बाद उनके लिए हिदायत पाने की कोई सूरत बाक़ी न रही, (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, हाशिया-11)। इस मामले में गुमराह इनसानों की जहालत और नादानी का यह अजीब करिश्मा हमारे सामने आता है कि 'बशर' (इनसान) की रहनुमाई क़ुबूल करने में तो उन्होंने कभी झिझक नहीं महसूस की, यहाँ तक कि उन ही की रहनुमाई में लकड़ी और पत्थर के बुतों तक को माबूद बनाया, ख़ुद इनसानों को ख़ुदा और ख़ुदा का 'अवतार' और ख़ुदा का बेटा तक मान लिया, और गुमराह करनेवाले लीडरों की अन्धी पैरवी में ऐसे-ऐसे अजीब रास्ते इख़्तियार कर लिए जिन्होंने इनसानी तहज़ीब और तमद्दुन और अख़लाक़ को तलपट करके रख दिया। मगर जब ख़ुदा के रसूल उनके पास हक़ लेकर आए और उन्होंने हर निजी ग़रज़ से ऊपर उठकर बेलाग सच्चाई उनके सामने पेश की तो उन्होंने कहा, “क्या अब बशर (इनसान) हमें हिदायत देंगे?” इसका मतलब यह था कि बशर अगर गुमराह करे तो सिर-आँखों पर, लेकिन अगर वह सीधी राह दिखाता है तो उसकी रहनुमाई क़ुबूल करने के क़ाबिल नहीं है।
13. यानी जब उन्होंने अल्लाह की भेजी हुई हिदायत से बे-परवाही बरती तो फिर अल्लाह को भी उनकी कुछ परवाह न रही कि वे किस गढ़े में जाकर गिरते हैं। अल्लाह की कोई ग़रज़ तो उनसे अटकी हुई न थी कि वे उसे ख़ुदा मानेंगे तो वह ख़ुदा रहेगा, वरना ख़ुदाई का तख़्त उससे छिन जाएगा। वह न उनकी इबादत का मुहताज था, न उनके शुक्र और तारीफ़ का। वह तो उनकी अपनी भलाई के लिए उन्हें सीधा रास्ता दिखाना चाहता था। मगर जब वे उससे मुँह फेर गए तो अल्लाह भी उनसे बे-परवाह हो गया। फिर न उनको हिदायत दी, न उनकी हिफ़ाज़त अपने ज़िम्मे ली, न उनको तबाही में पड़ने से बचाया और न उन्हें अपने ऊपर तबाही लाने से रोका, क्योंकि वे ख़ुद उसकी हिदायत और सरपरस्ती के तलबगार न थे।
زَعَمَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَن لَّن يُبۡعَثُواْۚ قُلۡ بَلَىٰ وَرَبِّي لَتُبۡعَثُنَّ ثُمَّ لَتُنَبَّؤُنَّ بِمَا عَمِلۡتُمۡۚ وَذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٞ ۝ 6
(7) इनकार करनेवालों ने बड़े दावे से कहा है कि वे मरने के बाद हरगिज़ दोबारा न उठाए जाएँगे।14 इनसे कहो, “नहीं, मेरे रब की क़सम! तुम ज़रूर उठाए जाओगे,15 फिर ज़रूर तुम्हें बताया जाएगा कि तुमने (दुनिया में) क्या कुछ किया है,16 और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान है।"17
14. यानी हर ज़माने में हक़ का इनकार करनेवाले दूसरी जिस बुनियादी गुमराही में मुब्तला रहे हैं, और जो आख़िरकार उनकी तबाही का सबब हुई, वह यह थी। अगरचे आख़िरत के किसी इनकार करनेवाले के पास न पहले यह जानने का ज़रिआ था, न आज है, न कभी हो सकता है कि मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है। लेकिन इन नादानों ने हमेशा बड़े ज़ोर-शोर के साथ यही दावा किया है, हालाँकि पूरी तरह आख़िरत का इनकार कर देने के लिए न कोई अक़ली बुनियाद मौजूद है न इल्मी बुनियाद।
15. यह तीसरा मक़ाम है जहाँ अल्लाह तआला ने अपने नबी (सल्ल०) से फ़रमाया है कि अपने रब की क़सम खाकर लोगों से कहो कि ज़रूर ऐसा होकर रहेगा। पहले सूरा-10 यूनुस, आयत-53 में फ़रमाया, “वे पूछते हैं क्या सचमुच यह हक़ है? कहो : मेरे रब की क़सम! यह यक़ीनन हक़ है और तुम इतना बल-बूता नहीं रखते कि उसे ज़ाहिर होने से रोक दो।” फिर सूरा-31 सबा, आयत-3 में फ़रमाया, “इनकार करनेवाले कहते हैं : क्या बात है कि क़ियामत हमपर नहीं आ रही है! कहो : कसम है मेरे रब की! वह तुमपर आकर रहेगी।" यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि आख़िरत के एक इनकारी के लिए आख़िर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है आप उसे आख़िरत के आने की ख़बर क़सम खाकर दें या क़सम खाए बिना दें? वह जब इस चीज़ को नहीं मानता तो सिर्फ़ इस बुनियाद पर कैसे मान लेगा कि आप क़सम खाकर उससे यह बात कह रहे हैं? इसका जवाब यह है कि एक तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बात सुननेवाले वे लोग थे जो अपनी निजी जानकारी और तजरिबे की बुनियाद पर यह बात ख़ूब जानते थे कि इस शख़्स ने कभी उम्र-भर झूठ नहीं बोला है, इसलिए चाहे ज़बान से वे नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ कैसे ही बुहतान गढ़ते रहे हों, अपने दिलों में वे यह सोच तक न सकते थे कि ऐसा सच्चा इनसान कभी ख़ुदा की क़सम खाकर वह बात कह सकता है जिसके सच होने का उसे पूरा यक़ीन न हो। दूसरे यह कि आप (सल्ल०) सिर्फ़ आख़िरत का अक़ीदा ही बयान नहीं करते थे, बल्कि उसके लिए बहुत ही मुनासिब दलीलें भी पेश करते थे। मगर जो चीज़ किसी शख़्स के नबी होने और नबी न होने के दरमियान फ़र्क़ करती है, वह यह है कि एक ऐसा आदमी जो नबी न हो वह आख़िरत के हक़ में जो मज़बूत-से-मज़बूत दलीलें दे सकता है उनका ज़्यादा-से-ज़्यादा फ़ायदा बस यही हो सकता है कि आख़िरत के न होने के मुक़ाबले में उसका होना ज़्यादा अक़्ल के मुताबिक़ और ज़्यादा मुमकिन मान लिया जाए। इसके बरख़िलाफ़ नबी का मक़ाम एक फ़ल्सफ़ी (दार्शनिक) के मक़ाम से बढ़कर है। उसकी अस्ल हैसियत यह नहीं है कि अक़्ली दलीलों से वह इस नतीजे पर पहुँचा हो कि आख़िरत होनी चाहिए। बल्कि उसकी अस्ल हैसियत यह है कि वह इस बात का इल्म रखता है कि आख़िरत होगी और यक़ीन के साथ कहता है कि वह ज़रूर होकर रहेगी। इसलिए एक नबी ही क़सम खाकर यह बात कह सकता है, एक फ़ल्सफ़ी इसपर क़सम नहीं खा सकता। और आख़िरत पर ईमान एक नबी के बयान ही से पैदा हो सकता है, फ़ल्सफ़ी की दलील अपने अन्दर यह क़ुव्वत नहीं रखती कि दूसरा शख़्स तो दूर, फ़ल्सफ़ी ख़ुद भी अपनी दलील की बुनियाद पर इसे अपना ईमानी अक़ीदा बना सके। फ़ल्सफ़ी अगर सचमुच सही सोच रखता हो तो वह ‘होना चाहिए' से आगे नहीं बढ़ सकता। 'है और यक़ीनन है' कहना सिर्फ़ एक नबी का काम है।
16. यह वह मक़सद है जिसके लिए इनसान को मरने के बाद दोबारा उठाया जाएगा, और इसी में इस सवाल का जवाब भी है कि ऐसा करने की आख़िर ज़रूरत क्या है। अगर वह बहस आदमी की निगाह में हो जो सूरा के शुरू से आयत-4 तक की गई है तो यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि इस बरहक़ कायनात में जिस किसी को कुफ़्र और ईमान में से किसी एक राह के अपनाने की आज़ादी दी हो, और जिसे इस कायनात में बहुत-सी चीज़ों के इस्तेमाल करने का इख़्तियार और क़ुव्वत भी दे दी गई हो, और जिसने कुफ़्र या ईमान की राह अपनाकर उम्र-भर अपने इस इख़्तियार को सही या ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करके बहुत-सी भलाइयाँ या बहुत-सी बुराइयाँ ख़ुद अपनी ज़िम्मेदारी पर की हों, उसके बारे में यह सोचना बिलकुल बेअक़्ली की बात है कि यह सब कुछ जब वह कर चुके तो आख़िरकार भले की भलाई और बुरे की बुराई, दोनों बे-नतीजा रहें और सिरे से कोई वक़्त ऐसा आए ही नहीं जब इस जानदार के आमाल की जाँच-पड़ताल हो। जो शख़्स ऐसी बेअक़्ली की बात कहता है वह ज़रूर ही दो बेवक़ूफ़ियों में से एक बेवक़ूफ़ी करता है। या तो वह यह समझता है कि यह कायनात है तो हिकमत के मुताबिक़ बनी हुई, मगर यहाँ इनसान जैसे इख़्तियार रखनेवाले शख़्स को ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर छोड़ दिया गया है। या फिर वह यह समझता है कि यह एक अलल-टप बनी हुई कायनात है जिसे बनाने में सिरे से किसी हिकमतवाले की हिकमत काम नहीं कर रही है। पहली सूरत में वह एक दो रुख़ी बात कहता है, क्योंकि कायनात में जिसकी बुनियाद हिकमत पर हो एक इख़्तियार रखनेवाली मख़लूक़ (जानदार) का ग़ैर-ज़िम्मेदार होना साफ़-साफ़ इनसाफ़ और हिकमत के ख़िलाफ़ है। और दूसरी सूरत में वह इस बात की कोई मुनासिब वजह बयान नहीं कर सकता कि एक अलल-टप बनी हुई बे-हिकमत कायनात में इनसान जैसे अक़्ल रखनेवाले जानदार का वुजूद में आना आख़िर मुमकिन कैसे हुआ और उसके ज़ेहन में अद्ल और इनसाफ़ का तसव्वुर कहाँ से आ गया? बेअक़्ली से अक़्ल की पैदाइश और बेइनसाफ़ी से इनसाफ़ का तसव्वुर निकल आना एक ऐसी बात है जिसका माननेवाला या तो एक हठधर्म आदमी हो सकता है, या फिर वह जो बहुत ज़्यादा फ़ल्सफ़ा बघारते-बघारते दिमाग़ी मरीज़ बन चुका हो।
17. यह आख़िरत की दूसरी दलील है। पहली दलील आख़िरत के ज़रूरी होने की थी और यह दलील उसके मुमकिन होने की है। ज़ाहिर है कि जिस ख़ुदा के लिए कायनात का इतना बड़ा निज़ाम बना देना मुश्किल न था और जिसके लिए इस दुनिया में इनसानों को पैदा करना मुश्किल नहीं है, उसके लिए यह बात आख़िर क्यों मुश्किल होगी कि इनसानों को दोबारा पैदा करके अपने सामने हाज़िर करे और उनका हिसाब ले।
فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَٱلنُّورِ ٱلَّذِيٓ أَنزَلۡنَاۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 7
(8) तो ईमान लाओ अल्लाह पर, और उसके रसूल पर, और उस रौशनी पर जो हमने उतारी है।18 जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
18. यानी जब यह सच है और पूरी इनसानी तारीख़ इस बात पर गवाह है कि क़ौमों की तबाही का अस्ल सबब उनका रसूलों की बात न मानना और आख़िरत का इनकार करना था, तो उसी ग़लत डगर पर चलकर अपनी शामत बुलाने पर न अड़े रहो और अल्लाह और उसके रसूल और क़ुरआन की पेश की हुई हिदायत पर ईमान ले आओ। यहाँ मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि अल्लाह की उतारी हुई रौशनी से मुराद क़ुरआन है। जिस तरह रौशनी ख़ुद नुमायाँ होती है और आसपास की उन तमाम चीज़ों को नुमायाँ कर देती है जो पहले अंधेरे में छिपी हुई थीं, उसी तरह क़ुरआन एक ऐसा चराग़ है जिसका हक़ के मुताबिक़ होना अपने-आपमें ख़ुद रौशन है, और उसकी रौशनी में इनसान हर उस मसले को समझ सकता है जिसे समझने के लिए उसके अपने इल्म (जानकारी) और अक़्ल के ज़राए (साधन) काफ़ी नहीं हैं। यह चराग़ जिस शख़्स के पास हो वह फ़िक्र और अमल की अनगिनत टेढ़ी-मेढ़ी राहों के दरमियान हक़ की सीधी राह साफ़-साफ़ देख सकता है और उम्र-भर सीधे रास्ते पर इस तरह चल सकता है कि हर क़दम पर उसे यह मालूम होता रहे कि गुमराहियों की तरफ़ ले जानेवाली पगडंडियाँ किधर-किधर जा रही हैं और हलाकत के गढ़े कहाँ-कहाँ आ रहे हैं और सलामती की राह उनके दरमियान कौन-सी है।
يَوۡمَ يَجۡمَعُكُمۡ لِيَوۡمِ ٱلۡجَمۡعِۖ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلتَّغَابُنِۗ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ وَيَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا يُكَفِّرۡ عَنۡهُ سَيِّـَٔاتِهِۦ وَيُدۡخِلۡهُ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 8
(9) (इसका पता तुम्हें उस दिन चल जाएगा) जब जमा होने के दिन वह तुम सबको इकट्ठा करेगा19 वह दिन होगा एक-दूसरे के मुक़ाबले में लोगों की हार-जीत का।20 जो अल्लाह पर ईमान लाया है और भले काम करता है,21 अल्लाह उसके गुनाह झाड़ देगा और उसे ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। ये लोग हमेशा-हमेशा उनमें रहेंगे। यही बड़ी कामयाबी है।
19. 'जमा होने के दिन' से मुराद है क़ियामत, और सबको जमा करने से मुराद है तमाम उन इनसानों को एक ही वक़्त में ज़िन्दा करके इकट्ठा करना जो कायनात की शुरुआत से क़ियामत तक दुनिया में पैदा हुए हों। यह बात क़ुरआन मजीद में जगह-जगह खोलकर बयान की गई है। मसलन सूरा-11 हूद, आयत-103 में कहा गया, “वह एक ऐसा दिन होगा जिसमें सब इनसान जमा होंगे और फिर जो कुछ भी उस दिन होगा सबकी आँखों के सामने होगा।” और सूरा-56 वाक़िआ, आयतें—49, 50 में कहा गया, “इनसे कहो कि तमाम पहले गुज़रे हुए और बाद में आनेवाले लोग यक़ीनन एक मुक़र्रर दिन के वक़्त जमा किए जानेवाले हैं।"
20. अस्ल में लफ़्ज़ 'यौमुत-तग़ाबुन' इस्तेमाल हुआ है, जिसके मतलब में इतनी वुसअत (व्यापकता) है कि उर्दू (हिन्दी) ज़बान में तो क्या, किसी दूसरी ज़बान के भी एक लफ़्ज़, बल्कि एक जुमले में इसका मतलब बयान नहीं किया जा सकता। ख़ुद क़ुरआन मजीद में भी क़ियामत के जितने नाम आए हैं, उनमें शायद सबसे ज़्यादा मानीदार नाम यही है। इसलिए इसका मतलब समझने के लिए थोड़ी सी तशरीह बहुत ज़रूरी है। तग़ाबुन, ग़बन से है जिसको ‘ग़ब्न' भी पढ़ सकते हैं और 'ग़बन' भी। ‘ग़ब्न' ज़्यादातर ख़रीदने-बेचने और लेन-देन के मामले में बोला जाता है और 'ग़बन' राय के मामले में। लेकिन कभी-कभी इसके बरख़िलाफ़ भी इस्तेमाल होता है। डिक्शनरी में इसके कई मतलब बयान हुए हैं : ‘ग़-बनू ख़-ब-रन-ना-क़ति' (उन लोगों को पता नहीं चला कि उनकी ऊँटनी कहाँ गई।), 'ग़-ब-न फ़ुलानन फ़िल-बैइ' (उसने फ़ुलाँ शख़्स को ख़रीदने-बेचने में धोखा दे दिया।), 'ग़-ब-न फ़ुलानन' (उसने फ़ुलाँ शख़्स को घाटा दे दिया।) ‘ग़बिन्तु मिन हक़्क़ी इन-द फ़ुलानिन' (फ़ुलाँ शख़्स से अपना हक़ वुसूल करने में मुझसे भूल हो गई।), 'ग़बीन' (वह शख़्स जिसमें ज़ेहानत की कमी हो और जिसकी राय कमज़ोर हो), 'मग़बून' (वह शख़्स जो धोखा खा जाए)। ग़बन का मतलब है ग़फ़लत, भूल, अपने हिस्से से महरूम रह जाना, एक शख़्स का किसी ग़ैर-महसूस तरीक़े से कारोबार या आपसी मामले में दूसरे को नुक़सान देना। इमाम हसन बसरी (रह०) ने देखा कि एक आदमी दूसरे को ख़रीदने या बेचने में धोखा दे रहा है तो फ़रमाया, 'हाज़ा यग़बिनु अक़-ल-क' (यह आदमी तुझे बेवक़ूफ़ बना रहा है)। इससे जब लफ़्ज़ तग़ाबुन बनाया जाए तो उसमें दो या ज़्यादा आदमियों के दरमियान ग़बन होने का मतलब पैदा हो जाता है। 'तग़ा-बनल-क़ौम' का मतलब है कुछ लोगों का कुछ लोगों के साथ ग़बन का मामला करना। या एक शख़्स का दूसरे को नुक़सान पहुँचाना और दूसरे का उसके हाथों नुक़सान उठा जाना। या एक का हिस्सा दूसरे को मिल जाना और उसका अपने हिस्से से महरूम रह जाना। या तिजारत में एक फ़रीक़ (पक्ष) का घाटा उठाना और दूसरे फ़रीक़ का फ़ायदा उठा ले जाना। या कुछ लोगों का कुछ दूसरे लोगों के मुक़ाबले में ग़ाफ़िल या कमज़ोर राय साबित होना। अब इस बात पर ग़ौर कीजिए कि आयत में क़ियामत के बारे में फ़रमाया गया है कि “वह दिन होगा तग़ाबुन का।” इन अलफ़ाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि दुनिया में तो रात-दिन तग़ाबुन होता ही रहता है, लेकिन यह तग़ाबुन ज़ाहिरी और आँखों का धोखा है, असली और हक़ीक़ी तग़ाबुन नहीं है। अस्ल तग़ाबुन क़ियामत के दिन होगा। वहाँ जाकर पता चलेगा कि अस्ल में घाटा किसने उठाया और कौन नफ़ा कमा ले गया। अस्ल में किसका हिस्सा किसे मिल गया और कौन अपने हिस्से से महरूम रह गया। अस्ल में धोखा किसने खाया और कौन होशियार निकला। अस्ल में किसने अपनी ज़िन्दगी की तमाम पूँजी एक ग़लत कारोबार में खपाकर अपना दीवाला निकाल दिया, और किसने अपनी क़ुव्वतों और क़ाबिलियतों और कोशिशों और मालों और वक़्तों को नफ़े के सौदे पर लगाकर वे सारे फ़ायदे लूट लिए जो पहले शख़्स को भी हासिल हो सकते थे, अगर वह दुनिया की हक़ीक़त समझने में धोखा न खाता। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने ‘यौमुत-तग़ाबुन' का मतलब बयान करते हुए इसके कई मतलब बयान किए हैं जो सब-के-सब सही हैं और इसके मानी के अलग-अलग पहलुओं पर रौशनी डालते हैं। कुछ आलिमों ने इसका मतलब यह बयान किया है कि उस दिन जन्नतवाले जहन्नमवालों का वह हिस्सा मार ले जाएँगे जो जन्नत में उनको मिलता, अगर वे जन्नतियों के-से काम करके आए होते, और जहन्नमवाले जन्नतवालों का वह हिस्सा लूट लेंगे जो उन्हें जहन्नम में मिलता, अगर उन्होंने दुनिया में जहन्नमवालों के-से काम किए होते। इस बात की ताईद (समर्थन) बुख़ारी की वह हदीस करती है जो उन्होंने किताबुर-रिक़ाक़ में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "जो शख़्स भी जन्नत में जाएगा उसे वह जगह दिखा दी जाएगी जो उसे जहन्नम में मिलती अगर वह बुरा काम करता, ताकि वह और ज़्यादा शुक्रगुज़ार हो। और जो शख़्स भी जहन्नम में जाएगा उसे वह जगह दिखा दी जाएगी जो उसे जन्नत में मिलती, अगर उसने नेक काम किया होता, ताकि उसे और ज़्यादा पछतावा हो।" तफ़सीर लिखनेवाले कुछ और आलिम कहते हैं कि उस दिन ज़ालिम की उतनी नेकियाँ मज़लूम लूट ले जाएगा जो उसके ज़ुल्म का बदला हो सकें, या मज़लूम के उतने गुनाह ज़ालिम पर डाल दिए जाएँगे जो उसके हक़ के बराबर वज़न रखते हों। इसलिए कि क़ियामत के दिन आदमी के पास कोई धन-दौलत तो होगी नहीं कि वह मज़लूम का हक़ अदा करने के लिए कोई हरजाना या जुर्माना दे सके। वहाँ तो बस आदमी के आमाल ही आपस में लेन-देन की करंसी होंगे। इसलिए जिस शख़्स ने दुनिया में किसी पर ज़ुल्म किया हो वह मज़लूम का हक़ इसी तरह अदा कर सकेगा कि अपने पल्ले में जो कुछ भी नेकियाँ रखता हो उनमें से उसका जुर्माना अदा करे, या मज़लूम के गुनाहों में से कुछ अपने ऊपर लेकर उसका जुर्माना भुगते। यह बात भी कई हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से नक़्ल हुई है। बुख़ारी, किताबुर-रिक़ाक़ में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— "जिस शख़्स के ज़िम्मे अपने किसी भाई पर किसी क़िस्म के ज़ुल्म का बोझ हो उसे चाहिए कि यहीं उसे उतार दे, क्योंकि आख़िरत में दीनार और दिरहम तो होंगे ही नहीं। वहाँ उसकी नेकियों में से कुछ लेकर मज़लूम को दिलवाई जाएँगी, या अगर उसके पास नेकियाँ काफ़ी न हों तो मज़लूम के कुछ गुनाह उसपर डाल दिए जाएँगे।” इसी तरह मुसनद अहमद में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-उनैस की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “कोई जन्नती जन्नत में और कोई जहन्नमी जहन्नम में उस वक़्त तक न जा सकेगा जब तक कि उस ज़ुल्म का बदला न चुका दिया जाए जो उसने किसी पर किया हो, यहाँ तक कि एक थप्पड़ का बदला भी देना होगा।” हमने पूछा कि यह बदला कैसे दिया जाएगा, जबकि क़ियामत में हम नंगे-बुच्चे होंगे? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अपने आमाल की नेकियों और बुराइयों से बदला चुकाना होगा।" मुस्लिम और मुसनद अहमद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने एक बार अपनी मजलिस में लोगों से पूछा, “जानते हो मुफ़लिस कौन होता है?” लोगों ने कहा कि हममें से मुफ़लिस (मोहताज) वह होता है जिसके पास धन-दौलत कुछ न हो। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मेरी उम्मत में मुफ़लिस वह है जो क़ियामत के दिन नमाज़ और रोज़ा और ज़कात अदा करके हाज़िर हुआ हो, मगर इस हाल में आया हो कि किसी को उसने गाली दी थी और किसी पर बुहतान लगाया था और किसी का माल मार खाया था और किसी का ख़ून बहाया था और किसी को मारा-पीटा था। फिर उन सब मज़लूमों में से हर एक पर उसकी नेकियाँ ले-लेकर बाँट दी गईं। और जब नेकियों में से कुछ न बचा जिससे उनका बदला चुकाया जा सके तो उनमें से हर एक के कुछ-कुछ गुनाह लेकर उसपर डाल दिए गए, और वह आदमी जहन्नम में फेंक दिया गया।" एक और हदीस में, जिसे मुस्लिम और अबू-दाऊद ने हज़रत बुरैदा (रज़ि०) से नक़्ल किया है, नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “किसी मुजाहिद के पीछे अगर किसी शख़्स ने उसकी बीवी और उसके घरवालों के मामले में ख़ियानत (धोखा) की तो क़ियामत के दिन वह उस मुजाहिद के सामने खड़ा कर दिया जाएगा और उसको कहा जाएगा कि इसकी नेकियों में से जो कुछ तू चाहे ले ले।” फिर नबी (सल्ल०) ने हमारी तरफ़ मुड़कर फ़रमाया, “फिर तुम्हारा क्या ख़याल है?” यानी क्या तुम अन्दाज़ा करते हो कि वह उसके पास क्या छोड़ देगा? कुछ और तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने कहा है कि 'तग़ाबुन' का लफ़्ज़ ज़्यादातर तिजारत के मामले में बोला जाता है। और क़ुरआन मजीद में जगह-जगह उस रवैये को, जो इनकार करनेवाले और ईमानवाले अपनी दुनिया की ज़िन्दगी में अपनाते हैं, तिजारत से मिसाल दी गई है। मोमिन अगर नाफ़रमानी का रास्ता छोड़कर फ़रमाँबरदारी अपनाता है और अपनी जान-माल और मेहनतें ख़ुदा के रास्ते में खपा देता है तो मानो वह घाटे का सौदा छोड़कर एक ऐसी तिजारत में अपनी पूँजी लगा रहा है जो आख़िरकार फ़ायदा देनेवाली है। और हक़ का एक इनकारी अगर फ़रमाँबरदारी की राह छोड़कर ख़ुदा की नाफ़रमानी और बग़ावत की राह में अपना सब कुछ लगा देता है तो मानो वह एक ऐसा कारोबारी है जिसने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदी है और आख़िरकार वह उसका घाटा उठानेवाला है। दोनों का नफ़ा-नुक़सान क़ियामत के दिन ही खुलेगा। दुनिया में यह हो सकता है कि मोमिन सरासर घाटे में रहे और इनकार करनेवाला बड़े फ़ायदे हासिल करता रहे। मगर आख़िरत में जाकर मालूम हो जाएगा कि अस्ल में नफ़े का सौदा किसने किया है और नुक़सान का सौदा किसने। यह बात क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर बयान हुई है। मिसाल के तौर पर ये आयतें देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयतें—16, 175, 207; सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—77, 177; सूरा-4 निसा, आयत-74; सूरा-9 तौबा, आयत-111; सूरा-27 नम्ल, आयत-95; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-29, सूरा-61 सफ़्फ़, आयत-10। एक और सूरत तग़ाबुन की यह भी है कि दुनिया में लोग कुफ़्र व नाफ़रमानी और ज़ुल्म व गुनाह पर बड़े इत्मीनान से आपस में एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं और यह भरोसा रखते हैं कि हमारे दरमियान बड़ी गहरी मुहब्बत और दोस्ती है। बदकिरदार ख़ानदानों के लोग, गुमराही फैलानेवाले पेशवा और उनकी पैरवी करनेवाले, चोरों और डाकुओं के जत्थे, रिश्वतख़ोर और ज़ालिम अफ़सरों और कर्मचारियों के गठजोड़, बेईमान कारोबारियों, कारख़ानेदारों और ज़मींदारों के गरोह, गुमराही और शरारत और बुराई फैलानेवाली पार्टियाँ, और बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में ज़ुल्म और बिगाड़ की अलमबरदार हुकूमतें और क़ौमें, सबकी आपसी साँठ-गाँठ इसी भरोसे पर क़ायम है। इनमें से हर एक के साथ ताल्लुक़ रखनेवाले लोग इस गुमान में हैं कि हम एक-दूसरे के बड़े अच्छे दोस्त हैं और हमारे दरमियान बड़ी कामयाबी के साथ एक-दूसरे की मदद चल रही है। मगर जब ये लोग आख़िरत में पहुँचेंगे तो उनपर एकाएक यह बात खुलेगी कि हम सबने बहुत-बड़ा धोखा खाया है। हर एक यह महसूस करेगा कि जिसे मैं अपना बेहतरीन बाप, भाई, बीवी, शौहर, औलाद, दोस्त, साथी, लीडर, पीर, मुरीद, या हिमायती और मददगार समझ रहा था वह अस्ल में मेरा सबसे बुरा दुश्मन था। हर रिश्तेदारी व दोस्ती और अक़ीदत व मुहब्बत, दुश्मनी में बदल जाएगी। सब एक-दूसरे को गालियाँ देंगे, एक-दूसरे पर लानत करेंगे, और हर एक यह चाहेगा कि अपने जुर्मों की ज़्यादा-से-ज़्यादा ज़िम्मेदारी दूसरों पर डालकर उसे सख़्त-से-सख़्त सज़ा दिलवाए। यह बात भी क़ुरआन मजीद में जगह-जगह बयान की गई है जिसकी कुछ मिसालें नीचे दर्ज की गई आयतों में देखी जा सकती हैं— सूरा-2 बक़रा, आयत-167; सूरा-7 आराफ़, आयतें—37 से 39; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—21, 22; सूरा-23 मोमिनून, आयत-101; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—12, 13, 25; सूरा-31 लुक़मान, आयत-33; सूरा-33 अहज़ाब, आयतें—67, 68; सूरा-34 सबा, आयतें—31 से 33; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-18; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—27 से 33; सूरा-38 सॉद, आयतें—59 से 61; सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-29; सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-67; सूरा-44 दुख़ान, आयत-41; सूरा-70 मआरिज, आयतें—10 से 14; सूरा-80 अ-ब-स, आयतें—34 से 37।
21. अल्लाह पर ईमान लाने से मुराद सिर्फ़ यह मान लेना नहीं है कि अल्लाह मौज़ूद है, बल्कि उस तरीक़े से ईमान लाना मुराद है जिस तरह अल्लाह ने ख़ुद अपने रसूल और अपनी किताब के ज़रिए से बताया है। इस ईमान में रिसालत (पैग़म्बरी) पर ईमान और किताब पर ईमान आप-से-आप शामिल है। इसी तरह नेक अमल से मुराद भी हर वह अमल नहीं है जिसे आदमी ने ख़ुद नेकी समझकर या इनसानों के किसी ख़ुद के गढ़े हुए अख़लाक़ के मेयार (पैमाने) की पैरवी करते हुए अपना लिया हो, बल्कि इससे मुराद वह नेक अमल है जो ख़ुदा के भेजे हुए क़ानून के मुताबिक़ हो। लिहाज़ा किसी को यह ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए कि रसूल और किताब के वासिते के बिना अल्लाह को मानने और नेक अमल करने के वे नतीजे हैं जो आगे बयान हो रहे हैं। क़ुरआन मजीद को जो शख़्स भी सोच-समझकर पढ़ेगा उससे यह बात छिपी न रहेगी कि क़ुरआन के मुताबिक़ इस तरह के किसी ईमान का नाम अल्लाह पर ईमान, और किसी अमल का नाम नेक अमल सिरे से है ही नहीं।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَآ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِ خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 9
(10) और जिन लोगों ने कुफ़्र किया है और हमारी आयतों को झुठलाया22 वे जहन्नम के बाशिन्दे होंगे जिसमें वे हमेशा रहेंगे और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
22. ये अलफ़ाज़ ख़ुद कुफ़्र के मतलब को बयान कर देते हैं। अल्लाह की किताब की आयतों को अल्लाह की आयतें न मानना, और उन हक़ीक़तों को न मानना जो उन आयतों में बयान की गई हैं, और उन हुक्मों की पैरवी से इनकार कर देना जो उनमें बयान हुए हैं, यही कुफ़्र है और इसके नतीजे वे हैं जो आगे बयान हो रहे हैं।
مَآ أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۗ وَمَن يُؤۡمِنۢ بِٱللَّهِ يَهۡدِ قَلۡبَهُۥۚ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 10
(11) कोई मुसीबत23 कभी नहीं आती, मगर अल्लाह की इजाज़त ही से आती है।24 जो शख़्स अल्लाह पर ईमान रखता हो, अल्लाह उसके दिल को हिदायत देता है,25 और अल्लाह को हर चीज़ का इल्म है।26
23. अब बात का रुख़ ईमानवालों की तरफ़ है। बात के इस सिलसिले को पढ़ते हुए यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि जिस ज़माने में ये आयतें उतरी हैं वे मुसलमानों के लिए सख़्त मुसीबतों का ज़माना था। मक्का से बरसों ज़ुल्म सहने के बाद ईमानवाले अपना सब कुछ छोड़-छाड़कर मदीना आ गए थे। और मदीना में जिन हक़-परस्तों ने उनको पनाह दी थी उनपर दोहरी मुसीबत आ पड़ी थी। एक तरफ़ उन्हें सैंकड़ों मुहाजिरों को सहारा देना था जो अरब के अलग-अलग हिस्सों से उनकी तरफ़ चले आ रहे थे, और दूसरी तरफ़ पूरे अरब के इस्लाम-दुश्मन उनके पीछे पड़ गए थे।
24. यह बात सूरा-57 हदीद, आयतें—22, 23 में भी गुज़र चुकी है और वहाँ हाशिए—39 से 42 में हम इसकी तशरीह कर चुके हैं। जिन हालात में और जिस मक़सद के लिए यह बात वहाँ कही गई थी, उसी तरह के हालात में और उसी मक़सद के लिए इसे यहाँ दोहराया गया है। जो हक़ीक़त मुसलमानों के ज़ेहन में बिठानी मक़सद है वह यह है कि न मुसीबतें ख़ुद आ जाती हैं, न दुनिया में किसी की यह ताक़त है कि अपने इख़्तियार से जिस पर जो मुसीबत चाहे डाल दे। इसका दारोमदार तो सरासर अल्लाह की मरज़ी पर है कि किसी पर कोई मुसीबत आने दे या न आने दे। और अल्लाह का हुक्म बहरहाल किसी-न-किसी मस्लहत की बुनियाद पर होता है जिसे इनसान न जानता है न समझ सकता है।
25. यानी मुसीबतों की भीड़ में जो चीज़ इनसान को सीधी राह पर क़ायम रखती और किसी सख़्त-से-सख़्त हालत में भी उसके क़दम डगमगाने नहीं देती वह सिर्फ़ अल्लाह पर ईमान है। जिसके दिल में ईमान न हो वह आफ़तों को या तो इत्तिफ़ाक़ों का नतीजा समझता है, या दुनियावी ताक़तों को उनके लाने और रोकने में असरदार मानता है, या उन्हें ऐसी ख़याली (काल्पनिक) ताक़तों का अमल समझता है जिन्हें इनसानी वहमों (अंधविश्वासों, ख़यालात) ने फ़ायदा और नुक़सान पहुँचाने की क़ुदरत रखनेवाला मान लिया है, या ख़ुदा को सब कुछ करनेवाला मानता तो है, मगर सही ईमान के साथ नहीं मानता। इन तमाम अलग-अलग सूरतों में आदमी थुड़दिला होकर रह जाता है। एक ख़ास हद तक तो वह मुसीबत सह लेता है, लेकिन उसके बाद वह घुटने टेक देता है। हर आस्ताने पर झुक जाता है। हर बेइज़्ज़ती क़ुबूल कर लेता है। हर घटिया हरकत कर सकता है। हर ग़लत काम करने पर आमादा हो जाता है। ख़ुदा को गालियाँ देने से भी नहीं चूकता। यहाँ तक कि ख़ुदकुशी तक कर गुज़रता है। इसके बरख़िलाफ़ जो शख़्स यह जानता और सच्चे दिल से मानता हो कि सब कुछ अल्लाह के हाथ में है और वही इस कायनात का मालिक और बादशाह है, और उसी के हुक्म से मुसीबत आती और उसी के हुक्म से टल सकती है, उसके दिल को अल्लाह सब्र, तसलीम करने और तक़दीर के फ़ैसले पर राज़ी रहने की तौफ़ीक़ देता है, उसको हौसले और हिम्मत के साथ हर तरह के हालात का मुक़ाबला करने की ताक़त देता है। बुरे-से-बुरे हालात में भी उसके सामने अल्लाह के फ़ज़्ल (मेहरबानी) की उम्मीद का चराग़ रौशन रहता है, और कोई बड़ी-से-बड़ी आफ़त भी उसकी हिम्मत को इतना नहीं तोड़ देती कि वह सीधी राह से हट जाए, या बातिल (असत्य) के आगे सर झुका दे, या अल्लाह के सिवा किसी और के दर पर अपने दर्द का इलाज ढूँढ़ने लगे। इस तरह हर मुसीबत उसके लिए और ज़्यादा भलाई के दरवाज़े खोल देती है और कोई मुसीबत भी हक़ीक़त में उसके लिए मुसीबत नहीं रहती, बल्कि नतीजे के एतिबार से सरासर रहमत बन जाती है, क्योंकि चाहे वह उसका शिकार होकर रह जाए या उससे सही-सलामत गुज़र जाए, दोनों सूरतों में वह अपने रब की डाली हुई आज़माइश से कामयाब होकर निकलता है। इसी चीज़ को बुख़ारी और मुस्लिम की एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से इस तरह बयान किया है— "मोमिन का मामला भी अजीब है। अल्लाह उसके हक़ में जो फ़ैसला भी करता है वह उसके लिए अच्छा ही होता है। मुसीबत पड़े तो सब्र करता है, तो वह उसके लिए अच्छा होता है। ख़ुशहाली मिले तो शुक्र करता है, तो वह भी उसके लिए अच्छा ही होता है। यह बात मोमिन के सिवा किसी को नसीब नहीं होती।"
26. बात के इस सिलसिले में इस बात के दो मतलब हो सकते हैं एक यह कि अल्लाह को मालूम है कि कौन शख़्स सचमुच ईमान रखता है और किस शान का ईमान रखता है। इसलिए वह अपने इल्म की बुनियाद पर उसी दिल को हिदायत देता है जिसमें ईमान हो, और उसी शान की हिदायत देता है जिस शान का ईमान उसमें हो। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि अपने मोमिन बन्दों के हालात से अल्लाह बेख़बर नहीं है। उसने ईमान की दावत देकर, और इस ईमान के साथ दुनिया की सख़्त आज़माइशों में डालकर उन्हें उनके हाल पर छोड़ नहीं दिया है। वह जानता है कि किस मोमिन पर दुनिया में क्या कुछ गुज़र रही है और वह किन हालात में अपने ईमान के तक़ाज़े किस तरह पूरे कर रहा है। इत्मीनान रखो कि जो मुसीबत भी अल्लाह के हुक्म से तुमपर आती है, अल्लाह के इल्म में ज़रूर उसकी कोई बड़ी मस्लहत होती है और उसके अन्दर कोई बड़ी भलाई छिपी होती है, क्योंकि अल्लाह अपने मोमिन बन्दों का भला चाहनेवाला है, बेवजह उन्हें मुसीबतों में मुब्तला करना नहीं चाहता।
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَۚ فَإِن تَوَلَّيۡتُمۡ فَإِنَّمَا عَلَىٰ رَسُولِنَا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 11
(12) अल्लाह का हुक्म मानो और रसूल का हुक्म मानो। लेकिन अगर तुम फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ते हो तो हमारे रसूल पर साफ़-साफ़ हक़ पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।27
27. बात के सिलसिले के लिहाज़ से इस बात का मतलब यह है कि अच्छे हालात हों या बुरे हालात, हर हाल में अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी पर क़ायम रहो। लेकिन अगर मुसीबतों की भीड़ से घबराकर तुम फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ गए तो अपना ही नुक़सान करोगे। हमारे रसूल पर तो सिर्फ़ यह ज़िम्मेदारी थी कि सीधी राह तुमको ठीक-ठीक बता दे, इसलिए उसका हक़ रसूल ने अदा कर दिया है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 12
(13) अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं, लिहाज़ा ईमान लानेवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।28
28. यानी ख़ुदाई के सारे इख़्तियारात अकेले अल्लाह तआला के हाथ में हैं। कोई दूसरा सिरे से यह इख़्तियार रखता ही नहीं है कि तुम्हारी अच्छी या बुरी तक़दीर बना सके। अच्छा वक़्त आ सकता है तो उसी के लाए आ सकता है, और बुरा वक़्त टल सकता है तो उसी के टाले टल सकता है। लिहाज़ा जो शख़्स सच्चे दिल से अल्लाह को अकेला ख़ुदा मानता हो उसके लिए इसके सिवा सिरे से कोई रास्ता ही नहीं है कि वह अल्लाह पर भरोसा रखे और दुनिया में एक मोमिन की हैसियत से अपना फ़र्ज़ इस यक़ीन के साथ अंजाम देता चला जाए कि ख़ैर बहरहाल उसी राह में है जिसकी तरफ़ अल्लाह ने रहनुमाई की है। इस राह में कामयाबी नसीब होगी तो अल्लाह ही की मदद और ताईद और तौफ़ीक से होगी, कोई दूसरी ताक़त मदद करनेवाली नहीं है और इस राह में अगर मुश्किलों और मुसीबतों और ख़तरों का सामना होगा तो उनसे भी वही बचाएगा, कोई दूसरा बचानेवाला नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ وَأَوۡلَٰدِكُمۡ عَدُوّٗا لَّكُمۡ فَٱحۡذَرُوهُمۡۚ وَإِن تَعۡفُواْ وَتَصۡفَحُواْ وَتَغۡفِرُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 13
(14) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम्हारी बीवियों और तुम्हारी औलाद में से कुछ तुम्हारे दुश्मन हैं, उनसे होशियार रहो। और अगर तुम अनदेखी कर दो और माफ़ कर दो तो अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।29
29. इस आयत के दो मतलब हैं : एक मतलब के लिहाज़ से यह उन बहुत-सी मुश्किलों पर चस्पाँ होती है जो ख़ुदा की राह पर चलने में बहुत-से ईमानवालों को अपनी बीवियों से और औरतों को अपने शौहरों से और माँ-बाप को अपनी औलाद से पेश आती हैं। दुनिया में कम ही ऐसा होता है कि एक मर्द को ऐसी बीवी और एक औरत को ऐसा शौहर मिले जो ईमान और सच्चाई पर चलने में पूरी तरह एक-दूसरे के साथी और मददगार हों, और फिर दोनों को औलाद भी ऐसी मिले जो अक़ीदे व अमल और अख़लाक़ व किरदार के एतिबार से उनके लिए आँखों की ठंडक बने। वरना आम तौर पर होता यह है कि शौहर अगर नेक और ईमानदार है तो बीवी और औलाद उसे ऐसी मिलती है जो उसकी ईमानदारी और अमानतदारी और सच्चाई पर चलने को अपने हक़ में बदक़िस्मती समझती है और यह चाहती है कि शौहर और बाप उनकी ख़ातिर जहन्नम मोल लें और उनके लिए हराम-हलाल का फ़र्क़ छोड़कर हर तरीक़े से ऐश व आराम और अल्लाह की खुली-छिपी नाफ़रमानी के सामान जुटाए। और इसके बरख़िलाफ़ बहुत बार एक नेक ईमानवाली औरत को ऐसा शौहर मिल जाता है जिसे उसकी शरीअत की पाबन्दी एक आँख नहीं भाती, और औलाद भी बाप के नक़्शे क़दम पर चलकर अपनी गुमराही और बदकिरदारी से माँ की ज़िन्दगी दूभर कर देती है। फिर ख़ास तौर से जब कुफ़्र और दीन की कश्मकश में एक इनसान के ईमान का तक़ाज़ा यह होता है कि अल्लाह और उसके दीन की ख़ातिर नुक़सानात बरदाश्त करे, तरह-तरह के ख़तरे मोल ले, देश छोड़कर हिजरत कर जाए, या जिहाद में जाकर अपनी जान तक जोखिम में डाल दे, तो सबसे बढ़कर उसकी राह में उसके बीवी-बच्चे और घरवाले ही रुकावट बनते हैं। दूसरे मतलब का ताल्लुक़ उन ख़ास हालात से है जो इन आयतों के उतरने के ज़माने में बहुत-से मुसलमानों को पेश आ रहे थे और आज भी हर उस शख़्स को पेश आते हैं जो किसी ग़ैर-मुस्लिम समाज में इस्लाम क़ुबूल करता है। उस वक़्त मक्का में और अरब के दूसरे हिस्सों में आम तौर पर यह सूरत पेश आती थी कि एक मर्द ईमान ले आया है, मगर बीवी-बच्चे न सिर्फ़ इस्लाम क़ुबूल करने को तैयार नहीं हैं, बल्कि ख़ुद उसको इस्लाम से फेर देने के लिए कोशिश कर रहे हैं। और ऐसे ही हालात से उन औरतों को सामना होता था जो अपने ख़ानदान में अकेली इस्लाम क़ुबूल करती थीं। ये दोनों तरह के हालात जिन ईमानवालों को पेश आएँ उन्हें मुख़ातब करते हुए तीन बातें कही गई हैं— सबसे पहले उन्हें ख़बरदार किया गया है कि दुनिया के रिश्ते के लिहाज़ से अगरचे ये लोग वे हैं जो इनसान को सबसे ज़्यादा प्यारे होते हैं, लेकिन दीन के लिहाज़ से ये तुम्हारे 'दुश्मन' हैं। यह दुश्मनी चाहे इस हैसियत से हो कि वे तुम्हें नेकी से रोकते और बुराई की तरफ़ माइल (आकृष्ट) करते हों, या इस हैसियत से कि वे तुम्हें ईमान से रोकते और कुफ़्र की तरफ़ खींचते हों, या इस हैसियत से हो कि उनकी हमदर्दियाँ इनकार करनेवालों के साथ हों और तुम्हारे ज़रिए से अगर कोई बात भी मुसलमानों के जंगी राज़ों के बारे में उनकी जानकारी में आ जाए तो उसे इस्लाम के दुश्मनों तक पहुँचा देते हों, इससे दुश्मनी की नौइयत और कैफ़ियत में तो फ़र्क़ हो सकता है, लेकिन बहरहाल यह है दुश्मनी ही, और अगर तुम्हें ईमान 'प्यारा हो तो इस लिहाज़ से तुम्हें उनको दुश्मन ही समझना चाहिए, उनकी मुहब्बत में गिरफ़्तार होकर कभी इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि तुम्हारे और उनके दरमियान ईमान और इनकार, या फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी की दीवार खड़ी है। इसके बाद कहा गया कि उनसे होशियार रहो। यानी उनकी दुनिया बनाने के लिए अपनी आख़िरत बरबाद न कर लो। उनकी मुहब्बत को कभी अपने दिल में इस हद तक न बढ़ने दो कि वे अल्लाह और रसूल के साथ तुम्हारे ताल्लुक़ और इस्लाम के साथ तुम्हारी वफ़ादारी में रुकावट बन जाएँ। उनपर कभी इतना भरोसा न करो कि तुम्हारी बे-एहतियाती से मुसलमानों की जमाअत के राज़ उन्हें मालूम हो जाएँ और वे दुश्मनों तक पहुँचें। यह वही बात है जिससे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ज़ैलई और इब्ने-हजर की एक हदीस में मुसलमानों को ख़बरदार किया है कि “एक शख़्स क़ियामत के दिन लाया जाएगा और कहा जाएगा कि इसके बाल-बच्चे इसकी सारी नेकियाँ खा गए।" आख़िर में कहा गया कि “अगर तुम अनदेखी कर दो और माफ़ कर दो तो अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।” इसका मतलब यह है कि उनकी दुश्मनी से तुम्हें सिर्फ़ इसलिए आगाह किया जा रहा है कि तुम उनसे होशियार रहो और अपने दीन को उनसे बचाने की फ़िक्र करो। इससे आगे बढ़कर इस तंबीह (चेतावनी) का मक़सद हरगिज़ यह नहीं है कि बीवी-बच्चों को मारने-पीटने लगो, या उनके साथ सख़्ती से पेश आओ, या उनके साथ ताल्लुक़ात में ऐसी कड़वाहट पैदा कर लो कि तुम्हारी और उनकी घरेलू ज़िन्दगी अज़ाब बनकर रह जाए। यह इसलिए कि ऐसा करने के दो नुक़सान बिलकुल साफ़ हैं। एक यह कि इससे बीवी-बच्चों के सुधार के दरवाज़े हमेशा के लिए बन्द हो जाने का ख़तरा है। दूसरे यह कि इससे समाज में इस्लाम के ख़िलाफ़ उलटी बदगुमानियाँ पैदा हो सकती हैं और आसपास के लोगों की निगाह में मुसलमान के अख़लाक़ और किरदार की यह तस्वीर बनती है कि इस्लाम क़ुबूल करते ही वह ख़ुद अपने घर में अपने बाल-बच्चों तक के लिए इन्तिहाई सख़्त और बदमिज़ाज बन जाता है। इस सिलसिले में यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि इस्लाम के शुरू में जब लोग नए-नए मुसलमान होते थे तो उनको एक मुश्किल उस वक़्त पेश आती थी जब उनके माँ-बाप ग़ैर-मुस्लिम होते थे और वे उनपर दबाव डालते थे कि इस नए दीन से फिर जाएँ। और दूसरी मुश्किल उस वक़्त पेश आती जब उनके बीवी-बच्चे (या औरतों के मामले में उनके शौहर और बच्चे) कुफ़्र पर क़ायम रहते और सच्चे दीन (इस्लाम) की राह से उन्हें फेरने की कोशिश करते थे। पहली सूरत के बारे में सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-8 और सूरा-31 लुक़मान, आयतें—14, 15 में यह हिदायत दी गई कि दीन के मामले में माँ-बाप की बात हरगिज़ न मानो, अलबत्ता दुनिया के मामलों में उनके साथ अच्छा सुलूक करते रहो। दूसरी सूरत का हुक्म यहाँ बयान किया गया है कि अपने दीन को तो अपने बाल-बच्चों से बचाने की फ़िक्र ज़रूर करो, मगर उनके साथ सख़्ती का बरताव न करो, बल्कि नर्मी और माफ़ी से काम लो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, आयतें—23, 24; सूरा-58 मुजादला, हाशिया-37; सूरा-60 मुम्तहिना, हाशिए—1 से 3; सूरा-63 मुनाफ़िकून, हाशिया-18)
إِنَّمَآ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَأَوۡلَٰدُكُمۡ فِتۡنَةٞۚ وَٱللَّهُ عِندَهُۥٓ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 14
(15) तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद तो एक आज़माइश हैं, और अल्लाह ही है जिसके पास बड़ा अज्र (बदला) है।30
30. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिया-23। इस मौक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का यह फ़रमान भी निगाह में रहना चाहिए जिसे तबरानी ने हज़रत अबू-मालिक अशअरी (रज़ि०) से रिवायत किया है कि “तेरा अस्ल दुश्मन वह नहीं है जिसे अगर तू क़त्ल कर दे तो तेरे लिए कामयाबी है और वह तुझे क़त्ल कर दे तो तेरे लिए जन्नत है, बल्कि तेरा अस्ल दुश्मन, हो सकता है कि तेरा अपना वह बच्चा हो जो तेरे ही ख़ून से पैदा हुआ है, फिर तेरा सबसे बड़ा दुश्मन तेरा वह माल है जिसका तू मालिक है।” इसी लिए अल्लाह तआला ने यहाँ भी और सूरा-8 अनफ़ाल में भी यह फ़रमाया है कि अगर तुम माल और औलाद के फ़ितने से अपने-आपको बचा ले जाओ और उनकी मुहब्बत पर अल्लाह की मुहब्बत को ग़ालिब रखने में कामयाब रहो, तो तुम्हारे लिए अल्लाह के यहाँ बहुत बड़ा अज्र (बदला) है।
فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُمۡ وَٱسۡمَعُواْ وَأَطِيعُواْ وَأَنفِقُواْ خَيۡرٗا لِّأَنفُسِكُمۡۗ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفۡسِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 15
(16) लिहाज़ा जहाँ तक तुम्हारे बस में हो अल्लाह से डरते रहो,31 और सुनो और हुक्म पर अमल करो, और अपने माल ख़र्च करो, यह तुम्हारे ही लिए बेहतर है। जो अपने दिल की तंगी से महफ़ूज़ रह गए बस वही कामयाबी पानेवाले हैं।32
31. क़ुरआन मजीद में एक जगह कहा गया है, “अल्लाह से ऐसा डरो जैसा कि उससे डरने का हक़ है,” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-102)। दूसरी जगह फ़रमाया, “अल्लाह किसी जान पर उसकी ताक़त से बढ़कर ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं डालता,” (सूरा-2 बक़रा, आयत-286)। और यहाँ कहा जा रहा है कि “जहाँ तक तुम्हारे बस में हो अल्लाह से डरते रहो।” इन तीनों आयतों को मिलाकर ग़ौर कीजिए तो मालूम होता है कि पहली आयत वह पैमाना हमारे सामने रख देती है जिस तक पहुँचने की हर मोमिन को कोशिश करनी चाहिए। दूसरी आयत यह उसूली बात हमें बताती है कि किसी शख़्स से भी उसकी बरादश्त से ज़्यादा काम करने की माँग नहीं की गई है, बल्कि अल्लाह के दीन में आदमी बस उतने ही का ज़िम्मेदार है जिसकी वह ताक़त रखता हो। और यह आयत हर मोमिन को हिदायत करती है कि वह अपनी हद तक तक़वा (परहेज़गारी) की कोशिश में कोई कसर उठा न रखे। जहाँ तक भी उसके लिए मुमकिन हो, उसे अल्लाह तआला के हुक्म पूरे करने चाहिएँ और उसकी नाफ़रमानी से बचना चाहिए। इस मामले में अगर वह ख़ुद ढिलाई से काम लेगा तो पकड़ से न बच सकेगा। अलबत्ता जो चीज़ उसकी ताक़त से बाहर होगी (और इसका फ़ैसला अल्लाह ही बेहतर तौर से कर सकता है कि क्या चीज़ किसकी क़ुदरत से सचमुच बाहर थी), उसके मामले में उससे पूछ-गछ न की जाएगी।
32. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-59 हश्र, हाशिया-19।
إِن تُقۡرِضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗا يُضَٰعِفۡهُ لَكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ شَكُورٌ حَلِيمٌ ۝ 16
(17) अगर तुम अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दो तो वह तुम्हें कई गुना बढ़ाकर देगा33 और तुम्हारे कुसूरों को माफ़ कर देगा, अल्लाह बड़ा क़द्रदान और सहन करनेवाला है।34
33. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-267; सूरा-5 माइदा, हाशिया-33; सूरा-57 हदीद, हाशिया-16।
34. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-35 फ़ातिर, हाशिए—52, 59; सूरा-42 शूरा, हाशिया-42।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 17
(18) हाज़िर और ग़ायब हर चीज़ को जानता है, ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।